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________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका १३४७ गुणहीनंगळे दु पेळल्पटुवापुरिदमा नानागुणहानिळिंदं स्थितियं भागिसिवोर्ड गुणहान्यायाममप्पुरिदं ॥ अनंतरमा स्थितिबंधाध्यवसायविषयप्रचयमु महाराशियक्कुमेक दोडा प्रथमगणहानिसंबंधिजघन्यचयस्थानंगळोळसंख्यातलोकमात्रषट्स्थानवारंगळप्पुवेदु पेळ्वपरु : लोगाणमसंखपमा जहण्णउड्ढिम्मि तम्हि छट्ठाणा । ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं होंति सत्तण्डं ॥९५२॥ लोकानामसंख्पप्रमाणं जघन्यवृद्धौ तस्यां षट्स्थानानि । स्थितिबंधाध्यवसायस्थानानां भवेयुः सप्तानां ॥ आयुज्जितज्ञानावरणादिसप्त मूल प्रकृतिगळस्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळ प्रथमाविगणहानिगळ प्रचयंगळो प्रयमगुणहानिजघन्यवृद्धिप्रमाणं पेळल्पटुदवरोळु असंख्यातलोकमात्रषट्- १० स्थानवारंगळप्पुवु॥ अनंतरमायुष्यस्थितिबंधाध्यवसायंगळोळ विशेषमं पेब्दपरु : आउस्स जहण्णहिदिबंधणजोग्गा असंखलोगमिदा । आवलियसंखभागेणुवरुवरि होति गुणिदकमा ॥९५३॥ आयुषो जघन्यस्थितिबंधनयोग्या असंख्यातलोकमिताः। आवल्यसंख्यभागेनोपर्योपरि १५ भवेयुग्गुणितक्रमाः॥ शलाकानामसंख्यातकभागः नाना छे-व-छे ॥९५१॥ तज्जघन्यचयस्य महत्त्वं दर्शयति - a विनायुः सप्तमूलप्रकृतीनां स्थितिबन्धाध्यवनायस्थानानां सर्वगुणहानिप्रचयेषु प्रथमो जघन्यवृद्धिः तत्रासंख्यातलोकमात्रषट्स्थानवारा भवन्ति ॥९५२॥ आयुःस्थितिबन्धाध्यवसायेषु विशेषमाहक्षित मोहनीयकी स्थिति रचनामें नानागुणहानि शलाकाका प्रमाण पल्यके अर्द्धच्छेदोंमें-से २० पल्यकी वर्गशलाकाके अर्द्धच्छेद घटानेपर जो प्रमाण हो उतना कहा था। उसमें असंख्यातका भाग देनेपर जो प्रमाण रहे वही यहाँ कषायाध्यवसायकी रचनामें नानागुणहानिका प्रमाण जानना। विशेषार्थ-स्थितिरचनामें जैसे अंकसंदृष्टि के द्वारा कथन किया था वैसे ही यहाँ भी जानना । यहाँ जो स्थितिके भेदोंका प्रमाण है वही स्थितिका प्रमाण जानना। जितना गुण- २५ हानि आयामका प्रमाण है उतने जघन्यसे लेकर जो स्थितिके भेद हैं उनमें प्रथम गुणहानि जानना। तथा जघन्यस्थितिका कारण जो अध्यवसायोंका प्रमाण है वही प्रथम निषेकका प्रमाण जानना। उसमें एक चय मिलानेपर एक समय अधिक जघन्यस्थितिके कारण अध्यवसायोंके प्रमाणरूप दूसरा निषेक होता है। प्रथम निषेकमें एक अधिक गुणहानि आयामका भाग देनेपर जो प्रमाण हो वही चयका प्रमाण है। इस प्रकार एक-एक चय ३० अधिक प्रथम गुणहानिके अन्तिम निषेक पर्यन्त जानना। उसके ऊपर उतने ही स्थितिके भेदोंकी दूसरी गुणहानि होती है। उसमें भी निषेक चय आदिका प्रमाण प्रथम गुणहानिसे दूना जानना। इसी प्रकार अन्तकी गुणहानि पर्यन्त जानना ॥९५१।। आगे जघन्य चयका महत्त्व दिखाते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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