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आगम विषय कोश-२
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स्थविरकल्प
दुविहं पि वेयणं ते, निक्कारणओ सहति भइया वा।" यदि तिष्ठतामुच्चार-प्रश्रवणयोः परिष्ठापनमकाले
(बृभा १६२८, १६२९) फलिहकाभ्यन्तरतो वा नानुजानन्ति ततस्तत्र न तिष्ठन्ति। ० संहनन-स्थविरकल्पी में छहों संहनन हो सकते हैं। वे धृति से अथाशिवादिभिः कारणैस्तिष्ठन्ति तत उच्चारं प्रश्रवणं वा दुर्बल और धृतिसंपन्न भी होते हैं।
मात्रकेषु व्युत्सृज्य बहिः परिष्ठापयन्ति... अवकाशे यत्र ० आतंक-उपसर्ग-इनके होने पर इन्हें सहन करने में भजना है। प्रदेशे उपवेशन-भाजनधावनादि नानुज्ञातं तत्र नोपविशन्ति, पुष्ट आलम्बन होने पर वे चिकित्सा भी करा सकते हैं। अन्यथा कमढकादिषु च भाजनानि धावन्ति। तृण-फलकान्यपि यानि उसे सहन भी करते हैं।
नानुज्ञातानि तानि न परिभुञ्जते। ० वेदना-किसी प्रकार का कारण नहीं होने पर वे आभ्युपगमिकी संरक्षणता नाम यत्र तिष्ठतामगारिणो भणन्ति "गृहं
और औपक्रमिकी-दोनों प्रकार की वेदना सहन करते हैं। असहिष्णुता, संरक्षत""। संस्थापनता नाम वसतेः संस्कारकरणं..... तीर्थव्यवच्छेद आदि कारण होने पर सहन नहीं भी करते हैं। सप्राभृतिकायामपि वसतौ कारणतः स्थिता देशतः सर्वतो वा ० वसति, कतिजन ? स्थण्डिल, कब तक?
क्रियमाणायां प्राभृतिकायां स्वकीयमुपकरणं प्रयत्नेन ...."अममत्त अपरिकम्मा, वसही वि पमज्जणं मोत्तुं॥ संरक्षन्ति, यावत् प्राभृतिका क्रियते तावदेकस्मिन् पार्वे तिगमाईया गच्छा, सहस्स बत्तीसई उसभसेणे। तिष्ठन्ति। सदीपायां साग्निकायां वा वसतौ कारणे स्थिता
थंडिल्लं पि य पढम, वयंति सेसे वि आगाढे॥ आवश्यकं बहिः कुर्वन्ति। अवधानं नाम यदि गृहस्था:... किच्चिर कालं वसिहिह, न ठंति निक्कारणम्मि इइ पुट्ठा। भणन्ति-अस्माकमपि गृहेषूपयोगो दातव्यः ।“कतिजना अन्नं वा मग्गंती, ठविंति साहारणमलंभे॥ ""पृष्टे सति कारण-तस्तिष्ठद्भिः परिमाणनियमः कृतः".
(बृभा १६२९-१६३१) प्राघूर्णकाः समागच्छन्ति "भूयोप्यनुज्ञापनीयः।(बृभा १६३२ वृ) ० वसति-स्थविरकल्पी साधुओं की वसति 'यह मेरी है'-इस
वसति, कब तक? आदि उल्लिखित द्वारों की भांति उच्चार ममत्व से रहित तथा उपलेपन आदि परिकर्म से मुक्त होती है। वे
यावत् कितने रहेंगे?-ये (१० से लेकर २० तक के )द्वार भी उसका परिमार्जन रूप परिकर्म कर सकते हैं।
ज्ञातव्य हैं। स्थंडिल आदि की जहां गृहस्थ द्वारा विधिपूर्वक अनुज्ञा ० कतिजन-एक गच्छ (साधुसमुदाय)में जघन्य तीन, चार आदि
न मिले, तो निष्कारण वैसे स्थानों में न रहे, कारण होने पर और उत्कृष्ट बत्तीस हजार साधु हो सकते हैं। अर्हत् ऋषभ के
यतनापूर्वक वहां रहा जा सकता है। प्रथम गणधर ऋषभसेन के गच्छ में बत्तीस हजार साधु थे।
० उच्चार, प्रश्रवण-जहां इनके परिष्ठापन की अथवा अकाल में ० स्थण्डिल-वे प्रथम (अनापात-असंलोक) स्थण्डिल में जाते
फलिहक में परठने की अनुमति नहीं मिलती, वहां नहीं रहते। हैं। कारण होने पर अन्य स्थण्डिल में भी जा सकते हैं।
यदि कारणवश वहां रहते हैं तो उच्चार-प्रश्रवण का मात्रक में ० कब तक?-आप कब तक यहां रहेंगे? गृहस्थ के ऐसा पूछने
व्युत्सर्ग कर बाहर परिष्ठापित करते हैं। पर निष्कारण उस वसति में नहीं रहते, क्षेत्रान्तर में चले जाते हैं।
० अवकाश-जहां बैठने, पात्र धोने आदि की अनुज्ञा प्राप्त नहीं है, कारणवश वहीं रहना पड़े तो अन्य वसति की मार्गणा करते हैं। न ।
वहां नहीं बैठते और कमढक आदि में पात्र धोते हैं। मिले तो सामान्य रूप से कुछ कहकर वहीं रह जाते हैं। (यथा
० तृणफलक-अननुज्ञात तृणफलकों का उपयोग नहीं करते। कोई कारण नहीं होगा तो एक मास पर्यंत रहेंगे अन्यथा न्यूनाधिक
० संरक्षण-संस्थापन-गृहस्थ वसति के संरक्षण और संस्कारकरण भी रह सकते हैं।)
में नियुक्त करे, तो वे वहां नहीं रहते। ० उच्चार, प्रश्रवण, अवकाश"कितने?
० प्राभृतिका-घर में पुनर्निर्माण का कार्य चल रहा हो, वहां नहीं एमेव सेसएसु वि, केवइया वसिहिह त्ति जा नेयं। रहते। प्रयोजनवश रहना पड़े तो एक पार्श्व में रहते हैं। निक्कारण पडिसेहो, कारण जयणं तु कुव्वंति॥ ० दीप, अग्नि-ज्योति वाले स्थान में नहीं रहते। कारणवश रहते
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