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आचार्य
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आगम विषय कोश-२
१. क्रोधविनय-वंजुल वृक्ष की भांति अपने शीतलस्वभाव गुरु ने आचार्य के चार विकल्प प्रस्तुत कियेसे क्रोधी शिष्य के क्रोध को दूर कर देना।
१. इहलोक में हितकारी, परलोक में नहीं-जो वस्त्र-पात्र, २. दोषनिग्रहण-दुष्ट के दोष को दूर करना। कषाय और भक्तपान आदि अपेक्षाओं को पूरा करते हैं किन्तु सारणाविषयों से दूषित अथवा मान से दूषित शिष्य के आचार, शील वारणा नहीं करते।
और भावधारा के दोषों का अपनयन, उपशमन अथवा विनाश २. परलोक में हितकारी, इहलोक में नहीं-जो शिष्यों के संयमयोगों करना।
में प्रमाद होने पर विधि-निषेध का समचित प्रयोग करते हैं, ३. कांक्षा विच्छेद-कांक्षायुक्त शिष्य की कांक्षा का छेदन किन्तु आहार आदि की समुचित व्यवस्था नहीं करते। करना। भक्तपान, परसमय, भोज, नदीयात्रा-इनमें कांक्षा हो ३. इहलोकहित-परलोकहित-जो व्यवस्था और सारणा-वारणा सकती है। गणी कांक्षित की कांक्षा मिटाता है, यही उसका दोनों करते हैं। सम्पूर्ण गणित्व है।
४. न इहलोकहित, न परलोकहित-जो उपधि, आहार आदि ४. सुप्रणिहितआत्मा-जब गुरु क्रोध, द्वेष और कांक्षा में वर्तन के द्वारा संघ का उपष्टम्भ नहीं करते और न ही सारणानहीं करते, तब उनके सुप्रणिधान होता है। ऐसे आचार्य से ही वारणा करते हैं। शिष्य उपगृहीत-अनुगृहीत होते हैं।
३४. असंक्लेशकर आचार्य : प्रासाद दृष्टांत ३२. आचार्य वैयावृत्त्यकारी कैसे?
दिलृतोऽमच्चेणं, पासादेणं तु रायसंदितु। गुरुअणुकंपाए पुण, गच्छो अणुकंपितो महाभागो। दव्वे खेत्ते काले, भावेण य संकिलेसेति॥ गच्छाणुकंपयाए, अव्वोच्छित्ती कता तित्थे॥ अलोणाऽसक्कयं सुक्खं, नो पगामं व दव्वतो। किह तेण न होति कतं, वेयावच्चं तु दसविधं जेणं। तं खेत्ताणुचियं उण्हे, काले उस्सूरभोयणं॥ तस्स पउत्ता अणुकंपितो उ थेरो थिरसभावो॥
भावे न देति विस्सामं, निट्ठरेहिं च खिंसति। (व्यभा २६७२, २६७३)
जियं भतिं च नो देति, नट्ठा अकयदंडणा॥
अकरणे पासायस्स उ, जह सोऽमच्चो तु दंडितो रण्णा। गुरु की अनुकम्पा से महाभाग (अचिन्त्यशक्ति
एमेव य आयरिए, उवणयणं होति कातव्वं ॥ सम्पन्न) गच्छ अनुगृहीत होता है और गच्छ की अनुकम्पा द्वारा गुरु तीर्थ की अविच्छिन्नता में योगभूत बनते हैं।
(व्यभा ३६९२-३६९५) स्थविर (आचार्य) स्थिर स्वभाव वाले होते हैं। वे
राजा ने अमात्य को आदेश दिया कि एक प्रासाद का संघ के सदस्यों को दशविध (आचार्य आदि के) वैयावृत्त्य में
निर्माण शीघ्रता से कराओ। अमात्य ने अनेक कर्मकरों को नियोजित कर अनुगृहीत करते हैं। इस प्रकार वैयावृत्त्य की
प्रासाद-निर्माण में लगा दिया। कार्य चलने लगा। परन्तु सम्यक् व्यवस्था के द्वारा आचार्य गण का दशविध वैयावृत्त्य
कर्मकर अमात्य से प्रसन्न नहीं थे, क्योंकि अमात्य लोभी था। करते हैं।
वह कर्मकरों को लवणरहित, असंस्कृत, रूखा-सूखा अपर्याप्त ३३. आचार्य : इह-परलोक-हितकारी
भोजन देता, उस क्षेत्र के लिए जो अनुचित भक्त-पान होता,
वह कर्मकरों को देता। समय पर भोजन न देकर, गर्मी में आयरिओ केरिसओ, इहलोए केरिसो व परलोए।
काम कराकर सायंकाल भोजन देता। विश्राम करने की छूट न इहलोएऽसारणिओ, परलोएँ फुडं भणंतो उ॥
देकर निष्ठुर वचनों से उनकी खिंसना करता तथा उन्हें उचित
(व्यभा ५६८) मल्य-कार्य के अनरूप पारिश्रमिक भी नहीं देता। इस अनुचित शिष्य ने पूछा-भंते! कौन से आचार्य इहलोक में व्यवस्था से उत्पीड़ित होकर प्रासाद के निर्माण को अधूरा ही हितकारी हैं और कौन से आचार्य परलोक में हितकारी हैं? छोड़कर सभी कर्मचारी अन्यत्र चले गए। जब राजा को यह
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