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________________ १०२० गो० कर्मकाण्डे चउरुदयुवसंतसे णवबंधो दोण्णि उदयपुव्वंसे । तेरसतियसत्तेवि य पणचउठाणाणि बंधस्स ॥६८९॥ चतुरुदयोपशांतांशे नवबंधो द्वयुदयपूर्वाशे। त्रयोदशत्रयसत्वेऽपि च पंचचतुःस्थानानि बंधस्य ॥ चतुःप्रकृत्युदयमुमुपशांतकषायसत्वस्थानंगळोळु नवप्रकृतिबंधमक्कु ते दोडा चतुःप्रकृत्युदयापूर्वकरणोपशमकक्षपकरुगळगे उपशमश्रेणियोळा त्रिस्थानंगळं क्षपकश्रेणियोळेकविंशति सत्वस्थानं संभविसुगुमल्लि नवबंधकनक्कुम बुदत्यं । द्विप्रकृत्युदयमुमष्टाविंशत्याविषट्स्थानंगळुम. निवृत्तिकरणोपशमकक्षपकगळोळ संभविसुगुमल्लि पंचप्रकृतिबंधस्थानमुं चतुःप्रकृतिबंधस्थान मक्कुमेत दोडे उपशमश्रेणियोल सवेदभागानिवृत्तिकरणरोळु पुंवेदोक्य चरमसमयपथ्यंतं अष्टाविं. १० शति आदि त्रिस्थानंगळ सत्वमुं पंचप्रकृतिबंधमुमक्कुं। पंडस्लीवेदोक्यंगळिंदमुपशमश्रेण्यारूढरुग लोळा त्रिस्थानसत्वमुं चतुब्बंधकत्वमुमक्कुं। क्षपक श्रेणियोल द्विप्रकृत्युदयमुमेकविंशतिसत्वस्थानमं त्रयोदशसत्वस्यानमुं द्वादशसत्वस्थान मुमेकादशसत्वस्थानमुं क्रमदिदमष्टकषाय नपुंसकवेद स्त्रीवेदंगळं क्षपिसि पुंवेदानिवृत्तिकरणनोल सत्वमप्पुवल्लि सर्वत्र पंचबंधकनेयक्कु । मितरवेदोदययुत. त्रयोदशादि विस्थानसत्वयुतरोळु चतुब्बंधमुमक्कुम बुदत्यं । एक्कुदयुवसंतसे बंधो चतुरादिचारि तेणेव । एयारदु चदुबंधो चदुरंसे चदुतियं बंधो ॥६९०॥ एकोवयोपशांताशे बंधश्चतुराविबंधश्चतुर्णा तेनैवेकादशद्वये चतुबंधश्चतुरंशे चतुस्तिकं बंध॥ १५ त्रयोदशकबन्धः । पंचकोदयप्रमत्ताप्रमत्ते च नवकबन्धः स्यात् ॥६८८॥ ___ चतुष्कोदयोभयापूर्वकरणे उपशांतकषायसत्त्वे नवबन्धः। द्विकोदये सवेदानिवृत्तिकरणे तत्सत्त्वे पुंवेदोदयचरमसमयपयंतं पंचकबन्धः । षंढस्त्रीवेदोदयारूढे तु चतुष्कबन्धः । क्षाकेऽष्टकषायषंढस्त्रीपुंक्षपणाभागेष्वेकविंशतिकत्रिद्वयेकाग्रदशकसत्त्वेषु पंचकबन्धः । इतरवेदोदययुतत्रयोदशकादिद्वितत्त्वे तु चतुष्कबन्धः ॥६८९॥ तेईसका सत्व होनेपर, मिश्रमोहनीयको भयकर बाईसका सत्त्व होनेपर देशसंयसमें तेरहका बन्धस्थान है । पाँचके उदय सहित प्रमत्त अप्रमत्तमें नौका बन्ध है ॥६८८॥ २५ चारके उदयसहित दोनों श्रेणिके अपूर्वकरणमें उपशान्त कषायमें पाये जानेवाले अठाईस चौबीस इक्कीसके सत्त्वमें नौका बन्ध है। दोके उदय सहित सवेद अनिवृत्तिकरणमें उक्त तीनका सत्त्व होते पुरुषवेदके उदयके चरम समय पर्यन्त पाँचका बन्ध है। सक और स्त्रीवेदके उदयके साथ श्रेणी चढनेवालेके चारका बन्ध है। क्षपक श्रेणी में आठ कषाय, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, पुरुषवेदके क्षपणरूप भागों में इक्कीस तेरह बारह ग्यारह३० का सत्त्व होते पाँवका बन्ध है। अन्यवेदके उदयसहित तेरह बारहका सत्त्व होते चारका बन्ध है ॥६८९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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