Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभिक्षु आगम विषय कोश CYCLOPAEDIA OF JAIN CANONICAL TEXTS PART II वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी निर्देशन आगम मनीषी मुनि दुलहराज संग्रहण / अनुवाद / सम्पादन साध्वी विमलप्रज्ञा साध्वी सिद्धप्रज्ञा प्रधान सम्पादक आचार्य महाप्रज्ञ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्गंथं पावयणं श्रीभिक्षु आगम विषय कोश २ ( पांच आगम - आचारचूला, निशीथ, दशा, कल्प और व्यवहार तथा इनके व्याख्या-ग्रंथों के आधार पर) वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी निर्देशन आगम मनीषी मुनि दुलहराज संग्रहण / अनुवाद / सम्पादन साध्वी विमलप्रज्ञा साध्वी सिद्धप्रज्ञा प्रकाशन जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) प्रधान सम्पादक आचार्य महाप्रज्ञ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : जैन विश्व भारती लाडनूं ( राजस्थान) © जैन विश्व भारती, लाडनूं सौजन्य : माणकचंद सूर्या की पुण्य-स्मृति में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती केशरबाई सूर्या सुपुत्र-किशनलाल-कुसुमदेवी सुपौत्र-सचिन-रीमा, हैप्पी-प्रिया सूर्या (आमेट/मुम्बई) प्रथम संस्करण : फरवरी, २००५ मूल्य : ७००/-रुपये मुद्रक : श्री वर्धमान प्रेस शाहदरा, दिल्ली-३२ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Niggamtham Pāvayaṇam ŚRĪ BHIKṢU ĀGAMA VIṢAYA KOŚA 2 Cyclopedia of Jain Canonical Texts (Compiled on the basis of these five Agamas - Acaracula, Nisitha, Daśā, Kalpa and Vyavahāra and their Commentaries) Synod Chief GAŅĀDHIPATI TULSI Chief Editor ACARYA MAHĀPRAJÑA Direction by ĀGAMA MANİŞİ MUNI DULAHARĀJ Compilation / Translation / Edition SĀDHVI VIMALPRAJNA SĀDHVI SIDDHAPRAJÑĀ Published by JAIN VISHVA BHARATI LADNUN (Raj.) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisher: Jain Vishva Bharati Ladnun (Rajasthan) © Jain Vishva Bharati, Ladnun Courtsey : In memory of late Manakchand Surya by his wife Kesarbai Surya, his son-Kishanlal, daughter in law Kusum Devi. grand childern-Sachin-Roma. Happy-Priya Surya. (Amet/Mumbai) First Edition : February, 2005 Price: 700/- Rs. Printers : Shree Vardhaman Press Shahadara, New Delhi-32 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीयमच्छं। सज्झायसज्झाणरयस्स निच्चं, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं॥ जिसने आगम-दोहन कर कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत। श्रुत-सद्ध्यानलीन चिर चिन्तन, आर्य भिक्षु को विमल भाव से। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तोष अन्ततोष अनिर्वचनीय होता है, उस माली का जो अपने हाथों से उप्त और सिञ्चित द्रुम- निकुञ्ज को पल्लवित, पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है । चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन आगमों का शोध-पूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगें । संकल्प फलवान बना। मुझे केन्द्र मानकर मेरा धर्म-परिवार उस कार्य में संलग्न हो गया और कार्य को निष्ठा तक पहुंचाने में पूर्ण श्रम किया। कुछ वर्ष पूर्व मेरे मन में कल्पना उठी कि 'जैन आगम विषय कोश' तैयार किया जाए। सभी आगमों का एक विषय कोश अभीष्ट था। परन्तु वह दीर्घ समय सापेक्ष था । अतः उस कार्य को अनेक खंडों में विभक्त कर दिया गया, जिसकी फलश्रुति प्रस्तुत खंड है । अतः मेरे इस अन्तस्तोष में मैं सबको समभागी बानना चाहता हूं, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं। संक्षेप में वह संविभाग इस प्रकार है प्रधान संपादक निर्देशन संपादिका 0: : : : संकलन सहयोगी : आचार्य महाप्रज्ञ आगम मनीषी मुनि दुलहराज साध्वी विमलप्रज्ञा साध्वी सिद्धप्रज्ञा साध्वी दर्शनविभा समणी उज्ज्वल प्रज्ञा : संविभाग हमारा धर्म है। जिन-जिन ने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूं कि उनका भविष्य इस महान कार्य का भविष्य बने । गणाधिपति तुलसी आचार्य महाप्रज्ञ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम ० भूमिका o Foreword 0 प्रस्तुति ० ग्रंथ परिचय "0 संदर्भ ग्रंथ : संकेत विवरण ० मुख्य विषय : अनुक्रम ० आगम विषय कोश ० परिशिष्ट १ कथा-दृष्टांत संकेत २ विशेष शब्द विमर्श ३ युगल शब्द विमर्श Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका छेदसूत्रों और उनके निर्युक्ति, भाष्य आदि व्याख्या ग्रंथों में जैन मुनियों के आचार का विस्तृत विवेचन है। भगवान महावीर के बाद दस-पन्द्रह शताब्दियों के अंतराल में होने वाली परिस्थितियों, विधि-निषेधों, उत्सर्ग और अपवाद पद्धतियों का विस्तृत लेखा-जोखा है । आचार के कुछ सूत्र अपरिवर्तनीय होते हैं, तो बहुत सूत्र देश - काल सापेक्ष परिवर्तनीय हैं। उक्त ग्रंथों में परिवर्तन का दीर्घकालिक इतिहास है । परिवर्तन व्याख्या में सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक आदि विषयों का आकलन भी उपलब्ध है । प्रस्तुत ग्रंथ छेदसूत्रों पर आधारित है । छेदसूत्रों में अनेक विषय चर्चित हैं। उनका विस्तार भाष्य और चूर्णि में मिलता है। आचारचूला छेदसूत्रों की परिगणना में नहीं है, पर उसका निशीथ से बहुत संबंध है, इसलिए प्रस्तुत श में इसे छेदसूत्रों के साथ संबद्ध किया गया है। छेदसूत्र प्रायश्चित्तसूत्र हैं। ज्ञान का सार आचार है। आचारशुद्धि ही साधक को लक्ष्य तक पहुंचाती है किन्तु प्रमाद के कारण साधक से स्खलना होती रहती है । छेदसूत्र उन स्खलनाओं की शुद्धि की प्रक्रिया प्रस्तुत करते हैं, उसकी शोधि का मार्गदर्शन करते हैं। इसलिए अर्थ की दृष्टि से पूर्वगत को छोड़कर अन्य आगमों की अपेक्षा इन्हें बलवान् माना गया है। 1 प्राचीनकाल में जैन, बौद्ध और तापस- इनके बड़े-बड़े संघ होते थे । उनमें परस्पर मतभेद होते और कलह का वातावरण भी बनता था । प्रस्तुत आगम विषय कोश का अधिकरण प्रकरण उनकी एक यथार्थ व्याख्या है। अधिकरण की उत्पत्ति के मुख्य छह कारण हैं- - १. सचित्त, २ अचित्त, ३. मिश्र, ४ वचोगत, ५. परिहारकुल, ६. देश - कथा - इनसे संबंधित असद् प्रवृत्ति के निवारण की प्रेरणा के पश्चात् सम्यक् प्रवृत्त न होने पर कलह उत्पन्न होता है । १- ३. सचित्त, अचित्त, मिश्र - शैक्ष, वस्त्र - पात्र अथवा उपकरण सहित शैक्ष-ये जिनके हैं, उन्हें नहीं सौंपा जाता है, अनधिकृत को ग्रहण किया जाता है या पूर्वगृहीत की मार्गणा की जाती है, उसे अस्वीकृत करने पर वितथ प्रतिपत्ति के कारण कलह हो सकता है। ४. वचोगत - शिष्य द्वारा एक सूत्र का दूसरे सूत्र में मिश्रण कर परावर्तन किया जाता है, सूत्रपदों के उच्चारण में अक्षरों की न्यूनाधिकता की जाती है, उसे प्रेरणा देने पर वह सम्यक् प्रवृत्त नहीं होता, तब कलह हो सकता है। देशांतर में देशी भाषा के प्रयोग का उपहास किए जाने पर, दूसरे के शब्दों का अनुकरण (नकल) करने पर तथा वक्तव्य वचनों में व्यत्यय करने पर कलह हो सकता है। ५. परिहारकुल - स्थापनाकुलों की स्थापना न करने पर, स्थापित कुलों में निष्कारण प्रवेश करने पर अथवा कुत्सित कुलों में प्रवेश करने पर निषेध किया जाता । निषेध करने पर भी प्रवेश से उपरत नहीं होने पर कलह हो सकता है। ६. देशकथा - देश - अनुराग के कारण अपने-अपने देश की गौरवगाथा करने पर या परस्पर एक दूसरे की हीनता दिखाने का प्रयत्न होने पर कलह हो सकता है । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका देशकथा, भक्तकथा, स्त्रीकथा तथा राजकथा हमारे लिए करणीय नहीं है-ऐसा कहने पर भी कोई विकथा से विरत नहीं होता है, तब कलह हो सकता है। भिक्षु अधिकरण कर उस अधिकरण का व्युपशमन किए बिना गृहपति के घर में आहार या पानी के लिए गमन और प्रवेश नहीं कर सकता, बाहर विचारभूमि और विहारभूमि में नहीं जा सकता, ग्रामानुग्राम विहरण, एक गण से दूसरे गण में संक्रमण नहीं कर सकता और वर्षावास में स्थित नहीं हो सकता। किसी के साथ कलह होने पर भिक्षु उसका उपशमन कर दे। कलह का उपशमन कर देने पर सामने वाला उसे बहुमान दे या न दे, उसके आने पर खड़ा हो या न हो, उसे वन्दन करे या न करे, उसके साथ भोजन करे या न करे, उसके साथ रहे या न रहे, वह कलह का उपशमन करे या न करे, वह उसकी इच्छा है। जो कलह का उपशमन करता है, उसके आराधना होती है। जो उपशमन नहीं करता, उसके आराधना नहीं होती : इसलिए व्यक्ति अपनी ओर से कलह का उपशमन करे। परस्पर कलह होने पर जितने गृहस्थों या साधुओं ने उसे देखा है, उन सबको एकत्रित कर उनके सम्मुख क्षमा का आदान-प्रदान करना चाहिए। इससे अनेक लाभ होते हैं-गृहस्थ और शैक्ष साधु उस दृश्य को देख यह सोचते हैं-अहो! साधुओं का हृदय नवनीत की भांति कोमल होता है तथा उन्हें (दर्शकों को) यह भी बोध हो जाता है कि साधु कलह उत्पन्न होने पर उपशमन और क्षमायाचना-क्षमादान कर्मक्षय के लिए करते हैं, दण्ड के भय से नहीं। यदि अनुपशांत अवस्था में एक साधु अन्यत्र सुदूर क्षेत्र में चला गया हो तो दूसरा साधु वहां जाकर क्षमायाचना करे। वैयावृत्त्यकरण, बीहड़ मार्ग, स्वजनों का उपसर्ग आदि-आदि कारणों से स्वयं वहां न जा सके और कोई भद्र श्रावक उस क्षेत्र में जा रहा हो तो उसके साथ क्षमा का संदेश भेजे। यदि संदेशवाहक न मिले तो स्वयं अपने मन से कलह का भाव सर्वथा समाप्त कर दे। फिर कभी कहीं मिले, वहीं क्षमायाचना करे। यदि कभी कहीं मिलने की संभावना न हो तो अपने गुरु के पास आकर उसका स्मरण कर मानसिक संकल्प के साथ उससे क्षमायाचना करे। छेदसूत्रों में प्रायश्चित्त के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं। बड़े अपराधों में कड़े दंडों का विधान है। तीर्थंकर और संघ की आशातना करना, तीव्र कषाय का उदय, स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय, मैथुनसेवन-इन उत्कृष्ट अपराधों में पारांचित प्रायश्चित्त दिया जाता है। प्रायश्चित्तवाहक उत्कृष्टतः बारह वर्ष तक साधु-क्षेत्र से बाहर अकेला रहता है और जिनकल्पी-सदृश कठोर साधना करता है। परिहारतपप्रायश्चित्तवाहक परस्पर किसी से भी बातचीत नहीं कर सकता, मंडलीभोजन नहीं कर सकता। बौद्ध परम्परा में भी कठोर दंड का विधान है। मैथुनप्रतिसेवी को पाराजिक प्रायश्चित्त दिया जाता है और उसे संघ से बहिष्कृत किया जाता है। वैदिक परम्परा में ब्रह्महत्या करने वाले महापातकी को कठोर दंड दिया जाता है। वह बारह वर्ष तक जंगल में कुटी बनाकर रहता है और भिक्षा से जीवन-यापन करता है। सुरापान करने वाले १. प्रस्तुत कोश, पृ १३-१५ २. वही, पृ३३१, ३५७ ३. विनयपिटक, पाचित्तिय, पाराजिककांड Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका महापातकी के लिए विधान है कि वह जटा धारण करे और तीन वर्ष तक रात्रि में केवल एक बार पिण्याक व धान्यकणों का भोजन करे। महापातकी व्यक्ति के साथ बातचीत आदि पारस्परिक व्यवहार करना और उसका अभ्युत्थान करना वर्जनीय माना गया है। वज्रऋषभनाराच संहनन वाले प्रतिसेवी को ही तप पारांचित (दसवां प्रायश्चित्त) दिया जा सकता है। धृति और संहनन का गहरा संबंध है। हीन संहननी की अपेक्षा दृढ़ संहननी अधिक धृति सम्पन्न होता है। जो अल्पतम शक्ति वाला (सेवात संहननी) प्राणी है, वह ऊर्ध्वगति में चौथे कल्प से और अधोगति में दूसरी नरक से आगे नहीं जा सकता। प्राचीन काल में विद्यार्थियों के लिए गुरुकुलवास की व्यवस्था थी। धर्मसंघों में भी यह व्यवस्था मान्य थी कि ज्ञानपिपासु शिष्य विपुल ज्ञानार्जन के लिए अपने गण को छोड़कर दूसरे गण की उपसम्पदा स्वीकार कर सकता था। प्रयोजन पूर्ण होने पर वह पुन: अपने गण में लौट आता था। वह जिस दूसरे गण में जाता, वहां उसकी कड़ी परीक्षा की जाती और उसमें उत्तीर्ण होने पर ही प्रतीच्छक के रूप में वहां रहने की स्वीकृति मिलती थी। गुरु (आचार्य) उसे स्पष्ट भाषा में कहते-तुम्हारा गच्छ पितृगृहस्थानीय है और हमारा गच्छ तुम्हारे लिए श्वसुरगृहस्थानीय है । श्वसुरगृह में वधू का प्रमाद क्षम्य नहीं होता। हम तुम्हारा प्रमाद सहन नहीं करेंगे। सावधान करने पर भी तीन बार से अधिक एक गलती को दोहराया तो गण से निष्कासित भी कर देंगे। इतना सहने की क्षमता हो तो यहां रहना, अन्यथा नहीं। आगन्तुक शिष्य भी गुरु की परीक्षा करते थे। इससे ज्ञान-विकास की अविच्छिन्न परम्परा चलती थी। श्रुतज्ञान तृतीय नेत्र है। उसकी अव्युच्छित्ति के लिए अतिशय श्रुतधर (सम्पूर्ण दशपूर्वी आदि) मुनि जिनकल्प आदि प्रतिमाएं स्वीकार नहीं कर सकते। वे अपने श्रुतज्ञान से शासन की प्रभावना करते हैं। संघ को चिरायु बनाने वाला स्थायी आधार है श्रुत। जो मुनि श्रुतधर (चौदहपूर्वी) मुनि का वैयावृत्य करता है, वह विपुलतम निर्जरा करता है। प्रस्तुत ग्रंथ विषय कोश है। इसमें १२४ विषयों का संग्रहण है। तत्त्वदर्शन, कर्मसिद्धांत, चिकित्साशास्त्र, आचारसंहिता, प्रायश्चित्तसंहिता, जीवविज्ञान, मनोविज्ञान, इतिहास आदि अनेक दृष्टियों का इसमें समावेश है इसका पाठक के लिए बहुत मूल्य है। शोध विद्यार्थी के लिए इसका उससे भी अधिक मूल्य है। अनेक ग्रंथों की सामग्री का एक साथ संकलन करने में कोशकार का श्रम शोधकर्ता के श्रम को स्वल्प बना देता है। उदाहरणस्वरूप आगम' का प्रकरण प्रस्तुत किया जा सकता है। आगम संपादन के प्रारंभकाल में विषय कोश की कल्पना की गई थी। मोहनलाल बांठिया ने यह कार्य प्रारंभ किया। लेश्या कोश आदि अनेक ग्रंथ संपादित होकर सामने आ गए। यह कार्य बहुत बड़ा है। जिस गति से चल रहा है, उससे दीर्घ काल लग सकता है, शीघ्र सम्पन्नता की संभावना भी नहीं है। इस स्थिति को ध्यान १. याज्ञवल्क्य स्मृति ३/५/२४३, २५४ २. प्रस्तुत कोश, पृ १६४, ३५६ ३. वही, पृ१४७, १४८ ४. वही, पृ २५५, ५२१, ५७८ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका में रखकर कुछ अपेक्षित कोशों का कार्य साध्वी विमलप्रज्ञा और साध्वी सिद्धप्रज्ञा को सौंपा गया। उन्होंने समय की सापेक्षता के अनुसार कार्य किया। श्रीभिक्षु आगम विषय कोश सन् १९९६ में समाने आ गया। वह विद्वद्वर्ग द्वारा काफी समादृत हुआ । उसका अग्रिम भाग पाठक वर्ग के सामने प्रस्तुत हो रहा है। इसकी उपयोगिता आचारशास्त्री के लिए बहुत है। इसका ऐतिहासिक मूल्य भी कम नहीं है । बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ के भाष्य आकर ग्रंथ हैं। इनमें से कुछ विषयों का चयन करना अति दुर्गम है । इस दुर्गम कार्य को साध्वी विमलप्रज्ञा और साध्वी सिद्धप्रज्ञा की कार्यनिष्ठा ने सुगम बनाया है। मुनि दुलहराजजी ने इसका सांगोपांग परामर्श कर सुव्यवस्थित किया है। समणी उज्ज्वलप्रज्ञा और साध्वी दर्शनविभा ने प्रतिलिपि, परिशिष्ट, प्रूफ अवलोकन आदि में काफी श्रम किया है। १४ सिरियारी वीर निर्वाण दिवस १२ नवम्बर, २००४ आचार्य महाप्रज्ञ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ There is an elaborate discussion on the conduct of the Jain ascetics in the Cheda Sutras and the Niryuktis, the Bhāṣyas and other exegesic works on them. We get therein an extensive account of the conditions, dos and donts, rules and exceptions that took place in the 10-15 centuries after the nirvana of Bhagavan Mahavira. FOREWORD Some Sutras of conduct are unchangeable, while there are some which may be changed according to space (place) and time. In the above works, there is a long history of such changes. In the exposition on the changes we get also an account of the topics related with the then social, political, economic and other conditions. The present "cyclopedia" is based on the canonical texts called the Cheda Sutras. In the Cheda Sotras, we get discussion on many subjects. A detailed and extensive exposition of them is to be found in the Bhasyas and the Cornis. The Acaracula is not enumerated in the category of the Cheda Sūtras, but as it is very much. related with the Nisitha (Sütra) (which is one of the Cheda Sütras), we have included it in the present Kosa (cyclopaedia) on the Cheda Sutras. The Cheda Sutras are the treatises on the "Sutras of Prayaścitta". The essence of jñāna (knowledge) is acara (conduct). It is the purity of conduct that leads the sädhaka to his final goal. But, on account of remissness, a sadhaka is liable to commit lapses or transgressions. The Cheda Sotras present a process of the purification or atonement and guides the sadhaka for undertaking the necessary penances. For this reason, with respect to the contents, these canonical texts of the Cheda Sutras have been considered to be stronger than other scriptures, except the "Purvagata" scriptures. In ancient times, there were very big religious orders of the Jainas, the Buddhists and the Tapasas (hermits). They used to have difference of opinions, and hence there were occasions of mutual conflicts (adhikarana) among them. The entry on "adhikarana" in the present cyclopedic dictionary may serve as an illustration throwing light on the 'conflicts' of that age: There are six main reasons for rising of conflicts, which can be classified as follows: 1. Sacitta (living things). 2. Acitta (non-living things like novice etc.), 3. Misra (living-cum-nonliving like clothes, bowls etc.), 4. Verbal, Let us discuss each in detail 5. Prohibited kula (families). 6. Talks of National Pride, etc. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 Foreward (1), (2) & (3). -Conflict due to the ownership of a novice, outfit (clothes, bowls), or paraphernalia A conflict can arise when these things (which may be living, non-living or misra) which, if belonging to someone, are given to someone else; or when such things are appropriated by someone not authorized for the same, or when such things are claimed by the owners from those who have been given only temporarily, but are denied-such illegitimate verdicts give rise to conflicts. (4) Conflict due to the verbal lapses, etc. For example, if a disciple while reciting a sütra erroneously mixes it with another sūtra, or if he makes lapses in correct pronunciation of the sutra-padas, and if he is inspired to make corrections and even then if he may not amend himself, then a conflict or a quarrel may arise. Another example of verbal conflict is - If someone ridicules another person for making use of desi dialect in an alien country where such language is not used, or if someone mimics other person's speech or way of speaking or if someone makes incoherent speech, then a quarrel or a conflict may take place. (5) Conflict due to entry into the prohibited kula - If the permitted (and prohibited) families are not predecided, or if an entry into the permitted family is made without any necessary purpose, or if entry into the prohibited families is made, others would make a protest against such entry, which would result in a conflict or a quarrel, if such entry is not given up (6) Conflict due to talks of national pride etc.-- If the disciples hailing from diverse nations start boasting of their own motherlands, or if they start belittling other's, then also there may be an occasion of a conflict or a quarrel. Alternatively, if some disciple may reprimand his fellow-monk by saying, "the talks about nations (or countries), food, women and king are prohibited for us (the Jaina monks), and so, you should not indulge in such talks”. But the other fellow may still continue to indulge in such talks; then a conflict or a quarrel may arise. In case, if a monk creates a conflict or a quarrel with others, then, without resolving it, he should neither go for begging alms or water, nor enter into the house of a householder, nor go to the outskirts of the town or village) for nature's call, nor for sojourning at other places, nor undertake journey (viharaña) from village to village, nor get himself transferred from his own gana (order) to another one, nor stay at one place for the stay during the rainy season. On arising of a quarrel with anybody, a monk should subside it on his part; even if in spite of this, the other fellow may or may not pay respect to him, may or may not stand up to give him honour, may or may not pay obeisance to him, may or may not dine with him, may or may not stay with him, or may or may not subside the quarrel. One, who really subsides the quarrel on his part, becomes eligible for the attainment of the emancipation. On the contrary, one who does not do so, remains ineligible for the attainment of the moksa. Therefore, on his part, one should subside the quarrel. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Foreward 17 If there is a quarrel between two or more monks, then one who wants to subside it should ask all the monks and the lay-followers who were witness to the event to get together and in their presence should give and take (mutually) forgiveness from each other. There are many advantages of such act of forgiveness (for example) the lay-followers and the novices who would witness such an event would be impressed and would think in the terms - "Ah! indeed the hearts of the monks are as soft as butter." Besides, they (the spectators) would also get the enlightenment that on arising of conflict, the monks subside it and give and take (mutually) the forgiveness for the annihilation of the (past) karma, and not because of the fear of getting punishment. If any one of the monks who had quarrelled travels far away to other regions without subsiding the quarrel, then the other should go there and ask for forgiveness. If, for any reasons like his preoccupation with rendering services to the ailing fellow-monks, or the dangers in the path of the journey, which may be passing through a forest, or probability of reprimands from the relatives, etc., he cannot go there, he should send his message of seeking forgiveness through some noble layfollower who is going there for his own work. In case, if no messenger is available, he should totally wipe out the feeling of quarrel (vengeance) from his mind, and in meeting the other fellow later on at any place, he should beg pardon from him. In case, there is no possibility whatsoever of meeting him again, then he should go to his guru and mentally recalling the other fellow, in the presence of the guru, beg for his forgiveness with a mental resolve. (This illustration shows how exhaustively the event of "conflict" is described). In the Cheda Sütras, many types of atonement have been propounded. In case of the grave offences, very strict punishments have been prescribed. In case of the grave offences such as insulting the tirthankara, or the sangha (order), arousal of intense passions, rise of the karma causing somnambulism (and even committing murder during it), or indulging in copulation, the offencer is given the highest atonement called "pārāñcita", in which the monk undergoing such punishment, maximally has to remain solitary in the region outside the sojourning of the monks and has to undertake hard penances like the jinakalpi monks. A monk undergoing the atonement called "parihara" is debarred from all communication with the monks and co-dining with them. In the Buddhist tradition too, there is propounded a very hard punishment (for grave of fences). A monk indulging in the act of copulation has to undergo "päräjika" prayaścitta and also, he is dismissed from the sangha. In the Vedic tradition, one who is a great sinner indulging in the murder of a brahmin, is punished with a very hard punishment in which he has to stay in the forest, by setting up a hut there and seek his livelihood through begging alms. For a person who is a great sinner of indulging in drinking (alcohol) is punished with the punishment in which he has to keep the long matted hair and to eat only once in the night in one day and that too only the "pinyaka" (residue of seeds ground for oil) and the grain-corns. Any conversation with a great sinner is strictly prohibited, also any kind of mutual give-and-take and any kind of honour like standing (for welcome) on his coming is prohibited too. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Foreward The monk liable for the "parañcita" penances, which is the tenth prayaścitta could only be a person possessed of vajra-rsbha-näräca-samhanana (i.e., the strongest type of bone-structure in which. the bone-joints are bolted with nail, bone-joints are interlocked and cross-tightened). 18 The patience and the bone-structure are intensely related with each other. A person possessed of a strong bone-structure has more patience than one of a weak bone-structure. The living being which is possessed of the weakest bone-structure (sevärtta samhanana) i.e., one which is possessed of the weakest power, cannot get re-incarnation beyond the fourth heaven (kalpa) in the higher existence and the second hell in the lower existence. In the ancient times, there was the tradition of "gurukulavasa" (i.e. to live with the teacher during the period of studies). In the religious orders also, similar tradition was prevalent. A pupil desirous of higher studies could be got transferred to another gana (leaving own gana) through upasampada (ordination) there. On completion of the desired purpose, the pupil had to join back his original gana. There (in the other gana), the pupil had to undergo a very strict scrutiny and only after finding fit for the entry, he would be allowed to stay there as a "guest-pupil" (praticchaka). The guru (ācārya) would warn him before the admission into the new gana, "You belonged to a gana, which was like the maternal family of a daughter in-law; now you want to join our gana, it would be like the family of the in-laws for a daughter-in-law. You should know that any remissness on the part of the daughter-in-law in her father-in-law's family is not tolerated; similarly, we would not tolerate your remissness here. Even in spite of reprimanding thrice for the same kind of lapse, if you would repeat it for the fourth time, you would be dismissed from our gana. If you have that much power of forbearance, you may stay here, otherwise not." The novice, before his entry into the new gana, also would like to test the new guru. In this way, a tradition of development of knowledge was kept in tact. The scriptural knowledge is like the third eye. Any monk (or acarya) who was possessed of extraordinary scriptural knowledge (for example, who was a possessor of the ten purvas--the texts of the Earlier Lore of Scriptures), was not allowed to take intensive course of the Jinakalpa, for maintaining the continuity of the tradition of the scriptural knowledge (for, if he would become a Jinakalpi, he would lead a completely secluded life and would not involve himself in the teaching process). Such knowledgeable monks (or ācāryas) would render immense services to the religious order through their scholarship and crudition. The scriptures serve as the steady basis of the long standing of the religious order. A monk who occupies himself in rendering medical services to a possessor of scriptural knowledge (or a possessor of fourteen purvas) spiritually gets the benefit of immense nirjara (falling off of the karma). The Cyclopedia Dictionary Our dictionary is a cyclopedic one based on different topics. There is a collection of 124 main topics dealing with various disciplines, such as metaphysics, doctrine of karma, medical science, ethical codes, atone mental codes, biology, psychology, history, etc., which would prove very valuable for the reader (user of this dictionary). It would be even more valuable for the research scholars, for the dictionary-compiler facilitates them with the material on a topic collected at one place, which Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 Foreward makes easy for them to do their research work. For example, the entry on agama would be illustrative to show this. In the beginning of our work on the āgamas, we had conceived a plan for preparing a cyclopedic dictionary. Late Shri Mohanlal Banthia had taken up this task in his hand. Many works like ‘Leśyä-kośa' got edited and have already been published. In fact, it has been a very extensive task. The speed with which it is being accomplished is relatively too slow to be completed in a short time. and hence it will take its own time. On the basis of this line of thinking, this work of compiling some needed dictionaries was entrusted to Sādhvi Vimalprajñā and Sadhvi Siddhaprajñā. They have done the work within a relatively shorter time. The first volume of this cyclopedia got published as early as 1996 and was very much appreciated by the scholars. Now, the second volume, which is being published, is in the hands of the readers. This volume is very much useful for the scholars of ethics, its historical value is also not less. The bhāsyas on the Brhatkalpa, Vyavahāra and Niśitha are voluminous works (on the Jain Ethics). It is a stupendous task to select some topics from them, but the dedication to work of Sadhvi Vimalaprajñā and Sādhvi Siddhaprajñā has made it easier. Muni Dulharăjjî has systematized the work by thorough counselling. Samaņi Ujjvala Prajñā and Sadhvi Darśanavibhā have done a laborious job in preparing the manuscript and compiling the appendices as well as doing the job of proofreading Acārya Mahāprajña Siriyāri 12 November 2004 Vīra Nirvāņa-divasa Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति "अर्हतों के अनुभवों का आगमों में सार है। वह हमारी साधना का प्राणमय आधार है।" "सत्य की अभिव्यक्ति में अक्षर सहज अक्षर बना। वन्दना उस आप्त-वाणी की करें पुलकितमना॥ भारती कैवल्य-पथ से अवतरित अधिगम्य है। सुचिर-संचित तमविदारक रम्य और प्रणम्य है।" परमाराध्य आचार्यश्री तुलसी-महाप्रज्ञ द्वारा प्रणीत ये रत्न-पंक्तियां 'श्री भिक्षु आगम विषय कोश' के लिए प्रेरणामय दीपशिखाएं हैं। आगम, निग्रंथ-प्रवचन सत्य है, अनुत्तर है, प्रतिपूर्ण है, निर्याणमार्ग और निर्वाणमार्ग है। आगम हमारा प्राण है, श्वासोच्छ्वास है। आगम असंदीन द्वीप है, असंदीन दीप है। आगम का अनुशीलन आत्मा को आह्लाद और आलोक से भर देता है। प्रस्तुत कोश उसी की एक रश्मि है। ___ वाचनाप्रमुख युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी-महाप्रज्ञ की दिव्य सन्निधि में हमें श्रुत-आराधना का एक दुर्लभ अवसर उपलब्ध हुआ है। पूज्यप्रवरचतुष्टयी (श्रीतुलसी-महाप्रज्ञ-महाश्रमण-महाश्रमणी) ने हमें आगम कोश कार्य में नियोजित कर हमारे अहोभाग्य को अभिव्यंजित किया है। पूज्यवरों के अनुग्रह-आशीर्वादमय मार्गदर्शन और आगम मनीषी मुनिश्री दुलहराजजी के निर्देशन के परिणामस्वरूप हमने सन् १९९६, जैन विश्व भारती, लाडनूं में श्रीभिक्षु आगम विषय कोश का प्रथम भाग श्रीचरणों में समर्पित किया। लगभग दो वर्ष तक इस कार्य पर विराम चिह्न लगा रहा। प्रथम भाग की सामग्री का अवलोकन कर ख्यातिप्राप्त विद्वान् स्व. डॉ. नथमल टाटिया, डॉ. सत्यरंजन बनर्जी आदि ने हमें पुन:-पुन: प्रेरित किया कि अब इस कोश का दूसरा भाग शीघ्र सामने आए। परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री महाप्रज्ञ के आदेश-निर्देश-अनुज्ञा-अनुयोग पुरस्सर आशीर्वाद से पुनः पांच आगमों-आचारचूला और चार छेदसूत्र-निशीथ, दशा, कल्प और व्यवहार तथा इनके व्याख्या साहित्य के कार्य का लक्ष्य बनाया गया। प्रारंभ में यद्यपि इस कोशखंड में छेदसूत्रों के संग्रहण की परिकल्पना-परियोजना थी. किन्त आचारचला और निशीथ में प्रतिषेध और प्रायश्चित्त की संबंध-श्रृंखला के कारण हमने आचारचूला का भी इस कोश में संग्रहण किया है। आचारचूला प्रतिषेध सूत्र है, इसमें आचार संबंधी विधिनिषेधों का निरूपण है। निशीथ प्रायश्चित्त सूत्र है, इसमें आचार-भंग की प्रायश्चित्त विधि प्रतिपादित है। हमारी श्रुतयात्रा का दूसरा प्रस्थान प्रारंभ हुआ। यह यात्रा उस यात्रा की अपेक्षा अधिक जोखिमभरी थी क्योंकि इस बार हमें छेदसूत्रों की पदयात्रा करनी थी। छेदसूत्रों के लघुतम शब्द शरीर से विराट् अर्थ तक पहुंचना, उत्सर्ग और अपवाद की व्यापक सीमा रेखाओं के मर्म को समझकर ग्राह्य का संग्रहण करना तथा उन्हें विषयों में आबद्ध करना दुरूह कार्य था, किन्तु गुरु का अनुग्रह बरसा, सक्रिय मार्गदर्शन प्राप्त हुआ, तब ऊबड़-खाबड़ मार्ग भी राजमार्ग बन गया। अंधेरा ढल गया। प्रकाश का अवतरण हो गया। लगभग साढे छह हजार (६५००) पृष्ठों वाले इस विपुल साहित्य में समाविष्ट समग्र विषयों का संग्रहण न कर उन विषयों का चुनाव किया गया है, जो हमारी दृष्टि में प्रधानता से समवसृत हुए हैं। श्री भिक्षु आगम विषय कोश के इस द्वितीय भाग में मात्र एक सौ चौबीस (१२४) विषय अकारादि क्रम से समवतरित हैं। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति इस कोश के प्रथम भाग में एक सौ अठहत्तर (१७८) विषय अकारादि क्रम से अंकित हैं। मुख्य विषय : अनुक्रम (भाग-१) १. अंगप्रविष्ट ३७. ऊनोदरी ७३. दृष्टिवाद १०९. प्रवचन १४५. विनय २. अंगबाह्य ३८. एषणा समिति ७४. देव ११०. प्रायश्चित्त १४६. वृद्धश्रावक ३. अंगुल ३९. कथा ७५. द्रव्य १११. बहुश्रुत १४७. वैयावृत्त्य ४. अजीव ४०. करण द्वीप ११२. बाहुबलि १४८. व्याकरण ५. अज्ञान ४१. करणसत्तरी ७७. धर्म ११३. बुद्धि १४९. व्युत्सर्ग अनशन ४२. कर्म ध्यान ११४. ब्रह्मचर्य १५०. शकुन अनाचार ४३. कषाय नक्षत्र ११५. भव्य १५१. शरीर ८. अनुप्रेक्षा ४४. कामभोग नमस्कारमंत्र ११६. भाव १५२. शासन-भेद ९. अनुमान ४५. कायक्लेश ८१. नय ११७. भावना १५३. शिक्षा १०. अनुयोग ४६. कायोत्सर्ग ८२. नरक ११८. भाषा १५४. शिष्य ११. अर्हत् ४७. काल ८३. नाथ ११९. भाषा समिति १५५. श्रमण १२. अवधिज्ञान ४८. काल-विज्ञान ८४. निक्षेप १२०. भिक्षाचर्या १५६. श्रावक १३. अष्टांगनिमित्त ४९. काव्य-रस ८५. निदान १२१. भिक्षु १५७. · श्रुतज्ञान १४. अस्तिकाय ५०. कुत्रिकापण ८६. नियुक्ति १२२. मंगल १५८. संख्या १५. अस्पृशद्गति ५१. कुलकर ८७. निषद्या १२३. मंत्र-विद्या १५९. संघ १६. अस्वाध्याय ५२. केवलज्ञान ८८. निह्नव १२४. मन १६०. संज्ञा १७. अहिंसा ५३. केवली ८९. परिग्रह १२५. मनःपर्यवज्ञान १६१. संयम १८. आगम ५४. केवलीसमुद्घात ९०. परिषद् १२६. मनुष्य १६२. संलेखना १९. आचार ५५. गणधर ९१. परीत १२७. मरण १६३. संस्थान २०. आचार्य ५६. गुणस्थान ९२. परीषह १२८. महाव्रत १६४. संहनन २१. आजीवक ५७. गुप्ति ९३. पर्याप्ति १२९. माहन १६५. समवसरण २२. आत्मा ५८. गोचरचर्या ९४. पल्योपम १३०. मोक्ष १६६. समाधि २३. आनुपूर्वी ५९. गौरव ९५. पाषण्ड १३१. योग १६७. समिति २४. आभिनिबोधिकज्ञान ६०. चक्रवर्ती ९६. पुद्गल १३२. योगसंग्रह १६८. सम्यक्त्व २५. आयतन ६१. चारित्र ९७. पुद्गलपरावर्तन १३३. योनि १६९. साधर्मिक २६. आराधना ६२. जातिस्मृति ९८. पूर्व १३४. रसपरित्याग १७०. सामाचारी २७. आलोचना ६३. जिन ९९. पोट्टपरिहार १३५. राजीमती १७१. सामायिक २८. आवश्यक ६४. जीव १००. प्रतिक्रमण १३६. रात्रिभोजनविरमण १७२. सिद्ध २९. आशातना ६५. जीवनिकाय १०१. प्रतिमा १३७. लब्धि १७३. सूत्र (सूत) ३०. आश्रव ६६. ज्ञान १०२. प्रतिलेखना १३८. लिंग १७४. स्तव-स्तुति ३१. आहार ६७. तप १०३. प्रतिसंलीनता १३९. लेश्या १७५. स्थविरावलि ३२. इन्द्रिय ६८. तिर्यंच १०४. प्रतिसेवना १४०. लोक १७६. स्याद्वाद ३३. ईषत्प्रारभारा ६९. तीर्थ १०५. प्रत्याख्यान १४१. वन्दना १७७. स्वरमंडल ३४. उपधि ७०. तीर्थंकर १०६. प्रत्येकबुद्ध १४२. वर्गणा १७८. स्वाध्याय ३५. उपमान ७१. त्रस १०७. प्रमाण १४३. वाद ३६. उपसर्ग ७२. दुःख १०८. प्रमाद १४४. वासुदेव Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति प्रथम और द्वितीय भाग के अनेक विषय सदृश हैं। यथा-अनशन, अनुयोग, आगम आदि किन्तु उनकी सामग्री भिन्न-भिन्न है। कुछ विषय मात्र शब्द-परिवर्तन के साथ अंकित हैं। यथा-अंतेवासी (शिष्य), गीतार्थ (बहुश्रुत), अंतकृत (मोक्ष), कल्पस्थिति (शासनभेद) आदि। इन विषयों में शब्दान्तर है, अर्थान्तर नहीं। कुछ विषयों का परस्पर अन्तर्भाव कर दिया गया है। यथा अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य का आगम में, अनुप्रेक्षा का भावना में, अस्वाध्याय का स्वाध्याय में और अनाचार का आचार विषय में समावेश कर दिया गया है। इस भाग के अनेक विषय पूर्णत: नवीन हैं, अर्थात् उस भाग में नहीं हैं। यथा-आज्ञा, आर्यक्षेत्र, उत्सारकल्प, चिकित्सा, छेदसूत्र, जिनकल्प, नौका, पर्युषणाकल्प, महास्थण्डिल, यथालन्दकल्प, व्यवहार, शय्यातर, साम्भोजिक, स्थविरकल्प, स्थापनाकुल, स्वप्न क्षादि। विषयकोश की कार्यपद्धति __इसकी कार्यशैली प्रायः प्रथम भाग के सृदश ही है। सर्वप्रथम गृहीत विषय का भावात्मक शब्दार्थ बताकर उसमें विवेचित बिन्दुओं की सूची दी गई है। इससे पाठक को प्रथम दृष्टिपात में ही विषयगत महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं की सूचना मिल जाती है। यथा-'अंतेवासी' मल विषय है। सची में अंतेवासी का अर्थ, उसके प्रकार, उसकी योग्यताअयोग्यता की परीक्षा, विनयप्रतिपत्ति आदि बिन्दु सूचित किए गए हैं। शब्द की अन्य शब्द से संबद्धता (cross reference) जहां एक शब्द दूसरे शब्द से संबद्ध है, वहां उस शब्द का विवेचन उपयुक्त स्थान पर कर, दूसरे स्थान पर स्टार (*) चिह्न के साथ द्र (द्रष्टव्य) का प्रयोग कर उसे सूचित किया गया है। यथा'आचार' विषय की सूची में- * मुनि का आचार-व्यवहार (द्र सामाचारी) 'आराधना' विषय की सूची में-* प्रायोपगमन में द्विविध आराधना (द्र अनशन) - बिन्दुओं के विवरण के पश्चात् भी यथावश्यक क्रोस रेफरेंस दिए गए हैं। यथाकर्म विषय में १७ वें बिन्दु के मेटर के पश्चात्-* पूर्व तप से देवायुबंध कैसे? (द्र देव) कल्पस्थिति विषय के अंतिम बिन्दु-विवरण के पश्चात्-* पर्युषणा की सामाचारी (द्र पर्युषणाकल्प) जो महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्द अपने मूल विषय में व्याख्यायित हैं, उन शब्दों को स्वतन्त्र रूप से ग्रहण कर शेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य (द्र) लिखकर उसकी सूचना दी गई है। यथा-अंतकृतभूमि (द्र अंतकृत), अनुप्रेक्षा (द्र भावना), निर्यापक (द्र अनशन), नैषेधिकी (द्र स्वाध्याय)। अनेक विषयों के बिन्दुओं का संबंध आगम विषय कोश के प्रथम भाग के विषयों से जोड़ा गया है। यथाअनुयोग विषय के प्रथम बिन्दु विवरण के पश्चात् * अनुयोगविधि द्र श्रीआको १ अनुयोग * श्रवण-विधि के सात अंग द्र श्रीआको १ शिक्षा . स्वप्न विषय के चतुर्थ बिन्दु विवरण के पश्चात्* महावीर के दस महास्वप्न द्र श्रीआको १ तीर्थंकर स्वाध्याय विषय में-* अस्वाध्यायिक के भेदों का विवरण द्र श्रीआको १ अस्वाध्याय इस संबद्धता सूचन से अनावश्यक पुनरावृत्ति को विराम मिल जाता है और यह बोध भी हो जाता है कि एक शब्द दूसरे शब्द के साथ किस प्रकार और क्यों सम्बद्ध है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति जो विषय अधिक विस्तृत हैं, उनके भेदों में कहीं कुछ भेदों को और कहीं सब भेदों को स्वतंत्र विषय के रूप में ग्रहण किया गया है। यथा प्रायश्चित्त के दस भेद हैं। उनमें से आलोचना (प्रथम भेद) और पारांचित (अंतिम भेद) स्वतंत्र रूप में गृहीत हैं। अनवस्थाप्य (नौवां भेद) पारांचित के अन्तर्गत गृहीत है। अन्य ज्ञातव्य बिन्दु ० जहां मूल पाठ की प्रलम्ब संलग्नता थी, उसे अनेक शीर्षकों-उपशीर्षकों में विभक्त-व्यवस्थित कर सहज गम्य बनाने का प्रयत्न किया गया है। यथा-प्रतिमा विषय में-यवमध्य-वज्रमध्य चन्द्रप्रतिमा का स्वरूप, अर्हता, अभिग्रह, आहारग्रहण विधि आदि बिन्दु-उपबिन्दु। ० कहीं-कहीं विषय की प्रवाह रूप में क्रमबद्ध जानकारी के लिए अनेक सूत्रों को संलग्न रूप में ग्रहण किया गया है। यथा-भिक्षप्रतिमा विषय का दसरा बिन्द-प्रथम सात प्रतिमाओं का स्वरूप। इसमें २३ सत्रों (दशा ७/४-२६) का एक साथ संग्रहण हुआ है। श्रुतज्ञान विषय के १२ वें बिन्दु में १५ सूत्र (व्य १०/२५-३९) युगपत् संगृहीत हैं। शय्या विषय के प्रथम बिन्दु के द्वितीय उपबिन्दु में सात सूत्र (आचूला २/३६-४२) संगृहीत हैं। ० पूर्णविराम युगल (I) प्रत्येक सूत्र की पृथक्ता/परिसम्पन्नता का द्योतक है। ० जहां गाथा की केवल प्रथम पंक्ति ग्रहण की गई है, वहां पूर्ण विराम के पश्चात् बिन्दुः... लगाकर दूसरी पंक्ति के परिहार की सूचना दी गई है और जहां केवल दूसरी पंक्ति ग्रहण की गई है, वहां उसके प्रारंभ में बिन्दु..... लगाए गए हैं। ० ग्रन्थ लाघव के लिए अनेक गाथाएं, सूत्रपाठ और वृत्तिपाठ समग्रता से ग्रहण नहीं किए गए हैं। जितने पाठ से विषयबोध स्पष्ट हो सके, उतना पाठ लिया गया है। परिहृत पाठ को..... इन बिन्दुओं से सूचित किया गया है। ० कुछेक पारिभाषिक शब्दों का इन निर्धारित ग्रंथों में विस्तृत विवरण नहीं है किन्तु उनकी परिभाषा सर्वत्र उपलब्ध नहीं होती, उन शब्दों को भी हमने ग्रहण किया है। ० जिन विषयों का विवेचन इन स्वीकृत ग्रंथों में है किन्तु वे विषय यदि प्रथम भाग में विवेचित हैं तो उस विवेचन की यहां पुनरावृत्ति न कर वहां देखने का संकेत दे दिया गया है। यथा-संलेखना, परिषद् आदि । यद्यपि परिषद् के प्रसंग में मुद्गशैल-घन आदि १६ दृष्टान्तों द्वारा शिष्य/श्रोता की योग्यता-अयोग्यता का २७ गाथाओं (बृभा ३३४-३६१) में विशद निरूपण किया गया है किन्तु वह निरूपण कोश के प्रथम भाग में निरूपित होने के कारण यहां केवल क्रोस रेफरेंस द्वारा उसका संबंध जोड़ा गया है। कहीं-कहीं प्रथम भाग में निर्दिष्ट गाथाओं की इस भाग में पुनरावृत्ति भी हुई है, यदि वे गाथाएं उस भाग में व्याख्याग्रंथों में उद्धृत रूप में हैं और इस भाग में स्वीकृत ग्रंथों के मूल में हैं। अन्य आगम ग्रंथों से पाठांशों का निर्मूहण विषय को विशद और समृद्ध बनाने के लिए अनेक स्थलों पर कोष्ठक में आयारो, सूयगडो, ठाणं, समवाओ, भगवई आदि आगमों के यथास्थान उद्धरण दिए गए हैं। यथा * अंतकृत विषय में स्था ४/१ में उल्लिखित चार प्रकार की अंतक्रिया का उल्लेख किया गया है। * अनशन विषय में पण्डितमरण के प्रकारों की मीमांसा में भगवती-जोड़ की गाथाएं उद्धृत की गई हैं। * देवों के इन्द्र, वर्ण, चिह्न, उनके अधिकार आदि के संदर्भ में ठाणं, पण्णवणा आदि के अनेक स्थल उद्धृत हैं। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति * * * * पाया) भगवती भाष्य में देवों की मनुष्यलोक में आने की प्रक्रिया निर्दिष्ट है। उसे भी यहां उद्धृत किया गया है। (द्र देव) * रोग के प्रसंग में १६ प्रकार के रोग आयारो और उसकी वृत्ति से उद्धृत किए गए हैं (द्र चिकित्सा)। मण्डल कुष्ठ आदि रोगों के लक्षण, अगद (विषनाशक औषधि), पुराने घृत आदि की उपयोगिता तथा रोगी, परिचारक, वैद्य और औषधि की अर्हता के संदर्भ में चरक और सुश्रुत के ग्रंथांश उद्धृत किए गये हैं। संक्रामक रोग कुष्ठ के प्रकरण में सेटुक का दृष्टांत निर्दिष्ट है, उस पूरी घटना की जानकारी हेतु उपदेशप्रासाद (भाग-१) से सेटुक की कथा उद्धृत की गई है। (द्र चिकित्सा) * तत्त्वार्थभाष्य से सोलह भावनाओं का स्वरूप उद्धृत किया गया है। (द्र भावना) * सूयगडो से छब्बीस प्रकार की विद्याएं उद्धृत की गई हैं। (द्र मंत्र-विद्या) * व्यवहारचूलिका से चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्न उद्धृत किये गए हैं। (द्र स्वप्न) * कहीं-कहीं विषय में निर्दिष्ट कथ्य की संपुष्टि के लिए उसका सक्रिय प्रयोगात्मक पक्ष कोष्ठक में उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यथा-जन्म से आठवें वर्ष में दीक्षा हो सकती है-इस आदेश की क्रियान्विति के रूप में प्रज्ञापुरुष श्रीमज्जयाचार्य द्वारा प्रदत्त बालदीक्षा का उल्लेख किया गया है। (द्र दीक्षा) * जहां मूलपाठ या व्याख्यापाठ में पाठ की द्विरूपता है, मतैक्य नहीं है, उन दोनों पाठों का संग्रहण कर कोष्ठक में उसकी समीक्षा भी दे दी गई है। यथा उपस्थाना शय्या। (द्र शय्या) * जहां सूत्रपाठ, नियुक्ति गाथा या भाष्यगाथा दुरूह/दुर्बोध है, शब्दों की क्लिष्टता है, वहां उसकी चूर्णि और वृत्ति दे दी गई है और हिन्दी अनवाद प्रायः उसी के अनुरूप किया गया है। कहीं-कहीं वृत्तिपाठ नहीं भी दिया है किन्तु स्पष्टता के लिए हिन्दी अनुवाद विस्तार से किया गया है, वह भी चूर्णि-वृत्ति के आधार पर ही किया गया है। * प्रथम दृष्टिपात में ही विषय के सहज एवं स्पष्ट बोध के लिए कहीं-कहीं यन्त्र, स्थापना एवं चित्र दिए गए हैं। यथा-उपधि (पात्र का मुद्रिका-नौबंध), काल (करणयंत्र), तप (रत्नावलि आदि के यंत्र), लोक (अढ़ाई द्वीप का मानचित्र)। इसी प्रकार तीर्थंकर, देव, भिक्षुप्रतिमा, महाव्रत, स्थविरावलि आदि विषयों में तालिकाएं दी गई हैं। * अनेक स्थलों पर विषय की सरसता और सुबोधता के लिए कथाओं और दृष्टान्तों का समावेश किया गया है। उनमें इतिहास, संस्कृति, कला, शिक्षा, मनोविज्ञान और लोकजीवन की अमूल्य धरोहर निहित है। यथा ★ भगवान महावीर द्वारा उदायन की दीक्षा (द्र तीर्थंकर) ★ क्षमादान : प्रद्योत-उद्रायण (द्र अधिकरण) ★ पालक की क्रूरता, स्कन्दक के शिष्यों की समाधि मृत्यु (द्र अनशन) ★ ज्ञानदान की आकांक्षा : आर्यकालक का स्वर्णभूमि में गमन (द्र अनुयोग) ★ तीक्ष्ण आज्ञा : चन्द्रगुप्त-चाणक्य (द्र आज्ञा) ★ प्रवचन-प्रभावना : राजा सम्प्रति (द्र संघ) ★ अतिशयों की उपजीविता : आर्यसमुद्र-आर्यमंगु (द्र आचार्य) ★ विद्यार्थी की योग्यता वृद्धि : सर्षप आदि दृष्टान्त (द्र अंतेवासी) ★ स्वभाव परीक्षण की प्रक्रिया : ब्राह्मणी की पुत्रियां (द्र अनुयोग) ★ कलह अनुपशमन से हानि : गज-गिरगिट दृष्टांत (द्र अधिकरण) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति ★ नेतृत्व क्षमता : सर्पशीर्ष-पुच्छ दृष्टान्त (द्र आचार्य) ★ विसंभोजविधि-प्रवर्तन : महागिरि-सुहस्ती (द्र साम्भोजिक) ग्रंथ के अंत में तीन परिशिष्ट हैं। प्रथम परिशिष्ट में लगभग पांच सौ कथाओं, दृष्टान्तों और उपमाओं का ससंदर्भ विषय-विभागपूर्वक संकेत दिया गया है। दूसरे-तीसरे (विशेष शब्द विमर्श-युगल शब्द विमर्श) परिशिष्ट में लगभग दो सौ शब्दों के अर्थ, परिभाषाएं ससंदर्भ निर्दिष्ट हैं। ०विमर्शनीय स्थल प्राचीन काल प्रवचन काल था। लिखने की परम्परा नहीं थी। कण्ठस्थ परम्परा जब लिपिबद्धता में परावर्तित हुई तो लिपिकर्ताओं ने अत्यंत जागरूकता से आगमपाठों को लिपिबद्ध किया। हो सकता है कहीं कोई पाठ छूट गया हो अथवा काल के प्रलम्ब अंतराल में किसी कारणवश विलुप्त हो गया हो। यथा-दशाश्रुतस्कंध की आठवीं दशा (परिशिष्ट) में चार तीर्थंकरों (अर्हत् ऋषभ, अर्हत् अरिष्टनेमि, अर्हत् पार्श्व और श्रमण महावीर) के सिद्ध होने वाले साधुओं की संख्या निर्दिष्ट है। अर्हत् पार्श्व के अतिरिक्त शेष तीन अर्हतों की सिद्ध होने वाली साध्वियों की संख्या भी निर्दिष्ट है। वह सिद्ध होने वाले साधुओं से दुगुनी है (साधु बीस हजार तो साध्वियां चालीस हजार, साधु डेढ हजार तो साध्वियां तीन हजार)। इसी को आधार मानकर हमने अर्हत् पार्श्व की सिद्धि प्राप्त साध्वियों की संख्या कोष्ठक में दे दी है-सिद्ध होने वाले एक हजार साधु (और दो हजार साध्वियां)। द्र अंतकृत प्रज्ञापुरुष श्रीमज्जयाचार्य ने सिद्धिगमन के प्रसंग में सब तीर्थंकरों के सिद्ध होने वाले साधुओं की संख्या का निर्देश किया है, साध्वियों का नहीं। केवल अर्हत् ऋषभ की साध्वियों की चर्चा की है-श्रमणी.... चाली सहस्र अमर पद पाई..... । (बड़ी चौबीसी १/२०)। ऋषभ के बीस हजार साधु और चालीस हजार साध्वियां सिद्ध हुईं। साधुओं से साध्वियों की दुगुनी संख्या की संभावना इससे भी पुष्ट होती है। फिर भी एक विमर्शनीय बिन्दु शेष रह जाता है, जब अर्हत् मल्लि के सिद्ध होने वाले अंतेवासियों की संख्या पढ़ते हैं-अर्हत् मल्लि पांच सौ साध्वियों और पांच सौ अनगारों के साथ सिद्ध बनीं (ज्ञा१/८/२३५)। पर यह संख्या मल्लिप्रभु के साथ ही सिद्ध होने वालों की है, उनके केवलज्ञानी मुनियों की संख्या तीन हजार दो सौ है (बड़ी चौबीसी १९/२४, २७)। हो सकता है, उनकी कैवल्यप्राप्त साध्वियों की संख्या छह हजार चार सौ हो। प्राचीन हस्तलिखित प्रतियां भारतीय साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। जिन्होंने इन्हें लिखा है, वे लिपिकार भी नाना ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं के सुरक्षासंवाहक बने हैं। किसी भी कारण से उनमें जो अशुद्धियां रह गई हैं, उनका सही-सही संशोधन विज्ञ पुरुष के वश की बात है। लगभग चार सौ वर्ष पुरानी बृहत्कल्पचूर्णि की प्रति देखी, उसके किसी एक उद्देशक में भी पचासों अशुद्धियां पाई गईं। सवृत्ति व्यवहार भाष्य की मुद्रित प्रतियों में भी सैकड़ों अशुद्धियां रह गई हैं। लिपिभेद या अर्थ बोध के अभाव में ऐसा हुआ है-यह संभव है। यथा व्यभा २७६३ की वृत्ति में कण्डकानि के स्थान पर कण्टकानि शब्द लिखा है। असंख्य संयमस्थानों अथवा संयमश्रेणिविशेष की संज्ञा है कण्डक (संख्यातीत परिणामस्थान)। हमने कण्डक शब्द ही रखा है। (द्र लेश्या) शब्दों की जोड़-तोड़, अक्षर व्यत्यय या अक्षर छूटने से जो अशुद्धि ध्यान में आयी, उसे भी ठीक किया गया है। व्यभा ९५६, ९५७ में निप्फादगसिस्साणं और आयतीय पडिबंधो के स्थान पर निप्फादग सिस्साणं और आयतीयऽपडिबंधो पाठ ग्रहण किया है। (द्र संघ) = Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति कहीं-कहीं हमने गाथा के मूल शब्द के स्थान पर लगभग उसी के समकक्ष अन्य शब्द की संभावना कर उसे अनुवाद में कोष्ठक में वैकल्पिक रूप से दिया है । यथा आसासो.....मा भाहि (व्यभा १६८१ ) – इसमें मा भाहि के स्थान पर माभाइ रूप की संभावना की है। यह शब्द देशीनाममाला में अभयदान के अर्थ में गृहीत है । संघ आश्वास है, विश्वास है....इसलिए 'डरो मत' - इसकी अपेक्षा 'संघ अभयदाता है' यह अनुवाद अधिक संगत प्रतीत होता है (द्र संघ)। हो सकता है कभी यही (माभाइ) शब्द रहा हो और लिपि प्रतिलिपि काल में एक पद के स्थान पर दो पद और 'इ' के स्थान पर 'हि' अक्षर लिखे जाने पर 'मा भाहि' हुआ हो । • उत्सर्ग अपवाद सूत्र भाष्य - चूर्णि टीका साहित्य में अपवादों की प्रलंब परिचर्चा है, जिसमें प्रयोजनवश छहकायवध तक को करणीय मान लिया गया है। किन्तु अध्यात्मवादी आचार्यों ने इसे किंचित् भी स्वीकृति नहीं दी (द्र सूत्र ) । आचार्य भिक्षु और श्रीमज्जयाचार्य ने चूर्णि आदि को उतना ही प्रमाण माना, जितना वे ग्यारह अंगों से मेल खाते हैं -- 'टीका चूर्णि भाष्य निर्युक्ति नां, यांरा करै घणा बखाण । ए च्यारूंई जिन भाख्या नहीं, त्यांरी बुधिवंत करज्यो पिछाण ॥ ' - भिक्षुग्रंथरत्नाकर (खण्ड ३) रत्न : १४ निक्षेपनिर्णय (हस्तलिखित प्रति ) एकादश जे अंग थी, मिलता सर्व मानवा जोग्य मुझ, संपूरण दस पूर्वधर, तास रचित आगम हुवै, दस चउदस पूरवधरा, ते पिण जिन नीं साख थी, वचन पइन्ना प्रमुख २७ सुजाण । पिछाण ॥ चउदश वारू न्याय आगम उदार । रचै विमल न्याय सुविचार || - प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध, १५ / १३; १९ / १२; २० / ९ चतुर्दशपूर्वी और सम्पूर्णदशपूर्वी द्वारा रचित आगम प्रमाण हैं - जयाचार्य की इस स्थापना का आधार है नन्दी (सूत्र ६६), जिसमें बतलाया गया है कि 'द्वादशांग गणिपिटक चौदह पूर्वधरों और अभिन्न दसपूर्वधरों के लिए सम्यक् श्रुत है। इससे न्यून पूर्वधरों के लिए सम्यक् श्रुत की भजना (विकल्प) है।' जो द्वादशांगी के अविरुद्ध है, वह प्रमाण है। द्वादशांगी के विरुद्ध है, वह प्रमाण नहीं है । जयधवला में गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और सम्पूर्ण दशपूर्वधर के द्वारा रचित आगम का प्रामाण्य स्वीकार किया गया है। (कषाय पाहुड, पृ. १५३) भाष्यकारों ने व्यवहार (प्रायश्चित्तदान) के लिए नवपूर्वी का भी प्रामाण्य माना है। (व्यभा ३१८) । पुस्तक लेखन वीरनिर्वाण ८२७ -८४० में आर्य स्कंदिल की अध्यक्षता में मथुरा में और नागार्जुनसूरि की अध्यक्षता में वलभी में आगम वाचना हुई । साधुसंघ एकत्र हुआ। उस समय आगमों को संकलित कर लिखा गया । वीरनिर्वाण ९८०-९९३ में देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने वलभी में पुनः आगमों को पुस्तकारूढ़ किया । आगमों के लिपिबद्ध होने के उपरांत भी एक विचारधारा ऐसी रही कि साधु पुस्तक नहीं लिख सकते । पुस्तक लिखने और रखने में अनेक दोष हैं (द्र पुस्तक) । साधु जितनी बार पुस्तकों को बांधते हैं, खोलते हैं और जितने अक्षर लिखते हैं, उन्हें दण्डस्वरूप पूरवधार । विचार ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ प्रस्तुति उतने ही चतुर्लघु प्राप्त होते हैं (बृभा ३८३१) और आज्ञा-भंग आदि दोष लगते हैं। आचार्य भिक्षु ने इस विचारधारा का निरसन करते हुए लिखा है - साधु लेखनी, मषि, मषिपात्र, पट्टी, कम्बिका आदि लेख सामग्री के उपकरणों को रख सकता है। पूर्व आचार्यों द्वारा लिखित पांना (पत्र) हमारी प्रतीति के स्थान हैं। पांचवें आरे में जिनशासन चलेगा, शुद्ध श्रद्धा और आचार रहेगा- इसमें शंका हो तो उन लिखित पत्रों को देखकर ही शंका निवारण किया जा सकता है। पुस्तक के बिना शुद्ध श्रद्धा और आचार का परिज्ञान और उसका अनुपालन कैसे संभव हो सकता है ? उन्होंने नंदी, दशा आदि आगमों की साक्षियां भी दी हैं । (द्र भिक्षुग्रंथ रत्नाकर खण्ड १, रत्न : ११ जिनाज्ञा री चौपाई ५ / ३४-४८) जैन साहित्य के अनुसार लिपि का प्रारंभ प्रागैतिहासिक है। समवाओ ७२/७में वर्णित बहत्तर कलाओं में लेखकला का प्रथम स्थान है। समवाओ (१८/५) और प्रज्ञापना (१/९८) में ब्राह्मी लिपि के अठारह प्रकार के लेखविधान प्रज्ञप्त हैं । ऋषभ ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपिविधान और सुन्दरी को संख्यागणित सिखाई थी (द्र श्रीआको १ तीर्थंकर)। श्रुतज्ञानी आचार्य अपने शिष्यों को सरलता से समझाने के लिए मेरुपर्वत, द्वीप - समुद्र, देवकुरु - उत्तरकुरु, देवलोक आदि के चित्रों का आलेखन करते हैं (द्र आवचू १ पृ. ३५, ३६; नंदीचू पृ. ८२ ) । पत्र, वल्क, काष्ठ, दंत, लोह, ताम्र, रजत आदि-ये लिपि के आधार हैं। (समवृ प. ७८) • तित्थोगाली में आगमविच्छेद का उल्लेख प्राप्त है । (द्र श्रुतज्ञान) उसके अनुसार आचारांग का विच्छेद वीरनिर्वाण १३०० (ई. ७७३) में हुआ। इतना सुनिश्चित है कि शीलांकसूरि (वि. ८ वीं शती) को आचारांग का जो अंश प्राप्त था, उसका विच्छेद नहीं हुआ है । अतः तित्थोगाली का विवरण प्रामाणिक नहीं लगता। (देखें आचारांग भाष्य की भूमिका, पृ. १८) कृतज्ञता के स्वर अर्हत्-वाणी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए परमपूज्य आचार्य श्री तुलसी ने सन् १९६५ में लिखा था— 'मेरी यह धारणा रही है कि जिनवाणी की आराधना जिनशासन की सबसे बड़ी प्रभावना है। हमारा यह प्रयास शताब्दियों तक चार तीर्थ के लिए उपयोगी बना रहेगा । हमें इस क्षेत्र में कार्य करने का जो अवसर मिला है, इसके लिए हम सदा जिनवाणी के कृतज्ञ रहेंगे। .... आगम- सम्पादन के कार्य में मानसिक समाधि बहुत रहती है । एक अनूठी आत्मानुभूति और आनन्दानुभूति होती है। उस समय एकाग्रता भी अनिर्वचनीय होती है ।' हमें जिनोपम-जिनवाणीरसज्ञ आगममर्मज्ञ वाचनाप्रमुख श्रीतुलसी- महाप्रज्ञ की सिद्ध सन्निधि में बैठकर अगम आगमसिन्धु की अनेक अमृतबूंदों का रसास्वादन करने के अनेक दुर्लभ अवसर सुलभ हुए हैं- यह हमारा अहोभाग्य है । आगमकार्य में सहभागिता से हमारे सौभाग्य में चार चांद लग गये। परानुकम्पी पूज्यप्रवर पुरुषयुग ने हमें आगमविषयकोश के महत्त्वपूर्ण कार्य में नियोजित कर प्रसन्नता के पावन प्रयाग में प्रतिष्ठित कर दिया है। आत्ममंदिर की परिक्रमा करने वाली उनकी अध्यात्ममयी श्रुतसन्निधि में श्रवण, बोधि और अभिगम के द्वारा अनेक श्रुतरत्न समुपलब्ध हुए हैं - अनेक अदृष्ट, अश्रुत और अविज्ञात आर्यपद दृष्ट, श्रुत और सुविज्ञात हुए हैं। जिनकी निष्कारण करुणा ने, अवितथ अनुग्रह - आशीर्वाद ने हमें अर्थसम्पदा से सम्पन्न बनाया है, जिन्होंने विद्या और आचार की अनुशिष्टि दी है, दे रहे हैं। अनुत्तर योगक्षेमपद की प्राप्ति कराई है, करा रहे हैं, कराते रहेंगे- ऐसे परम प्रणम्य परमाराध्ययुग के श्रीचरणों में पुनः पुनः श्रद्धाभिषिक्त प्रणाम । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति २९ अंतर्द्रष्टा आचार्यप्रवर ने कोशगत शब्द-अर्थ संबंधी अनेक दुर्गम स्थलों को प्रज्ञालोक से प्रकाशित कर सुगम बनाया है। आज्ञापुरुष पूज्य युवाचार्यप्रवर की समाधानमयी जिज्ञासा से यह कोश परिष्कृत-उपकृत हुआ है। धारणाकुशल साहित्यस्रोतस्विनी पूज्या महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाश्रीजी के व्यवस्था कौशल ने, वात्सल्यमयी संपृच्छा ने-अब यह कार्य कितना शेष है, कब पूरा करोगी?-इस प्रश्नमयी प्रेरणा ने कोशकार्य की शीघ्र सम्पूर्ति के लिए पुन:-पुनः संप्रेरित किया है। करुणा की इस कामधेनु ने उदारता के साथ विकास के अनेक अवसर दिए हैं, दे रही हैं, देती रहेंगी। प्रस्तुत कोश की समग्र सम्पन्नता में सर्वाधिक श्रेयोभागी हैं आगम मनीषी मुनिश्री दुलहराजजी, जिन्होंने अकार से सकारपर्यन्त प्रत्येक विषय के प्रत्येक पृष्ठ की वीक्षा-समीक्षा में अपने अमूल्य क्षणों का नियोजन किया है। साध्वी दर्शनविभाजी ने पाठग्रहण, न्यूनाधिक हिन्दी अनुवाद, प्रतिलिपि, प्रूफरीडिंग और परिशिष्ट-निर्माण में निष्ठापूर्ण श्रम किया है। समणी उज्ज्वलप्रज्ञाजी ने अत्यंत तत्परता से सैकड़ों-हजारों कार्डों की प्रतिलिपि, परिशिष्टनिर्माण और प्रूफ को मूल ग्रंथ से मिलाने में जो निष्ठापूर्ण श्रम किया, वह मूल्याह है। समणी चिन्मयप्रज्ञाजी और मुमुक्षु शिल्पा का आंशिक प्रूफ अवलोकन आदि में अच्छा सहयोग रहा। परमाराध्य पूज्यप्रवर द्वारा आलेखित भूमिका कोश की मूल्यवत्ता को लक्षगुणित करने वाली है। मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी ने भूमिका का आंग्लभाषा में अनुवाद किया है। प्रस्तुत कोश में पाठक को तद्-तद्विषयक विपुल सामग्री एक स्थान पर उपलब्ध हो जाए-इस भावना से आचारांगभाष्य, भगवतीभाष्य, तत्त्वार्थभाष्य, चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता आदि अनेक ग्रंथों का उपयोग किया गया है। उन सब सूत्रकारों, भाष्यकारों और ग्रंथकारों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता। जिन साधु-साध्वियों, समणियों, मुमुक्षु बहिनों, प्राध्यापकों आदि का इस कोशकार्य में यत्किंचित् भी सहयोग रहा है, उन सबके प्रति कृतज्ञता। पुनश्च पूज्यप्रवरत्रयी के प्रेरणा-प्रोत्साहन-मार्गदर्शन के असंदीन दीप हमारे ज्ञान-दर्शन-चरणपथ को निरंतर आलोकित करते रहें। इस विलक्षण अभिनव रत्नत्रयी के पुण्य प्रसाद से हम अतल श्रुत-सागर की गहराइयों में अवगाहन कर उसका यत्किंचित् तलस्पर्श कर सकें-यही अभिलषणीय है। दिव्यात्मा पुण्यात्मा परमाराध्य श्री तुलसी की आशीर्वादमयी अध्यात्म मुद्रा एवं आत्मप्रदेशों में अभिनव परिस्पन्दन पैदा करने वाली वात्सल्यमयी दृष्टि के स्मरण-दर्शन से श्रुतयात्रा में हमारी निरंतर गतिशीलता बनी रहे-यही हार्दिक अभिलाषा है। लाडनूं २६.१.२००५ विनयावनत साध्वी विमलप्रज्ञा साध्वी सिद्धप्रज्ञा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ - परिचय जैन आगमों की रचना के दो प्रकार प्राप्त होते हैं- कृत और निर्यूढ । जिनकी रचना स्वतंत्र रूप से हुई है, वे आगम कृत हैं। द्वादशांगी गणधर द्वारा तथा उपांग आदि विभिन्न आगम भिन्न-भिन्न स्थविरों द्वारा कृत हैं। निर्यूढ आगम छह हैं - १. दशवैकालिक २. आचारचूला ३. निशीथ ४. दशाश्रुतस्कंध ५. बृहत्कल्प ६. व्यवहार । दशवैकालिक चतुर्दशपूर्वी आचार्य शय्यम्भव द्वारा निर्यूढ है, जिसका संग्रहण हमने श्रीभिक्षु आगम विषय कोश के प्रथम भाग में किया है। शेष पांच आगम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहुस्वामी द्वारा निर्यूढ हैं। प्रस्तुत कोश (भाग-२) इन्हीं पांच निर्यूढ आगमों से संबंधित है। १. आचारचूला जैन साहित्य का प्राचीनतम भाग आगम है। नन्दी में आगम ( श्रुतज्ञान) के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं - अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य। अंगप्रविष्ट के बारह प्रकारों में पहला प्रकार है - आचारांग । इसके दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध प्राचीन है। दूसरा श्रुतस्कंध उत्तरकालीन है। उसकी प्रथम श्रुतस्कंध की चूला के रूप में स्थापना की गई है। आचारांग पांच चूलाओं से युक्त है। उनमें से प्रथम चार चूलाएं द्वितीय श्रुतस्कंध - आचारचूला के रूप में प्रतिष्ठित हैं। आचारचूला के सोलह अध्ययन हैं। प्रथम सात अध्ययन प्रथम चूला है, सात सप्तैकक द्वितीय चूला है। पन्द्रहवां अध्ययन तृतीय चूला और सोलहवां अध्ययन चतुर्थ चूला है । निशीथ पांचवीं चूला है। आचारचूला के अध्ययनों के नाम, उनके निर्यूहण स्थल आदि प्रस्तुत कोश के आगम विषय में निर्दिष्ट हैं । आचारचूला आचारांग के सूत्रपाठों का विस्तार है। इसके रचनाकार चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु हैं। इसकी विस्तृत 'मीमांसा के लिए देखें - आयारो तह आयारचूला की भूमिका, पृ २१ - २७ । आचारचूला के पन्द्रह अध्ययन मुख्यतया गद्यात्मक हैं, कहीं-कहीं पद या संग्रह गाथाएं भी हैं। सोलहवां अध्ययन पद्यात्मक है। ग्रंथ परिमाण - कुल अक्षर ९६२१०, अनुष्टुप् श्लोक - ३००६ आचारचूला और दशवैकालिक दोनों ग्रंथों के कुछ अध्ययनों में शाब्दिक और आर्थिक- दोनों प्रकार की पर्याप्त समानता है। आचारचूला और निशीथ में प्रयुक्त विशेष नाम प्रायः सदृश हैं, अतः आचारचूला के विशेष नामों का अनुक्रम निशीथ के विशेष नामानुक्रम के साथ किया गया है। आचारांग में वर्णित आचार मूलभूत है। उत्तरवर्ती सूत्रों में वर्णित आचार उसका परिवर्धन या विकास है। आचारचूला में भी आचार का परिवर्धन या विकास हुआ है।.....सामयिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर वर्तमान आचार्यों ने उत्सर्ग और अपवाद के सिद्धांत की स्थापना और उसके आधार पर विधि-विधानों का निर्माण किया था। आचारचूला उसी श्रृंखला की प्रथम कड़ी है।" आचारचूला में मुनि की प्रशस्त विहारचर्या का निरूपण है। इसमें दैनिक जीवन में प्रयुक्त आहार, शय्या, गमनागमन, भाषा, वस्त्र, पात्र और अवग्रह - इन विषयों से संबंधित सूक्ष्मातिसूक्ष्म नियमोपनियम उपदर्शित हैं। मुनि शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्शमय पंचविषयात्मक मोह जगत् में रहता हुआ भी वीतरागता के सर्वोच्च शिखर पर १. प्रस्तुत कोश में संगृहीत पांच आगम तथा उनके व्याख्या ग्रंथ २. आनि ११, ३१७ ३. दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. ५३-७१ ४. निसीहज्झयणं, परिशिष्ट-३, पृ. ५९-१२० ५. आचारांगभाष्यम् भूमिका, पृ २१ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ परिचय आरोहण कैसे करे ? - इसकी वैज्ञानिक प्रविधि भावना (अध्ययन १५ ) में प्रज्ञप्त है । यथा - ' श्रोत्रेन्द्रिय को प्राप्त शब्द न सुनना शक्य नहीं है। शक्य यही है कि उन पर राग-द्वेष न किया जाए। ' ३२ अंतिम विमुक्ति अध्ययन में रूप्य, पर्वत आदि के माध्यम से सब आसक्तियों से मुक्त होने की प्रेरणा दी गई है । आध्यात्मिक जीवन मूल्यों के प्रति निष्ठा पैदा करने वाले इस आचार शास्त्र अनेक ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और धार्मिक तथ्य भी समाकलित हैं। व्याख्या ग्रंथ • नियुक्ति - आगम की मूलस्पर्शी पद्यात्मक व्याख्या निर्युक्ति कहलाती है । व्याख्यासाहित्य में नियुक्ति सर्वाधिक प्राचीन और प्राकृत भाषा में प्रथम पद्यबद्ध व्याख्या है। आचार्य भद्रबाहु द्वितीय' (वि. छठी शताब्दी) ने आचारांगनिर्युक्ति का प्रणयन किया । आचारांगनिर्युक्ति की कुल ३६८ गाथाएं हैं, जिनमें ३०४ गाथाएं प्रथम श्रुतस्कंध की हैं। दूसरे श्रुतस्कंध की मात्र ६४ गाथाएं (३०५ - ३६८) हैं। दूसरे श्रुतस्कंध के दो नाम हैं- आचाराग्र और आचारचूला । नियुक्तिकार ने अग्र शब्द के निक्षेपों के साथ आचारचूला की नियुक्ति प्रारंभ की है। अग्र शब्द के द्रव्य, अवगाहना आदि दस निक्षेप हैं। दसवां अग्र है उपकार प्रस्तुत में उपकाराग्र का प्रसंग है। जैसे वृक्ष और पर्वत के अग्र होते हैं, वैसे ही आचारांग के ये (चूलाएं) अग्र हैं । अग्र के दस निक्षेप निशीथ निर्युक्ति-भाष्य में व्याख्यायित हैं ।" नियुक्तिकार ने आचारचूला के निर्यूहण का प्रयोजन बताते हुए निर्यूहणकार और निर्यूहणस्थलों का भी निर्देश किया है। पिण्डैषणा की जो निर्युक्ति है, वही शय्या, वस्त्रैषणा आदि की है और वाक्यशुद्धि (द ७) की निर्युक्ति ही भाषाजात (आचूला ४) की निर्युक्ति है ५ - नियुक्तिकार के इस कथन से स्पष्ट है कि आचारांगनिर्युक्ति की रचना दशवैकालिकनियुक्ति के पश्चात् की गई है। शय्या के छह निक्षेप प्रज्ञप्त हैं। द्रव्य शय्या के प्रसंग में वल्गुमति का उदाहरण दिया गया है। जीव का औदयिक आदि छह भावों में प्रवर्तन भाव शय्या है। जीव जब जहां सुख-दुःख का वेदन करता है, स्त्री की काया में गर्भ रूप में रहता है, उसे भी भाव शय्या कहा गया है। फिर शय्याध्ययन के तीनों उद्देशकों की विषयवस्तु का प्रतिपादन कर सम-विषम शय्या में निर्जरा हेतु समभाव से रहने का निर्देश दिया गया है। इससे आगे ईर्या, भाषा, पात्र और अवग्रह के निक्षेप करते हुए उन-उन उद्देशकों की विषयवस्तु का वर्णन किया गया है। दूसरी चूला 'के सात अध्ययनों में उद्देशक नहीं हैं - यह बताते हुए उच्चार- प्रस्रवण का निरुक्त करते हुए शब्द, रूप, पर और अन्य शब्द के निक्षेप किये गए हैं। अंत में निष्प्रतिकर्म मुनि के लिए परक्रिया और परस्परक्रिया को अयुक्त बताया गया है। तीसरी चूला की नियुक्ति में अप्रशस्त भावना बताकर प्रशस्त - दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वैराग्य भावना की स्वरूप मीमांसा की गई है । अनित्य आदि बारह भावनाएं वैराग्य भावना के अंतर्गत हैं । प्रस्तुत अध्ययन में चारित्र भावना का प्रसंग है। चतुर्थ चूला (विमुक्ति) के पांच अर्थाधिकार हैं - १. अनित्यता, २. पर्वत अधिकार, ३. रूप्य अधिकार, ४. भुजगत्वक् अधिकार और ५. महासागर अधिकार । अंत में नियुक्तिकार ने पांचवीं १. श्री आको१, ग्रंथपरिचय, पृ. ३१ २. आनि ३०५, ३०६ ३. निभा ४९-५८ ४. आनि ३०७-३१६ ५. वही, ३१८, ३१९ ६. वही, ३२१-३४२ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ परिचय चूला (निशीथ) की नियुक्ति करने की प्रतिज्ञा करते हुए आयारो के दोनों श्रुतस्कंधों के अध्ययनों और उद्देशकों की संख्या का निर्देश किया है। • चूर्णि - यह ग्रंथ की प्राकृत-प्रधान गद्यमय व्याख्या है। परंपरा से इसके कर्त्ता जिनदास महत्तर माने जाते हैं। चूर्णि का शब्दशरीर टीका की अपेक्षा संक्षिप्त है, किन्तु अर्थाभिव्यक्ति और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत मूल्यवान् है। इसमें यत्र-तत्र अनेक संदर्भों में अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों से प्राकृत संस्कृत के अनेक श्लोक उद्धृत किए गए हैं। आचारांग के दोनों श्रुतस्कंधों की चूर्णि ३८२ पृष्ठों में परिसम्पन्न होती है, जिसमें द्वितीय श्रुतस्कंध (आचारचूला) की चूर्णि मात्र ५८ (३२५-३८२) पृष्ठों में वर्णित है। • वृत्ति - आचारांग का तीसरा व्याख्याग्रंथ वृत्ति (टीका) है। चूर्णि और वृत्ति ये दोनों सूत्र और नियुक्ति के आधार पर चलते हैं । वृत्ति का शब्दशरीर उपलब्ध व्याख्याग्रंथों में सबसे बड़ा है । ४३२ पत्रों में आलेखित इस वृत्ति के कर्त्ता शीलांकसूरि हैं । आचारचूला की वृत्ति ११५ (३१८-४३२) पत्रों में व्याख्यायित है । आचारचूलावृत्ति २५५४ श्लोकप्रमाण है । सम्पूर्ण आचारांग वृत्ति का ग्रंथ परिमाण १२००० श्लोक प्रमाण है । ३३ द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रारंभ में वृत्तिकार ने श्लोकत्रयी के माध्यम से मध्य मंगल करते हुए चतुर्चूलात्मक अग्रश्रुतस्कंध की व्याख्या करने की प्रतिज्ञा की है । आचारांग की अग्रभूता चार चूलाएं उक्त अनुक्त अर्थसंग्राहिका हैं। निक्षेप पद्धति से द्रव्याग्र, अवगाहनाग्र आदि की सोदाहरण व्याख्या की गई है। सूत्रपदों और निर्युक्तिपदों का सरस भाषा में अर्थबोध कराया गया है । यथा - ' सासियाओ' त्ति जीवस्य स्वाम् आत्मीयामुत्पत्तिं प्रत्याश्रयो यासु ताः स्वाश्रयाः, अविनष्टयोनय इत्यर्थ: ।...'द्विदलकृताः ' ऊर्ध्वपाटिताः 'तिरश्चीनच्छिन्नाः ' कन्दलीकृताः ।----'पिहुयं व' त्ति पृथुकं जातावेकवचनं नवस्य शालिव्रीह्यादेरग्निना ये लाजाः क्रियन्ते ते...... । ' अप्रतिष्ठितः ' न क्वचित् प्रतिबद्धोऽशरीरी वा....'कलंकलीभावात्' संसारगर्भादिपर्यटनाद्':' ।' सूत्र अथवा नियुक्ति के मंतव्य की स्पष्टता - विशदता के लिए अनेक स्थलों में सैकड़ों सुंदर श्लोक उद्धृत किए गए हैं, जो तत्कालीन संस्कृति, परम्परा, मनोविज्ञान, वस्त्रविज्ञान आदि विविध कोणों का स्पर्श करते हैं। यथासूत्र (५/३०) का निर्देश है कि मुनि प्रायोग्य, स्थिर, ध्रुव और धारणीय वस्त्र ग्रहण करे। लक्षणहीन वस्त्र से ज्ञानदर्शन - चारित्र की हानि होती है। इस संदर्भ में दो श्लोक उद्धृत हैं चत्तारि देविया भागा, दो य भागा य माणुसा। आसुरा य दुवे भागा, मज्झे वत्थस्स रक्खसो ॥ देवि सुत्तमो लाभो, माणुसेसु अ मज्झिमो । आसुरेसु य गेलन्नं मरणं जाण रक्खसे ॥ • वार्तिक - श्रीमज्जयाचार्य ने वि. सं. १८९३ में आचार के दूसरे श्रुतस्कंध पर राजस्थानी भाषा में वार्तिक (टबा) लिखा। आचारचूला के चर्चास्पद विषयों के स्पष्टीकरण के लिए १३१ पत्रों में निबद्ध (हस्तलिखित) प्रस्तुत वार्तिक ( बालावबोध) बहुत महत्त्वपूर्ण है । चार छेदसूत्र दशा, कल्प, व्यवहार और निशीथ - ये चार आगम वर्तमान वर्गीकरण के अनुसार छेदसूत्र के वर्गीकरण में १. आनि ३४३-३६८ २. आवृ प ३२३, ४३१ । ३. वही, प ३९६ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ परिचय हैं। अनुयोग व्यवस्था में छेदसूत्रों को चरणकरणानुयोग के अंतर्गत रखा गया है (द्र श्रीआको १ अनुयोग)। नन्दी में इनकी गणना अंगबाह्य कालिकसूत्रों में की गई है (द्र श्रीआको १ अंगबाह्य) । इनका मुख्य विषय कल्प-अकल्प, विधि-निषेध और प्रायश्चित्त है (द्र प्रस्तुत कोश, छेदसूत्र)। २. निशीथ (आचार की पांचवीं चूला) यद्यपि छेदसूत्रों की गणना में निशीथ का स्थान चतुर्थ है, किन्तु हमने परिचय-क्रम में इसे प्रथम स्थान पर रखा है क्योंकि निशीथ आचारांग की पांचवीं चूला है। आचारचूला के साथ इसकी विषय संबद्धता भी है। निशीथ को आचारांग का छब्बीसवां अध्ययन कहा गया है। निशीथ को एक अध्ययन के रूप में मान्यता प्राप्त है, इसीलिए इसे निशीथाध्ययन भी कहा जाता है। इसके बीस उद्देशक हैं, जिनमें कुल १४१७ सूत्र हैं। उन्नीस उद्देशकों में प्रायश्चित्त का विधान है और बीसवें उद्देशक में प्रायश्चित्त देने की प्रक्रिया है। इस उद्देशक का मुख्य विषय आरोपणा है। १. मासिक उद्घातिक २. मासिक अनुद्घातिक ३. चातुर्मासिक उद्घातिक ४. चातुर्मासिक अनुद्घातिक और ५. आरोपणा-इन पांच विकल्पों के आधार पर बीस उद्देशकों का विभाजन किया गया है। स्थानांग (५/१४८) में इन्हीं पांच विकल्पों को 'आचार-प्रकल्प' (निशीथ) कहा गया है। निशीथ का अर्थ है-अप्रकाश। यह सूत्र अपवादबहुल है, इसलिए इसका यत्र-तत्र प्रकाशन नहीं किया जाता। जिसकी बुद्धि परिपक्व होती है, वह परिणामक पाठक ही निशीथ पढ़ने का अधिकारी है। जो रहस्य को धारण नहीं कर सकता, जो अपरिणामी या अतिपरिणामी है, वह निशीथ पढ़ने का अधिकारी नहीं है। इस ग्रंथ का अक्षरपरिमाण ७६०२१, अनुष्टुप् श्लोकपरिमाण २३७५ है। व्याख्या ग्रंथ नियुक्ति-निशीथ का सबसे प्राचीन व्याख्या ग्रंथ नियुक्ति है। आचार की चौथी चूला के अंत में नियुक्तिकार ने प्रतिज्ञा की है कि इसके पश्चात् मैं पांचवीं चूला (निशीथ) की नियुक्ति करूंगा। चूर्णिकार ने नियुक्तिकार के रूप में भद्रबाहुस्वामी का उल्लेख किया है। इससे निशीथ नियुक्ति का अस्तित्व सहज सिद्ध होता है। ० भाष्य-दूसरा व्याख्या ग्रंथ भाष्य है। वर्तमान में नियुक्ति और भाष्य परस्पर एकमेक हो गए हैं। भाष्यकार संघदासगणी क्षमाश्रमण हैं, ऐसी संभावना की जाती है। प्राकृत भाषा में निबद्ध नियुक्ति-भाष्य की पद्य-संख्या ६७०३ है। भाषा, संस्कृति, इतिहास व मनोविज्ञान की दृष्टि से यह ग्रंथ बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। ० चूर्णि- तीसरा व्याख्या ग्रंथ विशेष चूर्णि है। इसके कर्ता जिनदासगणी महत्तर हैं, जो प्रतिपाद्य विषय के साथ पारिपार्श्विक विषयों का संकलन-संग्रहण करने में बहुत दक्ष हैं। उन्होंने साधक के मानसिक आरोह-अवरोहों का सूक्ष्मता से विश्लेषण किया है। देश-काल संबंधी परिस्थितियों से प्रभावित हो कहीं-कहीं अपवादों की अतियों को भी प्रश्रय दिया है, किन्तु अंततोगत्वा दृढ़ मनोबली संयमी की निर्दोष जीवनचर्या को ही अग्रिम स्थान पर प्रतिष्ठित किया है। प्रस्तुत चूर्णि भारतीय सभ्यता, लोकसंस्कृति एवं इतिहास का आकर ग्रंथ है। इस गद्यमय व्याख्याग्रंथ का परिमाण २८००० श्लोक प्रमाण है। 0 सुबोधा व्याख्या-यह बीसवें उद्देशक की चूर्णि की व्याख्या है। इसके कर्ता श्रीचन्द्रसूरि हैं। १. निचू २ पृ४ २. निभा ६९, ४९५ चू ३. आनि ३६६ ४. निचू २ पृ ३०७ ५. बृभा, भाग-६ प्रस्तावना, पृ २२ ६. निभा ४६० चू Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ परिचय ० जोड़-श्रीमज्जयाचार्य (तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य) द्वारा कृत यह ग्रंथ निशीथ के भावानुवाद जैसा है। यह राजस्थानी भाषा में पद्यबद्ध रचना है। इसमें उन्नीस ढालें (गीत) और कुछ दोहे हैं। कुल पद्य ४०१ हैं। प्रारंभ में श्रीमज्जयाचार्य ने चारों छेदसूत्रों को कोतवाल के समान बताते हुए उनमें निशीथ को सारभूत कहा है। क्योंकि इसमें दोषविशुद्धि के लिए नाना प्रकार के प्रायश्चित्तों का विधान है। निशीथ जोड़ का रचना स्थान-गोगुंदा (मोटा गांव)। रचनाकाल-वि. सं. १८८१ चैत्रमास का शुक्ल पक्ष । जयाचार्यकृत निशीथ की हुंडी भी है, जिसमें निशीथ का सारांश है। निशीथसूत्र की विशेष जानकारी हेतु देखें-'निसीहज्झयणं' ग्रंथ की भूमिका। ३. दशा (दशाश्रुतस्कंध) प्रस्तुत आगम के दो नाम उपलब्ध हैं। नंदी' की सूची में इसका नाम 'दशा' और स्थानांग में इसका नाम 'आचारदशा' मिलता है। इसके दस अध्ययन हैं, इसलिए इसका नाम 'दशा' है। प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से इसका नाम 'आचारदशा' है। इसके नि!हक चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु हैं। इसका नि!हण प्रत्याख्यान पूर्व से किया गया है। प्रथम दशा में साधु की जीवनचर्या को अव्यवस्थित और असमाहित करने वाले बीस असमाधि स्थान प्रज्ञप्त हैं यावत् दसवीं दशा में आजाति स्थान/निदानकरण का निरूपण है। _ 'प्रस्तुत आगम की आठवीं दशा का पाठ संक्षिप्त है। इसमें तेणं कालेणं....'-इस पाठ से सूत्र का प्रारंभ और 'जाव भुज्जो भुज्जो उवदंसइ'-इस पाठ से सूत्र पूर्ण होता है। इस जाव पद के द्वारा पूरा पर्युषणाकल्प यहां संगृहीत है। हमने पर्युषणाकल्प को परिशिष्ट में दिया है। प्रस्तुत अध्ययन के पांच विभाग हैं१. महावीर चरित्र (१-१०७) । २. शेष तेईस तीर्थंकरों का चरित्र (१०८-१८१) । ३. गणधरावलि (१८२-१८५)। ४. स्थविरावलि (१८६-२२२)। ५. पर्युषणाकल्प (२२३-२८८).... नियुक्ति और चूर्णि के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रस्तुत अध्ययन का 'पर्युषणाकल्प' मूल था। महावीर चरित्र और स्थविरावलि ये दोनों देवर्द्धिगणी की वाचना के समय जुड़े।.....तेवीस तीर्थंकरों के विवरण की तथा स्थविरावलि की चूर्णि नहीं है। इससे स्पष्ट है कि ये दोनों चूर्णि की रचना के पश्चात् इसके साथ जोड़े गए। ...... पर्युषणाकल्प' अनेक कालखंडों में संकलित है। देवर्द्धिगणी की वाचना के उत्तरवर्ती संकलन को आगम की कोटि में रखना एक समस्या है।.... इस दृष्टि से हम पर्युषणाकल्प के समग्र रूप को आगम की कोटि में नहीं रख पाते। इसीलिए उसे दशाश्रुतस्कंध आगम के एक परिशिष्ट के रूप में रखा है।५ व्याख्या ग्रंथ ० नियुक्ति-'दशा' के प्रमुख शब्दों और विषयों की संक्षिप्त किन्तु मौलिक व्याख्या करने वाली यह नियुक्ति १४३ गाथाओं में निबद्ध है। सर्वप्रथम नियुक्तिकार ने दशा-कल्प-व्यवहार के नि!हणकर्ता चरम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु की वन्दना करते हुए क्रीड़ा आदि दस आयुविपाकदशाओं का नामोल्लेख किया है और अध्ययनदशा के अंतर्गत ज्ञाता आदि छह अंग-अध्ययनों को महती दशा बताते हुए इस आचारदशा को छोटी दशा कहा है, जिसका निर्वृहण शिष्यों पर अनुग्रह करने के लिए किया गया है। १. नंदी, सूत्र ७८ २. ठाणं १०/११५ ३. दशानि १ चू प२ ४. नवसुत्ताणि, दसाओ ५. नवसुत्ताणि, भूमिका, पृ६०-६३ ६. दशानि १-६ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ परिचय नियुक्ति में समागत तीसरी दशा का 'अनाशातना' नाम विमर्शनीय है क्योंकि इस दशा में तेतीस आशातनाएं प्रज्ञप्त हैं। 'आसादणाए सबलो भवति । एतेणाभिसंबंधेण आसादणज्झयणं पण्णत्तं'-चूर्णि (पत्र ११) की इस पंक्ति से भी स्थानांग (१०/११५) में निर्दिष्ट आशातना' नाम की पुष्टि होती है। नियुक्ति गाथा (८) में प्रयुक्त अणसादण शब्द मूलतः आसादण ही रहा हो, लिपिकाल में आ के स्थान पर अण लिखा या पढ़ा गया हो, बहुत संभव है। चौथा, आठवां और दसवां-इन तीन अध्ययनों को छोड़कर शेष सात अध्ययनों के विषय समवायांग में भी तत्-तत् संख्या से संबद्ध समवाय में प्रज्ञप्त हैं। नियुक्तिकार ने समाधि, स्थान, आसायणा (आसादना-आशातना), गणी, सम्पदा, चित्त, प्रतिमा आदि शब्दों की निक्षेपपरक संक्षिप्त व्याख्या की है। स्थान शब्द के पन्द्रह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, अद्धा, ऊर्ध्व, उपरति, वसति, संयम, प्रग्रह, योध, अचल, गणना, संधना और भाव। चूर्णिकार ने इन पन्द्रह स्थान-निक्षेपों की विस्तृत व्याख्या की है। उत्तराध्ययन नियुक्ति में उत्तर शब्द के पन्द्रह निक्षेप किए गए हैं। आठवीं दशा पर्युषणाकल्प की नियुक्ति में कलह और उसके उपशमन के संदर्भ में दुरूतक, चण्डप्रद्योत और द्रमक के दृष्टांत ऐतिहासिक एवं मार्मिक हैं। साधना के क्षेत्र में जागरूक न रहने से जब चित्त कषायावेश से आविष्ट हो जाता है तो उससे होने वाली क्षति और दुर्गति के प्रसंग में मरुक, अत्वंकारी भट्टा, पांडुरा आर्या और आर्यमंगु के उदाहरण पठनीय हैं। दसवीं दशा की नियुक्ति में जाति, आजाति और प्रत्याजाति का स्वरूप बताकर आजाति का हेतु बताते हुए अनाजाति के उपायों का निर्देश किया गया है। श्रमण की आजाति का हेतु निदान बताकर अनिदानता की श्रेष्ठता स्थापित कर अंत में भवपारगामिता के पांच उपायों की प्रज्ञप्ति दी गई है। ० चूर्णि-दशाश्रुतस्कंधसूत्र और नियुक्ति के आधार पर जिनदासगणिकृत यह चूर्णि प्राकृत प्रधान है, कहीं-कहीं संस्कृत शब्द एवं वाक्य भी प्रयुक्त हैं। यह चूर्णि सरल, सरस एवं अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों से समृद्ध है। जीवन की दस अवस्थाओं के प्रसंग में शरीर-इंद्रियविज्ञान संबंधी कुछ तथ्य उद्घाटित किए गए हैं। जीवन के दूसरे दशक में इन्द्रियविज्ञान मंद रहता है, तीसरे, चौथे और पांचवें दशक में काम, शक्ति और प्रज्ञान का विकास होता है। छठे दशक में बाहुबल और नेत्रज्योति क्षीण होने लगती है। शरीरबल के बिना अध्ययन की श्रद्धा पैदा नहीं होती। दृढ संहनन के बिना उत्साह जागृत नहीं होता। इस चूर्णि में पूर्वो के कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य विकीर्ण हैं* आचार्य भद्रबाहु ने नौवें प्रत्याख्यान पूर्व से दशा-कल्प-व्यवहार का निर्दृहण किया। * नौवें पूर्व के असमाधिस्थान प्राभृत से असमाधिस्थान (दशा १) का तथा सदृश नाम वाले प्राभृतों से शेष अध्ययनों का नि!हण किया गया है। * छठे सत्यप्रवादपूर्व के अक्षरप्राभृत में आ उपसर्ग उपवर्णित है। * आठवें कर्मप्रवाद पूर्व में अष्टांग महानिमित्त प्रज्ञप्त है। वहां स्वर निमित्त के प्रसंग में आ उपसर्ग वर्णित है। * कर्मप्रवाद पूर्व में अष्टविध कर्म को मोह कहा गया है। ___ चूर्णि में अनेक स्थलों पर आगमों के पाठांश तथा संस्कृत एवं प्राकृत के श्लोक भी उद्धृत हैं। बानवे (९२) पत्रों में मुद्रित चूर्णि २२२५ श्लोक परिमाण है। १. दशानि १० चू प ४, ५ २. उनि १ ३. दशानि ९२-१०० ४. वही, १०४-११२ ५. दशानि १२९-१४३ ६. दशाचू प ३ ७. वही, प ३, ५, १२, ७१ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ परिचय ३७ ० वृत्ति-दशा पर ब्रह्मविरचित जनहिता नामक एक संक्षिप्त टीका है। इसके प्रारंभ में पांच गाथाओं में भगवान महावीर और गौतम गणधर की स्तुति कर चूर्णि का उल्लेख करते हुए वृत्ति निर्माण का प्रयोजन बताया गया है। इसमें अध्ययनों की संबंध-योजना भी की गई है। यथा-असमाधिस्थानों का आचरण करने वाला शबल होता है। अथवा शबल स्थानों में प्रवर्तमान के असमाधि होती है। अतः असमाधि से उपरत रहने के लिए शबलत्व के स्थानों का परिहार करना चाहिये। ३४ पत्रों में निबद्ध (हस्तलिखित) इस वृत्ति का पदपरिमाण १०३० है। कल्पसत्र (पर्यषणाकल्प) पर कल्पलता नाम की (हस्तलिखित) टीका है. जो समयसंदर उपाध्याय द्वारा विरचित है। इसका ग्रंथपरिमाण ८००० है। प्रारंभ में दशविध कल्पस्थिति की चर्चा की गई है। तत्पश्चात् पर्युषणा की सामाचारी की विस्तृत जानकारी दी गई है। समिति, गुप्ति आदि के संदर्भ में अनेक कथानक नामोल्लेखपूर्वक निर्दिष्ट हैं। ४. कल्प (बृहत्कल्प) यह छेदसूत्र है, जो चरणकरणानुयोग के अंतर्गत है। कालिक सूत्रों की सूची में यह कल्प नाम से उल्लिखित है। मध्यकाल में पर्युषणाकल्प कल्पसूत्र' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। संभवत: इसीलिए प्रस्तुत 'कल्पसूत्र' के लिए 'बृहत्कल्प' नाम प्रसिद्धि में आ गया। एक दूसरी संभावना पर भी ध्यान आकर्षित होता है कि कल्पसूत्र पर दो भाष्य लिखे गए-बृहत् और लघु। बृहत्कल्पभाष्य-इसमें कल्प के साथ बृहद्भाष्य का उल्लेख है किन्तु उत्तरकाल में यह बृहत् शब्द कल्प के साथ जुड़ गया और कल्प का नाम बृहत्कल्प हो गया। कल्प का नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु से नि!हण किया गया है। निर्वृहणकार हैं चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु । कल्प के छह उद्देशक हैं, दो सौ पांच सूत्र हैं, जिनमें साधु के आचार की प्रज्ञप्ति है। इनमें महाव्रत, समिति और गुप्ति संबंधी विविध विधि-निषेधों का निरूपण है। छह उद्देशकों के मुख्य प्रतिपाद्य विषय ये हैं० प्रथम उद्देशक-तालप्रलंब, मासकल्प, चित्रकर्म, सागारिक-उपाश्रय, व्युपशमन, वैराज्य, आर्यक्षेत्र-विहार आदि। ० द्वितीय उद्देशक-शय्या, शय्यातर, वस्त्र आदि। ० तृतीय उद्देशक-वस्त्रग्रहण, अंतगृह, अवग्रह-अनुज्ञा, सेनापद आदि। © चतुर्थ उद्देशक-अनुद्घातिक, पारांचित और अनवस्थाप्य, उपसम्पदा, शवपरिष्ठापन विधि, महानदी आदि। ० पंचम उद्देशक-मैथुनप्रतिसेवना और चतुर्गुरु प्रायश्चित्त, अनुपशांत कलह और छेद प्रायश्चित्त, ब्रह्मचर्यसुरक्षा हेतु निग्रंथी के लिए आतापना तथा अनेक आसनों का निषेध, यथालघुस्वक व्यवहार आदि। ० षष्ठ उद्देशक-षड्विध अवचन, विशेष स्थिति में साधु-साध्वी की पारस्परिक सेवा विधि (कंटकोद्धार, जलप्रवाह आदि में आलम्बन), साध्वाचार के परिमन्थु (विघ्न), कल्पस्थिति (जिनकल्प, स्थविरकल्प आदि)। प्रस्तुत सूत्र में उपशम को श्रामण्य का सार बताया गया है, जो प्रत्येक साधक के लिए प्रकाशस्तंभ है। सूत्रकार ने विहारक्षेत्र के संदर्भ में निर्देश दिया है कि मुनि को आर्यक्षेत्रों में ही विहरण करना चाहिये, किन्तु इस सीमा से परे यदि ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि होती हो तो मुनि वहां भी जा सकता है। साधना के प्रति यह उदार दृष्टिकोण सूत्रकार की अनेकांत दृष्टि का श्रेष्ठ निदर्शन है। इसका ग्रंथपरिमाण है-अनुष्टुप् श्लोक ४७१, जिनमें कुल अक्षर १५०९५ हैं। व्याख्या ग्रंथ ० नियुक्ति-भाष्य-नियुक्तिकार ने जिन दस नियुक्तियों के निर्माण का संकल्प किया, उनमें से एक नाम १. नन्दी ७८ २. प्रस्तुत कोश (छेदसूत्र) ३. नवसुत्ताणि, कप्पो ४. वही, १/३४, ४७ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ परिचय कल्पनिर्युक्ति का भी है, किन्तु सम्प्रति यह नियुक्ति स्वतंत्र रूप में उपलब्ध नहीं है । वृत्तिकार के अनुसार सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति और भाष्य आज एक ग्रंथ के रूप में प्राप्त है। संघदासगणिक्षमाश्रमण द्वारा प्रणीत प्रस्तुत बृहत्कल्पलघुभाष्य भारतीय साहित्य के इतिहास में एक अद्भुत ग्रंथरत्न है। इसमें तत्कालीन धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों संबंधी महत्त्वपूर्ण सामग्री संकलित है। अनेक स्थल मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से आलोकित हैं। ३८ प्रस्तुत भाष्य में मुनि - आचार का युक्तियुक्त सूक्ष्म विवेचन किया गया है। मुनि के लिए अनेक प्रकार के साधना मार्ग निर्दिष्ट हैं, जिनमें जिनकल्प की साधना का मार्ग अत्यंत दुर्गम है। जिनकल्पी की शिक्षा, सामाचारी और अवस्थिति का ४६ द्वारों से व्याख्यान किया गया है। भाष्य में लगभग २३४ गाथाओं (बृभा भाग - २) में जिनकल्पी की यथासंभव सर्वांगीण जानकारी दी गई है। इस ग्रंथ में अयोग्य विद्यार्थी को योग्य बनाने की और उन्मत्त-विक्षिप्त चित्त वाले व्यक्ति को स्वस्थ बनाने की मनोवैज्ञानिक प्रविधियां सोदाहरण प्रस्तुत की गई हैं। - अनेक स्थलों पर भाष्यकार की प्राकृतकाव्यमयी छवि उभर कर अभिव्यक्त हुई है। उन्होंने गुरुकुलवास की गरिमा का संगान करते हुए कुछ ऐसी गाथाएं आलेखित की हैं, जिन्हें पढ़ने मात्र से आनन्दानुभूति होती हैनास होड़ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य । धन्ना गुरुकुलवासं, आवकहाए न मुंचति ॥ जइमं साहुसंसग्गिं, न विमोक्खसि मोक्खति । उज्जतो व तवे निच्चं न होहिसि न होहिसि ॥ सच्छंदवत्तिया जेहिं, सग्गुणेहिं जढा जढा। अप्पणो ते परेसिं च, निच्चं सुविहिया हिया ॥ जेसिं चाऽयं गणे वासो, सज्जणाणुमओ मओ । दुहाऽवाऽऽराहियं तेहिं, निव्विकप्पसुहं सुहं ॥ नवधम्मस्स हि पाएण, धम्मे न रमती मती । वहए सो वि संजुत्तो, गोरिवाविधुरं धुरं ॥ एगागिस्स हि चित्ताई, विचित्ताइं खणे खणे । उप्पज्जंति वियंते य, वसेवं सज्जणे जणे ॥ यत्र-तत्र सूक्त - सुभाषितों का प्रयोग भी बहुत आकर्षक और संबोधसंवर्धक है । यथा'तं तु न विज्जइ सज्झं जं धिइमंतो न साहेइ ॥ ' ' धंतं पि दुद्धकंखी, न लभइ दुद्धं अधेणूतो ॥' 'मज्झत्थं अच्छंतं, सीहं गंतूण जो विबोहेइ । अप्पवहाए होई, वेयालो चेव दुज्जुत्तो ॥ ' 'जागरिया धम्मीणं, आहम्मीणं च सुत्तया सेया । "एक्कम्मि खंभम्मि न मत्तहत्थी, बज्झति वग्घा न य पंजरे दो ॥ ६ भाष्यकार ने विषय की विशदता के लिए लौकिक-लोकोत्तर दृष्टांतों और कथानकों का प्रचुर प्रयोग किया है, जिनकी संकेत सूची परिशिष्ट १ में दी गई है । ६४९० गाथाओं में संदृब्ध यह भाष्य जीवनदर्शन की विपुल सामग्री से समृद्ध है। © चूर्णि - कल्पसूत्र एवं उसके लघुभाष्य पर लिखित इस चूर्णि की भाषा संस्कृतमिश्रित प्राकृत है। चूर्णिकार की प्रतिपादनशैली अत्यंत सहज, सरल एवं सरस है ........उस्सग्गजोगाणं उस्सग्गं दीवेति । अववायजोगाणं अववायं दीवेति । उभयजोगाणं दो वि दीवेति । पमाएंताण वा दोसे दीवेति । अप्पमादीनं गुणे दीवेति ।.... (बृभा ६४९० की चू प २२७ ) कर्त्ता प्रलम्बसूरि हैं। वृत्तिकार मलयगिरि और क्षेमकीर्त्ति ने चूर्णिकार के लिए क्रमशः यतीश और १. श्रीआको १ (निर्युक्ति) चूर्ण २. बृभावृ पृ २ ३. प्रस्तुत कोश (जिनकल्प) ४. प्रस्तुत कोश (अंतेवासी, चित्तचिकित्सा) ५. बृभा ५७१३, ५७१५-५७१९ ६. बृभा १३५७, १९४४, २२२७, ३३८६, ४४१० ७. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग ३ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ परिचय यतीन्द्र शब्द का प्रयोग किया है। सं. १६६१ में हस्तलिखित २२७ पत्रों वाली इस प्रति में चूर्णि का ग्रंथाग्र १४७८७ बताया गया है। • वृत्ति—आचार्य मलयगिरि ने बृहत्कल्पभाष्य की अपूर्ण वृत्ति लिखी। वे ६४९० गाथाओं में से प्रारंभ की पीठिका की मात्र ६०६ गाथाओं की ही वृत्ति लिख पाए, जिसका ग्रंथमान ४६०० श्लोकप्रमाण है। शेष समग्र वृत्ति आचार्य क्षेमकीर्त्ति द्वारा अनुसन्धित है। आचार्य मलयगिरि और आचार्य क्षेमकीर्त्ति ने विषय की विशदता एवं निरूपण की स्पष्टता के लिए शताधिक ग्रंथांश (संस्कृत - प्राकृत श्लोक एवं कथानक) उद्धृत किये हैं। यथा तेषां कटतटभ्रष्टैर्गजानां मदबिन्दुभिः । प्रावर्त्तते नदी घोरा, हस्त्यश्वरथवाहिनी ॥ न वि लोणं लोणिज्जइ, न वि तुप्पिज्जइ घयं व तेल्लं वा ॥ अनुयोगाधिकार में अधिकाक्षर के संदर्भ में उद्धृत वंजुलवृक्ष और वानर का कथानक पठनीय है. तो कामित सरोवर के तट पर विशाल वंजुल वृक्ष था । जो प्राणी उस पर चढ़कर सरोवर में गिरता, वह यदि तिर्यंच होता मनुष्य बन जाता, मनुष्य होता तो देव बन जाता। एक वानर - वानरी युगल उसमें गिरा और मनुष्य युगल बन गया । बंदर के मन में लोभ जागा । मानुषी रूप वानरी के निषेध करने पर भी वह पुनः जल में गिरा, देव के बदले पुनः बंदर ही हो गया। आज के जीवविज्ञानजगत् के लिए यह अन्वेषणीय विषय हो सकता है कि क्या किसी विशेष वृक्ष और जल में ऐसे परमाणु हो सकते हैं, जो योनि को परिवर्तित कर सकें। मलयगिरि की भाषा प्रसादगुण युक्त और शैली प्रौढ़ है। क्षेमकीर्त्ति वृत्ति भी भलयगिरि-वृत्ति की कोटि की है । यत्र-तत्र प्राकृत- संस्कृत श्लोक और कथानक विविध विज्ञानशाखाओं का स्पर्श करते हैं । परिश्रावी - अपरिश्रावी के प्रसंग में प्रदत्त अमात्य के दृष्टांत में वृक्षविज्ञान या ध्वनिविज्ञान का एक विचित्र तथ्य उजागर हुआ है एक राजा के कान गर्दभ के कान जैसे थे, जो सदा खोल से आवृत रहते थे। एक दिन मंत्री ने देख लिया और वह अत्यंत विस्मित हुआ । राजा ने इस बात को गुप्त रखने का निर्देश दिया । अमात्य इसे पचा न सका । वह जंगल में गया। एक वृक्ष के कोटर में मुंह डालकर गुनगुनाया - गद्दभकन्नो राया, गद्दभकन्नो राया। एक बार किसी ने उस वृक्ष की लकड़ी को काटकर वादित्र बनाया और संयोग ऐसा बना कि उसे सर्वप्रथम राजा के सामने ही बजाया गया। उस वाद्य से पुनः पुनः गद्दभकन्नो राया ध्वनि सुनकर राजा ने पूछा- अमात्य ! तुमने यह रहस्य किसको बताया था ? अमात्य ने सही बात बता दी। इससे स्पष्ट है कि वनस्पति अत्यंत ग्रहणशील और संवेदनशील है, वह हमारे शब्दोच्चारण से भावित हो जाती है । बृहत्कल्पभाष्य को ज्ञान-विज्ञान के विविध रत्नों प्रभास्वर बनाने वाली १७१२ पृष्ठमयी इस वृत्ति का ग्रंथमान ४२६०० श्लोकप्रमाण है । इसका पूर्णाहुति काल वि. सं. १३३२ ज्येष्ठ शुक्ला दशमी है। ५. व्यवहार यह छेदसूत्र है । व्यवहार का अर्थ है - आलोचना, शुद्धि अथवा प्रायश्चित्त ।" आलोचना के आधार पर आलोच्य सूत्र का नाम व्यवहार रखा गया । आचार्य भद्रबाहु ने नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु से इसका निर्यूहण किया । इसके दस उद्देशक हैं, जिनमें कुल दो सौ अट्ठासी सूत्र हैं। इसका ग्रंथपरिमाण है – अनुष्टुप् श्लोक ८६७, जिनमें कुल १. बृभावृ पृ १, १७७ २. वही, पृ८५, १६६ ३. वही, पृ८९ ३९ ४. बृभावृ पृ २३७ ५. व्यभा १०६४ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ग्रंथ परिचय अक्षर २७७४८ हैं। कल्प और व्यवहार दोनों प्रायश्चित्त सूत्र हैं। कल्प में प्रायश्चित्त विधि और व्यवहार में प्रायश्चित्तदान विधि तथा आलोचना विधि प्रज्ञप्त है। व्याख्या ग्रंथ ० व्यवहारनियुक्तिभाष्य-बृहत्कल्प की भांति इसकी नियुक्ति भी भाष्यमिश्रित ही मिलती है। नियुक्तिभाष्य में व्यवहार, आलोचना, प्रतिसेवना, प्रायश्चित्त, विहार आदि सैकड़ों विषय विवेचित हैं। आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत-इन पांच व्यवहारों और व्यवहारप्रयोत्ताओं का लगभग पांच सौ पचीस (४०२८-४५५३) गाथाओं में विशदता से व्याख्यान किया गया है। क्षेत्र के आधार पर मनोरचना के कुछ निदर्शन द्रष्टव्य हैं मगध देशवासी इंगित और आकार से, कौशल के वासी प्रेक्षामात्र से, पांचाल के लोग आधी बात कहने पर तथा दक्षिणवासी पूरी बात कहने पर ही अभिप्राय को समझ पाते थे। धर्म, राजनीति आदि के संदर्भ में कुछ ऐतिहासिक तथ्य ज्ञातव्य हैं• चाणक्य ने नंदवंश का समल उच्छेद किया। - आर्यरक्षित अंतिम आगमव्यवहारी थे। • लोहार्य मुनि भगवान महावीर के लिए भिक्षा लाते थे। - चेटक एवं कोणिक के मध्य महाशिलाकंटक और रथमुसल संग्राम हुए। ० वृत्ति-व्यवहारसूत्र एवं नियुक्तिभाष्य पर आचार्य मलयगिरि ने विशद वृत्ति लिखी। प्रारंभ में श्लोकचतुष्टयी के माध्यम से देव (अर्हत् अरिष्टनेमि) और गुरु को प्रणमन करते हुए उन्होंने लिखा है-'जिन्होंने व्यवहार को विषमपदविवरण के द्वारा व्यवहर्त्तव्य बनाया है, उन चूर्णिकार को नमस्कार करता हूं। कहां तो यह गहन-गंभीर भाष्य और कहां मेरी अल्प बुद्धि ? फिर भी मैं गुरुप्रसाद से व्यवहार का विवरण लिखने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हूं।' व्यवहारचूर्णि अप्रकाशित है। वृत्तिकार ने कुछ स्थलों में चूर्णि के अंश उद्धृत किए हैं। कायोत्सर्ग के प्रसंग में वे लिखते हैं-स्वाध्यायकाल-प्रस्थापनाकरण में आठ उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करणीय है। पानकपरिष्ठापन करके भी ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण के पश्चात् आठ उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिए-यह तथ्य मैंने व्यवहारचूर्णि को देखकर लिखा है। वृत्तिकार ने सूत्रगत और भाष्यगत प्रत्येक शब्द का विशद अर्थ बताकर अपेक्षानुसार विस्तृत विवेचन भी किया है। विषय की सुबोधता के लिए शताधिक प्राकृत कथानक और प्राकृत-संस्कृत के श्लोक उद्धृत किए हैं। निरुक्त, देशी शब्द और पर्यायवाची शब्दों के प्रचुर प्रयोगों से विद्यार्थी के शब्दकोश को समृद्ध बनाया है। शास्त्रगुणदीपन और भावप्रकर्ष तथा शिष्यानुग्रह हेतु प्रयुक्त एकार्थक शब्दों के कुछ प्रयोग पठनीय हैं- कर्म-कम्मं ति वा खुहं ति वा कलुसं ति वा वज्जं ति वा वेरं ति वा पंको त्ति वा मलो त्ति वा एगट्ठिया। - ऋतुमास-उउमासो कम्ममासो सावणमासो। - मेढि-मेढिरिति वा आधार इति वा चक्षुरिति वा एकार्थाः। मूलस्पर्शी अर्थाभिव्यक्ति, पारिभाषिक शब्दों की महनीय परिभाषाएं, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक तत्त्वों का समाकलन, प्रायश्चित्तदान की विभिन्न परम्पराओं का उल्लेख, व्यवहार संबंधी अनेक रहस्यों का उद्घाटन-इन सब तथ्यों से समृद्ध इस वृत्ति का ग्रंथमान ३४६२५ श्लोकप्रमाण है। १. प्रस्तुत कोश (छेदसूत्र) ४. व्यभा ११४ की वृ २. व्यभा ४०२० ५. वही, १९४, १९८ तथा २५८२ की वृ ३. वही, ७१६,२३६५, २६७१, ४३६३-४३६५ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रंथ : संकेत-विवरण संकेत आचूला आचूलाचू प्रकाशन जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् १९७४ ऋषभदेवजी केसरीमलजी, रतलाम जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् १९९९ मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, सन् १९७८ आनि आवृ ग्रंथ नाम आयारचूला (अंगसुत्ताणि, भाग-१) आचारचूला (आचारांग) चूर्णि आचारांगनियुक्ति (नियुक्तिपंचक) आचारचूला (आचारांग)वृत्ति (आचारांगसूत्रं सूत्रकृतांगसूत्रं च) कल्प (कप्पो, नवसुत्ताणि, भाग-५) दशाश्रुतस्कंध (दसाओ, नवसुत्ताणि) श्रीदशाश्रुतस्कंध-मूलनियुक्तिचूर्णि दशाश्रुतस्कंध-नियुक्ति (नियुक्तिपंचक) दशा परिशिष्ट (पज्जोसवणाकप्पो, नवसुत्ताणि) जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् १९८७ वही दशाचू दशानि श्री मणिविजयगणिग्रंथमाला, भावनगर, वि. सं. २०११ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् १९९९ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् १९८७ दशा परि (पर्युषणाकल्प) निचू १-४ निभा बृभा बृभाचू बृभाव निशीथ (निसीहज्झयणं, नवसुत्ताणि) जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् १९८७ निशीथचूर्णि (सभाष्यचूर्णि निशीथसूत्रम्, भाग१-४) सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, द्वि. सं., सन् १९८२ निशीथभाष्य (निशीथसूत्रम्) वही बृहत्कल्पभाष्य श्री जैन आत्मानन्दसभा, भावनगर, सन् १९३३-१९४२ (सभाष्य-वृत्ति बृहत्कल्पसूत्रम्, भाग १-६) बृहत्कल्पभाष्यचूर्णि हस्तलिखित प्रति बृहत्कल्पभाष्यवृत्ति श्री जैन आत्मानन्दसभा, भावनगर, सन् १९३३-१९४२ (सभाष्यवृत्ति बृहत्कल्पसूत्रम्, भाग १-६) व्यवहार (ववहारो, नवसुत्ताणि) जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् १९८७ व्यवहार भाष्य जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राज.), सन् १९९६ व्यवहारभाष्यपीठिकावृत्ति (सभाष्य-वृत्ति) केशवलाल प्रेमचंद, भावनगर, सं. १९८२ व्यवहारभाष्यवृत्ति वकील केशवलाल प्रेमचंद, अहमदाबाद श्रीभिक्षु आगम विषय कोश भाग-१ जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राज.), सन् १९९६ व्यभा व्यभापी व्यभावृ श्रीआको१ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अंतकृत २. अंतेवासी ३. अधिकरण ४. अनशन ५. अनुयोग ६. अभिषेक ७. अवग्रह ८. आगम ९. आगाढप्रज्ञ १०. आचार ११. आचार्य १२. आज्ञा १३. आतापना १४. आराधना १५. आर्यक्षेत्र १६. आलोचना १७. आशातना १८. आहार १९. इन्द्रिय २०. उत्सारकल्प २१. उपधान २२. उपधि २३. उपसम्पदा २४. उपासक प्रतिमा २५.ऋजुप्राज्ञ २६. कर्म २७. कल्पस्थिति २८. कषाय २९. कायक्लेश ३०. कायोत्सर्ग ३१. काल मुख्य विषय : अनुक्रम (भाग-२) ३२. कुत्रिकापण ६३. परिहारविशुद्धि ९४. विनय ३३. कृतयोगी ६४. पर्युषणाकल्प ९५. विहार ३४. कृतिकर्म ६५. पारांचित ९६. वीर्य ३५. क्षेत्रप्रतिलेखना ६६. पिण्डैषणा ९७. वेद ३६. गणिसम्पदा ६७. पुस्तक ९८. वैयावृत्त्य ३७. गीतार्थ ६८. प्रतिमा ९९. व्यवहार ३८. गुप्ति ६९. प्रतिसेवना १००. शय्या ३९. गोष्ठी ७०. प्रायश्चित्त १०१. शय्यातर ४०. चारित्र ७१. बहुश्रुत १०२. शरीर ४१. चिकित्सा ७२. ब्रह्मचर्य १०३. शीतगृह ४२. चित्तचिकित्सा ७३. भावना १०४. शैक्ष ४३. चित्तसमाधिस्थान ७४. भिक्षाचर्या १०५. श्रमण ४४. चूला ७५. भिक्षप्रतिमा १०६. श्रुतज्ञान ४५. छेदसूत्र ७६. मंगल १०७. संघ ४६. जिनकल्प ७७. मंत्र-विद्या १०८. संज्ञी ४७. जिनशासन ७८. मन १०९. संहनन ४८. जीवनिकाय ७९. मरण ११०. समवसरण ४९. ज्ञान ८०. महाव्रत १११. समिति ५०. तप ८१. महास्थण्डिल ११२. सम्यक्त्व ५१. तीर्थंकर ८२. मूढ़ ११३. साधर्मिक ५२. दिग्बंध ८३. मेधावी ११४. सामाचारी ५३. देव ८४. मोक्ष ११५. साम्भोजिक ५४. द्रव्य ८५. यथालन्दकल्प ११६. सार्थवाह ५५. ध्यान ८६. युद्ध ११७. सिद्धांत ५६. निदान ८७. राज्य ११८. सूत्र ५७. निग्रंथ ८८. लेश्या ११९. स्थविर ५८. निर्यापक ८९. लोक १२०. स्थविरकल्प ५९. नौका ९०. वस्त्र १२१. स्थविरावलि ६०. परिमंथ ९१. वाचना १२२. स्थापनाकुल ६१. परिषद् ९२. वाद १२३. स्वप्न ६२. परिहार तप ९३. वास्तुविद्या १२४. स्वाध्याय Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत $$$$$$ अंत अंनि अनु आ आप्टे आभा आव आवचू आवनि उ उनि उप्रा उशावृ उसअ औ, औप च जंबू जीवा जैसिदी ཝ तवा तसू, तभा द दअचू अन्य प्रयुक्त ग्रंथ प्रयुक्त ग्रंथ संकेत सूची संकेत दजिचू दनि दे, देशी देको ग्रंथ नाम अंतगडदसाओ (अंगसुत्ताणि, भाग-३) अंगुत्तरनिकाय भाग - १ अणुओ आचारांग/आयारो आप्टे संस्कृत-हिन्दी कोश आचारांग भाष्यम् आवश्यक (आवस्सयं, नवसुत्ताणि) आवश्यकचूर्णि आवश्यकनिर्युक्ति उत्तरझयाणि उत्तराध्ययननियुक्ति उपदेशप्रासाद उत्तराध्ययन शांत्याचार्यवृत्ति उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक अध्ययन औपपातिक (ओवाइयं, उवंगसुत्ताणि) चरकसंहिता जंबुद्दीवपण्णत्ती (उवंगसुत्ताणि, भाग-४) जीवाजीवाभिगमे (उवंगसुत्ताणि) जैन सिद्धांत दीपिका ज्ञातधर्मकथा (नायाधम्मकहाओ ) तत्त्वार्थराजवार्तिक सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र दसवेआलियं दशवैकालिक अगस्त्यचूर्णि नंदीहावृ निको पिनि प्रज्ञा प्रसा भ भ आ भ जो मानि मूला विभा विभाकोवृ विभामवृ सम, सम प्र सु सू सूटि सूनि सूर्य स्था टि ग्रंथ नाम दशवैकालिक जिनदासचूर्णि दशवैकालिनिर्युक्ति देशीनाममाला देशीशब्दकोश नन्दी हारिभद्रीया वृत्ति निरुक्तकोश पिण्डनिर्युक्ति प्रज्ञापना (पण्णवणा, उवंगसुत्ताणि) प्रवचनसारोद्धार भगवई (अंगसुत्ताणि, भाग - २ ) भगवती आराधना भगवती जोड़ माधवनिदानम् मूलाचार विशेषावश्यकभाष्य विशेषावश्यकभाष्य कोट्याचार्य वृत्ति विशेषावश्यकभाष्य मलधारीया वृत्ति समवाओ, समवाओ प्रकीर्णक अयोगव्यवच्छेदिका, आगमसम्पादन की समस्याएं, आचारांग की जोड़, आयारो तह आयारचूला, ओघनिर्युक्ति, जैन आगम: वनस्पति कोश, जैनदर्शन: मनन और मीमांसा, जैनधर्म के प्रभावक आचार्य, जैन भारती, जैन साधनापद्धति में तपोयोग, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, झीणी चरचा, नंदी, निशीथ टबा (हस्तलिखित), निसीहज्झयणं, प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध, बंकचूलिया (हस्तलिखित), भगवई (भाष्य), भिक्षु-ग्रंथ रत्नाकर, विशुद्धिमग्ग, व्यवहारचूलिका (हस्तलिखित), शासनसमुद्र (भाग १, ७, ९, १४), श्रमण महावीर । सुश्रुतसंहिता सूयगडो १, २ सूत्रकृतांग (सूयगड १, २) टिप्पण सूत्रकृतां सूर्यप्रज्ञप्ति (सूरपण्णत्ती, उवंगसुत्ताणि) स्थानांग (ठाणं), टिप्पण Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतकृत - जन्म-मरण की परम्परा का अंत करने वाला । १. अंतकृत कौन ? २. अंतकृत होने की साधना * अनिदानता से निर्वाण आगम विषय कोश - २ द्र निदान * निदान : मोक्षमार्ग का परिमंथ द्र परिमंथ * चारित्र बिना निर्वाण नहीं द्र चारित्र * पुण्यबंध से मुक्ति कैसे ? द्र कर्म * प्रायोपगमन से अंतक्रिया या देवोपपत्ति द्र अनशन ३. अंतकृतभूमि ४. श्रमण महावीर के अंतकृतभूमि ५. अर्हत् पार्श्व-अरिष्टनेमि ऋषभ के अंतकृतभूमि ६. श्रमण महावीर आदि के अंतकृत अंतेवासी १. अंतकृत कौन ? भी बंधन शेष नहीं है, वह साधक निरालम्ब - इहलोकपरलोक की आशंसा से मुक्त और अप्रतिष्ठित - अप्रतिबद्ध तथा अशरीरी होकर जन्ममरण के दुःखमय संसार से विमुक्त हो जाता है। * मुक्त का स्वरूप, सिद्धि का क्रम द्र श्रीआको १ मोक्ष २. अंतकृत होने की साधना अणिच्चमावासमुर्वेति जंतुणो, पलोयए सोच्चमिदं अणुत्तरं । विऊसिरे विण्णु अगारबंधणं, अभीरु आरंभपरिग्गहं चए ॥ सितेहिं भिक्खू असिते परिव्वए, असज्जमित्थीसु चएज्ज पूअणं । अणिस्सिओ लोगमिण तहा परं, ण मिज्जति कामगुणेहिं पंडिए ॥ तहा विमुक्कस्स परिण्णचारिणो, धिईमओ दुक्खखमस्स भिक्खुणो । विसुज्झई जंसि मलं पुरेकडं, समीरियं रुप्पमलं व जोइणा ॥ से हु परिण्णा समयंमि वट्टइ, णिराससे उवरय- मेहुणे चरे । भुजंगमे जुण्णतयं जहा जहे, विमुच्चइ से दुहसेज्ज माहणे ॥ (आचूला १६/१, ७-९) जमाहु ओहं सलिलं अपारगं, महासमुद्दे व भुयाहि दुत्तरं । अहे य णं परिजाणाहि पंडिए, से हु मुणी अंतकडे त्ति वुच्च ॥ जहा हि बद्धं इह माणवेहि य, जहा य तेसिं तु विमोक्ख आहिओ । अहा तहा बंधविमोक्ख से विऊ, से हुमुणी अंतकडेत्ति वुच्चइ ॥ इमिलो पर य दोसुवि, ण विज्जइ बंधण जस्स किंचिवि । से लिंबणे अप्पट्ठिए, कलंकली भावपहं विमुच्चइ ॥ निरालम्बनः - ऐहिकामुष्मिकाशंसारहितः, अप्रतिष्ठितःन क्वचित् प्रतिबद्धो ऽशरीरी वा । (आचूला १६/१०-१२ वृ) जिसे अपार सलिल का प्रवाह और भुजाओं से दुस्तर महासागर कहा है, वह है संसार । जो इसे जान लेता है - ज्ञेय का ज्ञान और हेय का परित्याग कर देता है, वह पंडित मुनि अंतकृत (भव या कर्म का अंत करने वाला) कहलाता है। जिन हेतुओं से मनुष्य (प्राणी) बंधन को प्राप्त होते हैं और जिन हेतुओं से उनका मोक्ष कहा गया है, जो मुनि उन बंधन और प्रमोक्ष के हेतुओं को यथार्थ रूप में जानता है, वह मुनि अंतकृत कहलाता है। भिक्षु संयोग से मुक्त, परिज्ञाचारी- विवेक से आचरण करने वाला, धृतिमान व कष्टसहिष्णु है, उस भिक्षु का पूर्व इस लोक और परलोक दोनों में ही जिसका किंचित् संचित कर्ममल उसी प्रकार विशुद्ध हो जाता है, जिस प्रकार प्राणी अनित्य आवास को प्राप्त होते हैं- मनुष्य आदि गतियों में उत्पन्न होकर अनित्य शरीर में आवास करते हैंइस अनुत्तर अर्हत्-वचन का श्रवण कर पर्यालोचन - अनित्यता का साक्षात् अवलोकन करने वाला विज्ञ पुरुष वित्त, पुत्र, कलत्र संबंधी घर के बंधनों को विसर्जित कर भयमुक्त होकर आरंभ और परिग्रह का परित्याग करे । मुनि नाना प्रकार की आसक्तियों और मतवादों से बंधे हुए लोगों के बीच में अप्रतिबद्ध रहता हुआ परिव्रजन करे । वह स्त्रियों में आसक्त न हो, पूजा-सत्कार की चाह छोड़ दे। ऐहिक और पारलौकिक विषयों से अनिश्रित रहने वाला पंडित भिक्षु कामगुणों (इन्द्रियों के शब्द आदि विषयों) में आसक्त न हो। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतकृत अग्नि द्वारा तपाए हुए सोने का मल । परिज्ञासम्पन्न, समता में प्रतिष्ठित और अभिलाषामुक्त भिक्षु मैथुन से उपरत हो विहरण करे। जैसे सांप अपने शरीर की जीर्ण केंचुली को छोड़ देता है, वैसे ही माहन (अहिंसक भिक्षु) दुःखशय्या को छोड़ दे। (कामभोगों की आशंसा को दुःखशय्या और अनाशंसा को सुखशय्या कहा गया है। स्था ४/४५०, ४५१) ३. अंतकृतभूमि २ अंतरभूमित्ति अंतः कर्मणां भूमिः - कालो । सो दुविधो - पुरिसंतकरकालो परियायंतकरकालो य । (दशा ८ परि सू १०५ की चू) जिस भूमि-काल में कर्मों का अंत हो, वह अंतकरभूमि है। उसके दो प्रकार हैं- पुरुषांतकर (युगांतकर) काल और पर्यायांतकरकाल । (० युगांतकर भूमि - युग का अर्थ है विशेष कालमान। युग क्रमवर्ती होते हैं। उनके साधर्म्य से गुरु-शिष्य-प्रशिष्य आदि के रूप में होने वाली क्रमभावी पुरुष - परम्परा को भी युग कहा जाता है । उस युगप्रमित अंतकर भूमि को युगांतकर भूमि कहा गया है। ० पर्यायांतकरभूमि - तीर्थंकर के केवलित्व काल के आश्रित होने वाली अंतकरभूमि । अर्हत् मल्ली के बीसवें पुरुषयुग अर्थात् अर्हत् मल्ली से लेकर उनके तीर्थ में बीसवीं शिष्य परम्परा तक साधु सिद्ध हुए । उसके बाद सिद्धिगति का व्यवच्छेद हो गया। उनके तीर्थ में पर्यायांतरभूमि दो वर्ष पश्चात् प्रारंभ हुई अर्थात् मल्ली को कैवल्य प्राप्त हुए जब दो वर्ष सम्पन्न हुए, तब उनके तीर्थ में सिद्ध होने का क्रम प्रारम्भ हुआ । - ज्ञा १ / ८ / २३३ का टि) ४. श्रमण महावीर के अंतकृतभूमि समणस्स भगवओ महावीरस्स दुविहा अंतकडभूमी होत्था, तं जहा - जुगंतकडभूमी य परियायंतकडभूमी य। जाव तच्चाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकडभूमी चउवासपरियाए अंतमकासी ॥ जाव अज्जजंबुणामो ताव सिवपहो, एस जुगंतकरकालो । चत्तारि वासाणि भगवता तित्थे पवत्तिते तो आगम विषय कोश - २ सिज्झितुमारद्धा, एस परियायंतकरकालो ॥ (दशा ८ परि सू १०५ चू) श्रमण भगवान् महावीर के दो अंतकृत भूमियां थीं१. युगांतकृतभूमि - भगवान् महावीर के तीसरे पुरुषयुग जंबू स्वामी अर्थात् तीसरी शिष्य परम्परा तक युगांतकृतभूमिनिर्वाणगमन का क्रम रहा-यह युगांतकरकाल है। २. पर्यायांतकृतभूमि - भगवान् महावीर के तीर्थप्रवर्तन के चार वर्ष पश्चात् उनके शिष्य मोक्ष जाने लगे - यह पर्यायांतकरकाल है। ५. अर्हत् पार्श्व-अरिष्टनेमि ऋषभ के अंतकृतभूमि पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स दुविहा अंतकडभूमी जाव चउत्थाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकडभूमी, तिवासपरियाए अंतमकासी ॥ अरहओ णं अरिनेमिस्स दुविहा अंतकडभूमी "जाव अट्टमाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकडभूमी, दुवासपरियाए अंतमकासी ॥ उसभस्सणं अरहओ कोसलियस्स दुविहा अंतगडभूमी जाव असंखेज्जाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकडभूमि, अंतोमुहुत्तपरियाए अंतमकासी । (दशा ८ परि सू १२३, १३७, १७९) पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के चतुर्थ पुरुषयुग तक निर्वाण गमन का क्रम रहा- यह युगांतकृतभूमि है । अर्हत् पार्श्व को केवलज्ञान हुए तीन वर्ष हुए थे, उसी समय से उनके शिष्य मोक्ष जाने लगे-यह पर्यायांतकृतभूमि है। अर्हत् अरिष्टनेमि के दो अंतकृतभूमियां थीं १. युगांतकृतभूमि - अर्हत् अरिष्टनेमि के आठवें पुरुषयुग तक निर्वाण गमन का क्रम रहा। २. पर्यायांतकृतभूमि - अर्हत् अरिष्टनेमि को केवलज्ञान हुए दो वर्ष हुए थे, उसी समय से उनके शिष्य मोक्ष जाने लगे। कौशलिक अर्हत् ऋषभ के दो अंतकृतभूमियां थीं१. युगांतकृत भूमि- अर्हत् ऋषभ के संख्यातीत पुरुषयुग तक निर्वाण गमन का क्रम रहा। २. पर्यायांतकृतभूमि - अर्हत् ऋषभ को केवलज्ञान हुए अंतर्मुहूर्त्त हुआ था, उसी समय से मोक्षगमन का क्रम प्रारंभ हो गया। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ अंतेवासी (सर्वप्रथम भगवती मरुदेवा सिद्ध हुई।) सिद्ध होता है। जैसे-चक्रवर्ती सम्राट सनत्कुमार। ६. श्रमण महावीर आदि के अंतकृत अंतेवासी ४. कोई पुरुष अल्प कर्मों के साथ आता है, उसके घोर तप समणस्स भगवओ महावीरस्स सत्त अंतेवासिसयाई और घोर वेदना नहीं होती। वह अल्पकालीन मुनि पर्याय के सिद्धाइं जाव सव्वदुक्खप्पहीणाई चउद्दस अज्जियासयाई द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है। जैसे-भगवती मरुदेवा।) सिद्धाइं॥ __ अंतकृतभूमि-भव-परम्परा का अंत कर निर्वाण प्राप्त पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स"दस सया केवलनाणीणं"। करने वालों की भूमि अर्थात् काल । (द्र अंतकृत) अरहओर्ण अरिट्ठनेमिस्स"पन्नरस समणसया सिद्धा, तीसं अज्जियासयाई सिद्धाइं॥ अंतेवासी-शिष्य, सन्निकट रहने वाला। उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स वीसं अंतेवासि | १. अंतेवासी का अर्थ सहस्सा सिद्धा, चत्तालीसं अज्जियासाहस्सीओ सिद्धाओ। ० अंतेवासी के प्रकार : प्रव्राजना आदि ____ (दशा ८ परि सू१०३, १२२, १३६, १७८) * शैक्षभूमि : सामायिक की कालमर्यादा द्रचारित्र श्रमण भगवान् महावीर के सात सौ अंतेवासी साधु * आगमवाचना में संयमपर्याय की कालमर्यादा द्र श्रुतज्ञान और चौदह सौ साध्वियां सिद्धि को प्राप्त हुईं यावत् सर्व | २. शिष्य के प्रकार : परिणामक आदि ३. परिणामक (परिपक्व) शिष्य के प्रकार दुःखों से मुक्त हुईं। ४. परिणामक आदि शिष्यों की परीक्षा पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के एक हजार साधु (और दो ___* आज्ञापरिणामक शिष्य द्र व्यवहार हजार साध्वियां)अंतकृत हुए। * अपरिणामक और प्रायश्चित्त द्र प्रायश्चित्त __ अर्हत् अरिष्टनेमि के डेढ हजार साधु और तीन हजार ५. अपरिणामक आदि वाचना के अयोग्य साध्वियां सिद्धि को प्राप्त हुईं। ६. अयोग्य से योग्य : अग्नि आदि दृष्टांत __ कौशलिक अर्हत् ऋषभ के बीस हजार अंतेवासी और ७. स्थूलग्राही से सूक्ष्मग्राही : सिद्धार्थ आदि दृष्टांत चालीस हजार साध्वियां मुक्त हुईं। ८. अशिष्य आचार्यपद के अयोग्य (स्था ४/१ में चार प्रकार की अन्तक्रिया का उल्लेख * शिष्य द्वारा संपादित पांच अतिशय - * आचार्य आदि की निश्रा अनिवार्य द्र आचार्य ९. अंतेवासी की विनय प्रतिपत्ति के प्रकार १. कोई पुरुष अल्प कर्मों के साथ मनुष्य जन्म को प्राप्त होता * अध्ययन योग्य शिष्य : छत्रांतिका आदि पर्षद् द्र परिषद है, प्रव्रजित होकर उपधान करता है, उसके घोर तप और घोर * विनीत शिष्य को वाचना द्र वाचना वेदना नहीं होती। इस श्रेणी का पुरुष दीर्घकालीन मुनिपर्याय * ज्ञान-दर्शन-चारित्र हेतु उपसम्पदा द्र उपसम्पदा के द्वारा सिद्ध होता है। जैसे-चक्रवर्ती सम्राट भरत।। * श्रुतहेतु वृद्धवास की अनुज्ञा द्र श्रुतज्ञान २. कोई पुरुष बहुत कर्मों के साथ मनुष्य जन्म को प्राप्त होता है, उसके घोर तप और घोर वेदना होती है। इस श्रेणी का १. अंतेवासी का अर्थ पुरुष अल्पकालीन मुनिपर्याय के द्वारा सिद्ध होता है। जैसे ...."अंतमब्भासमासन्नं, समीवं चेव आहितं। गजसुकुमाल। .....अंते य वसति जम्हा, अंतेवासी ततो होति ॥ ३. कोई पुरुष महाकर्म के साथ आता है, उसके घोर तप और थेराणमंतिए वासो........॥ घोर वेदना होती है। वह दीर्घकालीन मुनि पर्याय के द्वारा (व्यभा ४५९५-४५९७) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतेवासी आगम विषय कोश-२ अंतेवासी का शाब्दिक अर्थ है निकट रहने वाला। अंत, अभ्यास, आसन्न और समीप-ये सब एकार्थक हैं। जो आचार्य के समीप रहता है, वह अंतेवासी है। ० अंतेवासी के प्रकार : प्रव्राजना आदि ___ चत्तारि अंतेवासी पण्णत्ता, तंजहा--पव्वावणंतेवासी नाममेगेनो उवट्ठावणंतेवासी, उवट्ठावणंतेवासी नाममेगे नो पव्वावणंतेवासी, एगे पव्वावणंतेवासी वि उवट्ठावणंतेवासी वि, एगे नो पव्वावणंतेवासी नो उवट्ठावणंतेवासीधम्मंतेवासी॥ __चत्तारि अंतेवासीपण्णत्ता, तंजहा–उद्देसणंतेवासी नाममेगे नो वायणंतेवासी. वायणंतेवासी नाममेगेनो उदेसणंतेवासी. एगेउद्देसणंतेवासी विवायणंतेवासी वि, एगेनो उद्देसणंतेवासी नो वायणंतेवासी-धम्मंतेवासी॥ (व्य १०/१७, १८) अंतेवासी चार प्रकार के होते हैं१. कुछ मुनि एक आचार्य के प्रव्रज्या अंतेवासी होते हैं (जो केवल मुनिदीक्षा या सामायिक चारित्र की दृष्टि से आचार्य के पास रहते हैं) किन्तु उपस्थापना अंतेवासी नहीं होते। २. कुछ मुनि एक आचार्य के उपस्थापना अंतेवासी होते हैं, प्रव्रज्या अंतेवासी नहीं होते। (जो केवल महाव्रत आरोपण की दृष्टि से आचार्य के पास रहते हैं।) ३. कुछ मुनि एक आचार्य के प्रव्रज्या अंतेवासी भी होते हैं और उपस्थापना अंतेवासी भी होते हैं। ४. कुछ मुनि एक आचार्य के न प्रव्रज्या अंतेवासी होते हैं और न उपस्थापना अंतेवासी होते हैं, धर्मान्तेवासी होते हैं (धर्मश्रवण के लिए आचार्य के पास रहते हैं)। अंतेवासी के चार (अन्य) प्रकार हैं१. कुछ मुनि एक आचार्य के उद्देशना अंतेवासी होते हैं, वाचना अंतेवासी नहीं। २. कुछ वाचना अंतेवासी होते हैं, उद्देशना अंतेवासी नहीं। ३. कुछ उद्देशना अंतेवासी भी होते हैं और वाचना अंतेवासी भी होते हैं। ४. कुछ मुनि एक आचार्य के न उद्देशना अंतेवासी होते हैं और न वाचना अंतेवासी होते हैं। यहां अंतेवासी धर्मान्तेवासी की कक्षा के हैं। (एक ही व्यक्ति धर्मान्तेवासी, प्रव्राजनान्तेवासी, उपस्थापनान्तेवासी हो सकता है।-द्र स्था ४/४२४, ४२५ का टि) २. शिष्य के प्रकार : परिणामक आदि परिणाम अपरिणामे, अइपरिणाम पडिसेह चरिमदुए।" जोदव्व-खेत्तकय-काल-भावओ जं जहा जिणक्खायं। तं तह सद्दहमाणं, जाणसु परिणामयं साधु ॥ जो दव्व-खेत्तकय-काल-भावओ जंजहा जिणक्खायं। तं तह असद्दहंतं, जाण अपरिणामयं साहुं ॥ जो दव्व-खेत्तकय-काल-भावओ जंजहिंजया काले। तल्लेसुस्सुत्तमई, अइपरिणामं वियाणाहि॥ परिणमइ जहत्थेणं, मई उ परिणामगस्स कज्जेसु। बिइए न उ परिणमई, अहिगं मइ परिणमे तइओ॥ दोसु वि परिणमइ मई, उस्सग्गऽववायओ उ पढमस्स। बिइतस्स उ उस्सग्गे, अइअववाए य तइयस्स। (बृभा ७९२-७९७) शिष्य के तीन प्रकार हैं१. परिणामक शिष्य २. अपरिणामक शिष्य ३. अतिपरिणामक शिष्य इन तीनों में अपरिणामक और अतिपरिणामक-ये दो प्रकार के शिष्य छेदसूत्र की वाचना के लिए निषिद्ध हैं। परिणामक शिष्य-अर्हत् ने द्रव्यकृत, क्षेत्रकृत, कालकृत और भावकृत जिस उत्सर्ग और अपवाद विधि का प्रतिपादन किया है, जो उसी रूप में उन वचनों पर श्रद्धा करता है, वह परिणामक साधु होता है। उसकी मति यथोचित कार्यों में यथार्थ रूप से परिणत होती है। वह उत्सर्ग मार्ग प्राप्त होने पर उत्सर्गमति तथा अपवाद मार्ग प्राप्त होने पर अपवादमति होता है। जहां उत्सर्ग बलवान् होता है, वहां उत्सर्ग का समाचरण करता है और जहां अपवाद बलवान् होता है, वहां अपवाद का समाचरण करता है, वह परिणामक शिष्य है। अपरिणामक शिष्य-जो अर्हत् द्वारा प्ररूपित द्रव्यकृत, क्षेत्रकृत, कालकृत और भावकृत उत्सर्ग तथा अपवाद मार्ग पर Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-- २ श्रद्धा नहीं करता, जिसकी मति यथार्थ रूप से परिणत नहीं होती, केवल उत्सर्ग मार्ग में ही परिणत होती है, वह अपरिणामक शिष्य है। अतिपरिणामक शिष्य - जो अर्हत्-प्रज्ञप्त द्रव्यकृत, क्षेत्रकृत, कालकृत और भावकृत उत्सर्ग और अपवाद मार्गों में केवल अपवाद मार्ग की गवेषणा करता है और उसको अपनी मति से कल्पनीय ( आचरणीय) मान लेता है, उसी का आलंबन लेता है, जिसकी उत्सूत्र मति - श्रुतोक्त अपवाद से अत्यधिक अपवाद वाली बुद्धि होती है, वह अतिपरिणामक शिष्य होता है। ३. परिणामक शिष्य के प्रकार आणा दितेण य, दुविधो परिणामगो समासेणं । तमेव सच्छं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं । आणाए एस अक्खातो, जिणेहिं परिणामगो ।। परोक्खं हेउगं अत्थं, पच्चक्खेण उ साहयं । जिणेहिं एस अक्खातो, दिट्टंतपरिणामगो ॥ (व्यभा ४६०७-४६०९) परिणामक शिष्य दो प्रकार के होते हैं१. आज्ञापरिणामक - 'वही सत्य है, जो अर्हतों द्वारा प्रज्ञप्त है', इस रूप में जो असंदिग्ध भाव से श्रद्धा करता है, वह आज्ञापरिणामक है। २. दृष्टांत परिणामक – जो हेतुगम्य परोक्ष पदार्थ को प्रत्यक्ष प्रसिद्ध दृष्टांत से बुद्धि में आरोपित करता है, उस पर श्रद्धा करता है, उसे अर्हतों ने दृष्टांतपरिणामक कहा है। ४. परिणामक आदि शिष्यों की परीक्षा ....... अंबाईदितो, कहणा य इमेहिं ठाणेहिं ॥ चेयणमचेयण भाविय, केद्दह छिन्ने अकित्तिया वा वि । लद्धा पुणो व वोच्छं, वीमंसत्थं व वुत्तो सि ॥ किं ते पित्तपलावो, मा बीयं एरिसाई जंपाहिं । माणं परो वि सोच्छिहि, कहं पि नेच्छामो एयस्स ॥ कालो सिं अइवत्त, अम्ह वि इच्छा न भाणिउं तरिमो । किं एच्चिरस्स वुत्तं, अन्नाणि वि किं व आणेमि ॥ नाभिप्पायं गिण्हसि, असमत्ते चेवं भाससी वयणे । सुत्तंबिल-लोणकर, भिन्ने अहवा वि दोच्चंगे ॥ ५ अंतेवासी निप्फाव - कोहवाईणि बेमि रुक्खाणि न हरिए रुक्खे | अंबिल विद्वत्थाणि अ, भणामि न विरोहणसमत्थे ॥ (बृभा ७९२, ७९८-८०२) एक दिन आचार्य शिष्यों को वाचना दे रहे थे । उन्होंने परिणामक, अपरिणामक तथा अतिपरिणामक शिष्यों की परीक्षा लेने के उद्देश्य से कहा- आर्यो ! हमें आम की आवश्यकता है। जो परिणामक शिष्य था, उसने आचार्य से निवेदन किया - भंते! कैसे आम लाऊं ? सचेतन या अचेतन ? भावित अथवा अभावित ? बड़े या छोटे ? पूर्व छिन्न अथवा छिन्न करवाकर ? कितनी संख्या में ? आचार्य ने कहा- आम तो पहले ही प्राप्त थे । अब कभी प्रयोजन होने पर कहूंगा। मैंने तुम्हारी परीक्षा के लिए ऐसा कहा था। जो अपरिणामक शिष्य था, वह बोला- आचार्यवर! क्या आपको पित्त का प्रकोप हो गया है, जो आप असंबद्ध प्रलाप कर रहे हैं ? आज आपने मेरे समक्ष जो कहा, वह कह दिया, दूसरी बार ऐसे सावद्य वचन मत कहना। दूसरा कोई सुन न ले। हम तो आम की कथा भी सुनना नहीं चाहते । जो अतिपरिणामक शिष्य था, वह बोला- क्षमाश्रमण ! यदि आपको आम की आवश्यकता है, तो मैं अभी आम ले आऊंगा। अभी आम का मौसम है। आम तरुण हैं फिर वे कठोर हो जायेंगे। हमें भी आम की रुचि है परन्तु आपके भय से कह नहीं सके । यदि आम हमारे लिए ग्रहणीय है, तो फिर इतने समय के बाद आपने क्यों कहा? पहले ही कह देते। क्या बिजौरा आदि दूसरे फल भी ले आऊं ? आचार्य ने अपरिणामक और अतिपरिणामक शिष्य की बात सुनकर उनसे कहा- तुमने मेरे अभिप्राय को नहीं समझा। मैंने अपनी बात पूरी भी नहीं की और तुम अनर्गल बोलने लग गए। मैंने कांजी अथवा लवण से भावित, टुकड़े किए हुए अथवा शाक रूप में पकाए हुए आम मंगाए थे, अपरिणत (अप्रासुक) नहीं। इसी प्रकार जब मैं कहता हूं कि निष्पाव, कोद्रव आदि Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतेवासी आगम विषय कोश-२ ले आओ तो इसका अभिप्राय रूक्ष द्रव्यों से है, हरित निष्पाव परन्तु जब तक वह काष्ठ छीला नहीं जाता, फाड़ा नहीं अथवा कोद्रव से नहीं है। मैं कहता हूं कि अमुक बीज ले जाता, बींधा नहीं जाता तथा उस वेध में कुश नहीं डाला आओ तो उसका अभिप्राय अम्लभावित अथवा छिन्नयोनिक जाता, तब तक वह काष्ठ उस वस्तु के निर्माण में योजित बीज से है, सजीव बीज से नहीं। नहीं किया जा सकता। ५. अपरिणामी आदि वाचना के अयोग्य ० धातु दृष्टांत-कोई व्यक्ति राग-द्वेष के बिना अधातु को दारुं धाउं वाही, बीए कंकड्य लक्खणे सुमिणे। छोड़कर धातु को ग्रहण करता है। धातु से अक्रम से ईप्सित एगंतेण अजोग्गे, एवमाई उदाहरणा निर्माण नहीं किया जा सकता, क्रम से ही निर्माण हो सकता को दोसो एरंडे, जं रहदारूं न कीरण तत्तो। है। इसी प्रकार आचार्य अयोग्य शिष्यों को वाचना नहीं देते. को वा तिणिसे रागो, उवजज्जड़ जं रहंगेस॥ योग्य शिष्यों को क्रम से वाचना देते हैं। उसमें राग और द्वेष जंपियदारूं जोग्गं, जस्स उवत्थस्सतं पिहन सक्का। का प्रसंग नहीं है। जोएउमणिम्मविउं, तच्छण-दल-वेह-कुस्सेहिं॥ ० व्याधि दृष्टांत-'यह रोग सुख-साध्य है, यह प्रयत्न साध्य एमेव अधाउं उज्झिऊण धाऊण कुणइ आयाणं। है और यह रोग असाध्य है, प्रयत्न से भी यह साध्य नहीं नय अक्कमेण सक्का , धाउम्भिवि इच्छियं काउं।। है।' इस प्रकार वैद्य रोगी की परीक्षा कर राग-द्वेष के बिना सुहसज्झो जत्तेणं, जत्तासझो असझवाही उ। उसकी चिकित्सा करता है। आचार्य भी शिष्य के स्वभाव की जह रोगे पारिच्छा, सिस्ससभावाण वि तहेव॥ परीक्षा कर राग-द्वेष के बिना उन्हें वाचना देते हैं। बीयमबीयं नाउं, मोत्तुमबीए उ करिसतो सालिं। बीज दृष्टांत--अबीज और बीज के लक्षण को जानकर ववइ विरोहणजोग्गे, न यावि से पक्खवाओ उ॥ किसान अबीज को छोड़कर शालि आदि के बीजों को बोता कंकडुए को दोसो, जं अग्गी तं तु न पयई दित्तो। है। इसमें उगने योग्य बीजों के प्रति किसान का पक्षपात नहीं को वा इयरे रागो, एमेव य सूवकारस्स॥ है। इसी प्रकार आचार्य का योग्य शिष्यों को वाचना देने में जे उ अलक्खणजुत्ता, कुमारगा ते निसेहिउं इयरे। कोई पक्षपात नहीं है। रज्जरिहे अणुमन्नइ, सामुद्दो नेय विसमो उ॥ ० कांकटुक (कोरडु) दृष्टांत-प्रदीप्त अग्नि भी 'कोरडु' धान्य को नहीं पका सकती, इसमें अग्नि का उसके प्रति रत्तो वा दुट्ठो वा, न यावि वत्तव्वयमुवेइ॥ क्या द्वेष ? अन्य धान्य को वह पका देती है, इसमें अग्नि या (बृभा २१५-२२३) सूपकार का उस धान्य के प्रति कैसा राग? इसी प्रकार काष्ठ, धातु, व्याधि, बीज, कांकटुक, लक्षण और स्वप्न आचार्य योग्य शिष्य को वाचना देते हैं तो उसमें उनका ये एकान्त अयोग्य अर्थात् अपरिणामक तथा अतिपरिणामक कोई राग नहीं है। शिष्यों के सन्दर्भ में उदाहरण हैं। ० लक्षण दृष्टांत-जो सामुद्र विद्या (शरीर के लक्षणों) को (गरु अयोग्य शिष्य को वाचना नहीं देते. इसमें गरु का जानता है, वह राजा की मृत्यु के पश्चात् लक्षणहीन राजकुमारों द्वेष हेतु नहीं है) इस सन्दर्भ में सात दृष्टांत हैं को छोड़कर लक्षणयुक्त कुमार को राज्यभार वहन करने योग्य ० काष्ठ दृष्टांत-रथ बनाने के लिए एरण्ड की लकड़ी मानता है। इसमें सामुद्रिक शास्त्रवेत्ता का क्या राग? क्या उपयुक्त नहीं है। इसमें एरण्ड के प्रति क्या द्वेष? रथ को द्वेष? बनाने के लिए तिनिश की लकड़ी उपयुक्त होती है, उसमें ० स्वप्न दृष्टांत-स्वप्नद्रष्टा स्वप्नज्ञानी को स्वप्न के फल तिनिश वृक्ष के प्रति क्या राग? पूछता है। स्वप्न के अनुरूप स्वप्न का फल बताने वाले का - किसी वस्तु के निर्माण के लिए उपयुक्त काष्ठ है, इसमें क्या राग? क्या द्वेष? जो जह APRO ZE 15 SIGE ATTI N A S Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ अंतेवासी ६. अयोग्य से योग्य : अग्नि आदि दृष्टांत दुग्ध के मृदु पुद्गलों से पुष्ट होता है। तत्पश्चात् वह अस्थि को अग्गी बाल गिलाणे, सीहे रुक्खे करीलमाईया। भी खाने लगता है। अपरिणयजणे एए, सप्पडिवक्खा उदाहरणा॥ प्रारंभ में द्विपर्ण और वंशकरील वृक्ष नखों से भी काटे जा जह अरणीनिम्मविओ, थोवो विउलिंधणं न चाएड। सकते हैं। बढने पर वे ही वक्ष कठार से भी नहीं काटे जा दहिउं सो पज्जलिओ, सव्वस्स वि पच्चलो पच्छा॥ सकते। इसी प्रकार शिष्य की बुद्धि प्रारंभ में कोमल होती है। एवं ख थलबद्धी, निउणं अत्थं अपच्चलो घेत्तं। वह गहन अर्थों को पकड़ नहीं पाती, टूट जाती है। वही सो चेव जणियबद्धी, सव्वस्स वि पच्चलो पच्छा॥ बुद्धि क्रमशः शास्त्रों से परिकर्मित होने पर कठोर, कठोरतर देहे अभिवते, बालस्स उ पीहगस्स अभिवड्डी। हो जाती है, कहीं टूटती नहीं। अइबहुएण विणस्सइ, एमेवऽहुणुट्ठिय गिलाणे॥ ७. स्थूलग्राही से सूक्ष्मग्राही : सिद्धार्थ आदि दृष्टांत खीर-मिउपोग्गलेहि, सीहो पुट्ठो उ खाइ अट्ठी वि।। निउणे निउणं अत्थं, थूलत्थं थूलबुद्धिणो कहए। रुक्खो बिवन्नओ खलु, वंसकरिल्लो य नहछिज्जो॥ बुद्धीविवद्धणकर, होहिइ कालेण सो निउणो॥ ते चेव विवढ्ता, हुंति अछेज्जा कुहाडमाईहिं। सिद्धत्थए वि गिण्हइ, हत्थी थूलगहणे सुनिम्माओ। तह कोमला वि बुद्धी, भज्जइ गहणेसु अत्थेसु॥ सरवेह-छिज्ज-पवए, घड-पड-चित्ते तहा धमए॥ शिष्यस्यापि प्रथमतः कोमला बुद्धिर्भवति" क्रमेण जत्थ मई ओगाहइ, जोग्गं जं जस्स तस्स तं कहए। तु शास्त्रान्तरदर्शनतोऽभिवर्द्धमाना कठोरा कठोरतरोप परिणामा-ऽऽगमसरिसं, संवेगकरं सनिव्वेयं॥ जायते इति न क्वचिदपि भंगमुपयाति। (बृभा २३०-२३२) ___ (बृभा २२४-२२९ वृ) आचार्य निपुण (सूक्ष्मग्राही) शिष्य को सूक्ष्म अर्थ बताए अपरिणत शिष्य, जो भविष्य में योग्य हो सकता है, और स्थूलबुद्धि शिष्य को बुद्धिवर्धक स्थूल अर्थ बताये। उसके संदर्भ में सप्रतिपक्ष (पहले अयोग्य पश्चात् योग्य के) कालान्तर में वह स्थूलबुद्धि शिष्य भी निपुण हो जाता है। छह दृष्टांत हैं- १. अग्नि २. बाल ३. ग्लान ४. सिंह ५. वृक्ष . सिद्धार्थ (सरसों के दाने)-स्थूल पदार्थों (काष्ठ, पत्थर ६. वंशकरीर। आदि) को ग्रहण करने में प्रशिक्षित हाथी धीरे-धीरे सरसों १. अग्नि दृष्टांत-जैसे अरणि निर्मापित स्तोक अग्नि विपुल के दानों को भी ग्रहण करने में निपुण हो जाता है। ईंधन को जलाने में असमर्थ होती है किन्तु वह प्रदीप्त होने इस विषय में स्वरवेध, पत्रछेद्य, प्लवक, घटकारक, पर सम्पूर्ण ईंधन को जलाने में समर्थ हो जाती है। वैसे ही पटकारक, चित्रकारक और धमक के दृष्टांत ज्ञातव्य हैं। स्थूल बुद्धि वाला शिष्य पहले सूक्ष्म अर्थ को ग्रहण करने में ० स्वरवेध-जैसे धनुर्धर पहले स्थूल पदार्थों को बींधता है, मर्थ होता है किन्त विविध शास्त्रों के अध्ययन के द्वारा फिर बालाग्र को तथा क्रमश: वह स्वरवेध-ध्वनि के आधार बुद्धि परिकर्मित होने पर वही शिष्य समस्त शास्त्र के अर्थ को पर बींधने लग जाता है। ग्रहण करने में समर्थ हो जाता है। ० पत्रछेद्य-पत्रछेदक प्रारंभ में सामान्य पत्रों को छेदता है। धीरे२, ३. बाल-ग्लान दृष्टांत-बालक के शरीर की वृद्धि के धीरे वह इच्छित पत्रों के छेदन में निष्णात हो जाता है। साथ-साथ उसको दिए जाने वाले आहार की भी क्रमशः ०प्लवक-नट प्रारंभ में बांस के सहारे अपने करतब दिखाता वृद्धि की जाती है। उसको अति आहार देने से वह रुग्ण हो है, फिर निपुणता अर्जित कर बिना सहारे भी अनेक करतब जाता है। उसी प्रकार अभी-अभी रोगमुक्त हुए रोगी के दिखाने लग जाता है। आहार की क्रमशः वृद्धि होती है, तो वह स्वस्थ हो जाता है। घटकार-कुंभकार पहले शराव (सिकोरे) आदि बनाता है, ४-६ सिंह-वृक्ष-करील दृष्टांत-प्रारंभ में सिंह अपनी मां के फिर प्रसिद्ध घटकारक बन जाता है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतेवासी ० पटकार - तन्तुवाय पहले मोटे वस्त्र बुनता है, फिर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर वस्त्रों का निर्माण करने लग जाता है। ० चित्रकार - चित्रकार पहले टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएं खींचना सीखता है, फिर वह चित्रकला में निपुण होकर सूक्ष्म चित्रांकन करने में भी निपुण हो जाता है। ० धमक-धमक (बजाने वाला) पहले सींग बजाना सीखता है, फिर शंख बजाने में भी निपुण हो जाता है। जिस शिष्य का जितने आगम को ग्रहण करने का परिणाम हो, उसे जानकर आचार्य उसे उतना ही आगम पढ़ाए। फिर उसको धीरे-धीरे आगे बढ़ाए। शिष्य को संवेग तथा निर्वेद पैदा करने वाले आगम के अंशों को पुनः पुनः बताए । ८. अशिष्य आचार्यपद के अयोग्य आयरियत्तणतुरितो, पुव्वं सीसत्तणं अकाऊणं । हिंडति चोप्पायरितो, निरंकुसो मत्तहत्थि व्व ॥ (बृभा ३७३ ) कोई शिष्य पहले अपने शिष्यत्व को पूर्णरूप से स्थापित किए बिना आचार्य बनने की त्वरा करता है, वह अज्ञानी आचार्य के रूप में निरंकुश मत्त हाथी की भांति इतस्ततः घूमता रहता है। ९. अंतेवासी की विनयप्रतिपत्ति के प्रकार तस्सेवं गुणजातीयस्स अंतेवासिस्स इमा चउव्विहा विणयपडिवत्ती भवति, तं जहा - उवगरणउप्पायणया, साहिल्लया, वण्णसंजलणता, भारपच्चोरुहणता ॥ (दशा ४/१९) उपशम, सुप्रणिधान आदि गुणों से सम्पन्न अंतेवासी की चार प्रकार की विनय प्रतिपत्ति है- १. उपकरण उत्पादनता २. सहायता ३. वर्णसंज्वलनता ४. भारप्रत्यवरोहणता । उपकरणोत्पादनता के प्रकार उवगरणउप्पायणया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहाअणुप्पण्णाई उवगरणाई उप्पाएत्ता भवति, पोराणाई उवगरणाई सारक्खित्ता भवति, संगोवित्ता भवति, परित्तं जाणित्ता पच्चुद्धरित्ता भवति, अहाविधिं संविभत्ता भवति । आगम विषय कोश - २ ......जति आयरितो सयमेव उवगरणं उप्पाएइ तो वायणादिण तरति दातुं, अतो सिस्सेण उप्पाएतव्वं उवगरणं वत्थपत्तसंथारगादि । सारक्खति - काले पाउणति, जुत्तं च सिव्वति, विधीए पाओणति । वासत्ताणं कालादीए संगोवति, जहा सेहादी ण हरंति । परित्तो अप्पोवहितो सुद्धो वा, सगणिच्चं अन्नगणिच्चं वा साधुं आगतं उवगरणेण उद्धरति अहाविधिं संविभइत्ता भवति । अहाविधी जहा रातिणियाए जस्स वा जो जोग्गो । (दशा ४ / २० चू) उपकरण उत्पादनता के चार प्रकार हैं १. जो उपकरण प्राप्त नहीं हैं, उनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना । यदि आचार्य स्वयं उपकरणों की प्राप्ति में लग जाएं तो वे शिष्यों को वाचना आदि नहीं दे सकते। इसलिए गण के लिए आवश्यक वस्त्र, पात्र, संस्तारक आदि की प्राप्ति के लिए शिष्य को ही प्रयत्नशील रहना चाहिए। २. जो उपकरण पहले से संगृहीत हैं, उनका संरक्षण और संगोपन करना । संरक्षण करना अर्थात् उचित काल में उनका उपयोग करना, जो सीने योग्य हों उन्हें विधिपूर्वक सिलवाना, विधि से उनका प्रावरण करना । संगोपन करना अर्थात् वर्षाऋतु आदि काल को ध्यान में रखकर वर्षात्राण आदि का संरक्षण करना, जिससे शैक्ष आदि उनका दुरुपयोग न करें। ३. उपकरणों को परीत-अल्प या उनका अभाव जानकर उनका प्रत्युद्धार करना - अपने गण के अथवा अन्य गण से आगत साधुओं के पास अल्प उपकरण हों अथवा उपकरण न हों तो उनकी यथायोग्य पूर्ति करना । ४. उपकरणों का यथाविधि संविभाग कर सबको देना । यथाविधि का अर्थ है - रत्नाधिक मुनियों के क्रम से जिसके लिए जो उपकरण योग्य हों, वैसे वितरण करना । सहायता विनय के प्रकार ......साहिल्लया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहाअणुलोमवइसहिते यावि भवति, अणुलोमकायकिरियता, पडिरूवकायसंफासणया, सव्वत्थेसु अपडिलोमया ॥ (दशा ४ / २१ ) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ अंतेवासी सहायता विनय के चार प्रकार हैं- १. अनुलोम वचन मत्तग-विज्जोसहाहारे य अहाथामंअब्भुट्टेति। अणिस्सतो२. अनुलोम कायक्रिया ३. प्रतिरूप कायसंस्पर्श ४. सर्वार्थ वस्सितेति-निस्सा रागो, उवस्सा दोसो। (दशा ४/२३, चू) अप्रतिलोमता। जैसे राजा मंत्री आदि को राज्यभार सौंपकर (राज्यचिंता ये चारों प्रतिरूप विनय के प्रकार भी हैं। (द्र विनय) से मक्त होकर) भोग भोगता है. वैसे ही आचार्य भी अपना वर्णसंज्वलनता विनय के प्रकार भार दसरे आचार्य (शिष्य) को सौंपकर निश्चित हो जाता है। ..."वण्णसंजलणता चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा- आचार्य पर भार रहता है-सूत्र और अर्थ की वाचना देना तथा आहातच्चाणं वण्णवाई भवति, अवण्णवातिं पडिहणित्ता गण की चिन्ता करना। भार सौंपने के पश्चात् यह सारा कार्य भवति, वण्णवातिं अणुवूहइत्ता भवति, आया वुड्डसेवी शिष्य (आचार्य) संपादित करता है। गच्छ के लिए जो-जो यावि भवति॥ (दशा ४/२२) करणीय होता है, वह सारा शिष्य करता है। यह भारवर्णसंज्वलनता विनय के चार प्रकार हैं प्रत्यवरोहणता है। १. यथातथ्य गुणों का वर्णवादी होना। उसके चार प्रकार हैं२. अवर्णवादी को निरुत्तर करने वाला होना। १. असंगृहीत-संगृहीत-रुष्ट अथवा असंयम में प्रस्थित शिष्य ३. वर्णवादी के गुणों का अनुबॅहण करना। को संगृहीत-संयम में स्थापित करना। २. शैक्षआचारग्राहिता-शैक्ष शिष्य को आचारविषयक प्रशिक्षण ४. स्वयं वृद्धों अथवा आचार्य की सतत पर्युपासना करना। देना । प्रतिलेखन, आवश्यक, भिक्षा, सूत्रपाठ आदि की विधियां भारप्रत्यवरोहणता विनय के प्रकार बताना। ..."भारपच्चोरुहणता चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा- ३. साधर्मिक वैयावृत्त्य-ग्लान साधर्मिक के वैयावृत्त्य में असंगहियपरिजणं संगहित्ता भवति, सेहं आयारगोयरं यथाशक्ति प्रवृत्त होना---उद्वर्तन, मात्रक, वैद्य, औषधि, आहार गाहित्ता भवति, साहम्मियस्स गिलायमाणस्स अहाथाम आदि की व्यवस्था करना। वेयावच्चे अब्भनेत्ता भवति, साहम्मियाणं अधिकरणंसि अधिकरण शासन_मार्मिकों में पाया कल उपन उप्पन्नंसि तत्थ अणिस्सितोवस्सिए अपक्खगाही मज्झत्थ- होने पर निजी शिष्य और प्रतीच्छक के प्रति अनिश्रितोपश्रितभावभूते सम्मं ववहरमाणे तस्स अधिकरणस्स खामण निश्रा और उपश्रा से मुक्त, निष्पक्ष होकर मध्यस्थभाव से विओसमणताए सया समियं अब्भुढेत्ता भवति, कहं नु सम्यक् व्यवहार द्वारा उस कलह के क्षमापन और शमन के साहम्मिया अप्पसद्दा, अप्पझंझा अप्पकलहा अप्यतुमंतुमा लिए सदा सम्यक अभ्युत्थान करना। निश्रा का अर्थ है-राग संजमबहुला संवरबहुला समाहिबहुला अपमत्ता संजमेण और उपश्रा का अर्थ है-द्वेष। तवसा अप्पाणं भावेमाणाणं एवं च णं विहरेज्जा? साधर्मिक कोलाहलपूर्ण शब्दों से मुक्त, वाचिक कलह भारपच्चोरुहणता-जधा राया अमात्यादीनां भारं से मुक्त, झगडे से मक्त, तं-तं से मक्त, संयमबहल, न्यस्य भोगान् भुंक्तेजधा वा आयरिएण अण्णस्स आयरि- संवरबहल, समाधिबहल, अप्रमत्त तथा संयम और तप से यस्स भारो पच्चोरुभितो, एवं आयरियस्स सत्तत्थगण- अपने को भावित करते हुए कैसे विहरण करें? इसके लिए चिंतणाभारो. तं सीसोचेव सव्वं जं जंकायव्वं गच्छस्स अभ्यद्यत रहना। तं तं करेति।"""असंगहितो रुट्ठो वाहिरं भावं वच्चति तं * सुविनीत अंतेवासी के कर्त्तव्य..... द्र. श्रीआको १ शिष्य संगेण्हति।पडिलेहण-आवस्सग-भिक्खपाढादिगाहेति। समाणधम्मिओ साधम्मिओ, गिलाणो असुहिओ, आगाढा- अगुरुलघु-भारहीन द्रव्य, वे द्रव्य जिनके पर्याय न गुरु णागाढेणं अधाथामं जधासत्तीए वेतावच्चं उव्वत्तण होते हैं और न लघु। द्र द्रव्य Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकरण आगम विषय कोश-२ अधिकरण-हिंसाकारक साधनों का निर्माण, प्रयोग आदि। कलह । कषायों के उदय से होने वाली प्रवृत्ति। १. द्रव्य-भाव अधिकरण। २. द्रव्य अधिकरण क्रिया : निर्वर्तना आदि ३. निर्वर्तना : तीक्ष्ण शस्त्रनिर्माण से तीव्र कर्मबंध ४. शरीर निर्वर्तना : अश्व-उत्पादन आदि ० मूल-उत्तर गुण निर्वर्तना : शरीर संघात-परिशाट करण ५.निक्षेपणा-संयोजना-निसर्जना अधिकरण ० संयोजना अधिकरण : कर्मबंध में नानात्व ६. भाव अधिकरण (कलह) के निर्वचन ७. अधिकरण के पर्याय ८. अधिकरण-उत्पत्ति के छह हेतु ९. कलहशमन से पूर्व आहार आदि का निषेध १०. कलह-उपशमन से आराधना ० कलह-शमन विधि ० कलह-शमन का एक उपाय : संवाद स्थापन ११. आचार्य द्वारा प्रेरणा : चार स्मारणा काल १२. अनुपशांत की गच्छ में रहने की अवधि १३. अधिकरण (कषाय) से उत्पन्न दोष __* कषाय से चारित्र-हानि : शमी-शाकपत्र दृष्टांत द्र कषाय १४. वैर के प्रकार, कलह-जन्य वैर की भव-परम्परा १५. कलह-उपेक्षा कैसे? १६. कलह-उपेक्षा से सर्वनाश : गिरगिट-हाथी दृष्टांत ___ * कलह उत्पन्न करना असमाधिस्थान द्र सामाचारी १७. कलह-उत्पत्ति और प्रायश्चित्त • कलह निवारण न करने पर प्रायश्चित्त १८. पर्युषणा में क्षमायाचना अनिवार्य ० दृष्टांत : दुरूतक और द्रमक ० प्रद्योत-उद्रायण * क्षमायाचना से गुण-निष्पादन द्र जिनकल्प १. द्रव्य-भाव अधिकरण ..."दव्वम्मि जंतमादी, भावे उदओ कसायाणं॥ (बृभा २६८०) अधिकरण के दो प्रकार हैं १. द्रव्य अधिकरण-यंत्रों का निर्वर्तन आदि। २. भावअधिकरण-क्रोध आदि कषायों का उदय। २. द्रव्य अधिकरण क्रिया : निर्वर्तना आदि दव्वम्मि उ अहिगरणं, चउव्विहं होइ आणुपुव्वीए। निव्वत्तण निक्खिवणे, संजोयण निसिरणे य तहा॥ अहिकरणं ............. समासओ दुविहं। णिव्वत्तणताए वा, संजोगे चेवऽणेगविधं ॥ या प्रथमतो घटना सा निर्वर्त्तना, या पुनस्तेषामेव निर्वतितानामेकत्र संघातना सा संयोजना। (बृभा २६८१, ३९४२ वृ) द्रव्य अधिकरण के चार प्रकार हैं-निर्वर्तना, निक्षेपणा, संयोजना और निसर्जना। संक्षेप में अधिकरण के दो प्रकार हैं- . १. निर्वर्तना अधिकरण क्रिया-नए सिरे से शस्त्रनिर्माण की क्रिया। २. संयोजनाधिकरणक्रिया-पूर्व निर्मित भागों को जोडकर शस्त्रनिर्माण करने की क्रिया। इनके उत्तर भेद अनेक हैं। (शस्त्रनिर्माण की पृष्ठभूमि में है-अविरति और निर्माण की प्रक्रिया है-दुष्प्रवृत्ति । द्र भ ३/१३४ का भाष्य) ३. निर्वर्तना : तीक्ष्ण शस्त्रनिर्माण से तीव्र कर्मबंध एगो करेति परसुं, णिव्वत्तेति णखछेदणं अवरो। कुंत-कणगे य वेज्झे, आरिय सूई अ अवरो उ॥ सूईसुं पि विसेसो, कारणसूईसु सिव्वणीसुं च। संगामिय परियाणिय, एमेव य जाणमादीसु॥ कारग-करेंतगाणं, अधिकरणं चेव तं तहा कुणति। जह परिणामविसेसो, संजायति तेसु वत्थूसु॥ याः परव्यपरोपणादिकारणमुद्दिश्य कारयित्वा परस्य नखमूलादौ कुट्यन्ते ता: कारणसूच्य उच्यन्ते, तासु विधीयमानासुमहान् कर्मबन्धो भवति।यास्तुवस्त्रसीवनार्थ क्रियन्ते तासुस्वल्पतरः कर्मबन्धः। (बृभा ३९४३-३९४५ वृ) (अधिकरण के आधार पर क्रिया होती है और क्रिया के आधार पर कर्मबंध।) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ एक लोहकार कुठार बनाता है, दूसरा नखच्छेदनिका बनाता है। एक व्यक्ति भाला, बाण, शक्ति, शूल आदि शरीरवेधक शस्त्रों का निर्माण करता है। दूसरा आरिका या सूई बनाता है। जो कुठार, भाला, बाण आदि बनाता है, वह तीव्र कर्मबंध करता है और जो नखच्छेदनी, आरिका, सूची आदि बनाता है, वह स्वल्प कर्मबंध करता है । सूची के दो प्रकार हैं- कारणसूची और सिलाई की सूची। कारणसूची शत्रु का व्यपरोपण आदि करने के लिए नखों में डाली जाती है। जो इस सूची का निर्माण करता है, वह घोर कर्मों का बंध करता है और जो सिलाई की सूची का निर्माण करता है, वह अल्प कर्मों का बंध करता है। वैसे ही संग्राम में काम आने वाले यान आदि का निर्माण करने वाला महान् कर्मबंध करता है। गमनागमन हेतु वाहन का निर्माण करने वाला स्वल्प कर्मबंध करता है । परिणामधारा की विचित्रता के कारण विचित्र कर्मबंध होता है । शस्त्रनिर्माण करते-करवाते समय कुंत आदि वस्तुओं प्रति वैसी बुद्धि उत्पन्न हो जाती है। (यथा- मैं इन शस्त्रों से शत्रु को मारूंगा - यह संक्लिष्ट अध्यवसाय तीव्र कर्मबंध का हेतु बनता है ।) ११ ४. शरीर निर्वर्तना : अश्व उत्पादन आदि ओरालियं एगिंदियादि पंचविधं तं 'जोणिपाहुडातिणा' जहा सिद्धसेणायरिएण अस्साए कता । जहा वा एगेण आयरिएण सीसस्स उवदिट्ठो जोगो जहा महिसो भवति । तं च सुयं आयरियस्स भाइणितेण । सो य णिद्धम्मो उण्णिक्खतो महिसं उप्पादेउं सोयरियाण हट्ठे विक्किणति । आयरिएण सुयं । तत्थ गतो भणेति - किं ते एएण ? अहं ते रयणजोगं पयच्छामि दव्वे आहराहि ते य आहरिता, आयरिएण संजोतिता, एगंते थले णिक्खित्ता, भणितो एत्तिएण काण ओक्खणेज्जाहि, अहं गच्छामि, तेण उक्खत्तो दिट्ठीविसो सप्पो जातो, सो तेण मारितो, अधिकरणच्छेओ, सो वि सप्पो अंतोमुहुत्तेण मओ । (निभा १८०४ की चू) योनिप्राभृत आदि ग्रंथों के आधार पर एकेन्द्रिय यावत् अधिकरण पंचेन्द्रिय प्राणियों के औदारिक शरीर का निर्वर्तन किया जा सकता | आचार्य सिद्धसेन ने अपने भक्त राजा की प्रार्थना पर अश्वों का उत्पादन किया था। एक बार एक आचार्य अपने शिष्यों को महिषों के उत्पादन का योग बता रहे थे। उस योग का पूरा विवरण आचार्य के भानजे ने सुन लिया। वह हिंसक वृत्ति का था । वह उस योग के अनुसार महिषों का उत्पादन करता और कसाई को बेच देता । आचार्य ने यह सुना। वे उसके पास गए और बोले- अरे ! इससे क्या ? मैं तुझे रत्न उत्पादन का योग बताऊंगा। तुम अमुक-अमुक द्रव्य ले आओ। वह सारे द्रव्य ले आया। आचार्य ने उनकी संयोजना कर, एकान्त में स्थापित कर उससे कहा- इतना समय बीतने पर इसको उठाना। मैं जा रहा हूं। समय बीतने पर उसने उसे उठाया । उससे एक दृष्टिविष सर्प निकला, जिससे वह वहीं मर गया । अन्तर्मुहूर्त्त के बाद वह सर्प भी मर गया। वैक्रिया - ऽऽहारकशरीरे अपि यन्निष्कारणे निर्वर्त्तयति, परशु - कुन्तादीनि वा करोति, तन्निर्वर्त्तनाधिकरणमुच्यते । (बृभा २६८१ की वृ) वैक्रिय शरीर और आहारक शरीर का भी निष्कारण निर्माण करना, अथवा परशु, कुंत आदि का निर्वर्तन करना निर्वर्तना अधिकरण कहलाता है। ० • मूलउत्तरगुणनिर्वर्तना : शरीर संघात परिशाटकरण निव्वत्तणा य दुविधा, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूले पंचसरीरा, दोसु तु संघातणा णत्थि ॥ संघातणा य पडिसाडणा य उभयं व जाव आहारं । उभयस्स अणियतठिती, आदि अंतेगसमओ तु ॥ हविपूयो कम्मगरे, दिट्टंता होंति तिसु सरीरेसु । कण्णे य खंधवण्णे, उत्तरकरणं व तीसु तु ॥ संघाडणा य परिसाडणा य मीसे तहेव पडिसेहो ।..... ( निभा १८०१ - १८०४ ) निर्वर्तनाअधिकरण के दो प्रकार हैं १. मूलगुण निर्वर्तना - यह पांच शरीरों से संबंधित है । तैजस और कार्मण शरीर में संघात नहीं होता, क्योंकि ये अनादि हैं। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकरण आगम विषय कोश-२ है। औदारिक, वैक्रिय और आहारक में संघात, परिशाट २. लोकोत्तर निक्षेपणा-पात्र-उपकरण रखते समय प्रत्युपेक्षाऔर उभय (संघात-परिशाट)-तीनों होते हैं। उभय की प्रमार्जन संबंधी दोष लगाना। इसके चार विकल्प हैंस्थिति अनियत है। संघात और परिशाट एक सामयिक है। प्रतिलेखना नहीं करता, प्रमार्जन नहीं करता। संघात प्रथम क्षण में और परिशाट अंतिम क्षण में होता है। प्रतिलेखन नहीं करता, प्रमार्जन करता है। ० घतपप दष्टांत-पप को घी में डाला जाता है। वह प्रथम प्रतिलेखन करता है, प्रमार्जन नहीं करता। समय में एकांत रूप से घी को ग्रहण करता है, दूसरे, तीसरे दुष्प्रतिलेखन-दुष्प्रमार्जन करता है। आदि क्षणों में ग्रहण और मोचन दोनों करता है। अविधि से निक्षेपणा के कारण ये चारों विकल्प अधिकरण ० लोहकार दृष्टांत-लोहकार तप्त लोहे को जल में डालता हैं। है। लोह प्रथम समय में एकांत जलग्रहण करता है. अगले सप्रतिलेखन और सुप्रमार्जन अधिकरण नहीं हैं! क्षणों में ग्रहण और मोचन दोनों क्रियाएं होती हैं। (आहार-पानी के पात्रों को खुला रखना भी निक्षेपणा इसी प्रकार औदारिक आदि प्रथम तीन शरीरों में प्रथम अधिकरण है।) समय में संघात और अगले क्षणों में संघात-परिशाट होता ० संयोजना अधिकरण-इसके दो प्रकार हैं १ लौकिक संयोजना-विष, गर (जिसे खाने से सहसा मृत्यु तैजस और कार्मण शरीर में अनादि होने के कारण नहीं होती) आदि को निष्पन्न करने हेतु द्रव्यों की संयोजना सब क्षणों में संघातपरिशाट होता है। करना। अनेक रोगोत्पादक द्रव्यों को संयुक्त करना। चरमशरीरी के अंतिम क्षण में पांचों शरीरों का सर्वपरिशाट २. लोकोत्तर संयोजना-आहार, उपधि आदि की संयोजना। (पूर्ण परित्याग) होता है। वसति के भीतर या बाहर क्षीर में खांड, मण्डक में गुड़ आदि ____ अथवा औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर के सिर, मिलाया, यह आहार संयोजना है। उर, उदर, पृष्ठ, बाहुद्वय, ऊरुद्वय-ये आठ अंग मूलकरण निष्कारण या अविधि से वस्त्र आदि सीना उपधि संयोजना निर्वर्तन हैं, शेष अंगोपांग उत्तरकरण निर्वर्तन हैं। २. उत्तरगुण निर्वर्तना-प्रथम तीन शरीरों में उत्तरकरण है- निसर्जना अधिकरण-इसके दो प्रकार हैंकर्णवेधकरण, स्कंधकरण और घृत आदि से वर्णकरण। १. लौकिक निसर्जना-बाण, शक्ति, गोफण, पाषाण, चक्र * शरीर-संघातपरिशाटकरण, द्रव्यकरण द्र श्रीआको १ शरीर आदि फेंकना। ५.निक्षेपणा-संयोजना-निसर्जना अधिकरण २. लोकोत्तर निसर्जना-सहसा. प्रमाद से या विस्मति से गल-कड पासमादी, उ लोइया उत्तरा चउविकप्पा। निसर्जन करना, भोजन में गिरे हुए कंकर आदि को निकालकर पडिलेहणा पमज्जण, अधिकरणंअविधि-णिविखवणा॥ फेंकना। विसगरमादी लोए, उत्तरसंयोग मत्तउवहिम्मि। ० संयोजना अधिकरण : कर्मबंध में नानात्व अंतो बद्रि आद्वारे विधि अविधि मिळणावी संजोययते कूडं, हलं पडं ओसहे य अण्णोण्णे। कंडादिलोअ णिसिरण, उत्तर सहसा पमायऽणाभोगे।" भोयणविहिं च अण्णे, तत्थ वि णाणत्तगं बहहा॥ (निभा १८०५-१८०७) यः कूटं संयोजयति तस्य संक्लिष्टपरिणामतया ० निक्षेपणा अधिकरण-इसके दो प्रकार हैं तीव्रतरः कर्मबन्धः, तदपेक्षया हलं संयोजयतः स्वल्पतरः, १. लौकिक निक्षेपणा-मत्स्य को पकड़ने के लिए गल पटं संयोजयतः स्वल्पतम इत्यादि। (बृभा ३९४६ वृ) (लोहकण्टक), मृग आदि को फंसाने के लिए कूट, लावक कोई लुब्धक मृग आदि को फंसाने के लिए कूटयंत्र को आदि को पकड़ने के लिए जाल आदि का निक्षेपण करना। रज्जु आदि से संयोजित करता है । कृषक क्षेत्रकर्षण के लिए Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १३ अधिकरण हल को युग आदि से संयोजित करता है। कोई वस्त्र को अथवा प्राभृत आदि तो नरक के एकार्थक हैं, क्योंकि दूसरे वस्त्र के साथ सिलाई के प्रयोग से संयुक्त करता है। नरक के सीमन्तक आदि के प्राभृत की तरह जो प्राभृत है, वह कोई वैद्य औषधिहेतुक हरीतकी, पिप्पली आदि अन्य द्रव्य । अधिकरण है। परस्पर मिलाता है। कोई भोजन के लिए चावल, दाल, घी ८. अधिकरण-उत्पत्ति के छह हेतु आदि की संयोजना करता है। इन सब क्रियाओं में कर्मबंध सच्चित्ते अच्चित्ते, मीस वओगय परिहार देसकहा। का नानात्व होता है। जो कूट-संयोजना करता है, उसके सम्ममणाउट्टते, अहिगरणमओ समुप्पज्जे॥ संक्लिष्ट परिणामों के कारण तीव्रतर कर्मबंध होता है। जाल आभव्वमदेमाणे, गिण्हंत तहेव मग्गमाणे य। बनाने वाले की अपेक्षा से हल योजित करने वाले के स्वल्पतर, सच्चित्तेतरमीसे, वितहापडिवत्तिओ कलहो। वस्त्र की संयोजना करने वाले के स्वल्पतम कर्मबंध होता है। विच्चामेलण सुत्ते, देसीभासा पवंचणे चेव। ६. भाव अधिकरण (कलह) के निर्वचन अन्नम्मि य वत्तब्वे, हीणाहिय अक्खरे चेव।। .."अद्धितिकरणं च तहा, अहीरकरणं च अहीकरणं॥ परिहारियमठवेंते, ठवियमणट्ठाए निव्विसंते वा। भावाधिकरणं कर्मबंधकारणं।"अहीकरणं"अधी: कुच्छियकुले व पविसइ, चोइयऽणाउट्टणे कलहो॥ रुषः, स तं करोतीत्यधिकरणं। देसकहापरिकहणे, एक्के एक्के व देसरागम्मि। (निभा २७७२ चू) मा कर देसकहं ति य, चोइय अठियम्मि अहिगरणं॥ (बृभा २६९३-२६९७) जो कषायभाव या अशुभभाव रूप शस्त्र से युक्त है. वह साधिकरण है। अधिकरण की उत्पत्ति के मुख्य छह कारण हैंजो कर्मबंध का कारण है, वह भावाधिकरण है। सचित्त, अचित्त, मिश्र, वचोगत, परिहारकुल और देशकथाधुतिहीन व्यक्ति जिसे करता है, वह अधीरकरण/अधिकरण इनसे संबंधित असद् प्रवृत्ति के निवारण की प्रेरणा के पश्चात् है। बुद्धिविहीन व्यक्ति जिसे करता है, वह अधीकरण सम्यक् प्रवृत्त न होने पर कलह उत्पन्न होता है। (अधिकरण/ कलह) है। १-३. सचित्त, अचित्त, मिश्र-शैक्ष, वस्त्र-पात्र अथवा उपकरण अधिक्रियते-नरकगतिगमनयोग्यतां प्राप्यते आत्मा सहित शैक्ष-ये जिनके हैं, उन्हें नहीं सौंपा जाता है, अनधिकृत को ग्रहण किया जाता है या पूर्वगृहीत की मार्गणा की जाती अनेनेत्यधिकरणं कलहः प्राभृतमित्येकोऽर्थः। (क १/३४ की वृ) है, उसे अस्वीकृत करने पर वितथ प्रतिपत्ति के कारण कलह हो सकता है। जीव जिसके द्वारा नरकगतिगमन की योग्यता अधिकृत/ ४. वचोगत-शिष्य द्वारा एक सूत्र का दूसरे सूत्र में मिश्रण कर प्राप्त करता है, वह अधिकरण है। कलह और प्राभृत इसके परावर्तन किया जाता है, सूत्रपदों के उच्चारण में अक्षरों की एकार्थक हैं। न्यूनाधिकता की जाती है, उसे प्रेरणा देने पर वह सम्यक ७. अधिकरण के पर्याय प्रवृत्त नहीं होता, तब कलह हो सकता है। देशांतर में देशी ""पाहुड पहेण पणयण, एगट्ठा ते उ निरयस्स॥ भाषा के प्रयोग का उपहास किये जाने पर, दूसरों के शब्दों का अधिकरणं नरकस्य-सीमन्तकादेः प्राभृतमिव । अनुकरण (नकल) करने पर तथा वक्तव्य वचनों में व्यत्यय प्राभृतमुच्यते। (बृभा २६७८ वृ) करने पर कलह हो सकता है। प्राभुत, प्रहेणक और प्रणयन-ये तीनों अधिकरण के ५. परिहार कुल-स्थापना कलों की स्थापना न करने पर, पर्यायवाची नाम हैं। स्थापित कुलों में निष्कारण प्रवेश करने पर अथवा कुत्सित Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकरण आगम विषय कोश-२ कुलों में प्रवेश करने पर निषेध किया जाता है। निषेध करने पर भी प्रवेश से उपरत नहीं होने पर कलह हो सकता है। ६. देशकथा-देशअनुराग के कारण अपने-अपने देश की गौरवगाथा करने पर परस्पर एक-दूसरे की हीनता दिखाने का प्रयत्न होने पर कलह हो सकता है। देशकथा, भक्तकथा, स्त्रीकथा तथा राजकथा हमारे लिए करणीय नहीं है-ऐसा कहने पर भी कोई विकथा से विरत नहीं होता है, तब कलह हो सकता है। ९. कलह-शमन से पूर्व आहार आदि का निषेध भिक्खूयअहिगरणंकट्ट तंअहिगरणं अविओसवेत्ता नो से कप्पइ गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा"वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, गामाणुगामं वा दूइज्जित्तए, गणाओ वा गणं संकमित्तए, वासावासंवा वत्थए। (क ४/२६) भिक्षु अधिकरण कर उस अधिकरण का व्युपशमन किए बिना गृहपति के घर में आहार या पानी के लिए गमन और प्रवेश नहीं कर सकता, बाहर विचारभूमि और विहारभूमि में नहीं जा सकता, प्रवेश नहीं कर सकता, ग्रामानुग्राम विहरण, एक गण से दूसरे गण में संक्रमण नहीं कर सकता और वर्षावास में स्थित नहीं हो सकता। १०. कलह-उपशमन से आराधना __ भिक्खू य अहिगरणं कट्ट तं अहिगरणं विओसवित्ता विओसवियपाहुडे इच्छाए परो आढाएज्जा, इच्छाए परो नो आढाएज्जा, इच्छाए परो अब्भुटेज्जा, इच्छाए परो नो अब्भुटेज्जा, इच्छाए परो वंदेज्जा, इच्छाए परो नो वंदेज्जा, इच्छाए परो संभुंजेज्जा, इच्छाए परो नो संभुंजेज्जा, इच्छाए परो संवसेज्जा, इच्छाए परो नो संवसेज्जा, इच्छाए परो उवसमेज्जा, इच्छाए परोनो उवसमेज्जा।जे उवसमइ, तस्स अस्थि आराहणा, जे न उवसमइ, तस्स नत्थि आराहणा। तम्हा अप्पणा चेव उवसमियव्वं। से किमाहु भंते ? उवसमसारं सामण्णं। (क १/३४) किसी के साथ कलह होने पर भिक्ष उसका उपशमन कर दे। कलह का उपशमन कर देने पर सामने वाला उसे बहुमान दे या न दे, उसके आने पर खड़ा हो या न हो, उसे वन्दन करे या न करे, उसके साथ भोजन करे या न करे, उसके साथ रहे या न रहे, वह कलह का उपशमन करे या न करे, यह उसकी इच्छा है। जो कलह का उपशमन करता है, उसके आराधना होती है। जो उपशमन नहीं करता, उसके आराधना नहीं होती। इसलिए व्यक्ति अपनी ओर से कलह का उपशमन करे। भंते! ऐसा क्यों कहा गया? श्रामण्य का सार है-उपशम। ० कलह-शमन विधि तं जत्तिएहि दिटुं, तत्तियमेत्ताण मेलणं काउं। गिहियाण व साधूण व, पुरतो च्चिय दो वि खामंति॥ नवणीयतुल्लहियया, साहू एवं गिहिणो तु नाहेति। न य दंडभया साहू, काहिंती तत्थ वोसमणं॥ ..."बितिओ जदि न उवसमे, गतो य सो अन्नदेसं तु॥ गंतुं खामेयव्वो अधव न गच्छेज्जिमेहि दोसेहिं । नीयल्लगउवसग्गो, तहियं गतस्स व होज्जा तु॥ अह नत्थि कोवि वच्चंतो, ताधे उवसमेती अप्पणा। खामेती जत्थ णं, मिलती अदिढे गुरुणंतियं ॥ (व्यभा २९९७-२९९९, ३००१, ३००६) परस्पर कलह होने पर जितने गृहस्थों या साधुओं ने उसे देखा है, उन सबको एकत्रित कर उनके सम्मुख क्षमा का आदान-प्रदान करना चाहिए। इससे अनेक लाभ होते हैं गृहस्थ और शैक्ष साधु उस दृश्य को देख यह सोचते हैं-अहो! साधुओं का हृदय नवनीत की भांति कोमल होता है तथा उन्हें (दर्शकों को) यह भी बोध हो जाता है कि साधु कलह उत्पन्न होने पर उपशमन/ क्षमायाचना-क्षमादान कर्मक्षय के लिए करते हैं, दण्ड के भय से नहीं। __यदि अनुपशांत अवस्था में एक साधु अन्यत्र सुदूर क्षेत्र में चला गया हो तो दूसरा साधु वहां जाकर क्षमायाचना करे। वैयावृत्त्यकरण, बीहड़ मार्ग, स्वजनों का उपसर्ग आदि-आदि कारणों से स्वयं वहां न जा सके और कोई भद्र श्रावक उस क्षेत्र Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ में जा रहा हो, तो उसके साध क्षमा का संदेश भेजे । यदि संदेशवाहक न मिले तो स्वयं अपने मन से कलह का भाव सर्वथा समाप्त कर दे। फिर कभी कहीं मिले, वहीं क्षमायाचना करे। यदि कभी कहीं मिलने की संभावना न हो तो अपने गुरु के पास जाकर उसका स्मरण कर मानसिक संकल्प के साथ उससे क्षमायाचना करे। • कलहशमन का एक उपाय : संवाद-स्थापन .....दोसं, झवंति तिक्खाइ - महुरेहिं ॥ अवराह तुलेऊणं, पुव्ववरद्धं च गणधरा मिलिया । बोहित्तुमसागारिऍ, दिंति विसोहिं खमावेडं ॥ (बृभा २२३०, २२३१ ) आचार्य तीक्ष्ण-मधुर वचनों से कलह को शांत करते हैं। दो गच्छों के दो व्यक्तियों में परस्पर कलह होने पर दोनों गच्छों के आचार्य मिलकर उन दोनों की बात सुनते हैं। फिर परस्पर संवाद स्थापित कर जिसने पहले अपराध किया है, उसे एकांत में प्रतिबोध देकर दूसरे अपराधी से क्षमायाचना का निर्देश देते हैं। क्षमायाचना के पश्चात् दोनों को प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करते हैं। ११. आचार्य द्वारा प्रेरणा : चार स्मारणा काल गच्छा अणिग्गयस्सा, अणुवसमंतस्सिमो विही हो । सज्झाय भिक्ख भत्तट्ट, वासए चउर एक्केक्के ॥ वि पट्टवेति उवसम, कालो ण सुद्धो जियं वा सिं ॥ तरणे अभत्तट्ठी, ण व वेला अभुंजणे ण जिणं सिं । ण पडिक्कमंति उवसम, णिरतीयारा णु पच्चाह ॥ एवं दिवसे दिवसे, चाउक्कालं तु सारणा तस्स'' । एवं तु अगीतत्थे, गीतत्थे सारिए गुरू सुद्धो । जति तं गुरू ण सारे, आवत्ती होइ दोण्हं पि । गच्छो य दोन्नि मासे, पक्खे पक्खे इमं परिहवेति । भत्तट्टण सज्झायं, वंदण लावं ततो परेणं ॥ (बृभा ५७६२-५७६४, ५७६६-५७६८) कलह के पश्चात् यदि मुनि गच्छ में ही स्थित है किन्तु उपशांत नहीं हुआ है, उसके लिए यह विधि हैआचार्य प्रतिदिन उसे चार बार प्रेरित करें १५ अधिकरण - १. स्वाध्यायकाल में – आचार्य उससे कहे ये साधु स्वाध्याय की प्रस्थापना नहीं कर पा रहे हैं, अतः तुम शांत हो जाओ । यदि वह प्रत्युत्तर में कहे- अभी काल शुद्ध नहीं है अथवा साधुओं के सूत्र तो परिचित ही है-ऐसा कहने पर साधु स्वाध्याय प्रारंभ कर दें। २. भिक्षावेला में - आचार्य उससे कहे - साधु भिक्षा के लिए नहीं जा रहे हैं, तुम शांत हो जाओ। 1 ये तपस्वी हैं अथवा भिक्षा का समय नहीं हुआ है इसलिए नहीं जा रहे हैं'- उसके ऐसा कहने पर साधु भिक्षा के लिए चले जाते हैं । ३. आहार के समय - आचार्य उससे कहे - साधु आहार नहीं कर रहे हैं, तुम शांत हो जाओ। वे अजीर्ण के कारण आहार नहीं कर रहे हैं - उसके ऐसा कहने पर सब साधु मंडलीभोजन करते हैं। ४. प्रतिक्रमण के समय - आचार्य उससे कहे- साधु प्रतिक्रमण नहीं कर पा रहे हैं, तुम शांत हो जाओ। वह कहता है - वे निरतिचार हैं, तब सब प्रतिक्रमण करते हैं। इस प्रकार प्रतिदिन के ये चार स्मारणाकाल हैं। यह विधि अगीतार्थ के लिए है। गीतार्थ के लिए एक दिन में चारों स्थानों की स्मारणा कराने वाले आचार्य शुद्ध हैं। यदि आचार्य अनुपशांत मुनि को स्मारणा नहीं कराते हैं तो दोनों प्रायश्चित्त के भागी हैं। गच्छ और स्मारणा की अवधि - गच्छ दो मास तक प्रतिदिन स्मारणा कराये । तत्पश्चात् प्रत्येक पक्ष में एक-एक स्थान का वर्जन करे । यथा - प्रथम पक्ष के बाद उसके साथ मण्डली भोजन का, दूसरे पक्ष के बाद स्वाध्याय का, तीसरे पक्ष के बाद वंदना - व्यवहार का और चौथे पक्ष के बाद आलापसंलाप का वर्जन करे । १२. अनुपशांत की गच्छ में रहने की अवधि संवच्छरं च रुट्ठ, आयरिओ रक्खती पयत्तेणं । जति णाम उवसमेज्जा, पव्वतराजी सरिसरोसो ॥ अण्णे दो आयरिया, एक्केक्कं वरिसमुवमेंतस्स । तेण परं गिहि एसो, बितियपदं रायपव्वतिए ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकरण १६ दो एमेव गणायरिए, गच्छम्मि तवो तु तिण्णि पक्खाइ । आयरिए'''''' ॥ ( निभा २८०७-२८०९) पक्खा आचार्य अनुपशांत शिष्य को शांत होने की संभावना एक वर्ष तक प्रयत्नपूर्वक अपने पास रखे। जो वर्ष भर में भी शांत नहीं होता, उसका रोष पत्थर की रेखा के समान होता है। एक वर्ष बीतने पर उसे अन्य दो आचार्यों के संरक्षण में एक-एक वर्ष तक रखा जाता है। जो आचार्य उसे उपशांत करता है, वह उसी का शिष्य हो जाता है। उपशांत न होने पर तृतीय वर्ष के पश्चात् उसे गृहस्थ बना दिया जाता है। प्रव्रजित राजा आदि इसके अपवाद हैं। संघ उनके लिंग का अपहार नहीं करता । इसी प्रकार उपाध्याय और आचार्य अनुपशांत होकर गच्छ में रहते हैं तो उपाध्याय को तीन पक्ष और आचार्य को दो पक्ष तक तप तथा उसके बाद छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १३. अधिकरण ( कषाय ) से उत्पन्न दोष तावो भेदो अयसो, हाणी दंसण-चरित्त नाणाणं । साहुपदो संसारवड साहिकरणस्स ॥ अइभणिय अभणिए वा, तावो भेदो उ जीव चरणे वा । रूवसरिसं न सीलं, जिम्हं व मणे अयस एवं ॥ अक्कुट्टतालिए वा, पक्खापक्खि कलहम्मि गणभेदो ।" वत्तकलहो वि न पढइ, अवच्छलत्ते य दंसणे हाणी । जह कोहाइविवड्डी, तह हाणी होइ चरणे वि ।। अकसायं खु चरित्तं, कसायसहितो न संजओ होइ । साहूण पदोसेण य, संसारं सो विवड्ढेइ ॥ (बृभा २७०८ - २७१२) कलह या कषाय के कारण छह दोष उत्पन्न होते हैं१. ताप (पश्चात्ताप), २. भेद, ३. अपयश, ४. ज्ञान-दर्शन-चारित्र की हानि, ५. साधुप्रद्वेष, ६. संसारवृद्धि । १. ताप - इसके दो प्रकार हैं- प्रशस्त और अप्रशस्त । अधिक बोलने वाला कलहकारी सोचता है- धिक्कार है मुझे। मैंने उस साधु पर अनेक असत्य आरोप लगाए, उस पर आक्रोश किया - यह प्रशस्त ताप है। मौन रहने वाला सोचता है - कलह आगम विषय कोश - २ के समय मैं कुछ नहीं कह पाया। मैं मंदभाग्य हूं, विस्मरणशील हूं। उस समय मैं उसके जाति आदि के मर्म को प्रगट नहीं कर सका। यह अप्रशस्त ताप है। २. भेद- कलह होने के बाद पश्चात्ताप से तप्त चित्त से वह जीवन और चारित्र का भेद कर सकता है। आक्रोश-ताड़नाजन्य पक्षापक्षी (पक्षपात) के कारण गण में भेद हो सकता है। ३. अयश - लोग कहने लगते हैं- इसका बाह्यरूप प्रशांत प्रतीत होता है, परन्तु इसका मनः प्रणिधान उसके अनुरूप नहीं है। कोई कहता है- क्या यह मानूं कि इसने कोई लज्जनीय कार्य किया है, जिससे इसका मुख म्लान हो रहा है । ४. ज्ञान - दर्शन - चारित्र की हानि - कलह करने के बाद वह कषायकलुषित चित्त वाला मुनि पढ नहीं सकता। उसके ज्ञान की हानि होती है। साधर्मिक वात्सल्य विराधित होने के कारण दर्शन की परिहानि तथा कषायों की वृद्धि के कारण चारित्र की हानि होती है। ५. साधुप्रद्वेष - कलहकारी के मन में साधुओं के प्रति प्रद्वेष होता है। वह किसी के साथ मैत्रीभाव नहीं रख सकता । ६. संसारवर्द्धन - चारित्र कषायरहित ही होता है। जो कषायसहित है, वह संयत ही नहीं है - यह निश्चयनय का अभिप्राय है । कलहकारी दीर्घसंसारी होता है। वह निरंतर कर्मबंध करता रहता है। १४. वैर के प्रकार, कलह-जन्य वैर की भव-परंपरा नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य भाववेरे य । तं महिस-वसभ-वग्घा -सीहा नरएस सिज्झणया ॥ (बृभा २७६२) कलह के कारण ही वैर उत्पन्न होता है और जब वह वैर बद्धमूल हो जाता है तब उसकी परम्परा जन्म-जन्मान्तरों तक चलती है। वैर के छह निक्षेप हैं- नाम वैर, स्थापना वैर, द्रव्य वैर, क्षेत्र वैर, काल वैर और भाव वैर । ० द्रव्य वैर - धन आदि के निमित्त से उत्पन्न वैर । ० क्षेत्र वैर - अमुक क्षेत्र में या अमुक क्षेत्र के कारण उत्पन्न वैर । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १७ अधिकरण ० काल वैर-अमुक काल में उत्पन्न वैर। १६. कलह-उपेक्षा से सर्वनाश : गिरगिट-हाथी दृष्टांत ० भाव वैर-परिणामों की मलिनता। एक भव से दूसरे भव में । नागा! जलवासीया! सुणेह तस-थावरा!। संक्रान्त होने वाला वैर। सरडा जत्थ भंडंति, अभावो परियत्तई॥ एक गांव में चोरों ने गायों को चुरा लिया। महत्तर वणसंड सरेजल-थल-खहचरवीसमण देवया कहणं। (गांव का मुखिया) खोजी को साथ लेकर गया। गायें हमारी वारेह सरडुवेक्खण, धाडण गयनास चूरणया॥ हैं-यह कहकर चोरों का अधिपति महत्तर के साथ झगड़ने (बृभा २७०६, २७०७) लगा। वे रौद्रध्यान में लीन होकर एक-दूसरे का वध करते अरण्य के मध्य में एक अगाध जल वाला सुंदर हए मर गए और प्रथम नरक में नारक के रूप में उत्पन्न हुए। सरोवर था। वह चारों ओर वृक्षों से मंडित था। वहां वहां से उद्वृत्त होकर दोनों महिष रूप में उत्पन्न हुए। जलचर, स्थलचर तथा खेचर प्राणियों की बहुलता थी। एक एक-दूसरे को देखकर तमतमा उठे, झगड़ने लगे। मरकर दूसरी बड़ा हस्तियूथ भी वहां रहता था। ग्रीष्मकाल में वह हस्तियूथ नरक में उत्पन्न हुए। वहां से उद्वृत्त हो वृषभ बने। उसी वैर उस सरोवर में पानी पीता, जलक्रीड़ा करता और वृक्षों की परम्परा में आबद्ध होने के कारण एक-दूसरे को मारकर पुनः छाया में सुखपूर्वक विश्राम करता था। सरोवर के निकट दूसरी नरक में गये। वहां से आयुष्य पूर्णकर दोनों ही बाघ रूप गिरगिटों का निवास था। एक बार दो गिरगिट लड़ने लगे। में जन्मे। वहां भी परस्पर वध कर मरकर तीसरी नरक में गए। वनदेवता ने यह देखा। उसे भविष्य का अनिष्ट स्पष्टरूप से वहां से उवृत्त हो सिंह रूप में उपपन्न हुए, फिर चौथी नरक दृग्गोचर होने लगा। उसने अपनी भाषा में सबको सावचेत में उत्पन्न हुए। वहां से उवृत्त हो दोनों ही मनुष्य योनि में करते हुए कहाजन्मे, जिनशासन में दीक्षित हए और सदा के लिए मुक्त हो हे हाथियो! जलवासी मच्छ-कच्छपो! त्रस-स्थावर गए। प्राणियो! सब मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें-जहां सरोवर के निकट १५. कलह-उपेक्षा कैसे? गिरगिट लड़ रहे हों, वहां सर्वनाश होता है। इसलिए इन लड़ने परवत्तियाण किरिया, मोत्तु परटुं च जयसु आयटे। वाले गिरगिटों की उपेक्षा न करें। इनको निवारित करें। अवि य उवेहा वुत्ता, गुणा य दोसा य एवं तु॥ जलचर आदि प्राणियों ने सोचा-लड़ने वाले ये गिरगिट जति परो पडिसेविज्जा, पावियं पडिसेवणं। हमारा क्या बिगाड़ देंगे? इतने में एक गिरगिट भाग कर सरोवर के मज्झ मोणं चरेतस्स, के अटे परिहायति॥ किनारे सोए हुए हाथी की सूंड को बिल समझ कर उसमें चला (निभा २७८१, २७८२) गया। दूसरा गिरगिट भी उसके पीछे भागता हुआ सूंड में घुस कलह की उपेक्षा करने वाले कहते हैं- हमारे पर गया। वे हाथी के कपाल में लड़ने लगे। हाथी अत्यंत पीड़ित प्रत्ययिक कर्मबंध नहीं होता। कलह को उपशांत करना हुआ। महान् वेदना से पराभूत होकर हाथी उठा और वनषंड का परार्थ है, इसे छोडकर आत्मार्थ को साधो। (ओघनियुक्ति विनाश करने लगा। अनेक प्राणी मारे गए। वह सरोवर में घुसा। भाष्य गाथा १७१ में) उपेक्षा को संयम कहा गया है। वहां अनेक जलचरों को मारा। सरोवर की पाल तोड़ डाली, सभी प्राणी नष्ट हो गए। उपेक्षा से स्वाध्याय आदि गण निष्पन्न होते हैं। परार्थसापेक्षता सूत्र, अर्थ आदि का परिमंथु है। १७. कलह-उत्पत्ति और प्रायश्चित्त यदि कोई पापमयी प्रतिसेवना करता है तो मेरे मौन जे भिक्खू णवाई अणुप्पण्णाई अहिगरणाई या मध्यस्थ रहने से मेरे कौन से प्रयोजन की हानि होती है? उप्याएति"पोराणाई"पुणो उदीरेति"आवज्जइ मासियं यह है उपेक्षा। परिहारट्ठाणं उग्घातियं। (नि ४/२४, २५, ११८) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकरण आगम विषय कोश-२ जो भिक्षु अनुत्पन्न नए कलहों को उत्पन्न करता है, अहोरात्र का छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है। धीरे-धीरे कषाय पुराने क्षामित और उपशांत कलहों की उदीरणा करता है, वह की आग बुझ जाने पर वह उपशांत होकर दुबारा उसी गण में मासलघु प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। (अपने मूलगण में) आना चाहे तो गण को जैसे प्रीति/प्रतीति ० कलह-निवारण न करने पर प्रायश्चित्त हो, वैसे करना चाहिये। जे भिक्खू साहिगरणं अविओसविय-पाहडं १८. पर्युषणा में क्षमायाचना अनिवार्य अकडपायच्छित्तं परं ति-रायाओविप्फालिय अविष्फालिय अधिकरणं"""ण कायव्वं, पुव्वुप्पण्णं च ण संभंजति संभंजतं वा सातिज्जति आवजड चाउम्मासियं उदीरियव्वं । पुव्वुप्पण्णं जड़ कसायुक्कडताए न खामितं परिहारट्ठाणं अणुग्घातियं। (नि १०/१४, ४१) तो-पज्जोसवणासुअवस्सं विओसवेयव्वं"खामेयव्वंच, एवं करतेहिं संजमाराहणा कता भवति" जिस भिक्षु ने कलह कर उसका उपशमन नहीं किया, गिहिणो वि कयवेरा अधिकरणाइं ओसवंति, प्रायश्चित्त नहीं किया, उससे पृच्छा कर या बिना पृच्छा किए समणेहिं पुण सव्वपावविरतेहिं सुट्ठतरं ओसवेयव्वं । जो उसके साथ तीन दिन से अधिक मण्डली भोजन करता है (निचू ३ पृ१३९, १४७) या करने वाले का अनुमोदन करता है, वह चतर्गरु प्रायश्चित्त ___ कलह नहीं करना चाहिये। पूर्व उत्पन्न (उपशांत) प्राप्त करता है। कलह की उदीरणा नहीं करनी चाहिये। यदि कषाय की प्रबलता जो जस्स उ विज्झवणं तस्स तेण कायव्वं। के कारण पूर्व उत्पन्न कलह के लिए क्षमायाचना न की हो तो के कारण पर्त उत्पन्न कलर के लिI श्रम जो उ उवेहं कुज्जा, आवज्जइ मासियं लहुगं॥ पर्युषणा में अवश्य कर लेनी चाहिये। कलह का शमन कर ..."गुरुओ सो चेव उवहसंतस्स। क्षमायाचना करने वाला संयम की आराधना करता है। उत्तुयमाणे लहुगा, सहायगत्ते सरिसदोसो॥ वैर भाव रखने वाले गृहस्थ भी अधिकरण का उपशमन (बृभा २६९८, २६९९) करते हैं तो सर्वपापों से विरत श्रमणों को अच्छी तरह से कलह होने पर जो साधु जिस साधु की प्रज्ञापना से अधिकरण को उपशांत करना चाहिये। उपशांत होता है, उस साधु को उसे उपशांत करना चाहिए। ० दृष्टांत : दुरूतक और द्रमक उसकी उपेक्षा और उपहास करने वाला तथा उत्तेजित करने एगबतिल्लं भंडिं, पासह तुब्भे वि डझंतखलहाणे। वाला ये तीनों क्रमश: मासलघु, मासगुरु और चतुर्लघु हरणे ज्झामण भाणग, घोसणता मल्लजुद्धेसु ॥ पायश्चित्त के भागी बनते हैं। उसका सहयोग करने वाला अप्पिणह तं बइल्लं, दुरूवगा तस्स कुंभकारस्स। उसी के समान दोषी है और उतना ही प्रायश्चित्त (चतुर्गुरु) मा भे डइहिति धण्णं, अण्णाणि वि सत्त वरिसाणि॥ प्राप्त करता है। खद्धादाणि य गेहे, पायस दमचेडरूवगा दटुं। भिक्खू य अहिगरणं कट्ट तं अहिगरणं अवि पितरोभासण खीरे, जाइय रद्धे य तेणा तो॥ ओसवेत्ता, इच्छेज्जा अण्णंगणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, पायसहरणं छेत्ता, पच्छागय असियएण सीसं तु। कप्पइ तस्स पंच राइंदियं छेयं कट्ट-परिणिव्वविय- भाउयसेणाहिव, खिंसणाहिं सरणागतो जत्थ । परिणिव्वविय दोच्चं पि तमेव गणं पडिनिज्जाएयव्वे सिया, (निभा ३१८०, ३१८१, ३१८६, ३१८७) जहावा तस्स गणस्स पत्तियं सिया। (क ५/५) दुरूतक-एक कुंभकार शकट में मिट्टी के बर्तन भरकर एक कोई भिक्षु कलह कर उसको उपशांत किए बिना अन्य गांव पहुंचा। वह प्रत्यन्तवर्ती गांव था। वहां पहुंचते ही एक गण की उपसम्पदा ग्रहण कर विहरण करना चाहे, उसे पांच व्यक्ति बोला-आश्चर्य है, यह शकट एक बैल वाला है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ अधिकरण कुंभकार ने यह सुनकर कह दिया-यहां के खलिहान जल उदायणस्स-ण विसज्जेति पज्जोओ पडिम। रहे हैं। एक व्यक्ति ने अवसर देखकर एक बैल का अपहरण ततो उदायणो दसहिं मउडबद्धरातीसह सव्वकर लिया। पूछने पर दुरूतक (प्रत्यंतग्रामवासी लोग) कहने साहण-बलेण पयातो।"रोहिता उज्जेणी। बहुजणक्खए लगे-तुम तो एक बैल को ही लेकर आए थे। वह कुंभकार वट्टमाणे उदायणेण पज्जोतो भणिओ-तुझं मज्झ य निराश होकर चला गया। उसने उस गांव के सभी खलिहानों विरोहो। अम्हे चेव दुअग्गा जुज्झामो, किं सेसजणवएणं को जला डाला। उसने इस जलाने की क्रिया को सात वर्षों माराविएणं ति।अब्भुवगयं पज्जोएण"इमं च से णामयं तक किया। आठवें वर्ष गांव वालों ने पराजित होकर यह ललाटे चेव अंकितं-"उदायणो। उदायणेण रणे जित्ता घोषणा करवाई कि हमने जिस किसी का अपराध किया गहिओ पज्जोओ।"ससाहणेण पडिनियत्तो, पज्जोओ वि हो, वह हमें क्षमा करे। हमने जो कुछ उसका अपहृत किया बद्धो खंधावारेणिज्जति "उदायणस्स उवजेमणाए भुंजति है, उसे लौटा देंगे। वह हमारे शस्यों को न जलाए। गांव पज्जोतो।अण्णया पज्जोसवणकाले पत्ते उदायणो उववालों ने उस कुंभकार से क्षमायाचना की। बैल लौटा वासी, तेण सूतो विसज्जितो... दिया। विग्रह शांत हो गया। "राया समणोवासओऽज्ज पज्जोसवणाए उववासी। द्रमक-धनाढ्य के घर खीर का भोजन देखकर एक दरिद्र ब्राह्मण तो ते जं इटुं अज्ज उवसाहयामि त्ति पुच्छिओ। के बच्चों ने पिता से खीर का आग्रह किया। पिता ने दूसरों से दूध तओ पज्जोतेण लवियं-'अहो सपावकम्मेण आदि की याचना कर खीर बनाई। चोरों का आगमन हुआ और वसणपत्तेण पज्जोसवणा विणणाता, गच्छ कहेहि राइणो खीर चोर ले गए। द्रमक ने चोरों का पीछा किया और चोर सेनापति उदायणस्स जहा अहं पिसमणोवासगो अज्ज उववासिओ का तलवार से शिरच्छेद कर दिया। नायक की मृत्यु होने पर चोरों भत्तेण ण मे कज्जं ।' ने सेनापति के छोटे भाई को अपना मुखिया बना दिया। सूतेण गंतुं उदायणस्स कहियं-सो वि समणोवासगो मखिया बनने पर उसकी मां, बहिन और भाभी व्यंग्य अज्जण भंजति त्ति। में कहने लगी कि तुम्हारे जीवन को धिक्कार है, जो तुम अपने ताहे उदायणो भणति-समणोवासगेण मे बद्रेण भाई के शत्रु से बदला लिए बिना सेनापति बन गए। परिजनों अज्ज सामातियं ण सुज्झति, ण य सम्मं पज्जोसवियं की बात सुनकर क्रोध में आकर वह चोर सेनापति उस गरीब भवति, तं गच्छामि समणोवासगंबंधणातो मोएमिखामेमि को जीवित ही पकड़कर ले आया और पूछा-'बोल', तेरा य सम्म, तेण सो मोइओ खमिओय। वध कहां करूं? तू मेरे भाई का घातक है। गरीब ने गिड़गिड़ाते (निभा ३१८४, ३१८५ चू) हुए कहा-'जहां शरणागत मारे जाते हैं, वहीं मुझे मारो।' राजा प्रद्योत द्वारा स्वर्णगुटिका एवं देव प्रतिमा का हरण 'शरणागत तो अवध्य होते हैं ' ऐसा सोचकर चोर सेनापति ने किये जाने पर राजा उद्रायण ने दूत के साथ संदेश भिजवाया कि उस भ्रातृघातक को विसर्जित कर दिया। तुमने दासी की चोरी की, इससे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है ० प्रद्योत-उद्रायण लेकिन मेरी प्रतिमा वापिस कर दो। प्रत्युत्तर में राजा प्रद्योत ने ......"पज्जोयहरण... रणगहणे णाम ओसवणा॥ कहा कि प्रतिमा भी वापिस नहीं करूंगा। यह बात सुनते ही दासो दासीवतिओ, छेत्तट्ठी जो घरे ये वत्तव्यो। उद्रायण के रोष का पार नहीं रहा। राजा उद्रायण ने दस आणं कोवेमाणे, हंतव्वो बंधियव्वो य॥ मुकुटबद्ध राजाओं के साथ विशाल सुसज्जित सेना लेकर पडिमं सुवण्णगुलिगं च पज्जोतो हरिउंगतो"रुट्ठो उज्जयिनी पर आक्रमण कर दिया। उदायणो दूतं विसज्जेति, जइ ते हडा दासचेडी तो हडा अकारण ही अनेक लोगों की मौत को देखकर उद्रायण णाम, विसज्जेह मे पडिम। गतपच्चागतेण दूतेण कहियं ने प्रद्योत से कहा-विरोध तो परस्पर हमारा है अतः हम दोनों Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनशन आगम विषय कोश-२ ही लड़ेंगे। शेष निरपराध जनता को मारने से क्या लाभ? प्रद्योत ने उद्रायण की बात स्वीकार कर ली। उद्रायण ने प्रद्योत को हरा दिया और अपनी सेना के साथ उसे बंदी बना कर ले गया। उसके ललाट पर यह अंकित किया-'यह दास है, दासीपति है. क्षेत्रार्थी (क्षत्रार्थी) है। हमारे घर में बंदी रूप में रह रहा है। जो कोई राजा की आज्ञा का भंग कर उसे कुपित करता है, वह हंतव्य और बंधन योग्य है।' प्रतिदिन उद्रायण के आहार के पश्चात् प्रद्योत को आहार करवाया जाता था। एक बार पर्युषण के दिन उद्रायण ने उपवास किया। उसने रसोइए को भेजकर प्रद्योत को पुछवाया कि आज तुम्हारे लिए क्या बनवाया जाए? प्रद्योत से जब उसकी इच्छा पूछी गई तो उसका मन आशंकित हो गया। उसने सोचा-आज तक मुझसे यह प्रश्न नहीं पूछा गया, आज ही यह बात क्यों पूछी गयी? इसी से पछं कि वास्तविकता क्या है ? पूछने पर रसोइए ने उत्तर दिया कि राजा श्रमणोपासक हैं अत: उन्होंने पर्युषण पर्व की आराधना के लिए उपवास किया है, इसलिए आपकी इच्छा जानने के लिए मुझे भेजा है। यह सुनते ही प्रद्योत को स्वयं पर बहुत ग्लानि हुई और वह अपने आपको धिक्कारने लगा कि आज मुझे पर्युषण का दिन भी याद नहीं रहा। फिर उससे कहा कि मैं भी श्रमणोपासक हूं अत: राजा से कहना कि मैं भी आज उपवास करूंगा। रसोइए ने जाकर सारी बात उद्रायण के सामने प्रकट की। आत्मचिंतन करते हुए उद्रायण ने सोचा-'मैंने अपने साधर्मिक को बंदी बना रखा है अतः आज मैं उसे मुक्त किए बिना शुद्ध सामायिक नहीं कर सकता और इस रूप में पर्युषणा की सम्यग् आराधना भी नहीं हो सकती।' राजा उसी क्षण प्रद्योत के पास गया और उसके सारे बंधन खोलकर क्षमायाचना की। अनशन-यावज्जीवन चतुर्विध अथवा त्रिविध आहार का परित्याग। १. अनशन से पूर्व संलेखना २. आहारकांक्षा की छेदनविधि ३. अनशन दुराराध्यं : राधावेध दृष्टांत ४. अनशन (पंडितमरण) के प्रकार ० अभ्युद्यतमरण : भक्तपरिज्ञा आदि ५. आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी "अनशन ६. आनुपूर्वी अनशन का विधि-क्रम ७. भक्तपरिज्ञा : सपराक्रम-अपराक्रम ० श्रमणोपासक द्वारा अनशन | ८. इंगिनी अनशन : तुला, संहनन, श्रुत | ९. भक्तपरिज्ञा और इंगिनीमरण में अंतर १०. प्रायोपगमन अनशन : पादप-मेरु दृष्टांत ११. प्रायोपगमन : निहारि-अनिहारि पायोगमन |१२. प्रायोपगमन : संहनन और विच्छेद १३. प्रायोपगमन : पांच तुला, अन्यत्व भावना |१४. उपसर्गों में अविचलन : देवता द्वारा संहरण |१५. राजकन्या का उपसर्ग : अनशनी अविचल |१६. चाणक्य, चिलातीपुत्र आदि की अविचलता |१७. द्विविध आराधना : अंतक्रिया या देवोपपत्ति |१८. अनशन और कर्मक्षय ० अनशनत्रयी : उत्तरोत्तर महानिर्जरा |१९. अनशन के लिए गीतार्थ संविग्न की खोज |२०. अनशन के लिए अप्रशस्त-प्रशस्त स्थान ० दो वसति क्यों? वृषभ संस्थान ०संस्तारक २१. अनशनकर्ता का स्वावलम्बन __ * अनशनकाल में आलोचना द्र आलोचना २२. भक्तप्रत्याख्यानी की वैयावृत्त्यविधि |२३. आत्मनिर्यापक-परनिर्यापक | २४. अनशन में कुशल निर्यापक की भूमिका २५. निर्यापक : अर्हता, कार्य, संख्या | २६. निर्यापक के महानिर्जरा २७. अनशनधारी की समाधि का उपाय आपकी अनंतकाय-साधारण वनस्पति. एक शरीर में अनन्त जीव वाली वनस्पति। द्र जीवनिकाय अनवस्थाप्य-वह प्रायश्चित्त, जिसमें तपस्यापूर्वक पुनः व्रतारोपण किया जाता है। द्र पारांचित Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ अनशन ० परीषह-पराजित को प्रेरणा भाष्यकार का कथन है कि जो व्यक्ति अनशन करना * असाध्य रोगी को अनशन की प्रेरणा द्रवैयावृत्त्य चाहता है, उसके चरमकाल में आहार की अतीव तृष्णा उत्पन्न २८. निर्बाध अनशन हेतु पर्यालोचन : देव-संकेत होती है। अत: अनशन से पूर्व उस आहारकांक्षा का व्यवच्छेद २९. स्कन्दक के शिष्यों की समाधिमृत्यु करने के लिए, अनशनकर्ता को जो अत्यंत प्रिय आहार आदि हो, उसे लाकर देना चाहिए। उसका परिभोग कर लेने पर १. अनशन से पूर्व संलेखना उसकी आकांक्षा शांत हो जाती है। उसमें वैराग्य बढ़ता है। वह अज्जो संलेहो ते, किं कतो न कतो त्ति एवमुदियम्मि। सोचता है-संसार में ऐसा कौन-सा भोग्य पदार्थ है, जिसका मैंने भंतुं अंगुलि दावे, पेच्छह किं वा कतो न कतो॥ उपभोग नहीं किया है। खाने के पश्चात् पवित्र आहार अपवित्रता न हु ते दव्वसंलेहं, पुच्छे पासामि ते किसं। में परिणत हो जाता है-इस तथ्य का ज्ञाता मुनि आहारसंज्ञा से कीस ते अंगुली भग्गा?, भावं संलिहमाउर! । मुक्त होकर सुखपूर्वक ध्यान में लीन हो जाता है। इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुरु। ३. अनशन दुराराध्य : राधावेध दृष्टांत न चेयं ते पसंसामी, किसं साधुसरीरगं॥ __..."उत्तिमढे, चंदगवेज्झसरिस..." । (व्यभा ४२९०, ४२९१, ४२९४) चक्राष्टकमुपरिपुत्तलिकाक्षिचन्द्रिकावेधवत् दुराअनशनेच्छु शिष्य की परीक्षा के लिए गुरु ने पूछा- राध्यमनशनम्। (निभा ३४२४ चू) आर्य! तुमने संलेखना की या नहीं? शिष्य ने क्रोधावेश में अनशन चन्द्रवेध्य (राधावेध) के समान दराराध्य है। अपनी अंगुलि तोड़कर दिखाते हुए कहा-आर्यवर ! देखो, चन्द्रकवेधक का अर्थ है आठ अर वाले चक्र के ऊपर पत्तलिका कहीं रक्त और मांस दिखता है ? अब आप ही बताएं कि मैंने की अक्षिचन्द्रिका को बींधना। संलेखना की या नहीं? ४. पंडितमरण के प्रकार गुरु ने कहा-मैंने द्रव्यसंलेखना के विषय में नहीं पूछा __पंडितमरणे है। यह तो तुम्हारे कृश शरीर को देखकर प्रत्यक्षतः जान रहा हूं। फिर तुमने अंगुलि को भग्न क्यों किया? मैं तो भावसंलेखना भत्तपरिण्णा इंगिणि, पादोपगमे य णायव्वे ॥ के विषय में जानना चाहता हूं। तुम क्रोध के वशीभूत होकर (निभा ३८११) आतुर मत बनो। पंडितमरण के तीन प्रकार हैं-भक्तपरिज्ञा. इंगिनी और , वत्स! तुम अपनी इन्द्रियों को जीतो, कषायों को कृश प्रायोपगमन अनशन। करो और ऋद्धि, रस, सात-इस त्रिविध गौरव से मुक्त बनो। ० अभ्युद्यत मरण मैं तुम्हारे इस कृश शरीर की प्रशंसा नहीं करता। ...अब्भुज्जयमरणं पुण, पाओवग-इंगिणि-परिन्ना॥ * संलेखना का क्रम, अतिचार आदि द्र श्रीआको १ संलेखना (बृभा १२८३) २. आहारकांक्षा की छेदनविधि प्रायोपगमन, इंगिनी और भक्तपरिज्ञा-इस अनशनत्रयी तस्स य चरिमाहारो, इट्ठो दायव्व तण्हछेदट्ठा। को अभ्युद्यत मरण कहा गया है। सव्वस्स चरिमकाले, अतीवतण्हा समुप्पज्जे ॥ (भ २/४९ में पंडितमरण के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैंकिं च तन्नोवभुत्तं मे, परिणामासुई सुई। प्रायोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान । पंडितमरण का एक प्रकार दिट्ठसारो सुहं झाति ॥ इंगितमरण भी है। यह भक्तप्रत्याख्यान का ही एक प्रकार है। (व्यभा ४३२४, ४३२८) इसलिए इसका पृथक् निर्देश नहीं है। जयाचार्य ने इस प्रसंग Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनशन आगम विषय कोश-२ में एक सहज उभरने वाले प्रश्न का समाधान किया है। यहां वालच्छ-भल्ल विस विसूइकएँ आयंक"। पंडितमरण के दो प्रकार निर्दिष्ट हैं। कोई मुनि अनशन के ऊसासगद्ध रज्जू ..."""॥ बिना मरता है, क्या उसका मरण पंडितमरण नहीं कहलाएगा? (व्यभा ४३८१, ४३८२) किन्तु वह यहां विवक्षित नहीं है। यहां प्रायोपगमन और प्रत्येक अनशन के दो प्रकार हैं-आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी। भक्तप्रत्याख्यान के अर्थ वाला पंडितमरण विवक्षित है। श्रमण ० आनुपूर्वी-प्रव्रज्या, शिक्षापद यावत् गण अव्यवच्छित्ति पर्यंत महावीर के अंतेवासी शिष्य सर्वानुभूति मुनि और सुनक्षत्र पदों का क्रमशः अनुशीलन करते हुए अनशन करना। . मुनि ने अनशन के बिना ही पंडितमरण का वरण कर आराधक ० अनानुपूर्वी-अर्थग्रहण आदि सब पदों का अनुपालन किए पद प्राप्त किया।-भ २/४९ का भाष्य बिना अनशन करना। श्रीमज्जयाचार्य ने लिखा है इन दोनों के दो-दो प्रकार हैंइंगितमरणज तेह, विशेष भतपचखाण नों। ० निर्व्याघात-नीरोग और अक्षत देह वाले भिक्षु द्वारा किया तिण कारण थी जेह, तृतिय भेद न कह्यो इहां ॥ जाने वाला अनशन। मुख्य थकी ए ख्यात, द्वि प्रकार पंडितमरण। ० सव्याघात-व्याघात के दो प्रकार हैं-चिरघाती रोग, सद्योघाती अणसण बिन मुनिजात, मरै तिको न कह्यं इहां । रोग। रोग और आतंक से व्यथित व्यक्ति बालमरण करता है। सर्वानुभूति साध, सुनक्षत्र मुनिवर बलि। कोई व्यक्ति व्याल, रीछ, व्याघ्र आदि द्वारा उपद्रुत होने पर पाम्या पद आराध, अणसण बिण पंडितमरण॥ अथवा विष या विसूचिका आदि सद्योघाती रोगों से पीड़ित होने बलि अन्य मुनिराय, संथारा बिण जे मरे। पर संलेखना किए बिना ही भक्तप्रत्याख्यान करता है। यदि त पडितमरण सुहाय, तहना कथन इहा नथा। वह पंडितमरण स्वीकार करने में असमर्थ है, तो श्वासोच्छ्वास -भ जो १/३५/२८-३१) का निरोध करता है, वैहायस या गृध्रस्पृष्टमरण से मरता है, ५. आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी, निर्व्याघात-सव्याघात अनशन उसके उत्तम आराधना होती है-यह सव्याघात अनानुपूर्वी अनशन एक्केक्कं दुहा पडिवज्जइ-अहाणुपुवीए अणाणुपुव्वीए यापव्वज्जासिक्खापयादिकमेण मरणकालं पत्तस्स * प्रयोजनवश वैहायस-गृधपृष्ठमरण सम्मत आणुपुव्वी, अत्थग्गहणाईए पदे अप्फासेत्ता अणाणुपुव्वी। -द्र श्रीआको १ मरण पुणो एक्केक्कं दुविहं-णिव्वाघाइमं वाघाइमंच। (श्वेताम्बर साहित्य में गृध्रपृष्ठ की जो अर्थपरम्परा है, णिरुअस्स अक्खयदेहस्स णिव्वाधाइम, इतरस्स वाघाइमं। वह आलोच्य है। जैन साधना पद्धति की तपस्या के अनुकूल वाघाओ दुविहो-चिरघाइ आसुघाइया भी नहीं है। कारण उपस्थित होने पर तात्कालिक मरण के लिए वाघाइमं अणाणुपुवी-रोगातंकेहिं बाहिओ यह प्रयोग उपयोगी नहीं है। बालमरणं मरेज्जा, अत्थभल्लाईहि वा विरुंगिओ बहूहिं मरणमीमांसा- भगवान् महावीर ने जीवन और मृत्यु दोनों की आसुघाइकारणेहिं परक्कममकाऊणं भत्तं पच्चक्खावेइ। अनेकांत-दृष्टि से समीक्षा की थी। उनकी दृष्टि में व्यक्ति जैसे सो जइ पंडियमरणेण असत्तो ततो उस्सासं निरंभइ, जीने के लिए स्वतंत्र है, वैसे ही मरने के लिए भी स्वतंत्र है। वेहाणसं गिद्धपटुं वा पडिवज्जइ, तस्स उत्तमा आराहणा। इस स्वतंत्रता का उपयोग और दुरुपयोग दोनों ही हो सकते (निचू ३ १ २९३, २९९) हैं।... भावावेश में जो आत्महत्या की जाती है. वह बालमरण एमेव आणुपुव्वी, रोगायंकेहि नवरि अभिभूतो। है। वह स्वतंत्रता का दुरुपयोग है। पंडितमरण या समाधिमरण बालमरणं पि सिया हु, मरिज्ज व इमेहि हेतूहिं॥ मृत्यु की स्वतंत्रता का सदुपयोग है। इस मरण के पीछे कोई Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ अनशन भावावेश नहीं होता। पूर्ण शांत और समाहित चित्त की अवस्था कर अपनी धृति और संहनन के अनुरूप भक्तपरिज्ञा या अन्य में इस मरण का वरण किया जाता है। ..."मुनि को जब यह अनशन ग्रहण करता है। लगे कि इस शरीर के द्वारा नए-नए गुणों की उपलब्धि हो ७. भक्तपरिज्ञा : सपराक्रम-अपराक्रम रही है, तब तक वह जीवन का बृंहण करे। जब कोई विशेष सपरक्कमे य अपरक्कमे य वाघाय आणुपुव्वीए। गुण की उपलब्धि न हो, तब वह परिज्ञापूर्वक इस शरीर को त्याग दे। शरीर-व्युच्छेद के लिए आहार का त्याग किया जा सुत्तत्थजाणएणं, समाहिमरणं तु कायव्वं ॥ भिक्ख-वियारसमत्थो, जो अन्नगणं च गंतु वाएति। सकता है। .... अनशन रुग्ण अवस्था में ही नहीं, किसी बाधा के न होने पर भी किया जा सकता है। यह विधान एस सपरक्कमो खलु, तव्विवरीतो भवे इतरो॥ केवल मुनि के लिए ही नहीं, श्रावक के लिए भी है। इस (व्यभा ४२२४, ४२२५) समाधिमरण को उत्तरवर्ती आचार्यों ने मृत्यु-महोत्सव कहा भक्तपरिज्ञा के दो भेद हैं-सपराक्रम और अपराक्रम। है।... व्यक्ति को जीवन की आकांक्षा और मरण के भय से इनके दो-दो भेद हैं-व्याघातिम और निर्व्याघातिम। मुक्त रहना चाहिए, किन्तु संयमपूर्ण जीवन और समाधिमरण व्याघात उपस्थित होने पर या न होने पर भी सूत्र और की आकांक्षा करणीय है।-भ २/४९ का भाष्य) अर्थ के ज्ञाता मुनि को समाधिमृत्यु का वरण करना चाहिए। ६. आनुपूर्वी अनशन का विधि-क्रम जो अपने या दूसरे के लिए भिक्षाचर्या करने में तथा पवज्जा सिक्खावय. अस्थरगहणंच अणियतोवायो। विचारभूमिगमन में समर्थ हो अथवा अन्य गण में जाकर निष्फत्ती य विहारो, सामायारी ठिती चेव वाचना दे सकता हो, वह भक्तपरिज्ञा का इच्छुक हो तो पव्वज्ज अब्भुवगओ सिक्खापदं ति सुत्तं गहियं, उसका मरण सपराक्रम कहलाता है। इसके विपरीत असमर्थ अत्थो सुओ बारस समाओ देसदंसणं कयं, सीसा का मरण अपराक्रम है। निप्फातिआ, एसा अव्वोच्छित्ती। ताहे जइ दीहाऊ ० श्रमणोपासक द्वारा अनशन संघयणधितिसंपण्णो य ताहे अप्पाणं तवेण. सत्तेण. सेणं समणोवासए बहूणि वासाणि समणोवासगसुत्तेण, एगत्तेण, बलेण य पंचहा तुलेऊण जिणकप्पं परियागं पाउणति, पाउणित्ता आबाहंसि उप्पण्णंसि वा अहालंदं सुद्धपरिहारं पडिमं वा पडिवज्जइ।अह अप्पाऊ, अणुप्पण्णंसि वा बहूई भत्ताई पच्चक्खाइ, पच्चक्खाइत्ता विहारस्स वा अजोग्गो, ताहे अब्भुज्जयमरणं तिविहं बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेइ, छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते वियालेऊण अप्पणो धितिसंघयणाणुरूवं भत्तपरिन्नं समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसुदेवलोएसु परिणओ। (निभा ३८१३ चू) देवत्ताए उववत्तारो भवति। (दशा १०/३१) एक व्यक्ति प्रवजित होता है। वह मुनि बनकर बारह श्रमणोपासक (श्रावक)बहुत वर्षों तक श्रमणोपासकवर्ष सूत्रग्रहण, बारह वर्ष अर्थग्रहण और बारह वर्ष देशाटन पर्याय का पालन करता है, पालन कर बाधा उत्पन्न होने पर कर शिष्यनिष्पादन द्वारा गण की परम्परा को अविच्छिन्न या न होने पर बहत भक्तों (भोजन के समय) का प्रत्याख्यान करता है। यदि वह दीर्घायु है, धुतिसंहननसंपन्न है तो तप, करता है, प्रत्याख्यान कर अनशन के द्वारा भक्तछेदन कर, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल-इन पांच तुलाओं से अपने आलोचना-प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्ण दशा में कालमास में आपको तोलता है, तोलकर जिनकल्प, यथालंद, शुद्धपरिहार काल कर देवलोक में देवरूप में उपपन्न होता है। (परिहारविशुद्धि) अथवा प्रतिमा को स्वीकार करता है। (तिर्यंच द्वारा अनशन-संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक यदि वह अल्पायु है और विहार करने में असमर्थ है, जलचर, स्थलचर और खेचर जीव जातिस्मरण ज्ञान को तब त्रिविध अभ्युद्यत मरण (भक्तपरिज्ञा आदि) का विमर्श प्राप्त कर पांच अणुव्रतों को स्वीकार करते हैं, बहुत सारे Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनशन २४ शीलव्रत आदि के द्वारा अपने आपको भावित कर अनशनपूर्वक मरकर उत्कर्षतः सहस्रारकल्प तक उत्पन्न हो जाते हैं । - औ सू १५६, १५७) ८. इंगिनी अनशन : तुला, संहनन, श्रुत ""पंच तुलेऊण य तो, इंगिणिमरणं परिणतो य ॥ (व्यभा ४३९१) इंगिणीए आयवेयावच्चं परो न करेइ, णियमा चउव्विहाहारविरई । जड़ बहिं पडिवज्जइ तो अणीहारिमं, अह गच्छे तो णीहारिमं । पढमबिइयसंघयणी पडिवज्जइ, जे अहीयं णवमपुव्वस्स तइयं आयारवत्थं एक्कारसंगी वा पडिवज्जइ, धितीए वज्जकुड्डसमाणो सव्वाणि उवसग्गाणि अहियासेइ । (निभा ३८१७ की चू) मुनि तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल - इन पांच तुलाओं द्वारा अपने आपको तोलकर इंगिनीमरण स्वीकार करता है । वह स्थान, शयन आदि कार्य स्वयं करता है, दूसरा व्यक्ति उसकी सेवा नहीं कर सकता। स्वीकर्त्ता नियमतः चतुर्विध आहार से विरत होता है। गच्छ में स्वीकार करना निर्धारिम और अन्यत्र बाहर स्वीकार करना अनिर्धारिम अनशन है। वज्रऋषभनाराच अथवा ऋषभनाराच संहनन वाला, नौवें पूर्व की तीसरी आचारवस्तु या ग्यारह अंगों का अध्येता और वज्रकुड्य के समान धृतिसम्पन्न मुनि इसे स्वीकार करता है। तथा सब उपसर्गों को सहन करता है। संघयणधितीजुत्तो, नवदसपुव्वा सुतेण अंगा वा । संहनने तु त्रयाणामाद्यानामन्यतमेन धृत्या च (व्यभा ४३९४ वृ) वह वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच और नाराच- - इनमें से किसी एक संहनन तथा धृति से सम्पन्न होता है । वह नौ या दस पूर्वी अथवा ग्यारह अंगसूत्रों का ज्ञाता होता है। युक्तः । ९. भक्तपरिज्ञा और इंगिनीमरण में अंतर आयप्परपडिकम्मं, भत्तपरिण्णाय दो अणुण्णाता । परिवज्जिया य इंगिणि, चउव्विधाहारविरती य ॥ आगम विषय कोश - २ ठाण - निसीय- तुयट्टण, इत्तरियाई जधासमाधीए । सयमेव य सो कुणती, उवसग्गपरीसहऽहियासे ॥ (व्यभा ४३९२, ४३९३ ) भक्तपरिज्ञा- इसमें अनशनकर्त्ता स्वयं अपना परिकर्म कर सकता है, दूसरों से भी करवा सकता है। इसमें तीनों या चारों आहारों का त्याग किया जाता है। इंगिनीमरण - इस अनशन में दूसरों से परिकर्म नहीं करवाया जा सकता। स्थान, निषीदन और शयन वह स्वयं ही यथासमाधि करता है । इसमें चारों आहारों का परित्याग अनिवार्य है। अनशनकर्त्ता उपसर्ग और परीषहों को सहन करता है। १०. प्रायोपगमन अनशन : पादप-मेरु दृष्टांत पादोवगमं भणियं, समविसमे पादवो जहा पडितो । नवरं परप्पओगा, कंपेज्ज जधा चलतरुव्व ॥ तसपाणबीयरहिते, विच्छिन्नवियारथंडिलविसुद्धे । निद्दोसा निद्दोसे उवेंति अब्भुज्जयं मरणं ॥ पुव्वावरदाहिणउत्तरेहि वातेहि आवयंतेहिं । जह न वि कंपति मेरू, तथ ते झाणाउ न चलंति ॥ (व्यभा ४३९५, ४३९६, ४४०० ) जैसे सम-विषम भूमि पर गिरा हुआ पादप उसी रूप में अवस्थित रहता है, वैसे ही प्रायोपगमनप्रतिपन्न मुनि खंड़े, बैठे या लेटे - जिस मुद्रा में अनशन स्वीकार करता है, जीवनपर्यंत उसी मुद्रा में निष्प्रकंप रहता है। वायु आदि से प्रेरित वृक्ष की भांति केवल पर-प्रयोग से वह प्रकम्पित हो सकता है, स्वप्रयोग से नहीं। वह त्रस, प्राण और बीज से रहित विस्तृत विशुद्ध स्थण्डिल में अभ्युद्यतमरण स्वीकार करता है। वह मुनि ध्यान से वैसे ही विचलित नहीं होता, जैसे पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा से आने वाली हवाओं से मेरुपर्वत प्रकम्पित नहीं होता । णिच्चलणिप्पडिकम्पो, णिक्खिवति जं जहि जहा अंगं । ( निभा ३८१८) प्रायोपगमन अनशन करने वाला अनशन काल में नियमतः निष्प्रतिकर्म और निश्चल होता है। वह जिस Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ अनशन मुद्रा या स्थान से स्थित होता है, जीवनपर्यंत उसी मुद्रा में मुनि तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल-इन पांच अवस्थित रहता है। तलाओं से अपने आपको तोलकर प्रायोपगमन स्वीकार (प्रायः का अर्थ है-मृत्यु । समाधिमरण के लिए करता है। (पांच तुलाएं द्र जिनकल्प) उपगमन करना अथवा उपवेशन करना प्रायोपगमन कहलाता जैसे कोश (म्यान) में निक्षिप्त तलवार भिन्न है, कोश है। व्याख्या साहित्य में इसके संस्कृत रूप पादोपगमन भिन्न है, वैसे ही मेरा 'शरीर भिन्न है, आत्मा भिन्न है'और पादपोपगमन भी मिलते हैं। -भ २/४९ का भाष्य) वह इस अन्यत्व भावना (भेदज्ञान) से भावित होता है, ११. प्रायोपगमन : निर्दारि-अनिर्हारि इसलिए कष्टों से प्रभावित नहीं होता। ......"पादोवगम, नीहारी वा अनीहारी॥ १४. उपसर्गों में अविचलन : देवता द्वारा संहरण निर्झरिमं नाम यद ग्रामादीनामन्तः प्रतिपद्यते, ततो पुव्वभवियवेरेणं, देवो साहरति कोवि पाताले। हि मृतस्य ततस्तस्य शरीरं निष्काशनीयं भवति।अनिर्हारिमं मा सो चरमसरीरो, न वेदणं किंचि पाविहिति॥ नाम यद् ग्रामादीनां बहिः प्रतिपद्यते। उप्पन्ने उवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य। (व्यभा ४३९४ वृ) सव्वे पराइणित्ता, पाओवगता पविहरंति॥ प्रायोपगमन अनशन के दो प्रकार हैं दिव्वमणुया उदुग तिग, अस्से पक्खेवगं सिया कुज्जा। १. निर्दारिम-ग्राम के उपाश्रय में किया जाने वाला अनशन, वोसट्ठचत्तदेहो, अधाउयं कोइ पालेग्जा॥ जहां से मृतक के शरीर का निर्हरण-निष्काशन किया जाता अणुलोमा पडिलोमा, दुगं तु उभयसहिता तिगं होति। अधवा चित्तमचित्तं, दुगं गिं मीसगसमग्गं॥ २. अनिर्हारिम-उपाश्रय या गांव से बाहर गिरिकन्दरा आदि पुढवि-दग-अगणि-मारुय-वणस्सति-तसेसुकोविसाहरति। एकांत निर्जन स्थान में किया जाने वाला अनशन । वोसट्ठचत्तदेहो, अधाउयं कोवि पालेज्जा।। १२. प्रायोपगमन : संहनन और विच्छेद मज्जणगंधं पुप्फोवयारपरिचारणं सिया कुज्जा। पढमम्मि य संघयणे, वटुंता सेलकुड्डसामाणा। वोसट्ठचत्तदेहो, अधाउयं कोवि पालेज्जा॥ तेसिं पि य वुच्छेदो चोद्दसपुव्वीण वोच्छेदे। पुव्वभवियपेम्मेणं, देवो देवकुरु-उत्तरकुरासु। __ (व्यभा ४४०१) कोई तु साहरेज्जा, सव्वसुहा जत्थ अणुभावा।। पुव्वभवियपेम्मेणं, देवो साहरति नागभवणम्मि। इस अनशन को स्वीकार करने वाला मुनि वज्रऋषभ जहियं इट्ठा कंता, सव्वसुहा होति अणुभावा ।। नाराच संहनन वाला होता है। उसकी धृति शैलकुड्य (वज्र (व्यभा ४३९७, ४३९८, ४४०२-४४०४, ४४०६-४४०८) भित्ति) के समान होती है। चौदह पूर्वो के विच्छेद के साथ ही प्रथम संहनन और प्रायोपगमन अनशन का विच्छेद हो गया। अनशनी को देखकर कोई देव पूर्वभव-जन्य वैर के कारण यह सोचता है कि यह चरमशरीरी है-यहां इसे कोई १३. प्रायोपगमन : पांच तुला, अन्यत्व भावना। कष्ट नहीं होगा। वह अपने वैर के पोषण के लिए उसे कष्ट "पंच तुलेऊण य सो, पाओवगमं परिणतो य॥ देने पाताल में ले जाता है। मनि उस उपसर्ग को सहन करता (निभा ३९४०) है। जह नाम असी कोसे, अण्णो कोसे असी विखलु अण्णे। वह देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी उत्पन्न सब इय मे अन्नो देहो, अन्ने जीवो त्ति मण्णंति॥ उपसर्गों को पराजित कर प्रायोपगमन अनशन की आराधना (व्यभा ४३९९) करता है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनशन आगम विषय कोश-२ देव अथवा मनुष्य उसके मुख में अनुलोम और प्रतिलोम अनशन की परिपालना करता है। जैसे समुद्र जलजंतुओं से अथवा सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों का प्रक्षेप कर सकते हैं, क्षुब्ध नहीं होता, वैसे ही मुनि का मन किंचित् भी क्षुब्ध नहीं फिर भी वह व्युत्सृष्ट-त्यक्त देह वाला मुनि जीवनपर्यंत अविचल होता। तब शील खंडित करने में असमर्थ वह कुमारी अपना भाव से अनशन की अनुपालना करता है। पराभव देख उस मुनि को शैल-शिखर पर ले जाकर उसके ___कोई पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस- ऊपर शिला का प्रक्षेप करती है, तब भी मुनि निश्चल रहता काय में उसका संहरण करता है, फिर भी वह जीवनपर्यंत । शरीर का व्युत्सर्ग और त्याग कर स्वीकृत अनशन की १६. चाणक्य, चिलातीपत्र आदि की अविचलता आराधना करता है। जंतेण करकतेण व, सत्येण व सावएहि विविधेहिं। कोई लुब्ध व्यक्ति उसे स्नान कराता है, पटवास आदि देहे विद्धंसंते, न य ते झाणाउ फिटुंति॥ गंध द्रव्यों का प्रयोग और पुष्पोपचार करता है. परिचारणा करता पडिणीययाएँ कोई, अग्गि से सव्वतो पदेज्जाहि। है, तब भी वह अनुरक्त न होता हुआ देह का व्युत्सर्ग और पादोवगते संते जह, चाणक्कस्स व करीसे ॥ त्याग कर जीवनपर्यंत अनशन की आराधना करता है। पडिणीययाएँ कोई, चम्मं से खीलएहि विहुणित्ता। कोई देव पूर्वजन्म के स्नेह के कारण उसका संहरण महुघतमक्खियदेहं, पिवीलियाणं तु देज्जाहि॥ कर उसे देवकुरु-उत्तरकुरु अथवा नागभवन में ले जाता है, जह सो चिलायपुत्तो, वोस?-निसट्ठ-चत्तदेहो उ। जहां सर्वशुभ, इष्ट और कांत अनुभाव होते हैं, वहां भी वह सोणियगंधेण पिवीलियाहि जह चालणिव्व कतो॥ यथास्थित रहता है, आसक्त नहीं होता। जध तो कालसयवेसिओ, विमोग्गल्लसेलसिहरम्मि। १५. राजकन्या द्वारा उपसर्ग : अनशनकर्ता अविचल खइतो विउव्विऊणं, देवेण सियालरूवेणं । बत्तीसलक्खणधरो, पाओवगतो य पागडसरीरो। जह सो वंसिपदेसी, वोसट्ठ-निसट्ठ-चत्तदेहो उ। पुरिसव्वेसिणि कण्णा, राइविदिण्णा तु गेण्हेजा। वंसीपत्तेहि विणिग्गतेहि आगासमुक्खित्तो॥ मज्जणगंधं पुप्फोवयारपरियारणं सिया कुज्जा। जधऽवंतीसुकुमालो, वोसट्ठ-निसट्ठ-चत्तदेहो उ। वोसट्टचत्तदेहो, अहाउयं कोवि पालेज्जा॥ धीरो सपेल्लियाए, सिवाय खइओ तिरत्तेणं । "तिमि-मगरेहि व उदधिं, नखोभितोजोमणो मुणिणो॥ (व्यभा ४४१९-४४२५) जाधे पराजिता सा, न समत्था सीलखंडणं काउं। प्रायोपगमन अनशन में स्थित मुनि यन्त्र, क्रकच, नेऊण सेलसिहरं, तो से सिल मुंचए उवरिं॥ शस्त्र, श्वापद आदि के द्वारा अपने शरीर का विध्वंस किए (व्यभा ४४०९, ४४१०, ४४१४, ४४१५) जाने पर भी ध्यान से विचलित नहीं होते। बत्तीस लक्षणों से युक्त शरीर वाला मुनि जब पूर्ण ० चाणक्य-कोई शत्रुभाव जागने पर सब ओर आग जला नग्न होकर प्रायोपगमन में स्थित होता है और तब यदि कोई सकता है। जैसे सुबन्धु नामक मंत्री ने कण्डों के मध्य प्रायोपगमन परुषदेषिणी कन्या राजा की आज्ञा प्राप्त कर उसको ग्रहण में स्थित चाणक्य के चारों ओर अग्नि प्रज्वलित की। करती है, स्नान, गंधद्रव्य, पुष्पोपचार आदि क्रियाएं कर • चिलातीपुत्र-कोई प्रत्यनीक व्यक्ति अनशन प्रतिपन्न मुनि उसके साथ परिचारणा करना चाहती है, फिर भी उस की चमड़ी को लोहमय कीलों से बींधकर या मांस में कीलक अनशनधारी मनि का मन सर्व कलाओं में निपण कामशास्त्र घुसाकर, देह को मधु और घी से प्रक्षित कर देता है। उस की पंडिता उस कुमारी के प्रति किंचित् भी आकृष्ट नहीं प्रक्षित देह पर चींटियां आकर उसे चलनी बना देती है। होता। व्युत्सृष्ट-त्यक्त देह वाला मुनि जीवनपर्यंत विधिवत् चिलातीपुत्र अत्यंत व्युत्सृष्ट-त्यक्त देह होकर ध्यान Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २७ अनशन कायोत्सर्गलीन था। उसके शरीर पर लगे शोणित की गंध के है। (किसी भी कर्म की स्थिति अनंत काल नहीं है, कारण चींटियों ने उसके शरीर को चलनी बना डाला, फिर अतः असंख्येय का कथन है।) भी वह धीर पुरुष ध्यान से किंचित् भी विचलित नहीं हुआ। ० अनशनत्रयी : उत्तरोत्तर महानिर्जरा ० कालासवैश्य आदि-कालासवैश्यपुत्र मोद्गलपर्वत के शिखर एवं पादोवगम, निप्पडिकम्मं तु वणितं सुत्ते। पर ध्यानलीन था। एक प्रत्यनीक देव शृगाल का रूप बनाकर तित्थगर-गणहरेहि य, साहहि य सेवियमुदारं ॥ उसे खाने लगा। वह समभाव से सहन करता रहा। यः पादपोपगमनस्येङ्गिनीमरणस्य च करणे असमर्थः कुछ प्रत्यनीक व्यक्तियों ने प्रायोपगमन अनशन में स भक्तप्रत्याख्यानं करोति। ततोऽपि यः समर्थतरः स्थित अतिशय व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह मुनि को उठाकर बांसों पादपोपगमनं च कर्तुमसमर्थः स इंगिनीमरणं ततोऽपि के झुरमुट पर बिठा दिया। बांस फूटने लगे। उन बढ़ते हुए समर्थतरः पादपोपगम, एतानि च मरणानि कुर्वन्तो यथा बांसों ने मुनि को बींध डाला और ऊपर आकाश में उछाल यथोपरितनमरणकारिणस्तथा तथा महानिर्जरा। दिया। उसने सब कुछ समभाव से सहन किया। __(व्यभा ४४२९ वृ) ० अवन्ति सुकुमाल-वह शरीरक्रिया और शरीरपरिकर्म का भत्तपरिण्णा इंगिणि पाउवगमणं च-एते कमेणपूर्णतः परित्याग कर प्रायोपगमन अनशन में स्थित था। वहां जहण्णमज्झिमुक्कोसा। (निभा ३८११ की चू) एक शृगाली अपनी संतान के साथ आकर तीन रात तक उसके शरीर का भक्षण करती रही। धीर मुनि ने उस कष्ट ___ व्यवहार सूत्र में प्रायोपगमन अनशन की निष्प्रतिकर्मता को समभाव से सहन किया। निरूपित है। तीर्थंकरों, गणधरों और अनेक साधुओं ने इस उदार अनशन की आराधना की। १७. द्विविध आराधना : अंतक्रिया या देवोपपत्ति ___ अनशन का स्वीकार अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार एगंतनिज्जरा से, दुविधा आराधणा धुवा तस्स। किया जाता है । जो मुनि प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करने अंतकिरियं व साधू, करेन्ज देवोववत्तिं वा॥ में असमर्थ होता है, वह इंगिनीमरण स्वीकार करता है और (व्यभा ४४०५) जो इंगिनीमरण स्वीकार करने में असमर्थ होता है, वह प्रायोपगमन अनशन में अविचल स्थित मुनि के एकांत भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार करता है। निर्जरा होती है। वह निश्चित रूप से सिद्धिगमनयोग्य या जो भक्तप्रत्याख्यानकरण से भी अधिक समर्थ है और कल्पोपपत्ति-योग्य आराधना करता है, जिससे वह या तो ___ प्रायोपगमन में असमर्थ है, वह इंगिनीमरण अनशन स्वीकार अंतक्रिया-भवपरंपरा का अंत कर सिद्ध होता है या देवलोक में करता है, उससे भी अधिक समर्थ मुनि प्रायोपगमन अनशन उत्पन्न होता है। स्वीकार करता है। १८. अनशन और कर्मक्षय भक्तप्रत्याख्यान जघन्य, इंगिनीमरण मध्यम और कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। प्रायोपगमन उत्कृष्ट अनशन है। इनमें उत्तरोत्तर महान् निर्जरा अन्नतरगम्मि जोगे, विसेसतो उत्तिमट्ठम्मि॥ होती है। (व्यभा ४३४१) १९. अनशन के लिए गीतार्थ संविग्न की खोज किसी भी संयमयोग में उपयुक्त मुनि प्रतिक्षण नासेति अगीयत्थो, चउरंगं सव्वलोगसारंग।" असंख्येय भवों में उपार्जित कर्मों को क्षीण करता है । जो "माणुस्सं धम्मसुती, सद्धा तव संजमे विरियं॥ अनशन में उपयुक्त है, वह विशेष रूप से कर्मक्षय करता पंच व छस्सत्तसते, अधवा एत्तो वि सातिरेगतरे। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनशन आगम विषय कोश-२ एक्कं व दो व तिन्नि व, उक्कोसं बारसेव वासाणि। शाला, लोहकारशाला, कुम्भकारशाला, रंजक (छींपा) शाला, गीतत्थपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो।। रजकशाला, चर्मकारशाला, लंखशाला, पटहवादकशाला, आहाकम्मिय पाणग"। राजपथ, गुप्तिगृह, पाठशाला, सुराविक्रय-शाला, काष्ठक्रकचसेज्जा संथारो वि य, उवधी वि य होति अविसुद्धो॥ शाला, फूल-फल-उदक-स्थान, आराम, खुला स्थान, नागगृह, "संविग यक्षगृह आदि-इन स्थानों में अथवा इनके समीप रहने से (व्यभा ४२५२, ४२५३, ४२६१, ४२६२, ४२६७, ४२६९) शब्दश्रवण, रूपदर्शन आदि के कारण राग-द्वेष का प्रसंग अगीतार्थ या असंविग्न के पास अनशन नहीं करना आता है, ध्यान में विघ्न होता है अतः ये अप्रशस्त हैं। कल्पाध्ययन के दूसरे-तीसरे उद्देशक में तथा विधिसूत्र चाहिए। क्योंकि अपीतार्थ की सन्निधि सर्वलोक में सारभूत आचारचूला के शय्याध्ययन में साधु के रहने आदि के लिए जो चतुरंग-मनुष्यत्व, धर्मश्रवण, श्रद्धा और तप-संयम में वीर्य उपाश्रय निषिद्ध हैं, उन सबका वर्जन करना चाहिए। उनके इन चारों अंगों को नष्ट कर देती है। अतिरिक्त स्थानों की गवेषणा करनी चाहिए। ___असंविग्न के पास अनशन करने से वह आधाकर्म दोष जहां समाधिभंग हो वैसे उद्यान, वृक्षमूल, अनुनज्ञात से दूषित पानक लाकर देता है, अशुद्ध शय्या-संस्तारक और शून्यगृह, हरिताकुल मार्ग वाले स्थान आदि में भक्तप्रत्याख्याता उपधि प्रस्तुत करता है। अत: अनशन की सफल आराधना के न रहे। लिए अश्रांतभाव से क्षेत्रत: और कालतः गीतार्थ-संविग्न की ० प्रशस्त स्थान-जहां इन्द्रियचंचलता और मानसिक उद्वेग मार्गणा करनी चाहिए। उत्पन्न न हो (इन्द्रिय प्रतिसंचार न हो-इष्ट-अनिष्ट शब्द, क्षेत्रतः-पांच सौ, छह सौ, सात सौ या इससे भी अधिक रूप, गंध आदि का अभाव हो, मन को संक्षुब्ध करने वाले योजन तक मार्गणा। विषय न हों), ऐसी चतुःशाल, त्रिशाल, द्विशाल आदि में कालतः-एक, दो या तीन वर्ष यावत् उत्कृष्टत: बारह वर्षों अनुज्ञापूर्वक दो वसतियां ग्रहण कर उनमें रहे। तक मार्गणा। ० दो वसति क्यों? वृषभ संस्थान २०. अनशन के लिए अप्रशस्त-प्रशस्त स्थान सव्वसाहूण एक्का वसही न कप्पइ "तेसु समुद्दिसंतेसु गंधव्व-नट्टजड्डऽस्स, चक्कजंतऽग्गिकम्म पुरुसे य। अन्नपाणगंधेणं झाणवाघाओ हवेज्जा, तम्हा दो वसहीओ णंतिक्क-रयग-देवड, डोंबे पाडहिग रायपधे॥ घेत्तव्वाओr"सन्निवेसस्स कम्मि दिसाभागे वसही पसत्था? चारगकोट्टाकलाल, करकयपष्फ-फल-दगसमीवम्मि। सन्निवेसवसभस्स मुहसिरककुहपोट्टा पसत्था, सेसेसु आरामे अहवियडे नागघरे पुव्वभणिए य॥ अप्पसत्था। (निभा ३८१५ की चू) पढमबितिएसु कप्पे, उद्देसेसुं उवस्सया जे तु। विहिसुत्ते य निसिद्धा, तव्विवरीते गवेसेज्जा॥ सब साधु एक वसति (या कक्ष) में न रहें. क्योंकि उज्जाणरुक्खमूले, सुण्णघरऽणिसट्ठहरियमग्गे य। वहां उनके आहार करने पर अन्न-पान की गंध से अनशनस्थ एवंविधे न ठायति, होज्ज समाधीय वाघातो॥ साधु के ध्यान में व्याघात हो सकता है, अत: दो वसति का ग्रहण अपेक्षित है। इंदियपडिसंचारो, मणसंखोभकरणं जहिं नत्थि। सन्निवेश के किस दिशाभाग में वसति प्रशस्त होती चाउस्सालादि दुवे, अणुण्णवेऊण ठायंति॥ ___ है? वृषभ संस्थान से संस्थित सन्निवेश के मुख, शिर, ककुद ___ (व्यभा ४३१२-४३१६) (बैल के कंधे का उभरा हुआ भाग) और उदर-स्थानीय अप्रशस्त स्थान-गन्धर्वशाला, नाट्यशाला, हस्ति- भाग में वसति का होना प्रशस्त है। शाला, अश्वशाला, चक्रशाला (तिलपीडनशाला), इक्षुयंत्र- * वृषभ संस्थान द्र श्रीआको १संस्थान सराहा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ ० संस्तारक संथारो उत्तिमट्ठे, भूमिसिलाफलगमादि नातव्वे । संथारपट्टमादी, दुगचीरा तू बहू वावि ॥ तह विय संथरमाणे, कुसमादी णिंतु अझुसिरतणाई । तेसऽसति असंथरणे, झुसिरतणाई ततो पच्छा॥ (व्यभा ४३४२, ४३४३) २९ अनशनस्थित मुनि के लिए भूमि या शिलातलरूप या फलकरूप संस्तारक होता है। संस्तारक पर एक उत्तरपट्ट बिछाने से उसे असमाधि हो तो अनेक उत्तरपट्ट भी बिछाये जा सकते हैं । इतने पर भी पूर्ण समाधि न हो तो कुश आदि का निश्छिद्र या शुषिर तृणसंस्तारक भी बिछाया जा सकता है। २१. अनशनकर्त्ता का स्वावलम्बन पडिलेहण संथारं, पाणगउव्वत्तणादि निग्गमणं । सयमेव करेति सहू, असहुस्स करेंति अन्ने उ ॥ कायोवचितो बलवं, निक्खमणपवेसणंच से कुणति । तह वि य अविसहमाणं, संथारगतं तु संचारे ॥ (व्यभा ४३४५, ४३४६ ) जो भक्तप्रत्याख्याता समर्थ है, शरीर से उपचित और बलवान् है, वह अपना कार्य स्वयं करे। जैसे- प्रतिलेखन, संस्तारकप्रस्तारण, पानकग्रहण, करवट बदलना, भीतरी प्रदेश से बाहर निर्गमन तथा बाह्य प्रदेश से पुनः भीतर प्रवेश आदि । जो अनशनधारी असमर्थ है, उसके सारे कार्य अन्य मुनि करते हैं। अन्य के सहारे से भी वह संचरण न कर सके तो संस्तारक पर ही उसके सारे कार्य किए जाते हैं। २२. भक्तप्रत्याख्यानी की वैयावृत्त्य विधि उव्वत्तणा य पाणग, धीरवणा चेव धम्मकहणा य । अंतो बहिनीहरणं, तम्मि य काले णमोक्कारो ॥ (व्यभा ७५५) • अनशनधारी की शारीरिक शक्ति क्षीण होने से वह स्वयं उद्वर्तनापरिवर्तना आदि क्रियाएं नहीं कर पाता हो तो उसका इन कार्यों में सहयोग करने से उसे परम समाधि उत्पन्न होती है • प्यास परीषह उत्पन्न होने पर उसे पानी पिलाना होता है। • किसी कष्ट के कारण वह अधीर हो जाए तो उसे इन शब्दों में ढाढस बंधाया जाता है-'धृति धारण करो। तुम्हारी पैर आदि की पीड़ा विश्रामणा ( दबाने से दूर कर दूंगा । हे पुण्यभाग ! सहन करो, शीघ्र सर्वदुःखमुक्त हो जाओगे । ' कष्टसहिष्णुता और समता की प्रेरणा देने वाले पूर्व मुनियों अपूर्व जीवनवृत्त सुनाये जाते हैं । • उष्ण परीषह उत्पन्न होने पर उसे कक्ष से बाहर और वायु आदि सहन न होने पर पुनः भीतर ले जाया जाता है। भेदज्ञान और अन्तर्लीनता के लिए नमस्कार महामंत्र, लोगस्स आदि सूत्रपाठ सुनाये जाते हैं । २३. आत्मनिर्यापक- परनिर्यापक ० ० अनशन इह दुविधा निज्जवगा, अत्ताण परे य बोधव्वा ।। पादोवगमे इंगिणि, दुविधा खलु होंति आयनिज्जवगा। निज्जवणा य परेण व, भत्तपरिण्णाय बोधव्वा ॥ (व्यभा ४२२०, ४२२१ ) निर्यापक (निर्वाहक) के दो प्रकार हैं- आत्मनिर्यापक, परनिर्यापक। प्रायोपगमन और इंगिनीमरण में आत्मनिर्यापक होते हैं (वे किसी से सेवा नहीं लेते) तथा भक्तपरिज्ञा में दूसरे के द्वारा भी निर्यापना/ सेवा की जाती है। २४. अनशन में कुशल निर्यापक की भूमिका : दृष्टांत वसधे जोधे य तहा, निज्जामगविरहिते जहा पोते । पावति विणासमेवं भत्तपरिण्णाय संमूढो ॥ नामेण वि गोत्तेण य, विपलायंतो वि सावितो संतो । अविभीरू वि नियत्तति, वसभो अप्फालितो पहुणा ॥ अप्फालिया जह रणे, जोधा भंजंति परबलाणीयं । गीतजुतो उ परिण्णी, तध जिणति परीसहाणीयं ॥ सुनिउणनिज्जामगविरहियस्स पोतस्स जध भवे नासो । गीयत्थविरहियस्स उ तहेव नासो परिण्णिस्स ॥ निउणमतिनिज्जामगो, पोतो जह इच्छितं वए भूमिं । गीतत्ववेतो, तह य परिण्णी लहति सिद्धिं ॥ (व्यभा ७५०-७५४) जैसे स्वामी से रहित वृषभ और योद्धा तथा Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनशन ३० निर्यामकरहित नौका विनष्ट हो जाती है, वैसे ही कुशल निर्यापक के बिना अनशनधारी भक्तपरिज्ञा में संमूढ हो जाता है और उसकी समाधि खंडित हो जाती है। • वृषभ - वृषभ जब प्रतिवृषभ के साथ युद्ध में पराजित होकर पलायन करता है तो उसका मालिक नामगोत्र से संबोधित कर उसे अपने पास बुलाता है, स्नेहपूर्वक हाथ से आस्फालन करता है, तब वह डरता हुआ भी प्रोत्साहित हो पुनः युद्ध के लिए तैयार हो जाता I ० योद्धा - अपने स्वामी द्वारा प्रशंसित-प्रोत्साहित - आस्फालित योद्धा रणभूमि में शत्रुसेना को परास्त कर देता है। इसी प्रकार गीतार्थ निर्यापक को पाकर भक्तपरिज्ञावान् मुनि परीषह सेना पर विजय प्राप्त कर लेता है। • पोतनिर्यामक - निपुण निर्यामक के अभाव में जैसे पोत विनष्ट हो जाता है। कुशल कर्णधार नौका को अभीप्सित भूमि तक ले जाता है, इसी प्रकार गीतार्थ के सहयोग से अनशनधारी सिद्धि को प्राप्त करता है। २५. निर्यापक : अर्हता, कार्य, संख्या चारित्रस्य पर्यन्तसमये निर्यापका एव यथावस्थितशोधिप्रदानत उत्तरोत्तरचारित्रनिर्वाहकाः ..... | (व्यभा ४१६४ की वृ) चारित्रमयजीवन के पर्यंतसमय - अनशनकाल में निर्यापक ही यथावस्थित शोधि प्रदान करते हैं, इससे वे उत्तरोत्तर चारित्र के निर्वाहक होते हैं । पासत्थोसन्नकुसीलठाणपरिवज्जिया तु निज्जवगा । पियधम्मऽवज्ज भीरू, गुणसंपन्ना अपरितंता ॥ उव्वत्त दार संथार, कहग वादी य अग्गदारम्मि । भत्ते पाण वियारे, कधग दिसा जे समत्था य ॥ जो जारिसिओ कालो, भरहेरवएसु होति वासेसु । ते तारिसया ततिया, अडयालीसं तु निज्जवगा ॥ एवं खलु उक्कोसा, परिहार्यता हवंति तिण्णेव । दो गीयत्था ततिए, असुन्नकरणं जहन्नेणं ॥ (व्यभा ४३२० - ४३२३ ) अनशनकर्त्ता की समाधि में जो योगभूत होते हैं, वे आगम विषय कोश - २ निर्यापक कहलाते हैं। वे पार्श्वस्थ अवसन्न- कुशील स्थानों का वर्जन करने वाले, प्रियधर्मा, पापभीरु, गुणसम्पन्न तथा अपरिश्रांत होते हैं। उनके कार्य इस प्रकार हैं १. अनशनधारी की करवट बदलना । २. द्वारमूल में स्थित रहना । ३. संस्तारक (उसके लिए बिछौना) करना । ४. अनशनी को धर्मकथा सुनाना । ५. वाद करना - उल्लंठ व्यक्तियों के वचनों का प्रतिकार करना । ६. अग्र द्वार पर स्थित रहना । ७. निर्यापकों के ८. प्रत्याख्याता के ९. उच्चर - परिष्ठापन करना । १०. प्रस्रवण - परिष्ठापन करना । ११. बाहर लोगों को धर्मकथा सुनाना । १२. चारों दिशाओं में चार साहस्रक मल्ल । इन बारह प्रकार के कार्यों में से प्रत्येक कार्य के लिए चार-चार निर्यापक नियुक्त होते हैं। इस प्रकार कुल अड़तालीस निर्यापक होते हैं । भरतक्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र में जब जैसा काल होता है, निर्यापक उस काल के अनुरूप होते हैं। निर्यापकों की उत्कृष्ट संख्या अड़तालीस है । जघन्य दो गीतार्थ मुनि अनशनी के पास होते हैं। एक भक्तपान की मार्गणा करता है, दूसरा भक्तप्रत्याख्याता के पास रहता है। (अनशनकर्त्ता को अकेला नही छोड़ा जा सकता ।) ...निज्जवगेण समाही, कायव्वा उत्तमट्ठम्मि ॥ एक्कम्मि उनिज्जवगे, विराहणा होति कज्जहाणी य।... एगो संथारगतो, बितिओ संलेह ततिय पडिसेधो । अपहुव्वंत समाही, तस्स व तेसिं च असतीए ॥ (व्यभा ४२७२, ४२७३, ४२८० ) योग्य आहार लाना । योग्य पानी लाना । निर्यापक अनशनधारी को समाधिस्थ रखता है। निर्यापक अनेक होने चाहिए। एक निर्यापक होने से अतिश्रम के कारण आत्मविराधना तथा संयमविराधना और कार्यहानि का प्रसंग आता है। 1 एक मुनि अनशन में स्थित है, दूसरा संलेखना कर रहा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३१ अनशन है, तीसरा फिर तैयार हो रहा हो तो निषेध कर देना चाहिए सव्वे सव्वद्धाए, सव्वण्णू सव्वकम्मभूमीसु। क्योंकि पर्याप्त कुशल निर्यापकों के अभाव में उन्हें असमाधि सव्वगरु सव्वमहिता, सव्वे मेरुम्मि अभिसित्ता। उत्पन्न हो सकती है। निर्यापक अनेक हों तो उसको भी सव्वाहि वि लद्धीहि, सव्वे वि परीसहे पराइत्ता। स्वीकृति दी जा सकती है। सव्वे वि य तित्थगरा, पादोवगया तु सिद्धिगया। २६. निर्यापक के महानिर्जरा अवसेसा अणगारा, तीत-पडुप्पण्णऽणागता सव्वे। वर्ल्डति अपरितंता, दिया व रातो व सव्वपडिकम्म। केई पादोवगया, पच्चक्खाणिंगिणिं केई॥ सव्वाओ अज्जाओ, सव्वे विय पढमसंघयणवज्जा। पडियरगा गुणरयणा, कम्मरयं निज्जरेमाणा॥ जो जत्थ होति कुसलो, सोतुन हावेति तंसति बलम्मि। सव्वे य देसविरता, पच्चक्खाणेण तु मरंति॥ उज्जुत्ता सनियोगे, तस्स वि दीवेंति तं सद्धं ॥ __ (व्यभा ४३४७-४३५५) देहवियोगो खिप्पं, व होज्ज अहवा वि कालहरणेणं। अनशनकर्ता के समाधिसम्पादन के लिए मृदु संस्तारक दोण्हं पि निज्जरा, वद्धमाण गच्छो उ एतट्ठा॥ करना चाहिए। यदि वह किसी कारणवश असमाधि का अनुभव (व्यभा ४३३५-४३३७) करे, परीषह या वेदना से आर्त्त हो तो उसे सोदाहरण प्रोत्साहित करना चाहिएश्रेष्ठ गुणसम्पन्न परिचारक या निर्यापक दिन-रात वे धन्य हैं जो धीरपुरुषप्रज्ञप्त, सत्पुरुषनिषेवित, परमरम्य अश्रांत-अक्लांत भाव से अनशनकर्ता का सारा परिकर्म अभ्युद्यत मरण को स्वीकार कर शिलातल पर निरपेक्ष रहते हैंकरते हए कर्मरजों का निर्जरण करते हैं। किसी का सहयोग नहीं लेते। जो जिस परिकर्म में कुशल होते हैं, वे शक्ति होने पर एकमात्र धृति ही जिनकी अत्यंत सहायक होती है, उस परिकर्म की उपेक्षा नहीं करते, वे अपने कार्य में जागरूक ऐसे अतिशय धृति-सम्पन्न अनशनी श्वापदों से आकीर्ण रहकर प्रत्याख्याता की श्रद्धा को संज्वलित करते हैं। स्थानों, गिरिकंदराओं और विषम कटक-दुर्गों में अनशन की प्रत्याख्याता का देहवियोग शीघ्र हो या विलंब से आराधना करते हैं तो फिर आपके लिए उत्तमार्थ (अनशन) हो-इस स्थिति में जागरूक प्रतिचारक और प्रतिचर्यमाण आराधन शक्य क्यों नहीं है? परस्पर संग्रह-उपग्रह की शक्ति दोनों विपल निर्जरा के आभागी होते हैं । गच्छ का प्रयोजन से सम्पन्न अनगार आपके सहयोगी हैं। यही है कि परस्पर उपकार से दोनों के कर्मनिर्जरा हो। जिनवचन अतिशय मधर और अग्नि में घुताहति की २७. अनशनधारी की समाधि का उपाय भांति कानों को तृप्ति देने वाले होते हैं। इन वचनों को सुनने संथारो मउओ तस्स, समाधिहेउं तु होति कातव्वो। वाले, साधुओं से परिवृत उत्तमार्थी सरलता से संसार-सागर तह वि य अविसहमाणे, समाहिहेउं उदाहरणं॥ को तर जाते हैं। सर्वकालों में, सब कर्मभूमियों में सर्वगुरु, धीरपुरिसपण्णत्ते, सप्पुरिसनिसेविते परमरम्मे। सर्वपूज्य, मेरुगिरि पर अभिषिक्त सर्वलब्धिसम्पन्न सर्वज्ञाता धण्णा सिलातलगता, निरावयक्खा निवजंति॥ तीर्थंकरों ने सभी परीषहों को पराजित कर प्रायोपगमन अनशन जदि तावसावयाकुल, गिरि-कंदर-विसमकडगदुग्गेसु। में सिद्धिगति को प्राप्त किया। साधेति उत्तिमटुं, धितिधणियसहायगा धीरा॥ अतीत, वर्तमान और अनागत-तीनों कालों में शेष किं पुण अणगारसहायगेण अण्णोण्णसंगहबलेणं। मुनियों में से यथाशक्ति कई प्रायोपगमन, कई इंगिनी और परलोइए न सक्का, साहेउं उत्तमो अट्ठो॥ कई भक्तपरिज्ञा अनशन स्वीकार करते हैं। जिणवयणमप्पमेयं, मधुरं कण्णाहुतिं सुणताणं। प्रथम (तीन) संहनन वर्जित साधु-साध्वियां तथा सक्का हु साहुमज्झे, संसारमहोदधिं तरिउं॥ श्रावक भक्तप्रत्याख्यान अनशन कर मृत्यु का वरण करते हैं। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनशन ३२ ० परीषह पराजित को प्रेरणा सव्वसुहप्पभवाओ, जीवियसाराउ सव्वजणगाओ । आहाराओ रतणं, न विज्जति हु उत्तमं लोए ॥ विग्गहगते य सिद्धे, य मोत्तु लोगम्मि जत्तिया जीवा । सव्वे सव्वावत्थं, आहारे होंति उवउत्ता ॥ तं तारिसगं रयणं, सारं जं सव्वलोगरयणाणं । सव्वं परिच्चइत्ता, पादोवगता पविहरति ॥ एयं पादोवगमं निप्पडिकम्मं जिणेहि पण्णत्तं । जं सोऊणं खमओ, ववसायपरक्कमं कुणति ॥ कोई परीसहेहिं, वाउलिओ वेयणहिओ वावि । ओभासेज्ज कयाई, पढमं बितियं च आसज्ज ॥ गीतत्थमगीतत्थं, सारेउ मतिविबोहणं काउं । तो पडिबोहिय... ॥ (व्यभा ४३५६-४३६१) आहार सब सुखों का उत्पादक कारण, जीवन का सार और सबका जनक है। इस लोक में आहार से बढ़कर उत्तम रत्न अन्य कोई वस्तु नहीं है। विग्रहगतिसमापन्न और सिद्ध - इनको छोड़कर लोक में शेष जितने जीव हैं, वे सब अवस्थाओं में आहार में उपयुक्त होते हैं । लोक में सब रत्नों में सारभूत ऐसे आहार रत्न को छोड़कर जो प्रायोपगमन अनशन करते हैं, वे धन्य हैं। अनशनी इस जिनप्रज्ञप्त निष्प्रतिकर्म प्रायोपगमन के विषय में सुनकर अपने स्वीकृत निश्चय में पराक्रम करता है। कदाचित् कोई उत्तमार्थी परीषह से व्याकुल और वेदना अभिभूत हो आहार- पानी की याचना करे तो उसकी परीक्षा करनी चाहिये कि कहीं वह प्रान्तदेवता से अधिष्ठित होकर तो नहीं मांग रहा है। उसे पूछना चाहिये कि तुम गीतार्थ हो या अगीतार्थ ? अभी दिन है या रात? सही उत्तर देने वाले को परीषह से पराजित मान कर प्रतिबोधित करना चाहिये । २८. निर्बाध अनशन हेतु पर्यालोचन: देवसंकेत कंचनपुर गुरुसण्णा, देवयरुवणा य पुंच्छ कधणा य। पारणगखीररुधिरं, आमंतण संघनासणया ॥ (व्यभा ४२७८) आगम विषय कोश - २ कलिंग जनपद में कांचनपुर नाम का नगर । वहां बहुश्रुत आचार्य रह रहे थे। उनका शिष्य परिवार बृहद् था । एक बार वे अपने शिष्यों को सूत्र और अर्थ की वाचना देकर संज्ञाभूमि में गए । अन्तराल में उन्होंने एक विशाल वृक्ष के नीचे एक स्त्री को रोते हुए देखा। दूसरे, तीसरे दिन भी यही देखा। आचार्य को आशंका हुई। उन्होंने उस स्त्री से पूछा- तुम क्यों रो रही हो ? उसने कहा- मैं इस नगर की अधिष्ठात्री देवी हूं। यह नगर शीघ्र ही जल-प्रवाह से आप्लावित होकर नष्ट हो जाएगा। यहां अनेक मुनि स्वाध्यायशील हैं। उनके विनाश को सोचकर मैं रो रही हूं । आचार्य ने पूछा -इस बात का प्रमाण क्या है ? उसने कहा तपस्वी मुनि के पारणक में लाया हुआ दूध रक्त बन जाएगा। जहां जाने से पुनः वह स्वाभाविक रूप में आएगा, Pari सुभिक्ष होगा और वहां सुखपूर्वक रहा जा सकेगा। दूसरे दिन तपस्वी मुनि द्वारा पारणक में लाया हुआ दूध रक्त में बदल गया । तब संघ के प्रमुख व्यक्ति एकत्रित हुए, पर्यालोचन किया और समूचे संघ ने वहां से प्रस्थान कर दिया। २९. स्कन्दक के शिष्यों की समाधि मृत्यु मुणिसुव्वयंतवासी, खंदगदाहे य कुंभकारकडे । देवी पुरंदरजसा, दंडगि पालक्क मरुगे य॥ पंचसता जंतेणं, रुद्वेण पुरोहिएण मलिताई । रागद्दोसतुलग्गं समकरणं चिंतयंतेहिं ॥ (व्यभा ४४१७, ४४१८) कुम्भकारकट नगर । दंडकी राजा । पुरन्दरयशा रानी । पालक ब्राह्मण पुरोहित । अर्हत् मुनिसुव्रत के अंतेवासी स्कन्दक अनगार का अपने शिष्यों के साथ विहरण करते हुए वहां आगमन । पुरोहित ने द्वेषवश उन पांच सौ शिष्यों को कोल्हू में पीकर मार डाला। जब सबसे छोटे मुनि को पीलने लगे तो स्कन्दंक अत्यंत कुपित हुए। उन्हें भी पील दिया। वे मरकर अग्निकुमार देव के रूप में उत्पन्न हुए। अपने पूर्वभव की स्मृति कर दंडकी के पूरे देश को भस्म कर दिया । पांच सौ शिष्य रुष्ट पुरोहित के द्वारा पीले जाते हुए भी Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३३ अनुयोग राग-द्वेष से मुक्त (मध्यस्थ) रहकर समभाव का अनुचिन्तन १. अनुयोग की परिपाटी : कुंभजल दृष्टांत करते हुए समाधि मृत्यु को प्राप्त हुए। सुत्तत्थो खलु पढमो, बिइओ निज्जुत्तिमीसिओ भणिओ। * इत्वरिक-यावत्कथिक अनशन द्र श्रीआको १ अनशन तइओ य निरवसेसो, एस विही भणिय अणुयोगे॥ निरवयवो न हु सक्को, सयं पगासो उ संपयंसेउ। अनागाढ योग-नंदी, उत्तराध्ययन आदि श्रुतग्रंथों के कुंभजले वि हु तुरिउज्झियम्मि न हु तिम्मए लिट्ठ॥ अध्ययन काल में किया जाने वाला द्वितीयस्यां परिपाट्यां 'नियुक्तिमिश्रितः' पीठिउपधान। द्र स्वाध्याय कया सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या च समन्वितः""तृतीयस्यां अनुद्घात-गुरु प्रायश्चित्त, जिसमें भाग या परिवर्तन परिपाट्यामनुयोगो निरवशेषो वक्तव्यः, पद-पदार्थनहीं किया जाता। द्र प्रायश्चित्त चालना-प्रत्यवस्थानादिभिःसप्रपञ्चसमस्तं कथयित-व्यमिति भावः । एष विधिरनुयोगे ग्रहणधारणादिसमर्थान् शिष्यान् अनुप्रेक्षा-मन की मूर्छा को तोड़ने वाले विषयों का प्रति वेदितव्यः । 'मन्दमेधसां श्रवणपरिपाट्या अनुचिन्तन। द्र भावना विवक्षिताध्ययनार्थावगमः ततस्तान् प्रति सप्तवारान् अनुयोग-सूत्र के अनुरूप अर्थ की योजना। अनुयोगो यथाप्रतिपत्ति कर्त्तव्यः। (बृभा २०९, २१३ वृ) १. प्रथम अनुयोग-सूत्र के अर्थमात्र का प्रतिपादन। १. अनुयोग की परिपाटी : कुंभजल दृष्टांत २. द्वितीय अनुयोग-दूसरी परिपाटी में पीठिका और सूत्रस्पर्शी २. अनुयोग के पर्याय नियुक्ति से समन्वित अर्थ का प्रतिपादन। • भाषा : प्रतिध्वनि दृष्टांत ३. ततीय अनयोग-तीसरी परिपाटी में निरवशेष अर्थ का ० विभाषा : अश्व दृष्टांत प्रतिपादन-पद, पदार्थ, चालना, प्रत्यवस्थान आदि द्वारा प्रसंग० वार्तिक : मंखफलक दृष्टांत अनुप्रसंग सहित समग्रता से व्याख्या। ३. अनुयोग का प्रवेशद्वार : उपक्रम यह अनुयोगविधि ग्रहण-धारणा आदि की शक्ति ० द्रव्य-क्षेत्र-काल उपक्रम से सम्पन्न शिष्यों के लिए है। ४. भाव उपक्रम : गणिका आदि दृष्टांत ५. सर्वश्रुत का अनुयोग : कल्प-व्यवहार अनुयोग सूत्र का अर्थ संपूर्ण रूप से एक बार में प्रकाशित भी ___ * निशीथ का अनुयोग द्र छेदसूत्र नहीं किया जा सकता और सूत्रार्थ को ग्रहण और धारण ६. अनुयोगकृत् (आचार्य) के छत्तीस गुण करने में समर्थ शिष्य भी उसको एक बार में ग्रहण नहीं कर ___* श्रुतविनय : निःशेष वाचना द्र आचार्य पाता। जैसे-जल से परिपूर्ण घट का पूरा पानी भी यदि ७. अनुयोग की प्रवृत्ति : गौ दृष्टांत अतिशीघ्रता से पत्थर के टुकड़े पर गिराया जाए तो भी वह ० वीर-गौतम दृष्टांत सर्वात्मना गीला नहीं हो पाता। इसलिए तीन परिपाटियों में ८. प्रमादी शिष्य : आर्य कालक का स्वर्णभूमिगमन अनुयोग के कथन का प्रतिपादन है। ० धूलि दृष्टांत मन्दमति शिष्यों को श्रवणपरिपाटी द्वारा विवक्षित * अनुयोग ( वाचना) के योग्य-अयोग्य द्र अंतेवासी| अध्ययन का अर्थबोध होता है, अतः उनके प्रति सात बार * छेदसूत्र की अर्थवाचना के योग्य द्र छेदसूत्र अनुयोग किया जाता है। * अर्थमण्डली व्यवस्था द्र वाचना * अनुयोग विधि द्र श्रीआको १ अनुयोग * आचार्य अर्थ के उत्प्रेक्षक द्र सूत्र * श्रवणविधि के सात अंग द्र श्रीआको १ शिक्षा * आचार्य अर्थवाचक द्र संघ (अनुयोग विधि के तीन प्रकार और श्रवण विधि के * वाचना सम्पदा द्र गणिसम्पदा सात प्रकार बतलाए गए हैं। सब शिष्य समान योग्यता वाले Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोग ३४ आगम विषय कोश-२ नहीं होते। इसलिए योग्यता की तरतमता के आधार पर इन एक पद के दो, तीन आदि अर्थ कहना विभाषा है। तीन अनुयोगविधियों में से किसी एक विधि का सात बार जैसे अश्व शब्द की व्याख्या करते समय कहनाप्रयोग किया जा सकता है।-नंदी १२७ का टि) जो खाता है, वह अश्व है। २. अनुयोग के पर्याय जो तीव्र गति से दौड़ता है, परन्तु श्रान्त नहीं होता, अणुयोगो य नियोगो, भास विभासायवत्तियं चेवा. वह अश्व है। अनुकूलः सूत्रस्यार्थेन योगोऽनुयोगः । निश्चितो योगो . वार्तिक (भाष्यकार) : मंखफलक दृष्टांत नियोगः।अर्थस्य भाषणंभाषा।विविधप्रकारैर्भाषणं विभाषा। सामाइयस्स अत्थं, पुव्वधर समत्तमो विभासेइ। वृत्तौ भवंवार्त्तिकम्, यदेकस्मिन् पदे यदर्थापन्नंतस्य सर्वस्यापि चउरो खलु मंखसुया, वत्तीकरणम्मि आहरणा॥ भाषणम्। (बृभा १८७ वृ) फलगिक्को गाहाहिं, बिइओ तइओ य वाइयत्थेणं। अनुयोग के पांच पर्याय हैं तिन्नि वि अकुडुंबभरा, तिगजोग चउत्थओ भरइ॥ १. अनुयोग-सूत्र के अनुरूप अर्थ का योग। जे जम्मि जुगे पवरा, तेसि सगासम्मि जेण उग्गहियं। २. नियोग-सूत्र के साथ अर्थ का निश्चित योग। ..."वत्तीकरो स खलु॥ ३. भाषा-सूत्र के अर्थ का कथन। (बृभा १९९-२०१) ४. विभाषा-एक सूत्र के विविध अर्थों का प्रतिपादन। चतुर्दशपूर्वी सामायिक आदि का समस्त अर्थ बता देते ५. वार्तिक-सूत्र के अर्थ का समग्रता से प्रतिपादन। हैं। उसके पश्चात कछ भी कहना शेष नहीं रहता। उन्हें ० भाषा: प्रतिध्वनि दृष्टांत व्यक्तिकर अथवा वार्तिककर कहा जाता है। पडिसहगस्स सरिसं, जो भासइ अस्थमेगु सुत्तस्स। मंखफलक-दृष्टांत-चार मंख (चित्रपट्ट आजीवी) थे। उनमें सामइय बाल पंडिय, साह जईमाइया भासा॥ से एक मंखफलक लेकर घूमता है, गाथा का उच्चारण नहीं समभाव: सामायिकम्, द्वाभ्यां-बुभुक्षया तृषा करता है और न उसका अर्थ बताता है। दूसरा मंखफलक वाऽऽगलितो बालः।पापात् डीनः-पलायितः पण्डितः। लेकर नहीं जाता, केवल गाथा पढ़ता हुआ घूमता है। तीसरा .... साधयति मोक्षमार्गमिति साधुः। यतते सर्वात्मना मंख न फलक ग्रहण करता है, न गाथा का उच्चारण करता संयमानुष्ठानेष्विति यतिः। (बृभा १९६ वृ) है, किन्तु किंचित् अर्थ बताता है। इन तीनों को कुटुम्बपोषण गुफा आदि में किए गए शब्द के सदश प्रतिशब्द के लिए कुछ भी धन प्राप्त नहीं होता है। होता है। वैसे ही सूत्र के अनुरूप उसका एक अर्थ बताना चौथा मंख फलक लेकर गाथा पढ़ता हुआ और उनका भाषा है। जैसे अर्थ बताता हुआ घूमता है। उसको अपने कुटुम्ब के भरणसामायिक-समभाव की साधना। पोषण के लिए पर्याप्त धन प्राप्त हो जाता है। बाल-क्षुधा-पिपासा से आकुल रहने वाला। (भाष्यकार चतुर्थ मंख के सदृश होता है। वह सूत्र पण्डित-पाप से पलायन करने वाला। और अर्थ को समग्रता से व्यक्त करता है।) साधु-मोक्षमार्ग को साधने वाला। जिस युग में जो प्रधान अनुयोगकृत होते हैं, उनके यति-सर्वात्मना संयमानुष्ठान में प्रयत्नशील रहने वाला। पास अध्ययन करने वाला ग्रहण-धारण में समर्थ जो शिष्य • विभाषा : अश्व दृष्टांत उनसे सम्पूर्ण श्रुत को ग्रहण कर अतिशय विशदता से अपने एगपए उ दुगाई, जो अत्थे भणइ सा विभासा उ। शिष्यों को बताता है, वह भाष्यकार है। असइ य आसु य धावइ, न य सम्मइ तेण आसो उ॥ ३. अनुयोग का प्रवेशद्वार : उपक्रम (बृभा १९८) उपोद्घातेनाभिहितेन सूत्रादयोऽर्था अतिव्यक्ता Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ अनुयोग भवन्ति १. परिकर्म-वस्तु को विशिष्टतर बनाना, रूप को सजानावत्तीभवंति दव्वा, दीवेणं अप्पगासे उव्वरए। संवारना, विशिष्ट भाषा सिखाना व कलाओं में कुशल बनाना। वत्तीभवंति अत्था, उवघाएणं तहा सत्थे॥ २. संवर्तन-वस्तु को सम्पूर्ण रूप में या आंशिक रूप में उपोद्घाताभिधानमन्तरेण पनः शास्त्रं स्वतो- विनष्ट कर देना। ऽतिविशिष्टमपि न तथाविधमुपादेयतया विराजते, यथा सचित्त उपक्रम-सचित्त वस्तु के परिकर्म और विनाश में नभसि मेघाच्छन्नश्चन्द्रमाः। किया जाने वाला उपक्रम । यथा-नट को पोशाक पहनाना, मेघच्छन्नो यथा चन्द्रो, न राजति नभस्तले। शुक-सारिका को स्पष्ट वर्णोच्चारण सिखाना, पुरुष का कलाओं उपोद्घातं विना शास्त्रं, न राजति तथाविधम्॥ में पारंगत होना आदि सचित्त परिकर्म है। किसी प्राणी का (बृभाव पृ२) वध करना-यह सचित्त संवर्तन है। उपक्रम का समानार्थक शब्द है उपोद्घात । उपोद्घात अचित्त उपक्रम-अचित्त वस्तु के परिकर्म और विनाश में कथन से जिस सूत्र की जिस प्रसंग में जो व्याख्या करनी होती किया जाने वाला उपक्रम । यथा-सोने का कड़ा बनाना। कड़े को भांजना। है, उसकी पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है-सूत्र का उद्देशनिर्देश, निर्गम, रचनाकाल, रचनाक्षेत्र. ग्रंथ का प्रयोजन और मिश्र उपक्रम-यथा-आभूषणयुक्त नट को सुंदर वेष पहनाना, प्रतिपाद्य-यह सब अत्यंत स्पष्ट हो जाते हैं। आभूषणों से अलंकृत पुरुष को बहत्तर कलाएं सिखाना मिश्र __ अंधेरे ओरे में रखी हुई वस्तुएं दीपक के प्रकाश में परिकर्म है। दिखाई देती हैं, उसी प्रकार शास्त्र में निहित अर्थ उपोद्घात शस्त्रधारी पुरुष को मारना मिश्र संवर्तन है। के द्वारा अभिव्यक्त होते हैं। ० क्षेत्र उपक्रम-नौका आदि से नदी को पार किया जाता है, उपक्रम के बिना स्वत: अतिविशिष्ट शास्त्र भी अपने हल, कुलिका (खेत में उगे हुए घास को काटने का उपकरण) वैशिष्ट्य के अनुरूप उपादेय नहीं होता। आदि के द्वारा खेत को बीज बोने योग्य किया जाता है, घर जिस प्रकार मेघ से आच्छादित चन्द्रमा आकाश में और देवकुल का सम्मार्जन या भूमिकर्म किया जाता है, मार्ग नहीं चमकता, उसी प्रकार शास्त्र भी उपोद्घात के बिना का शोधन और तालाब आदि का खनन किया जाता है-यह उपयोगी नहीं बनता। क्षेत्र उपक्रम है। • द्रव्य-क्षेत्र-काल उपक्रम ० काल उपक्रम-शंकुच्छाया, नालिका (घटिका-तांबे से सच्चित्ताई तिविहो, उवक्कमो दव्वि सो भवे दविहो। बनी हुई एक घड़ी, जिससे धूलि या पानी के नीचे गिरने से परिकम्मणम्मि एक्को, बिइओ संवट्टणाए उ॥ समय को जाना जाता है। जितने समय में ऊपर का पदार्थ जेण विसिस्सइ रूवं, भासा व कलासुवा वि कोसल्लं। नीचे जाता है, वह एक मुहूर्त का समय होता है), नक्षत्र की परिकम्मणा उ एसा, संवट्टण वत्थुनासो उ॥ गति आदि के द्वारा समय को जाना जाता है-यह विद्वत्प्रशस्य नावाएँ उवक्कमणं, हल-कलियाईहिंवा विखित्तस्म। काल उपक्रम है। सम्मज-भूमिकम्मे, पंथ-तलागाइएसुं तु॥ द्रुमपुष्पों के विबोध और स्वाप (खिलने-मुरझाने) छायाएँ नालियाइव, कालस्स उवक्कमो विउपसत्थो। के आधार पर भी सूर्य के उदय-अस्त को जाना जाता है। रिक्खाईचारेसु व, साव-विबोहेस व दमाणं॥ ४. भाव उपक्रम : गणिका-ब्राह्मणी-अमात्य दृष्टांत (बृभा २५८-२६१) गणिगा मरुगीऽमच्चे, अपसत्थो भावुवक्कमो होइ। ० द्रव्य उपक्रम-लौकिक द्रव्य उपक्रम के तीन प्रकार हैं- . आयरियस्स उ भावं, उवक्कमिज्जा अह पसत्थो॥ सचित्त, अचित्त, मिश्र। इनमें से प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं (बृभा २६२) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोग आगम विषय कोश-२ दूसरे के भाव को जानने का उपक्रम भाव उपक्रम है। है-ऐसा कहकर उसे प्रसन्न किया। लौकिक भाव उपक्रम के दो प्रकार हैं अमात्य दृष्टांत-एक राजा शिकार के लिए जा रहा था। मार्ग १. अप्रशस्त उपक्रम-वेश्या, ब्राह्मणी, मंत्री आदि की दूसरों में अश्व ने प्रस्रवण किया। लौटते समय राजा ने उस स्थान के भावबोध की प्रवृत्ति। यहां लौकिक फल वाले उपक्रम को को गीला देखकर सोचा-यहां तालाब हो तो अच्छा रहे। मंत्री अप्रशस्त कहा गया है। ने राजा के अन्तर्मन की बात जान ली और वहां तालाब गंगाप्रवाह की दिशा बताकर शिष्य ने गुरु के इंगित खुदवा दिया। तट पर वृक्ष लगा दिए। की आराधना की। (द्र विनय) एक दिन राजा उधर से गुजरा, तालाब देखा और गणिका दृष्टांत-एक वेश्या चौंसठ कलाओं में प्रवीण थी। पूछा-यह तालाब किसका है ? मंत्री ने कहा-आपका। राजा आगंतुकों का अभिप्राय जानने के लिए उसने अपनी चित्रसभा ने कहा-कैसे? मंत्री ने उस दिन की सारी बात बताई। राजा में मनुष्य जाति के जातिकर्म शिल्प, कुपित-प्रसादन आदि से मंत्री पर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने मंत्री का वेतन बढ़ा दिया। संबंधित अपने-अपने व्यापार में प्रवृत्त व्यक्तियों के चित्र आलेखित २. प्रशस्त उपक्रम-लोकोत्तर फल वाला उपक्रम, गुरु आदि करवाए। जो कोई व्यक्ति वहां आता, अपने व्यापार की प्रशंसा के भावबोध की प्रवत्ति। करता, अच्छे-बुरे चित्र की समीक्षा करता, उसके आधार पर (गुरु के भावों को समझकर तदनुरूप चेष्टा करना वह अंकन कर लेती कि कौन व्यक्ति किस श्रेणी का है, कैसे प्रशस्त भाव उपक्रम है। शास्त्राध्ययन के प्रसंग में गुरु का स्वभाव वाला है और फिर उसके प्रति अनुकूल आचरण कर, भावबोध तो अप्रासंगिक-सा लगता है, किन्तु गुरु के भावबोध उसे प्रसन्न कर, उससे पर्याप्त धन प्राप्त कर लेती। को व्याख्या का मुख्य अंग माना गया है, क्योंकि शास्त्र का ब्राह्मणी दृष्टांत-एक ब्राह्मणी चाहती थी कि शादी के बाद प्रारंभ गुरु के अधीन होता है। इसलिए शिष्य को गुरु की मेरी तीनों पुत्रियां सुखी रहें। ऐसी व्यवस्था करने के लिए आराधना में तत्पर रहना चाहिये।-अनु ९९ का टि) उसने अपनी पत्रियों से कहा-आज तुम पहली बार ससुराल * शास्त्रीय भाव उपक्रम द्र श्रीआको १ अनुयोग जा रही हो। जब तुम्हारा पति कमरे में आए तो कोई गल्ती ५. सर्वश्रुत का अनुयोग : कल्प-व्यवहार अनुयोग बताकर उसके सिर पर अपनी पार्ट्ज (एडी) से प्रहार करना, फिर उसकी प्रतिक्रिया मुझे बताना। जइ पवयणस्स सारो, अत्थो सो तेण कस्स कायव्यो। पहली पुत्री ने अपने पति के सिर पर पाद प्रहार किया। एवंगुणन्निएणं, सव्वसुयस्साऽऽउ देसस्सा। पति ने उसके पांव को सहलाते हुए कहा-मेरे कठोर सिर से को कल्लाणं निच्छइ, सव्वस्स वि एरिसेण वत्तव्यो। तुम्हारे कोमल पांव में पीड़ा तो नहीं हुई? इस घटनाचक्र को कप्प-व्ववहाराण उ, पगयं सिस्साण थिज्जत्थं ॥ सुनकर मां ने कहा-बेटी ! वह तुम्हारा दास बनकर रहेगा। जइ कप्पादणुयोगो, किं सो अंगं उयाहु सुयखंधो। दूसरी पुत्री ने प्रहार किया तो उसका पति थोड़ा सा अज्झयणं उद्देसो, पडिवक्खंगादिणो बहवो॥ गुस्सा कर शांत हो गया। इस स्थिति को सुनकर मां ने कहा सुयखंधो अज्झयणा, उद्देसा चेव हुंति निक्खिप्पा। तुम भी थोड़ी सी सावधानी के साथ इच्छानुसार घर में रहो। सेसाणं पडिसेहो, पंचण्ह वि अंगमाईणं॥ तीसरी पुत्री का पति आहत होने पर रुष्ट हो गया, (बृभा २४६, २४७, २५१, २५२) उसे पीटा और उठकर चला गया। इस घटनाचक्र को प्रवचन-द्वादशांग का सार है अर्थ, श्रुत का अनुयोग। सुनकर मां ने कहा-बेटी ! यह उत्तम है। तुम अप्रमत्तता से प्रश्न होता है कि गुण-संपन्न आचार्य श्रुत का अनुयोग समग्रता देवता की भांति उसकी सेवा करो। यह निर्देश देकर मां से करें या अंश रूप में करें ? इस जिज्ञासा को समाहित करते हुए जामाता के पास गई और बोली-यह हमारी कुल-परंपरा आचार्य कहते हैं-आचार्य को संपूर्ण श्रुत का अनुयोग करना है, अन्यथा वह तुम्हारे प्रति ऐसा व्यवहार कैसे कर सकती चाहिए क्योंकि संपूर्ण श्रुत कल्याणकारी होता है और कल्याण Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३७ अनुयोग कौन नहीं चाहता? कल्प और व्यवहारसूत्र अपवाद बहुल हैं ४. रूपयुत-शरीर सम्पदा से सम्पन्न। इसलिए शिष्यों के स्थिरीकरण के लिए गुणसंपन्न आचार्य को ५.संहननयुत-सुदृढ़ संहनन संपन्न। . ही इन सूत्रों के अनुयोग का अधिकार है। ६. धृतियुत-अतिगहन अर्थों में अभ्रमित। यदि कल्प और व्यवहार का अनुयोग प्रवृत्त होता ७. अनाशंसी-अनाकांक्षी। है तो क्या कल्प एक अंग है? अथवा अनेक अंग हैं? एक ८. अविकत्थन-अबहभाषी/अल्पभाषी। श्रुतस्कंध है? अथवा अनेक श्रृतस्कंध हैं? एक अध्ययन ९. अमायी-मायापूर्ण व्यवहार से शिष्य का निर्वहन न करने है ? अथवा अनेक अध्ययन हैं? एक उद्देशक है? अथवा वाले। अनेक उद्देशक हैं? १०. स्थिरपरिपाटी-निरन्तर अभ्यास के कारण अविच्छिन्न उपर्युक्त आठ विकल्पों में तीन विकल्प निक्षेप्य/ अनुयोग की परम्परा वाले। आदरणीय हैं, शेष पांच विकल्प निक्षेप्य नहीं हैं। यथा- ११. गृहीतवाक्य-आदेय वचन वाले। कल्प एक अंग नहीं हैं और अनेक अग भी नहीं है। एक १२. जितपरिषद्-महान् परिषद् में भी अक्षुब्ध। श्रुतस्कंध है, अनेक श्रुतस्कंध नहीं हैं। एक अध्ययन है, १३. निद्राजयी-नींद से अबाधित। अनेक अध्ययन नहीं हैं। एक उद्देशक नहीं है, अनेक उद्देशक १४. मध्यस्थ-अपक्षपाती। १५. देशज्ञ-देश को जानने वाले। (इसी प्रकार व्यवहार का स्वरूप ज्ञातव्य है। विशेष १६. कालज्ञ-काल को जानने वाले। यह है कि कल्प के छह और व्यवहार के दस उद्देशक हैं।) १७. भावज्ञ-अभिप्राय को जानने वाले। ६. अनुयोगकृत् (आचार्य) के छत्तीस गुण १८. आसन्नलब्धप्रतिभ-प्रतिवादियों के प्रश्नों का तत्काल देस-कुल-जाइ-रूवी, संघइणी धिइजुओ अणासंसी। उत्तर देने में समर्थ। अविकंथणो अमाई, थिरपरिवाडी गहियवक्को॥ १९. नानाविधदेशभाषज्ञ-अनेक देशों की भाषा जानने वाले। जियपरिसो जियनिद्दो, मज्झत्थो देस-काल-भावनू। २०. आचारसंपन्न-ज्ञान आदि पांच आचारों में सुस्थित। आसन्नलद्धपइभो, नानाविहदेसभासन्नू॥ २१. सूत्रविधिज्ञ-सूत्र की विधि को जानने वाले। पंचविहे आयारे, जुत्तो सुत्तऽत्थतदुभयविहन्नू। २२. अर्थविधिज्ञ-अर्थ की विधि को जानने वाले। आहरण-हेउ-उवणय-नयनिउणो गाहणाकुसलो॥ २३. तदुभयविधिज्ञ-सूत्र तथा अर्थ की विधि को जानने वाले। ससमय-परसमयविऊ, गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो। २४. आहरण-निपुण-दृष्टांत-निपुण। गुणसयकलिओ जुत्तो, पवयणसारं परिकहेउं॥ २५. हेतु-निपुण-ज्ञापक, कारक आदि हेतुओं में निपुण। गुणसुट्ठियस्स वयणं, घयपरिसित्तु व्व पावओ भाइ। २६. उपनयनिपुण-उपसंहार करने में निपुण। गुणहीणस्स न सोहइ, नेहविहूणो जह पईवो॥ २७. नयनिपुण नैगम आदि नयों में निपुण । (बृभा २४१-२४५) २८. ग्राहणाकुशल-प्रतिपादन की शक्ति से संपन्न। अनुयोगकृत् (आचार्य) छत्तीस गुणों से संपन्न होते २९. स्वसमयवित्-स्वसिद्धांत को जानने वाले। ३०. परसमयवित्-पर सिद्धांत को जानने वाले। १. देशयुत-मध्यदेश या साढे पचीस आर्य देशों में उत्पन्न। ३१. गंभीर-गंभीर स्वभाव वाले। २. कुलयुत-नागकुल, इक्ष्वाकुकुल आदि उत्तम कुलों में ३२. दीप्तिमान्-परवादियों द्वारा अनुद्धर्षणीय-अपराजेय। उत्पन्न। ३३. शिव-शांत स्वभाव वाले। कल्याण करने वाले। ३. जातियुत- उत्तम मातृक पक्ष वाले। ३४. सोम-सौम्य दृष्टि वाले। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोग ३८ आगम विषय कोश-२ ३५. गुणशतकलित-मूलगुण, उत्तरगुण आदि सैकड़ों गुणों थोड़ा क्षीर प्राप्तकर लेगा। से युक्त। चतुर्थ भंग में दोनों नियुक्त हैं तो क्षीर की प्राप्ति होगी। ३६. प्रवचनयुक्त–द्वादशांग के सम्यक् व्याख्याता। गाय व दोहक की उपमा के आधार पर आचार्य व जो गुणों में सुस्थित है, उस अनुयोगकृत के वचन घृत शिष्य के अनुयोग की प्रवृत्ति को जान लेना चाहिए। इसके से अभिषिक्त अग्नि की भांति दीप्त होते हैं। गणहीन के चार विकल्प हैंवचन स्नेहविहीन दीपक की भांति प्रभासित नहीं होते। १. आचार्य अनियुक्त, शिष्य भी अनियुक्त ७. अनुयोग की प्रवृत्ति : गौ दृष्टान्त २. आचार्य अनियुक्त, शिष्य नियुक्त अणिउत्तो अणिउत्ता. अणिउत्तो चेव होड उनिउत्ता। ३. आचाय नियुक्त, शिष्य आनयुक्त निउत्तो अणिउत्ता, उ निउत्तो चेव उ निउत्ता॥ ४. आचार्य नियुक्त (अनुयोग में प्रवृत्त), शिष्य भी नियुक्त निउत्ता अनिउत्ताणं, पवत्तई अहव ते वि उ निउत्ता। (श्रवण में प्रवृत्त)। दव्वम्मि होइ गोणी, भावम्मि जिणादयो हुंति॥ पहले भंग में आचार्य व शिष्य दोनों अनुयोग में अनियुक्त हैं तो अनुयोग की प्रवृत्ति नहीं होगी। अप्पण्हुया य गोणी, नेव य दुद्धा समुज्जओ दुर्द्ध। खीरस्स कओ पसवो, जइ वि य सा खीरदा घेणू॥ दूसरे भंग में आचार्य अनुयोग की प्रवृत्ति में अनियुक्त बीए वि नत्थि खीरं, थेवं व हविज्ज एव तइए वि। हैं और शिष्य नियुक्त हैं तब भी अनुयोग की प्रवृत्ति नहीं अत्थि चउत्थे खीरं, एसुवमा आयरिय-सीसे ॥ होगी, किन्तु शिष्य यदि पुरुषार्थी हैं तो आचार्य के न चाहने पर भी वे बार-बार प्रश्न, जिज्ञासा आदि के द्वारा आचार्य को अहवा अणिच्छमाणमवि किंचि उज्जोगिणो पवत्तंति। अनुयोग में प्रवृत्त कर देते हैं। तइए सारिते वा, होज्ज पवित्ती गुणिते वा॥ तीसरे भंग में आचार्य अनुयोग की प्रवृत्ति में नियुक्त (बृभा २३४-२३८) हैं पर शिष्य नियुक्त नहीं हैं तो अनुयोग की प्रवृत्ति नहीं अनुयोगप्रवर्तन को बताने के लिए प्रवृत्ति के दो प्रकार होगी, किन्तु आचार्य समर्थ हैं तो वे शिष्यों को प्रेरणाकिए गए हैं प्रोत्साहन द्वारा अनुयोग में प्रवृत्त कर देते हैं। द्रव्यत:-क्षीरप्रसव हेतु गौदृष्टांत। अथवा 'अनुयोग की परम्परा विच्छिन्न न हो'-इस भावतः-जिन आदि अनुयोगप्रवर्तक। चिन्तन से आचार्य शिष्य के न चाहने पर भी उसके समक्ष गाय और दोहक से संबंधित चार विकल्प हैं ग्रंथपरावर्तन के निमित्त से अनुयोग में प्रवृत्त होते हैं। यथा १. दोहक अनियुक्त, गौ भी अनियुक्त आचार्य कालक। २. दोहक अनियुक्त, गौ नियुक्त चौथे भंग में आचार्य तथा शिष्य दोनों अनुयोग में ३. दोहक नियुक्त, गौ अनियुक्त नियुक्त हैं तो सहज ही अनुयोग की प्रवृत्ति होगी। ४. दोहक नियुक्त, गौ भी नियुक्त प्रथम भंग में गाय अप्रस्नुता है, दोहक अनियुक्त है, ० वीर-गौतम दृष्टांत तब क्षीर की प्राप्ति नहीं होगी। निउत्तो उभउकालं, भयवं कहणाएँ वद्धमाणो उ। द्वितीय भंग में दोहक अनियुक्त है किन्तु गाय नियुक्त गोयममाई वि सया, सोयव्वे हुँति उ निउत्ता॥ है तो क्षीर की प्राप्ति नहीं होगी। यदि प्रस्नता गाय के स्तनों से (बृभा २४०) थोड़ा-थोड़ा क्षीर गिरता है तो थोड़े क्षीर की प्राप्ति हो जायेगी। __ भगवान वर्धमान दोनों समय अनुयोग में प्रवृत्त होते थे तृतीय भंग में गाय अनियुक्त और दोहक नियुक्त है, और गौतम आदि शिष्य सदा श्रोतव्य में नियुक्त थे—यह चतुर्थ तब क्षीर की प्राप्ति नहीं होगी किन्तु दोहक में गुण है तो विकल्प (आचार्य नियुक्त शिष्य भी नियुक्त) का निदर्शन है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३९ अनुयोग ८. अप्रमादी शिष्य : आर्यकालक का स्वर्णभूमिगमन भूमि की ओर जा रहा हूं। पर मेरे चले जाने की सूचना सागारियमप्पाहण, सुवन्न सुयसिस्स खंतलक्खण। शिष्यवर्ग को अत्यन्त आग्रहपूर्वक पूछने पर उन्हें सरोष स्वरों कहणा सिस्सागमणं, धूलीपुंजोवमाणं च। में बताना।' शय्यातर को इस प्रकार अपनी बात परी तरह से उज्जेणीए नयरीए अज्जकालगा नामं आयरिया समझाकर गुप्त रूप से आचार्य कालक ने वहां से विहार कर सुत्त-ऽत्थोववेया बहुपरिवारा विहरंति। तेसिं अज्ज- दिया। कालगाणं सीसस्स सीसो सुत्त-ऽत्थोववेओ सागरो नाम वे सुदूर स्वर्णभूमि में सागर के पास पहुंचे। आगमसुवन्नभूमीए विहरइ।ताहे अज्जकालया चिंतेंति-एस मम वाचनारत आचार्य सागर ने उन्हें सामान्य वृद्ध साधु समझकर सीसा अणुओगंन सुणंति तओ किमेएसिमझे चिट्ठामि? अभ्युत्थान आदि द्वारा उनका आदर नहीं किया। अर्थ-पौरुषी तत्थ जामि जत्थ अणुयोगंपवत्तेमि सुवन्नभूमीए सागराणं (अर्थ-वाचना) के समय शिष्य सागर ने अपने सम्मुख सगासंगयाखंतलक्खेण पविट्ठा सागरायरिया 'खंत' आसीन आगन्तुक को संकेत करते हुए पूछा-"वृद्ध ! मेरा त्ति काउं तं नाढाइया अब्भुट्ठाणाईहिं। तओ अत्थपोरिसी- कथन समझ में आ रहा है ?" आचार्य कालक ने 'ओम्' वेलाए सागरायरिएणं भणिया-खंता! तुब्भं एयं गमइ? कहकर स्वीकृति दी। सागर सगर्व बोले-"वृद्ध ! अवधानपूर्वक आयरिया भणंति-आमं। तो खाइंसुणेह'त्ति पकहिया, सुनो।" आचार्य कालक गंभीर मुद्रा में बैठे थे। आर्य सागर गव्वायंता य कहिं ति। इयरे वि सीसा पभाए अनुयोग प्रदान में प्रवृत्त हुए। संते"उच्चलिया सुवन्नभूमिं गंतुं। पंथे लोगो पुच्छइ उधर अवन्ति में आचार्य कालक के शिष्यों ने देखाएस कयरो आयरिओ जाइ? ते कहिं ति उनके बीच में आचार्य कालक नहीं हैं। उन्होंने इधर-उधर अज्जकालगा।"सागरा सिस्साणं पुरओ भणंति-मम खोज की पर वे नहीं मिले। शिष्यों ने शय्यातर से पूछाअज्जया इंति, तेसिं सगासे पयत्थे पुच्छीहामि त्ति । अचिरेणं 'आचार्य देव कहां हैं ?' आग्रहपूर्वक पूछने पर शय्यातर ने तेसीसा आगया।तत्थ अग्गिल्लेहिं पुच्छिज्जंति-किं इत्थ कठोर रुख बनाकर शिष्यों से कहा-"आप जैसे अविनीत आयरिया आगया चिटुंति ? नत्थि, नवरं अन्ने खंता शिष्यों की अनुयोग ग्रहण करने में अलसता के कारण खेदखिन्न आगया। केरिसा ? वंदिए नायं 'एए आयरिया' ताहे सो आचार्य कालक स्वर्णभूमि में प्रशिष्य सागर के पास चले गए सागरो लज्जिओ 'बहुं मए इत्थ पलवियं, खमासमणा य हैं।" शय्यातर के कटु उपालम्भ से लज्जित-उदासीन शिष्यों वंदाविया।''भणियं च णेण-केरिसं खमासमणो अहं ने तत्काल अवन्ति से स्वर्णभूमि की ओर प्रस्थान कर दिया। वागरेमि? आयरिया भणंति-सुंदरं, मा पुण गव्वं विशाल श्रमण संघ को विहार करते देख लोग प्रश्न करतेकरिज्जासि।ताहे धूली-पुंजदिटुंतं करेंति।(बृभा २३९ वृ) कौन आचार्य जा रहे हैं ? शिष्य कहते-आचार्य कालक। एक बार विहरण करते हुए आचार्य कालक का पदार्पण श्रावकवर्ग ने आर्य सागर से निवेदन किया-विशाल अवन्ति में हुआ। उस समय वे वृद्धावस्था में थे और अपने परिवारसहित आचार्य कालक आ रहे हैं। अपने दादा गुरु के शिष्य वर्ग को अत्यंत जागरूकता के साथ आगम-वाचना आगमन की बात सुनकर उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई। पुलकित देते थे। उनके जैसा उत्साह उनके शिष्य वर्ग में नहीं था। मन होकर आर्य सागर ने अपने शिष्य वर्ग को गुरु के आगमन सभी शिष्य आगम-वाचना ग्रहण करने में अत्यन्त उदासीन की सूचना दी और कहा-मैं उनसे कई गंभीर प्रश्न पूछकर थे। अपने शिष्यों के इस प्रमत्त भाव से आचार्य कालक समाहित होऊंगा। खिन्न हुए। वे उनको शिक्षा देने की दृष्टि से शय्यातर के शीघ्र गति से चलते हुए आचार्य कालक के शिष्य पास जाकर बोले-'मैं अपने अविनीत शिष्यों को यहां छोडकर स्वर्णभूमि में पहुंचे और आर्य सागर के अग्रवर्ती शिष्यों से इन्हें बिना सूचित किए अपने प्रशिष्य सागर के पास स्वर्ण- पूछा-आचार्य कालक यहां पधारे हुए हैं ? उत्तर मिला-एक Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोग ४० आगम विषय कोश-२ वृद्ध श्रमण के अतिरिक्त यहां कोई नहीं आया। कौन वृद्ध? अपवादसूत्र-वह सूत्र, जिसमें आचारविषयक विशेष तत्पश्चात् नवागंतुक श्रमण संघ द्वारा अभिवंदित होते देखकर विधि का प्रतिपादन हो। उत्सर्ग का प्रतिपक्षी सूत्र। द्र सूत्र आर्य सागर ने अपने दादा गुरु आचार्य कालक को पहचाना। उन्हें अपने द्वारा कुत अविनय के कारण लज्जा की अनुभति अभिषेक-आचार्यपद के योग्य मुनि। हुई। सागर ने कहा-मैंने बहुत प्रलाप किया है, वंदना करवा अभिषेकः सूत्रार्थतदुभयोपेत आचार्यपदस्थापनार्हः। कर क्षमाश्रमण की आशातना की है, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या (बृभा ४३३६ की वृ) हो, फिर विनम्र स्वरों में पूछा-क्षमाश्रमण! क्या मैं अनुयोग जो सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ का ज्ञाता है, आचार्यपद पर वाचना उचित प्रकार से दे रहा था? आचार्य कालक ने प्रतिष्ठित करने योग्य है, वह अभिषेक कहलाता है। धूलिपुंज के उपमान से बताया-तुम्हारा अनुयोग सम्यक् है, पर गर्व मत करना। * अभिषेक : उपाध्याय द्रसंघ ० धूलिदृष्टांत अभ्युद्यत मरण-प्रशस्त अनशनत्रयी। द्र अनशन धूली हत्थेण घेत्तुं तिसुट्ठाणेसु ओयारेंति-जहा अभ्युद्यत विहार-जिनकल्प आदि की साधना का एस धूली ठविज्जमाणी उखिप्पमाणी यसव्वत्थ परिसडइ, प्रयोग। . द्र जिनकल्प एवं अत्थो वि तित्थगरेहिंतो गणहराणं गणहरेहिंतो जाव अम्हं आयरि-उवज्झायाणं परंपरएणं आगयं, को जाणइ __ अर्थकल्पिक-आवश्यक से लेकर सूत्रकृतांग तक के कस्स केइ पज्जाया गलिया? ता मा गव्वं काहिसि। ताहे आगमों के अर्थ का ज्ञाता। द्र श्रुतज्ञान 'मिच्छा दुक्कडं' करित्ता आढत्ता अज्जकालिया सीसपसीसाण अणुओगं कहेउं। (बृभा २३९ की वृ) __ अवग्रह-अधिकृत वस्तु, क्षेत्र आदि। स्थान आदि का अनुज्ञापूर्वक ग्रहण। ___ ज्ञान अनन्त है। जैसे मुष्टि-भर धूल राशि को एक स्थान से दूसरे स्थान पर एवं दूसरे स्थान से तीसरे स्थान पर १. अवग्रहकल्पिक रखते-उठाते समय वह न्यून से न्यूनतर होती जाती है, वैसे | २. अवग्रह के पांच प्रकार ३. अवग्रह-प्राधान्य और पूर्व-अभिनव अनुज्ञा ही तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित अर्थ गणधरों को, गणधरों से ४. प्रत्येक अवग्रह के चार प्रकार आचार्य परम्परा को यावत् हम आचार्य-उपाध्यायों को प्राप्त ५. द्रव्य अवग्रह हुआ है। कौन जाने किस अनयोग के कितने पर्याय गलित * शक्रेन्द्र-ईशानेन्द्र का क्षेत्रावग्रह द्र देव हो गए? इसलिए गर्व मत करना। सागर ने कहा-मेरा ६. चक्रवर्ती का क्षेत्रावग्रह दुष्कृत मिथ्या हो। तब आचार्य कालक शिष्य-प्रशिष्यों को ७. गृहपति-शय्यातर-साधर्मिक का क्षेत्रावग्रह अनुयोग देने में प्रवृत्त हुए। ८. सात अवग्रह-प्रतिमाएं ९. इन्द्र और चक्री का कालावग्रह अनुशिष्टि-स्व-पर को अथवा दोनों को अनुशासित १०. मुनि के वृद्धवास आदि का कालावग्रह संबोधित और प्रशिक्षित करना। स्तुति * वर्षावास का उत्कृष्ट अवग्रहकाल द्र पर्युषणाकल्प करना। द्र वैयावृत्त्य |११. भाव अवग्रह : मनसा-वाचा अनुज्ञा १२. अवग्रह (आभवद् व्यवहार): अधिकारी-अनधिकारी | अपरिणामक-वह व्यक्ति जो, आगमोक्त विषय पर * वाचना और क्षेत्रावग्रह श्रद्धा नहीं करता। द्र अंतेवासी * पृच्छा और अवग्रह द्र वाचना Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ १. अवग्रहकल्पिक पढितेय कहिय अहिगय, परिहरति... कप्पितो सो उ।..... (बृभा ४१६ वृ) अवग्रहकल्पिकः "सूत्रमत्र आचारद्वितीयश्रुतस्कन्धस्य सप्तमम् अवग्रहप्रतिमानामकमध्ययनम् । (बृभा ६६९ की वृ) जिसने आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कंध (आचारचूला) के ‘अवग्रह प्रतिमा' नामक सातवें अध्ययन को पढ़ा है, उसके को सुना है, अभ्यास किया है, उस पर श्रद्धा की है और उसके अनुरूप अवग्रह का परिभोग करता है, वह अवग्रहकल्पक है। २. अवग्रह के पांच प्रकार ......पंचविहे ओग्गहे पण्णत्ते, तं जहा- देविंदोग्गहे, रायोग्गहे, गाहावइ - ओग्गहे, सागारिय-ओग्गहे, साहम्मियओग्गहे । (आचूला ७/५७) देवेन्द्रः:- शक्र ईशानो वा, स यावतः क्षेत्रस्य प्रभवति तावान् देवेन्द्रावग्रहः । राजा- - चक्रवर्त्तिप्रभृतिको महर्द्धिकः पृथ्वीपतिः, स यावतः षट्खंडभरतादेः क्षेत्रस्य प्रभुत्वमनुभवति तावान् राजावग्रहः । गृहपतिः - सामान्यमण्डलाधिपतिः तस्याप्याधिपत्यविषयभूतं यद् भूमिखण्डं स गृहपत्यवग्रहः । सागारिकः - शय्यातरः, तस्य सत्तायां यद् गृहपाटकादिकं ससागारिकावग्रहः । साधर्मिकाः समानधर्माण: साधवः, तेषां संबंधि सक्रोशयोजनादिकं यद् आभाव्यं क्षेत्रं स साधर्मि(बृभा ६६९ की वृ) कावग्रहः । अवग्रह के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. देवेन्द्र - अवग्रह - शक्र और ईशान का प्रभुत्व - क्षेत्र । २. राज- अवग्रह - चक्रवर्ती आदि महर्द्धिक भूपति का प्रभुत्वक्षेत्र । ३. गृहपति - अवग्रह - सामान्य मण्डलाधिपति का आधिपत्यक्षेत्र | ४१ ४. सागारिक- अवग्रह - शय्यातर का अधिकृत क्षेत्र । ५. साधर्मिक - अवग्रह - समानधर्मा साधुओं का आभाव्य-क्षेत्र । अवग्रह ३. अवग्रह- प्राधान्य और पूर्व अभिनव अनुज्ञा हेट्ठिल्ला उवरिल्लेहिं बाहिया न उ लहंति पाहनं । पुव्वाणुन्नाऽभिनवं च चउसु भय पच्छिमेऽभिनवा ॥ राजावग्रहे राजैव प्रभवति न देवेन्द्रः, ततो देवेन्द्रेणानुज्ञातेऽप्यवग्रहे यदि राजा नानुजानीते तदा न कल्पते तदवग्रहे स्थातुम् ; - अथानुज्ञातो राज्ञा स्वविषयावग्रहः परं न गृहपतिना, ततस्तदवग्रहेऽपि न युज्यतेऽवस्थातुम्; एवमुपरितनैरधस्तना बाध्यन्ते ।" "यो यदावग्रहार्थं साधर्मिकमुपसम्पद्यते स सर्वोऽपि तदानीं तमनुज्ञाप्यैवावतिष्ठते नान्यथेत्यभिनवानुज्ञैवैका । (बृभा ६७० वृ) पूर्व - पूर्व अवग्रह उत्तर- उत्तर अवग्रह से क्रमशः बाधित है। (यथा- राजावग्रह में राजा ही प्रभु है, देवेन्द्र नहीं । देवेन्द्र द्वारा अनुज्ञात होने पर भी राजा की अनुमति के बिना मुनि उसके क्षेत्र में नहीं रह सकते। इसी प्रकार क्रमशः राजा, गृहपति और शय्यातर द्वारा अनुज्ञात क्षेत्र में साधर्मिक की अनुमति के बिना नहीं रहा जा सकता।) अतः किसी भी अवग्रह को एकांततः प्राधान्य प्राप्त नहीं है । प्रथम चार अवग्रहों में पूर्व और अभिनव अनुज्ञा की भजना है तथा अंतिम साधर्मिक अवग्रह में अभिनव अनुज्ञा ही होती है, पूर्व अनुज्ञा नहीं । ( पूर्व समागत साधुओं द्वारा अनुज्ञापित जो अवग्रह है, पश्चात् आगन्तुक पुनः अनुज्ञा लिए बिना ही उस अवग्रह का परिभोग करते हैं - यह पूर्वानुज्ञा है । यथाचिरंतन साधुओं ने जिस अवग्रह की देवेन्द्र से अनुज्ञा ली, वार्तमानिक साधु उसी पूर्वानुज्ञा का अनुवर्तन करते हैं। जब अन्य देवेन्द्र उपपन्न होता है, तब तत्कालवर्ती साधु उसके अवग्रह की अनुज्ञा लेते हैं - यह उनकी अभिनव अनुज्ञा है, अपर साधुओं की पूर्व अनुज्ञा है ।) जद्दिवसं समणा निग्गंथा सेज्जा- संथारयं विप्पजहंति, तद्दिवसं अवरे समणा निग्गंथा हव्व मागच्छेज्जा ॥ अथ या इत्थ केइ उवस्सयपरियावन्ने अचित्ते परिहरणारिहे, सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइअहालंदमवि ओग्गहे ॥ ( क ३/२८, २९) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवग्रह ४२ आगम विषय कोश-२ जिस दिन श्रमण-निग्रंथ शय्या-संस्तारक छोडकर का तिर्यग् अवग्रह है (दिगविजय यात्रा करता हआ चक्रवर्ती विहार कर रहे हों, उसी दिन दूसरे श्रमण-निग्रंथ आ जाएं मागध आदि तीर्थों में अपना नामांकित बाण छोड़ता है। वह तो उसी पूर्व गृहीत आज्ञा से यथालंदकाल (कल्पनीय बाण पूर्वी, दक्षिणी और पश्चिमी समुद्रों में बारह योजन तक समय) तक वहां रह सकते हैं। जाता है, यह चक्री का तिर्यग् अवग्रह है)। वही बाण जब यदि उपयोग में आने योग्य कोई अचित्त उपकरण चक्रवर्ती चुल्लहिमवत्-कुमारदेव को साधने के लिए छोड़ता उपाश्रय में हो तो उसका भी उसी पर्व की आज्ञा से उपयोग है, तब वह ऊर्ध्व दिशा में बहत्तर योजन तक जाता है-यह किया जा सकता है। चक्रवर्ती का ऊर्ध्व अवग्रह है। अधोलोक के ग्राम, गर्त, ४. प्रत्येक अवग्रह के चार प्रकार : क्षेत्रप्राधान्य वापी, कूप आदि चक्रवर्ती का अधः अवग्रह है। दव्वाई एक्केक्को, चउहा खित्तं तु तत्थ पाहन्ने। जम्बूद्वीप की पश्चिम विदेह में नलिनावती और वप्रा नाम की दो विजय हैं। उनमें हजार योजन की गहराई वाले तत्थेव य जे दव्वा, कालो भावो अ सामित्ते॥ अधोलोकग्राम हैं। जो चक्रवर्ती उन ग्रामों में उत्पन्न होते हैं, (बृभा ६७१) अधोलोकग्राम केवल उन्हीं का उत्कृष्ट अधः क्षेत्रावग्रह है, देवेन्द्र आदि प्रत्येक अवग्रह के चार प्रकार हैं-द्रव्य, अन्य चक्रवर्तियों का अधः क्षेत्रावग्रह है-गर्त्त, वापी, कूप, क्षेत्र, काल और भाव। इनमें क्षेत्र की प्रधानता है क्योंकि भूमिगृह आदि।) द्रव्य, काल और भाव क्षेत्र में ही होते हैं और क्षेत्र का कोई ७. गृहपति-शय्यातर-साधर्मिक का क्षेत्रावग्रह अधिपति भी होता है। गहवइणो आहारो, चउद्दिसिं सारियस्स घरवगडा। ५. द्रव्य अवग्रह हेट्ठा अघा-ऽगडाई, उर्दु गिरि-गेहधय-रुक्खा ॥ चेयणमचित्त मीसग, दव्वा खलु उग्गहेसु एएसु। ___ साधर्मिकाणां तु क्षेत्रावग्रह उत्कृष्टः बृहद्भाष्ये जो जेण परिग्गहिओ, सो दव्वे उग्गहो होइ॥ इत्थमभिहितः (बृभा ६८१) खित्तोग्गहो सकोसं, जोयण साहम्मियाण बोधव्वं। देवेन्द्र आदि के क्षेत्र में जो सचित्त, अचित्त और छद्दिसि जा एगदिसिं, उज्जाणं वा मडंबाई॥ मिश्र द्रव्य होते हैं और जो जिसके द्वारा परिगृहीत होते हैं, (बृभा ६७६ वृ) वह उससे संबंधित द्रव्य अवग्रह है। गृहपति (मंडलेश्वर) का चारों दिशाओं में जितना ६. चक्रवर्ती का क्षेत्रावग्रह प्रभुत्व क्षेत्र है, उतना उसका उत्कृष्ट तिर्यग-अवग्रह है। सरगोयरो अ तिरियं, बावत्तरिजोयणाई उई त। शय्यातर का उत्कृष्ट तिर्यग्-अवग्रह है घर की परिधि। दोनों का अधः अवग्रह है-गर्त, कप, वापी आदि। अहलोगगाम-अघमाइ हेट्टओ चक्किणो खित्तं॥ दोनों का ऊर्ध्व अवग्रह है-पर्वत, गृहध्वज और वृक्ष। जम्बूद्वीपापरविदेहवर्त्तिनलिनावती-वप्राभिधान साधर्मिक का उत्कृष्ट क्षेत्रावग्रह बृहद्भाष्य में अभिहित विजययुगलसमुद्भवा योजनसहस्रोद्वेधाः समयप्रसिद्धा है-छहों दिशाओं यावत् एक दिशा में सक्रोश योजन (पांच येऽधोलोकग्रामास्तेषु ये चक्रवर्तिनः समुत्पद्यन्ते तेषां त कोस) तथा मडंब. ग्राम आदि का उद्यान पर्यंत क्षेत्र। एवाधः क्षेत्रावग्रहः, तदपरेषां तुग"-कूप-भूमिगृहादिकम्। से गामंसि वा जाव सन्निवेसंसि वा कप्पइ निग्गंथाण _ (बृभा ६७५ वृ) वा निग्गंथीण वा सव्वओ समंता सकोसं जोयणं ओग्गहं चक्रवर्ती के बाण का जितना विषय है, वह चक्रवर्ती ओगिण्हित्ताणं चिट्ठित्तए परिहरित्तए॥ (क ३/३४) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४३ अवग्रह मूलग्रामादेकैकस्यां दिशि योजनार्द्धमर्द्धक्रोशेन अहावरा पंचमा पडिमा-जस्स णं भिक्खुस्स एवं समधिकं तावदवग्रहो भवति, स च पूर्वा-ऽपराभ्यां भवइ "अहं च खलु अप्पणो अट्ठाए ओग्गहं ओगिहिदक्षिणोत्तराभ्यां वा कृत्वा सक्रोशं योजनं भवति, यद्वा स्सामि".... गतिप्रत्यागतिभ्यामेकस्यामपि दिशि (सक्रोश ) योजनं अहावरा छट्ठा पडिमा-से भिक्खू वा भिक्खुणी मन्तव्यम्। (बृभा ४८४५ की वृ) वा जस्सेव ओग्गहे उवल्लिएज्जा, जे तत्थ अहासमण्णा गए"तणे वा, कुसे वा, कुच्चगेवा, पिप्पले वा, पलाले ___साधु और साध्वियां ग्राम यावत् सन्निवेश में सब वा। तस्स लाभे संवसेज्जा, तस्स अलाभे उक्कुडुए वा, दिशाओं तथा चारों विदिशाओं में सक्रोश योजन (पांच णेसज्जिए वा विहरेज्जा कोस) अवग्रह ग्रहण कर रह सकते हैं, उसका उपयोग अहावरा सत्तमा पडिमा-से भिक्खू वा भिक्खुणी कर सकते हैं। वाअहासंथडमेव ओग्गहंजाएज्जा, तंजहा-पुढविसिलवा, मूल ग्राम से एक-एक दिशा में ढाई कोस का अवग्रह होता है। वह पूर्व-पश्चिम अथवा दक्षिण-उत्तर में पांच कोस कट्ठसिलं वा अहासंथडमेव, तस्स लाभे संवसेज्जा, तस्स अलाभे उक्कुडुओ वा, णेसज्जिओ वा विहरेज्जा..। का हो जाता है। एवंभूतः प्रतिश्रयो मया ग्राह्यो नान्यथाभूतः"प्रथमा अथवा गति-प्रत्यागति में (जाकर पनः आने पर) प्रतिमा सामान्येन द्वितीयाः गच्छान्तरगतानां साधूनां एक दिशा में भी पांच कोस का अवग्रह मानना चाहिए। साम्भोगिकानामसांभोगिकानां चोद्युक्तविहारिणां...। ८. सात अवग्रह-प्रतिमाएं ततीया..."अहालन्दिकानां, यतस्ते सत्रार्थविशेषमाचार्याअह भिक्खूजाणेज्जा इमाहिं सत्तहिं पडिमाहिं ओग्गहं दभिकांक्षन्त आचार्यार्थ याचन्ते।चतुर्थी "गच्छएवाभ्युद्यतओगिण्हित्तए॥ विहारिणां जिनकल्पाद्यर्थं परिकर्म कुर्वताम्। पंचमी.. तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा-से आगंतारेसु वा, जिनकल्पिकस्य।षष्ठी"जिनकल्पिकादेः। सप्तमी-एषैव आरामागारेसु वा, गाहावइकुलेसु वा, परियावसहेसु वा पूर्वोक्ता। (आचूला ७/४८-५५ वृ) अणुवीइओग्गहंजाएज्जा-जेतत्थ ईसरे, जे तत्थ समहिलाए, ते ओग्गहं अणुण्णविज्जा। कामं खलु आउसो! अहालंदं ___ भिक्षु इन सात प्रतिमाओं-अभिग्रहविशेष से अवग्रहअहापरिणायंवसामो "तेण परंविहरिस्सामो-पढमा पडिमा। ग्रहण करे। अहावरा दोच्चा पडिमा-जस्स णं भिक्खुस्स एवं उनमें यह पहली प्रतिमा-वह अतिथिगृह, आरामगृह, भवइ "अहं च खलु अण्णेसिं भिक्खूणं अट्ठाए ओग्गहं गृहपतिगृह अथवा मठों में विवेकपूर्वक अवग्रह को जाने-जो ओगिहिस्सामि, अण्णेसिंभिक्खणं ओग्गहे ओग्गहिए वहां का स्वामी या प्रबन्धक (अधिष्ठाता) हो, उसकी अवग्रहउवल्लिस्सामि"...... अनुज्ञा ले। उससे कहे-आयुष्मन् ! जितने काल तक जितने अहावरा तच्चा पडिमा-जस्स णं भिक्खुस्स एवं क्षेत्र में रहने की अनुज्ञा है, उतने काल तक उसमें रहेंगे. भवइ "अहं च खलु अण्णेसिं भिक्खूणं अट्ठाए ओग्गहं तत्पश्चात् विहार करेंगे। ओगिहिस्सामि, अण्णेसिंभिक्खूणंच ओग्गहे ओग्गहिए दूसरी प्रतिमा-जिस भिक्षु को ऐसा संकल्प होता णो उवल्लिस्सामि"....... है- 'मैं अन्य भिक्षुओं के लिए अवग्रह ग्रहण (स्थान की ___ अहावरा चउत्था पडिमा-जस्स णं भिक्खुस्स एवं याचना) करूंगा, अन्य भिक्षुओं के अवग्रह ग्रहण करने पर भवइ "अहं च खलु अण्णेसिं भिक्खूणं अट्ठाए ओग्गहं रहूंगा।' णो ओगिहिस्सामि, अण्णेसिं च ओग्गहे ओग्गहिए __तीसरी प्रतिमा-जिस भिक्षु को ऐसा संकल्प होता हैउवल्लिस्सामि'"... 'मैं दूसरे भिक्षुओं के लिए अवग्रह ग्रहण करूंगा, किन्तु दूसरों Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवग्रह ४४ आगम विषय कोश--२ के द्वारा अवगृहीत अवग्रह में नहीं रहूंगा।' चक्कवट्टिउग्रहो जहण्णेणं सत्त वाससया बंभचौथी प्रतिमा-जिस भिक्षु को ऐसा संकल्प होता दत्तस्स, उक्कोसेणंचउरासीइपुव्वसयसहस्साइं भरहस्स। है-'मैं दूसरे भिक्षुओं के लिए अवग्रह ग्रहण नहीं करूंगा, (बृभा ६८२, ६८३ वृ) दूसरों द्वारा अवगृहीत अवग्रह में रहूंगा। देवेन्द्र शक्र का कालावग्रह दो सागरोपम का होता है पांचवीं प्रतिमा-जिस भिक्षु को ऐसा संकल्प होता क्योंकि शक्रेन्द्र की आयु स्थिति दो सागरोपम की है। है-'मैं अपने लिए अवग्रह ग्रहण करूंगा। चक्री-अवग्रह-जघन्य अवग्रह ब्रह्मदत्त चक्री का सात सौ छठी प्रतिमा-वह भिक्षु अथवा भिक्षुणी जिसके अवग्रह वर्ष का तथा उत्कृष्ट अवग्रह भरत चक्रवर्ती का चौरासी में रहे, वहां तृण, कुश, कुर्चक, पिप्पल या पलाल से निर्मित लाख पूर्व वर्ष का है। संस्तारक उपलब्ध हो, उसके प्राप्त होने पर संवास करे, उसके शेष नृपति, गृहपति तथा शय्यातर का जघन्य अवग्रह प्राप्त न होने पर उत्कटक या निषद्या आसन में विहरण करे अन्तर्मुहूर्त का है। उत्कृष्ट अवग्रह वैकल्पिक है (जिसकी बैठे। जितनी आयु है या जितने समय तक राज्य करता है, उतना सातवी प्रतिमा-वह भिक्षु या भिक्षुणी यथासंस्तृत उत्कष्ट कालावग्रह है)। अवग्रह की ही याचना करे, जैसे पृथ्वीशिला या काष्ठशिला साधर्मिक का ऋतुबद्धकाल में जघन्य अवग्रह एक यथासंस्तुत हो, उसके मिलने पर संवास करे, उसके न मास तथा वर्षावास में उत्कृष्ट अवग्रह चार मास है । ग्लानमिलने पर उत्कटक या नैषधिक आसन में विहरण करे- सेवा आदि विशेष प्रयोजन होने पर इसमें न्यनाधिकता भी हो बैठे। सकती है। अमुक प्रकार का स्थान मेरे लिए ग्राह्य है, अन्य (इस विषय में शिष्य ने प्रश्न किया-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती प्रकार का नहीं-यह प्रतिमा सामन्य है। ने कुमार अवस्था में अट्ठाईस वर्ष, मांडलिक रूप में छप्पन वर्ष, दूसरी प्रतिमा गच्छवर्ती साम्भोजिक और उद्यक्तविहारी दिगविजय में सोलह वर्ष व्यतीत कर केवल छह सौ वर्षों तक असांभोजिक साधुओं की अपेक्षा से है, क्योंकि वे परस्पर एक- चक्रवर्ती पद का उपभोग किया था। इसी प्रकार भरत चक्रवर्ती दूसरे के लिए अवग्रह की याचना करते हैं। भी सतहत्तर लाख पूर्व तक कुमारावस्था में तथा हजार वर्ष तक तीसरी प्रतिमा यथालंदिक साधुओं की अपेक्षा से है। मांडलिक के रूप में रहे। साठ हजार वर्ष विजययात्रा में व्यतीत क्योंकि वे आचार्य से सत्रार्थ विशेष की वाचना लेना चाहते हैं कर फिर कुछ न्यून छह लाख वर्ष तक चक्रवर्तित्व का उपभोग तो उनके लिए अवग्रह ग्रहण करते हैं। किया था। तब ब्रह्मदत्त सात सौ वर्ष और भरत चौरासी लाख चौथी प्रतिमा उन अभ्युद्यतविहारी साधुओं के लिए पूर्व तक चक्रवर्ती रहे-यह कैसे कहा जा सकता है? । है, जो गच्छ में रहकर जिनकल्प आदि स्वीकार करने से पूर्व आचार्य कहते हैं-योग्यता की दृष्टि से भरत आदि परिकर्म करते हैं। जन्म से ही चक्रवर्ती होते हैं। चक्रवर्ती के उत्पन्न होते ही पांचवीं प्रतिमा जिनकल्पी साधु की अपेक्षा से है। छठी उसके प्रभावक्षेत्र के निवासी देव यह जानकर हर्ष मनाते हैं कि समस्त पृथ्वी का स्वामी उत्पन्न हो गया है। वे देव चक्री और सातवीं प्रतिमा जिनकल्पिक आदि की अपेक्षा से है। की भाग्य-संपदा आदि से आकृष्ट हो सब प्रकार की अनुकूलताएं ९. इन्द्र और चक्री का कालावग्रह आपादित करने में तत्पर तथा उसकी विजय के अभिलाषी दो सागरा उ पढमो, चक्की सत्त सय पुव्व चुलसीई। बने हुए शत्रुओं द्वारा उत्पन्न बाधाओं का निरसन करने में सेसनिवम्मि मुहत्तं, जहन्नमुक्कोसए भयणा॥ प्रवृत्त होते हैं, अतः यथोक्त कालावग्रह समीचीन ही है एवं गहवइ-सागारिए वि चरिमे जहन्नओ मासो। अथवा उपयोग उपयुक्त बहुश्रुत इस कथन का अन्य प्रकार से उक्कोसो चउमासा, दोहि वि भयणा उ कज्जम्मि॥ निर्वचन कर सकते हैं। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ चक्रवर्ती के अतिरिक्त शेष नृपति का जघन्य कालावग्रह अन्तर्मुहूर्त्त का है क्योंकि राज्याभिषेक के अन्तर्मुहूर्त्त पश्चात् भी वे मृत्यु को प्राप्त हो सकते हैं अथवा राज्यपद से च्युत भी हो सकते हैं । — बृभा ६८२ की वृ) १०. मुनि के वृद्धवास आदि का कालावग्रह केवतिकालं उग्गह, तिविधो उउबद्ध वास वुड्ढे य। मास - चउमासवासे, गेलणे सोलमुक्कोसो॥ (व्यभा २२५५) काल- अवग्रह के तीन प्रकार हैं १. ऋतुबद्धकाल -- सामान्यतः एक मास । २. वर्षाकाल - चार मास । ग्लान होने पर सोलह मास का अवग्रह है। कुछ आचार्य सोलह वर्ष भी मानते हैं। ३. वृद्धवास - जो क्षीण जंघाबली वृद्ध मुनि होता है, उसका प्रवास वृद्धवास कहलाता है। अथवा रोग के कारण वृद्धिंगत वास वृद्धवास है। ११. भाव अवग्रह : मनसा वाचा अनुज्ञा चरो ओदइअम्मी, खओवसमियम्मि पच्छिमो होइ । मणसी करणमणुन्नं च जाण जं जत्थ ऊ कमइ ॥ देवेन्द्र-राजावग्रहयोर्मनसैवानुज्ञापनं करोति, गृहपत्यवग्रहस्य मनसा वा वचसा वा, सागारिकसाधर्मिकावग्रहयोर्नियमाद् वचसाऽनुज्ञापना, यथाअनुजानीतास्माकं शय्यां वस्त्र - पात्र - शैक्षादिकं वा । (बृभा ६८४ वृ) ४५ (वृद्धवास का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त्त (वास के अन्तर्मुहूर्त्त पश्चात् मृत्यु होने की स्थिति में), उत्कृष्ट काल गृहिपर्याय के नौ वर्ष कम पूर्वकोटि । कोई (नौ वर्ष का दीक्षा ले और) दीक्षित होते ही प्रतिकूल कर्मोदयवश जंघाबल की क्षीणता या रोग के कारण विहार करने में असमर्थ हो जाये, उसका पूर्वकोटि कालमान है। वृद्धवास का यह उत्कृष्ट कालपरिमाण अर्हत् ऋषभ के तीर्थ की अपेक्षा से कहा गया है। जिस तीर्थंकर के शासनकाल में जितनी उत्कृष्ट आयु होती है, उतना उत्कृष्ट (नौ वर्ष कम ) वृद्धवासकाल हो सकता है ।) 1 अवग्रह देवेन्द्र, राजा, गृहपति और शय्यातर - इन चारों का अवग्रह औदयिक भाव है, क्योंकि इनमें 'यह मेरा क्षेत्र है ' - इस रूप में मूर्च्छा का सद्भाव रहता है, जो कषाय मोहकर्मोदयजन्य है। साधर्मिक का अवग्रह मूर्च्छा के अभाव के कारण क्षायोपशमिक भाव है, यह भाव अवग्रह 1 अणुजाणह जस्स ओग्गहं- जिसका स्थान है, उसकी आज्ञा है - इस रूप में अवग्रह का मन में ही अनुज्ञापन करना अथवा वचन से अनुज्ञापन करना अनुज्ञा है । जिस अवग्रह में जिसका अवतरण होता है, उसे जानो। यथा— देवेन्द्र और राजा के अवग्रह की मन से ही अनुज्ञा ली गृहपति के अवग्रह की अनुज्ञा मन से अथवा वचन से ली जाती है । शय्यातर और साधर्मिक के अवग्रह की नियमतः वचन से अनुमति ली जाती है। जैसे- हमें शय्या, वस्त्र, पात्र, शैक्ष आदि के ग्रहण की अनुमति दें। १२. अवग्रह (आभवद्व्यवहार) : अधिकारी - अनधिकारी किं उग्गहो त्ति भणिए, उग्गहतिविधो उ होति चित्तादी । एक्केक्को पंचविधो, देविंदादी मुणेयव्वो ॥ कस्स पुण उग्गहो त्ती, परपासंडीण उग्गहो नत्थि । निहोसन्ने संजति, अगीते य गीत एक्के वा ॥ ओसण्णाण बहूण वि, गीतमगीताण उग्गहो नत्थि । सच्छंदियगीताणं, असमत्त अणीसगीते वि ॥ एवं वा सावेक्खे, निरवेक्खाणं पि उग्गहो नत्थि । मोत्तूण अधालंदे, तत्थ वि जे गच्छपडिबद्धा ॥ आसन्नतरा जे तत्थ, संजता सो व जत्थ नित्थरति । तहियं देंतुवदेसं, आयपरं ते न इच्छंति ॥ अगीत समणा संजति, गीतत्थपरिग्गहाण खेत्तं तु । अपरिग्गहाण गुरुगा, न लभति सीसेत्थ आयरिओ ॥ गीतत्थागत गुरुगा, असती एगाणिए वि गीतत्थे । समुसरण नत्थि उग्गह, वसधीय उ मग्गणऽक्खेत्ते ॥ सेसं सकोसजोयण, पुव्वग्गहितं तु जेण तस्सेव । समगोग्गह साधारं, पच्छागत होति अक्खेत्ती ॥ (व्यभा २२१६ - २२२३ ) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवग्रह ४६ - अवग्रह (आभवद् व्यवहार) के तीन प्रकार हैंसचित्त, अचित्त, मिश्र । प्रत्येक के पांच-पांच प्रकार हैं- देवेन्द्रावग्रह, नरेन्द्रावग्रह, माण्डलिकावग्रह, शय्यातरावग्रह और साधर्मिकावग्रह | निम्नांकित व्यक्ति अवग्रह के लिए अधिकृत नहीं हैं - परपाषंडी, निह्नव, बहुत से अवसन्न गीतार्थ, गीतार्थ से अपरिगृहीत साध्वियां, गीतार्थनि श्राविहीन अगीतार्थ, स्वच्छन्दविहारी एकाकी गीतार्थ, असमाप्तकल्प ( पर्याप्त सहयोगियों से रहित) असमर्थ गीतार्थ वाला समुदाय - इन सब सापेक्षस्थविरकल्पियों का अवग्रह नहीं होता। निरपेक्ष - जिनकल्पिक, गच्छ-अप्रतिबद्ध यथालंद आदि का भी अवग्रह नहीं होता । गच्छप्रतिबद्ध यथालंद का अवग्रह होता है। गच्छनिर्गत जिनकल्पी आदि के पास कोई दीक्षार्थी आता है तो वे स्वयं उसे दीक्षित नहीं करते - यह उनका कल्प है। उसे प्रव्रज्या के लिए निकटवर्ती साधुओं के पास जाने का उपदेश देते अथवा यदि वे श्रुतबल से यह जान लेते हैं कि अमुक के पास इसका अनल्प हित होगा तो उसे उस दूरवर्ती साधु के पास जाने का उपदेश देते हैं। वस्तुतः जिनकल्पिक आदि को स्वगच्छ और परगच्छ का विभाग मान्य नहीं है। तार्थनिश्रित गीतार्थ साधु-साध्वियों का क्षेत्र अवग्रह होता है। गीतार्थ अनिश्रित विहार करने वाले अगीतार्थ चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। गीतार्थ अनिश्रितों का जो प्रव्रज्या आचार्य होता है, उसके अपने द्वारा दीक्षित शिष्य भी उसके निश्रित नहीं होते । जहां सब अगीतार्थ हों, वहां कोई गीतार्थ आये तो उसकी उपसम्पदा स्वीकार न करने पर गुरु प्रायश्चित्त आता है। कारणवश एकाकी गीतार्थ का भी अवग्रह होता है। जहां जितने दिन समवसरण आदि हो, उतने दिन अवग्रह नहीं होता । अक्षेत्र में भी वसति अवग्रह की मार्गणा होती है। अक्षेत्र की वसति में यदि एक साथ आकर कई साधु रहते हैं तो उन सबका समान अवग्रह होता है, बाद में आने वाला अक्षेत्र होता है - वह क्षेत्र उसके अधिकार में नहीं होता। अवग्रह का प्रमाण पांच कोस है । आगम विषय कोश - २ द्र श्रमण अवसन्न - वह श्रमण, जो आवश्यक, स्वाध्याय आदि विधिपूर्वक नहीं करता और गृहस्थप्रतिबद्ध होता है। असमाधिस्थान – असमाधि उत्पन्न करने वाले स्थानद्र सामाचारी अस्थितकल्प- - वह आचार व्यवस्था, जो प्रथम और कारण । चरम तीर्थंकर के अतिरिक्त मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शासनकाल में अनिवार्य नहीं थी । द्र कल्पस्थिति अस्वाध्याय - वह कालखंड और परिस्थिति, जिसमें आगम स्वाध्याय निषिद्ध हो । द्र. स्वाध्याय आगम -आप्तवचन। गणधरों एवं स्थविरों द्वारा रचित श्रुत ग्रंथ । - १. आगम के प्रकार २. अंग आदि का सार ३. आचारांग के पर्याय ४. आचारंग की प्राथमिकता क्यों ? ] • आचारांग वाचना की प्राथमिकता * उत्क्रम से वाचना का निषेध * दृष्टिवाद का उत्सारण क्यों ? ५. आचारधर: पहला गणिस्थान ६. अंगप्रविष्ट और अनंगप्रविष्ट की भेदरेखा ० आदेश - मुक्तव्याकरण ७. कालिकश्रुत और दृष्टिवाद की रचनाशैली ८. श्रुत का ग्रहण - परावर्तन काल द्र स्वाध्याय * अकाल में श्रुतस्वाध्याय का पृच्छापरिमाण द्र स्वाध्याय * व्याख्याप्रज्ञप्ति आदि : योगवहन * वाचना में संयमपर्याय की काल मर्यादा द्र श्रुतज्ञान ९. गमिक - अगमिक श्रुत १०. दृष्टिवाद और छेदसूत्र : उत्तम श्रुत ११. दृष्टिवाद की सूक्ष्मता द्र उत्सारकल्प Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ १२. दृष्टिवाद में विद्यातिशय १३. दृष्टिवाद के पांच प्रस्थान १४. चतुर्दशपूर्वी की विलक्षणताएं 'चौदहपूर्वी की सेवा से महानिर्जरा 'चौदहपूर्वी तक दसों प्रायश्चित्त * चौदहपूर्वी द्वारा बालदीक्षा १५. पूर्वज्ञान : छठा - आठवां पूर्व ० नौवां - दसवां पूर्व * * पूर्वधर और आगम व्यवहार * व्यवहार : द्वादशांग का नवनीत * १६. सूत्र देवता- अधिष्ठित क्यों ? द्र छेदसूत्र * जिनकल्पी, परिहारविशुद्धिक और प्रतिमाप्रतिपन्न जघन्यतः नौ पूर्वी द्र संबद्धनाम * • सूत्र और अर्थ में बलवान् कौन ? द्र वैयावृत्त्य द्र प्रायश्चित्त द्र दीक्षा १७. अर्थधर मुनि प्रमाण १८. अर्हत् महावीर की अंतिम देशना १९. उद्घाटा पौरुषी में अंगपठन निषिद्ध क्यों ? २०. आचार, आचारचूला और निशीथ २१. आचाराग्र ( आचारचूला ) : उत्तरतंत्र २२. आचारचूला के निर्यूहणस्थल | २३. आचारचूला का निर्यूहण क्यों ? द्र व्यवहार द्र सूत्र • आचारचूला और दशवैकालिक में समानता * आचारचूला और निशीथ का संबंध द्र छेदसूत्र २४. आचाराग्र का समवतार * आचार आदि समवसरण १. आगम के प्रकार आगमो तिविहो – अत्तागमो अणंतरागमो, परंपरागमो । ....... तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे । गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे । अत्थस्स अणंतरागमे । गणहरसिस्साणं सुत्तस्स अणंतरागमे, अत्थस्स परंपरागमे । तेण परं सेसाणं सुत्तस्स वि अत्थस्सवि णो अत्तागमे, णो अणंतरागमे, परंपरागमे । ( निभा १ की चू) द्र समवसरण आगम के तीन प्रकार हैं- आत्मागम, अनंतरागम और परंपरागम । तीर्थंकरों के लिए अर्थ आत्मागम है। गणधरों के ४७ आगम लिए सूत्र आत्मागम और अर्थ अनंतरागम है। गणधरशिष्यों के लिए सूत्र अनंतरागम और अर्थ परंपरागम है। उनके बाद शेष सबके लिए सूत्र और अर्थ दोनों ही न आत्मागम हैं और न अनंतरागम हैं । वे परंपरागम हैं । २. अंग आदि का सार अंगाणं किं सारो ? आयारो तस्स किं हवति सारो । अणुयोगत्थो सारो, तस्स वि य परूवणा सारो ॥ सारो परूवणाए, चरणं तस्स वि य होइ निव्वाणं । निव्वाणस्स य सारो, अव्वाबाहं जिणा बेंति ॥ (आनि १६, १७) अंगों का सार क्या है ? वह है आचार । उसका सार क्या है ? वह है अनुयोगार्थ - व्याख्यानभूत अर्थ । उसका सार है प्ररूपणा । प्ररूपणा का सार है - चारित्र । चारित्र का सार है - निर्वाण और निर्वाण का सार है - अव्याबाध (सुख)। ऐसा जिन भगवान कहते हैं । ३. आचार के पर्याय आयारो आचालो, आगालो आगरो य आसासो । आदरिसो अंगं ति य आइण्णाऽऽजाइ आमोक्खा ॥ (आनि ७) आचार के दस एकार्थक नाम हैं १. आचार - यह आचरणीय का प्रतिपादक है, इसलिए आचार 1 २. आचाल - यह निबिड बंधन को आचालित (शिथिल) करता है, इसलिए आचाल है। ३. आगाल - यह चेतना को सम धरातल में अवस्थित करता है, इसलिए आगाल है। ४. आकर - यह आत्मशुद्धि के रत्नों का उत्पादक है, इसलिए आकर है। ५. आश्वास- यह संत्रस्त चेतना को आश्वासन देने में सक्षम है, इसलिए आश्वास है । ६. आदर्श – इसमें 'इतिकर्त्तव्यता' देखी जा सकती है, इसलिए यह आदर्श है। ७. अंग - यह अन्तस्तल में स्थित अहिंसा आदि को व्यक्त Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम ४८ आगम विषय कोश-२ करता है, इसलिए अंग है। ० आचारांग वाचना की प्राथमिकता ८. आचीर्ण-इसमें आचीर्ण-धर्म का प्रतिपादन है, इसलिए जे भिक्खू णव बंभचेराई अवाएत्ता उत्तमसुयं यह आचीर्ण है। वाएति, वाएंतं वा सातिज्जति॥ (नि १९/१७) ९. आजाति-इससे ज्ञान आदि आचारों की प्रसूति होती है, जो भिक्षु नौ ब्रह्मचर्य अर्थात् आचारांग से पहले छेद इसलिए आजाति है। १०. आमोक्ष-यह बंधन-मुक्ति का साधन है, इसलिए आमोक्ष सूत्र आदि की वाचना देता है, वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। ४. आचारांग की प्राथमिकता क्यों? ५. आचारधर : पहला गणिस्थान आयारपकप्पे ऊ, नवमे पुव्वम्मि आसि सोधी य।। आयारम्मि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ। तत्तो च्चिय निज्जढो. डधाणितो एण्हि किं न भवे?॥ तम्हा आयारधरो भण्णति पढमं गणिट्ठाणं॥ पुब्विं सत्थपरिणा, अधीत-पढिताइ होउवट्ठवणा। (आनि १०) एण्हिं छज्जीवणिया, किं सा उ न होउवट्ठवणा॥ 'आचार' को पढ़ लेने पर सारा श्रमण-धर्म परिज्ञात बितियम्मि बंभचेरे, पंचमउद्देस आमगंधम्मि। हो जाता है। इसलिए आचारधर को पहला गणिस्थान (आचार्य सत्तम्मि पिंडकप्पी, इह पुण पिंडेसणा एसो॥ होने का प्रथम कारण) कहा जाता है। आयारस्स उ उवरिं उत्तरज्झयणाणि आसि पुव्वि तु। अंगप्रविष्ट और अनंगप्रविष्ट की भेदरेखा दसवेयालिय उवरिं, इयाणिं किं ते न होंति उ॥ ___ गणहर-थेरकयं वा, आदेसा मुक्कवागरणतो वा। (व्यभा १५२८, १५३१-१५३३) धव-चलविसेसतो वा, अंगा-ऽणंगेसु णाणत्तं॥ प्राचीनकाल में नौवें पूर्व में आचार प्रकल्प था, उससे आदेसा जहा अज्जमंगू तिविहं संखं इच्छइ शोधि की जाती थी-उसके आधार पर प्रायश्चित्त दिया जाता एकभवियं, बद्धाउयं, अभिमुहणामगोत्तं। अजसमुद्दा था। वर्तमान में उसी पूर्व से नियूंढ निशीथ के आधार पर क्या दुविहं-बद्धाउयं, अभिमुहणामगोत्तं च।अज्जसुहत्थी प्रायश्चित्त नहीं दिया जा सकता? एगं अभिमुहणामगोत्तं इच्छइ। प्राचीन काल में शस्त्रपरिज्ञा (आयारो का प्रथम मुक्कवागरणा जहा-वरिस देव! कुणालाए। अध्ययन) का अर्थतः अध्ययन करने पर और सूत्रतः पढ़ने पर उपस्थापना होती थी। वर्तमान में षड्जीवनिका मरुदेवा अणादिवणस्सइकातिता। एते आदेसमुक्क वागरणा अंगबाहिरा। अधवा धुवा बारसंगा। चला (दशवैकालिक के चौथे अध्ययन) के अध्ययन-पठन से क्या उपस्थापना नहीं होती? पइण्णगा-कयाइ णिज्जूहिज्जंति कताइ न।। पहले मुनि आचारांग के लोकविजय नामक दूसरे (बृभा १४४ चू) अध्ययन के पांचवें उद्देशक ब्रह्मचर्य के आमगंधि सूत्र पर्यंत यद् गणधरैः कृतं तदङ्गप्रविष्टम्। यत्पुनर्गणधर(सव्वामगंधं परिण्णाय णिरामगंधो परिव्वए २/५/१०८) कृतादेव स्थविरैर्निर्मूढम्; ये चादेशाः यथा-आर्यमङ्गसूत्रतः और अर्थतः पढ़ लेने पर पिण्डकल्पी होता था। राचार्यस्त्रिविधं शंखमिच्छति""यानि च मुक्तकानि वर्तमान में दशवैकालिक के पांचवें अध्ययन 'पिण्डैषणा' व्याकरणानि, यथा-"वर्ष देव कुणालायाम्" इत्यादि, को पढ़ लेने पर वह पिण्डकल्पी हो जाता है। तथा मरुदेवा भगवती अनादिवनस्पतिकायिका तद्भवेन पहले आचारांग के पश्चात् उत्तराध्ययन पढ़ा जाता था। सिद्धा इत्यादि, एतत्स्थविरकृतम् आदेशा मुक्तकअब दशवैकालिक के पश्चात उत्तराध्ययन पढ़ा जाता है। व्याकरणतश्च अनंगप्रविष्टम्। अथवा ध्रुव-चलविशेष Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ तोऽङ्गाऽनङ्गेषु नानात्वम् । तद्यथा - ध्रुवं अंगप्रविष्टम्, तच्च द्वादशांगम्, तस्य नियमतो निर्यूहणात् चलानि प्रकीर्ण - कानि तानि हि कदाचिन्निर्यूह्यन्ते कदाचिन्न, तान्यनङ्ग- प्रविष्टम् । (बृभा १४४ की वृ) गणधरों द्वारा रचित आगम अंगप्रविष्ट है। गणधरकृत आगमों से स्थविरों द्वारा निर्यूढ आगम अनंगप्रविष्ट हैं। अथवा आदेश और मुक्तव्याकरण अनंगप्रविष्ट हैं। • आदेश - जैसे आर्य मंगु को त्रिविध शंख मान्य हैं- एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । आर्य समुद्र को द्विविध शंख मान्य हैं - बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र। आर्य सुहस्ती केवल अभिमुखनामगोत्र शंख को मान्य करते हैं। बहुसुतमाइणं न उ, बाहियऽण्णेहि जुगप्पहाणेहिं । आदेसो सो उ भवे, अधवावि नयंतरविगप्पो ॥ (व्यभा ३८२५) जो बहुश्रुतों द्वारा आचीर्ण है और अन्य युगप्रधान आचार्यों द्वारा बाधित नहीं है, वह आदेश कहलाता है। अथवा नयान्तर (किसी अपेक्षा से कृत) विकल्प आदेश है। ० मुक्तव्याकरण- जैसे- दो उपाध्याय थे- कुरुट और उत्कुरु । किसी कारणवश रुष्ट होकर कुरुट ने कहा- देव ! कुणाला में बरसो । उत्कुरुट ने कहा- पन्द्रह दिन निरंतर बरसो । कुरुट ने कहा- मुसलाधार वर्षा करो - इतना कहकर वे साकेत चले गए। तीसरे वर्ष मरकर सातवीं नरक में उत्पन्न हुए। पन्द्रह दिन में कुणाला नगरी जलप्लावित होकर विनष्ट हो गई। कुणाला के विनाश के बारह वर्ष पश्चात् भगवान महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। • मरुदेवा अनादि वनस्पतिकायिक से उद्वृत्त होकर सिद्ध हुई । विकृत आदेश और मुक्तव्याकरण अंगबाह्य हैं। अंगप्रविष्ट - द्वादशांग नियत है, उसका नियमतः संगुम्फन होता है। अनंगप्रविष्ट - प्रकीर्णक अनियत हैं, उनका निर्यूहण कभी होता है, कभी नहीं होता । (विशेष - प्रस्तुत गाथा में आदेश और मुक्तव्याकरण - ये दो शब्द विमर्शनीय हैं। वृत्तिकार आचार्य मलयगिरि ने विभिन्न नयों अथवा द्रव्यनिक्षेप के आधार पर विकल्पित ४९ मान्यताओं का आदेश के रूप में तथा पांच सौ आदेशों का मुक्तव्याकरण के रूप में प्रतिपादन किया है और दोनों को अंगबाह्य आगम कहा है T भाष्यकार के अनुसार आदेश अंगप्रविष्ट और मुक्तव्याकरण अंगबाह्य है। विशेषावश्यक भाष्य की वृत्ति में लिखा है आगम गणधर द्वारा कृत त्रिपृच्छा के प्रत्युत्तर में तीर्थंकर का उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक जो आदेश - प्रतिवचन है, उससे निष्पन्न है अंगप्रविष्ट । प्रश्न पूछे बिना तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित अर्थ - मुक्तव्याकरण से जो निष्पन्न है, वह अंगबाह्य है गणधरपृष्टस्य तीर्थकरस्य संबंधी य आदेशः प्रतिवचनमुत्पादव्यय- ध्रौव्यवाचकं पदत्रयमित्यर्थः, तस्माद् यद् निष्पन्नं तदंगप्रविष्टं द्वादशांगमेव। 