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स्वाध्याय
मुनि जितेन्द्रिय, कषायजयी, निद्राजयी तथा हास्य आदि विकार और आलस्य का वर्जन करने वाला हो, वह वहां अकेला जा सकता है।
मुनि स्वाध्याय के लिए जिस कुल (घर) में जाए, वह कुल साधुभावित हो, निकटवर्ती हो, जिससे रात्रि में स्वाध्याय करके मुनि पुनः अपने स्थान पर आ सके । यदि मार्ग में चोर आदि का भय हो अथवा स्वाध्यायभूमि दूर हो तो मुनि रात्रि में वहीं सोकर प्रातः अपने उपाश्रय में लौट आए। ०. साध्वी की विहारभूमि संबंधी सामाचारी
गुत्ते गुत्तदुवारे, दुज्जणवज्जे णिवेसणस्संतो । संबंधि णिए सण्णी, बितियं आगाढ संविग्गे ॥ पडिवत्तिकुसल अज्जा, सज्झायज्झाणकारणुज्जुत्ता । मोत्तूण अब्भरहितं, अज्जाण ण कप्पती गंतुं ॥ सज्झाइयं नत्थि उवस्सएऽम्हं, आगाढजोगं च इमा पवण्णा । तरेण सोहद्दमिदं च तुब्धं संभावणिज्जातो ण अण्णहा ते ॥ खुद्दो जणो णत्थि ण याविदूरे, पच्छण्णभूमी य इहं पकामा । तुम्भेहि लोएणय चित्तमेतं, सज्झाय-सीलेसु जहोज्जमो णे ॥ (बृभा ३२३६-३२३९)
जिस साध्वी ने व्याख्याप्रज्ञप्ति आदि श्रुत संबंधी आगाढ योग स्वीकार किया है, जो संविग्न (हास्य आदि विकारों से रहित) है, वह साध्वी बाड़ आदि से परिक्षिप्त और कपाटयुक्त द्वार वाले घर में स्वाध्याय के लिए जा सकती है। वह घर दुःशील व्यक्तियों से रहित तथा निवेशन के भीतर होना चाहिए। निवेशन में न हो तो अन्य पाटक में साध्वी के निकट संबंधी, शय्यातर के मित्र या विश्वस्त श्रावक के घर पर भी स्वाध्याय हेतु जा सकती है।
स्वाध्यायभूमि में जाने वाली साध्वी के साथ उत्तर देने में कुशल साध्वी अवश्य | आगाढयोग प्रतिपन्न साध्वी एकाग्रता से स्वाध्याय करने में संलग्न हो ।
साध्वी के आगमन से गौरव का अनुभव करें, उन यथाभद्र कुलों को छोड़कर अन्यत्र स्वाध्याय के लिए न जाए। स्वाध्याय करते समय यदि गृहपति प्रश्न करे- आप यहां क्यों आई हैं? तब प्रतिपत्तिकुशल साध्वी कहे - हे श्रावक ! हमारे उपाश्रय में स्वाध्यायिक नहीं है । इस साध्वी को श्रुतसंबंधी आगाढयोग वहन
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करना है । शय्यार के साथ आपके सौहार्दपूर्ण संबंध को सब लोग जानते हैं, इसलिए हम यहां आई हैं। अतः आप हमारे प्रति अन्यथा संभावना न करें।
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वह पुन: कहे - यहां क्षुद्रजन नहीं हैं। हमारे उपाश्रय से आपका घर दूर नहीं है । आपके घर में विस्तृत एकान्त भूमि है, जिसमें स्वाध्याय निर्विघ्न सम्पन्न हो सकता है। आपको और लोगों को यह ज्ञात है कि हम साध्वियों का स्वाध्याय और शील में प्रबल प्रयत्न होता है।
२०. स्वाध्यायभूमि : आगाढ- अनागाढ
सज्झायभूमि वोलंते, जोए छम्मास पाहुडे । सज्झायभूमि दुविधा, आगाढा चेवऽणागाढा ॥ जहणेण तिण्णि दिवसा, णागाढुक्कोस होति बारस तु । एसा दिट्ठीवाए, महकप्पसुतम्मि बारसगं ॥ आगाढो वि जहन्नो, कप्पिगकप्पादि तिण्णऽहोरत्ता । उक्कोसो छम्मासो, विवाहपण्णत्तमागाढे ॥ द्वादशवर्षप्रमाणा दुर्मेधसः प्रतिपत्तव्या, प्राज्ञस्य तु (व्यभा २११७, २११८, २१२१ वृ) स्वाध्यायभूमि का निक्षेप (कायोत्सर्गपूर्वक सम्पन्न) किये बिना जो उसका व्यतिक्रम करता है, वह आभवद्व्यवहार योग्य । (उस काल के अन्तराल में प्राप्त होने वाले शिष्य आदि उसके नहीं होते, उद्देशनाचार्य के होते हैं ।)
वर्षम् ।
प्राभृत (इष्ट श्रुतस्कन्ध) संबंधी जो योगवहन किया जाता है, वह स्वाध्यायभूमि है। उसके दो प्रकार हैं
१. अनागाढ - नन्दी आदि अध्ययनों की अनागाढ स्वाध्यायभूमि जघन्य तीन दिन, उत्कृष्ट एक वर्ष होती है ।
२. आगाढ — इसमें सामान्यतः स्वाध्यायभूमि छह मास तथा उत्कृष्टः बारह वर्ष है। यह दृष्टिवाद तथा महाकल्पश्रुत की अपेक्षा से अल्पमेधावी के लिए है। प्राज्ञ के लिए तो एक वर्ष की स्वाध्यायभूमि है। कल्पिका, कल्प आदि आगमों का आगाढ योग जघन्य तीन अहोरात्र तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) आदि का आगाढयोग उत्कृष्ट छह मास है।
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० आगाढयोग- अनागाढयोग
आगाढमणागाढे, दुविधे जोगे य समासतो होति । .....
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