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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सासादन गुणस्थानदोलम संयत गुणस्थानदोळं प्रमत्तसंयत गुणस्थानदोळमल्लि सासादनवैक्रिfrefमश्रका योगदष्टवर्गमात्रस्थानविकल्पंगळप्पु । ६४ । असंयतन वैक्रियिक मिश्रकाणकाययोगदो षोडशवर्गप्रमितस्थानविकल्पंगळप्पु । २५६ । मत्तमसंयतनौदारिकमिश्रकायसासादनस्य वैक्रियिकमिश्रयोगे स्थानान्यष्टवर्गमात्राणि प्रकृतयो द्वादशाग्रपंचशती । कुतः ? षंढवेदवर्जित कूटस्थ २ २ । २ ० । १ । १ ४४४४ संजातचतुः स्थानद्वात्रिंशत्प्रकृतीनां ७ ८८ ९ ३२ १ २ । २ ०११ ४४४४ १ २ । २ ० । १ । १ ४ ४ ४ ४ Jain Education International ७४३ २ । २ ० ।१ ।१ ४ ४ ४ ४ षोडशभंगेर्गुणितत्वात् । असंयतस्य वैक्रियिकमिश्रकार्मणयोगयोः स्यानानि षोडशवर्गमात्राणि प्रकृतयो विंशत्यग्रे कानविंशतिशती । कुतः ? स्त्री वेदवजिततत्कूटसं जाताष्टस्थानषष्टिप्रकृतीनां | ७ ६ षोडशभंगयोंगयुग्मेन च गुणितत्वात् । पुनः असंयतस्यौदारिकमिश्रयोगे स्थाना ८८ ७/७ ९ ८ ३२ २८ यष्टवर्गमात्राणि प्रकृतयोऽशीत्यग्रचतुःशतो, कुतः ? स्त्रीपंढवेदवजितासंयताष्टकूटसं जाताष्टस्थानषष्टिप्रकृतीनां ७ ६ अष्टभंगेर्गुणितत्वात् । प्रमत्तसंयतस्याहारकद्वये स्थानान्यष्टाविंशत्यग्रशतं प्रकृतयश्चतुरग्रसप्त- १० टाट ७/७ ९ ८ ३२ २८ सासादनके वैक्रियिक मिश्रयोग में स्थान आठका वर्ग चौंसठ प्रमाण और प्रकृति पांच सौ बारह हैं । ये कैसे हैं ? इसका कथन करते हैं सासादनमें चार कूट किये थे । उनमें तीन वेदों में से एकका उदय कहा था । किन्तु यहाँ नपुंसकवेदके बिना दो वेदों में से एकका उदय जानना । सो नौरूप एक, आठरूप दो और सातरूप एक ये चार स्थान और बत्तीस प्रकृति । उनको चार कषाय, दो वेद और दो युगलोंसे हुए सोलह भंगों से गुणा करनेपर चौंसठ स्थान और पांच सौ बारह प्रकृति हुई । १५ असंयत के वैक्रियिक मिश्र और कार्मण योगमें पूर्वोक्त आठ कूटों में स्त्रीवेदके बिना दो वेदों में से एकका उदय जानना । इससे उन कूटोंमें आठ स्थान और साठ प्रकृतियोंको चार कपाय, दो वेद और दो युगलोंके सोलह भंगों से तथा दो योगोंसे गुणा करनेपर सोलहका वर्ग दो सौ छप्पन प्रमाण स्थान और उन्नीस सौ बीस प्रकृतियाँ होती हैं । असंयत के औदारिक मिश्रमें स्त्रीवेद-नपुंसक वेद दोनोंका उदय नहीं होता । अतः पूर्वोक्त आठ कूटोंमें तीन वेदोंके स्थान में एक वेद लिखना । आठ कूटोंके आठ स्थान और साठ प्रकृतियोंको चार कषाय, एक वेद, दो युगलके आठ भंगोंसे और एक योगसे गुणा करनेपर आका वर्ग चौंसठ प्रमाण स्थान और चार सौ अस्सी प्रकृतियां होती हैं । क - ९४ For Private & Personal Use Only २० www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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