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________________ ८२२ गो० कर्मकाण्डे मिल्ले' ब नियममुं टप्पुर्दारवं । तिय्यंग्मनुष्यकार्म्मण काययोगिगळध्य सासादनरु सवें केंद्रियबावरसूक्ष्मपर्याप्तापर्य्याप्रयुतंगळप्प त्रयोविंशति पंचविशति षड्वशति नरकगतिदेवगतियुताष्टात्र अति द्वींद्रियादिविकलत्रयत नवविंशति त्रिंशत्प्रकृतिस्थानंगळं पोरगागि शेषतिथ्यंवपंचेंद्रियमनुष्यगतितंगळप्प नववंशतित्रिंशत् स्थानद्वयमने कट्टुबरु । सासादनंगे देवगतियुताष्टाविंशतिबंधस्थानं ५ विशेषमल्लप्पुरमेर्क सासादननोळु तदुबंघस्थानं निषेधिसल्पटुवेंदोडे मिच्छ्रगे देवचऊ तित्यं ण हि एंदितु कार्म्मण काययोगिगळप्प मिथ्यादृष्टि सासादनरुगळगे औवारिक निकाययोगिगळो पेवं ते निषेधमुंटपुर्दारवं तद्बंधमिल्ल । तिर्य्यग्मनुष्य काणकाययोना संयतसम्यग्दृष्टि. गळ देवगतियुताष्टाविंशतिस्थानमुं मनुष्यकाम्मंण काययोगासंयत सम्यग्दृष्टियोळे देवगतितीर्थयुत नववंशतिस्थानबंधमक्कु । मितु पंचदशयोगंगळोळु नामकर्म्मबंधस्थानंगल योजितल्पदृवु ॥ वेदकषायेषु सव्वं पुंवेदस्त्रीवेदषंढवेव त्रितयदोळं क्रोधमानमाय लोभकषायचतुष्टयबोळं त्रयोविंशतिस्थानमादियागि सर्व्वनामकर्म्मप्रकृतिस्थानंगळे टुं बंधंगळप्पुवु । वे ३ । क ४ | बंध २३ । ए अ । २५ । एप । त्र अ । २६ । एप । अ । उ । २८ । न । दे । २९ । बि । ति । च । पति । म । देति । ३० । बि । ति । च । पति । उ । मति । दे आ । ३१ । दे ति आ । १ । १० वजितशेष तिर्यक्पंचेंद्रिय मनुष्यगदियुतनवविंशतिकत्रिशतके द्वे । देवगत्यष्टाविंशतिकाभावस्तु 'मिच्छदुगे देवचऊ १५ तित्यं णहीति वचनात् । तिर्यग्मनुष्यकार्मणयोगासंयते तच्च तन्मनुष्ये देवगतितीर्थयुतनवविंशतिकं च । त्रिषु वेदेषु चतुर्षु क्रोधादिषु च सर्वाणि षंढे नवविंशतिकद्वयं त्वाद्यनरकं प्रति तिर्यग्गतौ एकेंद्रिय बादरसूक्ष्मा पर्याप्ततत्रयोविंशतिकं एकेंद्रियबादर सूक्ष्मपर्याप्तयुतत्र सापर्यातद्वित्रिचतुः पंचेंद्रिय तिर्यग्गतिमनुष्यगतियुत पंचविशतिकं एकेंद्रियबादरपर्याप्तातपोद्योतयुतषडविंशतिकं तिर्यग्मनुष्यगतिपर्याप्तनवविंशतिकं, तिर्यग्गतिपर्याप्तोद्योतयुतत्रिंशत्कं अठाईस तथा विकलत्रय सहित उनतीस तीसको छोड़ शेष तिर्यंच पंचेन्द्रिय या मनुष्यगति २० सहित उनतीस और तीसके दो बन्धस्थान होते हैं । यहाँ देवगति सहित अठाईसके स्थानका अभाव है क्योंकि 'मिच्छदुगे देवचऊ तित्थंणहि ' ऐसा कथन है । कार्माण सहित तिर्यच मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टिके देवगति सहित अठाईसका स्थान और कार्माण सहित मनुष्य असंयतमें देवगति तीर्थंकर सहित उनतीसका भी स्थान होता है । २५ तीनों वेदों और चारों कषायोंमें सब बन्धस्थान होते हैं । विशेष इस प्रकार हैनपुंसकवेदमें उनतीस और तीसके स्थान आदिके तीन नरकों में होते हैं । नपुंसक वेद सहित तियंचगतिमें एकेन्द्रिय बादर सूक्ष्म अपर्याप्त सहित तेईसका, एकेन्द्रिय बादर सूक्ष्मपर्याप्त सहित पच्चीसका, त्रस अपर्याप्त दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तियंचगति मनुष्यगति सहित पच्चीसका एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त आतप उद्योत सहित छब्बीसका ३० तिर्यंच या मनुष्यगति पर्याप्तयुत उनतीसका, तियंचगति पर्याप्त उद्योत सहित तीसका स्थान होते हैं । तियंच पंचेन्द्रिय नपुंसक वेदीके नरक देवगति युत अठाईसका भी स्थान होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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