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________________ ७८४ गो० कर्मकाण्डे | असं म साके ती|के सास वीस अदे | २९ ३० ३०/----- ३०/३११२९/२८१ ११ १८८१ २९ २९ | २९ ४६०८४६०८ तित्थेणाहारदुर्ग एक्कसराहेण बंधमेदीदी । पक्खित्ते ठाणाणं पयडीणं होदि परिसंखा ।।५२९।। तोनाहारकद्विकं युगपबंधमेतीति । प्रक्षिप्ते स्थानानां प्रकृतीनां भवति परिसंख्या ॥ तीर्थदोडनाहारकद्वयं युगपबंधमनेय्दुगुम दितु सामान्यत्रयोविंशति प्रकृतिगळ मेले योग्य५ प्रकृतिगळं प्रक्षेपिसुत्तं विरलु स्थानंगळ संख्येयं प्रकृतिगळ संख्ययुमक्कुमदेतेंदोर्ड गाथाद्वर्यादिदं पेदपरु : एयक्ख अपज्जत्तं इगिपज्जत्तबितिचपणराऽपज्जत्तं । एइंदियपज्जत्तं सुरणिरयगईहि संजुत्तं ॥५३०॥ एकेंद्रियापर्याप्तं एकेन्द्रियपर्याप्त बिति च प नरापर्याप्नं । एकेंद्रियपर्याप्तं सुरनरक१० गतिभ्यां संयुक्तं ॥ पज्जत्तगबिदिचप-मणुस्स-देवगदिसंजुदाणि दोणि पुणो । सुरगइजुदमगइजुदं बंधट्टाणाणि णामस्स ॥५३१॥ पर्याप्तक बितिचप मनुष्यदेवगतिसंयते द्वे पुनः । सुरगतियुतमगतियुतं बंधस्थानानि नाम्नः॥ १५ माहारकद्वयं च बंधयोग्यं भवति ॥५२६-५२८॥ तीर्थेन सहाहारकद्वयं युगपद् बंधमेति तेन सामान्यत्रयोविंशती योग्यप्रकृतिप्रक्षेपे स्थानसंख्या प्रकृतिसंख्या च स्यात् ॥५२९॥ तामेव गाथाद्वयेनाहयोग्य नामपदमें ही आतपनाम, उद्योतनाम, तीर्थंकर और आहारकद्विक बन्धयोग्य हैं ।।५२६-५२८॥ तीर्थकरके साथ आहारद्विकका भी एक साथ बन्ध होता है। अतः पूर्वोक्त सामान्य तेईस प्रकृतियोंके बन्धमें यथायोग्य प्रकृतियाँ मिलानेपर स्थानोंकी और प्रकृतियोंकी संख्या होती है ।।५२९ोगाथाओंसे कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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