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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १०५९ सुखसंवेदने यक्कुम देनल्वेडेके दोडा सयोगकेवलिभट्टारकंग मोहनीयकर्मनिरवशेषप्रक्षदिदं स्वात्मोत्थानंतानंताक्षयसुखसंवेदने निरंकुशवृत्तियिदं वत्तिसुत्तं विरलु कवलाहारादिविषयसुखसंवेदने विरोधिसल्पडुगुमें ते दोडे मोहनीयकर्मोदयबलाधानरहितसातवेदोश्ययक्के बहिविषय सन्निधीकरण सामर्थमल्लदे तद्विषयसुखसंवेदनयं पुट्टिसुव सामर्त्य मिल्ल । पेळल्पटुदु: ___ "घादिव वेदणीयं मोहस्स बळेण घाददे जीवमें दितु ॥ अथवा मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानावरणंगळ क्षयंबेरे काणल्पसृदिल्ल। क्षोणकषायगुणस्थानचरमसमयदोळे "णाणंतरायदसयं ईसण चतारि चरिमम्मि" एंदितु ज्ञानावरणपंचकांत. रायपंचकंगळु दर्शनावरणचतुष्टयमुं युगपत्प्रणष्टंगळादु वप्पुरिदं जीवस्वभावगुणंगळप्प केवलज्ञानदर्शनोपयोगोपयुक्तसयोगिकेवलिभट्टारकंगक्षयानंतशक्तिसंयुक्तंग क्षयोपशममिकविभावगुणंगळप्प मत्यादिज्ञानोपयोगंगळ संभवमप्पुरिदमुमथवा सातवेदनीयोदयसंजनितेंद्रियविषय- १० कबलाहारादिगळतणिदं विषयसुखसंवेदने केवलज्ञानदिदमो ? मेणिद्रियज्ञानदिदमो ? इंद्रियज्ञानदिदु में दोडे केवलज्ञानोपयोगक्कभावमागि बक्कु ते दोडे "एकस्यानेकवृत्तिन भागाभावात्" कर्मनिरवशेषप्रक्षयात्स्वात्मोत्थानंतानंताक्षयसुखसंवेदनं निरंकुशवृत्त्या वर्तमाने सति कवलाहारादिविषयसुखसंवेदनं विरुध्यते । मोहनीयोदयबलाघानरहितसातवेदोदयस्य बहिविषयसंनिधीकरणसामर्थ्यमेव स्यान्न तद्विषयसुखसंवेदनोत्सादकसामथ्र्य । तथा चोक्तं घादि व वेदणीयं मोहस्स बलेण घाददे जीवं । इति अथवा मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानावरणानां क्षयः पृथगेव न दृश्यते क्षीणकषायचरमसमये एव णाणांतरायदसयं दंसणवत्तारीति चतुर्दशानां युगपत्प्रणष्टत्वाज्जीवस्वभावगुणकेवलज्ञानदर्शनोपयोगोपयुक्तसयोगस्याक्षयानंतशक्तेः क्षयोपशमिकविभावगुणमत्यादिज्ञानोपयोगानामसंभवात् । अथवा सातवेदनीयोदयसंजनितेन्द्रियविषयकवलाहारादिभ्यो विषयसुखसंवेदनं केवलज्ञानेनेन्द्रियज्ञानेन वा । इन्द्रियज्ञानेन चेत् केवल- २० कहना ठीक नहीं है। क्योंकि केवलीमें मोहनीय कर्मका सम्पूर्ण क्षय हो चुका है। अतः अपनी आत्मासे उत्पन्न अनन्तानन्त अक्षय सुखका संवेदन रहते हुए केवलीमें कवलाहार आदि जन्य विषयसुखका संवेदन सम्भव नहीं है। मोहनीयकी उदयकी सहायतासे रहित सात वेदनीयके उदयमें बाह्य विषयोंको लानेकी सामर्थ्य ही होती है। विषयसुखका संवेदन उत्पन्न करनेकी सामथ्र्य नहीं होती। २५ कहा भी है वेदनीय कर्म मोहका बल पाकर जीवका घात करता है। अथवा मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ज्ञानोंके आवरणोंका क्षय पृथक्-पृथक् नहीं होता। क्षीणकषायके अन्तिम समयमें ही पाँचों ज्ञानावरण, पाँच अन्तराय और चार दर्शनावरणोंका एक साथ विनाश होता है। अतः जीवके स्वाभाविक गण केवलज्ञान और ३० केवलदर्शनरूप उपयोगसे उपयुक्त तथा अक्षय अनन्तशक्तिसे सम्पन्न सयोगकेवलीके क्षायोपशमिक वैभाविक गुण मति आदि ज्ञानोपयोगका होना असम्भव है। अथवा सातावेदनीयके उदयसे उत्पन्न इन्द्रियविषय कवलाहार आदि सम्बन्धी विषयसुखका संवेदन केवली केवलज्ञानसे करते हैं या इन्द्रिय ज्ञानसे। यदि इन्द्रिय ज्ञानसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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