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________________ ११९० गो० कर्मकाणे पुनः मत्ते पदभंगाः पदभंगंगळु द्विविधाः द्विविधंगळक्कुं। एतवोर्ड जातिपवभंगंगळे सव्वंपदभवभंगंगळमें वितल्लि जातिपदंगळप्प क्षायिकभावदोळ मिश्रभावदोळ पिंडपवभावं. गळोळ स्वसंयोगो भवति स्वसंयोगमक्कुं॥ अयदुवसमगचउक्के एक्कं दो उबसमस्स जातिपदो। खइयपदं तत्थेक्कं खवगे जिणसिद्धगेसु दुपणचदू ।।८४५।। असंयतोपशमक चतुष्के एक द्वे उपशमस्य जातिपदानि । क्षायिकपदं तत्रैकं क्षपके जिनसिद्धेषु द्विपंचचत्वारि ॥ ___ असंयतादिचतुष्कदल्लियुमुफामकचतुष्कदोळु मुपशमद जातिपदंगळु क्रमदिदं असंयत चतुष्कदोळपशशमसम्यक्त्वजातिपदमेकमकु-। मुपशमकरोलुपशमसम्यक्त्वमुमुपशमचारित्रमु१. मेंबरडं जातिपदंगळक्कुं। तत्र आ अ संयतादिचतुष्कदोळ मुपसमा चतुष्कदोळं क्षायिक जाति पदमो दे क्षायिकसम्यक्त्वमकुं। क्षपकचतुष्कदोळं सयोगायोगिजिनरोळं सिद्धरोळं यथाक्रमदिवं क्षायिकजातिपदमेरडं अम्, नाल्कुमप्पुवु ॥ पुनः अनन्तरं पदभंगा उच्यन्ते ते च जातिपदभंगाः सर्वपदभंगाश्चेति द्विविधाः। तत्र जातिपदरूपक्षायिकभावमिश्रभावपिंडपदभावेषु स्वसंयोगो भवति ।।८४४॥ - उपशमस्य जातिपदान्यसंयतादिचतुष्के उपशमसम्यक्त्वमित्येकं । उपशम चतुष्के उपशमसम्यक्त्वचारित्रे द्वे । क्षायिकजातिपदानि तदुभयचतुके क्षायिकसम्यक्त्वं । क्षाकचतुष्के द्वे । सयोगायोगयोः पंच। सिद्ध चत्वारि ॥८४५॥ इस प्रकार स्थान भंगको कहकर पदभंग कहते हैं-पद भंगके दो भेद हैं-जातिपद भंग और सर्वपद भंग । जहाँ एक जातिका ग्रहण करके जो भंग किये जाते हैं उन्हें जातिपद भंग कहते हैं । जैसे मिश्र भावमें ज्ञानके चार भेद होते हुए भी एक ज्ञान जातिका ग्रहण करना । और जो जुदे-जुदे सब भावोंको ग्रहण करके भंग किये जायें उन्हें सर्वपद भंग जानना। उनमें जातिपद रूप क्षायिकभाव और मिश्रभावमें पिण्डपद रूप जो भाव हैं उनमें स्वसंयोगी भंग भी होते हैं । जैसे क्षायिक भावमें लब्धिके पाँच भेद हैं अतः लब्धि पिण्डपदरूप है। मिश्रभावमें ज्ञान अज्ञान दर्शन लब्धि पिण्डपदरूप हैं। सो इनमें जहाँ एक भेद होते अन्य भेद भी पाया जाता है जैसे दान होते लाभ पाया जाता है वहाँ स्वसंयोगी भी भंग २५ होते हैं ।।८४४॥ औपशमिक भावका जातिपद असंयत आदि चारमें सम्यक्त्वरूप एक ही है । उपशम श्रेणीके चार गुणस्थानों में सम्यक्त्व और चारित्र दो जातिपद हैं। क्षायिक भावके जातिपद असंयत आदि चारमें क्षायिक सम्यक्त्व रूप एक है। क्षपक श्रेणीके चार गुणस्थानोंमें सम्यक्त्व और चारित्र दो जातिपद हैं। सयोग और अयोगीमें सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, लब्धि ये पाँच हैं । सिद्धोंमें चारित्रके बिना चार हैं ।।८४५।। १५ ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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