________________
सूत्र
६२४
आगम विषय कोश-२
प्रसिद्धि होती है। इसी प्रकार उत्सर्ग से अपवाद की और अपवाद अपवादपदों का सेवन कर, प्राणियों को संतप्त कर जो से उत्सर्ग की प्रसिद्धि होती है, इसलिए ये दोनों तुल्य हैं । जितने पश्चात्ताप नहीं करता, वह अननुतापी है। दर्पप्रतिसेवी पश्चात्ताप उत्सर्ग मार्ग हैं, उतने ही अपवाद मार्ग हैं। जितने अपवाद मार्ग नहीं करता है तो वह तो अननुतापी ही है।(द्र प्रतिसेवना) हैं, उतने ही उत्सर्ग मार्ग हैं।
(विधि-निषेध/उत्सर्ग-अपवाद के मर्मज्ञ आचार्यों ने (अपवादमार्ग विहित है, फिर भी जो अपगदसेवन नहीं अपवादमार्ग को नियंत्रित रखने के लिए अपवादसेवन की सीमाकरता है, उसे दृढधर्मी कहा गया है। द्र प्रतिसेवना
रेखाएं निर्धारित की। ज्ञान-दर्शन-चारित्र के योगक्षेम का कोई अन्य जिनकल्पी अपवादसेवन नहीं करते। द्र जिनकल्प) विकल्प दृष्टिगत न हो, उस स्थिति में अपवादपथ का सहारा ० उत्सर्ग और अपवाद : बलवान् कौन?
लिया जाए। दोषसेवन के पश्चात् भी मन में अनुताप का भाव सट्ठाणे सट्ठाणे, सेया बलिणो य हुंति खलु एए।
जागे-हा! विवश होकर मुझे अविहित आचरण करना पड़ा। सट्ठाण-परट्ठाणा, य हुंति वत्थूतों निष्फन्ना॥ जैन आचारशास्त्र में जो भी विधि-निषेध हैं, वे परम लक्ष्य संथरओ सट्ठाणं, उस्सग्गो असहुणो परट्ठाणं।
की प्राप्ति के लिए हैं, जो विधान अहिंसा के लिए है तो उसका इय सट्ठाण परं वा, न होइ वत्थू विणा किंचि॥
निषेध भी अहिंसा के लिए है। विधि-निषेध वहीं तक सम्मत हैं,
जहां तक संयमसाधना निर्बाध चले। यही कारण है कि आगमग्रंथों (बृभा ३२३, ३२४)
में हिंसा, झूठ आदि अपवाद की स्थिति में भी अनुज्ञात नहीं हैं। उत्सर्ग और अपवाद अपने-अपने स्थान में श्रेयस्कर और
भाष्य-चूर्णि-टीका साहित्य में अपवादों की प्रलम्ब श्रृंखला बलवान् हैं। स्वस्थान और परस्थान वस्तु (पुरुष) से निष्पन्न होते
है, जिसमें षट्कायवध तक को करणीय मान लिया गया है। हैं। समर्थ व्यक्ति के लिए उत्सर्ग मार्ग स्वस्थान और अपवाद मार्ग प
जीवन और संघ की सुरक्षा तथा प्रवचनप्रभावना के लिए जो कुछ
र परस्थान है। असमर्थ व्यक्ति के लिए अपवाद मार्ग स्वस्थान और
भी करना पड़े, वह सब विहित है। कितने ही अपवादों की सृष्टि उत्सर्ग मार्ग परस्थान है। पुरुष के बिना ये स्वस्थान और परस्थान श्रतज्ञान की प्राप्ति और सरक्षा के लिए हुई है। वहां इस तथ्य को किंचित् भी निष्पन्न नहीं होते।
विस्मृत कर दिया गया है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र की समन्वित १६. अपवादसेवन का नियामक तत्त्व
आराधना ही मोक्षमार्ग है। णाणादी परिवुड्डी, ण भविस्सति मे असेवते बितियं। उत्तरवर्ती आचार्यों ने समय-समय पर मध्ययुगीन अपवादों तेसिं पसंधणट्ठा, सालंबणिसेवणा एसा॥ के प्रति अपनी असहमति प्रकट की। आचार्य भिक्षु और णिक्कारणपडिसेवा, अपसत्थालंबणा य जा सेवा।... श्रीमज्जयाचार्य ने तो अपवादबहुल भाष्य, चूर्णि और टीका साहित्य बितियपदे जो तु परं, तावेत्ता णाणुतप्यते पच्छा। के स्वतंत्र प्रामाण्य को भी स्वीकृति नहीं दी।-द्र प्रस्तुति) सो होति अणणुतावी, किं पुण दप्पेण सेवेत्ता॥
स्थविर-वय, श्रुत या पर्याय से वृद्ध श्रमण-श्रमणी। (निभा ४६६, ४६७, ४७२) अपवादसेवन उसी स्थिति में सम्मत है, जब साधक को
| १. तीन स्थविरभूमियां यह निश्चय हो जाए कि अपवादसेवन के बिना मेरे ज्ञान, दर्शन
० स्थविर (वृद्ध) कौन? * दीक्षायोग्य वृद्ध
द्र दीक्षा और चारित्र की अभिवृद्धि या सुरक्षा नहीं होगी। मुनि ज्ञान आदि
* स्थविर द्वारा स्थिरीकरण
द्र संघ के संधान-ग्रहण-गुणन के लिए अपवादपद का सेवन करता है।
२. विहरण योग्य वृद्ध और उसका वैयावृत्त्य यह सालंबन प्रतिसेवना है।
० स्थविरों का विनय-वैयावृत्त्य कोई साधु निष्कारण अथवा अप्रशस्त आलंबन लेकर प्रति
* वृद्धसेवा : विनयप्रतिपत्ति का भेद द्र अंतेवासी सेवना करता है-यह निरालंबन प्रतिसेवना है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org