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गो० कर्मकाण्डे
स्व. श्री नाथूरामजी प्रेमीने चामुण्डराय शीर्षक अपने निबन्धके पादटिप्पण में लिखा है- 'इस गाथाका ठीक अन्वय नहीं बैठता । परन्तु यदि सचमुच ही चामुण्डरायकी कोई देसी या कनड़ी टीका हो, जिसका कि नाम वीरमतंडी था, तो वह केशववर्णीकी कर्नाटकी वृत्ति से जुदा ही होगी, यह निश्चित है । एक कल्पना यह भी होती है कि उन्होंने गोम्मटसारकी कोई देसी ( कनडी ) प्रतिलिपि की हो ।'
- (जै. सा. इ., पृ. २६९ )
स्व. मुख्तार सा. जुगल किशोरजीने पुरातन जैन वाक्य सूचीकी प्रस्तावना में लिखा है - 'सचमुच में चामुण्डरायकी कर्नाटक वृत्ति अभी तक पहेलो ही बनी है । कर्मकाण्डको उक्त गाथामें प्रयुक्त हुए 'देसी' पदपरसे की जानेवाली कल्पनाके सिवाय उसका अन्यत्र कहीं कोई पता नहीं चलता और उक्त गाथाकी शब्दरचना बहुत कुछ अस्पष्ट है ।'
'यहाँ देसीका अर्थ देशको कनडी भाषामें छायानुवाद रूपसे प्रस्तुत की गयी कृतिका ही संगत बैठता है न कि किसी वृत्ति अथवा टीकाका, क्योंकि ग्रन्थकी तैयारीके बाद उसकी पहली साफ़ कापीके अवसरपर, जिसका ग्रन्थकार स्वयं अपने ग्रन्थके अन्त में उल्लेख कर सके छायानुवाद जैसी कृतिकी ही कल्पना की जा सकती है, समयसाध्य तथा अधिक परिश्रमकी अपेक्षा रखनेवाली टीका जैसो वस्तुकी नहीं। यही वजह है कि वृत्ति रूपमें उस देशोका अन्यत्र कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता - वह संस्कृत छायाकी तरह कन्नड़ छाया रूपमें ही उस वक्तको कर्नाटक देशीय कुछ प्रतियोंमें रही जान पड़ती है ।'
विचारणीय ही
स्व. मुख्तार सा. का लिखना यथार्थ प्रतीत होता है फिर भी उक्त प्रश्न बना है । अस्तु,
हमने कर्मकाण्डके प्रथम भागको प्रस्तावना में लिखा है कि हमें उसकी संस्कृत टीकाको हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त नहीं सकीं। जो एक प्रति दिल्लीके भण्डारसे प्राप्त हुई थी उससे प्रतीत हुआ कि उसमें कोई अन्य टीका मिश्रित है ।
कलकत्तासे जो गोम्मटसार कर्मकाण्डका बृहत् संस्करण प्रकाशित हुआ था, उसके पाद टिप्पण में कहीं
अमुक पाठ अधिक मिलता है । हमने उस
कहीं यह लिखा मिलता है कि अभयचन्द्र नामसे अंकित टीका पाठका मिलान केशववर्णीकी कन्नड़ टोकासे किया तो वह उसने हमने उन पाठोंके साथ उनका हिन्दी अनुवाद भी दे दिया जो पं. हमें ज्ञात हुआ कि नेमिचन्द्रको संस्कृत टीकाके भी दो रूप हैं और उसका समर्थन संस्कृत टोकाकी अन्तिम प्रशस्तियोंसे होता है । कलकत्ता संस्करणमें दोनों प्रशस्तियाँ मुद्रित हैं । उन दोनोंके अन्त में लिखा है
बिल्कुल मिलता हुआ प्रतीत हुआ । इससे टोडरमलजोकी टीकामें नहीं है । इसपर से
निर्ग्रन्थाचार्यवर्येण त्रैविद्य वक्रवर्तिना । संशोध्याभयचन्द्रेणा लेखि प्रथमपुस्तकः ॥
अर्थात् निर्ग्रन्थाचार्य त्रैविद्यचक्रवर्ती अभय वन्द्रने नेमिचन्द्रकी टीकाका संशोधन करके उसकी पहली पुस्तक लिखी ।
इस संशोधन में केशववर्णीकी टोकाके ऐसे कुछ अंश, अभयचन्द्रने सम्मिलित कर लिये । ये अंश प्रायः दार्शनिक हैं टीका भी दो रूप हो गये - एक नेमिचन्द्रकृत और दूसरा ऐसा प्रतीत होता है कि अभयचन्द्र भी अच्छे विद्वान् थे । टीकाकारोंके सम्बन्ध में जीवकाण्डके प्रथम भागको प्रस्तावना में लिखा गया है ।
जिन्हें नेमिचन्द्रने छोड़ दिया था, उन्हें भी या विशेष विस्तारको लिये हैं । इससे संस्कृत अभयचन्द्रके द्वारा संशोधित और परिवर्द्धित ।
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