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आगम विषय कोश-२
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स्वाध्याय
आगाढतरा जम्मि जोगे जंतणा"यथा भगवतीत्यादि। २२. विकृति के लिए योगनिक्षेप नहीं इतरो"उत्तराध्ययनादि।
(निभा १५९४ चू) निक्कारणे न कप्पंति, विगतीओ जोगवाहिणो।
कप्पंति कारणे भोत्तं, अणुण्णाया गुरूहि उ॥ योग के दो प्रकार हैं
विगतीकए ण जोगं, निक्खिवए अदढे बले। १. आगाढयोग-जिस योगवहन में आहार आदि से संबंधित
से भावतो अनिक्खित्ते निक्खित्ते वि य तम्मि उ॥ अत्यन्त गाढ/प्रबल नियंत्रण (संयमन) होता है। यथा-भगवती
विगतीकते ण जोगं, निक्खिवे दढ-दुब्बले। आदि आगमग्रंथों के अध्ययनकाल में नौ प्रकार की विकृतियों का
से भावतो अनिक्खित्ते उववातेण गुरूण उ॥ वर्जन किया जाता है।
(व्यभा २१४२-२१४४) २. अनागाढयोग-उत्तराध्ययन आदि सूत्रों के अध्ययनकाल में
योगवाही निष्कारण विकृतिसेवन नहीं कर सकता। कारण विकृति आदि से संबंधित कड़ा नियंत्रण नहीं होता है।
होने पर गुरु की आज्ञा से विकृति सेवन कर सकता है। बलवान् आगाढजोगिस्स उद्देससमुद्देसादओ अवस्सं कायव्वा। होने पर भी जो संहनन से दृढ़ नहीं है अथवा दुर्बल होने पर भी जो (निभा १०९५ की चू) संहनन से दृढ़ है, वह विकृति के लिए योग का निक्षेप नहीं करता
है। कारण होने पर यदि गुरु की आज्ञा से योगनिक्षेप करता है तो आगाढयोगी के लिए उद्देश, समुद्देश आदि अवश्य करणीय
वह भावतः अनिक्षेप ही है। होते हैं।
२३. योगवहन में विकृति वर्जन के विकल्प २१. योगवाही : भिक्षाचर्या से पूर्व कायोत्सर्ग
"आगाढे णवग-वज्जण, भयणा पुण होतऽणागाढे॥ कश्चिद् योगप्रतिपन्नस्तस्य तद्दिवसमाचाम्लम्, स . विगतिमणट्ठा भुंजति, ण कुणति आयंबिलं ण सद्दहती। चोपयोगकायोत्सर्गमकृत्वा गतो दनः करम्बं गृहीत्वा एसो तु सव्वभंगो, देसे भंगो इमो तत्थ ।। समायातः पश्चादपरैः साधुभिस्तस्याचाम्लं स्मारितम्, ततः काउस्सग्गमकातुं, भुंजति भोत्तूण कुणति वा पच्छा। स यदि तं समुद्दिशति तदा योगविराधना, अथ परिष्ठापयति सयं काऊण वा भुंजति, तत्थ लहू तिण्णि उ विसिट्ठा॥ ततः संयमविराधना, ततः कायोत्सर्गं कृत्वा.....चिन्तयेत्, ण करेति भुंजितूणं, करेति काऊण भुंजति सयं तु। यथा-अद्य किं मे आचाम्लम् ? उत निर्विकृतिकम् ? उताहो वीसजेह ममं ति य, तवकालविसेसिओ मासो॥ अभक्तार्थम्?"इत्थमुपयोगं दत्त्वा प्रत्याख्यानानुगुणमेवाहारं
(निभा १५९४-१५९७) गृह्णाति॥ __ (बृभा १७०४ की वृ) आगाढयोग में अवगाहिम (पक्वान्न) के अतिरिक्त शेष
नौ विकृतियों का वर्जन किया जाता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति-अध्ययनकाल किसी योगप्रतिपन्न मुनि के आचाम्ल था, उस दिन वह
में सर्व प्रकार की अवगाहिम विकृति तथा महाकल्पश्रुतउपयोग-कायोत्सर्ग किए बिना भिक्षा के लिए गया और दधिकरंब
अध्ययनकाल में एक मोदकविकृति ग्राह्य है, शेष आगाढयोग में लेकर आ गया। तत्पश्चात् दूसरे साधुओं ने उसे आचाम्ल की
सब विकृतियां वर्जनीय हैं। स्मृति दिलाई, तब यदि वह उसे खाता है तो योगविराधना और
अनागाढयोग में विकृतिवर्जन की भजना है-गुरु-आज्ञा परिष्ठापित करता है तो संयमविराधना होती है। अत: कायोत्सर्ग
हो तो दसों विकृतियां ग्राह्य हैं, अन्यथा एक भी ग्राह्य नहीं है। करके जाए। वह कायोत्सर्ग में चिन्तन करे-आज मेरे क्या है
___* दस विकृतियां
द्र श्रीआको १ रसपरित्याग आचाम्ल अथवा निर्विकृतिक? उपवास अथवा एकाशन? इस
अविधि से अनुज्ञात होने पर योगभंग होता है। उसके दो प्रकार कायोत्सर्ग में प्रत्याख्यान की स्मृति कर भिक्षा में उसके
प्रकार हैं-सर्वभंग और देशभंग। अनुरूप ही आहार ग्रहण करे।
० सर्वभंग-निष्कारण विकृति खाना। आयंबिल के क्रम में आयंबिल
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