Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 705
________________ स्वाध्याय ६५८ आगम विषय कोश-; न करना। निर्विकृति तप में श्रद्धा न करना-यह सर्वभंग है। बारह वर्ष के दीक्षापर्याय वाले मनि को अरुणोपपात, आगाढ और अनागाढ योग के सर्वभंग होने पर क्रमशः चतुर्गुरु वरुणोपपात, गरुडोपपात, वेलंधरोपपात और वैश्रमणोपपात-इन और चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है। पांचों अध्ययनों का अध्ययन कराया जा सकता है। ० देशभंग-कायोत्सर्ग किए बिना विकृति खाना या विकृतिसेवन ___ अरुण, वरुण, गरुड़, वेलंधर और वैश्रमण-इन देवों का के पश्चात् कायोत्सर्ग करना या स्वयं कायोत्सर्ग कर विकृति खाना प्रणिधान कर यदि मुनि अरुणोपपात आदि ग्रंथों का परावर्तन करते अथवा गुरु से कहना कि मुझे विकृति की छूट दें-यह देशभंग हैं तो वे देव दशों दिशाओं को उद्योतित करते हुए परावर्तक मुनि के है। अनागाढ योग के इन सब भंगों में तप और काल से विशिष्ट समक्ष बद्धांजलि हो उपस्थित होते हैं। उपस्थित होकर पूछते हैंमासलघु तथा आगाढयोग में मासगुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। मुनिवर! हमें क्या कार्य करना है? आप आदेश दें। वरुण देव २४. उत्थानश्रुत आदि ग्रंथों का अतिशय गन्धोदक आदि की वर्षा करते हैं। अरुण और गरुड़ देव सुवर्ण परियट्टिज्जति जहियं, उट्ठाणसुतं तु तत्थ उट्ठति। उपहत करते हैं। कुल-गाम-देसमादी, समुट्ठाणसुतें निविस्संति॥ २६. स्वाध्याय आदि से अतिशय निर्जरा देविंदा नागा वि य, परियाणीएसु एंति ते दो वी" कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। ....."चारणलद्धी तहियं, उप्पज्जती तु अधीतम्मि॥ अन्नतरगम्मि जोगे, सज्झायम्मी विसेसेण॥ तेयस्स निसरणं खलु, आसिविसत्तं तहेव दिट्ठिविसं। .....अन्नतरगम्मि जोगे, काउस्सग्गे विसेसेण॥ लद्धीओं समुप्पज्जे, समधीतेसुं तु एतेसुं॥ ...."अन्नतरगम्मि जोगे, वेयावच्चे विसेसेण॥ (व्यभा ४६६४, ४६६५, ४६६७, ४६६९) ....."अन्नतरगम्मि जोगे, विसेसतो उत्तिमट्ठम्मि॥ मुनि एकाग्रचित्त होकर कार्यविशेष से जहां उत्थानश्रुत का (व्यभा ४३३८-४३४१) परावर्तन करता है, वहां स्थित कुल, ग्राम, देश आदि उजड़ जाते प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि संयमयोगों में से किसी भी हैं। कार्य निष्पन्न होने पर समुत्थानश्रुत के परावर्तन से वे कुल, योग में उपयुक्त/तन्मय होने से प्रतिक्षण असंख्य भवों में अर्जित ग्राम आदि पुन: बस जाते हैं। कर्म क्षीण होते हैं। विशेष रूप से स्वाध्याययोग, कायोत्सर्ग, वैयावृत्त्य देवेन्द्रपरिज्ञापनिका ग्रन्थ के परावर्तन से देवेन्द्र और और अनशन में उपयुक्त होने से अनुक्षण असंख्य भवोपार्जित कर्मों नागपरिज्ञापनिका के परावर्तन से नागदेव उपस्थित हो जाते हैं। की विशेष निर्जरा होती है। (कोई भी कर्म निरन्तर अनंतकाल तक चारणभावना अध्ययन को पढने से चारणलब्धि उत्पन्न अवस्थित नहीं रहता, इसलिए असंख्य का कथन है।) होती है। तेजोनिसर्ग, आशीविषभावना और दृष्टिविषभावना २७. प्रकीर्णग्रन्थों के स्वाध्याय से विपुल निर्जरा इन ग्रन्थों को पढ़ने पर क्रमश: तेजोलब्धि, आशीविषलब्धि और दृष्टिविषलब्धि समुत्पन्न होती है। चउद्दससहस्साई, पइण्णगाणं तु वद्धमाणस्स। जिस तपोयोगविधि के प्रयोग से ये लब्धियां उत्पन्न होती सेसाण जत्तिया खलु, सीसा पत्तेयबुद्धा उ॥ हैं, वे विधियां इन अध्ययनों में प्रतिपादित हैं। पत्तस्स पत्तकाले, एतेणं जो उ उद्दिसे तस्स। निज्जरलाभो २५. विशिष्ट ग्रंथपरावर्तन : देवता की उपस्थिति विपुलो, .........। बारसवासे अरुणोववाय वरुणो गरुलवेलंधरो। (व्यभा ४६७१, ४६७२) वेसमणुववाएँ य तधा, एते कप्पंति उद्दिसिउं॥ भगवान महावीर के तीर्थ में चौदह हजार प्रकीर्णककार तेसिं सरिनामा खलु, परियटुंती य एंति देवा उ। मुनि थे। उन्होंने चौदह हजार प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना की थी। अंजलिमउलियहत्था, उज्जोवेंता दसदिसा उ॥ शेष तीर्थंकरों के शासन में जितने शिष्य थे, उतने ही प्रकीर्णककार नामा वरुणा वासं, अरुणा गरुला सुवण्णगं देंति। और उतने ही प्रत्येकबुद्ध थे। जो आचार्य अपने योग्य (परिणामक) आगंतूण य बेंती, संदिसह उ किं करेमो ति॥ शिष्यों को यथाविहित काल में इन प्रकीर्णकों की वाचना देते हैं, (व्यभा ४६६०-४६६२) उनके विपुल निर्जरालाभ होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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