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________________ ७२४ गो० कर्मकाण्डे गळप्पुवु ।७।६।५॥ ४ ॥ अपूर्वकरणनोळु षट्प्रकृतिस्थानमावियागि अपनरुक्तोवयस्थानंगळ मूरप्पुवु । ६।५।४॥ इंतोयपुनरुक्तस्थानंगळनितुं प्रत्येक चतुविशति भंगयुतंगळप्पवु। संदृष्टि मि १०।९।८।७। भं २४ ।। सासादननोछु ९ । ८।७। भं २४ ॥ मि ९ । ८।७। भं २४ ॥ अ । ९ । ८।७। ६ । ॐ २४॥ दे ८।७।६।५। भं २४ ॥ प्र७।६। ५ । ४ । भै २४ ॥ ५ अ७।६।५।४।२४ ॥ अ६।५।४। भं २४ ॥ इल्लि मिथ्यादष्टियादियागि पंचगुणस्थानंगळो संख्यापेक्षेयिवमपनरुक्तस्थानंगळोळ सादश्यमुंटादोडं प्रकृतिभेदमुंटप्परिदमपुनरुक्तंगळेयप्पुव ते दोडे मिथ्यादृष्टियवशादि चतु:स्थानंगोळं मिथ्यात्वप्रकृत्युदयमुटु । सासादनन मूरु स्थानंगळोळं मिथ्यात्वप्रकृत्युदयमिल्लदु कारण दिदमपुनरुक्तंगळपुवु । मिश्रन मूरु स्थानंगळोळ सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृत्युदयभेदमुंटप्परिदमपनरुक्तं१० गळप्पुवु। असंयतन नाल्कुं स्थानंगळोछ सम्यक्त्वप्रकृत्युदयमुरिंदमपुनरुक्तंगळप्पुवु । देशसंयतन नालहुँ स्थानंगळोळप्रत्याख्यानावरणकषायोदयमिल्लप्पुरिदमपुनरुक्तंगळप्पवु ।। अनंतरं पुनरुक्तस्थानंगळ सहितमागि सर्वगुणस्थानंगळोलिई क्शाविप्रकृतिस्थानंगळ संख्येयुमनवर भंगंगळ संख्येयुमं पेन्दपरु : एक्क य छक्केयारं एयारेयारसेव णव तिण्णि । एदे चदुवीसगदा चदुवीसेयार दुगठाणे ॥४८१॥ एकं च षट्कमेकादशैकादशैकादशैव नव त्रीणि। एतानि चतुविशतिगतानि चतुम्विशतिरेकादश द्वचेकस्थाने ॥ सप्तकादीनि चत्वारि ७, ६, ५, ४ । अपूर्वकरणे षट्कादीनि त्रीणि ६, ५, ४ । अमूनि सर्वस्थानि प्रत्येक चतुर्विशतिभंगानि । अथ मिथ्यादृष्ट्यादिषु पंचस्त्रपुनरुक्तानां संख्यासादृश्येऽपि प्रकृतिभेदादपुनरुक्तता तद्भेदस्तु मिथ्यात्वात्सासादने तदभावात्, मिश्रे सम्यग्मिथ्यात्वात्, असंयते सम्यक्त्वप्रकृतेर्देशसंयतेऽप्रत्याख्यानाभावाच्च ज्ञातव्या ॥४८०॥ छह, पाँच और चार प्रकृतिरूप हैं। अपूर्वकरणमें छह आदि तीन स्थान हैं जो छह, पाँच और चार प्रकृतिरूप हैं। ये सब स्थान प्रत्येक चौबीस-चौबीस भंगवाला है। २५ इन मिध्यादृष्टि आदि पाँच गुणस्थानों में अपुनरुक्त स्थान कहे हैं उनमें से किसीकी संख्या समान होते हुए भी प्रकृति भेदकी अपेक्षा अपुनरुक्तपना जानना। जैसे नौ-नौ प्रकृतिरूप स्थान अनेक कहे हैं। किन्तु उनमें प्रकृतियाँ अन्य-अन्य हैं। जैसे मिथ्यादृष्टि गुणस्थान मिथ्यात्व सहित है । सासादनमें मिथ्यात्व नहीं है । मिश्रमें सम्यक् मिथ्यात्व है, असंयतमें सम्यक्त्व मोहनीय है। देससंयतमें अप्रत्याख्यानका अभाव है आदि। अतः प्रकृतिभेद ३० होनेसे अपुनरुक्तता जानना ॥४८०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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