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________________ ७७९ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७७९ ठाणमपुण्णेण जुदं पुण्णेण य उवरि पुण्णगणेव । तावदुगाणण्णदरेणण्णदरेणमरणिरयाणं ॥५२२॥ णिरयेण विणा तिण्हं एक्कदरेणेवमेव सुरगइणा। बंधति विणा गइणा जीवा तज्जोग्गपरिणामा ॥५२३॥ स्थानमपूर्णेन युतं पूर्णेन च उपरि पूर्णकेनैव । जातपद्विकयोरन्यतरेणान्यतरेणामरनरकयोः॥ ९ नरकेण विमा त्रयाणामेकतरेणैवमेव सुरगत्या। बघ्नति विना गत्या जीवास्तद्योग्य. परिणामाः॥ त्रयोविंशतिप्रकृतिस्थानमं अपूर्णेन युतं अपर्याप्तनामकर्मयुतमागियुं पंचविंशतिप्रकृतिबंधस्थानमा पूर्णेन च पर्याप्तनामकम्प्रंयुतमागियुच शब्ददिवं अपर्याप्तनामकर्मयुतमागियु उपरिपूर्णकेनैव षड्विंशतिप्रकृतिस्थानं मोदगोडु मेलेल्ला बंधस्थानंगळुमं पर्याप्तनामकर्मदोडनेयु १० पविशतिप्रकृतिबंधस्थानमुं आतपद्विकयोरन्यतरेण आतपोद्योतंगळे रडरोळन्यतरप्रकृतियुमागियु अष्टाविंशति प्रकृतिबंधस्थानमं अन्यतरेणामरनरकयोः देवगतिनरकगतिनामकम्मंगळे रडरोळन्यतर' . प्रकृतियुतमागियु एकात्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमं नरकेण विना त्रयाणामेकतरेण नरकगतिनामकम्मरहितमागि शेषतिर्यग्मनुष्यदेवगतित्रयंगळोळगेकतरप्रकृतियुतमागियु त्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानम एवमेव मुंपळवंत नरकगतिनामकम्म पोरमागि तिर्यग्मनुष्यदेवगतिप्रकृतित्रितयंगळोळे. १५ . कतरप्रकृतियुतमागियु एकत्रिंशत्प्रकृतिबंधश्थानमं सुरगत्या देवगतिनामकर्मयुतमागियु विना गत्या एकप्रकृतिबंधस्थानमनाव गतियुतमल्लवेयु जीवाः जोवंगळु तद्योग्यपरिणामाः तत्तद्योग्याः तधोग्याः तद्योग्या परिणामाः येषां ते जीवास्तद्योग्यपरिणामाः तत्तत्प्रकृतिबंधकारणयोग्य. परिणामंगळनुवु बध्नति कटुवउ। संदृष्टि मुंपेन्दुदेयकुं। प्रयोविंशतिक अपर्याप्तेन युतं । पंचविंशतिक पर्याप्तेन युतं । चशब्दादपर्याप्तेन युतं च । उपरितनानि २० षड्विंशतिकादीनि पर्याप्तेन युतान्यपि षड्विंशतिक आतपोद्योतान्यतरेण युतं । अष्टाविंशतिकं देवगतिनरकगत्यन्यतरेण युतं । एकान्नविंशत्कं त्रिंशत्कं च तिर्यगादिगतित्रयान्यतमेन युतं । एकत्रिंशत्कं देवगत्या युतं । एकैकं कयापि गत्या युतं न भवति । एतानि स्थानानि जीवाः तत्तत्स्थानबंधयोग्यपरिणामाः संतो बंध्नंति ॥५२२-५२३॥ तो चातपोद्योती प्रशस्तत्वात्केन पदेन सह बघ्नंतीति चेदाह तेईस प्रकृतिरूप स्थान अपर्याप्त प्रकृतिके साथ बँधता है। पच्चीसरूप स्थान पर्याप्त- २५ प्रकृति के साथं बँधता है।"च' शब्दसे अपर्याप्त सहित भी बँधता है। ऊपरके छब्बीस आदि स्थान पर्याप्त सहित बँधते हैं। उच्चीसरूप स्थान आतप और उद्योतमें से किसी एक प्रकृति सहित बँधता है। अठाईस प्रकृतिक स्थान देवगति, नरकगतिमें-से किसी एक गतिके साथ बंधता है। उनतीस और तीस प्रकृतिरूप स्थान तियंचगति आदि तीन गतियों में से किसी एक गतिके साथ बँधता है। इकतीस प्रकृतिरूप स्थान देवगतिके साथ बंधता है। एक ३० प्रकृतिरूप स्थान किसी भी गतिके साथ नहीं बँधतां। इन स्थानोंको जीव उस-उस स्थानके योग्य परिणाम होनेपर बांधते हैं ॥५२९-५२३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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