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________________ ७२६ गो० कर्मकाण्डे अनंतरमी रचनयोळु द्वयेकप्रकृतिस्थानंगोळु पेळदचतुविशति भंगंगळ्गमेकादशभंगंगळा मुपपत्तिय तोरिदपरु : उदयट्ठाणं दोण्हं पणबंधे होदि दोण्हमेक्कस्स । चदुविहबंधट्ठाणे सेसेसेयं हवे ठाणं ॥४८२॥ उदयस्थान द्वयोः पंचबंधे भवति द्वयोरेकस्य । चतुविधबंधस्थाने शेषेण्वेकं भवेत्स्थानं ॥ पुंवेदमुं कषायचतुष्टयमुमंतु पंचबंधकनोळ द्वयोरुदयस्थानं भवति त्रिवेदंगळोळोदु वेदमुं चतुःकषायंगळोळोदु कषायमुमंतु द्विप्रकृत्युदयस्थानमक्कुं । केवलं चतुष्कषायबंधकनोळु द्वयोरेकस्य च येरडरुदयस्थानमुमोदरुदयस्थानमुमक्कु । शेषेष्वेकं भवेत् । स्थानं शेषत्रिकषायद्विकषाय एककषायबंधकनोळमबंधकनोळमेकप्रकृत्युदयस्थानमक्कुं। संदृष्टि : १. भंगा एकादश ॥४८१॥ एतत्स्थानद्वयभंगानामुपपत्तिमाह पंचबंधकचतुबंधकानिवृत्तिकरणभागयोस्त्रिवेदचतुःसंज्वलनानामेकैकोदयसंभवं द्विप्रकृत्युदयस्थानं स्यात् । तत्र भंगा द्वादश द्वादशेति चतुविशतिः । पक्षांतरापेक्षया चतुबंधकचरमसमये त्रिद्वयकबंधकेष्वबंधके च. क्रमेण चतुस्त्रिद्वयेककसंज्वलनाना मेकैकोदयभवमेकोदयभवमेकोदयस्थानं स्यात् । तेन तत्र भंगाः चतुस्त्रिद्वय कैके अन्य स्थानों में जानना । दो प्रकृतिरूप एक स्थान है उसके चौबीस भंग हैं। एक प्रकृतिरूप १५ एक स्थान है उसके ग्यारह भंग हैं ।।४८१॥ गुणस्थानोंमें उदयस्थानों और कूटोंका सूचक यन्त्रमि. सा. | मि. अ. | दे. प्र. अ. अ. अ.। सु.। | ६६ ६६ | ८८ .. 9 . . . ६ ५४४ | ० ७७/६६ ५।५/ ५।५, ० कूट | ८४ ४ ८८८८४ आगे दो प्रकृतिरूप स्थानोंके भंग कहते हैं अनिवृत्तिकरणमें जहाँ पाँच प्रकृतियोंका बन्ध होता है और जहाँ चार प्रकृतियोंका बन्ध होता है वहाँ भी कुछ काल वेदोंका उदय रहता है। इन दोनों भागोंमें तीनों वेदों और २० चार कषायोंमें-से एक-एकका उदय होनेसे दो प्रकृतिरूप स्थान पाया जाता है । तो चार-चार कषाय एक-एक वेदमें होनेसे बारह भंग हुए। दोनों भागोंमें मिलाकर चौबीस भंग हुए। अन्य आचार्य (कनकनन्दि ) के मतसे जहाँ चार प्रकृतियोंका बन्ध होता है उसके अन्तिम समयमें वेदोंका उदय नहीं है। अतः उसमें और जहाँ तीन, दो और एक प्रकृतिका बन्ध होता है उनमें और जहाँ बन्ध नहीं होता है उसमें क्रमसे चार, तीन, दो, एक-एक संज्वलन २५ १. चौरस्यासमंतभद्रायस्याद्वादवाग्वघूटी सन्निघाल तिलकोपमः । श्री चौंहरससंज्ञो मे वृत्तिमत्रांतमम्यधात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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