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________________ ६७५ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका यत्कर्म आउदोंदु कर्मस्वरूपपरिणतपुद्गलद्रव्यं उदयावलियोळिक्कलु बारददनुपशांतमें बुदु । उदयावलियोकिलुं संक्रमियिसलुं शक्यमल्लदुदं निषत्तिय बुदु । उदयावलियोळिक्कलं संक्रमिसलुमुत्कर्षिसलुं अपकर्षिसलुं शक्यमल्लदुदु निकाचितमें दु पेळल्पटुदु ॥ इंतु दशकरण लक्षणंगळं पेळ्व नंतरं प्रकृतिगळ्गेयुं गुणस्थानंगळ्गेयुं संभविसुव करणंगळं गाथाद्वयदिदं पेळ्दपरु : संकमणाकरणूणा णवकरणा होंति सव्वआऊणं । सेसाणं दसकरणा अपुव्वकरणोत्ति दसकरणा ॥४४१॥ संक्रमकरणोनानि नवकरणानि भवंति सर्वायुषां । शेषाणां वशकरणानि अपूर्वकरणपय्यंत वशकरणानि॥ संक्रमकरणरहितनवकरणंगळु नाल्कुमायुष्यंगळोळमक्कुं। शेषप्रकृतिगळेल्लं दशकरणंग- १० ळप्पुवु । मिथ्यादृष्टियावियागि अपूर्वकरणगुणस्थानपथ्यंतं दशकरणंगळप्पुवु ॥ आदिमसत्तेव तदो सुहुमकसाओत्ति संकमेण विणा । छच्च सजोगित्ति तदो सत्तं उदयं अजोगित्ति ।।४४२॥ ___ आदिमसप्तव ततः सूक्ष्मसांपरायपथ्यंत संक्रमेण विना । षट् च सयोगपय्यंतं ततः सत्त्व. मुदयोऽयोगिपय्यंतं ।। ततः अपूर्वकरणगुणस्थानदिदं मेले सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानपय्यंतं मोदल सप्तकरणंगळप्पुववरोळु संक्रमकरणं पोरगागि षट्करणंगळु सयोगकेवलिगुणस्थानपय्यंतमप्पुल्लिदं मेले अयोगि यत्कर्म उदयावल्यां निक्षेप्तुमशक्यं तदुपशांतं नाम । उदयावल्यां निक्षेप्तुं संक्रमयितुं चाशक्यं तन्निधत्तिनम । उदयावल्यां निक्षेप्तं संक्रमयितुमुत्कर्षयितमपकर्षयितुं चाशक्यं तन्निकाचितं नाम भवति ॥४४०।। एवं दशकरणलक्षणं प्राप्य प्रकृतीनां गुणस्थानानां च संभवंति तानि गाथाद्वयेनाह- २ चतुर्णामायुषां संक्रमकरणं विना नव करणानि भवति । शेषसर्वप्रकृतीनां दशकरणानि भवति । मिथ्यादृष्टयाद्यपूर्वकरण यंतं दशकरणानि भवंति ॥४४१॥ ततः अपूर्वकरणगुणस्थानादुपरि सूक्ष्मसांपरायपयंतमाद्यान्येव बंधादीनि सप्त करणानि भवंति । तत्रापि कर्मको उदयावलीमें लाने में असमर्थ कर देना उपशम है। कर्मका उदयावलीमें लाने में या अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण करने में समर्थ न होना निधत्ति है। कर्मका उदयावलीमें २५ लाने में, अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण करनेमें, उत्कर्षण या अपकर्षण करने में असमर्थ होना निकाचित है ॥४४०॥ ____इस प्रकार दस करणोंका निरूपण करके जिन प्रकृतियोंमें और गुणस्थानों में ये करण होते हैं उन्हें दो गाथाओंसे कहते हैं __चारों आयुमें संक्रमकरणके बिना नौ करण होते हैं। शेष सब प्रकृतियोंमें दस करण ३० होते हैं। मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त ये दस करण होते हैं ।।४४१।। अपूर्वकरण गुणस्थानसे ऊपर सूक्ष्मसाम्पराय पर्यन्त आदिके बन्ध आदि सात ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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