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आगम विषय कोश - २
० संस्तारक
संथारो उत्तिमट्ठे, भूमिसिलाफलगमादि नातव्वे । संथारपट्टमादी, दुगचीरा तू बहू वावि ॥ तह विय संथरमाणे, कुसमादी णिंतु अझुसिरतणाई । तेसऽसति असंथरणे, झुसिरतणाई ततो पच्छा॥ (व्यभा ४३४२, ४३४३)
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अनशनस्थित मुनि के लिए भूमि या शिलातलरूप या फलकरूप संस्तारक होता है।
संस्तारक पर एक उत्तरपट्ट बिछाने से उसे असमाधि हो तो अनेक उत्तरपट्ट भी बिछाये जा सकते हैं । इतने पर भी पूर्ण समाधि न हो तो कुश आदि का निश्छिद्र या शुषिर तृणसंस्तारक भी बिछाया जा सकता है। २१. अनशनकर्त्ता का स्वावलम्बन
पडिलेहण संथारं, पाणगउव्वत्तणादि निग्गमणं । सयमेव करेति सहू, असहुस्स करेंति अन्ने उ ॥ कायोवचितो बलवं, निक्खमणपवेसणंच से कुणति । तह वि य अविसहमाणं, संथारगतं तु संचारे ॥
(व्यभा ४३४५, ४३४६ ) जो भक्तप्रत्याख्याता समर्थ है, शरीर से उपचित और बलवान् है, वह अपना कार्य स्वयं करे। जैसे- प्रतिलेखन, संस्तारकप्रस्तारण, पानकग्रहण, करवट बदलना, भीतरी प्रदेश से बाहर निर्गमन तथा बाह्य प्रदेश से पुनः भीतर प्रवेश आदि ।
जो अनशनधारी असमर्थ है, उसके सारे कार्य अन्य मुनि करते हैं। अन्य के सहारे से भी वह संचरण न कर सके तो संस्तारक पर ही उसके सारे कार्य किए जाते हैं। २२. भक्तप्रत्याख्यानी की वैयावृत्त्य विधि
उव्वत्तणा य पाणग, धीरवणा चेव धम्मकहणा य । अंतो बहिनीहरणं, तम्मि य काले णमोक्कारो ॥ (व्यभा ७५५) • अनशनधारी की शारीरिक शक्ति क्षीण होने से वह स्वयं उद्वर्तनापरिवर्तना आदि क्रियाएं नहीं कर पाता हो तो उसका इन कार्यों में सहयोग करने से उसे परम समाधि उत्पन्न होती है
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• प्यास परीषह उत्पन्न होने पर उसे पानी पिलाना होता है। • किसी कष्ट के कारण वह अधीर हो जाए तो उसे इन शब्दों में ढाढस बंधाया जाता है-'धृति धारण करो। तुम्हारी पैर आदि की पीड़ा विश्रामणा ( दबाने से दूर कर दूंगा । हे पुण्यभाग ! सहन करो, शीघ्र सर्वदुःखमुक्त हो जाओगे । ' कष्टसहिष्णुता और समता की प्रेरणा देने वाले पूर्व मुनियों अपूर्व जीवनवृत्त सुनाये जाते हैं ।
• उष्ण परीषह उत्पन्न होने पर उसे कक्ष से बाहर और वायु आदि सहन न होने पर पुनः भीतर ले जाया जाता है।
भेदज्ञान और अन्तर्लीनता के लिए नमस्कार महामंत्र, लोगस्स आदि सूत्रपाठ सुनाये जाते हैं ।
२३. आत्मनिर्यापक- परनिर्यापक
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अनशन
इह दुविधा निज्जवगा, अत्ताण परे य बोधव्वा ।। पादोवगमे इंगिणि, दुविधा खलु होंति आयनिज्जवगा। निज्जवणा य परेण व, भत्तपरिण्णाय बोधव्वा ॥ (व्यभा ४२२०, ४२२१ )
निर्यापक (निर्वाहक) के दो प्रकार हैं- आत्मनिर्यापक, परनिर्यापक। प्रायोपगमन और इंगिनीमरण में आत्मनिर्यापक होते हैं (वे किसी से सेवा नहीं लेते) तथा भक्तपरिज्ञा में दूसरे के द्वारा भी निर्यापना/ सेवा की जाती है।
२४. अनशन में कुशल निर्यापक की भूमिका : दृष्टांत
वसधे जोधे य तहा, निज्जामगविरहिते जहा पोते । पावति विणासमेवं भत्तपरिण्णाय संमूढो ॥ नामेण वि गोत्तेण य, विपलायंतो वि सावितो संतो । अविभीरू वि नियत्तति, वसभो अप्फालितो पहुणा ॥ अप्फालिया जह रणे, जोधा भंजंति परबलाणीयं । गीतजुतो उ परिण्णी, तध जिणति परीसहाणीयं ॥ सुनिउणनिज्जामगविरहियस्स पोतस्स जध भवे नासो । गीयत्थविरहियस्स उ तहेव नासो परिण्णिस्स ॥ निउणमतिनिज्जामगो, पोतो जह इच्छितं वए भूमिं । गीतत्ववेतो, तह य परिण्णी लहति सिद्धिं ॥ (व्यभा ७५०-७५४) जैसे स्वामी से रहित वृषभ और योद्धा तथा
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