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________________ ९८० गो० कर्मकाण्डे उच्चग्र्गोत्रमनुल्लनमं माडिद तेजस्कायिक जीवनोळं वायुकायिकजीवनोळं नीचैर्गोत्रमे सत्त्वमक्कुं। तु मत्ते शेपैकेंद्रियविकलेंद्रिय सकलेंद्रियंगळोळ नोचैग्गोत्र सत्त्वमुमुभयसत्त्वमुमक्कुमतदोर्ड: उच्चुव्बेल्लिदतेऊ वाऊ सेसे य वियलसयलेसु । उप्पण्णपढमकाले णीचं एयं हवे सत्तं ॥६३७।। उच्चोल्लिततेजोवायू शेषैकविकलसकलेषत्पन्न प्रथमकाले नीचमेकं भवेत्सत्त्व ॥ उच्चैग्ोत्रमनुद्वेल्लनमं माडिद तेजोवायुकायिक जीवंगळु शेषैकेंद्रियविकलेंद्रिय सकलेंद्रिय जीवंगळोळु जनियिसिद प्रथमकालमंतर्मुहूर्तपय॑तं नोचैर्गोत्रमेकमे सत्वमक्कु-। मल्लिदं मेले उच्चैर्गोत्रमं कट्टिदोडुभयसत्त्वमक्कुम बुदत्थ-। मी भंगंगळ गुणस्थानदो योजिसिदपरु : मिच्छादिगोदभंगा पण चदु तिसु दोण्णि अट्ठठाणेसु । एक्केक्का जोगिजिणे दो भंगा होति णियमेण ॥६३८॥ मिथ्यादृष्टयादिगोत्रभंगाः पंचचतुस्त्रिषु द्वावष्टस्थानेष्वेकैके योगिजिने द्वौ भंगौ भवतो नियमेन ॥ नीचबंधनीचोदयोभयसत्त्व १। नीचबंधोच्चोदयोभयसत्त्व । उच्चबंधोच्चोदयोभयसत्त्व १॥ १५ उच्चबंधनीचोदयोभयसत्त्व १। नीचबंधनीचोदयनीचसत्त्व १-। मितु मिथ्यादृष्टियोळ पंचगोत्र भंगंगळप्पुवु । सासादननोळमी पेळ्द मिथ्यादृष्टिय पंचभंगंगळोळ चरमभंगमं बिटु शेष उच्चोद्वेल्लिततेजोवाय्वोस्तु सत्त्वं नीचमेव स्यात् । तु-पुनः शेषकविकलसकलेन्द्रियेषु सत्त्वं नीचं चोभयं च स्यात् ॥६३६॥ तद्यथा उच्चोद्वेल्लिततेजोवाय्वोस्तदागतशेषकविकलेन्द्रियेषूत्पन्नप्रथमकालान्तमुहूर्ते चैकं नीचमेव सत्त्वं स्यात् । २० उपर्यच्चं बध्नाति तदोभयसत्त्वं स्थादित्यर्थः ॥६३७॥ गोत्रस्य भंगाः गुणस्यानेषु नियमेन मिथ्यादृष्टौ नीचबन्धोदयोभयसत्त्वं । नीचबन्धोच्चोदयोभयसत्त्वं, उच्चबन्धोदयोभयसत्त्वं, उच्चबन्धनीचोदयोभयसत्वं नीचबन्धोदयसत्वं चेति पंच भवन्ति । सासादने चरमो २५ जिनके उच्चगोत्रकी उद्वेलना हुई है उन तेजकाय, वायुकायमें नीच गोत्रका ही सत्त्व है। शेष एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सकलेन्द्रियके सत्त्व नीचका अथवा दोनोंका है ॥६३६।। उच्चगोत्रकी उद्वेलना करनेवाले तेजकाय, वायुकायमें एक नीच गोत्रका ही सत्त्व है। वे मरकर जहां उत्पन्न होते हैं उन एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सकलेन्द्रिय तियंचोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम अन्तमुहूर्त में एक नीचका ही सत्व होता है। आगे उच्चको बाँधनेपर दोनोंका सत्त्व होता है ॥६३७॥ नियमसे गुणस्थानों में गोत्रके भंग इस प्रकार हैं मिथ्यादृष्टि में नीचका बन्ध, नीचका उदय, दोनोंका सत्त्व, १ नीचका बन्ध, उच्चका उदय, सत्त्व दोनोंका २, उच्चका बन्ध, उच्चका उदय, सत्त्व दोनोंका ३, उच्चका बन्ध, नीचका उदय, सत्त्व दोनोंका ४, अथवा नीचका ही बन्ध उदय सत्त्व ५, इस तरह पाँच भंग हैं। सासादनमें नीचका बन्ध उदय सत्वरूप अन्तिम भंग नहीं है, क्योंकि सासादन ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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