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________________ ८३६ गा० कर्मकाण्डे __ सूक्ष्मसांपरायसंयमदोळु अंतिमस्थानमो देबंधमक्कुं। सू १ । य ।सं। यथाख्यातचारित्रदोळु केवलज्ञानदोळ पेळ्दत नामकर्मबंधं शून्यमक्कुं । देशविरत्यविरत्योराहारककाम्र्मणवत् देशविरतियोळाहारकदोळ्षेळ्दत देवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानमुं देवगतितीर्थयुतनवविंशति प्रकृतिस्थानमुं बंधमप्पुवु । देश । २८ ॥ २९ ॥ तिर्यक्संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तकर्मभूमिजदेशसंयतनोळ ५ देवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानमो देयक्कुं । दे। तिर्य्य । २८॥ अविरतियोळु कार्मणकाय योगदोळु पेन्दत अद्यतन षट्स्थानंगळु बंधमप्पुबु । अविरति । २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० । ई अविरति चतुर्गतिजरोळमक्कुमप्पुरिदं । नारकमिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रासंयतरोळं तिय्यंच. मिथ्यादृष्टि सासादन मिश्रासंयतरोळं मनुष्यमिथ्यादृष्टि सासावनमिश्रासंयतरोळं देवमिथ्यावृष्टि सासादन मिश्रासंयतरोळमसंयममेयप्पुरिदमल्लि नारकमिथ्यादृष्टियोळु पंचेंद्रियपर्याप्ततिर्यग्ग१० तियुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमुमुद्योतयुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुं। मनुष्यगतियुत नवविंशति प्रकृति स्थानमुं बंधमप्पुवु । सासादननारकासंयमियोलु मिथ्यादृष्टियोळे तंता स्थानद्वयमुं बंधमप्पुवु। मिश्रनारकासंयमियोछु मनुष्यगतियुत नविंशति प्रकृतिस्थानमोंदे बंधमप्पुदु । नारकासंयतासंयमियोळु घादिमेघावसानसाद त्रिभूमिजरोळ मनुष्यगतियुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमुं मनुष्यगति तीर्थयुर्तात्रशत्प्रकृतिस्थानमुं बंधमप्पुवु। शेषपृथ्वीज नारकासंयतासंयमिगळोळ मनुष्यगतियुत १५ नवविशतिप्रकृतिस्थानमो दे बंधमकुं। तिर्यग्गतिय मिथ्यादृष्टि सर्वतिय्यंचासंयमिगळोळु त्रयोविंशत्यादिषट्स्थानंगल बंधमप्पुवल्लि विशेषगुंटदाउदोडे पृथ्वीकायैकेंद्रियबादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्तंगळु मोदलागि सर्वैकेंद्रियंगळु विकलत्रयपर्याप्तापर्याप्तरं पंचेंद्रियापर्याप्तजीवंगळु नरकगतिदेवातियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानभं कट्टरेके दोर्ड पुण्णिदरं इगिविगळे ये दितेकेंद्रिय सूक्ष्मसांपरायसंयमे अंतिपस्थानं बध्यते । यद्याख्याते केवलज्ञानवन्नामबंधशून्यं । देशविरते आहारक२० वद्देवतियुताष्टाविंशतिकदेवगति तीर्थयुतनवविशक्षिके द्वे । तत्तिरश्चि देवगतियुताष्टाविंशतिकमेव । अविरती कार्मणवदाद्यानि षट् । अत्र नारके मिथ्यादृष्टौ सासादने व पंचेंद्रियपर्याप्ततिर्यग्गतियुतमनुष्यगतियुतनवविंशतिकोद्योतयुतत्रिशत्के द्वे । मिश्रे मनुष्यगतियुतनवविंशतिकमेव । असंयते धर्मादित्रये तच्च मनुष्यगतितीर्थयुतत्रिंशत्कं च । शेषपृथ्वीषु मनुष्यगतियुतनवविंशतिकमेव । तिर्यग्गतो मिथ्यादृष्टी त्रयोविंशतिकादोनि षट् । तत्र पर्याप्तापर्याप्तसर्वेकविकलेंद्रियेष्वपर्याप्तपंचेंद्रिये च, न च नरकगतिदेवगतियुताष्टाविंशतिक 'पुण्णिदरं विगि २५ सूक्ष्मसाम्पराय संयममें अन्तका ही स्थान बँधता है। यथाख्यातमें केवलज्ञानकी तरह नामकर्मके बन्धका अभाव है । देशविरतमें आहारकवत् देवगति सहित अठाईस और देवगति तीर्थकर सहित उनतीस ये दो स्थान हैं। देशसंयमी तियंच में देवगति सहित: का ही बन्ध स्थान है । अविरत में कार्माणकी तरह आदिके छह स्थान हैं । नारकी मिथ्यादृष्टि सासादन सम्यग्दृष्टीके पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंचगति सहित या मनुष्यगति सहित उनतीस, ३० उद्योत सहित तीस ये दो स्थान हैं। मिश्रमें मनुष्यगति सहित उनतीसका ही बन्धस्थान है। असंयतमें धर्मादि तीनमें मनुष्यगति सहित उनतोस और मनुष्यगति तीर्थकर सहित तीस ये दो हैं । शेष नरकोंमें मनुष्यगति सहित उनतीसका ही स्थान है। तिर्यंचगतिमें मिथ्यादृष्टि में तेईस आदि छह हैं। किन्तु वहाँ पर्याप्त-अपर्याप्त सब एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियोंमें और अपर्याप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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