'मुत्कं मुत्कलम- प्रश्नपूर्वकं च यद् व्याकरणमर्थप्रतिपादनं, तस्माद् यद् निष्पन्नं तदंगबाह्यमभिधीयते, तच्चावश्यकादिकम् । ध्रुवं सर्वतीर्थकरतीर्थेषु नियतं निश्चयभावि श्रुतमंगप्रविष्टम्... अनियतमनिश्चयभावि तत् तंदुलवैकालिक प्रकीर्णकादि श्रुतमंगबाह्यम् । विभा ५५० की मवृ आदेशाद् - आदेशेन त्रिपृच्छोत्थं तदंगप्रविष्टं, स्थविरकृतमंगबाह्यम् । उत्कृष्टव्याकरणव्यापारमात्रोपसंहतं वा । -विभा ५५० की कोवृ आदेश शब्द का अन्यार्थ - श्रुतकरण के दो भेद हैंबद्धश्रुत और अबद्धश्रुत । द्वादशांग बद्धश्रुत है, शेष आगम अबद्धश्रुत हैं। जो पाठ अंग- उपांग में नहीं हैं, उन्हें आदेश कहा गया है । यथा श्रीविष्णु ने कुछ अधिक एक लाख योजन की विकुर्वणा की। ० • स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्यों और पद्मपत्रों के वलय संस्थान को छोड़कर शेष सब संस्थान होते हैं। ० इस प्रकार के पांच सौ आदेश सूत्रों में निबद्ध नहीं हैं। यह वृद्धसम्प्रदाय से प्राप्त है -द्र श्रीआको १ श्रुतज्ञान ० जो आचार्यपरम्परा से प्राप्त है, वृद्धवाद से आयात है, वह आदेश है, इसे ऐतिह्य कहा गया है Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आगम विषय कोश-२ . आचार्य पारम्पर्यश्रुत्यायातो वृद्धवादो यमैतिह्यमाचक्षते। अर्थापत्ति से उसकी सिद्धि हो जाती है-यह सही है, तथापि ..' आदेशः वृद्धवादायातः । आनि २६५, २६६ की वृ विपक्ष का साक्षात् कथन किया जाता है-यह कालिकश्रुत की अंगबाह्य रचनाकार-सभी तीर्थंकरों ने अर्थागम का प्रतिपादन रचना शैली है। कालिकश्रुत की रचना शैली के कुछ लक्षण ये किया। आरातीय (उत्तरवर्ती) आचार्यों ने कालदोष से प्रभावित अल्प आयु, मति और शक्ति वाले शिष्यों पर अनुग्रह कर ० व्यवहारनय-कालिकश्रुत में अर्थापत्ति का प्रयोग नहीं है। अंगबाह्य की रचना की। सर्वार्थसिद्धि, पृ ८७ उससे लब्ध अर्थ का भी शिष्यों पर अनुग्रह करने के लिए अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य का तत्त्वार्थ अर्हत ने बतलाया साक्षात् प्रतिपादन किया गया है। जैसे-उत्तराध्ययन के प्रथम और उपांग सहित द्वादशांग की रचना गणधर गौतम ने की। अध्ययन की दूसरी गाथा में आणानिद्देसकरे... विनीत का स्वरूप बताकर तीसरी गाथा में अविनीत का स्वरूप बताया -हरिवंशपुराण २/१०१, १११) गया है, जब कि अर्थापत्ति से वह स्वतः प्राप्त है। ७. कालिकश्रुत और दृष्टिवाद की रचनाशैली . अनर्पित-कालिकश्रुत में विषयविभाग की प्रधानता नहीं कामं विपक्खसिद्धी, अत्थावत्तीइ होतऽवुत्ता वि। है। सत्र में विशेष का कथन साक्षात् नहीं है, वह अर्थ से तह वि विवक्खो वुच्चति, कालियसुयधम्मता एसा।। ज्ञातव्य है। ववहार णऽत्थवत्ती, अणप्पिएण य चउत्थभासाए। . चतुर्थभाषा-असत्यामृषा भाषा अर्थात् व्यवहार भाषा को मूढणय अगमितेण य, कालेण य कालियं नेयं॥ चतुर्थभाषा कहा गया है, सत्य, मृषा, मिश्र और व्यवहार व्यवहारनयमतेन कालिकश्रुते प्रायः सूत्रार्थनिबन्धो भाषा के इन चार प्रकारों में व्यवहारभाषा चौथा प्रकार है। भवति"अपत्तिः कालिकश्रुते न व्यवह्रियते किन्तु तया आमंत्रणी, आज्ञापनी आदि उसके भेद हैं। कालिकश्रुत इस लब्धोप्यर्थः प्रपंचितज्ञविनेयजनानुग्रहाय साक्षादेवाभि- भाषा में निबद्ध है, यथाधीयते, यथा उत्तराध्ययनेषु प्रथमाध्ययने "आणानिदेसकरे" । आमंत्रणी-गोयमा! (गा. २) इत्यादिना विनीतस्वरूपमभिधायार्थापत्तिलब्ध आज्ञापनी-सव्वे पाणा ण हंतव्वा। मप्यविनीतस्वरूपम्"आणाअनिद्देसकरे"(गा. ३) इत्यादिना ० मूढनय-कालिकश्रुत मूढनयिक है। इसमें नयविभाग से भूयः साक्षादभिहितमिति"अनर्पितं विषयविभागस्यानर्पणं सब नयों के भेद-प्रभेदों द्वारा विस्तत निरूपण नहीं है। तेन कालिकश्रुतं रचितम्, विशेषाभिधानरहितमित्यर्थः.... (अपृथक्त्व अनुयोग में सब नयों का समवतार था, विशेषः सूत्रे साक्षान्नोक्तः परमर्थादवगन्तव्यः'असत्यामृषा पृथक्त्व अनुयोग में सब नयों का समवतरण नहीं है मूढनइयं सुयं कालियं तु, ण णया समोयरंति इह । नाम चतुर्थभाषा भण्यते, सा चामन्त्रण्याऽऽज्ञापनीप्रभृतिस्वरूपा, तया कालिकश्रुतं निबद्धम् दृष्टिवादस्तु नैगमादि अपुहुत्ते समोयारो, णत्थि पुहुत्ते समोयारो॥ नयमतप्रतिबद्धनिपुणयुक्तिभिर्वस्तुतत्त्वव्यवस्थापकतया विभा २२७६) ० अगमिक-यह विसदृश पाठों में निबद्ध है। सत्यभाषानिबद्ध इति भावः। तथा मूढाः-विभागेना ० कालिक-जो आगम दिन-रात के प्रथम प्रहर व चरम प्रहर व्यवस्थापिता नया यस्मिन् तद् मूढनयम् ततो मूढनयत्वेन में पढे जाते हैं, वे कालिक कहलाते हैं। ग्यारह अंग कालिक कालिकं विज्ञेयम्।तथा गमाः-भंग-गणितादयः सदृशपाठा । वा तैर्युक्तंगमिकम्, तद्विपरीत- मगमिकम्, तेनागमिकत्वेन (आयारो आदि ग्यारह अंग कालग्रहण आदि की विधि कालिकश्रुतं ज्ञेयम् काले-प्रथम-चरमपौरुषीलक्षणे से पढ़े जाते हैं, अत: वे कालिक हैं। कालिकश्रुत में प्राय: पठ्यते॥ (बृभा ५२३४,५२३५ वृ) चरणकरणानुयोग का प्रतिपादन है। विभा २२९४ की वृत्ति) कालिकश्रुत-यद्यपि प्रतिपक्ष का कथन न करने पर भी दृष्टिवाद-दृष्टिवाद में नैगम आदि नयों से प्रतिबद्ध निपुण Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ युक्तियों से वस्तुतत्त्वों का निरूपण है अतः यह सत्यभाषा में निबद्ध है। से दृष्टिवाद गमिक है-भंग-गणित अथवा सदृश पाठों है । युक्त ८. श्रुत का ग्रहण - परावर्तन काल संवच्छरं च झरए, बारसवासाइ कालियसुतम्मि। ...सोलस उ दिट्टिवाए, गहणं झरणं दसदुवे य॥ (व्यभा २२९२, २२९३) कालिक श्रुत के ग्रहण में बारह वर्ष तथा झरण (परावर्तन) में एक वर्ष लगता है । दृष्टिवाद के ग्रहण में सोलह वर्ष तथा परावर्तन में बारह वर्ष लगते हैं। बारह वर्ष का समय अल्पमति की अपेक्षा से है, प्राज्ञ मात्र एक वर्ष लगता है। ९. गमिक - अगमिक श्रुत भंग-गणियादि गमियं, जं सरिसगमं च कारणवसेणं । गाहादि अगमियं खलु, कालिय तह दिट्ठिवाए य ॥ दृष्टिवादो गमिकम्, कालिकश्रुतमगमिकम् एतद् बाहुल्येनोच्यते कालिकश्रुते दृष्टिवादे वा यत्र भंगा:चतुर्भंगादयः गणितं - संकलनादि, आदिग्रहणेन क्रियाविशाले पूर्वे यत् छन्दः प्रकृतं तत् सदृशगममिति तस्य परिग्रहः, यच्च 'कारणवशेन' अर्थवशेन सदृशगमम्, यथा निशीथस्य विंशतितम उद्देशकः एतद् गमिकम् । शेषं गाथादि आदिशब्दात् श्लोकादि परिग्रहः अगमिकम् । (बृभा १४३ वृ) ५१ जो रचना भंग-गणित प्रधान या सदृशपाठ प्रधान होती है, उसकी संज्ञा गमिक है। विसदृश पाठ प्रधान रचना अगमिक है । दृष्टिवाद गमिक है तथा आचारांग आदि कालिकश्रुत अगमिक हैं - यह बहुलता की अपेक्षा से कहा गया है। कालिकश्रुत तथा दृष्टिवाद में जो चतुर्भंग आदि विकल्प कहे गए हैं तथा संकलन आदि गणित का वर्णन है और क्रियाविशालपूर्व में जो छंद प्रकरण है, ये सारे गमिक हैं। प्रयोजनवश अगमिकश्रुत में भी कहीं-कहीं सदृश पाठ की रचना शैली का प्रयोग हुआ है । यथा - निशीथ का बीसवां उद्देशक । शेष गाथा, श्लोक आदि विसदृश पाठ अगमिक हैं । 1 १०. छेदसूत्र और दृष्टिवाद : उत्तम श्रुत छेयसुयमुत्तमसुयं, अहवा वी दिट्ठिवाओ भण्णइ उ। जं तहि सुत्ते सुत्ते, वणिज्जइ चउह अणुयोगो ॥ सव्वाहिं णयविहीहिं दव्वा दंसिजंति, विविधा य इड्डीओ अतिसता य उप्पज्जंति, तम्हा तं उत्तमसुतं । (निभा ६१८४ चू) छेदसूत्र और दृष्टिवाद उत्तमश्रुत हैं । ० छेदसूत्र – इनमें आचारविधियों का प्रायश्चित्त सहित प्ररूपण है, जिससे चारित्रविशुद्धि होती है, अतः छेदसूत्र उत्तमश्रुत है। दृष्टिवाद - इसके प्रत्येक सूत्र में चारों अनुयोग वर्णित होते हैं, द्रव्यों का सब नयविधियों से उपदर्शन किया जाता है। इसके ज्ञाता को विविध ऋद्धियां और अतिशय उत्पन्न होते हैं, इसलिए यह उत्तम श्रुत है । ११. दृष्टिवाद की सूक्ष्मता O आगम नयवादसुहुमयाए, गणिते भंगहुमे णिमित्ते य । गंथस्स य बाहुल्ला, दिट्टिवातम्मि ॥ गमादि सत्तणया, एक्केक्को य सयविहो, तेहिं सभेदा जाव दव्वपरूवणा दिट्टिवाए कज्जति सा णयवादसुहुया भणति । तह परिकम्मसुत्तेसु गणियसुहुमया, तहा परमाणुमादीसु वण्णगंधरसफासेसु एगगुणकालगादिपज्जवभंगसुहुमता । तहा अट्टंगमादिणिमित्तं । ( निभा ६०६३ चू) नैगम आदि सात नय हैं। प्रत्येक नय के सौ-सौ प्रकार हैं। दृष्टिवाद में नयवाद की सूक्ष्मता है। वहां भेदप्रभेद सहित नयों तथा द्रव्यों की प्ररूपणा है । परिकर्म सूत्रों में गणित की सूक्ष्मता है तथा एक गुण कला आदि वर्ण-गंध-रस-स्पर्श युक्त परमाणु आदि के पर्यवविकल्पों की सूक्ष्मता है। वहां अष्टांगनिमित्त का भी निरूपण है। १२. दृष्टिवाद में विद्यातिशय दिट्टिवाते बहुविज्जाइसया सव्वकामकामिणो । (बृभा १४६ की चू) दृष्टिवाद में अनेक प्रकार के सर्वकामप्रद - सब इच्छाओं Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आगम विषय कोश-२ को पूर्ण करने वाले विद्यातिशय उपवर्णित हैं । (अतः सत्त्व स्वरचिंता, तत्रापि आदुपसर्गो वर्ण्यते।""उपसर्ग और धृति से सम्पन्न साधक ही इसका अध्ययन कर सकते विशेषात्यदार्थविशोधिर्भवति। (दशानि १८ चू) हैं।) छठे सत्यप्रवादपूर्व के अक्षरप्राभृत में 'आ ' उपसर्ग १३. दृष्टिवाद के पांच प्रस्थान प्रतिपादित है। आठवें कर्मप्रवाद पूर्व में अष्टांग महानिमित्त परिकम्मेहि य अत्था, सुत्तेहि य जे य सूइया तेसिं। के प्रसंग में स्वरविमर्श है। वहां भी 'आ' उपसर्ग वर्णित है। होति विभासा उवरिं, पुव्वगतं तेण बलियं तु॥ वह अपने अर्थ से युक्तिकृत पद के अर्थ का विशोधिकर है। दृष्टिवादः पंचप्रस्थानः, तद्यथा-परिकर्माणि उपसर्ग के प्रयोग से पदार्थ की विशोधि होती है। सूत्राणि पूर्वगतमनुयोगश्चूलिकाश्च। तत्र ये परिकर्मभिः ० नौवां-दसवां पूर्व सिद्धश्रेणिकाप्रभृतिभिः सूत्रैश्चाष्टाशीतिसंख्यैरा: सूचिता __णवमस्स पुव्वस्स"ततियं आयारवत्थू तत्थ स्तेषां सर्वेषामप्यन्येषां च उपरि पूर्वेषु विभाषा भवति, कालणाणं वणिज्जति। (निभा २८७३ की चू) अनेकप्रकारं ते तत्र भाष्यन्ते। तेन कारणेन पूर्वगत-सूत्रं ""नवम दसमा उ पुव्वा, अभिणवगहिया उ नासेज्जा।। बलिकम्। (व्यभा १८२७ वृ) "सागरसरिसं नवमं, अतिसयनयभंगगुविलत्ता॥ दृष्टिवाद के पांच प्रस्थान हैं-परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, ततोऽगीतार्थानामतिशयाकर्णनं मा भूत्। अनुयोग और चूलिका। (व्यभा १७३७, १७३८ वृ) ___ सिद्धश्रेणिका आदि सात परिकर्मों तथा ऋजुसूत्र आदि नौवें पूर्व की तृतीय आचारवस्तु में कालज्ञान वर्णित सर्व अट्ठासी सूत्रों द्वारा जो अर्थ सूचित हैं, उन सबकी तथा । अन्य अर्थों की पूर्वगत में विभाषा की गई है-अनेक प्रकारों से नये सीखे हुए नौवें एवं दसवें पूर्व का सतत स्मरण उनका निरूपण किया गया है, इसलिए पूर्वगत सूत्र बलवान है। (परावर्तन) आवश्यक है, अन्यथा वह विस्मृत हो जाता है। १४. चतुर्दशपूर्वी की विलक्षणताएं नौवां पूर्व और दसवां पूर्व-ये दोनों स्वयम्भूरमण समुद्र के ___..."चोइसपुव्वीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं समान विशाल हैं । ये अनेक अतिशयों, नयों और विकल्पों के सव्वक्खरसन्निवाईणं जिणो विव अवितहं वागर- कारण गहन हैं। माणाणं"। (दशा ८ परि सू ९७) नयों और भंगों की बहुलता के कारण बहुत साधुओं चतुर्दशपूर्वी जिन नहीं होते हए भी जिन के समान के मध्य इनका परावर्तन दुष्कर है। अगीतार्थ उन अतिशयों होते हैं। वे सर्वाक्षरसन्निपाती-सब अक्षरों के संयोगों के ज्ञाता को न सुन सके-इस रूप में परावर्तन करना चाहिए। तथा श्रव्य अक्षरों के वक्ता और जिन भगवान के समान १६. सूत्र देवता- अधिष्ठित क्यों? अवितथ व्याकरण करने वाले होते हैं। सलक्खणमिदं सुत्तं, जेण सव्वण्णुभासितं। * चतुर्दशपूर्वी : अनेक लब्धियों से सम्पन्न द्र श्रीआको १ पूर्व सव्वं च लक्खणोवेयं, समधिटुंति देवया॥ १५. पूर्वज्ञान : छठा-आठवां पूर्व ___ (व्यभा ३०१९) छट्ठट्ठमपुव्वेसु, आउवसग्गो त्ति सव्वजुत्तिकओ। सूत्र सर्वज्ञभाषित है, इसलिए सर्वलक्षण सम्पन्न है। पयअत्थविसोहिकरो .......... ..... ........॥ लोक में लक्षण सम्पन्न सब वस्तुएं देवता द्वारा अधिष्ठित सच्चप्पवायपुव्वे अक्खरपाहुडे तत्रादुपसर्गों होती हैं-इस आधार पर कहा जा सकता है कि सूत्र वर्ण्यते। अट्ठमे कम्मप्पवायपुव्वे अटुंगं महानिमित्तं तत्थ देवताअधिष्ठित है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५३ आगम १७. अर्थधर मुनि प्रमाण (व्यतिकृष्ट काल-द्वितीय-तृतीय प्रहर) में अंगग्रंथों का अत्थधरो तु पमाणं, तित्थगरमुहुग्गतो तु सो जम्हा। पठन-पाठन नहीं करना चाहिये। पुव्वं च होति अत्थो, अत्थे गुरु जेसि तेसेवं ॥ २०. आचार, आचारचूला और निशीथ (निभा २२) बंभचेरमइओ, अट्ठारसपदसहस्सिओ वेदो। कुल, गण और संघ के सामाचारी-प्ररूपण में अर्थधर हवइ य सपंचचूलो, बहुबहुतरओ पदग्गेणं॥ मुनि प्रमाण होता है क्योंकि अर्थ तीर्थंकर के श्रीमुख से सत्थपरिण्णा लोगविजओ य सीओसणिज्ज सम्मत्तं। उद्गत है। सूत्र से पहले अर्थ होता है। तह लोगसारनाम, धुतं तह महापरिण्णा य॥ सूत्रार्थधर के अभाव में अर्थधर मुनि गणसंचालन (गण अट्ठमए य विमोक्खो, उवहाणसुतंच नवमगं भणियं। अनुज्ञा) करते हैं, सूत्रधर नहीं। इच्चेसो आयारो, आयारग्गाणि सेसाणि॥ अर्थभेद होने पर गुरु प्रायश्चित्त तथा सूत्रभेद होने ___(आनि ११, ३१, ३२) पर लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है-जिन आचार्यों का यह ताओ य पुण साओ पंचचूलाओ-पिंडेसणादिअभिमत है, उसका कारण यही है कि अर्थधर प्रमाण होता जावोग्गहपडिमा तावपढमा चूला, बितिया सत्तिक्कगा, तइया भावणा, चउत्था विमोत्ती, पंचमी आयारपकप्पोएताहिं पंचहिं (सूत्रपौरुषी न करने पर मासलघु तथा अर्थपौरुषी न चूलाहिं सहिओ आयारो।"पुव्वाणुपुव्वीए इच्चेयं करने पर मासगुरु प्रायश्चित्त विहित है-निभा ४१ की चू) णिसीहचूलझयणं छव्वीसइमं। (निभा १ की चू) १८. अर्हत् महावीर की अंतिम देशना __नवब्रह्मचर्यमय अर्थात् आचारांग के नौ अध्ययन हैं, पच्चूसकालसमयंसि संपलियंकनिसन्ने पणपन्नं अठारह हजार पद हैं। इससे ब्रह्मचर्य का ज्ञान होता है (ब्रह्म अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाई, पणपन्नं अज्झयणाई और चरण की उत्पत्ति के निमित्त अथवा उनकी साधना के पावफलविवागाई, छत्तीसं च अपुट्ठवागरणाइं वागरित्ता गुर जाने जाते हैं), इसलिए यह वेद है। इसकी पांच चूलाएं पधाणं नाम अज्झयणं विभावेमाणे-विभावेमाणे "सिद्धे १. शस्त्रपरिज्ञा २. लोकविजय ३. शीतोष्णीय ४. बुद्धे मुत्ते। (दशा ८ परि सू १०६) सम्यक्त्व ५. लोकसार ६. धुत ७. महापरिज्ञा ८. विमोक्ष ९. प्रात:काल का समय, पर्यंकासन में आसीन तीर्थंकर उपधानश्रुत-ये नौ अध्ययन आचार कहलाते हैं तथा शेष महावीर ने कल्याणफलविपाक वाले पचपन अध्ययन, अध्ययन आचाराग्र (आचारचूला) कहलाते हैं। पापफलविपाक वाले पचपन अध्ययन तथा छत्तीस अपृष्ट- आचारचूला में चार चूलाएं हैंव्याकरणों को कहकर प्रधान अध्ययन का निरूपण करते- ० प्रथम चूला-पिंडैषणा यावत् अवग्रहप्रतिमा (१ से ७)। करते सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए। ० द्वितीय चूला-सप्त सप्तैकक (८ से १४) अध्ययन १९. उद्घाटा पौरुषी में अंगपठन निषिद्ध क्यों? ० तृतीय चूला-भावना (१५ वां अध्ययन) .० चतुर्थ चूला-विमुक्ति (अंतिम १६ वां अध्ययन) ___अर्हन् पूर्वाह्नऽपराह्ने च भाषते, एषैव भगवतो देशना ___० पंचम चूला-आचारप्रकल्प (द्र छेदसूत्र) अंगे निबद्धा, तस्मादुद्धाटायां पौरुष्यां न पठनीयम्। आचारांग प्रथम चार चूलिकाओं के प्रक्षेप से बहुपद (व्य ७/१४ का वृ) परिमाण वाला और पांचवीं चूलिका के प्रक्षप स बहुतर अर्हत् भगवान् पूर्वाह्न और अपराह्न में देशना देते हैं, परिमाण वाला है। वही देशना अंगप्रविष्ट में निबद्ध है, अतः उद्घाटा पौरुषी आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के नौ अध्ययन तथा Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम ५४ आगम विषय कोश-२ 9 w x x w 5 9 x द्वितीय श्रुतस्कंध के सोलह अध्ययन हैं। पूर्वानुपूर्वी क्रम से आचारचूला के सोलह अध्ययन आचारांग के उत्तरवर्ती निशीथ चूला छब्बीसवां अध्ययन है। अर्थात् उससे संबद्ध हैं। जैसे वृक्ष और पर्वत के अग्र होते हैं, (आचारांग के दो श्रुतस्कंध, पच्चीस अध्ययन और वैसे ही आचारांग के ये अग्र (चूलाएं) हैं। पचासी उद्देशनकाल हैं। सूत्र में अवर्णित अर्थ का कथन और संक्षिप्त वर्णित अध्ययन के लिए ग्रंथांश और कालांश की समुचित अर्थ का विस्तार करने के लिए इन चार चूलाओं का प्रतिपादन व्यवस्था की जाती थी, वह उद्दशेनकाल है। किया गया है। ये उक्त-अनुक्त अर्थ की संग्राहिका हैं। अध्ययन I उद्देशनकाल (ग्रंथ के उत्तरभाग-चूलिका (परिशिष्ट) उत्तरतंत्र कहा १. शस्त्रपरिज्ञा गया है-चूलिका... उत्तरतंतं जधा-आयारस्स पंचचूला उत्तरमिति २. लोकविजय जं उवरिसत्थस्स।'-दअचू पृ २४५) ३. शीतोष्णीय २२. आचारचूला के निर्वृहणस्थल ४. सम्यक्त्व ५. लोकसार बितियस्स य पंचमए, अट्ठमगस्स बितियम्मि उद्देसे। भणितो पिंडो सेज्जा, वत्थं पाउग्गहे चेव॥ ७. महापरिज्ञा पंचमगस्स चउत्थे इरिया वणिज्जते समासेणं। ८. विमोक्ष छट्ठस्स य पंचमए, भासज्जायं वियाणाहि॥ ९. उपधान श्रुत सत्तेक्कगाणि सत्त वि, निज्जूढाई महापरिणाओ। सत्थपरिण्णा भावण, निजूढाओ धुय विमुत्ती॥ पिंडैषणा धुताध्ययनस्य द्वितीयचतुर्थोददेशकाभ्यां विमुशय्या क्त्यध्ययनं निर्मूढम्। (आनि ३०८-३१० वृ) ईर्या आचारांग के दूसरे अध्ययन (लोक-विजय) के भाषाजात पांचवें उद्देशक से तथा आठवें अध्ययन (विमोक्ष) के वस्त्रैषणा दसरे उद्देशक से पिंडैषणा, शय्या. वस्त्रैषणा. पात्रैषणा और ६. पात्रैषणा अवग्रहप्रतिमा निर्मूढ हैं। पांचवें अध्ययन (लोकसार) के ७. अवग्रहप्रतिमा चौथे उद्देशक से 'ईर्या', छठे अध्ययन (धुत) के पांचवें ८-१४. सप्तैकक उद्देशक से भाषाजात, महापरिज्ञा अध्ययन से सात सप्तैकक, १५. भावना शस्त्रपरिज्ञा से भावना और धुत अध्ययन के दूसरे तथा चौथे १६. विमुक्ति उद्दशक से विमुक्ति अध्ययन निर्मूढ है। कुल उद्देशनकाल ८५ आचारांग चूर्णि पृ. ३२६, ३२७ में नि!हण-स्थलों -नंदी ८१ चू पृ ६२, हावृ पृ७६) का सूत्र-निर्देशपूर्वक उल्लेख इस प्रकार है२१. आचाराग्र (आचारचूला): उत्तरतंत्र आचारांग के नि!हण स्थल आचारचूला के निर्दृढ स्थल ........"आयारस्सेव उवरिमाइं तु। अध्ययन उद्देशक व सूत्र अध्ययन स्क्ख स्स पव्वयस्स य, जह अग्गाइं तहेताइं॥ २ ५/१०४, १०८, ११२ १, २, ५, ६, ७ अनभिहितार्थाभिधानाय संक्षेपोक्तस्य च प्रपंचाय ८ २/२१ १, २, ५, ६, ७ तदग्रभूताश्चतस्त्रश्चूडा उक्तानुक्तार्थसंग्राहिकाः प्रति- ५ ४/६२, ६८, ६९, ७० ३ पाद्यन्ते। (आनि ३०६ वृ) ६ ५/१०१ » 3g . or m n or raro or ar Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ आगम ८-१४ 9 our १-७ आचारांग की पांच चूलाओं में से एक है। इसलिए पांचों १ १-७ चूलाओं का कर्ता एक ही होना चाहिए। चार चूलाओं को एक २, ४ क्रम में पढ़ा जा सकता है। निशीथ को परिपक्व बुद्धि वाले २३. आचारचूला का निर्वृहण क्यों को ही पढ़ने का अधिकार है। इसलिए संभव है कि प्रथम थेरेहिऽणुग्गहट्ठा, सीसहियं होउ पागडत्थं च। चार चूलाओं की एक श्रुतस्कंध के रूप में और निशीथ की स्वतंत्र आगम के रूप में योजना की गई। आयाराओ अत्थो, आयारग्गेसु पविभत्तो। पंचकल्पभाष्य (गाथा २३) और चूर्णि के अनुसार स्थविरैः श्रुतवृद्धश्चतुर्दशपूर्वविद्भिः। निशीथ के कर्ता भद्रबाह हैं। इसलिए आचारांग की चार (आनि ३०७ वृ) चूलाओं के कर्ता भी वे ही होने चाहिए। यदि हमारा यह श्रुतवृद्ध चतुर्दशपूर्वी स्थविर (आचार्य भद्रबाहु) ने अनुमान ठीक है तो आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कंध दशवैकालिक शिष्यों के हित-सम्पादन का चिंतन कर उन पर अनुग्रह के बाद की रचना है। इसका पुष्ट आधार प्राप्त होता हैकरने के लिए तथा तथ्यों की स्पष्ट अभिव्यक्ति के लिए प्राचीन काल में आचारांग पढ़ने के बाद उत्तराध्ययन आचारांग का सम्पूर्ण अर्थ आचाराग्र में विस्तार से निरूपित पढ़ा जाता था, किन्तु दशवैकालिक की रचना के पश्चात् वह किया। दशवैकालिक के बाद पढ़ा जाने लगा। पिंडीकृतो पृथक्-पृथक्, पिंडस्स पिंडेसणासुकतो प्राचीन काल में आमगंध (आ. १/२/५) का अध्ययन सेज्जत्थो सेज्जास एवं सेसाणवि। (आनि ३०७ की च) कर मनि पिण्डकल्पी होते थे। फिर वे दशवकालिक के आचारांग में पिंडैषणा आदि के नियम बिखरे हुए हैं, पिण्डैषणा के अध्ययन के पश्चात् पिण्डकल्पी होने लगे। अर्थागम के रूप में प्रतिपादित हैं, उनका आचारचूला में यदि आचारचूला की रचना पहले हो गई होती तो सूत्रागम के रूप में संकलन किया गया है। जैसे पिंड का दशवैकालिक को यह स्थान प्राप्त नहीं होता। दशवैकालिक: विषय 'पिंडैषणा' में तथा शय्या का विषय 'शय्या' अध्ययन में संकलित है। इसी प्रकार शेष अध्ययन ज्ञातव्य हैं। ० आचारचूला और दशवकालिक में समानता पूर्वोक्तस्य विस्तरतोऽनुक्तस्य च प्रतिपादनात्। आचारचूला के पिण्डैषणा (प्रथम अध्ययन) और (आनि ३०५ की वृ) भाषाजात (चतुर्थ अध्ययन) में तथा दशवैकालिक के पिण्डैषणा आचाराग्र में उक्त का विस्तार और अनुक्त का प्रतिपादन (पंचम अध्ययन) और वाक्यशुद्धि (सप्तम अध्ययन) में शाब्दिक ये दोनों हैं। (इसके प्रथम सात अध्ययनों में उक्त का और आर्थिक-दोनों प्रकार की पर्याप्त समानता है। यथाविशदीकरण है। पन्द्रहवें अध्ययन में भगवान् महावीर का आचारचूला दशवैकालिक जीवन-वृत्त है, वह अनुक्त का प्रतिपादन है।) ... एगंतमवक्कमेत्तातओ एगंतमवक्कमित्ता, (नि!हणकर्ता के संदर्भ में निम्न मंतव्य पठनीय है संजयामेव परिट्ठवेज्जा। अचित्तं पडिलेहिया। दशवैकालिक के नि!हक आचार्य शय्यंभव चतुर्दशपूर्वी (१/३) जयं परिवेज्जा"॥ थे और आचारचूला के कर्ता भी चतुर्दशपूर्वी थे। (५/१/८१) भगवान् महावीर के उत्तरवर्ती आचार्यों में शय्यंभव, ... मा मेयं दाइयं संतं, सिया एगइओ लद्धं, यशोभद्र, सम्भूतविजय, भद्रबाहु और स्थूलभद्र-ये छह आचार्य दट्ठणं सयमायए, आयरिए लोभेण विणिगृहई। चतुर्दशपूर्वी हैं। इनमें आगमकर्ता के रूप में शय्यंभव और वाणो किंचिवि मा मेयं दाइयं संतं, भद्रबाहु-ये दो ही आचार्य विश्रुत हैं। शय्यंभव दशवैकालिक णिगूहेज्जा। दट्टणं सयमायए॥ के और भद्रबाहु छेदसूत्रों के कर्ता माने जाते हैं। निशीथ (१/१३१) (५/२/३१) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार ५६ आगम विषय कोश-२ आगाढयोग-भगवती आदि आगमों के अध्ययन काल में अध्येता को सघनता से योगवहन करना होता है, उसे आगाढयोग कहा जाता है। द्र स्वाध्याय * आगाढ-अनागाढ श्रुत द्र आचार आचार-शास्त्रविहित आचरण, मोक्ष के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान। ... जा य भासा सच्चा, जा य जा य सच्चा अवत्तव्वा, भासा मोसा... तहप्पगारं भासं सच्चामोसा य जा मुसा। सावज्जं सकिरियं णो भासेज्जा ....न तं भासेज्ज पण्णवं॥ (४/१०) (७/२) .....अंतलिक्खे ति वा अंतलिक्खे त्ति णं बूया, गुज्झाणुचरिए ति वा गुज्झाणुचरिय त्ति य।.... (४/१७) (७/५३) २४. आचाराग्र का समवतार आयारग्गाणत्थो, बंभच्चेरेसु सो समोयरइ। सो वि य सत्थपरिणाए पिंडियत्थो समोयरइ॥ सत्थपरिण्णा अत्थो, छस्सु वि काएसुसो समोयरति। छज्जीवणिया अत्थो, पंचसु वि वएसु ओयरति॥ पंच य महव्वयाइं, समोयरंते य सव्वदव्वेसुं। सव्वेसि पज्जवाणं, अणंतभागम्मि ओयरति॥ (आनि १२-१४) आचाराग्र अर्थात चूलिकाओं के अर्थ का समवतार नौ ब्रह्मचर्य (आचारांग) के अध्ययनों में होता है। उनका पिंडितार्थ शस्त्र-परिज्ञा में समवतरित होता है। शस्त्र-परिज्ञा का अर्थ षड्जीवनिकाय में तथा षड्जीवनिकाय का अर्थ पांच व्रतों (महाव्रतों) में समवतरित होता है। पांच महाव्रतों का समवतार धर्मास्तिकाय आदि समस्त द्रव्यों में तथा समस्त पर्यायों के अनन्तवें भाग में होता है। * अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के प्रकार, प्रतिपाद्य आदि द्र श्रीआको १ अंगप्रविष्ट /अंगबाह्य/आगम। आगाढप्रज्ञ-गहन-गंभीर ग्रंथ। आगाढाप्रज्ञा येषु व्याप्रियते न या काचन तान्यागाढप्रज्ञानि शास्त्राणि तेषु भावितात्मा तात्पर्यग्राहितया तत्रातीवनिष्पन्नमतिः। (व्यभा १४०३ की वृ) जिन श्रुतग्रंथों के अध्ययन में सघन/अतिशय प्रज्ञा का उपयोग होता है, जो साधारण प्रज्ञा से ग्राह्य नहीं हैं, वे आगाढप्रज्ञ शास्त्र हैं। उनमें अवगाहन करने वाले की बुद्धि उनके तात्पर्यार्थ (ऐदम्पर्य) को ग्रहण कर अत्यंत सूक्ष्म हो जाती है। * प्रशस्य आचार्य : आगाढप्रज्ञ आदि द्र आचार्य १. आचार के प्रकार ० द्रव्य आचार-अनाचार २. भाव आचार के प्रकार ३. ज्ञानाचार के प्रकार ४. काल ज्ञानाचार : विद्यासाधन का भी काल ५. विनय ज्ञानाचार : हरिकेश-श्रेणिक दृष्टांत ६. भक्ति-बहुमान ज्ञानाचार : मरुक-पुलिंद दृष्टांत ७. उपधान : आगाढ-अनागाढ श्रुत ० अशकटपिता दृष्टांत * उपधान और जीत व्यवहार द्र व्यवहार * अनिलवन : निह्नवी परिव्राजक दृष्टांत द्र छेदसूत्र ८. ज्ञान अतिचार : सूत्रभेद-अर्थभेद * अकाल स्वध्याय से ज्ञानविराधना द्र स्वाध्याय ९. दर्शनाचार : निःशंकता आदि ० पेयापान दृष्टांत * चारित्राचार में श्लथता के स्थान द्र उपसम्पदा * चारित्र अतिचार द्र प्रतिसेवना १०. अतिचार : ज्ञान-दर्शन-चारित्र और भाव ११. वीर्याचार का स्वरूप १२. वीर्याचार के प्रकार ___ * वीर्य के प्रकार १३. आचार कुशल कौन ? __ * आचार के पर्याय द्र आगम मुनि का आचार-व्यवहार द्र सामाचारी * आचार विनय : सामाचारी में नियोजन द्र आचार्य मुनि द्वारा वाहन प्रयोग द्र सार्थवाह द्र वीर्य Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ आचार १. आचार के प्रकार ३. ज्ञानाचार के प्रकार .."दव्वायारो य भावमायारो।... काले विणये बहुमाने, उवधाने तहा अनिण्हवणे। (निभा ५) वंजणअत्थतदुभए, अट्ठविधो णाणमायारो॥ आचार के दो प्रकार हैं-द्रव्याचार और भावाचार। (निभा ८) ज्ञान आचार के आठ प्रकार हैं-काल, विनय, बहुमान, ० द्रव्य आचार-अनाचार णामण-धोवण-वासण-सिक्खावण-सुकरणाविरोधीणि। उपधान, अनिहवन, व्यंजन (सूत्र), अर्थ, तदुभय (सूत्रार्थ) । दव्वाणि जाणि लोए, दव्वायारं वियाणाहि॥ ४. काल ज्ञानाचार : विद्यासाधन का भी काल को आउरस्स कालो, मइलंबरधोवणे व्व को कालो। णामणं पडुच्च आयारमंतो तिणिसो अणायारमंतो सोपोआयो गानो जदि मोक्खहेउ नाणं, को कालो तस्सऽकालो वा॥ किमिरागो।वासणाए कवेल्लुगादीणि आयारमंताणि, वइरं आहारविहारादिसु, मोक्खधिगारेसु काल अक्काले। अणायारमंतं। सुक-सालहियादिसिक्खावणं पडुच्च जह दिट्ठो तह सुत्ते, विजाणं साहणे चेव। आयारमंताणि, वायस-गोत्थूभगादि अणायारमंताणि। (निभा १०, ११) सुकरणं सुवर्णं आयारमंतं, घंटालोहमणायारमंतं।अविरोहं शिष्य ने पूछा-रोगी का क्या काल? मलिन वस्त्र पडुच्च पयसक्कराणं आयारो, दहितेल्ला य विरोधे । धोने का क्या काल? यदि ज्ञान मोक्ष का हेतु है, तो उसका अणायारमंता। (नि क्या काल और क्या अकाल? गुरु ने कहा-आहार-विहार मोक्ष के साधक हैं, उनका जो द्रव्य विवक्षित रूपों में परिणत हो सकता है, वह भी काल होता है। सत्रका निर्देश है-भिक्षु अकाल में भिक्षाटन आचारवान् है और जो परिणत नहीं हो सकता, वह अनाचारवान् न करे। वर्षाकाल में विहार न करे. ऋतबद्ध काल में करे। है। उसके छह प्रकार हैं रात में न करे, दिन में करे। इसी प्रकार श्रुत अध्ययन का भी आचारवान् द्रव्य अनाचारवान् द्रव्य काल-अकाल होता है। नामन (झुकना) तिनिश . विद्यासाधन का भी काल होता है। कुछ विद्याएं धावन (धोना) कुसुंभराग कृमिराग कृष्णपक्ष की चतुर्दशी या अष्टमी को ही साधी जाती हैं। वासन (सुगंध देना) ईंट, खपरैल वज्र अकाल में साधी गई विद्या उपघातकारी होती है। इसी शिक्षापण (शिक्षण) शुक-सारिका कौआ, बकरा प्रकार काल में पढ़ा हुआ श्रुत निर्जरा का हेतु और अकाल सुकरण (सरलता से रूपांतरण) सुवर्ण घंटालोह में पठित श्रुत उपघातकारक होता है। अविरोधी (अविरुद्ध मिश्रण) दूध-चीनी दही-तैल ५. विनय ज्ञानाचार : हरिकेश-श्रेणिक दृष्टांत २. भाव आचार के प्रकार णीयासणंजलीपग्गहादिविणयो तहिं तु हरिएसो।" नाणे दंसण-चरणे, तवे य विरिये य भावमायारो... हरिएसो"अभयेण गहितो। एस चोरोत्ति रणो उवणीओ। पुच्छीओ सब्भावो कहिओ। राया भणति(निभा ७) जइ विज्जाओ देसि तो जीवसि। तेण पडिस्सुयं-देमि त्ति। आचार के पांच प्रकार हैं आसणत्यो पढियो वाहेति, ण वहइ।अभओ पुच्छिओ किं १. ज्ञान आचार ४. तप आचार ण वहति।अभओ भणति-अविणय गहिया, एस हरिकेसो २. दर्शन आचार ५. वीर्य आचार भूमित्थो तुमंसीहासणत्थो। तओ तस्स अण्णं आसणं दिण्णं। ३. चारित्र आचार राया णीततरो ठितो। सिद्धा। (निभा १३ चू) एरण्ड Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार आगम विषय कोश-२ टागोर गुरु के आसन से अपना आसन नीचा करना, कुछ ० भक्ति-अभ्युत्थान, दण्डग्रहण, पादपोंछन और आसनप्रदान झुककर हाथ जोड़ना आदि विनय ज्ञानाचार है। द्वारा सेवा करना। हरिकेश चाण्डाल ने राजा श्रेणिक के बगीचे के आम ० बहुमान–ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, भावना आदि गुणों से तोड़े। अभय ने बुद्धिमत्ता से हरिकेश चोर को पकड़ कर राजा अनुरंजित के प्रति प्रीतिप्रतिबंध। के सामने प्रस्तुत किया। पूछने पर उसने सचाई प्रकट की-मैंने बहुमान में भक्ति की और भक्ति में बहुमान की आम चुराए नहीं, बाहर खड़े-खड़े ही तोड़ लिए, क्योंकि मेरे भजना है। उसके चार विकल्प हैंपास दो विद्याएं हैं-अवनामिनी और उन्नामिनी। एक भक्ति करता है, बहुमान नहीं। यथा वासुदेवपुत्र पालक। राजा ने कहा-यदि ये विद्याएं मुझे सिखा दोगे तो मैं ० एक बहुमान करता है, भक्ति नहीं। यथा सेदुक, शंब। तुम्हें मृत्युदंड से मुक्त कर दूंगा। हरिकेश ने स्वीकृति दी . एक भक्ति भी करता है, बहुमान भी करता है। यथा कि मैं आपको विद्याएं सिखा दूंगा। उसने दो-तीन बार गौतम ! मंत्रविद्या का उच्चारण किया किन्तु राजा उसे पकड़ नहीं एक न भक्ति करता है, न बहुमान । यथा-कालसौकरिक, सका। राजा ने पूछा-अभय ! ऐसा क्यों हो रहा है? अभय कपिला आदि। ने कहा-आप अविनय से ग्रहण कर रहे हैं। यह भूमि पर मरुक-पुलिंद दृष्टांत-गिरि-निर्झर के पास शिव की मूर्ति बैठा है, आप सिंहासन पर बैठे हैं। राजा ने उसे ऊंचा थी। एक ब्राह्मण और एक भील-दोनों उसकी अर्चना करते आसन दिया और स्वयं नीचे बैठा। राजा के तत्काल विद्या थे। ब्राह्मण उपलेप, स्नान आदि कर मूर्ति की अर्चा करता। सिद्ध हो गई। भील मुंह में पानी भर कर लाता और उससे मूर्ति को नहलाता। ६. भक्ति-बहुमान ज्ञानाचार : मरुक-पलिंद दष्टांत एक दिन शिव को भील के साथ वार्तालाप करते देखा और ....भत्तीओ होति सेवा, बहमाणो भावपडिबंधो॥ उपालंभ दिया-तुम कैसे शिव हो, जो चण्डाल से बात करते बहुमाणे भत्ति भइता, भत्तीए वि माणो। हो। शिव ने कहा-यह मुझमें भावतः अनुरक्त है। इस सचाई को प्रमाणित करने के लिए शिव ने एक दिन अपनी आंख गिरिणिज्झरसिवमरुओ, भत्तीए पुलिंदओ माणे॥ निकाल ली। अब्भुट्ठाणं डंडग्गह-पायपुंछणासणप्पदाण ब्राह्मण आया और चक्षुविकल मूर्ति को देख रोने ग्गहणादीहिंसेवाजासा भत्ती भवति।णाण-दंसण-चरित्त लगा, फिर शांत होकर बैठ गया। भील आया। उसने तव-भावणादिगुणरंजियस्स जो रसो पीतिपडिबंधो सो देखा-आंख नहीं है। उसने तीर से अपनी आंख निकाल बहुमाणो भवति।भण्णति-एत्थ चउभंगो कायव्वो।... कर शिव के लगा दी। पढमभंगे वासुदेवपुत्तो पालगो। बितियभंगे सेदुओ संबो ब्राह्मण को विश्वास हो गया कि उसकी शिव के वा, ततियभंगे गोयमो।चउत्थेकविला कालसोकरिआइr" प्रति भक्ति है और भील का शिव के प्रति आंतरिक अनुराग "अन्नया बंभणेण आलावसद्दो सुओ।"उवालद्धो यसो सिवो-तुम एरिसो चेव पाणसिवो।तेण सिटुंएस मे भावओ अणुरत्तो।अण्णया अच्छि उक्खणिऊण अच्छइ ७. उपधान : आगाढ-अनागाढ श्रुत सिवो। बंभणो आगओ, रडिओ, उवसंतो। पुलिंदो दोग्गइ पडणुपधरणा, उवधाणं जत्थ जत्थ जं सुत्ते। आगओ। अच्छि णत्थि त्ति अप्पणो अच्छी भल्लीए ___ आगाढमणागाढे, गुरुलहु आणादि सगडपिता ॥ उक्खणिऊण सिवगस्स लाएति। बंभणो पतीतो। तस्स जत्थ उद्देसगे, जत्थ अज्झयणे, जत्थ सुयखंधे, बंभणस्स भत्ती, पुलिंदस्स बहुमाणो।। जत्थ अंगे, कालुक्कालियअंगाणंगेसुणेया।जं उवहाणं (निभा १३, १४ चू) णिव्वीतितादि तं तत्थ तत्थ सुते कायव्वं"जंच उद्देसगादी Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ आचार सुतं भणियं तं सव्वं समासओ दुविहं भण्णति-आगाढं एक आचार्य ने वाचना से परिश्रांत होकर स्वाध्यायअणागाढं वा..... आगाढसुयं भगवतिमाइ। अणागाढं काल को अस्वाध्यायकाल घोषित कर दिया। इससे उनके आति। आगाढे आगाढं उवहाणं कायव्वं। अणागाढे ज्ञानावरणीयकर्म का बंध हो गया। वे मृत्यु के पश्चात् देवलोक अणागाढं। जो पुण विवच्चासं करेति तस्स पच्छित्तं भवति। में उत्पन्न हुए। वहां से च्युत होकर वे आभीरकुल में उत्पन्न आगाढे का।अणागाढेङ्क। (निभा १५ चू) हुए। यौवन आने पर विवाह हुआ और एक कन्या उत्पन्न ___ जो दुर्गति में गिरने से बचाये, वह उपधान (श्रुत हुई, जो अत्यंत रूपवती थी। एक दिन पिता और पुत्री घी अध्ययनकाल में करणीय तप) है। कालिक-उत्कालिक अंग बेचने जा रहे थे। पुत्री शकट के अग्रभाग पर बैठी थी। कुछ अंगबाह्य सूत्रों के जिस उद्देशक, अध्ययन या श्रुतस्कन्ध के तरुण भी अपनी गाड़ियां लेकर उसी मार्ग से जा रहे थे। वे लिए निर्विकतिक आदि जो उपधान करणीय है, वह करना उस कन्या के रूप को देखने के लिए अपनी गाड़ियों को चाहिए। उत्पथ में ले गए तो वे टूट गईं। इस कारण से उन्होंने लड़की श्रत के दो प्रकार हैं-आगाढश्रत और अनागाढश्रत। का नाम 'अशकटा' रख दिया। उसका पिता अशकटपिता के भगवती आदि आगाढश्रुत तथा आचारांग आदि अनागाढश्रुत नाम से प्रसिद्ध हो गया। इस घटना से ग्वाले को वैराग्य हो हैं। आगाढ के लिए आगाढ और अनागाढ के लिए अनागाढ गया। वह लड़की का विवाह कर दीक्षित हो गया। उसने उपधान करणीय है। जो आगाढ और अनागाढ में विपर्यास उत्तराध्ययन के तीन अध्ययन तो सीख लिए किन्तु चौथा करता है, वह क्रमशः चतुर्गुरु और चतुर्लघु प्रायश्चित्त का अध्ययन (असंखयं) सीखते हुए पूर्वबद्ध ज्ञानावरणीय कर्म भागी होता है। इसमें अशकटपिता का दृष्टांत ज्ञातव्य है। का उदय हो गया। प्रयत्न करने पर भी अध्ययन याद नहीं ० अशकटपिता दृष्टांत हुआ। मुनि ने आचार्य को निवेदन किया। एगो आयरिओ वायणापरिस्संतो सज्झाये वि आचार्य ने बेले-बेले तप की अनुज्ञा दी। उसने पूछाअसज्झायं घोसेति एवं णाणंतरायंकाऊण देवलोगंगओ। इसके लिए कौन सा योग वहन करूं? आचार्य ने कहा-जब तओचओ आभीरकले पच्चायाओ भोगे भंजति।धयायसे तक याद न हो, तब तक आयंबिल तप करो। उसने उसी रूप जाया अतीव रूववती।तेय पच्चंतिया गोयारियाए हिंडति। में उपधान किया। बारह वर्ष तक आयंबिल करते हुए उसने तस्स य सगडं पुरतो वच्चति। सा य से धूया सगडस्स तुंडे मात्र बारह श्लोक याद किये। तब उसका ज्ञानावरण क्षीण ठिता। तीसे य दरिसणत्थं तरुणेहिं सगडा वि उप्पहेण हुआ। पेरियाणि भग्गाणि य। तो से दारियाए लोगेण णामं कतं जैसे अशकटपिता ने आगाढयोगवहन किया, वैसे ही असगडा। सब अध्येताओं को योगवहन करना चाहिये। ___ असगडाए पिता असगडपिता। तस्स तं चेव वेरग्गं ८. ज्ञान अतिचार : सूत्रभेद-अर्थभेद जातं। दारियं दाउं पव्वइतो। पढिओ जाव चाउरंगिज। सक्कयमत्ताबिंदू, अण्णभिधाणेण वा वि तं अत्थं। असंखए उहिटे तण्णाणावरण उदिण्णं पढतस्स ण ठाति। वंजेति जेण अत्थं, वंजणमिति भण्णते सत्तं॥ छद्वेण अणुण्णवइत्ति भणिए भणति-एयस्स को जोगो? वंजणमभिंदमाणो, अवंतिमादण्ण अत्थे गुरुगो उ। आयरिया भणंति-जाव ण ठाति ताव आयंबिलं। तहा जो अण्णो अणणुवादी, णाणादिविराधणा णवरिं ॥ पढति। बारस वित्ता। बारसहिं वरिसेहिं आयंबिलं करेंतेणं दुमपुप्फिपढमसुत्तं-अहागडरीयति रण्णो भत्तं च। पढिया। तं च से णाणावरणं खीणं। (निभा १५ की चू) उभयण्णकरणेणं - मीसगपच्छित्तुभयदोसा॥ जहा असगडपियाए आगाढजोगो अणुपालितो, तहा (निभा १७, १९, २०) सव्वेहिं सव्वमुवहाणं पालेयव्वं। (व्यभा ६३ की वृ) ० सूत्रभेद-जिससे अर्थ व्यक्त होते हैं, वह व्यंजन सूत्र है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार ६० प्राकृतसूत्र का संस्कृतीकरण, उसमें मात्रा और बिंदु की न्यूनाधिकता तथा उसमें उसी के अर्थवाची अन्यपदों का प्रयोग करने से सूत्रभेद होता है। यथा धम्म मंगलमुक्क, अहिंसा संजमो तवो। (द १/१) संस्कृत - धर्मो मंगलमुत्कृष्टम् " मात्रा - बिन्दु – धम्मे मंगले उक्किट्ठ - अन्य अर्थपद - पुण्णं कल्लाणमुक्कोसं, दया संवर णिज्जरा । जो सूत्र को अन्यथा नहीं करता, किन्तु उसमें अन्य अर्थ की कल्पना करता है, उसके चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है । अर्थभेद का उदाहरण आवंति के आवंति लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवादं वदंति................. |(आ ४/२० ) - दार्शनिक जगत् में कुछ श्रमण और ब्राह्मण परस्पर विरोधी मतवाद का निरूपण करते हैं। अर्थभेद - अवंती - जनपद । केया - रज्जु । वंती कुएं में गिर गई । लोयंसि समणा य माहणा य-लोक में श्रमण और ब्राह्मण (कुएं में उतर कर ) परस्पर विवाद करते हैं। T इसी प्रकार अन्य सूत्रों का अन्यथा अर्थ करने पर प्रायश्चित्त आता है। सूत्र में अयुज्यमान अर्थ की संयोजना करने से केवल विराधना ही होती है, ज्ञान आदि गुणों की प्राप्ति नहीं होती । उभय (सूत्रार्थ) भेद - जो सूत्र का अन्यथा उच्चारण करता है और अर्थ का भी अन्यथा व्याख्यान करता है, उसे मिश्र (सूत्रभेद और अर्थभेद में निर्दिष्ट चतुर्लघु और चतुर्गुरु) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उभयभेद के उदाहरण १. द्रुमपुष्पिका का प्रथम श्लोक धम्मो मंगलमुक्कट्ठे अहिंसा संजमो तवो। (द १/१ ) भिन्न श्लोक - धम्मो मंगलमुक्किट्ठे, अहिंसा डुंगरमस्तके । २. अहागडेसु रीयंति, पुप्फेसु भमरा जहा । (द १/४) भिन्न श्लोक - अहाकडेहिं रंधंति, कट्ठेहिं रहकारिया । ३. राइभत्ते सिणाणे य, गंधमल्ले य वीयणे । (द ३/२) भिन्न श्लोक - रण्णो भत्तंसिणो जत्थ, गद्दहो तत्थ खज्जति । ९. दर्शनाचार : निःशंकता आदि संसयकरणं संका, कंखा अण्णोण्णदंसणग्गाहो। संतंमि वि वितिगिच्छा, सिज्झेज्ज ण मे अयं अट्ठो ॥ आगम विषय कोश - २ .......संक .... । सा दुविहा देसे सव्वे य। देसे जहा - तुल्ले जीवत्ते कहमेगे भव्वा एगे अभव्वा । सव्वसंकत्ति सव्वं दुवालसंगं गणिपिडगं पागयभासाणिबद्धं मा णं एतं कुसलकप्पियं होज्जा । संकिणो असंकिणो य दोसगुणदीवणत्थं उदाहरणंजहा ते पेयापाया-दारगा । ( निभा २४ चू) ० शंका - तत्त्व में संशय करना। (शिष्य ने पूछा-- शंका ज्ञान से भिन्न पदार्थ है या अभिन्न ? गुरु ने कहा- जैसे घट पट का अर्थांतर है, वैसे यह शंका विज्ञान का अर्थांतर नहीं है। अंगुलि के वक्रीकरण की भांति यह अनर्थांतर है ।) • कांक्षा-अन्यान्य दर्शनों की अभिलाषा । विचिकित्सा - विद्यमान पदार्थ के फल में संदेह करना। मैं ब्रह्मचर्य पालन, केशलुंचन, भूमिशयन, परीषहसहन आदि की कठोर साधना करता हूं पर मुझे इनका फल मिलेगा या नहीं, कौन जाने ? इस प्रकार की मतिविप्लुति विचिकित्सा है । o शंका के दो प्रकार हैं देशशंका - जीवत्व सबमें समान है, फिर भी उनमें कुछ भव्य कुछ अभव्य हैं। यह कैसे ? सर्वशंका - प्राकृत भाषा में निबद्ध सम्पूर्ण द्वादशांग गणिपिटक कुशलकल्पित नहीं है । शंका से हानि होती है और निःशंकता से लाभ होता है - यह तथ्य प्रकाशित करने के लिए पेयापायक बच्चों का दृष्टांत है। ० पेयापान दृष्टांत दोवि लेहसालाए पढंति । भोयणकाले आगताण दोह वि हिंतो णिविट्ठाण मासकणफोडिया पेया दिण्णा । तत्थ मुयमातिओ चिंतेइ – मच्छित्ता इमा । ससंकिओ पियति । तस्स सकाए वग्गुलियावाही जातो, मतो य। बितिओ चिंतेति - ण ममं माता मच्छियाओ देति । णिस्संकितो पिबति जीवितो य । (निभा २४ की चू) दो भाई थे । एक दिन वे पाठशाला से लौटे। मां द्वारा दोनों को पेया परोसी गई, जिसमें उड़द के कण थे। जिसकी सौतेली मां थी, उस भाई ने सोचा-ये मक्खियां हैं। सशंक Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ आचार पेयापान किया, वमन हुई और वह मर गया। मेरी मां मुझे में अतिचार की भजना है-कभी होता है, कभी नहीं होता। मक्षिका नहीं खिला सकती-यह सोचकर दूसरे भाई ने नि:शंक ११. वीर्याचार का स्वरूप होकर पेयापान किया, वह जीवित रहा। __ अणिगूहियबलविरिओ, परक्कमति जो जहुत्तमाउत्तो। १०. अतिचार : ज्ञान-दर्शन-चारित्र और भाव जुंजइ य जहत्थामं, णायव्वो वीरियायारो॥ एक्केक्कं पियतिविहं, सट्टाणे नस्थि खइय अतियारो। (निभा ४३) उवसामिएसु दोसुं, अतियारो होज्ज सेसेसु॥ मुनि अपने बल-वीर्य का गोपन न करता हुआ अत्यंत सट्टाणपरट्ठाणे, खओवसमितेसु तीसु वी भयणा। जागरूकता से सत्रोक्त विधि के अनुसार ज्ञान आदि की आराधना दंसण-उवसम-खइए, परठाणे होति भयणा उ॥ में पराक्रम करता है, स्वयं को यथाशक्ति कार्यों में नियोजित करता (व्यभा ९८३, ९८४) है-यह वीर्याचार है। दर्शन के तीन प्रकार हैं १२. वीर्याचार के प्रकार १. क्षायिक दर्शन–क्षायिकसम्यग्दृष्टि के क्षायिक सम्यक्त्व। नाणे दंसण-चरणे, तवे य विरिये य भावमायारो। २. औपशमिक दर्शन-उपशम श्रेणी में औपशमिक सम्यक्त्व (किसी एक अपेक्षा से)। अट्ठ टू टू दुवालस, विरियमहानी तु जा तेसिं॥ ३. क्षायोपशमिक दर्शन-उपर्युक्त दोनों से अतिरिक्त (शेष (निभा ७) काल में) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व। भाव आचार के पांच प्रकार हैं-जान. दर्शन. चारित्र. चारित्र के तीन प्रकार हैं तप और वीर्य। ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इनमें से प्रत्येक १. क्षायिक चारित्र-क्षपक निर्ग्रन्थ में। आचार के आठ-आठ भेद हैं। तप के बारह भेद हैं। इन २. औपशमिक चारित्र-उपशमक निर्ग्रन्थ में। छत्तीस (८+८+८+१२-३६) भेदों के परिपालन में शक्ति ३. क्षायोपशमिक चारित्र-उल्लिखित द्वयी से अन्य निर्ग्रन्थ का गोपन न करना वीर्याचार है। उसके छत्तीस भेद हैं। में। * दर्शन-चारित्र-तप आचार के भेद आदि क्षायिक भाव-क्षायिक ज्ञान-दर्शन-चारित्र में वर्तमान केवली द्र श्रीआको १ आचार के स्वस्थान में किंचित् भी अतिचार नहीं होता, परस्थान में संभव भी है। १३. आचार कुशल कौन? औपशमिक भाव-औपशमिक दर्शन और चारित्र में वर्तमान यः कुशं दर्भ दात्रेण तथा लुनाति न क्वचिदपि निर्ग्रन्थ के स्वस्थान में अतिचार नहीं होता। कषाय-उपशांति दात्रेण विच्छिद्यते स द्रव्यकुशलः।."यः पुनः पञ्चके कारण वहां प्रतिसेवना संभव नहीं है। उसमें अनुपयोग विधेनाचारेण दात्रकल्पेन कर्मकुशं लुनाति स भाव(प्रमाद) से अन्यथा प्ररूपण-चिंतन के कारण ज्ञानविराधना कुशलः। (व्य ३/३ वृ) हो सकती है। कुशल के दो प्रकार हैंउपशमश्रेणी के पतनकाल में औदयिकभाव के कारण द्रव्य कुशल-जो कुश को दात्र से इस प्रकार से काटता है कि अतिचार संभव है। वह उससे स्वयं छिन्न नहीं होता। औपशमिक और क्षायिक दर्शन-चारित्र में स्वस्थान में भाव कुशल-जो दात्रसदृश पंचविध आचार के द्वारा कर्मकुश अतिचार नहीं होता, परस्थान में प्रतिसेवना की भजना है। को काटता है। क्षायोपशमिक भाव-क्षायोपशमिक भाव में वर्तमान निर्ग्रन्थ अब्भुट्ठाणे आसण, किंकर अब्भासकरणमविभत्ती। के ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इन तीनों में स्वस्थान और परस्थान पडिरूवजोगजुंजण, नियोगपूजा जधाकमसो॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ६२ आगम विषय कोश-२ अफरुस-अणवल-अचवलमकुक्कुयमदंभगोमसीभरगा। • समाहित-उसका चित्त उपधान आदि करने में सम्यक् सहित-समाहित-उवहित-गुणनिधि आयारकुसलो उ॥ प्रतिष्ठित होता है। वह उपशम भाव में रहता है। अब्भुटाणं गुरुमादी, आसणदाणं च होति तस्सेव। ० उपहित-ज्ञान आदि में रमण करता हुआ आत्मा की अधिक गोसे व य आयरिए, संदिसहे किं करोमि त्ति॥ निर्मलता चाहता हुआ, सदा गुरुसन्निधि में रहता है। अब्भासकरणधम्मुज्जुयाण अविभत्तसीसपाडिच्छे। , पडिरूवजोग जह पेढियाय जुंजण करेति धुवं॥ ___ आचारचूला-आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कंध। पूयं जधाणुरूवं, गुरुमादीणं करेति कमसो उ। द्र आगम ल्हादीजणणमफरुसं, अणवलया होतऽकुडिलत्तं॥ आचार्य-परम आचार कुशल और सामाचारी-प्रशिक्षण अचवलथिरस्स भावो, अप्फंदणया य होति अकुयत्तं। में निपुण । तीर्थंकर की अनुकृति । जो शिष्यों उल्लावलालसीभर, सहिता कालेण नाणादी॥ की वाचना देने वाले। सम्मं आहितभावो, समाहितो उवहितो समीवम्मि। नाणादीणं तु ठितो, गुणनिहि जो आगर गुणाणं॥ १. आचार्य कौन? अर्हता के स्थान (व्यभा १४८१-१४८७) २. प्रशस्य आचार्य : आगाढप्रज्ञ आदि ३. गणधारण का लक्ष्य : सागर की उपमा आचारकुशल वह होता है, जो ० चन्द्र, सरोवर एवं चक्री की उपमा ० अभ्युत्थान--गुरु आदि के आने पर खड़ा होता है। ० श्रीगृह की उपमा : तोसलिक दृष्टांत ० आसन-उन्हें आसन प्रदान करता है। * आचार्य अर्हत् की अनुकृति द्र संघ ० किंकर-प्रात: गुरुचरणों में उपस्थित हो पछता है-किं ४. आचार्य के प्रकार : प्रवाजनाचार्य..... करोमि-मुझे क्या करना है? आज्ञा दें। * वाचनाचार्य के प्रकार द्र वाचना ० अभ्यासकरण-सदा गुरु के उपपात में रहता है। * वाचना से महानिर्जरा द्र वैयावृत्त्य ० अविभक्ति-शिष्य और प्रतीच्छकों में अभेदबुद्धि रखता है। * आचार्य (अनुयोगदाता) के छत्तीस गुण० प्रतिरूपयोग-कायिक विनय आदि में जागरूक होता है। * आर्यकालक का स्वर्णभूमि-गमन - द्र अनुयोग ० नियोग-वस्त्र आदि के उत्पादन में जो नियोजनीय है, उसे * आचार्य अर्थ के उत्प्रेक्षक उस कार्य में नियुक्त करता है। * उपाध्याय सूत्रवाचक द्र संघ ० पूजा-गुरु आदि का यथायोग्य सम्मान-बहुमान करता है। | ५. बहुश्रुत-गीतार्थ-चतुर्भंगी : गणधारण के अर्ह ० अपरुष-मन:प्रह्लादकारी वचन बोलता है। ___* भावी आचार्य : देशाटन अनिवार्य द्रविहार ० अवलय-ऋजु होता है। ६. गणधारण के योग्य की परीक्षाविधि ० अचपल-स्वभाव से स्थिर होता है। ७. गणधारण से पूर्व स्थविर पृच्छा _ . गणधारक को तीन शिष्य ० अकुत्कुच-मुख आदि से विरूपचेष्टा नहीं करता। ८. एकपाक्षिक आचार्य-पदयोग्य ० अदम्भक-वंचनायुक्त वचन नहीं बोलता। । ० एकपाक्षिक के विकल्प ० असीभरक-बोलता हुआ दूसरों पर थूक नहीं उछालता। ० एकपाक्षिक न होने से हानि : अन्य विकल्प उल्लिखित अभ्युत्थान आदि क्रियाएं विनयबहुल ९. नवनिर्वाचित आचार्य का दायित्व वीर्याचार की सूचक हैं। |१०. आचार्य आदि पद : न्यूनतम संयमपर्याय-श्रुत ० सहित-यह 'काले कालं समायरे' का प्रतिरूप है। आचार ११. अल्प पर्याय वाला श्रमण आचार्य क्यों? कैसे? कुशल साधु स्वाध्याय, प्रतिलेखना, तप आदि सब कार्य * अभिषेक : आचार्य पदयोग्य द्र अभिषेक समय पर करता है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ १२. आचार्य आदि पदों के अनर्ह • दोषसेवन से आचार्यत्व आदि के निषेध की सीमा * निशीथ - विस्मृति: पद का निषेध * अशिष्य आचार्यपद के अयोग्य १३. आचार्य के प्रकार : गीतार्थ व सारणा के आधार पर द्र छेदसूत्र द्र अंतेवासी • सारणा वारणा का मूल्य • सारणा वारणा : दो दृष्टांत ० असारणा का दुष्परिणाम १४. अबहुश्रुत-अगीतार्थ आचार्य: सर्पशीर्ष दृष्टांत वैद्यपुत्र दृष्टांत O | १५. अगीतार्थ की आचार्य पद पर स्थापना से प्रायश्चित्त * गणिविहीन गण नहीं द्र संघ १६. आचार्य आदि की निश्रा : द्विसंगृहीत- त्रिसंगृहीत १७. आचार्य - उपाध्याय और साध्वी ० स्थविरा साध्वी : निश्रा संबंधी विकल्प * दिशा : आचार्य - उपाध्याय १८. आचार्य - उपाध्याय के अतिशेष द्र दिग्बंध ० अतिशेष के हेतु ० एकाकी रहने के हेतु : विद्यापरावर्तन महाप्राणध्यान • एक शिष्य के साथ विहार क्यों ? ० आचार्य के चरण-प्रमार्जन की विधि • भिक्षार्थ न जाने के हेतु | १९. अन्य पांच अतिशय : शिष्यों द्वारा सम्पादित ० योगसंधान : शिष्यों की जागरूकता २०. अतिशयों की उपजीविता : आर्यसमुद्र-मंगु दृष्टांत * आचार्य की समृद्धिसम्पन्नता द्र गणिसम्पदा २१. आचार्य सुलक्षण हो ': सलक्षण कुमार दृष्टांत २२. आचार्य चिकित्साविधिज्ञ : संयोगदृष्टपाठी २३. शक्तिसम्पन्न आचार्य : कुमार दृष्टांत द्र जिनकल्प २४. इत्वरिक तथा यावत्कथिक आचार्य की स्थापना * इत्वरिक गणनिक्षेप : गणपालन दुष्कर * नये आचार्य, शिष्यों को शिक्षा | २५. सापेक्ष-निरपेक्ष राजा और आचार्य | २६. सापेक्ष द्वारा भावी आचार्य की प्रतिष्ठा २७. निरपेक्ष राजा की मृत्यु : मूलदेव दृष्टांत २८. निरपेक्ष आचार्य कालगत, पदाभिषेक विधि • निरपेक्ष के कालगत की पूर्व घोषणा से हानि ६३ २९. गणधारक के आभाव्य पुरुषयुग ३०. पश्चात्कृत शिष्य : आभवद् व्यवहार ३१. आचार्य की ऋणमुक्ति के उपाय ० आचार विनय : सामाचारी में नियोजन O श्रुतविनय : निःशेष वाचना ० विक्षेपणा विनय : सम्यक्त्व आदि में प्रतिष्ठापन दोषनिर्घातना विनय : कषाय-कांक्षा-विनयन O * आचार्य आदि : एकलविहारप्रतिमा | ३२. आचार्य वैयावृत्त्यकारी कैसे ? * परिहार तप : आचार्य द्वारा वैयावृत्त्य * पारंचित प्रायश्चित्त : आचार्य का दायित्व * अनुपशांत को आचार्य द्वारा प्रेरणा * आलोचनाई (आचार्य) का व्यवहार * व्यवहारी (आलोचनाई) की अर्हता ३३. आचार्य : इहलोक-परलोक हितकारी ३४. असंक्लेशकर आचार्य : प्रासाद दृष्टांत * आचार्य के वैयावृत्त्य से महानिर्जरा * आचार्य की आशातना से आराधना नहीं ३५. आचार्य -अवज्ञा से श्रुत-हानि * उपसम्पदा और आचार्य * आचार्य - उपाध्याय और जिनकल्प * आचार्य अंगबाह्य के रचयिता * आचार्य परम्परा आचार्य द्र प्रतिमा द्र परिहार तप द्र पारांचित द्र अधिकरण द्र आलोचना द्र व्यवहार द्रवैयावृत्त्य द्र आशातना द्र उपसम्पदा द्र जिनकल्प द्र आगम द्र स्थविरावलि १. आचार्य कौन ? अर्हता के स्थान आयरिय-उवज्झाया, नाणुण्णाता जिणेहि सिप्पट्ठा । नाणे चरणे जोगा, पावगा उ तो अणुण्णाता ॥ (व्यभा १९३२) अर्हतों द्वारा आचार्य-उपाध्याय का पद शिल्पशिक्षा देने के लिए अनुज्ञात नहीं है । जो शिक्षा ज्ञानयोग, दर्शनयोग और चारित्रयोग की प्रापक हो, इस योगत्रयी की वृद्धि करने वाली हो, उसी शिक्षा के लिए वे अनुज्ञात हैं। पढिय सुय गुणिय धारिय, करणे उवउत्तो छहिं वि ठाणेहिं । छट्ठाण संपत्तो, गणपरिट्टी अणुन्नाओ ॥ (बृभा ७०८ ) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य आगम विषय कोश-२ जिसने निशीथ का सूत्रतः पूर्ण अध्ययन किया हो, गुरु के गणधारण केवल निर्जरा के लिए करना चाहिए, पूजापास अर्थ को ग्रहण किया हो, परावर्त्तना और अनप्रेक्षा द्वारा प्रतिष्ठा के लिए नहीं। गणधारक उस महान् सरोवर के सूत्रार्थ का अच्छा अभ्यास किया हो, जो विधि-निषेध के समान होना चाहिए, जो विकस्वर कमलों से शोभित हो। विधान में कुशल हो, पांच महाव्रत और रात्रिभोजन-विरमण में जैसे समुद्र विजृम्भमाण मीन-मकरों से संक्षुब्ध नहीं होता, जागरूक हो-इस प्रकार जो पठित, श्रुत, गुणित, धारित, वैसे ही वह भी परवादियों से क्षुब्ध नहीं होता। वह गण का यथोक्तकरण और छह व्रतों में अप्रमत्त-इन छह स्थानों से संग्रहण करता हुआ क्लांत नहीं होता। विशाल पद्मसरोवर की सम्पन्न होता है, वही तीर्थंकरों और गणधरों द्वारा आचार्य पद के भांति उसके पास भी सदा जनसंकुलता रहती है। लिए अनुज्ञात है। वह आहार, वस्त्र आदि की लब्धि से सम्पन्न होता २. प्रशस्य आचार्य : आगाढप्रज्ञ आदि है। उसके वचन आदेय होते हैं, शरीर के अवयव परिपूर्ण गणधारिस्साहारो, उवकरणं संथवो च उक्कोसो। होते हैं। वह विद्वज्जनपूज्य और मतिमान् होता है। ऐसा गणधारी ही अपने शिष्यों और सब लोगों की दृष्टि में पूज्य सक्कारो सीसपडिच्छगेहि गिहि-अन्नतित्थीहिं॥ होता है। सुत्तेण अत्थेण य उत्तमोउ, आगाढपण्णेसुय भावितप्पा। जच्चन्नितोवा कत्थयंतो॥ ० चन्द्र, सरोवर एवं चक्री की उपमा (व्यभा १४०२, १४०३) सन्निसेन्जागतं दिस्स, सिस्सेहि परिवारितं। गणधारी का आहार, उपकरण, संस्तव-ये सब उत्कृष्ट कोमुदीजोगजुत्तं वा, तारापरिवुडं ससिं॥ गिहत्थपरतित्थीहिं, संसयत्थीहि निच्चसो। होते हैं । वह शिष्यों, प्रतीच्छकों, गृहस्थों और अन्यतीर्थिकों सेविजंतं विहंगेहिं, सरं वा कमलोज्जलं॥ द्वारा सत्कृत-पूजित होता है। खग्गूडे अणुसासंतं, सद्धावंतं समुज्जते। जो सूत्र और अर्थ का पारगामी है, जो आगाढप्रज्ञ शास्त्रों गणस्स अगिला कुव्वं, संगहं विसए सए॥ से भावित है (जिन शास्त्रों के अध्ययन में गहन प्रज्ञा का इंगितागारदक्खेहिं, सदा छंदाणुवत्तिहिं । उपयोग करना होता है, उन गहन-गंभीर शास्त्रों के तात्पर्यार्थ को पकड़ने में जिसकी बुद्धि निपुण है), जो आभिजात्य है, अविकूलितनिद्देस, रायाणं व अणायगं॥ जिसका चिन्तन विशद है, ऐसे गुणसम्पन्न गणधारी की सब (व्यभा २०००-२००३) संस्तुति करते हैं। कार्तिकी पूर्णिमा की रात्रि में तारागण से परिवृत चन्द्रमा की भांति सुन्दर निषद्या पर उपविष्ट, शिष्यों से परिवृत ३. गणधारण का लक्ष्य : सागर की उपमा __ आचार्य शोभित होते हैं। किं नियमेति निज्जरनिमित्तं न उ पूयमादिअट्ठाए। गृहस्थों, परतीर्थिकों और जिज्ञासु साधुओं से निरन्तर धारेति गणं जदि पहु, महातलागेण सामाणो॥ सेव्यमान आचार्य ऐसे लगते हैं मानो पक्षी कमलों से परिमण्डित तिमि-मगरेहि न खुब्भति, जहंबुनाधो वियंभमाणेहिं। सरोवर का आसेवन कर रहे हों। सोच्चिय महातलागो, पफल्लपउमं च जं अन्नं॥ __आचार्य स्वच्छन्द व्यक्तियों को अनुशासित करते हैं, परवादीहि न खुब्भति, संगिण्हंतो गणंचन गिलाति। अनशासितों में (गण के अनुशासितों में (गण के प्रति) महान् श्रद्धा समुत्पन्न करते होती य सदाभिगमो, सत्ताण सरोव्व पउमड्डो॥ हैं। वे आत्मोत्साह से (तथा निर्जरार्थिता से) शिष्यों आदि आहारवत्थादिसुलद्धिजुत्तं, आदेज्जवक्कंच अहीणदेहं। का संग्रहण कर यथाशक्ति गण की श्रीवृद्धि करते हैं। सक्कारभज्जम्मि इमम्मिलोए, पूर्यति सेहाय पिहुज्जणाय॥ इंगिताकार-सम्पन्न और छन्दानुवर्ती (गुरु के अभिप्राय (व्यभा १३६९-१३७१, १३९९) के अनुकूल वर्तन करने वाले) शिष्य गुरु-आज्ञा की सदा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ आचार्य अखण्ड आराधना करते हैं, जैसे लोग चक्रवर्ती की आज्ञा की ४. आचार्य के प्रकार : प्रव्राजनाचार्य....... आराधना करते हैं। चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहा-पव्वावणा० श्रीगृह की उपमा : तोसलिक दृष्टांत यरिए नाममेगे नो उवट्ठावणायरिए, उवट्ठावणायरिए जह राया तोसलिओ, मणिपडिमा रक्खते पयत्तेण। नाममेगे नो पव्वावणायरिए, एगे पव्वावणायरिए वि तह होति रक्खियव्वो, सिरिघरसरिसो उ आयरिओ॥ उवट्ठावणायरिए वि, एगे नो पव्वावणायरिए नो उवट्ठापडिमुप्पत्ती वणिए, उदधीउप्पात उवायणं भीते। वणायरिए धम्मायरिए॥ रयणदुगे जिणपडिमा, करेमि जदि उत्तरेऽविग्धं ॥ चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहा-उद्देसणायरिए उप्पा उवसम उत्तरणमविग्धं एक्कपडिमकरणं वा। नाममेगे नो वायणायरिए, वायणायरिए नाममेगे नो देवयछंदेण ततो, जाता बितिए वि पडिमा उ॥ उद्देसणायरिए, एगे उद्देसणायरिए वि वायणायरिए वि, एगे "ता दीवएण पडिमा, दीसंतिधरा उ रयणाई॥ नो उद्देसणायरिए नोवायणायरिए-धम्मायरिए॥ सोऊण पाडिहेरं, राया घेत्तूण सिरिहरे छुभति। (व्य १०/१५, १६) मंगलभत्तीय ततो, पूएति परेण जत्तेण॥ जो पुण नोभयकारी, सो कम्हा भवति आयरीओ उ। पूयंति य रक्खंति य, सीसा सव्वे गणिं सदा पयता। भण्णति धम्मायरिओ, सो पुण गिहिओ व समणो वा॥ इध परलोए य गुणा, हवंति तप्पूयणे जम्हा॥ धम्मायरि पव्वावण, तह य उवट्ठावणा गुरू ततिओ। ___(व्यभा २५६०-२५६४, २५६६) कोइ तिहिं संपन्नो, दोहि वि एक्केक्कएणं वा॥ आचार्य श्रीगृह के समान होते हैं, अतः उनकी वैसे (व्यभा ४५९२, ४५९३) ही रक्षा करनी चाहिए, जैसे तोसलिक नृप ने श्रीगृह में मणि- आचार्य के चार प्रकार हैं- . प्रतिमाओं की रक्षा की थी। १. कुछ आचार्य प्रव्रज्या (मुनिवेश) देने वाले होते हैं, किन्तु प्रतिमाउत्पत्ति-एक रत्नवणिक् समुद्रयात्रा कर रहा उपस्थापना (महाव्रतों में आरोपित) करने वाले नहीं होते। था। उपद्रव उपस्थित हुआ। वणिक् ने भयभीत होकर २. कुछ आचार्य उपस्थापना करने वाले होते हैं, किन्तु प्रव्रज्या देवता की मनौती की-यदि मैं निर्विघ्न पार पहुंच जाऊं तो देने वाले नहीं होते। मणिरत्नमय दो जिनप्रतिमाएं बनवाऊंगा। उपद्रव शांत हो ३. कुछ आचार्य प्रव्रज्या भी देते हैं और उपस्थापित भी गया। वह निर्विघ्न समुद्र के पार पहुंच गया। मन में लोभ जागा। अतः मणिरत्नमय एक प्रतिमा बनवाई। देवता के ४. कुछ आचार्य न प्रव्रज्या देते हैं और न उपस्थापित करते अभिप्राय से दूसरी प्रतिमा भी निर्मित हो गई। हैं। यहां आचार्य धर्माचार्य की कक्षा के हैं (वे केवल धर्माचार्य दीपक के प्रकाश में वे प्रतिमा के रूप में दृश्य होती होते हैं)। थीं अन्यथा रत्न ही दिखाई देते थे। प्रतिमाओं का यह चमत्कार । शिष्य ने पूछा-जो न प्रव्रज्या देता है, न उपस्थापना सुनकर राजा तोसलिक ने उनको अपने श्रीगृह भांडागार में करता है, वह आचार्य कैसे? रखवा दिया। राजा मंगलबुद्धि और परम भक्ति से यत्नपूर्वक आचार्य ने कहा-जो धर्मोपदेश देता है, प्रथम बार धर्म उनकी पूजा करता। में प्रेरित करता है, वह धर्माचार्य होता है। वह गृहस्थ या इसी प्रकार सब शिष्य रत्नतुल्य आचार्य की सदा श्रमण कोई भी हो सकता है। प्रयत्नपूर्वक पूजा-रक्षा करते हैं। गुरु की पूजा करने से इस धर्माचार्य, प्रव्राजनाचार्य और उपस्थापनाचार्य-ये तीनों लोक और परलोक में महान् गुणों की प्राप्ति होती है-विपुल पृथक्-पृथक् भी हो सकते हैं अथवा एक ही व्यक्ति दोनों श्रुतलाभ और मोक्षमार्ग की आराधना होती है। या तीनों प्रकार का आचार्य भी हो सकता है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य आचार्य चार प्रकार के होते हैं 200 ६६ १. कुछ उद्देशनाचार्य (सूत्र पढ़ने का आदेश देने वाले) होते हैं, किन्तु वाचनाचार्य (पढ़ाने वाले) नहीं होते । २. कुछ वाचनाचार्य होते हैं, उद्देशनाचार्य नहीं । ३. कुछ आचार्य दोनों होते हैं। ४. कुछ दोनों नहीं होते, केवल धर्माचार्य होते हैं। एक ही व्यक्ति धर्माचार्य, उद्देशनाचार्य और वाचनाचार्य हो सकता है। ********** ५. बहुश्रुत - गीतार्थ - चतुर्भंगी : गणधारण के अर्ह अबहुस्सुतऽगीतत्थे जो सो चउत्थभंगो, दव्वे भावे य होति संछण्णो । गणधारणम्मि अरिहो, सो सुद्धो होति नायव्वो ॥ अबहुश्रुतागीतार्थपदाभ्यां भङ्गचतुष्टयम् । तद्यथा - बहुत अगीतार्थ इति प्रथमो भङ्ग, अबहुश्रुतो गीतार्थः, बहुश्रुतोऽगीतार्थः, बहुश्रुतो गीतार्थः । तत्र यस्य निशीथादिकं सूत्रोऽर्थतो वा न गतं प्रथमभङ्गः । यस्य पुनर्निशीथादिगौ सूत्रार्थी विस्मृतौ स द्वितीयभङ्गः । पुनरेकादशाङ्गधारी अश्रुतार्थः स तृतीयभङ्गः । सकलकालोचितसूत्रार्थोपेतश्चतुर्थः । (व्यभा १४१८, १४२१ वृ) अबहुश्रुत-अगीतार्थ के चार विकल्प हैं १. अबहुश्रुत-अगीतार्थ - जिसे निशीथ आदि आगम सूत्रतः और अर्थतः ज्ञात नहीं है। २ अबहुश्रुत गीतार्थ - जो निशीथ आदि सूत्र अर्थसहित पढ़ सीख चुका है, किन्तु वर्तमान में वे विस्मृत हो चुके हैं। ३. बहुश्रुत अगीतार्थ - जो ग्यारह अंगों का धारक है, किन्तु जिसने उनका अर्थ नहीं सुना जाना है। ४. बहुश्रुत गीतार्थ - जो समग्रता से समयोचित सूत्र और अर्थ से सम्पन्न (सूत्रार्थ का ज्ञाता ) है । चतुर्थ भंगवर्ती शुद्ध है, गणधारण के योग्य है, क्योंकि वह द्रव्य और भाव से संछन्न- शिष्य समुदय और श्रुत से सम्पन्न होता है। उवसंपाविय पव्वाविता य अण्णे य तेसि संगहिता । एरिसए देति गणं...... ॥ (व्यभा १९१३) आगम विषय कोश - २ देशाटन करते हुए जिस शिष्य ने बहुतों को उपसम्पदा दी है, बहुतों को प्रव्रजित किया है और बहुतों को संगृहीत किया है, आचार्य उस पूर्णतः योग्य शिष्य को गण का भार सौंपते हैं। भिक्खू य इच्छेज्जा गणं धारेत्तए, भगवं च से अच्छिन्ने एवं से नो कप्पइ गणं धारेत्तए । भगवं च से पलिच्छन्ने, एवं से कप्पड़ गणं धारेत्तए ॥ (व्य ३/१) जो भगवान् भिक्षु गण को धारण करना चाहे, वह यदि अपरिच्छन्न - श्रुत और शिष्य सम्पदा से विहीन है, उस स्थिति में गण को धारण नहीं कर सकता। परिच्छन्न- भिक्षु गण को धारण कर सकता है। .......गुणपरिवुड्डीय ठाणलंभो उ।........ भिक्षुर्गुणाधिकत्वेन गणावच्छेदकस्थानं लभते । गणावच्छेदको गुणाधिकतया आचार्योपाध्यायस्थानम् । (व्यभा २१९१ वृ) भिक्षु अतिशय गुणों से युक्त होकर गणावच्छेदक का पद प्राप्त करता है और गणावच्छेदक अतिशय गुण - वृद्धि से आचार्य - उपाध्याय का पद प्राप्त करता I ६. गणधारण के योग्य की परीक्षाविधि सुद्धस्स य पारिच्छा, खुड्डय थेरे य तरुणखग्गूडे । दोमादिमंडलीए, सुद्धमसुद्धे ततो पुच्छा ॥ उच्चफलो अह खुड्डो, सउणिच्छावो व पोसिउं दुक्खं । पुट्ठो वि होहिति न वा, पलिमंथो सारमंतस्स ॥ पुट्ठो वासु मरिस्सति, दुराणुयत्ते न वेत्थ पडिगारो । सुत्तत्थपारिहाणी, थेरे बहुयं निरत्थं तु ॥ अहियं पुच्छति ओगिण्हते बहुं किं गुणो मि रेगेणं । होहितिय विवर्द्धतो, एसो हु ममं पडिसवत्ती ॥ कोधी व निरुवगारी, फरुसो सव्वस्स वामवट्टो य । अविणीतो त्ति च काउं, हंतुं सत्तुं च निच्छुभती ॥ वत्थाहारादीभि य, संगिण्हऽणुवत्तए य जो जुयलं । गाहेति अपरितंतो, गाहण सिक्खावए तरुणं ॥ खरमउएहिऽणुवत्तति, खग्गूडं जेण पडति पासेण । देमो विहार विजढो, तत्थोड्डुणमप्पणा कुणति ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश--२ आचार्य इय सुद्धसुत्तमंडलि, दाविज्जति अत्थमंडली चेव। समर्पित वक्रस्वभावी के लिए वह सोचता है-यह क्रोधी, दोहिं पि असीदंते, देति गणं......॥ निरुपकारी, परुषभाषी, सबके प्रतिकूल वर्तन करने वाला और (व्यभा १४२२-१४२९) अविनीत है-यह सोचकर उसे शत्रु की तरह आहत कर जो शिष्य गणधारण के योग्य हो. उसकी परीक्षा निकाल देता है, वह भी गणधारण के अयोग्य है। करनी चाहिए और उत्तीर्ण होने पर ही गणधरपद की जो गणधारण की अर्हता से सम्पन्न है, वह क्षुल्लक अनुज्ञा देनी चाहिए। परीक्षा के बिंदु ये हैं और वृद्ध का आहार, वस्त्र आदि द्वारा संग्रहण करता है, ० क्षुल्लक विषयक परीक्षा-तुम इस शैक्ष का ग्रहण-आसेवन सम्यक् अनुवर्तन करता है तथा मेधावी तरुण को अक्लांत शिक्षा द्वारा निर्माण करो-गुरु के इस निर्देश पर यदि वह भाव से ग्रहण और आसेवन शिक्षा में निपुण बनाता है। सोचता है खग्गूड के साथ कोमल-कठोर वचनों से ऐसा व्यवहार यह शैक्ष चिरकाल के पश्चात मेरा उपकार करेगा. करता है, जिससे वह उसके वश में हो जाता है. माया को तब तक न जाने क्या होगा? क्यों इसे शिक्षित करूं? अथवा छोड़ देता है। जो खग्गूड छलपूर्वक एक स्थान को छोड़ पक्षी-शावक की भांति इसका पोषण करना कष्टप्रद है। विहार नहीं करता है, उसे भी वह मृदु-कठोर उपायों से पुष्ट होने पर भी मेरा होगा या नहीं होगा-कौन जाने? अथवा विहार के लिए तैयार कर देता है। इसकी सारणा से मेरे अध्ययन में व्याघात होगा। ऐसा चिंतन क्षुल्लक, स्थविर, तरुण और खग्गूड-इन चारों को सूत्र कर जो क्षुल्लक शैक्ष को प्रशिक्षित नहीं करता है, वह पढ़ाने में जो सफल होता है, उसे सूत्रमण्डली सौंपी जाती है। गणधारण के योग्य नहीं है। जो सूत्रमण्डली और अर्थमण्डली-दोनों में विषण्ण नहीं ० स्थविर विषयक परीक्षा-यह स्थविर आर्यरक्षित के पिता होता, अपरिश्रांतता की अनुभूति करता हुआ ज्ञानाभिलाषी की तरह प्रवचन-प्रभावक होगा-ऐसा जानकर गुरु उसे स्थविर गच्छवर्ती साधुओं और प्रतीच्छकों को वाचना देता है, उनके शैक्ष समर्पित करते हैं, तब यदि वह सोचता है- चित्त को आकर्षित-आह्लादित करता है, मूल आचार्य उसे यह वृद्ध है, पुष्ट करने पर भी न जाने कब काल- गण सौंप देते हैं। कवलित हो जाए? वृद्ध को संभालना दुष्कर है। यह प्रत्युपकार ७. गणधारण से पूर्व स्थविर पृच्छा। नहीं करेगा। जड़प्रज्ञ होने से इसे शिक्षित करने में सूत्रार्थ की भिक्खू य इच्छेज्जा गणं धारेत्तए, नो से कप्पड़ थेरे हानि होगी। इसे शिक्षित करना बहुत सार्थक नहीं है। ऐसा अणापुच्छित्ता गणं धारेत्तएजण्णं थेरेहिं अविइण्णं गणं सोच स्थविर को शिक्षित नहीं करने वाला गणधारण करने धारेज्जा, से संतरा छेओ वा परिहारो वा। (व्य ३/२) योग्य नहीं है। सयमेव दिसाबंध, अणणुण्णाते करे अणापुच्छा। ० तरुणविषयक परीक्षा-तरुण को सौंपने पर यदि वह सोचता थेरेहि य पडिसिद्धो, सुद्धा लग्गा उवेहंता॥ है-यह मेधावी है, बहुत प्रश्न करता है, बहुत ग्रहण करता है। इसे आक्षेप पद्धति (संवाद शैली या विभज्यवाद शैली) (व्यभा १४७४) से पढ़ाने में क्या लाभ है? भिक्षु गणधारण करना चाहे तो स्थविर (गच्छमहत्तर) __ यह सूत्र-अर्थ में निपुण हो गया तो मेरा प्रतिपंथी हो को पूछे बिना गण धारण नहीं कर सकता। स्थविर की अनुज्ञा जाएगा इसलिए इसे कौन पढ़ाए? क्यों पढ़ाए? ऐसा चिन्तक के बिना गणधारण करने वाला छेद या परिहार प्रायश्चित्त का गणधारक पद के अनर्ह है। भागी होता है। ० खग्गूड विषयक परीक्षण–वक्र सामाचारी वाले को शिक्षा मेरे आचार्य भावतः मुझे आचार्य बना चुके हैं, (आचार्य आदि द्वारा ऋज और कुशल बनाओ-इस निर्देश के साथ के कालगत होने पर) अब स्थविरों को क्या पछना है-ऐसा Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ६८ आगम विषय कोश-२ सोचकर जो स्वयं दिग्बंध (आचार्यत्व) करता है, स्थविर पव्वज्जाय कुलस्स य, गणस्स संघस्स चेव पत्तेयं । की अनुज्ञा प्राप्त नहीं करता, उसे स्थविर सचेत करते हैं कि समयं सुतेण भंगा, कुजा कमसो दिसाबंधो॥ 'ऐसा करना अर्हत् की आज्ञा में नहीं है । प्रतिषेध करने पर (व्यभा १२९९,१३०३) भी वह प्रतिनिवर्तित नहीं होता है, तो स्थविर शुद्ध हैं। उसे एकपाक्षिक दो प्रकार का होता हैचतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १. प्रव्रज्या से-दीक्षित होकर एक ही संघ में रहना। __ यदि स्थविर उपेक्षा करते हैं तो वे भी उपेक्षा-प्रत्ययिक २. श्रुत से-एक गुरु के पास श्रुत ग्रहण करना अथवा गुरु के चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। समान ही जिसका वाचन-श्रुतज्ञान हो। ० गणधारक को तीन शिष्य एक पाक्षिक-१. प्रव्रज्या से है, श्रुत से है। ..."पव्वाविते समाणे, तिण्णि जहन्नेण दिजंति॥ २. प्रव्रज्या से है, श्रुत से नहीं है। एगो चिट्ठति पासे, सण्णा आलित्तमादि कज्जवा। ३. श्रुत से है, प्रव्रज्या से नहीं है। भिक्खादि वियार दुवे, पच्चयहेउं य दो होउं॥ ४. न प्रव्रज्या से है, न श्रुत से है। (व्यभा १४०६, १४०७) . इसी प्रकार कुल, गण और संघ भी श्रुत के साथ विकल्पनीय हैं। आचार्य शिष्य को गणधारण की अनुज्ञा देने के पश्चात् • इनमें प्रथम विकल्पवर्ती अर्थात् जो प्रव्रज्या, कुल या प्रव्रजित शिष्यों में से कम से कम तीन शिष्य उस गणधारक गण तथा श्रुत इन दोनों से एकपाक्षिक है, वही इत्वर या को अवश्य दे। यावत्कथिक आचार्य-उपाध्याय के पद पर स्थापित करने एक शिष्य उसके पास बैठता है, वह आवश्यक कार्य योग्य है। प्रथम भंग के अभाव में तृतीय भंगवर्ती आचार्य संपादित करता है और निर्देशानसार किसी के साथ बातचीत पद पर स्थापनीय है। करना, बुलाना आदि कार्य भी करता है। शेष दो शिष्य भिक्षा, औषध आदि लाते हैं, बाहर विचारभूमि में साथ जाते हैं, ० एकपाक्षिक न होने से हानि : अन्य विकल्प सूत्रार्थ में संवादी प्रमाण भी बनते हैं। दुविध तिगिच्छं काऊण, आगतो संकियम्मि कं पुच्छे। पुच्छंति व कं इतरे, गणभेदो पुच्छणा हेउं॥ ८. एकपाक्षिक आचार्य पदयोग्य न तरति सो संधेलं, अप्पाहारो व पुच्छिउं देति। एगपक्खियस्स भिक्खुस्स कप्पति इत्तरियं दिसं। अन्नत्थ व पुच्छंते, सच्चित्तादी उ गेण्हंति॥ वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा, जहा वा तस्स ... पव्वज्जऽणेगपक्खिय, ठवयंत भवे इमे दोसा॥ गणस्स पत्तियं सिया। (व्य २/२६) दोण्ह वि बाहिरभावो, सच्चित्तादीसु भंडणं नियमा। ___ एक पाक्षिक (एक ही आचार्य के पास दीक्षा एवं होति स गणस्स भेदो, सुचिरेण न एस अम्ह त्ति॥ श्रुतग्रहण किए हुए) भिक्षु को अल्पकाल के लिए (अथवा .... पढमासति ततियभंगमित्तिरियं। यावज्जीवन के लिए) आचार्य या उपाध्याय पद पर स्थापित ततियस्सेव तु असती, बितिओ तस्साऽसति चउत्थो॥ किया जा सकता है, वह गण को धारण कर सकता है। पगतीए मिउसहावं, पगतीए सम्मतं विणीतं वा। अथवा जिसके प्रति गण की प्रीति या प्रतीति हो, उसे णाऊण गणस्स गुरुं, ठावेंति अणेगपक्खिं पि॥ आचार्य बनाया जा सकता है। (व्यभा १३०६-१३११) • एकपाक्षिक के विकल्प श्रुत से अनेकपाक्षिक के दोष-कोई साधु मोहचिकित्सा या दुविहो र गपक्खी, पव्वजसुते य होति नायव्वो। रोगचिकित्सा कर लौटा है, उसे लम्बे कालव्यवधान के सुत्तम्मि एगवायण, पव्वज्जाए कुलिव्वादी॥ कारण सूत्र-अर्थ में शंका उत्पन्न हो गई है तो वह किसके Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ आचार्य पास शंकानिवारण करे क्योंकि इत्वर आचार्य पद पर स्थापित जो शिष्य जिस लब्धि से सम्पन्न होता है, आचार्य साधु अनेकपाक्षिक है-उसकी वाचना भिन्न है। उसे उसी कार्य में नियोजित करते हैं। यथा-जो उपकरण० गच्छवासी आचार्य प्रयोजनवश अन्यत्र गए हुए हैं तो अन्य। उत्पादन में कुशल है, उसे उपकरण-ग्रहण में, सूत्रपाठ और साधु वाचना के अभाव में जिज्ञासा हेतु गच्छांतर में चले जाते अर्थग्रहण की लब्धि से सम्पन्न को सूत्रपाठ और अर्थग्रहण हैं, इससे गणभेद होता है। में, वादलब्धियुक्त को परवादीमथन में, धर्मकथाकुशल को ० स्थापित यावत्कथिक आचार्य भिन्न वाचना के कारण धर्मकथन में तथा पटू परिचारक को ग्लानसेवा में नियुक्त विस्मृत आलापकों का संधान नहीं कर सकता। करता है। इस प्रकार जैसे-जैसे शिष्यों को यथोचित कार्यों में ० अल्पश्रुत को भी श्रुत से अनेकपाक्षिक कहा गया है, वह व्याप्त करने से प्रवृत्ति या प्रयोजन की हानि नहीं होती, अल्पाधार (अल्पसूत्रार्थ ज्ञाता) होता है, इसलिए शिष्यों के वैसे-वैसे गण की श्रीवृद्धि होती है और उसी रूप में निर्जरा प्रश्न का समाधान दूसरों को पूछकर देता है। की परिवृद्धि होती है। गणांतर में जाकर पछने से गणांतरवर्ती आचार्य गीतार्थ दुविधेण संगहेणं, गच्छं संगिण्हते महाभागो। अगीतार्थ शिष्यों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं। तो विण्णवेति ते वी, तं चेव य ठाणयं अम्हं॥ प्रव्रज्या से अनेकपाक्षिक के दोष-अन्य गण की प्रव्रज्या उवगरण बालवुड्डा, खमग गिलाणे य धम्मकधिवादी। वाला साधु आचार्य बनता है तो दोनों का परस्पर अनात्मीय गुरुचिंत वायणा-पेसणेसु कितिकम्मकरणे य॥ भाव होता है-आचार्य साधुओं को और साधु आचार्य को एतेसुं ठाणेसुं, जो आसि समुज्जतो अठवितो वि। पराया समझते हैं। ० अनाभाव्य सचित्त आदि का ग्रहण होने पर नियमतः कलह ठवितो वि य न विसीदति, स ठावितुमलं खलु परेसिं॥ होता है। (व्यभा १९४२-१९४४) ० दीर्घकाल तक भी जब आत्मीयता का अध्यवसाय निर्मित नव अभिषिक्त महाभाग आचार्य दो प्रकार से गच्छ नहीं होता है तो उस गण में भेद उत्पन्न हो जाता है। का संग्रहण करते हैं अतः श्रुत-प्रव्रज्या से एकपाक्षिक आचार्य के अभाव में द्रव्य संग्रह-वस्त्र, पात्र आदि। ततीय भंगवर्ती को आचार्यपद पर स्थापित कर उसे शीघ्र भाव संग्रह-ज्ञान आदि द्वारा संग्रहण। सूत्रार्थ में निष्पादित करना चाहिए। इसके अभाव में द्वितीय गच्छ के साधु बद्धांजलि हो विज्ञप्ति करते हैं-भंते ! भंगवर्ती और उसके भी अभाव में चतुर्थ भंगवर्ती आचार्य हमारी अपने-अपने स्थान पर पुनः नियुक्ति करें। वे स्थान ये स्थापनीय है। जो प्रकृति से मृदुस्वभावी है, जिसकी प्रकृति समस्त ० उपकरण-उपकरणों के उत्पादन कार्य में नियुक्त। गच्छ द्वारा मान्य है और जो विनीत है, उसे आत्मीय जानकर ० वैयावृत्त्य-बाल, वृद्ध, तपस्वी या ग्लान की वैयावृत्त्य में अनेकपाक्षिक होने पर भी गण में आचार्य पद पर स्थापित किया जाता है। ० धर्मकथा-धर्मकथा करने में नियुक्त। ९. नवनिर्वाचित आचार्य का दायित्व ० वाद-पर-वादों के निरसन में निरत। जो जाए लद्धीए, उववेतो तत्थ तं नियोएति। • गुरुचिंता--गुरुसेवा में नियुक्त, गुरु के प्रत्येक कार्य को उवकरणसुते अत्थे, वादे कहणे गिलाणे य॥ जिम्मेवारी से करने वाला। जध जध वावारयते, जधा य वावारिता न हीयंति। वाचना-वाचनाचार्य के पद पर नियुक्त। तध तध गणपरिवुड्डी, निजरवुड्डी वि एमेव॥ . प्रेषण-मुनियों को यत्र-तत्र प्रेषण कार्यों में नियुक्त। (व्यभा १४११, १४१२) ० कृतिकर्मकरण-विश्रामणा आदि कार्यों में नियुक्त। नियुक्त। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ७० जो इन उपकरण आदि स्थानों में आचार्यपदनियुक्ति से पूर्व भी जो सदा समुद्यत रहते थे, वे आचार्य बनने के पश्चात् भी इन स्थानों में विषण्ण नहीं होते, पूर्व अभ्यास के कारण खेद - खिन्न नहीं होते। ऐसे आचार्य ही दूसरे साधुओं को इन स्थानों में नियोजित करने में समर्थ होते हैं । गीतमगीता बहवो, गीतत्थसलक्खणा उ जे तत्थ । सिं दिसाउ दाउ, वितरति सेसे जहरिहं तु ॥ मूलायरि राइणिओ, अणुसरिसो तस्स होउवज्झाओ। गीतमगीता सेसा, सज्झिलगा होंति सीसाहा ॥ राइणिया गीतत्था, अलद्धिया धारयंति पुव्वदिसं । अपहुव्वंत सलक्खण, केवलमेगे दिसाबंधो ॥ सीसे य पहुव्वंत, सव्वेसि तेसि होति दायव्वा । अपहुप्पंतेसुं पुण केवलमेगे दिसाबंधो ॥ अच्चित्तं च जहरिहं, दिज्जति तेसुं च बहुसु गीतेसु । एस विधी अक्खातो, अग्गीतेसुं इमो उ विधी ॥ अरिहं व अनिम्माउं, णाउं थेरा भणंति जो ठवितो । एतं गीतं काउं, देज्जाहि दिसिं अणुदिसिं वा ॥ सो निम्माविय ठवितो, अच्छति जदि तेण सह ठितो लद्धं । अह न वि चिट्ठति तहियं, संघाडो तो सि दायव्वो । (व्यभा १३२३ - १३२९) गच्छ में अनेक साधु गीतार्थ और अगीतार्थ होते हैं । उनमें जो आचार्यपद योग्य हों, लक्षणसम्पन्न हों, रानिक हों, संग्रह - उपग्रह की लब्धि से सम्पन्न हों, उन्हें दिशा (आचार्य पद) देकर शेष साधुओं को यथायोग्य (अनुरत्नाधिक आदि ) पद प्रदान किये जाते हैं । जो रानिक (दीक्षापर्याय में बड़े) और गीतार्थ हैं किन्तु लब्धिसम्पन्न नहीं हैं, वे पूर्वदिशा (पूर्वाचार्य द्वारा प्रदत्त दिशा अनुरत्नाधिकत्व आदि) को धारण करते हैं । उन्हें आचार्य या उपाध्याय पद पर आरोपित नहीं किया जाता। अनेक आचार्य वहां होते हैं, जहां बहुत साधु होते हैं। प्रत्येक आचार्य के साधु-परिवार की संख्या अपर्याप्त हो तो वहां केवल एक उसी को ही आचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया जाता है, जो आचार्य के लक्षणों से सम्पन्न होता है। शेष सब साधु शिष्यत्व से अनुबंधित होते हैं । उपाध्याय मूल आचार्य के अनुरूप तथा शेष गीतार्थ अनुरत्नाधिक और अगीतार्थ शिष्य होते हैं । ० उपकरण वितरण - आचार्यपद पर स्थापित गीतार्थों को यथायोग्य वस्त्र, पात्र आदि उपकरण वितरित किए जाते हैं । • आचार्य पद योग्य शिष्य का निष्पादन- जो आचार्यपद योग्य है, किन्तु अभी तक अगीतार्थ है, उसके लिए स्थविर (वृद्धाचार्य) तत्काल स्थापित आचार्य को निवेदन करते हैं- भंते! अमुक साधु को गीतार्थ बनाकर दिशा या अनुदिशा (आचार्य या उपाध्याय पद) प्रदान करें।' इस निवेदन पर आचार्य उसे सूत्र - अर्थ में निष्पन्न कर आचार्यपद पर स्थापित करते हैं । वह नव स्थापित आचार्य गुरु के साथ रहना चाहे तो गुरु के साथ रहे, स्वतंत्र विहार करना चाहे तो उसे एक संघटक समर्पित किया जाता है। ( वह गणधर द्वारा प्रदत्त दो-तीन सहयोगियों और पूर्व आचार्य द्वारा प्रदत्त वैयावृत्त्यकर को पढ़ाता है। उसके पास अभिनव प्रव्रजित साधु भी उसी के शिष्य होते हैं ।) आगम विषय कोश - २ १०. आचार्य आदि पद : न्यूनतम संयमपर्याय- श्रुत तिवासपरियाए समणे निग्गंथे आयारकुसले, संजमकुसले, पवयणकुसले, पण्णत्तिकुसले, संगहकुसले, उग्गहकुसले अक्खयायारे असबलायारे अभिन्नायारे असंकिलिट्ठायारे बहुस्सुए बब्भागमे जहण्णेणं आयारपकप्पधरे कप्पइ उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए ॥ पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे "जहण्णेणं दसाकप्पववहारधरे कप्पड़ आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए ॥ अवासपरियाए समणे निग्गंथे जहण्णेणं ठाणसमवायधरे कप्पड़ आयरियत्ताए उवज्झायत्ताए पवत्तित्ताए थेरत्ताए गणित्ताए गणावच्छेइयत्ताए उद्दिसित्तए ॥ (व्य ३/३, ५, ७) आधाकम्मुद्देसिय परिहरति असण-पाणं, सेज्जोवधिपूति-संकितं मीसं । अक्खुतमसबलमभिन्नऽसंकिलिट्ठमावासए जुत्तो ॥ आवश्यके युक्तः स्थापितादिपरिहारी अक्षता **************** ************** Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ चारः अभ्याहृतादिपरिहारी अशबलाचारः । जात्योपजीवनादि परिहरन् अभिन्नाचारः । दोषपरिहारी असंक्लिष्टः । (व्यभा १५२०, १५२१ वृ) जो तीन वर्ष का दीक्षित श्रमण निर्ग्रन्थ आचारकुशल, संयमकुशल, प्रवचनकुशल, प्रज्ञप्तिकुशल (स्वसमय तथा परसमय के निरूपण में दक्ष), संग्रह-उपग्रहकुशल, अक्षत, अशबल, अखंड और असंक्लिष्ट चारित्र वाला, बहुश्रुतबहुआगम (प्रभूत सूत्र - अर्थ का ज्ञाता) तथा जघन्यतः आचारप्रकल्पधर, (उत्कृष्टत: द्वादशांगविद्) है, उसे उपाध्याय के रूप में नियुक्त किया जा सकता है। पांच वर्ष की प्रव्रज्या पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रथ जघन्यतः दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प और व्यवहार का धारक आचार्य - उपाध्याय पद पर नियुक्त किया जा सकता है 1 आठ वर्ष का दीक्षित श्रमण निर्ग्रन्थ जघन्यतः स्थानांग और समवायांग का ज्ञाता (स्थान- समवायधर) मुनि आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी और गणावच्छेदक पद पर नियुक्त किया जा सकता है। ७१ • अक्षताचार - अशन, पान, शय्या और उपधि संबंधी आधाकर्म, औद्देशिक, पूति, शंकित, मिश्र, स्थापित आदि दोषों का परिहार करने वाला तथा आवश्यक में उद्यमी । ० अशबलाचार - अभ्याहत आदि दोषों का परिहारी । ० अभिन्नाचार - जाति आदि बताकर जीविका नहीं चलाने वाला । ० असंक्लिष्टाचार - इहपरलोक की आशंसा आदि दोषों से मुक्त । ११. अल्प पर्याय वाला श्रमण आचार्य क्यों ? कैसे ? निरुद्धपरियाए समणे निग्गंथे कप्पइ तद्दिवसं आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए । से किमाहु भंते! अतिथ णं थेराणं तहारूवाणि कुलाणि कडाणि पत्तियाणि थेजाणि वेसासियाणि संमयाणि सम्मुइकराणि अणुमयाणि बहुमयाणि भवंति, तेहिं कडेहिं जं से निरुद्धपरियाए समणे निग्गंथे, कप्पड़ आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए तद्दिवसं ॥ आचार्य निरुद्धवासपरियाए समणे निग्गंथे कप्पड़ आयरियउवज्झायत्ताए उद्दित्तिए समुच्छेय कप्पंसि। तस्स णं आयारपकप्पस्स देसे अहिज्जिए देसे नो अहिज्जिए, से य अहिज्जिस्सामि त्ति अहिज्जइ, एवं से कप्पड़ आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए। से य अहिज्जिस्सामि त्ति नो अहिज्जइ, एवं से नो कप्पड़ आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए । निरुद्धो विनाशित: पर्यायो यस्य स निरुद्धपर्यायः -- तस्य पूर्वपर्यायो विकृष्टो विंशतिवर्षाण्यासीत् । त्रिषु वर्षेषु परिपूर्णेषु यस्य निरुद्धः पूर्वपर्यायो यदि वापूर्णेषु समाप्तश्रुतस्य निरुद्धवर्षपर्यायः । (व्य ३ / ९, १० वृ) निरुद्धपर्याय अर्थात् जिसने अपने बीस वर्षीय पूर्व संयम पर्याय को उत्प्रव्रजन द्वारा नष्ट कर दिया हो, वह श्रमण निर्ग्रन्थ जिस दिन पुनः संयमपर्याय ग्रहण कर रहा हो, उसी दिन उसे आचार्य - उपाध्याय के रूप में नियुक्त किया जा सकता है। (शिष्य ने पूछा) भंते! ऐसा क्यों कहा गया है ? (आचार्य कहते हैं) ऐसे अनेक कुल हैं, जो आचार्यों के लिए प्रायोग्य, प्रीतिकर, स्थिर, विश्वसनीय, सम्मत, विसंगति मिटाकर मोद उत्पन्न करने वाले, अनुमत, बहुमत । इन कुलों को इस प्रकार निर्वर्तित करने में यह निरुद्धपर्याय वाला मुनि कारणभूत है। इसलिए निरुद्धपर्याय वाले मुनि को उसी दिन आचार्य - उपाध्याय के रूप में नियुक्त किया जा सकता है । आचार्य या उपाध्याय के कालगत हो जाने पर निरुद्ध वर्ष पर्याय वाला - तीन वर्ष के मुनि-पर्याय का विनाश करने वाला अथवा असमाप्तश्रुतपर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थ जिस दिन पुनः प्रव्रजित होता है, उसी दिन उसे आचार्य - उपाध्याय पद दिया जा सकता है। उसने आचार प्रकल्प - निशीथ का देश (सूत्र) पढ़ा हो अथवा देश (अर्थ) पढ़ना शेष हो, शेष अंश को पढ़ लूंगा - यह सोचकर जो सम्पूर्ण सूत्र को पढ़ लेता है तो उसे आचार्य - उपाध्याय पद दिया जा सकता है। 'पूरा पढ़ लूंगा' ऐसा चिन्तन करके भी जो सम्पर्ण सूत्र नहीं पढ़ता, उसको आचार्य - उपाध्याय पद पर उद्दिष्ट नहीं किया जा सकता। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ७२ आगम विषय कोश-२ १२. आचार्य आदि पदों के अनर्ह कोई देश दुर्भिक्ष, महामारी या अन्य उपद्रव से आक्रान्त आयरिय-उवज्झाए आयरियउवज्झायत्तं अनि- है, वहां का राजा व्यसनी या अज्ञानी है, वह राज्य की चिंता क्खिवित्ता ओहाएज्जा, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो नहीं करता, उस राजा से राज्य सारहीन बन जाता है। उसी कप्पड़ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए प्रकार गच्छ की सारणा नहीं करने वाला आचार्य गच्छ को वा धारेत्तए वा॥ (व्य ३/२१) निस्सार बना देता है। सारणा और गीतार्थ की अपेक्षा से आचार्य के चार आचार्य-उपाध्याय पद का विसर्जन किये बिना जो विकल्प बनते हैंअवधावन या उत्प्रव्रजन करते हैं, उन्हें यावज्जीवन आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता। १. कोई आचार्य अगीतार्थ है, गच्छ की सारणा नहीं करता। २. कोई आचार्य अगीतार्थ है, गच्छ की सारणा करता है। वे स्वयं किसी पद को धारण नहीं कर सकते। ३. कोई आचार्य गीतार्थ है, गच्छ की सारणा नहीं करता। ० दोषसेवन से आचार्यत्व आदि के निषेध की सीमा ४. कोई आचार्य गीतार्थ है, गच्छ की सारणा करता है। भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म मेहुणधम्म पडि प्रथम भंग उपद्रवयुक्त देश की तरह, दूसरा भंग सेवेज्जा""ओहायइ, तिण्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं __ अज्ञानी राजा की तरह और तीसरा भंग व्यसनी राजा की नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दि- तरह परित्याज्य है। चौथा विकल्प शुद्ध है, आदरणीय है। सित्तए वा धारेत्तए वा। तिहिं संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहिं ० सारणा-वारणा का मूल्य चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि"पडिविरयस्स निवि जीहाए विलिहंतो, न भद्दओ जत्थ सारणा नत्थि। गारस्स, एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं दंडेण वि ता.तो स भद्दओ सारणा जत्थ। वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा॥ (व्य ३/१३, १८) (व्यभा ५६९) कोई भिक्षु (वेदोदय के कारण) गण से अपक्रमण कर मैथनधर्म की प्रतिसेवना करता है अथवा अवधावन करता जो आचार्य सारणा नहीं करते, वे जिह्वा से चाटते है तो उसे उस कारण से (प्रायश्चित्त स्वरूप) तीन वर्ष पर्यन्त हुए (मधुर वचनी से प्रसन्न करते हुए) भी कल्याणकारी आचार्य यावत् गणावच्छेदक का पद नहीं दिया जा सकता, नहीं हैं। वह कोई भी पद धारण नहीं कर सकता। ___ जहां सारणा होती है, प्रमत्त साधु का संयम योगों में तीन वर्ष बीतने पर चतुर्थ वर्ष के प्रवर्तित होने पर पुनः प्रवर्तन होता है, वहां आचार्य दण्ड से ताडित करते हए प्रतिविरत और निर्विकार भिक्ष को आचार्य यावत गणावच्छेदक भी एकान्त कल्याणकारी हैं। के रूप में उद्दिष्ट (नियुक्त) किया जा सकता है। वह किसी ० सारणा-वारणा : दो दृष्टांत भी पद को धारण कर सकता है। कन्नतेपुर ओलोयणेण अनिवारियं विणटुं तु। १३. आचार्य के प्रकार : गीतार्थ व सारणा के आधार पर । दारुभरो य विलतो. नगरद्वारे अवारिंतो॥ देसो व सोवसग्गो, वसणी व जहा अजाणगनरिंदो। बितिएणोलोयंती, सव्वा पिंडित्तु तालिता पुरतो। रज्जं विलुत्तसारं, जह तह गच्छो वि निस्सारो॥ भयजणणं सेसाण वि, एमेव य दारुहारी वि॥ अहवा वि अगीयत्थो, गच्छ न सारेइ इत्थ चउभंगो। (बृभा ९९१, ९९२) बिइए अगीयदोसो, तइतो न सारेतरो सुद्धो॥ महर्द्धिक दृष्टांत-महर्द्धिक (राजा) के कन्याअन्त:पुर की देसो व सोवसग्गो, पढमो तइओ तु होइ वसणी वा। कन्याएं वातायनों से झांकती थीं। उनको किसी ने रोका नहीं। बिइओ अजाणतुल्लो...........॥ उन्होंने विटपुत्रों के साथ आलाप करना शुरू कर दिया। वे (बृभा ९३७, ९४१, ९४२) सब विनष्ट हो गईं। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ७३ आचार्य अन्यत्र कन्याअन्त:पुर में किसी एक कन्या ने झरोखे प्रायश्चित्त का भागी होता है। ऐसा क्यों? असारणा करने से झांका। उसे सब कन्याओं के सामने प्रताडित किया गया वाला आचार्य गच्छ की विराधना करता है। शिष्य ने पूछातो शेष सब कन्याएं झरोखे से झांकने से डर गईं। कन्या- क्यों? आचार्य ने कहा-वह अपने शिष्यों को उन्मार्ग में जाने अन्त:पुर सुरक्षित रह गया। से नहीं रोकता। इसलिए वह गच्छ का विराधक होता है। दारुभर दृष्टांत-लकड़ियों से भरी एक गाड़ी जा रही थी। जैसे कोई व्यक्ति अपनी शरण में आए हुए (शरणागत) नगरद्वार पर बच्चे ने एक लकड़ी उठाई। किसी ने मनाही को ही मार देता है, वैसे ही सारणीय व्यक्तियों की नहीं की। तब बालकों ने एक-एक कर गाड़ी से सब लकड़ियों सारणा नहीं करने वाला आचार्य गच्छ को ही नष्ट कर को खींच लिया। देता है। दसरी गाडी के अधिकृत व्यक्ति ने प्रथम काष्ठहारी आबशत-अगीतार्थ आचार्य सर्गशीर्ष नाष्टांत को पीटा और अपनी पूरी गाड़ी को सुरक्षित रख लिया। जो गणहरो न याणति. जाणंतो वा न देसती मग्गं। ० असारणा का दुष्परिणाम सो सप्पसीसगं पिव, विणस्सती विज्जपुत्तो वा॥ ......पच्छित्तं, गणिणो गच्छं असारविंतस्स।.... सी-उाह-वासेयतमंधकारे णिच्चंपिगच्छामिजतोमिणेसी। असारणा नाम अगवेषणा-कः कुत्र गतः? को वा गंतव्वए सीसग! कंचिकालं, अहंपिता होज्ज पुरस्सरा ते॥ मामापृच्छ्य गतः ?कोवा अनापृच्छया?यद्वा प्रलम्बंगृहीत्वा ससक्करे कंटडले यमग्गे, वज्जेमि मोरेणउलादिए य। आगत्यालोचितेऽन्येन वा निवेदिते यत् प्रायश्चित्तं तन्न बिलेयजाणामि अदुटुढे माता विसूराहिअजाणिएवं॥ ददाति, दत्त्वा वा न कारयति, न वा नोदनादिना खरण्ट- तंजाणगंहोहि अजाणिगाहं, पुरस्सरंताव भवाहि अज्ज। यति, एषा सर्वाऽप्यसारणाऽभिधीयते" एसाअहंणंगलिपासएणं,लग्गादुअंसीसग!वच्चवच्च॥ तथाचोक्तम् बृहद्भाष्ये अकोविए! होहि पुरस्सरा मे, अलं विरोहेण अपंडितेहिं। किं कारणं तु गणिणो, असारवेंतस्स होइ पच्छित्तं?। वंसस्स छेदअमुणे! इमस्स, दढे जतिंगच्छसितोगता सि॥ वदति जेण गणहरो, विराहणाए उ गच्छस्स। बद्धीबलंहीणबला वयंति, किंसत्तजत्तस्सकरेड बद्धी। किह पुण विराहणाए, गच्छस्सगणी उवट्टती सखलु?। किंतेकहाणेवसुताकतायी, वसुंधरेयंजह वीरभोज्जा॥ भन्नइ सुणसु जह गणी, विराहओ होइ गच्छस्स॥ सामंदबुद्धी अहसीसकस्स, सच्छंद मंदावयणंअकाउं। जह सरणमुवगयाणं, जीवियववरोवणं णरो कुणइ। पुरस्सरा होतुमुहुत्तमेत्तं, अपेयचक्खूसगडेण खुण्णा॥ एवं सारणियाणं, आयरिओ असारओ गच्छे ॥ _ (बृभा ३२४६-३२५०, ३२५४, ३२५६) ___ (बृभा ९३६ वृ) जो आचार्य मार्ग (सामाचारी) को नहीं जानता अथवा असारणा का अर्थ है-गवेषणा न करना। कौन कहां जानता हआ भी शिष्यों को मार्ग का उपदेश नहीं देता, वह गया? कौन मुझे पूछकर गया या बिना पूछे गया? अथवा सर्पशीर्ष और वैद्यपुत्र की भांति विनष्ट हो जाता है। प्रलम्ब फल आदि अकल्पनीय ग्रहण कर आने वाले ने सर्पशीर्ष का उदाहरण-एक बार पूंछ ने सर्प के सिर से कहाआलोचना की या अन्य से निवेदन करवाया तो उसका जो हे सिर! सर्दी, गर्मी और वर्षा में, सघन अंधकार वाले प्रदेश प्रायश्चित्त है, वह नहीं देता है अथवा प्रायश्चित्त देकर उसका में-जहां-कहीं तुम मुझे ले जाते हो, वहीं मैं सदा तुम्हारे निर्वहन नहीं करवाता है। प्रेरणा आदि के द्वारा निर्भर्त्सना नहीं पीछे-पीछे चली जाती हूं किन्तु अब कुछ समय के लिए करता है (प्रोत्साहन और उपालम्भ नहीं देता है)-यह सब मार्ग में मैं भी तुमसे आगे चलूंगी। असारणा कहलाती है। बृहद्भाष्य में कहा गया है- सिर ने कहा--पुच्छिके! मैं कंकरीले, कंटीले, मयूर "जो आचार्य संघ की सारणा नहीं करता, वह और नकुल वाले मार्गों से नहीं जाता हूं। मैं दुष्ट-अदुष्ट Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ७४ आगम विषय कोश-२ (बुरे-अच्छे) बिलों को जानता हूं, जिन्हें तुम नहीं जानती। निदान किए बिना ही इस श्लोक के माध्यम से कालानुपाती अतः तुम खेद का अनुभव मत करो। वमन, विरेचन तथा विशोषण-तीनों क्रियाएं एक साथ कीं। पूंछ ने कहा-तुम तो ज्ञानी रहो, मैं तो अज्ञानी ही रह राजकुमार मर गया। जाऊंगी। आज तो तुम अग्रगामी बनो, लो, यह मैं इस हल से १५. अगीतार्थ की आचार्य पद पर स्थापना से प्रायश्चित्त लिपट कर यहीं रहूंगी। तुम तो जाओ, शीघ्र जाओ। गणस्स अप्पत्तियं तु ठावेति होति परिहारो।" सिर ने कहा-मूर्खे! तुम मेरे से आगे हो जाओ। __ (व्यभा १३३५) अज्ञानी के साथ विरोध करने से क्या लाभ? अज्ञे! मेरे इस जो गण द्वारा असम्मत अप्रीतिकर साधु को अपनी वंश का विनाश देखकर भी आगे जाती हो तो जाओ, तुम इच्छानुसार आचार्य पद पर स्थापित करता है, वह प्रायश्चित्त भी विनष्ट हो जाओगी। का भागी होता है। पूंछ ने कहा-जो शक्तिहीन होते हैं. वे ही बटिको बलशाली मानते हैं। बुद्धि शक्तिसम्पन्न का क्या बिगाड़ अबहुस्सुए अगीयत्थे निसिरए वा विधारए व गणं।" सकती है? क्या तुमने यह कहावत नहीं सुनी-वीरभोज्या ......"मासा चत्तारि भारिया॥ वसुंधरा। (बृभा ७०३) सिर के वचन को अमान्य करती हुई पूंछ स्वच्छन्दता जो आचार्य अबह श्रुत-अगीतार्थ साधु को गण का से अग्रगामिनी बन गई। महतमात्र चली होगी कि नेत्रविहीन भार सौंपते हैं और अबह श्रत-अगीतार्थ उसे धारण करता है होने से गाड़ी से आक्रान्त होकर विनष्ट हो गई। तो वे दोनों चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। • वैद्यपुत्र का दृष्टांत १६. आचार्य आदि की निश्रा : द्विसंगृहीत-त्रिसंगृहीत वेज्जस्स एगस्सअहेसिपुत्तो, मतम्मि तातेअणधीयविज्जो। निग्गंथस्स णं नवडहरतरुणस्स आयरिय-उवज्झाए गंतुं विदेसं अह सो सिलोगं, घेत्तूणमेगं सगदेसमेति॥ वीसंभेज्जा, नो से कप्पइ अणायरियउवज्झायस्स होत्तए। अहाऽऽगतोसो उसयम्मि देसे, लद्भूणतंचेवपुराणवित्तिं। कप्पइ से पुव्वं आयरियं उद्दिसावेत्ता, तओपच्छा उवज्झायं। रण्णोणियोगेण सुते तिगिच्छं, कुव्वंतु तेणेव समं विणट्ठो॥ सेकिमाहभंते!? दुसंगहिए समणेनिग्गंथे, तंजहा-आयरिएणं . (बृभा ३२५९, ३२६०) उवज्झाएणं य॥ राजवैद्य की मत्य के पश्चात राजा ने वैद्यपत्र की "तिसंगहिया समणी निग्गंथी, तं जहा-आयरिएणं वृत्ति का निषेध कर दिया। वह वैद्यकशास्त्रवेत्ता नहीं था, उवज्झाएणं पवत्तिणीए य॥ (व्य ३/११, १२) अतः वह विदेश गया। एक वैद्य के पास रहा और वैद्य के शैक्ष (नवदीक्षित और बाल) व तरुण मुनि का मुख से एक पद्य सुना आचार्य-उपाध्याय दिवंगत हो जाए तो वह आचार्य-उपाध्याय पर्वाहे वमनं दद्यादपराह्ने विरेचनम्। के बिना नहीं रह सकता। वातिकेष्वपि रोगेषु, पथ्यमाहुर्विशोषणम्॥ उसके लिए पहले आचार्य और बाद में उपाध्याय की रोगी को पूर्वाह्न में वमन तथा अपराह्न में विरेचन कराना स्थापना करनी चाहिए। चाहिए। वातिक रोगों में भी विशोषण पथ्य होता है। भंते! ऐसा क्यों? उसने सोचा-वैद्यकशास्त्र का यही सार है। वह अपने श्रमण निर्ग्रन्थ द्विसंगहीत-आचार्य और उपाध्याय के आदेशआपको कुशल वैद्य मानने लगा और स्वदेश लौट आया। राजा निर्देश में रहने वाला होता है। ने पन: वत्ति देना प्रारम्भ कर दिया। एक दिन राजा की आज्ञा से साध्वी त्रिसंगहीत-आचार्य. उपाध्याय और प्रवर्तनी वैद्यकपत्र राजपुत्र की चिकित्सा में प्रवृत्त हुआ। उसने रोग का के आदेश-निर्देश में रहने वाली होती है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ १७. आचार्य - उपाध्याय और साध्वी तिवासपरियायस्स समणस्स निग्गंथस्स तीसवासपरियाया समणीए निग्गंथीए कप्पड़ उवज्झायत्ताए उद्दित्तिए ॥ ७५ पंचवासपरियायस्स समणस्स निग्गंथस्स सट्ठिवासपरियायाए समणीए निग्गंथीए कप्पड़ आयरियत्ताए उद्दित्तिए ॥ (व्य ७/२०, २१) तीस वर्ष की संयमपर्याय वाली श्रमणी निर्ग्रन्थी तीन वर्ष के संयमपर्याय वाले श्रमण निर्ग्रथ को उपाध्याय के रूप में उद्दिष्ट कर सकती है। साठ वर्ष की संयमपर्याय वाली श्रमणी निर्ग्रथी पांच वर्ष के मुनिपर्याय वाले श्रमण निर्ग्रन्थ को आचार्य के रूप में स्वीकार कर सकती है। ० स्थविरा साध्वी : निश्रा संबंधी विकल्प गीताऽगीता बुड्ढा, अवुड्डा व जाव तीसपरियागा । अरिहति तिसंगहं सा, दुसंगहं वा भयपरेणं ॥ वयपरिणीता य गीता, बहुपरिवारा य निव्वियारा य । होज अणुवज्झाया, अपवत्तिणि यावि जा सट्ठी ॥ एमेव अणायरिया, थेरी गणिणी व होज्ज इतरा य । कालगतो सण्णाय व दिसाऍ धारेंति पुव्वदिसं ॥ बहुपच्चवाय अज्जा, नियमा पुणऽसंग य परिभूता । संगहिता पुण अज्जा, थिरथावरसंजमा होति ॥ (व्यभा ३२४३-३२४६) साध्वी गीतार्थ हो या अगीतार्थ, वृद्धा हो या अवृद्धा, तीस वर्ष के व्रतपर्याय तक उसके लिए तीन का संग्रह आवश्यक है - आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तिनी । तीस वर्ष के पश्चात् त्रिसंग्रह की भजना है 1 जो साध्वी वय से परिणत है, गीतार्थ है, निर्विकार है, जिसके पास विशाल साध्वीपरिवार है, वह साठ वर्ष तक आचार्य और उपाध्याय अथवा आचार्य और प्रवर्तिनीइन दो की निश्रा में रह सकती है । साठ वर्ष के पश्चात् प्रवर्तिनी या अन्य स्थविरा साध्वी आचार्य की निश्रा के बिना रह सकती है। आचार्य के कालगत आचार्य हो जाने पर अथवा उनके अवसन्न (गणत्याग कर शिथिलाचारी) हो जाने पर साठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाली साध्वी पूर्वदिक् (पूर्व आचार्य - प्रदत्त पद) धारण कर सकती है। साध्वी बहुप्रत्यपाया होती है (उसकी साधना में बहुत विघ्न संभव हैं) । संग्रह (आचार्य आदि की निश्रा) के बिना वह पराभव को प्राप्त होती है। जो निश्रा में रहती है, वह अत्यन्त स्थिर संयम वाली होती है। १८. आचार्य - उपाध्याय के अतिशेष आयरिय-उवज्झायस्स गणंसि पंच अइसेसा पण्णत्ता, तं जहा - आयरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स पाए ' निगिज्झिय - निगिज्झिय' पप्फोडेमाणे वा पमज्जेमाणे वा णातिक्कमति । आयरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स उच्चारपासवणं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा णातिक्कमति । आयरिय-उवज्झाए पभू वेयावडियं इच्छाए करेज्जा इच्छाए नो करेज्जा | आयरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स गाणि एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे णातिक्कमति । आयरिय-उवज्झाए बाहिं उवस्सयस्स एगाणिए एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे णातिक्कमति । (व्य ६ / २) गण में आचार्य तथा उपाध्याय के पांच अतिशेष (विशेष विधियां) होते हैं १. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय में पैरों की धूलि को यतापूर्वक झाड़ते हुए, प्रमार्जित करते हुए, आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते । २. उपाश्रय में उच्चार - प्रश्रवण का व्युत्सर्ग और विशोधन करते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते । ३. उनकी इच्छा पर निर्भर है कि वे किसी साधु की सेवा करें या न करें। ४. वे उपाश्रय में एक रात या दो रात अकेले रहते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। ५. वे उपाश्रय से बाहर एक रात या दो रात अकेले रहते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते । ( व्यवहार के छठे उद्देशक के भाष्य में इन विधियों अतिक्रमण से उत्पन्न होने वाले दोषों का विस्तृत विवेचन Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ७६ है, जिसका सारांश इस प्रकार है १. यतनापूर्वक प्रमार्जन न करने से चरणधूलि तपस्वी आदि पर गिरने से वह कुपित होकर दूसरे गच्छ में जा सकता है। २. आचार्य शौचकर्म के लिए एक बार बाहर जाएं। बार-बार बाहर जाने से अनेक दोष उत्पन्न हो सकते हैं - जिस रास्ते से आचार्य जाते हैं, उस रास्ते में स्थित व्यापारी लोग आचार्य आदि को देखकर उठते हैं, वन्दन करते हैं। यह देखकर दूसरे लोगों के मन में भी उनके प्रति पूजा- आदर के भाव उत्पन्न होते हैं, किन्तु बार-बार जाने से वे लोग उन्हें देखते हुए भी नहीं देखने वालों की तरह मुंह मोड़कर वैसे ही बैठे रहते हैं । यह देखकर अन्य लोगों के मन में भी विचिकित्सा उत्पन्न होती है और वे भी पूजा - सत्कार करना छोड़ देते हैं। सूत्र और अर्थ की परिहानि हो सकती है । उपाश्रय में समागत ऋद्धिमान् व्यक्ति धर्मश्रवण और व्रतग्रहण से वंचित रह सकते हैं। ३. तीसरा अतिशेष - सेवा की ऐच्छिकता - आचार्य का कार्य है कि वे अर्थ, मंत्र, विद्या, निमित्तशास्त्र, योगशास्त्र का परावर्तन करें सूत्र, तथा उनका गण में प्रवर्तन करें। सेवा आदि में प्रवृत्त होने पर इन कार्यों में व्याघात आ सकता है। ४, ५. मंत्र, विद्या आदि के परावर्तन अथवा विशिष्ट ध्यानसाधना लिए आचार्य अकेले रह सकते हैं। छेदसूत्र, योनिप्राभृत आदि रहस्यसूत्रों के गुणन - परावर्तन के लिए एकान्त स्थान अपेक्षित है, अन्यथा अपरिणामक और अतिपरिणामक अगीतार्थ शिष्य रहस्यों को सुनकर अनर्थ कर सकते हैं। अयोग्य व्यक्ति मंत्र आदि को सुनकर उसका दुरुपयोग कर सकता है। जनसंकुल स्थान में विशिष्ट ध्यान साधना में व्याक्षेप हो सकता है।) ० अतिशेष के हेतु तित्थगरपवयणे निज्जरा य सावेक्ख भत्तवुच्छेदो । एतेहि कारणेहिं, अतिसेसा होंति आयरिए ॥ (व्यभा २५६८) आचार्यों के ये अतिशेष इसलिए होते हैं कि• वे तीर्थंकर के प्रतिनिधि/संदेशवाहक होते हैं। • वे सूत्र और अर्थरूप प्रवचन के दायक होते हैं। • उनका वैयावृत्त्य करने से महान् निर्जरा होती है। वे सापेक्षता के सूत्रधार होते हैं। ० • वे तीर्थ की अव्यवच्छित्ति में हेतुभूत होते हैं । ० आगम विषय कोश - २ एकाकी रहने के हेतु : विद्यापरावर्तन महाप्राणध्यान विज्जाणं परिवाडी, पव्वे पव्वे य देंति आयरिया | मासद्धमासियाणं पव्वं पुण होति मज्झं तु ॥ पक्खस्स अट्ठमी खलु, मासस्स य पक्खियं मुणेयव्वं । अण्णं वि होति पव्वं, उवरागो चंदसूराणं ॥ चाउद्दसीगहो होति, कोइ अधवावि सोलसिग्गहणं । वत्तं तु अणज्जंते, होति दुरायं तिरायं वा ॥ वा सद्देण चिरं पी, महपाणादीसु सो उ अच्छेज्जा । ओयविए भरहम्मी, जहराया चक्कवट्टी वा ॥ (व्यभा २६९७ - २७०० ) प्राचीन काल में आचार्य पर्व के दिनों में विद्याओं का परावर्तन करते थे । मास और अर्धमास की मध्य तिथियां पर्व कहलाती हैं। जैसे पक्ष की मध्य तिथि अष्टमी, मास की मध्य तिथि चतुर्दशी । (विद्यासाधना प्रायः कृष्ण पक्ष में होती है ।) चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण भी पर्व के दिन हैं। इन दिनों में विद्या साधी जाती है। अतः आचार्य को एक अहोरात्र अकेले रहना पड़ता है। अथवा कृष्णा चतुर्दशी अमुक विद्या साधने का दिन है और शुक्ला प्रतिपदा अमुक विद्या साधने का दिन है, तब आचार्य दो या तीन दिन-रात तक अकेले अज्ञात में रहते हैं । वे महाप्राण आदि ध्यान की साधना करते समय अधिक काल तक भी अकेले रह सकते हैं। जब तक विशिष्ट लाभ न मिले (अवधिज्ञान आदि की प्राप्ति न हो), तब तक महाप्राणध्यान किया जाता है। जैसे चक्रवर्ती सम्पूर्ण भरतक्षेत्र को और वासुदेव अर्धभरत को साधे बिना नहीं लौटते, वैसे ही साधक महाप्राणध्यान सिद्ध न होने तक साधना में ही रत रहते हैं । • एक शिष्य के साथ विहार क्यों ? कम्प आयरिय-उवज्झायस्स अप्पबिइयस्स हेमंतगिम्हासु चारए ।। कप्पड़ आयरिय-उवज्झायस्स अप्पतइयस्स वासावासं वत्थए । (व्य ४/२, ६) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ७७ आचार्य ......."कारणियं पुण सुत्तं ........॥ ० प्रतिपृच्छा-अनेक शिष्यों की प्रतिपृच्छा का प्रत्युत्तर देना (व्यभा १७३३) होता है। आचार्य-उपाध्याय हेमंत ऋतु और ग्रीष्मऋतु में एक ० वादिग्रहण-बहुश्रुत आचार्य के पास परवादी आते हैं। उनके प्रश्नों का निरसन करना होता है अन्यथा प्रवचन की साधु के साथ (कुल दो साधु)विहार कर सकते हैं तथा प्रभावना नहीं होती। वर्षावास में दो साधुओं के साथ (कुल तीन साधु) रह सकते ० रोगी आदि-विशाल गच्छ में कई साधु ग्लान हो जाते हैं हैं। यह कारणिक/आपवादिक सूत्र है। तो उनकी सारसंभाल करनी होती है। प्राघूर्णक साधुओं की आयरिय-उवज्झाया, संघयणा धितिय जे उ उववेया। विश्रामणा आदि करानी होती है। इससे सूत्रव्याघात होता है। सत्तं अत्थो व बहं. गहितो गच्छे य वाघातो॥ दर्लभ भिक्षा क्षेत्र छोटा और साध अधिक हों तो भिक्षा के धम्मकहि महिड्डीए, आवास-निसीहिया य आलोए। लिए अन्यत्र भेजने की व्यवस्था करनी होती है। पडिपुच्छवादिगहणे, रोगी तह दुल्लभं भिक्खं॥ इस प्रकार की व्याकुलताओं (व्याघातों) का विस्तृत वाउलणे सा भणिता, जह उद्देसम्मि पंचमे कप्पे। वर्णन कल्पाध्ययन के पांचवें उद्देशक में है। नवम दसमा उ पुव्वा, अभिणवगहिया उ नासेज्जा॥ . अभिनव गृहीत (नया सीखा हुआ) नौवां-दसवां पूर्व पाहुडविज्जातिसया, निमित्तमादी सुहं च पतिरिक्के। सतत स्मरण के अभाव में विस्मृत हो जाता है। छेदसुतम्मि व गुणणा, अगीतबहुलम्मि गच्छम्मि॥ ० अगीतार्थबहुल विशाल गच्छ में सागरतुल्य नौवें-दसवें पूर्व (व्यभा १७३५-१७३७, १७३९) का स्मरण, योनिप्राभृत आदि ग्रंथों का गुणन, आकाशगमन निम्न कारणों से दो का विहार अनुज्ञात है आदि विद्यातिशयों का परावर्तन, निमित्त, योग, मंत्र आदि का ० आचार्य और उपाध्याय वज्रऋषभनाराच संहनन वाले तथा अभ्यास तथा छदसूत्रों का परावर्तन दुष्कर होता है । इन सबका वज्रकुड्य के समान धृतिसम्पन्न हों। अभ्यास एकांत प्रदेश में ही सुखपूर्वक हो सकता है। ० बृहद् गच्छ के कारण प्रभूत गृहीत सूत्र या अर्थ के स्मरण ० आचार्य के चरण-प्रमार्जन की विधि में व्याघात हो। आभिगहितस्स असती, तस्सेव रयोहरणेणऽण्णतरे। व्याघात के कारण ये हैं पाउंछणुण्णितेण व, पुच्छंति अणण्णभुत्तेणं॥ ० यदि वे आचार्य लब्धिसम्पन्न धर्मकथावाचक हैं, तो उनके (व्यभा २५२६) पास श्रोताओं का जमघट रहता है। बाहर से समागत आचार्य के चरणों का प्रमार्जन यदि ० महर्द्धिक राजा आदि उनके पास आते हैं। आभिग्रहिक साधु (आचार्यचरण-प्रमार्जन मुझे करना है० अन्य साधु धर्मकथा कर रहा हो, तो वे उच्चारणपूर्वक सूत्र ऐसा अभिग्रहधारी) हो तो वह. अन्यथा कोई भी साध अर्थ का परावर्तन नहीं कर सकते। आचार्य की निश्रा के रजोहरण से करे अथवा अपरिभुक्त ० आवश्यकी-नैषेधिकी-गच्छ में अनेक साधु हैं। वे बाहर (किसी के द्वारा काम में नहीं लिए हुए) और्णिक पादप्रोञ्छन जाते समय 'आवश्यकी' तथा उपाश्रय में प्रवेश करते समय 'नैषेधिकी' का उच्चारण करते हैं। उनका निरीक्षण भी आवश्यक से करे। निष्कारण आचार्यचरण-प्रमार्जन न करने पर तथा परिभक्त पादप्रोञ्छन से करने पर मासलघ प्रायश्चित्त आता है। पुनः पुनः स्मारणा के बिना सामाचारी का सम्यक निर्वाह कठिन हो जाता है। ० आलोचना-संघाटक भिक्षाग्रहण कर गुरु के पास आलोचना भिक्षार्थ न जाने के हेतु करते हैं, उस समय गुरु अध्ययननिरत नहीं रह सकते। यदि जेणाहारो उ गणी, स बालवुड्डस्स होति गच्छस्स। रहें तो सम्यक् आलोचना के अभाव में चरणहानि होती है। तो अतिसेसपभुत्तं, Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ७८ आगम विषय कोश-२ उप्पण्णणाणा जह णो अडंती, चोत्तीसबुद्धातिसया जिणिंदा। गंभीरो मद्दवितो, अब्भुवगतवच्छलो सिवो सोमो। एवं गणी अट्ठगुणोववेतो, सत्था व नो हिंडती इड्डिमं तु॥ विच्छिण्णकुलुप्पण्णो, दाया य कतण्णु तह सुतवं॥ आलोगो तिन्निवारे, गोणीण जधा तधेव गच्छे वि" खंतादिगुणोवेओ, पहाणणाण-तव-संजमावसहो। मा आवस्सयहाणी, करेन्ज भिक्खालसा व अच्छेज्जा" एमादि संतगुरुगुणविकत्थणं संसणातिसए॥ हिंडंतो उव्वातो, सुत्तत्थाणं च गच्छपरिहाणी।'' संतगुणुक्कित्तणया, अवण्णवादीण चेव पडिघातो। सुत्तत्थाणं गुणणं, विज्जा मंता निमित्तजोगाणं। अवि होज्ज संसईणं, पुच्छभिगमे दुविधलंभो॥ वीसत्थे पतिरिक्के, परिजिणति रहस्ससुत्ते य॥ कर-चरण-नयण-दसणाइ,धोव्वणं पंचमोउअतिसेसोr (व्यभा २५६७, २५७१, २५७७-२५७९, २६००) .."अग्गि-मति-वाणिपडुया, होति अणोत्तप्पयाचेव॥ आचार्य गण में आबालवृद्ध के आधार होते हैं। उनका (व्यभा २६७४-२६७६, २६७९-२६८३) अतिशायी प्रभुत्व होता है। केवलज्ञान उत्पन्न होने पर चौंतीस आचार्य के पांच अन्य अतिशय भी हैंअतिशयसम्पन्न अर्हत् भिक्षाटन नहीं करते। इसी प्रकार अष्ट १. उत्कृष्ट भक्त-जो आचार्य के कालानुकूल और स्वभावागणिसम्पदा से सम्पन्न, शास्ता की भांति ऋद्धिमान् आचार्य नकल हो, वैसा भोजन देना। भिक्षाटन नहीं करते। २. उत्कृष्ट पान-जिस क्षेत्र या काल में जो उत्कृष्ट पेय हो, जैसे ग्वाला प्रातः चराने ले जाते समय, मध्याह्न में होता। छाया में बैठी हुई और सायं घर लौटती हुई गायों का ३. प्रक्षालन-मलिन वस्त्रों का प्रक्षालन करना। अवलोकन करता है, वैसे ही आचार्य प्रातः, मध्याह्न और ४. प्रशंसन-गुणोत्कीर्तन करना। यथा-हमारे आचार्य गंभीर विकाल वेला में गण का अवलोकन करते हैं। (अपरिश्रावी), मृदुमार्दव, शिष्यवत्सल, निरुपद्रव, सौम्य, यदि आचार्य गोचरचर्या में लग जाते हैं, तो प्रमादि शिष्यों के अवश्यकरणीय योगों की हानि होती है। वे भिक्षाटन कुलीन, दाता, कृतज्ञ, श्रुतसम्पन्न, क्षमा आदि गुणों से उपेत, में आलसी बन जाते हैं। ज्ञानप्रधान (अतिशय-ज्ञानी) और तप-संयम के आलय हैंभिक्षाटन काल में आचार्य को महान कायक्लेश होता इस प्रकार गुरु के सद्भूत सद्गुणों की उत्कीर्तना करना है। परिश्रांतता के कारण वे वाचना नहीं दे पाते हैं, इससे प्रशंसन अतिशय है। सद्गुणों की उत्कीर्तना से महान् निर्जरा शिष्यों और प्रतीच्छकों के सत्रार्थ की परिहानि होती है। होती है, अवर्णवादियों का प्रतिघात होता है तथा महान श्रतलाभ के अभाव में वे गच्छांतर में चले जाते हैं, तो गच्छ ज्ञानी-गुणी आचार्य के बारे में सुनकर राजा, मंत्री, विद्वान की हानि होती है। आदि विशिष्ट व्यक्ति आकृष्ट होते हैं और जिज्ञासा-समाधान आचार्य सूत्र-अर्थ, विद्या-मंत्र, निमित्तशास्त्र, योगशास्त्र के लिए उनका आगमन होता है। समाहित होकर वे साधुधर्म आदि का परावर्तन करते हैं। वे आश्वस्त-विश्वस्त होकर रहस्यसूत्रों का एकांत प्रदेश में अभ्यास करते हैं-उन्हें आत्मसात् ५. शौच-हाथ, पैर, नयन, दांत आदि की शुद्धि। मुख और करते हैं। भिक्षाटन इन सबमें व्याघात उपस्थित करता है। दांत को धोने से जठराग्नि की प्रबलता होती है। आंख और इसलिए उनके लिए भिक्षाटन उचित नहीं है। पैर धोने से बुद्धि और वाणी की पटुता बढ़ती है तथा शरीर १९. अन्य पांच अतिशय : शिष्यों द्वारा सम्पादित का सौन्दर्य वृद्धिंगत होता है। अन्ने विअस्थि भणिता, अतिसेसा पंचहोंति आयरिए. ० योगसंधान : शिष्यों की जागरूकता भत्ते पाणे धोव्वण, पसंसणा हत्थ-पायसोए य। असढस्स जेण जोगाण, संधणं जध उ होति थेरस्स। कालसभावाणुमतं, भत्तं पाणं च अच्चितं खेत्ते। तं तह करेंति तस्स उ, जध से जोगा न हायंति॥ मलिणमलिणा य जाता, चोलादी तस्स धुव्वंति॥ (व्यभा २६८४) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ शिष्य अपने कल्याणकारी ऋजुमना आचार्य के वे सब कार्य करते हैं, जिनसे योगों का संधान हो सके। आचार्य के योगों की हानि न हो, वैसा कार्य करते हैं । २०. अतिशयों की उपजीविता : आर्यसमुद्रदृष्टांत एते पुण अतिसेसे, णोजीवे वावि को वि दढदेहो । निदरिसणं एत्थ भवे, अज्जसमुद्दा य मंगू य ॥ अज्जसमुद्दा दुब्बल, कितिकम्मा तिण्णि तस्स कीरंति । सुत्तत्थपोरिसि समुट्ठियाण ततियं तु चरमाए ॥ सडकुलेसु य तेसिं, दोच्चंगादी उ वीसु घेप्पंति । मंगुस्स य कितिकम्मं, न य वीसुं घेप्पते किंची ॥ बेंति ततो णं सड्ढा, तुज्झ वि वीसुं न घेप्पते कीस । तो बेंति अज्जमंगू, तुब्भेच्चिय एत्थ दिट्टंतो ॥ जा भंडी दुब्बलाउ, तं तुब्भे बंधहा पयत्तेण । विबंध बलिया ऊ, दुब्बलबलिए व कुंडी वि ॥ एवं अज्जसमुद्दा, दुब्बलभंडी व संठवणयाए । धारंति सरीरं तू, बलि भंडीसरिसग वयं तु ॥ निप्पडिकम्मो वि अहं, जोगाण तरामि संधणं काउं । नेच्छामि य बितियंगे, वीसुं इति बेंति ते मंगू ॥ न तरंती तेण विणा, अज्जसमुद्दा उ तेण वीसं तु । इय अतिसेसायरिए, सेसा पंतेण लाढेंती ॥ (व्यभा २६८५ - २६९२ ) ७९ आचार्य उत्कृष्ट भक्तपान आदि अतिशयों के उपजीवी होते हैं किन्तु जिनका शरीर सुदृढ़ होता है, वे इन अतिशयों का भोग नहीं भी करते हैं। आर्य समुद्र और आर्य मंगु इसके निदर्शन हैं। आर्य समुद्र - ये देह से दुर्बल थे। इनके विश्रामणा रूप तीन कृतिकर्म किए जाते थे— प्रथम - सूत्रपौरुषी की सम्पन्नता पर । द्वितीय- अर्थपौरुषी की सम्पन्नता पर । तृतीय- कालप्रतिक्रमण के पश्चात् चरम पौरुषी में । साधु श्राद्धकुलों से उनके योग्य ओदन, शाक, तीमन आदि पृथक् पात्र में ग्रहण करते थे ! आर्य मंगु - इनके न कृतिकर्म किया जाता था, न पृथक् पात्र में भिक्षा लायी जाती थी । आचार्य o भण्डी और कुण्डी दृष्टांत - एक बार दोनों आचार्य सोपारक नगर में समवसृत हुए। वहां के शाकटिक और वैकटिक (सुरासंधानकारी ) – दोनों श्रावकों के मन में जिज्ञासा हुई और उन्होंने आर्य मंगु से पूछा- आर्य समुद्र की भांति आपके प्रायोग्य पुद्गल पृथक् पात्र में क्यों नहीं लाये जाते ? आर्य मंगु ने कहा- इस सन्दर्भ में तुम ही उदाहरण हो। सुनोशाकटिक! तुम्हारी गाड़ी यदि दुर्बल है, तो तुम उसे प्रयत्नपूर्वक बांधते हो, अन्यथा वह पार नहीं पहुंचा सकती। मजबूत गाड़ी बिना बांधे ही भार वहन कर लेती है। वैकटिक! तुम दुर्बल कुंडी को बांस के सींकचों या खपाचियों से बांधकर उसमें सुरा डालते हो। मजबूत कुंडी को नहीं बांधते । इसी प्रकार आर्य समुद्र दुर्बल भंडी व कुण्डी सदृश अपने शरीर को उचित आहार, परिकर्म आदि से संस्थापित करते हैं। हम तो सुदृढ़ भंडीसदृश हैं। हमें शरीरसंस्थापना की अपेक्षा नहीं है। निष्प्रतिकर्म रहते हुए भी मैं योगसंधान में समर्थ हूं, आर्य समुद्र समर्थ नहीं हैं। पृथक् पात्र में आहार ग्रहण का रहस्य यही है । शेष साधु बिना किसी अतिशय के अन्तप्रान्त भिक्षा से जीवनयापन करते हैं- संयमयात्रा का निर्वाह करते हैं। २१. आचार्य लक्षणसम्पन्न : कुमार दृष्टांत तिणी जस्सय पुण्णा, वासा पुण्णेहि वा तिहि उतं तु । वासेहि निरुद्धेहिं, लक्खणजुत्तं पसंसंति ॥ किं अम्ह लक्खणेहिं, तवसंजमसुट्ठियाण समणाणं । गच्छविवड्ढिनिमित्तं इच्छिज्जति सो जहा कुमरो ॥ बहुपुत्तओ नरवती, सामुद्दं भणति कं ठवेमि निवं । दोस- गुण एगऽणेगे, सो वि य तेसिं परिकधेति ॥ निद्धूमगं च डमरं, मारी - दुब्भिक्ख-चोर-पउराई । धण-धन्न - कोसहाणी, बलवति पच्चंतरायाणो ॥ खेमं सिवं सुभिक्खं, निरुवस्सग्गं गुणेहि उववेतं । अभिसिंचंति कुमारं गच्छे वि तयाणुरूवं तु ॥ (व्यभा १५६२-१५६६) किसी लक्षणसम्पन्न मुनि के व्रतपर्याय के तीन वर्ष पूर्ण Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य आगम विषय कोश-२ हो गये हैं या अपूर्ण भी हैं, श्रुत अध्ययन भी अपूर्ण है, उस स्थिति द्रव्यों का संयोग करते तथा तत् संबंधी पाठ या मंत्र पढ़ते देख में आचार्य कालधर्म को प्राप्त हो जाएं और अन्य बहुश्रुत साधु चुका है तथा उनकी दृढ़ अवधारणा कर चुका है, वह अवसर लक्षणसम्पन्न न हों तो उसे आचार्य पद दिया जा सकता है। ___ आने पर उनका सफल प्रयोग कर सकता है। लौकिक, वैदिक और सामयिक शास्त्रविशारद लक्षण जो आचार्य संयोगदृष्टपाठी नहीं होता, वह षड्गुरु संपन्न नायक की अनुशंसा करते हैं। प्रायश्चित्त का भागी होता है। शिष्य ने जिज्ञासा की-भंते! तप-संयम में सस्थित हम यदि गणधारी चिकित्साविधि से अनभिज्ञ होता है जैसे श्रमणों के लिए लक्षण से क्या प्रयोजन? लक्षणहीन बहुश्रुत तो उसके देखते-देखते रोगग्रस्त साधु तथा साध्वी मृत्यु को से हमारे श्रुत-स्वाध्याय में वृद्धि होगी। प्राप्त करते हैं। असमाधि मरण से अनन्त संसार बढ़ता है। आचार्य ने कहा-गण की श्रीवृद्धि के लिए अल्पश्रुत यदि उपयुक्त चिकित्सा से मनि स्वस्थ हो जाता है तो वह होने पर भी लक्षणयुक्त को गणधरपद पर स्थापित करना चिरकाल तक श्रतलाभ कर सकता है. केवलज्ञान को प्राप्त अभीष्ट है। जैसे राज्यवृद्धि के लिए लक्षणसम्पन्न कुमार को हो सकता है। असमाधि मरण से इहलौकिक और पारलौकिक राजा बनाया जाता है। लब्धियों से वह वंचित रह जाता है। कुमार दृष्टांत-एक राजा के अनेक पुत्र थे। उसने सामुद्रिकशास्त्र वेत्ता को बुलाकर पूछा-किस कुमार को राज्य दूं? २३. शक्ति सम्पन्न आचार्य : कुमार दृष्टांत सामुद्रिक ने बताया-अमुक-अमुक कुमारों को राजा बनाने से पुव्वं ठावेति गणे, जीवंतो गणधरं जहा राया।" राज्य में निधूमक (भूखमरी), डमर (स्वदेशोत्थ, विप्लव), दसविधवेयावच्चे, नियोग कुसलुज्जयाणमेवं तु। महामारी, दुर्भिक्ष, चोरबाहुल्य, सर्वत्र धन और कोश की ठावेति सत्तिमंतं, असत्तिमंते बहू दोसा॥ हानि, वर्षा होने पर भी धान्यनिष्पत्ति का अभाव और प्रत्यंत (व्यभा १९९३, १९९५) राजाओं की बलवृद्धि होगी। अमुक कुमारों को राज्य देने से पूर्व आचार्य अपनी जीवित अवस्था में ही कुमारराज्य में क्षेम, शिव तथा सुभिक्ष होगा और मारी-डमर आदि परीक्षक राजा की भांति गण में शक्तिसम्पन्न शिष्य को उपसगों का अभाव होगा। इन दोष-गुणों में से किसी में एक गणधर पद पर स्थापित करते हैं। वे अभिनव स्थापित आचार्य और किसी में अनेक दोष या गुण हैं । राजा ने सर्वगुणसम्पन्न दशविध (शैक्ष, स्थविर आदि का) वैयावृत्त्य करने के लिए कुमार का अभिषेक किया। उद्यत शिष्यों में से, जो जिसमें कुशल होता है, उसे उसी में २२. आचार्य चिकित्साविधिज्ञ : संयोगदृष्टपाठी। नियोजित करते हैं। आचार्य शक्तिहीन हों तो उपधि, शिष्य, नियमा विज्जागहणं.................... निर्जरा आदि की हानि होती है। संजोगदिट्ठपाढी, हीणधरतम्मि छग्गुरू होति....... ..""कुमरे उ परिच्छित्ता, रज्जरिहं ठावए रज्जे ॥ उप्पण्णे गेलण्णे, जो गणधारी न जाणति तिगिच्छं। दहिकुड अमच्च आणत्ति, कुमारा आणयण तहिं एगो। दीसंततो विणासो, सुहदुक्खी तेण तू चत्ता॥ पासे निरिक्खिऊणं, असि मंति पवेसणे रज्जं ॥ ""असमाही सुयलंभं, केवललंभं तु उप्पाए॥ (व्यभा १९९३, १९९४) इह लोगियाण परलोगियाण लद्धीण फेडितो होति।" ___ एक राजा के अनेक पुत्र थे। राजा ने सोचा, इनमें से (व्यभा २४२४, २४२७, २४२८, २४३०, २४३१) जो शक्तिशाली होगा, उसी को राज्य दूंगा। उसने कुमारों की आचार्य को नियमतः अनेक विद्याओं का ज्ञाता होना परीक्षा प्रारंभ की। अपने कर्मकरों से कहा-एक स्थान पर चाहिए। वह संयोगदृष्टपाठी हो, यह आवश्यक है। संयोगदृष्ट- दही से भरे घड़ों को रखो। उन्होंने घड़े रखकर राजा को पाठी वह होता है, जो अन्यान्य व्यक्तियों को नाना प्रकार के निवेदन कर दिया। राजा ने अमात्य को बुलाकर कहा-तुम Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ आचार्य दही के घड़ों के पास बैठ जाओ। फिर राजा ने कुमारों को २५. सापेक्ष-निरपेक्ष राजा और आचार्य बुलाकर कहा--जाओ, दही से भरा एक-एक घड़ा ले आओ। दिद्रुतो जध राया, सावेक्खो खलु तधेव निरवेक्खो। कुमार गए। इधर-उधर देखा। घड़ों को वहन कर ले जाने सावेक्खो जुगनरिंद, ठवेति इय गच्छुवज्झायं। वाला कोई न दीखा, तब वे स्वयं एक-एक घड़ा उठाकर (व्यभा १३०१) - चले। एक कुमार घड़ों के पास गया। सभी ओर देखा, पर राजा के दो प्रकार हैंघड़ा उठाने वाला एक भी नजर नहीं आया, तब उसने ० सापेक्ष-अपने जीवन काल में युवराज स्थापित करने अमात्य से कहा-दही के घड़े को उठाओ। अमात्य उठाना वाला राजा। इससे राजा के कालगत होने पर भी राज्य नहीं चाहता था। कुमार ने म्यान से तलवार निकालते हुए व्यवस्थित रूप से अनवर्तित-प्रवर्तित होता है। कहा-यदि घड़े को उठाने की इच्छा नहीं है, तो मैं अभी निरपेक्ष-जो राजा युवराज नहीं बनाता. उसका राज्य विनष्ट तुम्हारा सिरच्छेद कर देता हूं। अमात्य डरा और दही का घड़ा हो जाता है। उठाकर चला। कुमार उसको लेकर राजा के पास गया। राजा __ इसी प्रकार आचार्य भी दो प्रकार के होते हैंने उस शक्तिशाली कुमार का राज्याभिषेक कर दिया। सापेक्ष-अपने जीवनकाल में अन्य गणनायक को स्थापित २४. इत्वरिक-यावत्कथिक आचार्य की स्थापना करने वाला आचार्य। इससे आचार्य के कालगत होने पर भी गणधरपाउग्गाऽसति, पमादअदावि एव कालगते। गण खिन्न या छिन्न-भिन्न नहीं होता। थेराण पगासेंति, जावऽन्नो ण ठावितो तत्थ॥ ० निरपेक्ष-अपने जीवनकाल में भावी आचार्य को स्थापित परिकामं कणमाणो, मरणस्सऽभजयस्स व विहारो. नहीं करने वाला आचार्य। (व्यभा १३०२, १३०५) २६. सापेक्ष द्वारा भावी आचार्य की प्रतिष्ठा : दो दृष्टांत दो कारणों से इत्वरिक (अल्पकाल के लिए) आचार्य सावेक्खो सीसगणं, संगह कारेति आणुपुव्वीए। स्थापित किया जाता है पाडिच्छ आगते त्ति व, एस वियाणे अह महल्लो॥ • गणधर (आचार्य) पद के योग्य कोई साध न हो। जह राया व कुमार, रज्जे ठावेउमिच्छते जं तु। ० प्रमाद से अभिनव आचार्य बनाये बिना ही पूर्व आचार्य भड जोधे वेति तगं, सेवह तुब्भे कुमारं ति॥ कालधर्म को प्राप्त हो गये हों। अहयं अतीमहल्लो, तेसिं वित्ती उ तेण दावेति। जो इत्वरिक आचार्य स्थापित करते हैं, वे गच्छ के सो पुण परिक्खिऊणं, इमेण विहिणा उ ठावेति॥ स्थविरों के समक्ष यह प्रकशित करते हैं कि जब तक मूल परमन्न भुंज सुणगा, छड्डण दंडेण वारणं बितिए। आचार्य पद पर अन्य स्थापित नहीं होता है. तब तक ही यह भुंजति देति य ततिओ, तस्स उ दाणं न इतरेसिं॥ आपका आचार्य है। परबलपेल्लिउनासति, बितिओदाणंन देति तु भडाणं। यावत्कथिक आचार्य-स्थापना के दो हेत हैं न वि जुज्जंते ते ऊ, एते दो वी अणरिहाओ॥ ० अभ्युद्यतमरण के लिए आचार्य द्वादशवर्षीय संलेखना रूप ततिओ रक्खति कोसं, देति यभिच्चाण ते य जुझंति। परिकर्म कर रहे हों। पालेतव्वो अरिहो, रज्जं तो तस्स तं दिण्णं॥ ० अभ्युद्यतविहार (जिनकल्प आदि) के लिए आचार्य (व्यभा १९३५-१९४०) तपोभावना आदि रूप परिकर्म कर रहे हों। सापेक्ष आचार्य अभिनव स्थापित गणधर को आनपर्वी ० आचार्य मोहचिकित्सा या रोगचिकित्सा कर रहे हों। कथन आदि द्वारा प्रतिष्ठित करते हैं (यथा- 'पहले सुधर्मा ०किसी प्रयोजनविशेष से अवधावन कर रहे हों। गणधर थे, फिर क्रमश: जम्बूस्वामी. प्रभव आदि हए, अब मैं Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हूं।' ) आचार्य अपने शिष्यों और प्रतीच्छकों को कहते हैं- मैं वृद्ध हो गया हूं, मैंने अमुक को गणधर स्थापित किया है, अब तुम विनयपूर्वक उसके आदेश निर्देश का पालन करो। १. युवराज दृष्टांत - राजा जिस राजकुमार को राजपद पर स्थापित करना चाहता है, उसके लिए वह सुभटों और योद्धाओं को कहता है - तुम अमुक कुमार की सेवा करो, मैं अत्यंत वृद्ध हो गया हूं । ८२ राजा उन्हें वृत्ति भी कुमार से दिलवाता है (जिससे कुमार के प्रति उनका अनुराग पैदा हो ) । फिर परीक्षापूर्वक उसे युवराज बनाता है । २. परमान्न और कुत्ते - राजकुमार बहुत हैं, उनमें से किसे युवराज बनाऊं - यह सोचकर राजा परीक्षा हेतु सभी कुमारों को बुलाता है, प्रत्येक के सामने पायस परोसा हुआ एक-एक थाल रखवाकर खाने के लिए कहता है और उधर श्रृंखलाबद्ध कुत्तों को छुड़वाता है। वे वेग के साथ कुमारों के पास आ जाते हैं। एक कुमार उनके भय से भाग जाता है, दूसरा कुमार डंडे से कुत्तों को हटाकर परमान्न का भोजन करता है । तीसरा कुमार स्वयं खाता है और साथ-साथ कुत्तों को भी खिलाता है । तीसरे को राज्य दिया जाता है, पहले और दूसरे को नहीं । पहला कुमार शत्रुसेना के आने पर भाग जाएगा । दूसरा कुमार सुभटों को यथेष्ट वृत्ति नहीं देगा तो वे शत्रुसेना के साथ युद्ध नहीं करेंगे। अतः दोनों कुमार राज्य के लिए अयोग्य हैं। तीसरा कुमार कोश की रक्षा करेगा और भृत्यों को पर्याप्त वृत्ति देगा, इस कारण से वे शत्रुसेना के साथ युद्ध कर उसे भगा देंगे। अतः यह कुमार राज्य की परिपालना के लिए योग्य है- यह जानकर राजा उसे राज्यभार सौंप देता है। २७. निरपेक्ष राजा की मृत्यु और मूलदेव दृष्टांत निरवेक्खे कालगते, भिन्नरहस्सा तिगिच्छऽमच्चोय | अहिवास आस हिंडण, वज्झो त्ति य मूलदेवो उ॥ आसस्स पट्टिदाणं, आणयणं हत्थचालणं रण्णो । अभिसेग भोइ परिभव, तण-जक्ख निवायणं आणा ॥ तिवातियसेसा, सरणगता जेहि तोसितो पुव्वं । ते कुव्वंती रण्णो, अत्ताण परे य निक्खेवं ॥ (व्यभा १८९५- १८९७) आगम विषय कोश- २ निरपेक्ष राजा कालधर्म को प्राप्त हो गया है - इस रहस्य को दो ही व्यक्ति जानते थे- वैद्य और मंत्री । राजा के कोई संतान नहीं थी । राजपुरुषों ने नये राजा के चयन के लिए घोड़े को अधिवासित कर नगर में घुमाया। रास्ते में मूलदेव चोर मिला, जिसे वध के लिए ले जाया जा रहा था। (राजा ने ही उसे चोरी के आरोप में वध्य घोषित किया था और कुछ क्षणों के पश्चात् ही राजा स्वयं दिवंगत हो गया ।) अश्व मूलदेव के पास जाकर अपनी पीठ नीचे की । मूलदेव को उस पर बिठाकर वहां लाया गया, जहां पर्दे के पीछे राजा का शव रखा हुआ था। वहां वैद्य और मंत्री बैठे थे। उन्होंने राजा के हाथ को ऊपर उठाकर हिलाया और बोले- राजा बोल नहीं सकते, अतः अपना हाथ हिलाकर यह अनुमति देते हैं कि मूलदेव का राज्याभिषेक किया जाए। मूलदेव राजा बन गया। कुछ सामंत राजा का परिभव करने लगे। उन्हें अनुशासित करने के लिए एक दिन मूलदेव अपने मुकुट में तीक्ष्ण तृण लगाकर सभा में आया। कुछ सामंत कानाफूसी करने लगे--- राजा की चोरी की आदत नहीं छूटी है। लगता है किसी तृणगृह में चोरी करने गया है और वहां तिनके सिर पर लगे हैं। यह बात मूलदेव ने सुनली और वह अत्यन्त रुष्ट होकर बोला है कोई मेरी चिंता करने वाला, जो इन सामंतों को दंडित करे? इतना कहते ही उसके पुण्य प्रभाव से राज्यदेवता से अधिष्ठित चित्रगत प्रतीहार प्रकट हुए, जिनके हाथों में तीखी तलवारें थीं। उन्होंने कुछेक सामंतों के सिर काट डाले। इस यक्षकृत विनाश को देख शेष सभी सामंतों ने मूलदेव की शरण स्वीकार कर राजाज्ञा के अनुसार चलने का संकल्प किया। जो राजा को पहले तुष्ट कर चुके थे, उन्होंने अपने आपको और अपने निश्रित दूसरों को राजा के चरणों में इस शब्दावलि में समर्पित किया- आज से हम और ये आपके हैं । २८. नए आचार्य के अभिषेक की विधि आसुक्कारोवरते, अट्ठविते गणहरे इमा मेरा । चिलिमिलि हत्थाणुण्णा, परिभव सुत्तत्थहावणया ॥ तम्मिगणे अभिसित्ते, सेसगभिक्खूण अप्पनिक्खेवो । जे पुण फड्डगवतिया, आतपरे तेसि निक्खेवो ॥ (व्यभा १८९९, १९१४) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ आचार्य कोई आचार्य सद्योघाती रोग आदि के कारण गणधर ० कई मुनि स्वच्छंदचारी बनकर घूमते हैं। को स्थापित किए बिना ही कालगत हो जाए तो नये आचार्य ० कई मुनि आचार्य के वियोग में क्षिप्तचित्त हो जाते हैं। के पदाभिषेक की विधि यह है-- ० पार्श्वस्थ या गृहस्थ मंदधर्मा क्षुल्लक आदि को उन्निष्क्रांत कालगत आचार्य के शव को पर्दे के पीछे स्थापित कर कर सकते हैं-विपरिणत कर अपना बना सकते हैं। आचार्यपद योग्य शिष्य को पर्दे के बाहर बिठाया जाता है। कई मनि निराश्रित लता की भांति संयम या परीषहों से आचार्यपद पर किसे प्रतिष्ठत किया जाये?-ऐसा कहते हुए कंपित हो जाते हैं। गीतार्थ मुनि पर्दे के भीतर से आचार्य के हाथ को ऊपर उठाकर ० कई मुनि अपने आचार्य को दिवंगत सुनकर अनुत्तरज्ञान स्थाप्यमान गणधर के अभिमुख करते हुए कहते हैं आदि की प्राप्ति के लिए अन्य आचार्य के पास चले जाते हैं। 'हमारे आचार्य बोलने में अशक्त हैं, अतः इनकी ० कई मुनि सारणा के अभाव में गच्छांतर में चले जाते हैं। हस्तानुज्ञा से अमुक मुनि हमारे आचार्य हैं।' तत्पश्चात् पूर्व २९. गणधारक के आभाव्य पुरुषयुग आचार्य के कालगत होने की घोषणा की जाती है। सीसो सीसो सीसो चउत्थगं पि पुरिसंतरं लभति। जो शिष्य अभिनव स्थापित आचार्य का परिभव करते हेट्ठा वि लभति तिण्णी, पुरिसजुगं सत्तहा होति। हैं, आचार्योचित विनय नहीं करते हैं. उन्हें आचार्य सत्र-अर्थ मूलायरिए वज्जित्तु, उवरि सगणो उ हेट्ठिमे तिन्नि। की वाचना नहीं देते। अप्पा य सत्तमो खलु, पुरिसजुगं सत्तधा होति। ___ आचार्य के पदाभिषेक के पश्चात् गणवर्ती शेष साधु स्वयं को तथा स्पर्धकपति (अग्रणी) स्वयं को और अपने अधवानलभति उवरि, हेट्ठिच्चिय लभति तिण्णि तिण्णेय। अनुगामियों को गुरुचरणों में समर्पित करते हैं। तिण्णि तल्लाभ-परलाभ, तिण्णि दासक्खरेणातं॥ (भंते! मैं और मेरे सहवर्ती साधु आपके चरणों में (व्यभा १४६८-१४७०) समर्पित हैं, आप हमारे नाथ हैं।) जो शिष्य अन्य गण में श्रुतअध्ययन कर पुनः अपने गण में आता है, उसके आभाव्य पुरुषयुग सप्तविध हैं० निरपेक्ष के कालगत की पूर्व घोषणा से हानि १. मूल आचार्य को छोड़कर शेष सारा गण। आचार्य पितृस्थानीय .."रण्णो व्व अणभिसित्ते, रज्जे खोभो तधा गच्छे॥ जायामो अणाहो त्ति, अण्णहि गच्छंति केइ ओधावे। २. पितामह को छोड़कर पितामह का परिवार। सच्छंदा व भमंती, केई खित्ता व होज्जाही॥ ३. प्रपितामह का परिवार। पासत्थगिहत्थादी, उन्निक्खावेज्ज खुड्डगादी उ। -ये तीन उपरितन पुरुषयुग हैं। लता व कंपमाणा उ, केई तरुणा उ अच्छंति॥ ४. गुरु भ्रातृ-प्रव्राजित समस्त परिवार। आयरियपिवासाए, कालगतं सोउ ते वि गच्छेन्जा। ५. भ्रातृव्य-प्रताजित समस्त परिवार । गच्छेज्ज धम्मसद्धा, व केइ सारेंतगस्सऽसती॥ ६. भ्रात-प्रताजितों द्वारा प्रव्राजित गण। (व्यभा १५८१, १५८३-१५८५) -ये तीन अधस्तन पुरुषयुग हैं। जैसे नये राजा का अभिषेक किए बिना दिवंगत राजा ७. स्वयं द्वारा दीक्षित (पुत्रस्थानीय) शिष्य, शिष्यों द्वारा की घोषणा से राज्य में क्षोभ उत्पन्न होता है, वैसे ही गच्छ में दीक्षित (पौत्रस्थानीय) अनुशिष्य, इनके द्वारा दीक्षित नए आचार्य की स्थापना किए बिना पूर्व आचार्य के कालगत (प्रपौत्रस्थानीय) प्रशिष्य-यह एक (सातवां) पुरुषयुग है। होने की घोषणा से अन्य अनेक हानियां हो सकती हैं ये सातों पुरुषयुग नव गणधारक के आभाव्य हैं (उसे ० आचार्य के बिना हम अनाथ हो गए हैं-यह सोचकर कई प्राप्त हो सकते हैं)। अथवा प्रथम तीन पुरुषयुग एक गुरु द्वारा मुनि अन्य गच्छ में जा सकते हैं या अवधावन कर सकते हैं। दीक्षित होने से उसके आभाव्य नहीं भी होते (सहदीक्षित सदा Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ८४ आगम विषय कोश-२ अनुशासनीय नहीं होते)। आचार्य अपने शिष्यों को चार प्रकार की विनयप्रतिउत्तरवर्ती तीन पुरुषयुग और शिष्यप्रशिष्य उसके पत्तियां ग्रहण कराकर उऋण हो जाते हैंआभाव्य हैं। यहां दास-खर का उदाहरण ज्ञातव्य है- १. आचारविनय ३. विक्षेपणाविनय दासेण मे खरो कीतो, दासो वि मे खरो वि मे। २. श्रुतविनय ४. दोषनिर्घातन विनय। मेरे दास ने गधा खरीदा। दास भी मेरा, गधा भी मेरा। ० आचारविनय : सामाचारी में नियोजन ३०. पश्चात्कृत शिष्य : आभवद् व्यवहार आयारविणए चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा-संजमगिहिलिंगं पडिवज्जति, जो ऊ तद्दिवसमेव जो तं तु। सामायारी यावि भवति, तवसामायारी यावि भवति, उवसामेती अण्णो, तस्सेव ततो पुरा आसी॥ गणसामायारी यावि भवति, एगल्लविहारसामायारी यावि एण्हिं पुण जीवाणं, उक्कडकलुसत्तणं वियाणेत्ता। भवति॥ तो भद्दबाहुणा ऊ, तेवरिसा ठाविता ठवणा॥ "संजमं समायरति स्वयं, परं च गाहेति, समाचारपरलिंग निण्हवे वा, सम्मइंसण जढे तु संकते। यति सीतंतं परं, उज्जमंतंच अणवहति"तवो पक्खियतद्दिवसमेव इच्छा, सम्मत्तजुए समा तिण्णि॥ पोसधिएसुतवं कारवेति परं, सयंच करेति "भिक्खायरि ___(व्यभा १८६३-१८६५) याए निउंजंति परं, सयंच, सव्वंमि तवे परंसयंचणिसृजति। जो मुनि उत्प्रव्रजित हो गृहलिंग को स्वीकार करता गणसामायारी गणं सीतंतं पडिलेहणपप्फोडणबालहै, उसे उसी दिन जो आचार्य या साधु उपशांत कर प्रव्रज्या दुब्बलगिलाणादिसुवेतावच्चेय सीतंतं गाहेति उज्जमावेति के लिए पुन: तैयार कर देते हैं तो वह प्रव्रजित होकर उपशामक ___ एगल्लविहारपडिमादिसुसयमण्णं वा पडिवज्जावेति। आचार्य का शिष्य होता है, मूल आचार्य का नहीं होता-यह (दशा ४/१५ चू) प्राचीन विधि है। आचार-विनय के चार प्रकार हैंअर्वाचीन विधि-जीवों की उत्कट कलुषता को जानकर समयज्ञ १. संयम सामाचारी-स्वयं संयम का समाचरण करना, दूसरों आचार्य भद्रबाहु ने तीन वर्ष की मर्यादा की-साधुवेश का से संयम का आचरण करवाना, संयम में विषण्ण होने वालों त्याग कर पुन: दीक्षित होने वाला तीन वर्ष तक मूल आचार्य को संयम सामाचारी में स्थित करना तथा उद्यमशील का का ही शिष्य होता है, तीन वर्ष से पहले उसका पूर्व पर्याय अनुबंहण करना। छिन्न नहीं होता। जो उत्प्रव्रजित होकर परतीर्थिकों के पास २. तप सामाचारी-बारह प्रकार के तप में स्वयं को तथा दूसरों अथवा निह्नवों के पास उसी दिन प्रवजित होता है. उसका को योजित करना। पाक्षिक पौषध आदि करना। भिक्षाचर्या में पूर्व संयम पर्याय छिन्न हो जाता है और वह प्रव्रजित करने नियोजित करना। वाले का शिष्य हो जाता है। जो सम्यक्त्व सहित परतीर्थिकों ३. गणसामाचारी-प्रतिलेखना आदि की व्यवस्था में प्रमाद न में प्रव्रजित होता है तो उसका पूर्व संयम-पर्याय तीन वर्षों होने देना। शैक्ष, दुर्बल और ग्लान की वैयावृत्त्य संबंधी तक रहता है, पश्चात् वह छिन्न हो जाता है। व्यवस्था बनाये रखना, सेवार्थियों को प्रोत्साहित करना। ३१. आचार्य की ऋणमुक्ति के उपाय ४. एकलविहारसामाचारी-एकलविहार आदि प्रतिमाओं को आयरिओ अंतेवासिं इमाए चउव्विधाए विणय स्वयं स्वीकार करना तथा दूसरों को स्वीकार करवाना। पडिवत्तीए विणएत्ता निरिणत्तं गच्छति, तं जहा-आयार- ० श्रुत विनय : निःशेष वाचना विणएणं, सुयविणएणं, विक्खेवणाविणएणं, दोसनिग्घा- सुतविणए चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुतं वाएति, यणाविणएणं॥ (दशा ४/१४) अत्थं वाएति, हियं वाएति, निस्सेसं वाएति॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ८५ आचार्य आयारमंतस्स सुतं दिज्जति।सुतेण विनयति अप्पाणं ण गेण्हति गिण्हतं वारेति। (दशा ४/१७ चू) परंच।सुत्तं वाएति पाढेति, अत्थं सुणावेति गेण्हावेति हितं विक्षेपणा (नाना प्रकार से परसमय से स्वसमय की णाम जं जस्स जोग्गं। परिणामगं वाएति, दोण्ह वि हितं ओर प्रेरित करना) विनय के चार प्रकार हैंभवति। अपरिणामगं अतिपरिणामगं वा ण वाएति, तं १. अदृष्ट दृष्टपूर्वक विनेता-अदृष्टधर्मा को दृष्टधर्मा बनाना। अहितं तेसिं भवति परलोगे इहलोगे य। निस्सेसं नाम जिन्होंने पहले धर्म (सम्यक्त्व) को नहीं जाना, यथा- भाई, अपरिसेसं। __(दशा ४/१६ चू) पिता आदि मिथ्यादृष्टि रहे हों, उनको परसमय से स्वसमय श्रुतविनय के चार प्रकार हैं में स्थापित करना, सम्यक्त्वी बनाना। १. सूत्रवाचना-गुरु आचारसम्पन्न शिष्य को श्रुत/सूत्र की २. दृष्टपूर्वक-श्रावक को साधर्मिक-समानधर्मा बनाना, वाचना देते हैं, पढ़ाते हैं। इससे वे स्व और पर को मोक्षमार्ग प्रव्रजित करना। पर ले जाते हैं। ३. च्युतधर्म का धर्म में स्थापन-चारित्रधर्म अथवा दर्शनधर्म २. अर्थवाचना-वे शिष्य को अर्थ की वाचना देते हैं, अर्थ का से भ्रष्ट शिष्य को पुनः उसी धर्म में स्थापित करना। श्रवण और ग्रहण करवाते हैं। ३. धर्म अभ्युद्यत-चारित्र धर्म के हित-वृद्धि के लिए ३. हितवाचना-वे शिष्य की योग्यता के आधार पर सूत्र-अर्थ अभ्युद्यत रहना, अनेषणीय वस्तु का ग्रहण न करना, ग्रहण की वाचना देते हैं. यह हितकारी वाचना है। परिणामी शिष्य करते हुए को रोकना। अथवा धर्म के हित, सुख, सामर्थ्य, को वाचना देने से इहलोक-परलोक में हित होता है। अपरिणामी निःश्रेयस (मोक्ष) और आनुगामिकता (भवांतर में भी और अतिपरिणामी को वे वाचना नहीं देते। उन्हें वाचना देने धर्मप्राप्ति) के लिए अभ्युद्यत रहना। से उभयलोक में अहित होता है। ० दोषनिर्घातना विनय : कषाय-कांक्षा-विनयन ४. नि:शेष वाचना-वे योग्य शिष्य को नय-निक्षेप आदि के दोसनिग्घायणाविणए चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहाद्वारा सूत्रार्थ का समग्रता से बोध कराते हैं। कुद्धस्स कोहं विणएत्ता भवति, दुट्ठस्स दोसं णिगिण्हित्ता * वाचना सम्पदा द्र गणिसम्पदा भवति, कंखियस्स कंखं छिंदित्ता भवति, आया सुप्पणिहिते ०विक्षेपणाविनय : सम्यक्त्व आदि में प्रतिष्ठान यावि भवति॥ विक्खेवणाविणए चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा दोसा कसायादी बंधहेतवो अट्ठ वा पगडीतो। नियतं अदिढे दिद्वपुव्वगताए विणएत्ता भवति, दिट्ठपुव्वगं निश्चित वा घातयति विनाशयतीत्यर्थः । कुद्धस्स सीतघरसाहम्मियत्ताए विणएत्ता भवति, चुयं धम्माओ धम्मे ___ समाणो वंजुलवृक्षवत्। दुट्ठो कसायविसएसु माणदुट्ठस्स ठावइत्ता भवति तस्सेव धम्मस्स हियाए सुहाए खमाए वा आयारसीलभावदोसा वा विणएति, तं दोसं उवसमेति निस्सेसाए अणुगामियत्ताए अब्भुटेत्ता भवति॥ विनाशयतीत्यर्थः। कंखा भत्तपाणे परसमए वा संखडिए परसमयातो विक्खेवयति ससमयं तेण गाहिति णदीजत्ताए वा संपुण्णमेवं तु भवे गणित्तं, जं कंखिताअदिट्ठधम्मं दिट्ठधम्मताएसम्मदंसण-मित्यर्थः । अदृष्टं णंपि हणेति कंखं।'..."जदा सयं तेसु कोहदोसकंखासुण दृष्टवत, पव्वं ति पढमण दिदो दिपव्वताए जधा भ्रातरं वट्टति, तदा सुप्पणिहितो भवति। "एवायरिएण सिस्सो पितरं वा मिच्छादिट्ठिपि होतगं। दिट्ठपुव्वगो सावग इत्यर्थः, गाहितो। (दशा ४/१८ चू) तंसमानधर्मं कारयति पव्वावेति।“चुतो भट्ठो चरित्तधम्मातो दोष का अर्थ है-बंध के हेतु कषाय आदि अथवा वा दंसणधम्मातो वा, तंमि चेव धम्मे ठावयति।“कस्स आठ कर्मप्रकृतियां । निर्घातना का अर्थ है निश्चित विनाश चरित्तधम्मस्स हिताए जधा तस्स वृद्धिर्भवति, अणेसणादी करना । दोषनिर्घातना विनय के चार प्रकार हैं Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ८६ आगम विषय कोश-२ १. क्रोधविनय-वंजुल वृक्ष की भांति अपने शीतलस्वभाव गुरु ने आचार्य के चार विकल्प प्रस्तुत कियेसे क्रोधी शिष्य के क्रोध को दूर कर देना। १. इहलोक में हितकारी, परलोक में नहीं-जो वस्त्र-पात्र, २. दोषनिग्रहण-दुष्ट के दोष को दूर करना। कषाय और भक्तपान आदि अपेक्षाओं को पूरा करते हैं किन्तु सारणाविषयों से दूषित अथवा मान से दूषित शिष्य के आचार, शील वारणा नहीं करते। और भावधारा के दोषों का अपनयन, उपशमन अथवा विनाश २. परलोक में हितकारी, इहलोक में नहीं-जो शिष्यों के संयमयोगों करना। में प्रमाद होने पर विधि-निषेध का समचित प्रयोग करते हैं, ३. कांक्षा विच्छेद-कांक्षायुक्त शिष्य की कांक्षा का छेदन किन्तु आहार आदि की समुचित व्यवस्था नहीं करते। करना। भक्तपान, परसमय, भोज, नदीयात्रा-इनमें कांक्षा हो ३. इहलोकहित-परलोकहित-जो व्यवस्था और सारणा-वारणा सकती है। गणी कांक्षित की कांक्षा मिटाता है, यही उसका दोनों करते हैं। सम्पूर्ण गणित्व है। ४. न इहलोकहित, न परलोकहित-जो उपधि, आहार आदि ४. सुप्रणिहितआत्मा-जब गुरु क्रोध, द्वेष और कांक्षा में वर्तन के द्वारा संघ का उपष्टम्भ नहीं करते और न ही सारणानहीं करते, तब उनके सुप्रणिधान होता है। ऐसे आचार्य से ही वारणा करते हैं। शिष्य उपगृहीत-अनुगृहीत होते हैं। ३४. असंक्लेशकर आचार्य : प्रासाद दृष्टांत ३२. आचार्य वैयावृत्त्यकारी कैसे? दिलृतोऽमच्चेणं, पासादेणं तु रायसंदितु। गुरुअणुकंपाए पुण, गच्छो अणुकंपितो महाभागो। दव्वे खेत्ते काले, भावेण य संकिलेसेति॥ गच्छाणुकंपयाए, अव्वोच्छित्ती कता तित्थे॥ अलोणाऽसक्कयं सुक्खं, नो पगामं व दव्वतो। किह तेण न होति कतं, वेयावच्चं तु दसविधं जेणं। तं खेत्ताणुचियं उण्हे, काले उस्सूरभोयणं॥ तस्स पउत्ता अणुकंपितो उ थेरो थिरसभावो॥ भावे न देति विस्सामं, निट्ठरेहिं च खिंसति। (व्यभा २६७२, २६७३) जियं भतिं च नो देति, नट्ठा अकयदंडणा॥ अकरणे पासायस्स उ, जह सोऽमच्चो तु दंडितो रण्णा। गुरु की अनुकम्पा से महाभाग (अचिन्त्यशक्ति एमेव य आयरिए, उवणयणं होति कातव्वं ॥ सम्पन्न) गच्छ अनुगृहीत होता है और गच्छ की अनुकम्पा द्वारा गुरु तीर्थ की अविच्छिन्नता में योगभूत बनते हैं। (व्यभा ३६९२-३६९५) स्थविर (आचार्य) स्थिर स्वभाव वाले होते हैं। वे राजा ने अमात्य को आदेश दिया कि एक प्रासाद का संघ के सदस्यों को दशविध (आचार्य आदि के) वैयावृत्त्य में निर्माण शीघ्रता से कराओ। अमात्य ने अनेक कर्मकरों को नियोजित कर अनुगृहीत करते हैं। इस प्रकार वैयावृत्त्य की प्रासाद-निर्माण में लगा दिया। कार्य चलने लगा। परन्तु सम्यक् व्यवस्था के द्वारा आचार्य गण का दशविध वैयावृत्त्य कर्मकर अमात्य से प्रसन्न नहीं थे, क्योंकि अमात्य लोभी था। करते हैं। वह कर्मकरों को लवणरहित, असंस्कृत, रूखा-सूखा अपर्याप्त ३३. आचार्य : इह-परलोक-हितकारी भोजन देता, उस क्षेत्र के लिए जो अनुचित भक्त-पान होता, वह कर्मकरों को देता। समय पर भोजन न देकर, गर्मी में आयरिओ केरिसओ, इहलोए केरिसो व परलोए। काम कराकर सायंकाल भोजन देता। विश्राम करने की छूट न इहलोएऽसारणिओ, परलोएँ फुडं भणंतो उ॥ देकर निष्ठुर वचनों से उनकी खिंसना करता तथा उन्हें उचित (व्यभा ५६८) मल्य-कार्य के अनरूप पारिश्रमिक भी नहीं देता। इस अनुचित शिष्य ने पूछा-भंते! कौन से आचार्य इहलोक में व्यवस्था से उत्पीड़ित होकर प्रासाद के निर्माण को अधूरा ही हितकारी हैं और कौन से आचार्य परलोक में हितकारी हैं? छोड़कर सभी कर्मचारी अन्यत्र चले गए। जब राजा को यह Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ८७ आज्ञा ज्ञात हुआ, तब उसने अमात्य को दंडित कर उसका सर्वस्व वालों को गुरु गण से निकाल देते हैं और उन्हें श्रुत प्रदान नहीं हरण कर लिया। करते। इसी प्रकार जो आचार्य अपने साधुओं को उचित * आचार्य और उपाध्याय में भेद-अभेद आदि आहार आदि उचित समय में नहीं देता है और उनको द्रव्य, द्र श्रीआको १ आचार्य क्षेत्र, काल और भाव संबंधी अनुचित व्यवस्था से संक्लिष्ट करता है, वह तिरस्कार का भाजन होता है। आज्ञा-वचननिर्देश। ३५. आचार्य संस्तुति से लाभ १. आज्ञा के प्रकार आगम्म एवं बहुमाणितोहु, आणाथिरतंच अभावितेसु। ० आज्ञा के पर्याय विणिज्जरा वेणइयाय निच्चं, माणस्स भंगोवियपुजयंते॥ २. गुरुआज्ञा बलवती ___ * लोकोत्तर विनय (आज्ञा) बलवान् द्रविनय (व्यभा १४०४) ३. उपसम्पदा और आज्ञा जो आगमज्ञ आचार्य की पूजा करते हैं, वे आगम का ४. आज्ञा में ही चारित्र की अवस्थिति बहुमान करते हैं, अर्हत्-आज्ञा की आराधना करते हैं। ___ * शय्यातर की अनुज्ञा द्र शय्यातर गुरुपूजा को देख विनय से अभावित शिष्य विनय में ५. गुरुआज्ञा से उपधिग्रहण प्रतिष्ठित होते हैं। गुरु का विनय करने से कर्मों की सतत ० गुरु आज्ञा से विकृति-ग्रहण और तप निर्जरा होती है, अहंकार क्षीण होता है। ६. बिना आज्ञा भिक्षाटन से प्रायश्चित्त __* बिना आज्ञा पात्र-ग्रहण से प्रायश्चित्त द्र उपधि - गुर्वायत्ता यस्मात् शास्त्रारम्भा भवन्ति सर्वेपि, * साधर्मिक आदि की अनुज्ञा द्र अवग्रह तस्मात् गुर्वाराधनपरेण हितकांक्षिणा भाव्यम्। ७. आज्ञाभंग से अनवस्था दोष (व्यभापी वृ प २) ८. आज्ञाभंग का परिणाम : चन्द्रगुप्त-चाणक्य दृष्टांत सभी शास्त्रों में प्रवृत्ति गुरु के अधीन होती है, इसलिए * सम्यक् व्यवहारी आज्ञा का आराधक-1 अपना हित चाहने वाले हर शिष्य को गुरु की आराधना में तत्पर * आज्ञा व्यवहार - द्रव्यवहार रहना चाहिए। १. आज्ञा के प्रकार ३६. आचार्य की अवज्ञा से हानि दव्वे भावे आणा, भावाणा खलु सुयं जिणवराणं।" पज्जाय-जाई-सुततो य वुड्डा, जच्चन्नियासीससमिद्धिमंता। (व्यभा ३८८६) कुव्वंतऽवण्णंअह ते गणाओ, निजूहई नो यददाइ सुत्तं॥ आज्ञा के दो प्रकार हैं_(बृभा ४४३६) द्रव्य आज्ञा-राजा आदि की आज्ञा । अल्प पर्याय वाले आचार्य को देख जो पर्यायवृद्ध हैं, भाव आज्ञा-अर्हतों की वाणी। वे सोचते हैं कि यह अवमरालिक है। जो सत्तर वर्ष के वृद्ध ० आज्ञा के पर्याय हैं, वे सोचते हैं कि यह बालक है। जो श्रुतवृद्ध हैं, वे यह अल्पश्रुत है, ऐसा मानते हैं। जो विशिष्ट जाति सम्पन्न हैं, वे उववातो निद्देसो, आणा विणओ य होंति एगट्ठा।.... यह सोचते हैं कि यह हीनकुल में उत्पन्न हुआ है। जो (व्यभा २०८१) शिष्यपरिवार से समृद्ध हैं, वे सोचते हैं कि यह अल्प परिवार । उपपात, वचननिर्देश, आज्ञा और विनय-ये एकार्थक वाला है, इस प्रकार वे गुरु की अवज्ञा करते हैं। अवज्ञा करने हैं। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज्ञा ८८ २. गुरुआज्ञा बलवती ..... आणा बलिया, आणासारो य गच्छवासो उ। मोत्तुं आणापाणुं, सा कज्जा सव्वहिं जोगे ॥ (व्यभा २०७४) गुरु की आज्ञा बलवती होती है। गुरुकुलवास आज्ञासार वाला है (गच्छ में आज्ञा ही प्रधान है ) । आन-प्राण (श्वासोच्छ्वास) के अतिरिक्त शेष सारी प्रवृत्तियां गुरु की आज्ञा से करनी चाहिए । ३. उपसम्पदा और आज्ञा भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा तं च केइ साहम्मिए पासित्ता वएज्जा- - कं अज्जो ! उवसंपज्जित्ताणं विहरसि ? जे तत्थ सव्वराइणिए तं वएज्जा । राइणिए तं वज्जा - अह भंते! कस्स कप्पाए ? जे तत्थ सव्वबहुसुए तं वएज्जा, जं वा से भगवं वक्खड़ तस्स आणा-उववाय- वयणनिद्देसे चिट्ठिस्सामि । (व्य ४/१८) भिक्षुगण से निष्क्रमण कर अन्य गण की उपसम्पदा स्वीकार कर विहरण करे, उसे देखकर कोई साधर्मिक पूछेआर्य ! तुम किसकी उपसम्पदा स्वीकार कर विहरण कर रहे हो ? वह उस गण में जो सर्वरानिक है, उसका नाम बताए। रानिक उसे पुनः पूछे - भदंत ! तुम किसकी निश्रा में हो ? उस गच्छ में जो सर्वाधिक बहुश्रुत हो, उसका नाम बताए तथा यह भी बताए कि वे जिसकी आज्ञा में रहने का कहेंगे, उसी की आज्ञा में, उसके समीप, उसके वचननिर्देश के अनुसार रहूंगा। ४. आज्ञा में ही चारित्र की अवस्थिति अवराहे लहुगतरो, आणाभंगम्मि गुरुतरो किह णु । आणाए च्चिय चरणं, तब्भंगे किं न भग्गं तु ॥ (बृभा ९२४) चारित्र संबंधी अतिचार होने पर लघुतर और आज्ञा भंग होने पर गुरुतर प्रायश्चित्त आता है। जहां जीवोपघात होता है, वहां गुरुतर दंड युक्तियुक्त हो सकता है किन्तु आगम विषय कोश - २ आज्ञाभंग में जीवोपघात नहीं होता, फिर गुरुतर दंड क्यों ? आचार्य कहते हैं- भगवान् की आज्ञा में ही चारित्र है, आज्ञा का भंग होने पर क्या चारित्र भंग नहीं होता ? सब कुछ भंग हो जाता है। ५. गुरुआज्ञा से उपधिग्रहण भिक्खा ओसरणम्मि व, अपुव्ववत्था उ ताउ दट्ठूणं । गुरुकहण तासि पुच्छा, अम्हमदिन्ना न वा दिट्ठा ॥ सच्छंद गेण्हमाणीण, होंति दोसा जतो तु इच्चादी । इति पुच्छिउं पडिच्छा, न तासि सच्छंदता सेया ॥ (व्यभा २८४१, २८६६) वृषभ भिक्षावेला या समवसरण में नवीन वस्त्र- धारिणी साध्वी को देखकर गुरु से निवेदन करते हैं फिर गुरु उन्हें जानकारी हेतु निर्देश देते हैं, तब वृषभ उस साध्वी के पास जाकर पृच्छा करते हैं - आर्ये! हमने ये वस्त्र - पात्र आदि तुमको नहीं दिये और न ही किसी को देते हुए देखा। ऐसा पूछने पर भी जो आर्या निवेदन नहीं करती है, वह प्रायश्चित्त की भागी होती उपधि (वस्त्र - पात्र) या शिष्य, जो भी प्राप्त हो, उसका गुरु से निवेदन करना होता है। स्वच्छन्दता से वस्तु-ग्रहण करने में अनेक दोष हैं, अतः प्रत्येक वस्तु आचार्य की आज्ञा से ही ग्रहण करे और ग्रहण कर आचार्य को निवेदित करे । स्वच्छन्दता कहीं भी श्रेयस्करी नहीं है। ० गुरुआज्ञा से विकृति - ग्रहण और तप वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छेज्जा गाहावइकुलं भत्ता वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, नो से कप्पड़ अणापुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वाजं वा पुरओ काउं विहरड़, कप्पड़ से आपुच्छिउं । ..... अण्णयरिं विगई आहारित्तए, नो से कप्पड़ अापुच्छित्ता । अणयरं ओरालं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता''। (दशा ८ परि सू २७१, २७३, २७५ ) वर्षावास में स्थित मुनि गृहपति के घर में आहारपानी के लिए जाना- प्रवेश करना चाहे तो वह आचार्य, Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ आज्ञाव्यवहार उपाध्याय या जिसके अग्रगामित्व में विहरण कर रहा है, एगमरणं तु लोए, आणऽइआरुत्तरे अणंताई। उसको पूछे बिना नहीं जा सकता। अवराहरक्खणट्ठा, तेणाणा उत्तरे बलिया॥ इसी प्रकार वह विकृति का आहार और उदार तपःकर्म पाडलिपुत्ते नयरे चंदगुत्तो राया।सो य मोरपोसगका स्वीकार भी गुरु को बिना पूछे नहीं कर सकता। पुत्तोत्ति जे खत्तिया अभिजाणंति ते तस्स आणं परिभवंति। ६. बिना आज्ञा भिक्षाटन से प्रायश्चित्त चाणक्कस्स चिंता जाया-आणाहीणो केरिसो राया? बहवे साहम्मिया इच्छेज्जा एगयओ अभिनिचारियं तम्हा जहा एयस्स आणा तिक्खा भवइ तहा करेमि। चारए। नो ण्हं कप्पड़ थेरे अणापुच्छित्ता एगयओ अभि ___ (बृभा २४८९, २४९० वृ) निचारियं चारएजंतत्थ थेरेहिं अविइण्णे अभिनिचारियं पाटलिपुत्र में चन्द्रगुप्त राजा था। वह मयूरपोषक का चरंति से संतरा छए वा परिहारे वा॥ पुत्र है'-यह जानकर क्षत्रिय लोग उसकी आज्ञा का सम्मान बहिर्वजिकादिषु"समुदानं लब्धं गमनं अभिनि- नहीं करते थे। चाणक्य ने सोचा-आज्ञाहीन राजा कैसा? अत चारिका "अन्तरा नाम तस्मात् स्थानादप्रतिक्रमणं तस्मात् वह काम करूं, जिससे राजाज्ञा की अखण्ड आराधना हो। छेदः परिहारो वा। (व्य ४/१९७) एक बार चाणक्य कापटिक के रूप में घूम रहा था। एक गांव बहुत साधर्मिक एक साथ अभिनिचारिका-वसति क्षेत्र में उसे भिक्षा नहीं मिली। उस गांव में आम और बांस प्रचुर से बाहर जिका आदि में भिक्षाटन करना चाहें तो वे स्थविर मात्रा में थे। आज्ञा को प्रतिष्ठित करने के लिए चाणक्य ने उस (आचार्य) को पछे बिना एक साथ अभिनिचारिका नहीं कर गांव में यह राजाज्ञा प्रेषित की-आमों का छेदन कर शीघ्र सकते। यदि वे स्थविर की आज्ञा प्राप्त किये बिना अभिनिचारिका बांस के झरमट के चारों ओर उनकी बाड बनाई जाये। करते हैं तो उन्हें उस स्थान से निवृत्त नहीं होने पर सीमा का 'यह दुर्लिखित है'-ऐसा सोचकर ग्रामीणों ने बांसों अतिक्रमण करने के कारण स्वान्तर-कृत-स्वच्छंदता से बार को काटकर आम्रवृक्षों के चारों ओर बाड बना दी। चाणक्य ने बार गमन करने पर छेद अथवा परिहार (मासलघु आदि तप) यह खोज करवायी कि गांव वालों ने राजाज्ञा का पालन किया या नहीं। जब उसे ज्ञात हुआ कि ग्रामीणों ने राजाज्ञा के प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। विपरीत कार्य किया है, तब वह उस गांव में आया और गांव ७. आज्ञा भंग से अनवस्था दोष वालों को उपालंभ देते हुए बोला-तुम लोगों ने यह क्या एगेण कयमकजं, करेइ तप्पच्चया पुणो अन्नो। किया? बांस नगररोध आदि में काम आते हैं। तुमने उनको सायाबहुल परंपर, वोच्छेदो संजम-तवाणं॥ क्यों काटा? राजाज्ञा का पत्र दिखाते हुए आगे कहा-राजाज्ञा __ (बृभा ९२८) कुछ और है और तुम लोगों ने कुछ और ही कर डाला। तुम किसी एक श्रुतधर साधु ने प्रमादस्थान का सेवन किया। अपराधी हो, दंडनीय हो। यह कहते हुए उसने बालवृद्ध यह श्रतधर भी ऐसा करता है, तब निश्चित ही इसमें दोष नहीं सहित उस गांव को जला डाला। है-ऐसा सोचकर अन्य साधु भी वैसा करता है। फिर दूसरा लौकिक आज्ञा का अतिक्रमण करने पर एक बार मरण और तीसरा भी उसका अनुकरण करता है। इस प्रकार सातबहुल होता है। लोकोत्तर आज्ञा का अतिक्रमण करने पर अनंत जन्म(सुविधावादी) व्यक्तियों की प्रमादस्थानसेवन की परम्परा से मरण करने पड़ते हैं। इसलिए अपराधपदों से रक्षा के लिए संयम और तप की परम्परा का विच्छेद हो जाता है। लोकोत्तर क्षेत्र में आज्ञा बलवती है। ८.आज्ञा-भंग का परिणाम : चन्द्रगुप्त-चाणक्य दष्टांत * सुविनीत शिष्य आज्ञाकारी द्र श्रीआको १ शिष्य भत्तमदाणमडंते, आणट्ठवणंब छेत्तु वंसवती। आज्ञाव्यवहार-देशान्तर में स्थित गीतार्थ से विधिगविसण पत्त दरिसए, पुरिसवइ सबालडहणं च॥ निषेध तथा प्रायश्चित्त का निर्णय प्राप्त करना। द्र व्यवहार Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधना आगम विषय कोश-२ आतापना-कर्मनिर्जरा के लक्ष्य से सूर्य का ताप सहन जघन्य आराधना के उत्कृष्ट आठ भव। करना। द्र कायक्लेश ___ * सेवार्तसंहननी उत्तम आराधक द्र श्रीआको १ आराधना आदेश-बहुश्रुत द्वारा आचीर्ण अथवा नयान्तर विकल्प। २. आलोचना में आराधना की नियमा ___द्र आगम आलोइयपडिकंतस्स होति आराधना तु नियमेण। आधाकर्म-मन से साधु के निमित्त आरंभ-समारंभ अणालोयम्मि भयणा, किह पुण भयणा भवति तस्स ॥ कालं कुव्वेज्ज सयं, अमुहो वा होज्ज अहव आयरिओ। का संकल्प कर आहार आदि निष्पन्न अप्पत्ते पत्ते वा, आराधण तहवि भयणेवं॥ करना। द्र पिण्डैषणा (व्यभा ४०५२, ४०५३) आभवद् व्यवहार-क्षेत्रस्थित तथा आगंतुक मुनियों ___ जो सम्यग् आलोचना कर पुनः उस अपराध को न का उस क्षेत्रगत सचित्त आदि के करने के लिए संकल्पित होता है, वह निश्चित आराधक लाभ का स्वामित्वविषयक होता है। व्यवहार-चिन्तन। द्र व्यवहार ____ आलोचना न करने पर आराधना की भजना है-कोई आलोचक आलोचनापरिणामपरिणत है, आलोचनार्ह गुरु के आराधना-लक्ष्यसिद्धि के लिए सम्यक् साधना करना। पास जाने के लिए सम्प्रस्थित है, किन्तु बीच में ही कालधर्म १. आराधना के प्रकार और भवसीमा को प्राप्त हो जाता है अथवा गुरु के पास पहुंच कर भी रोग के २. आलोचना में आराधना की नियमा कारण बोल नहीं पाता है या आलोचनार्ह आचार्य कालगत हो ३. आलोचना परिणाम मात्र से आराधक जाते हैं अथवा वे बोलने में अशक्त होते हैं तो इन स्थितियों में ४. आराधक : आलोचना हेतु समर्पित आलोचना नहीं करने पर भी वह आराधक है। जो आलोचना* गुरु की आशातना से ज्ञान आराधना नहीं द्र आशातना परिणामपरिणत नहीं है, वह आराधक नहीं होता। * कल्पिका प्रतिसेवक आराधक द्र प्रतिसेवना ३. आलोचना परिणाममात्र से आराधक * कलहशमन करने वाला आराधक द्र अधिकरण * सम्यक् व्यवहारी आराधक ."ण विणज्जति वाघातो, कं वेलं होज्ज जीवस्स॥ द्र व्यवहार * प्रायोपगमन में द्विविध आराधना तं न खमं खुपमातो, मुहुत्तमवि अच्छितुं ससल्लेणं। द्र अनशन आयरियपादमले, गंतण समद्धरे सल्लं॥ * असारणा से संघविराधना द्र आचार्य न हुसुज्झती ससल्लो, जह भणियंसासणे जिणवराणं। १. आराधना के प्रकार और भवसीमा उद्धरियसव्वसल्लो, सुज्झति जीवो धुतकिलेसो॥ आराहणा उ तिविधा, उक्कोसा मज्झिमा जहण्णा उ। आलोयणापरिणतो, सम्मं संपट्टितो गुरुसगासं। एग दुग तिग जहन्न, दु तिगट्ठभवा उ उक्कोसा॥ जदि अंतरा उ कालं, करेति आराहओ सो उ॥ (व्यभा ३८८७) (व्यभा २२८-२३०, २३३) आराधना के तीन प्रकार हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और किस क्षण मृत्यु आयेगी-यह ज्ञात नहीं है। (सशल्य जघन्य । इस त्रिविध आराधना का क्रमशः फल है-एक भव मरने वाला दीर्घसंसारी होता है इसलिए) प्रमादवश मुहूर्त्तभर (उसी भव में मुक्ति ), दो भव, तीन भव। भी सशल्य रहना क्षम्य नहीं है। आचार्य-चरणों में पहुंचकर यदि उसी भव में मोक्ष न हो तो उत्कृष्ट आराधना का अतिचार-शल्यों का उद्धरण कर लेना चाहिए। फल है-जघन्य दो भव, मध्यम आराधना के तीन भव और शल्ययुक्त साधक की शुद्धि नहीं होती-यह तथ्य Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ आर्यक्षेत्र जिनप्रवचन में प्रतिपादित है। जो सब शल्यों को निकाल आरोपणा-प्रायश्चित्त का तीसरा प्रकार, एक दोष से फेंकता है, उसके क्लेश मिट जाते हैं और वही शद्ध होता है। प्राप्त प्रायश्चित्त में दूसरे दोष के आसेवन जिसके भलीभांति आलोचना करने के परिणाम हैं से प्राप्त प्रायश्चित्त का आरोपण करना। और जिसने गुरु की दिशा में प्रस्थान कर दिया है, वह यदि द्र प्रायश्चित्त अन्तराल में ही बिना आलोचना किए कालधर्म को प्राप्त हो जाता है, फिर भी वह आराधक है (क्योंकि उसने शक्ति का आर्यक्षेत्र- श्रेष्ठ क्षेत्र । साधना के अनुकूल विहरण भूमि। गोपन नहीं करते हुए निश्छल प्रवृत्ति की है)। अहिंसा में आस्था रखने वाले क्षेत्र। एवं होति विरोधो, आलोयणपरिणतो य सुद्धो य। | १. आर्य शब्द के निक्षेप एगंतेण पमाणं परिणामो वी न खलु अम्हं॥ २. आर्यक्षेत्र की सीमा : कालसापेक्ष (व्यभा ९२२) ३. आर्यक्षेत्र : साढे पचीस जनपद ० सशल्यमरण से चरणनाश होता है। ४. आर्यक्षेत्र में तीर्थंकरमहिमा : संयमपालन सुकर ० आलोचनापरिणामपरिणत तथा तथाविध प्रवृत्ति में संलग्न ५. अनार्यक्षेत्रगमन निषिद्ध मुनि आलोचना न कर सकने पर भी शुद्ध है। ० निषेध के हेतु : स्कन्दक दृष्टांत ० निषिद्ध क्षेत्रगमन के हेतु इन दोनों में परस्पर विरोध है-शिष्य के इस कथन ६. राजा संप्रति : अनार्यक्षेत्र आर्यक्षेत्र में परिवर्तित पर आचार्य कहते हैं-केवल परिणाम हमारे लिए एकांत रूप से प्रमाण नहीं है। जो अपनी शक्ति का गोपन कर यथाशक्ति १. आर्य शब्द के निक्षेप प्रवृत्ति नहीं करता, उसकी केवल परिणामपरिणति तत्त्वतः नाम ठवणा दविए, खेत्ते जाती कुले य कम्मे य। परिणाम ही नहीं है, परिणामाभास है। भासारिय सिप्पारिय, णाणे तह दंसण चरित्ते। ४. आराधक : आलोचना हेतु समर्पित अंबट्ठा य कलंदा, विदेहा विदका ति य। पडिसेवणाऽतियारे, जह वीसरिया कहिंचि होज्जाहि।। हारिया तुंतुणा चेव, छ एता इब्भजातिओ॥ तेसु कह पट्टितव्वं, सल्लुद्धरणम्मि समणेणं॥ उग्गा भोगा राइण्णा खत्तिया तह य णात कोरव्वा। जे मे जाणंति जिणा, अवराधा जेसु जेसु ठाणेसु। इक्खागा वि य छट्ठा, कुलारिया होंति नायव्वा॥ ते हं आलोएउं, उवट्ठितो सव्वभावेणं॥ (बृभा ३२६३-३२६५) एवं आलोएंतो, विसुद्धभावपरिणामसंजुत्तो। आर्य शब्द के बारह निक्षेप हैंआराहओ तह वि सो, गारवपलिकुंचणारहितो॥ १. नाम आर्य – 'आर्य' नाम । (व्यभा ४३०८-४३१०) २. स्थापनार्य - आर्य की स्थापना। शिष्य ने पूछा-यदि प्रतिसेवनातिचार किसी कारण से ३. द्रव्यार्य - नमनशील तिनिश आदि वृक्ष । विस्मृत हो गए हों तो श्रमण उनका शल्योद्धरण कैसे करे? ४. क्षेत्रार्य - मगध आदि जनपद। आचार्य ने कहा-वह सोचे कि जिन-जिन स्थानों में ५. जात्यार्य - अम्बष्ठ, कलिन्द, वैदेह, विदक. हारित और जो-जो मेरे अपराध हैं, अर्हत् उन्हें जानते हैं। मैं उनकी तुंतुण-ये छह इभ्य-अभ्यर्चनीय जातियां। आलोचना के लिए सर्वात्मना उपस्थित हुआ हूं। इस प्रकार ६. कुलार्य - उग्र, भोज, राजन्य, क्षत्रिय, ज्ञात-कौरव और आलोचना करता हुआ भी वह आराधक है क्योंकि वह गौरव इक्ष्वाकु-इन छह कुलों में उत्पन्न। और माया से रहित तथा विशुद्ध परिणामधारा से संयुक्त है। ७. कार्य -- कर्म से आर्य । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्यक्षेत्र ९२ आगम विषय कोश-२ ८. भाषार्य - अर्धमागधी भाषाभाषी। रायगिह मगह चंपा, अंगा तह तामलित्ति बंगा य। ९. शिल्पार्य - तुण्णाक, तन्तुवाय आदि। कंचणपुरं कलिंगा, वाणारसि चेव कासी य॥ १०. ज्ञानार्य -- मति, श्रुत आदि पांच ज्ञान के धारक। साकेत कोसला गयपुरं च कुरु सोरियं कुसट्टा य। ११. दर्शनार्य-सराग और वीतराग दर्शन के धारक। कंपिल्लं पंचाला, अहिछत्ता जंगला चेव॥ १२. चारित्रार्य - सामायिक आदि पांच चारित्र के धारक। बारवई य सुरट्ठा, विदेह मिहिला य वच्छ कोसंबी। (प्रज्ञापना सूत्र में आर्य के दो प्रकार प्रतिपादित हैं- नंदिपुरं संडिब्भा, भद्दिलपुरमेव मलया य॥ ऋद्धिप्राप्त आर्य और ऋद्धिअप्राप्त आर्य। अर्हत्, चक्रवर्ती, वेराड वच्छ वरणा, अच्छा तह मत्तियावइ दसन्ना। बलदेव, वासुदेव, चारण और विद्याधर-ये ऋद्धिप्राप्त आर्य सुत्तीवई य चेदी, वीतभयं सिंधुसोवीरा ॥ हैं। ऋद्धिअप्राप्त आर्य के नौ प्रकार हैं-क्षेत्रार्य, जात्यार्य, महरा य सरसेणा, पावा भंगी य मासपरि वड़ा। कलार्य शिल्पार्य, भाषार्य, ज्ञानार्य. दर्शनार्य. चारित्रार्य । इनमें सावत्थी य कणाला, कोडीवरिसं च लाढा य॥ से प्रत्येक के अनेक भेद हैं।—द्र प्रज्ञा १/९०-१२९) सेयविया वि य नगरी, केगइअद्धं च आरियं भणियं। २. आर्यक्षेत्र की सीमा : कालसापेक्ष जत्थुप्पत्ति जिणाणं, चक्कीणं राम-कण्हाणं॥ कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुरथिमेणं (बृभा ३२६३ की वृ) जाव अंग-मगहाओ एत्तए, दक्खिणेणं जाव कोसंबीओ साढे पचीस जनपद अथवा उनमें रहने वाले क्षेत्रार्य एत्तए, पच्चत्थिमेणं जाव थूणाविसयाओ एत्तए, उत्तरेणं कहलाते हैं। वे मगध आदि जनपद राजगृह आदि नगरों से जाव कुणालाविसयाओ एत्तए।एतावताव कप्पइ, एताव- उपलक्षित हैं, जो प्रज्ञापना (१/९३/१-६) में प्ररूपित हैंताव आरिए खेत्ते। नो से कप्पइ एत्तो बाहिं। तेण परं जत्थ जनपद (प्रदेश) नगर (राजधानी) नाणदंसणचरित्ताइं उस्सप्पंति। (क १/४७) १. मगध राजगृह साएयम्मि पुरवरे, सभूमिभागम्मि वद्धमाणेण। २. अंग चम्पा सुत्तमिणं पण्णत्तं, पडुच्च तं चेव कालं तु॥ ३. ताम्रलिप्ति . (बृभा ३२६१) ४. कलिंग कांचनपुर (भुवनेश्वर) काशी ५. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी पूर्व दिशा में अंग और मगध वाराणसी (बनारस) कौशल साकेत जनपद, दक्षिण दिशा में कौशाम्बी, पश्चिम दिशा में स्थूणा ६. ७. कुरु देश तथा उत्तर दिशा में कुणाला क्षेत्र तक जा सकते हैं, हस्तिनापुर कुशात (कुशावर्त्त) इतने क्षेत्र में विहार कर सकते हैं, इतना आर्यक्षेत्र है। वे सोरियपुर (सौरीपुर) पांचाल काम्पिल्य इससे बाहर नहीं जा सकते। उससे आगे जहां ज्ञान, दर्शन, १०. जांगल अहिच्छत्रा चारित्र की वृद्धि होती है, वहां जा सकते हैं। ११. द्वारिका साकेत नगर में सुभूमिभाग उद्यान में समवसृत भगवान् विदेह मिथिला महावीर ने उस काल की अपेक्षा से उपर्युक्त क्षेत्र-सीमाविषयक वत्स कौशाम्बी सूत्र का प्ररूपण किया। १४. शांडिल्य नन्दिपुर ३. आर्यक्षेत्र : साढे पचीस जनपद १५. मलय भद्दिलपुर क्षेत्रार्या अर्द्धषड्विंशतिर्जनपदाः तद्वासिनो वा। ते १६.. मत्स्य वैराट चजनपदा राजगृहादिनगरोपलक्षिता मगधादयः।उक्तञ्च अच्छ वरुणा बंग i v ९. दर्शन, सौराष्ट्र Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ आर्यक्षेत्र वर्त्त दशार्ण मृत्तिकावती वहां उपधि आदि की प्राप्ति आगमविहित विधि के अनुसार चेदी शुक्तिमती सुलभ होती है। निर्विघ्नता के कारण ज्ञान-दर्शन-चारित्र की सिन्ध-सौवीर वीतभय वृद्धि होती है। भव्यजनों की दीक्षा से गच्छ की वृद्धि होती है। शूरसेन मथुरा आर्यक्षेत्र में ही अविरतसम्यग्दृष्टि और व्रती श्रावक भंगी अपापा (पावापुरी) सुविहित साधुओं की आहार आदि संबंधी प्रतिज्ञाओं को मासपुरी जानते हैं और तदनुसार उनकी अपेक्षाओं को पूर्ण करते हैं। कुणाला श्रावस्ती ५. अनार्यक्षेत्रगमन निषिद्ध लाढ/लाट कोटिवर्ष से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्ज२६. केकयार्द्ध श्वेतविका माणे अंतरा से विरूवरूवाणि पच्चंतिकाणि दस्सुगाइन क्षेत्रों में ही तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव और यतणाणि मिलक्खुणि अणारियाणि दुस्सन्नप्पाणि वासुदेव उत्पन्न होते हैं, इसलिए (प्राचीन मान्यता से) दुप्पण्णवणिज्जाणि अकालपडिबोहीणि अकालपरिइनको आर्यक्षेत्र की संज्ञा प्राप्त हई है। भोईणि, सति लाढे विहाराए, संथरमाणेहिं जणवएहिं, णो ४. आर्यक्षेत्र में तीर्थंकरमहिमाः संयमपालन सुकर __विहार-वत्तियाए पवज्जेज्जा गमणाए॥ (आचूला ३/८) जम्मण-निक्खमणेसु य, तित्थकराणं करेंति महिमाओ। भिक्षु अथवा भिक्षुणी ग्रामानुग्राम परिव्रजन करें, उनके भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया देवा॥ मार्ग में विविध देशों की सीमाओं पर विरूपरूप दस्यओं के उप्पण्णे णाणवरे, तम्मि अणंते पहीणकम्माणो। आयतन हों. म्लेच्छों और अनार्यों के गांव हों. कठिनाई से तो उवदिसंति धम्मं, जगजीवहियाय तित्थकरा॥ साधु का आचार समझने वाले लोग हों, जिन्हें प्रतिबोध देना लोगच्छे रयभूतं, ओवयणं निवयणं च देवाणं। कठिन हो, असमय में जागने वाले और असमय में खाने वाले संसयवाकरणाणि य, पुच्छंति तहिं जिणवरिंदे॥ हों, तो विहार की प्रतिज्ञा से प्रासुकभोजी मुनि वहां जाने का समणगुणविदुऽत्थ जणो, सुलभो उवधी सतंतमविरुद्धो। संकल्प न करे, यदि विहार के योग्य लाढ देश (आर्यक्षेत्र) आरियविसयम्मि गुणा, णाण-चरण-गच्छवुड्डी य॥ हो, संयम-निर्वाह योग्य अन्य जनपद विद्यमान हों। एत्थ किर सण्णि सावग, जाणंति अभिग्गहे सुविहियाणा जेभिक्खू विरूवरूवाइंदसुयाययणाई अणारियाई (बृभा ३२६६-३२७०) मिलक्खूई पच्चंतियाई सति लाढे विहाराए संथरमाणेसु आर्यक्षेत्र में तीर्थंकरों के जन्म, अभिनिष्क्रमण और जणवएसु विहारपडियाए अभिसंधारेति, अभिसंधारेतं वा केवलज्ञान की प्राप्ति के समय भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क सातिज्जतितंसेवमाणेआवज्जड चाउम्मासियं परिहारऔर वैमानिक देव महिमा करने आते हैं। ट्ठाणं उग्घातियं। (नि १६/२७, ५१) मनुष्य लोक में देवों के विस्मयकारी गमनागमन को देखकर अनेक जीव संबुद्ध-प्रतिबुद्ध होते हैं। कैवल्य-उत्पत्ति सग-जवणादिविरूवा, छव्वीसद्धंतवासि पच्चंता। के पश्चात् क्षीणकर्मा तीर्थंकर प्राणी-जगत् के हित-संपादन कम्माणज्जमणारिय, दसणेहि दसति तेण दसू ।। के लिए उपदेश देते हैं। मिलक्खूऽव्वत्तभासी भव्य प्राणी तीर्थंकरों के सामने अपने संशयों को प्रस्तुत (निभा ५७२७, ५७२८) करते हैं। तीर्थंकर अपने अतिशय से एक साथ सबके संशयों का जो भिक्षु साधु-विहरण योग्य जनपद सुलभ होने पर उन्मूलन करते हैं। भी विरूपरूप दस्य, अनार्य, म्लेच्छ और प्रत्यंत संबंधी क्षेत्रों आर्यक्षेत्र के लोग श्रमणों के हजारों गुणों को जानते हैं। में विहार की प्रतिज्ञा से जाने का संकल्प करता है अथवा Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्यक्षेत्र आगम विषय कोश-२ संकल्प करने वाले दूसरे का अनुमोदन करता है, वह चतुर्लधु कहा- 'तुम्हारे अतिरिक्त शेष सब आराधक होंगे।' यह सुनकर प्रायश्चित्त का भागी होता है। स्कंदक चला, कुंभकारकट के उद्यान में ठहरा। ० विरूपरूप-विविध वेश, भाषा और दृष्टि वाले शक, यवन उसे देखते ही पालक का पूर्व वैर जागा। उसने दण्डकी आदि। से कहा-यह मुनि आपके राज्य को हड़पने आया है। राजा को ० दस्यु-आरुष्ट होकर दांतों से काटने वाले। विश्वास नहीं हआ, तब पालक ने उद्यान में स्वयं द्वारा छिपाये ० अनार्य-हिंसा आदि अकरणीय कर्म करने वाले। हए आयुधों को दिखाया। क्रद्ध राजा ने कहा-तम जैसा चाहो. ० म्लेच्छ-अव्यक्त-अस्फुटभाषी। वैसा करो। ० प्रत्यंत-मगध आदि साढे पचीस आर्यक्षेत्रों के सीमावर्ती पालक ने पुरुषयंत्र बनाकर सब साधुओं को पीलना प्रदेशों में रहने वाले अनार्य लोग। शुरू किया। स्कंदक ने कहा-यंत्र में पहले मुझे डालो। ० निषेध के हेतु : स्कन्दक दृष्टांत पालक ने स्कंदक की बात को अस्वीकार कर उसे बांध आणादिणो य दोसा, विराहणा खंदएण दिद्रुतो।। दिया। शिष्यों के रक्त से अभिषिक्त स्कंदक ने अशुभ परिणामों एतेण कारणेणं, पडुच्च कालं तु पण्णवणा॥ से निदान किया और भवनपतिदेवों में अग्निकुमार के रूप में दोच्चेण आगतो खंदएण वादे पराजितो कुतितो। उत्पन्न हुआ। शिष्य सब सिद्ध हो गए। खंदगदिक्खा पुच्छा, णिवारणाऽऽराध तव्वज्जा। भगिनी पुरन्दरयशा ने अपने भ्राता मुनि को रत्नकंबल उज्जाणाऽऽयुध णूमण, णिवकहणं कोव जंतयं पुव्वं। दिया था, जिसका रजोहरण बनाया गया था। बाज पक्षी ने बंध चिरिक्क णिदाणे, कंबलदाणे रयोहरणं॥ रक्तरंजित रजोहरण को मांस का टुकड़ा समझ कर उठा लिया अग्गिकुमारूववातो, चिंता देवीय चिण्ह रयहरणं। और वह संयोगवश पुरन्दरयशा के सामने जा गिरा। उसे खिज्जण सपरिसदिक्खा, जिण साहर वात डाहो य॥ देखते ही वह आर्तस्वर में बोली-अरे ! यह यहां कैसे? क्या (बृभा ३२७१-३२७४) मेरा भाई मारा गया? उसने राजा के सामने दुःख प्रकट किया। अनार्यदेश में जाने से आज्ञाभंग आदि दोष लगते हैं, अग्निकुमार ने पूर्वकृत निदान के फलस्वरूप संवर्तक आत्मविराधना और संयमविराधना होती है। यह प्ररूपण भगवान् वायु की विकुर्वणा कर जनपद सहित नगर को जला दिया महावीर के समय को दृष्टिगत रखकर किया गया है। और पुत्र-पत्नी सहित पालक को कुत्ते के साथ कुंभी में स्कन्दक का दृष्टांत-श्रावस्ती नगरी । जितशत्रु राजा । धारिणी पकाया तथा सपरिवार पुरंदरयशा को अर्हत् समवसरण में रानी। युवराज पुत्र स्कन्दक। पुत्री पुरंदरयशा। पहुंचा दिया। उत्तरापथ में कुम्भकारकट नगर के राजा दण्डकी के ० निषिद्ध क्षेत्रगमन के हेतु साथ पुरन्दरयशा का विवाह हुआ। एक बार दण्डकी का पडिकुट्ट देस कारण गया उ तदुवरमि निति चरणट्ठा। पुरोहित पालक दूत के रूप में श्रावस्ती में आया। राजपरिषद् असिवाई व भविस्सइ, भूए व वयंति परदेसं॥ में शास्त्रार्थ के प्रसंग में स्कन्दक द्वारा पराजित पालक रुष्ट (बृभा २८८१) होकर अपने देश चला गया। भगवान् महावीर ने सिन्धु आदि देशों में विहरण का स्कन्दक पांच सौ व्यक्तियों के साथ अर्हत् मुनिसुव्रत के निषेध किया है, क्योंकि वे देश संयम के प्रतिकूल हैं। यदि पास प्रव्रजित हुआ। एक दिन स्कन्दक ने पूछा- भंते! क्या मैं दुर्भिक्ष आदि कारणों के उत्पन्न होने पर मुनि निषिद्ध देशों में इन पांच सौ साधुओं के साथ कुंभकारकट नगर में चला जाऊं? जाए तो कारण समाप्त होने पर पुन: संयम के अनुकूल देश में आ 'वहां उपसर्ग होगा'-यह कहते हुए भगवान् ने उसे रोका। जाए अथवा निमित्तबल से यह जान ले कि यहां दुर्भिक्ष होने उसने पुनः पूछा-हम आराधक होंगे या विराधक? भगवान् ने वाला है या हुआ है, तब मुनि प्रतिषिद्ध क्षेत्र में जा सकता है। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ ६. राजा सम्प्रति : अनार्यक्षेत्र आर्यक्षेत्र में परिवर्तित सोरायाऽवंतिवती, समणाणं सावतो सुविहिताणं । पच्चंतियरायाणो, सव्वे सद्दाविया तेणं ॥ कहिओ य तेसि धम्मो, वित्थरतो गाहिता य सम्मत्तं । अप्पाहिता य बहुसो, समणाणं भहगा होह ॥ जाह सामिं, समणाणं पणमहा सुविहियाणं । दव्वेण मे न कज्जं, एवं खु पियं कुणह मज्झं ॥ वीसज्जियाय तेणं, गमणं घोसावणं सरज्जेसु । साहूण सुहविहारा, जाता पच्चंतिया देसा ॥ समणभडभाविएसुं, तेसू रज्जेसु एसणादीसु । साहू सुहं विहरिया, तेणं चिय भद्दगा ते उ ॥ (बृभा ३२८३, ३२८४, ३२८६-३२८८ ) अवन्ति का राजा सम्प्रति सुविहित साधुओं का उपासक था। उसने प्रत्यन्त (अनार्य) देश के राजाओं को बुलाया । उन्हें धर्म का स्वरूप बताया, सम्यक्त्व ग्रहण करवाई और बार-बार निर्देश दिया- 'आप अपने देश में भी साधुओं के साथ भद्र व्यवहार करें, उनकी भक्ति करें। यदि आप मुझे स्वामी मानते हैं तो सुविहित साधुओं को वन्दना करें - यह मुझे प्रिय है । करस्वरूप दिए जाने वाले द्रव्य से मुझे प्रयोजन नहीं है । ' राजा सम्प्रति ने राजाओं को शिक्षा देकर विदा किया। उन्होंने अपने-अपने राज्यों में जाकर अमारि की घोषणा की। अनार्य देश साधुओं के लिए सुखद विहारक्षेत्र बन गए। सम्प्रति नृप ने अपने भटों को साधु-सामाचारी का प्रशिक्षण देकर उन्हें साधु वेश में अनार्य देशों में भेजा। उन श्रमण वेशधारी भटों ने एषणा के दोषों का परिहार करते हुए शुद्ध आहार को ग्रहण किया, जिससे अनार्यक्षेत्र श्रमणविधियों से भावित हो गए और वे देश साधुओं के लिए सुखद विहारक्षेत्र बन गए। आलोचना - गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन । १. आलोचना के स्थान * आलोचना : प्रायश्चित्त का एक भेद द्र प्रायश्चित्त २. आलोचनीय क्या ? ३. आलोचना की इयत्ता ९५ ४. आलोचना के तीन प्रकार ५. विहार आलोचना के प्रकार ० उत्कृष्टकाल ० महाव्रत - गुप्ति समिति-अतिचार-आलोचना ६. उपसंपदा और अपराध आलोचना * उपसम्पन्न द्वारा आलोचना द्र उपसम्पदा ७. आलोचनाकाल में प्रशस्त अप्रशस्त द्रव्य... ० चरंती दिशा ८. आलोचनाई की अर्हताएं • अपरिस्रावी : दृढ़मित्र दृष्टांत ९. आलोचनाई का व्यवहार : व्याध और गौ दृष्टांत * व्यवहारी (आलोचनार्ह) की अर्हता द्र व्यवहार १०. आलोचनार्ह : आगम-व्यवहारी एवं स्मारणा विधि ० आगमव्यवहारी : आलोचना श्रवण के पश्चात् प्रायश्चित्त श्रुतव्यवहारी : तीन बार आलोचना श्रवण ११. आलोचना : गीतार्थ या अगीतार्थ के पास ? १२. आलोचनाई का क्रम ० आलोचना १३. पार्श्वस्थ आदि के पास आलोचना १४. सम्यक्त्वी देव के पास आलोचना १५. साधु-साध्वी की आलोचना विधि : चतुष्कर्णा आदि परिषद् १६. आलोचना काल में सहवर्ती मुनि की अर्हता १७. साध्वी की प्राचीन आलोचनाविधि १८. निषद्या, दिशा आदि • निषद्या की अनिवार्यता : राजा - नापित दृष्टांत १९. निषद्या विवेक : सिंहानुग आदि आलोचनार्ह २०. आलोचना विधि के दोष २१. आलोचक की अर्हता • भद्र बालक की तरह आलोचना २२. आचार्य के लिए भी आलोचना अनिवार्य २३. अनशनकाल में आलोचना विधि २४. शल्योद्धरण आवश्यक : अश्ववत् प्रस्थान ० व्याध दृष्टांत २५. सशल्यमरण से अनंत संसार २६. आलोचना न हो, तब तक कर्मबंध Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचना आगम विषय कोश-; २७. किस आलोचना से शुद्धि ० मायापूर्ण आलोचना से प्रायश्चित्तवद्धि * आलोचना में आराधना की नियमा द्र आराधना २८. आलोचना से निष्पन्न गुण * पृथक् वसति :आलोचनाविधि द्र सामाचारी १. आलोचना के स्थान भिक्ख-वियार-विहारे, अन्नेसु य एवमादिकज्जेसु। अविगडियम्मि अविणओ, होज्ज असुद्धे व परिभोगो॥ अन्नं च छाउमत्थो, तधन्नहा वा हवेज्ज उवजोगो। आलोएंतो ऊहइ, सोउं च वियाणते सोता॥ (व्यभा ५७.५८) वस्त्र, पात्र, भक्तपान, औषधि आदि ग्रहण कर वसति में आने पर. उच्चारभमि. विहारभमि आदि से आकर तथा इसी प्रकार के अन्यान्य कार्यों से निवृत्त होकर गुरु के पास आलोचना न करने वाला अविनय और अशुद्ध परिभोग-इन दो दोषों से दूषित होता है। छद्मस्थ साधु का उपयोग अयथार्थ या विपरीत भी हो सकता है। आचार्य आदि बहुश्रुतों के पास आलोचना करता हुआ मुनि ऊहापोह के द्वारा स्वयं ही शुद्ध- अशुद्ध को जान लेता है अथवा वहां आने-जाने वाले अन्य श्रोताओं से भी शुद्धाशुद्धि की बात सुनकर स्वयं शद्धाशद्धि का विवेक कर सकता है। (प्रत्युपेक्षण, प्रमार्जन, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, तपश्चरण, आहार-विहार आदि अवश्यकरणीय क्रियाओं में जागरूक रहते हुए भी जो प्रमाद होता है, उनमें अतिचार लगता है तो उसकी शुद्धि आलोचना मात्र से हो जाती है।-तसू ९/२२ वृ विद्या और ध्यान के साधनों को ग्रहण करने आदि में विनय के बिना प्रवृत्ति करना दोष है, उसका प्रायश्चित्त है आलोचना।-तवा ९/२२) २. आलोचनीय क्या? चेयणमचित्तदव्वे, जणवयमद्धाण होति खेत्तम्मि। दिण-निसि सुभिक्ख-दुभिक्खकाले भावम्मि हडितरे॥ (व्यभा ३१६) आलोचना के चार पहलू हैं द्रव्य-सचित्त और अचित्त क्षेत्र-जनपद आदि स्थान काल-दिन-रात या सुभिक्ष-दुर्भिक्ष भाव-स्वस्थ या ग्लान अवस्था इनसे सम्बद्ध विहित आचार का अतिक्रमण होने पर आलोचना की जाती है। ३. आलोचना की इयत्ता बितिए नस्थि वियडणा, वा उविवेगे तधा विउस्सग्गे" (व्यभा ५५) प्रतिक्रमणार्ह प्रायश्चित्त में आलोचना नहीं की जाती है। विवेकाह और व्युत्सर्गार्ह प्रायश्चित्त में आलोचना वैकल्पिक है-कभी की जाती है, कभी नहीं की जाती। ४. आलोचना के तीन प्रकार ........ आलोयणा तिविहा॥ विहारालोयणा, उवसंपयालोयणा, अवराहालोयणा या (निभा ६३१० चू) आलोचना के तीन प्रकार हैं१. विहार आलोचना-बल-वीर्य होने पर भी तप-उपधान आदि में उद्यम न करने की आलोचना। २. उपसम्पदा आलोचना-उपसम्पदा हेतु उपस्थित मुनि द्वारा की जाने वाली आलोचना। ३. अपराध आलाचना--आतक्रमण का विशुद्धि के लिए का जाने वाली आलोचना। ५. विहार आलोचना के प्रकार तं पुण ओहविभागे, दरभुत्ते ओह जाव भिण्णो उ। तेण परेण विभाओ, संभमसत्थादिसं भइतं॥ ओहे एगदिवसिया, विभागतो एगऽणेगदिवसा तु। रत्तिं पि दिवसओ वा, विभागओ ओहओ दिवसे॥ अप्पा मूलगुणेसुं, विराहणा अप्पउत्तरगुणेसुं। अप्पा पासत्थाइसु, दाणग्गह संपओगोहा।। (निभा ६३१४-६३१६) विहार आलोचना के दो प्रकार हैं-ओघ और विभाग। ० ओघ विहार आलोचना-एक क्षेत्र में प्रवासी मनि आहारकार्य Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ आलोचना प्रारंभ कर चुके हों, उसी समय कोई अतिथि सांभोजिक वहां जब शिष्य और प्रतीच्छक सब भिक्षा के लिए या पहुंच जाये तो वह अतिथि मुनि ओघ (सामान्य रूप से संक्षेप विचारभूमि में या अन्य प्रयोजन से बाहर गए हुए हों, तब में) आलोचना करे। पांच दिन यावत् भिन्न-मासपर्यंत अकेले आचार्य के पास स्पर्धकस्वामी आलोचना करते हैं। प्रायश्चित्त-योग्य अपराध हो तो ओघ आलोचना कर एक कुछ आचार्य ऐसा मानते हैं कि स्पर्धकपति को अपने साथ मंडली में आहार करे। आए हुए साधुओं के सामने आलोचना करनी चाहिए, जिससे मूल या उत्तर गुणों में अल्प अतिचार लगने के कारण जो कुछ विस्मृत हुआ हो, वे उसकी स्मृति दिला सकें। अथवा भोजनकाल होने पर ओघ आलोचना की जाती है। ० महाव्रत-गप्ति-समिति-अतिचार आलोचना यह एक दैवसिकी होती है-दिन में ही की जाती है। पार्श्वस्थ मूलगुण पढमकाया, तत्थ वि पढमं तु पंथमादीसु। आदि के साथ आहार आदि का आदान-प्रदान-संप्रयोग करने पाद अपमज्जणादी, बितिए उल्लादि पंथे वा॥ पर ओघ आलोचना की जाती है। ततिए पतिट्ठियादी, अभिधारणवीयणादि वाउम्मि। ० विभाग विहार आलोचना-भिन्न मास से अधिक प्रायश्चित्त बीयादिघट्ट पंचम, इंदिय अणुवायतो छ8॥ योग्य अपराध हो तो एक मंडली में आहार न करे। पृथक् दुब्भासिय हसितादी, बितिए ततिए अजाइउग्गहणं। आहार कर विभाग (विस्तार से) आलोचना करे। घट्टणपुव्वरतादी, इंदिय-आलोय मेहुण्णे॥ __अग्निसंभ्रम आदि कारण हो या सार्थ के साथ विहार मुच्छातिरित्त पंचम, छटे लेवाड अगद-सुंठादी। कर रहे हों, मार्ग में सार्थसन्निवेश में कोई मुनि आए, सार्थ गुत्ति-समिती विवक्खा, अणेसिगहणुत्तरगुणेसु॥ जल्दी प्रस्थान करने वाला हो अथवा पात्र कम हों तो आगंतुक संतम्मि वि बलविरिए, तवोवहाणम्मि जं न उज्जमियं। मुनि ओघ आलोचना कर एक साथ (भोजन-मंडली में) एस विहारवियडणा ............ आहार करे, तत्पश्चात् विभाग आलोचना करे। (व्यभा २४०-२४४) विभाग आलोचना दिन में या रात में कभी भी की जा आलोचना करते समय सबसे पहले प्रथम महाव्रत सकती है। यह एक या अनेक दैवसिकी होती है क्योंकि संबंधी आलोचना करनी चाहिए। इसका विषय है-छह इसमें अपराध की बहुलता होती है। जीवनिकाय । प्रथम पृथ्वीकाय संबंधी आलोचना हो। यथा० उत्कृष्ट काल पृथ्वीकाय-मार्ग में चलते समय अस्थण्डिल से स्थण्डिल में, पक्खिय चउ संवच्छर, उक्कोसं बारसण्ह वरिसाणं। स्थण्डिल से अस्थण्डिल में, काली मिट्टी से नीली मिट्टी में, समणुण्णा आयरिया, फड्डगपतिया य विगडेंति॥ नीली मिट्टी से काली मिट्टी में संक्रमण करते हुए पैरों का भिक्खादिनिग्गएसुं, रहिते विगडेंति फड्डगवईओ। प्रमार्जन न किया हो, सचित्त रजों से संसृष्ट हाथ या पात्रक से सव्वसमक्खं केई, ते वीसरियं तु सारेंति॥ भिक्षा ग्रहण की हो-इस प्रकार पृथ्वीकाय विराधना की (व्यभा २३४, २३९) आलोचना करे।। समनोज्ञ (जिनकी सामाचारी एक हो, वे) आचार्य अप्काय-उदक से आई या स्निग्ध हाथ आदि से भिक्षा ली परस्पर तथा स्पर्धकपति एवं अन्य सब साधु अपने मूल हो, मार्ग में अयतना से जल को पार किया हो। आचार्य के पास पाक्षिक आलोचना करें। दूरी आदि किसी तेजस्काय-अग्नि पर प्रतिष्ठित या परस्पर प्रतिष्ठित भक्तपान कारणवश पाक्षिक आलोचना न हो सके तो चातुर्मासिक ग्रहण किया हो, ज्योति वाली वसति में रहे हों इत्यादि। आलोचना अवश्य करें। वह भी न हो तो सांवत्सरिक और वायुकाय-शरीर, भक्तपान आदि पर पंखे से हवा की हो, वह भी न हो तो उत्कृष्टतः बारह वर्ष हो जाने पर दूर से गर्मी से पीड़ित हो वायु के सम्मुख अभिसंधारण किया हो। आकर भी आलोचना अवश्य कर लेनी चाहिए। वनस्पतिकाय-बीज आदि का संघद्रन-ग्रहण किया हो। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचना आगम विषय कोश-२ सम्पदा) त्रसकाय-इन्द्रियवृद्धि के क्रम से आलोचना करे। द्वीन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय प्राणी का संघटन-परितापन आदि किया हो। दूसरे महाव्रत में दुर्भाषित अथवा हास्य, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा भय से मृषा कहा हो। तीसरे महाव्रत में अयाचित का ग्रहण किया हो। चौथे महाव्रत में स्त्री का संघट्टन, पूर्वक्रीडित का अनस्मरण, स्त्रियों के अवयवों का अवलोकन किया हो। __पांचवें महाव्रत में उपकरणों में मूर्छा तथा अतिरिक्त उपधि का ग्रहण-उपभोग किया हो। ___ छठे व्रत में आहार के लेप से युक्त पात्र आदि, औषधि अथवा सौंठ आदि रात्री में रखे हों। उत्तरगुण विषयक आलोचना-गुप्ति और समिति के विपरीत आचरण किया हो-कदाचित् अगुप्त रहा हो, कदाचित् असमित अवस्था में अनेषणीय भक्त-पान लिया हो.... बल और वीर्य-शारीरिक शक्ति और आंतरिक शक्ति होने पर भी तप-उपधान में उद्यम न किया हो, शक्ति का संगोपन किया हो तो आलोचना करे। यह विहार आलोचना है। ६. उपसम्पदा और अपराध आलोचना आलोयण तह चेव य, मूलुत्तर नवरि विगडिते मंतु।" एमेव य अवराहे (व्यभा ३०२, ३०३) उपसम्पदा आलोचना में भी विहार आलोचना की तरह पहले मूलगुणों के अतिचारों की, फिर उत्तरगुणों के अतिचारों की आलोचना की जाती है। आलोचना के पश्चात् उपसम्पद्यमान मुनि साधुओं को वंदना कर निवेदन करता है-आपने मुझे आलोचना दी, अब आप मेरी सारणावारणा करें। वे मुनि भी कहते हैं-आप भी हमारी सारणावारणा करना। अपराध आलोचना के विषय में भी यही विधि प्रयोजनीय है। एगमणेगा दिवसेसु, होति ओघे य पदविभागे य.. दिव-रातो उवसंपय, अवराधे दिवसतो पसत्थम्मि।... (व्यभा २४५, २४६) उपसंपदालोचना और अपराधालोचना के दो-दो प्रकार हैं-ओघ और पदविभाग। ओघआलोचना एक दैवसिकी और विभागआलोचना एक दैवसिकी तथा अनेक दैवसिकी होती है। उपसंपद्यमान ज्ञात और अज्ञात दोनों प्रकार के होते हैं। अज्ञात की परीक्षा की जाती है। (परीक्षाविधि द्र उपसम्पदा) उपसंपदालोचना प्रशस्त अथवा अप्रशस्त दिन या रात में दी जा सकती है। अपराधालोचना प्रशस्त दिन में ही दी जाती है। ७. आलोचनाकाल में प्रशस्त-अप्रशस्त द्रव्य." दव्वादिचतुरभिग्गह, पसत्थमपसत्थए दुहेक्केक्के। अपसत्थे वजे उं, पसत्थएहिं तु आलोए। भग्गघरे कुड्डेसु य, रासीसु य जे दुमा य अमणुण्णा । तत्थ न आलोएज्जा, तप्पडिवक्खे दिसा तिण्णि ॥ अमणुण्णधन्नरासी, अमणुण्णदुमा य होंति दव्वम्मि। भग्गघर-रुद्द-ऊसर, पवाय दड्डादि खेत्तम्मि॥ निप्पत्त कंटइल्ले, विज्जुहते खार-कडुग-दड्डे य। अय-तउय-तंब-सीसग, दव्वे धन्ना य अमणुण्णा॥ पडिकुटेल्लगदिवसे, वज्जेज्जा अट्टमिं च नवमिं च। छटुिं च चउत्थिं च, बारसिं दोण्हं पि पक्खाणं॥ संझागतं रविगतं, विड्डेरं संगहं विलंबिं च। राहुहतं गहभिन्नं, व वजए सत्तनक्खत्ते॥ तप्पडिवक्खे खेत्ते, उच्छुवणे सालि-चेइयघरे वा। गंभीरसाणुणाए, पयाहिणावत्तउदए य॥ उत्तदिणसेसकाले, उच्चट्ठाणा गहा य भावम्मि। पुव्वदिसि उत्तरा वा, चरंतिया..." ॥ (व्यभा ३०५-३१०, ३१३, ३१४) अपराधालोचना देते समय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावइन चारों को देखकर तथा दिशा का अभिग्रहण कर आलोचना देनी चाहिए-इन पांचों के दो-दो प्रकार हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त। प्रशस्त द्रव्य आदि के सद्भाव में आलोचना करनी चाहिए, अप्रशस्त में नहीं। ० अप्रशस्त द्रव्य-अमनोज्ञ धान्यराशि-तिल, माष आदि। अमनोज्ञ द्रुमराशि-पत्ररहित वृक्ष (करीर आदि), कंटीले वृक्ष (बबूल आदि), विद्युतहत वृक्ष, क्षाररस (मोरड आदि), कटुकरस (रोहिणी, कुटज, नीम आदि), दवदग्ध वृक्ष । ० अमनोज्ञ धातु-लोहा, जस्ता, तांबा, सीसा आदि। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ ० अप्रशस्त क्षेत्र - भग्नगृह, भित्ति के अवशेष, रुद्रगृह, ऊषर भूमि, प्रपात, दग्ध भूमि आदि । ९९ • अप्रशस्त काल - शुक्ल और कृष्ण पक्ष की चतुर्थी, छठ, अष्टमी, नवमी और द्वादशी – ये तिथियां शुभ कार्यों में स्वभावतः वर्जनीय हैं। सन्ध्यागत आदि नक्षत्र अप्रशस्त हैं। ० अप्रशस्त भाव -- नीच स्थान ( सप्तम स्थान) गत ग्रह । अप्रशस्त सात नक्षत्र वर्जनीय हैं - संध्यागत, रविगत, विद्वारिक (विड्डेर), संग्रह, विलम्बी, राहुहत और ग्रहभिन्न । ० अप्रशस्त दिशा - याम्या आदि । • प्रशस्त द्रव्य - धान्य राशि- शालि आदि । धातु राशि- मणि, स्वर्ण, मौक्तिक आदि की राशि । ० प्रशस्त क्षेत्र - इक्षुवन, पत्र-पुष्प फलोपेत उद्यान, शालिवन, चैत्यगृह, गंभीरस्थान (भग्नत्व आदि दोषों से रहित तथा जिसका मध्यभाग प्रायः अलक्षित - शेष जनों द्वारा अदृष्ट रहता है), सानुनाद स्थान ( जहां शब्दोच्चारण करने पर प्रतिध्वनि उठती है), प्रदक्षिणावर्त्त जल ( वह नदी या सरोवर, जिसमें जल का आवर्त - मोड़ दक्षिण की ओर हो), पद्मसरोवर । ० प्रशस्त काल - द्वितीया, तृतीया आदि प्रशस्त तिथियां (व्यतिपात आदि दोष वर्जित), प्रशस्त करण और मुहूर्त्त । द्र काल ० प्रशस्त दिशा- पूर्व दिशा, उत्तर दिशा और चरंती दिशा । ० चरंती दिशा ० प्रशस्त भाव - उच्च स्थानगत ग्रह | ......चरंतिया जाव नववी ॥ चरंती नाम यस्यां भगवानर्हन् विहरति सामान्यतः केवलज्ञानी मनःपर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी चतुर्दशपूर्वी त्रयोदशपूर्वी यावन्नवपूर्वी, यदि वा यो यस्मिन् युगे प्रधान आचार्यः स वा यया विहरति । (व्यभा ३१४ वृ) चरन्ती दिशा वह है जिस दिशा में तीर्थंकर, केवली, मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, त्रयोदशपूर्वी यावत् नवपूर्वी अथवा युगप्रधान आचार्य विहरण करते हैं । ८. आलोचनाई की अर्हताएं गीतत्था कयकरणा, पोढा परिणामिया य गंभीरा । चिरदिक्खिया य वुड्ढा, जतीण आलोयणा जोग्गा ॥ (व्यभा २३७८) आलोचना आलोचनार्ह (आलोचना श्रवण योग्य) की अर्हता o गीतार्थ - सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ में निष्णात । ० ० कृतकरण-जो आलोचना में सहायक रह चुके हैं। प्रौढ़ - बिना हिचकिचाहट के प्रायश्चित्त देने में समर्थ । ० परिणामी - न अपरिणामक, न अतिपरिणामक । ० गंभीर - आलोचक के महान् दोषों को सुनकर भी जो अपरिस्रावी हैं (बात को पचाने में समर्थ हैं) । ० चिरदीक्षित - तीन वर्ष से अधिक दीक्षापर्याय वाले। • वृद्ध - श्रुत, पर्याय और वय से स्थविर । आलोयणारिहो खलु, निरावलावी उ जह उ दढमित्तो | अट्ठहि चेव गुणेहिं, इमेहि जुत्तो उ नायव्वो ॥ आयारवं आधारवं, ववहारोव्वीलए पकुव्वी य । निज्जवगऽवायदंसी, अपरिस्सावी य बोधव्वो । (व्यभा ५१९, ५२० ) आलोचनार्ह निश्चित रूप से दृढमित्र की भांति निरपापी होता है । वह आठ गुणों से युक्त होता है १. आचारवान् - ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य - इन पांच आचारों से युक्त । २. आधारवान् - आलोचक द्वारा आलोचित या आलोच्यमान समस्त अतिचारों का अवधारण करने में समर्थ । ३. व्यवहारवान् - आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत- इन पांच व्यवहारों का ज्ञाता तथा इनके आधार पर प्रायश्चित्त देने में कुशल ४. अपव्रीडक - आलोचक लज्जामुक्त हो निःसंकोच अपने दोषों को बता सके, विचित्र मधुर वचनों से वैसा साहस उत्पन्न करने वाला । ५. प्रकुर्वी ( प्रकारी ) - सम्यक् प्रायश्चित्त देकर आलोचक की विशोधि करने वाला । ६. निर्यापक- आलोचक बड़े प्रायश्चित्त का भी निर्वहन कर सके, ऐसा सहयोग देने वाला । ७. अपायदर्शी - प्राप्त प्रायश्चित्त का सम्यक् वहन तथा सम्यक् आलोचना न करने से उत्पन्न दोषों को बताने वाला। ८. अपरिस्रावी - आलोचक के आलोचित दोषों को दूसरों के सामने प्रकट न करने वाला । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचना आगम विषय कोश-२ इन आठ स्थानों से सम्पन्न अनगार आलोचना श्रवण दृढ़मित्र वहां आकर बोला-ये दांत मेरे अधिकार में हैं। यह के योग्य होता है। मेरा कर्मकर है। राजपुरुषों ने वनचर को छोड़ दिया और • अपरिस्रावी : दृढमित्र दृष्टांत दृढ़मित्र को राजा के पास ले गए। राजा ने पूछा-ये दांत ...."जध घोसणं पुहविपालो। किसके हैं? दृढमित्र बोला-मेरे। इतने में ही 'दृढ़मित्र को दंतपुरे कासी या, आहरणं तत्थ कायव्वं॥ राजपुरुषों ने पकड़ लिया है' यह सुनकर धनमित्र वहां आ (व्यभा ५१७) पहुंचा। उसने राजा से कहा-ये दांत मेरे अधिकार में हैं। दंतपुर नगर में दंतवक्त्र राजा राज्य करता था। उसकी __ आप मुझे दंड दें, मेरे शरीर का निग्रह करें। दृढ़मित्र बोला ये दांत मेरे हैं. मेरा निग्रह करें। इसे मक्त करदें। इस प्रकार वे रानी का नाम था सत्यवती। एक बार उसे दोहद उत्पन्न हुआ कि मैं सम्पूर्ण दंतमय प्रासाद में क्रीड़ा करूं। उसने अपना दोनों अपने आपको दोषी ठहराने लगे। तब राजा ने कहा द दोहद राजा को बताया। राजा ने अमात्य को दंतमय प्रासाद तुम दोनों निरपराधी हो। मुझे यथार्थ बात बताओ। उन्होंने बनवाने की आज्ञा दी और उसे शीघ्र ही संपन्न करने को दांतों की पूरी बात बताई। राजा बहुत संतुष्ट हुआ और दोनों कहा। अमात्य ने नगर में घोषणा कराई-जो कोई दसरों के को मुक्त कर दिया। दांत खरीदेगा अथवा अपने घर में एकत्रित दांत नहीं देगा, ९. आलोचनाह का व्यवहार : व्याध और गौ दृष्टांत उसे शूली की सजा भुगतनी होगी। पलिउंचण चउभंगो, वाहे गोणी य पढमतो सुद्धो। उस नगर में धनमित्र नाम का सार्थवाह रहता था। तं चेव य मच्छरिते, सहसा पलिउंचमाणे उ॥ उसके दो पत्नियां थीं। एक का नाम था धनश्री और दूसरी खरंटणभीतो रुट्ठो, सक्कारं देति ततियाए सेस।" का नाम था पद्मश्री। एक बार दोनों में कलह उत्पन्न हुआ, अपलिउंचिय पलिउंचियम्मि यचउरो हवंति भंगा उ." पद्मश्री ने धनश्री से कहा-तू क्या गर्व करती है ? क्या तूने पढम-ततिएसु पूया, खिंसा इतरेसु पिसिय-पय"" महारानी सत्यवती की भांति अपने लिए दंतमय प्रासाद बनवा (व्यभा ५८०-५८३) लिया है? यह बात धनश्री को चुभ गई। उसने हठ पकड़ प्रतिकुंचन (माया) की अपेक्षा से आलोचना के चार लिया कि यदि मेरे लिए दंतमय प्रासाद नहीं होता है तो मेरा भंग बनते हैंजीवन व्यर्थ है। अब उसने अपने पति धनमित्र से आलाप- ० संकल्पकाल में ऋजुता, आलोचनाकाल में ऋजुता संलाप करना बंद कर दिया। धनमित्र ने अपने मित्र दृढ़मित्र संकल्पकाल में ऋजता, आलोचनाकाल में माया से सारी बात कही। दृढ़मित्र बोला-मैं शीघ्र ही उसकी ० संकल्पकाल में माया, आलोचनाकाल में ऋजुता इच्छा पूरी कर दूंगा। तब दृढ़मित्र वनचरों से मिलने वन में ० संकल्पकाल में माया, आलोचनाकाल में माया गया। साथ में कुछ उपहार भी लिए। वनचरों ने पूछा- इनमें प्रथम भंग शुद्ध है। आपके लिए हम क्या लाएं? क्या भेंट करें ? दृढ़मित्र बोला- व्याध दृष्टांत-एक व्याध यह सोचकर चला कि मुझे सारा मुझे दांत ला दो। वनचरों ने दांतों को अनेक घास के पूलों में मांस स्वामी को देना है। घर पहुंचते ही स्वामी ने कहाछिपाकर उनसे एक शकट भर दिया। दृढ़मित्र तथा वनचर आओ, बैठो, स्वागत है, सुस्वागत है। व्याध ने तुष्ट होकर उस शकट को लेकर चले। नगरद्वार में प्रवेश करते ही एक सारा मांस दे दिया। बैल ने शकट से घास का पूला खींच लिया। उसमें छुपाए दूसरा व्याध सारा मांस देने का निर्णय कर चला किंतु हए दांत नीचे आ गिरे। 'यह चोर है'-ऐसा सोचकर स्वामी की डांट-फटकार से रुष्ट हो उसने स्वामी को सारा राजपुरुषों ने वनचर को पकड़ लिया और पूछा-ये दांत मांस नहीं दिया। किसके अधिकार में हैं ? वनचर मौन रहा। इतने में ही इसी प्रकार एक आलोचक पूर्ण आलोचना के लिए Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १०१ आलोचना है। गुरु के पास आता है। गुरु कहते हैं-आयुष्मन् ! तुम धन्य हैं। वे यदि यह जान जाते हैं कि आलोचक कहने पर भी हो, कृतपुण्य हो, जो आलोचना के लिए उपस्थित हुए हो। स्वीकार नहीं करेगा तो उसे आलोचनीय की स्मृति नहीं कराते। प्रतिसेवना दुष्कर नहीं है, दुष्कर है आलोचना। यह सुनकर यदि वे यह जान जाते हैं कि वह कहने पर स्वीकार कर लेगा वह ऋजुता से पूर्ण आलोचना करता है। आचार्य उसे डांटते तो उसे आलोचनीय की स्मृति करा देते हैं। हैं तो वह पूर्ण आलोचना नहीं कर पाता है। ० आगमव्यवहारी : आलोचना श्रवण के पश्चात् प्रायश्चित्त गौ दृष्टांत-गृहस्वामी जंगल से लौटने वाली प्रस्तुता गाय को आगमववहारी छव्विहो वि आलोयणं निसामेत्ता। मधुरता से नामोल्लेखपूर्वक बुलाता है, पीठ थपथपाता है और देति ततो पच्छित्तं .................॥ उसके आगे चारा रख देता है तो वह सारे दूध का क्षरण करती अवराहं वियाणंति, तस्स सोधिं च जद्दपि। है। इसके विपरीत पीटना आदि व्यवहार करने पर वह सारे तधेवालोयणा वुत्ता, आलोएंते बहू गुणा।। दूध का क्षरण नहीं करती। यही बात आलोचना के संदर्भ में दव्वेहि पजवेहिं, कम-खेत्ते काल-भावपरिसुद्धं । आलोयणं सुणेत्ता, तो ववहारं पउंजंति॥ इसी प्रकार जिस आलोचक को आलोचना करने के पडिसेवणातियारे, जदि नाउट्टति जहक्कम सव्वे। लिए प्रोत्साहन मिलता है, उसके कृत्य की सराहना होती है न हु देंती पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स। तो वह ऋजुतापूर्वक आलोचना करता है और जिसको प्रारंभ कधेहि सव्वं जो वुत्तो, जाणमाणो वि गृहति। से ही तिरस्कार मिलता है तो वह आलोचना-काल में माया न तस्स देंति पच्छित्तं, बेंति अन्नत्थ सोधय॥ का सहारा लेता है। न संभरति जो दोसे, सब्भावा न य मायया। जो संकल्पकाल और आलोचनाकाल-दोनों में प्रति पच्चक्खी साहते ते उ, माइणो उ न साधए। कंचन नहीं करता, समग्रता से आलोचना करता है, तत्त्वतः जदि आगमो य आलोयणा य दो विविसमं निवडियाई। उसी के शोधि होती है। न हु देंती पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स। १०. आलोचनाह : आगमव्यवहारी एवं स्मारणाविधि (व्यभा ४०५१, ४०५४,४०५५, ४०६५-४०६८) केवलज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, आगमसुयववहारी, आगमतो छव्विहो उ ववहारी। केवलि मणोहि चोइस, दस णव पुव्वी य णायव्वा॥ दसपूर्वी और नौपूर्वी-ये षड्विध आगमव्यवहारी आलोचना पम्हुढे पडिसारण, अप्पडिवजंतगं ण खलु सारे। सुनकर ही प्रायश्चित्त देते हैं। यद्यपि आगमव्यवहारी आलोचक के अपराधों और जति पडिवज्जति सारे, दुविहऽतियारं वि पच्चक्खी॥ उनकी शोधि को जानते हैं, फिर भी उसे उनके सामने (निभा ६३९३, ६३९४) आलोचना करनी चाहिए-यह अर्हत् का निर्देश है। आलोचना आलोचनाह के दो प्रकार हैं--आगमव्यवहारी और करने से अनेक गण निष्पन्न होते हैं। श्रुतव्यवहारी। आगमव्यवहारी के छह प्रकार हैं आगमव्यवहारी आलोचक की द्रव्य, पर्याय, क्रम, क्षेत्र, १. केवलज्ञानी २. मनःपर्यवज्ञानी ३. अवधिज्ञानी काल और भाव से विशद्ध यथावस्थित आलोचना सुनते हैं, ४. चौदहपूर्वी ५. दसपूर्वी ६. नवपूर्वी तत्पश्चात् उसके प्रति शोधिव्यवहार का प्रयोग करते हैं। आगमव्यवहारी प्रत्यक्षज्ञानी तथा अप्रत्यक्षज्ञानी–दोनों यदि प्रतिसेवक सब अतिचारों की यथाक्रम आलोचना प्रकार के होते हैं। आलोचना भी दो प्रकार की होती है- नहीं करता है तो आगमव्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं देते। मलगणविषयक अतिचारों की आलोचना तथा उत्तरगणविषयक किसी भी दोष को छिपाओ मत-ऐसा कहने पर जो आलोचक अतिचारों की आलोचना। आलोचक यदि आलोचनीय तथ्य को जानता हुआ भी दोष को छिपाता है तो उसे प्रायश्चित्त नहीं भल जाता है, तो आगमव्यवहारी उसे उसकी स्मृति करा देते देते, अन्यत्र जाकर शोधि करने की बात कहते हैं। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचना १०२ आगम विषय कोश-२ यदि आलोचक सहजता से अपने अपराध को भूल अवश्यकरणीय संयमयोगों में स्खलना होने पर छद्मस्थ गया है, उसमें माया नहीं है तो प्रत्यक्षज्ञानी उसे याद दिला भिक्षु को गुरु के पास आलोचना एवं प्रायश्चित्त करना चाहिए। देते हैं। मायावी को उस दोष की स्मृति नहीं दिलाते। अवराहविहारपगासणा य दोण्णि व भवंति गीतत्थे। यदि आगम और आलोचना में विषमता होती है अवराहपयं मोत्तुं पगासणं होतऽगीतत्थे॥ जिस रूप में उसने आलोचना की है, आगमज्ञानी ने उसके (व्यभा २१९८) अतिचारों को वैसा नहीं देखा, न्यूनाधिक देखा है तो गीतार्थ के पास अपराध-आलोचना और विहारआगमव्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं देते। आलोचना-दोनों प्रकार की आलोचना की जाती है। ० श्रुतव्यवहारी : तीन बार आलोचना श्रवण अगीतार्थ के पास विहार-आलोचना की जा सकती है, कप्पपकप्पी तु सुते, आलोयाति ते उ तिक्खुत्तो। अपराध-आलोचना नहीं। सरिसत्थमपलिकुंची, विसरिसंपरिणामतो कुंची॥ आगारेहि सरेहि य, पुव्वावर-वाहताहि य गिराहि। १२. आलोचनाह का क्रम नाउं कुंचियभावं, परोक्खनाणी ववहरंति॥ भिक्खूय अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं सेवित्ता इच्छेज्जा दशाकप्पव्यवहारादिसूत्रार्थधराः..महाकल्पश्रुत आलोएत्तए, जत्थेव अप्पणो आयरिय-उवज्झाए पासेज्जा, महानिशीथनियुक्तिपीठिकाधराश्च... श्रुतव्यवहारिणः तेसंतियं आलोएज्जा"नो चेव अप्पणो आयरिय-उवज्झाए प्रोच्यन्ते। (व्यभा ३२०, ३२३ वृ) पासेज्जा, जत्थेव संभोइयं साहम्मियं पासेज्जा बहुस्सुयं जो दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प, व्यवहार और निशीथसूत्र को बब्भागमं"अण्णसंभोइयं साहम्मियं बहुस्सुयं बब्भागमं" सारूवियं बहुस्सुयं बब्भागमं "समणोवासगं पच्छाकडं अर्थसहित धारण करने वाले हैं तथा महाकल्पश्रुत-महानिशीथनिर्यक्ति-पीठिकाधर हैं, वे तव्यवहारी कहलाते हैं। बहुस्सुयं बब्भागम"सम्मंभावियाई चेइयाई पासेज्जा, कल्प-प्रकल्पधारी श्रुतव्यवहारी तीन बार आलोचना तेसंतिए आलोएज्जा बहिया गामस्स वा नगरस्सवा "पाईणाभिमुहे वा उदीणाभिमुहे वा करयलपरिग्गहियं सुनते हैं और जान लेते हैं कि तीनों बार सदृश आलोचना सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं वएज्जा-एवइया मे करने वाला अमायावी है, विसदृश आलोचक मायावी है। अवराहा, एवइक्खुत्तो अहं अवरद्धो, अरहंताणं सिद्धाणं श्रुतव्यवहारी आलोचक के आकार (शरीरगत भाव विशेष), अस्पष्ट-क्षुब्ध स्वर और पूर्वापर विसंवादिनी वाणी अंतिए आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निंदेज्जा गरहेज्जा के आधार पर उसकी माया को जान लेते हैं। विउद्देज्जा विसोहेज्जा, अकरणयाए अब्भुटेज्जा, अहारिहं अमायावी आलोचक के सभी आकार संविग्न भावों तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जासि। (व्य १/३३) को संदर्शित करते हैं। उसका स्वर स्पष्ट और अक्षुब्ध तथा भिक्षु किसी अकृत्यस्थान का आचरण कर आलोचना वाणी पूर्वापरसंवादिनी होती है। करना चाहे, जहां भी अपने आचार्य-उपाध्याय को देखे, ११. आलोचना : गीतार्थ या अगीतार्थ के पास उनके पास आलोचना करे। ..."आलोयणा उ नियमा, गीतमगीते य केसिंचि॥ आचार्य-उपाध्याय दृष्टिगत न हों, तो बहुश्रुत गीतार्थ करणिज्जेसु उ जोगेसु, छउमत्थस्स भिक्खुणो। साम्भोजिक साधर्मिक के पास, उसके अभाव में क्रमश: आलोयणा व पच्छित्तं गुरूगं अंतिए सिया॥ बहुश्रुत-गीतार्थ अन्य सांभोजिक, सारूपिक और पश्चात्कृत (व्यभा ५५, ५६) श्रमणोपासक के पास आलोचना करे। उसके अभाव में सम्यक् आलोचना निश्चित रूप से गीतार्थ के पास करनी भावित चैत्य देखे तो वहां आलोचना करे। उसके अभाव में चाहिए। कुछ आचार्यों का अभिमत है कि गीतार्थ की अनुपस्थिति गांव या नगर के बाहर पूर्व या उत्तर की ओर अभिमुख हो हो तो वह अगीतार्थ के पास भी की जा सकती है। करबद्ध मस्तक पर अंजलि रखकर इस प्रकार बोले Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १०३ आलोचना मैंने इतने अपराध किये हैं, इतनी बार अपराध किए हैं- सोधीकरणा दिट्ठा गुणसिलमादीसु जाहि साधूणं। ऐसा उच्चारण कर अर्हत् और सिद्धों की साक्षी से आलोचना, तो देंति विसोधीओ पच्चुप्पण्णा व पुच्छंति॥ प्रतिक्रमण, निंदा, गर्दा, व्यावर्तन और विशोधन करे, पुन: उस __ (व्यभा ९७५, ९७६) दोष का सेवन न करने के लिए अभ्युत्थित/ संकल्पित होकर भरुकच्छ के कोरंटक उद्यान में अर्हत् सुव्रतस्वामी तथा यथायोग्य तपःकर्म प्रायश्चित्त स्वीकार करे। राजगृह नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशाभाग में स्थित गुणशिलक आयरिए आलोयण, पंचण्हं असति गच्छबहिया जो। नाम के चैत्य में भगवान् महावीर अनेक बार समवसृत हुए। वोच्चत्थे चउलहुगा, अगीयत्थे होंति चउगुरुगा॥ वहां अर्हतों तथा गणधरों ने अनेक बार अनेक साधुओं को (व्यभा ९६५) प्रायश्चित्त दिया, जिसे वहां स्थित देवता ने देखा-सुना। अतः प्रतिसेवना होने पर साधु को अपने गच्छ में आचार्य के कोरंटक, गुणशिलक आदि उद्यानों में जाकर तेले का अनुष्ठान पास और उनके अभाव में क्रमश: उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, कर सम्यक्त्वभावित देवता का आह्वान कर उसके समक्ष गणावच्छेदक के पास आलोचना करनी चाहिए। आलोचना की जाती है और वह देवता यथार्ह प्रायश्चित्त देता अपने गच्छ में इन पांचों के न होने पर अन्य सांभाजिक है। यदि पर्व देव का च्यवन हो गया हो और उसके स्थान पर गच्छ में जाकर आचार्य आदि के क्रम से आलोचना करनी दूसरा देव उत्पन्न हो गया हो तो उसको आह्वान करने पर वह चाहिए। क्रम का उल्लंघन करने पर चतर्लघ और अगीतार्थ के कहता हैपास आलोचना करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का विधान है। 'मैं महाविदेह में तीर्थंकर को पूछकर आता हूं।' वह १३. पार्श्वस्थ आदि के पास आलोचना आलोचक से अनुज्ञा लेकर, महाविदेह में जाकर, तीर्थंकर असतीय लिंगकरणं, सामाइयइत्तरं च कितिकम्म।" से पूछकर उसे प्रायश्चित्त देता है। उसके अभाव में पूर्व दिशा लिंगकरणं निसेज्जा कितिकम्ममणिच्छतो पणामो य। की ओर अभिमुख होकर अर्हत् और सिद्ध की साक्षी से एमेव देवयाए नवरं सामाइयं मोत्तुं॥ आलोचना कर स्वयं ही प्रायश्चित्त ग्रहण करे। इस सूत्रोक्त (व्यभा ९७०, ९७१) विधि से प्रायश्चित्त स्वीकार करने वाला शुद्ध ही है। जिसके समक्ष आलोचना करनी है, उसका पहले १५.साधु-साध्वी की आलोचना विधि: चतुष्कर्णा---परिषद् अभ्युत्थान-कृतिकर्म करना चाहिए। यदि पार्श्वस्थ, पश्चात्- आलोयणं पउंजइ, गारवपरिवज्जितो गुरुसगासे। कृत आदि ऐसा न चाहें तो उनके लिए निषद्या-रचना कर और एगंतमणावाए, एगो एगस्स निस्साए॥ उन्हें प्रणाम कर आलोचना करनी चाहिए। विरहम्मि दिसाभिग्गह, उक्कुडुतो पंजली निसेज्जा वा। पश्चात्कृत (उत्प्रव्रजित) को इत्वरिक सामायिक व्रत एस सपक्खे परपक्खे मोत्तु छण्णं निसिज्ज च॥ और रजोहरण आदि लिंग देकर, उसकी निषद्या कर कृतिकर्म आलोयणं पउंजइ, गारवपरिवज्जिया उ गणिणीए। वंदन करना चाहिए। कृतिकर्म की अनिच्छा प्रकट करने पर एगंतमणावाए, एगा एगाएँ निस्साए। वचन और काया से प्रणाममात्र कर आलोचना करनी चाहिए। आलोयणं पउंजइ, एगंते बहुजणस्स संलोए। इसी प्रकार सम्यक्त्व भावित देवता के पास आलोचना अब्बितियथेरगुरुणो, सबिईया भिक्खुणी निहुया॥ करे। व्रतार्ह नहीं होने से उसमें सामायिक का आरोपण नहीं नाण-दंसणसंपन्ना, पोढा वयस परिणया। किया जाता और लिंग समर्पण भी नहीं किया जाता। इंगियागारसंपन्ना, भणिया तीसे बिइज्जिया॥ १४. सम्यक्त्वी देव के पास आलोचना आलोयणं पउंजइ, एगंते बहुजणस्स संलोए। कोरंटगं जधा भावितट्ठमं पुच्छिऊण वा अन्नं। सब्बितियतरुणगुरुणो, सब्बिइया भिक्खुणी निहुया॥ असति अरिहंत-सिद्धे जाणंतो सुद्धो जा चेव॥ (बृभा ३९२-३९७) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचना १०४ साधु एकान्त निर्जन प्रदेश में आचार्य की निषद्या की स्थापना कर पूर्व या उत्तर दिशाभिमुख हो गुरु को वंदन कर उत्कुटुक आसन में बैठ बद्धांजलि हो आलोचना करता है। आलोचक साधु यदि रुग्ण हो अथवा आलोच्य विषय प्रलम्ब हो तो वह निषद्या की अनुज्ञा लेकर आलोचना करता है। यह स्वपक्ष की आलोचना विधि है । परपक्ष अर्थात् साध्वी । उसकी आलोचना विधि इससे कुछ भिन्न है । साध्वी साधु के समक्ष निर्जन में नहीं किन्तु जहां लोग दिखाई देते हों, वैसे एकान्त स्थान में आलोचना करती है । वह आचार्य की निषद्या की स्थापना नहीं करती और स्वयं खड़ी खड़ी आलोचना करती है । चतुष्कर्णा परिषद् - एकान्त और अनापात ( जहां लोगों का आवागमन न हो ) स्थान में गौरव से रहित होकर अकेला साधु गुरु के समक्ष आलोचना करता है अथवा एकान्त और अनापात स्थान पर अकेली साध्वी प्रवर्तिनी के पास गौरव से रहित होकर आलोचना करती है, यह चतुष्कर्णा परिषद् है । ( आचार्य अथवा प्रवर्तिनी के दो कान तथा आलोचना करने वा मुनि या साध्वी के दो कान ।) षट्कर्णा परिषद् - एकान्त में किन्तु जहां बहुत लोग दिखाई दें, ऐसे स्थान में एक साध्वी अचपलता से जब दूसरी साध्वी के साथ स्थविर गुरु के पास आलोचना करती है तब वह षट्कर्णा परिषद् होती है। ज्ञान- दर्शन से सम्पन्न, उचित और अनुचित का विवेक देने में सक्षम, अवस्था से परिणत, इंगित और आकार से ' संपन्न - ये उस सहगामिनी अपर साध्वी की अर्हताएं हैं। अष्टकर्णा परिषद्-एकान्त किन्तु जहां बहुत लोग दिखाई दें, ऐसे स्थान में एक साध्वी दूसरी साध्वी को साथ लेकर दूसरे साधु से युक्त तरुण गुरु के पास चपलता रहित होकर आलोचना करती है - यह अष्टकर्णा परिषद् है । १६. आलोचनाकाल में सहवर्ती मुनि की अर्हता नाणेण दंसणेण य, चरित्त-तव- विणय-आलयगुणेहिं । वयपरिणामेण य अभिगमेण इयरो हवइ जुत्तो ॥ (बृभा ३९८) आलोचना श्रवणकाल में आचार्य के पास रहने वाला मुनि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और विनय से संपन्न, आलयगुण आगम विषय कोश - २ प्रतिलेखना आदि क्रियाओं में जागरूक तथा उपशम गुण से संपन्न, अवस्था से परिणत और अभिगम - शास्त्र के सही अर्थ का ज्ञाता हो । १७. साध्वी की प्राचीन आलोचनाविधि तो जाव अज्जरक्खिय, सट्टण पगासयंसु वतिणीओ " असती कडजोगी पुण, मोत्तूणं संकिताई ठाणाई । आइणे धुवकम्मिय, तरुणी थेरस्स दिट्ठिपधे ॥ सुघर देउलुजाण - रण्ण पच्छण्णुवस्सयस्संतो । एय विवज्जे ठायंति, तिण्णि चउरोऽहवा पंच ॥ थेरतरुणेसु भंगा, चउरो सव्वत्थ परिहरे दिट्ठि । दोहं पुण तरुणाणं, थेरे थेरी य पच्चुरसं ॥ थेरो पुण असहायो, निग्गंथी थेरिया वि ससहाया । सरिसवयं च विवज्जे, असती पंचम पडुं कुज्जा ॥ (व्यभा २३६७, २३६९ - २३७२ ) आर्यरक्षित के समय में भी यदि साध्वी को मूलगुण संबंधी अपराध की ओलाचना करनी होती तो वह साध्वी के पास ही करती थी । गीतार्थ साध्वी के न होने पर कृतयोगी (छेदश्रुतधर) स्थविर के पास आलोचना की जाती थी। साध्वी द्वारा आलोचना उचित स्थान में की जाती है। शून्यगृह, देवकुल, उद्यान, अरण्य, प्रच्छन्न स्थान, उपाश्रय का मध्यभाग - इन शंकास्थानों का वर्जन किया जाता है। जहां ध्रुवकर्मिक दिखाई देता हो किन्तु आलोचना सुनता न हो, वहां यवनिकान्तरित आलोचना की जाती है। यवनिका का अवकाश न हो तो सर्वत्र दृष्टिक्षेप का परिहार किया जाता है-आलोचिका साध्वी की दृष्टि भूमि पर टिकी रहती है। स्थविरा साध्वी स्थविर या तरुण साधु के पास आलोचना करे तो उसके साथ एक साध्वी अवश्य रहे । साध्वी और साधु- दोनों तरुण हों तो उनके पास एक स्थविर और एक स्थविरा रहे। सदृश वय वाले सहायक का नियमतः वर्जन किया जाए। यदि ऐसा संभव न हो तो आलोचिका व आलोचनार्ह के सदृश वय वाले दो सहायक तथा एक पटु क्षुल्लक या क्षुल्लिका भी पास में रहे । इस प्रकार आलोचना काल में तीन अथवा चार अथवा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ पांच व्यक्ति भी हो सकते हैं। पांच विकल्प १. स्थविरा स्थविर के पास तीन २. स्थविरा तरुण के पास ३. तरुणी स्थविर के पास ४. तरुणी तरुण के पास - ५. सदृश वय में - पांच (प्राचीनकाल में साध्वी को छेदसूत्र की वाचना दी जाती थी और अपेक्षा होने पर साधु भी साध्वी के पास आलोचना करते थे।—द्र छेदसूत्र) १८. निषद्या - दिशा आदि निसेज्जऽसति पडिहारिय, कितिकम्मंकाउ पंजलुक्कुडुओ । बहुपडि सेवऽरिसासु य, अणुण्णावेड निसेज्जगतो ॥ ओणा उद्घट्टिया उ आलोयणा विवक्खम्मि । सरिपक्खे उक्कुडुओ, पंजलिविट्ठो वणुण्णातो ॥ (व्यभा ३१५, २३७३) o 1 तीन तीन - चार आलोचना करने वाला अपने नवीन कल्पों (कंबल आदि) से और अपने पास कल्प न हो तो अन्य से प्रातिहारिक कल्प ग्रहण कर आचार्य की निषद्या करता है। (निषीदन दिशा - यदि आचार्य पूर्वाभिमुख हैं तो वह गुरु के दाहिनी ओर उत्तराभिमुख बैठता है और यदि आचार्य उत्तराभिमुख बैठे हैं तो वह वामपार्श्व में पूर्वाभिमुख बैठता है अथवा चरन्ती दिशाभिमुख बैठता है ।) तत्पश्चात् वह कृतिकर्म कर बद्धांजलि हो सामान्यतः उत्कुटुकासन में आलोचना करता है। बहुप्रतिसेवना के कारण आलोचना में लम्बा समय लगे, उतने समय तक वह इस आसन में न बैठ सके या अर्श आदि रोग हो तो गुरु से अनुज्ञा प्राप्त कर यथेच्छ आसन में स्थित हो आलोचना करता है। विपक्ष में- साध्वी साधु के पास कुछ झुकी हुई खड़ीखड़ी आलोचना करती है । साधु साधु के पास उत्कुटुकासन में बैठ बद्धांजलि हो आलोचना करता है। निषद्या की अनिवार्यता : राजा-नापित दृष्टांत ......... अथवा वि सभावेणं, निमंसुगे......॥ भवतु यो वास वा नियमेन तस्य निषद्यां कृत्वा आलोचकेनालोचयितव्यम् । (व्यभा ५८६ वृ) शिष्य ने पूछा- यदि कोई आलोचनार्ह आचार्य आदि १०५ आलोचना स्वभाव से ही निषद्या पर बैठना न चाहे, तो उसके लिए निषद्या करनी चाहिए या नहीं ? गुरु ने कहा- कोई चाहे, न चाहे, निषद्या अवश्य करनी चाहिये । एक राजा के सिर में बाल नहीं थे, दाढ़ी-मूंछ भी नहीं थी। इसलिए वहां नियुक्त नापित राजा के पास नहीं आता था । राजा ने उसे निष्कासित कर दूसरा नापित नियुक्त किया, जो हर सातवें दिन उपस्थित हो जाता था । उसे पुरस्कृत किया गया। इसी प्रकार निषद्या किए बिना आलोचना करने वाला आलोचक दण्डित और निषद्या करने वाला प्रशंसित होता है। १९. निषद्या विवेक : सिंहानुग आदि आलोचनाह आयरिए कह सोधी, सीहाणुग वसभ कोल्हुगाणूए । आलोचका अपि त्रिविधास्तद्यथा - आचार्या वृषभा भिक्षवश्च । एकैके त्रिविधकल्पाः – सिंहानुगाः वृषभानुगाः क्रोष्टुकानुगाश्च । नवरं क्रोष्टुकानुगे विशेषः । स यदा निषद्यायां पादप्रोञ्छने वा उत्कुटुको वा आलोचयति, तत्र यद्युत्कुटुकः स आलोचयति, ततः शुद्धिः । (व्यभा ५८६ वृ) आलोचना के तीन प्रकार हैं १. सिंहानुग - जो महान् (अनेक कल्पों-कम्बलों वाली) निषद्या पर स्थित हो वाचना देता है २. वृषभानुग - जो एक कल्प वाली निषद्या पर स्थित हो वाचना देता है अथवा बैठता है। ३. क्रोष्टुकानुग - जो रजोहरणनिषद्या या औपग्रहिक पादप्रोञ्छन पर स्थित हो वाचना देता है अथवा बैठता है । आलोचक के तीन प्रकार हैं- आचार्य, वृषभ और भिक्षु । इनमें से प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं- सिंहानुग, वृषभानुग और क्रोष्टुकानुग । सिंहानुग आचार्य के समक्ष आलोचक आचार्य यदि सिंहानुग हो आलोचना करता है तो वह अशुद्ध है, प्रायश्चित्त का भागी है। वृषभानुगत्व या क्रोष्टुकानुगत्व उसके लिए शुद्ध है। इसी प्रकार क्रोष्टुकानुग गीतार्थ भिक्षु के समक्ष आलोचक आचार्य उत्कुटुकासन में आलोचना करता है, तो वह शुद्ध है । आलोचनार्ह ऊपर और आलोचक नीचे बैठेयह आलोचना की सामाचारी या मर्यादा है। आलोचनाई की अनुज्ञा से किसी भी आसन में बैठा जा सकता है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचना १०६ आगम विषय कोश-२ २०. आलोचना विधि के दोष प्रायो न करोति, अनालोचिते चारित्रं मे न शुद्ध्यतीति आकंपयित्ता अणुमाणयित्ता, जं दिटुंबादरं च सुहुमं वा। सम्यगालोचयति, क्षान्तो गुर्वादिभिः खरपरुषमपि भणितः छण्णं सद्दाउलगं बहुजण अव्वत्त तस्सेवी॥ सम्यग् प्रतिपद्यते, यदपि च प्रायश्चित्तमारोपितं तत्सम्यग् (व्यभा ५२३) वहति । दान्तः प्रायश्चित्ततप: सम्यक्करोति।"अमायी आलोचना विधि के दस दोष हैं सोऽप्रतिकुञ्चितमालोचयति। अपश्चात्तापी नाम यः १. आकम्प्य-आलोचनार्ह का वैयावृत्त्य करके उनका अनुग्रह पश्चात्परितापं न करोति। किन्त्वेवं मन्यते-कृतपुण्योऽहं प्राप्त कर आलोचना करना। यत्प्रायश्चित्तं प्रतिपन्नवान्। (व्यभा ५२१, ५२२ वृ) २. अनुमान्य-'ये आचार्य मृदु दंड देंगे'-ऐसा सोचकर उनके दस स्थानों से सम्पन्न अनगार आलोचना करने के पास आलोचना करना। (अथवा मैं दुर्बल हूं, अतः मुझे कम योग्य होता हैप्रायश्चित्त दें, ऐसा अनुनय कर आलोचना करना।) १. जातिसम्पन्न ६.चारित्रसम्पन्न ३. यदृष्ट-उसी दोष की आलोचना करना, जो आचार्य या २. कुलसम्पन्न ७. क्षान्त अन्य किसी के द्वारा दृष्ट या ज्ञात है। ३. विनयसम्पन्न ८. दान्त ४. बादर-केवल स्थूल दोषों की आलोचना करना। ४. ज्ञानसम्पन्न ९. अमायावी ५. सूक्ष्म-केवल सूक्ष्म दोषों का प्रकाशन करना। ५. दर्शनसम्पन्न १०. अपश्चात्तापी ६. छन्न-प्रच्छन्न रूप से अथवा मंद शब्दों में आलोचना शिष्य ने पूछा-आलोचक में इतने गुणों की अन्वेषणा करना, जिससे आचार्य स्पष्ट रूप में न सुन सकें। क्यों? आचार्य कहते हैं७. शब्दाकुल-जोर-जोर से बोलकर आलोचना करना, जिससे ० जातिसम्पन्न मुनि प्रायः अकृत्य नहीं करता। यदि अकृत्य अगीतार्थ मुनि भी सुन ले। हो जाए तो सम्यग् आलोचना कर लेता है। ८. बहुजन-एक के पास आलोचना कर फिर दूसरे के पास कुलसम्पन्न प्राप्त प्रायश्चित्त का सम्यग् निर्वाह करता है! भी आलोचना करना। ० विनयसंपन्न सभी विनय प्रतिपत्तियों का निर्वाह करता है। ९. अव्यक्त-अगीतार्थ के पास आलोचना करना। ० ज्ञानसम्पन्न मुनि श्रुत के अनुसार सम्यग आलोचना करता १०. तत्सेवी-उस आचार्य के पास आलोचना करना, जो है। वह जान लेता है कि अमुक श्रुत के आधार पर मुझे स्वयं दोष का सेवन कर चुका है या सेवन करता है, जिससे प्रायश्चित्त दिया गया है, अत: मेरी शुद्धि हो गई है। अल्प प्रायश्चित्त मिले। ० दर्शनसंपन्न प्रायश्चित्त से शुद्धि में विश्वास करता है। २१. आलोचक की अर्हता ० चारित्रसंपन्न मुनि पुनः अतिचार सेवन नहीं करता। वह आलोएंतो एत्तो, दसहि गुणेहिं तु होति उववेतो। चारित्र की स्खलनाओं की सम्यक् आलोचना करता है। जाति-कुल-विणय-नाणे, दंसण-चरणेहि संपण्णो॥ . क्षान्त मुनि गुरु के खर-परुष संभाषण को भी सम्यग् खंते दंते अमायी य, अपच्छतावी य होति बोधव्वे। स्वीकार करता है। उनके द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त का सम्यम् जातिसम्पन्नः प्रायोऽकृत्यं न करोति। अथ कथ- निर्वहन करता है। मपि कृतं तर्हि सम्यगालोचयति। कुलसम्पन्नः प्रतिपन्न- ० दान्त मुनि प्रायश्चित्त-तप का सम्यक् वहन करता है। प्रायश्चित्तनिर्वाहक उपजायते। विनयसम्पन्नो निषद्या- ० अमायी बिना कुछ छिपाए आलोचना स्वीकार करता है। दानादिकं विनयं सर्वं करोति, सम्यगालोचयति। ज्ञान- ० अपश्चात्तापी मुनि आलोचना कर पश्चात्ताप नहीं करता, सम्पन्नः श्रुतानुसारेण सम्यगालोचयति""दर्शनसम्पन्नः किन्तु मानता है कि मैं पुण्यशाली हूं, जो प्रायश्चित्त स्वीकार प्रायश्चित्तात् शुद्धिं श्रद्धत्ते, चरणसम्पन्नः पुनरतिचारं कर विशुद्ध हो गया हूं। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १०७ आलोचना ० भद्र बालक की तरह आलोचना २३. अनशनकाल में आलोचना विधि जह बालो जंपतो, कज्जमकजं च उज्जुयं भणति। पव्वज्जादी आलोयणा उ तिण्हं चउक्कग विसोधी। तं तह आलोएज्जा, माया-मदविप्पमुक्को उ॥ जह अप्पणो तह परे, कातव्वा उत्तमम्मि। उप्पन्ना उप्पन्ना, मायामणुमग्गतो निहंतव्वा । नाणनिमित्तं आसेवियं तु, वितहं परूवियं वावि। आलोयण-निंदण-गरहणादि न पुणो य बितियं ति॥ चेतणमचेतणं वा, दव्वं सेसेसु इमगं तु॥ (व्यभा ४२९९, ४३००) नाणनिमित्तं अद्धाणमेति ओमे य अच्छति तदट्ठा। जैसे एक भद्र बालक अपने अच्छे-बुरे कार्य को ऋजुता नाणं च आगमेस्सं, ति कुणति परिकम्मणं देहे।। से बता देता है, वैसे ही आलोचक माया और अहंकार से पडिसेवति विगतीओ, मेझं दव्वं व एसती पिबती। विमुक्त होकर गुरु के सामने आलोचना करे। वायंतस्स व किरिया, कता तु पणगादिहाणीए॥ ___ 'अब मैं पुनः दूसरी बार अतिचार का सेवन नहीं एमेव दंसणम्मि वि, सद्दहणा णवरि तत्थ णाणत्तं। करूंगा'-इस प्रतिपत्ति के साथ वह बार-बार कृत माया- एसण इत्थी दोसे, वतं ति चरणे सिया सेवा॥ स्खलना को याद करके उसको आलोचना, निन्दा और गर्दा (व्यभा ४३०२-४३०६) के द्वारा क्षीण करे। मुनि को अनशन स्वीकार करते समय प्रव्रज्या ग्रहण २२. आचार्य के लिए भी आलोचना अनिवार्य से लेकर अनशन धारण तक ज्ञान-दर्शन-चारित्र संबंधी अतिचारों आयरियपादमूलं, गंतूणं सति परक्कमे ताधे। की आलोचना करनी चाहिए। जो स्वयं को ज्ञात है-जिस रूप सव्वेण अत्तसोधी, कायव्वा एस उवदेसो॥ में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव संबंधी अतिचार का आसेवन किया जहसुकुसलो विवेजो, अन्नस्स कधेतिअप्पणोवाहिं। है, उसका गोपन न करते हुए उसी रूप में गुरु के समक्ष निवेदन वेज्जस्स य सो सोउं, तो पडिकम्मं समारभते॥ करना चाहिए। जाणंतेण वि एवं, पायच्छित्तविहिमप्पणो निउणं। ज्ञान-अतिचार-आलोचना-इसके चार प्रकार हैंतह वि य पागडतरयं, आलोएयव्वयं होति॥ द्रव्य से-ज्ञान के निमित्त उद्गम आदि दोषों से दूषित द्रव्य छत्तीसगुणसमन्नागतेण, तेण वि अवस्स कायव्वा। का आसेवन किया हो, सचित्त को अचित्त तथा अचित्त को परपक्खिगा विसोधी, सुटु वि ववहारकुसलेणं॥ सचित्त निरूपित कर तत्त्वों की विपरीत प्ररूपणा की हो तो __ (व्यभा ४२९५-४२९८) आलोचना करे। जो अनशन करना चाहते हैं, उन्हें शक्ति होने पर क्षेत्र और काल से-ज्ञान के निमित्त अन्यत्र जाते समय मार्ग में आचार्यचरणों में पहुंचकर आत्मविशोधि करनी चाहिए-यह सचित्त, अकल्पिक के ग्रहण-आसेवन में यतना-अयतना की अर्हतों का उपदेश है। आलोचना करना क्षेत्रतः आलोचना है। दुर्भिक्ष के समय एक जैसे चिकित्सापारगामी वैद्य भी अपनी व्याधि को स्थान पर रहते हुए अयतना अथवा अकल्पिक प्रतिसेवना की अपर वैद्य को बताता है। पारगामी वैद्य की व्याधि-वार्ता सुनकर अपर वैद्य उसकी चिकित्सा प्रारंभ करता है, वैसे भाव से-ज्ञानोपलब्धि के लिए देहपरिकर्म किया हो। जैसेही निपुण प्रायश्चित्त विधिवेत्ता को भी अन्य आचार्य के । व्याख्याप्रज्ञप्ति अथवा महाकल्पश्रुत जैसे आकर ग्रंथों के पास प्रकट रूप में आलोचना करनी चाहिए। योगवहन के लिए घृतपान किया हो, प्रणीत आहार किया हो, जो आचार्य के छत्तीस गुणों से सम्पन्न हैं, आगम आदि निरंतर विकृति (विगय) सेवन किया हो, मेधावर्धक (मेधा पांच व्यवहार प्रयोगों में कुशल हैं, उन्हें भी अवश्य ही अन्य उपकारक) द्रव्यों की एषणा की हो, उनका सेवन किया होआचार्य के पास विशोधि करनी चाहिए। इन सब क्रियाओं में हुई अयतना की आलोचना करे। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचना १०८ वाचना लेते समय वाचनाचार्य की पंचक परिहानि से क्रिया की हो, शुद्ध आहार आदि न मिलने पर अशुद्ध लाकर दिया हो तो आलोचना करे । दर्शन - चारित्र केअतिचारों की आलोचना - ज्ञान की भांति दर्शनश्रद्धा में भी दर्शन के निमित्त किसी अतिचार का सेवन किया हो, चारित्र में एषणा संबंधी, सदोष शय्यासंबंधी तथा स्त्रीसंबंधी किसी दोष का सेवन किया हो तो उसकी आलोचना करे। ० पंचकपरिहानि और आलोचना मसम्प्राप्तः । पञ्चकपरिहानियतना नाम स शुद्धालाभे पञ्चकप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेवनाद् उत्पादयति । तदसंभवे दशकप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेवनाद् एवं तावत् यावद् चतुर्गुरुक(व्यभा १५७५ की वृ) पंचकपरिहानि यतना से तात्पर्य है - किसी कारणवश शुद्ध आहार- पानी, औषध आदि का लाभ न मिलने पर पांच दिनों जितने प्रायश्चित्त स्थान का सेवन कर उनका उत्पादन किया हो। वैसे भी संभव न होने पर दस दिनों का यावत् चार गुरुमास जितने प्रायश्चित्त स्थान का सेवन करके उनका उत्पादन किया हो, उसकी आलोचना करे २४. शल्योद्धरण आवश्यक : अश्ववत् प्रस्थान I *** तं खमं खुपमादो, मुहुत्तमवि अच्छितुं ससल्लेणं । आयरियपादमूले, गंतूणं उद्धरे सल्लं ॥ अहयं च सावराही, आसो इव पत्थिओ गुरुसगासं । सिग्घुज्जुगती आसो, अणुवत्तति सारहिं ण अत्ताणं । इय संजममणुवत्तति, वइयाइ अवंकिओ साहू ॥ (निभा ६३०९-६३११ ) साधक के लिए सशल्य रहना, अतिचारशल्य को निकालने में प्रमाद करना मुहूर्त्तभर के लिए भी क्षम्य नहीं है। उसे आचार्यचरणों में पहुंचकर शीघ्र शल्योद्धरण करना चाहिए। मुनि अपने आप को अपराधी जानकर दोष - विशोधन हेतु गुरु के पास जाने के लिए अश्ववत् प्रस्थान करता है। आकीर्ण (विनीत) अश्व अपने सारथि के अभिप्राय का अनुवर्तन करता हुआ शीघ्र या मंद गति से ऋजु चलता है, स्वेच्छा से चारा-पानी भी ग्रहण नहीं करता। इसी प्रकार साधु संयम का अनुवर्तन करता हुआ सीधे पथ से गुरु के पास जाता है, व्रजिका आदि स्थानों में प्रतिबद्ध नहीं होता । आगम विषय कोश - २ ० व्याध - दृष्टांत कंटगमादिपविट्ठे, नोद्धरति सयं न भोइए कहति । कमढीभूत वणगते, आगलणं खोभिता मरणं ॥ बितिओ समुद्धरती, अणुद्धिए भोइयाय णीहरति । परिमद्दण दंतमलादि पूरण धाडण पलातो व्व ॥ (व्यभा ६६२, ६६३) एक व्याध नंगे पैर वन में गया। उसके पैर कांटों आदि से विद्ध हो गये । उसने न स्वयं उन कांटों को निकाला, न अपनी भार्या से निकलवाया। वह एक बार फिर वन में गया। एक हाथी ने उसका पीछा किया। व्याध दौड़ने लगा किन्तु पूर्वप्रविष्ट कांटे और अधिक गहरे मांस तक चले गये। उसकी गति श्लथ और कछुए की तरह मंद हो गई । वह छिन्नमूल वृक्ष की भांति गिर पड़ा, मूर्च्छित हो गया, हाथी ने उसे रौंदकर मार डाला। दूसरा व्याध भी नंगे पैर वन में गया, कांटे चुभे । स्वयं ने कांटे निकाले, शेष अनुद्धृत कांटों को अपनी पत्नी से निकलवाया। पैर के विद्ध स्थानों का अंगुष्ठ आदि से परिमर्दन किया, दंतमल, कर्णमल (किट्टी) से विद्ध छिद्रों को भरा । स्वस्थ होकर वन में गया। हाथी ने उसे देखा, वह भागकर सुरक्षित घर लौट आया। अतिचार रूपी शल्यों की उपेक्षा करने वाले आचार्य और शिष्य दुःखों को प्राप्त होते हैं और आलोचना- प्रायश्चित्त द्वारा शल्योद्धरण करने वाले सुखों के आभागी होते हैं । २५. सशल्यमरण से अनंत संसार मरिडं ससल्लमरणं, संसाराडविमहाकडिल्लम्मि । सुचिरं भमंति जीवा, अणोरपारम्मि ओतिण्णा ॥ (व्यभा १०२२) जो जीव इस अत्यंत गहन संसार अटवी में शल्ययुक्त ( आलोचना किये बिना ही ) मृत्यु को प्राप्त करते हैं, वे महागहन संसार रूपी अटवी में अवतीर्ण होकर अनंत काल तक भवभ्रमण करते हैं । २६. आलोचना न हो, तब तक कर्मबंध ****** तं तेण छूढं तहिगं च पत्ता, तेणा । आसत्तणामट्ठित आउ मंसा, णजिण्णऽणादेस ण जा विउट्टे || (बृभा ३६०६) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १०९ आशातना किसी मुनि का भोजन से भरा पात्र कोई चुराकर ले . लाघव-भारहीन की भांति हल्कापन। जाते हैं तो उस मुनि के होने वाले कर्मबंध के विषय में ० आह्लाद की उत्पत्ति-अतिचारजन्य ताप का शमन। भिन्न-भिन्न मान्यताएं हैं ० आत्म-पर-निवृत्ति-स्वयं की और उसे देख दूसरों की भी ० जब तक चोरों के सातवें कुल तक अनुवर्तन होता है। दोषों से निवृत्ति। ० जब तक उनका नाम-गोत्र रहता है। ० आर्जव-अपने दोषों के प्रकटीकरण से ऋजुता का विकास। ० जब तक उनकी अस्थियां रहती हैं। ० शोधि-मलिन चारित्र की प्रायश्चित्त-जल द्वारा निर्मलता। ० उसके आयुष्यकाल तक। ० दुष्करकरण-प्रबल मुमुक्षा एवं वीर्योल्लास से ही आलोचना ० जब तक उस आहार के भक्षण से मांसोपचय होता है। संभव है। प्रतिसेवना दुष्कर नहीं है। दष्कर है आलोचना। ० जब तक वह भुक्त भोजन पच नहीं जाता। ० विनय-चारित्रविनय का सम्यक् सम्पादन। आचार्य कहते हैं-ये सब अनादेश हैं। सैद्धान्तिक ० निःशल्यता-माया आदि शल्यों का उद्धरण। मत यह है कि जिस मुनि का पात्र चुराया गया है, जब तक * आलोचना की परिभाषा आदि द्र श्रीआको १ आलोचना वह मुनि उसकी आलोचना और प्रतिक्रमण नहीं कर लेता, आशातना-सम्यक्त्व, ज्ञान आदि की उपलब्धि में तब तक उसके कर्मबंध होता रहता है। बाधा डालने वाली अथवा न्यूनता उत्पन्न २७. किस आलोचना से शुद्धि करने वाली अवज्ञापूर्ण प्रवृत्ति। आलोयण त्तिय पुणो, जा एसाऽकुंचिया उभयतो वि। १. आशातना के प्रकार : द्रव्य, क्षेत्र आदि सच्चेव होति सोही..."॥ २. आशातना से सम्यक्त्व आदि का नाश (व्यभा ५८५) ३. गुरु की आशातना से ज्ञान आदि की आराधना नहीं जो आलोचना उभयतः-संकल्पकाल और आलोचना | ० आशातना कब नहीं? ४. आसायणा के प्रकार काल में मायारहित होती है, उसी से वास्तविक शुद्धि होती है। ० मिथ्याप्रतिपत्ति आशातना ० मायापूर्ण आलोचना से प्रायश्चित्तवृद्धि ० लाभ आसादना : इष्ट-अनिष्ट द्रव्य आदि जे भिक्खू दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता १. आशातना के प्रकार : द्रव्य, क्षेत्र आदि आलोएज्जा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्स दोमासियं, पलिउंचियं आलोएमाणस्स तेमासियं॥ (व्य १/२) दव्वे खेत्ते काले, भावे आसायणा मुणेयव्वा।" दव्वे आहारादिसु, खेत्ते गमणादिएसु णायव्वा। ___ जो भिक्षु द्वैमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना कर कालम्मि विवच्चासे, मिच्छा पडिवज्जणा भावे॥ ऋजुता से आलोचना करता है, उसे द्वैमासिक प्रायश्चित्त और काले उ सुयमाणे, अपडिसुणेतस्स होति आसयणा। यदि वह मायापूर्वक आलोचना करता है तो उसे त्रैमासिक मिच्छादिफरुसभावे, अंतरभासा य कहणा य॥ प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, माया का एक मास अधिक प्राप्त जंऽगारणगारत्ते, सुतं तु सहसंमुतं य जं किं चि। होता है। तं गुरु अण्णहकहणे, णेवमिदं मिच्छपडिवत्ती॥ २८. आलोचना से निष्पन्न गुण (निभा २६४१-२६४३, २६४९) लहुयल्हादीजणणं, अप्पपरनियत्ति अजवं सोही। आशातना के चार प्रकार हैंदुक्करकरणं विणओ, निस्सल्लत्तं व सोधिगुणा॥ १. द्रव्य आशातना-आहार, वस्त्र आदि का उपभोग करना। (व्यभा ३१७) २. क्षेत्र आशातना-गुरु के आगे-पीछे या पार्श्व में सटकर आलोचना (शोधि) से आठ गुण प्रकट होते हैं- चलना, बैठना या खड़े रहना। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशातना ३. काल आशातना - काल विपर्यास करना - रात्रि या विकाल के द्वारा बुलाये जाने पर सुनकर भी अनसुना कर देना । ४. भाव आशातना - मिथ्याप्रतिपत्ति- गुरु की बात को स्वीकार नहीं करना, परुष बोलना, बीच में बोलना आदि । आचार्य द्वारा परिषद् में किसी गलत तत्त्व की प्ररूपणा सुनकर शिष्य वहां कुछ न बोले, किन्तु एकांत में वह सही तत्त्व गुरु को बता दे, जो उसने गृहस्थ या मुनिअवस्था में किसी दूसरे से सुना हो अथवा स्वयं ऊहापोहपूर्वक जाना हो। ऐसा करने वाला शिष्य आशातना से बच जाता है। २. आशातना से सम्यक्त्व आदि का नाश गुरुवच्चइया आसायणा तु धम्मस्स मूलछेदो तु । ... गुरुविण करणे कम्मक्खए जो आतो तं सादेति । अहवा गुरुपच्चतितो णाणादिया आयो, तं अविणयदोसेण सादेति न लभतीत्यर्थः । विणओ धम्मस्स मूलं, सो य अविणयजुत्तो तस्स छेदं करेति । अहवा धम्मस्स मूलं सम्मत्तं, गुरुआसादणाए तस्स छेदं करेति । (निभा २६४४ चू) • गुरु का विनय करने से कर्मक्षय होते हैं । विनय से होने वाले लाभ का जो विनाश करती है, वह आशातना है। ० ज्ञान आदि की प्राप्ति में गुरु हेतुभूत होते हैं। गुरु का अविनय करने से उनकी प्राप्ति नहीं होती । विनय धर्म का मूल है। अविनय करने वाला धर्मवृक्ष का उच्छेद करता है । • अथवा धर्म का मूल है सम्यक्त्व । गुरु की आशातना सम्यक्त्व को विच्छिन्न करती है। ३. गुरु की आशातना से ज्ञान आदि की आराधना नहीं ......सो खलु भारियकम्मो, न गणेति गुरुं गुरुट्ठाणे ॥ दंसण - नाण- चरितं तवो य विणओ य होंति गुरुमूले। विणओ गुरुमूले त्ति य, गुरुणं आसायणा तम्हा ॥ सो गुरुमासायंतो, दंसणणाणचरणेसु सयमेव । सीयति कतो आराहणा, से तो ताणि वज्जेज्जा ॥ (दशानि २१, २२, २४) शिष्य गुरु को गुरुस्थानीय नहीं मानता, वह भारीकर्मा ११० होता है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा विनय-ये गुरुमूलक होते हैं। विनय गुरुमूलक होता है, इसलिए जो गुरु की आशातना आगम विषय कोश - २ करता है, वह इन गुणों की आशातना करता है। जो गुरु की आशातना करता है, वह स्वयमेव दर्शन, ज्ञान और चारित्र में विषण्ण होता है। वह उन्हें प्राप्त ही नहीं कर पाता है तो उनकी आराधना कैसे कर सकता है ? इसलिए आशातनाओं का वर्जन करना चाहिए। • आशातना कब नहीं ? जाई भणियाइं सुत्ते, ताई तो कुणइ कारणज्जाए । सो न हु भारियकम्मो, गणेती गुरुं गुरुट्ठाणे ॥ कारणे पुण पंथमयाणमाणस्स अचक्खुगस्स वा पुरतो गच्छेज्जा, पडंतस्स विसमे रत्तिं वा जुवलितो गच्छेज्ज, गिलाणस्स वा साणाइभए वा मग्गतो आसन्ने गच्छिज्जा । (दशानि २३ चू) दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की तीसरी दशा में जो आशातनाएं वर्णित हैं, उनको जो शिष्य प्रयोजनवश करता है तथा गुरु को गुरु-स्थान पर मानता है, वह भारीकर्मा नहीं होता। अपेक्षा या प्रयोजन होने पर ( आचार्य या रत्नाधिक मुनि से) आगे चलना आशातना नहीं है। जैसे- जो गुरु आदि मार्ग से अनजान हो या प्रज्ञाचक्षु हो, उसके आगे चलना चाहिए। विषम स्थान में गिरने का भय हो या रात्रि का समय हो, तब साथ-साथ चले। कोई ग्लान हो या श्वान आदि का भय हो तो पीछे या पास-पास चले । द्र श्रीआको १ आशातना * तेतीस आशातना ४. आसायणा के प्रकार आसाणा उदुविहा, मिच्छापडिवज्जणा य लाभे य" (दशानि १५ ) 'आसायणा' (आशातना और आसादना ) के दो प्रकार हैं—मिथ्याप्रतिपत्ति तथा लाभ । • मिथ्याप्रतिपत्ति आशातना मिच्छापडिवत्तीए, जे भावा जत्थ होंति सब्भूता । तेसिं तु वितहपडिवज्जणाए आसायणा तम्हा ॥ (दशानि १९ ) मिथ्याप्रतिपत्ति अर्थात् सम्यक् स्वीकार न करना । जो अर्थ जैसे सद्भूत होते हैं, उनको अयथार्थरूप में स्वीकार करना आशातना है । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १११ आहार लाभ आसादना : इष्ट-अनिष्ट द्रव्य आदि ......"लाभे छक्कं तं पुण, इट्टमणिटुं दुहेक्केक्कं॥ साधू तेणे ओग्गह, कंतार-वियाल-विसम सुहवाही। जे लद्धा ते ताणं, भणंति आसादणा तु जगे। दव्वं माणम्माणं, हीणहियं जम्मि खेत्त जं कालं। एमेव छव्विहम्मी, भावे..............." । (दशानि १५-१७) लाभ आसादना के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। इनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-इष्ट और अनिष्ट। चोरों द्वारा साधुओं की चुराई हुई उपधि का पुन: लाभ होना अनिष्ट द्रव्य आसादना है। एषणा शुद्धि से उपधि की प्राप्ति इष्ट द्रव्य आसादना है। इसी प्रकार क्षेत्र, कान्तार, ग्रामानुग्राम विहरण, विषममार्ग, दुर्भिक्ष आदि में अप्रासुक द्रव्य-ग्रहण अनिष्ट द्रव्य आसादना तथा सुभिक्ष में शुद्ध आहार आदि की प्राप्ति इष्ट द्रव्य आसादना है। ग्लान आदि के लिए अनेषणीय की प्राप्ति अनिष्ट द्रव्य आसादना तथा एषणीय की प्राप्ति इष्ट द्रव्य आसादना है। इष्ट-अनिष्ट की प्राप्ति के आधार पर यहां आसादना कही गयी है। मान-उन्मान-प्रमाण युक्त द्रव्य की प्राप्ति इष्ट द्रव्यआसादना है तथा हीन-अधिक की प्राप्ति अनिष्ट द्रव्य आसादना है। जिस क्षेत्र और काल में इष्ट-अनिष्ट द्रव्य दिया जाता है अथवा उसका वर्णन किया जाता है, वह इष्ट-अनिष्ट क्षेत्र और काल की आसादना है । अथवा प्रवास के योग्य-अयोग्य क्षेत्र की प्राप्ति क्षेत्र आसादना और सुभिक्ष-दुर्भिक्ष काल की प्राप्ति काल आसादना है। भाव आसादना के छह प्रकार हैंऔदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सान्निपातिकभाव। * भावों का स्वरूप द्र श्रीआको १ भाव आहार-भूख-प्यास को शांत करने वाले, शरीर को पोषण देने वाले पदार्थ। १. आहार-अनाहार २. आहार द्रव्य : शीत-उष्ण परिणामी ३. द्रव्य परिणमन के प्रकार ४. पुलाक आहार के प्रकार |५. कवल-परिमाण एवं ऊनोदरी तप ६. प्रकाम-निकामभोजी कौन? ७. आहार का अनुपात और उदर-विभाग ८. अति आहार से हानि : कटाह दृष्टांत | ९. चींटी मिश्रित भोजन : मेधा आदि की हानि १०. विरुद्ध द्रव्यों का मेल अहितकर ११. विकृति-वर्जन से स्वाध्याय में सुविधा * योगवहन में विकृति वर्जन द्र स्वाध्याय * आहार संबंधी अभिग्रह द्र भिक्षाचर्या * मुनि की आहारग्रहण विधि द्र पिण्डैषणा |१२. परिभोगैषणा-विवेक : आर्य मंगु-समुद्र दृष्टांत ० आहार-विधि * प्रणीत भोजन : कल्याण आहार द्र ब्रह्मचर्य * स्निग्ध आहार से आयु की वृद्धि द्र चिकित्सा * अवस्था, आहार और बल द्र वीर्य |१३. पशु का प्रिय भोजन १. आहार-अनाहार .."आहारो एगंगिओ, चउव्विहो जं वऽतीइ तहिं॥ कूरो नासेइ छुहं, एगंगी तक्क-उदग-मजाई। खाइमे फल-मसाई, साइमे महु-फाणियाईणि॥ जं पुण खुहापसमणे, असमत्थेगंगि होइ लोणाई। तं पि य होताऽऽहारो, आहारजुयं व विजुतं वा॥ उदए कप्पूराई, फलि सुत्ताईणि सिंगबेर गुले। न य ताणि खविंति खुहं, उवगारित्ता उ आहारो॥ अहवा जं भुक्खत्तो, कद्दमउवमाइ पक्खिवइ कोटे। सव्वो सो आहारो, ओसहमाई पुणो भइतो॥ (बृभा ५९९८-६००२) जो एकांगी-अकेला क्षुधा को शांत करता है, वह आहार है। वह चार प्रकार का है-अशन, पान, खादिम और स्वादिम। चावल आदि खाद्य एकांगिक भूख मिटा देते हैं। पानक में तक्र, पानी आदि भूख-प्यास को मिटा देते हैं। खादिम में फल, मांस गूदा आदि तथा स्वादिम में मधु, फाणित आदि आहार का कार्य करते हैं, अतः ये आहार हैं। यद्यपि आहार से संयुक्त या वियक्त लवण, हींग आदि Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार ११२ पदार्थ क्षुधा को सर्वथा नहीं मिटा सकते, फिर भी वे आहार में गिने जाते हैं। इसी प्रकार पानी में कपूर आदि, फली में राई आदि, सूंठ में गुड़ आदि संयुक्त होते हैं। यद्यपि ये अकेले भूख नहीं मिटाते, परन्तु भोजन के उपकारी होने के कारण ये भी आहार में माने जाते हैं। अथवा क्षुधार्त्त व्यक्ति मिट्टी आदि को पेट में डालता है, वह भी आहार ही है। औषधि आहार भी होती है और अनाहार भी । शर्करा आहार है। सर्पदंश में खिलाई जाने वाली मृत्तिका आदि औषधि अनाहार है। (मांस शब्द की अर्थमीमांसा - आयुर्वेदीय ग्रंथों में छाल के लिए त्वचा और गूदे के लिए मांस शब्द का प्रयोग किया जाता है। अष्टांग संग्रह ( ८ / १६८) में भिलावे के गूदे के लिए मांस शब्द का प्रयोग किया गया है भल्लातकस्य त्वग् मांसं बृंहणं स्वादु शीतलम् ॥ आयुर्वेदीय ग्रंथों में गूदे के लिए मांस शब्द का प्रयोग अपवादस्वरूप नहीं है। यह एक वनस्पतिशास्त्रीय सामान्य प्रयोग है। कैयदेव निघण्टु (श्लोक २५५, २५६ औषधिवर्ग) में भी गूदे के लिए मांस शब्द का प्रयोग मिलता हैउष्णवात-कफ-श्वास-कास- तृष्णा- वमिप्रणुत । तस्य त्वक् कटुतिक्तोष्णा, गुर्वी स्निग्धा च दुर्जरा ॥ कृमिश्लेष्मानिलहरः मांसं स्वादु हिमं गुरु । बृंहणं श्लेष्मलं स्निग्धं पित्तमारुतनाशनम् ॥ वनस्पतिशास्त्र में मांसल फल का मतीरे के अर्थ में प्रयोग हुआ है - मांसलफलः कालिन्दी । अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनका प्रयोग प्राणिशास्त्र और वनस्पतिशास्त्र - दोनों में समान रूप हुआ है। कुक्कुट ..... मांस का अर्थ चोपतिया शाक है । - जैनभारती, नवंबर २००१, आचार्य श्री महाप्रज्ञ के 'मांसाहार : एक विवेचना' लेख से उद्धृत) सक्कर- घत- गुलमीसा, अगंठिमा खज्जूरा व तम्मीसा । सत्तू पण्णागोवा, घत गुलमिस्सो खरेणं वा ॥ थोवा विहति खुहं, न य तण्ह करेंति एते खज्जता ।" (बृभा ३०९३, ३०९४) आगम विषय कोश - २ शर्करा और घी अथवा गुड़ और घी से मिश्रित कदली फल अथवा गुड़ और घी से मिश्रित खर्जूर या सक्तू अथवा घी - गुड़ मिश्रित पिण्याक, घी के अभाव में खरतेल से मिश्रित पिण्याक – इनको थोड़ी मात्रा में खाने पर भी भूख मिट जाती है और प्यास नहीं सताती । २. आहार द्रव्य : शीत-उष्ण - परिणामी दव्वं तु उण्हसीतं, सीउण्हं चेव दो वि उण्हाई । दुण्णि वि सीताइँ, चाउलोद तह चंदण घते य ॥ आयाम अंबकंजिय, जति उसिणाणुसिण तो विवागेवी । उसिणोदग पेज्जाती, उसिणा वि तप्णुं गता सीता ॥ सुत्ताइ अंबकंजिय- घणोदसी तेल्ल-लोण - गुलमादी । सीता वि होंति उसिणा, दुहतो वुण्हा व ते होंति ॥ (बृभा ५९०२-५९०४) द्रव्य के चार प्रकार हैं - १. उष्ण शीत-शीत परिणाम वाले उष्ण द्रव्य । उष्णोदक, पेया आदि द्रव्य उष्ण होने पर भी शरीरगत होने पर शीत हो जाते हैं। २. शीत उष्ण - मदिराखोल, अम्लकांजी, अम्ल घनविकृति, अम्लतक्र, तेल, लवण, गुड़ आदि द्रव्य शीत होने पर भी परिणामतः उष्ण होते हैं । ३. उष्ण उष्ण-अम्लकांजी आदि द्रव्य यदि उष्ण हैं तो वे परिणाम में भी उष्ण ही होते हैं। ४. शीत शीत - चावल, चन्दन, घृत आदि शीत द्रव्य शीतपरिणामी हैं । ३. द्रव्य परिणमन के प्रकार परिणामो खलु दुविहो, कायगतो बाहिरो य दव्वाणं । सीओसिणत्तणं पि य, आगंतु तदुब्भवं तेसिं ॥ साभाविया व परिणामिया व सीतादतो तु दव्वाणं । असरिससमागमेण उ, णियमा परिणामतो तेसिं ॥ सीया वि होंति उसिणा, उसिणा वि य सीयगं पुणरुवेंति । दव्वंतरसंजोगं, कालसभावं च आसज्ज ॥ (बृभा ५९०५-५९०७) द्रव्य - परिणाम के दो प्रकार हैं- १. कायगत - शरीर द्वारा गृहीत द्रव्यों का शीत या उष्ण परिणाम । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ २. बाह्य - शरीर द्वारा अगृहीत द्रव्यों का परिणाम । शीतोष्णता के आधार पर स्वाभाविक या पारिणामिक परिणमन के दो प्रकार हैं ११३ १. आगंतुक - असदृश वस्तु के मिलने से जिसका पर्याय परिवर्तित हो जाता है। जैसे पानी शीत होता है लेकिन अग्नि या सूर्य के ताप से वह उष्णता को प्राप्त हो जाता है। द्रव्यांतर के संयोग से -जैसे अग्नि, जल आदि । काल से-जैसे ग्रीष्म, हेमन्त आदि। इनके निमित्त से उष्ण द्रव्य शीतता को और शीत द्रव्य उष्णता को प्राप्त हो जाते हैं। २. तदुद्भव - जिस द्रव्य के शीत आदि परिणाम स्वाभाविक होते हैं। यथा- हिम स्वभाव से शीत होता है। तापोदक स्वभाव से ही उष्ण होता है । ४. पुलाक आहार के प्रकार तिविहं होइ पुलागं, धण्णे गंधे य रसपुलाए य।'' निप्फावाई धन्ना, गंधे वाइ-लंडु-लसुणाई । खीरं तु रसपुलाओ, चिंचिणि दक्खारसाईया ॥ (बृभा ६०४८, ६०४९) पुलाक के तीन प्रकार हैं १. धान्य पुलाक - वल्ल, चने आदि । २. गंध पुलाक - मद्य, प्याज, लहसुन आदि । ३. रस पुलाक - क्षीर, अम्लिका रस, द्राक्षा रस आदि । ( धान्यपुलाक सेवन से वायुप्रकोप, गंधपुलाक से उन्मत्तता तथा शरीर से वायनिस्सरण, रसपुलाक से अतिसार आदि रोग उत्पन्न होते हैं। यहां पुलाक का अर्थ है असार ।) ५. कवल-परिमाण एवं ऊनोदरी तप अट्ठ कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे समणे निग्गंथे अप्पाहारे । बारस कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे समणे निग्गंथे अवड्डोमोयरिए । सोलस कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे समणे निग्गंथे दुभागपत्ते । चडवीसं कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे समणे निग्गंथे ओमोयरिए। एगतीसं कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे समणे निग्गंथे किंचूणोमोयरिए । बत्तीसं कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारे आहार माणे समणे निग्गंथे पमाणपत्ते। एत्तो एगेण वि घासेणं ऊणगं आहारं आहारेमाणे समणे निग्गंथे नो पकामभोइ त्ति वत्तव्वं सिया ॥ (व्य ८/१७) निययाहारस्स सया, बत्तीसइमो उ जो भवे भागो । तं कुक्कुडिप्पमाणं, नातव्वं बुद्धिमंतेहिं ॥ कुच्छियकुडी तु कुक्कुडि, सरीरगं अंडगं मुहं तीए । जायति देहस्स जतो, पुव्वं वयणं ततो सेसं ॥ थलकुक्कुडिप्पमाणं, जं वाणायासिते मुहे खिवति। अयमन्नो तु विगप्पो, कुक्कुडिअंडोवमे कवले ॥ (व्यभा ३६८२-३६८४) मुर्गी के अण्डे जितने (अपने मुखप्रमाण) आठ कवल खाने वाला श्रमण निर्ग्रथ अल्पाहारी, बारह कवल आहार करने वाला अपार्धअवमौदर्य, सोलह ग्रास खाने वाला अर्धअवमौदर्य, चौबीस ग्रास खाने वाला अवमौदर्य तथा इकतीस ग्रास खाने वाला किंचित् ऊनअवमौदर्य होता है। बत्तीस कवल आहार करने वाला श्रमण निर्ग्रथ प्रमाणप्राप्त आहारी होता है। इससे एक भी ग्रास न्यून खाने वाला प्रकामभोजी नहीं कहलाता । कुक्कुटी अण्डकप्रमाण- जिसका जितना आहार है, उतने आहार का बत्तीसवां भाग कुक्कुटी अण्डक का प्रमाण जानना चाहिए। अथवा कुक्कुटी का अर्थ है शरीर और अण्डक का अर्थ है। मुख । चित्र बनाते समय या गर्भोत्पत्तिकाल में सर्वप्रथम शरीर का मुख भाग निष्पन्न होता है, इसलिए मुख को अण्डक कहा गया है। कवलप्रक्षेप के लिए मुख खोलने पर उसमें जो आकाश होता है, वह स्थल कहलाता है। जितने प्रमाण का कवल मुख में रखने पर मुख विकृत नहीं होता, वह स्थल कुक्कुटीअण्डकप्रमाण है - यह कुक्कुटी अण्डकोपम कवल का वैकल्पिक अर्थ है। ६. प्रकाम - निकामभोजी कौन ? छम्मासखवणंतम्मि, सित्थादहा लंबणं । तत्तो लंबणवड्डीए, जावेक्कतीस संथरे ॥ एक्कमेक्कं तु हावेत्ता, दिणं पुव्वेक्कमेव उ। दिणे दिणे उ सित्थादी, जावेक्कतीस संथरे ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार ११४ आगम विषय कोश-२ पगामं होति बत्तीसा, निकामं जं तु निच्चसो। पडुपन्नऽणागते वा, संजमजोगाण जेण परिहाणी। दुप्पविजहया तेसु, गेही भवति वज्जिया॥ ण वि जायति तं जाणसु, साहुस्स पमाणमाहारे॥ (व्यभा ३६८६-३६८८) (बृभा ५८४७,५८५२) स्वाध्याय आदि योगों की हानि न हो तो मनि छहमासिक लोहे की कड़ाही में उसके प्रमाण से अधिक वस्तु तप के पारणे में एक सिक्थ (धान्यकण जितना) खाये। उसमें डाली जाती है तो वह बाहर निकल जाती है। कड़ाही एक सिक्थ खाकर न रह सके तो दो, तीन सिक्थ यावत् में प्रमाण से कम डाली जाती है तो वह बाहर नहीं निकलती। एक ग्रास, दो ग्रास यावत् इकतीस ग्रास खाये। इसी प्रकार अतिमात्रा में आहार करने से उद्गार आते हैं, छहमासिक तप न कर सके तो एक-एक दिन की हानि वमन हो जाता है। अतः आहार की मात्रा कम हो, जिससे करते हुए उपवास करे। पारणे में अपेक्षानुसार सिक्थ-कवल की उदगार न आए। वृद्धि करे। उपवास भी न कर सके तो नित्यभोजी मुनि एक जितना आहार करने से वर्तमान और अनागत काल में एक सिक्थ-कवल की वृद्धि करते हुए इकतीस कवल खाए। सयंमयोगों की हानि नहीं होती. वह प्रमाणयक्त आहार है। बनीस यास खाने वाला प्रकामभोजी और नित्यप्रति . चींटी....मिश्रित भोजन : मेधा आदि की हानि बत्तीस ग्रास खाने वाला निकामभोजी कहलाता है। जो ____.."घरकोइलाइमुत्तण, पिवीलगा मरण णाणाता॥ प्रकामभोजी और निकामभोजी नहीं होता-बत्तीस कवल में से गिहकोकिल-अवयवसम्मिस्सेण भुत्तेण पोट्टे किल एक कवल भी कम खाता है, उसकी आहार के प्रति आसक्ति गिहकोइला सम्मुच्छंति। मुइंगासु मेहा परिहायति। टूट जाती है। मेहापरिहाणीए णाणविराहणा। (निभा ३४७५ चू) ७. आहार का अनुपात और उदर-विभाग रात्रि में भोजन-पानी में गृहकोकिला (छिपकली) अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दो भाए। मूत्रविसर्जन कर सकती है। उसके अवयवों से मिश्रित भोजन वायापवियारणट्ठा, छब्भागं ऊणयं कुज्जा। करने पर पेट में छिपकली सम्मूच्छित हो सकती है। उस एसो आहारविधी, जध भणितो सव्वभावदंसीहिं। व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है-यह आत्मविराधना है। चींटीधम्माऽवस्सगजोगा, जेण न हायंति तं कुज्जा॥ मिश्रित भोजन करने से मेधा की हानि होती है और मेधा की (व्यभा ३७०१,३७०२) परिहानि से ज्ञान-विराधना होती है। उदर के छह भाग कल्पित हैं। उनमें से तीन भाग १०. विरुद्ध द्रव्यों का मेल अहितकर व्यञ्जनसहित अशन के लिए तथा दो भाग पानी के लिए सुरक्षित रखे। एक छठा भाग वायु प्रविचार के लिए खाली पालंक-लट्टसागा, मुग्गकयं चाऽऽमगोरसुम्मीसं। रखे। (प्रावृट् काल में चार भाग अशन-व्यंजन के लिए, एक संसज्जती उ अचिरा, तं पि य नियमा दुदोसाय॥ पानी के लिए और एक वायुसंचरण के लिए रखे। ग्रीष्मकाल दहि-तेल्लाई उभयं, पय-सोवीराउ होंति उविरुद्धा। में दो भाग अशन-व्यंजन के लिए, तीन भाग पानी के लिए देहस्स विरुद्धं पुण, सी-उण्हाणं समाओगो॥ और एक भाग वायु-प्रविचरण के लिए हो।) (बृभा २०९४, २०९५) यह आहारविधि सर्वभावदर्शी सर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित पालक का शाक और लट्टाशाक (कौसुम्भ शालनक) है। जिससे धर्महेतु अवश्यकरणीय योगों की हानि न हो, इनको परस्पर मिलाने से सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होती है। उतनी मात्रा में आहार करना विहित है। मूंग आदि दालों के साथ कच्चा दूध मिलाने से अतिशीघ्र ८. अति आहार से हानि : कटाह दृष्टांत जीवों की उत्पत्ति होती है, जिससे संयमविराधना और अतिभुत्ते उग्गालो, तेणोमं भुंज जण्ण उग्गिलसि। आत्मविराधना होती है। छड्डिजति अतिपुण्णा, तत्ता लोही ण पुण ओमा॥ दही और तैल, दूध और कांजी परस्पर विरुद्ध द्रव्य हैं। शीत Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ११५ इन्द्रिय और उष्ण द्रव्यों का समायोग शरीर की प्रकृति के प्रतिकूल है। भोजन-मण्डली में जो रालिक साधु होता है, वह ११. विकृति-वर्जन से स्वाध्याय में सविधा सर्वप्रथम आचार्य, ग्लान, बाल, वृद्ध, अतिथि आदि को जागरंतमजीरादी, ण फसे लहवित्तिणं। उत्कृष्ट द्रव्य खिलाकर अवशिष्ट श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ सब अविरोधी जोगीऽहं ति सह लद्धे, विगतिं परिहरिस्सति॥ द्रव्यों को मिला देता है और शेष साधु वह भोजन करते हैं, (निभा १५९८) इससे सबकी समता सधती है। यह विधिपरिभोग है। इससे सबकी समता सधती । रूक्षभोजी मुनि स्वाध्याय आदि के निमित्त रात्रिजागरण १३. पशु का प्रिय भोजन करता हुआ भी अजीर्ण आदि रोगों से ग्रस्त नहीं होता। मैं योगी जड्डो जं वा तं वा, सूमालं महिसओ मधुरमासो। (आगाढ-अनागाढ योगी) हूं'-ऐसा चिन्तन करने वाला मुनि गोणो सुगंधिदव्वं, इच्छति ...........।। विकृति प्राप्त होने पर भी सुखपूर्वक उसका परिहार कर हत्थिस्स इ8 णलइक्खुमोतगमादी, तं आहारेति। सकता है। तस्याभावे जंवा अणिद्वं तं वा आहारेति, जंवा कमागयं। १२. परिभोगैषणा-विवेक : आर्यमंगु-समुद्र दृष्टांत महिसो सकमालंवंसपत्तमादी, तस्साभावे तदभावरसगेहि अधिक्खाए, अविधि सइंगालपक्कमे माया। भावितत्वात् अण्णंण चरति, तं अह चरए पुटुिंण गेण्हति। लोभे एसणघातो, दिदतो अज्जमंगहिं॥ एवं आसो हप्पिच्छं (हरिमत्थं ) मुग्गमादि मधुरं, (निभा १११६) गोणो अज्जुणमाति सुगंधदव्वं। (निभा १६३८ चू) मुनि रसलोलुपता के कारण मात्रा से अधिक खाता हाथी को सरकण्डे, इक्षु, मोदक आदि का भोजन है तथा काक, शुगाल आदि की तरह अविधि से खाता है। प्रिय है। ऐसा भोजन न मिले तो वह जिस-किसी सहज भोज्य की प्रशंसा करता हुआ वह इंगाल दोष से दूषित होता प्राप्त भोजन से भी उदरपूर्ति कर लेता है। है। वह गृद्धि और अधृति के कारण गच्छ से अपक्रमण कर महिष को वंशकरील जैसे सुकुमार द्रव्य प्रिय हैं। लेता है, माया का आचरण करता है, सरस भोजन में लुब्ध उनके न मिलने पर वह अन्य द्रव्य नहीं खाता है। यदि खाता होकर एषणासमिति में स्खलना करता है। भी है तो उससे पुष्ट नहीं होता है। आर्यमंगु-आर्यसमुद्र-बहुश्रुत आचार्य आर्यमंगु सपरिवार मथुरा घोड़ा काला चना, मूंग आदि मधुर द्रव्य तथा बैल में आये। वे कालांतर में रसगृद्धि के कारण अवसन्न हो गए, अर्जुन, ग्रन्थिपर्ण आदि सुगंधित द्रव्य खाना चाहता है। मृत्यु को प्राप्त कर भवनवासी देव के रूप में उत्पन्न हुए और इंगिनीमरण-प्रशस्त मरण का एक प्रकार । द्र अनशन तत्काल साधुओं को प्रतिबोध देने के लिए अपने ही शव में प्रविष्ट होकर जीभ निकालने लगे। पूछने पर कहा-मैं आर्यमंगु इन्द्रिय-चेतना के विकास का प्राथमिक स्तर । प्रतिनियत हूं। इतना कहकर साधु-श्रावकों को रसगृद्धि से होने वाले और वर्तमान अर्थ को ग्रहण करने वाली चेतना। दष्परिणामों की अवगति देकर लौट गए। १. इन्द्रियावरण-ज्ञानावरण के भेद आर्यसमुद्र रसगृद्धि से भयभीत थे, अनासक्त थे, अतः २. इन्द्रियावरण-विज्ञानावरण का विषय विभाग सरस और अरस को एक साथ मिलाकर खाते थे। ३. इन्द्रियावरण होने पर भी विज्ञान अनावृत ० आहार-विधि * इन्द्रियनिश्रित मतिज्ञान द्र ज्ञान * इन्द्रियविजय का अभ्यास द्र जिनकल्प तम्हा विधीए भुंजे, दिण्णम्मि गुरूण सेस रातिणितो। * इन्द्रियप्रतिसंलीनता द्र प्रतिमा भुयति करंबेऊणं, एवं समता तु सव्वेसिं॥ * दृष्टिराग : ब्रह्मचर्य का विघ्न द्र ब्रह्मचर्य (निभा १११९) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय ११६ आगम विषय कोश-२ . त्यभा एव दयम १. इन्द्रियावरण-ज्ञानावरण के भेद । बधिर आदि जीव हैं या अजीव? प्रत्यत्तर में कहा गयाइंदियावरणे चेव, नाणावरणे इय। वे जीव हैं। श्रोत्रावरण मात्र से जीवत्व नष्ट नहीं होता। बधिर तो नाणावरणं चेव, आहितं तु दु पंचधा॥ आदि की भांति चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय भी सोइंदियआवरणे, नाणावरणं च होति तस्सेव।। जीव हैं। इनमें क्रमशः एक-एक इन्द्रिय की हानि होती है। गं, णेयव्वं जाव फासो त्ति॥ चक्षुइन्द्रिय का उपघात होने पर त्रीन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय के उपघात . (व्यभा ४६११, ४६१२) से द्वीन्द्रिय और जिह्वेन्द्रिय के उपघात से एकेन्द्रिय होता है। ० इन्द्रियावरण-शब्द आदि इन्द्रियविषय संबंधी सामान्य कोई पुरुष क्रमश: इन्द्रियों के उपहत होने पर एक ही उपयोग (दर्शन) को आवृत करने वाला कर्म। इन्द्रिय वाला रह गया हो, तब भी जब तक उपकरण इन्द्रिय ० ज्ञानावरण-इन्द्रियविषय संबंधी विशेष उपयोग (ज्ञान) उपहत नहीं होती, तब तक वह औषध आदि के प्रयोग से को आवृत करने वाला कर्म। इनके पांच-पांच भेद हैं सर्वइन्द्रियों से स्वस्थ हो सकता है। इन्द्रियावरण ज्ञानावरण ३. इन्द्रियावरण होने पर भी विज्ञान अनावृत श्रोत्रेन्द्रियावरण १. श्रोत्रेन्द्रियज्ञानावरण सण्णिस्सिंदियघाते वि, तन्नाणं नावरिज्जति। चक्षुरिन्द्रियावरण २. चक्षरिन्द्रियज्ञानावरण विण्णाणं नऽत्थऽसण्णीणं, विज्जमाणे वि इंदिए। ३. घ्राणेन्द्रियावरण ३. घ्राणेन्द्रियज्ञानावरण जो जाणति य जच्चंधो, वण्णे 5वे विकप्पसो। रसनेन्द्रियावरण ४. रसनेन्द्रियज्ञानावरण नेत्ते वावरिते तस्स, विण्णाणं तं तु चिट्ठति ॥ स्पर्शनेन्द्रियावरण ५. स्पर्शनेन्द्रियज्ञानावरण पासंता वि न जाणंति, विसेसं वण्णमादिणं। २. इन्द्रियावरण-विज्ञानावरण का विषय विभाग बाला असण्णिणो चेव, विण्णाणावरियम्मि उ॥ बहिरस्स उ विण्णाणं, आवरियं न पुण सोतमावरियं। (व्यभा ४६१७-४६१९) अपडुप्पण्णो बालो, अतिवुड्डो तध असण्णी वा। संज्ञी जीवों की इन्द्रियां उपहत होने पर भी उनका विण्णाणावरियं तेसिं, कम्हा जम्हा उ ते सुणेता वि। न वि जाणते किमयं, सद्दो संखस्स पडहस्स॥ ज्ञान आवृत नहीं होता। असंज्ञी जीवों के इन्द्रियां होने पर किं ते जीवअजीवा, जीवं ति य एव तेण उदियम्मि। भी उनका विज्ञान आवृत होता है। एक जन्मांध व्यक्ति के नेत्रावरण होने पर भी वह भण्णति एव विजाणसु, जीवा चउरिंदिया बेंति॥ एवं चक्खिदिय-घाण, जिब्भ-फासिंदिउवघातेहिं। वर्ण-रूप-विशेषों को स्पर्श के द्वारा स्पष्ट जान लेता है। एक्केक्कगहाणीए, जाव उ एगिंदिया नेया॥ बाल और असंज्ञी जीव देखते हुए भी विज्ञानावरण के इंदियउवघातेणं, कमसो एगिदि एव संवुत्तो। __ कारण वर्ण आदि के विशेष धर्मों को नहीं जानते। अणुवहते उवकरणे, विसुज्झती ओसधादीहिं । (इस पूरे विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन्द्रिय उपघात होने पर भी विज्ञानोपघात नहीं होता और विज्ञानोपघात (व्यभा ४६१३-४६१६, ४६२०) होने पर भी इन्द्रियोपघात नहीं होता। यही विज्ञान और इन्द्रिय बधिर व्यक्ति को शब्द का विशेष परिज्ञान नहीं होता, का भेद है तथा आवरणों का भी भेद है। इस प्रकार ज्ञानावरण क्योंकि उसका श्रोत्रेन्द्रियविज्ञान आवत होता है। जिसकी श्रोत्रेन्द्रिय दस प्रकार का होता है।) आवृत नहीं होती, वह शब्द को सामान्य रूप से सुनता है। जो अपटूप्रज्ञ, बाल, अतिवद्ध या अमनस्क पञ्चेन्द्रिय ___ * इन्द्रिय के प्रकार : विषय ग्रहण की क्षमता आदि जीव हैं, वे शब्द सुनते हुए भी यह नहीं जान पाते कि यह शब्द ___द्र श्रीआको १ इन्द्रिय शंख का है या पटह का है। उनके श्रोत्रेन्द्रियविज्ञानावरण का उत्सर्ग सूत्र-वह सूत्र, जिसमें आचार-विषयक सामान्य उदय होता है। विधि का प्रतिपादन हो। द्र सूत्र Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ उत्सारकल्प - सूत्र और अर्थ के क्रम का अतिक्रमणकर अध्ययन-अध्यापन करना । १. उत्सारकल्प धूमकेतु सदृश २. सूत्रार्थ के क्रमशः अध्ययन के गुण * उत्क्रम से आगमवाचना का निषेध क्यों ? ३. उत्सारण के दोष : उत्सारवाचक दृष्टांत • प्रवचन आदि का विच्छेद : घंटाशृगाल दृष्टांत ४. उत्सारकल्प के हेतु : ढंढणमुनि आदि दृष्टांत ५. उत्सारकल्पकारक की अर्हता ६. दृष्टिवाद का उत्सारण क्यों ? ७. उत्सारकल्प-योग्य के गुण ८. उत्सारण के विकल्प और प्रायश्चित्त ९. आर्य-अनार्य उत्सारकल्पी १०. उत्सारकाल : अकाल वर्जन नहीं ११. वाचनापरिमाण: ओज-अनोज उद्देशक द्र वाचना ११७ * उद्देश समुद्देश अनुज्ञा १२. योगवहन एवं आहार १३. अव्याक्षेप : भिक्षाटन आदि द्वारा वैयावृत्त्य १. उत्सारकल्प धूमकेतु सदृश सूत्रार्थयोः परिपाटिवाचनां परित्यज्य सकलश्रुतधर्मधूमकेतुकल्पमुत्सारकल्पम् । (बृभा ७२३ की वृ) द्र श्रुतज्ञान सूत्र और अर्थ का परिपाटिवाचना ( क्रमश: वाचना ) से मुक्त होकर अविधि अथवा अक्रम-व्युत्क्रम से अध्ययनअध्यापन करना उत्सारकल्प है। यह समग्र श्रुतधर्म के लिए धूमकेतु के समान विनाशकारी है। २. सूत्रार्थ के क्रमशः अध्ययन के गुण आणा विकोणा बुज्झणा य उवओग निज्जरा गहणं । गुरुवास जोग सुस्सूसणा य कमसो अहिज्र्ज्जते ॥ (बृभा ७२७) जो सूत्र का क्रमशः अध्ययन-अध्यापन करता है, उसके आठ गुण प्रकट होते हैं ० आज्ञा - तीर्थंकरों की आज्ञा की आराधना । ० विकोपना - योग- उद्वहन विधि तथा गच्छ - सामाचारी में शिष्यों की निपुणता । उत्सारकल्प ० बोध - जीव- अजीव आदि तत्त्वों का अवबोध । उपयोग-प्रबुद्ध होने पर श्रुत में सदा उपयोग 1 ० निर्जरा - श्रुत में निरन्तर उपयुक्त रहने से महान् निर्जरा । • ग्रहण - नित्य उपयुक्त रहने पर सूत्र - अर्थ को शीघ्र ही ग्रहण करने की क्षमता । ० गुरुवास - योग - गुरुकुल में रहने के कारण सूत्र और अर्थ के अध्ययन के अवसर की प्राप्ति तथा योगों की विधिवत् आराधना । शुश्रूषा - आचार्य आदि के प्रति विनय-वैयावृत्त्य आदि करने के अवसर की प्राप्ति । उत्सारकल्पी सूत्र और अर्थ का क्रमशः अध्ययन नहीं करता, अतः उसके द्वारा ये सारे गुण आराधित नहीं होते। ३. उत्सारण के दोष : उत्सारवाचक दृष्टांत आणाऽणवत्थ मिच्छा, विराहणा संजमे य जोगे य । अप्पा परो पवयणं, जीवनिकाया परिच्चत्ता ॥ पुव्वि मलिया उस्सारवायए आगए पडिमिलंति । पडिलेह पुग्गलिंदिय, बहुजण ओभावणा तित्थे ॥ जीवाजीवेन मुइ, अलियभया साहए दग-मिताई । करणे अ विवच्चासं, करेड़ आगाढऽणागाढे ॥ तुरियं नाहिज्जंते, नेव चिरं जोगजंतिता होंति । लद्धो महंतसद्दो, त्ति केइ पासाई गेण्हंति ॥ कमजोगं न वि जाणइ, विगईओ का य कत्थ जोगम्मि | (बृभा ७१६-७२०) उत्सारकल्पी भगवान् की आज्ञा की सम्यक् आराधना नहीं करता। आचार्य को उत्सारकल्प करते देख अन्य आचार्य भी वैसा ही आचरण करने लग जाते हैं। शिष्य तथा प्रतीच्छक भी प्रतिस्पर्धा से उत्सारकल्पी हो जाते हैं। इससे अनवस्था दोष की प्राप्ति होती है। नया शिष्य मिथ्यात्व को प्राप्त सकता है। संयम और योग-विषयक विराधना हो सकती है। उत्सारक आचार्य द्वारा आत्मा, शिष्य, प्रवचन तथा षड्जीवनिकाय परित्यक्त हो जाते हैं अर्थात् उनका सम्यक् अनुशीलनआराधन नहीं होता। मिथ्यात्व प्राप्ति - एक बार नगर में बहुश्रुत पूर्वधर आचार्य Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सारकल्प ११८ आगम विषय कोश-२ आये। वे वादकुशल थे। अन्यतीर्थिकों ने आचार्य का पराभव हमें एक ही दिन में समग्र श्रुतस्कन्ध की वाचना की अनुज्ञा दे करने के लिए वाद-विवाद का आयोजन किया। पर वे स्वयं दी है, अब इसे पढ़ने से क्या?"-यह सोचकर वे उत्सारकल्पी पराभूत हो गए और पराभव से उत्पीड़ित हो अवसर की प्रतीक्षा अध्ययन में त्वरता नहीं करते और न चिरकाल तक योग करने लगे। (तप अनुष्ठान) से नियमित होते हैं। कुछ दिनों पश्चात् उसी नगर में एक पंडितमानी हमने 'वाचक' का महान सम्बोधन प्राप्त कर लिया उत्सारकल्पिक वाचक आया। प्रतिशोध लेने के लिए अन्यतीर्थिकों है-अब हम गुरु-सन्निधि में क्यों रहें? यह सोचकर वे ने पहले गुप्त रूप से एक प्रत्युपेक्षक को यह जानने के लिए पार्श्ववर्ती क्षेत्रों में स्वतंत्र विहरण करने लगते हैं। भेजा कि नवागंतुक वाचक तत्त्ववेत्ता वाग्मी है या नहीं? उस वे योगक्रम को नहीं जानते-आगम अध्ययनकाल में प्रत्युपेक्षक ने उत्सारकल्पिक से पूछा-परमाणु-पुद्गल के कौन-सा योगवहन करना है, अमुक योग में इतने आयंबिल कितनी इन्द्रियां होती हैं? पल्लवग्राही वाचक ने कहा- आदि करणीय हैं। वे यह भी नहीं जानते कि किस योग में परमाणु एक समय में लोक के एक चरमान्त से दूसरे चरमान्त कितनी विकृति वर्जनीय है। तक चला जाता है, अतः निश्चित ही वह पंचेन्द्रिय है, . प्रवचन आदि का विच्छेद : घंटाशृगाल दृष्टांत अन्यथा ऐसी गमनवीर्य लब्धि नहीं हो सकती। यह उत्तर ....... अण्णस्स वि दिति तहा, परंपरा घंटदिटुंतो॥ सुनकर प्रश्नकर्ता ने सारी बात अन्यतीर्थिकों को बता दी। वे उच्छुकरणोव कोट्टगपडणं घंटासियालनासणया। सब इकट्ठे होकर आ गए। अनेक प्रश्न पूछे। उत्सारकल्पिक विगमाई पुच्छ परंपराएँ नासंति जा सीहो। वाचक ने किसी भी प्रश्न का सही समाधान नहीं दिया, अंत पडियरिउं सीहेणं, स हओ आसासिया मिगगणा य। में वह निरुत्तर हो गया। ऐसी स्थिति में प्रवचन की लघुता इय कइवयाइँ जाणइ, पयाणि पढमिल्लुगुस्सारी॥ होती है। इसके गुरु भी तत्त्वज्ञानी नहीं हैं, अन्यथा यह ऐसी किं पि त्ति अन्नपुट्ठो, पच्चंतुस्सारणे अवोच्छित्ती। प्ररूपणा क्यों करता?' इस विपरिणाम के कारण नवश्रद्धालु गीताऽऽगमण खरंटण, पच्छित्तं कित्तिया चेव॥ अपना सम्यक् दृष्टिकोण खो देते हैं। अप्पत्ताण उ दिंतेण अप्पओ इह परत्थ वि य चत्तो। ० संयम विराधना-उत्सारकल्पी सूत्रवाचनामात्र से अनुयोग सो वि अ हु तेण चत्तो, जं न पढइ तेण गव्वेणं॥ में अवगाहन करता है, अतः वह जीव और अजीव को (बृभा ७२०-७२४) पृथक-पृथक रूप से विस्तार से नहीं जानता। इस अपरिज्ञान उत्सारवाचक अपने शिष्यों को भी उत्सारकल्प से के कारण उसमें संयम का सद्भाव कैसे हो सकता है? वाचना देते हैं। यह परम्परा आगे बढ़ती है तो सूत्र-अर्थ का क्या नदी में पानी है? क्या तुमने मृग आदि को देखा व्यवच्छेद हो जाता है। परम्परा के प्रसंग में घंटाशृगाल का है? प्यासे और शिकारी व्यक्तियों द्वारा ये प्रश्न पूछे जाने पर शकारा व्याक्तया द्वारा य प्रश्न पूछ जान पर दृष्टांत ज्ञातव्य हैवह असत्य के भय से कह देता है-पानी है, मृग इधर गए एक इक्षुवाटक था। उसमें सियार प्रवेश कर इक्षु खा हैं। वह नहीं जानता कि पापकारिणी सत्यभाषा भी नहीं जाते थे। स्वामी ने वाटक के चारों ओर खाई खुदवा दी। एक बोलनी चाहिए। बार एक सियार उस खाई में गिर पडा। स्वामी ने उसे अपवाद विधि से अनभिज्ञ होने के कारण वह पकडा। उसकी पंछ और कान काट दिये. शरीर पर चीते की करण (चारित्र) में विपर्यास करता है, जैसे ग्लान आदि आगाढ खाल मढ़कर गले में घंटा बांध दिया। वह भयभीत होकर कारण में प्रतिसेवना नहीं करता, अनागाढ में शीघ्र प्रतिसेवना वहां से दौड़ा। अन्य सियारों ने देखा और उसे विचित्र प्राणी कर लेता है। यह संयम विराधना है। समझ कर वे सब भयभीत होकर दौड़ने लगे। उन्हें भागते ० योगविराधना-उत्सारकल्पिक शिष्य सोचते हैं - "गुरु ने देख तरक्षों ने कारण पूछा। शृगालों ने कहा-कोई अपूर्व प्राणी Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ अपूर्व शब्द करता हुआ आ रहा है। तरक्ष (लकड़बग्घे) भी भयाक्रान्त होकर दौड़ने लगे। चीतों ने तरक्षों से पूछा। उनका उत्तर सुन वे भी भयभीत होकर भागने लगे। एक सिंह मिला। उसने चीतों से पलायन का कारण पूछा। चीतों ने सारी बात कही। सिंह ने सोचा (.....पाणियसद्देण उवाहणाउ णाविब्भलो मुयति ॥ बृभा ३१७५ ११९ विज्ञ व्यक्ति पानी के शब्द मात्र से उपानत् नहीं छोड़ता ।) यथार्थ की खोज करूंगा। उसने सूक्ष्मता से उसे देखा और जान लिया कि यह सियार है। उसे पकड़ा और मार डाला । फिर उसने सबको आश्वस्त कर दिया। इसी प्रकार जो शिष्य उत्सारकल्पिक आचार्य के पास पढ़ते हैं, वे आगमों के कुछेक आलापकों तथा सूत्रस्पर्शिका निर्युक्ति को सीखकर स्वयं को निष्णात मान लेते हैं और प्रायः प्रत्यंत गांव में जाकर गच्छाधिपतित्व कर दूसरों को उत्साहित करते हैं और कहते हैं- हम सूत्र और अर्थ की अव्युच्छित्ति करने वाले हैं। जैसे वन के सियार आदि सभी प्राणी उस घंटासियार के घंटा शब्द को नहीं जानते तथा यह भी नहीं जानते कि यह कौन है ? इसके गले में क्या है ? यह शब्द किसका है ? वैसे ही प्रथम उत्सारित शिष्य कुछ जानता है, सारा नहीं जानता। उसके पास पढ़ने वाला, उत्सारकल्प करने वाला कुछ सूत्र आलापक जान पाता है, अर्थ नहीं ? शिष्य जब आलापकों के विषय में पूछते हैं, तब कहता है - मैं नहीं जाता। तुम योगवहन करो। इस प्रकार के सभी उत्सारकारक और शिष्य नष्ट होते हैं । एक बार उस प्रत्यंत ग्राम में गीतार्थ आचार्य आते हैं और उन्हें उपालंभ देते हैं - तुम लोग सूत्रार्थ की परिपाटिवाचना को त्यागकर सर्वश्रुतधर्म के लिए धूमकेतु के समान उत्सारकल्प का आचरण क्यों कर रहे हो ? इस उपालंभ से प्रेरित हो जो उत्सारकल्पी पुनः उत्सारण न करने का संकल्प करते हैं, उन्हें आचार्य प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करते हैं । किन्तु ऐसे गीतार्थ कितने होंगे, जो इस प्रकार सीख दे सकें, अतः उत्सारण करना ही नहीं चाहिए । उत्सारक आचार्य अयोग्य अथवा विवक्षित अनुयोग उत्सारकल्प भूमि को अप्राप्त शिष्यों को श्रुत की वाचना देता है तो उसकी आत्मा इह-परत्र त्यक्त हो जाती है। यहां भी उसे अपयश प्राप्त होता है और परभव में उसे बोधि प्राप्त नहीं होती। जो शिष्य उससे वाचना लेता है, वह भी अल्पज्ञान से गर्विष्ठ होकर अध्ययन छोड़ देता है । पठन के अभाव में चरण-करण का प्रतिपालन कैसे संभव हो सकता है ? ४. उत्सारकल्प के हेतु : ढंढणमुनि आदि दृष्टांत चोयग पुच्छा उस्सारकप्पिओ नत्थि तस्स किह नामं ।" निक्कारणम्मि नामं, पि निच्छिमो इच्छिमो अ कज्जम्मि । उस्सारकप्पियस्स उ, चोयग ! सुण कारणं तं तु ॥ गच्छो अ अलद्धीओ, ओमाणं चेव अणहियासा य । गिहिणो अ मंदधम्मा, सुद्धं च गवेसए उवहिं ॥ हिंडउ गीयसहाओ, सलद्धि अह ते हणंति से लद्धिं । तो एक्कओ वि हिंडइ, आयारुस्सारियसुअत्थो ॥ भिक्खु विह तह वद्दल, अभागधेज्जो जहिं तहिं न पडे । दुग - तिगमाईभेदे, पडड़ तहिं जत्थ सो नत्थि ॥ ननु च किं कोऽपि कस्यापि लाभान्तरायकर्मक्षयोपशमसमुत्थां लब्धिमुपहन्ति ? येनैवमुच्यते - ते गीतार्थास्तस्य लब्धिमुपघ्नन्ति इति, अत्रोच्यते - भो भद्र ! किं न कर्णकोटरमुपागतं सुप्रतीतमपि भवतो ढण्ढणमहर्षेरलब्धिस्वरूपम्। (बृभा ७१५, ७३१, ७४०-७४२ वृ) शिष्य ने पूछा- भंते! आपने सूत्रकल्पिक आदि बारह प्रकार के कल्पिकों का वर्णन किया है, उनमें 'उत्सारकल्पिक का उल्लेख नहीं है। ऐसा क्यों ? आचार्य बोले'उत्सारकल्पिक' नाम का कल्पिक नहीं है। शिष्य ने पूछायदि उसका अस्तित्व नहीं है तो फिर उसके नामोल्लेख की क्या आवश्यकता है? यदि नाम है तो वह सार्थक है या निरर्थक ? गुरु ने कहा- हमें निष्कारण नाम भी अभीष्ट नहीं है तो अर्थ की बात ही क्या ? प्रयोजन होने पर हमें उत्सारकल्प नाम और उसका अर्थ- दोनों अभीष्ट हैं । उत्सारकल्प के कारणों को सुनो • किसी आचार्य के गच्छ में कोई भी साधु वस्त्र - पात्र - शय्या के उत्पादन में लब्धिसम्पन्न न हो I Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सारकल्प आगम विषय कोश-२ ० जिस क्षेत्र में स्वपक्ष और परपक्ष से अवमानना होती हो। श्रीकृष्ण भी स्तवना करते हैं। मुझे इन्हें भोजन देना चाहिए। ० साधु शीत आदि सहने में असमर्थ हों। यों विचारकर वह मुनि को भक्तिभाव से अपने घर ले गया ० गृहस्थ मंदधर्मा हों-प्रज्ञापित किए बिना वस्त्र आदि न और मोदकों का दान दिया। देते हों। मुनि ने अपनी लब्धि की भिक्षा जानकर उसे ग्रहण ० साधु शुद्ध उपधि की गवेषणा करे फिर भी वह जिस किया और भगवान् के पास गये। भगवान् ने रहस्योद्घाटन किसी साधु को न मिले, वह दुर्लभ हो, ऐसी स्थिति में करते हुए कहा-आयुष्मन्! यह भिक्षा तुम्हारी लब्धि की अल्पमेधा वाले लब्धिसम्पन्न शिष्य को वस्त्रैषणा आदि नहीं अपितु श्रीकृष्ण की लब्धि की है। अतः यह भिक्षा अध्ययनों की वाचना देकर उसे कल्पिक बनाया जाता है। वह गीतार्थ साधु के साथ वस्त्र आदि की प्राप्ति के शलाकापुरुष चरित्र, पर्व ८) लिए जाए। यदि गीतार्थ साधु उसकी लब्धि का उपहनन करते परपुण्योपघातक दृष्टांत-पांच सौ व्यक्तियों का एक सार्थ हों तो वह अकेला ही वस्त्र आदि की गवेषणा करे। क्योंकि अटवी में भटक गया। उसके साथ एक अभागी रक्तपट भिक्षु उसने उत्सारकल्पकरण द्वारा आचारांग के अन्तर्गत वस्त्रैषणा भी था। उसने उन पांच सौ व्यक्तियों के पुण्य का उपहनन अध्ययन (आचूला-५) के सूत्रार्थ को जान लिया है। कर दिया। सब प्यास से व्याकुल थे। उनसे कुछ दूरी पर ढंढण दृष्टांत-शिष्य ने जिज्ञासा की-भंते ! आपने कहा कि बादल बरस रहे थे किन्तु उनको एक बूंद भी नहीं मिल रही वे गीतार्थ उसकी लब्धि का उपघात करते हैं। क्या कोई थी। सार्थ दो भागों में बंट गया। रक्तपट भिक्षु प्रथम विभाग किसी की लब्धि का उपघात कर सकता है? क्योंकि लब्धि के साथ मिल गया। वर्षा सर्वत्र होने लगी, परन्तु वह भिक्षु तो लाभान्तरायकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होती है। जहां था, वहां वर्षा नहीं हुई। सार्थ के लोगों ने उसे निकाल गरु ने कहा-शिष्य! क्या तमने सप्रसिद्ध ढंढण दिया। वह अकेला हो गया। जहां वह रहा, वहां वर्षा नहीं महर्षि की अलब्धि की घटना नहीं सुनी? हई। अन्यत्र वर्षा का अभाव नहीं रहा। (ढंढणकुमार अर्हत् अरिष्टनेमि के पास प्रव्रजित हुए। ५. उत्सारकारक की अर्हता उनके गहन अंतराय कर्म का बंधन था, जिससे उन्हें आहार- आयार-दिट्ठिवायत्थजाणए पुरिस-कारणविहिन्नू। पानी की प्राप्ति नहीं होती थी। दूसरे साधु भी यदि उनके साथ संविग्गमपरितंते, अरिहइ उस्सारणं काउं॥ जाते तो उन्हें भी आहार-पानी नहीं मिलता। (बृभा ७३२) एक बार ढंढण मुनि ने अभिग्रह कर लिया कि मुझे उत्सारकल्पकारक वही हो सकता है. अपनी लब्धि का आहार मिलेगा तो आहार लूंगा अन्यथा ० जो आचारांग और दृष्टिवाद का ज्ञाता है। (मुख्यतः दो नहीं। वे भिक्षा के लिए प्रतिदिन जाते, पर आहार का सुयोग आगम-ग्रंथ उत्सारणीय हैं)। नहीं मिलता। छह माह बीत गए। शरीर दुर्बल हो गया। जो उत्सारकल्प के योग्य पुरुष को जानता है। एक बार ढंढण मुनि भिक्षार्थ गए हुए थे। श्रीकृष्ण ने जो कारणविधिज्ञ है-उत्सारण का कारण विद्यमान है या भगवान् अरिष्टनेमि से प्रश्न किया-भगवन्! आपके १८००० नहीं-इसे जानता है। साधओं में कौन मनि साधना में सर्वश्रेष्ठ है। भगवान ने जो संविग्न-मोक्षाभिलाषी है। ढंढण मुनि का नाम बताते हुए कहा कि उसने अलाभ परीषह ० जो दिन-रात वाचना देने पर भी परिश्रांत नहीं होता। को जीत लिया है। ६. दृष्टिवाद का उत्सारण क्यों? __श्रीकृष्ण ने भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए ढंढण मुनि के कालियसुआणुओगम्मि गंडियाणं समोयरणहेउं। दर्शन किए, पुनः पुनः स्तवना की। इसे एक हलवाई ने देखा उस्सारिंति सुविहिया, भूयावायं न अन्नेणं॥ और सोचा-ये अवश्य ही पहंचे हए साधक हैं, जिनकी (बृभा ७४४) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १२१ उत्सारकल्प धर्मकथा की लब्धि से सम्पन्न शिष्य भी दीक्षापर्याय ० अवस्थित-स्वलिंग और मुनिचर्या में अवस्थित। .की न्यूनता के कारण दृष्टिवाद नहीं पढ़ सकता। इस कारण से ० मेधावी-मर्यादा मेधावी। प्रयोजन होने पर ग्रहण मेधावी वह कालिकश्रुत अनुयोग से धर्मकथा करता है और उसके लिए भी उत्सारणीय है। दृष्टिवाद के अन्तर्गत आने वाली कुलकरगंडिका तथा प्रतिबोधी-जितना बताया जाता है, उतना जान लेने में तीर्थंकरगंडिका आदि का अध्ययन उपयोगी है, किन्तु उद्देश- कुशल। समुद्देश की विधि के बिना उनका अध्ययन आदि नहीं कर योगकारक-सूत्र के अर्थ ग्रहण में प्रमाद न करने वाला। सकता-यह सोचकर सुविहित आचार्य गंडिकाओं का अन्य आचार्य-परम्परा के अनुसार-प्रबुद्ध, स्थिर, कालिकश्रुतानुयोग में समवतार करने के लिए दृष्टिवाद का संविग्न, गुरु को कभी न छोड़ने वाला, योगकारक, दुर्मेधा उत्सारण करते हैं, अन्य किसी कारण से नहीं। होने पर भी लब्धिसम्पन्न, परिणामक, विनीत, आचार्य का गुणोत्कीर्तन करने वाला, अनुकूल वर्तन (वैयावृत्त्य आदि) ७. उत्सारकल्प-योग्य के गण करने वाला और धर्मनिष्ठ-ऐसा महाभाग शिष्य उत्सारकल्प अभिगए पडिबद्धे, संविग्गे अ सलद्धिए। के योग्य होता है। अवट्ठिए अ मेहावी, पडिबुज्झी जोअकारए॥ ८. उत्सारण के विकल्प और प्रायश्चित्त सम्मत्तम्मि अभिगओ, विजाणओवा वि अब्भुवगओवा। अणभिगयमाइआणं, उस्सास्तिस्स चउगुरू होति। सज्झाए पडिबद्धो, गुरूसु नीएल्लएसुं वा॥ उग्गहणम्मि वि गुरुगा......॥ संविग्गो दव्व मिओ, भावे मूलुत्तरेसु उ जयंतो। योऽवग्रहणे समर्थ उत्तममेधावी. यावन्मानं सत्रं लद्धी आहाराइसु, अणुओगे धम्मकहणे य॥ तस्योद्दिश्यते तावदशेषमप्यर्थेन युक्तमवगृह्णाति, यो वा लिंग विहारेऽवट्ठिओ, मेरामेहावि गहणओ भइओ। वैरस्वामिवत् पदानुसारिप्रतिभो भूयस्तरमप्यनुसरति पडिबुज्झइ जं कत्थइ, कुणइ अ जोगं तदट्ठस्स॥ तस्योत्सारणीयम्। (बृभा ७३९ वृ) अभिगय थिर संविग्गे, गुरुअमुई जोगकारए चेव। दुम्मेहसलद्धीए, पडिबुज्झी परिणय विणीए॥ ___ जो अनभिगत, अप्रतिबद्ध, असंविग्न, अलब्धिक, आयरियवण्णवाई, अणुकूले धम्मसड्डिए चेव। अनवस्थित, अमर्यादामेधावी, अप्रतिबोधी, अयोगकारक, एतारिसे महाभागे, उस्सारं काउमरिहइ॥ अपरिणत, अविनीत, आचार्य का अवर्णवादी, आचार्य के __ (बृभा ७३३-७३८) अननुकूल तथा अधर्मश्रद्धालु है, उस शिष्य के लिए उत्सार कल्प करने वाले आचार्य चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। उत्सारकल्प के योग्य वही हो सकता है, जो अनेक जो सूत्र-अर्थ का शीघ्र अवग्रहण करने में कुशल है गुणों से युक्त होता है उस मेधावी के लिए निष्कारण उत्सारण करने पर आचार्य को ० अभिगत-दृढ़ सम्यक्त्वी अथवा तत्त्वविज्ञाता अथवा चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है। अथवा अवग्रहण की एक अन्य गुरुकुलवास को न छोड़ने के लिए संकल्पित । व्याख्या भी है० प्रतिबद्ध-परावर्त्तन, अनुप्रेक्षा आदि रूप स्वाध्याय में सतत जो समर्थ-उत्तम मेधावी होता है, उसके लिए जितनी उपयुक्त अथवा गुरु के प्रति स्थिर ममत्वानुबंध वाला अथवा मात्रा में सूत्र का उद्देश किया जाता है, उतनी मात्रा में वह सूत्र प्रव्रजित संबंधियों के प्रति अनुरक्त। के साथ अशेष अर्थ को भी ग्रहण कर लेता है। अथव ० संविग्न-मूल-उत्तर गुणों में उद्यमी भावसंविग्न है । सर्वत्र जिसकी वज्रस्वामी की भांति पदानुसारिणी प्रतिभा होती है, भयभीत मृग द्रव्य संविग्न है। वह और अधिक मात्रा में ग्रहण कर लेता है। उसके लिए सलब्धिक-आहार, वस्त्र आदि के उत्पादन की लब्धि से अवश्य उत्सारण करना चाहिए अन्यथा चतुर्गुरु प्रायश्चित्त युक्त तथा अनुयोग और धर्मकथा आदि की लब्धि से सम्पन्न। आता है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सारकल्प १२२ आगम विषय कोश-२ ९. आर्य-अनार्य उत्सारकल्पी पठनीय अध्ययन के अनोज और ओज उद्देशकों के अज्जस्स हीलणा लज्जणाय गारविअकारणमणज्जे। आधार पर वाचना-परिमाण होता है। अनोज का अर्थ है सम आयरिए परिवाओ, वोच्छेदो सुतस्स तित्थस्स॥ और ओज का अर्थ है विषम। (बुभा ७२५) सम (२, ४, ६ आदि) उद्देशक हों तो प्रतिदिन दो-दो यदि उत्सारकल्पी आर्य हो और उसे कोई 'वाचक' उद्देशक की वाचना दे। जैसे-कल्प के छह उद्देशक हैं। एक दिन में दो उद्देशकों की वाचना दे। प्रथम पौरुषी में प्रथम उद्देशक कहता है तो उसे हीलना का अनभव होता है क्योंकि वह मन । ही मन जानता है कि मैं कैसा वाचक? वह प्रश्न का सही का उद्देश-समुद्देश कर द्वितीय उद्देशक भी पढ़ाये। दसरे प्रहर में दोनों उद्देशकों का अर्थ कहे। चौथे प्रहर उत्तर नहीं आने पर लज्जा का अनभव करता है। इसके में प्रथम उद्देशक की अनुज्ञा देकर द्वितीय उद्देशक का समुद्देश विपरीत जो उत्सारकल्पी अनार्य होता है, उसे वाचक कहने करे और अनुज्ञा दे। इस विधि से तीन दिन में छह उद्देशकों पर वह गौरव का अनुभव करता है। की वाचना दे। प्रश्नकर्ता सम्यक समाधान न मिलने पर उसके आचार्य जिस अध्ययन में उद्देशकों की संख्या विषम (३, ५, ७ का परिवाद करते हैं। श्रुत के परावर्तन के अभाव में श्रुत का आदि) हो तो अंतिम दिन एक उद्देशक की वाचना दे। जैसेव्यवच्छेद हो जाता है। श्रुत के व्यवच्छेद से तीर्थ का भी शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में सात उद्देशक हैं। तीन दिनों में छह व्यवच्छेद हो जाता है। उद्देशक उद्दिष्ट कर चौथे दिन सातवें उद्देशक का प्रथम प्रहर में १०. उत्सारकाल : अकालवर्जन नहीं उद्देश-समुद्देश कर चौथे प्रहर में उसकी अनुज्ञा दे। सज्झायमसज्झाए, व उहिसे काले। कछ आचार्य मानते हैं-यदि शिष्य मेधावी है, तो वह (बृभा ७४५) जितने परिमाण में अध्ययन करता है, उसे उतने उद्देशकों की उत्सारकल्प करते समय स्वाध्यायिक हो या अस्वा- वाचना दे (दो, चार अथवा सभी उद्देशकों की वाचना एक दिन ध्यायिक, शुद्धकाल हो या अशुद्धकाल, विवक्षित श्रुत की में दी जा सकती है)। निरंतर वाचना दी जाती है, किंचित् भी व्याघात नहीं किया १२. योगवहन एवं आहार जाता। एगंतरमायंबिल, विगईए मक्खियं पि वज्जेति। ११. वाचना परिमाण : ओज अनोज उद्देशक ..."अप्पाहारो परिहार मोअ जह अप्पनिद्दो अ॥ """दो दो अ अणोएसुं, ओएसु उ अंतिम एक्कं। दिति पणीयाहारं, न य बहुगं मा हु जग्गतोऽजिण्णं। ... जावइअं च अहिज्जइ, तावइयं उद्दिसे केई॥ मोआइनिसग्गेसु अ, बहुसो मा होज्ज पलिमंथो॥ अणोया णाम समा उद्देसया। जधा कप्पस्स, तस्स (बृभा ७४६, ७४७, ७५०) दिणे दिणे दो दो उद्देसया उद्दिस्संति, पढमपोरिसीए एगो ० योगवहन-आचार आदि के उद्देश-समुद्देश काल में एक उद्दिट्ठो समुट्ठिो य, ताधे बितियं उद्दिसति, बितियपोरिसीए दिन आचाम्ल और एक दिन निर्विकृतिक तप किया जाता है, तेसिं चेव सो अत्थो कधिज्जति। चरिमपोरिसीए तं पढमं विकृति से खरंटित पदार्थ का भी वर्जन किया जाता है। अणुयाणित्ता बितियं समुद्दिसति अणुयाणति य। ० आहार-अध्येता को अल्प आहार देना चाहिए। जिससे ओया णाम विसमा। जहा सत्थपरिणाए, तीए छ उच्चार-प्रस्रवण की अल्पता रह सके। वह निद्रा भी अल्प उद्देसया उद्दिसित्ता तिहिं दिवसेहि, चउत्थे दिवसे एगो ले, आचार्य को वैसा प्रयत्न करना चाहिये । गुरु उत्सारकल्प चेव।तं पढमपोरिसीए उद्दिठ्ठ-समुट्ठि करेत्ता चरिमाए अणु- करने वाले शिष्य को स्निग्ध और मधुर आहार देते हैं, जिससे जाणति। (बृभा ७४५, ७४६ चू) वह दिन-रात सुखपूर्वक दृष्टिवाद आदि सूत्रों की अनुप्रेक्षा Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १२३ उपधि कर सके। प्रणीत आहार भी बहुत मात्रा में नहीं दिया जाता, यत्राध्ययने आगाढादियोगलक्षणमुपधानमुक्तं तत्तत्र जिससे सूत्रार्थ के निमित्त रात्रिजागरण करने पर भी अजीर्ण कार्य, तत्पूर्विकस्यैव श्रुतग्रहणस्य सफलत्वात्। नहीं होता। स्वल्प मात्रा में प्रणीत आहार करने से नींद भी ___ (व्यभा ६३ की वृ) कम हो जाती है। रूक्ष भोजन करने से प्रस्रवण आदि का जो अध्ययन को पुष्ट करता है, वह उपधानतप है। बार-बार व्युत्सर्ग करना पड़ता है, जिससे अध्ययन में व्याघात जिस श्रुतग्रंथ के अध्ययन काल में जो आगाढ या होता है, इसलिए अल्प प्रणीत आहार दिया जाता है। अनागाढ योग रूप उपधान निर्धारित है, वह अवश्य करना १३. अव्याक्षेप : भिक्षाटन आदि द्वारा वैयावृत्त्य चाहिये। उपधानपूर्वक श्रुतग्रहण करने से ही श्रुतोपलब्धि आहारे उवकरणे, पडिलेहण लेव खित्तपडिलेहा।" सफल होती है। (जैसे-अशकटपिता द्र आचार)। हिंडाविंति न वा णं, अहवा अन्नट्ठया न सो अडइ। * आगाढयोग-अनागाढयोग। द्र स्वाध्याय पेहिंति व से उवहिं, पेहेइ व सो न अन्नेसिं॥ एमेव लेवगहणं, लिंपइ वा अप्पणो न अन्नस्स। उपधि-मुनि के उपयोग में आने वाले वस्त्र, पात्र, खेत्तं च न पेहावे, न यावि तेसोवहिं पेहे ॥ रजोहरण आदि आवश्यक उपकरण। (बृभा ७४७-७४९) | १. उपधि के प्रकार आचार्य उत्सारकल्पी को भिक्षाटन, उपकरण-प्रति- २. परिहारविशद्धिक आदि के औधिक उपधि लेखन, लेपग्रहण और क्षेत्रप्रतिलेखन संबंधी व्याक्षेपों से मुक्त ___ * जिनकल्प की उपधि द्र जिनकल्प रखते हैं। ३. गणचिंतक के पास सर्व उपधि ० भिक्षाटन-आचार्य उसे भिक्षा के लिए नहीं भेजते । अपेक्षा ४. स्थविर की उपधि : दूसरी बार अवग्रह ग्रहण ५. उपकरण सहित विहार होने पर वह अपने लिए भिक्षा ले आता है किन्तु आचार्य, ___ * उपधि का गुरु आज्ञा से ग्रहण द्र आज्ञा ग्लान आदि के लिए पर्यटन नहीं करता। * फल बताकर उपधि लेना निषिद्ध द्रपिण्डैषणा ० प्रतिलेखनं-उसके अध्ययन में बाधा न आये-इस दृष्टि से ६. वर्षाकाल में उपधि का अग्रहण अन्य साधु उसके उपकरणों का प्रतिलेखन करते हैं। वह ७. उपहत उपधि का अग्रहण दूसरों की उपधि की प्रत्युपेक्षा नहीं करता। ० विहार अवधावन से उपहत उपधि ० लेपग्रहण-इसी प्रकार वह लेप लाने नहीं जाता। उसके ०लिंग अवधावन से उपहत उपधि पात्रलेपन का कार्य भी अन्य साधु करते हैं। किसी कारणवश |८. उपधि परिष्ठापन की प्राचीन विधि यह संभव न हो तो वह अपने पात्रों पर स्वयं लेप लगाता है, ९. कृत्स्न वस्त्र के प्रकार अन्य साधुओं के पात्र-लेप का कार्य नहीं करता। ० अकृत्स्न वस्त्र कल्पनीय ०क्षेत्रप्रत्युपेक्षा क्षेत्रप्रतिलेखना के लिए उसे नहीं भेजा जाता * जांगमिक आदि वस्त्र और वह क्षेत्रप्रतिलेखकों की उपधि की प्रत्यपेक्षा भी नहीं * मूल्यवान् वस्त्रों के प्रकार द्र वस्त्र * चर्ममय प्रावरण के प्रकार करता। १०. सुलक्षण वस्त्र का प्रयोजन : द्रमक आदि दृष्टांत उद्घाटा पौरुषी-द्वितीय-तृतीय प्रहर। द्र स्वाध्याय ११. वस्त्रैषणा की चार प्रतिमाएं उपधान-श्रुत के अध्ययन काल में किया जाने वाला १२. वस्त्र प्राप्ति के लिए निवेदन १३. वस्त्र ग्रहण से पूर्व तीन पृच्छा तप अनुष्ठान। |१४ वस्त्र ग्रहण के अवग्रह उपदधाति पुष्टिं नयति अनेनेत्युपधानं तपः यद् - द्र वस्त्र Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधि १२४ आगम विषय कोश-२ २५. वस्त्र विक्रिया निषेध १६. साध्वी प्रायोग्य वस्त्र का ग्रहण-परीक्षण ० गणधरनिश्रा में वस्त्र ग्रहण १७. वस्त्र ग्रहण किससे? १८. वस्त्र-उपयोगविधि १९. वस्त्र सीवन की अविधि-विधि २०. सूई का स्वरूप और उपयोग २१. सूई आदि सौंपने की विधि २२. चिलिमिलिका के प्रकार और प्रमाण ० चिलिमिलिका का प्रयोजन २३. वस्त्र-अपहरणकाल में उपेक्षा भाव ० अचेल सचेल की अवमानना न करे २४. वस्त्र-पात्र एषणा हेतु क्षेत्रगमन-सीमा २५. तीन से अधिक थिग्गल-निषेध २६. अतिरिक्त पात्र-वस्त्र धारण की अवधि २७. पात्र के प्रकार ० पात्र-परिधि का मापन २८. पात्रैषणा की चार प्रतिमाएं २९. धारणीय पात्र ग्राह्य ३०. सलक्षण-अलक्षण पात्र ० पात्र का संस्थान और लाभ-हानि ३१. अविधिबंध पात्र का निषेध ३२. घटीमात्रक का स्वरूप और उपयोग ३३. आर्यरक्षित द्वारा मात्रक अनुज्ञा ०जिनकल्पी के एक पात्र, स्थविर के मात्रक भी ० वर्षाकाल में तीन मात्रक ३४. मूल्यवान् पात्रग्रहण का निषेध ० गृहिपात्र के प्रकार ० गृहिपात्र में खाने का निषेध ३५. पात्र प्राप्ति के स्थान |३६. लेप के प्रकार : तज्जात-युक्ति-द्विचक्र ___० लेप के प्रकार : उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्य ३७. पात्रलेप क्यों? सती का दृष्टांत ३८. बिना आज्ञा पात्रग्रहण से प्रायश्चित्त ३९. वस्त्र-पात्र-लेप-कल्पिक ४०. प्रतिपूर्ण क्रमणिका के प्रकार ४१. क्रमणिका का निषेध क्यों? ४२. क्रमणिका पहनने के हेतु : चक्षुदौर्बल्य आदि ४३. रजोहरण के प्रकार __० औणिक रजोहरण उपयोगी ४४. रजोहरण और पादलेखनिका का प्रयोजन १ उपधि के प्रकार ओहे उवग्गहम्मि य, दुविधो उवधी समासतो होति।.. (निभा १३८७) उपधि के दो प्रकार हैं१. ओघ उपधि-प्रतिदिन काम में आने वाले उपकरण। २. उपग्रह उपधि-प्रयोजन विशेष से उपयोग में आने वाले उपकरण। २. परिहारविशुद्धिक आदि के औधिक उपधि जिणाणं परिहारविसुद्धियाणं अहालंदियाणं पडिमापडिवण्णगाणं, एतेसिं ओहितो चेव उवही।"परिहारविसुद्धिगादी णियमा पडिग्गहधारी पाउरणं।धितिसंघयणअभिग्गहविसेसओ भयणिज्जं। (निभा ५९०० की चू) जिनकल्पिक, परिहारविशुद्धिक, यथालंदिक और प्रतिमाप्रतिपन्नक के औधिक उपधि ही होती है। वे नियमतः पात्रधारी और सप्रावरण होते हैं। धृति, संहनन, अभिग्रह आदि के भेद से उनमें नानात्व होता है। (स्थविरकल्पी साधुओं के चौदह प्रकार की और साध्वियों के पचीस प्रकार की औधिक उपधि होती है। औपग्रहिक उपधि अनेक प्रकार की होती है। द्र श्रीआको १ उपधि) ३. गणचिंतक के पास सर्व उपधि । भिण्णं गणणाजुत्तं, पमाण इंगाल-धूमपरिसुद्धं । उवहिं धारए भिक्खू, जो गणचिंतं न चिंतेइ॥ गणचिंतगस्स एत्तो, उक्कोसो मज्झिमो जहण्णो य। सव्वो वि होइ उवही, उवग्गहकरो महाणस्स॥ (निभा ५८१०, ५८११) जो गणचिन्ता नहीं करता है, सामान्य भिक्षु है, वह गणनाप्रमाण और प्रमाणप्रमाण से युक्त भिन्न (खंडित या छिन्न) उपधि धारण करे तथा राग-द्वेष से मक्त होकर उसका परिभोग करे। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १२५ उपधि जो गणचिंतक (गणावच्छेदक आदि) है, उसके पास पाडिहारियं वत्थं जाएज्जा-एगाहेण वा पंचाहेण वा उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य-सब प्रकार की उपधि होती है, विप्पवसिय-विप्पवसिय उवागच्छेज्जा, तहप्पगारंवत्थं णो उससे गण का उपग्रह होता है। अप्पणा गिण्हेज्जा,""वत्थं ससंधियं तस्स चेव णिसिरेज्जा, ४. स्थविर की उपधि : दूसरी बार अवग्रह-ग्रहण णो णं साइजेज्जा॥ थेराणं थेरभूमिपत्ताणं कप्पइ दंडए वा भंडए वा "तहप्पगारं पडिग्गहं....'णो णं साइज्जेज्जा॥ छत्तए वा मत्तए वा लट्ठिया वा चेले वा चेलचिलिमिलिया (आचूला ५/४६; ६/५४) वा चम्मे वा चम्मकोसए वा चम्मपलिच्छेयणाए वा अवि- कोई भिक्षु अथवा भिक्षुणी (दूसरे भिक्षु से) मुहूर्त रहिए ओवासे ठवेत्ता गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए भर (नियतकाल) के लिए प्रातिहारिक वस्त्र की याचना पविसित्तए वा निक्खमित्तए वा।कप्पड़ ण्हं संनियट्टचारीणं करे-वह अकेला एक दिन यावत् पांच दिन अन्यत्र प्रवास दोच्चं पिओग्गहं अणण्णवेत्ता परिहरित्तए॥ (व्य ८/५) कर लौटे, उस प्रकार के (उपहत) वस्त्र को (समर्पित करने पर) वस्त्रस्वामी स्वयं ग्रहण न करे... वैसे उपहत स्थविरभूमिप्राप्त स्थविर दंड, भांड, छत्र, मात्रक, वस्त्र को उसी को (उपहत करने वाले को ही) सौंप दे, यष्टिका, वस्त्र, वस्त्र की चिलिमिली, चर्म, चर्मकोश वस्त्रस्वामी उसका परिभोग न करे। (उपानद्) और चर्मपरिच्छेदनक रख सकते हैं। वे इन्हें इसी प्रकार उपहत पात्र भी ग्रहण न करे। अविरहित स्थान में रखकर (किसी को संभलाकर या ० विहार अवधावन से उपहत उपधि सूचित कर या उनकी सुरक्षा में नियुक्त कर) गृहपति के घर भिक्षा के लिए जा-आ सकते हैं। भिक्षाचर्या से लौटकर खग्गूडेण उवहते, अमणुण्णेणागयस्स वा जं तु। असंभोइयउवगरणं दूसरी बार (नियुक्त व्यक्ति से) आज्ञा लेकर उनका उपयोग तिट्ठाणे संवेगो, सापेक्खो नियट्टो य तद्दिवससुद्धो। कर सकते हैं। मासो वुत्थ विगिंचण............॥ ५. उपकरण सहित विहार संविग्गाण सगासे, वुत्थो तेहिमणुसासिय णियत्तो। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे णो उवहम्मइ............। सव्वं भंडगमायाए गामाणुगामं दूइज्जेज्जा॥ संविग्गादणुसट्ठो, तद्दिवसणियत्तो जइ विण मिलेज्जा। (आचूला १/३९) ण य सज्जइ वइगाइसु सुचिरेणऽवि तो न उवहम्मे। भिक्षु अथवा भिक्षुणी ग्रामानुग्राम परिव्रजन करते हुए एगाणियस्स सुवणे, मासो उवहम्मए य से उवही।" सब भण्डोपकरण साथ में लेकर ग्रामानुग्राम परिव्रजन करे। (निभा ४५८१, ४५८२, ४५८८-४५९०) ६. वर्षाकाल में उपधि का अग्रहण वक्र सामाचारी वाले से उपधि उपहत होती है। पढमसमोसरणं वरिसाकालो भण्णति। तत्थ य जो पार्श्वस्थ आदि असांभोजिक के पास से आया है भगवयाणाणुण्णायं उवहिगहणं।तम्मि अणणण्णातेगहणं और उद्यत विहार के अभिमख है. उसके असांभोजिक करेंतस्स अदत्तं भवति। (निभा ३३५ की चू) उपकरण उपहत होते हैं। कोई साधु गच्छ से निर्गत हो गया. किन्त संयम वर्षाकाल को प्रथम समवसरण कहा जाता है। उस सापेक्षचित्त वाला वह त्रिस्थान में संवेग (ज्ञान, दर्शन, काल में उपधि का ग्रहण भगवान् द्वारा अनुज्ञात नहीं है। चारित्र की शुद्धि और वृद्धि की पिपासा) उत्पन्न होने पर अत: उस काल में उपधि ग्रहण करने से अदत्तादान विरमण उसी दिन गच्छ में लौट आता है, तो उसकी उपधि उपहत व्रत भंग होता है। नहीं होती। यदि वह असंविग्नों के साथ रहकर आता है तो ७. उपहत उपधि का अग्रहण उसको मासलघु प्रायश्चित्त आता है और उसकी उपहत उपधि से भिक्खूवा भिक्खुणी वा एगइओ मुहुत्तगं-मुहत्तगं परिष्ठापनीय होती है। लहुगो Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधि १२६ आगम विषय कोश-२ जो अपने गच्छ से उन्निष्क्रमण कर अन्य सांभोजिक पहनिग्गयादियाणं, विजाणणट्ठाय तत्थ चोदेति। संविग्नों के पास चला जाता है और उनके द्वारा अनुशासित सुद्धासुद्धनिमित्तं, कीरतु चिंधं इमं तु तहिं ॥ होने पर लौट आता है तो उसकी उपधि उपहत नहीं होती, एगा दो तिन्नि वली, वत्थे कीरंति पाय-चीराणि। केवल लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। पार्श्वस्थ आदि के छुब्भंतु चोदगेणं, इति उदिते बेति आयरिओ॥ पास रहने वाले की उपधि उपहत होती है। संविग्न से सुद्धमसुद्धं एवं, होति असुद्धं च सुद्ध वातवसा। अनुशिष्टि प्राप्त कर उसी दिन लौटने वाला साधु यद्यपि उस तेण ति दुगेग गंथी, वत्थे पादम्मि रेहा ऊ॥ दिन गच्छ में सम्मिलित नहीं होता है किन्तु वजिका आदि (व्यभा ३५८४-३५८७) स्थानों में प्रतिबद्ध भी नहीं होता है तो उसकी उपधि दीर्घ काल उपधिपरिष्ठापनिका के दो प्रकार हैं-जाता और तक भी उपहत नहीं होती। अजाता। जाता का अर्थ है अभियोगकृत (वशीकरणयुक्त) जो पार्श्वस्थ का परिहार करने पर भी यदि रात्री में अथवा मलगण-उत्तरगण से अशद्ध उपधि।। अकेला सोता है तो उसकी उपधि उपहत हो जाती है। दोषों से युक्त उपधि का छेदन-भेदन कर तथा ० लिंग अवधावन से उपहत उपधि निर्दोष उपकरणों का अक्षत रूप में परिष्ठापन करना चाहिए। नीसंकिओ वि गंतूण दोहि वग्गेहि चोदितो एति। मार्गवर्ती साधुओं की उपहतउपधि संबंधी जानकारी तक्खण णितं ण हम्मे, तहि परिणत वुत्थ उवहम्मे के लिए शुद्ध और अशुद्ध उपधि को चिह्नित करना चाहिए। अत्तट्ठाए परस्स व पडिलेहति रक्खिओ वि हु ण हम्मे।" मूलगुण से अशुद्ध वस्त्र पर एक चक्र, उत्तरगुण से अशुद्ध (निभा ४५९९, ४६००) पर दो चक्र तथा मूल-उत्तरगुण से शुद्ध वस्त्र पर तीन चक्र 'मैं अवश्य उत्प्रव्रजित होऊंगा'-इस निश्चय के करके परिष्ठापन करना चाहिए। साथ अवधावन करने वाला साधु संविग्न और असंविग्न-- मूलगुण से अशुद्ध पात्र में एक चीवरखंड या एक दोनों वर्गों से प्रतिबोध प्राप्त कर पुनः प्रव्रज्या हेतु पार्श्वस्थ प्रस्तर, उत्तरगुण से अशुद्ध पात्र में दो चीवरखंड या दो प्रस्तर आदि के पास से तत्क्षण निकल जाता है तो उसकी उपधि तथा शुद्ध पात्र में तीन चीवर या तीन प्रस्तर डालकर परिष्ठापन उपहत नहीं होती। करना चाहिए। 'मैं पार्श्वस्थ आदि के पास रहूंगा'-इस भाव में हवा आदि के कारण चक्र के बनने और चीवर के परिणत होकर वह एक रात या क्षणमात्र भी वहां रहता है उड़ने-गिरने से शुद्ध वस्त्र-पात्र अशुद्ध हो सकते हैं, अशुद्ध तो उसकी उपधि उपहत होती है। जो उपकरणों को लेकर शुद्ध हो सकते हैं। अतः परिष्ठापन की यह विधि होनी अवधावन करता है. गहस्थ बन जाता है और 'मैं पनः चाहिए-मूल-उत्तरगुण से शुद्ध वस्त्र में तीन गांठ, उत्तरगुण मुनि बनूंगा' इस भाव से उन उपकरणों का संरक्षण करता से अशुद्ध में दो तथा मूलगुण से अशुद्ध में एक गांठ लगाकर है या दूसरे मुनियों को दूंगा'-इस भाव से उनकी प्रतिलेखना विसर्जित करे। इसी प्रकार पात्र को तीन, दो या एक रेखा से करता है या नहीं भी करता है, तब भी वे उपकरण उपहत चिह्नित कर विसर्जित करे। नहीं होते। इसका कारण यह है कि वह व्यक्ति गृहस्थ के (उपकरणों का परिष्ठापन गर्त. तरु. तडाग. कप तुल्य है। जहां चारित्र नहीं है, वहां उपकरणों के उपघात आदि के समीप किया जाता था। अशिव आदि कारणों से का प्रश्न ही नहीं है। उपधि की अत्यंत अपेक्षा होने पर विसर्जित उपधि को पन: ८. उपधि परिष्ठापन की प्राचीन विधि ग्रहण कर लिया जाता था।-व्यभा ३५८८ की वृ) दुविहा जातमजाता, जाता अभियोग तह असुद्धा य। ९. कृत्स्न वस्त्र के प्रकार अभियोगादी छेत्तुं, इतरं पुण अक्खुतं चेव॥ दुविहं तु दव्वकसिणं, सकलक्कसिणंपमाणकसिणंचा Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १२७ उपधि घण मसिणं णिरुवहयं, जं वत्थं लब्भते सदसियागं। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी अकृत्स्न वस्त्र ग्रहण-धारण कर एतं तु सकलकसिणं, जहण्णगं मज्झिमुक्कोसं॥ सकते हैं, कृत्स्न नहीं। वित्थारा-ऽऽयामेणं, जं वत्थं लब्भए समतिरेगं। १०. सुलक्षण वस्त्र का प्रयोजन : द्रमक आदि दृष्टांत एयं पमाणकसिणं ............॥ किं लक्खणेण अम्हं, सव्वणियत्ताण पावविरयाणं। जं वत्थ जम्मि देसम्मि दुल्लहं अच्चियं व जं जत्थ। लक्खणमिच्छंति गिही, धण-धण्णे-कोसपरिवुड्डी॥ तं खित्तजुयं कसिणं .......॥ लक्खणहीणो उवही, उवहणतीणाण-दसण-चरित्ते। जं वत्थ जम्मि कालम्मि, अग्घितं दुल्लभं व जं जत्थ। तम्हा लक्खणजुत्तो, गच्छे दमएण दिटुंतो॥ तं कालजुतं कसिणं थाइणि वलवा वरिसं, दमओ पालेति तस्स भाएणं। दुविहं च भावकसिणं, वण्णजुतं चेव होति मोल्लजुयं" चेडीघडण निकायण, उविट्ठ दुम चम्म भेसणया॥ मुल्लजुयं पिय तिविहं, जहण्णगं मज्झिमंच उक्कोसं। दुण्ह वितेसिंगहणं, अलं मिअस्सेहि अस्सिगं भणइ। जहण्णेणऽट्ठारसगं, सतसाहस्सं च उक्कोसं॥ वढइ भच्चइ धूयापयाण कुलएण ओवम्मं ।। (बृभा ३८८१-३८८६, ३८९०) (बृभा ३९५७-३९६०) १. द्रव्यकृत्स्न-इसके दो प्रकार हैं-सकलकृत्स्न और प्रमाण- ... शिष्य ने पूछा-भंते! गृहस्थ सारंभ और सपरिग्रह होते कृत्स्न हैं। वे धन-धान्य-कोश की वृद्धि चाहते हैं, इसलिए वस्तु सकलकृत्स्न-तन्तुओं से सान्द्र, स्पर्श से सुकुमार, निरुपहत ग्रहण करने से पूर्वलक्षण-अलक्षण, संस्थान आदि की विचारणा (अंजन-खंजन आदि से निर्दोष)और सदशाक (किनारी सहित) करते हैं। हम मुनि आरंभ और परिग्रह से मुक्त हैं, फिर हम वस्त्र- मुखपोतिका आदि जघन्य, पटलक आदि मध्यम और वस्त्र के लक्षण-अलक्षण की मीमांसा क्यों करें? कल्प आदि उत्कृष्ट हैं। आचार्य ने कहा-प्रशस्त वर्ण, संस्थान आदि से रहित प्रमाणकृत्स्न-विस्तार और आयाम में प्रमाण से अतिरिक्त वस्त्र। उपधि धारण करने से साधओं के ज्ञान, दर्शन और चारित्र का २. क्षेत्रकृत्स्न-जो वस्त्र जिस क्षेत्र में दुर्लभ अथवा बहुमूल्य हनन होता है. अत: लक्षणयक्त उपधि धारण करना चाहिए। है, वह क्षेत्रकृत्स्न कहलाता है। जैसे-पूर्व देश में उत्पन्न द्रमक दृष्टांत-पारस देश के एक व्यक्ति के पास प्रतिवर्ष वस्त्र लाटदेश में मूल्यवान् है। प्रसव करने वाली अनेक घोड़ियां थीं। उसके पास अश्वों की ३. कालकृत्स्न-जो वस्त्र जिस काल में मूल्यवान् अथवा प्रचुरता हो गई। उनकी सार-संभाल के लिए उसने एक दुर्लभ है, वह कालकृत्स्न कहलाता है, जैसे-ग्रीष्म में काषायिक, नौकर को इस शर्त पर रखा कि वर्ष के अंत में उसकी शिशिर में प्रावार और वर्षाऋतु में कुंकुमखचित आदि वस्त्र। मनपंसद के दो अश्व उसे दे दिए जाएंगे। अश्वरक्षक का ४. भावकृत्स्न-इसके दो प्रकार हैं-वर्णयुत और मूल्ययुत। अश्वस्वामी की कन्या से साहचर्य हो गया था। एक वर्ष पूरा - मूल्ययुत वस्त्र के तीन प्रकार हैं-जघन्य अठारह रुपये हुआ। अश्वस्वामी ने उसे कहा-जाओ, दो मनपसंद अश्व ले का, उत्कृष्ट एक लाख रुपये का और इनके मध्यवती मध्यम लो। वह अश्वों के लक्षण नहीं जानता था। उसने स्वामी की कन्या से लक्षणयुक्त अश्वों के विषय में पूछा । वह बोली० अकृत्स्न वस्त्र कल्पनीय तुम प्रतिदिन अश्वों को लेकर जंगल में जाते हो। जब अश्व नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा कसिणाइं एक विशाल वृक्ष के नीचे बैठे हों तब तुम चमड़े के कुतप में वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ पत्थर भरकर वृक्ष के ऊपरी भाग से उसे गिराना और पटहवादन कप्पइ ........... अकसिणाई वत्थाई ........॥ करना। जो अश्व इस क्रिया से त्रस्त न हों, वे सुलक्षण अश्व (क ३/७,८) हैं। उसने वैसा ही किया और स्वामी से उन दो अश्वों को Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधि १२८ आगम विषय कोश-२ मांगा, जो इस प्रक्रिया से त्रस्त नहीं हुए थे। स्वामी ने १. उद्दिष्ट वस्त्र-गुरु के समक्ष प्रतिज्ञात वस्त्र को गृहस्थों से सोचा-ये दोनों अश्व समस्त लक्षणों से युक्त हैं। इन्हें दे मांगना। देने पर शेष क्या रहेगा? इसलिए उससे कहा-इन दो २. प्रेक्षावस्त्र-अवलोकन करते हुए वस्त्र की याचना करना। अश्वों के अतिरिक्त तुम दो, चार, दस अश्व ले लो। ३.अन्तरावस्त्र-गृहस्थ पुरातन अंतरीय-उत्तरीय वस्त्रयुगल को अश्वरक्षकं अपनी मांग पर अडिग रहा। अश्वस्वामी ने स्थापित करना चाहता है, किन्तु अभी तक स्थापित नहीं सोचा-यदि मैं इसका अपनी कन्या से विवाह कर इसे किया है और नया वस्त्रयुगल धारण कर लिया है-इस घरजामाता बनाऊं तो ये अश्व यहीं रह जाएंगे। उसने अपने अंतराल में उस वस्त्र की याचना करना। मन की बात अपनी पत्नी से कही। वह ऐसा करना नहीं ४. उज्झितधर्मा-परित्यागार्ह वस्त्र की गवेषणा करना। चाहती थी। तब अश्वस्वामी ने उसे समझाने के लिए एक अभिग्रह (प्रतिज्ञाविशेष) की भाषा में इन्हें इस प्रकार दृष्टांत कहा-एक बढ़ई ने अपनी कन्या का विवाह अपने कहा जा सकता हैभानजे से कर उसे गृहजामाता के रूप में घर में ही रखा। १. मैं उद्दिष्ट (नामोल्लेखपूर्वक संकल्पित) वस्त्र की याचना वह आलसी था। पत्नी के कहने पर वह कुठार लेकर करूंगा। जंगल में जाता परन्तु काष्ठ बिना लिए ही लौट आता। २. मै दृष्ट वस्त्रों की याचना करूंगा। छह महीने बीत गए। एक दिन उसे 'कृष्णचित्रकाष्ठ' ३. मैं शय्यातर के द्वारा भुक्त वस्त्रों की याचना करूंगा। प्राप्त हुआ। उसने उससे धान्य मापने का कुलक बनाया और ४. मैं छोड़ने योग्य वस्त्रों की याचना करूंगा। उसे एक लाख मद्राओं में बेचने के लिए अपनी पत्नी को ये वस्त्र की चार प्रतिमाएं-ग्रहण विधियां हैं। बाजार में भेजा। एक लाख मूल्य में उसे कौन खरीदे ? अंत में गच्छवासी (स्थविरकल्पी) मुनि के लिए ये चारों एक बुद्धिमान् ग्राहक वणिक् आया। वह पारखी था। उस प्रतिमाएं विहित हैं। जिनकल्पी मुनि के लिए यावज्जीवन धान्यमापक पात्र का यह गुण था कि उससे जो धान्य मापा अंतिम दो प्रतिमाएं विहित हैं, उनमें से भी एक का अभिग्रह जाता, वह कम नहीं होता था। उस वणिक् ने लाख मुद्राएं होता है (यदि तीसरी प्रतिमा का ग्रहण होता है तो चौथी का देकर पात्र खरीद लिया। वर्धकी के जामाता ने अपने कुटुम्ब नहीं होता और यदि चौथी का ग्रहण होता है तो तीसरी का को धन-धान्य से समृद्ध बना दिया। नहीं होता)। ११. वस्त्रैषणा की चार प्रतिमाएं १२. वस्त्र प्राप्ति के लिए निवेदन ..."भिक्खू जाणेज्जा चउहिं पडिमाहिं वत्थं जं जस्स नत्थि वत्थं, सो उ निवेएड तं पवत्तिस्स। एसित्तए।"पढमा पडिमा उद्दिसिय-उद्दिसिय वत्थं सो वि गुरूणं साहइ, निवेइ वावारए वा वि॥ जाएज्जा ॥""दोच्चा पडिमा....पेहाए वत्थं जाएज्जा....॥ (बृभा ६१५) ""तच्चा पडिमावत्थं जाणेज्जा, तंजहा-अंतरिज्जगंवा जिसके पास जो वस्त्र नहीं है, वह उसकी प्राप्ति के उत्तरिज्जगंवा"॥"चउत्था पडिमा"उज्झियधम्मियं वत्थं लिए प्रवर्तक को निवेदन करता है। प्रवर्तक आचार्य को जाएज्जा"॥ (आचूला ५/१६-२०) कहता है। तब आचार्य आभिग्रहिक मुनि से (जिसने समस्त गच्छ के लिए वस्त्र-पात्रों की पूर्ति करने का अभिग्रह ले रखा उद्दिसिय पेह अंतर, उज्झियधम्मे चउत्थए होइ। हो) वस्त्र लाने के लिए कहते हैं। यदि आभिग्रहिक मुनि न चउपडिमा गच्छ जिणे, दोण्हऽग्गहऽभिग्गहऽन्नयरा॥ हो, तब आचार्य वस्त्रार्थी मुनि से वस्त्र की गवेषणा करने के __ (बृभा ६०९) लिए कहे और यदि वह लाने में समर्थ न हो तो दूसरे मुनि मुनि प्रतिमाचतुष्टयी से वस्त्र की एषणा करे- को वस्त्र-गवेषणा के लिए कहे। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ १३. वस्त्र ग्रहण से पूर्व तीन पृच्छा विउसग्ग जोग संघाडएण भोइयकुले तिविह पुच्छा । कस्स इमं किं व इमं कस्स व कज्जे (बृभा २७९६) ॥ १२९ संघाटक (मुनिद्वय) उपयोग संबंधी कायोत्सर्ग कर भिक्षा के लिए जाए। भोजिक आदि कुलों में प्रवेश करने पर यदि गृहपति वस्त्र के लिए निमंत्रित करे तो मुनि वस्त्रग्रहण से पूर्व त्रिविध पृच्छा करे १. यह वस्त्र किसका है ? २. यह क्या है ? ३. किस प्रयोजन से तुम इसे दे रहे हो ? १४. वस्त्र ग्रहण के अवग्रह निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अप्पविट्ठे केइ वत्थेण उवनिमंतेज्जा, कप्पड़ से सागारकडं गहाय आयरियपायमूले ठवेत्ता दोच्चं पि ओग्गहं अणुण्णवेत्ता परिहारं परिहरित्तए । (क १/३८) संघाडए पविट्ठे, रायणिए तह य ओमरायणिए । जं लब्भइ पाओग्गं, रायणिए उग्गहो होइ ॥ (बृभा २८१०) गृहपति के घर में पिंडपात की प्रतिज्ञा से अनुप्रविष्ट मुनि को कोई गृहस्थ वस्त्र से उपनिमंत्रित करे तो मुनि उस वस्त्र को इस धारणा से ग्रहण करे कि यह वस्त्र आचार्य का है, मेरा नहीं । आचार्य मुझे या अन्य जिस किसी को देंगे या स्वयं उसका उपयोग करेंगे, यह उसी का होगा - इस सविकल्प वचन व्यवस्था से उसे ग्रहण कर आचार्य के चरणों में उसे समर्पित करे। यदि आचार्य उसे ही दे देते हैं तो वह दूसरा अवग्रह है। एक गृहस्थ का अवग्रह, दूसरा आचार्य का अवग्रह। तत्पश्चात् उस वस्त्र को धारण करे, परिभोग करे । भिक्षा के लिए प्रविष्ट मुनिसंघाटक में एक रानिक होता है और एक अवम रात्निक । वे भिक्षा में प्रायोग्य वस्तु प्राप्त करते हैं । जब तक आचार्य के पास नहीं पहुंचते, तब तक उस वस्तु का स्वामी रानिक मुनि का अधिकार होता है। १५. वस्त्र विक्रिया निषेध भिक्खू वा भिक्खुणी वा णो वण्णमंताई वत्थाई उपधि 44 विवण्णाई करेज्जा, विवण्णाइं णो वण्णमंताई करेज्जा, 'अण्णं वा वत्थं लभिस्सामि' त्ति कट्टु णो अण्णमण्णस्स देज्जा थिरं वा णं संतं णो पलिच्छिदिय-पलिच्छिदिय परिट्ठवेज्जा, जहा चेयं वत्थं पावगं परो मन्नइ । (आचूला ५/४८) वह भिक्षु अथवा भिक्षुणी वर्णवान् (सुंदर) वस्त्रों को विवर्ण न करे, विवर्ण वस्त्रों को वर्णवान् न करे, 'अन्य वस्त्र प्राप्त कर लूंगा' यह सोचकर परस्पर एक-दूसरे को न दे मजबूत वस्त्र को खण्ड-खण्ड कर विसर्जित न करे, जिस वस्त्र को गृहस्थ असुंदर मानता है, (वैसा वस्त्र धारण करे ) । १६. साध्वी-प्रायोग्य वस्त्र का ग्रहण-परीक्षण सत्त दिवसे ठवेत्ता, थेरपरिच्छा ****** | दे गणी गणिणी, मग्गति थेरियाओ, लद्धं पि य थेरियाउ गेण्हंति । ..... सत्त दिवसे ठवित्ता, कप्पे कते थेरिया परिच्छंति । सुद्धस्स होइ धरणा, असुद्ध छेत्तुं परिट्ठवणा ॥ 11. (बृभा २८२०, २८२८, २८२९) ******** साधु द्वारा साध्वी के प्रायोग्य वस्त्र प्राप्तकर उन्हें सात दिन तक स्थापित किया जाता है, फिर धोकर उनसे स्थविर को प्रावृत कर परीक्षा की जाती है। यदि उनके परिभोग से कोई विकार पैदा नहीं होता है तो गणी उन्हें प्रवर्तिनी को देते हैं, फिर प्रवर्तिनी यथाक्रम से साध्वियों को देती है । श्रमणों के अभाव में दृढ़धर्मिणी और गीतार्थ स्थविरा वस्त्र की गवेषणा करे । वस्त्र की उपलब्धि होने पर स्थविरा ही दायक के हाथ से ग्रहण करे। गृहीत वस्त्र को सात दिनों तक स्थापित करे। फिर उसका प्रक्षालन करके उससे अपने शरीर को प्रावृत कर उसकी परीक्षा करे। यदि वस्त्र शुद्ध है तो धारण करे। यदि अशुद्धभावों का उत्पादक है तो उसे छिन्न कर परिष्ठापित करे । • गणधरनिश्रा में वस्त्रग्रहण संज्ञातकादिना वस्त्रं दीयमानं प्रवर्तिन्या निवेदयति, प्रवर्तिनी गणधरस्य निवेदयति, ततो गणधर : स्वयमागत्य परीक्षाशुद्धं कृत्वा गृह्णाति । अथ नास्ति तत्र प्रवर्तिनी ततस्तद् वस्त्रं वर्णेन रूपेण चिह्नेन चोपलक्ष्य Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधि १३० आगम विषय कोश--२ (बुभा४ गणधरस्य कथयति, स चागत्य स्वयं गृह्णाति। एतन्नि- यह विधिपरिभोग है। ऊनी वस्त्र शीघ्र मलिन हो जाता है, श्राग्रहणमुच्यते। अत: भीतर में धारण करने से यूका, पनक आदि संसक्त हो श्रावक वस्त्र देना चाहे है तो प्रवर्तिनी से निवेदन करे। सकते हैं। विधिपूर्वक परिभोग से वे स्वतः रक्षित हो जाते हैं। प्रवर्तिनी गणधर को निवेदन करे। फिर गणधर स्वयं आकर सूती वस्त्र बाहर पहनने से विभूषा का भाव पैदा होता है। वस्त्र की परीक्षा करे। यदि वस्त्र शुद्ध है तो उसे ग्रहण करे। मलिन ऊनी वस्त्र में दुर्गंध भी आने लगती है। विधिपरिभोग वहां प्रवर्तिनी नहीं है, तब उस वस्त्र को वर्ण, रूप और चिह्न से वह भी परिहत हो जाती है। नीचे सूती वस्त्र और ऊपर से उपलक्षित कर साध्वी गणधर से कहे। गणधर स्वयं ऊनी वस्त्र से शीत से बचाव भी होता है। इसलिए क्षौमिक आकर वस्त्र ग्रहण करता है, इसे निश्रा ग्रहण कहते हैं। __ वस्त्र को भीतर में धारण करना चाहिए। १७. वस्त्र ग्रहण किससे? १९. वस्त्र सीवन की अविधि-विधि कावलिए य भिक्खू, सुइवादी कुव्विए अवेसित्थी। जे भिक्खू अविहीए वत्थं सिव्वति, सिव्वंतं वा वाणियग तरुण संसट्ठ, मेहुणे भोइए चेव॥ सातिजति॥ सा (नि १/४९) माता पिया य भगिणी, भाउगसंबंधिए य तह सन्नी। गग्गरग दंडिवलित्तग-जालेगसरा-दुखील-एक्का य। भावितकुलेसु गहणं, असई पडिलोम जयणाए। गोमुत्तिगा य अविधी, विहि झसकंटा विसरिगा। गग्गरसिव्वणी जहा संजतीणं, डंडिसिव्वणी-जहा (बृभा २८२२, २८२३) गारस्थाणं।जालगसिव्वणी-जहावरक्खाइसु एगसरा, जहा स्थविरा साध्वी तेरह स्थानों से वस्त्र ग्रहण न करे संजतीण पयालणीकसासिव्वणी णिब्भंगे वा दिज्जति। १. कापालिक ८. पूर्व परिचित उद्भ्रामक दक्खीला संधिज्जते उभओखीला देति। एगखीला एगओ २. भिक्षु ९. मातुल-पुत्र देति।गोमुत्ता संधिज्जते इओइओ एक्कसिं वत्थं विंधइ। ३. शौचवादी १०. भर्ता एसा अविधी। विधि झसकंटा सा संधणे भवति, एक्कतो ४. कूर्चन्धर ११. माता-पिता, व उक्कुइते संभवति।विसरिया सरडो भण्णति। ५. वेश्या स्त्री भगिनी-भ्राता (निभा ७८२ चू) ६. वणिक् १२. संबंधीजन अविधि से वस्त्र सीने वाला भिक्षु मासगुरु प्रायश्चित्त ७. तरुण १३. श्रावक का भागी होता है। (अविधि-सीवन सूत्रार्थ का परिमंथु है। इन्हें छोड़कर भावितकुलों से वस्त्र ग्रहण करे। वहां ठीक प्रतिलेखन न होने से संयम की विराधना होती है।) वस्त्र प्राप्त न होने पर प्रतिषिद्ध स्थानों से पश्चानुपूर्वी क्रम से अविधि सीवन के सात प्रकार हैंयतनापूर्वक वस्त्र ग्रहण करे। ० गग्गर सीवन-साध्वी की तरह सीना। १८. वस्त्र-उपयोग विधि ० दंडी सीवन-गृहस्थ की भांति सीना। "कप्पासिगा य दोण्णि उ, उण्णिय एक्को य परिभोगो॥ ० वलित्तग-बल (बंट) देते हुए सीना। छप्पइय-पणगरक्खा, भूसा उज्झायणा य परिहरिया। ० जालक एकसरा-जालक की तरह एक समान सीना। सीतत्ताणं च कतं, खोम्मिय अभितरे तेण॥ ० दुक्कील-सांधते समय दोनों ओर से खीलना। सौत्रिकं कल्पमन्तः प्रावृणुयात्, और्णिकं तु बहिः। ० एककील-एक ओर से खीलना। एष विधिपरिभोग उच्यते। (बृभा ३६६४, ३६६७ वृ) . गोमूत्रिका-गोमूत्रिका की तरह बाएं से दाएं, दाएं से बाएं ____ मुनि दो सूती और एक ऊनी वस्त्र ग्रहण करे। वह बल देते हुए सीना। सूती वस्त्र भीतर में और उसके ऊपर ऊनी वस्त्र धारण करे- विधिसीवन-इसके दो प्रकार हैं Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश--२ १३१ उपधि ० झषकंटा-मछली के कांटे की आकृति में सीना अथवा एक पहले ही हाथ को फैला कर सूई को भूमि पर रखे 'यह वस्तु ओर से तूमना (रप्फू करना)। है' ऐसा कहे, अपने हाथ से उसे गृहस्थ के हाथ में न सौंपे। ० विसरिका-मछली पकड़ने के जाल के आकार में सीना २२. चिलिमिलिका के प्रकार और प्रमाण अथवा गिरगिट की गति के आकार में सीना। सुत्तमई रज्जुमई, वागमई दंड-कडगमयई य। २०. सूई का स्वरूप और उपयोग । पंचविह चिलिमिली पुण, उवग्गहकरी भवे गच्छे । वेलुमयी, लोहमयी, दुविधा सूयी समासओ होति। हत्थपणगं तु दीहा तिहत्थ-रुंदोन्निया असइखोमा। चउरंगुलप्पमाणा, सा सिव्वणसंधणट्ठाए। एतप्पमाण गणणेक्कमेक्क, गच्छं व जा वेढे ॥ लोहमती सूती साहुणा ण घेत्तव्वा परं आयरियस्स (बृभा २३७४, २३७५) एक्का भवति, सेसाण वेलुमती सिंगमती वा गणणप्प चिलिमिलिका के पांच प्रकार हैंमाणेण एक्केक्का भवति । पमाणप्पमाणेण चतुरंगुला १. सूत्रमयी-वस्त्रमयी अथवा कम्बलमयी। भवति। किं कारणंघेप्पति? इमं-तुण्णणं उक्कइयकरणं २. रज्जुमयी-ऊन आदि के डोरे से बनी हुई। वा सिव्वणं दुगातिखंडाण संधणं। (निभा ७१८ चू) ३. वल्कमयी-वक्ष (सन आदि) की छाल से निष्पन्न। सामान्यतः दो प्रकार की सूई होती है-वेणुमयी और ४. दण्डकमयी-बांस, वेत्र आदि की यष्टि से निष्पन्न। लोहमयी। साधुओं को लोहमयी सूई ग्रहण नहीं करनी चाहिए ५. कटकमयी-वंशकट आदि से निष्पन्न। किन्तु आचार्य के लिए एक सूई ली जा सकती है, शेष प्रत्येक चिलिमिलिका गच्छवासी मुनियों के लिए उपग्रहसाधु के पास वेणुमयी या शृंगमयी एक-एक सूई होती है। कारी होती है। यह पांच हाथ लम्बी तथा तीन हाथ विस्तीर्ण यह चार अंगुल प्रमाण होती है। सूई ग्रहण के मुख्य दो प्रमाण वाली होती है। सूत्रमयी और और्णिकी चिलिमिली प्रयोजन है प्राप्त न होने पर क्षौमिकी (रेशमी) का ग्रहण किया जा ० सीवन-रप्फू करना (तूमना) आदि। सकता है। गणना प्रमाण की अपेक्षा से प्रत्येक साधु एक-एक ० संधान-दो, तीन आदि खंडों को जोड़ना। चिलिमिलिका रख सकता है। अथवा जितनी से गच्छ वेष्टित २१. सूई आदि सौंपने की विधि किया जा सके, उतने प्रमाण वाली चिलिमिलिकाएं ग्रहण की ......"गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा सई वा, जा सकती है। पिप्पलए वा कण्णसोहणए वा, णहच्छेयणए वा, तंअप्पणो चिलिमिलिका का प्रयोजन एगस्स अट्ठाए पाडिहारियं जाइत्ता णो अण्णमण्णस्स पडिलेहोभयमंडलि, इत्थी-सागारियट्ठ सागरिए। देज वा, अणुपदेज्ज वा, सयंकरणिज्जं ति कट्ट से तमा- घाणा-ऽऽलोग ज्झाए, मच्छिय-डोलाइपाणेसु॥ दाए तत्थ गच्छेज्जा, गच्छेत्ता पुव्वामेव उत्ताणए हत्थे कट्ट उभओसहकज्जे वा, देसी वीसत्थमाइ गेलन्ने। भूमीए वा ठवेत्ता इमं खलु त्ति आलोएज्जा, णो चेवणं अद्धाणे छन्नासइ, भओवही सावए तेणे॥ सयं पाणिणा परपाणिंसि पच्चाप्पिणेज्जा॥ छन्न-वहणट्ठ मरणे, वासे उज्झक्खणी य कडओ य। __ (आचूला ७/९) उल्लुवहि विरल्लिति व, अंतो बहि कसिण इतरं वा॥ गृहपति अथवा गृहपतिपुत्र की सूई, कैंची, कर्ण (बृभा २३७९-२३८१) शोधनी. नखच्छेदनी हो. उस प्रातिहारिक वस्त की स्वयं चिलिमिलिका के प्रयोग के अनेक प्रयोजन हैंअकेले के लिए याचना कर लाए, उसे परस्पर एक-दूसरे को प्रतिलेखन करते समय द्वार पर चिलिमिलिका के कारण न दे, बार-बार न दे, स्वयं के लिए जो उस वस्तु से करणीय । गृहस्थ उत्कृष्ट उपधि देख नहीं सकता, तब उसके अपहरण है, वह कार्य कर उसे लेकर गृहस्थ के पास जाए, जाकर की चिन्ता नहीं रहती। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधि • भोजन मंडली और स्वाध्याय मंडली की रक्षा के लिए। • स्त्रियों के अवलोकन से बचने के लिए। • स्वाध्याय भूमि में मल-मूत्र की गंध आ रही हो अथवा शोणित आदि दिखाई दे रहे हों तो निर्बाध स्वाध्याय करने के लिए । O मक्खी, टिड्डी आदि प्राणियों की हिंसा से बचने के लिए। • ग्लान मुनि के मल-मूत्र विसर्जन की सुविधा के लिए। उसे औषध प्रच्छन्न रूप से देने के लिए। • ग्लान को शाकिनी आदि के उपद्रव से बचाने के लिए। • ग्लान के निश्चित खुले बदन सो सकने के लिए। ० मार्ग में प्रच्छन्न स्थान के अभाव में आहार, प्रतिलेखना आदि कर सकने के लिए। • जहां श्वापद और चोरों का भय हो, वहां कटकमयी और दण्डकमयी चिलिमिली से द्वार को बंद किया जाता है। • जब तक मृतक का परिष्ठापन नहीं किया जाता, तब तक उसे चिलिमिलिका से आच्छादित कर रखने के लिए। दण्डकमी चिलिमिली से मृतक को वहन किया जाता है। • वर्षा के समय जिस दिशा से हवा से प्रेरित होकर जलकण आ रहे हों, उस दिशा में कटक - चिलिमिलिका का प्रयोग करना चाहिए। वर्षा के जल से भीगी उपधि को रज्जुमयी चिलिमिलिका में फैलाकर सुखाया जा सकता है। मूल्यवान् उपधि को उसके भीतर तथा अल्पमूल्य वाली उपधि को उसके बाहर फैलाना चाहिए। १३२ २३. वस्त्र - अपहरणकाल में उपेक्षा भाव सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्माणे अंतरा से आमोसगा संपिंडिया गच्छेज्जा । तेणं आमोसगा एवं वदेज्जा - आउसंतो! समणा! आहरेयं वत्थं, देहि, निक्खिवाहि । तं णो देज्जा, णो णिक्खिवेज्जा, णो वंदिय दिय जाएजा णो अंजलिं कट्टु जाएज्जा, णो कलुणपडियाए जाएज्जा, धम्मियाए जायणाए जाएज्जा, तुसिणीय-भावेण वा उवेहेज्जा । आमोगा सयं करणिज्जं ति कट्टु अक्को -संति वा, बंधंति वा, संभंति वा, उद्दवंति वा, वत्थं अच्छिदेज्ज वा, अवहरेज्ज वा, परिभवेज्ज वा । तं णो गामसंसारियं आगम विषय कोश - २ कुज्जा, णो रायसंसारियं कुज्जा, णो परं उवसंकमित्तु बूया ॥ (आचूला ५/५०) ग्रामानुग्राम परिव्रजन करते हुए भिक्षु अथवा भिक्षुणी मार्ग में चोर एकत्रित होकर जा रहे हों। वे चोर यह कहेंआयुष्मन् ! श्रमण ! इस वस्त्र को लाओ, दो, रख दो । भिक्षु उन्हें वस्त्र न दे, न नीचे रखे। (यदि वे छीन लें तो ) न वन्दना कर याचना करे, न बद्धाञ्जलि हो याचना करे, न दीनतापूर्वक याचना करे, धार्मिक वृत्ति से याचना करे अथवा मौनभाव से उपेक्षा करे। वे चोर, वस्त्र को अपना बनाना है- यह सोचकर मुनि पर आक्रोश करते हैं, उसे बांधते हैं, अवरुद्ध करते हैं, उपत करते हैं, वस्त्र को छीनते हैं, अपहरण करते हैं अथवा परिभव करते हैं। साधु इस बात को गांव में न फैलाए, राजा कोन कहे, न गृहस्थ के पास जाकर कहे । • अचेल सचेल की अवमानना न करे ण जो वि दुवत्थ तिवत्थो, एगेण अचेलतो व संथरती ते खिसंति परं सव्वेण वि तिणिण घेतव्वा ॥ हु (निभा ५८०७) स्थविरकल्पी अपनी अपेक्षा के अनुसार एक, दो या तीन वस्त्र ग्रहण - धारण कर सकता है। जिनकल्पी यदि अचेल रहता है, तो वह अचेल रहे किंतु विशिष्ट अभिग्रहधारी अधिक वस्त्र रखने वालों की अवहेलना न करे क्योंकि सबके लिए तीन कल्प ग्राह्य हैं। (जोऽवि दुवत्थतिवत्थो, एगेण अचेलगो व संथरइ । हु ते हीलंति परं सव्वेऽपि य ते जिणाणाए ॥ कोई मुनि दो वस्त्र रखता है, कोई तीन वस्त्र, कोई एक वस्त्र और कोई निर्वस्त्र रहता है। वे एक-दूसरे की अवहेलना न करें क्योंकि वे सब तीर्थंकर की आज्ञा में हैं। - आ ६/५६ का भाष्य) २४. वस्त्र - पात्र - एषणा हेतु क्षेत्रगमन-सीमा सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा परं अद्धजोयण-मेराए वत्थ-पडियाए...पाय- -पडियाए णो अभिसंधारेज्जा (आचूला ५ / ४, ६ / ३) भिक्षु अथवा भिक्षुणी वस्त्र और पात्र ( प्राप्ति) की गमणाए ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ उपधि प्रतिज्ञा से आधे योजन से आगे जाने का संकल्प न करे। तो उस माप वाला पात्र मध्यम प्रमाण का है। इस माप से २५. तीन से अधिक बंधन-थिग्गल-निषेध छोटा जघन्य पात्र है तथा इससे बड़ा उत्कृष्ट पात्र है। जे भिक्खू पायं परं तिण्हं बंधाणं बंधति"वत्थस्स २८. पात्रैषणा की चार प्रतिमाएं परं तिण्हं पडियाणियाणं देति""आवज्जइ मासियं . चउहि पडिमाहिं पायं एसित्तए॥ परिहारट्ठाणं अणुग्घातियं॥ (नि १/४५, ४८,५६) तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा-से भिक्खू वा जो भिक्षु पात्र के तीन से अधिक बंधन बांधता है, भिक्खुणी वा उद्दिसिय-उद्दिसिय पायं जाएज्जा, तं वस्त्र के तीन से अधिक थिग्गल (पैबंद) लगाता है, वह जहा–लाउय-पायंवा, दारु-पायंवा, मट्टिया-पायं वा ॥ गुरुमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। अहावरा दोच्चा पडिमा पेहाए पायं जाएज्जा ॥ २६. अतिरिक्त पात्र-वस्त्र धारण की अवधि अहावरा तच्चा पडिमा सेज्जं पुण पायं जाणेज्जा संगतियं जे भिक्खू अतिरेगबंधणं पायं""अइरेगगहियं वा, वेजयंतियं वा ॥ वत्थं परंदिवड्डाओ मासाओ धारेति""आवज्जइ मासियं अहावरा चउत्था पडिमा-.""उज्झिय-धम्मियं पायं परिहारट्ठाणं अणुग्घातियं ॥ (नि १/४६, ५४, ५६) जाएज्जा, जं चऽण्णे बहवे समण-माहण-अतिहिजो भिक्षु अतिरिक्त बंधनयुक्त पात्र और अतिरिक्त किवण-वणीमगा णावकंखंति" ॥(आचूला ६/१५-१९) गृहीत वस्त्र को डेढ़ मास से अधिक रखता है, वह गुरुमासिक उद्दिसिय पेह संगय, उज्झियधम्मे चउत्थए होइ।" प्रायश्चित्त का भागी होता है। उद्दिट्ठ तिगेगयरं, पेहा पुण दु एरिसं भणइ। दोण्हेगयरं संगइ, वाहयई वारएणं तु॥ २७. पात्र के प्रकार ."अलाउपायं वा, दारुपायं वा, मट्टियापायं गच्छवासिनः प्रतिमाचतुष्टयेनापि पात्रं गृह्णन्ति, वा"। (आचूला ६/१) जिनकल्पिकानामधस्तनाभ्यां द्वाभ्यामग्रहणमुपरितन....."तिविहं उक्कोस मज्झिम जहन्नं। योर्द्वयोरेकतरस्यामभिग्रहः। एक्केक्कं पुण तिविहं, अहागडऽप्पं सपरिकम्मं॥ कस्यचिदगारिणो द्वे पात्रे, स च तयोरेकतरं दिने (बृभा ६५२) दिने वारकेण वाहयति, तत्र यस्मिन् दिवसे यद् वाह्यते तत् सङ्गतिकमभिधीयते, इतरद् वैजयन्तिकम्। तयोरेकतरं पात्र के तीन प्रकार हैं१. अलाबु पात्र २. काष्ठ पात्र ३. मृत्तिका पात्र । यदभिग्रहविशेषेण गवेष्यते सा तृतीया प्रतिमा। इनमें से प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं __ (बृभा ६५४, ६५५ वृ) १. उत्कृष्ट २. मध्यम ३. जघन्य। मुनि प्रतिमाचतुष्टयी से पात्र की एषणा करे___ इन तीनों के तीन-तीन प्रकार हैं १. उद्दिष्ट पात्र-अलाबु, काष्ठ और मिट्टी के अथवा जघन्य, १. यथाकृत २. अल्पपरिकर्म ३. सपरिकर्म। मध्यम और उत्कृष्ट-मुनि इन तीन प्रकार के पात्रों में से गुरु ० पात्र-परिधि का मापन के समक्ष जिस पात्र की प्रतिज्ञा की हो, उसी की गहस्थ से तिन्नि विहत्थी चउरंगलं च भाणस्स मज्झिमपमाणं। याचना करता है। एत्तो हीण जहन्नं, अतिरेगयरं तु उक्कोसं॥ २. प्रेक्षा पात्र-भिक्षु पात्र को देखकर याचना करे। (बृभा ४०१३) ३. संगतिक पात्र--किसी गृहस्थ के पास दो पात्र हैं। वह पात्र की परिधि रस्सी से मापी जाती है। मापने पर बारी-बारी से प्रतिदिन एक पात्र का उपयोग करता है। जिस माप वाली रस्सी तीन वितस्ति तथा चार अंगल की होती है दिन जिस पात्र का उपयोग करता है. वह पात्र संगतिक पात्र Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधि कहलाता है। दूसरा पात्र वैजयंतिक है। इन दोनों में से एक at अभिग्रहपूर्वक गवेषणा करना तीसरी प्रतिमा है । ४. उज्झितधर्मिक पात्र --- जिस पात्र को श्रमण, माहन, अतिथि, कृपण और वनीपक नहीं चाहते, वैसे पात्र की स्वयं याचना करे या गृहस्थ स्वयं दे, उस पात्र को ग्रहण करे । गच्छवासी मुनि प्रतिमाचतुष्टय से पात्र ग्रहण करते हैं । जिनकल्पी मुनि अंतिम दो में से किसी एक का अभिग्रह ग्रहण कर पात्र की गवेषणा करते हैं । २९. धारणीय पात्र ग्राह्य सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण पायं जाणेज्जा - अप्पंड अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग- पणग- दग-मट्टिय-मक्कडासंताणगं, अलं थिरं धुवं धारणिज्जं, रोइज्जंतं रुच्चइ, तहप्पगारं पायं - फासूयं एसणिज्जं ति मण्णमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा ॥ (आचूला ६/३१) वह भिक्षु अथवा भिक्षुणी पात्र को जाने- अण्डे, प्राण, बीज, हरित, ओस, उदक, चींटियों के बिल, फफूंदी दलदल ( या सचित्त मिट्टी) और मकड़ी के जाले से रहित है, पर्याप्त, स्थिर ( मजबूत), ध्रुव (टिकाऊ) और धारण करने योग्य है, उस प्रकार के पात्र को अभिलषणीय- एषणीय मानता हुआ मिलने पर ग्रहण करे। भिक्खू पsिहं अणलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं धरेति ॥ अलं थिरं धुवं धारणिज्जं न धरे ति... ॥... तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं ॥ ( नि १४/८, ९, ४१ ) अलमपज्जतं खलु, अथिरं अदढं तु होति णायव्वं । अधुवं च पाsिहारिय, अलक्खणमधारणिज्जं तु ॥ ( निभा ४६२६) जो भिक्षु अपर्याप्त, अदृढ़, प्रातिहारिक और अलक्षण पात्र रखता है, पर्याप्त, दृढ, ध्रुव और धारणीय पात्र नहीं रखता है, वह चतुर्लघु प्रायश्चित्त का भागी होता है। ३०. सलक्षण - अलक्षण पात्र वट्टं समचउरंसं, होइ थिरं थावरं च वन्नड्डुं । हुंडं वायाइद्धं भिन्नं च अधारणिजाई ॥ १३४ आगम विषय कोश- २ वृत्तं वर्तुलं, समचतुरस्त्रं उच्छ्रयपरिधिना कुक्षिपरिधिना च तुल्यं, स्थिरं सुप्रतिष्ठानं दृढं वा, स्थावरम् अप्रातिहारिकं, वर्णाढ्यं स्निग्धवर्णोपेतं हुण्डं विषमसंस्थितं क्वचिद् निम्नं क्वचिदुन्नतमित्यर्थः, वाताविद्धं निष्पत्तिकालमन्तरेणार्वागपि शुष्कम् अत एव संकुचितं वलिभृतं च सञ्जातम्, भिन्नं नाम सच्छिद्रं जियुक्तं वा । (बृभा ४०२२ वृ) वर्तुल, समचतुरस्र, स्थिर, अप्रातिहारिक (दीर्घकालस्थायी) और स्निग्ध वर्ण युक्त – इन गुणों से युक्त तथा ज्ञान आदि गुणों का वहन करने वाला पात्र लक्षणयुक्त होता है । विषम संस्थान वाला, निष्पत्तिकाल से पूर्व सूखने वाला झुर्रीयुक्त, छिद्र तथा दरार से युक्त पात्र लक्षणहीन होने से अधारणीय होता है। ० पात्र का संस्थान और लाभ-हानि संठियम्मि भवे लाभो, पतिट्ठा सुपतिट्ठिए । निव्वणे कित्तिमारोग्गं, वन्नड्ढे नाणसंपया ॥ हुंडे चरित्तभेओ, सबलम्मि य चित्तविब्भमं जाणे । दुप्पुते खीलसंठाणे, नत्थि द्वाणं ति निद्दिसे ॥ पउमुप्पले अकुसलं, सव्वणे वणमाइसे। अंत बहिं व दड्ढे, मरणं तत्थ निद्दिसे ॥ (बृभा ४०२३-४०२५ ) वृत्त और समचतुरस्र संस्थित पात्र धारण करने पर विपुल भक्तपान आदि का लाभ होता है। स्थिर पात्र ग्रहण करने पर चारित्र, गण आदि में स्थिरता होती है । व्रणरहित पात्र से कीर्ति और आरोग्य की प्राप्ति होती है। स्निग्धवर्णयुक्त पात्र से ज्ञान संपदा बढ़ती है । विषम संस्थान वाला पात्र चारित्र का भेद करता है। विचित्र वर्ण वाला पात्र चित्त में विक्षिप्तता पैदा करता है। जो पात्र पुष्पकमूल में अप्रतिष्ठित या अस्थिर कीलक संस्थान वाला है, उससे गण और चारित्र में स्थान नहीं होता । पद्मोत्पलाकार पुष्पकयुक्त पात्र अकुशल करने वाला होता है (पुष्पक का अर्थ है पात्र की नाभि ) । सव्रण पात्र का स्वामी व्रणों से युक्त होता है, भीतर व बाहर से जला हुआ पात्र मरण का संकेत है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ ३१. अविधिबंध पात्र का निषेध जे भिक्खू पायं अविहीए बंधति, बंधंतं वा सातिज्जति ॥ (नि १/४३) ......अविधी विधी य बंधो, अविधीबंधो इमो तत्थ ॥ सोत्थियबंधो दुविधो, अविकलितो तेण-बंधो चउरंसो । एसो तु अविधिबंधो, विहिबंधो मुद्दि - णावा य ॥ (निभा ७३७, ७३८) पात्र को अविधिबंध से बांधने वाला भिक्षु मासगुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है । बंध के दो प्रकार हैं १. अविधिबंध - स्वस्तिकबंध और स्तेनबंध । स्वस्तिकबंध के दो प्रकार हैं ० अविकल - समचतुरस्र कोणों से भिन्न ० विकल - एक ओर से भिन्न दो ओर से भिन्न स्तेनबंध २. विधिबंध - मुद्रिकासंस्थित और नौकाबंध संस्थित। भिज्जिज्ज लिप्यमाणं, लित्तं वा असइए पुणो बंधे । मुद्दियनावाबंधे, न तेणबंधेण बंधेज्जा ॥ (बृभा ५२८) १३५ < लेप्यमान अथवा लिप्त पात्र भग्न हो जाए और दूसरा पात्र न हो, भग्न पात्र को पुनः जोड़ना हो तो मुद्रितनौबंधन (मुद्रिका - नौकाबंध-संस्थित) से जोड़े, स्तेनकबंध से नहीं । ३२. घटीमात्रक का स्वरूप और उपयोग अपरिस्साई मसिणो, पगासवदणो स मिम्मओ लहुओ । सुइ - सिय- दद्दरपिहणो, चिट्ठइ अरहम्मि वसहीए ॥ (बृभा २३६४) घटीमात्रक जल से अत्यंत भावित होने के कारण अपरिश्रावी होता है। वह चौड़े मुख वाला, मिट्टी से निष्पन्न और हल्का होता है, स्वच्छ श्वेत वस्त्र से पिहित होता है। ऐसा पात्र उपाश्रय के प्रकाश प्रदेश में रखा जा सकता है (यह प्रस्रवण के लिए उपयोगी है ।) कप्पइ निग्गंथीणं अंतोलित्तयं घडिमत्तयं धारित्तए वा उपधि "बिइयं परिहरित्त वा ॥ नो कप्पइ निग्गंथाणं । (क१/१६, १७) गिलाणकारण ॥ लाउय असइ सिणेहो, ठाइ तहिं पुव्वभाविय कडाहो । सेहे न सोयवायी, धरंति देसिं व ते पप्प॥ ( बृभा २३६५, २३६९ ) साध्वियां अंत: लेपयुक्त घटीमात्रक (घटी के आकार वाला मृन्मय पात्रविशेष) रख सकती हैं और उसका उपयोग कर सकती हैं। साधु घटीमात्रक न रख सकते हैं और न ही उसका उपयोग कर सकते हैं। वे दो कारणो से घटीमात्रक का प्रयोग कर सकते हैं • रोग उत्पन्न हो जाने पर किसी ग्लान के लिए घृत की अपेक्षा हो तो अलाबुपात्र के अभाव में पूर्वभावित कटाहक या घटीमात्रक ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि उसमें गृहीत घृत परिश्रवित नहीं होता। ० शौचवादी शिष्य के लिए तथा गोल्लदेश जैसे शौचवादी क्षेत्र में यह पात्र ग्रहण किया जा सकता है। ३३. आर्यरक्षित द्वारा मात्रक अनुज्ञा दिन्नज्जरक्खितेहिं दसपुरनगरम्मि उच्छुघरनामे । वासावासठितेहिं, गुणनिप्फत्तिं बहुं नाउं ॥ ..... लोभे पसज्जमाणे, वारेंति ततो पुणो मत्तं ॥ एवं सिद्धग्गहणं आयरियादीण कारणे भोगो । पाणादयद्रुवभोगो, बितिओ पुण रक्खियज्जाओ ॥ (व्यभा ३६०५, ३६०९, ३६१० ) अतिरिक्त पात्र रखने से वर्षावास में बहुत गुण-निष्पत्ति होगी - इस उद्देश्य से आर्यरक्षित ने दशपुर नगर के इक्षुगृह उद्यान में वर्षावास में एक अतिरिक्त पात्र - मात्रक रखने की अनुज्ञा दी। ऋतुबद्धकाल में आचार्य, ग्लान आदि के प्रायोग्य द्रव्य ग्रहण के लिए मात्रक अनुज्ञात है। अन्य कारणों से उसका उपभोग केवल लोभ के प्रसंग से होता है, इसलिए मात्रक का वर्जन कर दिया। आचार्य आदि के कारण से मात्रक का परिभोग ओघनिर्युक्ति Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधि १३६ आगम विषय कोश-२ में अनुज्ञात है। मात्रक का दूसरा परिभोग प्राणीदया के लिए लोहे आदि के पात्र), मणि-काच-कांस्य-पात्र, शंख-शृंगआर्यरक्षित द्वारा अनुज्ञात है। पात्र, दंत-वस्त्र-प्रस्तर-पात्र, चर्म-पात्र-इनको तथा इस प्रकार ० जिनकल्पी के एक पात्र, स्थविर के मात्रक भी के अन्य महामूल्यवान् पात्रों को अप्रासुक-अनेषणीय मानता दव्वे एगं पायं, भणिओ तरुणो य एगपाओ उ। हुआ मिलने पर ग्रहण न करे। अप्पोवही पसत्थो, चोएति न मत्ततो तम्हा॥ ० गृहिपात्र के प्रकार जिणकप्पे तं सुत्तं, सपडिग्गहकस्स तस्स तं एगं। ...गिहिमत्ते, तसथावरजीवदेहनिप्फण्णे।... नियमा थेराण पुणो, बितिज्जओ मत्तओ होइ॥ सव्वे वि लोहपादा, दंते सिंगे य पक्कभोमे य। (बृभा ४०६१, ४०६२) एते तसनिप्फण्णा , दारुगतुंबाइया इतरे ॥ शिष्य ने कहा-एक पात्र रखना उपकरण द्रव्य ऊनोदरी (निभा ४०४२, ४०४३) है तथा तरुण साधु को एक पात्र रखने का निर्देश दिया गया ___ गृहिपात्र के दो प्रकार हैंहै-'जे भिक्खू तरुणे एगं पायं धारेज्जा' (आचूला ६/२)। १. त्रसजीवों के शरीर से निष्पन्न, जैसे-हाथी दांत से निर्मित अल्पोपधि प्रशस्त है, इसलिए साधु को मात्रक ग्रहण नहीं पात्र, महिष आदि के सींग से निर्मित (कपाल आदि)। करना चाहिए। २. स्थावर जीवों के शरीर से निष्पन्न, जैसे-स्वर्ण, रजत आदि इसके उत्तर में गुरु ने कहा--जिनकल्प के विषय में सब प्रकार के लोह पात्र, काष्ठ, अलाबु और मिट्टी के पात्र । वह सूत्र मान्य है कि जो सप्रतिग्रह जिनकल्पिक है, उसके ० गृहि-पात्र में खाने का निषेध लिए एक पात्र होता है। स्थविरकल्पिकों के नियमतः दुसरा मात्रक होता है। (एगं पायं जिणकप्पियाण थेराण मत्तओ जे भिक्खू गिहिमत्ते भुंजति, भुजंतं वा सातिजति ।। बीओ-ओघनिर्यक्ति ६७९)। ""तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं॥ ० वर्षाकाल में तीन मात्रक (नि १२/११, ४३) वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पड निग्गंथाण वा जो भिक्षु गृहिपात्र में खाता है, खाने वाले का अनुमोदन निग्गंथीण वा तओ मत्तगाइं गिण्हित्तए, तं जहा-उच्चार- करता है, वह चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। मत्तए पासवणमत्तए खेलमत्तए॥ (दशा ८ सू २८०) ३५. पात्र-प्राप्ति के स्थान निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी वर्षाकाल में तीन मात्रक रख कुत्तीय सिद्ध-निण्हग-पवंच-पडिमाउवासगाईसु। सकते हैं-उच्चारमात्रक, प्रस्रवणमात्रक और श्लेष्ममात्रक। कुत्तियवज्जं बितियं, आगरमाईसु वा दो वि॥ ३४. मूल्यवान् पात्रग्रहण-निषेध आगर पल्लीमाई, निच्चुदग नदी कुडंगमुस्सरणं। ___ "अय-पायाणि वा, तउ-पायाणि वा, तंब-पायाणि वाहे तेणे भिक्खे, जंते परिभोगऽसंसत्तं ॥ वा, सीसग-पायाणि वा, हिरण्ण-पायाणि वा, सुवण्ण (बृभा ४०३३, ४०३५) पायाणिवा, रीरिय-पायाणिवा, हारपड-पायाणिवा, मणि कुत्रिकापण में यथाकृत पात्र की गवेषणा करे। काय-कंस-पायाणिवा, संख-सिंग-पायाणिवा, दंत-चेल सिद्धपुत्र, निह्नव, प्रपञ्चश्रमण (वेशधारी) तथा ग्यारहवीं सेल-पायाणि वा, चम्म-पायाणि वा-अण्णयराई वा प्रतिमा पूर्ण कर जो श्रमणोपासक घर चले गए हैं, उनके तहप्पगाराई विरूवरूवाइं महद्धणमुल्लाइं पायाई पास यथाकृत और अल्पपरिकर्म पात्र की गवेषणा करे। अफासुयाई अणेसणिज्जाई ति मण्णमाणे लाभे संते नो आकर (भीलों की पल्ली), नदी, वनखंड और व्याध पडिगाहेज्जा॥ ___(आचूला ६/१३) तथा चोरों की पल्ली में, भिक्षाचरों के पास तथा यंत्रशालाओं तथ लोह-पात्र, रांगे के पात्र, ताम्र-पात्र, सीसे के पात्र, में अल्पपरिकर्म और सपरिकर्म दोनों प्रकार के पात्र प्राप्त होते रजत-पात्र, स्वर्ण-पात्र, पीतल के पात्र, हारपुट-पात्र (रत्नजटित हों तो कल्पनीय पात्रों को विधिपूर्वक ग्रहण करे। ये पात्र | Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १३७ उपधि प्रतिदिन उपयोग में आने के कारण जीव-जंतुओं से संसक्त लेप के तीन प्रकार हैंनहीं होते, अतः ग्राह्य हैं। ० उत्कृष्ट लेप-खर नामक तिलतेल से निष्पन्न। (भीलों के पास प्रचुर मात्रा में तुंबे होते थे। ग्रामवासी ० मध्यम लेप-अतसी व कुसंभ के तेल से निष्पन्न। लोग अगाध जल वाली नदियों को तुंबों से तैरते थे। वनों में ० जघन्य लेप-सरसों के तेल से निष्पन्न। तुंबों का वपन होता था। व्याध और चोरों की पल्लियों में नवनीत, घृत और वसा से निर्वृत्त लेप अलेप है क्योंकि मिट्टी के पात्रों का अभाव होता था। वे कांजी, पानी आदि वह पात्र पर सम्यक् प्रकार से नहीं लगता है। तिलों के तेल से तुम्बों में डालकर रखते थे। भिक्षाचर भिक्षा के लिए तुम्बे म्रक्षित तथा गुड़ और लवण से भरे शकटों में जो लेप होता है, रखते थे। यंत्रशाला में गुड़-उत्सेचन आदि के लिए तुम्बे रखे वह भी अलेप है क्योंकि लवण आदि के योग से वह अप्रशस्त जाते थे। -बृभा ४०३५ की वृ) हो जाता है। ३६. लेप के प्रकार : तज्जात-युक्ति-द्विचक्र ३७. पात्रलेप क्यों? अणवटुंते तह वि उ, सव्वं अवणेत्तु तो पुणो लिंपे। संजमहेउं लेवो, न विभूसाए वयंति तित्थयरा। तज्जाय सचोप्पडयं, घट्ट रएउं ततो धोवे॥ सति-असतीदिटुंतो, विभूसाए होंति चउगुरुगा। तज्जाय-जुत्तिलेवो, दुचक्कलेवो य होइ नायव्यो।' (बृभा ५२७) जुत्ती य पत्थरायी, पडिकुट्ठा सा उ सन्निही काउं। तीर्थंकरों ने कहा है-पात्र के लेप संयम साधना के दय सुकुमाल असन्निहि, दुचक्कलेवो अतो इट्ठो॥ लिए देना चाहिए न कि विभूषा अथवा गौरव के लिए। जो (बृभा ५२४-५२६) विभूषा की भावना से पात्रों पर लेप देता है, वह चतुर्गुरु - लेप के तीन प्रकार हैं प्रायश्चित्त का भागी है। लेप देने से यदि विभूषा होती है, तो १. तज्जातलेप २. युक्तिलेप ३. द्विचक्रलेप वह संयमहेतु ही है। १. तज्जात लेप–पात्र पर उत्कृष्ट पांच लेप लगाने पर यदि सती स्त्री की विभूषा और असती स्त्री की विभूषा वह लेप पात्र से एकीभूत नहीं होता है तो उसे उतारकर पुन: के उद्देश्य में अन्तर होता है। सती स्त्री अपने कुलाचार के लेप लगाया जाता है। जब पात्र को तेल आदि से चुपड़ा जाता लिए और असती स्त्री जार की संतुष्टि के लिए विभूषा है, उस पर रजें लग जाती हैं, तब उसके लेप को घटक करती है। पाषाण से रगड़कर पुनः उसी लेप से पात्र को रंगा जाता है. इसी प्रकार जो साधु संयमरूप कुलाचार हेतु लेप रूप फिर धोया जाता है-वह तज्जातलेप है। विभूषा करता है, वह निर्दोष है। जो असंयम रूप जारतुष्टि हेतु २, ३. युक्तिलेप-द्विचक्रलेप-प्रस्तर, शर्करा, लोहकिट्ट आदि अथवा गौरव के कारण लेपविभूषा करता है, वह सदोष है। से किया गया लेप युक्ति लेप है। भगवान् ने युक्तिलेप का निषेध किया है क्योंकि इसमें सन्निधि दोष होता है। द्विचक्र उड्डादीणि उ विरसम्मि भुंजमाणस्स होति आयाए। लेप (शकटलेप) सुकुमार होता है, इसमें पानी के जन्तु दुग्गंधि भायणं ति य, गरहति लोगो पवयणम्मि॥ स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं, उन प्राणियों की हिंसा से बचा . (बृभा ४७७) जा सकता है और इस लेप में सन्निधि दोष भी नहीं होता, __ अलेपकृत पात्र अत्यन्त विरस होता है। उसमें आहार अत: द्विचक्र लेप इष्ट है। करने से वमन, व्याधि अथवा भोजन के प्रति अरुचि पैदा हो ० लेप के प्रकार : उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्य जाती है। लोग भिक्षा देते समय दर्गन्धित पात्र को देखकर खरअयसि-कुसुंभसरिसव, कमेण उक्कोसमझिम जहन्नो। मुनियों की और प्रवचन की गर्दा करते हैं। नवणीए सप्पि वसा, गुले य लोणे अलेवो उ॥ ३८. बिना आज्ञा पात्र-ग्रहण से प्रायश्चित्त (बृभा ५२९) दुविधा छिन्नमछिन्ना, भणंति लहुगो य पडिसुणंते या Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधि छिन्ना नाम ये आचार्येण संदिष्टा यथा विंशतिः, पात्राण्यानयितव्यानि अच्छिन्ना येषां न परिमाणनिरोपः ( निरुप: / निरोध: ? ) एकः साधुः छिन्नानां संदेशं श्रुत्वा तत्रैव समक्षमाचार्यस्य ब्रूते - क्षमाश्रमणा ! अनुजानीत युष्माकं योग्येषु परिपूर्णेषु पतद्ग्रहेषु लब्धेषु यद्यन्यान्यपि लभेरन् ततस्तान्यपि मम योग्यानि गृह्णन्तु एवं ब्रुवाणः शुद्धः । अथैवमाचार्यः नानुज्ञापयति किन्त्वेवमेतान् व्रजतो ब्रूते तर्हि तस्मिन्नेवं भणति प्रायश्चित्तं लघुको मासः ते चेत् व्रजन्तः प्रतिशृण्वन्ति ग्रहीष्याम इति तदा तेषामपि प्रायश्चित्तं प्रत्येकं लघुको मासः । (व्यभा ३६१९ वृ) १३८ पात्र की एषणा करने वाले साधुओं के दो प्रकार हैं१. छिन्न- जो आचार्य द्वारा संदिष्ट हैं। यथा- तुम्हें बीस पात्र लाने हैं। २. अच्छिन्न- जिन्हें पात्रों का परिमाण नहीं बताया गया है। एक साधु आचार्य के समक्ष उन संदिष्ट साधुओं से कहता है - क्षमाश्रमण ! अनुमति दें- आपके योग्य सारे पात्र प्राप्त हो जाने पर यदि अन्य पात्र प्राप्त हों तो मेरे योग्य पात्र भी लाएं- ऐसा कहने वाला शुद्ध है। जो साधु आचार्य की अनुमति के बिना पात्र मंगवाता है और जो उसकी बात को स्वीकार करते हैं - वे सब लघु मास प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। ३९. वस्त्र - पात्र - लेप-कल्पिक अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुका।" सूत्रे पात्रैषणा लक्षणे अप्राप्ते यदि लेपस्याऽऽनयनाय प्रेषयति तदा तस्य प्रायश्चित्तं सूत्रे प्राप्ते तत्रापि कथिते तत्राप्यधिगते स परीक्ष्य लेपस्यानयनाय प्रेषणीयः । एष लेपस्य कल्पिकः । (बृभा ४७१ वृ) सूत्रमाचारान्तर्गतं पात्रैषणाध्ययनम् पाठयित्वा तस्यार्थं कथयित्वा सम्यगधिगते श्रद्धिते चार्थे पात्राय परीक्ष्य प्रेषणीयः । (बृभा ६४९ की वृ) ( जो आचार चूला के पांचवें 'वस्त्रैषणा' नामक अध्ययन का ज्ञाता वह वस्त्रकल्पिक है ।) जिसने पात्रैषणा (आचारचूला का छठा) अध्ययन नहीं पढ़ा है, पढ़ने पर आगम विषय कोश - २ भी अर्थ नहीं जाना है, अर्थ को अधिगत नहीं किया है तथा अधिगत अर्थ पर श्रद्धा है या नहीं - इसकी परीक्षा किए बिना गुरु यदि शिष्य को पात्र या लेप लाने भेजता है तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है। पात्रैषणा सूत्र को प्राप्त, कथित, अधिगत और परीक्षित होने पर शिष्य पात्रकल्पिक और लेपकल्पिक होता है । पढिय सुय गुणियमगुणिय, धारमधार उवउत्तो परिहरति । येन ओघनिर्युक्तिसूत्रम् इयं वा कल्पपीठिका पठिता स्यात्ः'' । (बृभा ५३० वृ) जिसने ओघनियुक्ति सूत्र अथवा कल्पपीठिका को पढ़ा हो, सुना हो, वह गुणित (अत्यंत अभ्यास से आत्मसात्) हो अथवा अगुणित, धारित हो या अधारित, फिर भी उसमें उपयुक्त होता हुआ सूत्रोक्त प्रकार से लेप का भोग करता है, वह लेपकल्पिक है। ४०. प्रतिपूर्ण क्रमणिका ( पदत्राण) के प्रकार सगल प्पमाण वण्णे, बंधणकसिणे य होइ णायव्वे । अकसिणमट्ठारसगं, दोसु वि पासेसु खंडाई ॥ एगपुड सकलकसिणं, दुपुडादीयं पमाणतो कसिणं । खल्लग खउसा वग्गुरि, कोसग जंघऽड्डजंघा य ॥ पायस्स जं पमाणं, तेण पमाणेण जा भवे कमणी । मज्झमि तु अक्खंडा, अण्णत्थ व सकलकसिणं तु ॥ दुपुडादि अद्धखल्ला, समत्तखल्ला य वग्गुरी खपुसा । अद्धजंघ समत्ता य, पमाणकसिणं मुणेयव्वं ॥ उवरिं तु अंगुलीओ, जा छाए सा तु वग्गुरी होति । खपुसा य खलुगमेत्तं, अद्धं सव्वं च दो इयरे ॥ वडवण्णकसिणं, तं पंचविहं तु होइ नायव्वं । बहुबंधणकसिणं पुण, परेण जं तिण्ह बंधाणं ॥ (बृभा ३८४६-३८५१) कृत्स्न (प्रतिपूर्ण) के चार प्रकार हैं३. वर्ण कृत्स्न ४. बंधन कृत्स्न १. सकल कृत्स्न २. प्रमाण कृत्स्न अकृत्स्न चर्म के अठारह खंड कर पैर के दोनों पाव में धारण करना चाहिए। • सकल कृत्स्न - एकपुटी - एक तल वाली, पैर जितने प्रमाण Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १३९ उपधि वाली क्रमणिका, जो मध्य या अन्यत्र भाग में अखण्ड हो। ४२. क्रमिणका पहनने के हेतु : चक्षुदौर्बल्य आदि ० प्रमाण कृत्स्न-दो, तीन आदि तल वाली क्रमणिका। विह अतराऽसहुसंभम, कोट्ठाऽरिसचक्खुदुब्बले बाले। इसके अनेक प्रकार हैं अज्जा कारणजाते, कसिणग्गहणं अणुण्णायं ॥ खल्लक-आधे चरण को आच्छादित करने वाला अर्धखल्लक कुट्ठिस्स सक्करादीहि वा विभिण्णो कमो मधूला वा। और पूरे चरण को ढकने वाला समस्त खल्लक। बालो असंफरो पुण, अज्जा विहि दोच्च पासादी॥ वागुरा-अंगुलियों को आच्छादित कर पैर के उपरिभाग को (बृभा ३८६२, ३८६५) भी ढकने वाली। दस कारणों से कृत्स्न चर्म का ग्रहण अनुज्ञात हैखपुसा-टखने तक पैर को ढकने वाली। कोशक-पादनखों की सुरक्षा के लिए जिसमें अंगूठे-अंगुलियों ___० बीहड़ मार्ग पार करना हो। ० कोई मुनि ग्लान हो अथवा ग्लान के लिए दवा लाना हो। को डाला जाता है। ० कोई मुनि सुकुमार चरणों वाला (राजकुमार आदि) हो। जंघा-पिंडली को स्थगित करने वाली पादरक्षिका। अर्धजंघा-आधी जंघा को स्थगित करने वाली पादरक्षिका। ० चोर, श्वापद आदि का संक्षोभ हो। कष्ठ रोगी. जिसके रक्त पीब से स्फटित पैरों में कंकर जो कृष्ण आदि पांच वर्षों से उज्ज्वल है, वह वर्णकृत्स्न और तीन से अधिक बन्धनों से बद्ध है, वह बन्धन कृत्स्न है। आदि की चुभन से महती पीड़ा होती हो। ० अर्श या पादगण्ड होने पर क्रमणिका बांधनी पड़ती है। ४१. क्रमणिका का निषेध क्यों? ० असंवृत बाल (जिसके पैरों का संतुलन न हो)। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा कसिणाई ० आर्या को मार्ग पार कराने के लिए चोर आदि का भय होने चम्माइंधारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ (क ३/५) पर वृषभ पदत्राण पहनकर पार्श्व भाग में हैं। गव्वो णिम्मद्दवता, णिरवेक्खो निद्दतो णिरंतरता। ० संघसंबंधी कोई कार्य हो। भूताणं उवघाओ, कसिणे चम्मम्मि छद्दोसा। ० दुर्बल आंखों वाला हो। (पैरों का मर्दन करना, उपानत् (बृभा ३८५६) निर्गन्थ और निर्यन्थी कत्स्न (वर्ण, प्रमाण आदि से पहनना आदि रूप पैर-परिकर्म चक्षु के लाभ के लिए होता पूर्ण) चर्म क्रमणिका का ग्रहण और उपयोग नहीं कर है। -द्र चिकित्सा) सकते। ४३. रजोहरण के प्रकार कृत्स्न चर्म पहनने से छह दोष उत्पन्न होते हैं- कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाइं पंच ० गर्व-मैं उपानद्धारी हूं-ऐसा गर्व हो सकता है। रयहरणाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा, तं जहा-उण्णिए निर्दिवता-पैर स्वभावतः मृदु होते हैं। क्रमणिका कठोर उट्टिए साणए वच्चापिच्चिए मुंजापिच्चिए नामपंचमे। स्पर्श वाली होती है। क्रमणिका से जीवोपघात की अधिक और्णिकम् ऊरणिकानामूर्णाभिर्निर्वृत्तम्, औष्ट्रिकं संभावना रहती है। उष्ट्ररोमभिर्निर्वृत्तम्, सानकं सनवृक्षवल्काद् जातम्, • निरपेक्षता-नंगे पांव चलने वाला कांटों आदि के प्रति वच्चकः-तृणविशेषस्तस्य चिप्पकः-कुट्टितः त्वग्रूपः सतर्क रहता है। क्रमणिकाधारी जीवों के प्रति भी निरपेक्ष हो तेन निष्पन्नं वच्चकचिप्पकम, मुजः-शरस्तम्बस्तस्य जाता है। चिप्पकाद् जातं मुञ्जचिप्पकम्। (क २/२९ वृ) निर्दयता-जीवों के प्रति करुणा का अभाव। ० निरंतरता-क्रमणिका की निरंतर भूमिस्पर्शिता के कारण वच्चक मुंज कत्तंति चिप्पिउं तेहि वूयए गोणी। पैर के नीचे समागत जीव बच नहीं पाता है। पाउरणऽत्थुरणाणि य, करेंति देसिं समासज्ज॥ ० भूतोपघात-प्राणियों का वध। क्वचिद् धर्मचक्रभूमिकादौ देशे वच्चकं दर्भाकारं Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाधि १४० आगम विषय कोश-२ तृणविशेषं मुजं च शरस्तम्बं प्रथमं .."कुट्टयित्वा तदीयो बारसअंगुलदीहा, अंगुलमेगं तु होति विच्छिण्णा। यः क्षोदस्तं कर्त्तयन्ति। ततः तैः वच्चकसूत्रैर्मुञ्जसूत्रैश्च घणमसिणणिव्वणा वि य, पुरिसे पुरिसे य पत्तेयं ॥ गोणी बोरको व्यूयते, प्रावरणाऽऽस्तरणानि च देशविशेषं (निभा ७०९, ७१०) समासाद्य कुर्वन्ति अतस्तन्निष्पन्न रजोहरणं वच्चक- ० रजोहरण-ऋतुबद्धकाल में इससे पैरों का प्रमार्जन किया चिप्पकं भण्यते। __ (बृभा ३६७५ वृ) जाता है। पिच्चिउत्ति वा, विप्पिउ त्ति वा, कद्रितो त्ति वा ० पादलेखनिका-वर्षाकाल में इससे कर्दम का अपनयन किया ___ जाता है। यह वटमयी, उदुंबरमयी या पिप्पलमयी होती है। (निभा ८२० की चू) एगटुं। इसके अभाव में अम्लिकामयी का उपयोग किया जाता है। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां पांच प्रकार के रजोहरण पादलेखनिका बारह अंगुल लम्बी, एक अंगुल विस्तीर्ण ग्रहण तथा धारण कर सकती हैं तथा अशुषिर, श्लक्ष्ण और निव्रण (अक्षत) होती है। यह १. और्णिक-ऊन से निष्पन्न। प्रत्येक व्यक्ति के पास अपनी-अपनी होती है। २. औष्ट्रिक-ऊंट के केशों से निष्पन्न। अब्भितरं च बझं, हरति रयं तेण होइ रयहरणं।" ३. सानक--सन-वृक्ष की छाल से निष्पन्न। (बृभा ३६७४) ४. वच्चापिच्चिय-दर्भ के आकार वाली मोटी घास (वल्वज) जो आभ्यन्तर तथा बाह्य रजों का हरण करता है, वह को कूटकर बनाया हुआ। रजोहरण है। रजोहरण बाह्य रजों का हरण करता है, यह चिप्पक, पिच्चिय, विप्पिय और कुट्टित एकार्थक हैं। स्पष्ट है किन्तु आभ्यन्तर रजों का हरण कैसे करता है? धर्मचक्रभूमि-समवसरणभूमि वाले देश में यह प्रथा आचार्य कहते हैं-मुनि रजोहरण से भूमि प्रमार्जित कर वस्तु थी कि लोग इस घास को कूटकर, उसका क्षोद बना लेते थे। का आदाननिक्षेप आदि संयमव्यापार करता है। उससे अष्ट फिर उसके टुकड़े-टुकड़े कर उसके बोरे बनाते थे। कहीं कर्मरूपी रजों का हरण होता है. इस अपेक्षा से उसे आभ्यन्तर कहीं प्रावरण और बिछौने भी बनाए जाते थे। इससे सूत रजों का हरण करने वाला कहा गया है। निकालकर रजोहरण गूंथे जाते थे। उपसम्पदा-प्रयोजनवश एक गण से अपक्रमण कर ५. मुंजापिच्चिय-कूटी हुई मूंज से बने बोरों से तंतु निकालकर दूसरे गण में जाकर, वहां की सामाचारी को बनाया गया। स्वीकार करना। ० और्णिक रजोहरण उपयोगी १. उपसम्पदा के प्रयोजन एवं प्रकार उट्ट-सणा कुच्छंती, उल्ला इयरेसु मद्दवं णत्थि। वैयावृत्त्य चारित्र उपसम्पदा तेणोणियं पसत्थं, ०क्षपणा (तप) चारित्र उपसम्पदा (बृभा ३६७८) २. गणसंक्रमण के पांच हेतु औष्ट्रिक और सनक रजोहरण वर्षाकाल में आई ० सम्भोजार्थ उपसम्पदा : चारित्राचार में श्लथता होने पर कुथित हो जाते हैं, जिससे उनमें पनक आदि जीव o आचार्य के उपसम्पदा ग्रहण के हेतु उत्पन्न हो जाते हैं। वच्चक और मूंज के रजोहरण स्वभावतः ३. गण-संक्रमण से पूर्व अनुमति अनिवार्य ४. उपसम्पदा के आठ अतिचार कठोर होते हैं, अत: और्णिक रजोहरण ही प्रशस्त है। ५. निर्गमन स्थान : पंजरभग्न-पंजराभिमुख ४४. रजोहरण और पादलेखनिका का प्रयोजन । ० पंजर शब्द के अर्थ : शकुनि दृष्टांत उडुबद्धे रयहरणं, वासावासासु पादलेहणिया। ६. उपसम्पदा के अयोग्य वडउंबरे पिलक्खू, तेसि अलंभम्मि अंबिलिया॥ ७. योग्य होने पर भी अग्राह्य Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ ८. उपसम्पद्यमान की पृच्छा अवधि ९. उपसम्पन्न की परीक्षा के आठ बिंदु १०. मार्गवर्ती उपसम्पदा : इत्वर दिग्बंध o आचार्य द्वारा आत्म परीक्षण ० पर तुलना (शिष्य-परीक्षा) : स्नुषा दृष्टांत ११. उपसम्पन्न द्वारा आचार्य की परीक्षा १२. आलोचना श्रवण व सामाचारी बोध * उपसम्पदा आलोचना १३. उपदेश स्मारणा-प्रतिस्मारणा १४. सारणा की अनिवार्यता प्रमादी का परित्याग १५. प्रमादी द्वारा पश्चात्ताप, गच्छ द्वारा निवेदन १६. स्मारणा आपातकटु : गुटिकांजन दृष्टांत १७. उपसम्पदा के आकर्षण बिंदु : देशाटन आदि १८. उपसम्पदाकाल के विकल्प १९. रत्नाधिक की उपसम्पदा (नेतृत्व) अनिवार्य २०. शैक्ष और रानिक के पारस्परिक कर्त्तव्य उपसम्पदा के तीन प्रयोजन हैं१. ज्ञान निमित्त २. दर्शन निमित्त ज्ञान और दर्शन उपसम्पदा के १. उपसम्पदा प्रयोजन एवं प्रकार सो पुण उवसंपज्जे, नाणट्ठा दंसणे चरित्तट्ठा । वत्तणा संधणा चेव, गहणे सुत्तत्थ - तदुभए ।'' .....उवसंपदा चरित्ते, वेयावच्चे य खमणे य ॥ (व्यभा २८४ - २८६ ) अर्थ और तदुभय । ० १४१ द्र आलोचना इन तीनों के तीन-तीन प्रकार हैं ३. चारित्र निमित्त । तीन प्रकार हैं -सूत्र, १. वर्त्तना - पूर्वगृहीत सूत्र आदि का पुनः पुनः अभ्यास । २. संधान - जो पूर्वगृहीत है किन्तु विस्मृत हो गया है, उसका पुनः संस्थापन। ३. ग्रहण - अपूर्व श्रुत का ग्रहण | ( दर्शन उपसम्पदा का ग्रहण दर्शनप्रभावक और दर्शनविशोधक ग्रन्थों के अध्ययन के लिए होता है | ) चारित्र उपसम्पदा के दो प्रकार हैं १. वैयावृत्त्य हेतु २. क्षपणा (तपस्या) हेतु । वैयावृत्त्य चारित्र उपसम्पदा .....वेयावच्चकरो पुण, इत्तरितो आवकहिओ य ॥ उपसम्पदा तुल्लेसु जो सलद्धी, अन्नस्स व वारएणऽनिच्छंते । तुल्लेसु व आवकही, तस्सऽणुमएण च इत्तरिओ ॥ ( व्यभा २९०, २९१ ) वैयावृत्त्य के लिए उपसम्पन्न के दो प्रकार हैं- इत्वरिक और यावत्कथिक । वैयावृत्त्यकारापणविधि - एक गच्छवासी सेवार्थी मुनि और एक आगन्तुक मुनि, जो सेवा का इच्छुक है- दोनों में जो लब्धिसंपन्न है, उसे आचार्य की सेवा में और अलब्धिसम्पन्न को उपाध्याय आदि की सेवा में नियुक्त किया जाता है। यदि वह उपाध्याय का वैयावृत्त्य करना न चाहे तो दोनों को बारीबारी से वैयावृत्त्य में नियुक्त करना चाहिए । दोनों ही मुनि लब्धिमान हैं और यावत्कथिक हैं तो एक को आचार्य की और दूसरे को उपाध्याय की सेवा में नियोजित किया जाता है। दोनों को यह मान्य न हो तो जो आगंतुक है, उसे विसर्जित कर दिया जाता है। दोनों सलब्धिक और इत्वरिक हों तो आगंतुक को उपाध्याय आदि की सेवा में नियोजित किया जाता है। यदि वह आचार्य का वैयावृत्त्य करना चाहे तो वास्तव्य मुनि की अनुमति से कुछ समय तक प्रतीक्षा करे, फिर आचार्य की सेवा करे । ० क्षपणा ( तप) चारित्र उपसम्पदा आवकही इत्तरिए, इत्तरियं विगिट्ठ तह विगिट्ठे य । सगणामंतण खमणे, अणिच्छमाणं न तु निओए ॥ अविकि किलम्मंतं, भांति मा खम करेहि सज्झायं । सक्का किलम्मितुंजे, वि विगिद्वेणं तहिं वितरे ॥ ..... पडिलेहण-संथारग, पाणग तह मत्तगतिगं च ॥ ( व्यभा २९३ - २९५ ) उपसम्पद्यमान क्षपक के दो प्रकार हैं- यावत्कथिक और इत्वरिक । इत्वरिक के दो भेद हैं १. अविकृष्ट तप - उपवास, बेला, तेला करने वाला । २. विकृष्ट तप - चोला आदि करने वाला । इस उपसम्पदा से पूर्व आचार्य अपने गच्छ को आमंत्रित कर पूछते हैं आर्यो ! अमुक साधु तप:साधना के लिए यहां आया Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसम्पदा है, उसे स्वीकार किया जाए या नहीं ? गच्छ की अनुमति हो तो उसे उपसम्पदा दी जाती है, अन्यथा प्रतिषेध कर दिया जाता है। यदि कुछ गच्छवासी मान्य करते हैं और कुछ अमान्य, तो अमान्य करने वालों को उस क्षपक की वैयावृत्त्य में बल प्रयोग से नियोजित नहीं किया जाता । अविकृष्ट तपस्वी को पूछा जाता है - पारणे में तुम्हारी स्थिति कैसी रहती है ? वह कहता है- गुरुदेव ! पारणक में मेरी स्थिति ग्लान जैसी हो जाती है। तब गुरु कहते हैंआयुष्मन् ! तुम तप मत करो। तुम्हारे में इतनी शक्ति नहीं है, अतः बहुगुणकारी स्वाध्याय करो । विकृष्ट तपस्वी पारणक में क्लांत भी हो सकता है। फिर भी उसे तपःकरण की अनुज्ञा दे दी जाती है, क्योंकि विकृष्ट तप महागुणकारी है । उसे भक्तपान, भैषज आदि लाकर दिए जाते हैं । तपस्वी की सेवा के मुख्य कार्य हैं• उसके उपकरणों का प्रतिलेखन करना। ० बिछौना करना । • उसके योग्य पानक लाकर देना। • यथासमय मात्रकत्रिक (उच्चारमात्रक, प्रस्रवणमात्रक, श्लेष्ममात्रक) लाकर देना और परिष्ठापन करना। २. गणसंक्रमण के पांच हेतु णाण दंसणट्ठा, चरितट्ठा एवमाइसंकमणं । संभोगट्ठा व पुणो, आयरियट्ठा व णातव्वं ॥ सुत्तस्स व अत्थस्स व उभयस्स व कारणा तु संकमणं । वीसज्जियस्स गमणं, भीओ य णियत्तई कोई ॥ कालियपुव्वगते वा, णिम्माओ जदि य अत्थि से सत्ती । दंसणदीवगहेडं, गच्छइ अहवा इमेहिं तू ॥ चरितट्ठ देस दुविहा, एसणदोसा य इत्थिदोसा य । गच्छम्मि विसीयंते, आतसमुत्थेहि दोसेहिं ॥ तिहट्टा संकमणं, एवं संभोइएस जं भणितं । तेसऽसति अण्णसंभोइए वि वच्चेज्ज तिण्हट्ठा ॥ (निभा ५४५८, ५४५९, ५५२३, ५५३९, ५५५३) एक गण से दूसरे गण में संक्रमण के पांच हेतु हैं— १. ज्ञानार्थ उपसम्पदा । ४. सम्भोजार्थ उपसम्पदा । ५. आचार्यार्थ उपसम्पदा । २. दर्शनार्थ उपसम्पदा । ३. चारित्रार्थ उपसम्पदा । १४२ आगम विषय कोश - २ १. ज्ञानार्थ उपसम्पदा - अपने आचार्य के पास सूत्रार्थ - ग्रहण के पश्चात् अभिनव सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थग्रहण के लिए मुनि अपने आचार्य के द्वारा विसर्जित होने पर अन्य गण में जाए। वहां आचार्य के कठोर स्वभाव से डर कर यदि लौट आता है। तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। २. दर्शनार्थ उपसम्पदा - मुनि कालिक श्रुत और पूर्वगतश्रुत में निपुण होने के पश्चात् यदि सामर्थ्य हो तो दर्शन ( स्व - पर मतों) के प्रकाशन के लिए उपसम्पदा स्वीकार करता है। ३. चारित्रार्थ उपसम्पदा - इसके दो हेतु हैं१. देशदोष - अपने क्षेत्र में एषणा - दोष स्त्री-संबंधी दोष उत्पन्न होने पर चारित्रविशोधि के लिए गणसंक्रमण करे। २. आत्मसमुत्थदोष — गुरु या सम्पूर्ण गच्छ चक्रवाल सामाचारी के पालन में श्लथ या खिन्न हो जाये तो उन्हें सावधान करे, पन्द्रह दिन प्रतीक्षा करे, परिवर्तन के अभाव में गणसंक्रमण करे। • सम्भोजार्थ उपसम्पदा : चारित्राचार में श्लथता संभोगा अवि हु तिहिं, कारणेहिं तत्थ चरणे इमो भेदो । संकमचउक्कभंगो, पढमे गच्छम्मि सीदंते ॥ पडिले दियतुट्टण, णिक्खवणाऽऽयाण विणय सज्झाते । आलोय-ठवण- भत्तट्ठ-भास पडलग-सेज्जातरादीसु ॥ चोदावेति गुरूण व सीदंतं गणं सयं व चोदेति । आयरियं सीदंतं, सयं गणेणं व चोदावे ॥ दोण्णि विविसीयमाणे, सयं च जे वा तहिं ण सीदंति । ठाणं ठाणासज्जतु, अणुलोमादीहि चोदावे ॥ भणमाण भणावेंतो, अयाणमाणस्स पक्ख उक्कोसो। लज्जा पंच तिण्णि व तुह किं ति व परिणते विवेगो ॥ (निभा ५५५४-५५५८) ज्ञान, दर्शन और चारित्र - इन तीन कारणों से संभोज उपसम्पदा ग्रहण की जाती है। जिसके पास ज्ञान - दर्शन हेतु उपसम्पदा स्वीकार की है, उसमें खिन्नता या श्लथता होने पर वहां से निर्गमन कर पुनः अन्य गण में संक्रमण करना चाहिये । जहां चारित्र के लिए उपसम्पन्न हुआ है, उस गच्छ में चारित्रपालन के प्रति श्लथता प्रतीत हो तो वहां से अन्य संविग्न गण में संक्रमण करे। संक्रमण हेतु के चार विकल्प हैं१. गच्छ श्लथ है, आचार्य नहीं । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १४३ उपसम्पदा २. आचार्य श्लथ है, गच्छ नहीं। (या पन्द्रह) दिन तक कुछ नहीं कहता, फिर भी वह शुद्ध ३. गच्छ भी श्लथ है, आचार्य भी श्लथ है। है। सावधान करने पर यदि वे कहें कि 'तुम्हें क्या प्रयोजन? ४. न गच्छ श्लथ है, न आचार्य। हम श्लथ हैं तो हमारी दुर्गति होगी। तुम क्यों दुःखी हो रहे गच्छ में चारित्राचार में अवसन्नता या श्लथता के हो?' ऐसा कहने वाले गुरु और गच्छ को छोड़कर अन्य किसी मुख्य दस बिंदु हैं उद्यतविहारी गण में संक्रमण करना चाहिये। ० प्रतिलेखन--समय पर प्रतिलेखना न हो, प्रतिलेखना में आचार्य के उपसम्पदा ग्रहण के हेतु विपर्यास हो अथवा जहां गुरु, ग्लान आदि की उपधि की आयरिओ वि हु तिहि कारणेहि णाणट्ठदंसणचरित्ते। प्रतिलेखना न हो। नाणे महकप्पसुयं, ० दिवसशयन-निष्कारण दिन में शयन हो। विजा-मंत-णिमित्ते, हेतूसत्थ? सणवाए। निक्षेप-आदान-प्रमाद-वस्तु को रखते या ग्रहण करते समय चरितट्ठा पुव्वगमो, अहव इमे होंति आएसा॥ प्रतिलेखन-प्रमार्जन न करे। आयरिय-उवज्झाए, ओसण्णोहाविते व कालगते। ० विनय-यथायोग्य विनय का प्रयोग न हो। ओसण्ण छव्विहे खलु, वत्तमवत्तस्स मग्गणता॥ ० स्वाध्याय-सूत्र-अर्थ पौरुषी न करे अथवा अकाल या (निभा ५५७१-५५७४) अस्वाध्याय में स्वाध्याय करे। आचार्य भी तीन कारणों से उपसम्पदा ग्रहण करते हैं० आलोचना-पाक्षिक आलोचना और दोषों की आलोचना न . ज्ञानार्थ-महाकल्पश्रुत आदि के अध्ययन के लिए। करे या आहार आदि लाकर गुरु को न दिखाये। जीमनवार में दर्शनार्थ-विद्या, मंत्र और निमित्त संबंधी शास्त्रों को जानने के आहार की गवेषणा करे। लिए तथा गोविन्दनियुक्ति आदि हेतुशास्त्र पढ़ने के लिए। ० स्थापना-स्थापनाकुलों का निर्धारण न करे अथवा स्थापित ० चारित्रार्थ-चारित्रविशोधि के स्थानों की अभिवृद्धि तथा कुलों में गुरु की अनुमति बिना प्रवेश करे। सामाचारी की विशिष्ट परिपालना के लिए। अथवा इसमें तीन ० भक्तार्थ-मण्डली में भोजन न कर अकेला ही खाये, गुरु आदेश भी हैंको दिखाये बिना ही खाये। १. कोई आचार्य अवसन्न हो गया है-पार्श्वस्थ, अवसन्न, ० पटलक-गठरियों में लाया हुआ आहार करे। कुशील, संसक्त, नैयतिक (नित्यपिंडखादक) और यथाच्छन्द० शय्यातर-शय्यातरपिंड खाये, सदोष भिक्षा ग्रहण करे। इन छहों में से किसी भी प्रकार के अवसन्न आचार्य का जो गण की इस विषण्णता या शिथिलता के निवारण के शिष्य आचार्यपद के योग्य है, वह वय और श्रुत से व्यक्त है या लिए गुरु से प्रेरणा दिलवाये या स्वयं प्रेरणा दे। आचार्य । अव्यक्त-इसकी मार्गणा के लिए। विषण्ण हो तो स्वयं प्रेरणा दे या गण प्रेरणा दे। २. अवधावित-कोई आचार्य या उपाध्याय अवधावन कर गण और आचार्य दोनों विषण्ण हों तो स्वयं अथवा गृहस्थ बन गया है तो उस गण की व्यवस्था के लिए। जो सामाचारी पालन में सजग हैं, वे गण और आचार्य को ३. कालगत-कोई आचार्य दिवंगत हो गया हो तो उस गण आचारपालन में जागरूकता हेतु प्रेरित करें। स्थान (आचार्य, की सार-संभाल के लिए। शैक्ष आदि) के अनुरूप अनुलोम-प्रतिलोम, मधुर-कठोर वचनों ३. गण-संक्रमण से पूर्व अनुमति अनिवार्य से प्रेरित करें। भिक्खूय गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं प्रेरणा या सारणा-वारणा करने पर भी ये संयम में उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए. कप्पड़ से आपुच्छित्ता उद्यमशील होंगे या नहीं-यह ज्ञात न हो तो उत्कृष्ट एक आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं उवसंपपक्ष तक उनके साथ रहा जा सकता है। सामाचारी में अवसन्न जित्ताणं विहरित्तए....ते य से नो वियरेज्जा, एवं से गरु को जो शिष्य लज्जा या गौरव के कारण तीन अथवा पांच नो कप्पड.....। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसम्पदा १४४ आगम विषय कोश-२ गणावच्छेइए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा..... ८. गुरुप्रेषित-आचार्य ने मुझे श्रुत अध्ययन के लिए आपके नो कप्पड़ गणावच्छेइयस्स गणावच्छेइयत्तं अनिक्खि- पास भेजा है, ऐसा कहना। वित्ता..."नो कप्पइ आयरिय-उवज्झायस्सायरिय- जो मुनि इन अतिचारों से मुक्त होकर अन्य गण की उवज्झायत्तं अनिक्खिवित्ता अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं उपसंपदा स्वीकार करता है, 'आचार्य द्वारा विसर्जित होकर मैं विहरित्तए। णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता॥ आपके पास आया हूं'-ऐसा कहता है, वह शुद्ध है। (क ४/१६-१८) ५. निर्गमन स्थान : पंजरभग्न-पंजराभिमुख भिक्षु गण से अपक्रमण कर अन्य गण की उपसम्पदा जयमाणपरिहवेंते, आगमणं तस्स दोहि ठाणेहिं। स्वीकार कर विहरण करना चाहे, वह आचार्य यावत् पंजरभग्गअभिमुहे, आवासयमादि आयरिए॥ गणावच्छेदक को पूछकर जा सकता है। वे अनुमति नहीं दें (निभा ६३४९) तो नहीं जा सकता। साधु दो स्थानों से उपसम्पदा के लिए आते हैंगणावच्छेदक, आचार्य या उपाध्याय अन्य गण में १. यतमान-संविग्न साधुओं के पास से आने वाले, ज्ञानउपसम्पन्न हो विहरण करना चाहें तो वे अपने पदों का दर्शन को उपसम्पदा के लिए समागत। ये साध 'पंजरभग्न' कहलाते हैं। निक्षेप/त्याग किए बिना तथा आचार्य आदि की अनमति लिए कहलात हा बिना नहीं जा सकते। २. परिभवत्-पार्श्वस्थ आदि के पास से आने वाले, चारित्र की उपसम्पदा के लिए समागत । ये साधु पंजराभिमुख कहलाते ४. उपसम्पदा के आठ अतिचार हैं। आचार्य दोनों प्रकार के साधुओं की आवश्यक आदि पदों .."आपुच्छिऊण गमणं, भीतो य नियत्तते कोती। से परीक्षा कर उनको उपसम्पन्न करे। चिंतंतो वइगादी संखडि पिसुगादि अपडिसेहे य। ० पंजर शब्द के अर्थ : शकुनि दृष्टांत परिसिल्ले सत्तमए, गुरुपेसविए य सुद्धे य॥ पणगादि संगहो होति पंजरो जा य सारणऽण्णोण्णे। (बृभा ५३६३, ५३६४) पच्छित्तचमढणादी, णिवारणा सउणिदिटुंतो॥ पृच्छा और अनुमति के पश्चात् आचार्य द्वारा विसर्जित आयरिओ-उवज्झातो पवत्ती थेरो गणावच्छेतितो होकर गमन करने पर आठ अतिचार संभव हैं एतेहिं पंचहिं परिग्गहितो गच्छो पंजरो भण्णति। आदि१. भयभीत-विवक्षित गण के आचार्य की कठोर चर्या को ग्गहणाओ भिक्ख-वसह-वड-खडगा य घेप्पंति। सुनकर लौट आना। (निभा ६३५० चू) २. चिंता-मैं जाऊं या न जाऊं-इस चिंतन से जाना। पंजर शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त है३. वजिका वजिका आदि में प्रतिबद्ध होकर मार्ग से प्रत्यावर्तन १. पंचकादि संग्रह-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर करना। और गणावच्छेदक-इन पांचों से परिगृहीत गच्छ पंजर कहलाता ४. संखडि-जीमनवार में प्रतिबद्ध हो जाना। है। भिक्षु, वृषभ, क्षुल्लक और वृद्ध इसी के अन्तर्गत हैं। ५. पिशुक-पिशुक, दंश-मशक आदि के भय से लौट आना। २. सारणा-वारणा-आचार्य आदि परस्पर सारणा-वारणा करते ६. अप्रतिषेधक-किसी गण के मेधावी शिष्य को अन्य गण हैं-मृदु-मधुर वचनों से प्रेरणा या उपालंभ देते हैं तथा कठोर में जाते देख मार्गवर्ती आचार्य उसको स्वयं नहीं रोकते, किन्तु वचनों से तर्जनापूर्वक प्रायश्चित्त देकर असामाचारी से निवृत्त ऐसा उपाय करते हैं कि वह विपरिणत होकर वहां रुक जाता करते हैं, यह पंजर कहलाता है। पिंजरे में स्थित पक्षी के स्वच्छन्द गमन का शलाका ७. परिषयुक्त-जिस गण में जा रहा है, वहां की परिषद् आदि द्वारा निवारण किया जाता है। इसी प्रकार गच्छ रूपी संविग्न तथा असंविग्न-दोनों प्रकार की हो, वहां जाना। पंजर में प्रतिबद्ध शिष्य का सारणा-वारणा की शलाका से Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १४५ उपसम्पदा असामाचारीरूप उन्मार्ग में गमन निरुद्ध हो जाता है। ० स्थविर-पीछे आचार्य या मुनिगण वृद्ध हों और वह ६. उपसम्पदा के अयोग्य उनकी सेवा करता हो। अहिकरण विगति जोए पडिणीए थद्ध लुद्ध णिद्धम्मे। . ग्लान-बहुरोगी-पीछे ग्लान या बहुरोगी अकेला हो और अलसाणुबद्धवेरो, सच्छंदमती परिहियव्वे॥ वह उसकी सेवा करता हो। (निभा ६३२७) ० निर्धर्म-साधु-परिवार आचार्य की आज्ञा न मानता हो, अपने गण से दस स्थानों से निर्गमन कर आने वाला केवल उसके भय से ही कार्य करता हो। साधु उपसम्पदा की दृष्टि से परिहरणीय है ० प्राभूत-अपने गच्छ में उत्पन्न कलह का उपशमन करने १.गहस्थों अथवा मनियों के साथ कलह हो जाने के कारण। में सक्षम हो. गरु का सहयोगी हो। २. विकृति की प्रतिबद्धता से। उल्लिखित स्थितियों में सक्षम संवाहक का कार्य करने ३. योगोद्वहन के भय से। वाला मुनि यदि उपसम्पदा के लिए आता हो तो उसे उपसम्पदा ४. यहां मुनि मेरा प्रत्यनीक है, यह सोचकर। दिए बिना ही यथोचित प्रायश्चित्त प्रदान कर लौटा देना ५. आचार्य के आने-जाने पर अभ्युत्थान न करने से खरंटना चाहिए। होती है, इस स्तब्धता से। ८. उपसम्पद्यमान की पृच्छा अवधि ६. उत्कृष्ट द्रव्य यहां नहीं मिलते, इस लोलुपता के कारण। पढमदिणम्मि न पुच्छे, लहुओ मासो उबितिय गुरुओय। ७. यहां आचार्य उग्रदण्ड देते हैं, इस विचार से। ततियम्मि होंति लहगा, तिण्हं तु वतिक्कमे गुरुगा। ८. भिक्षाचर्या के लिए श्रम करना होता है, इस कारण से। कजेभत्तपरिणा, गिलाण राया व धम्मकहि-वादी। ९. यहां मुनि अनुबद्ध वैर वाले हैं, इस कारण से। छम्मासा उक्कोसा, तेसिं तु वतिक्कमे गुरुगा। १०. यहां आने-जाने की स्वतंत्रता नहीं है-इस कारण से। (व्यभा २९८, २९९) ७. योग्य होने पर भी अग्राह्य उपसम्पदा के लिए आने वाले साधु की प्रथम दिन ही एगे अपरिणए वा, अप्पाधारे य थेरए। गिलाणे बहुरोगे य, मंदधम्मे य पाहुडे॥ पृच्छा करनी चाहिए कि तुम यहां किस कारण से आये हो? एगाणियं तु मोत्तुं, वत्थादि अकप्पिएहि वा सहित। " प्रथम दिन पृच्छा किए बिना और आलोचना दिए बिना उसे अप्पाधारो वायण, तं चेव य पुच्छिउं देति॥ ___ अपने गण में रखने वाले आचार्य लघुमास प्रायश्चित्त के थेरमतीवमहल्लं, अजंगमं मोत्तु आगतो गुरुं तु। " भागी होते हैं। दूसरे और तीसरे दिन पृच्छा करने पर क्रमश: सो च परिसा व थेरा, अहं त वावओ तेसिं गुरुमास और चतुर्लघुमास तथा तीन दिनों का अतिक्रमण होने तत्थ गिलाणो एगो, जप्पसरीरो त होति बहरोगी। पर चतुगुरुमास प्रायश्चित्त आता है। निद्धम्मा गुरु-आणं, न करेंति ममं पमोत्तूणं॥ पृच्छा पृच्छा के कुछ अपवाद हैंएतारिसं विउसज्ज, विप्पवासो न कप्पति। ० आचार्य संघ के किसी विशेष कार्य में संलग्न हों। सीसायरिय पडिच्छे, पायच्छित्तं विहिज्जइ॥ ० किसी साधु ने अनशन कर लिया हो। (व्यभा २५७-२६१) ० कोई साधु ग्लान हो गया हो। ० एकाकी-जो एकाकी आचार्य को छोड़कर आया हो। ० जिज्ञासु धर्मार्थी राजा प्रतिदिन धर्मकथा सुनने आता हो। ० अपरिणत-किसी भी शैक्ष ने वस्त्रैषणा आदि का अध्ययन ० किसी वादी का निग्रह करना हो-इत्यादि प्रयोजनों के कर कल्प न किया हो, उन्हें छोड़कर आया हो। कारण आचार्य यदि उत्कृष्ट छह माह तक पृच्छा न करे, तब ० अल्पाधार-पीछे आचार्य सूत्रार्थ-निपुण न हों, उसे पूछकर भी प्रायश्चित्त के भागी नहीं होते। इस समय-सीमा का वाचना देते हों। व्यतिक्रम होने पर गुरुमास प्रायश्चित्त आता है। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसम्पदा १४६ आगम विषय कोश-२ ९. उपसम्पन्न की परीक्षा के आठ बिन्दु सुखपूर्वक रहूंगा। ऐसा शिष्य प्रतीच्छनीय नहीं है। आवस्सग-पडिलेहण, सज्झाए भुंजणे य भासाए। जो शिष्य प्रशिक्षण लेते हुए शेष साधुओं को देखकर वीयारे गेलण्णे, भिक्खग्गहणे पडिच्छंति॥ स्वत: उस प्रमादस्थान से निवृत्त हो जाता है और गुरुचरणों में हीणाधियविवरीते, सति वि बले पुव्वऽठंति चोदेति। पहुंच कर गदगद् स्वर से सविनय निवेदन करता हैअप्पणए चोदेती, न ममंति सुहं इहं वसितुं॥ भंते! मैं आपकी शरण में आ गया हूं, फिर भी आपके जो पुण चोइज्जंते, दट्ठण नियत्तए ततो ठाणा। प्रेरणा-प्रशिक्षण के अनुग्रह से वंचित हूं, आप द्वारा परित्यक्त हो भणति अहं भे चत्तो, चोदेह ममं पि सीदंतं॥ गया हूं। आप जैसे परम करुणचेता के लिए यह उचित नहीं है। पडिलेहणसज्झाए, एमेव य हीणमधियविवरीतं। अत: मुझ पर अनुग्रह करें और प्रमाद करने पर मुझे भी प्रेरणादोसेहिं वावि भ॑जति, गारस्थियढड्ढरा भासा॥ प्रशिक्षण दें।' ऐसा शिष्य प्रतीच्छनीय है। थंडिल्लसमायारिं, हावति अतरंतगं न पडिजग्गे। इसी प्रकार आचार्य हीन-अधिक, विपरीत आदि दोषों अभणितो भिक्खन हिंडति, अणेसणादी व पिल्लेई॥ से यक्त स्वाध्याय और प्रतिलेखना करते हए आत्मीय शिष्य (व्यभा २६६.२६८-२७१) को शिक्षा देते हैं. परीक्ष्यमाण को नहीं। आचार्य शिष्य का आठ दृष्टियों से परीक्षण करते हैं कोई शिष्य सुरसुर, चवचव शब्द करता हुआ खाता १. आवश्यक ५. भाषा है, गृहस्थ की भाषा में बोलता है, उच्च स्वर. से बोलता है, २. प्रतिलेखन ६. विचारभूमि विचारभूमि संबंधी सामाचारी का लोप करता है, असमर्थ ३. स्वाध्याय ७. ग्लान ग्लान साध की सेवा नहीं करता है. बिना कहे भिक्षा के ४. भोजन ८. भिक्षाग्रहण लिए नहीं जाता है या कहने पर भी थोड़ा-सा घूमकर आ आवश्यक में कायोत्सर्ग संबंधी प्रमाद के कुछ स्थान ___ जाता है, अनेषणीय आहार ग्रहण करता है-इस प्रकार के हैं। यथा-० हीन-कायोत्सर्ग सूत्रों का मंद-मंद उच्चारण प्रमादरत आत्मीय साधु को आचार्य प्रेरित करते हैं, परीक्ष्यमाण कर शेष साधुओं के कायोत्सर्ग में स्थित होने के पश्चात् साधु को नहीं। कायोत्सर्ग करता है। १०. मार्गवर्ती उपसंपदा : इत्वर दिग्बंध ० अधिक-कायोत्सर्ग सूत्रों का अति शीघ्रता से उच्चारण कर आयपरोभयतुलणा, चउव्विहा सुत्तसारणित्तरिया। अनुप्रेक्षा करने के लिए सबसे पहले कायोत्सर्ग करता है, तिहऽट्ठा संविग्गे, इयरे चरणेहरा नेच्छे॥ रत्नाधिक के कायोत्सर्ग पूर्ण करने के बहुत देर पश्चात् अपना तेषामुपसम्पन्नानां चासौ सूत्रसारणां करोति, सूत्रं कायोत्सर्ग पूर्ण करता है। पाठयतीत्यर्थः।"इत्वरां दिशं बध्नाति, यथा-यावदा० विपरीत-प्रादोषिक और प्राभातिक कायोत्सर्ग में व्यत्यय चार्याणां सकाशं व्रजामस्तावदहमेवाचार्योऽहमेवोकरता है। पाध्यायः, तत्रगतानामाचायो ज्ञायकाः। (बृभा १२५३ वृ) ० शक्तिगोपन-आचार्य के साथ प्रतिक्रमण करना चाहिए। किन्तु किसी कारणवश आचार्य के विलम्ब हो तो सूत्रार्थस्मरण देश-दर्शन के समय मुनि जिनको उपसंपदा देते हैं, के लिए पहले कायोत्सर्ग नहीं करता है। प्रव्रजित करते हैं, उन्हें वे सूत्रआगम पढाते हैं और इत्वर इस प्रकार आवश्यक में प्रमाद करने पर आचार्य शिष्य । दिशाबंध करते हैं, यथा-जब तक हम आचार्य के पास न को सावधान करते हैं, प्रेरणा देते हैं किन्तु जिसकी परीक्षा की जाएं, तब तक मैं ही आचार्य हूं और मैं ही उपाध्याय हूं। जा रही है, उसे प्रमाद करने पर भी शिक्षा नहीं देते हैं। प्रेरणा के वहां जाने के पश्चात् आचार्य ही प्रमाण हैं। अभाव में परीक्षणीय शिष्य यदि ऐसा सोचता है कि ये आचार्य जो संविग्न मुनि ज्ञान, दर्शन और चारित्र के लिए आत्मीय शिष्यों को प्रेरित करते हैं, मुझे नहीं, अतः मैं यहां उपसम्पन्न होना चाहते हैं, उन्हें अवश्य उपसंपदा दें। जो Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ पार्श्वस्थ मुनि चारित्र के लिए उपसम्पन्न होना चाहते हैं, उनका संग्रह करें और जो केवल ज्ञान - दर्शन के प्रयोजन से उपसम्पन्न होना चाहते हैं, उन्हें कभी उपसम्पदा न दें। १४७ उपसम्पदा से पूर्व आचार्य स्वयं की और उपसम्पद्यमान शिष्य की चार प्रकार से परीक्षा करते हैं । o आचार्य द्वारा आत्मपरीक्षण आहाराई दव्वे, उप्पाएडं सयं जइ समत्थो । खेत्तओ विहारजोग्गा, खेत्ता विहतारणाईया ॥ कालम्मि ओममाई, भावे अतरंतमाइपाउग्गं । कोहाइनिग्गहं वा, जं कारण सारणा वा वि ॥ (बृभा १२५४, १२५५) उपसम्पदा से पूर्व आचार्य स्वयं को तोलते हैं१. द्रव्यतः - क्या मैं उपसम्पन्न मुनियों के लिए एषणीय आहार आदि का उत्पादन कर सकता हूं? २. क्षेत्रत:- क्या मैं वर्षावास तथा मासकल्प के योग्य क्षेत्रों की गवेषणा कर सकता हूं? क्या मैं मार्गगत मुनियों का योगक्षेम वहन कर सकता हूं ? ३. कालतः - क्या मैं दुर्भिक्ष आदि में शिष्यों का निर्वाह कर सकता हूं? ४. भावतः - क्या मैं शैक्ष, वृद्ध और ग्लान मुनियों की आवश्यकताओं को पूरी कर सकता हूं ? क्या मैं क्रोध आदि कषायों का निग्रह करने में सक्षम हूं ? क्या मैं अपने पास उपसम्पन्न मुनियों के ज्ञान आदि के प्रयोजन को सिद्ध कर सकता हूं ? ० परतुलना (शिष्य-परीक्षा) : स्नुषा दृष्टांत आहाराइ अनियओ, लंभो सो विरसमाइ निज्जूढो । उभामग खुलखेत्ता, अरिउहियाओ अ वसहीओ ॥ ऊणाइरित्त वासो, अकाल भिक्ख पुरिमड्ड ओमाई । भावे कसायनिग्गह, चोयण न य पोरुसी नियया ॥ अत्तणि य परे चेवं, तुलणा उभय थिरकारणे वृत्ता । पडिवज्जंते सव्वं, करिंति सुहाए दिट्टंतं ॥ मरिसिज्जइ अप्पो वा, सगणे दंडो न यावि निच्छुभणं । अम्हे पुण न सहामो, ससुरकुलं चेव सुण्हाए ॥ (बृभा १२५६ - १२५८, १२६१ ) उपसम्पदा से पूर्व आचार्य प्रतीच्छक मुनियों के सामर्थ्य उपसम्पदा का परीक्षण करते हैं १. द्रव्यतः - वे उन्हें बताते हैं - यहां आहार आदि का लाभ अनियत है। अरस - विरस तथा परिष्ठापन योग्य आहार भी आ सकता है। २. क्षेत्रतः - भिक्षाचर्या के लिए अन्य गांवों में अथवा ऐसे गांवों में जहां भिक्षाप्रदाता अल्प हों, भिक्षाप्राप्ति भी अल्प हो - वहां जाना पड़ सकता है। रहने के लिए ऋतु के प्रतिकूल स्थान भी प्राप्त होता है। ३. कालतः - कभी-कभी वर्षावासकल्प या मासकल्प स्थानों में अतिरिक्त निवास भी करना पड़ता है। किसी-किसी क्षेत्र में सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी के समय भिक्षा के लिए जाना पड़ता है। कहीं पूर्वार्द्ध बीत जाने पर भी पूरा आहार प्राप्त नहीं होता है। ४. भावतः - कषायनिग्रह करना आवश्यक है। यहां कठोर वचनों से प्रेरित किया जाता है। सूत्र और अर्थ पौरुषी नियत नहीं भी होती। इतना बताने पर प्रतीच्छक (अन्य गुरु परम्परा के ) मुनि यदि सहर्ष इन सब बातों को स्वीकार करें तो उन्हें उपसम्पदा दें, अन्यथा नहीं । स्नुषा दृष्टान्त - उन्हें स्पष्ट रूप से स्नुषा के दृष्टांत से समझाएं - आर्यो ! तुम्हारा गच्छ पितृगृहस्थानीय है और हमारा गण तुम्हारे लिए श्वसुरकुलस्थानीय है । पितृगृह में वधू का प्रमाद सहन कर लिया जाता है, परन्तु श्वसुरगृह में उसे सहन करना कठिन होता है। हम आपका अल्प प्रमाद भी सहन नहीं करेंगे। प्रमाद के प्रसंग में हम लघु या गुरु प्रायश्चित्त भी देंगे। ११. उपसम्पद्यमान द्वारा आचार्य की परीक्षा तेण वि आगंतुणा गच्छो परिच्छियव्वो आवस्सगमादीहिं पुव्वभणियदारेहिं । गच्छिल्लगाणं जति किंचि आवस्सगदारेहिं सीदंतं पस्सइ तो आयरियातीणं कहेति, सो कहिए सम्म आउट्टति त्ति तं साधुं चोदेति पच्छित्तं च से देति तो तत्थ उवसंपदा । अह कहिते सो आयरिओ तुसिणीओ अच्छति भणति वा - किं तुज्झ, णो सम्म आउट्टति ? तो अविउट्टे आयरिए अण्णहिं गच्छति अन्यत्रोपसंपन्नतेत्यर्थः । (निभा ६३५१ की चू) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसम्पदा १४८ आगम विषय कोश-२ __ आगंतुक शिष्य किसी गच्छवासी साधु को आवश्यक आदि क्रियाओं में प्रमत्त देखता है तो आचार्य के पास जाकर उस प्रमाद का निवेदन करता है। निवेदन सनकर आचार्य उस प्रमादी साध को सावधान करते हैं. उचित प्रायश्चित्त देते हैं. तो वह वहां उपसम्पदा ग्रहण करता है। इसके विपरीत प्रमाद के ज्ञात होने पर भी आचार्य मौन रहते हैं अथवा यह कहते हैं-प्रवृत्ति करता है या नहीं करता है-इससे तुम्हें क्या प्रयोजन? आचार्य के द्वारा ऐसा उपेक्षापूर्ण व्यवहार किए जाने पर वह अन्यत्र गच्छान्तर में उपसम्पदा ग्रहण करता है। १२. आलोचना-श्रवण व सामाचारी बोध पासस्थाईमुंडिएँ, आलोयण होइ दिक्खपभिईओ। संविग्गपुराणे पुण, जप्पभिई चेव ओसन्नो॥ समणुनमसमणुन्ने, जप्पभिई चेव निग्गओ गच्छा। सोहिं पडिच्छिऊणं, सामायारिं पयंसंति॥ अवि गीय-सुयहराणं, चोइज्जंताण मा हु अचियत्तं। मेरासु य पत्तेयं, माऽसंखड पुव्वकरणेणं॥ (बृभा १२६२-१२६४) उपसम्पदा स्वीकार करने वाले शिष्य दो प्रकार के हो सकते हैं-पार्श्वस्थ और संविग्न। पार्श्वस्थ द्वारा मुण्डित पार्श्वस्थ जब दीक्षित हुआ था, उस दिन से लेकर आज तक की आलोचना करता है। संविग्न से मुण्डित संविग्न यदि अवसन्न (सामाचारी में शिथिल) हो गया है तो वह जब से अवसन्न हुआ, तब से आलोचना प्रारंभ करता है। सांभोजिक और असांभोजिक संविग्न जब से अपने गच्छ से निकले हैं. उस दिन से लेकर आज तक की उन्हें आलोचना करनी होती है। आचार्य आलोचना सुनकर उन्हें तप, छेद, मूल आदि जो भी प्रायश्चित्त देना होता है, देते हैं और फिर अपने गच्छ की सामाचारी से अवगत कराते हैं। गीतार्थ, श्रुतधर-गणी, वाचक आदि बहुश्रुत, जो भी उपसम्पन्न होते हैं, उनकी अपने-अपने गण की अपनीअपनी सामाचारी होती है। उसमें अभ्यस्त होने के कारण वे वर्तमान सामाचारी में स्खलित हो जाते हैं तो उन्हें बार-बार प्रेरित किया जाता है, इससे उनमें अप्रीति उत्पन्न हो सकती है, कलह हो सकता है। अतः इनसे बचने के लिए उन्हें सर्वप्रथम चक्रवाल सामाचारी का प्रशिक्षण देना चाहिए। १३. उपदेश-स्मारणा-प्रतिस्मारणा उवएसो सारणा चेव, तइया पडिसारणा। छंदे अवट्टमाणं, अप्पछंदेण वज्जेज्जा॥ निद्दापमायमाइसु, सई तु खलियस्स सारणा होइ। नणु कहिय ते पमाया, मा सीयसु तेसु जाणंतो॥ फुड-रुक्खेअचियत्तं, गोणोतुदिओवमाहुपेल्लेजा। सज्ज अओ न भन्नई, धुव सारण तं वयं भणिमो॥ (बृभा १२६६-१२६८) ० उपदेश-सामाचारी में स्खलना करने पर गुरु उपसम्पन्न शिष्य को उपदेश देते हैं-निद्रा. विकथा आदि प्रमाद त्याज्य हैं-यह हमारी सामाचारी है। जो उपदेश के अनुसार वर्तन नहीं करता, उसे गुरु स्व अभिप्राय से विमर्शपूर्वक गच्छ से निष्कासित कर देते हैं। ० स्मारणा-एक बार निद्रा प्रमाद आदि करने पर उसे स्मरण कराना चाहिए कि हमने पहले ही तुम्हें प्रमाद के बारे में बता दिया है, अत: जानते हुए भी प्रमाद मत करो। ० प्रतिस्मारणा-दूसरी, तीसरी बार स्खलना होने पर पुनः सचेत करना प्रतिस्मारणा है। जिसने प्रमाद किया है, उसे सीधा न कहकर अन्य के बहाने सजग करना चाहिए। स्फुट और रूक्ष शब्दों के प्रयोग से अप्रीति उत्पन्न होती है। इससे वह क्रुद्ध हो उत्प्रव्रजित भी हो सकता है। जैसे भार से लदे बैल को अत्यधिक पीडित करने पर वह भार को गिरा देता है। अतः प्रमाद करने पर तत्काल न कहकर कुछ समय पश्चात् अथवा दूसरे दिन कहना चाहिए। संयमयोगों में प्रमाद करने पर स्मारणा अवश्य करनी चाहिए। (महानिशीथ के दूसरे अध्ययन में कहा गया हैरूसउ वा परो मा वा, विसं वा परियत्तउ। भासियव्वा हिया भासा, सपक्खगुणकारिया ॥ 'कोई रुष्ट हो या न हो, चाहे विषरूप में-विपरीत रूप में अन्यथा ग्रहण करे, तब भी स्वपक्ष- साधुता के लिए जो गुणकारी और हितकारी हो, वैसी भाषा बोलनी चाहिए।) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ अतः जिन आज्ञा की आराधना के लिए हम आपको ऐसा कहते हैं, मत्सर या प्रद्वेष से प्रेरित होकर नहीं' - इस प्रकार आचार्य प्रमत्त शिष्य की सारणा वारणा करते हैं । १४. सारणा की अनिवार्यता : प्रमादी का परित्याग सारेयव्वो नियमा, उवसंपन्नो सि जं निमित्तं तु । तं कुणसु तुमं भंते!, अकरेमाणे विवेगो उ ॥ (व्यभा २८८ ) ते परं निच्छुभणा, आउट्टो पुण सयं परेहिं वा । तंबोलपत्तनायं, नासेहिसि मज्झ अन्ने वि ॥ (बृभा १२७२) जो उपसंपन्न है, उसकी नियमतः सारणा की जाती है - भदन्त ! तुम ज्ञानाभ्यास आदि जिस निमित्त से उपसंपन्न हो, उसे उसी रूप में सम्पादित करो - इस प्रकार सारणा करने पर भी वह अपने लक्ष्य में एकनिष्ठ नहीं होता है तो उसका परित्याग कर दिया जाता है 1 तीन बार जागरूक करने पर भी यदि वह प्रमाद से निवृत्त नहीं होता है तो आचार्य उसे गण से निष्कासित कर देते हैं, तब वह स्वयं या दूसरों के द्वारा प्रेरित होकर प्रमाद से निवृत्त हो जाता है और संकल्प करता है- भंते! अब मैं इस गलती को पुनः नहीं करूंगा। आप मुझे क्षमा करें। तब गुरु उसे अनुशासित करते हैं--जैसे एक सड़ा हुआ ताम्बूलपत्र (पान) अन्य पत्रों को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार तुम स्वयं विनष्ट होकर मेरे अन्य शिष्यों का भी नाश करोगे। इसलिए मैंन तुम्हें गण से निष्काशित किता है। १५. प्रमादी द्वारा पश्चात्ताप, गच्छ द्वारा निवेदन .... सेज्जायरनिब्बंधे, कहियाऽऽगय न विणए हाणी ॥ को नाम सारहीणं, स होइ जो भद्दवाइणो दमए । दुवि उ जो आसे, दमेइ तं आसियं बिंति ॥ होति हुपमाय-खलिया, पुव्वब्भासा य दुच्चया भंते! । न चिरं च जंतणेयं, हिया य अच्वंतियं अंते ॥ (बृभा १२७४-१२७६ ) १४९ (जो उपसम्पन्न शिष्य बार-बार कहने पर भी प्रमाद से निवृत्त नहीं होते हैं तो आचार्य उन्हें वहीं छोड़ कर प्रच्छन्न उपसम्पदा रूप से अन्यत्र चले जाते हैं। आचार्य के विहार करने के पश्चात् जो शिष्य कहें कि बहुत अच्छा हुआ उग्रदण्ड देने वाले आचार्य से हमें मुक्ति मिल गई- उन शिष्यों का यहां प्रसंग नहीं है। जो शिष्य कहें - हा ! कष्ट है, आचार्य हमें छोड़कर कहां चले गए ?) वे आग्रहपूर्वक शय्यार से पूछते हैं, तब शय्यातर बता देते हैं कि क्षमाश्रमण अमुक ग्राम में गए हैं। वे तत्काल विहार कर उस ग्राम में आचार्य के पास पहुंच जाते हैं। पहुंचते ही वहां स्थित साधु आदरपूर्वक उनसे उपधि, दण्ड आदि ले लेते हैं, जिससे विनय की परम्परा अक्षुण्ण बनी रहती है। ( आगंतुक शिष्य आचार्य के चरणों में गिर जाते हैं, टूटी हुई मुक्तामाला की भांति अश्रुधारा बहाते हुए करबद्ध निवेदन करते हैं भंते! हमारा अपराध क्षमा करें। हमें करुणार्द्र दृष्टि से देखें, अपने प्रतीच्छक के रूप में पुनः स्वीकार करें, स्मारणा, वाचना आदि के द्वारा हम पर अनुग्रह करें। महामना ! महात्मा प्रणिपातपर्यवसित प्रकोप वाले होते हैं- सानुनय विनम्र नमनमात्र से उनका कोप शान्त हो जाता है। अब हम प्रयत्नपूर्वक प्रमाद का परिहार करेंगे।) तत्पश्चात् गच्छ के साधु करबद्ध हो आचार्य को प्रसन्न करते हैं, उन्हें स्वीकृति देने के लिए निवेदन करते हैं। गुरु कहते हैं - आर्यो ! दुष्ट अश्वों के सारथि के समान मुझे इनका आचार्य बनना इष्ट नहीं है। आचार्य के ऐसा कहने पर साधु पुनः प्रार्थना करते हैं— वह क्या सारथि, जो विनीत घोड़ों का दमन करता है ? जो अविनीत घोड़ों का दमन करता है, उन्हें प्रशिक्षित करता है, लोग उसे अश्वदम ( श्रेष्ठ सारथि) कहते हैं । भंते! अनेक जन्मों के पूर्वाभ्यास के कारण प्राणियों के लिए प्रमाद और स्खलना को छोड़ना प्रायः बहुत कठिन है। आप तो सारणा वारणा द्वारा नियंत्रण कर रहे हैं, वह चिरकालिक नहीं है। (अप्रमाद जब इनका आत्मधर्म बन जाएगा, तब कौन करेगा स्मारणा ? कौन देगा उपदेश ? अपेक्षा भी नहीं रहेगी ) स्मारणा प्रारंभ की भांति परिणाम में दुस्सह नहीं है अपितु परिणाम में अत्यंत हितकर है। जो परिणामसुन्दर होता है, वह आपातकटुक होने पर भी उपादेय है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसम्पदा १५० १६. स्मारणा आपातकटु : गुटिकांजन दृष्टांत अच्छिरुयालु नरिंदो, आगंतुअविज्जगुलियसंसणया । विसहामि त्तिय भणिए, अंजण वियणा सुहं पच्छा ॥ इय अविणीयविवेगो, विगिंचियाणं च संगहो भूओ । जे उ निसग्गविणीया, सारणया केवलं तेसिं ॥ (बृभा १२७७, १२७८) तीव्रतर संवेग को जानकर दृष्टांत देते हैं आचार्य प्रमत्त साधुओं के उन्हें स्थिर करने के लिए एक एक राजा अक्षिवेदना से पीड़ित हो गया। वहां के वैद्य सफल चिकित्सा नहीं कर सके। आगंतुक वैद्य ने कहा- मेरे पास अक्षिशूलप्रशामक गुटिका है। इसे आंख में आंजने से क्षणों के लिए तीव्रतर दुःसह वेदना होगी। यदि आप मुझे मृत्युदण्ड न दें तो मैं गुटिका से आपकी आंखें आंज दूं। कुछ मैं वेदना को सहन कर लूंगा-राजा के ऐसा कहने पर वैद्य गुटिका से उसकी आंखें आंज दी। एक बार तो असह्य वेदना हुई, किन्तु कुछ समय पश्चात् ही आंखें स्वस्थ हो गईं। आचार्य ने दृष्टांत का उपसंहार करते हुए कहा- आर्यो ! उस दुःसह गुटिकाञ्जन के आंजने के समान स्मारणा आदि आपके लिए आपातकटुक हो सकते हैं, किन्तु परिणामसुंदर हैं। इस प्रकार आचार्य अविनीत शिष्यों (प्रतीच्छकों) का परित्याग करते हैं, लौटे हुए परित्यक्त शिष्यों का पुनः संग्रहण करते हैं और जो स्वभाव से विनीत हैं, उनके लिए केवल स्मारणा का प्रयोग करते हैं। यथा-यह क्रिया तुम्हें ऐसे करनी चाहिए। १७. उपसंपदा के आकर्षण बिंदु : देशाटन आदि सो चरणसुट्ठियप्पा, नाणपरो सूइओ अ साहूहिं । उवसंपया य तेसिं, पडिच्छणा चेव साहूणं ॥ ........ उवसंपय दीवणा अत्थे ॥ अहवा वि गुरुसमीवं, उवागए देसदंसणम्मि कए । उवसंपय साहूणं, होइ कयम्मी दिसाबंधे ॥ (बृभा १२५०-१२५२) उपसंपदा के तीन प्रकार हैं १. देश - दर्शन से लौटकर आए हुए चारित्र में सुस्थित मुनि को सूत्रार्थ की पौरुषी के प्रति जागरूक तथा उसमें पूर्ण आगम विषय कोश - २ जानकर और गच्छगत मुनियों द्वारा उसकी प्रशंसा सुनकर अनेक अन्य गच्छगत मुनि उसके पास उपसम्पदा स्वीकार करते हैं और वह उनको यथाविधि अंगीकार करता है 1 २. भावी आचार्य की सूत्रों के अर्थ की सूक्ष्मता में प्रवेश करने की क्षमता को देखकर उसके पास अर्थग्रहण की दृष्टि से उपसम्पदा स्वीकार करते हैं। वह उनके समक्ष सूत्रों के अर्थ प्रकाशित करता है। ३. देशदर्शन कर गुरु के पास आने पर गुरु उसे आचार्य योग्य समझकर आचार्य पद पर प्रतिष्ठापित कर देते हैं और उसे किसी एक दिशा में विहरण करने की अनुज्ञा प्रदान करते हैं । जब वह वहां से विहरण करता है, तब अन्य गुरुओं की परम्परा के अनेक मुनि (प्रतीच्छक) उसके पास उपसम्पदा ग्रहण कर लेते हैं । १८. उपसम्पदाकाल के विकल्प छम्मासे उवसंपद, जहण्ण बारससमा उ मज्झिमिया । आवकहा उक्कोसे, पडिच्छसीसे तु जाजीवं ॥ (निभा ५४५२) काल की अपेक्षा से उपसम्पदा के तीन प्रकार हैंजघन्यछहमास । मध्यमबारह मास । उत्कृष्टयावज्जीवन । उत्कृष्ट उपसम्पदाग्राहक प्रतीच्छक शिष्य जीवनपर्यंत एक ही आचार्य के पास रहता है। १९. रत्नाधिक की उपसम्पदा ( नेतृत्व) अनिवार्य दो भिक्खुणो एगयओ विहरंति बहवे भिक्खुणो बहवे गणावच्छेइया बहवे आयरिय-उवज्झाया एगयओ विहरंति, नो हं कप्पड़ अण्णमण्णमणुवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए । कप्पइ पहं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए ॥ (व्य ४ / २६, ३२) दो भिक्षु या अनेक भिक्षु, गणावच्छेदक और आचार्यउपाध्याय एक साथ विहरण करते हों तो वे परस्पर उपसम्पदा स्वीकार किये बिना विहरण नहीं कर सकते (या एक स्थान पर नहीं रह सकते ) । वे रत्नाधिक की उपसम्पदा ( नेतृत्व ) स्वीकार कर विहरण कर सकते हैं । २०. शैक्ष और रानिक के पारस्परिक कर्त्तव्य दो साहम्मिया एगयओ विहरंति, तं जहा - - सेहे य Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १५१ उपासक प्रतिमा हो। राइणिएय। तत्थ सेहतराए पलिच्छन्ने, राइणिए अपलिच्छन्ने। सूत्रार्थ ग्रहण के पश्चात् भी संघाटक देता है, जिससे कि सेहतराएणं राइणिए उवसंपज्जियव्वे भिक्खोववायं च भिक्षाटन, प्रतिलेखना आदि व्याक्षेपों के कारण श्रुत नष्ट न दलयइ कप्पागं॥ दो साहम्मिया एगयओ विहरंति, तं जहा-सेहे य उपाध्याय-सूत्रार्थ के ज्ञाता, सूत्र-वाचना द्वारा शिष्यों न राइणिए य ।तत्थ राइणिए पलिच्छन्ने, सेहतराए अपलिच्छन्ने। के निष्पादन में कुशल। द्र संघ इच्छा राइणिए सेहतरागं उवसंपज्जइ इच्छा नो उवसपज्जइ, उपाध्याय का न्यनतम दीक्षापर्याय आदि द्र आचार्य इच्छा भिक्खोववायं दलयइ कप्पागं इच्छा नो दलयइ कप्पागं॥ (व्य ४/२४, २५) उपासक प्रतिमा-श्रमणोपासक की साधना का एक विशिष्ट प्रयोग। आलोइयम्मि सेहेण, तस्स विगडे उ पच्छराइणिओ।" एगस्स उ परिवारो, बितीए रायणियत्तवादो य। | १. उपासक कौन? इति गव्वो न कायव्वो, दायव्वो चेव संघाडो।। २. साधु भी उपासक या श्रावक कैसे? पेहाभिक्खकितीओ, करेंति सो यावि ते पवाएति।" ३. उपासक प्रतिमा के प्रकार सुत्तत्थं जदि गिण्हति, तो से देति पलिच्छदं। | ४. उपासकप्रतिमाओं का स्वरूप गहिते वि देति संघाडे मा से नासेज्ज तं सुतं ॥ ० प्रतिमा का जघन्य काल एक दिन क्यों? (व्यभा २१८१-२१८३, २१८७) ५. पौषध के प्रकार . दो साधर्मिक एक साथ विहरण करते हैं-शैक्षतर- ६. सागरचन्द्र द्वारा एकरात्रिकी प्रतिमा अपेक्षाकृत अल्प दीक्षापर्याय वाला और रत्नाधिक। उनमें * भोगों का निदान : श्रावकत्व दुर्लभ यदि शैक्ष परिच्छन्न (शिष्यपरिवार और श्रुतसम्पदा से * श्रावक होने का निदान : श्रमणधर्म दुर्लभ द्रनिदान सम्पन्न) है और रात्निक अपरिच्छन्न (श्रुतसम्पन्न होने पर १. उपासक कौन? भी शिष्य संपदा से विहीन) है, तो शैक्ष को चाहिए कि भावे उ सम्मदिट्ठी, सम्ममणो जं उवासए समणे। वह रत्नााधिक को उपसम्पद् दे। तेण सो गोण्णं नाम उवासगो सावगो व त्ति ॥ प्रथमतः शैक्षतर रात्निक के समक्ष आलोचना करे, (दशानि ३७) फिर रात्निक शैक्षतर के समक्ष आलोचना करे। जो सम्यग्दृष्टि है, सम मन वाला है तथा श्रमणों की एक अपने परिवार का तथा दूसरा अपने रात्निकत्व का उपासना करता है, वह भाव उपासक है। उसके दो गौण गर्व न करे। शैक्ष रात्निक को संघाटक अवश्य दे। (गणनिष्पन्न) नाम हैं-उपासक और श्रावक। शैक्षतर के शिष्य रात्निक के वस्त्रों आदि की प्रतिलेखना करें, भिक्षा लाकर दें, कृतिकर्म आदि से विनय करें। रात्निक २. साधु भी उपासक या श्रावक कैसे? वाचना देते हैं (सूत्र पढ़ाते हैं, अर्थ सुनाते हैं)। उससे परिश्रान्त कामं दुवालसंगं पवयणमणगारऽगारधम्मो य। होने पर उन्हें दबायें (पगचंपी आदि करें)। ते के वलीहिं पसूया........... । रानिक परिच्छन्न और शैक्ष अपरिच्छन्न हो तो रालिक तो ते सावग तम्हा, उवासगा तेसु होंति भत्तिगया। की इच्छा पर निर्भर है कि वह उसे उपसम्पद, भिक्षा, उपपात अविसेसम्मि विसेसो, समणेसु पहाणया भणिया।। और योग्यसंघाटक दे, इच्छा न हो तो न दे। कामं तु निरवसेसं, सव्वं जो कुणति तेण होइ कयं। यदि शैक्ष तुल्य अथवा अधिक श्रुत वाला है, रात्निक तम्मि ठिताओ समणा, नोवासगा सावगा गिहिणो॥ उससे सत्र-अर्थ ग्रहण करता है तो उसे शिष्यपरिवार देता है। साधवस्तु केवलज्ञानोत्पत्तेः कृत्स्नश्रुतत्वाच्च चोद्दस Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासक प्रतिमा श्रावकास्तु पुव्वी जदा तदा णो उवासगा भवंति अकृत्स्नश्रुतत्वात् नित्योपासनाच्च उवासगा एव भवंति । (दशानि ३८-४० चू) द्वादशांग प्रवचन में द्विविध धर्म का प्रतिपादन हैअनगारधर्म और अगारधर्म ( श्रावक धर्म) । ये दोनों केवली से प्रसूत हैं । केवली धर्म सुनाते हैं इसलिए वे श्रावक हैं। साधु और गृहस्थ अर्हत् की उपासना करते हैं, इसलिए उपासक हैं। उपासक धर्म सुनते हैं अतः वे भी श्रावक हैं। इस प्रकार साधु और गृहस्थ दोनों श्रावक हैं। विशेष यह है कि मुनि नित्यकालिक उपासक और श्रावक नहीं होते, गृहस्थ ही दोनों हो सकते हैं। १५२ यह सिद्ध है कि जो कार्य निरवशेष रूप से होता है, वही कृत माना जाता है। मुनि निरवशेष रूप में अर्थात् नित्यकालिक न सुनते हैं और न उपासना करते हैं - वे केवलज्ञान उत्पन्न होने पर अथवा चौदहपूर्वी सम्पूर्ण श्रुत के ज्ञाता होने पर उपासना या श्रवण नहीं करते। इसलिए मुनि न उपासक होते हैं और न श्रावक । गृहस्थ असम्पूर्ण श्रुत के कारण नित्य श्रवण और नित्य उपासना करते हैं अतः वे ही श्रावक और उपासक हैं। ३. उपासक प्रतिमा के प्रकार दंसण-वय- सामाइय-पोसहपडिमा अबंभ सच्चित्ते । आरंभ-पेस- उद्दिट्ठवज्जए समणभूए य ॥ (दशानि ४४) उपासक की ग्यारह प्रतिमाएं हैं-दर्शन, व्रत, सामायिक, पौषध, एकरात्रिकी प्रतिमा, अब्रह्मवर्जन, सचित्तवर्जन, आरंभवर्जन, प्रेष्यारंभवर्जन, उद्दिष्टवर्जन और श्रमणभूत । ४. उपासकप्रतिमाओं का स्वरूप ...... एक्कारस उवासगपडिमा पण्णत्ताओ।..... ......सव्वधम्मरुई यावि भवति । तस्स णं बहूई सीलव्वय-गुण- वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं नो सम्मं पट्ठविताइं भवंति । एवं दंसणसावगोत्ति पढमा उवासगपडिमा ॥ अहावरा दोच्चा उवासगपडिमा - सव्वधम्मरुई यावि आगम विषय कोश - २ भवति । तस्स णं बहूई सील व्वय-गुण- वेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासाई सम्मं पट्ठविताइं भवंति । .... अहावरा तच्चा उवासगपडिमा - ....से णं सामाइयं देसावगासियं सम्मं अणुपालित्ता भवति ।'' अहावरा चउत्था उवासगपडिमा से णं चाउद्दसमुद्दिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहोववासं सम्मं अणुपालित्ता भवति । ''''' अहावरा पंचमा उवासगपडिमा - से णं एगराइयं उवासगपडिमं सम्मं अणुपालेत्ता भवति । से णं असिणाणए वियडभोई मउलिकडे दिया बंभचारी रत्तिं परिमाणकडे । सेणं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे जहण्णेणं एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा, उक्कोसेणं पंचमासे विहरेज्जा ।" अहावरा छट्टा उवासगपडिमा – .....रातोवरातं बंभचारी । सचित्ताहारे से अपरिण्णाते भवति । से णं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे छम्मासे विहरेज्जा !..... अहावरा सत्तमा उवासगपडिमा – सचित्ताहारे से परिण्णाते भवति...सत्तमासे विहरेज्जा ।'' अहावरा अट्टमा उवासगपडिमा - ...... परिण्णाते भवति.....अट्ठमासे विहरेज्जा ।.... अहावरा नवमा उवासगपडिमा - .... पेस्सारंभे से परिण्णाते भवति नवमासे विहरेज्जा ।" अहावरा दसमा उवासगपडिमा उद्दिट्टभत्ते से परिण्णाते भवति । से णं खुरमुंडए वा छिधलिधारए वा । तस्स णं आभट्ठस्स समाभट्ठस्स कप्पंति दुवे भासाओ भासित्तए, तं जहा - जाणं वा जाणं, अजाणं वा नोजाणं । .....दसमासे विहरेज्जा ।... आरंभे से अहावरा एक्कारसमा उवासगपडिमा - से णं खुरमुंडए वा लुत्तसिरए वा गहितायारभंडगनेवत्थे जे इमे समणाणं निग्गंथाणं धम्मो तं सम्मं कारण फासेमाणे पालेमाणे पुरतो जुगमायाए पेहमाणे दट्ठूण तसे पाणे उद्धट्टु पारीएज्जा, साहट्टु पायं रीएज्जा, वितिरिच्छं वा पाय कट्टु एज्जा, सति परक्कमे संजयामेव परक्कमेज्जा, नो उज्जयं गच्छेज्जा, केवलं से णातए पेज्जबंधणे अव्वोच्छिन्ने भवति । एवं से कप्पति नायवीथिं एत्तए । तत्थ से पुव्वा Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ गमणं पुव्वाउत्तेचाउलोदणे पच्छाउत्ते भिलंगसूवे, कप्पति से चाउलोदणे पडिगाहित्तए नो से कप्पति भिलंगसूवे डिगाहित्तए । तस्स णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स कप्पति एवं वदित्तए - समणोवासगस्स पडिमापडिवन्नस्स भिक्खं दलयह। तं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणं केइ पासित्ता वदिज्जा - केइ आउसो ! तुमंसि वत्तव्वं सिया । समणोवासए पडिमापडिवन्नए अहमंसीति वत्तव्वं सिया । से णं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे एक्कारस मासे विहरेज्जा ।..... (दशा ६/१, ८-१८) १५३ ***** ग्यारह उपासक - प्रतिमाएं प्रज्ञप्त हैं१. दर्शन श्रावक - यह पहली प्रतिमा है। इसमें सर्वधर्म विषयक रुचि होती है, किन्तु अनेक शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास सम्यक् प्रतिष्ठित नहीं होते । २. कृतव्रतधर्म -- यह दूसरी प्रतिमा है। इसमें सर्वधर्म विषयक रुचि होती है और प्रतिमाधारी उपासक अनेक शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि का सम्यक् प्रतिष्ठापन करता है, किन्तु वह सामायिक और देशावकाशिक का सम्यक् अनुपालन नहीं करता। (शील - चार शिक्षाव्रत । व्रत - पांच अणुव्रत । गुण - तीन गुणव्रत । विरमण - विषयों का यथाशक्ति परित्याग । प्रत्याख्यान - नमस्कारसहिता आदि का स्वीकार । पौषधशरीर-संस्कार वर्जन तथा ब्रह्मचर्य का स्वीकार । उपवासआहार का परित्याग । - सू. २/२/७२ का भाष्य) ३. कृतसामायिक – यह तीसरी प्रतिमा है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धि के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक सामायिक और देशावकाशिक व्रत का सम्यक् अनुपालन करता है । ४. पौषधोपवासनिरत- यह चौथी प्रतिमा है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् अनुपालन करता है। 1 ५. एकरात्रिकी - यह पांचवीं प्रतिमा है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक 'एकरात्रिकी उपासक प्रतिमा उपासकप्रतिमा का सम्यक् अनुपालन करता है तथा स्नान नहीं करता, दिवाभोजी होता है, धोती के दोनों अंचलों को कटिभाग में टांक लेता है-नीचे से नहीं बांधता, दिवा ब्रह्मचारी होता है, रात्रि में अब्रह्मचर्य का परिमाण करता है। वह इस विहारचर्या से विहरण करता हुआ जघन्य एक दिन या दो दिन या तीन दिन यावत् उत्कृष्ट पांच मास तक इस प्रतिमा का पालन करे। ६. दिन और रात में ब्रह्मचारी - यह छठी प्रतिमा है । इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक दिन और रात में ब्रह्मचारी रहता है, किन्तु सचित्त का परित्याग नहीं करता । कालमान छह मास । ७. सचित्त - परित्यागी - यह सातवीं प्रतिमा है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक सम्पूर्ण सचित्त का परित्याग करता है। कालमान सात मास । ८. आरम्भ-परित्यागी—– यह आठवीं प्रतिमा है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक आरम्भहिंसा का परित्याग करता है। कालमान आठ मास । ९. प्रेष्यारम्भ - परित्यागी - यह नौवीं प्रतिमा है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक प्रेष्य आदि से हिंसा करवाने का परित्याग करता है। कालमान नौ मास । १०. उद्दिष्ट भक्त - परित्यागी - यह दसवीं प्रतिमा है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक उद्दिष्ट भोजन का परित्याग करता है। वह शिर को क्षुर से मुंडवा लेता है या चोटी रख लेता है। घर के विषय में एक बार या बार-बार पूछे जाने पर वह दो प्रकार की भाषा बोल सकता है - जानता हो तो कहता है- 'मैं जानता हूं' और न जानता हो तो कहता है- 'मैं नहीं जानता ।' कालमान दस मास । ११. श्रमणभूत—यह ग्यारहवीं प्रतिमा है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक क्षुर से मुंडन करता या लुंचन करता है। वह साधु का आचार, भांडउपकरण एवं वेश धारण करता है। श्रमण-निर्ग्रथों के धर्म का सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करता है, पालन करता है, चलते समय युगप्रमाण ( चार हाथ ) भूमि को देखता हुआ चलता है, त्रस प्राणियों को देखकर अपने पैर उठा लेता है, Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासक प्रतिमा १५४ आगम विषय कोश-२ पैरों को संकुचित कर चलता है अथवा तिरछे पैर रखकर होकर प्रतिमाओं को स्वीकार करता है। प्रायः वे लोग इनका चलता है। (यदि मार्ग में त्रस जीव अधिक हों और) दूसरा स्वीकरण करते हैंमार्ग विद्यमान हो तो उस मार्ग पर यतनापूर्वक चलता है, १. जो अपने आपको श्रमण बनने के योग्य नहीं पाते, किन्तु सीधे मार्ग से नहीं जाता। केवल ज्ञाति-वर्ग से उसके प्रेम- जीवन के अन्तिमकाल में श्रमण जैसा जीवन बिताने के बंधन का विच्छेद नहीं होता, अतः वह ज्ञातिजनों के घर इच्छुक होते हैं। भिक्षा के लिए जा सकता है। २. जो श्रमण जीवन बिताने का पूर्वाभ्यास करते हैं। स्वजन-संबंधी के घर पहुंचने से पूर्व चावल पके हों आनन्द श्रावक ने चौदह वर्षों तक बारहव्रती का और भिलिंगसूप (मूंग आदि की दाल) न पका हो तो वह जीवन बिताया। पन्द्रहवें वर्ष के अंतराल में भगवान् महावीर चावल-ओदन ले सकता है किन्तु भिलिंगसूप नहीं ले सकता। के पास उपासक की ग्यारह प्रतिमाएं स्वीकार कर लीं। वह भिक्षा के लिए गृहस्थों के घर में प्रवेश कर इनके प्रतिपूर्ण पालन में साढ़े पांच वर्ष लगे। तत्पश्चात् 'प्रतिमाप्रतिपन्न श्रमणोपासक को भिक्षा दो'-ऐसा कहता । उसने अपश्चिम मारणांतिक-संलेखना की और अन्त में एक है। उसे इस विहारचर्या से विहरण करते हुए देखकर कोई मास का अनशन किया। पूछे-तुम कौन हो? वह कहे मैं प्रतिमाप्रतिपन्न श्रमणोपासक यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि बारहव्रती श्रावक हूं। कालमान ग्यारह मास। जब सम्यक्-दर्शनी और व्रती होता ही है, तब फिर पहली और ० प्रतिमा का जघन्य काल एक दिन क्यों? दूसरी प्रतिमा में सम्यक्-दर्शनी बनने की बात क्यों कही गई दिवसो, कहं एगाहं ? सयं पडिवन्ने कालगतो य संजमं है? इसका समाधान यही है कि बारह व्रत सअपवाद होते हैं, वा गेण्हेज्जा, एतेणेगाहं वा दुआई वा, इतरधा संपुण्णा जबकि प्रतिमाओं में कोई अपवाद नहीं होता। प्रतिमा में दर्शन पंचमासा अणुपालेतव्वा। और व्रत-गत गणों का निरपवाद परिपालन और उत्तरोत्तर (दशा ६/१२ की चू) विकास किया जाता है।-सम ११/१ का टि) पांचवीं यावत् ग्यारहवीं प्रतिमा का जघन्य कालमान ५. पौषध के प्रकार एक दिन क्यों? वह प्रतिमा स्वीकार करते ही कालगत हो पोसहो चउव्विहो-आहारपोषधो, सरीरसकता है अथवा श्रमण बन सकता है-इस दृष्टि से एक सक्कारपोसहो, अव्वावारपोसहो, बंभचेरपोसहो। दिन, दो दिन आदि का निर्देश है। अन्यथा पांचवीं प्रतिमा सम्पूर्ण पांच मास यावत् ग्यारहवीं प्रतिमा सम्पूर्ण ग्यारह मास __ (दशा ६/८ की चू) नियमतः पालनीय है। पौषधोपवासव्रत के चार प्रकार हैं(दशाश्रुतस्कन्ध के अनुसार इन प्रतिमाओं का आधार १. आहार-पौषध-आहार-परित्याग। सम्यग-दर्शन और श्रावक के प्रथम ग्यारह व्रत हैं। दसरी २. शरीर-संस्कारवर्जन रूप पौषध। प्रतिमा का आधार पांच अणुव्रत और तीन गणव्रत, तीसरी ३. प्रवृत्तिवर्जन रूप पौषध। प्रतिमा का आधार सामायिक और देशावकाशिक (प्रथम दो ४. ब्रह्मचर्य-पौषध-ब्रह्मचर्य का स्वीकार। शिक्षाव्रत) तथा चौथी प्रतिमा का आधार प्रतिपूर्ण पौषधोपवास ६. सागरचन्द्र द्वारा एकरात्रिकी प्रतिमा है। शेष प्रतिमाओं में इन्हीं व्रतों का उत्तरोत्तर विकास किया सागरचंदो अट्ठमि-चउद्दसीसुंसुन्नघरे वा सुसाणे वा गया है। एगराइयं पडिमंठाइ।धणदेवेणं एयं नाऊणं तंबियाओ सूईओ श्रावक बारहव्रती के रूप में कई वर्षों तक साधना कर घडावियाओ। तओ सुन्नघरे पडिमं ठियस्स वीससु वि चुकता है और जब उसके मन में साधना की तीव्र भावना अंगुलीनहेसु अक्कोडियाओ। तओ सम्ममहियासमाणो उत्पन्न होती है, तब वह गृहस्थ की प्रवृत्तियों से निवृत्त वेयणाभिभूओ कालगतो देवो जाओ। (बृभा १७२ की वृ) Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ श्रावक सागरचन्द्र अष्टमी - चतुर्दशी को शून्यगृह अथवा श्मशान में एकरात्रिकी प्रतिमा की आराधना करता था । धनदेव को इस बात का पता चला तो उसने प्रतिशोध की भावना से ताम्रिक ( कसेरा) से ताम्रमयी तीक्ष्ण सूइयां बनवाईं, फिर उन सूइयों को शून्यगृह में प्रतिमास्थित सागरचन्द्र के बीसों अंगुलिनखों में डाल दिया। वह वेदना को समभाव से सहन करता हुआ, वेदना की तीव्रता से कालधर्म को प्राप्त कर देव बना। ऋजुजड़ - - ऋजुता से सम्पन्न किन्तु प्रज्ञा से विपन्न पुरुष । प्रथम अर्हत् ऋषभ के शिष्य ऋजु परन्तु प्रज्ञा में मंद थे। द्र ऋजुप्राज्ञ थे १५५ ऋजुप्राज्ञ -ऋजुता और प्राज्ञता से सम्पन्न व्यक्ति । प्रथम और अंतिम तीर्थंकर को छोड़ मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शिष्य ऋजुप्राज्ञ होते हैं। उज्जत से आलोयणाऍ जडत्तणं सें जं भुज्जो । तज्जाति ण याणति, गिही वि अन्नस्स अन्नं वा ॥ उज्जत से आलोयणाऍ पण्णा उ सेसवज्जणया । सण्णायगा वि दोसे, ण करेंतऽण्णे ण यऽण्णेसिं ॥ का उण साहंती, पुट्ठा उ भांति उण्ह - कंटादी । पाहुणग सद्ध ऊसव, गिहिणो वि य वाउलंतेवं ॥ (बृभा ५३५६-५३५८) प्रथम तीर्थंकर के ऋजुजड़ साधु अपने अतिचार की आलोचना करते हैं, यह उनका ऋजुभाव है। किन्तु तज्जातीय दोषों का वर्जन नहीं कर सकते, यह उनकी मति की जड़ता है । यही बात तत्कालीन गृहस्थों की है। जिस सदोष कार्य का निषेध किया जाता है, उसी का वर्जन करते हैं, उससे संबंधित अन्य कार्य का नहीं। पूछने पर वे स्पष्ट बता देते हैं - यह उनकी ऋजुता है। मध्यम तीर्थंकरों के साधु ऋजुप्राज्ञ होते हैं। वे जिस दोष का सेवन करते हैं, उसकी आलोचना करते हैं - यह उनका ऋजुभाव है। उसके साथ तज्जातीय सब दोषों का वर्जन करते हैं - यह उनकी प्राज्ञता है। तत्कालीन गृहस्थ भी एक दोष के आधार पर तज्जातीय शेष सब दोषों की अकल्पनीयता जान लेते हैं। ऋजुप्राज्ञ अंतिम तीर्थंकर के साधु वक्रजड़ होते हैं। वे दोष का सेवन करके न उसे कहते हैं, न उसकी आलोचना करते हैंयह उनकी वक्रता है। जानते हुए या नहीं जानते हुए दोष सेवन में प्रवृत्त होते हैं - यह उनकी जड़ता है। तुमने नाटक देखा है ? यह पूछने पर वक्रजड़ शिष्य कहता है- नहीं देखा । तुम वहां खड़े क्यों थे? मैं गर्मी से आहत हो गया, इसलिए खड़ा था । अथवा पैर में कांटा लग गया इसलिए वहां खड़ा था। गृहस्थ भी एषणा आदि के विषय में सद्भाव नहीं कहते । वे कहते हैं - यह वस्तु अतिथियों के लिए बनाई है अथवा ऐसा भोजन मेरे लिए रुचिकर है अथवा आज हमारे उत्सव है - इत्यादि बातें कहकर व्यामोह उत्पन्न करते हैं । • ऋजुजड़ शिष्य : नाट्यप्रेक्षण दृष्टांत नडपेच्छं दट्ठूणं, अवस्स आलोयणा ण सा कप्पे । कउयादी सो पेच्छति, ण ते वि पुरिमाण तो सव्वे ॥ एमेव उग्गमादी, एक्केक्क निवारि एतरे गिरहे । सव्वे विण कप्पंति, त्ति वारितो जज्जियं वज्जे ॥ सायगाव उत्तणेण कस्स कत तुज्झमेयं ति । मम उद्दिट्ठ ण कप्पड़, कीतं अण्णस्स वा पगरे । सव्वजण निसिद्धा, मा अणुमण्ण त्ति उग्गमा णे सिं । इति कथिते पुरिमाणं, सव्वे सव्वेसि ण करेंति ॥ (बृभा ५३५२-५३५५) ऋजुजड़ शिष्यों ने नाटक देखा। आकर ऋजुता से गुरु को निवेदन किया। गुरु ने कहा- यह अकल्पनीय है । घूमते हुए पुन: एक बार बहुरूपिये का कौतुक देखा। गुरु ने कहा- - कौतुक क्यों देखा ? आपने नाटक का निषेध किया था, इसका नहीं। वे ऋजुभाव के कारण जितना निषेध किया जाता है, उतना ही वर्जन करते हैं । सर्वनाट्य का निषेध करने पर समग्रता से वर्जन करते हैं । इसी प्रकार उद्गम आदि दोषों में से एक-एक का निषेध करने पर केवल उसी एक का वर्जन कर शेष का वर्जन नहीं करते। सारे दोषों का निषेध करने पर जीवनपर्यंत सब दोषों का वर्जन करते हैं । ज्ञातिजनों को पूछने पर कि यह आहार आदि किसके लिए बनाया है तो वे ऋजुभाव से कहते हैं- यह आपके लिए Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म १५६ आगम विषय कोश-२ बनाया है। मेरे लिए बनाया हुआ मैं नहीं ले सकता-ऐसा । * कर्म : गुरु-लघु-अगुरुलघु द्र द्रव्य कहने पर गृहस्थ उस मुनि के लिए खरीद लेता है तथा अन्य के १५. कर्म का कर्ता स्वतंत्र या परतंत्र लिए बना देता है। यह उसकी जड़तायुक्त ऋजुता है। १६. मोहक्षय : तल, सेनापति आदि दृष्टांत हमें उदगम आदि दोषों के अनुमोदन का दोष न लगे- | * मोहोदय और उसकी चिकित्सा द्र ब्रह्मचर्य इस दृष्टि से हम सब साधुओं के लिए उद्गगम के सब दोष १७. पुण्यबंध से मुक्ति कैसे? धान्यपल्य दृष्टांत वर्जित हैं-पूर्ववर्ती ऋजु-जड़ गृहस्थों के सामने ऐसा प्ररूपण * पूर्वतप से देवायुबंध कैसे? द्र देव करने पर वे सब दोषों का वर्जन करते हैं। * निर्वर्तना आदि और कर्मबंध द्र अधिकरण * शासनभेद का हेतु : ऋजुप्राज्ञ आदि द्र कल्पस्थिति * लेश्या और कर्म द्र लेश्या एकलविहारप्रतिमा-विशिष्ट श्रुतसम्पन्न मुनि द्वारा १. कर्म की मूल-उत्तर प्रकृतियां एकाकी रहकर की जाने वाली अट्ठमूलपगडीओ, (सत्तणउइ?)पंचणउइ वा प्रतिमा-साधना। द्र प्रतिमा उत्तरपगडीतो, सम्यक्त्वमिश्रयो र्बन्धो नास्तीत्येवं पंचनवति। कर्म-कर्मरूप में परिणत होने योग्य और आत्मा की (निभा ३३२२ की चू) प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट पुद्गल। कर्म की मूल प्रकृतियां आठ और उत्तरप्रकृतियां सत्तानवे हैं । सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय-इन दो प्रकृतियों का १. कर्म की मूल-उत्तर प्रकृतियां बंध नहीं होता, अतः कर्म की उत्तर प्रकृतियां पिच्यानवे हैं। २. भय मोहकर्म की प्रकृतियां * कर्म के प्रकार, स्थिति.......... द्र श्रीआको १ कर्म * वेद मोहनीय का स्वरूप द्र वेद ३. कर्मबंध के तीन हेतु (कर्म की मूल आठ प्रकृतियां__ * मान में क्रोध की नियमा १. ज्ञानावरणीय ५. आयुष्य * कषाय का उपशम आदि : चार गति -द्र कषाय ६. नाम २. दर्शनावरणीय ३. वेदनीय ७. गोत्र ४. महामोहनीय कर्मबंध के स्थान ५. प्रत्येक कर्मबंध के सामान्य हेतु ४. मोहनीय ८. अंतराय ६. द्रव्यबंध : कायप्रयोग आदि ज्ञानावरणीयकर्म की ५ प्रकृतियां० भावबंध : जीवभावप्रयोगबंध १. मति ज्ञानावरणीय ४. मनःपर्यव ज्ञानावरणीय ० अजीवभावबंध : औदारिक शरीर आदि २. श्रुत ज्ञानावरणीय ५. केवल ज्ञानावरणीय ७. अबंध, बंध की तुल्यता और अल्पबहुत्व ३. अवधि ज्ञानावरणीय ८. बंध का हेतु पदार्थ नहीं * इन्द्रियज्ञानावरण द्र इन्द्रिय ___ * प्रतिसेवना और कर्म द्र प्रतिसेवना दर्शनावरणीय कर्म की ९ प्रकतियां ९. बालवीर्य आदि और कर्मबंध १. निद्रा ६. चक्षुदर्शनावरणीय १०. संहनन-धृति और कर्म २. निद्रा-निद्रा ७. अचक्षु दर्शनावरणीय ११. संहनन, परिणाम और कर्मबंध ३. प्रचला ८. अवधि दर्शनावरणीय १२. ज्ञान-अज्ञान और कर्मबंध ४. प्रचला-प्रचला ९. केवल दर्शनावरणीय _ * स्त्यानर्द्धि निद्रा : लिंग पारांचिक द्र पारांचित ५. स्त्यानधि १३. जीव में भाव और कर्मबंध वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियां१४. कर्म का गुरुत्व-लघुत्व और नय १. सात वेदनीय २. असात वेदनीय Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १५७ कर्म मोहनीय कर्म की दो प्रकृतियां २९. स्थिरनाम ३६. दुःस्वरनाम १. दर्शन मोहनीय २. चारित्र मोहनीय ३०. अस्थिरनाम ३७. आदेयनाम दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियां ३१. शुभनाम ३८. अनादेयनाम १. सम्यक्त्व वेदनीय २. मिथ्यात्व ३२. अशुभनाम ३९. यश:कीर्त्तिनाम वेदनीय ३. सम्यक्त्वमिथ्यात्ववेदनीय ३३. सुभगनाम ४०. अयश:कीर्तिनाम चारित्रमोहनीय की दो प्रकृतियां ३४. दुर्भगनाम ४१. निर्माणनाम १. कषायवेदनीय २. नोकषायवेदनीय ३५. सुस्वरनाम ४२. तीर्थंकरनाम कषायवेदनीय की सोलह प्रकृतियां गोत्र कर्म की दो प्रकृतियां१-४. अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ १. उच्च गोत्र २. नीच गोत्र ५-८. अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ अन्तराय कर्म की पांच प्रकृतियां९-१२. प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ १. दानान्तराय ४. उपभोगान्तराय १३-१६. संज्वलन क्रोध, मान, माया ,लोभ २. लाभान्तराय ५. वीर्यान्तराय नोकषायवेदनीय की नौ प्रकृतियां ३. भोगान्तराय १. स्त्रीवेद ४. हास्य ७. भय -प्रज्ञा २३/२४-५९) २. पुरुषवेद ५. रति ८. शोक २. भयमोहकर्म की प्रकृतियां ३. नपुंसकवेद ६. अरति ९. जुगुप्सा जे भिक्खू अप्पाणं..."परं बीभावेति। ____ आयुष्यकर्म की चार प्रकृतियां (नि ११/६५, ६६) १. नरकायुष्य ३. मनुष्यायुष्य दिव्व-मणुय-तेरिच्छं, भयं च आकम्हिकं तुणायव्वं। २. तिर्यंचायुष्य ४. देवायुष्य एक्केक्कं पि य दुविहं, संतमसंतं च णायव्वं ॥ * क्षेत्र-काल की स्निग्धता : दीर्घ आयु द्र चिकित्सा कामं सत्तविकप्पं, भयं समासेणं तं पुणो चउहा." __नामकर्म की बयालीस प्रकृतियां रक्खस-पिसाय-तेणाइएसु उदयग्गि-जड्डमाईसु. १. गतिनाम १५. पराघातनाम इहलोकभयं परलोकभयं आदाणभयं आजीवण२. जातिनाम १६. आनुपूर्वीनाम भयं अकस्माद्भयं मरणभयं असिलोगभयं एयं सत्तविहं ३. शरीरनाम १७. उच्छ्वासनाम भयमुत्तं। ४. शरीर अंगोपांग नाम १८. आतपनाम इहलोगभयं मणुयभए समोतरति, परलोगभयं दिव्व५. शरीर बंधन नाम १९. उद्योतनाम तिरियभएसु समोतरति। आदाणे आजीवण-मरण६. शरीर संघात नाम २०. विहायगतिनाम असिलोगभयं च एते चउरो वितिसुदिव्वादिएसुसमोतरंति। ७. शरीर संहनन नाम २१. त्रसनाम (निभा ३३१४, ३३१५, ३३१७ चू) ८. संस्थाननाम २२. स्थावरनाम जो भिक्षु स्वयं को या दूसरों को डराता है, वह प्रायश्चित्त ९. वर्णनाम २३. सूक्ष्मनाम का भागी है। मोहकर्म की उत्तर प्रकृति है भय। वह चार १०. गंधनाम २४. बादरनाम प्रकार से उत्पन्न होता है११. रसनाम २५. पर्याप्तकनाम दिव्यभय-राक्षस, पिशाच आदि से उत्पन्न । १२. स्पर्शनाम २६. अपर्याप्तकनाम मानुष्य भय-चोर आदि से उत्पन्न। १३. अगुरुलघुनाम २७. साधारणशरीरनाम तैरश्चिक भय-जल, अग्नि, वाय. हाथी आदि से उत्पन्न। १४. उपघातनाम २८. प्रत्येकशरीरनाम अकस्मात् भय-निर्हेतुक भय। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म १५८ आगम विषय कोश-२ इनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-सत् और असत्। पिशाच, सिंह आदि को देखकर होने वाला भय सत् और बिना देखे उत्पन्न भय असत् है। भयमोहनीय प्रकृति के उदय से होने वाला आत्मसमुत्थ अकस्मात् भय सत् है। अकल्पित अभिप्राय से उत्पन्न अकस्मात् भय असत् है। शिष्य ने पूछा-भय के सात प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. इहलोक भय-सजातीय से भय, जैसे-मनुष्य को मनुष्य से होने वाला भय। २. परलोक भय-विजातीय से भय, जैसे-भनुष्य को तिर्यंच आदि से होने वाला भय। २. आदान भय-धन आदि पदार्थों के अपहरण का भय। ४. अकस्मात् भय-निमित्त के बिना ही उत्पन्न भय। ५. वेदना भय-पीड़ा आदि से उत्पन्न भय। ६. मरण भय-मृत्यु का भय। ७. अश्लोक भय-अकीर्ति का भय। फिर चार प्रकार कैसे? आचार्य ने कहा-यह सही है कि भय के सात विकल्प हैं किन्तु संक्षेप में उसके चार विकल्प हैं। इहलोकभय का मानुष्य भय में और परलोक भय का दिव्य-तिर्यंचभय में समवतार होता है। आदान, आजीविका, मरण और अश्लोकइन चारों का दिव्यभय आदि तीनों में समवतार होता है। ३. कर्मबंध के तीन हेतु रागो य दोसो य तहेव मोहो, ते बंधहेतू तु तओ वि जाणे। णाणत्तगंतेसिजधा य होति, जाणाहि बंधस्स तहा विसेसं॥ तिव्वेहि होति तिव्वो, रागादिएहिं उवचओ कम्मे। मंदेहि होति मंदो, मज्झिमपरिणामतो मज्झो॥ (बृभा ३९३५, ३९३७) राग, द्वेष और मोह-इन तीनों को कर्मबंध का हेतु जानो। इनमें नानात्व होता है, तब कर्मबंध में भी नानात्व होता ४. महामोहनीय कर्मबंध के स्थान जे केइ तसे पाणे, वारिमझे विगाहिया। उदएणक्कम्म मारेति, महामोहं पकुव्वति॥ पाणिणा संपिहित्ताणं, सोयमावरिय पाणिणं। अंतोनदंतं मारेति, महामोहं पकुव्वति॥ जायतेयं समारब्भ, बहुं ओलंभिया जणं। अंतोधूमेण मारेति, महामोहं पकुव्वति॥ सीसम्मि जो पहणति, उत्तमंगम्मि चेतसा। विभज्ज मत्थगं फाले, महामोहं पकुव्वति॥ सीसावेढेण जे केइ, आवेढेति अभिक्खणं। तिव्वासुहसमायारे, महामोहं पकुव्वति॥ पुणो-पुणो पणिहीए, हणित्ता उवहसे जणं। फलेणं अदुव डंडेणं, महामोहं पकुव्वति॥ गूढाचारी निगृहेज्जा, मायं मायाए छायई। असच्चवाई णिहाई, महामोहं पकुव्वति॥ धंसेति जो अभूतेणं, अकम्मं अत्तकम्मुणा। अदुवा तुमकासित्ति, महामोहं पकुव्वति॥ जाणमाणो परिसाए, सच्चामोसाणि भासति। अज्झीणझंझे पुरिसे, महामोहं पकुव्वति॥ अणायगस्स नयवं, दारे तस्सेव धंसिया। विउलं विक्खोभइत्ताणं, किच्चाणं पडिबाहिरं॥ उवकसंतंपि झंपेत्ता, पडिलोमाहिं वग्गुहिं । भोगभोगे वियारेति, महामोहं पकुव्वति॥ अकुमारभूते जे केइ, कुमारभूतेत्तिहं वदे। इत्थीहिं गिद्धे विसए, महामोहं पकव्वति॥ अबंभचारी जे केइ, बंभचारित्तिहं वदे।... """इत्थीविसयगेहीए, महामोहं पकुव्वति ।। जं णिस्सितो उव्वहती, जससाहिगमेण वा। तस्स लुब्भइ वित्तंसि, महामोहं पकुव्वति॥ इस्सरेण अदुवा गामेण, अणिस्सरे इस्सरीकए।... .."जे अंतरायं चेतेति, महामोहं पकुव्वति॥ सप्पी जहा अंडउडं, भत्तारं जो विहिंसइ सेणावतिं पसत्थारं, महामोहं पकव्वति।। जे नायगं व रहस्स, नेतारं निगमस्स वा। सेटुिं च बहुरवं, हंता, महामोहं पकुव्वति॥ है। राग आदि तीव्र संक्लिष्ट परिणामों से तीव्र, मंद परिणामों से मंद तथा मध्यम परिणामों से मध्यम कर्मोपचय होता है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १५९ कर्म बहजणस्स नेतारं, दीवं ताणं च पाणिणं। जलाकर उसके धुएं से मारना। एतारिसं नरं हता, महामोहं पकुव्वति॥ ४. संक्लिष्ट चित्त से किसी प्राणी के सर्वोत्तम अंग (सिर) उवद्रियं पडिविरयं, संजयं सतवस्सियं। पर प्रहार कर, उसे खंड-खंड कर फोड़ देना। वोकम्म धम्माओ भंसे, महामोहं पकुव्वति॥ ५. तीव्र अशुभ समाचरणपूर्वक किसी त्रस प्राणी को गीले तहेवाणतणाणीणं, जिणाणं वरदंसिणं। चमड़े की बाध से बांधकर मारना।। तेसिं अवण्णवं बाले, महामोहं पकुव्वति॥ ६. प्रणिधि से (वेश बदल कर) किसी मनुष्य को विजन में णेयाउयस्य मग्गस्स, दुढे अवयरई बहुं। फलक या डंडे से मारकर खुशी मनाना। तं तिप्पयंतो भावेति, महामोहं पकव्वति॥ ७. गोपनीय आचरण कर उसे छिपाना, माया से माया को आयरिय-उवज्झाएहिं, सुयं विणयं च गाहिए। ढांकना, असत्य बोलना, यथार्थ का अपलाप करना। ते चेव खिंसती बाले, महामोहं पकुव्वति॥ ८. अपने दुराचरित कर्म का दूसरे निर्दोष व्यक्ति पर आरोपण आयरिय-उवज्झायाणं, सम्मं ण पडितप्पति। करना अथवा किसी एक व्यक्ति के दोष का किसी दूसरे अप्पडिपूयए थद्धे, महामोहं पकुव्वति॥ व्यक्ति पर 'तुमने यह कार्य किया था'-ऐसा आरोपण करना। अबहुस्सुते वि जे केइ, सुतेणं पविकत्थइ।। ९. यथार्थ को जानते हुए भी सभा के समक्ष मिश्र भाषा सज्झायवायं वयइ, महामोहं पकुव्वति॥ बोलना और निरन्तर कलह करते रहना। अतवस्सिते य जे केइ, तवेणं पविकत्थति। १०. शासनतंत्र में भेद डालने की प्रवृत्ति से अपने राजा को सव्वलोगपरे तेणे, महामोहं पकुव्वति॥ संक्षुब्ध और अधिकार से वंचित कर उसकी अर्थ-व्यवस्था साहारणट्ठा जे केइ, गिलाणम्मि उवट्ठिते। (या अन्तःपुर) का ध्वंस कर देना और जब वह अधिकारपभू ण कुव्वती किच्चं, मज्झं पेस ण कुव्वती॥ मुक्त राजा अपेक्षा लिए सामने आए, तब प्रतिलोम वाणी द्वारा सढे नियडिपण्णाणे, कलुसाउलचेतसे....। उसकी भर्त्सना करना, अपने स्वामी के विशिष्ट भोगों को जे कहाधिकरणाइं, संपउंजे पुणो-पुणो। विदीर्ण करना। सव्वतित्थाण भेयाए, महामोहं पकुव्वति॥ ११. अकुमार-ब्रह्मचारी होते हुए भी अपने को कुमार- . जे य आधम्मिए जोए, संपउंजे पुणो-पुणो। ब्रह्मचारी (बाल-ब्रह्मचारी) कहना तथा दूसरी ओर स्त्रियों में सहाहेउं सहीहेडं, महामोहं पकुव्वति॥ आसक्त रहना। जे य माणुस्सए भोगे, अदवा पारलोइए। १२. अब्रह्मचारी होते हुए भी अपने आपको ब्रह्मचारी कहना तेऽतिप्पयंतो आसयति, महामोहं पकुव्वति॥ और स्त्री विषयक आसक्ति के कारण मायायुक्त मिथ्यावचन इड्डी जुती जसो वण्णो, देवाणं बलवीरियं। का बहुत प्रयोग करना। तेसिं अवण्णवं बाले, महामोहं पकुव्वति॥ १३. राजा आदि के आश्रित होकर उसके संबंध से प्राप्त यश अपस्समाणो पस्सामि, देवे जक्खे य गुज्झगे। और सेवा का लाभ उठाकर जीविका चलाना और उसी के अण्णाणी जिणपूयट्ठी, महामोहं पकुव्वति॥ धन में लुब्ध होना। (दशा ९/२/१-३४) १४. ईर्ष्णदोष से आविष्ट तथा पाप से पंकिल चित्त वाला १. किसी त्रस प्राणी को पानी में ले जा, पैर आदि से होकर अनीश्वर को ईश्वर मानकर अपने भाग्य-निर्माताओं के आक्रमण कर पानी के द्वारा उसे मारना। जीवन या सम्पदा में अन्तराय डालना। २. अपने हाथ से किसी मनुष्य का मुंह बंद कर, उसे कमरे में १५. जैसे नागिन अपने अंड-पुट को खा जाती है, वैसे ही रोक कर, अन्तर्विलाप करते हुए को मारना। अपना पोषण करने वाले को तथा सेनापति और प्रशास्ता को ३. अनेक जीवों को किसी एक स्थान में अवरुद्ध कर, अग्नि मार डालना। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म १६० आगम विषय कोश-२ १६. राष्ट्र के नायक तथा प्रचुर यशस्वी निगम-नेता श्रेष्ठी ५. प्रत्येक कर्मबंध के सामान्य हेतु को मार डालना। ___णाणं जस्स समीवे सिक्खियं तं निण्हवति। नाणि१७. जन-नेता तथा जो प्राणियों के लिए द्वीप (आश्वासनभूत) पुरिसस्स पडिणीओ। अधिज्जंतो वा अंतरायं करेति। और त्राण है, ऐसे व्यक्ति को मार डालना। जीवस्स वा णाणोवघायं करेति। णाणिपुरिसे वा पदोसं १८. जो व्यक्ति प्रव्रज्या के लिए उपस्थित है अथवा जो करेति। एवमादिएहिं पंचविहं णाणावरणं बज्झइ। प्रवजित होकर संयत और सुतपस्वी हो गया, उसे बरगला एतेसुचेव सविसेसु नवविधं दंसणावरणं बज्झति। कर, फुसलाकर या बलात् धर्म से भ्रष्ट करना। भूताणुकंपयाते वयाणुपालणाते खंतिसंपण्णयाए १९. अनंतज्ञानी-अनन्तदर्शी अर्हत् का अवर्णवाद बोलना। दाणरुईए गुरुभत्तीते एतेहिं सातावेदणिज्ज बज्झति। २०. द्वेषवश नैतृक (मोक्ष की ओर ले जाने वाले) मार्ग के विवरीयहेऊहिं असातं। बहुत प्रतिकूल चलना तथा उसकी निंदा के द्वारा अपनी ___ मोहणिज्जं दुविधं-दसणमोहं चरित्तमोहं च। तत्थ आत्मा को भावित करना। दसणमोहे अरहंतपडिणीययाए एवं सिद्ध-चेतिय-तवस्सि२१. जिन आचार्य अथवा उपाध्याय के पास श्रुत और विनय सुय-धम्म-संघस्स य पडिणीयत्तं करेंतो दंसणमोहं बंधति। (चारित्र) की शिक्षा प्राप्त की, उन्हीं की निंदा करना। तिव्वकसायताए बहुमोहयाते रागदोससंपन्नयाते चरित्तमोहं २२. आचार्य और उपाध्याय की सम्यक् प्रकार से सेवा- बंधति। शुश्रूषा तथा उनकी पूजा नहीं करना और अभिमान करना। आउयं चउव्विहं-तत्थ णिरयाउयस्स इमे हेऊ२३. अबह श्रत होते हए भी श्रत के द्वारा अपना ख्यापन करना मिच्छत्तेण महारंभयाते महापरिग्रहाते कणिमाहारेणं तथा किसी व्यक्ति द्वारा पूछे जाने पर 'बहुश्रुत मुनि के बारे में णिस्सीलयाते रुद्दज्झाणेण य णिरयाउं णिबंधति। सुना है, वे आप ही हैं ?''हां', मैं ही हूं, मैंने घोषविशुद्धि का तिरियाउयस्स इमे हेतू-उम्मग्गदेसणाते संतमग्गअभ्यास किया है, बहुत ग्रन्थों का पारायण किया है-इस विप्पणासणेणं माइल्लयाते सढसीलताते ससल्लमरणेणं प्रकार स्वाध्याय का निर्वचन करना। एवमादिएहिं तिरियाउयं निबंधति। २४. अतपस्वी होते हुए भी तपस्वी के रूप में ख्यापन करना। इमे मणुयाउयहेउणो-विरयविहूणो जो जीवो २५. सहकार लेने के लिए ग्लान के उपस्थित होने पर समर्थ तणुकसातो, दाणरतो, पगतिभद्दयाए मणुयाउयं बंधति। होते हुए भी 'यह मेरी सेवा नहीं करता है' -इस दृष्टि से देवाउयहेतू इमे-देसविरतो सव्वविरतो बालतवेण उसकी सेवा नहीं करना, शठ, माया-प्रज्ञान (छद्मग्लानवेषी), अकामणिज्जराए सम्मद्दिट्ठियाए य देवाउयं बंधति।। पाप से पंकिल चित्त वाला होना। नाम दुविहं-सुभासुभं। तत्थ सामण्णतो असुभे य २६. सर्व तीर्थों के भेद के लिए कथा और अधिकरण का इमे हेतू-मण-वय-कायजोगेहिं वंको मायावी तिहिं बार-बार संप्रयोग करना। गारवेहिं पडिबद्धो। एतेहिं असुभं णामं बज्झति। एतेहिं २७. श्लाघा अथवा मित्रगण के लिए अधार्मिक योग (निमित्त, चेव विवरीएहिं सुभं णामं बज्झइ। वशीकरण आदि) का बार-बार संप्रयोग करना। सुभगोत्तस्स इमे हेतू-अरहंतेसु य साहूसु य भत्तो २८. मानुषी अथवा पारलौकिक भोगों का अतृप्तभाव से अरहंतपणीएण सुएण जीवादिपदत्थे य रोयंतो, अप्पआस्वादन करना। माययाए संजमादिगुणप्पेही य उच्चागोयंबंधति।विवरीएहिं २९. देवों की ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण और बल-वीर्य का णीयागोयं। अवर्णवाद बोलना-उनका अपलाप करना। सामण्णतो पंचविहंतराए इमो हेतू-पाणवहे मुसा३०. जिनेश्वर की भांति पूजे जाने की वांछा से देव, यक्ष और वाते अदिन्नादाणे मेहुणे परिग्गहे य एतेसु रइबंधगरे, गुह्यक को नहीं देखते हुए भी कहना कि 'मैं उन्हें देखता हूं।' जिणपूयाए विग्घकरो, मोक्खमग्गं पवजंतस्स जो विग्धं Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १६१ कर्म करेति। एतेसु अंतराइयं बंधति एतेसु हेऊसु णिक्कारणे ७. गोत्रकर्म बंध के हेतु-इसके दो प्रकार हैं-उच्चगोत्र, वटुंतस्स पच्छित्तं भवति। (निभा ३३२२ की चू) नीचगोत्र । जो अर्हतों और साधुओं का भक्त है, अर्हत्-प्रणीत जानावरणीय कर्मबंध केलेत जिसके पास जान सीखा श्रुत और जीव आदि पदार्थों में रुचि करता है, अप्रमत्तता से है, उस व्यक्ति के नाम का गोपन करता है। संयम आदि गुणों का प्रेक्षक है, वह उच्चगोत्र का तथा इसके ० जो ज्ञानी पुरुष का प्रत्यनीक है। विपरीत हेतुओं से नीचगोत्र का बंध करता है। ० जो अध्ययन करने वाले के विघ्न उपस्थित करता है। ८. अंतराय कर्म बंध के सामान्य हेतु-जो प्राणवध, मृषावाद, ० जो व्यक्ति के ज्ञान का उपघात करता है। अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह में रतिबंध (प्रेमानुबंध) ० जो ज्ञानी पुरुष से प्रद्वेष करता है। करता है, जिनपूजा में और मोक्षमार्ग में विघ्न उपस्थित इस प्रकार की प्रवृत्तियों से पांच प्रकार के ज्ञानावरण करता है, वह अंतराय कर्म का बंध करता है। कर्म का बंध होता है। इन हेतुओं में निष्कारण प्रवृत्त होने वाला प्रायश्चित्त का २. इसी प्रकार की सामान्य प्रवृत्ति से नवविध दर्शनावरण का । भागी होता है। बंध होता है। ६. द्रव्य बंध : कायप्रयोग आदि ३. वेदनीयकर्म बंध के हेतु-भूतानुकम्पा, व्रतपालन, क्षांति- दव्वपओग-वीससप्पओग स-मूलउत्तरे चेव। सम्पन्नता, दानरुचि और गुरुभक्ति से सातवेदनीय तथा इसके मूलसरीरसरीरी, सादीय अणादिए चेव॥ विपरीत प्रवृत्ति से असातवेदनीय का बंध होता है। निगलादि उत्तरो वीससा उ सार्ड अणादिओ चेव। ४. मोहनीय कर्मबंध के हेतु- इसके दो भेद हैं-दर्शनमोह खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते. काले कालो जहिं जो उ॥ और चारित्रमोह। पओगबंधो तिविधो-मणादि। मणस्स मूलप्पजो अरिहंत, सिद्ध, चैत्य, तपस्वी, श्रुत, धर्म और संघ ओगबंधो-जे पढमसमए गेण्हंति पोग्गला मणेतुकामो का प्रत्यनीक होता है, वह दर्शनमोहनीय का बंध करता है। मणपज्जत्तीए वा। सेसो उत्तरबंधो।एवं वयीए वि।जो सो तीव्र कषाय, गाढ मोह और राग-द्वेषसम्पन्नता से कायप्पओगबंधो सो दुविधो-मूलबंधो य उत्तरबंधो य। चारित्रमोहनीय का बंध करता है। मूलबंध-सरीरसरीरिणो जो संजोगबंधो स मूलबंधो ५. आयुष्य कर्म बंध के हेतु० नरकायु-मिथ्यात्व, महारंभ, महापरिग्रह, मांसाहार, नि:शीलता सव्वबंधो वा। (दशानि १३८, १३९ चू) और रौद्रध्यान से नरकायु का बंध होता है। द्रव्यबंध दो प्रकार का है-प्रयोगबंध और विस्रसाबंध। ० तिर्यंचायु-उन्मार्गदेशना, सन्मार्गविप्रणाश, माया, शठशीलता, प्रयोगबंध तीन प्रकार का है-मनप्रयोगबंध, वचनप्रयोगबंध सशल्यमरण आदि हेतुओं से तिर्यंचायु का बंध होता है। और कायप्रयोगबंध। मन का मूलप्रयोगबंध है-मनन करने ० मनुष्यायु-अव्रती जीव के प्रतनुकषाय, दानरुचि और भद्र __ के लिए मन:पर्याप्ति के द्वारा पहले समय में गृहीत पुद्गल। प्रकृति से मनुष्यायु का बंध होता है। शेष उत्तरबंध है। वचनप्रयोगबंध भी इसी प्रकार है। जो ० देवायु-देशव्रत, सर्वव्रत, बालतप, अकामनिर्जरा और काय- प्रयोगबंध है, वह दो प्रकार का है-मूलबंध और सम्यग्दृष्टि से देवायु का बंध होता है। उत्तरबंध। शरीर और शरीरी का जो संयोगबंध है, वह मूलबंध ६. नामकर्म बंध के हेतु-इसके दो प्रकार हैं-शुभ और अथवा सर्वबंध कहलाता है। वह दो प्रकार का होता हैअशुभ । जो मन-वचन-काययोगों से वक्र, मायावी और ऋद्धि- सादि और अनादि। रस-सात-इस त्रिविध गौरव से प्रतिबद्ध है, वह सामान्यतः निगड आदि उत्तरबंध है। वित्रसाबंध सादि और अनादि इन हेतुओं से अशुभ नामकर्म का और इसके विपरीत प्रवृत्ति दो प्रकार का होता है। जिस क्षेत्र में बंध होता है, वह क्षेत्रबंध है से शुभनामकर्म का बंध करता है। और जिस काल में बंध होता है, वह कालबंध है। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म १६२ आगम विषय कोश-२ पया * सादि-अनादि विस्त्रसाकरण, अजीवभावकरण एक समय उत्कृष्टतः एक समय कम तीन पल्योपम। यह द्र श्रीआको १ करण, पुद्गल उत्कृष्ट काल मनुष्य की अपेक्षा से है। जिसकी जितनी आयुस्थिति (जीवों के तीन प्रकार के प्रयोग प्रजप्त हैं-मनप्रयोग है, उसका देशबंध उसमें एक समय कम होता है। वचनप्रयोग और कायप्रयोग। जीवों के कर्मों का उपचय प्रयोग जीव उत्पत्ति स्थान में प्रथम समय में शरीरयोग्य से होता है, स्वभाव से नहीं होता। पुद्गलों को ग्रहण करता है-यह सर्वबंध है। दूसरे, तीसरे कर्म के अनादित्व-सादित्व के संदर्भ में चार भंग किये आदि समयों में पुद्गलों को ग्रहण भी करता है और छोड़ता गए हैं-१. सादि-सपर्यवसित-वीतराग के होने वाला। भी है-यह देशबंध है। इस प्रकार औदारिक आदि पांचों शरीरों ईर्यापथिक कर्म का बंध। के बंध, बंधहेतु, काल, अंतरकाल आदि का विस्तार से निरूपण २. अनादि-सपर्यवसित-भवसिद्धिक के कर्मों का उपचय। किया गया है। द्र भ ८/३४५-३५४, ३६३-४४७ ३. अनादि-अपर्यवसित-अभवसिद्धिक के कर्मों का उपचय। शरीर की निष्पत्ति जीवमूलप्रयोगकरण और शरीर ४. सादि-अपर्यवसित-यह भंग शून्य है। कर्मबंध का अनादित्व की प्रवृत्ति उत्तरप्रयोगकरण है। शरीर का अवयवविभाग से निरपेक्ष है और सादित्व सापेक्ष है।-भ ६/२५-२९ रहित प्रथम निर्माण मूलकरण है। इसे पुद्गलसंघातकरण बंध के दो प्रकार हैं-१. प्रयोगबंध-जीव के व्यापार कहा जा सकता है।.....-द्र श्रीआको १शरीर) से मन-वचन-काययोग की प्रवृत्ति से होने वाला बंध। ० भावबंध : जीवभावप्रयोगबंध . २. विस्रसाबंध-स्वाभाविक रूप से होने वाला पुद्गल आदि दुविहो य भावबंधो, जीवमजीवे य होइ बोधव्वो। विषयक संबंध। इसके दो प्रकार हैं एक्केक्को वियतिविहो, विवाग-अविवाग-तदुभयगो॥ १. सादि विस्रसाबंध-परमाणु, द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी आदि जीवभावप्पओगबंधो-मिथ्यादर्शनाऽविरतिप्रमाद पुद्गलस्कंधों का बंधनप्रत्ययिक बंध। बादल, अभ्रवृक्ष आदि कषायजोगबंधाः ।."जीवभावप्रयोगबंधो तिविधोका परिणामप्रत्ययिक बंध। विपाकजो अविपाकजो उभयो। जीवभावविपाकजो२. अनादि विस्रसाबंध-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और जेण चेव भावेण गहिता तेण चेव वेदेति, एस विपाकजो। आकाशास्तिकाय का अपने-अपने प्रदेशों का अन्योन्य संबंध।। अविपाकजो अन्नधा वेदेति।अथवा तेसिं चेव पोग्गलाणं इन तीनों का परस्पर देशबंध होता है, सर्वबंध नहीं होता। उदओ वेदणा।सा दुविधा-विपाकजा अविपाकजा य। प्रयोगबंध के तीन प्रकार हैं तेसिं पोग्गलाणं सति भावे भवति अभावेण भवति।अहवा १. अनादि अपर्यवसित-जीव के आठ मध्यप्रदेशों का, उनमें जे बद्धपुट्ठनिधत्ता, सो विपाकजो अविपाकजो वा। जो भी तीन-तीन का अनादि-अपर्यवसित, शेष का सादि बंध। पूण निकाचितो सो नियमा विपाकजो। २. सादि-अपर्यवसित-सिद्ध जीवों के प्रदेशों का बंध । जीव (दशानि १४० चू) सिद्धिगति की अपेक्षा सादि अपर्यवसित है। भावबंध दो प्रकार का होता है-जीवभावबंध और ३. सादि सपर्यवसित-शरीरबंध, शरीरप्रयोगबंध आदि। अजीवभावबंध । प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-विपाकज. ० शरीरबंध-समुद्घात के समय जीव-व्यापार से होने वाला अविपाकज और तदुभयज। जीवप्रदेशों का बंध। अथवा जीवप्रदेशाश्रित तैजस-कार्मण जीवभावप्रयोगबंध-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, शरीर का बंध। कषाय और योग से होने वाला बंध। इसके तीन प्रकार हैं० शरीर प्रयोगबंध-एकेन्द्रिय आदि जीवों के औदारिक आदि । विपाकज, अविपाकज और उभयज। शरीरों का बंध। यह बंध शरीरप्रयोगनामकर्म के उदय से विपाकज-जिस भाव से पुद्गल गृहीत हैं, उसी भाव से होता है। औदारिक शरीर प्रयोगबंध देशबंध भी है, सर्वबंध वेदन करना। भी है। सर्वबंध का काल एक समय, देशबंध का जघन्यतः अविपाकज-अन्यथा वेदन करना । अथवा उन्हीं पुद्गलों का Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १६३ कर्म उदय वेदना है। वह दो प्रकार की होती है-विपाकजा और कर्मणो बन्धकास्ते परस्परंतुल्याः, एकस्यैव सातवेदनीयस्य अविपाकजा। यह पुद्गलों के होने पर होती है, उनके अभाव द्विसमयस्थितिकस्य सर्वेषामपि बन्धनात्। तदेवं न योगमें नहीं होती। अथवा जो कर्म पदगल बद्ध. स्पष्ट और निधत्त प्रत्ययः कर्मबन्धस्याल्पबहत्वविशेषः, किन्तु रागादितीव्रहै वह विपाकज भी होता है और अविपाकज भी। जो मन्दताप्रत्ययः। (बृभा ३९४९, ३९५० वृ) निकाचित होता है, वह नियमतः विपाकज होता है। अयोगिकेवली निश्चित रूप से कर्मबंध नहीं करते। ० अजीवभावप्रयोगबंध : औदारिक शरीर आदि जो उपशांतमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली (ग्यारहवें, ___ अजीवभावप्पयोगबंधो दुविधो-विपाकजो अवि बारहवें और तेरहवें गुणस्थान वाले जीव) हैं, उनके पाकजो याविपाकजो जो सुभत्तेण गहिताणं पोग्गलाणं ईर्यापथिक-मात्र योगजन्य कर्मबंध होता है, जो सबके परस्पर सुभो चेव उदतो।अविपाकजोणचेव उदओ अण्णहा वा। तुल्य होता है, क्योंकि वे सभी दो समय की स्थिति वाले एक अजीवभावबंधो चउदसविहो, तं जहा-ओरालियं सातवेदनीय कर्म का ही बंध करते हैं। इस प्रकार योगप्रत्ययिक वा सरीरं ओरालियसरीरपरिणामितं वा दव्वं, वेउव्वियं कर्मबंध में अल्पत्व और बहुत्व का भेद नहीं होता, किन्तु वा सरीरं, वेउव्वियसरीरपरिणामियं वा दव्वं, आहारगंवा राग-द्वेष की मंदता-तीव्रता के कारण ही कर्मबंध का सरीरं, आहारगसरीरपरिणामियं वा दव्वं, तेयगंवा सरीरं, अल्पबहुत्व होता है। तेयगसरीरपरिणामियं वा दव्वं, कम्मयं वा सरीरं, कम्मय रागहोसाणुगता, जीवा कम्मस्स बंधगा होति। सरीरपरिणामितं , वा दव्वं, पयोगपरिणामिते वण्णे गंधे रागादिविसेसेण य, बंधविसेसो वि अविगीतो॥ रसे फासे। (दशानि १४० की चू) (व्यभा १११०) ___ अजीवभावप्रयोगबंध दो प्रकार का हैविपाकज-शुभरूप में गृहीत पुद्गलों का शुभरूप में उदय। राग-द्वेष से अनुगत जीव कर्म का बंध करते हैं। रागअविपाकज-उदय होता ही नहीं, अथवा अन्यथा उदय होता है। ही द्वेष की तरतमता के आधार पर कर्मबंध की तरतमता होती है। अजीवभावबंध के चौदह प्रकार हैं ८. बंध का हेतु पदार्थ नहीं १. औदारिक शरीर २. औदारिक शरीर परिणामित द्रव्य ३. तुल्ले वि इंदियत्थे, सज्जति एगो विरज्जती बितिओ। वैक्रिय शरीर ४. वैक्रिय शरीर परिणामित द्रव्य ५. आहारक ____ अज्झत्थं खु पमाणं, न इंदियत्था जिणा बेंति ॥ शरीर ६. आहारक शरीर परिणामित द्रव्य ७. तैजस शरीर मणसा उवेति विसए, मणसेव य सन्नियत्तए तेसु। ८. तैजस शरीर परिणामित द्रव्य ९. कार्मण शरीर १०. कार्मण इति वि हु अज्झत्थसमो, बंधो विसया न उ पमाणं॥ शरीर परिणामित द्रव्य ११. प्रयोगपरिणामित वर्ण १२. प्रयोग . (व्यभा १०२८, १०२९) परिणामित गंध १३. प्रयोगपरिणामित रस १४. प्रयोगपरिणामित __ इन्द्रियों के रूप आदि विषय समान होने पर भी एक स्पर्श। व्यक्ति उन पर आसक्त हो जाता है और दूसरा उनसे विरक्त (अजीवोदयनिष्पन्न के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- हो जाता है। कर्मबंध में आन्तरिक भाव-आत्मपरिणाम ही औदारिक शरीर, औदारिक शरीर के प्रयोग द्वारा परिणामित प्रमाण हैं, इन्द्रिय-विषय नहीं-ऐसा अर्हतों ने प्रतिपादित पुद्गल द्रव्य... पांचों शरीरों के प्रयोग द्वारा परिणामित वर्ण, किया है। गंध, रस और स्पर्श।-अनु २७६) विषय-उपलब्धि के अभाव में भी कोई मन से ही ७. अबंध, बंध की तुल्यता और अल्पबहुत्व उन पर राग-द्वेष करता है और ठीक इसके विपरीत विषयों के ..."पंडिय"अबंधी य"इरियरवहिबंधगा तुल्ल॥ होने पर भी किसी का मन उनसे विरक्त हो जाता है। अतः ___ "अयोगिकेवली तु नियमादबन्धकः । ये तूपशान्त- परिणामधारा के अनुसार कर्मबंध होता है। इन्द्रिय-विषय मोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिन ऐर्यापथस्ययोग-मात्रप्रत्ययस्य प्रमाण नहीं हैं। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म १६४ आगम विषय कोश-२ ९. बालवीर्य आदि और कर्मबंध ११. संहनन : परिणाम और कर्मबंध अहवा बालादीयं, तिविहं विरियं समासतो होति। देहबलं खलु विरियं, बलसरिसो चेव होति परिणामो। बंधविसेसो तिण्ह वि, पंडिय बंधी अबंधी य॥ आसज्ज देहविरियं, छट्ठाणगया तु सव्वत्तो। तम्हा ण सव्वजीवा, उबंधगा व बंधणा तुल्ला। __..यः सेवार्त्तसंहननी जघन्याबलो जीवस्तस्य अधिकिच्च संपरागं, इरियावहिबंधगा तुल्ला॥ परिणामोऽपि शुभोऽशुभो वा मन्द एव भवति न तीव्रः, (बुभा ३९४९, ३९५०) ततः शुभाऽशभकर्मबन्धोऽपि तस्य स्वल्पतर एव, अत वीर्य के तीन प्रकार हैं एवास्योर्ध्वगतौ कल्पचतुष्ट्यादूर्ध्वम् अधोगतौ नरकबालवीर्य-असंयत व्यक्ति का असंयम विषयक वीर्य। पृथ्वीद्वयादध उपपातौ न भवति । एवं कीलिकादिबालपण्डितवीर्य-देशविरत व्यक्ति का संयमासंयम विषयक संहनेनिष्वपि..."। (बृभा ३९४८ वृ) वीर्य। संहनन छह प्रकार का होता है-वज्रऋषभनाराच, पण्डितवीर्य-सर्वविरत व्यक्ति का सर्वसंयम विषयक वीर्य। ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका, सेवाते । संहनन इन तीनों प्रकार के प्राणियों के कर्मबंध भी भिन्न- जनित शरीरबल वीर्य कहलाता है। संहननजनित बल के भिन्न होता है। बालवीर्यवान् प्रभूततर, बालपण्डित-वीर्यवान् सदृश ही प्राणियों के परिणाम होते हैं। जैसे सेवार्त संहननी अल्पतर और पण्डितवीर्यवान् अल्पतम कर्मबंध करता है। प्राणी जघन्य बल वाला होता है। उसके शुभ और अशुभ पण्डितवीर्यवान के दो प्रकार हैं-बंधी और अबंधी। परिणाम भी मंद होते हैं, जिनके अनुसार शुभ-अशुभ कर्मबंध प्रमाद आदि कर्मबंध के हेतुओं के सद्भाव से बंध होता रहता स्वल्पतर होता है। उसकी ऊर्ध्वगति चौथे देवलोक तक तथा है। यह स्थिति प्रमत्तसंयत से सयोगी केवली तक रहती है। अधोगति दूसरी नरक तक होती है। इसी प्रकार कीलिका अयोगीकेवली नियमतः अबंधी होता है। अतः सभी जीव आदि संहनन वालों की ऊर्ध्व-अधोगति होती है। इस देहवीर्य बंधक नहीं होते। जो बंधक हैं, उनमें भी कषाय के अल्पबहत्व को प्राप्त कर सभी संहनन के प्राणी परस्पर षट्स्थानपतित के कारण कर्मबंध समान नहीं होता। होते हैं। जैसे सेवार्त संहनन वाले प्राणियों में जो सर्वजघन्य ईर्यापथिक (योगजन्य) बंध सबके समान होता है। बल वाले हैं, उनकी अपेक्षा से अन्य सेवात संहननी १०. संहनन-धृति और कर्म अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, णामुदया संघयणं, धिती तु मोहस्स उवसमे होति। संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनन्तगुणवृद्धि वाले होते हैं। अतः देहबल की विचित्रता से परिणाम की विचित्रता तहवि सती संघयणे, जा होति धिती ण साहीणे॥ होती है और इससे कर्मबंध भी विचित्र होता है। (निभा ८५) ० संहनन-यह नामकर्म की प्रकृति (नामकर्म के बयालीस १२. ज्ञान-अज्ञान और कर्मबंध भेदों में आठवां भेद) है। शुभनाम कर्म के उदय से दृढ़ जाणं करेति एक्को, हिंसमजाणमपरो अविरतो य। संहनन होता है। तत्थ वि बंधविसेसो, महंतरं देसितो समए॥ ० धृति-यह मोहकर्म (अरति नोकषाय चारित्र मोहनीय) (बृभा ३९३८) के क्षयोपशम से प्राप्त होती है। दो अविरत व्यक्ति हैं। एक जानता हुआ हिंसा करता यद्यपि संहनन और धति की उत्पत्ति भिन्न है. फिर है और दूसरा अज्ञान अवस्था में हिंसा करता है। दोनों के भी दृढ़ संहननी में जैसी धृति होती है, वैसी धृति हीन कर्मबंध में महान् अन्तर है, ऐसा सिद्धान्त में प्ररूपित है। जो संहनन वाले में नहीं होती। जानता हुआ हिंसा करता है, वह तीव्र अनुभाव वाले अत्यधिक Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १६५ कर्म पापकर्मों का संचय करता है तथा दूसरा मंदविपाक वाले १५. कर्म का कर्ता स्वतंत्र या परतंत्र? अल्पतर पापकर्मों का संचय करता है। कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परव्वसा होति। १३. जीव में भाव और कर्मबंध रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलइ स परव्वसो तत्तो॥ एगो खओवसमिए, वदृति भावेऽवरो उ ओदइए। कम्मवसा खलु जीवा, जीववसाई कहिंचि कम्माई। तत्थ वि बंधविसेसो, संजायति भावणाणत्ता॥ कत्थइ धणिओ बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं॥ एमेव ओवसमिए, खओवसमिए तहेव खइए य। धणियसरिसंतुकम्मं, धारणिगसमा उ कम्मिणो होति। बंधाऽबंधविसेसो, ण तुल्लबंधा य जे बंधी। संताऽसंतधणा जह, धारणग धिई तणू एवं॥ (बृभा ३९४०, ३९४१) सहणोऽसहणो कालं, जह धणिओ एवमेव कम्मं तु। भाव पांच हैं-उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम और उदियाऽणुदिए खवणा, होज्ज सिया आउवजेसु॥ पारिणामिक। जीव किसी न किसी भाव में प्रवर्तमान रहता है, (बृभा २६८९-२६९२) जिसके आधार पर उसके कर्मबंध होता है। क्षायोपशमिक भाव शिष्य ने पूछा-जीव ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का में प्रवर्तमान जीव के मंदतर कर्मों का और औदयिक भाव में उपचय करने में स्वतंत्र हैं तो फिर गति भी उनके वशवर्ती प्रवर्तमान जीव के तीव्रतर कर्मों का उपचय होता है। इसी प्रकार ही होनी चाहिए। कर्मों के द्वारा वे ऊर्ध्व, अधः या तिर्यग् औपशमिक, क्षायिक आदि भावों में प्रवर्तमान जीव के बंध- क्यों ले जाए जाते हैं? अबंध में अंतर होता है। जो कर्मबंधक जीव हैं उनमें भी आचार्य ने कहा-जीव कर्म का बंधन करने में स्वतंत्र बंध समान नहीं होता किन्तु प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और हैं किन्तु उसके भोग में परतंत्र हैं। जैसे एक मनुष्य वृक्ष पर प्रदेश के रूप में भिन्न-भिन्न (विसदृश) बंध होता है। आरोहण करने में स्वतंत्र है। किन्तु किसी प्रमाद से वह स्खलित १४. कर्म का गुरुत्व-लघुत्व और नय हो जाए तो गिरने में परतंत्र है। कहीं जीव कर्म के वशवर्ती होता है और कहीं कर्म गुरुलघुकमगुरुलघुकं वा द्रव्यं भवति नैकान्तगुरुकं न वा एकान्तलघुकमित्यागमेऽभिधीयते ततः कर्मणां ___जीव के वशवर्ती होते हैं। कहीं ऋण देने वाला बलवान् होता गुरुतया जीवा अधो गच्छन्ति लघुतया तूर्ध्वमिति कथं न " है तो कहीं ऋण लेने वाला बलवान् होता है। विरुध्यते ? उच्यते-इह हि यद् आगमे गुरुलघु धनिक व्यक्ति के सदृश कर्म है तथा धारणिक- कर्ज कमगुरुलघुकं वा द्रव्यमुक्तं तन्निश्चयनयमताश्रयणेन, इदं लेने वाले के समान जीव है। यदि धारणिक वैभव सम्पन्न है, तो वह धन देकर ऋणमुक्त हो जाता है। यदि वह धनरहित है तु कर्मणां गुरुत्वं लघुत्वं च व्यवहारनयमताश्रयणाद् तो उसे धनिक के वशीभूत होकर उसके दासत्व को स्वीकार उच्यते। (बृभा २६८४ की वृ) करना पडता है। इसी प्रकार जिस जीव का धतिबल और शिष्य ने पूछा-जीव कर्मों की गुरुता से नीचे तथा शरीरबल मजबूत होता है, वह कर्मों को खपाकर सुखपूर्वक कर्मों की लघुता से ऊपर जाता है-यह कथन आगम के कर्म ऋण से मुक्त हो जाता है। जिसका धुतिबल और शरीरबल विरुद्ध कैसे नहीं है ? क्योंकि आगम के अनुसार कोई भी कमजोर होता है, वह कर्मों के वशीभूत हो जाता है। द्रव्य एकांत गुरु या एकांत लघु नहीं होता । वह या तो गुरुलघु धनिक के दो प्रकार हैं-सहिष्णु तथा असहिष्णु। जो होता है या अगुरुलघु होता है। गुरु ने कहा-आगम में सहिष्णु होता है, वह विवक्षित काल की प्रतीक्षा करता है और निश्चयनय के आधार पर गुरुलघु और अगुरुलघु द्रव्य का जो असहिष्णु होता है, वह प्रतीक्षा नहीं करता। इसी प्रकार कुछ प्रतिपादन हुआ है। यह कर्मों का गुरुत्व और लघुत्व व्यवहार कर्म स्थिति पूर्ण होने पर और कुछ कर्म उससे पूर्व ही अपना नय के आधार पर प्रतिपादित है। प्रभाव दिखाते हैं। इसी प्रकार उदीर्ण अथवा अनुदीर्ण कर्मों का Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म १६६ आगम विषय कोश-२ क्षय धृति, संहनन और शारीरिक बल से युक्त कभी किसी जैसे धूम-रहित अग्नि ईंधन के अभाव में बझ जाती व्यक्ति के होता है, सदा नहीं होता, सबके नहीं होता। जो है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर सर्व कर्म प्राणी संहनन और बल से हीन होता है, वह अनुदीर्ण कर्म का क्षीण हो जाते हैं। देशतः क्षय करता है, सर्वतः क्षय नहीं करता। आयुष्य कर्म मूल के सूख जाने पर जैसे वृक्ष जल से अभिषिक्त का क्षय उदीर्ण अवस्था में ही होता है। शेष कर्मों का उदीर्ण होकर भी अंकुरित नहीं होता, वैसे ही मोहकर्म के क्षीण हो और अनुदीर्ण-दोनों अवस्थाओं में क्षय हो सकता है। जीव जाने पर शेष कर्म उत्पन्न नहीं होते। और कर्म-दोनों की यथायोग तुल्य बलवत्ता है १७. पुण्यबंध से मुक्ति कैसे? धान्यपल्य दृष्टांत दृग्नाशो ब्रह्मदत्ते भरतनृपजयः सर्वनाशश्च कृष्णे। सक्का अपसत्थाणं, तु हेतवो परिहरित्तु पयडीणं। नीचैर्गोत्रावतारश्चरमजिनपतेर्मल्लिनाथेऽबलात्वम्॥ सादादिपसत्थाणं, कहं णु हेतू परिहरेज्जा। निर्वाणं नारदेऽपि प्रशमपरिणतिः सा चिलातीसुतेऽपि। जति वा बज्झति सातं, अणुकंपादीसुतो कहं साहू। इत्थं कर्मा-ऽऽत्मवीर्ये स्फुटमिह जयतां स्पर्द्धया तुल्यरूपे॥ परमणुकंपाजुत्तो, वच्चति मोक्खं सुहणुबंधी॥ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का अंधा होना, भरतचक्रवर्ती का सुहमवि आवेदंतो, अवस्समसुभं पुणो समादियति। विजयी होना अथवा बाहुबली द्वारा भरत चक्रवर्ती का दृष्टि, एवं तुणस्थि मोक्खो, कहं च जयणा भवति एत्थं ॥ मुष्टि आदि पांच प्रकार के युद्धों में हारना, कृष्ण का सर्वनाश भण्णतिजहा तुकोती, महल्लपल्ले तुसोधयति पत्थं। होना, चरम तीर्थंकर भगवान महावीर का नीचगोत्र में जन्म पक्खिवति कुंभं तस्स उ, णत्थि खतो होति एवं तु॥ ग्रहण करना, तीर्थंकर मल्लिनाथ का स्त्रीरूप में जन्म लेना, अन्नो पुण पल्लातो, कुंभंसोहयति पक्खिवेति पत्थं। नारद का निर्वाण होना, चिलातिपुत्र का उपशमभाव में परिणत तस्स खओ भवतेवं, इय जे तु संजया जीवा॥ हो जाना-ये सारी घटनाएं आत्मवीर्य तथा कर्मशक्ति की तेसिं अप्पा णिजर, बहुबज्झइ पाव तेणणस्थि खओ। यथायोग तुल्यता की ओर संकेत करती हैं। अप्पो बंधो जयाणं, बहुणिज्जर तेण मोक्खो तु॥ १६. मोहक्षय : ताल, सेनापति आदि दृष्टांत (निभा ३३२८-३३३०, ३३३३-३३३५) जहा मत्थए सईए, हताए हम्मती तले। शिष्य ने पूछा-अशुभ अध्यवसाय-निरोध से अप्रशस्त एवं कम्माणि हम्मंति, मोहणिज्जे खयं गते॥ कर्मप्रकृतियों के अशुभ बंध का परिहार किया जा सकता है, सेणावतिम्मि णिहते, जधा सेणा पणस्सती। किन्तु नित्य शुभ अध्यवसायों से सात वेदनीय आदि शुभ एवं कम्मा पणस्संति, मोहणिज्जे खयं गते॥ प्रकृतियों के बंध का वर्जन कैसे संभव है? । धूमहीणे जधा अग्गी, खीयती से निरिंधणे। यदि साधु प्राणदया, व्रतसम्पन्नता, संयमयोगों में उद्यम, एवं कम्माणि खीयंति, मोहणिज्जे खयं गते॥ शांतिसम्पन्नता, दानरुचि, गुरुभक्ति आदि से सातवेदनीयकर्म सक्कमले जधा रुक्खे, सिच्चमाणे ण रोहति। का बंध करता है तो वह स्वपरानुकंपी पुण्यबंधी साधु मोक्ष एवं कम्मा न रोहंति, मोहणिज्जे खयं गते॥ को कैसे प्राप्त कर सकता है, क्योंकि पुण्य मोक्षगमन का (दशा ५/७/११-१४) विघ्न है। जैसे तालवृक्ष के शीर्ष स्थान में सूई से छेद किए जाने जीव शुभ का संवेदन करता हुआ भी अवश्य अशुभ का पर वह नष्ट हो जाता है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय हो बंध करता है। पुण्य-पाप के उदय से संसार बढ़ता है, मोक्ष जाने पर शेष सर्व कर्म विनष्ट हो जाते हैं। नहीं होता, तब साधु को कैसा प्रयत्न करना चाहिये? जैसे सेनापति के मर जाने पर सारी सेना विनष्ट हो । आचार्य ने धान्यपल्य दृष्टान्त देते हुए कहा-जैसे जाती है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर शेष कोई व्यक्ति एक बहुत बड़े धान्य के कोठे में से एक प्रस्थ सर्व कर्म विनष्ट हो जाते हैं। धान्य निकालता है और उसमें एक कुंभ धान्य डालता है, Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १६७ कल्पस्थिति इस क्रम से उसका धान्य कभी समाप्त नहीं होता। इसी ० बिना दोष प्रतिक्रमण क्यों? वैद्यत्रयी दृष्टांत प्रकार असंयत प्राणी के अल्प निर्जरा और बहत कर्मबंध होता ० मासकल्प है, उसका कभी मोक्ष नहीं होता। ०पर्युषणाकल्प कोई व्यक्ति एक बहुत बड़े धान्य के कोठे में से एक * कल्पस्थिति के विघ्न द्र परिमंथ कुंभ धान्य निकालता है और एक प्रस्थ धान्य डालता है, इस १. कल्पस्थिति के पर्याय क्रम से उसका धान्य एक दिन समाप्त हो जाता है। पलिमंथविप्पमुक्कस्स होति कप्पो अवट्ठितो णियमा। इसी प्रकार संयत व्यक्ति के अल्प कर्मबंध और बहुत कप्पे य अवट्ठाणं, वदंति कप्पट्ठितिं थेरा॥ निर्जरा होती है। वह अपश्चिम संयम-तप (यथाख्यात चारित्र .."ठिति त्ति मेर त्ति एगट्ठा॥ और शुक्ल ध्यान) के द्वारा समस्त कर्मों से मुक्त हो जाता है। पतिद्वा ठावणा ठाणं ववत्था संठिती ठिती। * पूर्वतप से देवायुबंध कैसे? द्र देव अवट्ठाणं अवत्था य, एकट्ठा......॥ कल्प-एक छेदग्रंथ, जिसमें साध्वाचार के विधि _(बृभा ६३४९, ६३५५, ६३५६) निषेधों का निरूपण है। द्र छेदसूत्र कल्पे-कल्प-शास्त्रोक्तसाधुसमाचारे स्थिति:कल्पस्थित-वह मुनि, जो परिहारविशुद्धि चारित्र की अवस्थानं कल्पस्थितिः कल्पस्य वा स्थिति:-मर्यादा साधना के समय गुरु का दायित्व निभाता कल्पस्थितिः। (क ६/२० की वृ) है। द्र परिहारविशुद्धि जो साधु संयम के विघ्नों से मुक्त होता है, उसके कल्पस्थिति मनि की आचार-मर्यादा, साधु सामाचारी नियमतः सर्वकालभावी कल्प होता है । स्थविरों ने आचारशास्त्र में अवस्थान । प्रथम-चरम और मध्यम तीर्थंकरों के शासन में प्ररूपित साधु के आचार में अवस्थिति को कल्पस्थिति कहा में होने वाला आचारव्यवस्था-भेद। है। अथवा आचारमर्यादा कल्पस्थिति है। स्थिति और मर्यादा एकार्थक हैं। प्रतिष्ठा, स्थापना, १. कल्पस्थिति के पर्याय स्थान, व्यवस्था, संस्थिति, स्थिति, अवस्थान और अवस्था२. कल्पस्थिति के प्रकार ०कल्पस्थिति का समवतरण ये सब स्थिति के एकार्थक हैं। ३. सामायिक संयत : स्थित-अस्थितकल्प २. कल्पस्थिति के प्रकार __ * सामायिक संयत द्र चारित्र छव्विहा कप्पट्ठिती पण्णत्ता, तं जहा-सामाइय४. कल्पस्थित-अकल्पस्थित कौन? संजयकप्पद्विती, छेदोवट्ठावणियसंजयकप्पद्विती, निव्वि_*जिनकल्प : स्थित-अस्थित कल्प समाणकप्पद्विती, निविट्ठकाइयकप्पट्टिती, जिणकप्प५. छेदोपस्थापनीयसंयम : दस स्थितिकल्प द्विती, थेरकप्पट्टिती। (क ६/२०) ० अचेल ० औद्देशिक वर्जन कल्पस्थिति के छह प्रकार हैं० शय्यातरपिण्ड वर्जन १. सामायिकसंयतकल्पस्थिति ० राजा और राजपिण्ड के प्रकार २. छेदोपस्थापनीयसंयतकल्पस्थिति ० कृतिकर्म ३. निर्विशमानकल्पस्थिति ०व्रत (चातुर्याम-पंचयाम): ऋजुप्राज्ञ आदि ४. निर्विष्टकायिककल्पस्थिति द्र परिहारविशुद्धि ० ज्येष्ठकल्प ५. जिनकल्पस्थिति द्र जिनकल्प ० प्रतिक्रमण ६. स्थविरकल्पस्थिति द्र स्थविरकल्प Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पस्थिति १६८ आगम विषय कोश-२ ०कल्पस्थिति का समवतरण २. औद्देशिक-एक साधु के उद्देश्य से कृत आधाकर्मिक तइय-चउत्था कप्पा, समोयरंति तु बियम्मि कप्पम्मि। भोजन आदि दूसरे साधुओं के लिए कल्पनीय हो जाता है। पंचम-छट्ठठितीसुं, हेट्ठिल्लाणं समोयारो॥ केवल उसके लिए कल्पनीय नहीं होता, जिसके उद्देश्य से (बृभा ६४८१) वह बनाया गया है। निर्विशमान और निर्विष्टकायिक कल्प का छेदो- ३. प्रतिक्रमण- वे अतिचार लगने पर प्रतिक्रमण करते हैं पस्थापनीय कल्प में समवतार होता है। प्रथम चारों कल्पों अन्यथा नहीं करते। का जिनकल्प और स्थविरकल्प दोनों में समवतार होता है। ४. राजपिण्ड-दोष की संभावना होने पर राजपिण्ड का ३. सामायिक संयत : स्थित-अस्थितकल्प परिहार करते हैं, अन्यथा ग्रहण भी करते हैं। सिज्जायरपिंडे या, चाउज्जामे य पुरिसजेटे य। ५. मासकल्प-दोष की संभावना न होने पर वे एक क्षेत्र में कितिकम्मस्स य करणे, चत्तारि अवद्रिया कप्पा॥ पूर्वकोटि वर्ष तक रह सकते हैं। दोष की संभावना होने पर आचेलक्कुद्देसिय, सपडिक्कमणे य रायपिंडे य। मासकल्प पूर्ण होने या न होने पर भी विहार कर सकते हैं। मासं पज्जोसवणा, छऽप्पेतऽणवद्रिता कप्पा॥ ६. पर्युषणाकल्प-वर्षाकालीन विहरण में दोषों की संभावना आचेलक्यम्... षडप्येते कल्पा मध्यमसाधनां होने पर एक क्षेत्र में रहते हैं और दोषों की संभावना न होने पर विदेहसाधूनां चानवस्थिताः। तथाहि-यदि तेषां वस्त्र वर्षारात्र में भी विहार करते हैं। प्रत्ययो रागो द्वेषो वा उत्पद्यते तदा अचेलाः, अथ न ४. कल्पस्थित-अकल्पस्थित कौन? रागोत्पत्तिस्ततः सचेलाः, महामूल्यं प्रमाणातिरिक्तमपिच जे कडे कप्पट्ठियाणं कप्पड़ से अकप्पट्ठियाणं, नो वस्त्रं गृह्णन्तीति भावः । औद्देशिकं नाम साधनद्दिश्य कृतं से कप्पइ कप्पट्ठियाणं।जे कडे अकप्पट्ठियाणं नो से कप्पड़ भक्तादिकम् आधाकर्मेत्यर्थः, तदप्यन्यस्य साधोराय कृतं कप्पट्ठियाणं कप्पइ से अकप्पट्ठियाणं। कप्पे ठिया तेषां कल्पते, तदर्थं तु कृतं न कल्पते। प्रतिक्रमण-मपि कप्पट्ठिया, अकप्पे ठिया अकप्पट्ठिया॥ (क ४/१५) यदि अतिचारो भवति ततः कुर्वन्ति अतिचाराभावे न जो वस्तु कल्पस्थित के लिए कृत है, वह अकल्पस्थित कुर्वन्ति। राजपिण्डे यदि वक्ष्यमाणा दोषा भवन्ति ततः के लिए कल्पनीय (ग्राह्य) है, कल्पस्थित के लिए नहीं। परिहरन्ति अन्यथा गृह्णन्ति। मासकल्पे यदि एकक्षेत्रे जो अकल्पस्थित के लिए कृत है, वह कल्पस्थित के तिष्ठतां दोषा न भवन्ति ततः पूर्वकोटीमप्यासते, अथ दोषा लिए कल्पनीय नहीं है, अकल्पस्थित के लिए कल्पनीय है। भवन्ति ततो मासे पूर्णेऽपूर्णे वा निर्गच्छन्ति। पर्युषणायामपि जो अचेल, राजपिण्ड आदि कल्पों में स्थित है, वह यदि वर्षास विहरतां दोषा भवन्ति तत्र एकत्र क्षेत्रे आसते, कल्पस्थित है। जो अकल्प में स्थित है, वह अकल्पस्थित है। अथ दोषा न भवन्ति ततो वर्षारानेऽपि विहरन्ति। कप्पट्ठियाणं पणगं, अकप्प-चउजाम सेहे य॥ (बृभा ६३६१, ६३६२७) (बृभा ५३४०) मध्यवर्ती तीर्थंकरों के साधुओं के तथा महाविदेह क्षेत्र के कल्पस्थित के पांच महाव्रत होते हैं । चतुर्यामप्रतिपत्ता साधुओं के चार कल्प अवस्थित होते हैं और शैक्ष (प्रथम या अंतिम तीर्थंकर के अनुपस्थापित१. शय्यातरपिण्ड वर्जन ३. पर्याय ज्येष्ठ सामायिकसंयत शिष्य)-ये अकल्पस्थित हैं। २. चातुर्याम धर्म ४. कृतिकर्म ५. छेदोपस्थापनीयसंयत : दस स्थितकल्प छह कल्प अनवस्थित होते हैं दसठाणठितोकप्पो, पुरिमस्सयपच्छिमस्सय जिणस्स" १. अचेल-वे वस्त्र संबंधी राग-द्वेष होने पर अचेल रहते आचेलक्कुद्देसिय, सिज्जायर रायपिंड कितिकम्मे। हैं, अन्यथा सचेल रहते हैं और उस स्थिति में महामूल्यवान् वत जेट्ठ पडिक्कमणे, मासं-पज्जोसवणकप्पे॥ व प्रमाण से अधिक वस्त्र भी ग्रहण करते हैं। (बृभा ६३६३, ६३६४) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १६९ कल्पस्थिति प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के शिष्यों के लिए दस कल्प। पढमग भंगे वज्जो, होतु व मा वा वि जे तहिं दोसा। अवस्थित-अनिवार्य होते हैं सेसेसु होतऽपिंडो, जहिँ दोसा ते विवजंति॥ १. अचेल ६. व्रत असणाईआ चउरो, वत्थे पादे य कंबले चेव। २. औद्देशिकवर्जन ७. ज्येष्ठ पाउंछणए य तहा, अट्ठविधो रायपिंडो उ॥ ३. शय्यातरपिण्डवर्जन ८. प्रतिक्रमण (बृभा ६३८२-६३८४) ४. राजपिण्डपरिहार ९. मासकल्प राजा के चार प्रकार हैं-१. मुदित और मूर्धाभिषिक्त ५. कृतिकर्म १०. पर्युषणाकल्प २. मुदित है, मूर्धाभिषिक्त नहीं ३. मूर्धाभिषिक्त है, मुदित ० अचेल नहीं ४. न मुदित, न मूर्धाभिषिक्त। दुविहो होति अचेलो, संताचेलो असंतचेलो य। मुदित का अर्थ है योनिशुद्ध (जिसके माता-पिता भी तित्थगर असंतचेला, संताचेला भवे सेसा॥ राजवंशीय हैं)। मूर्धा-अभिषिक्त का अर्थ है-मुकुटबद्ध राजा के द्वारा अथवा पट्टबद्ध प्रजा के द्वारा जिसका अभिषेक (बृभा ६३६५) अचेल के दो प्रकार हैं-सद् अचेल और असद् अचेल। किया गया है। अथवा नप भरत की तरह जो स्वयं अभिषिक्त तीर्थंकर असद् अचेल होते हैं। (श्रमण महावीर दीक्षा के समय । है, वह मूर्धाभिषिक्त हैं। इनमें प्रथम भंगवर्ती राजा के आहार को राजपिण्ड कहा देवदूष्यधारी थे, तेरह महीनों के पश्चात् उस वस्त्र को छोड़कर गया है। वह सदा वर्जनीय है। शेष भंगवर्ती पिंड राजपिण्ड अचेलक हो गए।) शेष सभी जिनकल्पिक आदि मुनि सद्अचेल होते हैं। क्योंकि वे रजोहरण, मखवस्त्रिका आदि रखते हैं। __नहीं है, किन्तु दोष की संभावना हो तो वह भी वर्जनीय है। * सचेल-अचेल..... द्र श्रीआको १ शासनभेद राजपिण्ड के आठ प्रकार हैं-अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल और पादप्रोञ्छन (रजोहरण)। ० औद्देशिक वर्जन जो मुद्धा अभिसित्तो, पंचहि सहिओ पधुंजते रज्जं। संघस्सोह विभाए, समणा-समणीण कुल गणे संघे। तस्स तु पिंडो वज्जो, तव्विवरीयम्मि भयणा तु॥ कडमिह ठिते ण कप्पति, अद्वितकप्पे जमुद्दिस्स॥ मुद्धं परं प्रधानमाद्यमित्यर्थः, तस्स आदिराइणा (बृभा ६३७६) अभिसित्तोसेणावइ-अमच्च-पुरोहिय-सेट्ठि-सत्थवाहजो आहार श्रमणसंघ या श्रमणीसंघ, कल या गण के सहिओ रज्जं भुंजति। (निभा २४९७ चू) लिए बनाया गया है, वह आहार स्थितकल्प वाले प्रथम और जो राजा द्वारा अभिषिक्त है, सेनापति, अमात्य, अन्तिम तीर्थंकर के किसी भी साधु के लिए कल्पनीय नहीं पुरोहित, श्रेष्ठी और सार्थवाह सहित राज्य का उपभोग है। अस्थितकल्प में जिस मुनि के उद्देश्य से आहार बनाया करता है, उसका पिण्ड राजपिण्ड है । वह वर्जनीय है। गया है, वह मुनि उसे नहीं ले सकता, शेष मुनियों के लिए शेष राजपिण्ड का वर्जन वैकल्पिक है-सदोष हो तो वह कल्पनीय है। वर्ण्य है, अन्यथा नहीं। * ग्राह्य-अग्राह्य आधाकर्म द्रपिण्डैषणा ० कृतिकर्म ० शय्यातरपिंड वर्जन कितिकम्मं पि य दुविहं, अब्भुट्ठाणं तहेव वंदणगं। शय्यातरपिंड किसी भी तीर्थंकर द्वारा किसी भी स्थिति समणेहि य समणीहि य, जहारिहं होति कायव्वं ॥ में अनुज्ञात नहीं है। द्र शय्यातर (बृभा ६३९८) ० राजा और राजपिण्ड के प्रकार कृतिकर्म के दो प्रकार हैं-अभ्युत्थान तथा वन्दन । साधुमुइए मुद्धभिसित्ते, मुतितो जो होइ जोणिसुद्धो उ। साध्वियों परस्पर रत्नाधिक के क्रम से वन्दना और अभ्युत्थान अभिसित्तो व परेहि, सतं व भरहो जहा राया॥ करना चाहिए। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पस्थिति १७० आगम विषय कोश-२ * कृतिकर्म के विकल्प आदि द्र कृतिकर्म ."प्रतिश्रयाद् निर्गत्य हस्तशतात् परतो गत्वा भूयः ० व्रत ( चातुर्याम-पंचयाम ) : ऋजुप्राज्ञ आदि प्रत्यागमने हस्तशतमध्येऽप्युच्चारादेः परिष्ठापने कृते।" पंचायामो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। (बृभा ६४२६ वृ) मज्झिमगाण जिणाणं, चाउज्जामो भवे धम्मो॥ प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के साधु प्रतिश्रय से सौ हाथ पुरिमाण दुव्विसोझो, चरिमाणं दुरणुपालओ कप्पो। की दूरी तक गमनागमन करने पर, सौ हाथ की दूरी के मध्य मज्झिमगाण जिणाणं, सुविसोझो सुरणुपालो य॥ परिष्ठापन करने पर तथा अतिचार लगने या नहीं लगने पर (बुभा ६४०२,६४०३) भी प्रातः और सायंकाल नियमतः प्रतिक्रमण करते हैं। प्रथम तीर्थंकर ऋषभ और अंतिम तीर्थंकर महावीर ने बिना दोष प्रतिक्रमण क्यों ? वैद्यत्रयी दृष्टांत पांच महाव्रत धर्म का निरूपण किया अतिचारस्स उ असती, णणुहोति णिरत्थयं पडिक्कमणं। १. सर्व प्राणातिपातविरमण ४. सर्व मैथुनविरमण ण भवति एवं चोदग!, तत्थ इमं होति णातं तु॥ २. सर्व मृषावादविरमण ५. सर्व परिग्रहविरमण सति दोसे होअगतो, जति दोसो णत्थि तो गतो होति । ३. सर्व अदत्तादानविरमण बितियस्स हणति दोसं, न गुणं दोसं व तदभावा॥ ___ बाईस तीर्थंकरों ने चातुर्याम धर्म का निरूपण किया- दोसं हंतूण गुणं, करेति गुणमेव दोसरहिते वि। १. सर्व प्राणातिपातविरमण ३. सर्व अदत्तादानविरमण ततियसमाहिकरस्स उ, रसातणं डिंडियसुतस्स॥ २. सर्व मृषावादविरमण ४. सर्व बाह्यआदानविरमण जति दोसो तं छिंदति, असती दोसम्मि णिज्जरं कुणई। पूर्ववर्ती साधु ऋजु-जड़ होते हैं। उनके लिए मुनि के कुसलतिगिच्छरसायणमुवणीयमिदं पडिक्कमणं॥ आचार को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है। (बृभा ६४२७-६४३०) चरमवर्ती साधु वक्र-जड़ होते हैं। उनके लिए मुनि शिष्य ने पूछा-भंते! अतिचार न लगने पर प्रतिक्रमण का आचार-पालन कठिन है। करना क्या निरर्थक नहीं है? आचार्य ने कहा-वह निरर्थक मध्यवर्ती साधु ऋजुप्राज्ञ होते हैं। वे मुनि-आचार को कभी नहीं होता। यह उदाहरण ज्ञातव्य हैयथावत् ग्रहण कर लेते हैं और उसका पालन भी सरलता से एक राजा ने सोचा-मेरे प्रिय पुत्र को ऐसे रसायन का करते हैं। द्र ऋजुप्राज्ञ सेवन कराऊं, जिससे यह सदा नीरोग रहे। उसने वैद्यों को ० ज्येष्ठकल्प बुलाया। वैद्य आए। राजा ने एक वैद्य से पछा-तम्हारी औषधि पुव्वतरं सामइयं, जस्स कयं जो वतेसु वा ठविओ। का क्या प्रयोजन है ? उसने कहा-यदि कोई रोग हो, तो मेरी एस कितिकम्मजेदो, ण जाति-सुततो दुपक्खे वी॥ औषधि उसको उपशांत कर देती है, अन्यथा वह रोगी को ही (बृभा ६४०८) मार डालती है। दूसरे वैद्य ने कहा-यदि रोग हो, तो मेरी औषधि उसे उपशांत कर देती है और यदि रोग न हो, तो न मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के समय जो सामायिक वह लाभ करती है और न हानि। तीसरे वैद्य ने कहा-मेरी चारित्र में तथा प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के समय जो औषधि यदि रोग है, तो वह उसको मिटा देती है। यदि कोई छेदोपस्थापनीय चारित्र में पूर्वदीक्षित है, वही कृतिकर्मज्येष्ठ रोग नहीं है, तो मेरी औषधि का सेवन करने वाला अपना है। साधुवर्ग और साध्वीवर्ग में जन्मपर्याय या श्रुत से ज्येष्ठ वर्ण, रूप, यौवन तथा लावण्य बढ़ाता है और भविष्य में यहां विवक्षित नहीं है। उसके नया रोग उत्पन्न नहीं होता। राजा ने तीसरे वैद्य से ० प्रतिक्रमण राजकुमार की चिकित्सा करवाई। गमणाऽऽगमण वियारे, सायं पाओ य पुरिम-चरिमाणं। इसी प्रकार अतिचार लगा है, तो प्रतिक्रमण उस अतिचार नियमेण पडिक्कमणं, अतियारो होउ वा मा वा॥ की विशोधि कर देता है और यदि अतिचार नहीं लगा है, तो Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ वह चारित्र की विशोधि करता है और अभिनव कर्मरोग का निरोध करता है । १७१ ० मासकल्प और उसके प्रकार गामंसि वा नगरंसि वा "सपरिक्खेवंसि अबाहिरियंसि कप्पइ निग्गंथाणं हेमंत - गिम्हासु एगं मासं वत्थए ॥'''' सपरिक्खवंसि सबाहिरियंसि हेमंत गिम्हासु दो मासे वत्थए - अंतो एगं मासं, बाहिं एगं मासं । अंतो वसमाणाणं अंतोभिक्खायरिया, बाहिं वसमाणाणंबाहिं भिक्खायरिया ॥ - T .......सपरिक्खेवंसि अबाहिरियंसि कप्पइ निग्गंथीणं हेमंत - गिम्हासु दो मासे वत्थए । सपरिक्खेवंसि सबाहिरियंसि कप्पड़ निग्गथीणं हेमंत गिम्हासु चत्तारि मासे वत्थए - अंतो दो मासे, बाहिं दो मासे । अंतो वसमाणीणं अंतो भिक्खायरिया, बाहिं वसमाणीणं बाहिं भिक्खायरिया । (क १/६-९) निर्ग्रन्थ हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु (आठ महीनों) में एक गांव या नगर में, जहां परिक्षेप ( बाड़ आदि का घेरा) हो, किन्तु बाहिरिका (परकोटे के बाहर बस्ती) न हो, वहां एक मास रह सकते हैं । परिक्षेप और बाहिरिका युक्त गांव में दो मास रह सकते हैं- भीतर एक मास, बाहर एक मास । वे भीतर रहते हुए भीतर और बाहर रहते हुए बाहर भिक्षाचर्या करें। निग्रंथियां बाहिरिका रहित परिक्षेप वाले गांव में दो मास रह सकती हैं, परिक्षेप और बाहिरिका युक्त गांव में चार मास रह सकती हैं- भीतर दो मास, बाहर दो मास । वे भीतर रहती हुईं भीतर, बाहर रहती हुईं बाहर भिक्षाचर्या करें। दुविहो य मासकप्पो, जिणकप्पे चेव थेरकप्पे य । एक्क्को वि यदुविहो, अट्ठियकप्पो य ठियकप्पो ॥ (बृभा ६४३१) मासकल्प के दो प्रकार हैं - जिनकल्पी मुनि का मासकल्प और स्थविरकल्पी मुनि का मासकल्प । प्रत्येक के दोदो प्रकार हैं- अस्थितकल्प और स्थितकल्प । प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के साधुओं का मासकल्प स्थित है और शेष तीर्थंकरों के मुनियों का अस्थित । प्रथम- अंतिम तीर्थंकर के मुनि ऋतुबद्धकाल में नियमतः मासकल्प से विहार करते हैं और शेष मुनियों के लिए यह नियम नहीं है। वे मास पूरा होने से पहले भी विहार कर सकते हैं अथवा एक स्थान पर देशोनपूर्वकोटि तक भी रह सकते हैं। ० कल्याणक पर्युषणाकल्प पज्जोसवणाकप्पो, होति ठितो अट्ठितो य थेराणं । एमेव जिणाणं पि य, कप्पो ठितमट्टितो होति ॥ चाउम्मासुक्कोसे, सत्तरिराइंदिया जहणेणं । ठितमट्ठितमेगतरे, कारणवच्चासितऽण्णयरे ॥ (बृभा ६४३२, ६४३३) पर्युषणाकल्प दो प्रकार का है— स्थित और अस्थित । स्थविरकल्पी तथा जिनकल्पी मुनियों के पर्युषणाकल्प दोनों प्रकार का होता है। उत्कृष्ट पर्युषणाकल्प चार मास- -आषाढ़ी पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक का होता है। जघन्य पर्युषणाकल्प ७० दिन-रात का - भाद्रपद शुक्ला पंचमी से कार्तिकी पूर्णिमा तक का होता है। प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के मुनियों का यह पर्युषणा का स्थितकल्प है। मध्यम तीर्थंकरों का यह अस्थत है। वृष्टि होने पर वे एक क्षेत्र में अवस्थित रहते हैं, अन्यथा विहार करते हैं। विशेष कारण उपस्थित होने पर इस क्रम में व्यत्यय भी होता है । * पर्युषणा की सामाचारी द्र पर्युषणाकल्प कल्पिक - जिस समाचरण के लिए जितने श्रुतग्रंथों का अध्ययन निर्धारित है, उतने श्रुतग्रंथों का ज्ञाता मुनि । कल्पिक के बारह प्रकार हैं। द्र सूत्र कल्याणक - प्रायश्चित्तस्वरूप दिया जाने वाला प्रत्याख्यान - विशेष । चउरो चडत्थभत्ते, आयंबिल एगठाण पुरिमङ्कं । णिव्वीयग दायव्वं 11 चतुः कल्याणकं प्रायश्चित्तं चत्वारि चतुर्थभक्तानि चत्वार्याचाम्लानि चत्वारि एकस्थानानि...... चत्वारि पूर्वार्द्धानि चत्वारि निर्विकृतिकानि च भवन्ति । पञ्चकल्याणकं तत्र चतुर्थ भक्तादीनि प्रत्येकं पञ्च पञ्च भवन्ति । (बृभा ५३६० वृ) प्रायश्चित्त विशेष का नाम है कल्याणक । चार कल्याणक का अर्थ है - चार उपवास, चार आयंबिल, चार एकस्थान (एकाशन), चार पूर्वार्ध और चार निर्विकृतिक । पांच कल्याणक प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना करने पर पांच उपवास, पांच आयंबिल, पांच एकस्थान, पांच पूर्वार्ध Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और पांच निर्विकृतिक दिए जाते हैं । ( एक कल्याणक से तात्पर्य है एक उपवास, एक आचाम्ल, एक एकाशन, एक पूर्वार्ध और एक निर्विकृतिक ।) ० कल्याणक द्वारा प्रायश्चित्त का विधान यस्य यावन्ति इन्द्रियाणि तस्य तावन्ति कल्याणानि प्रायश्चित्तं तद्यथा - एककल्याणकमेकेन्द्रियाणां परितापने, द्वे कल्याणके द्वीन्द्रियाणां पूर्वार्द्धमित्यर्थः । त्रीणि कल्याणकानि त्रीन्द्रियाणामेकाशनकमिति भावः । चतुरिन्द्रियाणामाचाम्लं, पञ्चेन्द्रियाणामभक्तार्थः । (व्यभा ४०१२ की वृ) पञ्चकल्याणं निर्विकृतिकपूर्वार्धएकाशनकायामाम्लक्षपणरूपम् । (व्यभा ४५४० की वृ) जिसके जितनी इन्द्रियां होती हैं, उसकी परितापनारूप विराधना होने पर उतने ही कल्याणक का प्रायश्चित्त आता है । यथाएकेन्द्रिय परितापना द्वीन्द्रियपरितापना त्रीन्द्रिय परितापना चतुरिन्द्रिय परितापनाचार पञ्चेन्द्रिय परितापना कल्याणक - निर्विकृतिक दो कल्याणक-1 - पूर्वार्ध तीन कल्याणक - एकाशन कल्याणक- आचाम्ल पांच कल्याणक-उपवास (कल्याणक की व्याख्या में बृहत्कल्पभाष्य वृत्ति तथा व्यवहारभाष्य वृत्ति का भेद दो परंपराओं की सूचना देता है। ज्ञातव्य है कि कल्याणक के सापेक्ष विकल्पों के प्रसंग में व्यभा ४२०५ की वृत्ति में बृभा ५३६० की वृत्ति की अनुवृत्ति हुई है - द्र प्रायश्चित्त । १७२ तकल्प (सूत्र ३२ तथा उसकी चूर्णि) में पञ्चेन्द्रिय संघट्ट, अनागाढ परितापन, आगाढ परितापन और अपद्रावण में क्रमश: एकाशन, आचाम्ल, उपवास तथा एक कल्याणक प्रायश्चित्त का विधान है। इस आधार पर कहा जा सकता है। कि एक कल्याणक में उपवास आदि पांचों होते हैं ।) कषाय — मोहजनित आंतरिक उत्ताप । - १. कषाय के प्रकार, उपमा, कालावधि २. मान में क्रोध की नियमा ३. कषाय और दृष्टांत ० क्रोध : मरुक दृष्टांत ० मान: अत्वंकारी भट्टा आगम विषय कोश - २ • माया : पांडुरा आर्या ० लोभ : आर्य मंगु * कषाय प्रतिसेवना ४. कषाय से चारित्रनाश: कनकरस दृष्टांत * चारित्र अकषाय ५. कषाय और गति : कषायक्षय से निर्वाण * कषाय शमन का उपाय * दोषनिर्घातन विनय : कषायविनयन * अनशन से पूर्व कषाय का कृशीकरण राग-द्वेष वृद्धि से प्रायश्चित्त वृद्धि * द्र प्रतिसेवना द्र चारित्र द्र अधिकरण द्र आचार्य द्र अनशन द्र प्रायश्चित्त १. कषाय के प्रकार, उपमा, कालावधि वाओदएहि राई, नासति कालेण सिगय पुढवीणं णासति उदगस्स सतिं पव्वतराई तु जा सेलो ॥ ( निभा ३१८८) उदगसरिच्छा पक्खेण वेति चतुमासिएण सिगयसमा । वरिसेण पुढविराई, आमरणगती उ पडिलोमा ॥ सेलऽट्ठि- थंभ-दारुय, लता य वंसी य मिंढ गोमुत्तं । अवलेहणिया किमिराग-कद्दम-कुसुंभय-हलिद्दा ॥ (दशानि १०२, १०३) कषाय के चार प्रकार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । क्रोध कषाय के चार प्रकार हैं- पानी की रेखा के समान, बालू की रेखा के समान, भूमि की रेखा के समान तथा पर्वत की रेखा के समान । हवा और जल से बालू की रेखा और भूमि की रेखा स्वल्प समय में मिट जाती है। जल की रेखा तत्क्षण मिट जाती है, पर्वत की रेखा पर्वत के अस्तित्व काल तक रहती है। जो क्रोध पानी के रेखा के समान होता है, वह उसी दिन के प्रतिक्रमण से या पाक्षिक प्रतिक्रमण से उपशांत हो जाता है । जो चातुर्मासिक काल में उपशांत होता है, वह क्रोध बालू की रेखा के समान, जो सांवत्सरिक काल में उपशांत होता है, वह भूमि की रेखा के समान तथा पर्वत की रेखा जैसा क्रोध जीवनपर्यंत नष्ट नहीं होता । मान के चार प्रकार हैं- पत्थर के स्तम्भ के समान, अस्थि-स्तम्भ के समान, काष्ठ-स्तम्भ के समान तथा लतास्तम्भ के समान । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ माया के चार प्रकार हैं- बांस की जड़ के समान, मेंढे सींग के समान, गोमूत्रिका के समान तथा छिलते बांस की छाल के समान । लोभ के चार प्रकार हैं- कृमिराग के समान, कर्दम के समान, कुसुंभराग के समान तथा हरिद्राराग के समान । ( क्रोध, मान, माया और लोभ के चार-चार प्रकारों में प्रत्येक का प्रथम प्रकार – अनंतानुबंधी द्वितीय प्रकार तृतीय प्रकार चतुर्थ - अप्रत्याख्यानी प्रत्याख्यानी संज्वलन १७३ - द्र श्रीआको १ कषाय) २. मान में क्रोध की नियमा कोमा अथवा वा। माणे पुण कोहो णियमा अथ । तम्हा कोहीओ माणी बहुदोसतरो । (निभा ३११३ की चू) क्रोध में मान वैकल्पिक है। मान में क्रोध की नियमा है । अतः क्रोधी से मानी बहुतर दोष वाला है । ३. कषाय और दृष्टांत अवहंत गोण मरुए, चउण्ह वप्पाण उक्करो उवरिं । छोढुं मए मुवट्ठाऽतिकोवे ण देमु पच्छित्तं ॥ वणिधूयाऽचकारियभट्टा अट्ठसुयमग्गतो जाया । वरग पडिसेह सचिवे, अणुयत्तीह पदाणं च ॥ निवचिंत विकालपडिच्छणा यदारं न देमि निवकहणा । खिंसा निसिनिग्गमणं, चोरा सेणावतीगहणं ॥ नेच्छति जलूगवेज्जगगहणं तं पि य अणिच्छमाणी उ । गिण्हावेइ जलूगा, धणभाउग कहण मोयणया ॥ सयगुणसहस्सपागं, वणभेसज्जं जतिस्स जायणता । तिक्खुत्त दासिभिंदण, न य कोव सयं पदाणं च ॥ पासत्थि पंडरज्जा, परिण्ण गुरुमूल णातअभियोगा । पुच्छा तिपडिक्कमणे, पुव्वब्भासा चउत्थम्मि ॥ अडिक्कमसोहम्मे अभिओगा, देवि सक्कओसरणे । हत्थिणि वायणिसग्गो, गोतमपुच्छा य वागरणं ॥ महुरा मंगू आगम, बहुसुत वेरग्ग सड्डपूया य । सातादिलोभ णितिए, मरणे जीहा य णिद्धमणे ॥ (दशानि १०५ - ११२ ) कषाय • क्रोध : मरुक दृष्टांत एक ब्राह्मण बैल को लेकर खेत जोतने के लिए गया । खेत जोतता हुआ बैल श्रांत होकर गिर गया। ब्राह्मण ने उसे चाबुक मारा। बैल उठ नहीं सका। ब्राह्मण ने चार केदारों के ढेलों से उसे पीटा। बैल मर गया। वह ब्राह्मण गोहत्या के पाप की विशुद्धि के लिए अन्य ब्राह्मणों के पास उपस्थित हुआ । उन्हें सारी घटना सुनाई। ब्राह्मणों ने कहा- तुम अति क्रोधी हो अतः तुम्हें प्रायश्चित्त नहीं देंगे। ० मान: अत्वंकारी भट्टा दृष्टांत धनश्रेष्ठी के आठ पुत्रों के पश्चात् एक पुत्री हुई, जिसका नाम भट्टा रखा गया। माता-पिता ने सभी से कह रखा था कि इसे कोई 'चूं' तक न कहे। अतः उसका नाम अच्चकारीअत्यंकारी भट्टा हो गया। वह रूपवती थी । अनके व्यक्ति उससे विवाह करना चाहते थे, तब पिता ने कहा- जो इसकी आज्ञा में रहेगा, अपराध होने पर भी इसे कुछ नहीं कहेगा, वही इसका जीवनसाथी बनेगा। मंत्री सुबुद्धि ने इस संकल्प को मान्य किया । विवाह हुआ । भट्टा ने पति से कहा- आप सायं राजकार्य से निवृत्त हो शीघ्र आया करें। मंत्री ने वैसा ही किया। राजा ने सोचा- यह इतनी जल्दी क्यों जाता है ? पूछताछ करने पर राजपुरुषों ने बताया - यह अपनी पत्नी की आज्ञानिर्देश का पालन करता है। एक दिन राजा ने उसे रोका। विलम्ब से घर पहुंचा। भट्टा ने द्वार नहीं खोला, अवहेलना की। मंत्री ने कहा- मैं जाता हूं, तुम गृहस्वामिनी बनकर रहना । उसने द्वार खोला और अभिमान वश अकेली जंगल में चली गई। चोर उसे पकड़कर अपने सेनापति के पास ले गए। सेनापति ने भोगों की प्रार्थना की, प्रस्ताव अस्वीकृत करने पर उसे जलौक वैद्य के हाथों बेच दिया। उसने भी भोगप्रार्थना की। भट्टा ने स्वीकृति नहीं दी, तब वैद्य ने रोष में कहा- पानी में से मेरे लिए जलौका लेकर आओ। वह शरीर पर मक्खन चुपड़ कर जल में अवगाहन करती और जौंक पकड़ती। वैद्य उसके शरीर से रक्त निकाल कर बेचता । न चाहते हुए भी शील की रक्षा के लिए उसने यह कार्य किया। रक्तस्राव के कारण वह रूपलावण्यविहीन हो गई। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय १७४ आगम विषय कोश-२ एक बार दूतकार्य में नियुक्त उसका भाई वहां आया। जं अज्जियं चरितं, उसने बहिन को पहचान लिया और उस वैद्य से मुक्त तं पि कसाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुहुत्तेण॥ कराकर उसे अपने घर ले आया। वमन-विरेचन द्वारा पुनः (बृभा २७१३-२७१५) स्वस्थ कर अमात्य को सौंप दिया। अमात्य ने पुनः उसे क्रोध अथवा कलह करते हुए शिष्य को गुरु कहते गृहस्वामिनी बना दिया। हैं-शांत हो जाओ, शांत हो जाओ। (अनुपशांत के संयम भट्टा का मेरुसदृश अभिमान समाप्त हो गया। उसने कहां?, स्वाध्याय कहां?) स्वाध्याय करो। द्रमक की तरह संकल्प किया-अब मैं क्रोध और मान नहीं करूंगी। शाकवृक्ष के पत्रों से कनकरस का परित्याग क्यों कर रहे हो? भट्टा के घर में लक्षपाक तैल था। एक मुनि ने व्रण-- ____एक परिव्राजक ने द्रमक को देखा और पूछा-तुम संरोहण हेतु तैल की याचना की। भट्टा ने दासी से तैल घट चिंतित क्यों हो? द्रमक ने कहा-मैं दरिद्रता से अभिभूत लाने को कहा। दासी तैल का घड़ा ला रही थी, घड़ा उसके हूं। परिव्राजक ने कहा-जैसा मैं कहूं, वैसा करोगे तो धनवान् हाथ से गिरा और फूट गया। दूसरा और तीसरा घट भी फूट बन जाओगे-यह कहते हुए वह उसे एक पर्वतनिकुंज में ले गया। लक्षपाक तैल के तीन घट नष्ट हो जाने पर भी भट्टा को गया और कहाक्रोध नहीं आया। चौथी बार वह स्वयं उठकर गयी और मुनि को लक्षपाक लाकर दिया। 'यह कनकरस है। इसे प्राप्त करने के लिए तुम ठंडी० माया : पांडुरा आर्या दृष्टांत गर्म हवाओं को सहन करो, भूख-प्यास को सहन करो, ब्रह्मचर्य पांडुरा पार्श्वस्था-शिथिलाचारिणी साध्वी। समय आने का पालन करो, अचित्त कंद-मूल-पत्र-पुष्प-फलों का आहार पर गुरु के पास भक्तप्रत्याख्यान का स्वीकरण। मंत्रशक्ति से करो और फिर पवित्र भावधारा से शमीपत्रपुटक में इसे ग्रहण लोगों की भीड़। गुरु के द्वारा पूछे जाने पर उसने तीन बार करो'-यह स्वर्णरसप्राप्ति की उपचारविधि है। के प्रतिक्रमण किया। चौथी बार फिर मंत्रशक्ति का प्रयोग किया। द्रमक ने उपचारपूर्वक कनकरस को शमीपत्रकपुटक आचार्य के पूछने पर कहा कि पूर्वाभ्यास से लोग आते हैं से लोग आते हैं में भर लिया। घर लौटते समय परिव्राजक ने कहा-रोष अत: आलोचना-प्रतिक्रमण नहीं किया। मरकर वह सौधर्म उत्पन्न पर भी तुम शाकपत्र से (कषाय के वशीभूत होकर) देवलोक में ऐरावण हाथी की अग्रमहिषी बनी। महावीर के तुम्बिका में एकत्रित इस स्वर्णरस को मत फेंकना। उसने आगे समवसरण में हथिनी के रूप में चिंघाड़ने लगी। गौतम के कहा-'देखो! तुम मेरे प्रभाव से धनी हो जाओगे।' पुनः द्वारा पूछने पर महावीर ने उसका पूर्वभव बताया। पुनः इन शब्दों को सुना तो द्रमक क्रोध भरे शब्दों में बोला• लोभ : आर्य मंगु दृष्टांत तुम्हारे प्रसाद से मैं धनी होऊं तो इससे मुझे प्रयोजन नहीं मथुरा में आर्य मंगु बहुश्रुत, वैरागी एवं श्रद्धालुओं द्वारा है-यह कहते हुए उसने स्वर्णरस को फेंक दिया। पूजित आचार्य थे। वे सुखसाता में प्रतिबद्ध होकर श्रावकों की परिव्राजक ने कहा-'जिसको तप-नियम-ब्रह्मचर्य नित्य भिक्षा करने लगे। दिवंगत होने पर प्रतिमा में प्रवेश कर की साधना से अर्जित कर शमीपत्रपुटक में रखा था शाकपत्रों लंबी जीभ निकालकर कहते-मैं लोलुपतावश अधर्मी व्यन्तर से छोड़ते हुए बाद में जान पाओगे कि मैंने चिरसंचित स्वर्णरस देव बना हूं अतः कोई लोलुपता मत करना। को शाकपत्रों से उत्सिक्त कर परित्याग किया-यह अच्छा ४. कषाय से चारित्रनाश: कनकरर नहीं किया।' (इसी प्रकार शिष्य! तम चारित्र रूपी स्वर्णरस गुरुवयणं। को कषायरूपी शाकपत्र से समाप्त कर पश्चात्ताप करोगे।) उवसमह कुणह ज्झायं, छड्डणया सागपत्तेहिं॥ 'मनुष्य देशोन पूर्वकोटि जितने लम्बे काल तक संयमजं अज्जियं समीखल्लएहिँ तव-नियम-बंभमइएहिं। साधना कर जो चारित्रसम्पदा अर्जित करता है, उसे क्रोध आदि तं दाणि पच्छ नाहिसि, छड्डिंतो सागपत्तेहिं॥ कषायों के उदय मात्र से अन्तर्मुहूर्त में नष्ट कर देता है।' Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १७५ कायक्लेश ५. कषाय और गति : कषायक्षय से निर्वाण कामभोग-शब्द आदि इन्द्रियविषयों का आसेवन । ....."उवसम-खएण उर्दू, उदएण भवे अहेगरणं॥ द्र ब्रह्मचर्य तिव्वकसायसमुदया, गुरुकम्मुदया गती भवे हिट्ठा। कायक्लेश-आसन, आतापना, केशलोच आदि निरवद्य नाइकिलिट्ठ-मिऊहि य, उववज्जइ तिरिय-मणुएसु॥ खीणेहि उ निव्वाणं, उवसंतेहि उ अणुत्तरसुरेसु। प्रवृत्तियों द्वारा शरीर को साधना। जह निग्गहो तह लहू, समुवचओ तो सेसेसु।। १. आसन के प्रकार (बृभा २६८२-२६८४) २. साध्वी और आसन (अभिग्रहविशेष) कषाय के उपशम और क्षय से ऊर्ध्वगति (स्वर्ग या | ३. आतापना के प्रकार ४. लेटकर ली जाने वाली आतापना उत्कृष्ट मोक्ष) की प्राप्ति होती है। कषाय के तीव्र उदय से अधोगति ५. आतापना-विधि (नरक) की प्राप्ति होती है। ६.साध्वी और आतापना कषायोदय अति तीव्र न हो तो तिर्यंचगति और मध्यम ___* केशलोच द्र पर्युषणाकल्प परिणामधारा से मनुष्यगति प्राप्त होती है। क्रोध आदि तीव्र संक्लिष्ट परिणामों से भारी कर्मों का १. आसन के प्रकार उपचय होता है। भारी कर्मोदय से नरकगति प्राप्त होती है। __.'ठाणाययाए पडिमट्ठाइयाएनेसज्जियाए, अतिक्लिष्ट परिणाम न हों तो अतिक्लिष्ट कर्मोपचय नहीं उक्कुडुगासणियाए, वीरासणियाए, दंडासणियाए, लगंडहोता। परिणामस्वरूप तिर्यंचगति में गमन होता है। साइयाए, ओमंथियाए, उत्ताणियाए, अंबखुज्जियाए, एकपासियाए।.... (क ५/२१-२३) - मृदु (प्रतनुकषाय) परिणामों से मृदु कर्मोपचय होता है। फलस्वरूप जीव मनुष्यगति में उत्पन्न होता है। ...पंचेव णिसिज्जाओ, तासि विभासा उ कायव्वा॥ जीव कषाय के पूर्ण क्षय से निर्वाण प्राप्त करता है। वीरासणं तु सीहासणे वजह मुक्कजाण्णुक णिविट्ठो। कषाय के उपशांत अथवा क्षीणोपशांत होने पर जीव अनुत्तर दंडे लगंड उवमा, आयत खुज्जाय दुण्हं पि॥ विमान में उत्पन्न होता है। निषद्या नाम-उपवेशनविशेषाः, ता: पंचविधाः, ___ जीव के कषाय का जितना अधिक निग्रह होता है, तद्यथा-समपादपुता गोनिषधिका हस्तिशुण्डिका पर्यंकाउतना ही अधिक वह लघुभूत होता है। ऽर्धपर्यंका चेति। तत्र यस्यां समौ पादौ पुतौ च स्पृशत: सा कषायों के प्रकृष्ट निग्रह के अभाव में कर्मों का समपादपुता, यस्यां तु गौरिवोपवेशनं सा गोनिषद्यिका, यत्र समुपचय होता है, जिससे जीव अनुत्तरविमान वर्जित शेष पुताभ्यामुपविश्यैकं पादमुत्पाटयति सा हस्तिशुण्डिका," देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। अर्धपर्यंका यस्यामेकं जानुमुत्पाटयति वीरासनं नाम यथा चउसु कसाएसुगती, नरय-तिरिय-माणुसे य देवगती। सिंहासने उपविष्टो भून्यस्तपाद आस्ते तथा तस्यापनयने (दशानि १०४) कृतेऽपि सिंहासन इव निविष्टो मुक्तजानुक इव निरालम्बकषाय गति कषाय गति नेऽपि यद् आस्ते।दुष्करं चैतद् अत एव वीरस्य साहसिक१. क्रोध नरक ३. माया मनुष्य स्यासनं वीरासनमित्युच्यते।"दण्डस्येवायतं-पाद२. मान तिर्यंच ४. लोभ प्रसारणेन दीर्घ यद्आसनं तद् दण्डासनम्। लगण्डं किलकांदी भावना-संक्लिष्ट भावना का एक प्रकार। दुःसंस्थितं काष्ठम्, तद्वत् कुब्जतया मस्तकपार्णिकानां कामकथा आदि से भावित चित्त वाले व्यक्ति का व्यवहार भुविलगनेन पृष्ठस्य चालगनेनेत्यर्थः ।(बृभा५९५३,५९५४५) और आचरण। द्र भावना आसन के अनेक प्रकार है ४. लोभ देव Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायक्लेश १७६ आगम विषय कोश-२ १. स्थानायतिक-कायोत्सर्ग में स्थिर होना। (द्र कायोत्सर्ग) आसन तीन प्रयोजनों से किए जाते हैं-१. इन्द्रिय२. प्रतिमास्थायी-भिक्षुप्रतिमाओं की विविध मुद्राओं में स्थित निग्रह के लिए २. विशिष्ट विशुद्धि के लिए और ३. ध्यान के रहना। लिए। विशिष्ट विशुद्धि के लिए तथा किंचित् मात्रा में इन्द्रिय३. नैषधिका-बैठकर किए जाने वाले आसन । इसके पांच निग्रह के लिए किए जाने वाले आसन उग्र होते हैं इसलिए प्रकार हैं उन्हें कायक्लेश की कोटि में रखा गया। ध्यान के लिए कठोर ० समपादपुता-पैरों और पुतों को सटाकर भूमि पर बैठना।। आसन का विधान नहीं है। वर्तमानकाल में शारीरिक शक्ति की ० गोनिषधिका-गाय की तरह बैठना। दुर्बलता के कारण कायोत्सर्ग और पर्यंक-ये दो आसन ही ० हस्तिशुण्डिका-पुतों के बल पर बैठ कर एक पैर को पर्याप्त हैं। -उसअ पृ १५२, १५३) ऊंचा रखना। २. साध्वी और आसन ( अभिग्रहविशेष) ० पर्यंका-पैरों को मोड़ पिंडलियों के ऊपर जांघों को रखकर नो कप्पइ निग्गंथीए ठाणाययाए होत्तए।..... बैठना और एक हस्ततल पर दूसरा हस्ततल रख कर नाभि के पडिमट्ठाइयाए"""वीरासणियाए""॥ (क५/२१-२३) पास रखना। वीरासण गोदोही, मुत्तुं सव्वे वि ताण कप्पंति। ० अर्द्धपर्यंका-एक पैर को मोड. पिंडली के ऊपर जांघ को ते पुण पडुच्च चेटुं, सुत्ता उ अभिग्गहं पप्पा ॥ रखना और दूसरे पैर के पंजों को भूमि पर टिकाकर घुटनों को तवो सो उ अणुण्णाओ, जेण सेसं न लुप्पति। ऊपर रखना। अकामियं पि पेल्लिज्जा, वारिओ तेणऽभिग्गहो। ४. उत्कुटुक-उकडू आसन-पुतों को ऊंचा रखकर पैरों के लज्जं बंभं च तित्थं च, रक्खंतीओ तवोरता। बल पर बैठना। गच्छे चेव विसुझंती, तहा अणसणादिहिं॥ ५. वीरासन-भूमि पर पैर रखकर सिंहासन पर बैठने से कारणमकारणम्मि य, गीयत्थम्मि य तहा अगीयम्मि। शरीर की जो स्थिति होती है, उसी स्थिति में सिंहासन के एए सव्वे वि पए, संजयपक्खे विभासिज्जा। निकाल लेने पर स्थित रहना। मुक्तजानुक की तरह निरालम्ब __ अभिग्रहविशेषादूर्ध्वस्थानादीनि संयतीनांन कल्पन्ते, स्थित रहना दुष्कर है, इसकी साधना वीर मनुष्य ही कर सामान्यतः पुनरावश्यकादिवेलायां यानि क्रियन्ते तानि सकता है, इसलिए इसका नाम वीरासन है। कल्पन्त एव॥(बृभा ५९५६, ५९५७,५९६१,५९६४ वृ) ६. दण्डायत-दण्ड की तरह आयत होकर-पैर पसार कर साध्वी ऊर्ध्वस्थान, प्रतिमास्थान, वीरासन, गोदोहिका बैठना। आदि आसन नहीं कर सकती-सूत्र में यह निषेध ७. लगण्डशयन-वक्र काष्ठ की भाति एड़ियों और सिर को अभिग्रहविशेष की अपेक्षा से है, सामान्य चेष्टा की अपेक्षा से भूमि से सटाकर शेष शरीर को ऊपर उठाकर सोना। नहीं। साध्वी आवश्यक आदि के समय गोदोहिका आदि ८. अधोमुखशयन-ओंधा लेटना। आसन कर सकती है। ९. उत्तानशयन-सीधा लेटना। शिष्य ने पूछा-अभिग्रह आदि रूप तप कर्मनिर्जरा १०. आम्रकब्जिका-आम्र-फल की भांति टेढ़ा होकर सोना। के लिए किया जाता है. फिर वह साध्वी के लिए निषिद्ध ११. एकपार्श्वशयन-दाईं या बाईं करवट लेटना। एक पैर क्यों ? गुरु ने कहा-वही तप अनुज्ञात है, जिससे ब्रह्मचर्य को संकुचित कर दूसरे पैर को उसके ऊपर से ले जाकर आदि गणों का लोप नहीं होता। अभिग्रहविशेष या आसनविशेष फैलाना और दोनों हाथों को लम्बा कर सिर की ओर फैलाना। में स्थित साध्वी को उसके न चाहते हुए भी कोई कामी पुरुष (आसन का प्रभाव-उकडू-आसन का प्रभाव वीर्य- उसे शील से च्यत कर सकता है. अतः अभिग्रह आदि का ग्रन्थियों पर पड़ता है और यह ब्रह्मचर्य की साधना में बहुत निषेध किया गया है। फलदायी है। वीरासन से धैर्य, सन्तुलन और कष्ट-सहिष्णुता साध्वी गच्छ में रहकर ही लज्जा, ब्रह्मचर्य और तीर्थ का विकास होता है।-भ २/६२ का भाष्य की रक्षा करती हुई अनशन, स्वाध्याय आदि में संलग्न होकर Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १७७ कायक्लेश कर्मनिर्जरा कर सकती है। मध्यम के वैकल्पिक प्रकार इस प्रकार हैंसाधुओं के लिए भी गांव के बाहरी प्रदेश में आतापना . मध्यम-उत्कृष्ट-गोदोहिका में ली जाने वाली आतापना। लेना, विशिष्ट अभिग्रह स्वीकार करना आदि यथासम्भव ० मध्यम-मध्यम-उकडू आसन में ली जाने वाली आतापना। विकल्पनीय हैं ० मध्यम-जघन्य-पर्यंकासन में ली जाने वाली आतापना। सिंह आदि से अभिभव, देवआकम्पन आदि कारणों से जघन्य आतापना के तीन प्रकार हैंगीतार्थ या अगीतार्थ तीव्र अभिग्रह कर सकते हैं। अगीतार्थ १. जघन्य-उत्कृष्ट-हस्तिशुण्डिका में ली जाने वाली आतापना। निष्कारण अभिग्रह नहीं कर सकते। गीतार्थ कर्मनिर्जरा के लिए २. जघन्य-मध्यम-एकपादिका में ली जाने वाली आतापना। निष्कारण भी अभिग्रह कर सकते हैं। अचेलता आदि भी ३. जघन्य-जघन्य-समपादिका में ली जाने वाली आतापना। जिनकल्प स्वीकार करने वाले गीतार्थ के लिए विहित है। ४. लेटकर ली जाने वाली आतापना उत्कृष्ट ३. आतापना के नौ प्रकार सव्वंगिओ पतावो, पताविया घम्मरस्सिणा भूमी। आयावणा य तिविहा, उक्कोसा मज्झिमा जहण्णा य। ण य कमइ तत्थ वाओ, विस्सामो णेव गत्ताणं॥ उक्कोसा उणिवण्णा, णिसण्ण मज्झा ठिय जहण्णा॥ (बृभा ५९४९) तिविहा होइ निवण्णा, ओमत्थिय पास तइयमुत्ताणा। भूमि पर लेटकर ली जाने वाली आतापना से शरीर के उक्कोसक्कोसा उक्कोसमज्झिमा उक्कासगजहण्णा॥ सारे अंग प्रकष्टरूप से तप्त हो जाते हैं। भूमि सर्य की मज्झक्कोसा दुहओ, वि मज्झिमा मज्झिमाजहण्णा या रश्मियों से अत्यंत तापित होती है, उस पर वाय का संचरण. अहमुक्कोसाऽहममज्झिमा य अहमाहमा चरिमा॥ नहीं होता, तब शरीर के किसी भी अवयव को ताप से पलियंक अद्ध उक्कुडुग, मो यतिविहा उमज्झिमा होइ। विश्राम नहीं मिलता। तइया उ हत्थिसुंडेगपाद, समपादिगा चेव ॥ (भगवान् महावीर ग्रीष्म ऋतु में सूर्य का आतप लेते थे। __ क्वचिदादर्श'मध्यमोत्कृष्टा गोदोहिका, मध्यम'मध्यमा उत्कटिका, मध्यमजघन्या पर्यंकासनरूपा। ऊकडू आसन में वायु के अभिमुख होकर बैठते थे। (बृभा ५९४५-५९४८ वृ) -आ ९/४/४ आतापना के तीन प्रकार हैं आचार्य भिक्षु निर्जल उपवास करते, सहयोगी संतों के साथ धर्मोपकरण साथ में लेकर प्रातः गांव के बाहर चले ० उत्कृष्ट-गर्म शिला आदि पर लेट कर ताप सहना। ० मध्यम-बैठकर आतापना लेना। जाते। वे सरिताचर में अत्युष्ण रेतीली धरती पर लेट जाते, ० जघन्य-खड़े-खड़े आतापना लेना। आतापना के साथ ध्यान-स्वाध्याय भी करते। पारणे के दिन इनमें से प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार होने से आतापना गांव से यथाप्राप्त आहार-पानी लेकर जंगल में जाते, वृक्ष की के कुल नौ प्रकार हैं। छाया में आहार-पानी रखकर आतापना लेते, फिर आहार उत्कृष्ट आतापना के तीन प्रकार हैं करते, सायंकाल गांव में लौट आते। लगभग दो वर्ष तक यह १. उत्कृष्ट-उत्कृष्ट-छाती के बल लेट कर ताप सहना। क्रम चला।-शासन समुद्र भाग १ पृ १०३ । २. उत्कृष्ट-मध्यम-एक पार्श्व में सोकर ताप सहना। घोरतपस्वी मुनिश्री सुखलालजी ग्रीष्म ऋतु में लगभग ३. उत्कृष्ट-जघन्य-उत्तानशयन-पीठ के बल लेट कर सात माह (चैत्र से आश्विन) तक मध्याह्न में राजस्थान की ताप सहना। कड़ी धूप में आतापना लेते-एक कछोटा लगाकर आंखों पर मध्यम आतापना के तीन प्रकार हैं पट्टी बांधकर दो-दो घंटे तक (कभी-कभी पांच घंटे भी) १. मध्यम-उत्कृष्ट-पर्यंकासन में बैठकर ताप सहना। शिलापट्ट पर लेटे रहते। उत्कृष्ट गर्मी के कारण शिलापट्ट पसीने २. मध्यम-मध्यम-अर्धपर्यंकासन में बैठकर ताप सहना। से ठंडा हो जाता तो वे बीच-बीच में पार्श्ववर्ती दूसरे पत्थर पर ३. मध्यम-जघन्य-उकडू आसन में बैठकर ताप सहना। लेट जाते। लेटे-लेटे स्वाध्याय में लीन हो जाते। प्रतिवर्ष Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग १७८ आगम विषय कोश-२ आतापना काल में डेढ-दो लाख गाथाओं का स्वाध्याय कर को न खुजलाना), अनिष्ठीवन (न थूकना) तथा शरीर का लेते। कभी-कभी वे कहते-'आज तो श्रुतपरावर्त्तना में इतनी परिकर्म और विभषा न करना।-भ २५/५७१) तन्मयता आ गई कि आतप का पता ही नहीं लगा, नींद भी * कायक्लेश की निष्पत्ति द्र श्रीआको १ कायक्लेश आने लगी।' सूर्य का ताप सहते-सहते उनके शरीर की चमड़ी सूखकर काली हो गई, किन्तु मनःप्रसत्ति और मुख-मुस्कान कायोत्सर्ग-शारीरिक प्रवृत्ति और शारीरिक ममत्व का की आभा निरंतर बढ़ती गई। यह क्रम वि. सं. २००० से विसर्जन। २०१६ तक चला।-शासनसमुद्र भाग १४ प १०५, १०६) [.१. स्थानस्थित-कायोत्सर्गस्थित ५. आतापना-विधि २. स्थानप्रतिमा के प्रकार ".."बहिया गामस्स वा जाव संनिवेसस्स वा उट्ठे ३. कायोत्सर्ग : कौन-सा ध्यान ? बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहीए एगपाइयाए __ * कायोत्सर्ग और ध्यान द्र ध्यान ठिच्चा आयावणाए आयावेत्तए। (क ५/१९) * कायोत्सर्ग और प्रतिमा द्र भिक्षुप्रतिमा ग्राम यावत् सन्निवेश के बाहर आतापना भूमि में दोनों * कायगुप्ति : कूर्म दृष्टांत द्र गुप्ति भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के सम्मुख खड़े होकर एकपादिका ४. देवता-आह्वान के लिए कायोत्सर्ग एक पैर को ऊपर उठाकर आतापना ली जाती है। (समपादिका, ५. स्वाध्याय हेतु उद्घाट कायोत्सर्ग उत्तानशयन, पर्यंकासन आदि आसनों का भी यथाशक्ति, | ६. अनुयोगहेतु कायोत्सर्ग ___ * स्वाध्यायभूमि और कायोत्सर्ग द्र स्वाध्याय यथारुचि प्रयोग किया जाता है।) ७. कायोत्सर्ग पूर्ण करने की विधि ६. साध्वी और आतापना ८. कायोत्सर्ग की फलश्रुति : भेदज्ञान नो कप्पइ निग्गंथीए बहिया गामस्स"आयावणाए * भेदज्ञान से उपसर्गों में अविचलन द्र अनशन आयावेत्तए॥ * जिनकल्प और कायोत्सर्ग द्र जिनकल्प ___ कप्पड़ से उवस्सयस्स अंतोवगडाए संघाडिपडि * कायोत्सर्ग(व्युत्सर्ग) प्रायश्चित्त द्र प्रायश्चित्त बद्धाए समतलपाइयाए पलंबियबाहियाए ठिच्चा आया १. स्थानस्थित-कायोत्सर्गस्थित वणाए आयावेत्तए॥ (क ५/१९, २०) सम्यग्निरुद्धं स्थानं स्थास्यामीत्येवं प्रतिज्ञाय एयासि णवण्हं पी, अणुणाया संजईण अंतिल्ला। कायोत्सर्गव्यवस्थितो मेरुवन्निष्प्रकम्पस्तिष्ठेत्। सेसा नाणुन्नाया, अट्ठ तु आतावणा तासिं॥ (आचूला ८/२० की वृ) (बृभा ५९५०) मैं मानसिक, वाचिक और कायिक (श्वासोच्छ्वास के साध्वी गांव के बाहर आतापना नहीं ले सकती। वह अतिरिक्त सब) प्रवृत्तियों का सम्यक निरोध कर स्थान में स्थित उपाश्रय के भीतरी भाग में संघाटी से प्रतिबद्ध, बाहयुगल को होऊंगा (कायोत्सर्ग करूंगा)-इस संकल्प के साथ कायोत्सर्ग घुटनों की ओर प्रलम्बित कर समपादिका आसन में स्थित में अवस्थित साधक मेरु की भांति निष्प्रकम्प रहता है। होकर आतापना ले सकती है। उद्धट्ठाणं ठाणायतं.......... आतापना के नौ प्रकारों में साध्वी के लिए समपादिका (बृभा ५९५३) नामक अंतिम प्रकार ही अनज्ञात है, शेष आठ प्रकार अनुज्ञात नहीं हैं। स्थानायत का अर्थ है ऊर्ध्वस्थान-खड़े-खड़े कायोत्सर्ग (कायक्लेश अनेक प्रकार का है-स्थानायतिक, करना। (बैठकर और लेटकर भी कायोत्सर्ग किया जाता है।) उत्कुटकासन, प्रतिमास्थायी, वीरासनिक, नैषधिक, आतापना, २. स्थानप्रतिमा के चार प्रकार अपावृत (सर्दी में वस्त्रविहीन) रहना, अकण्डूयन (शरीर ..."अह भिक्खू इच्छेज्जा चउहि पडिमाहिं ठाणं Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १७९ कायोत्सर्ग ठाइत्तए॥ तत्थिमा पढमा पडिमा-अचित्तं खलु उव- ५. समपाद-पैरों को समश्रेणि में स्थापित कर खड़े रहना। सज्जिस्सामि, अवलंबिस्सामि, कारण विपरिक्कमिस्सामि, ६. एकपाद-एक पैर पर खड़े रहना। सवियारं ठाणंठाइस्सामि...॥ ७. गृद्धोड्डीन-उड़ते हुए गीध के पंखों की भांति बाहों को अहावरा दोच्चा पडिमा-अचित्तं खलु उवसज्जि- फैलाकर खड़े रहना।-भ आ २२५) स्सामि, अवलंबिस्सामि, काएण विपरक्कि-मिस्सामि, णो ३.कायोत्सर्ग कौन-सा ध्यान? सवियारं ठाणं ठाइस्सामि॥ योगनिरोधात्मकं ध्यानं त्रिधा, तद्यथा, काययोगअहावरा तच्चा पडिमा-अचित्तं खलु उवसज्जि- निरोधात्मकं, वाग्योगनिरोधात्मकं, मनोयोगनिरोधात्मकं स्सामि, अवलंबिस्सामि, णो काएण विपरिक्कमिस्सामि, च, तत्र कायोत्सर्गः किं ध्यानं? उच्यते त्रिविधमपि, णो सवियारं ठाणं ठाइस्सामि॥ मुख्यतस्तु कायिकम्। (व्यभा १२१ की वृ) ___अहावरा चउत्था पडिमा-अचित्तं खलु उवसज्जि योगनिरोधात्मक ध्यान के तीन प्रकार हैं-मनोयोगस्सामि, णो अवलंबिस्सामि, णो काएण विपरिक्कमि निरोध, वचनयोगनिरोध और काययोगनिरोध। कायोत्सर्ग में स्सामि, णो सवियारं ठाणं ठाइस्सामि, वोसट्ठकाए, तीनों ध्यान होते हैं, मुख्यरूप से कायिक ध्यान होता है। वोसट्ठकेसमंसु-लोम-णहे सण्णिरुद्धंवा ठाणं ठाइस्सामि। कायचेटुं निरंभित्ता, मणं वायं च सव्वसो। (आचूला ८/१६-२०) वट्टति काइए झाणे, सुहुमुस्सासवं मुणी॥ भिक्षु चार प्रतिमाओं से स्थानस्थित होता है न विरुझंति उस्सग्गे, झाणे वाइय-माणसा। पहली प्रतिमा-अचित्त भूमि में स्थित होऊंगा (कायोत्सर्ग तीरिए पुण उस्सग्गे, तिण्णमण्णतरं सिया॥ करूंगा), अचित्त भित्ति आदि का सहारा लूंगा, शरीर का परिस्पन्दन(हाथ-पैर का संकुचन-प्रसारण) करूंगा, सविचार (व्यभा १२२, १२३) (हलनचलनयुक्त) कायोत्सर्ग करूंगा। कायिकध्यान में कायिकप्रवृत्ति तथा मनोयोग और ___ दूसरी प्रतिमा-अचित्त भूमि में रहूंगा, सहारा लूंगा, वचनयोग का सर्वात्मना निरोध कर कायोत्सर्ग किया जाता हाथ-पैर का संकचन-प्रसारण करूंगा. चंक्रमण नहीं करूंगा है। इसमें सूक्ष्म उच्छ्वास आदि का निरोध नहीं होता। तीसरी प्रतिमा-अचित्त भूमि में रहूंगा, सहारा लूंगा, कायोत्सर्ग में और वाचिक-मानसिक ध्यान में विरोध संकुचन-प्रसारण नहीं करूंगा, चंक्रमण नहीं करूंगा। नहीं है। मनोयोग और वचनयोग का विषयांतर रूप से निरोध चौथी प्रतिमा-अचित्त भूमि में कायोत्सर्ग करूंगा. न होता है, कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर मानसिक, वाचिक, कायिकदीवार का सहारा लूंगा, न संकुचन-प्रसारण करूंगा, न हलन- तीनों में से कोई भी ध्यान किया जा सकता है। भंगश्रुत चलन करूंगा-इस प्रकार देह का विसर्जन कर, केश-श्मशू- (दृष्टिवाद आदि विकल्पप्रधान श्रुत) के गुणन में तीनों ध्यान रोम-नख के परिकर्म से मुक्त होकर श्वासोच्छवास के अतिरिक्त एक साथ होते हैं। अन्य प्रवृत्तियों में यह संभव नहीं है। प्रवृत्तियों का निरोध कर कायोत्सर्ग करूंगा। ४. देवता-आह्वान के लिए कायोत्सर्ग (खड़े रहकर किए जाने वाले स्थानों को ऊर्ध्व-स्थान साधू"पंथं च अजाणमाणा भीमाडविं पवज्जेज्जा। योग कहा जाता है। उसके सात प्रकार हैं-१. साधारण- तत्थ वसभावणदेवताए उस्सग्गं करेंति, सा आगंपिया खम्भे आदि के सहारे निश्चल होकर खड़े रहना। दिसिभागं पंथं वा कहेज्ज। (निभा ५६९५ की चू) २. सविचार-जहां स्थित हो, वहां से दूसरे स्थान में जाकर साधु यात्रापथ में सार्थ से च्युत हो गए, मार्ग जानते एक प्रहर, एक दिन आदि निश्चित काल तक खड़े रहना। नहीं थे, भयंकर अटवी में चले गए। वृषभ साधु ने वनदेवी ३. संनिरुद्ध-जहां स्थित हो, वहीं निश्चल होकर खड़े। का आवाहन करने के लिए कायोत्सर्ग किया। उसका आसन रहना। कम्पित हुआ, वह प्रकट हुई और उसने सही मार्ग का दिशा४. व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग करना। दर्शन किया। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल १८० आगम विषय कोश-२ ५. स्वाध्याय हेतु उद्घाट कायोत्सर्ग जति दंतो पडितो सो पयत्ततो गवेसियव्वो. जड दिट्ठो तो हत्थसतातो परं विगिंचियव्वो। अह ण दिट्ठो तो उग्घाडकाउस्सग्गं काउं सज्झायं करेंति। . (निभा ६१११ की चू) उपाश्रय में कहीं किसी का दांत गिर जाए तो उसकी गवेषणा करे, मिल जाने पर सौहाथ की दूरी पर उसका परिष्ठापन करे। यदि न मिले तो उद्घाट कायोत्सर्ग कर स्वाध्याय प्रारंभ करे। ६. अनुयोगहेतु कायोत्सर्ग अनुयोगारंभनिमित्तं कायोत्सर्गम्। (व्यभा की अनुयोग का प्रारंभ करने के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है। ७. कायोत्सर्ग पूर्ण करने की विधि ..... णमोक्कारे, काउस्सग्गे य पंचमंगलए।.... (निभा ६१३४) ‘णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहणं'-इस पंच मंगलात्मक नमस्कार मंत्र के पाठ से कायोत्सर्ग को पूर्ण करे। ८. कायोत्सर्ग की फलश्रुति : भेदज्ञान जह नाम असी कोसे, अण्णो कोसे असी वि खलु अण्णे। इय मे अन्नो देहो, अन्नो जीवो त्ति मण्णंति॥ __ (व्यभा ४३९९) जैसे कोश (म्यान) में निक्षिप्त तलवार भिन्न है, कोश भिन्न है, वैसे ही मेरा 'शरीर भिन्न है. आत्मा भिन्न है। इस भेदज्ञान से भावित होना ही कायोत्सर्ग की फलश्रति है। * कायोत्सर्ग के प्रकार, प्रयोजन, परिणाम आदि द्र श्रीआको १ कायोत्सर्ग कारक सूत्र-आगम-सम्मत सिद्धांत की अपाय-दर्शन पूर्वक सिद्धि करने वाले सूत्र। द्र सूत्र काल-चेतन और अचेतन के परिणमन में हेतुभूत काल्पनिक द्रव्य। १. काल के एकार्थक २.कालमास के प्रकार ० अहोरात्र संख्याज्ञान हेतु करणगाथा | ३. नक्षत्रमास : नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग । * अर्थक्षेत्र आदि नक्षत्र द्र शवपरिष्ठापन ४. अभिवर्धित वर्ष और चन्द्रवर्ष ५. अप्रशस्त नक्षत्र : संध्यागत आदि ६. प्रशस्त भाव : उच्च स्थानगत ग्रह ७. अनेकविध गणना ०शीर्षप्रहेलिका..." * नौवें पूर्व में कालज्ञान-वर्णन द्र आगम ___* श्रुताभ्यास से कालज्ञान द्र जिनकल्प १. काल के एकार्थक "कालो त्ति व समयो त्ति व, अद्धा कप्पो त्ति एगढ़। (व्यभा २०५७) काल, समय, अद्धा और कल्प-ये एकार्थक हैं। २. कालमास के प्रकार ........"णक्खत्तादी व पंचविहो॥ अहोरत्ते सत्तवीसं, तिसत्तसत्तट्ठिभाग णक्खत्तो। चंदो अउणत्तीसं, बिसट्ठि भागा य बत्तीसं ।। उडुमासो तीसदिणो, आइच्चो तीस होइ अद्धं च। अभिववितो य मासो, ........॥ एक्कत्तीसं च दिणा, दिणभागसयं तहेक्कवीसं च। अभिवड्डीओ उ मासो, चउवीससतेण छेदेणं॥ (निभा ६२८३-६२८६) कालमास के पांच प्रकार हैं१. नक्षत्रमास-जितने काल में चन्द्रमा नक्षत्र मण्डल का परिभोग करता है, वह नक्षत्रमास है। इसका परिमाण है २७४ अहोरात्र । २. चन्द्रमास-इसका परिमाण है-१३ अहोरात्र। ३. ऋतुमास-इसका परिमाण है-पूरे तीस अहोरात्र । ४. आदित्यमास-इसमें साढ़े तीस अहोरात्र होते हैं। (सूर्य जितने समय में एक राशि का भोग करता है, उतने समय को एक आदित्यमास कहते हैं।) ५. अभिवर्धितमास-यह अधिक मास होता है। इसमें ३१९२९अहोरात्र होते हैं। रिउत्ति वा कम्ममासो वा एगटुं। (निभा ६२८७ कीचू) ऋतुमास और कर्ममास एकार्थक हैं। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ अहोरात्रसंख्याज्ञान हेतु करणगाथा एतेषां चानयनाय इयं करणगाथाजुगमासेहिँउ भइए, जुगम्मि लद्धं हविज्ज नायव्वं । मासाणं पंचह वि, एयं राइंदियपमाणं ॥ ० १८१ इह सूर्यस्य दक्षिणमुत्तरं वा अयनं त्र्यशीत्यधिकदिनशतात्मकम् । द्वे अयने वर्षमिति कृत्वा वर्षे षट्षष्ट्यधिकानि त्रीणि शतानि भवन्ति । पञ्च संवत्सरा युगमिति कृत्वा तानि पञ्चभिर्गुण्यन्ते जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशानि दिवसानाम् । एतेषां नक्षत्रमास-दिवसानयनाय सप्तषष्टिर्युगे नक्षत्रमासा इति सप्तषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्रा एकविंशति-रहोरात्रस्य सप्तषष्टिभागाः १ । तथा चन्द्रमासदिवसानयनाय द्वाषष्टिर्युगे चन्द्रमासा इति द्वाषष्ट्या तस्यैव युगदिनराशेर्भागो हियते, लब्धान्येकोनत्रिंशदहोरात्राणि द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागाः २ । एवंयुग दिवसानमेवैकषष्टिर्युगे कर्ममासा इत्येकषष्ट्या भागे ह लब्धानि कर्ममासस्य त्रिंशद्दिनानि ३ । तथा युगे षष्टिः सूर्यमासा इति षष्ट्या युगदिनानां भागे हृते लब्धाः सूर्यमासदिवसास्त्रिंशदहोरात्रस्यार्द्धं च ४ । तथा युगदिवसा एव अभिवर्द्धितमासदिवसानयनाय त्रयोदशगुणाः क्रियन्ते जातानि त्रयोविंशतिसहस्त्राणि सप्त शतानि नवत्यधिकानि, एषां चतुश्चत्वारिंशैः सप्तभिः शतैर्भागो ह्रियते लब्धा एकत्रिंशद्दिवसाः, शेषाण्यवतिष्ठन्ते षड्विंशत्यधिकानि सप्तशतानि चतुश्चत्वारिंशसप्तभागानाम्, तत उभयेषामप्यङ्कानां षड्भिरपवर्त्तना क्रियते जातमेकविंशं शतं चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानामिति ५ । (बृभा ११३० की वृ) नक्षत्रमास के दिनों की संख्या जानने के लिए यह रणगाथा है--'जुगमासेहिं ।' युग के दिनों में युगमासों का भाग देने पर जो भागफल लब्ध हो, उसे पंचविध मासों अहोरात्रों का प्रमाण जानना चाहिये । 1 युग के दिन सूर्य दक्षिणायन में १८३ दिन और उत्तरायण में १८३ दिन गति करता है। दो अयन का एक वर्ष होता है अतः एक वर्ष में ३६६ दिन होते हैं। पांच वर्षों का एक युग होता है । ३६६ को ५ से गुणन करने पर एक युग में ३६६४५ = १८३० दिन होते हैं। १. नक्षत्रमास - एक युग में ६७ नक्षत्रमास होते हैं । युग के १८३० दिनों में नक्षत्रमासों का भाग देने पर जो भागफल निकले, वह एक नक्षत्रमास के दिनों की संख्या है१८३०÷६७= २७ ६७ अहोरात्र । २. चन्द्रमास - एक युग में ६२ चन्द्रमास होते हैं। युग-दिनों में ६२ का भाग देने पर जो लब्ध हो, वह चन्द्रमास के दिनों की संख्या है - १८३०÷६२ २९ धेरै दिन। ३. ऋतुमास - एक युग में ६१ कर्म (ऋतु) मास होते हैं। एक मास के दिनों की संख्या - १८३०÷६१ = ३० दिन । ४. सूर्यमास - एक युग में ६० सूर्यमास होते हैं। एक मास के दिनों की संख्या-१८३०÷६० - ३०३ दिन । ५. अभिवर्धित मास- इसके दिनों की संख्या निकालने के लिए युग - दिवसों को १३ से गुणित किया जाता है१८३०×१३=२३७९० । इसमें ७४४ का भाग देने पर भागफल ३१ दिन लब्ध होते हैं। ७२६ शेष रहते हैं। इन द्विविध अंकों की छह से अपवर्तना करने पर १२४ । इस प्रकार अभिवर्धित मास के ३११२४ दिन होते हैं।' ७२ १२१ (सूर्य की गति के आधार पर अद्धाकाल (समये अहोरात्र आदि) होता है। - श्रीआको १ काल 0 सूर्य- - चन्द्र संख्या - मनुष्यक्षेत्र में एक सौ बत्तीस चन्द्र और एक सौ बत्तीस सूर्य हैं। उनका क्रम इस प्रकार हैमनुष्य क्षेत्र जम्बूद्वीप चन्द्र २ ४ १२ ४२ ७२ १३२ १३२ मनुष्य-क्षेत्र दो पंक्तियों में विभक्त है- दक्षिण पंक्ति और उत्तर - पंक्ति । प्रत्येक पंक्ति में छासठ-छासठ चन्द्र-सूर्य हैं । - सम ६६ / १, २ वृ । • अहोरात्र और तिथि में अंतर- साधारणतया एक मास में ३० अहोरात्र होते हैं और एक पक्ष में १५ अहोरात्र । किन्तु आषाढ, भाद्रपद, कार्तिक, पौष, फाल्गुन और वैशाख मास के कृष्ण पक्ष में १४ अहारोत्र होते हैं। इसका कारण यह है कि लवणसमुद्र धातकीखंड काल कालोदधि समुद्र पुष्करार्द्ध सूर्य २ ४ १२ ४२ ७२ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल १८२ आगम विषय कोश एक अहारोत्र के कालमान से , भाग कम तिथि का भोगश्चैकविंशतिः सप्तषष्टा भागा इति तैरभ्यधिकानि कालमान है, अर्थात् अहोरात्र में एक तिथि पूरी होती है। सप्तविंशतिरहोरात्राणि सकलनक्षत्रमण्डलोपभोगकालो इस प्रकार ६१ अहोरात्र में ६२ तिथियां होती हैं। प्रत्येक नक्षत्रमास उच्यते। (बृभा ११२८ की वृ) अहोरात्र में अगली तिथि का भाग प्रवेश करता है। अतः छह नक्षत्र चन्द्रमा के साथ पन्द्रह मुहूर्त तक योग करते ६१ वें अहोरात्र में ६२ वीं तिथि समा जाती है। हैं-भरणि, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति, ज्येष्ठा, शतभिषक् । अहोरात्र की उत्पत्ति सूर्य से और तिथि की उत्पत्ति छह नक्षत्र पैंतालीस मुहूर्त तक चन्द्रमा के साथ योग चन्द्रमा से होती है। उ २६/१५ का टि। करते हैं-उत्तराषाढा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराभाद्रपदा, पुनर्वसु, ० चन्द्रमण्डल और कृष्ण-शुक्ल पक्ष-ध्रुवराहु (सदा चन्द्र रोहिणी, विशाखा। शेष पन्द्रह नक्षत्र तीस मुहूर्त तक चन्द्रमा के के पास ही संचरण करने वाला राह) कृष्णपक्ष की प्रतिपदा साथ योग करते हैं। से प्रतिदिन चन्द्रलेश्या का पन्द्रहवां भाग आवृत करता है, सत्ताईस नक्षत्र कुल मिलाकर आठ सौ दस मुहूर्त तक जैसे-प्रतिपदा के दिन पहला पन्द्रहवां भाग. द्वितीया के दिन चन्द्रमा के साथ योग करते हैं। तीस मुहूर्त का एक अहोरात्र दसरा पन्द्रहवां भाग यावत अमावस्या के दिन पन्द्रहवां भाग- होता है। अतः आठ सौ दस में तीस का भाग देने पर सम्पूर्ण चन्द्रमंडल। वही ध्रुवराहु शुक्लपक्ष में प्रतिदिन एक- (८१०३०२७) सत्ताईस अहोरात्र होते हैं। एक पन्द्रहवें भाग को उद्घाटित करता है। चन्द्र-लेश्या के अभिजित्नक्षत्रभोग के १ भाग मिलाने पर सर्वसोलह भाग होते हैं। एक भाग सदा उद्घाटित रहता है और नक्षत्रमण्डल का उपभोग काल २७३२ होता है, यही नक्षत्रशेष पन्द्रह भाग कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक मास है। प्रतिदिन एक-एक भाग के अनुपात से आवृत होते जाते हैं। * नक्षत्र और उनके अधिष्ठाता देव द्र श्रीआको १ नक्षत्र इसी प्रकार शुक्लपक्ष में प्रतिपदा से पूर्णिमा तक, एक-एक (जम्बूद्वीप में अभिजित् नक्षत्र को छोड़कर शेष सत्ताईस भाग के अनुपात से उद्घाटित होते रहते हैं। नक्षत्रों से व्यवहार चलता है। उत्तराषाढा नक्षत्र के चौथे पाये में पूर्ण चन्द्रमंडल के ९३१ भाग होते हैं। इनमें एक अभिजित् नक्षत्र का समावेश होने से इसे अलग नहीं गिना गया भाग अवस्थित रहता है, शेष बढ़ते-घटते हैं। शुक्लपक्ष है।-सम २७/२ वृ .. का चन्द्र प्रतिदिन बासठ भाग बढ़ता है और पूर्णिमा के दिन अभिजित् ९ मुहूर्त तक चन्द्र के साथ योग करता चन्द्रमंडल पूर्णरूप से प्रकाशित हो जाता है। इसी प्रकार है। प्रत्येक नक्षत्र एक अहारोत्र में अमुक-अमुक क्षेत्र का कृष्णपक्ष का चन्द्र प्रतिदिन बासठ भाग घटता हैऔर अमावस्या अवगाहन करता है। अभिजित् नक्षत्र द्वारा एक अहारोत्र में के दिन वह मंडल पूर्णरूप से आच्छादित हो जाता है। अवगाढक्षेत्र के यदि सड़सठ भाग किए जाएं तो नक्षत्र इक्कीस -सम १५/३; ६२/३) भाग तक चन्द्र के साथ योग करता है अर्थात् क्षेत्र की दृष्टि से अभिजित् नक्षत्र का सीमा विष्कम्भ है।-सम ६७/४ वृ) ३. नक्षत्रमास : नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग चन्द्रस्य भरण्याा -ऽश्लेषा-स्वाति-ज्येष्ठा-शत- ४. अभिवर्धितवर्ष और चन्द्रवर्ष भिषग्नामानि षड् नक्षत्राणि पञ्चदशमुहूर्तभोगीनि, जत्थ अधिकमासो पडति वरिसे तं अभिवड्डयवरिसं तिन उत्तराः पुनर्वसू रोहिणी विशाखा चेति षट् पञ्च भण्णति। जत्थ ण पडति तं चंदवरिसं।सो य अधिगमासो चत्वारिंशन्मुहर्त्तभोगीनि, शेषाणित पञ्चदश नक्षत्राणि जुगस्स अंतेमझे वा भवति।जति अंते तोणियमा दोआषाढा त्रिंशन्मुहूर्तानीतिजातानि सर्वसंख्यया मुहर्तानामष्टशतानि भवंति। अह मझे तो दो पोसा। (निभा ३१५२ की चू) दशोत्तराणि, एतेषां च त्रिंशन्मुहूर्तेरहोरात्रमिति कृत्वा त्रिंशता जिसमें अधिक मास होता है, वह अभिवर्धित वर्ष और भागो ह्रियते लब्धानि सप्तविंशतिरहोरात्राणि, अभिजिद्- जिसमें अधिक मास नहीं होता, वह चन्द्रवर्ष कहलाता है। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १८३ काल अधिक मास युग के अंत में या मध्य में होता है। यदि इसमें तीन चन्द्रसंवत्सर और दो अभिवर्धित संवत्सर होते हैं। अंत में होता है तो नियमत: दो आषाढ़ और मध्य में होता है तो चन्द्रसंवत्सर में (२९३३x १२) ३५४ १२ दिन होते हैं और दो पौष होते हैं। अभिवर्धित संवत्सर में (३११२१४ १२) ३८३४ दिन होते हैं। (संवत्सर पांच प्रकार का होता है ३. प्रमाण (दिवस आदि के परिमाण से उपलक्षित) संवत्सर १. नक्षत्रसंवत्सर ४. लक्षणसंवत्सर के ऋतुसंवत्सर में ३६० दिन होते हैं। कर्मसंवत्सर और २. युगसंवत्सर ५. शनिश्चरसंवत्सर सावनसंवत्सर इसके पर्यायवाची हैं। आदित्यसंवत्सर में ३. प्रमाणसंवत्सर ३६६ दिन-रात होते हैं, क्योंकि इसके प्रत्येक मास में साढ़े युगसंवत्सर पांच प्रकार का होता है-१. चन्द्र २. चन्द्र ३. तीस अहोरात्र होते हैं। अभिवर्धित ४. चन्द्र ५. अभिवर्धित। ४. लक्षणसंवत्सर-लक्षणों से जाना जाने वाला संवत्सर। प्रमाणसंवत्सर पांच प्रकार का होता है-१. नक्षत्र २. चन्द्र ५. शनिश्चरसंवत्सर-जितने समय में शनिश्चर एक नक्षत्र ३. ऋतु ४. आदित्य ५. अभिवर्धित। अथवा बारह राशियों का भोग करता है, उतने काल परिमाण लक्षणसंवत्सर के प्रकार और स्वरूप को शनिश्चरसंवत्सर कहा जाता है।-स्था ५/२१०-२१३ वृ १. नक्षत्र संवत्सर-जिस संवत्सर में नक्षत्र समतया-अपनी नक्षत्रों के आधार पर शनिश्चरसंवत्सर के अठाईस प्रकार तिथि का अतिवर्तन न करते हुए तिथियों के साथ योग करते हैं-अभिजित्, श्रवण यावत् उत्तराषाढा। यह महाग्रह हैं, ऋतुएं समतया-अपनी काल-मर्यादा के अनुसार परिणत शनिश्चरसंवत्सर तीस संवत्सरों में सम्पूर्ण नक्षत्रमंडल का होती हैं, न अति गर्मी होती है और न अति सर्दी तथा जिसमें परिभोग करता है। सूर्य १०/१३० पानी अधिक गिरता है, उसे नक्षत्रसंवत्सर कहते हैं। युगसंवत्सर-प्रत्येक चन्द्र संवत्सर में बारह चन्द्रमास और २. चन्द्र संवत्सर-जिस संवत्सर में चन्द्रमा सभी पूर्णिमाओं प्रत्येक अभिवर्धित संवत्सर में तेरह चन्द्रमास होते हैं। इस का स्पर्श करता है, अन्य नक्षत्र विषमचारी-अपनी तिथियों प्रकार तीन चन्द्रसंवत्सरों में छत्तीस पूर्णिमाएं और छत्तीस का अतिवर्तन करने वाले होते हैं, जो कटुक-अतिगर्मी और अमावस्याएं तथा दो अभिवर्धित संवत्सरों में छब्बीस पूर्णिमाएं अतिसर्दी के कारण भयंकर होता है तथा जिसमें पानी अधिक और छब्बीस अमावस्याएं होती हैं। कुल बासठ पूर्णिमाएं और गिरता है, उसे चन्द्रसंवत्सर कहते हैं। बासठ अमावस्याएं होती हैं।- सम ६२/१) ३. कर्म (ऋतु) संवत्सर-जिस संवत्सर में वृक्ष असमय में ५. अप्रशस्त नक्षत्र : संध्यागत आदि अंकुरित हो जाते हैं, असमय में फूल तथा फल आ जाते हैं, संझागतं रविगतं, विड्डेरं सग्गहं विलंबिं च। वर्षा उचित मात्रा में नहीं होती, उसे कर्मसंवत्सर कहते हैं। राहुहतं गहभिण्णं, च वज्जए सत्त णक्खत्ते॥ ४. आदित्य संवत्सर-इस संवत्सर में वर्षा अल्प होने पर भी संझागतम्मि कलहो, होति कुभत्तं विलंबिणक्खत्ते। सूर्य पृथ्वी, जल तथा फूलों और फलों को मधुर और स्निग्ध विड्डेरे परविजयो, आइच्चगते अणेव्वाणी॥ रस प्रदान करता है तथा फसल अच्छी होती है। जं सग्गहम्मि कीरइ, णक्खत्ते तत्थ वुग्गहो होति। ५. अभिवर्धित संवत्सर-इस संवत्सर में सूर्य के ताप से क्षण, राहुहतम्मि य मरणं, गहभिण्णे सोणिउग्गालो॥ लव, दिवस और ऋतु तप्त जैसे हो उठते हैं तथा आंधियों से जम्मि उदिते सूरो उदेति तं संझागतं । जत्थ सूरो ठितो स्थल भर जाता है। तं रविगतं । जं सूरस्स पिट्ठतो अणंतरं तं विलंबी। संवत्सरों का कालमान __ अण्णे भणंति-जं सूरस्स पिट्ठतो अग्गतो वा अणंतरं १. नक्षत्रसंवत्सर में (२७६ x १२)३२७ १८ दिन होते हैं। तं संझागयं। जं पुण पिट्टतो सूरगतातो ततितं विलंबी।जं २. युगसंवत्सर-पांच संवत्सरों का एक युगसंवत्सर होता है। जत्थ गमणकम्मसमारंभादिसु अण-भिहियं तं विड्डेरं Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल १८४ आगम विषय कोश-२ विगतद्वारमित्यर्थः । जं क्रूरग्रहेणाक्रान्तं तं सग्गह, जत्थ व्युद्ग्रह, राहुहत में मृत्यु और ग्रहभिन्न में शोणितउद्गार रविससीण गहणं आसी तं राहुहतं, मझेण जस्स गहो होता है। गतो तं गहभिण्णं, एते सत्त वि णक्खत्ता चंदजोगजुत्ता ६. प्रशस्त भाव : उच्च स्थानगत ग्रह आलोयणादिसु सव्वपयत्तेण वज्जणिज्जा। ..."उद्धट्ठाणा गहा य भावम्मि। (निभा ६३८४-६३८६ चू) भावतो उच्चट्ठाणगतेसु गहेसु-रविस्स मेसो सात नक्षत्र अप्रशस्त हैं उच्चो, सोमस्स वसभो, अंगारस्स मगरो, बुहस्स कण्णा, ० संध्यागत-जिसके उदित होने पर सूर्य उदित हो। अन्य। विहस्स-तिस्स कक्कडओ, मीणो सुक्कस्स, तुलो मतानुसार सूर्य के पीछे के या आगे के नक्षत्र के बाद का नक्षत्र। सणिच्छरस्स।सव्वेसिंगहाण अप्पणो उच्चदाणातोजसत्तम ० रविगत-जहां सूर्य स्थित हो। तं णीयं। अहवा-भावतो पसत्थं बुहो सुक्को वहस्सती ० विड़ेर-जिसके होने पर गमन, कर्मसमारंभ आदि अभिहित ससी य। एतेसिं रासि-होरा-द्रेक्कणिअंसतेसु वा उदिएसु नहीं हैं। अथवा जो विगतद्वार है-पूर्व द्वार वाले नक्षत्रों में पूर्व सोम्मग्गह-बलाइएसुय। (निभा ६३८८ चू) दिशा से जाने के स्थान पर पश्चिम दिशा से जाने पर प्राप्त ग्रह उच्चस्थान ग्रह उच्चस्थान नक्षत्र। १. सूर्य मेष ५. बृहस्पति कर्कटक ० सग्रह-क्रूर ग्रह से आक्रांत। विलंबि-सूर्य के द्वारा भोगकर छोड़ा हुआ। अन्य मतानुसार २. सोम वृषभ ६. शुक्र मीन सर्य के जाने पर उसके पीछे का तीसरा नक्षत्र । ३. मंगल मकर ७. शनि तुला ० राहुहत-जिसमें सूर्यग्रहण-चन्द्रग्रहण हो। ४. बुध कन्या ० ग्रहभिन्न-जिसके बीच से ग्रह का गमन हो। सब ग्रहों में अपने उच्चग्रहस्थान से जो सातवां स्थान चन्द्रयोग से युक्त ये सातों नक्षत्र आलोचना आदि है, वह नीच स्थान है। अथवा प्रशस्त बुध, शुक्र, बृहस्पति, शुभकार्यों में सर्वथा वर्जनीय हैं। संध्यागत में कार्य करने पर सोम आदि सौम्य ग्रह, इन ग्रहों से संबंधित राशि-लग्न और इन कलह, विलंबी में पर्याप्त या अच्छे भोजन की अप्राप्ति, ग्रहों से अवलोकित बव आदि करण प्रशस्त हैं। विड्डेर में शत्रु की विजय, रविगत में अशांति-दुःख, सग्रह में * बव आदि ग्यारह करण द्र श्रीआको १ कालविज्ञान (एक तिथि में दो करण होते हैं। किस तिथि में कौन-सा करण होता है ? देखें यंत्रकृष्ण पक्ष शुक्ल पक्ष दिवसकरण रात्रिकरण दिवसकरण रात्रिकरण बालव कोलव किंस्तुघ्न बव स्त्रीविलोकन गर बालव कौलव वणिज विष्टि स्त्रीविलोकन गर बव बालव वणिज विष्टि कौलव स्त्रीविलोकन बव बालव वणिज कौलव स्त्रीविलोकन विष्टि बव वणिज बालव कौलव विष्टि बव स्त्रीविलोकन गर बालव कौलव तिथि तिथि 3 or or mx 5 w a vo गर गर ; . Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ तिथि १०. ११. १२. १३. १४. १५. दिवसकरण वणिज बव कौलव कृष्ण पक्ष गर विष्टि चतुष्पद रात्रिकरण विष्टि बालव स्त्रीविलोकन वणिज शकुनि नाग ७. अनेकविध गणना जा कोडी ॥ .....गणणे गादि ...... गणियं, तस्स ठाणा अणेगविहा, जहा एक दहं सतं सहस्सं दससहस्साइं सयसहस्सं दहशतसहस्साइं कोडी । उवरिं पि जहासंभवं भाणियव्वं ॥ (निभा ६३०० चू) गणना - गणित के अनेकविध स्थान हैं, जैसे-इकाई, दस, सौ, हजार, दसहजार, लाख, दस लाख, करोड़ - इससे आगे भी यथासंभव वक्तव्य हैं शीर्षप्रहेलिका तक गणना प्रवृत्त होती है, उससे आगे नहीं । शीर्षप्रहेलिका उत्कृष्ट गणनापरिमाण है, अत: गणित का विषय इतना ही है। असंख्येय के तीन भेद हैं- युक्त असंख्येय, परीत असंख्येय और असंख्येय असंख्येय । १८५ • शीर्षप्रहेलिका ...... ....... | .......सीसपहेलिया ततो परं गणणा ण पयट्टति उक्कोसं गणणग्गं, जा सीसपहेलिया ठिता गणिए । जुत्तपरित्ताणंतं, उक्कोसं तं पि नायव्वं ॥ (निभा ५४ की चू) अनंत के तीन भेद हैं- युक्त अनंत, परीत अनंत और अनंत अनंत । - द्र श्रीआको १ संख्या तिथि १० ११ १२ १३ १४ १५ ( काल औपचारिक द्रव्य है । वह जीव और अजीव दोनों का पर्याय है । समय, आवलिका, आन-प्राण, स्तोक, क्षण, लव, मुहूर्त्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, सौ वर्ष, हजार वर्ष, लाख वर्ष, करोड़ वर्ष, पूर्वांग, पूर्वशीर्ष - प्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम, दिवसकरण स्त्रीविलोकन वणिज बव कौलव शुक्ल पक्ष गर विष्टि कुत्रिकापण रात्रिकरण गर विष्टि बालव स्त्रीविलोकन वणिज बव - जंबू ७/१२५) अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी- ये सभी जीव और अजीव दोनों हैं। -स्था २/३८७-३८९ यजुर्वेद १७/२ में १ पर १२ शून्य रखकर दस पूर्व तक की संख्या का उल्लेख है। वहां शत, सहस्र, अयुत, नियुत, प्रयुत, अर्बुद, न्यर्बुद, समुद्र, अन्त, परार्द्ध तक का उल्लेख है । गणितशास्त्र में महाशंख तक की संख्या का व्यवहार होता है। वे २० अंक इस प्रकार हैं- इकाई, दस, शत, सहस्र दससहस्र, लक्ष, दसलक्ष, करोड़, दस करोड़, अरब, दस अरब, खरब, दस खरब, नील, दस नील, पद्म, दस पद्म, शंख, दस शंख, महाशंख-स्था २/३८९ का टि) १. कुत्रिकापण का तात्पर्यार्थ २. कुत्रिकापण की उत्पत्ति * शीर्षप्रहेलिका का प्रयोजन....... द्र श्रीआको १ काल कालप्रतिलेखना – आगमोक्त विधि के अनुसार स्वाध्याय आदि के काल का ग्रहण- निर्धारण और प्रज्ञापन करना । कालज्ञान के प्राचीन साधनों में 'दिक्- प्रतिलेखन' और 'नक्षत्रावलोकन' प्रमुख थे। मुनि स्वाध्याय से पहले काल की प्रतिलेखना करते थे। नक्षत्रविद्या में कुशल मुनि इस कार्य के लिए नियुक्त होते थे । द्र स्वाध्याय कुत्रिकापण - वह विशिष्ट दुकान, जहां तीन लोक में प्राप्य सभी वस्तुएं मिलती हैं। ३. त्रिविध मूल्यनिर्धारण: शालिभद्र की उपधि ४. उज्जयिनी में कुत्रिकापण : व्यन्तर-विक्रय Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुत्रिकापण १८६ आगम विषय कोश-२ १. कुत्रिकापण का तात्पर्यार्थ कुत्ति पुढवीय सण्णा, जं विन्जति तत्थ चेदणमचेयं। गहणुवभोगे य खमं, न तं तहिं आवणे णत्थि॥ (बृभा ४२१४) क शब्द पृथ्वी का वाचक है। त्रिक का अर्थ है तीन लोक-स्वर्ग, मर्त्य और पाताल।आपण का अर्थ है दुकान। ___तीनों पृथ्वियों पर सब लोगों के ग्रहण और उपभोग के योग्य जितने भी चेतन और अचेतन (जीव, धातु और मूल) पदार्थ हैं, वे कुत्रिकापण में नहीं हैं-ऐसा नहीं है। (उस दकान में सब पदार्थों का विक्रय होता है।) (कुत्तिय के संस्कृत रूप दो मिलते हैं-कुत्रिक और कुत्रिज। जिस दुकान में स्वर्गलोक, मनुष्यलोक और पाताललोक-इन तीनों में होने वाली सभी वस्तुएं मिलती हैं, उसे 'कुत्रिकापण' कहा जाता है। जिसमें जीव, धातु और मूल (जड़)-ये तीनों प्रकार के पदार्थ मिलते हैं, उसे 'कत्रिकापण' कहा जाता है।-भ २/९५ का भाष्य) २. कुत्रिकापण की उत्पत्ति पव्वभविगा उ देवा, मणयाण करिति पाडिहेराई। लोगच्छेरयभूया, जह चक्कीणं महाणिहयो॥ ___(बृभा ४२१८) जिन पुण्यशाली व्यक्तियों के कोई देव पूर्वभव के मित्र होते हैं, वे प्रातिहार्य-यथाभिलषित पदार्थ उपस्थित कर देते हैं। (इस प्रकार कुत्रिकापणों की उत्पत्ति होती है।) जैसे लोक में आश्चर्यभूत नैसर्प आदि नौ महानिधि चक्रवर्ती के चरणों में प्रातिहार्य उपस्थित करते हैं। (कुत्रिकापण में किसी वणिक् द्वारा आराधित व्यन्तर देव वे सारी वस्तुएं कहीं से भी लाकर दे देता है, जो ग्राहकों द्वारा याचित होती हैं। उनका मल्य वणिक ग्रहण करता है। एक मत यह भी है कि कुत्रिकापण के अधिष्ठाता व्यंतर देव ही होते हैं और वे ही वस्तु का मूल्य ग्रहण करते हैं। ये विशिष्ट आपण उज्जयिनी, राजगृह आदि प्रतिनियत नगरों में ही होते थे।-द्र श्रीआको १ कुत्रिकापण) ३. त्रिविध मूल्यनिर्धारण : शालिभद्र की उपधि पणतो पागतियाणं, साहस्सो होति इब्भमादीणं। उक्कोस सतसहस्सं, उत्तमपुरिसाण उवधी उ॥ विक्कितगं जधा पप्प होइ रयणस्स तव्विहं मुल्लं। कायगमासज्ज तहा, कुत्तियमुल्लस्स णिक्कं ति॥ एवं ता तिविह जणे, मोल्लं इच्छाएँ दिज्ज बहुयं पि। सिद्धमिदं लोगम्मि वि, समणस्स वि पंचगं भंडं॥ ..."दिक्खा य सालिभद्दे, उवकरणं एयसहस्सेहिं॥ __"राजगृहं च नगरं कुत्रिकापणयुक्तमासीत्।" राजगृहे श्रेणिके राज्यमनुशासति शालिभद्रस्य सुप्रसिद्धचरितस्य दीक्षायां शतसहस्राभ्याम् उपकरणं रजोहरणप्रतिग्रहलक्षणमानीतम्।(बृभा ४२१५-४२१७, ४२१९ वृ) यदि कोई सामान्य व्यक्ति प्रवजित होता. तो उसके लिए कुत्रिकापण में पांच रुपये के मूल्य में उपधि (रजोहरणपात्र) प्राप्त होती थी। इभ्य, श्रेष्ठी, सार्थवाह आदि मध्यम कोटि के पुरुषों की उपधि का मूल्य हजार रुपये तथा चक्रवर्ती, मांडलिक आदि उत्तम पुरुषों की उपधि का मूल्य लाख रुपये था। यह जघन्य मूल्य था, उत्कृष्ट मूल्य तीनों कोटि के पुरुषों के लिए अनियत था। सामान्यतः जघन्य मूल्य पांच, मध्यम मूल्य हजार और उत्कृष्ट मूल्य एक लाख रुपये था। जैसे मरकत, पद्मराग आदि रत्नों का मूल्य मुग्ध या प्रबुद्ध विक्रेता के आधार पर कम या अधिक होता है, वैसे ही कुत्रिकापण में ग्राहक की क्षमता के अनुसार मूल्यनिर्धारण होता था। इस प्रकार तीनों प्रकार के पुरुष अपनी इच्छा से यथोक्त प्रमाण से अधिक मूल्य भी दे सकते थे। प्रतिनियत कुछ भी नहीं था। लोक में भी यह बात प्रसिद्ध थी कि श्रमण के भी पांच रुपये मूल्य के भंडोपकरण होते हैं। शालिभद्र की उपधि-राजगृह में राजा श्रेणिक के शासनकाल में पुण्यशाली शालिभद्र की दीक्षा के अवसर पर कत्रिकापण से रजोहरण और पात्र लाए गए। उनमें से प्रत्येक का मूल्य एकएक लाख रुपये था। राजगृह नगर कुत्रिकापण युक्त था। ४. उज्जयिनी में कुत्रिकापण : व्यंतर-विक्रय पज्जोए णरसीहे, णव उज्जेणीय कुत्तिया आसी। भरुयच्छवणियऽसद्दह, भूयऽट्ठम सयसहस्सेणं ॥ कम्मम्मि अदिज्जंते, रुट्ठो मारेइ सो य तं घेत्तुं। भरुयच्छाऽऽगम, वावारदाण खिप्पं च सो कुणति॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १८७ कृतयोगी भीएण खंभकरणं, एत्थुस्सर जा ण देमि वावारं। जाएगा। उस वणिक् ने अश्व पर आरूढ़ होकर बारह योजन णिज्जित भूततलागं, आसेण ण पेहसी जाव॥ तक जाने के पश्चात् मुड़कर पीछे देखा। भूत ने तत्काल वहां एमेव तोसलीए, इसिवालो वाणमंतरो तत्थ। भृगुकच्छ के उत्तरी भाग में 'भूततडाग' नाम का तालाब णिज्जित इसीतलागे ..............॥ निर्मित कर दिया। (बृभा ४२२०-४२२३) २. ऋषिपाल व्यंतर-विक्रय-तोसलीनगर का एक वणिक् अवन्तिजनपद के अधिपति चण्डप्रद्योत नप के उज्जयिनी में आया और एक कुत्रिकापण से ऋषिपाल नामक शासनकाल में उज्जयिनी में नौ कुत्रिकापण थे। वानव्यंतर को खरीदा। आपणिक ने कहा-इस वानव्यंतर को १. भूत-विक्रय-भृगुकच्छ के एक वणिक् को भूतों के अस्तित्व निरंतर कार्य में व्याप्त रखना, अन्यथा यह तुमको मार डालेगा। पर विश्वास नहीं था। एक बार वह वणिक् उज्जयिनी नगरी वणिक् उसे तोसलीनगर ले गया और अपने सारे कार्य करवाकर में आया। उसे ज्ञात हआ कि कत्रिकापण में भत आदि प्राप्त अंत में उसी प्रकार खंभे पर चढ़ने-उतरने की बात कहकर होते हैं। वह वहां गया और कुत्रिकापण के स्वामी से 'भूत' उसे पराजित कर दिया। उसने भी 'ऋषितडाग' नामक तालाब देने की बात कही। उस आपणिक (दुकानदार) ने सोचा- बना दिया। यह वणिक् मुझे धोखा देना चाहता है, इसलिए मैं इससे कृतयोगी-अध्ययन, तप, वैयावृत्त्य आदि में अभ्यस्त । 'भूत' का इतना मूल्य मांगूं कि यह उसे खरीद ही न सके। कृतयोगी सूत्रतोऽर्थतश्च छेदग्रंथधरः स्थविरः। उसने कहा-यदि तुम मुझे एक लाख मुद्राएं दोगे तो मैं तुम्हें (व्यभा २३६९ की वृ) भूत दूंगा। वणिक् ने इतना मूल्य देना स्वीकार कर लिया। तब आपणिक बोला--देखो, तुमको पांच दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। छेदग्रंथों के सूत्र और अर्थ को धारण करने वाला फिर मैं तुम्हें भूत दे दूंगा। स्थविर कृतयोगी है। आपणिक ने तेले की तपस्या कर अपने अधिष्ठाता देव कृतयोगी नाम यः पूर्वमुभयधरः आसीद् नेदानी, से पछा । देव ने कहा-तम वणिक को निर्धारित मूल्य में भूत सोऽर्थे समागच्छति गणं धारयितुं समर्थः। दे दो। पर उसको कह देना कि यह भूत विचित्र है। इसे (व्यभा २३३५ की वृ) सतत कार्य में व्यापृत रखना होगा। यदि तुम इसको कोई कार्य जो पहले सूत्र और अर्थ-दोनों को धारण करता था नहीं दोगे, तो यह तुम्हें मार डालेगा। पांचवें दिन वणिक किन्तु अब उभयधर नहीं है, वह कृतयोगी है। यदि वह आया और भूत की मांग की। आपणिक ने देवता द्वारा कथित अर्थधर है तो गणधारण कर सकता है। बात बताकर उसे भूत दे दिया। भूत को साथ ले वणिक् भृगुकच्छ चला गया। वहां जाते ही भूत बोला-मझे कार्य * कृतयोगी और गीतार्थ में अंतर द्र गीतार्थ बताओ। वणिक् ने कार्य बताया। भूत ने उसे तत्काल संपन्न कृतयोगी तपःकर्मणि कृताभ्यासः। कर दूसरे कार्य की मांग की। वणिक के सारे कार्य संपन्न हो (बृभा ४९४६ की वृ) गए। भूत ने फिर नए कार्य की मांग की, तब वणिक् ने कृतयोगो नाम कर्कशतपोभिरनेकधा भावितात्मा। बुद्धिमत्ता से कहा-तुम यहां एक ऊंचा स्तम्भ गाड़ो और उस (व्यभा ५३८ की वृ) पर तब तक चढ़ते-उतरते रहो, जब तक कि मैं तुम्हें दूसरे काम में नियोजित न करूं। यह सुनते ही भूत ने कहा-मैं जिसने तप:कर्म का अभ्यास किया है, अनेक बार कठोर हारा, तुम जीते। मैं अपनी पराजय के स्मृतिचिह्न के रूप में तपोयोग से अपने आपको भावित किया है, वह कृतयोगी है। एक तडाग बनाना चाहता हूं। तुम जाते हुए जब तक पीछे न किलम्मति दीघेण वि तवेण..... । मुड़कर नहीं देखोगे, उतने क्षेत्र में एक तालाब निर्मित हो (व्यभा ७८५) Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतिकर्म १८८ आगम विषय कोश-२ जो दीर्घकालिक तपअनुष्ठान से भी क्लांत नहीं होता, वह कृतयोगी है। छट्टट्ठमादिएहिं, कयकरणा.........। (व्यभा १६२) जो षष्ठभक्त, अष्ट मभक्त आदि तप द्वारा अपने आपको भावित कर लेता है, वह कृतकरण है। गीतार्थ आदि कृतकरण होते हैं। द्र प्रायश्चित्त "कतकरण जीय बहुसो, वेयावच्चा कया कुसला॥ (व्यभा २३८८) जो साध्वी अनेक बार वैयावृत्त्य कर चुकी, वह कृत- करणा है । ऐसी कुशल साध्वी श्रमणसेवा में नियुक्त की जा सकती है। द्र वैयावृत्त्य कृतिकर्म-वंदनाकाल में की जाने वाली क्रियाविधि। | १. कृतिकर्म के प्रकार २. अभ्युत्थान से निष्पन्न गुण __ * सूत्र-अर्थ मण्डली में अभ्युत्थान विधि द्रवाचना ३. परस्पर कृतिकर्म का क्रम ४. रत्नाधिक वन्दनाह : व्यवहारनयसम्मत ___ * ज्येष्ठकृतिकर्म अवस्थित कल्प द्रकल्पस्थिति ५. केवली द्वारा छद्मस्थ की वन्दना : केवली की पहचान ___ * ज्ञानहेतु स्थविर भी कृतिकर्म करे द्रवाचना ६. स्थविरकृत वन्दना से प्रेरणा ७. वंदन कार्य और संघकार्य की इयत्ता ८. श्रेणिस्थित की वंदना के विकल्प * लिंगधारक भी श्रेणिबाह्य द्र श्रमण ९. निरंतर प्रतिसेवी और कृतिकर्म : दृष्टांत १०. कृतिकर्म के अनर्ह | ११. वन्दना के अवश्यकरणीय काल १. कृतिकर्म के प्रकार किइकम्मं पि य दुविहं, अब्भुट्ठाणं तहेव वंदणगं... (बृभा ४४१५) कृतिकर्म के दो प्रकार हैं-अभ्युत्थान और वन्दन। २. अभ्युत्थान से निष्पन्न गुण परपक्खे य सपक्खे, होइ अगम्मत्तणं च उट्ठाणे। सुयपूयणा थिरत्तं, पभावणा निज्जरा चेव॥ (बृभा ४४३९) अभ्युत्थान से पांच गुण निष्पन्न होते हैं१. स्वपक्ष और परपक्ष में अपराजेयता स्थापित होती है। २. गरु की पूजा से श्रत की पजा स्वयं हो जाती है। ३. शिष्यों की विनय-प्रतिपत्ति में स्थिरता आती है। ४. शासन की प्रभावना होती है। ५. निर्जरा होती है। ३. परस्पर कृतिकर्म का क्रम कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा अहाराइणियाए किइकम्मं करेत्तए। (क ३/२०) आयरिय-उवज्झाए, काऊणं सेसगाण कायव्वं ।" (बृभा ४४९६) निग्रंथ-निग्रंथी यथारानिक-बड़े-छोटे के क्रम से कृतिकर्म-वंदना करें। वे प्रतिक्रमण के पश्चात् पहले आचार्यउपाध्याय को फिर शेष साधुओं को वन्दना करें। ४. रत्नाधिक वन्दनार्ह : व्यवहारनयसम्मत पुव्वं चरित्तसेढीठियस्स, पच्छाठिएण कायव्वं । सो पुण तुल्लचरित्तो, हविज्ज ऊणो व अहिओ वा॥ निच्छयओ दुन्नेयं, को भावे कम्मि वट्टई समणो। ववहारओ य कीरइ, जो पुव्वठिओ चरित्तम्मि। (बभा ४५०५, ४५०६) जो पहले सामायिक या छेदोपस्थापनीय चारित्र को स्वीकार कर चारित्रवेणि में स्थित होते हैं, उनके बाद स्थित होने वाले उनका कृतिकर्म करते हैं। पूर्वस्थित साधु पश्चात् स्थित साधु से निश्चय नय की अपेक्षा से चारित्र में न्यून अथवा अधिक भी हो सकता है। निश्चयनय की दृष्टि से कौन श्रमण किस भाव में स्थित है, किसमें चारित्राध्यवसाय मन्द, मध्य या तीव्र हैयह दर्जेय है। व्यवहारनय की अपेक्षा जिसने चारित्र पहले ग्रहण किया, उसका कृतिकर्म करना चाहिए। ५. केवली द्वारा छद्मस्थकी वन्दना : केवली की पहचान ववहारो वि हु बलवं, जं छउमत्थं पि वंदई अरिहा। जा होड अणाभिन्नो, जाणंतो धम्मयं एयं ।। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १८९ कृतिकर्म केवलिणा वा कहिए, अवंदमाणो व केवलिं अन्न। श्रेणिस्थान का अर्थ है सीमास्थान । संयमश्रेणी में स्थित वागरणपुव्वकहिए, देवयपूयासु व मुणंति॥ चार प्रकार के मुनि-प्रत्येकबुद्ध, जिनकल्पिक, शुद्धपरिहारी (बृभा ४५०७, ४५०८) तथा गच्छअप्रतिबद्ध यथालंदिक-कार्य से बाह्य होते हैं। व्यवहारनय भी निश्चित रूप ये बलवान होता है। कार्य के दो प्रकार हैं-वन्दनकार्य और कार्यकार्य। इसके आधार पर केवली भी जब तक वह केवलज्ञानी केवली वन्दनकार्य दो प्रकार का होता है-अभ्युत्थान और कृतिकर्म। के रूप में अनभिजात रहता है, तब तक वह व्यवहारनय की कार्यकार्य का अर्थ है-अवश्य कर्त्तव्यरूप कार्य। इसके बलवत्ता को जानता हआ छद्मस्थ गरु को भी वन्दना करता है। कुलकार्य, गणकार्य, संघकार्य आदि अनेक प्रकार हैं। इन चार स्थानों से केवली केवली के रूप में ज्ञात होता है दोनों प्रकार के कार्यों को प्रत्येकबुद्ध आदि चारों प्रकार के १. दूसरे केवलज्ञानी के द्वारा बताये जाने पर।। मुनि नहीं करते-वे इनसे बाह्य होते हैं। २. दूसरे परिज्ञात केवली को वंदना न करने पर। गच्छप्रतिबद्ध यथालंदिक, आपन्नपरिहारिक, प्रतिमा प्रतिपन्न और साध्वी-ये चार प्रकार के संयमी उपर्युक्त दोनों प्रकार ३. अतिशयज्ञानगम्य अर्थ का व्याकरण करने पर। के कार्यों को करते भी हैं और नहीं भी करते। उनके कार्य करने की ४. सन्निहित देवताओं से पूजित-संस्तुत होने पर। भजना है। ६. स्थविरकृत वन्दना से प्रेरणा कुल, गण और संघ की सुरक्षा या प्रभावना का कोई थेरस्स तस्स किं तू, एद्देहेणं किलेसकरणेणं। __ अनिवार्य प्रयोजन उपस्थित हो गया हो, संघ में दूसरा कोई भण्णति एगत्तुवओग सद्धाजणणं च तरुणाणं॥ साधु उस कार्य को करने में समर्थ न हो, तब ये उस कार्य (व्यभा २३४६) को संपादित करते हैं। श्रुतग्रहण के लिए स्थविर अवमरात्निक आदि को गच्छप्रतिबद्ध यथालंदिक मुनि जिस आचार्य के पास वन्दना करता है। यह देखकर शिष्य ने पूछा-ये वृद्ध मुनि सूत्रार्थ ग्रहण करते हैं, वह चाहे छोटा भी क्यों न हो, उसके प्रति इतना कष्ट क्यों करते हैं ? वंदनकार्य (अभ्युत्थान-कृतिकर्म) करते हैं, शेष साधुओं के गुरु ने कहा-स्थविर मुनि वन्दना-विनयव्यवहार प्रति नहीं करते। इसी प्रकार आपन्नपारिहारिक, प्रतिमाप्रतिपन्न करता हुआ सूत्र-अर्थ के साथ एकत्व उपयोगउपयुक्त और साध्वी के वंदन-विषयक अनेक विकल्प हैं। (दत्तचित्त) होकर सूत्र-अर्थ को सम्यग् ग्रहण करता है। ८. श्रेणिस्थित की वंदना के विकल्प तरुण साधुओं के मन में श्रद्धा उत्पन्न होती है-हमारे महान् अंतो वि होइ भयणा, ओमे आवण्ण संजतीओ य.. दुर्बल-वृद्ध स्थविर भी श्रुतप्रदाता का इतना विनय करते हैं तो __ आपन्नपरिहारिको न वन्द्यते, स पुनराचार्यान् वन्दते। हमें भी श्रुतविनय अवश्य करना चाहिए। ...."संयत्योऽपि उत्सर्गतो न वन्द्यन्ते, अपवादपदे तु यदि ७. वंदन कार्य और संघकार्य की इयत्ता बहुश्रुता महत्तरा काचिदपूर्वश्रुतस्कन्धं धारयति ततसेढीठाणे सीमा, कज्जे चत्तारि बाहिरा होति। स्तस्याः सकाशात् तत्र ग्रहीतव्ये उद्देश-समुद्देशादिषु सा सेढीठाणे दुयभेययाएँ चत्तारि भइयव्वा॥ फेटावन्दनकेन वन्दनीया। (बृभा ४५३५ वृ) पत्तेयबद्ध जिणकप्पिया य सुद्धपरिहारहालंदे। जो संयमश्रेणी के अन्तर्गत मुनि हैं, उनके वन्दनएए चउरो दुगभेदयाएँ, कज्जेसु बाहिरगा॥ विषयक अनेक विकल्प हैं । जो अवमरात्निक मुनि आलोचनागच्छम्मि णियमकजं, कज्जे चत्तारि होंति भइयव्वा। वाचना आदि में नियुक्त है, उसको आलोचना-वाचना के गच्छपडिबद्ध आवण्ण पडिम तह संजतीतो य॥ समय सभी वन्दना करते हैं, अन्यथा नहीं। आपन्नपारिहारिक (बृभा ४५३२-४५३४) अन्य मुनियों द्वारा वन्द्य नहीं होता। वह भी केवल आचार्य Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतिकर्म को वन्दना करता है। साध्वी उत्सर्गत: वन्द्य नहीं होती, किन्तु यदि वह बहुश्रुत महत्तरा हो, अपूर्व श्रुतस्कंध की धारक हो और यदि अन्य मुनि उसके पास उद्देश, समुद्देश आदि ग्रहण करते हों तो वे मुनि उसको फेटा वंदनक देते हैं। ९. निरंतर प्रतिसेवी और कृतिकर्म : दृष्टांत मूलगुण उत्तरगुणे, मूलगुणेहिं तु पागडो होइ । उत्तरगुणपडिसेवी, संचयऽवोच्छेदतो भस्से ॥ अंतो भयणा बाहिं, तु निग्गते तत्थ मरुगदिट्टंतो । संकर सरिसव सगडे, मंडव वत्थेण दिट्टंतो ॥ पक्कणकुले वसंतो, सउणीपारो वि गरहिओ होइ । इय गरहिया सुविहिया, मज्झि वसंता कुसीलाणं ॥ संकिन्नवराहपदे, अणाणुतावी अ होइ अवरद्धे । उत्तरगुणपडवी, आलंबणवज्जिओ वज्जो ॥ १९० शकुनीशब्देन चतुर्दश विद्यास्थानानि तानि चामूनि - अङ्गानि वेदाश्चत्वारो, मीमांसा न्यायविस्तरः । पुराणं धर्मशास्त्रं च स्थानान्याहुश्चतुर्दश ॥ (बृभा ४५२१-४५२४ वृ) संयम श्रेणी में आरूढ़ मुनि दो प्रकार के होते हैंमूलगुणप्रतिसेवी अर्थात् चारित्र के मूलगुणों में दोष लगाने वाले और उत्तरगुणप्रतिसेवी अर्थात् उत्तरगुणों में दोष लगाने वाले । मूलगुणप्रतिसेवी के चारित्र से भ्रष्ट होने पर स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है। उसके प्रति कृतिकर्म करना निषिद्ध है। किन्तु जो उत्तरगुणप्रतिसेवी है, वह दोषों का संचय करते-करते चारित्र से भ्रष्ट होता है। अतः उसका परिज्ञान संभव नहीं है। उसके प्रति कृतिकर्म की भजना है - कृतिकर्म किया भी जाता है और नहीं भी किया जाता। इस विषय में ये दृष्टांत हैं १. संकर दृष्टांत - एक बगीचे को एक सारणी से पानी दिया जाता था। उस सारणी में एक-एक कर संकर (तिनके आदि) इकट्ठे होते गए। किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया। सारणी अवरुद्ध हो गई। पानी अन्यत्र बहने लगा । बगीचा सूख गया। २. सर्षप - शकट - मंडप दृष्टांत - एक शकट अथवा तृणमंडप पर सर्षप के दाने फेंके गए। वे वहीं स्थिर हो गए। दानों के प्रक्षेप का क्रम चलता रहा और कालान्तर में वह शकट और आगम विषय कोश - २ मंडप - दोनों उन सर्षप के दानों के भार से भग्न हो गए। ३. वस्त्र दृष्टांत - एक वस्त्र पर तैल का एक धब्बा लग गया। उसे धोकर साफ नहीं किया गया। और भी तैल के धब्बे लगते गए। प्रक्षालन के अभाव में वह पूरा वस्त्र मलिन हो गया। इसी प्रकार उत्तरगुणप्रतिसेवी मुनि दोषसंचय और निरंतर दोषसेवन के परिणाम से उपरत न होने के कारण धीरेधीरे चारित्र से भ्रष्ट हो जाता है। जो संयमश्रेणि में स्थित है, उसके प्रति कृतिकर्म की भजना है जिसका चारित्र उत्तरगुण संबंधी अनेक अपराधों से मलिन है, जो दोषसेवन कर पश्चात्ताप नहीं करता और पुष्ट आलंबन के बिना प्रतिसेवना करता है, वह कृतिकर्म के योग्य नहीं है। सालंबप्रतिसेवी वन्दनीय है । जो संयमणि से बाह्य है, वह वन्दनीय नहीं है। ४. मरुक दृष्टांत - जो ब्राह्मण शकुनीपारग अर्थात् वेद, वेदांग आदि चौदह विद्यास्थानों - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, ज्योति, निरुक्ति, मीमांसा, आन्वीक्षिकी, धर्मशास्त्र और पुराण का पारगामी है, वह भी मातंग के घर में रहता हुआ लोक में गर्हित होता है। इसी प्रकार सुविहित मुनि भी पार्श्वस्थ आदि कुशीलों के मध्य रहता हुआ गर्हित होता है। १०. कृतिकर्म के अनर्ह सेढीठाणठियाणं, किइकम्मं बाहिरे न कायव्वं । पासत्थादी चउरो ॥ (बृभा ४५१५) चारित्र - श्रेणि संबंधी संयमस्थानों में स्थित साधुओं का कृतिकर्म करना चाहिए। जो श्रेणि बाह्य श्रमण आदि हैं, उनका कृतिकर्म नहीं करना चाहिए। उनके चार प्रकार हैं१. पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त, यथाच्छंद । २. काथिक, प्राश्निक, मामाक, संप्रसारक । ३. अन्यतीर्थिक । ४. गृहस्थ । ११. वन्दना के अवश्यकरणीय काल देसिय राइय पक्खिय, चाउम्मासे तहेव वरिसे य।" (बृभा ४४६७) Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ वन्दना के पांच अवश्यकरणीय काल हैं - १. दैवसिक २. रात्रिक ३. पाक्षिक ४. चातुर्मासिक तथा ५ सांवत्सरिक । इनसे संबंधित वंदनक निश्चित हैं, जिनको यथाविधि न करना प्रायश्चित्त का स्थान है। * कृतिकर्म के पचीस भेद, वंदना के बत्तीस दोष आदि द्र श्रीआको १ वन्दना क्षेत्रप्रतिलेखना – मुनि द्वारा मासकल्प और वर्षावास के योग्य क्षेत्र की गवेषणा । १. क्षेत्रप्रत्युपेक्षा के योग्य-अयोग्य २. क्षेत्रप्रतिलेखना : गण को आमन्त्रण ३. गण को आमन्त्रित नहीं करने के दोष ४. क्षेत्रप्रतिलेखक : दिशा और संख्या * यथालन्दिक द्वारा क्षेत्रप्रतिलेखना द्र यथालंद * गणधर द्वारा साध्वी योग्य क्षेत्र प्रतिलेखना द्रस्थविरकल्प ५. मार्गवर्ती प्रतिलेखना ६. क्षेत्र - प्रवेश - विधि : पौरुषी निषेध ० सूत्र - अर्थपौरुषी का निषेध क्यों ? ७. निर्दोष उपाश्रय की गवेषणा १९१ ८. वर्षावासयोग्य क्षेत्र ० जघन्य मध्यम - उत्कृष्ट वर्षा क्षेत्र • गोरसभावित क्षेत्र उत्कृष्ट क्यों ? ९. आगाढ क्षेत्र १०. प्रत्युपेक्षित क्षेत्र - समीक्षा : आचार्य द्वारा निर्णय * एक द्वार वाले क्षेत्र में रहना निषिद्ध १. क्षेत्र - प्रत्युपेक्षा के योग्य-अयोग्य वेयावच्चगरं बाल वुड्ढ खमयं वहंतऽगीयत्थं । गणवच्छे अगमणं, तस्स य असती य पडिलोमं ॥ सामायारिमगीए, जोगिमणागाढ खमग पारावे । वेयावच्चे दायण, जुयल समत्थं व सहियं वा ॥ (बृभा १४६४, १४७१) छह व्यक्ति क्षेत्र - प्रत्युपेक्षा के अयोग्य हैं१. वैयावृत्त्य करने वाला ३. वृद्ध ५. योगवाही ४. क्षपक ६. अगीतार्थ २. बाल गणावच्छेदक को क्षेत्र - प्रत्युपेक्षा के लिए भेजना द्र शय्या क्षेत्रप्रतिलेखना चाहिए। उसके अभाव में प्रतिलोम (अगीतार्थ, योगवाही आदि) क्रम से भेजना चाहिए। इनको भेजने में भी इस विधि का पालन आवश्यक है अगीतार्थ - इसे ओघनिर्युक्ति की सामाचारी का प्रशिक्षण देकर भेजना चाहिए। योगवाही - अनागाढ़ योगवाही को भेजना चाहिए। क्योंकि वह अपने संकल्प को स्थगित कर सकता है। क्षपक- इसे पारणा कराकर, 'कार्य पूर्ण न हो, तब तक तपस्या नहीं करनी है' ऐसी शिक्षा देकर भेजना चाहिए । वैयावृत्त्यकर - सेवा करने वाला मुनि वहां रहने वाले साधुओं को स्थापनाकुल बताकर फिर वहां से प्रस्थान करे। बाल-वृद्ध - दृढ़शरीरी बाल-वृद्ध युगल जाए अथवा वृषभ के साथ जाए। २. क्षेत्रप्रतिलेखना : गण को आमंत्रण थुइमंगलमामंतण, नागच्छइ जो व पुच्छिओ न कहे।" करी दिसा पसत्था, अमुगी सव्वेसि अणुमए गमणं ।" (बृभा १४६१, १४६३) आचार्य आवश्यक सम्पन्न होने पर तीन बार स्तुतिमंगल करके गण को आमंत्रित करते हैं । बुलाने पर यदि कोई नहीं आता है या प्रत्युपेक्षणीय क्षेत्र के बारे में पूछे जाने पर जानता हुआ भी मौन रहता है, वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। जब सब साधु एकत्रित होते हैं, तब आचार्य पूछते हैंआर्यो ! हमारा मासकल्प पूर्ण हो रहा है, अब अन्य क्षेत्र प्रत्युपेक्षणीय है, अतः सम्प्रति कौन सी दिशा प्रशस्त है ? अमुक दिशा प्रशस्त है - क्षेत्रज्ञायक मुनियों द्वारा ऐसा कहे जाने पर सर्वसम्मति से उस दिशा में प्रस्थान करना चाहिए। ३. गण को आमंत्रित नहीं करने के दोष .....पेसेइ जइ अणापुच्छिउं गणं तत्थिमे दोसा ॥ सीसे जड़ आमंते, पडिच्छगा तेण बाहिरं भावं । जइ इअरे तो सीसा, ते वि समत्तम्मि गच्छंति ॥ तरुणा बाहिरभावं, न य पडिलेहोवहिं न किइकम्मं । मूलगपत्तसरिसगा, परिभूया वच्चिमो थेरा ॥ (बृभा १४५४, १४५७, १४५८) Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्रप्रतिलेखना १९२ आगम विषय कोश-२ गण को बिना पूछे यदि आचार्य क्षेत्रप्रत्युपेक्षक को क्षेत्रप्रतिलेखना के लिए जाने वाले मुनि द्रव्य, क्षेत्र भेजते हैं तो अनेक दोषों की संभावना रहती है। यदि आचार्य काल और भाव से मार्ग की भी प्रतिलेखना करेकेवल अपने शिष्यों को बुलाते हैं, तब प्रतीच्छक शिष्य द्रव्यत:-मार्ग में कण्टक, व्याल, स्तेन, प्रत्यनीक, श्वापद बाह्यभाव को प्राप्त हो जाते हैं। वे सोचते हैं-इनके हर कार्य आदि की जानकारी करे। में अपने ही शिष्य प्रमाण हैं, हम नहीं। जब इनका चित्त क्षेत्रतः-मार्ग सम है या विषम, जलबहुल है या शुष्क, राग-द्वेष से मलिन है, तब इनके पास रहने से क्या? स्थण्डिलभूमी है या नहीं, भिक्षा सुलभ है या नहीं, मार्गवर्ती प्रतीच्छक शिष्यों को बुलाने पर स्वशिष्य बाह्यभाव बस्तियां हैं या नहीं-इन सबकी जानकारी करे। को प्राप्त हो जाते हैं इनके तो प्रतीच्छक शिष्य ही कृपापात्र कालत:-दिन या रात उपद्रव रहित है या नहीं। अथवा दिन हैं। तब हम किसलिए सेवा करें। प्रतीच्छक शिष्य सूत्रार्थ की या रात्रि में मार्ग सुगम है या दुर्गम। वाचना पूर्ण होने पर अपने गण में चले जाते हैं, तब आचार्य भावतः-ग्राम अथवा मार्ग स्वपक्ष-निह्नव आदि से आक्रान्त एकाकी रह जाते हैं। है या परपक्ष-परिव्राजक आदि से। इन सबकी प्रतिलेखना स्थविर शिष्यों को बुलाने पर तरुण शिष्य बाह्य- भाव करता हुआ मुनि अपने लक्षित क्षेत्र में प्रवेश करे। को प्राप्त हो जाते हैं। वे गुरु और स्थविर साधुओं की उपधि ६. क्षेत्र-प्रवेश-विधि : पौरुषी निषेध प्रतिलेखना और कृतिकर्म आदि नहीं करते। केवल तरुणों को सुत्तत्थे अकरिता, भिक्खं काउं अइंति अवरहे। बुलाने पर स्थविर साधु पराभव का अनुभव करते हैं। वे सोचते बीयदिणे सज्झाओ, पोरिसि अद्धाए संघाडो॥ हैं-हम पके हुए पान की तरह अथवा कंदविशेष के पत्ते की तरह निस्सार हैं। अब यहां रहने से क्या? बाले वुड्डे सेहे, आयरिय गिलाण खमग पाहुणए। तिन्नि य काले जहियं, भिक्खायरिया उ पाउग्गा॥ ४. क्षेत्र-प्रतिलेखक : दिशा और संख्या (बृभा १४७९, १४८१) "चउदिसि ति दु एक्कं वा, सत्तगपणगे तिग जहन्ने॥ तिन्नेव गच्छवासी, हवंतऽहालंदियाण दोन्नि जणा।" सूत्र और अर्थ पौरुषी को नहीं करते हुए मुनि विवक्षित (बृभा १४६३, १४७२) क्षेत्र के निकटवर्ती ग्राम में भिक्षा कर अपराह्न में विचारभूमि गच्छवासी मुनि क्षेत्रप्रत्युपेक्षा के लिए चारों दिशाओं के लिए स्थण्डिल की प्रतिलेखना करके उस क्षेत्र में प्रवेश करें। वहां वसति ग्रहण करके प्रतिक्रमण करें। काल की में जाते हैं। अशिव आदि उपद्रव हो तो तीन, दो या एक दिशा प्रतिलेखना करके रात्रिकालीन स्वाध्याय करें। उसके बाद दो में जाते हैं। प्रहर तक शयन करें। दूसरे दिन प्रात:काल स्वाध्याय करके ___एक-एक दिशा में उत्कृष्टतः सात मुनि जाते हैं। अर्द्धपौरुषी व्यतीत होने पर संघाटक भिक्षा के लिए निकले। इसके अभाव में पांच और जघन्यतः तीन मुनि जाते हैं। जहां बाल, वृद्ध, शैक्ष, आचार्य, ग्लान, क्षपक तथा गच्छप्रतिबद्ध यथालन्दिक एक दिशा में दो जाते हैं। शेष तीन दिशाओं में आचार्य की अनुज्ञा से गच्छवासी मुनि । नि प्राघूर्णक के प्रायोग्य भक्त-पान तीनों कालों-पूर्वार्द्ध, मध्याह्न यथालन्दिक के योग्य क्षेत्र की भी प्रत्युपेक्षा करते हैं। तथा सायाह्न में प्राप्त हो, वह क्षेत्र गच्छ के योग्य है। ५. मार्गवर्ती प्रतिलेखना ० सूत्र-अर्थपौरुषी का निषेध क्यों? कंटग तेणा वाला, पडिणीया सावया य दव्वम्मि। . सुत्तत्थाणि करिते, न व त्ति वच्चंतगाउ चोएइ। सम विसम उदय थंडिल, भिक्खायरियंतरा खेत्ते॥ न करिति मा हु चोयग! गुरूण निइआइआ दोसा॥ दिय राओ पच्चवाए, य जाणई सुगम-दुग्गमे काले। (बृभा १४७७) भावे सपक्ख-परपक्खपेल्लणा निण्हगाईया॥ शिष्य ने पूछा-क्षेत्र-प्रतिलेखना के लिए जाते हुए मुनि (बृभा १४७५, १४७६) सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी करते हैं या नहीं? गुरु ने कहा-वे Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ १९३ क्षेत्रप्रतिलेखना नहीं करते, क्योंकि नित्यवास के दोष से बचने के लिए गुरु जहां पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक सुलभ हैं, प्रासुक का अन्यत्र विहार आवश्यक होता है। और यथा-एषणीय भिक्षा सुलभ है, जहां बहुत से श्रमण, ७. निर्दोष उपाश्रय की गवेषणा ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र और भिखारी आये हए नहीं हैं और न जेहिं कया उ उवस्सय, समणाणं कारणा वसहिहेउं। आयेंगे, मार्ग जनाकीर्ण नहीं है-प्राज्ञ मुनि के लिए गमन और परिपुच्छिया सदोसा, परिहरियव्वा पयत्तेणं॥ प्रवेश सुगम है, प्राज्ञ मुनि के वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना, ..."परिपुच्छिय निहोसा, परिभोत्तुं जे सुहं होइ॥ अनुप्रेक्षा, धर्मानुयोगचिन्ता के लिए उपयुक्त स्थान है। वह जेहिँ कया पाडिया, समणाणं कारणा वसहिहेळं। इस प्रकार जानकर वैसे गांव यावत् राजधानी में वर्षाकाल में परिपुच्छिया सदोसा, परिहरियव्वा पयत्तेणं॥ संयमपूर्वक रहे। .."परिपुच्छिय निदोसा, परिभोत्तुं जे सुहं होइ॥ ० जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट वर्षाक्षेत्र (बृभा १४९०-१४९३) चतुग्गुणोववेयं तु, खेत्तं होति जहन्नगं। क्षेत्र में पहुंचकर मुनि पहले उपाश्रय की गवेषणा करते तेरसगुणमुक्कोसं, दोण्हं मज्झम्मि मज्झिमं॥ हैं। गृहस्थों से पृच्छा करके वे यह जान लेते हैं कि यह उपाश्रय महती विहारभूमी, वियारभूमी य सुलभवित्ती य। श्रमणों (तापस, शाक्य, परिव्राजक, आजीवक और निर्ग्रन्थ) के सुलभा वसधी य जहिं, जहण्णगं वासखेत्तं तु॥ रहने के लिए गृहस्थ द्वारा निर्मित है। मुनि उसे सदोष जानकर चिक्खल्ल पाण थंडिल, वसधी गोरस जणाउले वेज्जे। प्रयत्नपूर्वक उस उपाश्रय का परिहार करते हैं। मुनि पृच्छा से ओसधनिययाधिपती, पासंडा भिक्ख-सज्झाए॥ यह जान लेते हैं कि यह उपाश्रय निर्ग्रन्थ को छोड़कर शेष (व्यभा ३८९७-३८९९) श्रमणों के रहने के लिए गृहस्थ द्वारा निर्मित है। मुनि उसे क्षेत्रप्रत्युपेक्षक विधिपूर्वक क्षेत्र की जानकारी करते हैं। क्षेत्र निर्दोष जानकर सुखपूर्वक उसका उपभोग करते हैं। केतीन प्रकार हैं मुनि पृच्छा से यह जान लेते हैं कि मुनि के निमित्त १. जघन्य क्षेत्र-यह क्षेत्र चार गुणों से युक्त होता हैइस उपाश्रय में उपलेपन-धवलन आदि किया गया है। मुनि १. विहारभूमि विशाल हो। २. विचारभूमि की सुविधा हो। उसे उत्तरगुणों से अशुद्ध जानकर प्रयत्नपूर्वक उसका परिहार ३. भिक्षा सुलभ हो। ४. वसति सुलभ हो।। करते हैं। मुनि पृच्छा से यह जान लेते हैं कि निर्ग्रन्थ को मुनि पृच्छा स यह जान लत ह कि निग्रन्थ को २. उत्कृष्ट वर्षाक्षेत्र-जो तेर स्त हो- १. पंकबहुल छोड़कर शेष श्रमणों के निमित्त उपाश्रय में उपलेपन-धवलन न हो। २. सम्मूर्छिम जीवों का उपद्रव न हो। ३. स्थंडिलभूमि आदि किया गया है। मुनि उसे उत्तरगुणों से निर्दोष जानकर एकांत में तथा महास्थंडिलभूमि ईप्सित दिशा में हो। ४. वसति सुखपूर्वक उसका उपभोग करते हैं। सुलभ हो। ५. गोरस की प्रचुरता हो। ६. जनाकुल हो तथा ८. वर्षावासयोग्य क्षेत्र जनता भद्र हो। ७. चिकित्सक भद्र हो। ८. औषध सुलभ _ ...."महती विहारभूमी, महती वियारभूमी, सुलभेजत्थ हो। ९. अन्न-भण्डार प्रचुर हों। १०. शासक भद्र हों। पीढ-फलग-सेज्जा-संथारए, सुलभे फासुए उंछे अहेस ११. अन्य- तीर्थिक कलहकारी न हों। १२. भिक्षा सुलभ णिज्जे, णो जत्थ बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण हो। तृतीय पौरुषी में पर्याप्त भिक्षा मिलती हो और अन्य वणीमगा उवागया उवागमिस्संति य, अप्पाइण्णा वित्तो पौरुषियों में भी वह प्राप्त हो।१३. वसति में और अन्यत्र भी पण्णस्स निक्खमणपवेसाए, पण्णस्स वायण-पुच्छण स्वाध्याय की सुविधा हो। परियट्टणाणुपेह-धम्माणुओग-चिंताए।सेवंणच्चा तहप्पगारं ३. मध्यम क्षेत्र-मध्यम गुणों वाला क्षेत्र । गामं वा जाव रायहाणिं वा, तओ संजयामेव वासावासं ___० गोरसभावित क्षेत्र उत्कृष्ट क्यों? उवल्लिएज्जा॥ (आचूला ३/३) नणु भणिय रसच्चाओ, पणीयरसभोयणे य दोसा उ। जहां विशाल विहारभूमि और विशाल विचारभूमि है, किं गोरसेण भंते!, भण्णति सुण चोयग! इमं तु॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्रप्रतिलेखना १९४ आगम विषय कोश-२ कामं तु रसच्चागो, चतुत्थभंगं तु बाहिरतवस्स। ४. भावागाढ-ग्लान आदि के पथ्य की अप्राप्ति वाला क्षेत्र। सो पुण सहूण जुज्जति, असहूण य सज्जवावत्ती॥ ५. पुरुषागाढ-आचार्य आदि के लिए अकारक क्षेत्र। अगिलाय तवोकम्मं, परक्कमे संजतो त्ति इति वुत्तं। ६. चिकित्सागाढ-वैद्य आदि की दुर्लभता वाला क्षेत्र । तम्हा उ रसच्चाओ, नियमातो होति सव्वस्स॥ ७. सहायागाढ-सहायक के अभाव वाला क्षेत्र । जस्स उ सरीरजवणा, रिते पणीयं न होति साहुस्स। १०. प्रत्युपेक्षित क्षेत्र-समीक्षा : आचार्य द्वारा निर्णय सो वि य हु भिण्णपिंडं, भुंजउ अहवा जधसमाधी॥ पढमाएँ नत्थि पढमा, तत्थयघय-खीर-कूर-दधिमाई। (व्यभा १७७५-१७७८) बिडयाएँ बीय तइयाएँ दो वि तेसिं च धव लंभो॥ शिष्य ने पूछा-गोरस भावित क्षेत्र उत्कृष्ट क्यों? ओभासिय धुव लंभो, पाउग्गाणं चउत्थिए नियमा। आगम तो रस-परित्याग का विधान करते हैं। प्रणीत रस के इहरा वि जहिच्छाए, तिकाल जोगं च सव्वेसिं॥ आहार से कामोद्रेक आदि दोष उत्पन्न होते हैं। इच्छागहणं गुरुणो, कत्थ वयामो त्ति तत्थ ओअरिया। गुरु ने कहा- यद्यपि रसपरित्याग उत्कृष्ट है, शास्त्र- खुहिया भणंति पढम, तं चिय अणुओगतत्तिल्ला॥ विहित है, षड्भेदात्मक बाह्य तप का चौथा भेद है, फिर भी बिइयं सुत्तग्गाही, उभयग्गाही य तइयगं खेत्तं। वह सबके लिए समान रूप से नियमतः करणीय नहीं है। जो आयरिओ उ चउत्थं, सो उ पमाणं हवइ तत्थ॥ समर्थ हैं, सहिष्णु हैं, उन्हीं के लिए उपयुक्त है। जो असमर्थ (बृभा १५२३-१५२६) हैं, दुर्बल हैं, उनकी रस के अभाव में मृत्यु भी हो सकती है। क्षेत्र की प्रतिलेखना करके आने वाले मुनि आचार्य इसीलिए भगवान ने कहा है-'संयमी अग्लानभाव से तप में के समक्ष अपने-अपने क्षेत्र की स्थिति निवेदित करते हैंपराक्रम करे।' प्रथम दिशा (पूर्व) में घृत, दुग्ध, दधि, चावल आदि जो साधु प्रणीत रस के बिना शरीरयापन न कर सके, की उपलब्धि पर्याप्त है किन्तु सूत्रपौरुषी का समय वहां भिक्षा वह भी भिन्नपिण्ड (घृत आदि से मिश्रित गलित पिण्ड) का समय है। दूसरी दिशा (पश्चिम) में घृत, दुग्ध आदि का भोजन करे। अथवा जैसे समाधि हो, वैसे क्षीर आदि का की उपलब्धि पर्याप्त है किन्तु अर्थपौरुषी का समय वहां भोजन करे। भिक्षा का समय है। ९. आगाढ क्षेत्र तीसरी (उत्तर) दिशा में सूत्र पौरुषी और अर्थ पौरुषी आगाढं सप्तधा, तद्यथा-द्रव्यागाढं, क्षेत्रागाढं, निर्बाध हो सकती है। वहां मध्याह्न का समय भिक्षा का समय कालागाढं, भावागाढं, पुरुषागाढं, चिकित्सागाढं, सहाया- है। चतुर्थ (दक्षिण) दिशा में पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न तीनों गाढं। तत्र द्रव्यागाढमेषणीयं द्रव्यं तत्र न लभ्यते। क्षेत्रागाढं ही कालों में बाल, वृद्ध और ग्लान प्रायोग्य भक्त-पान की नाम तदतीव खुलक्षेत्रम्, स्वल्पभैक्षदायकमित्यर्थः ।काला- प्राप्ति याचित अथवा अयाचित अवस्था में हो सकती है। गाढं तत् क्षेत्रं न ऋतुक्षमम्। भावागाढं ग्लानादिप्रायोग्यं तत्र शिष्यों से क्षेत्र की अवगति हो जाने पर आचार्य शिष्यों न लभ्यते। पुरुषागाढमाचार्यादिपुरुषाणां तदकारकम्। से पूछते हैं-आर्यो! बोलो, हमें किस दिशा में जाना चाहिए। चिकित्सागाढं वैद्यास्तत्र न प्राप्यन्ते।सहायागाढं सहायास्तत्र जो औदरिक-प्रथम प्रहर में पर्याप्त आहार करना चाहते न सन्ति । हैं और जो अनुयोगग्रहण में एकनिष्ठ हैं, वे प्रथम दिशा की आगाढ क्षेत्र के सात प्रकार हैं अनुमोदना करते हैं। अर्थपौरुषी के लिए वह क्षेत्र निर्बाध है। १. द्रव्यागाढ-एषणीय द्रव्य की अप्राप्ति वाला क्षेत्र। जो सूत्रपौरुषी के इच्छुक हैं, वे दूसरी दिशा में जाना २. क्षेत्रागाढ-अल्प भिक्षादायक क्षेत्र। चाहते हैं। आचार्य चतुर्थ दिशा में जाना चाहते हैं वहां तीनों ३. कालागाढ-ऋतु के प्रतिकूल क्षेत्र। कालों में रुग्ण-बाल-वृद्ध प्रायोग्य आहार-पानी मिल सकता भास 18 की . Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ सूत्र और अर्थपौरुषी में भी कोई बाधा नहीं है। इन सबमें आचार्य ही प्रमाण होते हैं। गण - परस्पर सापेक्ष अनेक कुलों का समुदाय । गीतत्थउज्जुयाणं, गीतपुरोगामिणं चऽगीताणं । एसो खलु भावगणो, नाणादितिगं च जत्थत्थि ॥ (व्यभा १३६७) १९५ जहां गीतार्थ और गीतार्थनिश्रित अगीतार्थ अपनी शक्ति का गोपन न करते हुए सदा संयम में प्रवर्तमान रहते हैं, वह गण वास्तव में गण है । अथवा जहां ज्ञान, दर्शन और चारित्र - ये तीनों प्रवर्धमान हैं, वह वास्तविक गण है । * गणिविहीन गण नही द्र संघ गणधर - जो आचार्य-तुल्य होता है तथा जो आचार्य के आदेश से साधु संघ को लेकर पृथक् विहरण करता है। गणधर एक पद है। द्र संघ द्र स्थविरकल्प * गणधर : साध्वीवर्ग-व्यवस्थापक. गणावच्छेदक - जो गण के कार्य के विषय में चिन्तन करता रहता है। आचार्य आदि पंचक में से एक । द्र संघ द्र आचार्य द्र क्षेत्रप्रतिलेखना * गणावच्छेदक : न्यूनतम पर्याय श्रुत * गणावच्छेदक द्वारा क्षेत्र प्रतिलेखना * गणावच्छेदक : जिनकल्प के लिए अधिकृत द्र जिनकल्प गणिसम्पदा - आचार्य की संपदा । आचार्य के अतिशय । १. गणिसम्पदा के प्रकार • आचारसम्पदा : संयमध्रुवयोग आदि * आचारविनय : सामाचारी में नियोजन द्र आचार्य २. श्रुतसम्पदा : घोषविशुद्धि आदि ३. शरीरसम्पदा : आरोह- परिणाह आदि * आचार्य सुलक्षण हो ४. वचनसम्पदा के प्रकार ५ वाचना सम्पदा : उद्देशन आदि * वाचना से महानिर्जरा ६. मतिसम्पदा : अवग्रह आदि द्र आचार्य द्रवैयावृत्त्य ● अवग्रह- ईहा - अवायमति : क्षिप्र, बहु • धारणामति के प्रकार ७. प्रयोगसम्पदा : परिषद्परिज्ञान आदि ८. संग्रहपरिज्ञा : क्षेत्र आदि की व्यवस्था १. गणिसम्पदा के प्रकार ...अट्ठविहा गणिसंपदा पण्णत्ता, तं जहा - आयारसंपदा सुतसंपदा सरीरसंपदा वयणसंपदा वायणासंपदा मतिसंपदा पओगसंपदा संगहपरिण्णा णामं अट्ठमा ॥ (दशा ४ / ३ ) गणसंपदा के आठ प्रकार हैं १. आचारसंपदा २. श्रुतसंपदा ३. शरीरसंपदा ४. वचनसंपदा गणिसम्पदा ५. वाचनासंपदा ६. मतिसंपदा ७. प्रयोगसंपदा ८. संग्रहपरिज्ञा । • आचारसम्पदा : संयमधुवयोग आदि ...आयारसंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा - संजम - धुवजोगजुत्ते यावि भवति, असंपग्गहियप्पा, अणियतवित्ती, वुडसीले यावि भवति । ...... ''असंपग्गहितप्पत्ति - अनुत्सेकः, अहमाचार्यो बहुश्रुतस्तपस्वी वा सामायारिकुसलो वा, जात्यादिमदेहि वा अमत्तो । अणिएतवत्तित्ति गामे एगरातिए नगरे पंचरातिए अन्न अन्नाए भिक्खायरियाए अडति चउत्थादीहि वा एषणाविसेसेहि वा जतति । विसुद्धसीलो निहुतसीलो अबालसीलो अचंचलसीलो मज्झत्थसील इत्यर्थः । (दशा ४/४ चू) ......चरणं तु संजमो तू, तहियं निच्वं तु उवउत्तो ॥ आयरिओ उ बहुस्सुत, तवस्सि जच्चादिगेहि व मदेहिं । जो होति अणुस्सित्तो, संपग्गहितो भवे सो उ ॥ अणिययचारि अणिययवित्ती अगिहितो वि होति अणिकेतो। निहुयसभाव अचंचल, नातव्वो वुडसील त्ति ॥ (व्यभा ४०८४-४०८६) आचारसंपदा के चार प्रकार हैं १. संयम ध्रुवयोगयुक्तता - चारित्र में सदा समाधियुक्त होना । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिसम्पदा १९६ आगम विषय कोश-२ २. असंप्रग्रहिता-जाति, श्रुत आदि मदों का परिहार करना। आरोहपरिणाहसंपन्ने यावि भवति, अणोतप्पसरीरे, थिरजैसे—मैं आचार्य हूं, बहुश्रुत हूं, तपस्वी हूं, सामाचारीकुशल संघयणे, बहुपडिपुर्णिणदिए यावि भवति।" (दशा ४/६) हूं-इस प्रकार के अहंकार से मुक्त होना। तवु लज्जाए धातू, अलज्जणीओ अहीणसव्वंगो। ३. अनियतवृत्ति-अनियतविहार । ग्राम में एक दिन तथा नगर ___ होति अणोत्तप्पे सो, अविगलइंदी तु पडिपुण्णे॥ में पांच दिन का प्रवास करना, अन्य-अन्य वीथियों में भिक्षाचर्या करना। उपवास आदि तपस्या करना और एषणासंबंधी (व्यभा ४०९३) अभिग्रहविशेष ग्रहण करना भी अनियतवृत्ति है। अथवा शरीरसंपदा के चार प्रकार हैं- १. आरोह-परिणाहअगही-अनिकेत होना अनियतवृत्ति है। सम्पन्न। २. अनपत्रप-शोभनीय-अलज्जनीय शरीर वाला। ४. वृद्धशीलता-शरीर और मन से निर्विकार होना।। अथवा जिसके सभी अंग अहीन-पूर्ण हो। ३. स्थिर (सुदृढ़) विशुद्धशीलता, निभृतशीलता, अबालशीलता, अचंचलशीलता संहनन वाला। ४. परिपूर्ण और स्वस्थ इन्द्रियों वाला। और मध्यस्थशीलता-ये वृद्धशीलता के पर्याय हैं। आरोह-परीणाहा, चियमंसो इंदिया य पडिपुण्णा। २. श्रुतसम्पदा : घोषविशुद्धि आदि अह ओओ तेओ पुण, होइ अणोतप्पया देहे ॥ ___ सुतसंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-बहुसुते आरोहो नाम-शरीरेण नातिदैy नातिह्रस्वता, यावि भवति, परिचितसुते यावि भवति, विचित्तसुते यावि परिणाहो नाम-नातिस्थौल्यं नातिदुर्बलता; अथवा भवति, घोसविसुद्धिकारए यावि भवति।" (दशा ४/५) आरोहः-शरीरोच्छ्रायः, परिणाहः-बाह्वोर्विष्कम्भः, एतौ बहुसुतजुगप्पहाणे, अभितर-बाहिरं सुतं बहहा। द्वावपि तुल्यौ न हीनाधिकप्रमाणौ। आरोहादिक- मोज होति च सद्दग्गहणा, चारित्तं पी सबहयं पि॥ उच्यते, तद् यस्यास्ति स ओजस्वी।"अलज्जनीयता सगनामं व परिचितं, उक्कमकमतो बहहि विगमेहिं। दीप्तियुक्तत्वेनापरिभूतत्वम्, तद् विद्यते.यस्य स तेजस्वी। ससमय-परसमएहिं, उस्सग्गऽववायतो चित्तं ॥ (बृभा २०५१ वृ) घोसा उदत्तमादी, तेहि विसुद्धं तु घोसपरिसुद्धं । आरोह-न दीर्घता, न बौनापन । अथवा शरीर की उचित ऊंचाई। (व्यभा ४०८८-४०९०) परिणाह-न स्थूलता, न दुर्बलता।अथवा भुजाओं की विशालता। आरोह और परिणाह दोनों तुल्य हों, हीनाधिक प्रमाण में न श्रुतसम्पदा के चार प्रकार हैं हों। जिसका शरीर सुगठित और उपचित हो, इन्द्रियां प्रतिपूर्ण १. बहुश्रुत-युगप्रधान पुरुष, जो अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य आगमों का परिज्ञाता होता है तथा जिसके चारित्रपर्यव बहुत हों तथा जो आरोह-परिणाहसम्पन्न हो, वह ओजस्वी है। जो शरीर से अलज्जनीय हो, दीप्तियुक्त होने से २. परिचितश्रुत-जो अपने नाम की तरह श्रुत से परिचित अनभिभवनीय हो, वह तेजस्वी है। होता है, क्रम-उत्क्रम के विविध प्रकारों से श्रुतपरावर्तन में माणुम्माणयमाणं, लेहसत्तवपुअंगमंगाई। दक्ष होता है। मणिबंधाओ पवत्ता, अंगुढे जस्स परिगता लेहा। ३. विचित्रश्रुत-स्वसमय-परसमयवक्तव्यता में निपुण तथा सा कुणति धणसमिद्धं, लोगपहाणं च आयरियं॥ उत्सर्ग-अपवादसूत्रों की विचित्रता को जानने वाला। सत्तं अदीणता खलु, वपुतेओ जस्स ऊ भवइ देहे। ४. घोषविशुद्धिकारक-जिसका घोष उदात्त-अनुदात्त-स्वरित अंगा वा सुपइट्ठा, लक्खण सिरिवच्छमादीणि इतरे॥ से विशुद्ध है, जो शिष्यों को स्पष्ट सूत्र उच्चारण का अभ्यास (निभा ५९७७, ५९८०, ५९८१) कराने में कुशल है। शरीर के कुछ लक्षण ये हैं३. शरीरसम्पदा : आरोह-परिणाह आदि ० मान-उन्मान-प्रमाण युक्त शरीर। द्र शरीर .."सरीरसंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा- ० रेखा-मणिबंध से अंगुष्ठपर्यंत रेखा, जो गण, ज्ञान आदि निर्मल होते हैं। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ की समृद्धि में हेतुभूत होती है और उससे आचार्य को सुयश प्राप्त होता है - वे लोकमान्य पुरुष बन जाते हैं । ० सत्त्व - महान् संकटकाल में भी अदीन । ० वपु - तेजस्वी आभा वाला शरीर । ० • अंगोपांग - सुप्रतिष्ठित-सुसंस्थित अवयव । ० लक्षण - श्रीवत्स, स्वस्तिक आदि लक्षणों और तिल आदि व्यंजनों से युक्त शरीर । ४. वचनसम्पदा : आदेयवचन आदि ....... वयणसंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहाआदिज्जवणे यावि भवति, महुरवयणे यावि भवति, अणिस्सियवयणे यावि भवति, असंदिद्धभासी यावि भवति ॥ (दशा ४/७ चू) ......आदेज्जगज्झवक्को, अत्थवगाढं भवे मधुरं ॥ अहवा अफरुसवयणो, खीरासवमादिलद्धिजुत्तो वा । निस्सियकोधादीहिं, अहवा वी रागदोसेहिं ॥ अव्वत्तं अफुडत्थं, अत्थबहुत्ता व होति संदिद्धं । विवरीयमसंदिद्धं, वयणेसा संपया चउहा॥ (व्यभा ४०९५-४०९७) वचनसंपदा के चार प्रकार हैं - १. आदेयवचन - जिसका वचन सबके लिए ग्राह्य होता है । २. मधुरवचन - इसके तीन अर्थ हैं - अर्थयुक्तवचन । अपरुषवचन - जो वचन रूखा और कठोर नहीं होता। क्षीरास्रव आदि लब्धियों से युक्त वचन । ३. अनिश्रितवचन - इसके दो अर्थ हैं- जो वचन क्रोध से उत्पन्न न हो। जो वचन राग-द्वेष आदि से उत्पन्न न हो। ४. असंदिग्धवचन - इसके तीन अर्थ हैं— सर्वभाषाविशारद अथवा व्यक्त वचन वाला। स्पष्ट वचन बोलने वाला। निर्णायक शब्द का प्रयोग करने वाला । १९७ अव्यक्त, अस्पष्ट अर्थ वाला और अनेक अर्थों वाला वचन संदिग्ध वचन है । ५. वाचनासम्पदा : उद्देशन आदि ......वायणासंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहाविजयं उद्दिसति, विजयं वाएति, परिनिव्वावियं वाएति, अत्थनिज्जव यावि भवति ।...... गणिसम्पदा विजयं उद्दिसति - विचिन्त्य विचिन्त्य जो जस्स जोगो तं तस्स उद्दिसति सुत्तमत्थं वा । परिणामिगादि परिक्खति – अभायणं न वाएति, जहा अपक्कमट्टियभायणे अंबभायणे वा खीरं न छुब्भति, जइ छुब्भइ विणस्सति । विजयं वाएति जत्तियं तरति । सो गिण्हितुं परिणिव्वविया जाधे से परिजितः ताहे से अण्णं उद्दिसति जाहकवत् । अत्थजिव-अर्थाभिज्ञो अत्थेण वा तं सुत्तं निव्वहति । अत्थं पितरस कधेति, गीतत्यत्ति भणितं भवति । (दशा ४/८ चू) वाचनासंपदा (अध्यापन कौशल) के चार प्रकार हैं१. विदित्वोद्देशन - शिष्य की योग्यता को जानकर उद्देशन करना। शिष्य परिणामी है या नहीं - इसका परीक्षण कर अपात्र को वाचना न देना । अपक्व मिट्टी के भाजन में या आम्लपात्र में दूध नहीं डाला जाता, यदि डाला जाता है, तो वह नष्ट हो जाता है । T २. विदित्वावाचना - योग्यता के आधार पर समुद्देशन करना । ३. परिनिर्वाप्य वाचना- पहले दी गई वाचना को पूर्ण हृदयंगम कराकर आगे की वाचना देना । जैसे जाहक (सैला) दुग्ध पात्र में से थोड़ा-थोड़ा दूध पीकर उसके किनारे चाटता रहता है, जिससे दूध की एक भी बूंद नीचे नहीं गिरती । ४. अर्थनिर्यापणा - सूत्र के अर्थ और उसके पौर्वापर्य का बोध कराकर शिष्य को गीतार्थ बनाना । ६. मतिसम्पदा : अवग्रह आदि ....मतिसंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा - -ओग्गहमतिसंपदा, ईहामतिसंपदा, अवायमतिसंपदा, धारणामतिसंपदा ॥ (दशा ४ / ९ ) मतिसंपदा के चार प्रकार हैं- १. अवग्रहमतिसंपदा २. ईहामतिसंपदा ३. अवायमतिसंपदा ४. धारणामतिसंपदा । ० अवग्रह - ईहा - अवायमति : क्षिप्र, बहु..... ..... ओग्गहमती छव्विहा पण्णत्ता, तं जहा - खिप्पं ओगिहति, बहुं ओगिण्हति, बहुविहं ओगिण्हति, धुवं ओगिण्हति, अणिस्सियं ओगिण्हति, असंदिद्धं ओगिण्हति । एवं ईहामती वि, एवं अवायमती वि ॥ खिप्पं ओगिण्हति - उच्चारितमात्रमेव सिस्से पुच्छंते Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिसम्पदा परपवादीण वा'' उच्चारितमात्रं । बहुगं पंचछ - ग्गगंथसयाणि । बहुविधं नाम लिहति पहारेइ गणेति, अक्खा-णयं कहेति, अगेहि वा उच्चारितं अवगेण्हति । धुवं ण विसारेति । अणिस्सियं न पोत्थयलिहियं अहवा सोउं .....। असंदिग्धं न संकितं । (दशा ४ / १० चू) सीसेण कुतित्थीण व उच्चारितमेत्तमेव ओगिरहे । तं खिप्पं बहुगं पुण, पंच व छस्सत्तगंथसया ॥ बहुविह णेगपयारं, जह लिहतिऽवधारए गणेति विय। अक्खाणगं कहेती, सद्दसमूहं व णेगविहं ॥ न विविस्सरति धुवं तू, अणिस्सितं जन्न पोत्थए लिहियं । अणभासियं च गेण्हति णिस्संकित होतेऽसंदिद्धं ॥ (व्यभा ४१०६ - ४१०८) अवग्रहमति के छह प्रकार हैं १. क्षिप्र अवग्रहण - शिष्य अथवा परवादी आदि के उच्चारण मात्र से ग्रहण कर लेना । २. बहु अवग्रहण - एक साथ बहुत ग्रहण करना। पांच सौ, छह सौ सात सौ श्लोकों को एक साथ ग्रहण करना । ३. बहुविध अवग्रहण - लेखन, दूसरे के द्वारा कथित वचनों का अवधारण, गणना, आख्यान-कथन आदि अनेक क्रियाओं का एक साथ अथवा अनेक व्यक्तियों द्वारा उच्चारित शब्दों का एक साथ अवग्रहण करना । ४. ध्रुव अवग्रहण - चिरकाल तक विस्मृत न करना । ५. अनिश्रित अवग्रहण - पुस्तक, संभाषण आदि का सहारा लिए बिना ग्रहण करना । ६. असंदिग्ध अवग्रहण - निःशंकित करना । ईहा और अवाय के भी ये ही छह-छह भेद हैं। • धारणामति के प्रकार ....धारणामती छव्विहा पण्णत्ता, तं जहा - बहुं धरेति, बहुविधं धरेति, पोराणं धरेति, दुद्धरं धरेति, अणिस्सियं धरेति, असंदिद्धं धरेति ।'''''' (दशा ४/११) १९८ धारणामति के छह प्रकार हैं - १. बहुधारण - विपुलश्रुत को धारण करना । २. बहुविधधारण - अनेकविध श्रुतपाठ का एक साथ अवधारण करना । आगम विषय कोश - २ १३. पुराण धारण- -पूर्व पठित पाठ को धारण करना । ४. दुर्धर धारण - भंगों से गहन पाठ का अवधारण करना । ५. अनिश्रित धारण - बिना किसी अपर आलंबन के स्वयं अवधारण करना । ६. असंदिग्ध धारण-पाठ को असंदिग्ध रूप में धारण करना। ७. प्रयोगसम्पदा : परिषद् परिज्ञान आदि ......पओगसंपदा चडव्विहा पण्णत्ता, तं जहा- आतं विदाय वादं परंजित्ता भवति, परिसं विदायखेत्तं विदाय ...वत्थं विदाय वादं परंजित्ता भवति ।" (दशा ४/१२) वत्थं परवादी ऊ, बहुआगमितो न वावि णाऊणं । राया व रायऽमच्चो, दारुणभद्दस्सभावो त्ति ॥ (व्यभा ४११५) प्रयोगसंपदा के चार प्रकार हैं १. आत्मपरिज्ञान- वाद-प्रयोग में अपने सामर्थ्य का परिज्ञान । २. परिषद् परिज्ञान - परिषद् या वादी के मत का ज्ञान । ३. क्षेत्रपरिज्ञान - वाद करने के क्षेत्र का परिज्ञान । ४. वस्तुपरिज्ञान - वाद - काल में निर्णायक के रूप में स्वीकृत सभापति आदि का ज्ञान। परवादी अनेक आगमों का ज्ञाता है या नहीं तथा राजा, अमात्य आदि कठोर स्वभाव वाले हैं अथवा भद्र स्वभाव वाले - यह जानना वस्तुपरिज्ञान है। ८. संग्रहपरिज्ञा : क्षेत्र आदि की व्यवस्था गुरुं संपूता भवति । ..... संगहपरिण्णासंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहाबहुजणपाओग्गताए वासावासासु खेत्तं पडिलेहित्ता भवति, बहुजणपाओग्गताए पाडिहारियपीढफलगसेज्जा- संथारयं ओगेण्हित्ता भवति । कालेणं कालं समाणइत्ता भवति, (दशा ४ / १३) वासे बहुजणजोगं, वित्थिण्णं जं तु गच्छपायोग्गं । अहवावि बाल-दुब्बल-गिलाण - आदेसमादीणं ॥ खेत्तऽसति असंगहिया, ताधे वच्चंति ते उ अन्नत्थ । न उ मइलेंति निसेज्जा, पीढगफलगाण गहणम्मि ॥ वितरे न तु वासासुं, अन्ने काले उ गम्मतेऽण्णत्थ । पाणा सीतल - कुंथादिया य तो गहण वासासुं ॥ जं जम्मि होति काले, कायव्वं तं समाणए तम्मि । सज्झायपेहउवधी, उप्पायण भिक्खमादी य ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ जेण पव्वावितो उ जस्स व अधीत पासम्मि । अधागुरू अथवा अधागुरू खलु हवंति रातीणियतरा उ ॥ तेसिं अब्भुवाणं, दंडग्गह तह य होति आहारे । उवधीवहणं विस्सामणं च संपूयणा एसा ॥ (व्यभा ४११८ - ४१२३) संग्रहपरिज्ञा संपदा (संघव्यवस्था कौशल) के चार प्रकार हैं १. बहुजनप्रायोग्यक्षेत्र — वर्षावास में ऐसे क्षेत्र की प्रतिलेखना करना, जो विस्तीर्ण और समूचे संघ - बाल, दुर्बल, ग्लान, तपस्वी, आचार्य, प्राघूर्णक आदि के लिए उपयुक्त हो। ऐसे क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा न करने से योगवाही साधुओं का संग्रह नहीं हो सकता और वे दूसरे गच्छों में भी जा सकते हैं। २. पीठ - फलक संप्राप्ति - प्रातिहारिक (लौटाने योग्य) पीठफलक, शय्या - संस्तारक आदि की उचित व्यवस्था करना । वर्षाकाल में मुनि अन्यत्र विहार नहीं करते तथा उस समय वस्त्र आदि भी नहीं लेते। वर्षाकाल में पीठ-फलक के ग्रहण के बिना संस्तारक आदि मैले हो जाते हैं तथा भूमि की शीतलता से कुन्थु आदि जीवों की उत्पत्ति भी होती है । ३. कालसमानयन—यथासमय स्वाध्याय, उपधि की प्रत्युपेक्षा, भिक्षाटन आदि की व्यवस्था करना । ४. गुरु- पूजा - यथोचित विनय की व्यवस्था बनाए रखना । प्रव्रज्या देने वाले, अध्यापन करने वाले और दीक्षापर्याय में बड़े मुनि - इन तीनों प्रकार के गुरुओं की पूजा करना अर्थात् उनके आने पर खड़े होना, उनके दंड (यष्टि) को ग्रहण करना, उनके योग्य आहार का संपादन करना, विहार में उपकरणों का वहन तथा उनकी विश्रामणा आदि रूप वैयावृत्त्य करना । गीतार्थ - सूत्रार्थ का ज्ञाता मुनि । बहुश्रुत । १. गीतार्थ कौन ? २. गीतार्थ - बहुश्रुत के प्रकार • बहुश्रुत नियमतः चिरप्रव्रजित ० बहुसूत्र - श्रुतबहुश्रुत- बहुआगम ३. अबहुश्रुत की गीतार्थता....... * 'बहुश्रुत - गीतार्थ की चतुर्भंगी... 'अबहुश्रुत-अगीतार्थ आचार्य ........ * आचार्य के प्रकार : गीतार्थ........ * १९९ द्र आचार्य ४. गीतार्थ : कालज्ञ और उपायज्ञ ५. गीतार्थ और केवली : प्रज्ञप्ति में तुल्य ६. गीतार्थ और कृतयोगी में अंतर * गीतार्थ का गीतार्थं के साथ व्यवहार * गीतार्थ ही गणावच्छेदक * स्थापनाकुल और गीतार्थ * अनशन में गीतार्थ की मार्गणा * गीतार्थ और विहार * जिनकल्प आदि और गीतार्थ * दर्पिका प्रतिसेवना से अगीतार्थ * गीतार्थ और प्रायश्चित्त गणिसम्पदा ] द्र व्यवहार द्र संघ द्र स्थापनाकुल द्र अनशन द्र विहार द्र प्रतिसेवना द्र प्रायश्चित्त १. गीतार्थ कौन ? गीयं मुणितेग, विदियत्थं खलु वयंति गीयत्थं । गएण य अत्थेण य, गीयत्थो वा सुयं गीयं ॥ गीण होइ गीई, अत्थी अत्थेण होइ नायव्वो ।... ......परिज्ञातोऽर्थः छेदसूत्रस्य येन तं विदितार्थं खलु वदन्ति गीतार्थम् । सूत्रधरो नामैको नार्थधरः १ । अर्थधरो नामैको न सूत्रधरः २ । एकः सूत्रधरोऽप्यर्थधरोऽपि ३ |------ तृतीयभंगवर्त्येव तत्त्वतो गीतार्थशब्दमविकलमुवोढुमर्हति । (बृभा ६८९, ६९० वृ) गीत, मुणित और परिज्ञात एकार्थक हैं। जो छेदसूत्रों के अर्थ को जानता है, वह निश्चित रूप से गीतार्थ है । अथवा गीत का अर्थ है सूत्र । जो गीत को सम्यक् प्रकार से जान लेता है, वह गीती है। जो अर्थ को सम्यक् प्रकार से लेता है, वह अर्थी है। जो सूत्र और अर्थ - दोनों को जानता है, वह गीतार्थ होता है। सूत्र - अर्थधर के तीन भंग हैं - १. एक सूत्रधर है, अर्थधर नहीं । २. एक अर्थधर है, सूत्रधर नहीं । ३. एक सूत्रधर भी है, अर्थधर भी है। तृतीय भंगवर्ती मुनि ही वस्तुतः गीतार्थ शब्द की अविकल अर्थवत्ता को वहन करने योग्य है । traणसी अगीयत्थो सुत्तेण अव्वत्तो, सुत्तेण गीयत्थो वत्तो । (निभा २७३६ की चू) जिसने निशीथसूत्र नहीं पढ़ा, वह अगीतार्थ सूत्र से Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतार्थ २०० आगम विषय कोश-२ अव्यक्त होता है। गीतार्थ सूत्र से व्यक्त होता है। प्रवजितस्य निशीथमुद्दिश्यते, पञ्चवर्षप्रव्रजितस्य कल्प जातकप्पिओ णाम गीतत्थो, अजातकप्पिओ व्यवहारौ, विंशतिवर्षप्रव्रजितस्य दृष्टिवादः। अगीतत्थो। (बृभा ६९४ की चू) (बृभा ४०३, ४०४ वृ) गीतार्थ वह है, जो जातकल्पिक है-छेदसूत्र के अर्थ चिरप्रव्रजित के तीन प्रकार हैंको धारण कर अग्रिम आगमसूत्रों का अध्ययन करने तथा जघन्य-तीन वर्ष के मुनिपर्याय वाला। पिंडैषणा आदि अध्ययनों को पढकर पिंड आदि ग्रहण करने मध्यम-पांच वर्ष के मनिपर्याय वाला। योग्य हो गया है। जो अजातकल्पिक है, वह अगीतार्थ है। उत्कृष्ट–बीस वर्ष के मुनिपर्याय वाला। वस्त्रपात्रपिण्डशय्यैषणाध्ययनादि छेदसत्राणि च बहुश्रुत निश्चितरूप से चिरप्रव्रजित होता है। तीन वर्ष सत्रतोऽर्थतः तदभयतो वा येन सम्यगधीतानि स गीतार्थः। पर्याय वाले को निशीथ, पांच वर्ष पर्याय वाले को कल्प-व्यवहार (व्यभा १०८ की वृ) और बीस वर्ष पर्याय वाले को दृष्टिवाद पढ़ाया जाता है। जिसने आचारचूला के वस्त्रैषणा, पात्रैषणा, पिण्डैषणा, ० बहुसूत्र-श्रुतबहुश्रुत-बहुआगम शय्या आदि अध्ययनों तथा छेदसूत्रों का सूत्रतः, अर्थतः अथवा बहुकालोचितं सूत्रं आचारादिकं यस्य स बहुसूत्रो। सूत्रार्थतः सम्यक् अध्ययन किया है, वह गीतार्थ है। गीतार्थो विदितसूत्रार्थः। (व्यभा १४४२ की वृ) २. बहुश्रुत और गीतार्थ के प्रकार जिसने श्रुताध्ययनपरिपाटी से आचारांग अदि बहुत से तिविहो बहुस्सुओखलु, जहण्णओ मज्झिमो उ उक्कोसो। सूत्रा सूत्रों को कण्ठस्थ कर लिया है, वह बहुसूत्र है। जो सूत्रों के . आयारपकप्पे कप्प नवम-दसमे य उक्कोसो॥ ___ अर्थ को भी जानता है, वह गीतार्थ है। __ (बृभा ४०२) , ___यस्याबह्वपि श्रुतं न विस्मृतिपथमुपय ति य श्रुतबहुश्रुत के तीन प्रकार हैं बहुश्रुतः। ___ (व्यभा ४५०८ की वृ) १. जघन्य बहुश्रुत-आचारप्रकल्प (निशीथ) का ज्ञाता। जो बहुत सूत्रों को सुनकर भी विस्मृत नहीं करता, २. मध्यम बहुश्रुत-कल्प-व्यवहार को धारण करने वाला। वह श्रुतबहुश्रुत है। ३. उत्कृष्ट बहुश्रुत-नौपूर्वी-दसपूर्वी मुनि। बहुरागमोऽर्थरूपो यस्य स बह्वागमः। आयारपकप्पधरा, चउदसपुव्वी अजे अतम्मज्झा. ___ (व्यभा १४७९ की वृ) "निशीथाध्ययनधारिणो जघन्या गीतार्थाः"कल्प- जो अनेक अर्थागमों का ज्ञाता है, वह बह्वागम है। व्यवहार-दशाश्रुतस्कन्धधरादयो मध्यमाः। * सूत्रकल्पिक-अर्थकल्पिक द्र सूत्र (बृभा ६९३ वृ) ३. बहुश्रुत तथा अबहुश्रुत की गीतार्थता, अगीतार्थता गीतार्थ के तीन प्रकार हैं-१. जघन्य-आचारप्रकल्प अबहुश्रुतो नाम येनाऽऽचारप्रकल्पाध्ययनं नाधीतं धर। २. मध्यम-कल्प, व्यवहार, दशा आदि का धारक। अधीतं वा परं विस्मारितम्, अगीतार्थः येन च्छेदश्रुतार्थो न ३. उत्कृष्ट-चतुर्दशपूर्वी मुनि। गृहीतो गृहीतो वा परं विस्मारितः ।... ० बहुश्रुत नियमतः चिरप्रवजित ___ इह चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा-अबहुश्रुतो नामैकोचिरपव्वडओ तिविहो. जहण्णओ मज्झिमो य उक्कोसो। गीतार्थश्च, अबहुश्रुतो गीतार्थः बहुश्रुतोऽगीतार्थः, बहुश्रुतो तिवरिस पंचग मज्झो, वीसतिवरिसो य उक्कोसो॥ गीतार्थश्च । प्रमादादिना सूत्रं विस्मृतम् अर्थं पुनः स्मरतीबहुसुय चिरपव्वइओ. ..। त्यबहुश्रुतस्य गीतार्थत्वम्, यद्वा आज्ञाधारणादिमात्रव्यवयो बहुश्रुतः स नियमाच्चिरप्रवजित: येन त्रिवर्ष- हारेणाबहुश्रुतस्यापि गीतार्थत्वम्,ऽऽचारप्रकल्पाध्ययनं Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ सूत्रतोऽधीतं न पुनरर्थतः श्रुत्वा सम्यगधिगतमिति बहुश्रुतस्यागीतार्थत्वम् । (बृभा ७०३, ७०८ की वृ) जिसने आचारप्रकल्प का अध्ययन नहीं किया हो या अध्ययन कर भूल गया हो, वह अबहुश्रुत है। जिसने छेदसूत्र को अर्थ सहित ग्रहण न किया हो या ग्रहण कर भूल गया हो, वह अगीतार्थ है । बहुश्रुत - गीतार्थ के सन्दर्भ में चार विकल्प हैं १. अबहुश्रुत - अगीतार्थ २. अबहुश्रुत - गीतार्थ ३. बहुश्रुत - अगीतार्थ ४. बहुश्रुत - गीतार्थ प्रमाद से सूत्र विस्मृत हो गया किन्तु अर्थ याद है, अथवा जो आज्ञा, धारणा आदि का मात्र व्यवहार करता है, यह अबहुश्रुत की गीतार्थता है। जिसने आचारप्रकल्प का अध्ययन सूत्रतः किया हो, अर्थतः सुनकर सम्यग् ग्रहण न किया हो, यह बहुश्रुत की अगीतार्थता है । ४. गीतार्थ कालज्ञ और उपायज्ञ सुहसाहगं पि कज्जं, करणविहूणमणुवायसंजुत्तं । अन्नाय देस- काले, विवत्तिमुवजाति सेहस्स ॥ नक्खेणावि हु छिज्जइ, पासाए अभिनवुट्ठितो रुक्खो । दुच्छेज्जो वडुंतो, सो च्च्यि वत्थुस्स भेदाय ॥ जो य अणुवायछिन्नो, तस्सइ मूलाइँ वत्थुभेदाय । अहिनव उवायछिन्नो, वत्थुस्स न होइ भेदाय ॥ संपत्ती य विपत्ती, य होज्ज कज्जेसु कारगं पप्प । अणुवात विवत्ती, संपत्ती कालुवाएहिं ॥ इय दोसा उ अगीए, गीयम्मि उ कालहीणकारिम्मि । गीयत्थस्स गुणा पुण, होंति इमे कालकारिस्स ॥ आयं कारण गाढं, वत्थं जुत्तं ससत्ति जयणं च । सव्वं च सपडिवक्खं, फलं च विधिवं वियाणाइ ॥ आयरियाई वत्थं, तेसिं चिय जुत्त होइ जं जोग्गं । गीय परिणामगा वा, वत्थं इयरे पुण अवत्थं ॥ (बृभा ९४४ - ९४६, ९४९ - ९५१, ९५५) जो शैक्ष कार्यविधि से अनजान है, उचित देश और काल में कार्य प्रारंभ नहीं करता, उसका प्रयत्न-विहीन और अनुपाय से संयुक्त सुखसाध्य कार्य भी निष्पन्न नहीं होता । २०१ गीतार्थ प्रासाद में उगे हुए अभिनव वृक्ष का नख से भी छेदन किया जा सकता है। वही वृक्ष जब शाखा प्रशाखाओं से विस्तार पा लेता है तब वह दुश्छेद्य हो जाता है। उसकी वृद्धि प्रासाद का भेदन कर सकती है। जो समूल छिन्न नहीं है, तो उसकी जड़ें भी प्रासाद को भेद सकती है। अभिनव वृक्ष को समूल छिन्न करने पर प्रासाद सुरक्षित रहता है। कर्त्ता के अनुरूप ही कार्य की सिद्धि और असिद्धि होती । कर्त्ता उपायज्ञ नहीं है तो कार्य की सिद्धि नहीं होती । कर्त्ता कालज्ञ और उपायज्ञ है तो कार्य सिद्ध हो जाता है। अगीतार्थ या हीन अधिक काल में कार्य करने वाला गीतार्थ किसी कार्य को निष्पन्न नहीं कर पाता। जो गीतार्थ उचित उपायों से उचित काल में कार्य करता है, उसमें निम्न गुण होते हैं गीतार्थ उत्सर्ग - अपवाद आदि विधियों को जानता है । वह जानता है कि किस कार्य में अधिक लाभ है ? कौन से कार्य की प्रयोजनीयता है ? ग्लानत्व आदि आगाढ़ कारणों में प्रतिसेवना की औचित्य-सीमा क्या है ? वह वस्तु (परिणामक साधु) को जानता है, उसके धृति और संहनन के सामर्थ्य को जानता है, एषणीय द्रव्य ग्रहण की यतना को जानता है तथा कार्य-अकार्य की निष्पत्ति को भी जानता है । वह अलाभ, अकारण, अनागाढ, अवस्तु (अपरिणामक आदि), अयुक्त, अशक्त और अयतना- इन प्रतिपक्षों को भी जाता है। आचार्य आदि प्रधान पुरुष तथा गीतार्थ- परिणामक साधु को वस्तु कहा जाता है। शेष अगीतार्थ, अपरिणामक आदि सब अवस्तु कहलाते हैं । समयज्ञ गीतार्थ इन सब के प्रायोग्य आहार, औषध, स्थान आदि की युक्तता - अयुक्तता को जानता है। ५. गीतार्थ और केवली : प्रज्ञप्ति में तुल्य सव्वं नेयं चउहा, तं वेइ जिणो जहा तहा गीतो । चित्तमचित्तं मीसं, परित्तऽणतं च लक्खणतो ॥ कामं खलु सव्वन्नू, नाणेणऽहिओ दुवालसंगीतो । पन्नत्तीइ उ तुल्लो, केवलनाणं जओ मूयं ॥ (बृभा ९६२, ९६३) Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतार्थ उत्कृष्ट बहुश्रुत गीतार्थ केवली की भांति होता है । सारा ज्ञेय चार प्रकार का होता है- द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। जैसे केवली चतुर्विध ज्ञेय तथा सचित्त - अचित्त-मिश्रपरीत अनन्त वनस्पति को लक्षण से जानता है, प्रज्ञापित करता है, वैसे ही श्रुतधर श्रुत के आधार पर जानता है, प्ररूपित करता है। यद्यपि केवली द्वादशांगविद् - श्रुतकेवली से ज्ञान में अधिक होता है, यह सही है परन्तु प्रज्ञप्ति में वह श्रुतकेवली के तुल्य होता है। जो भाव श्रुतज्ञान के विषयभूत नहीं हैं, केवल उन्हें जान सकता है किन्तु वह भी उनकी प्रज्ञापना नहीं कर सकता क्योंकि केवलज्ञान मूक है। * द्र श्रीआको १बहुश्रुत 'बहुश्रुत: शंख आदि की उपमा ६. गीतार्थ और कृतयोगी में अंतर श्रुतार्थप्रत्युच्चारणासमर्थः कृतयोगी । यस्तु श्रुतार्थप्रत्युच्चारणसमर्थः स गीतार्थः । (निभा ३००१ की चू) कृतयोगी – जो श्रुत-अर्थ के प्रत्युच्चारण में समर्थ नहीं है। गीतार्थ—जो श्रुतार्थ के प्रत्युच्चारण में कुशल है। सूत्रोपदेशेन मोक्षाविराधीकृतो न्यस्तो योगो मनोवाक्कायव्यापारात्मकः स कृतयोगः स येषामस्ति ते कृतयोगिनः । बहुश्रुताः प्रकीर्णकानामपि सूत्रार्थधारणात् । (व्यभा १४७८ की वृ) सूत्रोपदेश के अनुरूप मोक्षहेतु मन-वचन-काया का विराधनाविहीन प्रवृत्त्यात्मक विन्यास कृतयोग है। जो उसमें संलग्न है, वह कृतयोगी है। बहुश्रुत प्रकीर्णकों के सूत्रार्थ को भी धारण करता है। गुप्ति-असत् प्रवृत्ति से निवर्तन । योगनिग्रह । गुत्तिंदिय सोतिंदियविसयपयारनिरोधो वा सोतिंदिप्पत्सु वा अत्थेसु रागदोसनिग्गहो। एवं पंचण्ह वि । (दशा ५/७ की चू) गुप्तेन्द्रिय के दो अर्थ हैं ० • शब्द आदि पांचों इन्द्रियविषयों की प्रवृत्ति का निरोध । जो इन्द्रियों को प्राप्त विषय हैं, उनमें राग-द्वेष का निग्रह । ( गुप्ति तीन प्रकार की है – मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति । संयत मनुष्य के तीनों ही गुप्तियां होती हैं। आगम विषय कोश - २ अगुप्ति तीन प्रकार की है— मनअगुप्ति, वचनअगुप्ति, कायअगुप्ति । नैरयिक, दस भवनपति, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक, असंयत मनुष्य, वानमंतर, ज्योतिषी तथा वैमानिक देवों में तीनों ही अगुप्तियां होती हैं । २०२ गुप्त का शाब्दिक अर्थ है - रक्षा। मन, वचन और काय के साथ योग होने पर इसका अर्थ होता है-मन, वचन और काय की अकुशल प्रवृत्तियों से रक्षा और उनका कुशल प्रवृत्तियों में नियोजन । असम्यक् की निवृत्ति हुए बिना कोई भी प्रवृत्ति सम्यक् नहीं बनती, इस दृष्टि से सम्यक्प्रवृत्ति में गुप्ति का होना अनिवार्य माना गया है। सम्यक् प्रवृत्ति से निरपेक्ष होकर यदि गुप्ति का अर्थ किया जाए तो इसका अर्थ होगा-निरोध। महर्षि पतञ्जलि ने लिखा है – 'चित्तवृत्तिनिरोधो योग: । ' ( योगदर्शन १/१ ) जैन दृष्टि से इसका समानान्तर सूत्र लिखा जाए तो वह होगा ‘चित्तवृत्तिनिरोधो गुप्तिः ।' -स्था ३/२१-२३ टि साधना के लिए प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन अपेक्षित होता है। प्रवृत्ति के बिना जीवन की यात्रा नहीं चलती और निवृत्ति के बिना प्रवृत्ति में होने वाली समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। इसलिए यह निर्देश है कि मन, वचन तथा शरीर की सम्यक् प्रवृत्ति और गुप्ति दोनों करनी चाहिए। उनकी सम्यक् प्रवृत्ति करने वाला मुनि मनसमित, वचनसमित और कायसमित कहलाता है। उनकी निवृत्ति करने वाला मनोगुप्त, वचनगुप्त और कायगुप्त कहलाता है । - भ २ / ५५ का भाष्य ) * समिति और गुप्ति..... द्र श्रीआको १ गुप्ति, समिति मनोगुप्ति: श्रेष्ठपुत्र मुनि दृष्टांत मणोगुत्तीए - एगो सेट्ठिसुतो सुन्नघरे पडिमं ठितो । पुराणभज्जा से सन्निरोहमसहमाणी उब्भामइल्लेण समं तं चैव घरमतिगता । पल्लंकखिल्लएण य साधुस्स पादो विद्धो । तत्थ अणायारं आयरति । ण य तस्स भगवतो मणो विणिग्गतो सट्टाणातो । (दशानि ९२ की चू) एक श्रेष्ठपुत्र दीक्षित होकर एक शून्यगृह में प्रतिमा में स्थित हो गया। उसकी त्यक्तभार्या निरोध को सहन नहीं कर सकी और वह एक जार पुरुष के साथ उसी शून्यगृह में आई। पल्यंक बिछाया। पल्यंक के पायों में कील लगे हुए Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २०३ गोष्ठी थे। शून्यगृह में अंधकार व्याप्त था। एक पाया मुनि के पैर पर कायगुप्ति की साधना में निष्णात मुनि यतनापूर्वक चल टिका और मुनि का पैर उस कील से बिंध गया। वह जार रहा था। इतने में ही एक हाथी चिंघाड़ता हुआ उसी मार्ग पर आ पुरुष के साथ व्यभिचार करने लगी। किन्तु उस भगवान् मुनि । गया। उसके भय से मुनि ने अपनी गति में भेद नहीं किया। वह का मन अपने ध्यान से विचलित नहीं हुआ। ईर्यापूर्वक मार्ग में चलता रहा। हाथी निकट आया और उसने मुनि ० वचनगुप्ति : साधु-ज्ञातिजन दृष्टांत को सूंड में पकड़कर ऊपर उछाला। उस समय मुनि ने अपने शरीर वतिगुत्तीए-सण्णातयसगासंसाधपस्थितो।चोरेहिं की परवाह नहीं की। नीचे गिरने पर सत्त्वों की हिंसा होगी-इस गहितो वुत्तो य। मातपितरो से विवाहनिमित्तं एताणि दयाभाव में परिणत होकर वह ध्यानस्थ हो गया। दिवाणि। तेहिं नियत्तितो। तेण तेसिं वइगुत्तेण ण कहितं। गोष्ठी-मण्डली, समान वय वालों का समुदाय। पुणरवि चोरेहिं गहिताणि। साहू य पुणो तेहिं दिट्ठो। स गोष्ठी के अधिकृत व्यक्ति महत्तर आदि एवायं साधुत्ति भणिऊण मुक्को । इतराणवि तस्स वइ- महतर अणुमहतरए, ललियासण कडुअ दंडपतिए य। गुत्तस्स मातापितरोत्ति काउं मुक्काणि। (दशानि९२ की चू) एतेहिँ परिग्गहिया, होंति घडातो तदा काले॥ एक साधु अपने ज्ञातिजनों के साथ प्रस्थित हुआ। चोरों सव्वत्थ पुच्छणिज्जो, तु महतरो जेट्टमासण धुरे य। ने उसे पकड़ लिया और पूछताछ की। मुनि मौन रहा, तब उसे तहियं तु असण्णिहिए, अणुमहतरतो धुरे ठाति॥ छोड़ दिया। साधु ने अपने माता-पिता को विवाह के निमित्त भोयणमासणमिटुं, ललिए परिवेसिया दुगुणभागो। उधर जाते हुए देखा। किन्तु चोरों के बारे में कुछ नहीं बताया। कडुओ उ दंडकारी, दंडपती उग्गमे तं तु॥ चोरों ने उन्हें भी रोका और पकड़ लिया। साधु को भी पुनः (बृभा ३५७४-३५७६) पकड़ लिया। फिर यह वही साधु है-ऐसा कहकर उसे प्राचीनकाल में पांच प्रकार के व्यक्तियों द्वारा परिगृहीत छोड़ दिया। ये वाग्गुप्त मुनि के माता-पिता हैं, यह सोचकर गोष्ठियां होती थींउन्हें भी मुक्त कर दिया। १. महत्तर-सब गोष्ठीपुरुषों में यह प्रमाणभूत प्रथमपुरुष होता * वचनसमिति और मौन द्र समिति था। सारे कार्य इसी से पूछकर किए जाते थे। इसका आसन ० कायगुप्ति : कूर्म दृष्टांत बृहत्तर होता, जो सबसे आगे स्थापित किया जाता। २. अनुमहत्तर-यह महत्तर की अनुपस्थिति में सबके द्वारा जहा कच्छपो स्वजीवितपरिपालनार्थं अप्पणो प्रच्छनीय होता था तथा इसका स्थान भी प्रथम होता था। अंगाणि सए कभल्ले गोवेति गमणादिकारणे पुण सणियं ३. ललितासनिक-इसका अशन और आसन ललित होता पसारेति, तथा साधुवि संजमकडाहे इंदियपयारंकायचेटुंच था, इसे मनोज्ञ आहार का दुगुना भाग दिया जाता। भोजन निरंभति। (दशा ५/७ की चू) परोसने के लिए उस स्त्री की नियुक्ति की जाती, जो उसे कछुआ अपने जीवन की सुरक्षा के लिए अपने अंग- अभीष्ट होती थी। प्रत्यंगों को अपने कटाह में संगोपित कर लेता है। गमन आदि ४. कटक-यह गोष्ठी के अपराधी सदस्य के दंड का परिच्छेद प्रयोजन होने पर पुन: अपने अवयवों को धीरे-धीरे फैलाता (निर्धारण) करता था। है। इसी प्रकार साधु भी संयम रूपी कटाह में इन्द्रियों की ५. दंडपति-यह उस दंड को वहन करवाता था। प्रवृत्ति का और कायचेष्टा का निरोध करता है। गोष्ठीपुरुष शय्यातर की अनुज्ञाविधि ० कायगुप्त मुनि दृष्टांत ..."अणुण्णवणा, ....."एक्कओ पढमं । कायगुत्तीए-साहू हत्थिसंभमे गतिं ण भिंदति, जेट्ठादिअणुण्णवणा, पाहुणए जं विहिग्गहणं॥ अद्धाणपडिवन्नो वा। (दशानी ९२ की चू) (बृभा ३५७७) Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती २०४ आगम विषय कोश-२ महत्तर आदि पांचों के अधीनस्थ देवकुल, सभाभवन २. पांडुक निधि-गणितशास्त्र तथा वनस्पतिशास्त्र । आदि में मुनियों को रहना होता तो यदि वे पांचों एक ही स्थान ३. पिंगल निधि-मंडनशास्त्र। पर प्राप्त हो जाते, तब उनकी आज्ञा ले ली जाती। यदि वे ४. सर्वरत्न निधि-लक्षणशास्त्र। एकत्र प्राप्त नहीं होते, तो ज्येष्ठमहत्तर की आज्ञा ली जाती। ५. महापद्म निधि-वस्त्र-उत्पत्तिशास्त्र। उसके अभाव में अनुमहत्तर के क्रम से आज्ञा ली जाती। यदि वे ६. काल निधि-कालविज्ञान, शिल्पविज्ञान और कर्मविज्ञान घर पर नहीं मिलते तो उनके प्राघूर्णक से आज्ञा ले ली जाती - का प्रतिपादक महाग्रन्थ। इस प्रकार उपाश्रय का विधिपूर्वक ग्रहण अनुज्ञात है। ७. महाकाल निधि-धातुवाद। ८. माणवक निधि-राजनीति व दण्डनीति शास्त्र। चक्रवर्ती-छह खंड वाले भरतक्षेत्र का अधिपति। ९. शंख निधि-नाट्यशास्त्र व वाद्यशास्त्र। ___ चक्रवर्त्तिप्रभृतिको महर्द्धिकः पृथ्वीपतिः षट् -स्था ९/२२ का टि) खण्ड-भरतादेः क्षेत्रस्य प्रभुत्वमनुभवति। (बृभा ६६९ की वृ) * छह खंड द्र लोक अजहन्नमणुक्कोसो "जो आरि-चक्कवट्टीणं।" * चक्रवर्ती क्षेत्र-काल-अवग्रह द्र अवग्रह (बृभा ६७७) * चक्रवर्ती : कल्याण आहार द्र ब्रह्मचर्य सब चक्रवर्तियों का एकरूप आधिपत्य (एकछत्र अखंड * चक्रवर्ती : चौदह रत्न" द्र श्रीआको १ चक्रवर्ती शासन) होता है, अत: उनसे सम्बन्धित अवग्रह (प्रभुत्वक्षेत्र) चरन्ती दिशा-प्रशस्त दिशा-तीर्थंकर, आचार्य आदि न जघन्य होता है, न उत्कृष्ट-अजघन्योत्कृष्ट होता है। की विहरण दिशा। द्र आलोचना (शेष राजाओं का नगररोध आदि के समय नगर मात्र जघन्य । चारित्र-महाव्रत आदि का आचरण । सामायिक की अवग्रह भी रह जाता है।) ..."लोगच्छेरयभूया, जह चक्कीणं महाणिहयो॥ लोकाश्चर्यभूता: महानिधयः नैसर्पप्रभृतयः चक्रिणां १. चारित्र (संयम) का वर्गीकरण भरतादीनां प्रातिहार्याणि कुर्वन्ति। (बृभा ४२१८ वृ) २. वृद्धि-हानि की अपेक्षा चारित्र के विकल्प ३. शैक्षभूमि : सामायिक चारित्र की कालमर्यादा ____ लोक में आश्चर्य उत्पन्न करने वाले नैसर्प, पांडुक ४. शैक्षभूमि की प्राचीन परम्परा आदि नौ महानिधि भरत आदि चक्रवर्तियों के शासन में ५. उपस्थापना : तीन आदेश प्रातिहार्य-यथाभिलषित वस्तुएं प्रस्तुत करते हैं। ६. देश-सर्व-उपस्थापना के विकल्प (चक्रवर्ती के अपने राज्य के लिए उपयोगी सभी * चारित्र : स्थित-अस्थितकल्प द्र कल्पस्थिति वस्तुओं की प्राप्ति नौ निधियों से होती है, इसलिए इन्हें * प्रव्राजना-उपस्थापना नव निधान के रूप में गिनाया जाता है। प्रचलित परम्परा के * उपस्थापना कल्पिक _ _ द्र दीक्षा अनुसार ये निधियां देवकृत और देवाधिष्ठित मानी जाती हैं। * स्थविरकल्पी और चारित्र द्र स्थविरकल्प परन्तु वास्तव में ये सभी आकर ग्रन्थ हैं, जिनसे सभ्यता और * परिहारविशुद्धि चारित्र संस्कृति तथा राज्य-संचालन की अनेक विधियों का उद्भव * सामायिक..."संयमस्थान - द्र परिहारविशुद्धि हुआ है। इनमें तत्-तत् विषयों का सर्वांगीण ज्ञान भरा था, * जिनकल्पी और चारित्र द्र जिनकल्प इसलिए इन्हें निधि के रूप में माना गया। हम इन नौ निधियों ७. कषाय से चारित्र समाप्त को ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में इस प्रकार बांट सकते हैं ८. मूल-उत्तरगुण भंग से चारित्र भंग १. नैसर्प निधि-वास्तुशास्त्र। * मूलगुण-उत्तरगुण-संख्या साधना। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ * अचौर्य महाव्रत की सूक्ष्मता * अतिचार : चारित्र और भाव ९. चारित्र से संबंधित शबल दोष १०. शबल और उसका सीमानिर्धारण ११. शबल दोष से विराधना : घट दृष्टांत १२. प्रथम पांच शबल: गुरु प्रायश्चित्त १३. बारहवें शबल का स्वरूप १४. दर्शन- ज्ञान - शबल १५. छेदार्ह प्रायश्चित्त तक शबल १६. चारित्र बिना निर्वाण नहीं | १७. चारित्र की विशुद्धि आज भी है १८. चारित्र कब तक ? १९. चारित्र से तीर्थ की अवस्थिति * चारित्र और प्रायश्चित्त..... * चारित्र उपसम्पदा * चारित्र में श्लथता के स्थान * प्रतिसेवना और सचारित्र तीर्थ १. चारित्र (संयम) के वर्गीकरण गविहो पुण सो संजमो त्ति अज्झत्थ- बाहिरो य दुहा । मण-वय-काय तिविहो, चउव्विहो चाउजामो उ॥ पंच य महव्वयाई, तु पंचहा राइभोयणे छट्ठा । सीलंगसहस्साणि य, आयारस्सप्पवीभागा ॥ (आनि ३१३, ३१४) 'संयम के विभिन्न वर्गीकरण हैंएकविध संयम - अविरति की निवृत्ति । दो प्रकार का संयम - अध्यात्म तथा बाह्य । तीन प्रकार का संयम - मनः संयम, वचनसंयम, कायसंयम । चार प्रकार का संयम पांच प्रकार का संयम छह प्रकार का संयम व्रत । - द्र महाव्रत द्र आचार - द्र प्रायश्चित्त चार याम। -पांच महाव्रत । पांच महाव्रत तथा रात्रिभोजनविरमण हजार शीलांग परिमाण वाला हो जाता है। * अठारह हजार शीलांग यंत्र २०५ द्र उपसम्पदा द्र प्रतिसेवना इस प्रकार आचार- संयम विभक्त होता हुआ अठारह द्र श्रीआको १ चारित्र चारित्र २. वृद्धि - हानि की अपेक्षा चारित्र के विकल्प वति हायति उभयं, अवट्टियं च चरणं भवे चउहा । खइयं तहोवसमियं, मिस्समहक्खाय खेत्तं च ॥ कामं आसवदारेसु वट्टियं पलवितं बहुविधं च । लोगविरुद्धा य पदा, लोउत्तरिया य आइण्णा ॥ नय बंधहे उविगलत्तणेण कम्मस्स उवचयो होति ।" (बृभा ६२२५- ६२२७) वृद्धि आदि की अपेक्षा से चारित्र के चार विकल्प हैं१. वृद्धि - क्षपक श्रेणि में क्षायिक चारित्र वर्धमान होता है। २. हानि - उपशम श्रेणि से गिरते समय औपशमिक चारित्र की हानि होती है। ३. वृद्धि - हानि - क्षायोपशमिक चारित्र की राग-द्वेष के उत्कर्षअपकर्ष से हानि और वृद्धि दोनों होती है। ४. अवस्थित --राग-द्वेष के उदय के सर्वथा अभाव के कारण यथाख्यात चारित्र की न हानि होती है और न वृद्धि । ५. क्षिप्तचित्त साधु परवशता से सारी प्रवृत्तियां करता है अतः उसका चारित्र भी अवस्थित है। यद्यपि यह सही है कि उसने चिरकाल तक आश्रवों का सेवन किया है, बहुत प्रकार से असमंजस प्रलाप किया है तथा लोक व लोकोत्तर विरुद्ध आचरण किया है, फिर भी क्षिप्तचित्तता के कारण वह बंध तुओं से विकल है इसलिए उसके कर्म का सघन उपचय नहीं होता । ३. शैक्षभूमि : सामायिक चारित्र की कालमर्यादा तओ सेहभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- जहण्णा मज्झिमा उक्कोसा। सत्तराइंदिया जहण्णा, चाउम्मासिया मज्झिमा, छम्मासिया उक्कोसा। (व्य १०/२० ) तीन शैक्षभूमियां हैं - १. जघन्य सात अहोरात्र की । २. मध्यम चार महीनों की । ३. उत्कृष्ट छह महीनों की । (जो अचिर प्रव्रजित है, सामायिक चारित्र की कालमर्यादा में स्थित है, छेदोपस्थापनीय चारित्र में अनारोपित है, वह शैक्ष है। जो ग्रहणशिक्षा और आसवेन शिक्षा ग्रहण करता है, वह शैक्ष है । - तभा ९/२४ भिक्षु सीखता है, इसलिए शैक्ष कहलाता है। शील Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २०६ आगम विषय कोश-२ संबंधी, चित्तसंबंधी और प्रज्ञासंबंधी शिक्षा ग्रहण करता है, प्रथम और चरम तीर्थंकर के शासन में पंचयाम धर्म के इसलिए वह शैक्ष कहलाता है। -अंनि भाग १ पृ २३८) जिन अपराधपदों में जिन साधुओं की उपस्थापना होती है, ४. शैक्षभूमि की प्राचीन परम्परा उनके प्रसंग में तीन आदेश हैंपुव्वोवद्वपुराणे, करणजयट्ठा जहणिया भूमी। १. दसविध-तीन प्रकार के पारांचिक-१. दुष्ट, २. प्रमत्त उक्कोसा दम्मेहं, पड्च्च अस्सहहाणं च॥ और ३. अन्योन्यक्रियाकारी। तीन प्रकार के अनवस्थाप्यएमेव य मज्झमिया, अणहिज्जते असहहंते य। ४. साधर्मिकस्तेन, ५. अन्यधार्मिकस्तेन, ६. मारक प्रहार भावियमेहाविस्स वि, करणजयट्ठाय मज्झमिया॥ करने वाला तथा ७. सर्वदर्शनभ्रष्ट, ८. सर्वचारित्रभ्रष्ट, ९. (व्यभा ४६०५, ४६०६) आकुट्टि या दर्प से सम्पूर्ण संयमव्यापार का परित्याग कर छह १. जघन्य शैक्षभूमि-कोई मुनि उत्प्रव्रजित होकर पुनः प्रव्रजित जीवनिकाय का समारंभ करने वाला और १०. शैक्ष (अभिनव होता है, वह पूर्व विस्मृत सामाचारी की स्मृति और इन्द्रियजय दीक्षित)-इनको उपस्थापित किया जाता है। का अभ्यास एक सप्ताह में कर लेता है, अतः उसे सातवें २. षड्विध-१. पारांचित, २. अनवस्थाप्य, ३. सम्पूर्ण दर्शनभ्रष्ट, दिन उपस्थापित कर देना चाहिए। यह जघन्य भूमि है। ४. सर्वचारित्रभ्रष्ट, ५. संयम त्यागकर जीवकाय की हिंसा २. उत्कृष्ट शैक्षभूमि-कोई व्यक्ति प्रथम बार प्रव्रजित होता। व करने वाला और शैक्ष-इनकी उपस्थापना होती है। है, वह बुद्धि और श्रद्धा-दोनों से मंद है. उसे सामाचारी और ३. चतुर्विध-१. दर्शनभ्रष्ट, २. चारित्रभ्रष्ट, ३. षटकायइन्द्रियविजय का अभ्यास छह मास तक कराना चाहिए। विराधक और ४. शैक्ष को उपस्थापनायोम्ब कहा गया है। ३. मध्यम शैक्षमुनि-इसी प्रकार मंद बुद्धि और श्रद्धा वाले को ६. देश-सर्व-उपस्थापना के विकल्प सामाचारी व इन्द्रियजय का अभ्यास चार मास तक कराना केवलगहणा कसिणं, जति वमती दंसणं चरित्तं वा। चाहिए। अथवा कोई भावनाशील, श्रद्धासम्पन्न मेधावी व्यक्ति तो तस्स उवट्ठवणा, देसे वंतम्मि भयणा तु॥ प्रव्रजित हो तो उसे भी सामाचारी व इन्द्रियविजय का अभ्यास एमेव य किंचि पदं, सुयं व असुयं व अप्पदोसेणं। चार मास तक कराना चाहिए। यह शैक्ष की मध्यम भूमि है। अविकोवितो कहितो, चोदिय आउट्ट सुद्धो तु॥ ५. उपस्थापना : तीन आदेश अणाभोएण मिच्छत्तं, सम्मत्तं पुणरागते। सा जेसि उवट्ठवणा, जेहि य ठाणेहिँ पुरिम-चरिमाणं। तमेव तस्स पच्छित्तं, जं मग्गं पडिवज्जई। पंचाया धम्मे, आदेसतिगं च मे सुणसु॥ आभोगेण मिच्छत्तं, सम्मत्तं पुणरागते । जिण-थेराण आणाए, मूलच्छेज्जं तु कारए॥ तओ पारंचिया वुत्ता, अणवटा य तिण्णि उ। दंसणम्मि य वंतम्मि, चरित्तम्मि य केवले॥ छण्हं जीवनिकायाणं, अणप्पज्झो तु विराहओ। अदुवा चियत्तकिच्चे, जीवकाए समारभे। आलोइय-पडिक्कतो, सुद्धो हवति संजओ॥ सेहे दसमे वुत्ते, जस्स उवट्ठावणा भणिया॥ छण्हं जीवनिकायाणं, अप्पज्झो उ विराहतो। जे य पारंचिया कुत्ता, अणवठ्ठप्पा य जे विदू। आलोइय-पडिक्कतो, मूलच्छेज्जं तु कारए॥ दंसणम्मि य वंतम्मि, चरित्तम्मि य केवले॥ (बृभा ६४१५-६४२०) अदुवा चियत्तकिच्चे, जीवकाए समारभे। जो सम्पूर्णरूप से दर्शन और चारित्र से च्युत हो गया है, सेहे छटे वुत्ते, जस्स उवट्ठावणा भणिया॥ उसको छेदोपस्थापनीय चारित्र दिया जाता है। दसणम्मि य वंतम्मि, चरित्तम्मि य केवले। दर्शन-चारित्र के देशभंग में उपस्थापना की भजना हैचियत्तकिच्चे सेहे य, उवद्रप्पा य आहिया। कोई अभिनिवेश से मुक्त अगीतार्थ दूसरों के सामने (बुभा ६४०९-६४१४) जीव आदि से संबंधित या सूत्र से संबंधित श्रुत-अश्रुत-पदों Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ का अन्यथा प्रतिपादन करता है और आचार्य आदि के द्वारा निषेध किए जाने पर पुनः सम्यक् प्रवृत्त होता है, वह उपस्थापना के योग्य नहीं है । 'मिच्छामि दुक्कडं' के कथनमात्र से उसकी शुद्धि हो जाती है T कोई श्रावक अनजान में निह्नवों के पास दीक्षित हो जाता है, सही जानकारी मिलने पर 'मिच्छामि दुक्कडं' कहकर मिथ्यात्व से निवृत्त हो पुनः सम्यक्त्व प्राप्त कर शुद्ध साधुओं के पास उपसम्पन्न होता है-सही मार्ग की प्रतिपत्ति ही उसका प्रायश्चित्त है और वही व्रतपर्याय है, उसकी पुनः उपस्थापना नहीं होती। २०७ जो जानबूझकर सन्मार्ग छोड़कर मिथ्यामार्ग को स्वीकार करता है और दूसरों के द्वारा प्रज्ञापित होकर पुनः सम्यक्त्वी बन दीक्षित होता है, उसे अर्हत् और आचार्य की आज्ञा से मूलच्छेद्य प्रायश्चित्त दिया जाता है-मूलतः उपस्थापित किया जाता है। जो साधु परवशता के कारण षट्जीवनिकाय की विराधना करता है, वह आलोचना-प्रतिक्रमण से शुद्ध हो जाता है। जो स्वच्छन्दता से छहजीवनिकाय की विराधना करता वह आलोचना-प्रतिक्रमणपूर्वक मूलत: ही उप-स्थापनीय है। ७. कषाय से चारित्र समाप्त अकसायं खु चरित्तं, कसायसहितो न संजओ होइ !" जं अज्जियं चरित्तं, देसूणाए वि पुव्वकोडीए । तं पि. कसाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुहुत्तेण ॥ (बृभा २७१२, २७१५) चारित्र की निष्पत्ति अकषाय अवस्था में ही होती है। निश्चयनय के अनुसार जो कषायसहित है, वह साधु ही नहीं है । देशोन कोटिपूर्व तक की गई चारित्र की आराधना कषाय के उदयमात्र से मुहूर्त्त भर में समाप्त हो जाती है। ८. मूल - उत्तरगुण भंग से चारित्र भंग : दृष्टांत मूलगुणदतिय-सगडे, उत्तरगुणमंडवे सरिसवादी । छक्कायरक्खणट्ठा, दोसु वि सुद्धे चरणसुद्धी ॥ एकव्रतभंगे सर्वव्रतभंग इति, एतन्निश्चयनयमतं, व्यवहारतः पुनरेकव्रतभंगे तदेवैकं भग्नं प्रतिपत्तव्यं, चारित्र शेषाणां तु भंगः क्रमेण, यदि प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या नानुसन्धत्ते इति । अन्ये पुनराहुः - चतुर्थमहाव्रतप्रतिसेवनेन तत्कालमेव सकलचारित्रभ्रंशः, शेषेषु पुनर्महाव्रतेष्वभीक्ष्णं प्रतिसवेनया महत्यतिचरणे वा वेदितव्यः । उत्तरगुणप्रतिसेवनायां पुनः कालेन चरणभ्रंशो, यदि पुनः प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या नोज्ज्वालयति । (व्यभा ४६९ वृ) दृतिदृष्टांत - पांच द्वार (छिद्र) वाली जल से भरी मशक का एक द्वार भी खुला रह जाये तो वह तत्काल खाली हो जाती है। इसी प्रकार एक महाव्रत के अतिचरित होने पर तत्काल समस्त चारित्र नष्ट हो जाता है । o एक मूलगुण की घात से सर्वमूलगुणों की घात होती है - यह निश्चय नय का मत है। व्यवहारनय के अनुसार एक व्रत भंग होने पर वही एक व्रत भंग होता है। यदि प्रायश्चित्त से शुद्धि नहीं की जाती है तो शेष व्रतों का क्रमशः भंग होता है। ( अन्य आचार्य कहते हैं - चतुर्थ महाव्रतप्रतिसेवना से तत्काल ही सकल चारित्र - भ्रंश होता है। शेष महाव्रतों का बार-बार प्रतिसेवना से या बड़ा दोष होने पर भंग होता है । यदि प्रायश्चित्त से शुद्धि नहीं की जाती है तो उत्तरगुणप्रतिसेवना से क्रमश: चारित्र भग्न होता है। ० शकट दृष्टांत - गाड़ी के चक्के आदि मूल अंग भग्न होने पर वह भारवहन में सक्षम नहीं होती। कील, लोहपट्ट आदि उत्तर अंग भग्न होने पर कुछ काल तक गाड़ी भारवहन कर सकती है। इसी प्रकार एक मूलगुण का नाश होने पर चारित्र तत्काल नष्ट हो जाता है। उत्तरगुणों के नाश से वह कालक्रम से नष्ट होता है। ० मंडप-सर्षप दृष्टांत - एरंड आदि का मंडप थोड़े से सरसों या तिल - तंदुल से ध्वस्त नहीं होता। शिलाप्रक्षेप से वह तत्क्षण ध्वस्त हो जाता है । चारित्र मंडप भी एक, दो, तीन आदि उत्तरगुणों के अतिचरण से भग्न नहीं होता । अत्यधिक उत्तरगुणप्रतिसेवना होने पर वह कालक्रम से भग्न होता है । शिला सदृश एक मूलगुण अतिचरण से भी वह तत्काल भग्न होता है। छह - जीवनिकायसंयम से मूलगुण और उत्तरगुण निरतिचार (शुद्ध) होते हैं । इन दोनों की शुद्धि से चारित्रशुद्धि होती है। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र ९. चारित्र से संबंधित शबल दोष ......एक्कवीसं सबला पण्णत्ता, तं जहा १. हत्थकम्मं करेमाणे सबले । २. मेहुणं पडिसेवमाणे सबले । ३. राती भोयणं भुंजमाणे सबले । ४. आहाकम्मं भुंजमाणे सबले । ५. रायपिंडं भुंजमाणे सबले । ६. कीयं पामिच्चं अच्छिज्जं अणिसिट्टं आहट्टु दिज्जमाणं भुंजमाणे सबले । ७. अभिक्खणं पडियाक्खित्ताणं भुंजमाणे सबले । ८. अंतो छण्हं मासाणं गणातो गणं संकममाणे सबले । ९. अंतो मासस्स तओ दगलेवे करेमाणे सबले । १०. अंतो मासस्स ततो माइट्ठाणे करेमाणे सबले । ११. सागारियपिंडं भुंजमाणे सबले । १२. आउट्टियाए पाणाइवायं करेमाणे सबले । १३. आउट्टियाए मुसावायं वदमाणे सबले । १४. आउट्टियाए अदिन्नादाणं गिण्हमाणे सबले । १५. आउट्टियाए अणंतरहियाए पुढवीए ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबले । १६. आउट्टियाए ससणिद्धाए पुढवीए ससरक्खाए पुढवीए ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबले । १७. आउट्टियाए चित्तमंताए सिलाए चित्तमंताए लेलुए कोलावासंसि वा दारुए जीवपइट्ठिए सअंडे सपाणे सबीए सहरिए सउस्से सउत्तिंग-पणग-दगमट्टी-मक्कडासंताणए ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबले । १८. आउट्टियाए मूलभोयणं वा कंदभोयणं वा खंधभोयणं वा तयाभोयणं वा पवालभोयणं वा पत्तभोयणं वा पुप्फभोयणं वा फलभोयणं वा बीयभोयणं वा हरियभोयणं वा भुंजमा सबले । १९. अंतो संवच्छरस्स दस दगलेवे करेमाणे सबले । २०. अंतो संवच्छरस्स दस माइट्ठाणाई करेमाणे सबले । २१. आउट्टियाए सीतोदगवग्घारिएण हत्थेण वा मत्तेण वा वीए भायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा डिग्गात्ता भुंजमाणे सबले । (दशा २/३ ) २०८ शबल इक्कीस हैं, जैसे आगम विषय कोश - २ १. हस्तकर्म करने वाला । २. मैथुन का प्रतिसेवन करने वाला । ३. रात्रिभोजन करने वाला । ४. आधाकर्म आहार करने वाला । ५. राजपिंड खाने वाला । ६. क्रीत, प्रामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट और सामने लाकर दिया गया भोजन करने वाला । ७. बार-बार अशन आदि का प्रत्याख्यान कर उसे खाने वाला। ८. छह माह में एक गच्छ से दूसरे गच्छ में संक्रमण करने वाला । ९. एक महीने में तीन उदक- लेप लगाने वाला ( नाभिप्रमाण जल का अवगाहन करने वाला) । १०. एक महीने में तीन माया-स्थान का सेवन करने वाला । ११. शय्यातरपिंड खाने वाला । १२. अभिमुखतापूर्वक (जानकर) प्राणातिपात करने वाला । १३. अभिमुखतापूर्वक मृषावाद बोलने वाला । १४. अभिमुखतापूर्वक अदत्तादान लेने वाला। १५. अभिमुखतापूर्वक अव्यवहित (बिछौने के द्वारा व्यवधान डाले बिना) पृथ्वी पर स्थान या निषद्या करने वाला । १६. अभिमुखतापूर्वक जल- स्निग्ध तथा सचित्त रज से संश्लिष्ट पृथ्वी पर स्थान या निषद्या करने वाला । १७. अभिमुखतापूर्वक सचित्त पृथ्वी, सचित्त शिला, सचित्त प्रस्तरखंड, घुण-काष्ठ (तथा इसी प्रकार से अन्य) जीवप्रतिष्ठित, अंडों सहित, प्राण सहित, बीज सहित, हरित सहित, चींटियों के बिल, फफुंदी, कीचड़ और मकड़ी के जाल वाले आश्रय में स्थान या निषद्या करने वाला। १८. अभिमुखतापूर्वक मूल भोजन, कंदभोजन, स्कंधभोजन, त्वक भोजन, प्रवालभोजन, पत्रभोजन, पुष्पभोजन, फलभोजन, बीजभोजन और हरितभोजन करने वाला । १९. एक वर्ष में दस उदकलेप लगाने वाला। २०. एक वर्ष में दस मायास्थान का सेवन करने वाला । २१. बार-बार सचित्त जल से लिप्त हाथ, पात्र, दर्वी या भाजन से अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य को ग्रहण कर भोगने वाला । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २०९ चारित्र (शय्यातरपिण्ड पांचवां और राजपिण्ड ग्यारहवां शबल वस्त्र मलिन ही कहा जाता है। उसी प्रकार चारित्र में भी है। जिस आचरण से चारित्र धब्बों वाला होता है, उस छोटी-बड़ी स्खलना से शबल दोष लगता है। आचरण अथवा आचरणकर्ता को 'शबल' कहा जाता है। १२. प्रथम पांच शबल : गुरु प्रायश्चित्त -सम २१/१) हत्थकम्मादारब्भ जाव रायपिंडं ताव कालगा १०. शबल और उसका सीमानिर्धारण अणुग्घातिया अवराधपदा। सयं परेण वा मेहुणं दिव्वदव्वे चित्तलगोणादि, एसु भावसबलो खुतायारो। माणुसतिरिक्खजोणिय-अतिक्कम-वतिक्कम-अतियारे वतिक्कमे अइक्कमे अतियारे भावसबलो उ॥ तिवि, अणायारे सव्वभंग एव। (दशा २/३ की चू) खुतं भिण्णमित्यर्थः, न सर्वशः ईषत्।."एक्के हस्तकर्म यावत् राजपिंड-इन पांच शबल दोषों में अवराहपदे मूलगुणवजेसु आहाकम्मादिसु अतिक्कमे कालत: गुरु प्रायश्चित्त आता है। दिव्य, मनुष्य या तिर्यंच वइक्कमे अतियारे अणायारे य सव्वेसु सबलो भवति" संबंधी मैथुन में अतिक्रम, व्यतिक्रम या अतिचार का स्वयं मूलगुणेसु आदिमेसु तिसु भंगेसु सबलो भवति। चउत्थभंगे सेवन करता है अथवा दूसरों से करवाता है, वह शबल दोष सव्वभंगो। (दशानि १२ चू) है। अनाचार होने पर चारित्र का सर्वभंग हो जाता है। शबल का अर्थ है चितकबरा। १३. बारहवें शबल का स्वरूप द्रव्य शबल-चितकबरी गाय आदि। आउट्टियाए पाणातिपातं करेमाणे सबले-आउट्टिया भाव शबल-साध्वाचार में ईषत भेद करने वाला। णाम जाणंतो"दव्वादिसुजं करेति।जधा"पुढविक्कायमूलगुणों में अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार तक मक्खित्तेण वा हत्थमत्तेणं भिक्खं गिण्हइ,"उदउल्लकी सीमा में शबल दोष होता है। अनाचार होने पर चारित्र ससिणि हिंवा हत्थमत्तेहिं अपरिणएहिं भिक्खं गिण्हइ। पूर्णत: भंग हो जाता है। तेअनिक्खित्तं गिण्हइ दितावेइ वा,"कंदाइ गिण्हइ, संघट्टेणं ___मूलगुणवर्जित आधाकर्म आदि में अतिक्रम, व्यतिक्रम, वा भिक्खं गिण्हइ, बेइंदिएहिं पंथो संसत्तो तेण वच्चति, अतिचार और अनाचार होने पर शबल दोष होता है। आहारं वा संसत्तं गिण्हति।एवं तेइंदिय-चउरिंदिय-पंचें११. शबल दोष से विराधना : घट दृष्टांत दिया मंडुक्कलियाई पंथे ववरोवेजा। (दशा २/३ की चू) बाले राई दाली, खंडो बोडे खुते य भिन्ने य। जानबूझकर द्रव्य आदि से संबंधित प्राणातिपात आदि कम्मासपट्टसबले, सव्वा वि विराहणा भणिया॥ करना शबल दोष है। जैसे (दशानि १४) ० पृथ्वीकाय से मेक्षित हाथ या पात्र से भिक्षा लेना। जल से शबल दोषों से होने वाली देश (आंशिक) विराधना आर्द्र-स्निग्ध हाथ या पात्र से भिक्षा लेना। अग्नि पर रखी और सर्व-विराधना को बताया गया है- वस्तु ग्रहण करना-करवाना। कंद आदि ग्रहण करना, उनसे खंडित घट के अनेक रूप हैं-बाल जितने छिद्र वाला। छोटी स्पृष्ट भिक्षा लेना। सी दरार वाला। बड़ी दरार वाला। एक भाग खंडित। बिना ० द्वीन्द्रिय जीवों से संकुल मार्ग से जाना, इन जीवों से छोर (किनारी) वाला। छिद्रों वाला। बड़े छिद्रों वाला फूटा संसक्त आहार लेना। ० मार्ग में त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय-मंड्रकी आदि इन घड़ों से पानी क्रमशः अधिक, अधिकतर झरता जीवों का उपघात करना-ये सब शबल हैं। है अतः ये दोषपूर्ण हैं । इसी प्रकार शबल दोषों से देश और १४. दर्शन-ज्ञान-शबल सर्व विराधना होती है। दरिसणं प्रति संकादि।णाणे काले विणए। कम्मासपट्ट-जैसे सूती वस्त्र पर छोटा या बड़ा धब्बा हो तो (दशा २/३ की चू) हुआ घट। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २१० आगम विषय कोश-२ शंका, कांक्षा आदि दर्शन के शबल हैं। काल. विनय कुछ असंविग्न साधु अपनी अल्पबुद्धि के कारण आदि ज्ञानाचारों का अतिक्रमण ज्ञान के शबल हैं। विहरमाण संविग्नजनों की अवहेलना करते हैं। वे मानते हैं १५. छेदाह प्रायश्चित्त तक शबल कि वर्तमान में केवली, मनः पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी, अवराधम्मि पतणुए, जेण उ मूलं न वच्चए साहू। चौदहपूर्वी, दसपूर्वी और नवपूर्वी नहीं हैं। इन धीरपुरुषों के सबलेइ तं चरित्तं, तम्हा सबलत्तणं बेति॥ अभाव में कौन किसके भावों को जानता है ? कौन चारित्र की शुद्धि या अशुद्धि को जानता है ? (दशानि १३) जो बाह्यकरण से युक्त हैं, वे आभ्यंतरकरण से भी जिससे मूल प्रायश्चित्त प्राप्त नहीं होता, वैसा छोटा युक्त हैं-यह एकांतत: नहीं कहा जा सकता। इनमें विपर्यास अपराध चारित्र को चितकबरा बना देता है, अतः उसको भी देखा जाता है। जैसे उदायिमारक और प्रसन्नचन्द्र। शबल की संज्ञा दी गई है। बाह्यकरण से अविशुद्ध भरत चक्रवर्ती आभ्यंतरकरण १६. चारित्र बिना निर्वाण नहीं से विशुद्ध ही थे। अचरित्ताय तित्थस्स, निव्वाणम्मि न गच्छति।... सब भवसिद्धिक जीवों के लिए एकमात्र चारित्र ही (व्यभा ४२१६) शरण है। वह सैंकड़ों दुःखों से मुक्ति दिलाने वाला है। 'तुम राग-द्वेष के वशवर्ती होकर सदोष चारित्र वालों चारित्रविहीन तीर्थ में साधु का निर्वाण नहीं होता। को ऐसा मत कहो कि चारित्र नहीं है। जहां रहते हो. उसी १७. चारित्र की विशुद्धि आज भी है आश्रय को मत जलाओ।' धीरपुरिसपरिहाणी, नाऊणं मंदधम्मिया केई। सम्प्रति चारित्र नहीं है-ऐसा कहने वाले साधु हीलंति विहरमाणं, संविग्गजणं अबुद्धीतो॥ विद्यमान चरणगुणों का नाश करते हैं। वे प्रवचन का परिभव केवल-मणाहि-चाद्दस-दस-णवपुव्वााहावराहए एण्हा करते हैं, असत्य बोलते हैं। इससे चारित्रधर्म का अबहुमान सुद्धमसुद्धं चरणं, को जाणति कस्स भावं च॥ होता है। साधुओं से प्रद्वेष होता है, इससे संसार (जन्मबाहिरकरणेण समं, अभितरयं करेंति अमुणेता। मरण) की वृद्धि होती है। णेगंता तं च भवे, विवज्जओ दिस्सते जेणं॥ तीर्थंकर के समय में भी त्रिविध-क्षायिक, औपसव्वेसि एगचरणं, सरणं मोयावगं दुहसयाणं। शमिक और क्षायोपशमिक चारित्र होता था। क्षायोपशमिक मा रागदोसवसगा, अप्पणो सरणं पलीवेह ॥ चारित्र से ही औपशमिक या क्षायिक चारित्र प्राप्त होता, अन्य संतगुणणासणा खलु, परपरिवाओ य होति अलियं च। से नहीं। धम्मे य अबहुमाणो, साहुपदोसे य संसारो॥ क्षायोपशमिक भाव में चारित्र के विविध स्तर होते खय उवसममीसंपिय, जिणकालेवितिविहंभवेचरणं। हैं मिश्र चारित्र वालों के दोष भी लगते हैं। जैसे क्षार आदि मिस्सातो च्चिय पावति, खयउवसमं च णण्णत्तो॥ से वस्त्रों की शद्धि होती है, विरेचन और औषधप्रयोग से अइयारो वि हु चरणे, ठितस्स मिस्से ण दोसु इतरेसु। रोगी स्वस्थ होता है, वैसे ही प्रायश्चित्त से चारित्रविशोधि वत्थातुरदिटुंता, पच्छित्तेणं स तु विसुज्झो॥ होती है। औपशमिकचारित्री और क्षायिकचारित्री अतिचारसेवन सुद्धमसुद्धं चरणं, जहा उ जाणंति ओहिणाणादी। नहीं करते। आगारेहि मणं पि व, जाणंति तहेतरा भावं॥ जैसे अवधिज्ञानी आदि प्रत्यक्षज्ञानी दूसरों के शुद्ध या ण य एगंतेण बाहिरकरणजुत्तो अभ्यंतर-करण- अशुद्ध चारित्र को यथार्थ रूप में जानते हैं, जैसे बाह्य आकारों युक्तो भवति।"जहा उदायिमारयस्स पसण्णचंदस्स य। से मनोगत भाव जाने जाते हैं, वैसे ही परोक्षज्ञानी मुनि बाहिर अविसुद्धो विभरहो विसुद्धो चेवा आलोचना को सुनकर, आचरणों को देखकर दूसरों के चारित्र (निभा ५४२३-५४२५, ५४२८-५४३१, ५४३३ चू) की शुद्धाशुद्धि को जान लेते हैं। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २११ चिकित्सा १८. चारित्र कब तक? आगमसूत्रों के अनुसार यह तीर्थ (श्रमण महावीर का बउसपडिसेवगा खलु, इत्तरि छेदा य संजता दोन्नि। शासन) इक्कीस हजार वर्ष तक प्रवर्तित होगा। तुम्हारे अनुसार जा तित्थऽणुसज्जंती अस्थि हु तेणं तु पच्छित्तं॥ तो यह कथन मिथ्या हो जाएगा। (छहों अरों में ज्ञान दर्शन (व्यभा ४१९३) होने से तीर्थ भी चिरकाल तक रहना चाहिए।) जब तक तीर्थ का अस्तित्व रहेगा, तब तक बकुश दूसरी बात, सब गतियों में सिद्धिगमन का प्रसंग एवं प्रतिसेवना कशील निर्ग्रन्थ तथा इत्वरिक सामायिक चारित्र आयेगा, क्योंकि सम्यग् दर्शन-ज्ञान युक्त तथा चारित्ररहित और छेदोपस्थापनीय चारित्र-इन सबका अस्तित्व रहेगा। अतः जीव सब गतियों में होते हैं। प्रायश्चित्त भी रहेंगे। __ तीसरी बात, अनुत्तरोपपातिक देव अनुत्तर ज्ञानदर्शन सम्पन्न होते हैं, तब वे तो नियमत: ही तद्भव सिद्धिगामी १९. चारित्र से तीर्थ की अवस्थिति होने चाहिए। यह सब इष्ट नहीं है। फलितार्थ यह रहा कि "जं पि य दंसणनाणेहि ,जाति तित्थं ति तं सुणसु॥ जब तक चारित्र है, तब तक तीर्थ है। एवं तु भणंतेणं, सेणियमादी वि थाविया समणा। प्रायश्चित्त के अभाव में चारित्र की शुद्धि नहीं होती। समणस्स य जत्तस्स य, नत्थी नरएस उववाओ॥ शुद्धि के अभाव में तीर्थ नहीं रहता। अचारित्र तीर्थ में साधु का जंपिय हु एक्कवीसं, वाससहस्साणि होहिती तित्थं । निर्वाण नहीं होता। निर्वाण के अभाव में दीक्षा निरर्थक है। ते मिच्छासिद्धी वी, सव्वगतीसुं व होजाहि॥ संयत-निर्ग्रन्थ के बिना तीर्थ और तीर्थ के बिना संयतपायच्छित्ते असंतम्मि, चरित्तं पि न वट्टति। निर्ग्रन्थ-दोनों नहीं होते। चरित्तम्मि असंतम्मि, तित्थे नो सचरित्तया॥ अर्हतों ने छहजीवनिकाय संयम, पांच महाव्रत, पांच अचरित्ताय तित्थस्स, निव्वाणम्मि न गच्छति। समिति और तीन गप्ति का प्रज्ञापन किया। सब साधु निव्वाणम्मि असंतम्मि, सव्वा दिक्खा निरत्थया॥ आज भी उसी की प्रज्ञप्ति करते हैं और उसकी सम्यग न विणा तित्थं नियंठेहिं, नियंठा व अतित्थगा। आराधना भी करते हैं। छक्कायसंजमो जाव, तावऽणुसज्जणा दोण्हं ॥ सव्वण्णूहिपरूविय, छक्काय-महव्वया य समितीओ। चिकित्सा-रोग, रोग के कारण और उसके उपशमन के उपाय। जीवन के उपक्रम और संरक्षण की सच्चेव य पण्णवणा, संपयकाले वि साधूणं॥ प्रक्रिया। ये चानुत्तरोपपातिनो देवास्ते नियमतस्तद्भवसिद्धिगामिनो भवेयुः, तेषामनुत्तरज्ञानदर्शनोपेतत्वात्-न १.धन्वन्तरिकृत वैद्यकशास्त्र चैतदिष्टं तस्मादिदमागतं यावच्चारित्रं तावत्तीर्थम्। २. चिकित्सा के चरण, चिकित्सक के गुण ३. रोग और व्याधि के प्रकार (व्यभा ४२१२-४२१८ व) ४. चर्मरोग (कुष्ठ ) के प्रकार और बचने के उपाय शिष्य ने कहा-ज्ञान-दर्शन से तीर्थ चलता है। इसका ५. कृमिकुष्ठ में रत्नकंबल उपयोगी प्रतिवाद करते हुए आचार्य ने कहा ६. चर्मरोग में गृहधूम का उपयोग प्रवचन श्रमणप्रतिष्ठित होता है। ज्ञान-दर्शन से तीर्थ ७. व्रण के प्रकार की अवस्थिति हो तो तुम्हारी दृष्टि में श्रेणिक आदि भी ८. व्रणलेप के प्रकार श्रमण हो गए, क्योंकि ज्ञान-दर्शन तो उनमें भी था किन्तु ऐसा | ९. व्रणचिकित्सा के विविध साधन नहीं है। श्रमणगुणयुक्त श्रमण का नरक में उपपात नहीं १०. युद्ध और वैद्य : पुराने घुत से व्रणरोहण होता। श्रेणिक वहां उपपन्न है। ११. पादतल पर लेप Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिकित्सा २१२ आगम विषय कोश-२ १२. अतिवमन-विरेचन से वल्गुली-कोढ * जिनकल्प"चिकित्सा-निषेध द्र स्थविरकल्प ___ * चींटीयुक्त भोजन : वमन..... द्र आहार * मंत्र से चिकित्सा : मुरुण्ड दृष्टांत द्र मंत्रविद्या १३. नाक का अर्श होने का एक कारण * क्षिप्त-दीप्तचित्त-चिकित्सा द्रचित्तचिकित्सा १४. कटिरोग का एक कारण * औषधि और वीर्य द्र वीर्य १५. वात-पित्त-प्रकोप * प्रायश्चित्त औषध तुल्य द्र प्रायश्चित्त १६. उत्पल आदि से पित्तप्रकोप आदि का शमन १. धन्वन्तरिकृत वैद्यकशास्त्र ०पित्त आदि की उग्रता : मधुर द्रव्य आदि" ........."जोगीव जहा महावेज्जो॥ १७. अजीर्ण रोग के कारण १८. जलोदर का कारण योगी-धन्वन्तरिः, तेन च विभंगज्ञानबलेनाऽऽ१९. मिट्टीभक्षण से पांडुरोग गामिनि काले प्राचुर्येण रोगसंभवं दृष्ट्वा अष्टाङ्गायु२०. वेगनिरोध और रोग र्वेदरूपं वैद्यकशास्त्रं चक्रे, तच्च यथाम्नायं येनाधीतं स ० वेगनिरोध से मृत्यु महावैद्य उच्यते। स च आयुर्वेदप्रामाण्येन क्रियां कुर्वाणो २१. पैरधूलि से चक्षु उपहत योगीव धन्वन्तरिरिव न दूषणभाग् भवति, यथोक्तक्रिया० पैर का परिकर्म चक्षुउपकारक कारिणश्च तस्य तत् चिकित्साकर्म सिध्यति। | २२. कंटकविद्ध की चिकित्सा (बृभा ९५९ वृ) २३. चंक्रमण से स्वस्थता योगी-धन्वन्तरि ने अपने विभंगज्ञान के बल से २४. अगद (विषशामक औषधि), तैल आदि 'भविष्य में प्रचुर रोगों की उत्पत्ति होगी'-यह जानकर अष्टांग २५. विष की औषध विष ० विष के प्रकार आयुर्वेद रूप वैद्यकशास्त्र का निर्माण किया। गुरुपरम्परा से ० वंजुलवृक्ष से विष अपनयन उस शास्त्र का अध्ययन करने वाला महावैद्य कहलाता है। ० स्वर्ण विषघाती वह महावैद्य आयुर्वेद के प्रामाण्य के आधार पर क्रिया ० गोबर विषघाती करता हुआ धन्वन्तरि की भांति निर्दोष होता है। शास्त्रानुसार २६. वमन-विरेचन आदि से चिकित्सा क्रिया करने से उसका चिकित्साकार्य सफल होता है। २७. अतिश्रम से बुद्धिक्षीणता (आयुर्वेद का अर्थ है-जीवन के उपक्रम और संरक्षण २८. क्षेत्र आदि की स्निग्धता : आयु-मेधा-वृद्धि का ज्ञान, चिकित्साशास्त्र । वह आठ प्रकार का है० ब्राह्मी आदि का सेवन : वाक्पाटव, मेधा १. कौमारभृत्य-बाल-चिकित्साशास्त्र। इसमें बालकों के * अवस्था-आहार-बल पोषण और दूध सम्बन्धी दोषों का संशोधन तथा अन्य * विरुद्ध द्रव्यों का मेल अहितकर द्र आहार __ दोषजनित व्याधियों के उपशमन के उपाय निर्दिष्ट होते हैं। २९. उपवास से रोगचिकित्सा तथा पारणविधि २. कायचिकित्सा-इसमें मध्य-अंग-समाश्रित ज्वर, अतिसार ३०. वैद्य के पास जाने की विधि एवं योग्यता ... कुष्ठ आदि रोगों के शमन के उपाय निर्दिष्ट होते हैं। ० वैद्य को रोगी की अवगति ३. शालाक्य-मुंह के ऊपर के अंगों में व्याप्त रोगों के उपशमन ३१. निदानतुल्य औषधिवर्जन का उपाय बताने वाला शास्त्र। ३२. लघुव्याधि की चिकित्सा से पूर्व की चिकित्सा ४. शाल्यहत्य-शरीर के भीतर रहे हुए तृण, काष्ठ, पाषाण, |३३. रोग की उपेक्षा से हानि : वृक्ष और ऋण दृष्टांत । ... नख आदि द्रव्यों के उद्धरण का उपाय बताने वाला शास्त्र। * गीतार्थ-अगीतार्थ चिकित्सा 1 ५. जंगोली-सर्प आदि विषैले जीवों से डसे जाने पर उसकी * मुनि और वैद्य - द्र वैयावृत्त्य चिकित्सा का निर्देश करने वाला शास्त्र। इसे विष-विघातक * साधु-साध्वी चिकित्सा : विद्याप्रयोग द्र विद्या शास्त्र या अगदतंत्र भी कहते हैं। द्रवीर्य Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २१३ चिकित्सा ६. भूतविद्या-भूत आदि के निग्रह के लिए विद्यातंत्र । देव, वटी, अवलेह आदि अनेकविध कल्पना की योग्यता होना। असुर, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, पितर, पिशाच, नाग आदि से औषधियों का अपने रस, गुण, वीर्य आदि से युक्त होना। आविष्ट चित्त वाले व्यक्तियों के उपद्रव को मिटाने के लिए ३. परिचारक के गुण-सेवा-परिचर्या का पूर्णज्ञान। चातुर्य । शांतिकर्म, बलिकर्म आदि का विधान तथा ग्रहों की शांति का रोगी के प्रति अनुराग। पवित्रता। निर्देश करने वाला शास्त्र। ४. रोगी के गुण-स्मरणशक्ति। वैद्य के निर्देश-पालन की ७. क्षारतंत्र-वीर्यपुष्टि के उपाय बताने वाला शास्त्र। सुश्रुत प्रवृत्ति। निर्भयता। रोग के विषय में अपनी स्थिति का पूर्णरूप आदि ग्रंथों में इसे वाजीकरणतंत्र कहा जाता है। से प्रज्ञापन करने की क्षमता।-च सूत्रस्थान ९/३-९) ८. रसायन-इसका शाब्दिक अर्थ है-अमृततुल्य रस की ३. रोग और व्याधि के प्रकार प्राप्ति । वय को स्थायित्व देने, आयुष्य को बढ़ाने, बुद्धि को गंडी-कोढ-खयाई, रोगो कासाइगो उ आयंको। वृद्धिंगत करने तथा रोगों का अपहरण करने में समर्थ रसायनों दीहरुया वा रोगो, आतंको आसुघाती उ॥ का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र।-स्था ८/२६ का टि गण्डी-गण्डमालादिकः, कुष्ठं–पाण्डुरोगो गल___ आयुर्वेद के आठ अंग हैं-१. कायचिकित्सा, २. शालाक्य, कोष्ठं वा, क्षयः-राजयक्ष्मा, आदिशब्दात् श्लीपद३. शल्यतंत्र, ४. अगदतंत्र, ५. भूतविद्या, ६. कौमारभृत्य, श्वयथ-गल्मादिकः सर्वोऽपि रोग इति व्यपदिश्यते। ७. रसायन, ८. वाजीकरण।-च सूत्रस्थान ३०/२८) कासादिकस्तुआतंकः, आदिग्रहणेन श्वास-शूल-हिक्का२. चिकित्सा के चरण, चिकित्सक के गुण ज्वरातीसारादिपरिग्रहः। (बृभा १०२४ वृ) ......."चउपादा तेइच्छा .......॥ गंडमाल, कुष्ठ-पांडुरोग अथवा स्यन्दमान कोढ, गिलाणो, पडियरगा, वेज्जो भेसज्जाणि य। राजयक्ष्मा, श्लीपद, श्वयथु, गुल्म आदि रोग कहलाते हैं। (निभा ३०३६ चू) कास, श्वास, हिक्का, ज्वर, अतिसार आदि को आतंक चिकित्सा के चार पाद हैं-रोगी, परिचारक, वैद्य और या व्याधि कहा जाता है। औषधि। अथवा जो दीर्घकालस्थायी है, वह रोग है और अम्मापितीहि जणियस्स, तस्स आतंकपउरदोसेहिं। विसूचिका आदि जो सद्योघाती है, वह आतंक है। विजा देंति समाधिं, जहिं कता आगमा होति॥ .."सोलसविहो उ रोगो, वाही पुण होइ अट्ठविहो॥ (व्यभा ९४९) वेवग्गि पंगु वडभं, णिम्मणिमलसं च सक्करपमेहं। जो वैद्यकशास्त्रों के ज्ञाता हैं, उनके अभ्यासी हैं तथा बहिरंधकुंटवडभं, गंडी कोटीक्खते सूई। माता-पिता से संक्रान्त दोषों अथवा अन्य रोगजनित प्रचर जर-सास-कास डाहे, अतिसार भगंदरे य सूले य। दोषों का शमन कर आरोग्य प्रदान करते हैं, वे वैद्य हैं। तत्तो अजीरघातग, आसु विरेचा हि रोगविही॥ (धातुओं की विषमता को रोग कहा जाता है। धातु (निभा ३६४५-३६४७) साम्य के लिए उत्तम वैद्य आदि चिकित्सा के चार पादों की रोग के सोलह प्रकार ये हैंजो प्रवृत्ति होती है, उसे चिकित्सा कहा जाता है। प्रत्येक के १.कम्पनरोग २. भस्मकरोग ३. पंगता ४. बौनापन ५.णिम्मणि चार-चार गुण हैं ६. अलसक ७. मधुमेह ८. प्रमेह ९. बहरापन १०. अंधापन १. वैद्य के गुण-चिकित्साशास्त्र का विज्ञाता। अनेक बार ११. लूलापन १२. कुबड़ापन १३. गण्डमाला १४. कोढ रोगी और औषध प्रयोग का प्रत्यक्ष द्रष्टा। दक्ष और पवित्र। १५. क्षय १६. शोथ/श्लीपद २. औषधि के गुण-औषधियों का अधिक रूप में प्राप्त (सोलह रोगों में पांचवां प्रकार है-णिम्मणि, जो होना। व्याधिनाश में समर्थ होना। एक ही औषधि में चूर्ण, विमर्शनीय है। इसके दो रूप हो सकते हैं-१. निर्मणि Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिकित्सा २१४ आगम विषय कोश-२ है। हा लिंगसंबंधी रोग।२. निर्वणि नेत्ररोग। माधवनिदान में बताया होता है-पैर, हाथ, मस्तक और ग्रीवा-ये अधस्तनकाय हैं। ये गया है-अभिष्यन्द के कारण नेत्र के कृष्णमण्डल में व्रणरहित अवयव शास्त्रोक्त शरीरलक्षणों के प्रमाण के अनुसार नहीं शुक्र हो जाता है, जो बीच से कटा हुआ, मांस से ढका हुआ, होते तथा शेष अवयव प्रमाणोपेत होते हैं, उसे 'कुब्ज' अपना स्थान बदलने वाला, सूक्ष्म सिराओं से व्याप्त, दर्शनशक्ति कहा जाता है। वडभत्व का अर्थ है-पृष्ठग्रंथि का बाहर को नष्ट करने वाला, दो पटलों में विभक्त तथा सब ओर से निकलना।-आ २/५४ का भाष्य) लाल होता है। मानि नेत्ररोगनिदान। श्लीपदनाम्ना रोगेण यस्य पादौ शूनौ-शिलायदि णिम्मणि के स्थान पर मम्मणि शब्द पढ़ा जाए वद् महाप्रमाणौ भवतः स एवंविधः श्लीपदी। तो उसका अर्थ होना चाहिये-मन्मनी-अस्पष्ट भाषी अथवा (बृभा ११४८ की वृ) मूक। अथवा णिम्मणि-अपस्मार/मृगी? श्लीपद नामक रोग से जिसके पैर शून-शिला की ० रोग का छठा प्रकार है-अलसक। जिस रोगी की कुक्षि में भांति स्थूल और भारी हो जाते हैं, वह रोगी श्लीपदी कहलाता आनाह (आमाशय से मलाशय पर्यंत अवयव की गति में रुकावट) हो जाए,... अपानवायु रुक कर आमाशय की ओर (आ ६/८ में सोलह रोगों अथवा रोगियों का नामानुक्रम दौड़े, अधोवायु और पुरीष सर्वथा रुक जाए और प्यास लगे इस प्रकार हैएवं डकारें आए, उस रोगी को 'अलसक' नामक रोग का १. गण्डी-गंडमाला रोग से ग्रस्त। रोगी जानो। इस रोग में पाचक अवयव अलस या आलसी हो २. कुष्ठी-कोढ रोग से ग्रस्त । जाते हैं।-मानि अग्निमांद्यरोगनिदान) ३. राजयक्ष्मी-क्षय रोग से ग्रस्त। व्याधि (आतंक) के आठ प्रकार हैं ४. अपस्मारिक-मुगी या मर्छा से ग्रस्त। १. ज्वर ५. अतिसार ५. काणक-काणत्व से ग्रस्त। २. श्वास ६. भगंदर ६. जड-शरीर के अवयवों की जड़ता से ग्रस्त। ३. कास ७. शूल (कुक्षिशूल आदि) ७. कुणि-हाथ या पैर की विकलता से ग्रस्त। ४. दाह ८. घातक अजीर्ण ८. कुब्ज-कुबड़ेपन से ग्रस्त । सर्वगात्रहीनं वामनं, पृष्टतोऽग्रतो वा विनिर्गतसरीरं ९. उदरी-उदररोग से ग्रस्त। डभ, सवगात्रमगपाश्वहान कुब्ज गतुमसमथः, पाद- १०. मूक-मूकता से ग्रस्त। जंघाहीन: पंगुः, हीनहस्तः कुंटः, एकाक्षः काणः। ११. शूनिक-सूजन से गस्त। (निभा ३७०९ की चू) १२. ग्रासिनी-भस्मकव्याधि से ग्रस्त। वामन-सर्वगात्रहीन। १३. वेपकी-कम्पनरोग से ग्रस्त। वडभ-जिसके शरीर के पीछे का अथवा आगे का भाग उभरा १४. पीठसी-पंगुता से ग्रस्त। हुआ हो। १५. श्लीपदी-हाथीपगा रोग से ग्रस्त। कुब्ज-एक पाव से हीन गात्र वाला, चलने में असमर्थ। १६. मधुमेहनी-मधुमेहरोग से ग्रस्त । पंगु-पादजंघा से हीन। ० गर्भ में वात-प्रकोप अथवा माता के दोहद की पूर्ति न होने कुंट-हाथ से विकल। पर शिशु कुब्ज, कुणि, पंगु, मूक और मन्मन होता है। काणक-एक आंख वाला। ० मूक और मन्मनभाषी गर्भदोष के कारण होता है अथवा (कुब्ज शब्द के दो अर्थ हैं-पृष्ठग्रंथि का बाहर निकलना जन्म के पश्चात् भी हो सकता है। और ठिगना। संस्थानप्रकरण में कुब्ज संस्थान का वामन अर्थ प्राप्त ० मुख के पैंसठ रोग हैं, जो सात आयतनों में होते हैं Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ ओष्ठ के आठ, दंतमूल के पन्द्रह, दांत के आठ, जिह्वा के पांच, तालु के नौ, कंठ के सतरह, सर्व आयतनों के तीन । ० अग्नि- ग्रासिनी, भस्मकव्याधि, जो वात-पित्त की उत्कटता तथा श्लेष्म की न्यूनता से होती है । ० मधुमेह - यह वस्तिरोग है। इसमें मधुतुल्य प्रस्रवण होता है। ० प्रमेह - इसके बीस भेद होते हैं-कफ प्रकोप से दस, पित्त - प्रकोप से छह, वात प्रकोप से चार- ये बीसों भेद असाध्य अवस्था में मधुमेह के रूप में परिणत हो जाते हैं । - आ ६/८ की वृ) ४. चर्मरोग (कुष्ठ) के प्रकार और बचने के उपाय संदतमसंदतं, अस्संदण चित्त मंडलपसुत्ती । किमिपूयं लसिगा वा, पस्संदति तत्थिमा जतणा ॥ ........पासवण - फास-लाला, पस्से ॥ पासवण अन्नअसती, भूतीए लक्खि मा हु दूसियं मोयं । चरणतलेसु कमेज्जा, एमेव य निक्खमपवेसो ॥ ती व सो काउली कमेसुं, संथारओ दूर अदंसणे वि । मा फासदोसेण कमेज्ज तेसिं, तत्थेक्कवत्थादि व परिहरति ॥ नय भुंजंतेगट्ठा, लालादोसेण संकमति वाही । सेओ से वज्जिज्जति, जल्लपडलंतरकप्पो य ॥ एतेहि कमति वाही, एत्थं खलु सेउएण दिट्टंतो । कुट्ठक्खय कच्छुयऽसिवं, नयणामयकामलादीया ॥ अगलंत न वक्खारो, लालासेयादिवज्जण तथेव । उस्सास -भास-सयणासणादीहि होति संकंती ॥ ... सीते व दाउ कप्पं, उवरिमधोतं परिहरंति ॥ (व्यभा २७८३, २७८८-२७९२, २७९५, २७९६ ) त्वग्दोष (कुष्ठ) के दो प्रकार हैं १. स्यन्दमान - वह चर्मरोग, जिसमें शरीर से कृमि, कच्चा मवाद, मवाद (रसी) आदि झरते हैं। २. अस्यन्दमान - यह अस्रावी चर्मरोग है। इसके दो रूप हैंचित्रप्रसुप्ति-शरीर पर श्वेत, काले आदि विचित्र धब्बे हो जाते हैं। ० ० मण्डलप्रसुप्ति-- कोढ विशेष, जिसमें गोल चकत्ते हो जाते हैं। चर्मरोगी के प्रस्रवण, स्वेद और शरीर के स्पर्श से, उसके साथ एक पात्र में भोजन करने पर उसकी लार उसके द्वारा परिभुक्त पीठ फलक वस्त्र आदि का परिभोग तथा २१५ चिकित्सा करने से चर्मरोग के कीटाणु नीरोग व्यक्ति में संक्रान्त हो जाते हैं। संक्रान्ति से बचने के उपाय- स्यन्दमान चर्मरोगी की प्रस्रवणभूमि और निष्क्रमण - प्रवेश स्थान पृथक् होना चाहिए। यदि पृथक् भूमि संभव न हो तो उस एक ही भूमि में रोगी के योग्य स्थान को राख आदि से रेखांकित कर देना चाहिए, जिससे कि अन्य व्यक्तियों के द्वारा उस स्थान का परिहार किया जा सके। रोगी के दूषित प्रस्रवण पर स्वस्थ पैर रखने से पैरों में व्याधि संक्रांत हो सकती है । स्यन्दमान रोगी को पैरों में उपानद् पहनकर निर्गमन प्रवेश करना चाहिए। अस्यन्दमान रोगी की प्रस्रवणभूमि पृथक् होनी चाहिए, प्रवेशनिर्गम स्थान एक हो सकता है। चर्मरोगी का संस्तारक भी कुछ दूरी पर करना चाहिए, जिससे स्पर्शदोष के कारण व्याधि संक्रात न हो। रोगी द्वारा स्पृष्ट वस्त्र का भी उपयोग नहीं करना चाहिए । व्याधिसंक्रमण से बचने के लिए रोगी के साथ एक पात्र में भोजन नहीं करना चाहिए। उसके स्वेद - प्रस्वेद, जल्ल (शरीर मैल) तथा पात्रपटल और अन्तर्वस्त्र का भी परिहार करना चाहिए। अन्यथा व्याधि संक्रान्त हो जाती है, जैसे सेटुक के परिवार में हुई थी। (सेटुक ब्राह्मण लोलुपतावश पुनः पुनः वमन कर भोजन करता, अतः उसे कुष्ठ रोग हो गया । परिवार ने उसका अपमान किया । प्रतिशोध की भावना से वह एक बकरा लाया। उसने तृणों को कुष्ठरस से क्लिन्न कर बकरे को खिलाया। फिर बकरे का मांस पुत्रों आदि को खिलाया । वे सब कुष्ठ रोग से ग्रस्त हो गए। सेटुक रात्रि में घर से निकल गया । वह जंगलों में औषधिमूल के धावन जल को पीने से स्वस्थ हो गया । - उप्रा प ११, १२ ) कुष्ठ, क्षय, खुजली, चेचक, नेत्ररोग, कामल आदि संक्रामक बीमारियां हैं। अस्यन्दमान त्वचारोगी को अलग कक्ष में नहीं रखना चाहिए किन्तु उसके लार, स्वेद, उच्छ्वास, भाषा, शयन आदि का वर्जन करना चाहिए ( उनसे दूर रहना चाहिए ) शीतसुरक्षा आदि के लिए रोगी दूसरों के वस्त्र ओढे तो उन्हें धोकर ही पुनः काम में लेना चाहिए। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिकित्सा २१६ आगम विषय कोश-२ (कुष्ठ के अठारह प्रकार हैं-१. कपाल, २. उदुम्बर, ७. व्रण के प्रकार ३. मण्डल, ४. ऋष्यजिह्व, ५. पुण्डरीक, ६. सिध्म, ७. काकणक दुविधो कायम्मि वणो, तदुब्भवागंतुगो तु णातव्वो। (ये सात महाकुष्ठ हैं) , ८. एककुष्ठ, ९. चर्माख्य, १०. तद्दोसो व तदुब्भवो, सत्थादागंतुओ भणिओ॥ किटिभ, ११. विपादिका, १२. अलसक, १३. दद्रु, १४. (निभा १५०१) चर्मदल, १५. पामा, १६. विस्फोटक, १७. शतारु, १८. कायव्रण के दो प्रकार हैंविचर्चिका (ये ग्यारह क्षुद्रकुष्ठ हैं) ० तददभव-शरीर के दोष से शरीर पर होने वाला व्रण। मण्डलकुष्ठ-सफेद एवं लालवर्ण का, स्थिर, स्त्यान, स्निग्ध यथा-कुष्ठ, किटिभ, दाद, खुजली, फोड़ा आदि। और जो कुष्ठ का मण्डल (घेरा) बना हो वह कुछ उन्नत हो ० आगंतुक-शस्त्र, कंटक आदि से होने वाला व्रण, सर्प आदि तथा परस्पर एक से दूसरा मण्डल सटा हुआ हो तो उसे के काटने से होने वाला व्रण, शिरावेध आदि। . मण्डलकुष्ठ कहा जाता है। ८. व्रणलेप के प्रकार सिध्मकुष्ठ-जो कुछ श्वेत वर्ण का या ताम्र वर्ण का हो, सो पुण लेवो चउहा, समणो पायी विरेग संरोही। पतला और रगड़ने से जिससे धूलि के समान चूर्ण निकलता वडछल्लितुवरमादी हो और जो लौकी के फूल के समान हो, उसे सिध्मकुष्ठ (निभा ४२०१) कहते हैं। यह कुष्ठ प्रायः वक्षस्थल में होता है। व्रण पर किए जाने वाले लेप के चार प्रकार हैं-च चिकित्सास्थान ७/१३-१९ १. शमन-जो वेदना का उपशमन करता है। श्यामत्व का अर्थ है कोढ और शबलत्व का अर्थ है २. पाकी-जो व्रण को पकाता है। सफेद कोढ–श्वित्रलक्षण।-आ २/५४ की चू, वृ) ३. विरेचन-जो रक्त आदि के विकार को नष्ट करता है। ५. कृमिकुष्ठ में रत्नकंबल उपयोगी ४. संरोहण-जो व्रण को भरता है। ..."गेलण्ण कोट्ट कंबल, अहिमाइ पडेण ओमज्जे॥ बड़ की छाल, तुवर आदि व्रण-वेदना-शामक होते हैं। (निभा ५०००) ९. व्रणचिकित्सा के विविध साधन कृमिकुष्ठ आदि रोगों में रत्नकंबल का उपयोग तथा व्रणरोहकानि तैलानि व्रणतैलानि, तथातिजीर्ण सर्प आदि के काटने पर अखंड वस्त्र से अपमार्जन किया घृतं द्रव्यौषधानि च यैरौषधैः संयोजितैस्तैलं घृतं वातिजाता है। पच्यते। (व्यभा २४०५ की वृ) ६. चर्मरोग में गृहधूम का उपयोग व्रणरोहण के लिए अनेक प्रकार के तैल, बहुत पुराना घरधूमोसहकज्जे, दहु किडिभेदकच्छुअगतादी। घी और द्रव्यौषधियां काम में ली जाती हैं। औषधियों को (निभा ७९८) संयोजित कर तैल या घी पकाया जाता है। गृहधूम (रसोईघर की दीवार पर या छत के नीचे चूल्हे ... वणभेसज्जे स सप्पि-महु पट्टे ।....... के जमे धुएं) से दाद, किटिभ (क्षुद्र कोढ), खुजली आदि चर्म (बृभा ३०९५) रोगों की चिकित्सा की जाती है। व्रण पर घी या मध से मिश्रित भैषज्य लगाकर उसे अंगुलिमंतरा य कुहिया कोद्दवपलालधूमेण रज्जति। पट्ट से बांधा जाता है। (निभा १४९९ की चू) १०. पुराने घृत आदि से व्रणसंरोहण कुथित (सड़ी हुई) अंगुलि को कोद्रव-पलाल-धूम उवट्ठितम्मि संगामे, रणो बलसमागमो। से रंजित किया जाता है। एगो वेज्जोत्थ वारेती, न तुब्भे जुद्धकोविया॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ २१७ घेण्यंतु ओसधाई, वणपट्टा मक्खणाणि विविहाणि । सो बेतऽमंगलाई, मा कुणह अणागतं चेव ॥ किं घेत्तव्वं रणे, जोग्गं पुच्छिता इतरेण ते । भणंति वणतिल्लाई, घतदव्वोसहाणि य॥ भग्गसिव्वित संसित्ता, वणा वेज्जेहि जस्स उ । सो पारगो उ संगामे, पडिवक्खो विवज्जते ॥ (व्यभा २४०३-२४०६ ) दो राजाओं में युद्ध छिड़ गया। एक राजा के पास कुछ वैद्य उपस्थित हुए और साथ में रहने की प्रार्थना की। राजा ने कहा- तुम युद्धविद्या में कुशल नहीं हो। वे वैद्य बोले- राजन् ! यद्यपि हम युद्धविद्या में कुशल नहीं हैं फिर भी में युद्ध घायल हुए सैनिकों के लिए हमारी वैद्यक्रिया अत्यन्त उपयोगी है। आप अनेक प्रकार की औषधियां, व्रणपट्ट तथा विविध तैल और लेप साथ में ले लें। यह कहने पर राजा ने कहाआप अनागत अमंगल की भावना न करें। दूसरे राजा के पास भी वैद्य गए। राजा ने उन्हें पूछासंग्राम के लिए क्या-क्या उपयोगी द्रव्य आवश्यक होंगे ? यह पूछने पर वैद्यों ने कहा- 'व्रण-संरोहण तैल, अत्यन्त पुराना घी तथा औषधियां मंगाएं। उनमें तैल और घी को पकाया जा सकेगा। व्रण संरोहण चूर्ण तथा व्रणलेप वाली औषधियां साथ में लें ।' राजा ने अपने सेवकों से सारी सामग्री एकत्रित करने के लिए कहा। दोनों राजाओं में युद्ध छिड़ा। जिस राजा के साथ वैद्य थे, उन वैद्यों ने मुद्गर आदि से आहत भटों को औषधियों से स्वस्थ कर दिया तथा जो भट घायल हुए थे, उनके व्रणों को सीकर औषधियों का लेप कर दिया। इस प्रकार व्रणित और प्रहारित सभी योद्धा दूसरे दिन युद्ध के लिए तैयार हो गए। वैद्यों ने दूसरे और तीसरे दिन भी उपचार किया। वह राजा वैद्यों के परामर्श से अपने भटों को स्वस्थ करता हुआ युद्ध में विजयी बना। दूसरा राजा पराजित हो गया। (घृत मधुर रस, सौम्य, मृदु, शीतवीर्य, अल्प अभिष्यन्दि होता है, गुदावर्त, उन्माद, अपस्मार, शूल, ज्वर, आनाह और वात-पित्त को शांत करता है। यह अग्निदीपक, स्मृति, मति, मेधा, कांति, स्वर, ओज, तेज, बल को बढ़ाता है, आयुवर्धक और पवित्र होता है । चिकित्सा दस वर्ष का पुराना घृत विरेचक, कटु-विपाकी, त्रिदोषनाशक, मूर्च्छा, मद, उन्माद, ज्वर, गर, योनिशूल, कर्णशूल, नेत्रशूल और शिरशूल को नष्ट करता है, नस्य : में हितकारी है। १११ वर्ष पुराना घृत राक्षस, प्रेत, बाघ आदि के भय को दूर करता है। यह वायु-कफनाशक, बलकारक, मेधावर्धक और नेत्ररोगनाशक है। इस पुराने घी को कुंभसर्पि और महाघृत भी कहा जाता है । सुसूत्रस्थान ४५ / ९६-११०) ११. पादतल पर लेप वेजोवदेसेण पायतलरोगिणो मगदंतियातिलेवेण अण्णेण वा रंगो कायव्वो । (निभा १४९९ की चू) वैद्य के निर्देशानुसार पादतलरोगी अपने पैर पर मगदंतिका आदि से लेप करता है अथवा अन्य रंग से रंगता है। १२. अतिवमन विरेचन से वल्गुली- कोढ सो अमच्चो दिणे दिणे जेमणवेलाए जिमितो वा तं संभरिता उड्डुं करेति । एवं तस्स वग्गुली वाही जातो, विट्ठो य । (निभा २९३७ की चू) एक अमात्य पूर्वदृष्ट वमन की घटना को याद कर कभी भोजनवेला में तथा कभी भोजन करने के पश्चात् वमन करता। इससे उसे वल्गुलि व्याधि उत्पन्न हुई और वह दिवंगत हो गया। अतीव वमणे मरेज्ज, अतिविरेयणे वा मरेज्ज । अह उभयं धरेति तो उड्डनिरोहे कोढो, वच्चनिरोहे मरणं । (निभा ४३३२ की चू) अति वमन और अति विरेचन से मृत्यु होती है । वमन -निरोध से कोढ और मल-निरोध से मृत्यु होती है । १३. नाक का अर्श होने का एक कारण रुधिरगन्धेन नासार्शांस्युपजायन्ते । (व्यभा १०१७ की वृ) रुधिर की दुर्गंध से नाक में अर्श हो सकता है। १४. कटिरोग का एक कारण भारेण वेयणाए हिंडते उच्चनीयसासो वा । बाहुकडिवायगहणं, "I (व्यभा २५७४) Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिकित्सा २१८ आगम विषय कोश-२ रोग अत्यधिक भार को उठाने से वेदना होती है। उस भार . नमीयुक्त मकान में निवास करने से भोजन का पाचन नहीं की वेदना के साथ ऊंचे-नीचे स्थानों में घूमने से श्वास का होता, इससे अजीर्ण रोग हो जाता है। प्रकोप बढ़ता है, बाहु और कटिभाग वायु से ग्रस्त हो जाता है। ० गीले वस्त्र के नित्य परिभोग से अजीर्ण रोग होता है। १५. वात-पित्त-प्रकोप ....."खद्धादियणगिलाणे अडतो "वातप्रकोपो भवति तथा अत्युष्णपरि ___अच्चुण्हताविए उ, खद्ध-दवादियाण छड्डणादीया।" तापात् पित्तमुद्रिक्ती भवति। (व्यभा २५७३ की वृ) (व्यभा २५३३, २५७५) ___अधिक घूमने से वायुप्रकोप तथा अधिक उष्ण परिताप प्रवाते स्वपतोऽजीर्णमुपजायते। से पित्तप्रकोप होता है। (व्यभा ३३८५ की वृ) १६. उत्पल आदि से पित्तप्रकोप आदि का शमन अत्यधिक तृषा से पीड़ित होकर एक साथ बहुत पउमुप्पलमाउलिंगे, एरंडे चेव निंबपत्ते य। पानी पीने पर अजीर्ण का रोग होता है, वमन आदि होने पित्तुदय सन्निवाते, वातपकोवे य सिंभे य॥ लग जाता है। (निभा ४८९१) बहुत पवन वाले स्थान में अथवा पवनरहित स्थान औषध में सोने से अजीर्ण रोग उत्पन्न होता है। . पित्तप्रकोप उत्पल पद्म १८. जलोदर का कारण सन्निपात बिजौरा .......... परिभोग छप्पति, डउरे .......... । वातप्रकोप एरंडपत्र छप्पदादिसुयऽन्नादिपडियखद्धासुदगोदरं भवति कफप्रकोप नीम के पत्ते -जलोदरमित्यर्थः (निभा ३२३३ चू) ० पित्त आदि की उग्रता : मधुर द्रव्य आदि आहार के साथ जूं खाने पर जलोदर होता है। पित्तोदये मधुराभिलाषः... श्लेष्मोदयादम्ला- १९. मिट्टीभक्षण से पांडुरोग भिलाष:.."पित्तश्लेष्मोदये मञ्जिकाभिलाषः। पुढवादि .... आहारे त्ति पंडुरोगादिसंभवे। (बृभा ८३१ की वृ) (निभा ४०३४ की चू) ०पित्तोदय होने पर मधुर द्रव्यों की अभिलाषा होती है। मिट्टी खाने से पांडु (पीलिया) रोग हो सकता है। ० कफ की उग्रता होने पर अम्ल वस्तु की इच्छा होती है। २०. वेगनिरोध और रोग ० पित्त और कफ-दोनों की उग्रता होने पर मंजिका की मुत्तनिरोहे चक्खुं, वच्चनिरोहेण जीवियं चयइ। अभिलाषा होती है।(मंजिआ-तुलसी।-दे६/११६) उड्डनिरोहे कोठें, गेलनं वा भवे तिसु वि॥ १७. अजीर्ण रोग के कारण (बृभा ४३८०) ............ जग्गणे अजिण्णादी।......... मूत्र का निरोध होने पर चक्षु का हनन होता है। मल (व्यभा ६४७) का निरोध होने पर जीवन नष्ट होता है। वमन का निरोध सीतलवसहीए भत्तं ण जीरति, ततो गेलण्णं होने पर कुष्ठ रोग होता है। मूत्र, पुरीष और वमन-तीनों का जायति। (निभा ६३६ की चू) सामान्यतः निरोध करने पर भी रोग होता है। एगपडोयारस्स वा उल्लस्स णिच्चपरिभोगेण • वेगनिरोध से मृत्यु अजीरंतो गेलण्णं भवति। (निभा ३२३३ की चू) काइयं सण्णं वा वायकम्मस्स वा णिरोहं करेग्ज, ० अतिजागरण से अजीर्ण रोग होता है। तत्थ गाढतरंगेलण्णं हवेज्ज, मुच्छा वा से हवेज्ज, णिरोहण Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २१९ चिकित्सा वा मरेज्ज, असमाधाणं वा से हवेज्ज। कण्टकादिवेधस्थानानामंगुष्ठादिना परिमर्दनम्। (निभा १६७५ की चू) तदनन्तरं दन्तमलादिना आदिशब्दात्कर्णमलादिपरिग्रहः मल-मूत्र और वायु का निरोध करने से तीव्र रोग हो पूरणं कण्टकादिवेधानाम्। (व्यभा ६६३ वृ) जाता है, मूर्छा आने लगती है, असमाधि उत्पन्न होती है। पैर आदि में कांटा आदि चुभने पर उसे निकालकर वेगनिरोध से मृत्यु तक हो जाती है। वेधस्थान को अंगूठे आदि से मसला जाता है, फिर उसमें दांत २१. पैरधूलि से चक्षु उपहत या कान का मैल डालने से वह भर जाता है। ____ पायणहेसुदीहेसु अंतरंतरे रेणू चिट्ठति, तीए चक्खू २३. चंक्रमण से स्वस्थता उवहम्मति। (निभा १५१९ की चू) वायाई सट्ठाणं, वयंति कुविया उ सन्निरोहेणं। पैरों के लम्बे नखों में रजकण रहते हैं, तो उनसे आंख लाघवमग्गिपडुत्तं, परिस्समजतो उ चंकमतो॥ उपहत होती है। (बृभा ४४५६) चंक्रमण से चार लाभ होते हैं० पैर का परिकर्म चक्षु-उपकारक जो चक्खुसा दुब्बलो सो वेज्जोवएसेण कमेसु १. लम्बे समय तक एक स्थान पर बैठे रहने से वायु आदि कमणीओ पिणद्धि।जं पाएसु अब्भंगणोवाणहाइ-परि धातुएं कुपित (अपने स्थान से चलित) हो जाती हैं । चंक्रमण कम्मं कज्जति तं चक्खूवगारगं भवति।जओ उत्तं करने से वे धातुएं पुनः अपने स्थान में स्थित हो जाती हैं। दंतानामञ्जनं श्रेष्ठ, कर्णानां दन्तधावनम्। २. शरीर में लाघव (हल्केपन)का अनुभव होता है। ३. जठराग्नि प्रदीप्त होती है। शिरोऽभ्यंगश्च पादानां, पादाभ्यङ्गश्च चक्षुषाम्॥ ४. परिश्रम से होने वाली थकान दूर हो जाती है। (निभा ९३३ की चू) २४. अगद (विषनाशक औषधि), तैल आदि जिसकी आंखें कमजोर होती है, वह वैद्य के निर्देशा ...."अगतोसहादिदव्वं कल्लाणग-हंसतेल्लादी। नुसार पैरों में जूते/चप्पल पहनता है। अगतं नकुलाद्यादि, औषधं एलाद्यचूर्णगादि, __ पैरों का अभ्यंजन करना, उपानद् पहनना-यह सारा परिकर्म चक्षु के लिए उपकारक होता है। कहा गया है कल्लाणगं च घृतं, 'हंसतेल्लं' हंसो पक्खी भण्णति, सो दांतों के लिए अंजन, कानों के लिए दन्तधावन, पैरों फाडेऊण मुत्तपुरीसाणिणीहरिजंति, ताहेसो हंसो दव्वाण के लिए सिर की मालिश और आंखों के लिए पैर-अभ्यंग भरिज्जति, ताहे पुणरवि सो सीविज्जति, तेण तदवत्थेण श्रेष्ठ होता है। तेल्लंपच्चति, तंहंसतेल्लं भण्णति।आदि सद्दातो सतपाग सहस्सपागा य तेल्ला घेप्पंति। (निभा ३४८ चू) मुह-नयण-दंत-पायादिधोव्वणे अग्गि-मति-वाणिपडुया, होति अणोत्तप्पया चेव॥ . चिकित्सा में प्रयुक्त होने वाली कुछ वस्तुएं ये हैं ० अगद-नकुलाद्य आदि। (व्यभा २६८३) ० औषध-एलाद्य चूर्ण आदि। मुख, दांत आदि को धोने से जठराग्नि की प्रबलता ० कल्याणक-घृतविशेष। होती है, आंख, पैर आदि धोने से बुद्धि और वाणी की पटुता ० हंसतैल, शतपाक तैल, सहस्रपाक तैल आदि। बढ़ती है तथा शरीर का सौन्दर्य भी बढ़ता है। ० हंसतैल-निर्माणविधि-हंस पक्षी के शरीर को चीर कर २२. कंटकविद्ध की चिकित्सा उससे मलमूत्र बाहर निकालकर, अन्य द्रव्यों से भरकर उसकी ...."परिमद्दण दंतमलादी......... ॥ सिलाई की जाती है। फिर उस अवस्था में उसे तैल में Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिकित्सा २२० आगम विषय कोश-२ पकाया जाता है, वह हंसतैल कहलाता है। ० विष के प्रकार (अगद अनेक प्रकार के होते हैं दव्वविसं खलु दुविधं, सहजं संजोइमं च तं बहुहा।" १. महागद-जो विषवेग को नष्ट करने में अद्वितीय है। सहजं सिंगियमादी, संजोइम घतमहुं च समभागं।" २. अजित अगद ३. तार्क्ष्य अगद ४. संजीवन अगद ५. ऋषभ (व्यभा ३०२८, ३०२९) अगद-यह जटामांसी, हरेणु, त्रिफला, इलायची, दालचीनी, विष के दो प्रकार हैंसपारी. तुलसी के फूल आदि का बारीक चूर्ण करके सूअर, सहजविष-भंगिक आदि। गोह या नेवले के पित्त और मधु के साथ मिलाकर कुछ दिनों संयोगिम-समभाग में घृत और मधु का संयोग। तक गाय के सींग में रखा जाता है। जिस घर में यह अगद प्रत्येक विष के अनेक प्रकार हैं। होता है, वहां सर्प आदि विष नहीं छोड़ते और इस अगद से लिप्त नगाड़े बजाने पर उसकी ध्वनि से विष निष्प्रभावी हो ० वंजुल वृक्ष से विषअपनयन सीतघरं पिव दाहं, वंजुलरुक्खो व जह उ उरगविसं। जाता है। इस अगद से लिप्त पताका को देखकर विष से पीड़ित मनुष्य स्वस्थ हो जाता है। कुद्धस्स तथा कोहं, पविणेती उसवमेति त्ति॥ (व्यभा ४१५२) हल्दी, गृहधूम, तगर, कूठ, ढाक के बीज आदि से बना अगद गलगोलिका के विष को नष्ट करता है। शीतगृह (जलयंत्रगृह) दाह का और वंजुल वृक्ष सर्प-सु कल्पस्थान ५/६३-७५ ; ८/४८ विष का अपनयन करता है। गुरु क्रोधी-शिष्य के क्रोध-विष ० शतपाक तैल का अपनयन-उपशमन करते हैं। १. सौ औषधिक्वाथ के द्वारा पकाया हुआ। (वंजुल वृक्ष-जलवेतस साधारण ऊंचा और सुन्दर २. सौ औषधियों के साथ पकाया गया। होता है। इसकी छाल कृष्णाभ, तंतुमय, कषाय तथा कुछ ३. सौ बार पकाया गया। सुगंधित होती है। पत्ते तीन से छह इंच लम्बे, पत्रोदर हरा, ४. सौ रुपयों के मूल्य से पकाया गया। पत्रपृष्ठ सफेद, पत्रवृन्त लाल, पुष्प सफेदी लिए पीले और ० सहस्रपाक तैल मंजरियां सुगंधित होती हैं। इसके फल लगभग पांच इंच १. सहस्र औषधिक्वाथ के द्वारा पकाया हुआ। लम्बे होते हैं। इसकी छाल एवं पत्तों का चिकित्सा में उपयोग २. सहस्र औषधियों के साथ पकाया गया। किया जाता है। भावप्रकाशनिघण्टु, गुडूच्यादिवर्ग) ३. सहस्र बार पकाया गया। ० स्वर्ण विषघाती ४. सहस्र रुपयों के मूल्य से पकाया गया। विसघाई खलुकणगं, .जोणीपाहुडे॥ -स्था ३/८७ का टि) (व्यभा २३९२) २५. विष की औषध विष स्वर्ण विषघाती होता है। स्वर्ण निर्माण की विधि विसस्स विसमेवेह, ओसधं अग्गिमग्गिणो। योनिप्राभृत में प्रतिपादित है। मंतस्स पडिमंतो उ, दुजणस्स विवज्जणा॥ (विषनाशक, रसायन, मांगलिक, लचीला, दक्षिणा (व्यभा ११५९) वर्त, गुरुक, न जलने वाला और कुथित न होने वाला स्वर्ण विष की औषध विष ही है। अग्नि की औषध अग्नि, असली स्वर्ण है। वह कष, छेद, ताप और ताडन-इन चार मंत्र की औषध प्रतिमंत्र और दुर्जन की औषध विवर्जना है कारणों से परिशुद्ध होता है।-दनि ३२६, ३२७) (उस गांव या नगर के परित्याग से वह दुर्जन परित्यक्त हो . गोमय (गोबर) विषघाती जाता है)। ...."गोमयंकायंसि वणं आलिंपेज्ज""॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ अभिणववोसिट्ठासति, इतरे उवओग काउ गहणं तु । माहिस असती गव्वं, अणातवत्थं च विसघाती ॥ ( नि १२ / ३६ भा ४१९९) २२१ शरीर में व्रण पर गोबर का लेप किया जाता है। तत्काल विसर्जित गोबर अधिक गुणकारी होता है। उसके न होने पर चिरकाल व्युत्सृष्ट गोबर का उपयोग किया जाता है। छाया में स्थित तत्काल का भैंस का गोबर विषघातक होता है। उसके अभाव में गाय का गोबर काम में लिया जाता है। धूप में रखे हुए गोबर का रस सूख जाता है, अतः वह गुणकारी नहीं होता। २६. वमन, विरेचन आदि से चिकित्सा वमणं विरेयणं वा अब्भंगोच्छोलणं सिणाणं वा । नेहादितप्पण रसायणं व नरिंथ च वथि वा ॥ वण्ण-सर-रूव-मेहा, वंगवलीपलित-णासणट्ठा वा । दीहाउ तट्ठता वा, थूल- किसट्टा व तं कुज्जा ॥ वयत्थंभणं एगमणेगदव्वेहिं रसायणं, णासारसादिरोगणासणत्थं णासकरणं णत्थं, कडिवाय-अरिसविणासणत्थं च अपाणद्दारेण वत्थिणा तेल्लादिप्पदाणं वत्थिकम्मं । (निभा ४३३०, ४३३१ चू) वमन, विरेचन, गात्र - अभ्यंग (तैल आदि से मालिश), उत्क्षालन ( देशस्नान), स्नान आदि से शरीर को स्वस्थ रखा जाता है। वर्ण, स्वर, रूप, मेधा आदि को उत्कृष्ट बनाने के लिए घृत आदि का तर्पण (स्नेहपान ) किया जाता है। एक-अनेक द्रव्यों से बने रसायनों (जरा-व्याधिविनाशक भेषज) के सेवन से वयस्तंभन (स्थिरयौवन) होता है । नस्य- नाक के अर्श को मिटाने लिए नस्यकरण (नाक से घी आदि सूंघना) किया जाता है। वस्तिकर्म - कटिवात, अर्श आदि मिटाने के लिए अपानद्वार से तेल आदि चढ़ाया जाता है। मुंह आदि के दाग, शरीर की झुर्रियां आदि मिटाने, दीर्घायु बनने, कृश से स्थूल और स्थूल से कृश होने के लिए विविध द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है। (जो स्वस्थ व्यक्ति को ऊर्जस्वल और अस्वस्थ व्यक्ति चिकित्सा को स्वस्थ बनाता है, वह रसायन है। रसायन भेषज का सेवन करने से दीर्घायु, स्मरणशक्ति, मेधा, आरोग्य, तारुण्य, प्रभा, वर्ण और स्वर का औदार्य, देह और इन्द्रियों की शक्तिसंपन्नता, वाक्सिद्धि, प्रति, कांति आदि गुण निष्पन्न होते हैं। - च चिकित्सास्थान १/५-८ शरीर की शोभा - विभूषा के लिए वमन, विरेचन आदि क्रियाएं मुनि के लिए निषिद्ध हैं, क्योंकि इनसे ब्रह्मचर्य की साधना में बाधा आती है ।) वमण-विरेगादीहिं, अब्भंतर- पोग्गलाण अवहारो । तेल्लुव्वट्टण - जल- पुप्फ-चुण्णमादीहि बज्झाणं ॥ (निभा २३१७) वमन, विरेचन आदि द्वारा शरीर के भीतरी दूषित पित्त - श्लेष्म आदि का अपहार किया जाता है। तैलमर्दन, उबटन, जल, पुष्प-चूर्ण आदि द्वारा शरीर के बाहरी अशुचिभूत पी, रक्त आदि का शोधन किया जाता है । २७. अतिश्रम से बुद्धिक्षीणता परिश्रमेण बुद्धेः संव्यापादनात्। (व्यभा २५९९ की वृ) अतिश्रम से चित्तविक्षेप - बुद्धि-विनाश होता है । २८. क्षेत्र आदि की स्निग्धता से आयु- मेधा वृद्धि द्धिमधुरेहि आउं, पुसति देहिं दिपाडवं मेहा । ... यथा देवकुरोत्तरासु क्षेत्रस्य स्निग्धगुणत्वादायुषो दीर्घत्वं, सुसमसुसमायां च कालस्य स्निग्धत्वाद्दीर्घत्वमायुषः, तथेहापि स्निग्धमधुराहारत्वात् पुष्टिरायुषो भवति, सा च न पुद्गलवृद्धेः, किन्तु युक्तग्रासग्रहणात् क्रमेण भोग इत्यर्थः । देहस्य च पुष्टिरिन्द्रियाणां च पटुत्वं भवति, मेधा च खीरादिणा भवति । (निभा ३५४१ चू) जैसे देवकुरु - उत्तरकुरु में क्षेत्र की स्निग्धता के कारण तथा सुषमसुषमा अर में काल की स्निग्धता के कारण आयु दीर्घ होती है, वैसे यहां (भरतक्षेत्र में) भी स्निग्ध-मधुर आहार आयु पुष्ट होती है। वह पुष्टि आयु की पुद्गलवृद्धि रूप नहीं होती । पुष्टि से तात्पर्य है युक्त आहार-विहार से आयु का क्रमपूर्वक भोग होता है । देह की पुष्टि और इन्द्रियों का पाटव बढ़ता है। क्षीर आदि से मेधा बढ़ती है। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिकित्सा २२२ आगम विषय कोश-२ वाव ० ब्राह्मी आदि का सेवन : वाक्पाटव, मेधा.... एवं विसत्तगं।ततो एतेण कमेण महुरोल्लणं अंबकुसणेण ब्राह्मयाद्यौषधोपयोगतो वाक्पाटवं, शरीरजाड्या- भिंदति। ___ (निभा ३००५-३००७ चू) पहायौषधाभ्यवहारतः शरीरलघुता, दुग्धप्रणीताहारा रोग उत्पन्न होने पर तेले (तीन दिन का उपवास) ऽभ्यवहारतो मेधाविशिष्टं च धारणाबलं, सर्पि:- सन्मिश्र- आदि के तप तथा उष्णोदक-पान की क्रमशः वृद्धि से उपचार भोजनभुक्तित ऊर्जा, घृतेन पाटवम्। (व्यभा ७५७ की वृ) किया जाता है। टव-ब्राह्मी आदि औषधियों के सेवन से वाणी की विशेष रूप से अजीर्ण, ज्वर आदि रोगों के असाध्य पटुता, बुद्धि का विकास। हो जाने पर रोगी तब तक उपवास करता है, जब तक वह • शरीरलाघव-शारीरिक जड़तानाशक औषधियों के सेवन से रोग से मुक्त नहीं होता। जो सहिष्णु/समर्थ है, वह रोगमुक्त शरीर का हल्कापन। होने के पश्चात् भी उपवास करता है। ० मेधा-धारणाबल-दुग्धपान और प्रणीत आहार से मेधाविशिष्ट जो रोगी असमर्थ है, वह दो दिन का उपवास या धारणा शक्ति का विकास। तीन दिन का उपवास करता है। अथवा रोग को जानकर ० ऊर्जा-घी-संमिश्रित भोजन से ऊर्जा की वृद्धि। उसके अनुकूल पथ्य सेवन करता है। यथा-वायुरोग में घृत ० पाटव-घृतसेवन से दक्षता का संवर्द्धन। आदि का पान, अवभेदक रोग में घृतपूर का भक्षण। (अर्धावभेदक, सूर्यावर्त्त, अनन्तवात आदि रोगों में २९. उपवास से रोगचिकित्सा तथा पारणविधि किह उप्पण्ण गिलाणो, अट्ठमउण्होदगातिया वुड्डी। वात-पित्तनाशक आहार दिया जाता है। यथा-घृत, क्षीरान्न, किंचि बहुभागमद्धे, ओमे जुत्तं परिहरंतो॥ संयाव (लपसी), घृतपूर आदि।-सु उत्तरतंत्र अ २६) रोगी के पारण-विधि का क्रम इस प्रकार हैजावण मुक्को तावऽणसणं तुअसहुस्स अट्ठ छटुं वा। ० प्रथम सप्ताह-सात दिन उष्णोदक में चावल के सिक्थ मुक्के वि अभत्तट्ठो, णाऊण रुयं तु जं जोग्गं॥ डालकर उन्हें किंचित् मलकर पारण करता है। एवं पि कीरमाणे, वेज पुच्छंतऽठायमाणे वा ० द्वितीय सप्ताह-फिर सात दिन उष्णोदक में अल्पमात्रा में विसेसेण रोगस्स जं पत्थं तं कीरेति, जहा वायुस्स मधुर उल्वण (तक्र से आर्द्र ओदन) डालकर उस उदक से घतादिपाणं, अवभेयगे वा घयपूरभक्खणं असहू रोगेण पारण करता है। अमुक्को जता पारेति तदा इमो कमो (तक्कोल्लणं-तक्राख्यम्, 'उल्लणं' येनौदनउसिणोदए कूरसित्था णिच्छुब्भिउं ईसिं मलेउं मार्टीकृत्योपयुज्यते।-पिनि ६२४ वृ पारेति, एवं सत्तदिणे उसिणोदगे महुरोल्लणं थोवं 'देशीशब्दकोश' में 'ओल्लणी' शब्द का अर्थ किया छ्ब्भति तेण उदगेण पारेति, एएण वि सत्तदिणे ततिय- गया है-मार्जिता, इलायची, दालचीनी आदि से संस्कत दधि।) सत्तगे किंचि मत्तातो बहुयरं महुरोल्लणं उसिणोदगे ० तृतीय सप्ताह-तीसरे सप्तक में कुछ अधिक मात्रा में मधुर छुब्भति, एतेण वि सत्तगं। उल्वण उष्णोदक में डालता है। 'भागे' त्ति तिभागो मधुरोल्लणस्स दो भागा . चतुर्थ सप्ताह-तीन भाग मधुर उल्वण, दो भाग उष्णोदक। उसिणोदगे, एतेण वि सत्तगं। ० पंचम सप्ताह-आधा भाग मधुर उल्वण, आधा भाग 'अद्धं' त्ति अद्धं महुरोल्लणस्स अद्धं उसिणो- उष्णोदक। दगस्स, एतेण वि सत्तगं। ततो परं तिभागो उसिणो- ० षष्ठ सप्ताह-तीन भाग उष्णोदक, दो भाग उल्वण। दगस्स महुरोल्लणस्स दो भागा, एवं पि सत्तगं। ततो ऊणो ० सप्तम सप्ताह-सातवें सप्तक में न्यून त्रिभाग उष्णोदक, तिभागो उसिणोदगस्स समहिगा दो भागा महुरोल्लणस्स, समधिक दो भाग मधुर उल्वण। एवं पिसत्तगं। ततो किंचिमत्तं उसिणोदगं सेसं महुरोल्लणं, ० अष्टम सप्ताह-किंचित् मात्र उष्णोदक, शेष मधुर उल्वण। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २२३ चिकित्सा । हा तत्पश्चात् इस क्रम से आम्ल करम्बे के साथ मधुर अवसर को जानने वाला। उल्वण और अन्य यूषों का प्रयोग करता है। इतना प्रयोग करने देशज्ञ-वैद्य के अवकाश के क्षणों को अथवा उसके उपवेशनपर भी रोग उपशांत न हो तो वैद्य से परामर्श करता है। स्थान को जानने वाला। (मोयप्रतिमा पालन करने के पश्चात् आहार-ग्रहण ० अनुमत-जो ग्लान अथवा वैद्य द्वारा मान्य है। वह वैद्य के की विधि का उल्लिखित विधि से प्रायः साम्य है। उसमें पास जाकर पूछताछ करे, किन्तु उस समय यदि वैद्य एक प्रथम सप्ताह में गर्म पानी के साथ चावल, दूसरे सप्ताह में शाटक हो, तैल आदि से म्रक्षण या कल्क आदि से लिप्त यूषमांड यावत् आठवें सप्ताह में मधुर दही अथवा यूषों के हो, मुंडन करा रहा हो, राख, कचवरपुंज आदि के समीप साथ चावल।-द्र प्रतिमा स्थित हो, काष्ठ आदि का छेदन कर रहा हो अथवा किसी दही कषाय, अनुरस, स्निग्ध, प्राणकारक और पवित्र के दूषित अंग या शिरा का छेदन-भेदन कर रहा हो-इन होता है। यह विषम ज्वर, अतिसार, अरुचि, मूत्रकृच्छ्र और अप्रशस्त योगों में उससे कुछ न पूछे। यदि रोगी के छेदनकृशता को दूर करता है। चावल मधुर, शीतवीर्य, लघुपाकी, भेदन कराना हो तो पूछा जा सकता है। ज्वरहर, बलकारक तथा पित्तनाशक होते हैं। वह सुखासन में आसीन हो, प्रसन्न मुद्रा में वैद्यक-सु सूत्रस्थान ४५/६५; ४६/५-७) शास्त्र पढ़ रहा हो अथवा किसी की चिकित्सा कर रहा हो. ३०. वैद्य के पास जाने की विधि एवं योग्यता उस समय उससे पूछने पर वह रोगी की अवस्था को सुनकर एक्कग दुगं चउक्कं, दंडो दूया तहेव नीहारी।.... उपाय बता देता है या स्वयं रोगी के पास आ जाता है। (बृभा १९२१) (जो रोगी के निमित्त चिकित्सक को बुलाने जाता है प्राचीन परंपरा के अनुसार वैद्य के पास एक, दो या वह दूत कहलाता है। जो दूत निन्दा करते हुए, गधे या ऊंट चार मुनि नहीं जाते थे। क्योंकि एक मनि जाने से वैद्य उसे । है। किसानोमा पो की सवारी पर चढकर या एक-दसरे के पीछे पंक्ति बनाकर यमदण्ड की दृष्टि से देखता है, दो मुनियों को यमदूत मानता । वैद्य के समीप आते हैं, वे अप्रशस्त हैं। रूक्ष, निष्ठुर एवं है। चार मुनियों के साथ जाने से वह कहता है-शव को कंधा अमंगल वचन बोलते हुए दूत अप्रशस्त हैं। देने वाले आए हैं। अत: तीन मुनि जाते थे। जो वैद्य दक्षिण दिशा में मुख किए हुए, अपवित्र स्थान में, जलती अग्नि के समीप बैठे हुए, नग्नावस्था में उग्गहधारणकुसले, दक्खे परिणामए य पियधम्मे। कालण्णू देसण्णू तस्साणुमए य पेसेज्जा। भूमि पर शयन करते हुए, अपवित्र, विमुक्त केश की अवस्था में तैल अभ्यंग करते हुए मिले, वह अप्रशस्त है। साडऽब्भंगण उव्वलण, लोयछारुक्कुरडेय छिंद-भिंदंते। सुह आसण रोगविही, उवदेसो वा वि आगमणं॥ कृत्तिका, आर्द्रा, मघा आदि नक्षत्र, चतुर्थी, नवमी आदि (निभा ३०१६, ३०२२) तिथियां और संध्याकाल दूतगमन के लिए वर्जनीय है। सफेद वस्त्र धारण किए हुए, प्रसन्नचित्त, पैदल चलकर आचार्य रोगी के बारे में पूछने के लिए वैद्य के पास आए हुए, स्मृतियुक्त, विधि और काल के ज्ञाता, मंगलकारी दूत जिसको भेजे, वह निम्न गुणों से युक्त हो कार्य को सफल करने वाले होते हैं।-सु सूत्रस्थान अ २९) ० अवग्रहण-धारण कुशल-वैद्य के कथन को ग्रहण और धारण करने में समर्थ। ० वैद्य को रोगी की अवगति ० दक्ष-कार्य को शीघ्र संपादित करने वाला। वाहि नियाण विकारं, देसं कालं वयं च धातुं च। ० परिणामक-उत्सर्ग-अपवाद को जानने वाला। आहार अग्गि-धिइबल, समुइं च कहिंति जा जस्स॥ • प्रियधर्मा-श्रुत--चारित्रधर्म में श्रद्धावान्। (बृभा १९२७) ० कालज्ञ-चिकित्सक के पास जाने के समय को अथवा परिचारक वैद्य के पास जाकर रोग और रोगी की पूर्ण Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिकित्सा २२४ आगम विषय कोश-२ समगमगा। जानकारी देता है। वह उन्हें बताता हैव्याधि-जो व्याधि हो, उसका नामोल्लेख। निदान-रोगात्पत्ति का कारण। विकार-प्रवर्धमान रोग की स्थिति। देश-रोगोत्पत्ति का कारण प्रवात अथवा निवात प्रदेश। काल-रोगवद्धि का समय पूर्वाह्न आदि। वय-रोगी की उम्र। धातु-वात-पित्तप्रकोप है या कफप्रकोप? आहार-आहार आदि की मात्रा न्यून या अधिक? अग्निबल-जठराग्नि मंद है या प्रबल? धृतिबल-धृतिबल मजबूत है या कमजोर? Ayat-si, TNTEN Bी ३१. निदानतुल्य औषधिवर्जन .""दोसोदए य समणं, ण होइ न निदाणतुल्लं वा॥ रोगाणामुदये औषधं न दीयते, यतश्च निदाना- दुत्थितो व्याधिः तत्तुल्यं-तत्सदृशमपि वस्तु रोगवृद्धिभयान्न दीयते: यद्रा दोषोदये दीयमानं शमनं न ननिदानतुल्यं भवति, किन्तु भवत्येव, ततो न दातव्यम्। ___ (बृभा ५२०२ वृ) रोगों का उदय होने पर वह वस्तु औषध रूप में नहीं दी जाती, जिस वस्तु के कारण रोग उत्पन्न हुआ है, क्योंकि उससे रोग की वृद्धि का भय रहता है। अथवा रोगों के उदय में दी जाने वाली औषधि रोगोत्पत्ति के कारणभूत द्रव्य की भांति नहीं होती, ऐसा नहीं है, वह होती ही है इसलिए उसको नहीं देना चाहिए। ३२. लघु व्याधि से पूर्व ..... की चिकित्सा वणकिरियाए जा होति, वावडा जर-धणुग्गहादीया। काउमुवद्दवकिरियं, समेंति तो तं वणं वेज्जा। (व्यभा ७००) किसी रोगी की व्रणचिकित्सा प्रारम्भ करने पर यदि बीच में ही उसके ज्वर या धनुग्रह (वायविशेष) जैसी किसी बड़ी व्याधि का उपद्रव उत्पन्न हो जाये तो चिकित्सक पहले उस बड़ी व्याधि का शमन करते हैं, तत्पश्चात् उस व्रण का उपचार करते हैं। ३३. रोग की उपेक्षा से हानि : वृक्ष आदि दृष्टांत ...."णहछेज्जरिणेहि दिटुंतो॥ उवेक्खितो वाही दुच्छेज्जो भवति, जहा रुक्खो अंकरावस्थाए णहछेज्जो भवति.विवडितो पण जायमलो महाखंधो कुहाडेण वि दुच्छेज्जो। रिणं पि अवड्डिअं अप्पत्तणओ सुच्छेज्ज, विवड्डियं दुगुणचउगुणं दुच्छेग्जं। (निभा ४३३८ चू) व्याधि की उपेक्षा करने से वह दुःसाध्य हो जाती है। वक्ष दष्टांत-वक्ष जब अंकर अवस्था में होता है, तब उसका नख से भी छेदन किया जा सकता है। जिस वृक्ष की जड़ें जम जाती हैं, स्कंध बड़ा हो जाता है, उस वृक्ष को कुल्हाड़ी से काटना भी कठिन होता है। ० ऋण दृष्टांत-जब तक ऋण बढ़ता नहीं है, थोड़ा होता है, वह सरलता से चुकाया जा सकता है । बढ़े हुए दुगुने-चारगुने कर्ज को चुकाना बहुत कठिन है। चित्तचिकित्सा-चित्त विक्षेपहरणी क्रिया। १. द्रव्यचित्त-भावचित्त ____ * समाधिस्थ चित्त द्रचित्तसमाधि २. असमाधिस्थ चित्त के प्रकार और कारण ३. रागजन्य क्षिप्तता : मृत्युदर्शन बोध ० भयजन्य क्षिप्तता : अभय का प्रदर्शन ० वातजन्य क्षिप्तता और चिकित्सा ० उपसर्गजन्य क्षिप्तता : तप-जप प्रयोग | ४. क्षिप्तचित्त-संरक्षण : संघ द्वारा वैयावृत्त्य ५. क्षिप्तचित्त की परवशता क्षिप्तचित्त : प्रायश्चित्त संबंधी आदेश |६. दृप्तचित्त और क्षिप्तचित्त में अंतर ० शातवाहन दृष्टांत | ७. दीप्तचित्तता के कारण एवं निवारण ८. यक्षाविष्ट व क्षिप्त-दीप्त में अंतर ९. यक्षावेश के कारण १०. उन्माद के हेतु * भाव विशोधि से मोहचिकित्सा द्र लेश्या |११. वात-पित्तजन्य उन्माद की चिकित्सा १२. उन्माद और उपसर्ग Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ १. द्रव्यचित्त-भावचित्त जीवो उ दव्वचित्तं, जेहिं च दव्वेहिं जम्मि वा दव्वे । नाणादिसु सुसमाही, धुवजोगी भावओ चित्तं ॥ अकुसलजोगनिरोहो, कुसलाणं उदीरणं च जोगाणं । एयं भावचित्तं .... ॥ दव्वचित्तं जीव एव, चित्तं न जीवद्रव्यादन्यत्वे वर्त्तते, न वा चित्तात् जीवोऽर्थान्तरभूतः । अथवा जीवो हि द्रव्यं सचेतनाभिसंबन्धाद् गुणपर्यायोपगमादनुपयो गाद्वा दव्वचित्तं ।''भावचित्तं ज्ञानाद्युपयोगः । नाणं मणवइकातसहगतं । एवं दरिसणंपि, चरित्तंपि । (दशानि ३३, ३३ / १ चू) जीव द्रव्यचित्त है । चित्तोत्पादक द्रव्य अथवा जिन द्रव्यों में चित्त उत्पन्न होता है, वे भी द्रव्यचित्त हैं । ज्ञान आदि में सुसमाधि तथा ध्रुवयोग भावचित्त है । अकुशल योगों का निरोध और कुशल योगों की उदीरणा भावचित्त है । द्रव्यचित्त जीव ही है । चित्त जीवद्रव्य से अन्य नहीं है । जीव चित्त से अन्य नहीं है । अथवा जीव ही द्रव्यचित्त है, उसके तीन कारण हैं १. . सचेतन अभिसंबंध २. गुणपर्याययुक्तता ३. अनुपयोग ज्ञान-दर्शन- चारित्र के उपयोग में मन-वचन-काययोग से समन्वित चित्त भावचित्त है । (स्थूल शरीर के साथ कार्य करने वाली चेतना चित्त है । मति श्रुतज्ञान से सम्पन्न आत्मा चित्त है । चित्त के तीन रूप हैं - भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्तन । मनोवर्गणा से उपरंजित चित्त ही मन है । - श्रीआको १ आत्मा) मणसंकप्पो त्ति वा अज्झवसाणं ति वा चित्तं ति (निभा २८९३ की चू) २२५ मनसंकल्प, अध्यवसान और चित्त- ये तीनों पर्यायवाची नाम हैं। (चित्त की मुख्य दो अवस्थाएं हैं-समाधिस्थ (स्वस्थ) चित्त और असमाधिस्थ चित्त ।) २. असमाधिस्थ चित्त के प्रकार और कारण रागेण वा भएण व, अधवा अवमाणितो नरिंदेणं । एतेहिं खित्तचित्तो, वणियादि परूविया लोगे ॥ चित्तचिकित्सा भयतो सोमिलबडुओ, सहसोत्थरितो व संजुगादीसु । धणहरणेण पहूण व विमाणितो लोइया खित्तो ॥ जड्डादी तेरिच्छे, सत्थे अगणी य थणियविज्जू य । “ (व्यभा १०७८, १०७९, १०८६ ) असमाधिस्थचित्त (अस्वस्थचित्त) के तीन प्रकार हैं - क्षिप्तचित्त, दृप्तचित्त तथा उन्मत्तचित्त ।) चित्त की विक्षिप्तता के मुख्य कारण तीन हैं - अनुराग, भय और राजा आदि के द्वारा किया गया अपमान । ० अनुराग - प्रिय व्यक्ति के अनिष्ट, वियोग, मरण आदि से होने वाले चित्तविप्लव का हेतु राग है। एक वणिग्भार्या अकस्मात् अपने पति की मृत्यु का संवाद सुन विक्षिप्त हो गई। ० भय - गजसुकुमालमारक सोमिल ब्राह्मण कृष्ण के भय से क्षिप्त-चित्त हो गया। युद्ध आदि का तथा अतर्कित आक्रमण भय भी विक्षिप्तता का हेतु है । • अपमान - राजा आदि के द्वारा सारी सम्पत्ति छीन लिए जाने पर, अपमानित होने पर व्यक्ति क्षिप्तचित्त हो जाता है। हाथी आदि जानवरों को, शस्त्रों को तथा आगजनी को देखकर, मेघ की गर्जना और बिजली के कड़कने की आवाज सुनकर व्यक्ति क्षिप्तचित्त हो जाता 1 o ( आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार भय के कुछ कारण ये हैं - ऊंचे स्थान, खुले स्थान और बंद स्थान का भय, पीड़ा का भय, तूफान, बिजली एवं गर्जन से भय, स्त्रियों से भय, रक्त, जल, अग्नि और कीटाणुओं से भय, अकेलेपन से भय, शव से भय, अंधेरे और भीड़ से भय, जानवरों से भय, रोगसंक्रमण से भय । यह सब असंगत भय है, असामान्य चित्त अवस्था है । आधुनिक असामान्य मनोविज्ञान, पृ. २५३ ) ३. रागजन्य क्षिप्तता : मृत्युदर्शनबोध तेलोक्कदेवमहिता, तित्थगरा नीरया गता सिद्धिं । 'थेरा वि गता केई, चरणगुणपभावगा धीरा ॥ न हु होति सोइयव्वो, जो कालगतो दढो चरित्तम्मि । सो होति सोइयव्वो, जो संजमदुब्बलो विहरे ॥ (व्यभा १०८३, १०८४) कोई राग के कारण क्षिप्तचित्त हो तो उसे मृत्यु की अनिवार्यता का दर्शन समझाना चाहिए Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तचिकित्सा त्रिभुवनवर्ती देवों द्वारा पूजित तीर्थंकर भी नीरज ( कर्मरज से रहित ) हो सिद्ध हो गये। गौतमस्वामी जैसे चरणगुणप्रभावक, महासत्त्वसम्पन्न स्थविर महर्षि भी मुक्त हो गये ( तो शेष प्राणियों की तो बात ही क्या ? संसार की असारता और जीवन की क्षणभंगुरता का बोध करो, शोक मत करो।) वह शोचनीय नहीं है, जो दृढ़ता से चारित्र का पालन कर कालकवलित हुआ है। शोचनीय वह जो संयम में दुर्बल होकर विहरण करता है। ० भयजन्य क्षिप्तता: अभय का प्रदर्शन कम्म एससीहो, गहितो अध धाडितो य सो हत्थी । खुड्डलतरगेण तु मे, ते वि य गमिया पुरा पाला ॥ सत्थऽग्गिं थंभेडं, पणोल्लणं ...........*॥ (व्यभा १०८८, १०८९) कोई शिष्य हाथी या सिंह के भय से विक्षिप्त हुआ हो तो गुरु पहले एकांत में हस्तिपाल या सिंहपाल को सारी स्थिति बता देते हैं, फिर क्षिप्तचित्त को वहां ले जाते हैं। सबसे पहले छोटा बालक निर्भयता से सिंह के कान पकड़ता है और दूसरा बालक हाथी की सूंड, कान आदि का स्पर्श करता है तब गुरु कहते हैं - देखो, यह बालक भी हाथी के साथ क्रीड़ा कर रहा है। सिंह और हाथी को भी प्रेरित कर रहा है, तो तुम व्यर्थ में ही क्यों डरते हो ? ऐसा देखकर वह स्वस्थ हो जाता है। यदि कोई शस्त्र या अग्नि को देखकर क्षिप्तचित्त हुआ हो तो विद्या-बल से शस्त्र और अग्नि का स्तंभन कर क्षिप्तचित्त व्यक्ति के देखते-देखते उस शस्त्र और अग्नि को पैरों तले रौंदकर दिखाते हैं । • वातजन्य क्षिप्तता और चिकित्सा वातश्लेष्मापहारः । निद्ध महुरं च भत्तं, करीससेज्जा य णो जहा वातो।" शय्या च करीषमयी सोष्णा भवति, उष्णे च (बृभा ६२१६ वृ) वायुरोग से उत्पन्न विक्षिप्तता स्निग्ध-मधुर भोजन और करीष की शय्या के प्रयोग से दूर की जा सकती है। करीषमयी शय्या उष्ण होती है। उष्णता से वात और श्लेष्म आगम विषय कोश- २ का नाश होता है। जिससे वायु को अवकाश न मिले, वैसा उपाय करना चाहिए । २२६ उपसर्गजन्य क्षिप्तता: तप-जप प्रयोग .....देविय धाउक्खोभे, णातुस्सग्गो ततो किरिया ॥ .....यदि दैविक इति कथितं तथा प्रासुकैषणीयेन तस्या उपचारः, शेषसाध्वीनां तपोवृद्धिः, तदुपशमनाय च मन्त्रादिस्मरणम् । (बृभा ६२१६ वृ) O अमुक साधु साध्वी भूत-प्रेत आदि देवकृत उपद्रव से विक्षिप्त है या धातुक्षोभ से ? यह जानने के लिए देवाराधना हेतु कायोत्सर्ग किया जाता है और उस आकंपित देवता के कथन के अनुसार उपचार किया जाता है। यदि देवकृत उपसर्ग के कारण विक्षिप्तता हो तो प्रासुक - एषणीय द्रव्यों से उसका उपचार किया जाता है। शेष साधु-साध्वियां अपने तप में वृद्धि करते हैं तथा मंत्र आदि के स्मरण द्वारा उपद्रव का शमन करते हैं। ४. क्षिप्तचित्त-संरक्षण : संघ द्वारा वैयावृत्त्य मिउबंधेहि तथा णं, जमेंति जह सो सयं तु उट्ठेति । उव्वरगसत्थरहिते, बाहि कुडंगे असुण्णं च ॥ छम्मासे पडियरिडं, अणिच्छमाणेसु भुज्जतरगो वा । कुल- गण - संघसमाए, पुव्वगमेणं निवेदेज्जा ॥ आहार- उवहि- सेज्जा, उग्गम-उप्पायणादिसु जतंता।" (व्यभा १०९६, ११००, ११०४ ) क्षिप्तचित्त को मृदु बंधन से बांध देते हैं, जिससे वह स्वयं उठ बैठ सके। उसे उस कक्ष में रखा जाता है, जिसमें शस्त्र आदि न हो और बाहर से द्वार को वंशजालिका, डोरी आदि से बंद कर दिया जाता है। उसे एकाकी नहीं छोड़ा जाता, बारी-बारी से एक-एक व्यक्ति को उसकी सेवा में नियुक्त किया जाता है। उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से शुद्ध आहार, उपधि, शय्या आदि के द्वारा छह मास तक उसकी सेवापरिचर्या की जाती है, फिर भी वह स्वस्थ नहीं होता है और अत्यधिक सेवा के कारण परिचारक साधु परिश्रांत हो जाने पर अब सेवा करना नहीं चाहते हैं तो कुल, गण और संघ को Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २२७ चित्तचिकित्सा एकत्रित कर उसकी परिचर्या के लिए निवेदन किया जाता है, होने से प्रमाण है। अथवा परवशता के कारण वह शुद्ध ही फिर कुल आदि यथाक्रम से उसकी सेवा करते हैं। है, किंतु अगीतार्थ को प्रतीति दिलाने के लिए परिषद् के ५.क्षिप्तचित्त की परवशता मध्य उसे लघुस्वक (निर्विकृतिक तप रूप) प्रायश्चित्त पासंतो वि य काये, अपच्चलो अप्पगं विधारेउ। प्रदान करना चाहिए। जह पेल्लितो अदोसो, एमेव इमं पि पासामो॥ ६. दृप्त और क्षिप्त में अंतर यथा परेण प्रेरित आत्मानं विधारयितुं असमर्थः ...''जो होइ दित्तचित्तो, सो पलवतिऽनिच्छियव्वाई॥ सन् पश्यन्नपि कायान् पृथिवीकायिकादीन् विराधयन् इति एस असम्माणो, खित्तोऽसम्माणतो भवे दित्तो। अन्निकापुत्राचार्य इवनिर्दोषः। (व्यभा १११६ वृ) अग्गी व इंधणेहिं, दिप्पति चित्तं इमेहिं तु॥ किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा प्रेरित होने पर अपने को लाभमदेण व मत्तो, अधवा जेऊण दुज्जए सत्तू। रोकने में असमर्थ व्यक्ति पथ्वीकाय आदि को देखता हआ दित्तम्मि सातवाहण भी उसकी विराधना करता है, पर वह अन्निकापुत्राचार्य की (व्यभा ११२३-११२५) भांति निर्दोष होता है। यही स्थिति क्षिप्तचित्त की है। जो दृप्तचित्त होता है, वह असंबद्ध प्रलाप करता है। (एक बार अर्णिकापुत्र आचार्य गंगा के उस पार जाने क्षिप्तचित्त अपहृतचित्तता के कारण मौन भी रहता है। के लिए नौका में चढे। नौका के जिस भाग में वे बैठे. वह भाग क्षिप्तचित्त का कारण असम्मान और दृप्तचित्त का पानी में डूबने लगा, तब वे नौका के ठीक मध्य में बैठ गये। कारण विशिष्ट सम्मानसम्प्राप्ति तथा लाभ का गर्व है। ईंधन अब तो पूरी नौका ही डूबने लगी। तत्काल लोगों ने सूरि को से अग्नि की भांति हर्षातिरेक से व्यक्ति उद्दीप्त हो जाता है। जल में फेंक दिया और एक व्यंतरी ने पूर्व वैर का प्रतिशोध लेने दुर्जेय शत्रुओं को जीतकर भी व्यक्ति दृप्तचित्त हो जाता है। के लिए उन्हें शूल में पिरो दिया। अर्णिकापुत्राचार्य परमकोटि यहां शातवाहन की दृप्तता उदाहरणीय है। की समता से संवलित करुणा-नौका में आरूढ़ हो सोचने .शातवाहन दृष्टांत लगे-हा! मेरी रक्तधारा से जलकायिक जीवों की हिंसा हो रही मधरा दंडाऽऽणती........दो वि पाडेउं॥ है-इस परम शुक्ल भावधारा से उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो. सुतजम्म महुरपाडण, निहिलंभनिवेयणा जुगव दित्तो। गया।-उप्रा भाग १ पृ. १८, १९) सयणिज्जखंभकुड्डे, कुट्टेइ इमाइ पलवंतो॥ ० क्षिप्तचित्त : प्रायश्चित्त संबंधी आदेश ..""कुसलेण अमच्चेणं, खरगेणं सो उवाएणं॥ "तेगिच्छम्मि कयम्मि य, आदेसा तिन्नि सुद्धो वा॥ विद्दवितं केणं ति य, तुब्भेहिं पायतालणा खरए। ."परिसाए मज्झम्मी, पट्ठवणा होति पच्छित्ते॥ कत्थ त्ति मारितो सो, दुट्ठ त्ति य दंसणे भोगा॥ (व्यभा ११०५, ११०६) (व्यभा ११२६, ११२७, ११३०, ११३१) चिकित्सा द्वारा क्षिप्तचित्त मुनि के स्वस्थ होने पर जो गोदावरी नदी के तट पर प्रतिष्ठान नगर। शातवाहन प्रायश्चित्त दिया जाता है, उसके संबंध में तीन आदेश हैं- राजा । खरक अमात्य । दण्डनायक ने सूचना दी-राजन्! हमने १. कुछ आचार्य मानते हैं-उसे गुरु प्रायश्चित्त में स्थापित उत्तर मथुरा और दक्षिण मथुरा पर अधिकार कर लिया है। करना चाहिए। अंत:पुर से एक दूती ने आकर कहा-देव! पट्टदेवी २. एक मत है-लघु प्रायश्चित्त देना चाहिए। ने पुत्ररत्न को जन्म दिया है। एक अन्य व्यक्ति ने आकर ३. अन्य मत है-लघुस्वक देना चाहिए। कहा-राजन् ! अमुक प्रदेश में विपुल निधि प्रकट हुई हैं। इस तीसरा आदेश व्यवहार सूत्र (२/६) में प्रतिपादित प्रकार एक साथ तीन शुभ संवाद सुनकर राजा अति हर्ष के Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तचिकित्सा २२८ आगम विषय कोश-२ कारण दीप्तचित्त हो गया। वह शय्या को पीटने लगा, खंभों व्यक्ति दीप्तचित्त हो जाता है। और दीवारों को तोड़ने लगा और असमंजस-अनर्गल प्रलाप इस दीप्तता-निवारण के लिए उसके द्वारा आनीत करने लगा। कुशल मंत्री खरक ने असंबद्ध प्रलापी राजा को आहार आदि दुर्लभ द्रव्यों की उसके समक्ष जुगुप्सा करनी स्वस्थ करने के लिए उपाय खोजा। उसने सब खंभों-दीवारों चाहिये-यह वस्तु अच्छी नहीं है, इसमें अमुक दोष है। को तुड़वा दिया। ये किसने विनष्ट किये? राजा के पूछने पर अथवा अदृश्य-दृष्टांत से भावना करनी चाहिए-देखो, अमुक खरक मंत्री ने निष्ठुरता से कहा-आपने। कुपित राजा ने मंत्री व्यक्ति तुम्हारे से शतभाग या सहस्र भाग हीन है, फिर भी को पैरों से रौंदा। तत्काल पूर्व संकेतित पुरुषों ने मंत्री को उत्कृष्ट वस्तु लेकर आया है। इस अपभ्राजना से वह उठाकर छिपा दिया। राजा ने पूछा-मंत्री कहां है ? 'वह स्वस्थचित्त हो जाता है। आपके द्वारा ही मारा गया है।' यह सुनकर वह विलाप करने विजित होने के कारण जिसका चित्त दीप्त हआ हो, लगा। उसके स्वस्थ होने पर मंत्री को प्रस्तुत किया गया। उसके समक्ष पूर्व प्रज्ञापित चरक आदि प्रचण्ड वादी को प्रस्तुत समग्र वत्तांत सन राजा प्रसन्न हआ और मंत्री को विपल कर किसी छोटे साधु के द्वारा उसे पराजित किया जाता है। इस भोग-सामग्री प्रदान की। अपभ्राजना से वह दीप्तचित्त मनि स्वस्थ हो जाता है। ७. दीप्तचित्तता के कारण और निवारण ८. यक्षाविष्ट व क्षिप्त-दीप्त में अन्तर महज्झयण भत्त खीरे, कंबलग-पडिग्गहे फलग सङ्के। पोग्गलअसुभसमुदओ, एस अणागंतुको दुवेण्हं पि। पासादे कप्पटे, वादं काऊण वा दित्तो॥ जक्खावेसेणं पुण, नियमा आगंतुगो होति॥ पुंडरियमादियं खलु, अज्झयणं कड्डिऊण दिवसेणं। अहवा भय सोगजुतो, चिंतद्दण्णो व अतिहरिसितो वा।" हरिसेण दित्तचित्तो, एवं होज्जाहि कोई उ॥ (व्यभा ११४०, ११४१) दिवसेण पोरिसीय व, तुमए ठवियं इमेण अद्धण। यक्षाविष्ट व्यक्ति पीड़ित होता है। उस पीड़ा का एतस्स नत्थि गव्वो, दुम्मेधतरस्स को तुझं॥ हेतुभूत अशुभ पुद्गलसमूह नियमतः आगंतुक होता है। तद्दव्वस्स दुगुंछण, दिटुंतो भावणा असरिसेणं।.... भय-शोकातुर और चिंतातुर क्षिप्तचित्त तथा अतिहर्षित चरगादि पण्णवेडं, पुव्वं तस्स पुरतो जिणावेंति। दृप्तचित्त में पीड़ा के हेतुभूत अशुभ पुद्गल अनागंतुक (स्वशरीर ओमतरागेण ततो, पगुणति ओभामितो एवं॥ संभवी) होते हैं। (व्यभा ११३२, ११३३, ११३५, ११३६, ११३९) । ९. यक्षावेश के कारण : दो दृष्टांत 'पुण्डरीक' जैसे महान् अध्ययन को मैंने एक दिन या । पुव्वभवियवरेणं, अहवा रागेण रंगितो संतो। एक प्रहर में ही पढ़ लिया है-इस अहं से मुनि दीप्तचित्त हो एतेहि जक्खविट्ठो, सेट्ठी सज्झिलग वेसादी॥ सकता है। आचार्य कहते हैं-देखो-अमुक शिष्य ने आधे प्रहर सेट्ठिस्स दोन्नि महिला, पिया य वेस्सा य वंतरी जाता। में ही इस अध्ययन को पढ़ लिया है। फिर भी इसे गर्व नहीं है। सामन्नम्मि पमत्तं, छलेति तं पुव्ववेरेणं॥ तुम्हें अपनी दुर्मेधा का गर्व क्यों? इस प्रज्ञापन से दीप्तचित्त को जेट्टगभाउगमहिला, अज्झोवण्णाउ होति खुड्डुलए। अपनी बुद्धि की अल्पता का अनुभव होता है और वह स्वस्थ धरमाण मारितम्मी, पडिसेहे वंतरी जाया। हो जाता है। (व्यभा ११४२-११४४) उत्कृष्ट आहार, रत्नकंबल आदि बहुमूल्य उपधि, पूर्वभविक वैर अथवा रागरंजित होने के कारण व्यक्ति चम्पक, तिनिशपट्ट आदि फलक, दातार श्रावक, प्रासाद आदि यक्षाविष्ट होता है। उपाश्रय, रूपलावण्यसम्पन्न-प्रज्ञानिधान शिष्य और शास्त्रार्थ श्रेष्ठी दष्टांत-एक सेठ के दो पत्नियां थीं। एक प्रिय, दुसरी में विजय-इन सब की उपलब्धि के गर्व से, अतिहर्ष से अप्रिय । अप्रिया अकामनिर्जरा के कारण मरकर व्यंतरी बनी। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २२९ चित्तसमाधिस्थान श्रेष्ठी श्रमण बना। एक बार उस श्रमण को प्रमत्त देखकर का दुःखोत्पादन-यह आत्मसंचेतनीय उपसर्ग है। त्रिविध व्यंतरी 'ने पूर्वभव के वैर के कारण उसे ठग लिया। देवकृत, मनुष्यकृत और तिर्यंचकृत उपसर्ग परसमुत्थ हैं। भ्राता दृष्टांत-दो भाई थे। बड़े भाई की पत्नी छोटे भाई में * उपसर्ग चतष्टयी के हेत द्र श्रीआको १ उपसर्ग अनुरक्त थी। अपनी कामेच्छापूर्ति के लिए उसने अपने पति चित्तसमाधिस्थान-चैतसिक समाधान के हेतु। को विषमिश्रित भोजन खिलाकर मार डाला। छोटे भाई को यह ज्ञात हुआ तो वह विरक्त हो प्रवजित हो गया। देवर के चित्तसमाधिप्राप्ति की अर्हता प्रतिषेध से संतप्त वह मरकर व्यंतरी बनी। अवधिज्ञान से अज्जो ! इति समणे भगवं महावीरे समणा निग्गंथा व्यंतरी ने जब श्रमण (देवर) को प्रमत्त देखा तो छल लिया। यनिग्गंथीओ य आमंतेत्ता एवं वयासी-इह खलु अज्जो! पूर्वराग पश्चात् द्वेष में परिवर्तित हो गया। निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इरियासमिताणं भासा१०. उन्माद के हेतु : मोह आदि समिताणं एसणासमिताणं आयाणभंडमत्तनिक्खेवणाउम्माओखलु दुविधो, जक्खावेसोय मोहणिज्जोया" समिताणं उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावरूवंगिं दट्टणं, उम्मादो अहव पित्तमुच्छाए।" णितासमिताणं मणसमिताणं वइसमिताणं कायसमिताणं (व्यभा ११४७, ११४८) मणगुत्ताणं वइगुत्ताणं कायगुत्ताणं गुत्ताणं गुतिंदियाणं गुत्तबंभयारीणं आयट्ठीणं आयहिताणं आयजोगीणं आयउन्माद दो प्रकार का होता है-यक्षावेशहेतुक और परक्कमाणं पक्खियपोसहिएसु समाधिपत्ताणं झियायमोहकर्मोदयहेतुक। माणाणं इमाई दस चित्तसमाहिट्ठाणाई असमुप्पन्नपुव्वाइं कोई रूपवती स्त्री को देखकर उन्मत्त हो जाता है। समुप्पज्जिज्जा। (दशा ५/७) पित्तप्रकोप और वातोद्रेक भी उन्माद का हेतु बनता है। आर्यो! श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण-निग्रंथों और ११. वात-पित्त जन्य उन्माद की चिकित्सा निग्रंथियों को आमंत्रित कर इस प्रकार कहावाते अब्भंगसिणेहपज्जणादी तहा निवाते य। __ आर्यो! जो निग्रंथ-निग्रंथी ईर्यासमित, भाषासमित, सक्करखीरादीहि य, पित्ततिगिच्छा उ कातव्वा॥ एषणा समित, आदानभांड-अमत्र-निक्षेपसमित, उच्चार(व्यभा ११५२) प्रस्रवण-श्लेष्म-सिंघाण-जल्ल-पारिष्ठापनिकासमित, वातज (वायुजन्य) उन्माद में तैल आदि से शरीर की मनसमित, वचनसमित, कायसमित, मनोगुप्त, वचनगुप्त, मालिश की जाती है। घृत पिलाया जाता है। रोगी को निवात __ कायगुप्त, गुप्त, गुप्तेन्द्रिय, गुप्तब्रह्मचारी, आत्मार्थी, आत्मा में रखा जाता है। पित्तमूर्छा से उन्मत्त व्यक्ति की शर्करा, का हित करने वाले, आत्मयोगी, आत्मा के लिए पराक्रम क्षीर आदि से चिकित्सा की जाती है। करने वाले, पाक्षिक पौषध करने वाले, सुसमाहित होकर १२. उन्माद और उपसर्ग ध्यान करने वाले होते हैं, उनके अभूतपूर्व दस-चित्तसमाधिमोहेण पित्ततो वा, आयासंचेयओ समक्खातो। स्थान उत्पन्न होते हैं। एसो उ उवस्सग्गो, इमो तु अण्णो परसमुत्थो॥ चित्तसमाधि के प्रकार तिविहे य उवस्सग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे या ..."दस चित्तसमाहिट्ठाणाइं पण्णत्ताई"तं जहा (व्यभा ११५३, ११५४) १. धम्मचिंता वा से असमुप्पन्नपुव्वा समुप्पज्जेज्जा सव्वं मोहोदय या पित्तोदय से उन्मत्त आत्मा संचेतक धम्मं जाणित्तए। २. सण्णिणाणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे होती है (स्वयं के द्वारा स्वयं का दुःख उत्पन्न करती है।) समुप्पज्जेज्जा अहं सरामि। ३. सुमिणदसणे वा से - उपसर्ग के चार प्रकार हैं-आत्मा के द्वारा ही आत्मा असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा अहातच्चं सुमिणं पासित्तए। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तसमाधिस्थान ४. देवदंसणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा दिव्वं देवड्डुिं दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभावं पासित्तए । ५. ओहिनाणे वा से असमुप्पन्नपव्वे समुप्पज्जेज्जा ओहिणा लोयं जाणित्तए । ६. ओहिदंसणे वा से असमुप्पन्नपुळे समुपज्जेज्जा ओहिणा लोयं पासित्तए । ७. मणपज्जवनाणे वा से असमुप्पन्नपुळे समुप्पज्जेज्जा अंतो मणुस्स खेत्ते अड्डातिजेसु दीवसमुद्देसु सण्णीणं पंचेंदियाणं पज्जत्तगाणं मणोगते भावे जाणित्तए । ८. के वलनाणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा केवलकप्पं लोयालोयं जाणित्तए । ९. केवलदंसणे वा से असमुप्पन्नपुळे समुपज्जा केवलकप्पं लोयालोयं पासित्तए । १०. केवलमरणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा सव्वदुक्खपहीणाए । (दशा ५/३, ७) चित्त की समाधि के दस स्थान (हेतु) हैं, जैसे१. धर्मचिन्ता - किसी को अभूतपूर्व धर्मचिन्ता उत्पन्न होती है, उसमें वह सब धर्मों (वस्तु-स्वभावों) को जानकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। २. संज्ञीज्ञान - किसी को अभूतपूर्व संज्ञीज्ञान (जातिस्मृति) उत्पन्न होता है। उससे वह जान लेता है कि पूर्वभव में मैं अमुक था । ३. स्वप्नदर्शन-किसी को अभूतपूर्व स्वप्न-दर्शन होता है । वह यथार्थ स्वप्न देखकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है । ४. देवदर्शन - किसी को अभूतपूर्व देव दर्शन होता है, उससे वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाव को देखकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है । ५. अवधिज्ञान - किसी को अभूतपूर्व अवधिज्ञान प्राप्त होता है। उससे वह लोक को जानकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। ६. अवधिदर्शन - किसी को अभूतपूर्व अवधिदर्शन प्राप्त होता है। उससे वह लोक को देखकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। ७. मनः पर्यवज्ञान - किसी को अभूतपूर्व मनः पर्यवज्ञान प्राप्त होता है। उससे वह अढ़ाई द्वीप और समुद्र - मनुष्यलोक में विद्यमान समनस्क पर्याप्तक पञ्चेन्द्रिय जीवों के मनोगत आगम विषय कोश - २ भावों को जानकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। ८. केवलज्ञान - किसी को अभूतपूर्व केवलज्ञान प्राप्त होता है। उससे वह सम्पूर्ण लोक- अलोक को जानकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। ९. केवलदर्शन - किसी को अभूतपूर्व केवलदर्शन प्राप्त होता है। उससे वह सम्पूर्ण लोक- अलोक को देखकर चैतसिक प्रसन्नता को प्राप्त होता है। १०. केवलिमरण - समस्त दुःखों को क्षीण करने के लिए केवलमरण को प्राप्त करने वाला चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। २३० (समाधि शब्द के अनेक अर्थ हैं - हित, सुख और स्वास्थ्य गुणों का स्थिरीकरण या स्थापन। चित्त की समाधि का अर्थ है - मन का समाधान, मन की प्रशान्तता । स्थान शब्द के दो अर्थ हैं- आश्रय और भेद । समवायांग में दस चित्तसमाधिस्थानों का उल्लेख है। वहां स्वप्न दर्शन दूसरा और संज्ञीज्ञान तीसरा स्थान है दस स्थानों की व्याख्या इस प्रकार है I १. धर्मचिन्ता - पदार्थों के स्वभाव की अनुप्रेक्षा । जो अनादिअतीत काल में कभी उत्पन्न नहीं हुई, वैसी धर्मचिन्ता के उत्पन्न होने पर अर्द्धपुद्गलपरावर्त काल की सीमा से उस व्यक्ति का मोक्ष अवश्यंभावी हो जाता है। ऐसी धर्मचिन्ता से व्यक्ति का मन समाहित हो जाता है और वह जीव आदि के यथार्थ स्वरूप को जानकर, परिहरणीय कर्म का परिहार कर अपना कल्याण साध लेता है । २. स्वप्नदर्शन - जैसे भगवान् महावीर को अस्थिकग्राम में स्वप्न दर्शन हुआ। दस स्वप्न देखे। ये दसों स्वप्न यथार्थ थे, भावी कल्याण के सूचक थे। इसी प्रकार जिस व्यक्ति को यथार्थ स्वप्न दर्शन होता है, वह भावी कल्याण की रेखाएं जानकर चित्तसमाधि को प्राप्त हो जाता है। ३. संज्ञीज्ञान - जातिस्मृति से पूर्वभवों का ज्ञान होने पर व्यक्ति संवेग की वृद्धि हो सकती है और उससे उसे चित्तसमाधि प्राप्त होती है। ४. देवदर्शन - देव अमुक-अमुक साधक के गुणों से आकृष्ट होकर उसे दर्शन देते हैं- उसके सामने प्रकट होते हैं। वे अपनी दिव्य देवऋद्धि-मुख्य देव परिवार आदि को, दिव्य Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ देवद्युति - विशिष्ट शरीर तथा आभूषणों आदि की दीप्ति को तथा दिव्य देवानुभाव - उत्कृष्ट वैक्रिय आदि करने के सामर्थ्य को उस साधक को दिखाने के लिए प्रकट होते हैं, उन देवों की ऋद्धि, द्युति और अनुभाव को देखकर साधक के मन में आगमों के प्रति दृढ़ श्रद्धा पैदा होती है और धर्म के प्रति बहुमान - आन्तरिक अनुराग उत्पन्न होता है। इससे चित्त को समाधान प्राप्त होता है। २३१ ५-७. इसी प्रकार विशिष्ट अवधिज्ञान, अवधिदर्शन और मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न होने पर चित्त समाहित और शांत हो जाता है, विकल्प नष्ट हो जाते हैं। ८, ९. केवलज्ञान और केवलदर्शन - यहां केवली के चित्त का अर्थ है - चैतन्य । केवलज्ञान इन्द्रिय और मानसिक ज्ञान से अतीत होता है। वह चैतन्य का सम्पूर्ण जागरण है, वही चित्तसमाधि है। यहां कार्य में कारण का उपचार कर केवलज्ञानकेवलदर्शन को चित्तसमाधि का हेतु माना है । १०. केवलिमरण - यह सर्वोत्तम समाधि का स्थान है। केवलिमरण मरने वाला सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत हो जाता है । - सम १०/२ टिप्पण) समाधि प्राप्ति के हेतु और परिणाम ओयं चित्तं समादाय, झाणं समणुपस्सति । धम्मे ठिओ अविमणो, निव्वाणमभिगच्छइ ॥ ण इमं चित्तं समादाए, भुज्जो लोयंसि जायति । अप्पणी उत्तमं ठाणं, सण्णीनाणेण जाणइ ॥ अहातच्चं तु सुविणं, खिप्पं पासइ संवुडे । सव्वं चं ओहं तरती, दुक्खतो य विमुच्चइ ॥ पंताइ भयमाणस्स, विवित्तं सयणासणं । अप्पाहारस्स दंतस्स, देवा दंसेंति तातिणो ॥ सव्वकामविरत्तस्स, खमतो भयभेरवं । ओ से तोधी भवति, संजतस्स तवस्सिणो ॥ तवसा अवहट्टुलेसस्स, दंसणं परिसुज्झति । उड्डूमतिरियं च, सव्वं समणुपस्सति ॥ सुसमाहडलेसस्स, अवितक्कस्स भिक्खुणो । सव्वओ विप्पमुक्कस्स, आया जाणति पज्जवे ॥ जदा से णाणावरणं, सव्वं होति खयं गयं । तदा लोगमलोगं च, जिणो जाणति केवली ॥ चित्तसमाधिस्थान जदा से दंसणावरणं, सव्वं होइ खयं गयं । तदा लोगमलोगं च जिणो पासइ केवली ॥ चिच्चा ओरालियं बोंदिं, नामगोत्तं च केवली । आउयं वेयणिज्जं च, च्छित्ता भवति नीरओ ॥ (दशा ५ / ७ गा १-९, १६ ) जो रागद्वेष-मुक्त चित्त को धारण कर ध्यान में वस्तु के स्वभावों की प्रेक्षा- अनुप्रेक्षा करता है, आत्मस्वभाव स्थित और मध्यस्थ है, वह निर्वाण को प्राप्त होता है। चित्तसमाधि को धारण कर आत्मा पुनः पुनः लोक में उत्पन्न नहीं होता । अपने उत्तम स्थान को संज्ञीज्ञान से जान लेता है । ( संज्ञीज्ञान के उत्पन्न होने पर पूर्ववर्ती संख्येय भवों को जाना जा सकता है । - श्रीआको १ जातिस्मृति) संवृत आत्मा यथातथ्य स्वप्न को देखकर शीघ्र ही संसार रूपी समुद्र से पार हो जाता है तथा शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जाता है। अल्पाहारी, अन्तप्रान्तभोजी, विविक्तशयन-आसन सेवी, इन्द्रियों का दमन करने वाले और षट्कायिक जीवों के रक्षक संयत साधु को देव दर्शन होते हैं। सर्व कामभोगों से विरक्त और भीम-भैरव उपसर्गों को सहन करने वाले तपस्वी संयत को अवधिज्ञान होता है। जिसने तप के द्वारा अशुभ लेश्याओं को दूर कर दिया, उसका अवधिदर्शन अति विशुद्ध हो जाता है। वह सर्व ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक्लोक को देखने लग जाता है। सुसमाहित लेश्या वाला, वितर्क से रहित, भिक्षावृत्ति से निर्वाह करने वाला, सर्व प्रकार के संयोगों से मुक्त साधु मनः पर्यवज्ञानी हो जाता है। जब जीव का समस्त ज्ञानावरण कर्म क्षीण होता है, तब वह केवली - जिन होकर लोक- अलोक को जानता है। जब जीव का समस्त दर्शनावरण कर्म क्षीण हो जाता है, तब वह केवली - जिन लोक- अलोक को देखता है। केवली औदारिक शरीर को छोड़कर, नाम, गोत्र, आयुष्य और वेदनीय - इन चारों कर्मों का क्षय कर नीरजसर्वथा कर्ममुक्त हो जाता है। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूला २३२ आगम विषय कोश-२ चूला–अग्र, शिखर। तिविधा य दव्वचूला, सचित्ता मीसिगा य अचित्ता। कुक्कुडसिह मोरसिहा, चूलामणि अग्गकुंतादी॥ अह-तिरिय-उड्डलोगाण, चूलिया होंतिमा उ खेत्तंमि। सीमंत-मंदरे वि य, ईसीपब्भारणामा य॥ अहिमासओ उ काले, भावे चूला तु होइमा चेव। चूला विभूसणं ति य, सिहरं ति य होंति एगट्ठा॥ (निभा ६४-६६) चूला के चार निक्षेप हैं१. द्रव्यचूला-इसके तीन प्रकार हैं। १. सचित्त-कुक्कुट की चूला (मांसपेशी)। २. मिश्र-मयूरशिखा (रोमयुक्त मांसपेशी) । ३. अचित्त-चूडामणि कुंताग्र आदि। २. क्षेत्रचूला-अधोलोकचूला-सीमंतक–रत्नप्रभा पृथ्वी का प्रथम नरक। तिर्यक्लोकचूला-मंदर पर्वत अथवा उसके ऊपर की चवालीस योजन की चूला । ऊर्ध्वलोकचूला-सर्वार्थसिद्धविमान के ऊपर बारह योजन वाली ईषत्प्रारभारा पृथ्वी। ३. कालचूला-अधिक मास वाला अभिवर्धित वर्ष । अथवा कालचक्र का अंतिम भाग। यथा-अवसर्पिणी का छठा अरदुःषमदुःषमा काल। ४. भावचूला-प्रकल्पाध्ययन (निशीथ)द्र छेदसत्र चूला, विभूषण और शिखर-ये एकार्थक हैं। चूला का अर्थ है-मूलग्रंथ का उत्तरग्रंथ। द्र आगम छेदप्रायश्चित्त-प्रायश्चित्त का एक प्रकार । अपराधों का उपचय और शासनविरुद्ध समाचरण होने पर तथा तप के योग्य प्रायश्चित्त का अतिक्रमण होने पर प्रव्रज्या के पांच दिन आदि का छेद करना। छेदसूत्र-मुनि आचार के विधि-निषेधों के प्रतिपादक ग्रंथ। चारित्रविशोधिकारक ग्रंथ, प्रायश्चित्त सूत्र। | १. छेदसूत्र-निर्वृहण का प्रयोजन २. छेदसूत्र बलवान् क्यों? * छेदसूत्र और दृष्टिवाद उत्तम श्रुत द्र आगम ३. छेदश्रुतज्ञाता अरहस्यधारक | ४. छेदसूत्र किस अनुयोग में? ५. छेदसूत्र के योग्य ० छेदसूत्र की अर्थवाचना के अयोग्य ० प्रकीर्णप्रश्न-प्रकीर्णविद्य ० गुरुनिह्नवी : परिव्राजक दृष्टांत | ६. साध्वी को छेदसूत्र की वाचना कब तक? * छेदसूत्र और गीतार्थ द्र गीतार्थ * छेदसूत्रज्ञ श्रुतव्यवहारी द्र व्यवहार * छेदसूत्र और मुनिपर्याय द्र श्रुतज्ञान | ७. निशीथ (आचारप्रकल्प) का उद्गम ० निशीथ नियुक्ति का अस्तित्व ८. निशीथ के पर्यायवाची नाम ९. अप्रकाश्य निशीथ के निक्षेप ० निर्वचन और प्रतिपाद्य * आचारांग-आचारचूला-निशीथचूला द्र आगम १०. निशीथ : पांचवीं चूला * निशीथ : भावचूला द्रचूला ११. निशीथ के चार कल्प |१२. प्रकल्पधर : प्रायश्चित्तदान का अधिकारी |१३. चतुर्विध अनुयोग : उद्देशकों की विषयवस्तु १४. निशीथ में चतुर्विध प्रायश्चित्त १५. प्रायश्चित्त सूत्रों का परिमाण १६. निशीथवाचना के अयोग्य-योग्य १७. निशीथपीठिका के अयोग्य-योग्य | १८. गणधारण में निशीथ की भूमिका १९. निशीथविस्मृति के हेतु : वैद्य दृष्टांत २०. निशीथ की विस्मृति : गणदायित्व का निषेध ० स्थविर के लिए निषेध नहीं | विस्मृतश्रुता को जानने की प्रक्रिया २१. दशा-कल्प-व्यवहार के निर्वृहणकर्ता २२. कल्प-व्यवहार का प्रणयन क्यों? २३. दशा-कल्प-व्यवहार का उद्गम | २४. दशाश्रुतस्कंध का निर्वृहण ___० दशा : छेदसूत्रों में प्रमुखभूत २५. कल्प शब्द के अर्थ २६. कल्प और व्यवहार २७. कल्पाध्ययन और व्यवहार का विषय-भेद ० कल्प-व्यवहार का विस्तार पूर्वाचार्यकृत Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २३३ छेदसूत्र २८. कल्प-व्यवहार की अर्हता पर्यायवाची शब्द माने गये हैं। इनके आधार पर इन्हें व्यवहार २९. कल्प, प्रकल्प आदि के प्रकृत सूत्र, आलोचना सूत्र, शोधि सूत्र और प्रायश्चित्त सूत्र कहा जा ३०. व्यवहार के अर्थाधिकार सकता है। ३१. भद्रबाहु-प्रदत्त व्यवहार : द्वादशांग का नवनीत छेदसूत्रों के लिए छेद नाम का चुनाव क्यों किया १. छेदसूत्र-नि!हण का प्रयोजन गया, इसके समाधान के लिए कुछ अनुमान प्रस्तुत किए जा ............"निज्जूढाओ अणुग्गहठ्ठाए।........." सकते हैंओसप्पिणि समणाणं परिहायंताण आयुगबलेसु ० सामायिक चारित्र अल्पकालीन होता है। जीवनपर्यन्त होने होहिंतुवग्गहकरा पुव्वगतम्मि पहीणम्मिओसप्पिणीए अणंतेहिं वाला चारित्र केवल छेदोपस्थापनीय है। प्रायश्चित्त का समूचा वण्णादिपज्जवेहिं परिहायमाणीए समणाणं ओग्गहधारणा प्रकरण इसी चारित्र से संबंधित है। अतः यह अनुमान किया परिहायंति बलधितिविरिउच्छाहसत्तसंघयणं च। सरीरबल- जा सकता है कि इस चारित्र के आधार पर प्रायश्चित्त सूत्रों विरियस्स अभावा पढिउंसद्धानस्थि. संघयणाभावा उच्छाहो को छेदसूत्र की संज्ञा दी गई। न भवति, अतो तेण भगवता पराणकंपएण'मा वोच्छि- ० पदविभाग और छेद दोनों समानार्थक हैं। इससे यह अनुमान ज्जिस्संति एते सत्तत्थपदा अतो अणग्गहत्थंण आहरुवधि- किया जा सकता है कि छेदशब्द पदविभाग सामाचारी के सेन्जादिकित्तिसद्दनिमित्तं वा निज्जूढा। (दशानि ६ चू) अर्थ में प्रयुक्त किया गया। ० छेदसूत्रों का पौर्वापर्य का संबंध नहीं है। सूत्रों की स्वतंत्र अवसर्पिणी काल में श्रमणों की आयु और शक्ति स्थिति है। उनकी व्याख्या विभागदृष्टि या छेददृष्टि से की क्षीण होती जाएगी, तब संयम में उपकारक पूर्वो का ज्ञान भी जाती है, इसलिए पदविभाग सामाचारी के सूत्रों को छेदसूत्रों क्षीण हो जाएगा। इस काल में शरीर के वर्ण आदि पर्यायों की की संज्ञा दी गई है। अनंतगण हानि होने से श्रमणों की अवग्रहण-धारणा शक्ति ० दशाश्रुतस्कंध, निशीथ, व्यवहार और कल्प-ये चारों नौवें भी क्षीण होगी। बल, धृति, वीर्य, उत्साह, सत्त्व और संहनन पूर्व से उद्धत हैं उससे छिन्न-पृथक किये गये हैं। इसी इन सबकी हानि होगी। शारीरिक बल-वीर्य के अभाव में स्थिति को ध्यान में रखकर इस आगम वर्ग को छेदसत्र की अध्ययन की इच्छा समाप्त हो जाती है। संहनन दृढ़ न हो तो संज्ञा दी गई। उत्साह क्षीण हो जाता है। छेदपिण्ड ग्रंथ में प्रायश्चित्त के आठ पर्यायवाची सूत्रार्थपदों की विच्छित्ति न हो जाए-इस उद्देश्य से नाम हैं-१. प्रायश्चित्त २. छेद ३. मलहरण ४. पापनाशन परानुकंपी भगवान् भद्रबाहु ने शिष्यों पर अनुग्रह कर छेदसूत्रों ५. शोधि ६. पुण्य ७. पवित्र और ८. पावन । छेदशास्त्र में भी का नि!हण किया। आहार, उपधि और शय्या की उपलब्धि प्रायश्चित्त और छेद पर्यायवाची बतलाए गए हैं। इन दोनों के लिए अथवा कीर्ति-यश के लिए नि!हण नहीं किया। उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि 'छेद' प्रायश्चित्त का ही एक नाम (छेदसूत्र : एक विमर्श-सबसे पहले छेदसूत्र का है। छेदसूत्र अर्थात् प्रायश्चित्त सूत्र। प्रयोग आवश्यक-नियुक्ति में मिलता है । फिर विशेषावश्यक प्रायश्चित्त सूत्रों की रचना भद्रबाहु ने की थी। नन्दी भाष्य, निशीथ भाष्य आदि ग्रंथों में यह प्रयुक्त होता रहा है। की रचना तक प्रायश्चित्त सूत्र अंगबाह्य आगम-वर्ग के अन्तर्गत छेदसूत्र का वर्ग स्थापित क्यों किया गया अथवा निशीथ रहे। नियुक्ति रचना के समय में उन्हें छेदसूत्र का स्वतंत्र आदि प्रायश्चित्त सूत्रों का छेदसूत्र' नाम क्यों रखा गया-इस स्थान प्राप्त हो गया था।.... प्रश्न का समाधान स्पष्ट भाषा में प्राप्त नहीं है। वर्तमान में दशाश्रुतस्कंध वर्तमान आकार में प्रायश्चित्त सूत्र नहीं जिन्हें हम छेदसूत्र का नाम देते हैं, वे मूलतः प्रायश्चित्त सूत्र है। छेदसूत्रों में उसकी गणना मुख्यरूप से की गई है-यही हैं। व्यवहार, आलोचना, शोधि और प्रायश्चित्त-ये चार एक ऐसा हेतु है, जो छेदसूत्र के अर्थान्तर के अनुसन्धान की Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदसूत्र २३४ आगम विषय कोश-२ ओर प्रवृत्त करता है। यदि इस हेतु को गौण कर दिया जाए तो व्यवहार और दशा) चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत हैं। का अर्थ प्रायश्चित्त सत्र होने में कोई बाधक प्रमाण महाकल्पश्रत उत्कालिक और शेष छेदसत्र कालिक प्राप्त नहीं है। विभाग के अन्तर्गत हैं। (द्र श्रीआको १ अंगबाह्य) समयसुन्दरगणी ने छेदसूत्रों की संख्या छह बतलाई ५. छेदसूत्र के योग्य है-१. दशाश्रुतस्कंध २. व्यवहार ३. बृहत्कल्प ४. निशीथ आधारिय सुत्तत्थो, सविसेसो दिज्जए परिणयस्स। ५. महानिशीथ ६. जीतकल्प। इनमें से प्रथम पांच छेदसूत्रों सुपरिच्छित्ता य सुनिच्छियस्स इच्छागए पच्छा। का नन्दी में उल्लेख मिलता है।...... (बृभा ८०५) छेदसूत्र जैनसंघ की न्यायसंहिता है। छेदसूत्रों के कृतनिश्चयी परिणामक शिष्य की परीक्षा कर उसे वह मौलिक निषेध अहिंसा एवं अपरिग्रह की सूक्ष्म विचारणा से सारा सूत्रार्थ दिया जाता है, जो सूत्रार्थ अपने गुरु के पास समुत्पन्न हैं। कुछ निषेध अन्यान्य भिक्षुसंघ में प्रचलित प्रवृत्तियों अपवादसहित ग्रहण किया है। अपरिणामक या अतिपरिणामक के परिणामों से संबंधित हैं। शिष्य की केवल उत्सर्ग या केवल अपवाद लक्षण वाली इच्छा आचार्य तुलसी-मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) जब समाप्त हो जाती है, तब उसे छेदसूत्र दिया जा सकता है। निसीहज्झयणं की भूमिका, पृ १३-१६, २७) ० छेदसूत्र की अर्थवाचना के अयोग्य २. छेदश्रुतार्थ बलवान् क्यों? तिंतिणिए चलचित्ते, गाणंगणिए अ दुब्बलचरित्ते। जम्हा उ होति सोधी, छेदसुयत्थेण खलितचरणस्स। आयरियपारिभासी, वामावट्टे य पिसुणे य॥ तम्हा छेदसुयत्थो, बलवं मोत्तूण पुव्वगतं ।। आदीअदिट्ठभावे, अकडसमायारि तरुणधम्मे य। (व्यभा १८२९) गव्विय पइण्ण निण्हइ, छेअसुए वज्जए अत्थं ।। छेदश्रुत के सूत्र और अर्थ के आधार पर चारित्र के (बृभा ७६२, ७६३) अतिचारों की विशोधि होती है, इसलिए पूर्वगत श्रुत के तेरह प्रकार के शिष्यों को छेदसूत्रों के अर्थ की वाचना अतिरिक्त शेष समग्र श्रुतार्थ से छेदसूत्र का अर्थ बलवत्तर नहीं देनी चाहिए (द्र सूत्र) तितिणिक-अनुकूल आहार, उपधि और शय्या की प्राप्ति ३. छेदश्रुतज्ञाता अरहस्यधारक न होने पर प्रलाप बड़बड़ाने वाला, करने वाला। नास्त्यपरं रहस्यान्तरं यस्मात् तद् अरहस्यम् ,अतीव ० चलचित्त-अनेक आगमों का पल्लवग्राही ज्ञान करने वाला। रहस्यच्छेदशास्त्रार्थतत्त्वमित्यर्थः, तद् यो धारयति-अपात्रे ० गाणंगणिक-छह मास पूर्ण किए बिना ही एक गण से दूसरे गण में संक्रमण करने वाला। भ्यो न प्रयच्छति सोऽरहस्यधारकः । (बृभा ६४९० की वृ) ० दुर्बलचारित्र-ज्ञान-दर्शन-चारित्र के पुष्ट आलम्बन के बिना जिसके अतिरिक्त दूसरा रहस्यपूर्ण ग्रंथ नहीं है, वह दोषों का सेवन करने वाला पति और बल से परिडीन अरहस्य अर्थात छेदश्रत का अर्थतत्त्व है। जो छेदशास्त्रों के अपवादों में ही रुचि रखने वाला, मंदधर्मा। अत्यंत रहस्यपूर्ण अर्थ को धारण करता है-अपात्र के समक्ष ० परिभाषी-आचार्य की निंदा और परिभव करने वालो वाला। उसका प्रज्ञापन नहीं करता, वह अरहस्यधारक है। ० वामावर्त्त-गुरु-निर्देश के प्रतिकूल आचरण करने वाला। ४. छेदसूत्र किस अनुयोग में? ० पिशुन-दूसरों के दोषों का उद्भावन कर प्रीति को समाप्त जं च महाकप्पसुयं, जाणि य सेसाइं छेदसुत्ताई। करने वाला। चरणकरणाणुयोगी, त्ति कालियछेओवगयाणि य॥ ० आदिम-अदृष्टभाव-आवश्यक से सूत्रकृतांगपर्यंत आगमग्रंथों (निभा ६१९०) के अभिधेय को आदिमभाव कहा जाता है, उसको नहीं महाकल्पश्रुत और शेष सारे छेदसूत्र (निशीथ, जानने वाला। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ छेदसूत्र o कृतसामाचारीक - उपसम्पदा और मण्डली- इन दोनों प्रकार जो शिष्य आचार्य के पास सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ की सामाचारियों का समाचरण नहीं करने वाला। पढ़कर उस आचार्य के नाम का अपलाप करता है, वह ० तरुणधर्मा - मुनिपर्याय के तीन वर्ष पूर्ण होने से पूर्व छेदश्रुत गुरुनिह्नवी है। सूत्राचार्य और अर्थाचार्य का अपलाप करने का अध्ययन करने वाला । गर्वित - थोड़ा सा अध्ययन कर गर्व से अविनीत होने वाला । ० वाला क्रमशः चतुर्लघु और चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है तथा अबोधि को प्राप्त करता है। इसमें गेरुक अर्थात् परिव्राजक का दृष्टांत इस प्रकार है ० प्रकीर्ण - छेदसूत्रों के रहस्य को अपरिणामक के समक्ष लेश रूप में बताने वाला। एक नापित की क्षुरपेटिका विद्याबल से आकाश में ठहर जाती । एक परिव्राजक ने उस नापित की आराधना कर उससे वह विद्या प्राप्त की। अन्यत्र जाकर उसने अपने त्रिदण्ड को आकाश में प्रतिष्ठित किया। एक दिन राजा ने पूछा- यह तुम्हारी विद्या का अतिशय है या तप का अतिशय है ? परिव्राजक ने कहा- विद्या का अतिशय है। राजा ने पुनः पूछा- यह विद्या कहां से प्राप्त की ? उसने कहा- हिमवान् पर्वत पर 'फलाहार' नामक महर्षि से .....। इतना कहते ही त्रिदण्ड तत्काल गिर पड़ा। O गुरुनिह्नवी - जिस गुरु के पास श्रुत-अध्ययन किया है, उस गुरु के नाम का अपलाप करने वाला । ० प्रकीर्णप्रश्न- प्रकीर्णविद्य २३५ सोउं अणभिगताणं, कहेइ अमुगं कहिज्जई इत्थं । एस उ पइण्णपण्णी, पइण्णविज्जो उ सव्वं पि ॥ अप्पच्चओ अकित्ती, जिणाण ओहाव मइलणा चेव । दुल्लहबोहीअत्तं, पावंति पइण्णवागरणा ॥ (बृभा ७८४, ७८५) जो अर्थ मण्डली में रहस्यपूर्ण ग्रंथों के अर्थ सुनकर वहां से उठता है और अपरिणतों को लेशमात्र बता देता है । जैसे इस सूत्र में प्रलम्ब ग्रहण करने की विधि है । लेशमात्र बताने वाला प्रकीर्णप्रज्ञ होता है। यहां प्रज्ञा का अर्थ हैछेदसूत्रों की रहस्यमयी वचनपद्धति । जो अपरिणतों के पूछने पर छेदसूत्रों के अन्तः पाती रहस्य को प्रकीर्ण रूप में प्रकट करता है, वह प्रकीर्णप्रश्न है । ० जो छेदसूत्रों को उत्सर्ग और अपवादसहित जान कर अपरिणतों को समग्रता से बताता है, वह प्रकीर्णविद्य है । अपरिणामी अतिपरिणामी शिष्य रहस्यपूर्ण पदों को सुन लेते हैं, तो उनमें अविश्वास पैदा हो सकता है, क्योंकि वे विवक्षा या अपेक्षाभेद को नहीं जानते। वे अर्हतों का अपयश करते हैं। वे उत्प्रव्रजित भी हो सकते हैं या अपवाद पद सुनकर शंकाओं से ग्रसित हो ज्ञान-दर्शन- चारित्र को मलिन बना सकते हैं, दुर्लभबोधि भी बन सकते हैं। गुरुनिह्नवी : परिव्राजक दृष्टांत सुत्त - ऽत्थ - तदुभयाई, जो घेत्तुं निण्हवे तमायरियं । लहुया गुरुया अत्थे, गेरुयनायं अबोही य ॥ (बृभा ७८६) ६. साध्वी को छेदसूत्र की वाचना कब तक ? तो जाव अज्जरक्खित, आगमववहारतो वियाणेत्ता । न भविस्सति दोसो त्ती, तो वायंती उ छेदसुतं ॥ आरेणागमरहिया, मा विद्दाहिंति तो न वाएंति । तेण कथं कुव्वंतं, सोधिं तु अयाणमाणीओ ॥ तो जाव अज्जरक्खिय, सद्वाण पगासयंसु वतिणीओ । असतीय विवक्खम्म वि, एमेव य होति समणा वि ॥ (व्यभा २३६५ - २३६७) आर्यरक्षित अंतिम आगमव्यवहारी थे (आगमव्यवहारी का न्यूनतम श्रुत है नौ पूर्व ) । वे आगमबल से जान लेते थे कि अमुक साध्वी को छेदसूत्र की वाचना देने में दोष नहीं है तो उसको वाचना देते थे । आर्यरक्षित के पश्चात् आगमव्यवहारी मुनि नहीं रहे तब आगमरहित अर्थात् श्रुतव्यवहारी साधुओं ने सोचा कि साध्वियां इनके अध्ययन 'अपना अनिष्ट न कर लें, इस भय से उन्हें छेदसूत्रों की वाचना देना बंद कर दिया। आर्यरक्षित के समय तक साध्वी छेदश्रुतसम्पन्न साध्वी के पास आलोचना करती थी। गीतार्थ साध्वी के अभाव में गीतार्थ श्रमण के पास आलोचना की जाती थी। इसी प्रकार Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदसूत्र श्रमण भी श्रमण के पास और गीतार्थ श्रमण का योग न होने पर गीतार्थ साध्वी के पास आलोचना करते थे । आर्यरक्षित के पश्चात् श्रमण- श्रमणियों द्वारा श्रमणों के समीप ही आलोचना की जाने लगी। ७. निशीथ ( आचारप्रकल्प ) का उद्गम निसीध नवमा पुव्वा, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थूओ । आयारनामधेज्जा, वीसतिमे पाहुडच्छेदा॥ (व्यभा ४३५) चौदहपूर्वी में नौवां पूर्व है ' प्रत्याख्यान पूर्व' । उसमें बीस वस्तु (अर्थाधिकार) । तीसरे वस्तु का नाम है 'आचार वस्तु'। उसमें बीस प्राभृतछेद (उपविभाग ) हैं । निशीथ बीसवें प्राभृतछेद से निर्यूढ है । • निशीथ नियुक्ति का अस्तित्व आयारस्स भगवतो, चउत्थचूलाइ एस निज्जुत्ती । पंचमचूलनिसीहं, तस्स य उवरिं भणीहामि ॥ (आनि ३६६ ) नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु ने कहा- आचारांग की चतुर्थ (विमुक्ति) चूला की यह निर्युक्ति है। उसकी पांचवीं चूला है - निशीथ । उसकी नियुक्ति आगे कहूंगा। भणिया विमुत्तिचूला, अहुणावसरो णिसीहचूलाए। (निचू १ पृ १) निशीथ चूर्णिकार ने अपने मंगलाचरण की गाथा में लिखा है - विमुक्तिचूला की चूर्णि लिखी जा चुकी है, अब निशीथचूला की चूर्णि का अवसर है। इदानीं उद्देसकस्स उद्देसकेन सह संबंधं वक्तुकामो आचार्यः भद्रबाहुस्वामी निर्युक्तिगाथामाह - परिहारतवकिलंतो ..... । (निभा १८९५ की चू) निशीथ के चतुर्थ उद्देशक के साथ पंचम उद्देशक की संबंध-योजना के लिए भद्रबाहुस्वामी ने निर्युक्तिगाथा कही है। ( उल्लिखित नियुक्तिकार की प्रतिज्ञा और चूर्णिकार के उल्लेख से निशीथनियुक्ति का अस्तित्व सहज सिद्ध है ।) २३६ ८. निशीथ के पर्यायवाची नाम आयारपकप्पस्स उ, इमाई गोण्णाइं णामधिज्जाई । आयारमाइआई, पायच्छित्तेणऽहीगारो ॥ आगम विषय कोश - २ निशीथ के गुणनिष्पन्न नाम पांच हैं ० आचार - प्रायश्चित्त सूत्र चरणकरणानुयोग (आचार सूत्र ) के अंतर्गत है, अत: यह आचार है। ० अग्र - चार आचारचूलाएं आचारांग के चार अग्र हैं और निशीथ पांचवां अग्र है । आयारो अग्गं चिय, पकप्प तह चूलिया णिसीहं ति ।" ( निभा २, ३ ) ० प्रकल्प - नौवें पूर्व में इसकी प्रकल्पना - रचना की गई है, अतः यह प्रकल्प है । अथवा यह प्रकल्पन - अतिचारों का छेदन करने वाला है, इसलिए प्रकल्प है। ० • चूलिका - चूला और अग्र समानार्थक हैं । (द्र आगम) ० निशीथ - रात्रि यानी एकांत में पठनीय है, गोपनीय है, अतः निशीथ है। निशीथ प्रायश्चित्त सूत्र है, इसमें प्रायश्चित्तसहित आचार की मीमांसा की गई है। ९. अप्रकाश्य निशीथ के निक्षेप दव्वणिसहं कतगादिसु खेत्तं तु कण्ह-तमुणिरया । कालंमि होति रत्ती, भाव णिसीधं तिमं चेव ॥ जं होति अप्पगासं, तं तु णिसीहं ति लोगसंसिद्धं । जं अप्पगासधम्मं, अण्णं पि तयं निसीधं ति ॥ ( निभा ६८, ६९ ) (निशीथ शब्द का शाब्दिक अर्थ है अर्धरात्रि, जो अंधकार या अप्रकाश की सूचक है। द्रव्य आदि निक्षेपों से निशीथ की व्याख्या की गई है ।) ० द्रव्यनिशीथ - कलुषतायुक्त वस्तु। जैसे अशुद्ध जल में कतकफल का चूर्ण डालने से उसका मैल नीचे जम जाता है। क्षेत्रनिशीथ - अंधकारपूर्ण क्षेत्र । जैसे कृष्णराजि, तमस्काय, सीमंतक आदि नरक । ० कालनिशीथ - रात्रि | • भावनिशीथ - निशीथ सूत्र ( प्रकल्पाध्ययन), क्योंकि यह सूत्र - अर्थ की दृष्टि से अप्रकाश्य है, रहस्यमय है, अपवादबहुल है, अनधिकारी के सम्मुख प्रकाश्य नहीं है। जो अप्रकाशधर्मा ० Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ हैं, वे लोक में भी निशीथ नाम से प्रसिद्ध हैं। लौकिक रहस्यसूत्र ( विद्या, मंत्र आदि) भी अपरिपक्व बुद्धि वालों के समक्ष प्रकाशनीय नहीं होते । ० निर्वचन और प्रतिपाद्य अट्ठविह कम्म- पंको, णिसीयते जेण तं णिसीधं ति । अविसेसे वि विसेसो, सुइं पि जं णेइ अण्णेसिं ॥ आयारे चउसु य, चूलियासु उवएस वितहकारिस्स । पच्छित्तमिहज्झयणे, भणियं अण्णेसु य पदेसु ॥ (निभा ७०, ७१ ) जिससे ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मपंक क्षीण होता है, वह निशीथ है । यद्यपि सभी अध्ययन कर्मक्षीण करने में समर्थ हैं किन्तु निशीथ अध्ययन की अपनी विशेषता है। यह अपवाद बहुल है। अतः अगीतार्थ, अतिपरिणामक और अपरिणामक शिष्यों के लिए इसका श्रवण भी निषिद्ध है। आचारांग तथा उसकी प्रथम चार चूलाओं (आचारचूला के पिण्डैषणा से विमुक्ति पर्यंत सोलह अध्ययनों) में मुनि की आचारविधि का निर्देश है। उन निर्देशों का अतिक्रमण या विपरीत आचरण होने पर जो प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, उसका प्रतिपादन निशीथ अध्ययन में तथा कल्प, व्यवहार आदि में भी है। २३७ शिष्य ने पूछा- क्या अनाचार का ही प्रायश्चित्त है अथवा अन्य पदों का भी ? आचार्य कहते हैं— अतिक्रम, व्यतिक्रम तथा अतिचार का भी प्रायश्चित्त है। शिष्य ने फिर पूछा- क्या आचार और आचारचूला में निर्दिष्ट तथ्यों के अतिक्रमण का ही प्रायश्चित्त कहा गया है ? आचार्य ने कहा- नहीं, ऐसी बात नहीं है । अन्यान्य सूत्रों (सूत्रकृतांग आदि) में भी विहित अनुष्ठानों के विपरीत आचरण में प्रायश्चित्त का विधान है। .... दिट्ठा निसीधनामे सव्वे वि तहा अणायारा ॥ (व्यभा ३५१ ) निशीथ अध्ययन में प्रायश्चित्त के सब भेद तथा सभी अनाचार, अतिचार, अतिक्रम आदि प्रतिपादित हैं । विहिसुत्ते जो उ गमो, पढमुद्देसम्मि आदिओ सुत्ते । सो चेव णिरवसेसो, दसमुद्देसम्मि वासासु ॥ (निभा ३१२३) छेदसूत्र सारा ही आचार विधिसूत्र ( आचारचूला) में है। आचारचूला के 'ईर्या' नामक तृतीय अध्ययन के प्रथम उद्देशक के प्रथम सूत्र में जो विधि निर्दिष्ट है, वही सम्पूर्ण विधि निशीथ के दसवें उद्देशक के 'प्रथम प्रावृट्' सूत्र में वक्तव्य है। १०. निशीथ : पांचवीं चूला ....पडिसेहो अणुण्णा, कारणं विसेसोवलंभो वा ॥ (निभा ५२०१) ...चतुर्थचूडात्मके आचारे यत्प्रतिषिद्धं तं सेवंतस्स पच्छित्तं भवति "जे भिक्खू हत्थकम्मं करेति, करेंतं वा सातिजति एवमादीणि सुत्ताणि, एस पडिसेहो | अत्थेण कारणं प्राप्य तमेवणुजानाति । तं जयणाए पडिसेवंतो सुद्धो । अजयणाए स पायच्छित्ती । कारणमणुण्णा जुगवं गता । विसेसोवलंभो इमो । आइल्लाओ चत्तारिचूलाओ कमेणेव अहिज्जंति, पंचमी चूला आयारपकप्पोति-वासपरियागस्स आरेण ण दिज्जति, ति-वास-परियागस्स वि अपरिणामगस्स अतिपरिणामगस्स वा न दिज्जति, आयारपकप्पो पुण परिणामगस्स दिज्जति । ( निभा १ की चू) निशीथ में चार बाते प्रतिपादित हैं- प्रतिषेध, अनुज्ञा, कारण और विशेष उपलंभ । १. प्रतिषेध - आचारांग की प्रथम चार चूलाओं में जिन आचरणों का निषेध है, उनका सेवन करने वाला भिक्षु प्रायश्चित्त का भागी होता है। यथा- 'जे भिक्खू हत्थकम्मं करेति । ' (नि १/१ ) इत्यादि । २, ३. अनुज्ञा-कारण- कारण होने पर अर्थतः उन्हीं निषेधों की अनुज्ञा है । यतना से प्रतिसेवना करने वाला शुद्ध है। अयतनाशील प्रतिसेवी प्रायश्चित्तार्ह है । ४. विशेष उपलंभ -- प्रथम चार चूलाएं क्रमशः पढ़ी जाती हैं। आचारप्रकल्प (निशीथ ) नामक पांचवीं चूला मुनिपर्याय के तीन वर्ष से पूर्व नहीं पढ़ी जाती। त्रिवर्षपर्याय वाला अपरिणामक या अतिपरिणामक मुनि भी इसका अध्ययन नहीं कर सकता, परिणामक ही इसके योग्य है। ११. निशीथ के चार कल्प चहा णिसीहकप्पो, सद्दहणा आयरण गहण सोही । सद्दहण बहुविहा पुण, ओहणिसीहे विभागे य ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदसूत्र २३८ आगम विषय कोश-२ ओहणिसीहं पुण होति पेढिया सुत्तमो विभाओ उ। हो बद्धांजलि सूत्र-अर्थपदों को सुनता है। वह करबद्ध हो उस्सग्गो वा ओहो, अववाओ होति उ विभागो॥ प्रणतिपूर्वक प्रश्न पूछता है। अपूर्व अर्थों का अवधारण कर जे भणिता उ पकप्पे, पुव्वावरवाहता भवे सुत्ता। पुनः प्रणाम करता है। सो तह समायरंतो, सव्वो सो आयरणकप्पो॥ ४. शोधिकल्प-तीर्थंकर, चौदहपूर्वी आदि प्रत्यक्षज्ञानी पुरुष उस्सग्गे अववायं, आयरमाणो विराहओ होति। अपराधी की प्रायश्चित्तदान द्वारा शोधि करते हैं। प्रकल्पधारी अववाए पुण पत्ते, उस्सग्गनिसेवओ भइओ॥ आचार्य भी शोधिकरण का अधिकारी है क्योंकि यह प्रकल्प सुत्तत्थतदुभयाणं, गहणं बहुमाणविणयमच्छेरं।। अध्ययन चौदहपूर्वी द्वारा निबद्ध है। उक्कुडु-णिसेज्ज-अंजलि-गहितागहियम्मियपणामो॥ १२. प्रकल्पधर : प्रायश्चित्तदान का अधिकारी कामंजिणपुव्वधरा, करिसुसोधिंतहा विखलुएण्हिं। तिविहो य पकप्पधरो, सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव। चोद्दसपुव्वणिबद्धो, गणपरियट्टी पकप्पधरो॥ सुत्तधरवज्जियाणं, तिगदुगपरियट्टणा गच्छे । __ (निभा ६६६६, ६६६७, ६६७१-६६७४) (निभा ६६७६) निशीथ के चार कल्प हैं आचारप्रकल्पधर के तीन प्रकार हैं-सूत्रधर, अर्थधर, १. श्रद्धानकल्प-संत्रनिबद्ध में श्रद्धा करना श्रद्धानकल्प है। सूत्राथधर। सूत्रधर प्रायश्चित्त देने का अधिकारी नहीं है। यह बहुविध है। इसके मुख्य दो भेद हैं जो सूत्र और अर्थ-दोनों को धारण करता है, वह प्रायश्चित्त ओघ निशीथ-निशीथपीठिका।। देने के लिए अधिकृत है। उसके अभाव में अर्थधर भी ० विभाग निशीथ-बीस उद्देशकों में वर्णित सूत्रसंग्रह और गच्छ में प्रायश्चित्त का प्रवर्तन कर सकता है। उनका अर्थ । अथवा सूत्रों में दर्शित उत्सर्ग विधि ओघ और १३. चतुर्विध अनुयोग : उद्देशकों की विषयवस्तु अपवाद विधि विभाग है। पडिसेहो अववाओ, अणुण्णजतणा य होइणायव्वा। २. आचरणकल्प-प्रकल्प (निशीथ) के उन्नीस उद्देशकों में सुत्ते सुत्ते चउहा, अणुओगविही समक्खाया। जो पूर्वापर (उत्सर्ग-अपवाद) वाहक सूत्र और अर्थ हैं, पडिसेहो जा आणा, मिच्छऽणवत्थो विराहणाऽवातो। उनका यथाविधि आचरण करना आचरणकल्प है। बितियपदं च अणुण्णा, जयणा अप्पाबहूणं च॥ जो उत्सर्गस्थानों में अपवादस्थानों का आचरण करता अवराहपदा सव्वे, वज्जेयव्वा य णिच्छओ एस। है, वह विराधक होता है। धृति और संहनन से सम्पन्न मुनि पुरिसादिपंचगं पुण, पडुच्चऽणुण्णा उ केसिंचि ॥ अपवादसेवन की स्थिति उत्पन्न होने पर भी उत्सर्गविधि का पडिसेविताणि पुव्वं, जो ताणि करेति एत्थ सुत्तं तु। प्रयोग करता है, वह आराधक है। अपवादस्थान की स्थिति हत्थादिवायणंतं, दाणं पुण तस्स चरिमम्मि । में उत्सर्गस्थान का सेवन करने वाला धृति-संहननहीन मुनि (निभा ६६८४, ६६८५, ६६८७, ६६९२) विराधना-स्थान को भी प्राप्त हो सकता है। निशीथ के प्रत्येक सूत्र की अनुयोगविधि के चार ३. ग्रहणकल्प-अध्येता मुनि सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ के अंग हैं-प्रतिषेध, अपवाद, अनुज्ञा और यतना। ग्रहणकाल में श्रुतदाता का विनय करता है-भक्ति-बहुमान १. प्रतिषेध-आज्ञा, उत्सर्ग-अपवादस्थानीय सूत्र। करता है। वह अध्ययनकाल में आनन्दानुभूति के साथ आश्चर्य २. अपवाद-दोष, दोषस्थानों की प्रतिसेवना से मिथ्यात्व, प्रकट करता है-अहो! इन सूत्रपदों और अर्थपदों से कैसे- अनवस्था, आत्म-संयम-विराधना आदि। कैसे अपूर्व और गहन तत्त्वों का बोध होता है। ३. अनुज्ञा-अपवादपद। शिष्य वाचनाचार्य के लिए निषद्या की रचना करता ४. यतना-अपवाद की स्थिति आने पर बहुतर दोषस्थानों का है। स्वयं उत्कट्रक (उक) आसन अथवा निषद्या पर स्थित वर्जन, अल्पतर दोषस्थान का सेवन। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ इस प्रकार से सब सूत्रों में अर्थ प्रतिपादित है। सूत्र और अर्थ में भाषित सर्व अपराधपद वर्जनीय हैं - यह नैश्चयिक दृष्टिकोण है। आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु, स्थविर और क्षुल्लकइस पुरुषपंचक (अथवा प्रवर्तिनी, साध्वी आदि पंचक) की अपेक्षा से कहीं-कहीं विशेष अनुज्ञा है। • बीस उद्देशकों की विषयवस्तु - आचारांग आदि में भिक्षु के लिए जिन कार्यों का निषेध है, उन प्रतिषिद्ध कार्यों का आचरण निशीथ के प्रथम उन्नीस उद्देशकों में प्रतिपादित है । यथ भिक्खू हत्थकम् करेति । (नि १/१ ) भिक्खूसंत्तं वाति । (नि १९/३६) ****** इन प्रायश्चित्त योग्य कार्यों के लिए प्रायश्चित्त का विधान प्रत्येक उद्देशक के अंतिम सूत्र में किया गया है। बीसवें उद्देश में प्रायश्चित्तदान की प्रक्रिया प्रतिपादित है । १४. निशीथ में चतुर्विध प्रायश्चित्त उग्घायमणुग्घाया, मासचउम्मासिया उ पच्छित्ता । पुव्वगते च्चिय एते, णिज्जूढा जे पकप्पम्मि ॥ (निभा ६६७५) मासिक उद्घात (मासलघु), मासिक अनुद्घात (मासगुरु), चतुर्मासिक उद्घात, चतुर्मासिक अनुद्घातपूर्वगतश्रुत में प्रायश्चित्त के ये ही चार प्रकार प्रतिपादित हैं, जिनका निशीथ में निर्यूहण किया गया है। (स्था ५ / १४८ में मासिक उद्घातिक, मासिक अनुद्घातिक, चातुर्मासिक उद्घातिक, चातुर्मासिक अनुद्घातिक और आरोपणा - इन पांच विकल्पों को आचार प्रकल्प कहा गया है । इन्हीं विकल्पों के आधार पर निशीथ के बीस उद्देशकों का विभाजन किया गया है। वस्तुतः प्रायश्चित्त के दो ही प्रकार हैं- मासिक और चातुर्मासिक । द्विमासिक, त्रिमासिक, पंचमासिक और षाण्मासिकये प्रायश्चित्त आरोपणा से बनते हैं। बीसवें उद्देशक का मुख्य विषय आरोपणा है। आरोपणा के अनेक प्रकार हैं । - द्र प्रायश्चित्त) १५. प्रायश्चित्त सूत्रों का परिमाण अणुघातियमासाणं, दो चेव सता हवंति बावण्णा । तिणि सया बत्तीसा होंति य उग्घातियाणं पि ॥ २३९ छेदसूत्र पंचसता चुलसीता, सव्वेसिं मासियाण बोधव्वा... छच्चसता चोयाला चाउम्मासाण होतऽणुग्घाया। सत्त सया चवीसा चाउम्मासाण उग्धाता ॥ तेरससतअट्ठसट्टा, चाउम्मासाण होंति सव्वेसिं । नवयसता य सहस्सं, ठाणाणं पडिवत्तिओ । बावण्णा ठाणाई, सत्तरिं आरोवणा कसिणा ॥ (व्यभा ४०५-४०९ ) निशीथ के प्रथम उद्देशक में अभिहित अनुद्घातिक (गुरु) मासों को एकत्र करने पर दो सौ बावन (२५२) भेद होते हैं। द्वितीय यावत् पंचम उद्देशक में प्रतिपादित उद्घातिक (लघु) मास एकत्र करने पर उसके तीन सौ बत्तीस (३३२) भेद होते हैं। गुरु और लघु मासों को एकत्र मिलाने पर कुल प्रायश्चित्त मास पांच सौ चौरासी (५८४) स्थान होते हैं। निशीथ के छठे से ग्यारहवें उद्देशक तक गुरु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त अभिहित हैं। उनको मिलाने पर छह सौ चवालीस (६४४) होते स्थान हैं। बारहवें से उन्नीसवें उद्देशक पर्यंत निरूपित लघु चतुर्मासों को मिलाने पर सात सौ चौबीस (७२४) होते हैं । लघु और गुरु चतुर्मास मिलाने पर १३६८ स्थान होते हैं । लघु-गुरु मासिक और लघु-गुरु चातुर्मासिक- सबको मिलाने पर १९५२ स्थान होते हैं। कृत्स्न आरोपणा के सत्तर स्थान हैं। १६. निशीथवाचना के अयोग्य - योग्य नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा अवंजणजायस्स आयारपकप्पं नामं अज्झयणं उद्दिसित्तए । कप्पड़.........वंजणजायस्स आयारपकप्पं नामं अज्झणं उद्दिसित्तए ॥ (व्य १०/२३, २४) निर्ग्रथ अथवा निर्ग्रथी, क्षुल्लक अथवा क्षुल्लिका, जो अव्यंजनजात - उपस्थरोमराज से रहित हो, उसे आचारप्रकल्प अध्ययन नहीं पढ़ाया जा सकता, व्यंजनजात को पढ़ाया जा सकता है। भिण्णरहस्से व नरे, निस्साकरए व मुक्कजोगी वा । छव्विहगतिगुविलम्मी, सो संसारे भ्रमइ दीहे ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदसूत्र अइरहस्सधारए पारए य असढकरणे तुलोवमे समिते । कप्पाणुपालणा दीवणा य आराहणा छिण्णसंसारे ॥ (निभा ६७०२, ६७०३) त्रिविध व्यक्ति निशीथवाचना के अयोग्य होते हैं० भिन्नरहस्य- जो अपवादपदों को अगीतार्थ को बताता है । ० निश्राकारक - जो निशीथ की निश्रा में अपवाद सेवन के लिए दूसरों को भी प्रेरित करता रहता है। ० मुक्तयोगी - जो ज्ञान - दर्शन - चारित्र - तप-नियम-संयम संबंधी - योगों में प्रवृत्त नहीं होता । ऐसा शिष्य तथा उसको वाचना देने वाले गुरु- दोनों षड्विध गतियों (छह जीवनिकायों) से गहन संसार में चिरकाल तक परिभ्रमण करते हैं। इससे विपरीत, जो शिष्य गहन रहस्यों को जीवनपर्यंत धारण करने में समर्थ है, जो किसी भी क्रिया में माया का प्रयोग नहीं करता, जो तुलासम (निष्पक्ष ) और पांच समितियों से समित है - ऐसा शिष्य तथा ऐसे शिष्य को निशीथ की वाचना देने वाले आचार्य भी अपने कल्प ( आचार - मर्यादा) का अनुपालन करते हैं, जिनशासन को संज्वलित करते हैं, मोक्ष की आराधना करते हैं और संसार - श्रृंखला को छिन्न कर डालते हैं। १७. निशीथपीठिका के अयोग्य योग्य अबहुस्सुते च पुरिसे, भिण्णरहस्से पइण्णविज्जते । णीसाणपेहए वा, असंविग्गे दुब्बलचरित्ते ॥ एतारिसंमि देंतो, पवयणघातं च दुल्लभं बोहिं । जो दाहिति पाविहिती, तप्पडिपक्खे तु दातव्वो ॥ ( निभा ४९५, ४९६) सात प्रकार के व्यक्ति निशीथ पीठिका की वाचना के अयोग्य हैं • अबहुश्रुत - जिसने प्रकल्पाध्ययन नहीं पढ़ा अथवा जिसने निशीथ के पूर्ववर्ती सूत्रों को नहीं सुना हो । • पुरुष - जो अपरिणामी या अतिपरिणामी हो । ० भिन्नरहस्य - जो रहस्यों को धारण करने में समर्थ न होअगीतार्थ के समक्ष अपवादपदों की चर्चा करता हो । ० प्रकीर्णविद्य - जो अदृष्टभावों को जिस किसी को ( श्रावकों को भी) बता देता हो । आगम विषय कोश - २ ० O निश्राप्रेक्षी - जो निष्कारण अपवादों का सेवन करता हो । • असंविग्न - जो संविग्न न हो, पार्श्वस्थ आदि हो । • दुर्बलचारित्र - जो निष्कारण मूलगुण-उत्तरगुणप्रतिसेवी हो । इस प्रकार के शिष्य को वाचना देने वाला प्रवचन की हानि करता है। उसके लिए बोधि दुर्लभ होती है । जो बहुश्रुत, परिणामक, रहस्यधारक, अप्रकीर्णविद्य, अनिश्राप्रेक्षी, संविग्न और दृढ़चरित्र है, वह पीठिका की वाचना लेने योग्य है । २४० १८. गणधारण में निशीथ की भूमिका सुत्ते अणित लहुगा, अत्थे अणित धरेति चउगुरुगा । सुत्तेण वायणा अत्थे, सोही तो दो वऽणुण्णाया ॥ अवि य विणा सुत्तेणं, ववहारे तू अपच्चओ होति । तेणं उभयधरो ऊ, गणधारी सो अणुण्णातो ॥ असती कडजोगी पुण, अत्थे एतम्मि कप्पति धरे । जुण्णमहल्लो सुत्तं न तरति पच्चुज्जयारेउं ॥ (व्यभा २३३३-२३३५ ) जो औत्सर्गिक आपवादिक सूत्र और उनके अर्थ को नहीं जानता हुआ गणधारण करता है, वह क्रमशः चतुर्लघु और चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। ऐसा क्यों ? गणधारक सूत्र ज्ञात होने पर वाचना देता है, अर्थ ज्ञात होने पर प्रायश्चित्त द्वारा शोधि करता है। सूत्र के बिना व्यवहार करने पर अविश्वास उत्पन्न होता है। अतः सूत्र और अर्थउभयज्ञाता ही गणधारण के लिए अनुज्ञात है । सूत्रार्थयुक्त निशीथधारी के अभाव में कृतयोगी गणधारण कर सकता है। जो पहले उभयधर था किन्तु अब जिसे केवल अर्थ ज्ञात है, सूत्र याद नहीं है, वह कृतयोगी है। जो शरीर और वय से जीर्ण है, उसके लिए पुनः सूत्रों का स्मरण - संधारण शक्य नहीं है १९. निशीथविस्मृति के हेतु : वैद्य दृष्टांत I धम्म कहनिमित्तादी, तु पमादो तत्थ होति नायव्वो । मलयवति - मगधसेणा, तरंगवइयाइ धम्मकहा ॥ गह- चरिय-विज्ज-मंता, चुण्ण-निमित्तादिणा पमादेणं । नम्मी संधयती, असंधयंती व सा न लभे ॥ जदि से सत्थं न, पेच्छह से सत्थकोसगं गंतुं । हीरति कलंकितेसुं, भोगो जूतादिदप्पेणं ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २४१ छेदसूत्र एवं दप्पपणासित, न वि देंति गणं पकप्पमझयणे" वा। सा य वएज्जा-आबाहेणं, नो पमाएणं। सा य गेलण्णे असिवे वा, ओमोयरियाय रायडे य। संठवेस्सामी ति संठवेज्जा, एवं से कप्पड़ पवत्तिणित्तं। एतेहि नासियम्मी, संधेमाणीय देंति गणं॥ सा य संठवेस्सामी ति नो संठवेज्जा, एवं से नो कप्पड़ एमेव य साधूणं, वाकरणनिमित्तछंद कधमादी" पवत्तिणित्तं ॥ (व्यभा २३२०, २३२१, २३२४, २३२७-२३२९) निग्गंथस्स नवडहरतरुणस्स आयारपकप्पे नाम धर्मकथा-मलयवती, मगधसेना, तरंगवती, वसुदेवहिण्डी आदि अज्झयणे परिब्भटे सिया।""जावज्जीवं तस्स तप्पत्तियं कथा-उपन्यासों को पढ़ना, निमित्त-ज्योतिष्क-अतीत-अनागत नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा भावों को बताना, विद्या, मंत्र, योगचूर्ण आदि का प्रयोग उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा॥ (व्य ५/१५, १६) करना, कुहुकशास्त्र पढ़ना आदि-इन कारणों से साध्वी के नवदीक्षिता (तीन वर्ष की दीक्षिता), डहरिका (अठारह आचारप्रकल्प विस्मृत हो जाता है। वह उसे पुन: सीखे या न वर्ष तक की वय वाली) और तरुणी (चालीस वर्ष तक की सीखे, जीवनभर गण धारण नहीं कर सकती। वैद्य दृष्टांत-एक वैद्य राजा के यहां नियुक्त था। वह द्यूत, अवस्था वाली) निग्रंथी निशीथ अध्ययन सीख कर भूल जाती है विषय आदि प्रमादों के कारण अपनी विद्या भूल गया। एक तो उससे पूछना चाहिए-आर्ये! किस कारण से निशीथ भूल गई बार राजा ने चिकित्सा हेतु बुलाया। वह चिकित्सा कर नहीं हो-आबाधा (रोग आदि के कारण) से या प्रमाद से? सका। उसने कहा-मेरे वैद्यकशास्त्र चोरों ने चुरा लिए हैं। साध्वी कहे-प्रमाद से यह अध्ययन विस्मृत हो गया राजाज्ञा से शास्त्रकोश वहां लाया गया। राजा ने देखा-कोश ह, आबाधा से नहीं तो उसे जीवनपर्यंत प्रवर्तिनी या के जंग लग गया है, पुस्तकें कीड़ों द्वारा खाई हुई हैं। राजा ने । गणावच्छेदिका पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता, वह उसे धारण नहीं कर सकती। प्रमाद के कारण वैद्य को राजवैद्य के पद से मुक्त कर दिया। वह अन्यत्र गया, विद्या सीख कर आया। नियुक्ति की याचना यदि वह कहे-प्रमाद से नहीं, आबाधा से विस्मृत की। राजा ने पुन: नियुक्ति नहीं की। हुआ है। अब मैं इसे पुन: संस्थापित कर लूंगी, तो संस्थापित इसी प्रकार प्रमाद से प्रकल्पाध्ययन विस्मत होने पर करने पर उसे प्रवर्तिनी या गणावच्छेदिका का पद दिया जा गण नहीं दिया जाता। रोग, रोगी का वैयावत्त्य. अशिव. सकता है, वह उसे धारण कर सकती है। दुर्भिक्ष, राज्य-प्रद्वेष आदि कारणों से निशीथ विस्मृत होने पर निग्रंथ के लिए भी यही विधि है। प्रमाद से निशीथ आर उसका पन: संधारण करने पर गण (आचार्य आदि का का विस्मृति होने पर वह जीवनपर्यत आचार्य यावत गणापद) दिया जा सकता है। वच्छेदक नहीं बन सकता। इसी प्रकार साधु व्याकरण, निमित्त, छन्दशास्त्र, ० स्थविर के लिए निषेध नहीं धर्मकथा आदि के अध्ययन के कारण निशीथ को भूल जाता थेराणं थेरभूमिपत्ताणं आयारपकप्पे नामं अज्झयणे, है, तो उसे भी गण नहीं दिया जाता। परिभट्टेसिया।कप्पइ तेसिंसंठवेमाणाणवा असंठवेमा-णाण २०. निशीथ की विस्मृति : गणदायित्व का निषेध वा आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा निग्गंथीए नवडहरतरुणियाए आयारपकप्पे नामं धारेत्तए वा॥ थेराणं थेरभूमिपत्ताणं आयारपकप्पे नामं अज्झयणे परिब्भटे सिया। सा य पुच्छियव्वा-केण ते अज्झयणे परिब्भटे सिया। कप्पइ तेसिं सन्निसण्णाण वा अज्जे! कारणेणं आयारपकप्पे नामं अज्झयणे परिब्भटे? संतुयाण वा उत्ताणयाण वा पासिल्लयाणवा आयारपकप्पं किं आबाहेणं उदाह पमाएणं? सा य वएज्जा-नो नामंअज्झयणंदोच्चं पितच्चं पिपडिच्छित्तए वा पडिसारेत्तए आबाहेणं, पमाएणं। जावज्जीवंतीसेतप्पत्तियं नो कप्पड़ वा॥ (व्य ५/१७, १८) पवत्तिणित्तं वा गणावच्छेइणित्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए स्थविरभूमि को प्राप्त स्थविरों के आचारप्रकल्प Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदसूत्र अध्ययन विस्मृत हो गया हो, वे उसे पुनः कण्ठस्थ करते हैं या नहीं भी करते हैं, उन्हें आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद दिया जा सकता है, वे उसे धारण कर सकते हैं। यदि स्थविरभूमि को प्राप्त स्थविर निशीथ अध्ययन को भूल जाते हैं तो बैठे हुए, लेटे हुए, उत्तानशयन या पार्श्वशयन करते हुए अवमरालिक से दो बार, तीन बार सूत्रअर्थ का श्रवण और पृच्छा कर सकते हैं, परावर्तन कर सकते हैं । ० विस्मृतश्रुता को जानने की प्रक्रिया दंडग्गहनिक्खेवे, आवसियाए निसीहियाऽकरणे । गुरुणं च अप्पणामे, य भणसु आरोवणा का उ ॥ (व्यभा २३१८) अमुक साध्वी को निशीथ याद है या नहीं ? यह जानने के लिए आचार्य पूछते हैं - आर्ये! प्रतिलेखन- प्रमार्जन किए बिना दण्डक का ग्रहण- निक्षेपण करने पर, आवश्यकीनैषेधिकी न करने पर और वसति में प्रवेश करते हुए गुरु को प्रणाम न करने पर क्या प्रायश्चित्त प्राप्त होता है ? इन प्रश्नों का यथावस्थित उत्तर न देने पर ज्ञात जाता है कि वह निशीथ अध्ययन भूल चुकी है । २१. दशा-कल्प-व्यवहार के निर्यूहणकर्त्ता वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिमसयलसुयनाणि । सुत्तस्स कारगमिसिं, दसासु कप्पे य ववहारे ॥ बाहुनामे पाईणो गोत्तेण चरिमो - अपच्छिमो सगलाई चोइसपुव्वाई | (दशानि १ चू) प्राचीनगोत्रीय अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु को मैं वंदना करता हूं। उन्होंने दशाश्रुतस्कंध, कल्प और व्यवहारइन तीन सूत्रों का प्रणयन किया। २२. कल्प- व्यवहार का प्रणयन क्यों ? पूर्वेषु यद् नवमं प्रत्याख्याननामकं पूर्वं तस्य यत् तृतीयमाचाराख्यं वस्तु तस्मिन् विंशतितमे प्राभृते मूलगुणेषूत्तरगुणेषु चापराधेषु दशविधमालोचनादिकं प्रायश्चित्तमुपवर्णितम्, कालक्रमेण च दुःषमानुभावतो धृति-बलवीर्य - बुद्ध्याऽऽयुःप्रभृतिषु परिहीयमानेषु पूर्वाणि दुरवगाहानि आगम विषय कोश - २ जातानि ततो मा भूत् प्रायश्चित्तव्यवच्छेदः - इति साधूनामनुग्रहाय चतुर्दशपूर्वधरेण भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पसूत्रं व्यवहारसूत्रं चाकारि, उभयोरपि च सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तिः । (बृभावृ पृ २) २४२ प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु है - आचार । उसके बीसवें प्राभृत में मूलगुणों और उत्तरगुणों में अपराध होने पर आलोचना आदि दस प्रकार के प्रायश्चित्त का वर्णन है । क्रम से दुःषमअर के प्रभाव से मनुष्य की धृति, बल, वीर्य, बुद्धि, आयुष्य आदि की परिहानि हो जाने पर पूर्वी का अवगाहन कष्टसाध्य हो गया है, इसलिए प्रायश्चित्त विधि का व्यवच्छेद न हो जाए - यह सोचकर चौदहपूर्वी भगवान भद्रबाहु ने साधुओं के अनुग्रह के लिए कल्प और व्यवहार सूत्र तथा दोनों की ही सूत्रस्पर्शी निर्युक्ति का प्रणयन किया। २३. दशा - कल्प-व्यवहार का उद्गम ....... भद्दबाहुस्स ओसप्पिणीए पुरिसाणं आयुबलपरिहाणि जाणिऊण चिंता समुप्पन्ना। पुव्वगते वोच्छिन्ने मा साहू विसोधिंण याणिस्संतित्ति काउं अतो दसाकप्पववहारा निज्जूढा पच्चक्खाणपुव्वातो। (दशाचू प ५) इस अवसर्पिणी कालखंड में पुरुषों का आयुष्य और बल क्षीण हो रहा है - यह जानकर भद्रबाहु को चिंता उत्पन्न हुई । पूर्वगत की विशाल ज्ञानराशि विच्छिन्न होने पर साधु विशोधि को नहीं जान पायेंगे - यह सोचकर उन्होंने प्रत्याख्यानपूर्व से दशाश्रुतस्कंध, कल्प और व्यवहार - इन तीन सूत्रों का निर्यूहण किया। २४. दशाश्रुतस्कंध का निर्यूहण हरीओ तु इमाओ, अज्झयणेसु महईओ अंगेसु । छसु णायादीएसुं, वत्थविभूसावसाणमिव ॥ डहरीओ तु इमाओ, निज्जूढाओ अणुग्गहट्ठाए । थेरेहिं तु दसाओ दिट्टिवायातो नवमातो पुव्वातो असमाधिद्वाणपाहुडातो असमाधिद्वाणं, एवं सेसाओवि सरिसनामेहिं पाहुडेहिं ******** Il Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २४३ छेदसूत्र निज्जूढाओ भद्दबाहूहि। (दशानि ५, ६ चू) कल्प शब्द के छह अर्थ हैं अध्ययनदशा के दो प्रकार हैं-छोटी और बडी। १. सामर्थ्य-कल्पाध्ययन का अतिचार से मलिन मुनि की बड़ी अध्ययनदशाएं हैं छह अंग आगम-ज्ञातधर्मकथा, प्रायश्चित्त के द्वारा विशोधि करने में समर्थ होता है। उपासकदशा, अन्तकृदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण २. वर्णन-प्रायश्चित्त के जितने प्रकार हैं, उन सबका अथवा तथा विपाकश्रुत। जिस प्रकार वस्त्र की विभूषा के लिए मूलगुणों और उत्तरगुणों का इस सूत्र में वर्णन है। उसकी दशा-किनारी होती है, वैसे ही ये दशाएं हैं। ३. छेदन-तप प्रायश्चित्त अतिक्रान्त होने पर इस अध्ययन स्थविर-आचार्य भद्रबाहु ने शिष्यों पर अनुग्रह कर के द्वारा पांच दिन अथवा अधिक दिन के मनि-पर्याय का नौवें पूर्व से इन छोटी अध्ययनदशाओं का निर्वृहण किया। छेदन किया जाता है। ४. करण-कल्पाध्ययनवेत्ता वैसा प्रयत्न करता है, जिससे दशाश्रुतस्कंध की प्रथम दशा 'असमाधिस्थान' दृष्टि मुनि प्राप्त प्रायश्चित्त की सम्यक अनुपालना कर सके। अथवा वाद के नौवें पूर्व (प्रत्याख्यानपूर्व) के असमाधि-स्थानप्राभृत से निर्मूढ है। शेष नौ दशाएं अपने-अपने सदृश नाम वाले कल्पविद् प्रायश्चित्त देने में आचार्य के सदृश होता है। ५. औपम्य-कल्पअध्ययन पढ लेने से प्रायश्चित्त विधि में प्राभृतों से नियूँढ हैं। निर्वृहणकर्ता श्रुतकेवली स्थविर (आचार्य) आचार्य पूर्वधर के सदृश हो जाता है। भद्रबाहु हैं। ६. अधिवास-कल्पाध्ययनवेत्ता मासकल्प और वर्षाकल्प में ० दशा : छेदसूत्रों में प्रमुखभूत एकस्थान पर परिपूर्ण अधिवास करता है तथा प्रयोजन होने दसाओ"इमं पुण च्छेयसुत्तपमुहभूतं। पर न्यून या अधिक समय तक भी रहता है। (दशाचू प २) २६. कल्प और व्यवहार दशाश्रुतस्कंध छेदसूत्रों में प्रमुखभूत है। कप्पम्मि वि पच्छित्तं, ववहारम्मि वि तमेव पच्छित्तं। २५. कल्प शब्द के अर्थ कप्पव्ववहाराणं, को णु विसेसो त्ति चोदेति॥ सामर्थ्य वर्णनायां च, छेदने करणे तथा। जो अवितहववहारी, सो नियमा वट्टते तु कप्पम्मि। औपम्ये चाऽधिवासे च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः ।। इति वि हु नत्थि विसेसो, अझयणाणं दुवेण्हं पि॥ सामर्थ्य तावदेवम्-कल्पाध्ययनमधीत्यातीचार कप्पम्मि कप्पिया खलु, मूलगुणा चेव उत्तरगुणा य। मलिनस्य साधोः समर्थः प्रायश्चित्तेन विशोधिमापादयितुम्। ववहारे ववहरिया, पायच्छित्ताऽऽभवंते य॥ वर्णनेऽपि-यावन्तः प्रायश्चित्तप्रकारास्तान् वर्णयती अविसेसियं च कप्पे, इहइं तु विसेसितं इमं चउधा। दमध्ययनम्; अथवा मूलगुणान् उत्तरगुणांश्च कल्पयति पडिसेवण संजोयण, आरोवण कुंचियं चेव॥ वर्णयतीति कल्पः। छेदनेऽपि-तपःशोधिमतिक्रान्तस्य (व्यभा १५१-१५४) पञ्चकादिच्छेदनेन पर्यायं छिनत्ति। करणेऽपि-यद् दत्तं शिष्य ने पूछा-भंते ! कल्पाध्ययन में भी प्रायश्चित्त प्रायश्चित्तं तत्र तथा प्रयत्न करोति कल्पाध्ययनवेत्ता यथा का प्रतिपादन है और व्यवहार में भी उसी का प्रतिपादन है, यत् पारं नयति; अथवा कल्पयति जनयत्याचार्यकमिति फिर कल्प और व्यवहार में अंतर क्या है? कल्पः"औपम्येऽपि-..."कल्पाध्ययनेऽधीते भवति गुरु ने कहा-जो अवितथ व्यवहारी होता है. वह पूर्वधरसदृशः प्रायश्चित्तविधावाचार्यः । अधिवासेऽपि- नियमतः कल्प में प्रवृत्त होता है और जो कल्प में प्रवृत्त होता कल्पाध्ययनवेत्ता कल्पे मासकल्पे वर्षाकल्पे वा कारण- है, वह अवितथ व्यवहारी होता है (कल्प, आचार और मन्तरेण परिपूर्ण कारणवशत ऊनमतिरिक्तं वा अधिवसतीति व्यवहार एकार्थक हैं)-इस दृष्टि से कल्प और व्यवहारकल्पः । (बृभा २ की वृ) दोनों अध्ययनों में कोई भेद नहीं है। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदसूत्र कल्पाध्ययन में मूलगुण- उत्तरगुण अपराध संबंधी आभवत् व्यवहार एवं प्रायश्चित्त का प्ररूपण है, व्यवहार में उसकी दानविधि भी प्रतिपादित है । जो आभवत् व्यवहार और प्रायश्चित्त कल्प में नहीं हैं, उनका भी व्यवहार में निरूपण है। कल्पाध्ययन में सामान्य रूप से प्रायश्चित्त का वर्णन है । व्यवहार में विशेष रूप प्रायश्चित्त का वर्णन है— प्रतिसेवना, संयोजना, आरोपणा और प्रतिकुंचना - इन चार भेदों का निरूपण है। २७. कल्पाध्ययन और व्यवहार का विषय- भेद ...... कप्पारोवण, इहइ भणिता पुरिसजाया ॥ ......मासियसोही वणिया उ कप्पे | तस्स पुण इमं दाणं, भणियं आलोयणविधी य ॥ (व्यभा १४९, १८४) कल्पाध्ययन में प्रायश्चित्तार्ह पुरुषों के प्रकार प्ररूपित नहीं हैं, वे व्यवहार में हैं। कल्प में मासिक आदि प्रायश्चित्त उपवर्णित है। व्यवहारसूत्र में उसकी दानविधि और आलोचनाविधि प्ररूपित है। • कल्प - व्यवहार का विस्तार पूर्वाचार्यकृत कप्पव्ववहाराणं, भासं मोत्तूण वित्थरं सव्वं । पुव्वायरिएहि कयं, सीसाण हितोवदेसत्थं ॥ (व्यभा ४६९३) कल्प और व्यवहार के भाष्य को छोड़कर उनका शेष सारा विस्तार पूर्वाचार्यकृत है। यह शिष्यों के हितोपदेश के लिए किया गया है। २८. कल्प- व्यवहार की अर्हता बहुस्सुए चिरपव्वइए, कप्पिए य अचंचले । raट्ठिए य मेहावी, अपरिस्सावी य जे विऊ ॥ पत्ते य अणुण्णाते, भावतो परिणामगे । एयारिसे महाभागे, अणुओगं सोउमरिहइ ॥ (बृभा ४००, ४०१ ) जो बहुश्रुत, चिरप्रव्रजित, कल्पिक, अचपल, आगम विषय कोश - २ अवस्थित, मेधावी, अपरिश्रावी और विद्वान् है, जिसमें पात्रता है, जिसे गुरु की अनुज्ञा प्राप्त है और जो भावतः परिणामक है - ऐसा महाभाग शिष्य कल्प और व्यवहार की व्याख्या सुनने के योग्य है । २९. कल्प, प्रकल्प आदि के प्रकृत कप्पम्मि दोन्नि पगता, पलंबसुत्तं च मासकप्पे य। दो चेव य ववहारे, पढमे दसमे य जे भणिता ॥ पेढियाओ य सव्वाओ, चूलियाओ तधेव य । निज्जुत्ती कप्पनामस्स, ववहारस्स तथेव य ॥ (व्यभा २६६२, २६६३) कल्प के दो प्रकृत (संदर्भ/ प्रस्तुत - प्रसंग ) हैं - प्रलम्बसूत्र और मासकल्पसूत्र । व्यवहार के दो प्रकृत हैं- प्रथम उद्दशेक में आरोपणासूत्र तथा दसवें उद्देशक में पंचविध व्यवहारसूत्र । कल्प-व्यवहार में अन्य संदर्भ भी प्रस्तुत हैं। यथा-कल्प, प्रकल्प (निशीथ) आदि की पीठिका, सब चूलिकाएं, कल्प, व्यवहार, दशवैकालिक आदि की निर्युक्तियां । ३०. व्यवहार के अर्थाधिकार २४४ अर्थाधिकारः स चेह दानप्रायश्चित्तमाभवत्प्रायश्चित्तमालोचनाविधिश्च । (व्यभापी प३) व्यवहार के तीन अर्थाधिकार हैं - १. दानप्रायश्चित्त २. आभवत् प्रायश्चित्त और ३. आलोचनाविधि । ३१. भद्रबाहु - प्रदत्त व्यवहार : द्वादशांग का नवनीत किं पुण गुणोवदेसो, ववहारस्स तु विदुप्पसत्थस्स । ""दुवालसंगस्स णवणीतं ॥ व्यवहारसूत्रस्य चतुर्दशपूर्वधरभद्रबाहुस्वामिना (व्यभा ४५५२ वृ) दत्तस्य'''' । व्यवहारसूत्र का जो समुचित और प्रशस्त गुणोपदेश (गुणोत्पादन के निमित्त उपदेश) है, वह द्वादशांग का नवनीत है, वह चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु स्वामी द्वारा प्रदत्त है। छेदोपस्थापनीयंचारित्र - महाव्रतों का विस्तारपूर्वक आरोपण। पारांचित आदि प्रायश्चित्तयोग्य दोष सेवन करने पर पुन: चारित्र में उपस्थापन । द्र चारित्र Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २४५ जातिस्मृति जातिस्मृति-पूर्वजन्मों का ज्ञान। हो गया।-आवचू १ पृ ४५५-४६० ० कपिल-कपिल काश्यप ब्राह्मण का पुत्र था। उसे दो माशा जातिस्मृति के प्रकार सोने की जरूरत थी। सोना प्राप्ति की आशा से वह रात्रि को ...""जाइस्सरणाईओ, सनिमित्तमनिमित्तओ वा वि॥ घर से निकला। नगर-आरक्षकों ने उसे चोर समझकर पकड़ .. जातिस्मरणादिकः सनिमित्तकोऽनिमित्तको लिया और राजा के सामने प्रस्तुत किया। राजा के पूछने पर वा द्रष्टव्यः। तत्र यद् बाह्यं निमित्तमुद्दिश्य जाति कपिल ने सरलता से सारी बात बता दी। राजा ने प्रसन्न स्मरणमुपजायते तत् सनिमित्तकम्, यथा वल्कलचीरि होकर कहा-जो चाहो, मांग लो। कपिल ने सोचने का अवसर प्रभृतीनाम्।यत् पुनरेवमेव तदावारककर्मणां क्षयोपशमे मांगा। आज्ञा लेकर वह अशोक वनिका में गया। चिंतन नोत्पद्यते तदनिमित्तकम्, यथा स्वयम्बुद्धकपिलादीनाम्। किया-क्या मांगू? दो माशा सोने से लेकर करोड़ तक मांगने का ___(बृभा ११३३ वृ) चिंतन किया, परन्तु मन नहीं भरा। संतोष के बिना शांति कहां? जातिस्मृति के दो प्रकार हैं मन आंदोलित हुआ। तत्क्षण समाधान मिल गया। मन वैराग्य १. सनिमित्तक-किसी बाह्य निमित्त को पाकर होने वाली से भर गया। चिंतन का प्रवाह मुड़ा, जातिस्मरण ज्ञान हो गया, पूर्वजन्म की स्मृति । जैसे-वल्कलचीरी आदि। स्वयंबुद्ध बन गया, मुनि बन गया। -उशावृ प २८७, २९९) २. अनिमित्तक-बिना किसी निमित्त के केवल ऐसे ही २. जातिस्मृति से आत्मबोध जातिस्मृति आवारक कर्मों के क्षयोपशम से होने वाली पूर्वजन्म । ण इमं चित्तं आदाय गृहीत्वा कतरं जातिस्मरणादि की स्मृति । जैसे-स्वयंबुद्ध कपिल आदि। भुज्जो पुणो लोगंसि संसारे जायति उप्पज्जति, आत्मनः ___(वल्कलचीरी-राजा सोमचन्द्र और रानी धारिणी ने उत्तमं"जोऽहं परभवे आसि, अहवा उत्तमो संजमो मोक्खो दिशाप्रोक्षित तापस के रूप में दीक्षा ग्रहण की। वे एक आश्रम वा यत्र तमो अन्नाणं कम्मं वा ण विज्जति, अथवा श्रेष्ठं में रहने लगे। दीक्षित होते समय रानी गर्भवती थी। समय निर्वाहकं हितं वा आत्मनः तज्जानीते। पूरा होने पर रानी ने एक बालक को जन्म दिया। उसे वल्कल (दशा ५/७/२ की चू) में रखने के कारण बालक का नाम वल्कलचीरी रखा। कुछ वर्ष बीते । एक दिन कुमार वल्कलचीरी उटज जीव जातिस्मृति से पुनः-पुनः संसार में उत्पन्न नहीं में यह देखने के लिए गया कि राजर्षि पिता के उपकरण किस होता, कर्मश्रृंखला को छिन्न कर देता है। स्थिति में हैं? वहां वह अपने उत्तरीय के पल्ले से उनकी । ___० वह पूर्वजन्म को जान लेता है। प्रतिलेखना करने लगा। अन्यान्य उपकरणों की प्रतिलेखना ० उसका उत्तम स्थान संयम और मोक्ष है, जहां अंधकार नहीं कर चुकने के बाद ज्योंही वह पात्र-केसरिका की प्रतिलेखना । __ है, अज्ञान नहीं है, कर्म नहीं है-वह इसे जान लेता है। करने लगा तो प्रतिलेखना करते-करते उसने सोचा-'मैंने ० अमुक आचरण आत्मा के लिए हितकारी है, इसे भी वह ऐसी क्रियाएं पहले भी की हैं।' वह विधि का अनुस्मरण जान लेता है। करने लगा। तदावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होने पर उसे ___ * जातिस्मृति : चित्तसमाधि का हेतु द्रचित्तसमाधिस्थान जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया, जिससे देवभव, मनुष्यभव ये स्वयम्भूरमणसमुद्रे मत्स्यास्ते प्रतिमासंस्थितान् तथा पूर्वाचरित श्रामण्य की स्मृति हो आई। इस स्मृति से मत्स्यान् उत्पलानि वा दृष्ट्वेहा-ऽपोहादि कुर्वन्तो जातिउसका वैराग्य बढ़ा। धर्मध्यान से अतीत हो, विशुद्ध परिणामों स्मरणतः सम्यक्त्वमासादयन्ति। (बृभा १२५ की वृ) में बढ़ता हुआ, शुक्लध्यान की दूसरी भूमिका का अतिक्रमण । जो स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्य हैं, वे प्रतिमाकर, विकारों, आवरणों और अवरोधों को नष्ट कर वह केवली संस्थान से संस्थित मत्स्यों अथवा उत्पलों को देखकर ईहा Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकल्प २४६ आगम विषय कोश-२ अपोह-मार्गणा करते हुए जातिस्मृति ज्ञान प्राप्त कर सम्यक्त्व प्राप्त कर लेते हैं। * जातिस्मृति की प्रक्रिया आदि द्र श्रीआको १ जातिस्मृति जिनकल्प-विशिष्ट श्रुत-संहनन-धृति-सम्पन्न मुनि द्वारा संघ से विधिपूर्वक निर्गमन कर आजीवन किया जाने वाला साधना का विशेष प्रयोग। जिन की भांति विहरण। १. भावी जिनकल्पी : प्रव्रज्या आदि पद २. अभ्युद्यत विहार : जिनकल्प आदि ० जिनकल्प प्रतिपत्ति से पूर्व धर्मजागरिका ० इत्वरिक गणनिक्षेप : गणपालन दुष्कर ३.जिनकल्प के अधिकारी कौन? ४. जिनकल्प की पांच भावनाएं ० तपोभावना से इन्द्रिययोगाचार्य : सिंह दृष्टांत ० सत्त्वभावना : पांच प्रतिमाएं ० सूत्रभावना : श्रुतपरावर्तन से कालज्ञान ० एकत्वभावना : ममत्वविसर्जन ० पुष्पचूल दृष्टांत ० बलभावना : शरीरबल-धृतिबल ५. परिकर्म और अभिग्रह (पिंडैषणा) ० उपधि का विवेक ० इन्द्रियविजय का अभ्यास ० उत्कुटुकासन का अभ्यास ० परिणाम आदि की विशुद्धि ६.जिनकल्प का स्वीकरण ७. जिनकल्प-प्रतिपत्ता द्वारा क्षमायाचना ८. क्षमायाचना की निष्पत्ति ९. स्थापित आचार्य और शिष्यों को शिक्षा १०. गण-निष्क्रमण विधि ११. जिनकल्पी की सामाचारी ० पशु-पक्षी निवारण की मर्यादा १२. जिनकल्प-साधना के सत्ताईस द्वार ० श्रुत, संहनन, वेदना (ध्रुवलोच") * जिनकल्पी और केशलोच द्र पर्युषणाकल्प ० वसति ....... कतिजन ० भिक्षाचर्या ......"मासकल्प १३. जिनकल्प : मासकल्प और पर्यषणाकल्प १४. जिनकल्प-स्थिति के उन्नीस स्थान * जिनकल्प और अवग्रह द्र अवग्रह ० जन्म और सद्भाव की अपेक्षा क्षेत्र-काल ० चारित्र ...."वेद * जिनकल्प कल्पस्थिति द्र कल्पस्थिति ०कल्प "प्रायश्चित्त कारण (निरपवाद), निष्प्रतिकर्म .....""कायोत्सर्ग * जिनकल्पी के प्रतिलेखना काल * चिकित्सा संबंधी निषेध द्र स्थविरकल्प १५. जिनकल्पी की उपधि के प्रकार ० उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्य उपधि १६. जिनकल्पी की उपधि के विकल्प * औधिक-औपग्रहिक उपधि द्र उपधि १७. प्रावरण १८.जिनकल्पी-स्थविरकल्पी का संस्तारक ० उत्कुटुकासन : निद्रा-जागरण * कौन महर्द्धिक : संघ या जिनकल्प द्र संघ * जिनकल्पी : संघ-कार्य से बाह्य द्रकृतिकर्म १. भावी जिनकल्पी : प्रव्रज्या आदि पद पव्वज्जा सिक्खापयमत्थग्गहणं च अनियओ वासो। निप्फत्ती य विहारो, सामायारी ठिई चेव॥ (बृभा ११३२) ० प्रव्रज्या-भावी जिनकल्पी तीर्थंकर आदि से धर्मश्रवण कर अथवा स्वयंसम्बुद्ध होकर प्रव्रजित होते हैं। ० शिक्षापद-प्रव्रजित हो ग्रहणशिक्षा और आसेवनशिक्षा का सम्यक् अभ्यास करते हैं। ० अर्थग्रहण-बारह वर्ष तक सूत्र-ग्रहणशिक्षा के पश्चात् अधीत सूत्रों का बारह वर्ष अर्थबोध करते हैं। द्र श्रुतज्ञान ० अनियतवास-नाना प्रदेशों में पदयात्रा करते हुए संघ की प्रभावना करते हैं। शास्त्रों के अभ्यास का तथा विविध देशीभाषाओं का प्रत्यक्षीकरण करते हैं। निष्पत्ति-शिष्यों को सत्र-अर्थ, सामाचारी आदि में निष्पन्न करते हैं। विहार-जिनकल्प को स्वीकार करने का निश्चय करते हैं। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २४७ जिनकल्प ० सामाचारी-चक्रवाल आदि सामाचारी का अभ्यास करते हैं। शिष्यों का निष्पादन किया है-ऐसा करके मैं ऋणमुक्त हो ० स्थिति-जिनकल्प की अवस्थिति वक्तव्य है। गया हूं, अब मेरे लिए आत्महित ही श्रेयस्कर है। २. अभ्युद्यत विहार : जिनकल्प आदि (पूर्वरात्र और अपररात्र-ये दो पद हैं। .....'जयाचार्य जिण सुद्ध अहालंदे, तिविहो अब्भुज्जओ अह विहारो। हर के अनुसार इन दोनों पदों से 'मध्यरात्रि' का अर्थ फलित होता है। पूर्वरात्रि का अन्तिम भाग और पश्चिम रात्रि का पूर्वभागअब्भुज्जयमरणं पुण, पाओवग-इंगिणि-परिन्ना॥ यह अर्धरात्रि का समय है। .... अनयोगद्वारचूर्णि में चिन्तन (बृभा १२८३) का समय रात्रि का दूसरा प्रहर फलित होता है। इससे मध्यरात्रि अभ्युद्यतविहार के तीन प्रकार हैं-जिनकल्प, शुद्ध- के अर्थ की पुष्टि होती है। .....पूर्वरात्र अपररात्र' इसकी दो परिहारकल्प और यथालन्दकल्प। अर्थपरम्पराएं प्राप्त हैंअभ्युद्यतमरण के तीन प्रकार हैं--प्रायोपगमन, इंगिनी- १. रात्रि का प्रथम भाग और पश्चिम भाग। मरण और परिज्ञा-भक्तप्रत्याख्यान। २. मध्यरात्रि।-भ २/६६ का भाष्य) मध्यरात्रि में आचार्य पूनः आत्मचिंतन करते हैं-अब ० जिनकल्प प्रतिपत्ति से पूर्व धर्मजागरिका अणुपालिओ य दीहो, परियाओ वायणा वि मे दिना। मैं अनुत्तर गुणों वाला अभ्युद्यतविहार (जिनकल्प आदि) स्वीकार करूं? अथवा जिनशासन में विहित विधि से निप्फाइया य सीसा, सेयं खु महऽप्पणो काउं॥ अभ्युद्यतमरण से मृत्यु का वरण करूं-संलेखनापूर्वक अनशन किन्नु विहारेणऽब्भुज्जएण विहरामऽणुत्तरगुणेणं। को स्वीकार करूं? आओ अब्भुज्जयसासणेण विहिणा अणुमरामि॥ विहार और मरण-ये दोनों अभ्युद्यत होने के कारण सयमेव आउकालं, नाउं पोच्छित्तु वा बहुं सेसं। श्रेयस्कर हैं, अतः इन दोनों में से कौन सा पथ मुझे स्वीकार सुबहुगुणलाभकंखी, विहारमब्भुजयं भजइ॥ करना चाहिए? ___ आचार्येण सूत्रार्थयोरव्यवच्छित्तिं कृत्वा पर्यन्ते विपुल गुणोंपलब्धि का आकांक्षी मुनि स्वयं अपने से पूर्वापररात्रकालसमये धर्मजागरिकां जाग्रतेत्थं चिन्त- अथवा अतिशय श्रुतज्ञानी आदि से अपने अवशिष्ट दीर्घ आयुष्य नीयम्, यथा..."तदेवं कृता तीर्थस्याव्यवच्छित्तिः, को जानकर अभ्युद्यत विहार (जिनकल्प) को स्वीकार करता तत्करणेन विहितमात्मनः ऋणमोक्षणम्""अनु-पश्चात् है। संलेखद्युत्तरकालं मरणं प्रतिपद्येऽहम्?"स्याद् बुद्धिः-द्वे इसमें विशेष विधि के तीन विकल्प हैंअप्येते अभ्युद्यतरूपतया श्रेयसी, अतः कतरदनयोः प्रति- १. यदि आयुष्य थोड़ा है, तो अनशन स्वीकार करे। पत्तव्यम् ?"""इह चायं विधिः-यदि स्तोकमेवायुरवशिष्यते २. यदि आयुष्य दीर्घ किन्तु जंघाबल क्षीण है, तो वृद्धावास ततः पादपोपगमादीनामेकतरमभ्युद्यतमरणं प्रतिपद्यते, अथ (स्थिरवास) में रहे। प्रचुरमायुः परं जंघाबलपरिक्षीणस्ततो वृद्धावासमध्यास्ते, ३. यदि आयु दीर्घ और जंघाबल सुदृढ है, तो अभ्युद्यतविहार अथाऽऽयुर्दीधैं न च जंघाबलपरिक्षीणस्तदाऽभ्युद्यतविहारं स्वीकार करे। प्रतिपद्यत इति। (बृभा १२८१, १२८२, १२८४ वृ) ० इत्वरिक गण निक्षेप : गणपालन दुष्कर सूत्र और अर्थ की अव्यवच्छित्ति करने के पश्चात् गणनिक्खेवित्तरिओ, गणिस्स जो व ठविओ जहिं ठाणे आचार्य पूर्वरात्र-अपररात्र/मध्यरात्रि में धर्मजागरिका करते हुए आह किमर्थमसावित्वरं गणादिनिक्षेपं विदधाति? इस प्रकार सोचते हैं-मैंने दीर्घकाल तक संयम जीवन का न यावज्जीविकम् ? उच्यते-इह चक्राष्टकविवरगामिना पालन किया है, प्रतीच्छक आदि शिष्यों के लिए उचित शिलीमुखेन वामलोचने पुत्रिकाया वेधनमिव दुष्करं वाचना भी दी है, तीर्थ की अव्यवच्छित्ति के लिए अनेक गणाद्यनुपालनम्, अतः पश्यामस्तावत्-एतेऽभि Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकल्प नवाचार्यप्रभृतयः किमस्य गणादेरनुपालनं कर्तुं यथावदीशते वा? नवा ? यदि नेशते ततो मया न प्रति-पत्तव्यो जिनकल्पः, यतो जिनकल्पानुपालनादपि श्रेष्ठ तर मितरस्य तथाविधस्याभावे सूत्रोक्तनीत्या गणाद्यनुपालनम्, बहुतरनिर्जरालाभकारणत्वात् । (बृभा १२८५ वृ) जो जिनकल्प स्वीकार करना चाहते हैं, वे यदि आचार्य हैं तो परिमित काल के लिए अपने योग्य शिष्य को आचार्य पद पर स्थापित करते हैं। यदि उपाध्याय, गणावच्छेदक आदि हैं तो अपने तुल्य गुणों वाले साधु को अल्पकालिक उपाध्याय आदि पद पर स्थापित करते हैं। शिष्य ने पूछा- गण आदि का निक्षेप इत्वरिक क्यों किया जाता है, यावज्जीवन के लिए क्यों नहीं किया जाता ? आचार्य ने कहा- चक्राष्टकविवरगामी बाण के द्वारा पुतली की बाईं आंख को बींधने की भांति गण की अनुपालना दुष्कर कार्य है, इसलिए हम देखते हैं कि ये नवनियुक्त आचार्य आदि गण का भार वहन करने में सक्षम हैं या नहीं ? यदि सक्षम नहीं हैं तो हमें जिनकल्प स्वीकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि पदयोग्य शिष्य के अभाव में आगम-विहित विधि से गण का अनुपालन करना जिनकल्प की अनुपालना से श्रेष्ठतर गणका योगक्षेमवहन (संरक्षण-संवर्धन) करने से महान् निर्जरा होती है। ३. जिनकल्प के अधिकारी कौन ? पञ्चानाम् - आचार्योपाध्याय प्रवर्त्तक- स्थविरगावच्छेदकानां तुलना भवति इह चैत एव प्रायोऽभ्युद्यतविहारस्याधिकारिण इति कृत्वा पञ्चेति संख्यानियमः कृतः । (बृभा १२८४ वृ) आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्त्तक, स्थविर और गणावच्छेदक - ये पांच प्रकार के व्यक्ति जिनकल्प-प्रतिपत्ति के विषय में अपनी क्षमता को तोलते हैं, विमर्श करते हैं, क्योंकि ये ही प्रायः अभ्युद्यतविहार (जिनकल्प) के लिए अधिकृत होते हैं, अतः पांच की संख्या का निर्देश किया गया है। ४. जिनकल्प की पांच भावनाएं तवेण सत्तेण सुत्तेंण एगत्तेण बलेण य। तुलणा पंचहा वुत्ता, जिणकप्पं पडिवज्जओ ॥ (बृभा १३२८) आगम विषय कोश - २ जिनकल्प प्रतिपत्ता के लिए पांच तुलनाएं (भावनाएं) प्रतिपादित हैं - तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल । • तपोभावना से इन्द्रिययोगाचार्य : सिंह दृष्टांत जो जेण अणब्भत्थो, पोरिसिमाई तवो उ तं तिगुणं । कुणइ छुहाविजयट्ठा, गिरिनइसीहेण दिट्टंतो ॥ एक्केक्कं ताव तवं, करेड़ जह तेण कीरमाणेणं । हाणी न होइ जइआ, वि होज्ज छम्मासुवस्सग्गो ॥ अप्पाहारस्सन इंदियाइँ विसएसु संपवत्तंति । नेव किलम्मइ तवसा, रसिएसु न सज्जए यावि ॥ तवभावणाई पंचिंदियाणि दंताणि जस्स वसमिति । इंदियजोगायरिओ, समाहिकरणाइँ कारयए ॥ (बृभा १३२९-१३३२) २४८ जो पौरुषी आदि तप का अभ्यासी नहीं है, वह तीन बार उस तप का आसेवन करता है। जैसे-सर्वप्रथम पौरुषी तप का तीन बार आसेवन कर उसमें सात्मीभाव को प्राप्त करता है, तत्पश्चात् पुरिमड्ड, एकाशन आदि तपोयोगों के साथ सात्मीकरण करता है। यह उपक्रम क्षुधा परीषह पर विजय पाने के लिए किया जाता है। 1 गिरिनदी - सिंह दृष्टांत - एक सिंह भरी हुई पहाड़ी नदी में तैरता हुआ मन ही मन यह निश्चित कर लेता है कि दूसरे तट पर वृक्ष आदि से उपलक्षित अमुक प्रदेश में मुझे जाना है। पानी के वेगपूर्ण प्रवाह में वह विपरीत दिशा में बह जाता है, तब लौटकर स्वस्थ होकर पुनः नदी में तैरता है तीव्र प्रवाह उसे बहाकर ले जाता है। सिंह अपने इस अभ्यास को तब तक चालू रखता है, जब तक वह नदी को तैरकर तट पर नहीं पहुंच जाता। इसी प्रकार तपोयोग में • संलग्न साधक तब तक तपोयोग का अभ्यास करता रहता है, जब तक विवक्षित तप आत्मसात् नहीं हो जाता । एक-एक तपोयोग का उतना अभ्यास करता है, जितना करने से विहित (पूर्व स्वीकृत) अनुष्ठान की हानि न हो। वह इतना अभ्यस्त हो जाता है कि यदि कभी छह मास पर्यंत उपसर्ग होता रहे - कोई देव आदि आहार को अनेषणीय करता रहे, तब भी वह छह मास तक निरन्तर उपवास कर लेता है, किन्तु अनेषणीय आहार ग्रहण नहीं करता । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २४९ जिनकल्प ० आहार न करने से या अल्पाहार से इन्द्रियां विषयों में सोता है। वह यदि जिनकल्पी होना चाहे तो शनैः-शनैः सम्प्रवृत्त नहीं होती। अभ्यास कर निद्रा पर विजय प्राप्त करे। वह उपाश्रय आदि • वह दीर्घकालिक तपस्या में भी क्लांति का अनुभव नहीं में जीव-जन्तओं से होने वाले भय को भी जीते। करता और न ही स्निग्ध-मधुर रसों में आसक्त होता है। पांच प्रतिमाएं० तपोभावना से दमित पांचों इन्द्रियां जिसके अधीन हो जाती १ प्रथम प्रतिमा-यह उपाश्रय में की जाती है। सत्त्वभावना का हैं, वह इन्द्रिययोगाचार्य बन जाता है और उन्हें समाधिकारक अभ्यास करने वाला शेष सब साधुओं के सो जाने पर उपाश्रय बना देता है-इन्द्रियों का प्रयोग उस रूप में करता है, जिससे के किसी अपरिभोग्य सघन अंधकार वाले अपवरक, कोष्ठक ज्ञान आदि में समाधि उत्पन्न हो। या अलिन्दक में कायोत्सर्गस्थित होकर भय पर विजय प्राप्त ० सत्त्वभावना : पांच प्रतिमाएं करता है, जिससे प्रशस्त ध्यान में स्थिरता बढ़ सके। इस जेविय पुव्विं निसि निग्गमेसु विसहिंसुसाहस-भयाइं। अभ्यासकाल में वह बहुत कम नींद लेता है या नहीं भी लेता। अहि-तक्कर-गोवाई, विसिंसु घोरे य संगामे॥ वह सत्त्वभावना से अपने आपको इतना भावित कर लेता है कि पासुत्ताण तुयट्ट, सोयव्वं जं च तीसु जामसु। मूषक, मार्जार आदि के द्वारा स्पृष्ट होने पर या खाए जाने पर भी थोवं थोवं जिणइ उ, भयं च जं संभवइ जत्थ॥ भय से उद्वेलित नहीं होता। निशाचरों की लीलाओं को देखकर पढमा उवस्सयम्मी, बिइया बाहिँ तइया चउक्कम्मि। उसके सहसा भयोद्रेकजनित रोमांच नहीं होता और न वह वहां सुन्नघरम्मि चउत्थी, तह पंचमिया सुसाणम्मि॥ से पलायन करता है। भोगजढे गंभीरे, उव्वरए कोट्ठए अलिंदे वा। २. द्वितीय प्रतिमा- इसका अभ्यास उपाश्रय के बाहर स्थित तणुसाइ जागरो वा, झाणट्ठाए भयं जिणइ॥ होकर करना होता है। उपाश्रय में साधना करने वाले प्रथम छिक्कस्स व खइयस्सव, मूसिगमाईहिँ वा निसिचरेहि। प्रतिमा स्थित मुनि के जो भयस्थान होते हैं, वे उपाश्रय के जह सहसा न वि जायइ, रोमंचुब्भेय चाडो वा॥ बाहर साधना करने वाले के लिए प्रगुणित हो जाते हैं। उसे सविसेसतरा बाहिं, तक्कर-आरक्खि-सावयाईया। तस्कर, आरक्षक, श्वापद आदि के भय सहन करने पड़ते हैं। सुण्णघर-सुसाणेसु य, सविसेसतरा भवे तिविहा॥ ३-५. तृतीय यावत् पंचमी प्रतिमा-इनका अभ्यास क्रमश: देवेहिँ भेसिओ वि य, दिया व रातो व भीमरूवेहि। चतुष्पथ (चौराहे) पर, शून्यगृह और श्मशान में किया जाता तो सत्तभावणाए, वहइ भरं निब्भओ सयलं॥ है। वहां देव, मनुष्य और तिर्यंचकृत उपसर्गरूप भय होते हैं। (बुभा १३३३-१३३९) वह उन सब पर विजय प्राप्त करता है। जो राजा, अमात्य, ग्रामरक्षक आदि गहवास में रहते सत्त्वभावना का परिणाम-सत्त्वभावना का अभ्यासी साधक हुए नगरवृत्तान्त को जानने के लिए अथवा नगररक्षा के लिए। दिन या रात में देवों के द्वारा भयंकर रूपों से डराये जाने पर रात्रि में घूमते थे, अहेतुक अथवा सर्प, तस्कर,गोप आदि का भी जिनकल्प के समग्र भार को निर्भयता से वहन करता है। सहेतुक भय सहन करते थे और जो घोर संग्राम में वीरता से . सूत्रभावना : श्रुतपरावर्तन से कालज्ञान प्रवेश करते थे, वैसे व्यक्ति भी यदि जिनकल्प को स्वीकार जइ वियसनाममिवपरिचियंसुअंअणहिय-अहीणवन्नाई। करना चाहते हैं तो उन्हें भी सत्त्वभावना का अवश्य अभ्यास कालपरिमाणहेउं, तहा वि खलु तज्जयं कुणइ॥ करना होता है। उस्सासाओ पाणू, तओ य थोवो तओ वि य मुहुत्तो। स्थविरकल्पी मुनि पार्श्वशयन अथवा उत्तानशयन करता मुहुत्तेहिँ पोरिसीओ, जाणेइ निसा य दिवसा य॥ है, रोग आदि कारणों से रात्रि में तीन प्रहर तक सो सकता मेहाईछन्नेसु वि, उभओकालमहवा उवस्सग्गे। है और उत्सर्ग विधि के अनुसार वह रात्रि के तीसरे प्रहर में पेहाइ भिक्ख पंथे, नाहिइ कालं विणा छायं॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकल्प २५० आगम विषय कोश-२ एगग्गया सुमह निज्जरा य नेव मिणणम्मि पलिमंथो। . एकत्व भावना : ममत्वविसर्जन न पराहीणं नाणं, काले जह मंसचक्खूणं॥ जइ वि य पुव्वममत्तं, छिन्नं साहूहिँ दारमाईसु। सुयभावणाएँ नाणं, दसण तवसंजमं च परिणमइ। आयरियाइममत्तं, तहा वि संजायए पच्छा॥ तो उवओगपरिण्णो, सुयमव्वहितो समाणेइ॥ दिट्ठिनिवायाऽऽलावे, अवरोप्परकारियं सपडिपुच्छं। (बृभा १३४०-१३४४) परिहास मिहो य कहा, पुव्वपवत्ता परिहवेइ॥ यद्यपि उनका श्रुत अपने नाम की भांति सुपरिचित तणुईकयम्मि पुव्वं, बाहिरपेम्मे सहायमाईसु। होता है, हीनाक्षर-अधिकाक्षर आदि दोषों से रहित होता है, आहारे उवहिम्मि य, देहे य न सज्जए पच्छा। फिर भी कालपरिमाण का ज्ञान करने के लिए वे श्रत का पुटिव छिन्नममत्तो, उत्तरकालं वविजमाणे वि। अभ्यास करते हैं। साभाविय इअरे वा, खुब्भइ दटुं न संगइए॥ श्रुतपरावर्तना के आधार पर वे उच्छ्वास का परिमाण (बृभा १३४५-१३४८) जान लेते हैं। उच्छ्वास से प्राण (उच्छ्वास-नि:श्वासात्मक), यद्यपि साधुओं का कलत्र, पुत्र आदि के प्रति ममत्व प्राण से स्तोक (सात प्राण परिमाण), स्तोक से मुहर्त पहले ही छिन्न हो जाता है किन्तु प्रव्रज्यापर्याय में आचार्य (घटिकाद्वय-परिमाण), मुहूर्त से पौरुषी और पौरुषी से दिन- आदि के साथ ममत्व जुड़ जाता है। रात के परिमाण को जान लेते हैं। गुरु आदि के प्रति सस्नेह अवलोकन, उनके साथ आकाश के मेघ आदि से आच्छादित हो जाने पर भी आलाप-संलाप, भक्तपान-दान-ग्रहण रूप पारस्परिक उपकार, जिस क्रिया का जो प्रारम्भ काल और परिसमाप्तिकाल है, सूत्र-अर्थ आदि की प्रतिपृच्छा युक्त हास-परिहास, परस्पर उसे वे छाया-मापन के बिना स्वयं ही जान लेते हैं। वार्ता-पूर्व प्रवृत्त इन सब प्रवृत्तियों का वह परिहार कर देता अथवा उनका श्रुताभ्यास इतना पुष्ट हो जाता है है। आचार्य और सहवर्ती साधुओं के प्रति बाह्य प्रेम को कृश कि वे उपसर्ग-देव आदि द्वारा दिन-रात का व्यत्यय किए कर, तत्पश्चात् आहार, उपधि और देह के ममत्व का विसर्जन जाने पर भी उपकरण-प्रत्युपेक्षा, आवश्यककरण, भिक्षा, करता है। विहार-इन सबके उपयुक्त काल को छाया-मापन के बिना सभी जीव अनन्त बार सब जीवों के साथ स्वजनभाव स्वयं ही जान लेते हैं। और शत्रुभाव का अनुभव कर चुके हैं, इसलिए कौन अपना? सूत्रभावना की निष्पत्ति कौन पराया?-इस एकत्व भावना से वह प्रेम बन्धन को छिन्न ० एकाग्रता-श्रुतपरावर्तना से चित्त एकाग्र होता है। कर देता है। ० महानिर्जरा-स्वाध्यायप्रत्यया महान् निर्जरा होती है। जिनकल्पप्रतिपत्ति के पश्चात वह वास्तविक और ० अपरिमंथ-कालज्ञान के लिए सूर्यछाया का मापन नहीं देव आदि द्वारा वैक्रियशक्ति से निष्पादित स्वजनों को मारे करना पड़ता, अत: सूत्र-अर्थ का व्याघात नहीं होता। जाते हुए देखकर भी क्षुब्ध नहीं होता। ० स्वायत्तता-जैसे छद्मस्थ साधु का ज्ञान सूर्यछाया के अधीन । होता है, वैसे सूत्रभावना से भावित साधु का पौरुषी आदि पुष्फपुर पुष्फकेऊ, पुष्फवई देवि जुयलयं पसवे। कालविषयक ज्ञान पराधीन नहीं होता। पुत्तं च पुष्फचूलं, धूअं य सनामिअं तस्स। श्रुतभावना से अपने आपको भावित करता हुआ मुनि सहवड्रियाऽणरागो, रायत्तं चेव पुष्फचूलस्स। ज्ञान, दर्शन और तपःप्रधान संयम को सम्यक् परिणत करता है। घरजामाउगदाणं, मिलइ निसि केवलं तेणं॥ इस प्रकार श्रुत के उपयोग मात्र से ही काल को जानने वाला पव्वज्जा य नरिंदे, अणुपव्वयणं च भावणेगत्ते। अव्यथित रहता हुआ श्रुतभावना से भावित हो जाता है। वीमंसा उवसग्गे, विडेहिँ समुहिं च कंदणया॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २५१ जिनकल्प एगत्तभावणाए , न कामभोगे गणे सरीरे वा। बल के दो प्रकार हैं-शारीरिक बल और भावबल। सज्जइ वेरग्गगओ, फासेइ अणुत्तरं करणं॥ भाव का अर्थ हैअभिष्वंग। वह दो प्रकार का है __ (बृभा १३४९-१३५२) १. अप्रशस्त राग-पुत्र, कलत्र आदि में स्नेहजनित राग। पुष्पपुर नगर में पुष्पकेतु महाराजा की महारानी पष्पवती २. प्रशस्त राग-आचार्य आदि में गुणबहुमान प्रत्ययिक राग। (बलभावना का अभ्यासी मुनि इस द्विविध राग का ने एक बार एक युगल का प्रसव किया। पुत्र का नाम पुष्पचूल धृति से विसर्जन कर देता है। यह भावबल है। जिनकल्पार्ह और पुत्री का नाम पुष्पचूला रखा। दोनों साथ-साथ बड़े हुए। मुनि का शारीरिक बल भी अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा विशिष्ट दोनों में गहरा अनुराग था। पुष्पचूल राजा बना। उसने पुष्पचूला का पाणिग्रहण ऐसे व्यक्ति से किया जो गृहदामाद (घरजंवाई) रह होता है।) यह सही है कि तपोभावना, ज्ञानभावना आदि से सके। वह भर्ता से केवल रात्रि में ही मिलती, दिनभर भाई के उसका शरीरबल कृशतर हो जाता है। देह का अपचय होने साथ रहती। भाई पुष्पचूल प्रव्रजित हुआ तो वह भी अनुराग के कारण प्रवजित हो गई। कालान्तर में मुनि जिनकल्प पर भी जिससे उसकी धृति निश्चल होती है, वैसा प्रयत्न साधना स्वीकार करने के लिए एकत्व भावना से अपने आपको करता है, धृतिबल से आत्मा को सम्यग् भावित करता है। जो मोक्षमार्ग को दुर्वह बनाने वाली है, देव आदि कृत भावित कर रहे थे। एक देव ने परीक्षा करने के बहाने आर्या उपसर्ग जिसके सहायक हैं, कायर पुरुषों में जो भय पैदा करने पुष्पचूला का रूप बनाया। कई धूर्त व्यक्ति पुष्पचूला के साथ बलात्कार करने का प्रयत्न करने लगे। उस समय मुनि पुष्पचूल वाली है, ऐसी सम्पूर्ण परीषहों की सेना यदि सज्जित होकर पराभूत करने के लिए उस मुनि के सामने खड़ी हो जाए तो अत्यंत उधर से जा रहे थे। उन्हें देखकर पुष्पचूला आर्या चिल्ला उठी-ज्येष्ठार्य! मुझे बचाओ। मुनि प्रेमबन्धन से मुक्त हो बद्धकक्ष वह जिनकल्पी अनाकुलत और निष्प्रकम्प मानस से उस सेना के साथ युद्ध करता है। इस प्रकार बल भावना से भावित चुके थे। एगो हं नत्थि मे कोवि, नाहमन्नस्स कस्सइ-इस सत्त्वसंपन्न धीर मुनि अपने मनोरथ को पूर्ण करता है। एकत्व भावना को गुनगुनाते हुए वे अपने स्थान पर चले गए। तप आदि ये सभी भावनाएं धृति-बल से युक्त होती एकत्वभावना से भावित मुनि कामभोग, गण और हैं। ऐसा कोई साध्य नहीं है, जिसे धृतिसम्पन्न पुरुष न साध शरीर में आसक्त नहीं होता। वह वैराग्य के कारण अनुत्तर सके। (यह प्रसिद्ध वचन है-'सर्वं सत्त्वे प्रतिष्ठितम्।') जिनकल्प की आराधना करता है। ५. परिकर्म और अभिग्रह (पिंडैषणा) ० बलभावना : शरीरबल-धृतिबल जिणकप्पियपडिरूवी, गच्छे वसमाण दुविह परिकम्म। भावो उ अभिस्संगो, सो उ पसत्थो व अप्पसत्थो वा। ततियं भिक्खायरिया, पंतं लूहं अभिगहीया॥ नेह-गुणओ उ रागो, अपसत्थ पसत्थओ चेव॥ पाणी पडिग्गहेण व, सच्चेल निचेलओ जहा भविया। कामं तु सरीरबलं, हायइ तव-नाणभावणजुअस्स। सो तेण पगारेणं, भावेइ अणागयं चेव॥ देहावचए वि सती, जह होइ धिई तहा जयइ॥ आहारे उवहिम्मि य, अहवा दुविहं तु होइ परिकम्म। कसिणा परीसहचमू , जइ उट्ठिज्जाहि सोवसग्गा वि। पंचसु अ दोसु अग्गह, अभिग्गहो अन्नयरियाए॥ दुद्धरपहकरवेगा, भयजणणी अप्पसत्ताणं॥ (बृभा १३५८, १३६१, १३६२) धिडधणियबद्धकच्छो, जोहेड अणाउलो तमव्वहिओ।। ____पांचों भावनाओं से भावित मुनि जिनकल्पिक का बलभावणाएँ धीरो, संपुण्णमणोरहो होइ॥ प्रतिरूपी बनकर जिनकल्प स्वीकार करने से पर्व गच्छ में धिइ-बलपुरस्सराओ, हवंति सव्वा वि भावणा एता। रहता हुआ दो प्रकार का परिकर्म करता है। तीसरे प्रहर में तं तु न विज्जइ सज्झं, जं धिइमंतो न साहेइ॥ गोचरी करता है। रूक्ष और प्रान्त आहार ग्रहण करता है। (बृभा १३५३-१३५७) अभिग्रहपूर्वक आहार की एषणा करता है। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकल्प परिकर्म के दो प्रकार हैं- पाणि परिकर्म और पात्र परिकर्म । • अथवा सचेल परिकर्म और अचेल परिकर्म । • अथवा आहार और उपधि विषयक परिकर्म । भविष्य में जिनकल्पिक जिस रूप में रहना चाहता है, उसी रूप में परिकर्म का अभ्यास कर अपने आपको भावित करता है। अभिग्रह - सात प्रकार की पिण्डैषणाओं में प्रथम दो को सर्वथा छोड़कर शेष पांच (उद्धृता, अल्पलेपा, अवगृहीता, प्रगृहीता, उज्झितधर्मा) में से किन्हीं दो के द्वारा एक से आहार और दूसरी से पानक ग्रहण करता है, शेष तीन उस दिन आहार- पानी ग्रहण नहीं करता । * पिंडैषणा - पाणैषणा - विवरण द्र पिण्डैषणा ....... उवहिं च अहागडयं, गिण्हइ जावऽन्नणुप्पाए ॥ (बृभा १२८५) जब तक जिनकल्पप्रायोग्य, शुद्धएषणायुक्त और प्रमाणोपेत वस्त्र आदि प्राप्त नहीं होते, तब तक वह यथाकृत उपधि ग्रहण करता है। अपने कल्पप्रायोग्य उपकरण प्राप्त होने पर पुराने उपकरण को त्याग देता है । ० इंद्रिय - विजय का अभ्यास इंदिय - कसाय - जोगा, विणियमिया जइ वि सव्वसाहूहिं । तह वि जओ कायव्वो, तज्जयसिद्धिं गणितेणं ॥ (बृभा १२८६) यद्यपि सभी साधु इन्द्रिय, कषाय और योग पर विजय प्राप्त करते हैं फिर भी जिनकल्पप्रतिपत्ता को अपने कल्प की सफलता के लिए, इन्द्रियजय से होने वाली सिद्धि की प्राप्ति के लिए उन पर अवश्य विजय प्राप्त करनी चाहिए (जिससे इष्टअनिष्ट विषयों का योग-वियोग होने पर राग-द्वेष की उत्पत्ति न हो, दुर्वचन सुनकर भी कषाय का उदय न हो, चित्त दुष्प्रणिधान से मलिन न हो) । • उत्कुटुक आसन का अभ्यास उक्कुडुयासणसमुई, करेइ पुढवीसिलाइसुववेसे । पडिवन्नो पुण नियमा, उक्कुडुओ केइ उ भयंति ॥ २५२ आगम विषय कोश - २ तं तु न जुज्जइ जम्हा, अणंतरो नत्थि भूमिपरिभोगो । तम्मिय हु तस्स काले, ओवग्गहितोवही नत्थि ॥ (बृभा १३६४, १३६५ ) वे 'उत्कुटुक आसन का अभ्यास करते हैं अथवा पृथ्वी शिलापट्ट आदि यथासंस्तृत स्थानों पर बैठते हैं । जिनकल्प प्रतिपन्न मुनि नियमतः उत्कुटुक आसन में ही बैठते हैं। कुछेक आचार्य इसमें बैठने का विकल्प भी मानते हैं, किन्तु वह संभव नहीं है। क्योंकि मुनि अव्यवहित भूमि (मुंडभूतल ) पर बैठ नहीं सकते और उनके पास औपग्रहिक उपधि (निषद्या आदि) नहीं होती। अतः वे उत्कुटुक आसन में ही रहते हैं । परिणाम आदि की विशुद्धि परिणाम- जोगसोही, उवहिविवेगो य गणविवेगो य । सिज्जा- संथारविसोहणं च विगईविवेगो य ॥ तो पच्छिमम्मि काले, सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं । पच्छा निच्छयपत्थं, उवेइ जिणकप्पियविहारं ॥ (बृभा १३५९, १३६० ) ० जिनकल्प प्रतिपत्ता मुनि गुरु आदि के प्रति अपने ममत्व भाव का विच्छेद कर परिणामों की विशुद्धि करे तथा आवश्यक प्रवृत्तियों को यथासमय संपादित कर योगों की विशुद्धि करे । वह पुरानी उपधि का परिहार करे, गण का परित्याग करे, शय्या और संस्तारक का विशोधन करे तथा विकृति का परिहार करे । शिष्य - निष्पादन द्वारा तीर्थ की अव्यवच्छित्ति करने के पश्चात् वह सत्पुरुषों द्वारा आराधित, अत्यन्त दुरनुचर, भविष्य एकान्त हितकारी जिनकल्पविहार को स्वीकार करे । ६. जिनकल्प का स्वीकरण दव्वाई अणुकूले, संघं असती गणं समाहूय । जिण गणहरे य चउदस, अभिन्न असती य वडमाई ॥ (बृभा १३६६) जिनकल्प को स्वीकार करने वाला मुनि सभी प्रकार से अपने आपको परिकर्मित कर लेने के पश्चात् अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में समस्त संघ को एकत्रित Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २५३ जिनकल्प करे। यह संभव न हो तो अपने गण को अवश्य बुलाए। से क्षमायाचना करता है, तब उसमें छह गुण निष्पन्न होते हैंफिर वह तीर्थंकर के पास जिनकल्प स्वीकार करे। उनके १. निःशल्यता-वह शल्यरहित हो जाता है। अभाव में गणधर, चतुर्दशपूर्वी या अभिन्नदशपूर्वी के पास २. विनय-विनय की प्रतिपत्ति होती है। जिनकल्प स्वीकार करे। यदि इनमें से किसी की भी ३. मार्गदीपन-क्षमायाचना का मार्ग उद्दीप्त होता है। उपलब्धि न हो तो (अपने गण के समक्ष) वटवृक्ष, अशोक ४. लाघव-अपराध-भार से मुक्ति मिल जाती है। या अश्वत्थ वृक्ष के नीचे जिनकल्प स्वीकार करे। ५. एकत्व-'मैं अकेला हूं'-ऐसा भाव पुष्ट होता है। ७. जिनकल्प प्रतिपत्ता द्वारा क्षमायाचना ६. अप्रतिबंध-ममत्व के छेदन से शिष्य-प्रतिबंध नहीं रहता। गणि गणहरं ठवित्ता, खामे अगणी उ केवलं खामे। ९. स्थापित आचार्य और शिष्यों को शिक्षा सव्वं च बाल-वुटुं, पुव्वविरुद्धे विसेसेणं॥ अह ते सबाल-वुड्डो, गच्छो साइज्ज णं अपरितंतो। जइ किंचि पमाएणं, न सुटु भे वट्टियं मए पुव्वि।। एसो हु परंपरतो, तुमं पि अंते कुणसु एवं॥ तं भे खामेमि अहं, निस्सल्लो निक्कसाओ अ॥ पुव्वपवित्तं विणयं, मा हु पमाएहिँ विणयजोगेसु। आणंदअंसुपायं, कुणमाणा ते वि भूमिगयसीसा। जो जेण पगारेणं, उववज्जड तं च जाणाहिं॥ खामिंति जहरिहं खलु, जहारिहं खामिता तेणं॥ ओमो समराइणिओ, अप्पतरसुओ अ मा य णं तुब्भे। (बृभा १३६७-१३६९) परिभवह तुम्ह एसो, विसेसओ संपयं पुज्जो॥ गच्छाधिपति यदि जिनकल्प स्वीकार करना चाहे तो (बृभा १३७१-१३७३) वह अपने शिष्य को गणाचार्य के रूप में स्थापित कर श्रमणसंघ आयुष्मन् ! तुम खेदरहित होकर सबाल-वृद्ध इस से, अपने गच्छ के आबाल-वृद्ध सभी मनियों से क्षमायाचना गच्छ का स्मारणा और वारणा के द्वारा सम्यग् पालन करना। करता है और विशेष रूप से उनसे क्षमा मांगता है, जिनकी शिष्य आचार्य का यही क्रम है कि वह अव्यवच्छित्तिकारक उसने किसी प्रकार से विराधना की हो। वह उनसे कहता शिष्य का निष्पादन कर शक्ति रहते जिनकल्प स्वीकार करे। है-'मनिवरो। प्रमादवश मैंने यदि आपके प्रति उचित व्यवहार तुम भी अंत समय में शिष्य-निष्पादन का कार्य पूर्ण हो जाने पर न किया हो तो मैं निःशल्य और निष्कषाय होकर क्षमा मांगता जिनकल्प स्वीकार कर लेना। हूं।' आचार्य द्वारा क्षमायाचना करने के पश्चात् सभी मुनि जो बहुश्रुत और पर्यायज्येष्ठ मुनि हैं, उनके प्रति पृथ्वी पर सिर टिकाकर, आनन्द के अश्रओं से परिपर्ण नेत्रों से यथोचित विनय करने में प्रमाद मत करना। तप, स्वाध्याय, रत्नाधिक के क्रम से क्षमायाचना करते हैं। आचार्य भी । ने । आचार्य श्री वैयावृत्त्य आदि विभिन्न कार्यों में से जो साधु जिस कार्य में पर्यायज्येष्ठ के क्रम से ही क्षमायाचना करते हैं। रुचि रखता है, उसे जानकर उसी कार्य में योजित करना। जिनकल्प स्वीकार करने वाला यदि गणी नहीं है, शिष्यो! ये आचार्य हमारे से छोटे हैं। हम समान सामान्य साधु है तो वह किसी की नियुक्ति नहीं करता, पर्याय वाले हैं। हमारी अपेक्षा ये अल्पश्रुतज्ञानी हैं, तब हम केवल समूचे गण से क्षमायाचना करता है। क्यों इनके आज्ञा और निर्देश का पालन करें? इस प्रकार तुम लोग आचार्य की अवज्ञा मत करना। वर्तमान में ये मेरे स्थानीय ८. क्षमायाचना की निष्पत्ति हैं, गुरुतर गुणों से युक्त हैं, इसलिए तुम सब के लिए विशेष खामिंतस्स गुणा खलु, निस्सल्लय विणय दीवणा मग्गे। रूप से पूजनीय हैं। लाघवियं एगत्तं, अप्पडिबंधो अ जिणकप्पे॥ णकप्प॥ १०. गण-निष्क्रमण विधि (बृभा १३७०) पक्खीव पत्तसहिओ, सभंडगो वच्चए निरवयक्खो। जिनकल्प की साधना स्वीकार करने वाला जब मुनियों एगंतं जा तइया, तीएँ विहारो से नऽन्नासु॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकल्प २५४ आगम विषय कोश-२ सीहम्मि व मंदरकंदराओ, नीहम्मिए तओ तम्मि। अथवा उनके आवश्यिकी, नैषेधिकी तथा गृहस्थ चक्खुविसयं अईए, अयंति आणंदिया साहू ॥ विषयक उपसंपदा-इन तीनों के अतिरिक्त शेष मिथ्याकार आभोएउं खेत्तं, निव्वाघाएण मासनिव्वाहिं। आदि सात समाचारियां नहीं होती। गंतूण तत्थ विहरइ, एस विहारो समासेणं॥ ० पशु-पक्षी निवारण की मर्यादा (बृभा १३७४, १३७५, १३७७) गिहिणोऽवरज्झमाणे, सुण-मज्जारादि अप्पणो वा वि। जिस प्रकार पक्षी अपने पंखों के साथ पूर्वस्थान से वारेऊण न कप्पति, जिणाण थेराण तु गिहीणं॥ निरपेक्ष होकर दूसरे स्थान पर चला जाता है, वैसे ही जिनकल्प (निभा ३८३) को स्वीकर करने वाला मुनि अपने पात्रों के साथ गण से श्वान, मार्जार आदि जीवजन्तु गृहस्थ को बाधा पहुंचा निरपेक्ष होकर माएकल्प प्रायोग्य क्षेत्र की ओर प्रस्थान कर रहे हों या अपने ही आहार आदि की क्षति कर रहे हों तो देता है। वह तीसरे प्रहर के प्रारंभ से समाप्ति तक चलता है जिनकल्पी मुनि उन अपराधियों का निवारण नहीं करते। क्योंकि जिनकल्प के विहार का समय केवल तीसरा प्रहर ही स्थविरकल्पी पशु-क्षियों से अपने आहार आदि की निर्दिष्ट है, शेष प्रहर नहीं। जहां चौथा प्रहर प्रारम्भ होता है, रक्षा कर सकते हैं किन्तु गृहस्थ की वस्तु को कोई हानि वहां उसे ठहरना ही पड़ता है। पहंचा रहा हो तो गच्छवासी उसका निवारण नहीं कर सकते। पर्वत की कन्दरा से निकलते हुए सिंह की तरह १२. जिनकल्प-साधना के सत्ताईस द्वार गच्छ से निष्क्रमण करने वाले आचार्य या मुनि का साधु सुय संघयणुवसग्गे, आतंके वेदणा कइ जणा य। कुछ दूरी तक अनुगमन करें। उसके बाद जब वे आंखों से थंडिल्ल वसहि केच्चिर, उच्चारे चेव पासवणे॥ अदृश्य हो जाएं तब आनन्दित होकर अपने स्थान पर आ ओवासे तणफलए, सारक्खणया य संठवणया य। जाएं। सभी हृष्ट-तुष्ट होकर यह भावना करें कि अहो! ये पाहुडि अग्गी दीवे, ओहाण वसे कइ जणा य॥ आचार्य सुखसेवनीय स्थविरकल्प को छोड़कर अति दुष्कर भिक्खायरिया पाणग, लेवालेवे तहा अलेवे य। अभ्युद्यत विहार-जिनकल्प को स्वीकार कर रहे हैं। आयंबिल पडिमाओ, जिणकप्पे मासकप्पो य॥ वे जिनकल्प प्रतिपत्ता मनि मास-निर्वहण योग्य क्षेत्र (बृभा १३८२-१३८४) को निर्व्याघात समझकर वहां रहते हैं और अपने आचार का जिनकल्प की साधना के सत्ताईस बिन्दु हैंपरिपालन करते हैं। १. श्रुत १०. उच्चार १९. अवधान २. संहनन ११. प्रस्रवण २०. कतिजन-पृच्छा ११. जिनकल्पी की सामाचारी ३. उपसर्ग १२. अवकाश २१. भिक्षाचर्या आवसि निसीहि मिच्छा, आपुच्छ्वसंपदंच गिहिएसु। ४. आतंक १३. तृणफलक २२. पानक अन्ना सामायारी, न होंति से सेसिया पंच॥ ५. वेदना १४. संरक्षणता २३. लेपालेप आवासियं निसीहियं, मोत्तुं उवसंपयं च गिहिएसु। ६. कितने? १५. संस्थापनता २४. अलेप सेसा सामायारी, न होंति जिणकप्पिए सत्त॥ ७. स्थण्डिल १६. प्राभृतिका २५. आचाम्ल (बृभा १३७९, १३८०) ८. वसति १७. अग्नि २६. प्रतिमा जिनकल्पी पांच प्रकार की सामाचारी का प्रयोग करते ९. कब तक? १८. दीप २७. मासकल्प हैं-१. आवश्यिकी २. नैषेधिकी ३. मिथ्याकार ४. आपृच्छा ५. ० श्रुत, संहनन' वेदना ( ध्रुवलोच.).... उपसम्पदा (गृहस्थविषयक)। इच्छाकार आदि पांच सामाचारी आयारवत्थुतइयं, जहन्नयं होइ नवमपुव्वस्स। उनके नहीं होती। तहियं कालण्णाणं, दस उक्कोसेण भिन्नाई॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २५५ जिनकल्प पढमिल्लुगसंघयणा, धिईऍ पुण वज्जकुड्डसामाणा।" पर वस्त्र का परिष्ठापन भी वहीं करते हैं। जइ वि य उप्पज्जंते, सम्मं विसहंति ते उ उवसग्गे। वे शौचक्रिया से निवृत्त होकर आचमन नहीं लेते रोगातंका चेवं, भइआ जइ होति विसहति ॥ क्योंकि उनका मल अत्यल्प और अभिन्न होता है। इसका अब्भोवगमा ओवक्कमा य तेसि वियणा भवे दुविहा। कारण है-अल्पमात्रा में रूक्ष भोजन करना। आचमन न धुवलोआई पढमा, जरा-विवागाइ बिइएक्को॥ लेना उनका कल्प भी है। दीर्घकालीन उपसर्ग होने पर भी उच्चारे पासवणे, उस्सग्गं कुणइ थंडिले पढमे। वे उच्चार तथा प्रस्रवण का विसर्जन अस्थंडिल में नहीं तत्थेव य परिजुण्णे, कयकिच्चो उज्झई वत्थे॥ करते। अप्पमभिन्नं वच्चं, अप्पं लूहं च भोयणं भणियं। ० वसति ....... कतिजन? दीहे वि उ उवसग्गे, उभयमवि अथंडिले न करे॥ अममत्त अपरिकम्मा, नियमा जिणकप्पियाण वसहीओr" (बृभा १३८५-१३९०) बिलेनढक्कंति नखज्जमाणिं, गोणाई वारिंतिन भज्जमाणिं। सम्पूर्णदशपूर्वधरः पुनरमोघवचनतया प्रवचन- दारे न ढक्कंति न वऽग्गलिंति, ...॥ प्रभावनापरोपकारादिद्वारेणैव बहुतरं निर्जरालाभमासाद- किच्चिरकालं वसिहिह, इत्थ य उच्चारमाइए कुणसु। यति अतो नासौ जिनकल्पं प्रतिपद्यते।(बृभा १३८५ की वृ) इह अच्छसु मा य इहं, तण-फलए गिण्हिमे मा य॥ १. श्रुत-जिनकल्पी का जघन्य श्रुत प्रत्याख्यान नामक नवम सारक्खह गोणाई, मा य पडिंतिं उविक्खहउ भंते! । पूर्व की तीसरी 'आचार' नामक वस्तु है। इसका अध्ययन अन्नं वा अभिओगं, नेच्छंतऽचियत्तपरिहारी॥ कर लेने से कालज्ञान हो जाता है। जिसका ज्ञान इससे न्यून पाहुडिय दीवओ वा, अग्गि पगासो व जत्थ न संति। होता है, वह जिनकल्प स्वीकार नहीं कर सकता। उत्कृष्टतः ___जत्थ य भणंति ठंते, ओहाणं देह गेहे वि॥ उसका श्रुतपरिमाण है-कुछ कम दश पूर्व। (बृभा १३९१-१३९५) अमोघवचन वाले होते हैं। वे प्रवचन ८. वसति-जिनकल्पी ममत्वरहित होते हैं। उनकी वसति प्रभावना के द्वारा बहुतर निर्जरा का लाभ प्राप्त कर लेते हैं, नियमतः परिकर्मरहित होती है (उनके लिए वसति का अतः वे जिनकल्प साधना स्वीकार नहीं करते। उपलेपन आदि परिकर्म नहीं किया जाता)। वे वसति की २. संहनन-उनके प्रथम (वज्रऋषभनाराच) संहनन होता है। चिंता से मुक्त रहते हैं, बिलों को धूलि आदि से नहीं ढकते, उनकी मनःप्रणिधान रूप धृति स्वीकृत साधना के निर्वहन में पशुओं के द्वारा खाए जाने या तोड़े जाने पर भी वसति की रक्षा वज्रकुड्य के समान होती है। के लिए पशुओं का निवारण नहीं करते, द्वार बंद नहीं करते. ३, ४. उपसर्ग-आतंक-जिनकल्पी के उपसर्ग, रोग और अर्गला नहीं लगाते। आंतक होते हैं, ऐसा एकान्ततः नियम नहीं है। यदि होते हैं जब वसति की याचना करते हैं और गृहस्वामी तो वे उनको समभाव से सहन करते हैं। वसतिविषयक कुछेक नियंत्रण की बातें कहता है तो वे वैसी ५. वेदना-उनके दो प्रकार की वेदना होती है वसति का परिहार कर देते हैं। यथा० आभ्युपगमिकी-प्रतिदिनभावी लुंचन, आतापना, तपस्या ९. आप यहां कितने समय तक रहेंगे? १०, ११. इस स्थान आदि से उत्पन्न वेदना। में आप मल-मूत्र का विसर्जन करें, उसमें नहीं। १२. आप ० औपक्रमिकी-बुढ़ापा तथा कर्मविपाक जनित वेदना। यहां बैठे, यहां नहीं। १३. अमक तणफलक आप काम में ६. कितने?-वे अकेले ही साधना के लिए प्रस्थित होते हैं। लें, अमुक नहीं। १४. गाय-बैल आदि से वसति की रक्षा ७. स्थण्डिल-वे उच्चार-प्रस्रवण का उत्सर्ग प्रथम (अनापात करें। १५. वसति की टूट-फूट की उपेक्षा न करें। और असंलोक) स्थण्डिल में करते हैं। प्रयोजन पूर्ण होने १६-२०. प्राभृतिका आदि-जिस वसति में बलि दी जाती Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकल्प २५६ आगम विषय कोश-२ हो, दीपक जलाया जाता हो, अग्नि आदि का जहां प्रकाश २६. प्रतिमा-वे मासिकी आदि भिक्षप्रतिमा तथा भद्रा, महाभद्रा, रहता हो, जहां गृहस्वामी यह कहे कि आप हमारे घर का आदि प्रतिमायें स्वीकार नहीं करते। (अपनी कल्पस्थिति का भी ध्यान रखें और अनुज्ञा लेते समय यह पूछे कि आप कितने प्रतिपालन ही उनका विशेष अभिग्रह होता है।) मुनि यहां रहेंगे-ऐसी वसति का जिनकल्पी परिहार करते हैं २७. मासकल्प-जिनकल्पी सूत्र और अर्थ में विशारद, संहनन क्योंकि वे किसी के मन में सूक्ष्मतम भी अप्रीति उत्पन्न नहीं और धृति से युक्त होते हैं इसलिए वे जिनकल्प से संबंधित करते। अभिग्रहयुक्त एषणा में समर्थ होते हैं। साभिग्रह एषणा भिक्षाचर्या ....... मासकल्प मासकल्पस्थिति अनुपालक के सम्भव है। तइयाइ भिक्खचरिया, पग्गहिया एसणा य पुव्वुत्ता। वे जिस ग्राम में मासकल्प करते हैं, उस ग्राम को एमेव पाणगस्स वि. गिण्हड अ अलेवडे दो वि छह वीथियों (भागों) में विभक्त कर प्रतिदिन एक-एक आयंबिलं न गिण्हइ, जं च अणायंबिलं पि लेवाडं। वीथि में भिक्षा के लिए जाते हैं। वे अनियतवृत्ति होते हैं, न य पडिमा पडिवज्जद, मासाई जा य सेसाओ उनके उपयुक्त विधि से एषणा करने से आधाकर्म आदि कप्पे सुत्त-ऽत्थविसारयस्स संघयण-विरियजुत्तस्स। दोषों का परिहार सहजता से हो जाता है। जिणकप्पियस्स कप्पइ, अभिगहिया एसणा निच्चं॥ एक वसति में सात जिनकल्पी से अधिक नहीं रहते। वे एक साथ रहते हए भी परस्पर सम्भाषण नहीं करते। भिक्षा छव्वीहीओ गाम, काउं एक्किक्कियं तु सो अडइ। वज्जेउं होइ सुहं, अनिययवित्तिस्स कम्माई॥ के लिए एक वीथि में दो नहीं जाते। एक्काए वसहीए, उक्कोसेणं वसंति सत्त जणा। १३. जिनकल्प : मासकल्प और पर्युषणाकल्प अवरोप्परसंभासं, चयंति अन्नोन्नवीहिं च॥ दुविहो य मासकप्पो, जिणकप्पे थेरकप्पे य।" (बृभा १३९७-१४००, १४१२) .."एमेव जिणाणं पि य, कप्पो ठितमट्ठितो होति॥ ....."जिणाण नियमऽ४ चउरो य॥ ....."जहिं गहियं, तहि भुंजणे ___......। ....."जिणकप्पिया वि एवं, एमेव महाविदेहेसु॥ (निभा ४१४७) मध्यमसाधूनां मासकल्पोऽस्थितः, पूर्वपश्चिमानां २१, २२. भिक्षाचर्या-पानक-वे तीसरे प्रहर में भिक्षाचर्या तुस्थितः। "प्रथमचरमतीर्थकरसत्कजिनकल्पिकानामृतुकरते हैं। उनकी एषणा अभिग्रहयुक्त होती है-सात पिण्डैषणाओं बद्धे नियमादष्टौ मासकल्पा वर्षासु चत्वारो मासा में से प्रथम दो को छोड़कर शेष पांच में से किसी एक के द्वारा अन्यूनाधिकाः स्थितकल्पतया मन्तव्याः, निरपवादानुष्ठानआहार और दूसरी के द्वारा पानक ग्रहण करते हैं, शेष तीन का परत्वादेषाम्।"महाविदेहेषु ये स्थविरकल्पिका जिनउस दिन प्रयोग नहीं करते। कल्पिकाश्च तेऽप्यस्थितकल्पिकाः प्रतिपत्तव्याः। जिनकल्पी जिस प्रहर में आहार ग्रहण करते हैं, उसी (बृभा ६४३१, ६४३२, ६४३४, ६४३६ वृ) प्रहर में उसका परिभोग करते हैं। मासकल्प के दो प्रकार हैं-जिनकल्प और स्थविरकल्प। २३, २४. लेपालेप-अलेप-जिनकल्पिक लेपकृत ग्रहण करते स्थविरकल्पी की भांति जिनकल्पी का मासकल्प भी स्थित और हैं अथवा अलेपकृत? वे आहार और पानक अलेपकृत (वल्ल, अस्थित–दोनों प्रकार का होता है। मध्यवर्ती साधओंका मासकल्पचने, सौवीर आदि) ग्रहण करते हैं, लेपकृत नहीं। पर्युषणाकल्प अस्थित और प्रथम-चरम तीर्थवर्ती साधुओं का वह २५. आचाम्ल-वे आचाम्ल (खट्टा पानक) ग्रहण नहीं करते स्थित होता है। और लेपकृत अनाचाम्ल भी ग्रहण नहीं करते। (आचाम्ल से प्रथम और चरम तीर्थंकर के समय जिनकल्पी ऋतुबद्ध मलभेद आदि दोष उत्पन्न होते हैं।) काल में नियमत: आठ मासकल्प करते हैं और वर्षाकाल में प Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ पूरे चार मास-न न्यून न अधिक - एक स्थान पर रहते हैं। क्योंकि जिनकल्पी निरपवाद अनुष्ठानपरायण होते हैं। जो महाविदेह में स्थविरकल्पी-जिनकल्पी हैं, उनका मासकल्पपर्युषणाकल्प मध्यवर्ती साधुओं की तरह अस्थित होता है। १४. जिनकल्प- स्थिति के उन्नीस स्थान खेत्ते काल चरित्ते, तित्थे परियाय आगमे वेए । कप्पे लिंगे लेसा, झाणे गणणा अभिगहा य ॥ पव्वावण मुंडावण, मणसाऽऽवन्ने वि से अणुग्धाया । कारण निप्पडिकम्मे, भत्तं पंथो य तइयाए ॥ (बृभा १४१३, १४१४) २५७ जिनकल्प की स्थिति (विद्यमानता) के उन्नीस बिन्दु हैं - १. क्षेत्र २. काल ३. चारित्र ४. तीर्थ ५. पर्याय ६. आगम ७. वेद ८. कल्प ९. लिंग १०. लेश्या ११. ध्यान १२. गणना (इन द्वारों की स्थिति वक्तव्य है) १३. अभिग्रह १४. प्रव्राजना १५. मुण्डापना १६. मानसिक अपराध में भी चतुर्गुरु प्रायश्चित्त १७. कारण १८. निष्प्रतिकर्म १९. भिक्षा और विहार तृतीय पौरुषी में । 1 T • जन्म और सद्भाव की अपेक्षा क्षेत्र - काल जम्मण-संतीभावेसु होज्ज सव्वासु कम्मभूमीसु । साहरणे पुण भइयं, कम्मे व अकम्मभूमे वा ॥ ओसप्पिणीइ दोसुं, जम्मणतो तीसु संतिभावेणं । उस्सप्पिणि विवरीया, जम्मणतो संतिभावे य॥ नोसप्पिणिउस्सप्पे, भवंति पलिभागतो चउत्थम्मि । काले पलिभागेसु य, साहरणे होंति सव्वेसु ॥ (बृभा १४१५ - १४१७) १. क्षेत्र - जन्म और सद्भाव की अपेक्षा जिनकल्पी सब कर्मभूमियों में होते हैं। देव आदि के द्वारा संहरण होने पर उनका सद्भाव कर्मभूमि में भी हो सकता है, अकर्मभूमि में भी हो सकता है। २. काल - अवसर्पिणी काल में उत्पन्न हों तो उनका जन्म तीसरे चौथे अर में होता है। सद्भाव की अपेक्षा से जिनकल्पी तीसरे, चौथे और पांचवें अर में भी हो सकते हैं। यदि उत्सर्पिणीकाल में उत्पन्न हों तो दूसरे, तीसरे, चौथे अर में जिनकल्प जन्म लेते हैं । जिनकल्प का स्वीकार तीसरे और चौथे अर में ही करते हैं, क्योंकि दूसरे अर में तीर्थ नहीं होता । जहां काल अवस्थित है-न उत्सर्पिणी काल है और न अवसर्पिणीकाल है, वैसे चार प्रतिभाग हैं, सात क्षेत्र हैं१. सुषम- सुषमा प्रतिभाग - देवकुरु और उत्तरकुरु में । २. सुषमा प्रतिभाग हरिवर्ष और रम्यकवर्ष में । ३. सुषम - दुःषमा प्रतिभाग - हैमवत और ऐरण्यवत में । महाविदेह में । ४. दुःषम- सुषमा प्रतिभाग जन्म और सद्भाव से जिनकल्पी चतुर्थ प्रतिभाग में होते हैं, प्रथम तीन में नहीं। महाविदेह में उत्पन्न जिनकल्पी सुषम- सुषमा आदि छहों कालविभागों में संहरण की अपेक्षा से हो सकते हैं। भरत-ऐरवत और महाविदेह में संभूत जिनकल्पी संहरण की अपेक्षा से देवकुरु से संबंधित आदि सभी प्रतिभागों में हो सकते हैं। - ....... जिणकाले सो उ केवलीणं वा । ..... जिनकल्पिको नियमाद् जिनस्य - तीर्थकरस्य काले वा स्याद् अपरेषां वा गणधरादीनां केवलिनां काले । (बृभा ११७२ वृ) जिनकल्पिक नियमतः तीर्थंकर के समय में अथवा गणधर आदि केवलियों के समय में होते हैं। ० चारित्र वेद पढमे वा बीये वा, पडिवज्जइ संजमम्मि जिणकप्पं । पुव्वपडिवन्नओ पुण, अन्नयरे संजमे होज्जा ॥ नियमा होइ सतित्थे, गिहिपरियाए जहन्न गुणतीसा । जइपरियाए वीसा, दोसु वि उक्कोस देसूणा ॥ न करिंति आगमं ते, इत्थीवज्जो उ वेदों इक्कतरो । पुव्वपडिवन्नओ पुण, होज्ज सवेओ अवेओ वा ॥ (बृभा १४१८ - १४२० ) ३. चारित्र - प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के समय में छेदोपस्थापनीय चारित्र में तथा मध्यवर्ती तीर्थंकरों के समय में सामायिक चारित्र में जिनकल्प स्वीकार करते हैं। स्वीकार के पश्चात् उपशम श्रेणी में वर्तमान के सूक्ष्मसंपराय चारित्र तथा यथाख्यातचारित्र भी हो सकता है। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकल्प २५८ आगम विषय कोश-२ (निर्ग्रथ के छह भेद हैं-पुलाक, बकुश, प्रतिसेवना- ९. लिंग-जिनकल्प स्वीकार करते समय द्रव्य और भाव-दोनों कुशील, कषायकुशील, निग्रंथ और स्नातक। जिनकल्पी में लिंग होते हैं। स्वीकार के बाद भाव लिंग निश्चित होता है। बकुश, प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील-ये तीनों प्रकार हो द्रव्यलिंग कभी जीर्णता आदि कारणों से नहीं भी होता। सकते हैं। शेष तीन नहीं।-भ २५/३००-३०३) १०. लेश्या-प्रतिपत्तिकाल में तीन प्रशस्त लेश्यायें होती हैं। ४, ५. तीर्थ और पर्याय-जिनकल्पी नियमतः तीर्थ में होते हैं पूर्वप्रतिपन्न जिनकल्पी सभी लेश्याओं-शुद्ध-अशुद्ध में वर्तमान (तीर्थ का विच्छेद होने पर या अनुत्पन्न तीर्थ में नहीं होते)। होता है। केवल अशुद्ध लेश्याओं में वर्तमान होते हैं। मुनि न जिनकल्पग्रहण के समय उनका जन्मपर्याय जघन्यतः उनतीस अत्यंत संक्लिष्ट लेश्याओं में होता है और न लंबे समय तक वर्ष का और उसमें भी मुनिपर्याय जघन्यतः बीस वर्ष का उनमें रहता है। होता है। उत्कृष्टत: जन्मपर्याय और मुनिपर्याय देशोन पूर्वकोटि ११. ध्यान-वे प्रवर्धमान धर्म्यध्यान में जिनकल्प स्वीकार हो सकता है। करते हैं। पूर्वप्रतिपन्न मुनियों में कर्म की विचित्रता के कारण ६. आगम-जिनकल्प स्वीकार करने के पश्चात् वे नए श्रुत आर्तध्यान और रौद्रध्यान भी हो सकता है। उनमें कुशल का अध्ययन नहीं करते, किन्तु चित्तविक्षेप से बचने के लिए परिणामों की तीव्रता होने से आर्तध्यान और रौद्रध्यान प्रायः पूर्व अधीत श्रुत का सम्यक् अनुस्मरण करते हैं। निरनुबन्ध होते हैं। ७. वेद-प्रतिपत्तिकाल में स्त्रीवेदवर्जित पुरुषवेद या असंक्लिष्ट १२. गणना-एक समय में जिनकल्प को स्वीकार करने वालों नपुंसकवेद होता है। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा वह सवेद भी की संख्या शतपृथक्त्व (२०० से ९००) और पूर्वप्रतिपन्न होता है और अवेद भी। की अपेक्षा यह संख्या सहस्रपृथक्त्व (२००० से ९०००) जिनकल्पी उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु उपशमश्रेणी में वेद के उपशांत होने पर वह __प्रतिपद्यमान जघन्यतः एक, दो, तीन आदि भी हो अवेद होता है सकते हैं किन्तु पूर्वप्रतिपन्न तो जघन्यतः भी सहस्रपृथक्त्व उवसमसेढीए खलु, वेदे उवसामियम्मि उ अवेदो। ही होते हैं, क्योंकि पांच महाविदेह में सदा इतने ही रहते हैं। न उ खविए तज्जम्मे, केवलपडिसेहभावाओ॥ १३. अभिग्रह-वे पेटा, अर्धपेटा आदि गोचरचर्या संबंधी या अन्य इत्वरिक अभिग्रह स्वीकार नहीं करते। जिनकल्प की पञ्चवस्तु गाथा १४९८) साधना ही उनका यावत्कथिक अभिग्रह होता है। उनके ०कल्प .....प्रायश्चित्त गोचरचर्या आदि सारे उपक्रम प्रतिनियत और निरपवाद होते ठियमद्रियम्मि कप्पे, लिंगे भयणा उ दव्वलिंगेणं। हैं। उनका पालन ही उनके लिए परम विशुद्धिस्थान है। तिहि सुद्धाहि पढमया, अपढमया होज्ज सव्वासु॥ १४, १५. प्रव्राजना-मुण्डापना-वे किसी को प्रव्रजित और धम्मेण उ पडिवजइ, इअरेसु वि होज्ज इत्थ झाणेसु। मण्डित नहीं करते-यह उनकी कल्पमर्यादा है। यदि यह पडिवत्ति सयपुहुत्तं, सहसपुहुत्तं च पडिवन्ने॥ ज्ञात हो जाता है कि अमुक व्यक्ति अवश्य प्रव्रजित होगा तो भिक्खायरियाईया, अभिग्गहा नेव सो उ पव्वावे। उसे उपदेश देते हैं और संविग्न गीतार्थ के पास भेज देते हैं। उवदेसं पुण कुणती, धुवपव्वाविं वियाणित्ता॥ १६. प्रायश्चित्त-मानसिक सक्ष्म अतिचार के लिए भी उन्हें मनसाऽपि सूक्ष्ममतीचारमापन्नस्यास्य सर्वजघन्यं चतर्गरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम्। (बृभा १४२१-१४२३ वृ) (जिनकल्पी को निरपेक्ष प्रायश्चित्त-द्र प्रायश्चित्त) ८. कल्प-प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के समय में जिनकल्पी . कारण (निरपवाद), निष्प्रतिकर्म ....... कायोत्सर्ग स्थितकल्प वाले, मध्यम तीर्थंकरों के समय तथा महाविदेह निप्पडिकम्मसरीरा, न कारणं अस्थि किंचि नाणार्ड। में अस्थितकल्प वाले होते हैं। जंघाबलम्मि खीणे, अविहरमाणो वि नाऽऽवज्जे॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ अमी भगवन्तो नाक्षिमलादिकमप्यपनयन्ति, न वा चिकित्सादिकं कारयन्ति । न च तेषां कारणं विद्यते यद्बलात् ते द्वितीयपदासेवनं विदध्युः । तृतीयस्यां पौरुष्यां भिक्षाकालो विहारकालश्चास्य भवति, शेषासु तु पौरुषीषु प्रायः कायोत्सर्गेणाऽऽस्ते । (बृभा १४२४ वृ) १७. कारण - ज्ञान आदि का पुष्ट आलम्बन नहीं होने के कारण वे अपवाद का सेवन नहीं करते। १८. निष्प्रतिकर्म - वे अपने शरीर का परिकर्म नहीं करते। आंख आदि के मल का अपनयन भी नहीं करते। रोग होने पर चिकित्सा नहीं करवाते । १९. आहार-विहार- उनका भिक्षाकाल और विहारकाल हैतीसरी पौरुषी । शेष पौरुषी में वे प्रायः कायोत्सर्ग करते हैं । जंघाबल क्षीण होने पर वे विहार नहीं करते हुए भी किसी प्रकार का दोष सेवन नहीं करते। २५९ (जिनकल्पी के पैरों में यदि कांटा चुभ जाए या आंखों में धूलि गिर जाए तो भी वे अपने हाथों से न कांटा निकालते हैं और न धूल ही पौंछते हैं। यदि कोई दूसरा व्यक्ति वैसा करता है तो वे मौन रहते हैं। जिनकल्पी अकेले रहते हैं और धर्म्य - शुक्ल ध्यान में लीन रहते हैं । वे सम्पूर्ण कषाय के त्यागी, मौनव्रती और कन्दरावासी होते हैं । ग्रन्थियों से रहित, निस्नेह, निस्पृह और वाग्गुप्त होते हैं। वे सदा जिन भगवान् की भांति विहरण करते रहते हैं । - भावसंग्रह १२०, १२२, १२३ जिनकल्पिक प्रायः अपवाद का सेवन नहीं करते। जंघाबल की परिक्षीणता के कारण वे विहरण नहीं करते हुए भी आराधक हैं। - विभावृ पृ७ ) १५. जिनकल्पी की उपधि के प्रकार पत्तं पत्ताबंधो, पायट्टवणं च पायकेसरिया । पडलाइँ रइत्ताणं, च गोच्छओ पायनिज्जोगो ॥ तिन्नेव य पच्छागा, रयहरणं चेव होइ मुहपोत्ती । एसो दुवालसविहो, उवही जिणकप्पियाणं तु ॥ (बृभा ३९६२, ३९६३) जिनकल्पी के बारह प्रकार की उपधि होती है१. पात्र - प्रतिग्रह । जिनकल्प २. पात्रबंध - चोकोर वस्त्र, जिसमें पात्र रखा जाता है। ३. पात्रस्थापन - पात्र रखने का कंबलमय उपकरण । ४. पात्रकेसरिका - पात्र - प्रतिलेखन का वस्त्र । ५. पटलक - भिक्षाचर्या के समय पात्र को ढांकने का वस्त्र । ६. रजस्त्राण - पात्र - वेष्टक | ७. गोच्छक - पात्र के ऊपर देने का कंबलमय उपकरण । ये सात उपकरण पात्र के निर्योग - परिकरभूत हैं। ८, ९. दो सौत्रिक प्रावरण। ११. रजोहरण । १२. मुखपोतिका । १०. ऊर्णामय प्रावरण । ० उत्कृष्ट - मध्यम- जघन्य उपधि चत्तारि य उक्कोसा, मज्झिमग जहन्नगा वि चत्तारि । कप्पाणं तु पमाणं, संडासो दो य रयणीओ ॥ (बृभा ३९६६) जिनकल्पिक के चार उपकरण उत्कृष्ट होते हैं - तीन कल्प और एक पात्र । चार उपकरण मध्यम होते हैं-पटल, रजस्त्राण, रजोहरण और पात्रबन्ध चार उपकरण जघन्य होते हैं - मुखवस्त्र, पात्रकेसरिका, पात्रस्थापन और गोच्छक । प्रत्येक कल्प (प्रावरण) निर्मुष्टिक दो हाथ लंबा डेढ़ हाथ चौड़ा होता है- यह उनके कल्प का प्रमाण है। ...जं खंडियं दढं तं, छम्मासे दुब्बलं इयरं ॥ (निभा ५७९२) वे वैसा मजबूत खंडित (एक पार्श्व से छिन्न) वस्त्र ग्रहण करते हैं, जिसे छह मास तक धारण किया जा सके, जीर्ण वस्त्र ग्रहण नहीं करते 1 १६. उपधि के विकल्प ओघोवधी जिणाणं ...... | जिणकप्पिया उ दुविधा, पाणीपाता पडिग्गहधरा य । पाउरणमपाउरणा, एक्केक्का ते भवे दुविधा ॥ दुग-तिग- चउक्क- पणगं, णव - दस- एक्कारस व बारसगं । एते अट्ठ विकप्पा, जिणकप्पे होंति उवहिस्स ॥ अहवा दुगं य णवगं, उवकरणे होंति दुण्णि तु विकप्पा | पाउरणं वज्जित्ताण विसुद्ध जिणकप्पियाणं तु ॥ ( निभा १३८९ - १३९२) Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकल्प जनकल्पी के दो प्रकार हैं- पाणिपात्र और पात्रधारी । प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं- सप्रावरण और अप्रावरण। उनके केवल औधिक उपधि होती है, उसके आठ विकल्प हैं१. दो - रजोहरण और मुखवस्त्र। यह अप्रावरण पाणिपात्र की जघन्य उपधि है । सप्रावरण पाणिपात्र के तीन विकल्प हैं२. तीन - रजोहरण, मुखपोतिका, एकसौत्रिक प्रावरण। ३. चार- रजोहरण, मुखपोतिका, सूती कम्बल, ऊनी कम्बल । ४. पांच - रजोहरण, मुखपोतिका, दो सूती कम्बल, एक ऊनी कम्बल । ५. नौ- रजोहरण, मुखपोतिका तथा पात्रसंबंधी सात उपकरण - ये अप्रावरण पात्रधारी जिनकल्पी के होते हैं। सप्रावरण पात्रधारी के तीन विकल्प हैं६. दस - उपर्युक्त नौ तथा एक सूत्रमय कल्प। ७. ग्यारह - उपर्युक्त नौ तथा दो सौत्रिककल्प | ८. बारह - उपर्युक्त नौ तथा तीन सौत्रिक कल्प । अथवा अप्रावरण जिनकल्पी की उपधि के दो विकल्प हैं- दो और नौ । प्रावरणवर्जित को विशुद्ध जिनकल्पी कहा गया है। १७. प्रावरण - विधि ******** "संडास सत्थिए ... संडासछिड्डेण हिमादि एति, गुत्ता वऽगुत्ता विय तस्स सेज्जा । हत्थेहिसो सोत्थिकडेहिघेत्तुं, वत्थस्स कोणे सुवई व झाती ॥ जिनकल्पिकस्योत्कुटुकनिविष्टस्य जानुसंदंशकादारभ्य पुतौ पृष्ठं च छादयित्वा स्कन्धोपरि यावता प्राप्यते एतावत् तदीयकल्पस्य दैर्घ्यप्रमाणम्, अयं च संदेशक उच्यते । तथा तस्यैव कल्पस्य द्वावपि पृथुत्वकर्णौ हस्ताभ्यां गृहीत्वा द्वे अपि बाहुशीर्षे यावत् प्राप्येते, तद्यथादक्षिणेन हस्तेन वामं बाहुशीर्षं वामेन दक्षिणम्, एष द्वयोरपि कलाचिकयोर्हृदये यो विन्यासविशेषः स स्वस्तिकाकार इति कृत्वा स्वस्तिक उच्यते, एतत् पृथुत्वप्रमाणमवसातव्यम् । (बृभा ३९६७, ३९६८ वृ) जिनकल्पिक के प्रावरण के दो रूप हैं- संदंशक तथा स्वस्तिक । जो कल्प उत्कुटुक आसन में बैठे हुए मुनि के जानु संदेश से प्रारम्भ होकर नितंब और पीठ को आच्छादित करते हुए T आगम विषय कोश- २ कंधे के ऊपर आ जाता है, इसे संदंशक कहा जाता है। यह कल्प की लम्बाई का प्रमाण है। उसी कल्प पृथुल के दोनों छोरों को हाथों से पकड़कर भुजाओं के ऊपर तक लेने से - दाएं हाथ से वाम बाहुशीर्ष और वाम हाथ से दाएं बाहुशीर्ष को प्राप्त करने से हृदय पर जो विन्यास विशेष होता है, वह स्वस्तिकाकार होने से स्वस्तिक कहलाता है। यह कल्प की चौड़ाई का प्रमाण है। २६० जिनकल्पिक मुनि की वसति कपाटयुक्त अथवा खुली भी हो सकती है, अतः संदंशक-छिद्र से शीतवायु आदि का प्रवेश हो सकता है। उससे रक्षा के लिए वह स्वस्तिककृत हाथों से वस्त्र के दोनों कोणों से ग्रहण कर उत्कुटुकासन में ही सोता है अथवा ध्यान करता है। १८. जिनकल्पी - स्थविरकल्पी का संस्तारक अंगुटु पोरमेत्ता, जिणाण थेराण होंति संडासो ।' संथारुत्तरपट्टी, पकप्प कप्पो तु अत्थुरणवज्जो । तिप्पमितिं च विकप्पो, णिक्कारणतो य तणभोगो ॥ पदेसिणीए अंगुट्ठपोरट्ठिताए जे घेप्पंति तत्तिया जिणकप्पियाण घेप्यंति । पदेसिणिअंगुट्टअग्गमिलिएसु संडासो | थेराण संडासमेत्ता घेप्पंति ।.....जिणकप्पियाण अत्थुरणवज्जो कप्पो, ते ण सुवंति । उक्कुडुया चेव अच्छंति । ( निभा १२२७, १२३० चू) जिनकल्पी अंगुष्ठ के पर्व पर प्रतिष्ठित प्रदेशिनी (तर्जनी) का जितना अपांतराल है, उतने प्रमाण में तृण ग्रहण करते हैं । प्रदेशिनी और अंगुष्ठ का अग्र भाग मिलने पर संडास (संदंश) कहलाता है। स्थविरकल्पी संडास मात्र तृण ग्रहण करते हैं । जिनकल्पी के आस्तरणवर्जित कल्प होता है, क्योंकि वे सोते नहीं हैं, उत्कुटुकासन में ही रहते हैं । स्थविरकल्पी संस्तारक पर उत्तरपट बिछाकर सोते हैं - यह प्रकल्प है । वे तीन आस्तरण करते हैं या निष्कारण तृणभोग करते हैं - यह विकल्प है। • उत्कुटुकासन : निद्रा - जागरण सो पण उक्कुडुतो चेव अच्छइ प्रायो जग्गति य । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २६१ जीवनिकाय केइ भणंति-उक्कुडुओ चेव णिहाइओ सुवइ ईसिमेत्तं भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल और असंक्लिष्ट ततियजामे। (निभा ५७९३ की चू) होकर परीत-संसारी हो जाते हैं।-उ ३६/२६० जिनकल्पी उकडू आसन में ही रहते हैं और प्रायः जिनवचन-जिनशासन अमृत तुल्य औषध है। उससे धर्मजागरिका से जागृत रहते हैं। एक अभिमत के अनुसार वे विषयसुख का विरेचन, जरा-मरण और व्याधि का हरण तथा नींद आने पर रात्रि के तृतीय प्रहर में थोड़े समय के लिए __ सब दुःखों का क्षय होता है।-मूला २/९५) उकडू आसन में ही नींद लेते हैं। जीत व्यवहार-आगम में अनिर्दिष्ट प्रायश्चित्त का जिनशासन-निग्रंथ-प्रवचन। प्रयोजनवश संविग्न गीतार्थ द्वारा प्रवर्तन और बहुतों के "इणमेव निग्गंथे पावयणे सच्चे अणत्तरे पडिपणे द्वारा अनेक बार उसका अनुवर्तन। द्र व्यवहार केवले संसुद्धे णेआउए सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे जीवनिकाय-पृथ्वीकाय आदि जीवों के छह वर्ग। निजाणमग्गे निव्वाणमग्गे अवितहमविसंधी सव्व दुक्ख १. छह जीवनिकाय प्पहीणमग्गे। इत्थं ठिया जीवा सिझंति बुझंति मुच्चंति ____* छहजीवनिकाय-निरूपक द्र तीर्थंकर परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति।" (दशा १०/३२) २. पृथ्वी आदि की संवेदनशीलता यह निग्रंथ प्रवचन-जिनशासन सत्य, अनुत्तर, प्रतिपूर्ण, ३. पृथ्वी आदि का शरीरपरिमाण अद्वितीय, पवित्र, मोक्ष तक पहुंचाने वाला एवं अंतःशल्य को ४. स्नेह ( अप्काय)-वर्षण का काल काटने वाला है, सिद्धि का मार्ग, मुक्ति का मार्ग, निर्याण का ० कृष्णराजि-तमस्काय मार्ग और निर्वाण का मार्ग है। अवितथ, अविच्छिन्न और सब ० जल में वनस्पति की नियमा दुःखों के क्षय का मार्ग है । इस निग्रंथ प्रवचन में स्थित जीव ५. अग्नि के लक्षण सिद्ध हो जाते हैं, प्रशांत हो जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं, परिनिर्वाण ६. अग्नि में वायु की नियमा ७. अग्निप्रज्वालक बहुकर्मी को प्राप्त हो जाते हैं और सब दुःखों का अंत कर देते हैं। ८. वायुकाय का शस्त्र जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो। ९. वायुकायिक हिंसा के स्थान तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणयं॥ १०. वनस्पति आदि की सजीवता (बृभा ४५८४) ० वनस्पति के प्रकार : प्रत्येक, साधारण (अनंत) जैसा तुम अपने लिए चाहते हो, वैसा दूसरों के लिए ० अनंत वनस्पति के लक्षण चाहो। जिसे तुम अपने लिए नहीं चाहते, उसे दूसरों के ० प्रत्येक वनस्पति के लक्षण लिए भी मत चाहो-इतना ही जिनशासन है। ११. वृक्ष के प्रकार ० वृक्ष के दस अंग जिणवयणमप्पमेयं, मधुरं कण्णाहुतिं सुणताणं। १२. बीज : परीत-अनंत सक्का हु साहुमझे, संसारमहोदधिं तरिउं॥ ० मूल-अग्र-प्रलम्ब (व्यभा ४३५१) १३. आहार में वनस्पति की प्रधानता जिनवचनों का माधुर्य अपरिमित होता है, वे अग्नि में * उत्पल आदि से पित्त आदि का शमन * ब्राह्मी से मेधा-विकास घृताहुति की भांति कानों को तृप्त करते हैं। जो साधुओं के द्र चिकित्सा पास उन वचनों को सुनते हैं, वे संसारसमुद्र तर सकते हैं। १४. आम के प्रकार : पक्व-अपक्व-मीमांसा |१५. पृथ्वी आदि के अचित्त होने के हेतु (जो जिनवचन में अनुरक्त हैं तथा जिनवचनों का । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनिकाय २६२ आगम विषय कोश-२ १६. सचित्त-अचित्त जल के विकल्प अव्यक्तता के कारण लक्षित नहीं होता, किन्तु उस आहार से १७. उत्पल आदि के अचित्त होने का कालमान शरीर उपचित होता है। वैसे ही पृथ्वी में सूक्ष्म स्नेह गुण |१८. शालि आदि का योनिविध्वंस होता है, जो अत्यंत स्वल्प मात्रा में होता है। उससे प्रचुर १९. सूक्ष्म जीवों के आठ प्रकार स्नेह-सापेक्ष कार्य (शरीर का म्रक्षण आदि) शक्य नहीं है। ० प्राणसूक्ष्म यावत् पुष्पसूक्ष्म एकेन्द्रिय के क्रोध आदि के परिणाम, साकार-अनाकार ० अण्डसूक्ष्म-लयनसूक्ष्म-स्नेहसूक्ष्म उपयोग, सात-असात वेदना-ये सब भाव सूक्ष्मता के कारण २०. बस के चार प्रकार उपलक्षित नहीं होते, अतिशयज्ञानी ही इन्हें जान सकता है। २१. छहकाय : संयम और तीर्थ ___ जैसे संज्ञी पर्याप्त व्यक्ति क्रोधोदय होने पर आक्रोश * छहकायविराधना और प्रायश्चित्त द्र प्रायश्चित्त करता है, ललाट पर त्रिवली करता है, भृकुटि चढ़ाता है, १. छह जीवनिकाय एकेन्द्रिय वैसा प्रचण्ड क्रोध आदि करने में असमर्थ है। "छज्जीवनिकायाई..."तं जहा-पुढविकाए, ____ * ज्ञानविकास का क्रम : पृथ्वी आदि द्र ज्ञान आउकाए, तेउकाए, वाउकाए, वणस्सइकाए, तसकाए। (पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीव अमनस्क होते हैं। इन (आचूला १५/४२) जीवों में मन का ज्ञान नहीं होता. फिर भी संवेदन होता है। ये पुढवि-दग-अगणि-मारुय-वणस्सति-तसेसुहोति सच्चित्ते।। जीव छह स्थानों का अनुभव या संवेदन करते हैं व्यभा ४०११) १. इष्ट-अनिष्ट स्पर्श ५. इष्ट-अनिष्ट यश:कीर्ति छह जीवनिकाय हैं-पृथ्वीकाय, अपकाय. तेजसकाय. २. इष्ट-अनिष्ट गति ६. इष्ट-अनिष्ट उत्थान, कर्म, ३. इष्ट-अनिष्ट स्थिति बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय। ४. इष्ट-अनिष्ट लावण्य -भ १४/६३ * पृथ्वीकाय आदि की परिभाषा, प्रकार, आयुस्थिति, जीवत्वसिद्धि आदि द्र श्रीआको १ जीवनिकाय इनमें भूख, भय, क्रोध, लोभ आदि संवेगों से उत्पन्न संवेदन होता है।-श्रीआको १ संज्ञा २. पृथ्वी आदि की संवेदनशीलता पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुथेरुवमा अक्कंते, मत्ते सुत्ते व जारिसं दुक्खं। कायिक और वनस्पतिकायिक-ये एक इन्द्रिय वाले जीव एमेव य अव्वत्ता, वियणा एगिंदियाणं तु॥ हैं। ये जीव भी आन, अपान तथा उच्छ्वास और नि:श्वास भोयणे वा रुक्खेते वा जहा णेहो तणुत्थितो। करते हैं। ये जीव द्रव्य की अपेक्षा से अनंतप्रदेशी, क्षेत्र की पाबल्लं नेहकज्जेसु कारें] जे अपच्चलो॥ अपेक्षा से असंख्येयप्रदेशावगाढ, काल की अपेक्षा से किसी कोहाई परिणामा, तहा एगिंदियाण जंतूणं। भी स्थिति वाले और भाव की अपेक्षा से वर्ण-गंध-रसपाबल्लं तेसु कज्जेसु कारेउं जे अपच्चला॥ स्पर्श-युक्त पुद्गल द्रव्यों का श्वासोच्छ्वास लेते हैं, व्याघात (निभा ४२६३-४२६५) । न हो तो छहों दिशाओं में और व्याघात हो तो तीन, चार या एक जराजीर्ण शतायु स्थविर को बलवान् तरुण अपनी । पांच दिशाओं में श्वासोच्छवास करते हैं। वायकायिक जीव पूरी शक्ति के साथ दोनों हाथों से आक्रांत करता है, उस समय वायुकाय का ही उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं। स्थविर को जैसी वेदना होती है, पृथ्वीकाय आदि को संघट्टन वनस्पति के जीव श्वास लेते हैं-इसकी स्वीकृति के समय उससे भी अधिक वेदना होती है। वैज्ञानिक जगत में भी है। शेष पृथ्वी आदि का जीवत्व भी उन्मत्त और सुप्त पुरुष के अव्यक्त सुखदुःखानुभव सम्मत नहीं है, फिर श्वास लेने का प्रश्न ही नहीं उठता। की तरह एकेन्द्रिय जीवों में अव्यक्त चेतना होती है। भगवान महावीर ने एकेन्द्रिय जीवों द्वारा श्वास लेने - जैसे रूक्ष भोजन में भी सूक्ष्म स्नेह गुण होता है, जो के सिद्धांत की स्थापना ही नहीं की है, किन्तु उसका पूरा Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २६३ जीवनिकाय विवरण दिया है। श्वास के पुदगलों की एक स्वतंत्र वर्गणा असंख्यातवां भाग, उत्कृष्ट अवगाहना सातिरेक हजार योजन है। उसके पुद्गल ही श्वास के काम में आते हैं। है। पृथ्वीकाय यावत् वायुकाय की उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल सहज ही प्रश्न उपस्थित होता है-वायुकायिक जीव जो का असंख्यातवां भाग तथा वनस्पतिकाय की उत्कृष्ट अवगाहना श्वास लेते हैं, वह वायुकाय है। क्या वायुकाय भी वायुकाय का सातिरेक हजार योजन है। द्वीन्द्रिय की उत्कृष्ट अवगाहना श्वास लेता है? यदि एक वायुकाय का जीव दूसरे वायुकाय का बारह योजन, त्रीन्द्रिय की तीन गव्यूत, चतुरिन्द्रिय की चार श्वास लेगा, दूसरा तीसरे का, इस शृंखला में अंतिम वायुकाय का गव्यूत, पंचेन्द्रियतिर्यंच की हजार योजन और मनुष्य की तीन जीव किसका श्वास लेगा? इस प्रकार अनवस्था नामक तर्क दोष गव्यूत है।-प्रज्ञा २१/३८-४८ आ जाएगा।..... औदारिक शरीर रचना के अनेक प्रकार हैंवायुकाय शब्द का प्रयोग दो अर्थों में मिलता है जीव शरीर १. वायु के जीवों का निकाय। ० एकेन्द्रिय ० औदारिक शरीर २. उच्छ्वास और नि:श्वास। ० द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय ० अस्थि-मांस-शोणितबद्ध वायुकाय सचेतन है और श्वासवायु अचेतन है। पुद्गल । औदारिक शरीर। की आठ वर्गणाओं में श्वासोच्छ्वास वर्गणा का स्वतंत्र अस्तित्व ० पंचेन्द्रिय ० अस्थि-मांस-शोणित-स्नायुहै। उसका वायुकाय के जीवों से कोई संबंध नहीं है। वायुकाय शिराबद्ध औदारिक शरीर। के जीव श्वास में श्वासवर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण करते हैं, -स्था २/१५५-१६०) किसी दूसरे वायुकाय जीव का ग्रहण नहीं करते, इसलिए यहां * देव आदि का शरीर और लक्षण द्र शरीर अनवस्था दोष का कोई प्रसंग नहीं है। श्वासवर्गणा के पुद्गलों ४. स्नेह (अपकाय) वर्षण का काल के सूक्ष्म होने के कारण उन्हें वायु कहा जाता है, किन्तु वास्तव पढमचरिमाउ सिसिरे, गिम्हे अद्धं.......... में वे वायुकाय के जीव नहीं हैं।-भ २/२-८ भाष्य) स्नेहः-अवश्यायः आदिशब्दाद महिका-हिम३. पृथ्वी आदि का शरीरपरिमाण वर्षादिपरिग्रहः।"शिशिरकाले कालस्य स्निग्धतया ..."कलमेत्तं पुण जायइ, वणवज्जाणं असंखेहिं॥ प्रथमायां चरमायां च पौरुष्यामवश्यायादिपतनभावतः. वणस्सइकायमेत्तं वज्जित्ता सेसेगेंदियकायाणं उष्णकाले तु प्रथमायाः पौरुष्या अर्धे"चरमायास्तु पौरुष्याः असंखेज्जाणं जीवसरीराणं समुदयसमितिसमागमेणं, पश्चिमेऽर्द्ध"कालस्य रूक्षतया तत ऊर्ध्वं पश्चाच्चावश्याकलमेत्तं लब्भति। (निभा ४०३५ चू) यादिसम्भवात्। (बृभा ५२१ वृ) वनस्पतिकाय को छोड़कर शेष एकेन्द्रियकायों के स्नेह-ओस कोहरा, हिमवर्षा आदि जल के प्रकार असंख्येय जीवशरीरों के समदयसमितिसमागम से मात्र चने हैं। शिशिरकाल में काल की स्निग्धता के कारण प्रथम और जितना शरीर बनता है। अंतिम प्रहर में तथा ग्रीष्मकाल में काल की रूक्षता के (समुदय-समूह। समिति-अव्यवहित मिलना। समा- कारण प्रथम और अंतिम प्रहर के क्रमश: प्रथम और अंतिम गम-परस्पर संबद्धता । समूह बनने के बाद भी उसमें बिखराव आधे-आधे भाग में स्नेह का गिरना संभव है। हो सकता है, इसलिए उनका अव्यवहित सम्पर्क बताने के (सूक्ष्म स्नेहकाय ऊंचे, नीचे और तिरछे-तीनों लोकों लिए समिति शब्द की सार्थकता है। अव्यवहित सम्पर्क में भी में सदा संगठित रूप में गिरता है और वह शीघ्र ही विध्वंस निरपेक्षता संभव है। परस्पर संबद्ध होने के बाद उनकी विशिष्ट को प्राप्त हो जाता है। इस आधार पर यह अनुमान किया जा परिणति अर्थात् एकात्मकता बनती है।-अनु ७२ का टि सकता है कि वह तमस्काय से गिरता है और पूरे वातावरण में औदारिक शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल का व्याप्त हो जाता है।-भ १/३१४-३१६ का भाष्य) Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनिकाय २६४ आगम विषय कोश-२ ० कृष्णराजि-तमस्काय कल्प में रिष्ट विमान प्रस्तट के समानान्तर आखाटक के खेत्तनिसीहं"कण्हरातीओ। ता अणेण भगवई- आकार वाली समचतुरस्र संस्थान से संस्थित आठ कृष्णराजियां सुत्ताणुसारेण णेयातमुक्काओ। सो य दव्वओ आउ- हैं-दो पूर्व में, दो पश्चिम में, दो दक्षिण में और दो उत्तर में। क्काओ"भगवतीसत्ताणसारेणणेओr"कण्ह-तम-णिरता उनकी लम्बाई असंख्येय हजार योजन, चौड़ाई संख्येय हजार अप्पगासित्ता खेत्त-णिसीहं भवति। (निभा ६८ की चू) योजन और परिधि असंख्येय हजार योजन है। कृष्णराजि, तमस्काय और सीमंतक आदि नरक-ये । ० वहां घर, दुकानें और गांव नहीं हैं। अप्रकाशधर्मा होने से क्षेत्रनिशीथ हैं। कृष्णराजि और तमस्काय ० वहां वर्षण, गर्जन और विद्युत् केवल कोई देव करता है, असुर और नाग नहीं करते। भगवती सूत्र में विवेचित हैं। तमस्काय द्रव्यतः अप्काय है। (तमस्काय जल का परिणमन है। जम्बूद्वीप से बाहर ० बादर अप्काय-अग्निकाय-वनस्पतिकाय नहीं हैं। तिरछी दिशा में असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने पर • चन्द्र-सूर्य की आभा नहीं है। अरुणवर द्वीप के बहिर्वर्ती वेदिका के छोर से आगे जो ० कृष्णराजि के आठ नाम हैं-मेघराजि, मघा, माघवती आदि। अरुणोदय समुद्र है, उसमें बयालीस हजार योजन अवगाहन ० कृष्णराजियां पृथ्वी के परिणमन हैं, जीव और पुद्गल के करने पर जल के ऊपर के सिरे से एक प्रदेश वाली श्रेणी परिणमन भी हैं।-भ६/७०-१०५ निकली है। यहां से तमस्काय उठता है। वह सतरह सौ . तमस्काय-कृष्णराजि की कृष्ण विवर (Black hole) इक्कीस योजन ऊपर जाता है। उसके पश्चात तिरछा फैलता के साथ तुलना आदि के लिए द्र भ६/७०-११८ का भाष्य) हुआ सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र-इन चारों स्वर्गलोकों • जल में वनस्पति की नियमा को घेरकर ऊपर ब्रह्मलोक कल्प के रिष्ट विमान के प्रस्तट आउक्काए णियमा वणस्सती अत्थि। तक पहुंच जाता है। यहां तमस्काय समाप्त होता है। (निभा ४२४० की चू) तमस्काय का नीचे से शराव के तल का तथा ऊपर जल में वनस्पति नियमतः होती है। मुर्गे के पिंजरे का संस्थान है। तमस्काय दो प्रकार का है ५. अग्नि के लक्षण संख्यात योजन विस्तृत और असंख्यात योजन विस्तृत। ० तमस्काय में घर, दुकानें, गांव और सन्निवेश नहीं हैं। ....."डहणादीणेगलक्खणो अग्गी। ० वहां बड़े मेघ बरसते हैं। वह वर्षण देव भी करता है, नामोदयपच्चइयं, दिप्पइ देहं समासज्ज ॥ असुर भी करता है और नाग भी करता है। (बृभा २१४६) ० वहां स्थूल गर्जन का शब्द है, बादर विद्युत् है। अग्नि उष्णस्पर्श आदि नामकर्म के उदय से इन्धन ० वहां बादर पृथ्वीकाय और बादर अग्निकाय नहीं है। प्राप्त कर दीप्त होती है। दहन, पचन और प्रकाशन-ये ० वहां चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारारूप नहीं हैं। इसके लक्षण हैं। उसके परिपार्श्व में चन्द्रमा आदि पांचों हैं । चन्द्र और सूर्य की ६. अग्नि में वायु की नियमा प्रभा तमस्काय में आकर धुंधली बन जाती है। अग्नौ नियमाद्वायुः सम्भवति। ० तमस्काय के तेरह नाम हैं--तम, अंधकार, महान्धकार, लोकांधकार, देवान्धकार, अरुणोदक समुद्र आदि। (बृभा ९१२ की वृ) ० तमस्काय पृथ्वी का परिणमन नहीं है, जल का परिणमन भी यत्राग्निस्तत्र वायुरवश्यं भवति। है, जीव का परिणमन भी है, पुद्गल का परिणमन भी है। (बृभा २७३७ की वृ) कृष्णराजि-सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प से ऊपर ब्रह्मलोक जहां अग्नि है, वहां वायु अवश्य होती है। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २६५ जीवनिकाय ७. अग्निप्रज्वालक बहुकर्मी का शस्त्र है। इसी प्रकार छींक आदि के समय अथवा शंखधमन उज्जालझंपगाणं, उज्जालो वण्णिओ हु बहु कम्मो। और मशकपूरण के समय उत्पन्न देहवायु बाहरी वायु का कम्मार इव पउत्तो, बहुदोसयरो ण भंतो॥ शस्त्र है। वीजन-तालवृन्त आदि से अपने-अपने प्रकार से (निभा २१९) उत्पन्न वायु एक-दूसरे का शस्त्र है। भगवती सूत्र में अग्नि बुझाने वाले की अपेक्षा अग्नि ९. वायुकायिक हिंसा के स्थान जलाने वाले पुरुष को बहुकर्मा-बहुतर दोष वाला कहा गया णिग्गच्छति वाहरती"फूमे य।... है। जैसे शस्त्रनिर्माण करने वाला लोहकार बहुतर दोष वाला है, सुप्पे य तालवेंटे, हत्थे मत्ते य चेलकण्णे य। शस्त्र को तोड़ने वाला पुरुष अल्पतर दोष वाला है। अच्छिफूमे पव्वए, णालिया चेव पत्ते य॥ (जो पुरुष अग्निकाय को प्रज्वलित करता है, वह संखे सिंगे करतल, वत्थी दतिए...... पुरुष महत्तर आश्रव और महत्तर वेदना वाला होता है, घम्महितो अण्णतरमंगं फूमति, भत्तपाणमुण्डं वा। क्योंकि वह बहुतर पृथ्वीकाय-अप्काय का समारंभ करता छीतं "कासियं ऊससिअंनीससिअं, एते छीयादी अविहीए है, अल्पतर तेजस्काय का समारंभ करता है, बहुतर वायुकाय करेति त्ति। (निभा २३५-२३७ चू) वनस्पतिकाय-त्रसकाय का समारंभ करता है। जो गर्मी से अभिभूत हो निलय से बाहर निकलता है, ____ जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है, वह अल्पतर हवा के संकल्प से दूसरों को भीतर से बुलाता है-आओआश्रव और अल्पतर वेदना वाला होता है, क्योंकि वह आओ, बाहर ठंडी हवा चल रही है, तप्त होकर शरीर के पुरुष अल्पतर पृथ्वीकाय-अप्काय-वायुकाय-वनस्पति किसी अवयव पर अथवा उष्ण भोजन-पानी पर फंक देता काय-त्रसकाय का समारंभ करता है, बहुतर तेजस्काय का है। छींक, खांसी, उच्छ्वास-नि:श्वास अविधि से करता है, समारंभ करता है।-भ७/२२८) शूर्प, तालवृन्त, हाथ, पात्र अथवा वस्त्र के कोण से हवा करता ८. वायुकाय का शस्त्र है, दूसरे की आंख में फूंक देता है, बांस और मुरली बजाता वास-सिसिरेसु वातो, बहिया सीतो गिहेसु य स उम्हो। है, पद्मिनीपत्र आदि से हवा करता है, शंख या सींग बजाता विवरीओ पुण गिम्हे, दिय-राती सत्थमण्णोण्णं॥ है, करतल से वाद्य की ध्वनि करता है, चर्ममय वस्ति और एमेव देहवातो, बाहिरवातस्स होति सत्थं तु। मशक में हवा भरता है, वह वायुकाय की हिंसा करता है। वियणादिसमुत्थो वि य, सउपत्ती सत्थमण्णस्स॥ १०. वनस्पति आदि की सजीवता (निभा २४१, २४२) पत्तंति पुष्पंतिफलंददंती, कालं वियाणंतितधिंदियत्थे। वर्षाकाल और शीतकाल में घर के बाहर की वायु ठंडी जाती यवुड्डी यजरायजेसिं, कहनजीवा उभवंति तेउ॥ और घर के भीतर की वायु गर्म होती है। ग्रीष्मकाल में इसके “पुढविकाईया पवाल-लोणा, उवलगिरीणंच परिवड्ी॥ विपरीत-घर के भीतर की वायु ठंडी और बाहर की वायु गर्म कललंडरसादीया, जह जीवा तधेव आउजीवा वि। होती है। तीनों ऋतुओं में दिन में भी और रात्रि में भी वायु का जोतिंगण जरिए वा, जहुण्ह तह तेउजीवा वि॥ यही लक्षण घटित होता है। अथवा दिन में वायु गर्म और ......"वाऊ जीवा सि ताहें सीसंति।.... रात्रि में वायु ठंडी होती है। (व्यभा ४६२५-२६२८) घर के भीतर की वायु बाहरी वायु का और बाहर की वनस्पतिकाय-जो पत्रित, पुष्पित और फलित होते हैं, वायु भीतरी वायु का परस्पर शस्त्र है-एक-दूसरे के विनाश पत्र-पुष्प-फल-निमित्तक काल को जानते हैं, शब्द आदि का कारण है। दिवसवायु रात्रिवायु का और रात्रिवायु दिवसवायु इन्द्रियविषयों को जानते हैं, (बकुल आदि वनस्पतियां मृदु Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनिकाय २६६ आगम विषय कोश-२ स्पर्श से, गीतश्रवण से प्रफुल्लित होती हैं), जो मनुष्य की तरह जन्म, वृद्धि और वृद्धत्व से युक्त हैं, वे वनस्पतिकायिक जीव हैं। उनका जीवत्व असंदिग्ध है। • पृथ्वीकाय-प्रवाल, लवण, उपल, पर्वत आदि में समान- जातीय अंकुर पैदा होते हैं, उनकी परिवृद्धि होती है, अतः पृथ्वीकाय सजीव है। ० अपकाय-अण्डे का प्रवाही रस सजीव होता है। गर्भकाल के प्रारंभ में मनुष्य तरल होता है, वैसे ही पानी तरल है। अनुपहत अप्काय कलल की तरह द्रव होने से सजीव है। ० तेजस्काय-जुगनू का प्रकाश और मनुष्य के शरीर में ज्वरावस्था में होने वाला ताप जीवसंयोगी है, वैसे ही अग्नि का प्रकाश और ताप जीवसंयोगी है। तेजस्काय उष्णधर्मा है। ० वायुकाय-वायु में अनियमित स्वप्रेरित गति होती है, अतः वह सचेतन है। ० वनस्पति के प्रकार : प्रत्येक, साधारण (अनंत) पत्तेगे साहारण, (निभा २५४) वनस्पति के दो प्रकार हैं१. प्रत्येकशरीर-परीतकायिक, जिसके एक शरीर में एक जीव होता है। २. साधारणशरीर-अनंतकायिक, जिसके एक शरीर में अनंत जीव होते हैं। (प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिक के वृक्ष, गुल्म आदि बारह भेद हैं, जिनके अनेक नामों का तथा साधारण- शरीरबादर-वनस्पतिकायिक वर्ग में इकसठ नामों का उल्लेख प्रज्ञापना सूत्र १/३३-४८ में है। एक शरीर में अनंत जीवों के साथ रहने की प्रवृत्ति को परिभाषित करते हुए उस शरीर को निगोद तथा उन जीवों को निगोदजीव कहा जाता है। वे जीव एक साथ ही जन्म लेते हैं, एक साथ ही मरते हैं, एक साथ ही श्वास-उच्छ्वास व आहार लेते हैं। ऐसा व्यवहार अन्य किसी भी जीव का नहीं है। यह अभिन्नता औदारिक शरीर की अपेक्षा से बतलाई गई है। आत्म-स्वातन्त्र्य की दृष्टि से इनके तैजस और कार्मण शरीर व्यक्तिगत होते हैं। ये जीव समस्त लोक में व्याप्त हैं। अतः यह जान लेना आवश्यक है कि ये वनस्पति के जीव स्थूल वनस्पति से नितांत भिन्न हैं। ये सूक्ष्म निगोद के जीव जैन विज्ञान की दृष्टि से जब अव्यवहार राशि से उत्क्रमण या उद्वर्तन करते हैं, तो वे स्थूल वनस्पति में विकास करते हैं। यह परिवर्तन ऐसी स्थिति में होता है, जब लोक में किसी प्रकार के संतुलन में परिवर्तन होता है। जब कोई जीव मोक्ष प्राप्त करता है, तो संसार के जीवों के संतुलन-हेतु अव्यवहार राशि के जीव उत्क्रमण करते हैं। जितने जीव मोक्ष जाते हैं, उतने ही जीव अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आ जाते हैं। इस उद्वर्तन के सहयोगी कारण ये हैं-१. चेतना के परिणामों की भिन्नता। २. लेश्याओं का परिवर्तन होना। ३. काललब्धि। पारिभाषिक शब्दावलि में अनादिनिगोद, नित्यनिगोद या अनादिवनस्पति को अव्यवहारराशि कहा जाता है। निगोद के दो प्रकार होते हैं-सूक्ष्मनिगोद और बादरनिगोद। जो जीव एक बार अव्यवहारराशि से व्यवहारराशि में आ जाता है, फिर उसकी राशि में परिवर्तन नहीं होता। वह सूक्ष्म निगोद में जाने पर भी व्यवहारराशि में ही रहता है। ...जो जीव अव्यवहारराशि से व्यवहारराशि में आकर अनंत काल तक संसार में परिभ्रमण करता है, वह प्रत्येक योनि में अनंत बार पैदा हो चुका है। जो जीव अव्यवहारराशि से निकलकर शीघ्र मुक्त हो जाता है, उसके लिए असकृत् (अनेक बार) का नियम है। वह एकाधिक बार जन्म लेकर मुक्त हो जाता है। जैसे मरुदेवी माता के संबंध में उल्लेख है कि उन्होंने सूक्ष्म निगोद से निकल कर दूसरे जन्म में ही मोक्ष पा लिया।-भ २/६ का भाष्य) अनंत वनस्पति के लक्षण गूढछिरागं पत्तं, सच्छीरं जं च होइ निच्छीरं। जं पि य पणट्ठसंधिं, अणंतजीवं वियाणाहि॥ चक्कागं भज्जमाणस्स, गंठी चण्णघणो भवे। पुढविसरिसेण भेएणं, अणंतजीवं वियाणाहि॥ जस्स मूलस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसई। अणंतजीवे उ से मूले, जे याऽवऽन्ने तहाविहे। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २६७ जीवनिकाय हवंति जस्स मूलस्स कट्ठातो छल्ली बहलतरी भवे। (जिस भज्यमान मूल यावत् बीज के विषम भंग होते सा छल्ली. जा याऽवऽन्ना तहाविहा॥ हैं, वह प्रत्येकजीवी मल यावत प्रत्येकजीवी बीज है। जिसकी "यथा शतावर्याः, अनन्तजीवा तु सा छल्ली। छाल मूल, कंद, स्कंध और शाखा के काष्ठ से पतली होती है, काष्ठमपि तस्यानन्तजीवं द्रष्टव्यम्। वह प्रत्येकजीवी छाल है।-प्रज्ञा १/४८/२०-२९, ३४-३७) (बृभा ९६७-९६९, ९७१ वृ) ११. वृक्ष के प्रकार जो क्षीरयुक्त या क्षीररहित पत्ता गूढ-अनुपलक्षित संखेज्जजीविता खलु, असंखजीवा अणंतजीवा य। शिराओं वाला होता है, जिसके पत्रार्धद्वय का संधिभाग तिविहा रुक्खा .......॥ सर्वथा अनुपलक्ष्यमाण होता है, उसे अनंतकायिक पत्ता जानो। (निभा ४०३९) जिसको तोड़ने पर चक्राकार भंग-सम टुकड़े होते हैं, वृक्ष के तीन प्रकार हैंजिसके पर्वस्थान में चूर्णघन होता है, भेदन के समय ग्रंथिभाग संख्येय जीव-ताड़, तमाल, पूगफल, खजूर, नालिकेर आदि। में सघन चूर्ण उड़ता हुआ दिखाई देता है अथवा पृथ्वी असंख्येय जीव-आम्र आदि। (केदार आदि की उपरिवर्ती शुष्क पपड़ी या श्लक्ष्ण खटिका) अनंत जीव-थूहर, शृंगबेर आदि। (वृक्ष केये तीन प्रकार अनेक के भेदन के समान जिसका सम भेद होता है. उसे अनंतकायिक नामों के साथ भ ८/२१६-२२१ में प्रतिपादित हैं।) वनस्पति जानो। ""एगट्ठिय ............ बहुबीए॥..... जिस भज्यमान मूल का सम भंग होता है, वह अनंतकायिक मूल है। इसी प्रकार स्कंध आदि भी सम खंडों में "एगट्ठि त्ति एगबीयं जहा अंबगो। विभक्त होते हैं। जिस मूल के काष्ठ से त्वचा मोटी होती है, (निभा २५६ चू) वह अनंतकायिक त्वचा है। जैसे-शतावरी की छाल, वैसी अन्य असंख्येयजीविक वृक्ष के दो प्रकार हैंछाल भी अनंतकायिक है। उसका काष्ठ भी अनंतजीव हैं। १. एकास्थिक-एक बीज वाले फलों के वक्ष। जैसे-आम्र, (मूल से बीजपर्यंत वनस्पति के दस प्रकार हैं। मूल नीम, बकुल, पलाश, धातकी, श्रीपर्णी, अशोक आदि। आदि का भेदन करने पर जिनके सम भंग होते हैं, वे अनंतजीवी २. बहुबीजक-कपित्थ, आम्रातक, न्यग्रोध, नन्दिवृक्ष आदि। मूल यावत् अनंतजीवी बीज हैं। जिसकी छाल मूल, कंद, (आम्र, कपित्थ आदि वृक्षों के मूल, कंद, स्कंध, स्कंध और शाखा के काष्ठ से मोटी होती है, वह अनंतजीवी त्वचा, शाखा और प्रवाल असंख्येयजीविक, पत्ते प्रत्येकजीविक छाल है। -प्रज्ञा १/४८/१०-१९, ३०-३३) तथा पुष्प अनेकजीविक होते हैं। प्रज्ञा १/३४-३६) • प्रत्येक वनस्पति के लक्षण ० वृक्ष के दस अंग जस्स मूलस्स भग्गस्स, हीरो भंगे पदिस्सए। मूले कंदे खंधे, तया य साले पवाल पत्ते य। परित्तजीवे उ से मूले, जे याऽवऽन्ने तहाविहे॥ पुण्फे फले य बीए....."दस भेया॥ जस्स मूलस्स कट्ठातो, छल्ली तणुयतरी भवे। (बृभा ८५४ की वृ) परित्तजीवा तु सा छल्ली, याऽवष्ण्णा तहाविहा॥ ___वृक्ष के दस अंग हैं-१. मूल २. कंद ३. स्कंध ४. (बृभा ९७०, ९७२) त्वचा ५. शाखा ६. प्रवाल ७. पत्र ८. पुष्प ९. फल १०. बीज। जिस वनस्पति के मूल, स्कंध आदि के विषम भंग (वनस्पतिकायिक जीव प्रावृट् और वर्षाऋतु में सबसे होते हैं, वह प्रत्येक वनस्पति है। जिस मूल के काष्ठ से अधिक आहार करते हैं, ग्रीष्म ऋतु में सबसे अल्प आहार त्वचा पतली होती है, वह प्रत्येक वनस्पति की त्वचा है; करते हैं। मूल मूल के जीव से स्पृष्ट और पृथ्वी के जीव से यथा सहकार आदि की छाल। प्रतिबद्ध होता है, इसलिए वह भूमि से अपना आहार खींच Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनिकाय २६८ आगम विषय कोश-२ लेता है। कंद कंद के जीव से स्पृष्ट और मूल के जीव से तल नालिएर लउए, कविट्ठ अंबाड अंबए चेव। प्रतिबद्ध होता है, वह मूल के आहार में से अपना आहार एअं अग्गपलंबं, नेयव्वं आणुपुव्वीए॥ ग्रहण कर लेता है। इसी प्रकार स्कंध कंद से, त्वचा स्कंध से, ..."तेणऽग्गपलंबेणं, तु सूइया सेसगपलंबा ॥ शाखा त्वचा से, प्रवाल शाखा से, पत्र प्रवाल से, पुष्प पत्र से, (बृभा ८५१, ८५२, ८५५) फल पुष्प से और बीज फल से अपना आहार ग्रहण करता ० मूलप्रलम्ब-वल्लीपलाशक, सिग्गुक, ताल, सल्लकीहै।-भ७/६२, ६५) इनके मूल । इनके अतिरिक्त अन्य मूलप्रलंब भी हैं, जो खाने १२. बीज : परीत-अनंत के उपयोग में आते हैं। ...जोणिग्याते व हतं, तदादि वा होड वणकाओ॥ . अग्रप्रलम्ब-तलफल, नालिकेरफल, लकचफल, कपित्थफल, बीजं वनस्पतीनां योनिः-उत्पत्तिस्थानम"तद- आम्रातकफल, आम्रफल, कदलीफल, बीजपर आदि के अग्र। बीजमादिर्यस्य स तदादिः, सर्वेषामपि वनस्पतीनां तत एव मूल और अग्र प्रलंब के ग्रहण से शेष कंद आदि प्रसूतेः। (बृभा ९३३ ७) प्रलंब भी सूचित किए गए हैं। इस प्रकार मूल आदि के भेद बीया.......... परित्तणंतकाए या..... से प्रलंब के दस प्रकार हैं। (निभा २४८) १३. आहार में वनस्पति की प्रधानता जीवउप्पत्तिट्ठाणं जोणी भवति। परित्ता जोणी जस्स छहि णिप्पजति सो उ, .... । पलंबस्स तं भण्णति परित्तजोणी, परित्तं अणंतं ण पाहण्णं बहुयत्तं, णिप्फज्जति सुहं च ॥ भवति। (निभा २५६ की चू) (निभा ४८३७) वनस्पतिकाय की योनि है बीज । वह वनस्पतिजगत् यद्यपि आहार षड्जीवनिकाय-त्यक्त शरीर से निष्पन्न में आदिभूत है, क्योंकि सर्व वनस्पति की उसीसे उत्पत्ति होता है, फिर भी उसमें वनस्पति की प्रधानता और प्रचुरता होती है, इसलिए बीज उपहत होने पर निरपेक्ष रूप से रहती है। जैसा वनस्पतिकाय से आहार सहजता से निष्पन्न मूल आदि भी उपहत होते हैं। होता है, वैसा अन्य जीवनिकाय से शक्य नहीं है। जीव के उत्पत्तिस्थान को योनि कहा जाता है। जिस १४. आम के प्रकार : पक्व-अपक्व-मीमांसा प्रलंब की योनि परीत होती है, वह परीतयोनि प्रलंब कहलाता .."उस्सेइम संसेइम, उवक्खडं चेव पलियामं॥ है। बीज प्रत्येक और अनंत-दोनों प्रकार के होते हैं। जो उस्सेइम पिट्ठाई, तिलाइ संसेइमं तु णेगविहं । प्रत्येकशरीरी है, वह अनंतकायिक नहीं होता। कंकडुयाइ उवक्खड, अविपक्करसं तु पलियामं॥. (योनिभूत-योनि अवस्था को प्राप्त बीज में जो जीव इंधण धूमे गंधे, वच्छप्पलियामए अ आमविही। उत्पन्न होता है, वह पूर्व बीज-जीव भी हो सकता है अथवा कोद्दवपलालमाई, धूमेणं तिंदुगाइ पच्चंते।' अन्य जीव भी हो सकता है। जो जीव मल-जडरूप में परिणत मज्झऽगडाऽगणि पेरंत तिंदुया छिद्दधूमेणं॥ होता है, वही प्रथम पत्ते के रूप में परिणत होता है। अंबग-चिब्भिडमाई, गंधेणं जं च उवरि रुक्खस्स। उगते हुए सभी किसलय अनंतकायिक होते हैं, फिर कालप्पत्त न पच्चइ, वत्थप्पलियामगं तं तु॥ वृद्धिंगत होते हुए वे प्रत्येकशरीरी भी हो सकते हैं, अनंतकायिक उग्गमदोसाईया, भावतों अस्संजमो अ आमविही। भी हो सकते हैं। प्रज्ञा १/४८/५१,५२) अन्नो वि य आएसो, जो वरिससयं न पूरेइ ॥ ० मूल-अग्र प्रलम्ब (बृभा ८३९-८४३, ८४६) झिझिरि-सुरभिपलंबे, तालपलंबे अ सल्लइपलंबे। आम अर्थात अपक्व के चार प्रकार हैंएतं मूलपलंबं, नेयव्वं आणुपुव्वीए॥ १. उत्स्वेदिम-पिष्ट आदि को वस्त्र में डालकर अध:स्थित Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ गर्म पानी की भाप से पकाना उत्स्वेदिम है। उसमें जो अपक्व रह जाता है, वह उत्स्वेदिम आम है। २. संस्वेदिम-तिल आदि । बटलोई आदि में पानी को गर्म करके, पिठरिका में प्रक्षिप्त तिलों को उस गर्म पानी से सींचा जाता है। इस विधि से वे तिल पकते हैं। उन संस्विन्न तिलों में जो अपक्व रह जाते हैं, वह संस्वेदिम आम है। २६९ ३. उपस्कृत - उपस्कृत चना, मूंग आदि में जो कंकटुक (कोरडू) आदि अपक्व रह जाते हैं, वे उपस्कृत आम 1 ४. पर्यायाम — अपक्व फल आदि इसके चार प्रकार हैं- १. ईंधन पर्यायाम - कोद्रवपलाल, शालिपलाल आदि को ईंधन कहा जाता है। आम आदि फलों को इस पलाल से वेष्टित कर पकाया जाता है। उसमें भी जो फल अपक्व रह जाते हैं, वे ईंधन पर्यायाम कहलाते हैं। २. धूम पर्यायाम - तिन्दुक आदि फलों को धूम में पकाया जाता है। उसकी विधि यह है- एक गढ़ा खोदा जाता है। उसमें उपल रखे जाते हैं। उसके दोनों ओर दो गढ़े खोदे जाते हैं। उनमें तिन्दुक आदि फल भर दिए जाते हैं। मध्य वाले गढ़े में, जिसमें उपल हैं, उसमें आग लगाई जाती है। दोनों ओर के दो गढ़ों के पर्यन्तवर्ती छिद्र मध्यवर्ती गर्त के साथ संबद्ध कर दिए जाते हैं । मध्यवर्ती गढ़े से धूम उन दोनों गढ़ों में पहुंचता है, फैलता है और तत्रस्थित फलों को पका देता है। उनमें जो अपक्व रह जाता है, वह धूमपर्यायाम है। ३. गंधपर्यायाम - अपक्व फलों के बीच पके हुए फल डाले जाते हैं। उन पके हुए फलों की गंध से अपक्व फल पक जाते हैं। उनमें भी जो अपक्व रह जाते है, वे गंधपर्यायाम हैं। ४. वृक्षपर्यायाम - वृक्ष की शाखाओं पर काल के परिपाक के साथ-साथ कुछेक फल पक जाते हैं और कुछ अपक्व ही रह जाते हैं। वे अपक्व फल वृक्षपर्यायाम हैं। भाव आम का अर्थ है - चारित्र की अपरिपक्वता । उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोष भावआम हैं। (सव्वामगंध परिण्णाय निरामगंधो परिव्वए । - आ २/१०८) अथवा असंयम भावतः आमविधि है। भाव आम का अन्य प्रकार भी है- सौ वर्ष की उम्र वाला पुरुष सौ वर्ष पूर्ण किए बिना ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, वह भावतः आम आयुष्य है । जीवनिकाय १५. पृथ्वी आदि के अचित्त होने के हेतु जोअणसयं तु गंता, अणहारेणं तु भंडसंकंती । वाया-गणि-धूमेण य, विद्धत्थं होइ लोणाई ॥ हरियाल मणोसिल पिप्पली य खज्जूर मुद्दिया अभया । आइन्नमणाइन्ना, ते वि हु एमेव नायव्वा ॥ आरुहणे ओरुहणे, निसियण गोणादिणं च गाउम्हा । भुम्माहारच्छेदे, उवक्कमेणं च परिणामो ॥ (बृभा ९७३ - ९७५) नौ कारणों से लवण आदि अचित्त हो जाते हैं१. सुदूर नयन - सचित्त लवण आदि अपने स्थान से ले जाए हुए प्रतिदिन बहु- बहुतर के क्रम से विध्वस्त होते हुए सौ योजन से दूर ले जाने पर सर्वथा परिणत - अचित्त हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें अपने उत्पत्तिस्थान से दूर होने पर स्वप्रायोग्य आहार की प्राप्ति नहीं होती है। २. भाण्डसंक्रमण - एक पात्र से दूसरे पात्र में अथवा एक भाण्डशाला से दूसरी भाण्डशाला में संक्रमण होने से । ३-५. हवा से, अग्नि से और रसोई आदि में धुएं से । इसी प्रकार हरिताल, मनःशिला, पिप्पली, खजूर, द्राक्षा और हरीतकी भी लवण की भांति अचित्त हो जाते हैं । किन्तु इनमें से पिप्पली, हरीतकी आदि आचीर्ण हैं। खजूर, द्राक्षा आदि अनाचीर्ण होने से मुनि के लिए अकल्पनीय हैं। ६. आरोहण-अवरोहण - शकट, बैल आदि की पीठ पर नमक आदि का बार-बार आरोहण-अवरोहण होने से। ७. निषीदन और ऊष्मा - लवण आदि के बोरों पर मनुष्य बैठते हैं, उनके तथा बैल आदि के शरीर की ऊष्मा से । ८. आहार-विच्छेद- लवण आदि जीवों का जो पृथिवी आदि आहार है, उसका व्यवच्छेद होने से। ९. उपक्रम - शस्त्र से उपहत होने पर। शस्त्र के तीन प्रकार हैं• स्वकायशस्त्र, जैसे-मधुर जल का लवण जल, पीली मिट्टी का काली मिट्टी | ० परकायशस्त्र, जैसे- जल का अग्नि और अग्नि का जल । ० तदुभयशस्त्र, जैसे- शुद्ध जल का मिट्टी युक्त जल । व्युत्क्रांतयोनिकाः- - अशस्त्रोपहता अप्यायुःक्षयेणाचित्तीभूताः । (बृभा ९९८ की वृ) Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनिकाय २७० आगम विषय कोश-२ सचित्त पदार्थ शस्त्र से उपहत नहीं होने पर भी अपनी उत्पल और पद्म धूप में रखने से प्रहर-मात्र समय आयुस्थिति के क्षय होने पर स्वतः अचित्त हो जाते हैं। से पहले ही अचित्त हो जाते हैं। मोगरा और जूही के फूलों १६. सचित्त-अचित्त जल के विकल्प की योनि उष्ण होती है। अत: वे फूल धूप में रखने पर सीतोदे उसिणोदे, फासुगमफासुगे य चउभंगो।" चिरकाल तक सचित्त ही रहते हैं। धारोदए महासलिलजले संभारिते व्व दव्वेहिं ।' मगदन्तिका पुष्प को जल में डालने से वह प्रहरमात्र चउमूल पंचमूलं, तालोदाणं च तावतोयाणं।" भी सजीव नहीं रह सकता। जल में क्षिप्त उत्पल और पद्म धारोदकं नाम गिरिनिर्झरजलम, यथा उज्जयन्तादौ, चिरकाल तक सचित्त रह सकते हैं क्योंकि वे उदकयोनिक हैं। आन्तरिक्षंवा धारोदकम्।...| पत्र-पुष्प, गुठलीविहीन फल और हरित (बथुआ चतर्मलं नाम चतर्भिः सरभिमलैर्भावितम। एवं आदि)-इनके वृन्त (मूलनाल) म्लान होने पर इन्हें जीवयत् पञ्चभिः सुरभिमूलै वितं तत् पञ्चमूलम्।तालोद- विप्रमुक्त (अचित्त) जानना चाहिए। कानि यथा तोसलिविषये। तापतोयानि राजगृहादौ। १८. शालि आदि का योनिविध्वंस (बृभा ३४२०, ३४२२, ३४२९ ) तिगसंवच्छर तिग दुग, एगमणेगे य जोणिघाए r. जल के चार विकल्प हैं (बृभा १९५४) १. प्रासुक शीतोदक-गर्म किया हुआ शीतीभूत जल अथवा तीन साल के बाद शालि और व्रीहि विध्वंसयोनिक तंदुल का धोवन आदि। हो जाते हैं, उनकी उत्पादक शक्ति नष्ट हो जाती है। २. अप्रासुक शीतोदक-स्वाभाविक शीतल जल। तिल, मूंग आदि पांच वर्ष के बाद तथा अतसी, कंगु ३. प्रासुक उष्णोदक-त्रिदण्डउद्वत्त गर्म जल। आदि सात वर्ष के बाद विध्वंसयोनिक हो जाते हैं। ४. अप्रासुक उष्णोदक-तापोदक आदि। (शालि, व्रीहि, गेहूं आदि धान्यों को कोठे आदि में सचित्त उदक के अन्य प्रकार भी हैं। यथा डालकर उनके द्वारदेश को लीप देने, मिट्टी से मुद्रित कर देने ० धारोदक-उज्जयंत आदि पहाड़ी झरनों का जल अथवा पर उनकी योनि (उत्पादक शक्ति) जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, अंतरिक्ष का जल। उत्कर्षतः तीन वर्ष तक रहती है। उसके बाद योनि म्लान हो ० महासलिला जल-गंगा, सिन्धु आदि महानदियों का जल। जाती है, बीज अबीज हो जाता है। मटर, मसूर, तिल आदि ० संभारित जल-कपूर, गुलाब आदि द्रव्यों से वासित जल। की योनि पांच वर्ष तक तथा अलसी, कुसुंभ, कोदव आदि ० चतुर्मूल-चार सुरभि मूलों से भावित जल। की योनि सात वर्ष तक रहती है।-भ६/१२९-१३१ ० पंचमूल-पांच सुरभिमूलों से भावित जल। ओदन, कुल्माष आदि पूर्व पर्याय-प्रज्ञापन की अपेक्षा ० तालोदक-तोसलि आदि क्षेत्रों में प्राप्त जल। से वनस्पतिजीवों के शरीर हैं। अग्निपरिणत होने पर उन्हें ० तापोदक-राजगृह आदि में प्राप्त जल। अग्निजीवों का शरीर कहा जा सकता है। लोहा, ताम्बा आदि १७. उत्पल आदि के अचित्त होने का कालमान पृथ्वीजीवों के शरीर हैं, अग्निरूप में परिणत होने पर उन्हें उप्पल पडसाई पण उण्ड दिन्नाई जाम न धरिती। अग्निजीवों का शरीर कहा जा सकता है। अस्थि, चर्म, रोम मोग्गरग-जहियाओ, उण्हे छुढा चिरं होंति॥ आदि त्रसजीवों के शरीर हैं, अग्निपरिणत होने पर उन्हें अग्निजीवों मगदंतियपुप्फाई, उदए छूढाइँ जाम न धरिती। का शरीर कहा जा सकता है।-भ ५/५१-५३) उप्पल-पउमाई पुण, उदए छूढा चिरं होंति॥ १९. सूक्ष्म जीवों के आठ प्रकार पत्ताणं पुष्फाणं, सरडुफलाणं तहेव हरियाणं। "अट्ठ सुहुमाइं"तं जहा-पाणसुहुमं पणगसुहमं विंटम्मि मिलाणम्मी, नायव्वं जीवविप्पजढं॥ बीयसुहुमं हरियसुहुमं पुष्फसुहुमं अंडसुहुमं लेणसुहुमं (बृभा ९७८-९८०) सिणेहसुहुमं। (दशा ८ परि सू २६२) Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २७१ जीवनिकाय सूक्ष्म जीव आठ प्रकार के हैं-प्राणसूक्ष्म, पनकसूक्ष्म, लेणे भिंगुलेणे उज्जुए तालमूलए संवुक्कावट्टे..। बीजसूक्ष्म, हरितसूक्ष्म, पुष्पसूक्ष्म, अण्डसूक्ष्म, लयनसूक्ष्म और सिणेहसुहुमे पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-उस्सा हिमए स्नेहसूक्ष्म। महिया करए हरतणुए णामं पंचमे। ० प्राणसूक्ष्म यावत् पुष्पसूक्ष्म (दशा ८ परि सू २६८-२७०) ...."पाणसुहमे पंचविहे पण्णते, तं जहा-किण्हे ० अंडसूक्ष्म के पांच प्रकार हैं-मधुमक्खी, मकड़ी, चींटी, नीले लोहिए हालिद्दे सुक्किले।अस्थि कंथअणंधरी नामंजा ब्राह्मणी और गिरगिट के अंडे।। ठिया अचलमाणा छउमस्थाणं नो चक्खफासं हव्व- ० लयनसूक्ष्म के पांच प्रकार हैं-कीटिकानगर, भगलयन, मागच्छइ, जा अद्विया चलमाणा छउमस्थाणं चक्खफासं ऋजुकलयन, तालमूललयन और शम्बूकावर्त्तलयन-इन हव्वमागच्छइ पणगसुहमे पंचविहेपण्णत्ते, तंजहा-किण्हे आश्रयस्थानों में रहने वाले जीव। नीले लोहिए हालिहे सक्किले। अस्थि पणगसहमे तहव- ० स्नेहसूक्ष्म के पांच प्रकार हैं-ओस, हिम, कहासा. ओला समाणवण्णए बीयसुहमे पंचविहेपण्णत्ते, तंजहा-किण्हे और उद्भिद् जलबिंदु । जाव सुक्किले। अस्थि बीयसुहमे कणियासमाणवण्णए २०. त्रस के चार प्रकार “हरियसुहमे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-किण्हे जाव सुक्किले। चउव्विहा तसा-बेंदिया तेइंदिया चतुपंचिंदिया। अस्थि हरियसुहुमे पुढवीसमाणवण्णए"पुष्फसुहुमे पंचविहे __ (निभा ४२४१ की चू) पण्णत्ते, तंजहा-किण्हे जाव सुक्किले।अत्थि पुप्फसुहुमे । __ त्रसकाय के चार प्रकार हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय रुक्खसमाणवण्णए"जे छउमत्थेणं अभिक्खणं-अभिक्खणं और पंचेन्द्रिय। जाणियब्वे पासियव्वे"भवति।(दशा ८ परि सू २६३-२६७) * पंचेन्द्रिय-देवों के प्रकार द्र देव • प्राणसूक्ष्म-कृष्ण, नील, रक्त, पीत और शुक्ल वर्ण वाले * द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवों का विवरण द्र श्रीआको १ त्रस सूक्ष्म। कुंथु, जो चलने पर जाना जाता है, स्थिर अवस्था में (पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव स्पर्शन छद्मस्थ की आंख का विषय नहीं बनता। इन्द्रिय की अपेक्षा से भोगी हैं। द्वीन्द्रिय जीव जिह्वा और ० पनकसूक्ष्म-कृष्ण, नील, रक्त, पीत और शुक्ल वर्ण वाली स्पर्शन-इन दो इन्द्रियों की अपेक्षा तथा त्रीन्द्रिय जीव घ्राण, काई, जो वर्षा में भूमि, काठ, उपकरण आदि पर उस द्रव्य के जिह्वा और स्पर्शन-इन तीन इन्द्रियों की अपेक्षा से भोगी हैं। समान वर्ण वाली उत्पन्न होती है। चतुरिन्द्रिय जीव चक्षुइन्द्रिय की अपेक्षा से कामी और घ्राण० बीजसूक्ष्म-कृष्ण यावत् शुक्ल वर्ण वाले, कणिका के जिह्य-स्पर्शन-इन तीन इन्द्रियों की अपेक्षा से भोगी हैं। पंचेन्द्रिय समान वर्ण वाले। जीव श्रोत्रेन्द्रिय और चक्षुइन्द्रिय की अपेक्षा से कामी तथा शेष ० हरितसूक्ष्म-कृष्ण यावत् शुक्ल वर्ण वाले। तत्काल उत्पन्न, तीन इन्द्रियों की अपेक्षा से भोगी हैं।-भ७/१३९-१४४) पृथ्वी के समान वर्ण वाले अंकुर। २१. छहकायसंयम और तीर्थ • पुष्पसूक्ष्म-कृष्ण यावत् शुक्ल वर्ण वाले । वृक्ष के समान न विणा तित्थं नियंठेहिं, नियंठा व अतित्थगा। वर्ण वाले दुर्विभाव्य फूल। (द्र द ८/१५ का टि) छक्कायसंजमो जाव, तावऽणुसज्जणा दोण्हं॥ ० अण्डसूक्ष्म-लयनसूक्ष्म-स्नेहसूक्ष्म (व्यभा ४२१७) __ ."अंडसुहुमे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-उइंसंडे निग्रंथों के बिना तीर्थ नहीं होता। तीर्थ के बिना निग्रंथ उक्कलियंडे पिपीलियंडे हलियंडे हल्लोहलियंडे। नहीं होते। जब तक छहजीवनिकाय-संयम है, तब तक लेणसुहुमे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-उत्तिंग- निग्रंथ और तीर्थ-दोनों रहेंगे। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान ज्ञान- ज्ञेय का बोध कराने वाला साधन । १. पांच ज्ञान: प्रत्यक्ष परोक्ष २. आभिनिबोधिक ज्ञान * इन्द्रियावरण - विज्ञानावरण * अपायमति : सम्यक्त्व का हेतु * 'जातिस्मृति ज्ञान * श्रुतज्ञान ३. अवधिज्ञान के विषय * छद्मस्थ का ज्ञानोपयोग आंतमौहूर्तिक द्र तीर्थंकर ४. मनः पर्यवज्ञान : उत्पत्ति और स्वरूप * अतीन्द्रियज्ञान से चित्तसमाधि द्र चित्तसमाधिस्थान ५. . केवलज्ञान : उत्पत्ति और स्वरूप * केवलज्ञानी की पहचान कैसे ? * एकरात्रिकी प्रतिमा से अतीन्द्रियज्ञान ६. ज्ञान का प्रयोजन ७. पहले ज्ञान, फिर आचरण ८. ज्ञान विकास का क्रम * ज्ञानावरणीय कर्म ९. ज्ञान का परिमाण : अगुरुलघुपर्यव * ज्ञान- दर्शन हेतु उपसम्पदा * ज्ञान- आचार * ज्ञान- भावना द्र इन्द्रिय द्र सम्यक्त्व द्र जातिस्मृति द्र श्रुतज्ञान द्र कृतिकर्म द्र प्रतिमा द्र कर्म द्र उपसम्पदा द्र आचार द्र भावना १. पांच ज्ञान : प्रत्यक्ष-परोक्ष ......भावम्मि नाणपणगं, पच्चक्खियरं च तं दुविहं ॥ अपरायत्तं नाणं, पच्चक्खं, तिविहमोहिमाईयं । जं परतो आयत्तं तं पारोक्खं हवइ सव्वं ॥ ओहि मणपज्जवे या, केवलनाणं च होंति पच्चक्खं । आभिणिबोहियनाणं, सुयनाणं चेव पारोक्खं ॥ ( बृभा २४, २९, ३० ) ज्ञान के पांच प्रकार हैं- आभिनिबोधिक (मति) ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान । इस ज्ञानपंचक के दो प्रकार हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । जो ज्ञान अपनी उत्पत्ति में दूसरे का वशवर्ती नहीं है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान है । जो चाक्षुष आदि विज्ञान अपनी उत्पत्ति में २७२ पर-चक्षु आदि के अधीन है, वह परोक्ष ज्ञान है। अवधि, मनः पर्यव और केवल - ये तीनों ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष ज्ञान हैं। द्र श्रीआको १ ज्ञान * ज्ञान के भेद-प्रभेद आदि २. आभिनिबोधिक ज्ञान आगम विषय कोश - २ पच्चक्ख परोक्खं वा, जं अत्थं ऊहिऊण निद्दिसइ ।" अत्थाणंतरचारिं, नियतं चित्तं तिकालविसयं तु । अत्थे य पडुप्पण्णे, विणियोगं इंदियं लहइ ॥ ( बृभा ३९, ४० ) जो प्रत्यक्ष और परोक्ष विषयों की वितर्कणा कर निर्णयपुरस्सर अर्थाभिमुख ( यथार्थ ) प्रतिपादन करता है, अनर्थाभिमुख - विपरीत नहीं होता, वह आभिनिबोधिक ज्ञान है । वह दो प्रकार का है - इन्द्रियनिश्रित और अनिन्द्रिय (मन) निश्रित । इन्द्रियों और मन का विषय भिन्न है। मन अर्थानन्तरचारी - इन्द्रिय- व्यापार के पश्चात् प्रवृत्त होता है। वह नियतार्थ विषय वाला होता है- एक काल में अनेक विषयों में व्यापृत नहीं होता तथा वह त्रिकालविषय वाला होता है। इन्द्रियां वर्तमान विषय में प्रवृत्त होती हैं। * मतिज्ञान का विषय " द्र श्रीआको १ आभिनिबोधिकज्ञान ३. अवधिज्ञान के विषय विवरीयवेसधारी, विज्जंजणसिद्ध देवताए वा । छाइय सेवियसेवी, बीयादीओ वि पच्चक्खा ॥ पुढवी तरुगिरिया सरीरादिगया य जे भवे दव्वा । परमाणू सुहदुक्खादओ य ओहिस्स पच्चक्खा ॥ अच्चतमणुवलद्धा, वि ओहिनाणस्स होंति पच्चक्खा । ओहिन्नाण परिगया, दव्वा असमत्तपज्जाया ॥ खित्तम्मि उ जाइए, पासइ दव्वाइँ तं न पासइ या । काले नाणं भइयं को सो दव्वं विणा जम्हा ॥ (बृभा ३१-३४) - अवधिज्ञान के चार प्रकार हैं१. द्रव्यतः अवधिज्ञान - यह रूपी द्रव्यों को प्रत्यक्ष जानता है। t कोई व्यक्ति नेपथ्य परिवर्तन से, गुटिका प्रयोग से, स्वर Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २७३ ज्ञान अथवा वर्ण के परिवर्तन से विपरीत वेष धारण कर लेता है, देखता है, बहिर्वर्ती भाग को नहीं देखता। कोई अनगार वृक्ष उसको अवधिज्ञानी जान लेता है। इसी प्रकार जो विद्यासिद्ध, के बहिर्वर्ती भाग को देखता है, अन्तर्वर्ती भाग को नहीं देखता। अंजनसिद्ध, देवता द्वारा परिगृहीत या देवताओं द्वारा सेवितसेवी कोई अनगार वृक्ष के मूल को देखता है, कंद को नहीं देखता। हैं तथा जो बीज आदि अन्नागार में भरे हुए हैं-उन सबको कोई अनगार वृक्ष के कंद को देखता है, मूल को नहीं देखता। अवधिज्ञानी जान लेता है। इसी प्रकार बीजपर्यंत अनेक विकल्प हैं। -भ३/१५४-१६३ इसी प्रकार वह पृथ्वी, वृक्ष और पर्वतगत सारे द्रव्य १.जो बार-बार स्त्रीकथा, देशकथा, भक्तकथा और राजकथा शरीरगत द्रव्य, परमाणु तथा इन्द्रिय, मन और शरीर के आधार करते हैं. पर स्वास्थ्य-अस्वास्थ्य रूप सुख-दुःख भी प्रत्यक्षतः जान २. जो विवेक-व्युत्सर्ग द्वारा आत्मा को भावित नहीं करते, लेता है। ३. जो पूर्व-अपररात्र में धर्मजागरण नहीं करते, अवधिज्ञानी के लिए चक्षु आदि से अत्यन्त अनुपलब्ध ४. जो स्पर्शक (अभिलषणीय) एषणीय और उंछ सामुदानिक पदार्थ भी प्रत्यक्ष होते हैं। वह सभी द्रव्यों को जानता है किन्तु भैक्ष की सम्यक् प्रकार से गवेषणा नहीं करते-इन चार द्रव्य के समस्त पर्यायों को नहीं जानता। समस्त पर्यायों को जान । कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के अतिशय ज्ञान और दर्शन ले तो वह केवली हो जाए। तत्काल उत्पन्न होते-होते रुक जाते हैं। २. क्षेत्रतः अवधिज्ञान-अवधिज्ञानी क्षेत्रगत जघन्यतः और इन चार कारणों से विपरीत आचरण करने वालों के उत्कृष्टतः जितने द्रव्यों को देखता है, उतने क्षेत्र (आकाश) को तत्काल उत्पन्न होने वाले अतिशायी ज्ञान और दर्शन उत्पन्न नहीं देख सकता, क्योंकि अवधिज्ञान का विषय मूर्त द्रव्य है, हो जाते हैं। -स्था ४/२५४, २५५ क्षेत्र अमूर्त है। ४. मनःपर्यवज्ञान : उत्पत्ति और स्वरूप ३. कालत: अवधिज्ञान-काल से अवधिज्ञानी की भजना है। तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइयं काल समयमात्र परिणामी होता है। वह अमूर्त होने के कारण खाओवसमियं चरित्तं पडिवन्नस्स मणपज्जवणाणे णामं अवधिज्ञानी का विषय नहीं बनता। परन्तु ऐसा कौन-सा णाणे समुप्पन्ने-अड्डाइज्जेहिं दीवेहिं दोहि य समुद्देहिं काल है, जो द्रव्य का पर्याय न हो? वह द्रव्य का ही एक पर्याय है-'दव्वस्स चेव सो पज्जातो' इसलिए वह अवधिज्ञानी सण्णीणं पंचेंदियाणंपज्जत्ताणं वियत्तमणसाणं मणो-गयाई के लिए प्रत्यक्ष है। पर्यायों में भी कतिपय पर्याय अवधिज्ञान भावाइं जाणेइ। (आचूला १५/३३) के विषय बनते हैं। श्रमण भगवान् महावीर ने सामायिक नामक क्षायो४. भावतः अवधिज्ञान-भाव से अवधिज्ञानी अनन्त भावों को पशमिक चारित्र ग्रहण किया, उसी समय उनके मनःअर्थात् सर्व भावों के अनन्तवें भाग को जानता है। पर्यवज्ञान समुत्पन्न हुआ, जिससे वे अढ़ाई द्वीपों और दो * अवधिज्ञान के भेद आदि द्र श्रीआको १ अवधिज्ञान समुद्रों (जम्बू-धातकीखंड-पुष्करार्ध-द्वीप और लवण(अवधिज्ञान विचित्र प्रकार का होता है। कोई कालोदधि-समद्र) में वर्तमान पर्याप्त समनस्क व्यक्त मानस भावितात्मा अनगार वैक्रिय समदघात से समवहत वैक्रिय वाले पंचेन्द्रिय प्राणियों के मनोगत भावों को मनोद्रव्य के विमान में बैठकर जाते हुए देव को देखता है, विमान को आधार पर जानने लगे, मनोद्रव्य को साक्षात् जानने लगे। नहीं देखता। कोई अनगार विमान को देखता है, देव को तं मणपज्जवनाणं, जेण वियाणाइ सन्निजीवाणं। नहीं देखता। कोई अनगार देव को भी देखता है और णज्जमाणे, मणदव्वे माणसं भावं॥ विमान को भी देखता है। कोई अनगार न देव को देखता है जाणइ य पिहुजणो विहु, फुडमागारेहिँ माणसं भावं। और न अनगार को देखता है। एमेव य तस्सुवमा, मणदव्वपगासिए अत्थे ॥ कोई भावितात्मा अनगार वक्ष के अन्तर्वर्ती भाग को (बृभा ३५, ३६) Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान जो संज्ञी जीवों के मन्यमान (मनन में व्यापृत) मनोवर्गणा के पुद्गलस्कंधों को देखकर मन के भावों (चिंतित अर्थ) को जानता है, वह मनः पर्यवज्ञान है। जैसे सामान्य व्यक्ति स्फुट आकारों के द्वारा मन के भावों को जानता है, वैसे ही मनः पर्यवज्ञानी मनोद्रव्यगत आकारों को देखकर उनउन मानस भावों को जानता है । 'मनः पर्यवज्ञान का विषय मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु है या चिन्तनप्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएं हैं - इस विषय में मतैक्य नहीं है। निर्युक्ति, तत्त्वार्थसूत्र एवं तत्त्वार्थसूत्रीय व्याख्याओं में पहला पक्ष वर्णित है; जबकि विशेषावश्यक भाष्य में दूसरे पक्ष का समर्थन किया गया है। योगभाष्यकार तथा मज्झिमनिकायकार स्पष्ट शब्दों में यही कहते हैं कि ऐसे प्रत्यक्ष के द्वारा दूसरों के चित्त का ही साक्षात्कार होता है, चित्त के आलम्बन का नहीं।" 'परचित्त का साक्षात्कार करने वाला ज्ञान मनः पर्यवज्ञान है', यह व्याख्या स्पष्ट नहीं है। ज्ञानात्मक चित्त को जानने की क्षमता मनः पर्यवज्ञान में नहीं है। ज्ञानात्मक चित्त अमूर्त है, जबकि मनः पर्यवज्ञान मूर्त्त वस्तु को ही जान सकता है। इस विषय में सभी जैन दार्शनिक एकमत हैं। मनः पर्यवज्ञान का विषय है मनोद्रव्य, मनोवर्गणा के पुद्गल स्कन्ध । ये पौद्गलिक मन का निर्माण करते हैं । मनः पर्यवज्ञानी उन पुद्गल स्कंधों का साक्षात्कार करता है। मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु मन:पर्यवज्ञान का विषय नहीं है । चिन्त्यमान वस्तुओं को मन के पौद्गलिक स्कंधों के आधार पर अनुमान से जाना जाता है । .......चिन्त्यमान विषय वस्तु को साक्षात् नहीं जानता क्योंकि चिंतन का विषय मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के पदार्थ हो सकते हैं। छद्मस्थ मनुष्य अमूर्त का साक्षात्कार नहीं कर सकता इसीलिए मनः पर्यवज्ञानी चिन्त्यमान वस्तु को अनुमान से जानता है । इसलिए मनः पर्यवज्ञान की पश्यत्ता (पण्णवणा ३० / २) का निर्देश भी है। सिद्धसेनगणी ने चिन्त्यमान विषय वस्तु को और अधिक स्पष्ट किया है। उनका अभिमत है कि मनः पर्यवज्ञान से चिन्त्यमान अमूर्त वस्तु ही नहीं, स्तम्भ, कुम्भ आदि मूर्त वस्तु भी नहीं जानी जाती। उन्हें अनुमान से ही जाना जा सकता है। आगम विषय कोश - २ " चिन्तन करना द्रव्य मन का कार्य नहीं है। चिन्तन के क्षण में मनोवर्गणा के पुद्गल स्कंधों की आकृतियां अथवा पर्याय बनते हैं, वे सब पौद्गलिक होते हैं । भावमन ज्ञान है। ज्ञान अमूर्त है। अकेवली (छद्मस्थ मनुष्य) अमूर्त को जान नहीं सकता। वह चिन्तन के क्षण में पौद्गलिक स्कन्ध की विभिन्न आकृतियों का साक्षात्कार करता है। इसलिए मन के पर्यायों को जानने का अर्थ भावमन को जाना नहीं होता किन्तु भावमन के कार्य में निमित्त बनने वाले मनोवर्गणा के पुद्गल स्कंधों के पर्यायों को जानना होता है । "...... - नन्दी २३ का टि मनः पर्यवज्ञानी के लिए नव अर्हताएं निर्धारित हैं - १. ऋद्धि प्राप्त २. अप्रमत्त संयत ३. संयत ४. सम्यग्दृष्टि ५. पर्याप्तक ६. संख्येयवर्षायुष्क ७. कर्मभूमिज ८. गर्भावक्रांतिक मनुष्य ९. मनुष्य । द्र श्रीआको १ मनः पर्यवज्ञान मनः पर्यवज्ञान आहारक अवस्था में होता है। - भ ८/१८३) ५. केवलज्ञान की उत्पत्ति और स्वरूप तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स...... झाणकोट्ठोवगयस्स, सुक्कज्झाणंतरिया वट्टमाणस्स निव्वाणे, कसिणे, पडिपुण्णे, अव्वाहए, णिरावरणे, अते, अणुत्तरे केवलवरणाणदंसणे समुप्पण्णे ॥ से भगवं अरिहं जिणे जाए केवली सव्वण्णू सव्वभावदरिसी, सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स पज्जाए जाणइ, तं जहा – आगतिं गतिं ठितिं चयणं उववायं भुत्तं पीयं कडं पडिसेवियं आवीकम्पं रहोकम्मं लवियं कहियं मणोमाणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाई जाणमाणे पासमाणे, एवं च णं विहरड़ । २७४ ( आचूला १५ / ३८, ३९) शुक्लध्यान की अंतरिका में वर्तमान श्रमण भगवान् महावीर के घात्यकर्मक्षय से शांत-प्रशांत, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, अव्याहत, निरावरण, अनंत, अनुत्तर श्रेष्ठ केवलज्ञान- केवलदर्शन समुत्पन्न हुआ। अब वे भगवान् अर्हत् जिन केवली हो गए - सर्वज्ञ और सर्वभावदर्शी। वे देव, मनुष्य और असुर सहित समस्त Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २७५ ज्ञान लोक के पर्यायों को जानते हैं, जैसे-जीवों की आगति, गति, को अलमस्तु ऐसा कहा जा सकता है। जो ज्ञान की परमकोटि स्थिति, च्यवन और उपपात, उनके द्वारा भुक्त, पीत, कृत तक पहुंच चुका है, जिसके लिए कोई ज्ञान पाना शेष नहीं है, और प्रतिसेवित, प्रकट कर्म एवं गुप्त कर्म, उनके द्वारा लपित, वह अलमस्तु है।-भ १/२०९ वृ कथित और मनोमानसिक, सर्वलोक के सब जीवों के सब केवली के दो उपयोग यगपत नहीं होते। भावों को जानते हुए-देखते हुए विहरण करते हैं। -श्रीआको १ केवली पंकसलिले पसाओ, जह होइ कमेण तह इमो जीवो। छद्मस्थ मनुष्य आरगत-इन्द्रियविषय की सीमा में आवरणे झिज्जंते, विसुज्झए केवलं जाव॥ आने वाले शब्दों को सुनता है, वह पारगत-इन्द्रियविषय दव्वादिकसिणविसयं, केवलमेगं तु केवलन्नाणं। की सीमा से परवर्ती शब्द को नहीं सुनता। केवली आरगत अणिवारियवावारं, अणंतमविकप्पियं नियतं॥ अथवा पारगत, अतिदूर, अतिनिकट तथा मध्यवर्ती शब्द को (बभा ३७.३८) जानता-देखता है। केवली इन्द्रियों से नहीं जानता, वह आत्मा जैसे कीचड से कलषित जल कतकचर्ण के योग से से जानता है । वह शब्द की ध्वनितरंगों को साक्षात जान लेता स्वच्छ हो जाता है, वैसे ही जीव अपूर्वकरण गणस्थान में है, कान से सुनने की कोई अपेक्षा नहीं होती। केवली सबको, क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होता है फिर विशद्ध. विशद्धतर सब ओर से, सब काल में, सब भावों को जानता-देखता है। अध्यवसाय के प्रभाव से आवरण (ज्ञानावरणपंचक. अंतराय- उसका ज्ञान-दर्शन निरावरण होता है।-भ५/६५-६७ भाष्य) वक, दर्शनावरणीय चतुष्क) क्षीण होने पर इतना विशुद्ध हो ६. ज्ञान का प्रयोजन जाता है कि वह केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। ..."तदट्ठ जम्हिस्सते णाणं॥ केवलज्ञान का स्वरूप ."दसणाइ आयारा तेसिं अट्ठो। (निभा ४५ चू) १. समस्त द्रव्य-पर्याय जिसके विषय हैं, दर्शन, चारित्र तप और वीर्य आचार की सम्यक् प्रवृत्ति २. केवल-असहाय, मति आदि ज्ञानों से निरपेक्ष, एवं प्रयोग के लिए ज्ञान अभिलषणीय है, प्रयोजनीय है। ३. एक-असाधारण, अनन्य सदृश, ४. अनिवारित व्यापार-अविरहित उपयोग, ७. पहले ज्ञान, फिर आचरण ५. अनन्त-ज्ञेय की अनन्तता के कारण, णाणे सुपरिच्छियत्थे, चरण-तव-वीरियं च तत्थेव" ६. अविकल्पित-भेद रहित, णज्जति अणेणेति णाणं अत्था, ते य जीवा७. नियत-सर्वकालभावी। जीव-बंध-पुण्ण-पावासव-संवर-णिज्जरा-मोक्खो य। * केवलज्ञान के प्रकार आदि एते जया णाणेण सुट्ठ परिच्छिन्ना भवंति तदा चरणतवा द्र श्रीआको १ केवलज्ञान (छास्थ मनुष्य केवल संयम, केवल संवर, केवल पवत्तंति।......जं चरणतवायारादिविरहितं णाणं तं ब्रह्मचर्यवास और केवल प्रवचनमाता के द्वारा सिद्ध, प्रशांत, निच्छयणयंगीकरणेण अण्णाणमेव। (निभा ४६ चू) मुक्त नहीं हो सकते।.... आश्रव या क्लेश के क्षीण हो जाने जिससे जाना जाता है, वह ज्ञान है। ज्ञान से जीव, पर व्यक्ति वीतराग हो सकता है, मुक्त नहीं हो सकता। अजीव, बंध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्षसंयम आदि मुक्त होने के परम्पर कारण हैं, किन्तु कोई भी इन तत्त्वों का बोध होता है। सम्यक् तत्त्वबोध होने पर ही जीव केवली हए बिना मुक्त नहीं हो सकता। सामान्य ज्ञानी दर्शन, चारित्र और तप प्रवर्तित होते हैं-उनकी प्रवत्ति में की बात ही क्या, परम अवधिज्ञान वाला व्यक्ति भी मक्त पराक्रम प्रस्फुटित होता है। नहीं हो सकता।-भ १/२००-२०८ भाष्य दर्शन-चारित्र-तप के आचरण से रहित ज्ञान निश्चय उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक अर्हत. जिन और केवली नय के अभिमत में अज्ञान ही है। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान ८. ज्ञान विकास का क्रम अव्वत्तमक्खरं पुण, पंचण्ह वि थीणगिद्धिसहिएणं । णाणावरणुदपणं, बिंदियमाई कमविसोही ॥ तं च सव्वथोवं पुढविकाइयाणं, कस्मात् ? निश्चेष्टत्वात्। ततः क्रमाद् यावद् वनस्पतिकाइयाणं विसुद्ध - तरं, ततो परं बिंदियमादी कमविसोही जाव अणुत्तरोववाइयाणं, ततो वि चोद्दसपुव्वीणं विसुद्धतरं सव्वं । (बृभा ७५ चू) पृथ्वी, अप्, तेजस्, वायु और वनस्पति - ये पांचों स्थावरकाय स्त्यानर्द्धि निद्रा से युक्त होते हैं। उनका ज्ञान ज्ञानावरण- दर्शनावरण के अत्यंत उदय के कारण सुप्त या मूच्छित प्राणी की तरह अव्यक्त होता है, सर्वथा आवृत नहीं होता । पृथ्वीकायिक जीवों का ज्ञान सर्वजघन्य होता है क्योंकि वे निश्चेष्ट होते हैं। अप्काय यावत् वनस्पति जीवों का ज्ञान पृथ्वीका से विशुद्धतर होता है। उससे आगे द्वीन्द्रिय आदि से लेकर अनुत्तरोपपातिक देवों तक का ज्ञान क्रमशः विशुद्धतर होता है। चौदहपूर्वी का ज्ञान विशुद्धतम होता है। (अनावृत ज्ञानविकास के क्रम का यंत्र - सर्वजघन्य ज्ञानाक्षर अनंतभाग विशुद्धज्ञान " "" पृथ्वीका अप्काय तेजस्काय वायुकाय वनस्पतिकाय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय असंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यंच सम्मूच्छिम मनुष्य गर्भज तिर्यंच गर्भज मनुष्य व्यंतर देव भवनपति देव ज्योतिष्क देव 71 " 91 " 77 " " 11 "" 21 21 11 11 " 11 11 17 27 " 17 " 77 " २७६ कल्पोपपन्न देव नव ग्रैवेयक देव अनुत्तरौपपातिक देव आगम विषय कोश - २ अनंतभाग विशुद्धज्ञान 11 17 11 " - श्रीआको १ ज्ञान) ९. ज्ञान का परिमाण : अगुरुलघुपर्यव इहैकैक आकाशप्रदेशः खल्वनन्तैरगुरुलघुपर्यायैः संयुक्तः, ते च सर्वेऽप्यगुरुलघुपर्याया ज्ञानेन ज्ञायन्ते, न च येन स्वभावेनैको ज्ञायते तेनापरोऽपि तयोरेकत्वप्रसंगात्, किन्त्वन्येन स्वभावेन, ततो यावन्तोऽगुरुलघुपर्यायास्तावन्तो ज्ञानस्वभावाः । , 'जावइय पज्जवा ते, तावइया तेसु नाणभेया वि । इति भवति सर्वाकाशप्रदेशेभ्योऽनन्तगुणम् । आह च बृहद्भाष्यम् - अक्खरमुच्चइ नाणं, तं पुण होज्जाहि किं पमाणं तु ? | भण्णइ अनंतगुणियं सव्वागासप्पएसेहिं ॥ किह होइ अनंतगुणं, सव्वागासप्पदेसरासीतो ? | भन्नइ जं एक्केक्को, आगासस्सा पदेसो उ ॥ संजुत्तोऽणतेहिं, अगुरुलघुपज्जवेहिं नियमेण । तेण उ अनंतगुणियं सव्वागासप्पएसेहिं ॥ (बृभा ६४ की वृ) एक-एक आकाशप्रदेश अनन्त अगुरुलघु पर्यायों से संयुक्त है । वे सभी अगुरुलघु पर्याय ज्ञान के द्वारा ज्ञेय हैं। जिस स्वभाव (ज्ञानभेद) से एक पर्याय को जाना जाता है, यदि उसी स्वभाव से अपर पर्याय को जाना जाये तो एकत्व का प्रसंग आता है किन्तु ऐसा नहीं होता। भिन्न-भिन्न स्वभाव से भिन्न भिन्न पर्यायों को जाना जाता है। जितने अगुरुलघु पर्याय हैं, उतने ही ज्ञान के स्वभाव (भेद) होते हैं। इसलिए सर्व आकाश प्रदेश से अनन्तगुण ज्ञान के पर्यव होते हैं। बृहद्भाष्यकार ने लिखा है- "ज्ञान को अक्षर कहा जाता है। शिष्य ने पूछा- ज्ञान का परिमाण कितना है? आचार्य ने कहा- ज्ञान का परिमाण सभी आकाश-प्रदेशों से अनन्त गुण है। शिष्य ने पुन: पूछा- यह कैसे ? आचार्य ने कहानियमतः एक-एक आकाश प्रदेश अनन्त अगुरुलघु पर्यायों से युक्त है। इसलिए सर्व आकाश-प्रदेशों से अनन्तगुण ज्ञान के पर्यव हैं।" Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २७७ तप तप-कर्मशरीर को तपाने वाला अनुष्ठान। भेद हैं। (श्रमण महावीर के शासन में उत्कृष्ट इत्वरिक तप तप का निर्वचन छहमासिक है। -द्र प्रायश्चित्त) । यावज्जीवन के लिए तपःकर्म स्वीकार करना तप्पते अणेण पावं कम्ममिति तपो। 'रस-रुधिर-मांस-मेदोऽस्थि-मज्ज-शुक्राण्यनेन तप्यते। ___ यावत्कथिक तप है।-द्र अनशन कर्माणि चाशुभानीत्यतस्तपो नाम नैरुक्तम्॥' रत्नावलि आदि तप । (निभा ४६ की चू) ....... तवो रयणमादी॥ जिससे पापकर्म तप्त-विनष्ट होता है, वह तप है। तवोकम्मरयणावली कणगावली सीहनिक्की जिससे रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और लियं जवमझं वइरमझं चंदाणयं। (निभा २८७३ चू) शुक्र-ये धातुएं तथा अशुभ कर्म संतप्त-क्षीण होते हैं, वह तपोयोग के अनेक प्रकार हैं-रत्नावलि, कनकावलि, तप है-यह तप का निर्वचन है। सिंहनिष्क्रीडित, यवमध्यचन्द्रप्रतिमा, वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा आदि। तप के बारह प्रकार * यवमध्यचन्द्रप्रतिमा, मोयप्रतिमा आदि द्र प्रतिमा बारसविहम्मि वि तवे, सब्भितरबाहिरे कुसलदिटे।" * भिक्षुप्रतिमा और तप द्र भिक्षुप्रतिमा (बृभा ११६९) परिहारविशुद्धि तप द्र परिहारविशुद्धि अर्हत् द्वारा तप के बारह प्रकार प्रज्ञप्त हैं । वे दो * शुद्धतप और परिहार तप द्र परिहारतप * तपयोग्य प्रायश्चित्त स्थान भागों में विभक्त है-बाह्य तप और आभ्यन्तर तप। द्र प्रायश्चित्त * तप पारांचिक द्र पारांचित बाह्य तप के छह प्रकार हैं * तप: आचार का एक भेद द्र आचार १. अनशन (द्र अनशन) तप भावना द्र जिनकल्प २. ऊनोदरिका (द्र आहार) कृतकरण : तप से भावित द्र कृतयोगी ३. भिक्षाचर्या (द्र स्थविरकल्प) * उपवास से चिकित्सा द्र चिकित्सा ४. रस-परित्याग (द्र स्वाध्याय) * तपस्वी के गोचरकाल द्रपिण्डैषणा ५. कायक्लेश (द्र कायक्लेश) * वर्षाकालीन तप से बलवृद्धि द्र पर्युषणाकल्प ६. प्रतिसंलीनता (द्र प्रतिमा) * तप हेतु चारित्र उपसंपदा द्र उपसम्पदा आभ्यन्तर तप के छह प्रकार हैं * आगाढयोगवहन द्र स्वाध्याय १. प्रायश्चित्त ३. वैयावृत्त्य ५. ध्यान * श्रेणि-प्रतर आदि तप द्र श्रीआको १ तप २. विनय ४. स्वाध्याय ६. व्युत्सर्ग (० रत्नावलि तप-रत्नों की पंक्ति रत्नों के हार में होती है -द्र सम्बद्ध नाम इसलिए यह तप हार की कल्पना के अनुसार किया जाता है। इत्वरिक तप-यावत्कथिक तप हार में ऊपर दोनों ओर दो दाडिमपुष्प होते हैं और नीचे की खमणित्ति चउत्थं छठें अट्ठमं दसमं दुवालसमं ओर बीच में एक बड़ा दाडिमपुष्प होता है। उसी कल्पना के अद्धमासखमणं मास-दुमास-तिमास-चउमास-पंचमास- अनुसार इस तप की विधि यह हैछम्मासा, सव्वं पि इत्तरं। आवकहियं वा। काहिलिका के रूप में उपवास, बेला और तेला (निभा २ क्रमश: किया जाता है, फिर दाडिमपुष्प के रूप में ८ बेले उपवास, बेला, तेला, चोला, पंचोला (पांच उपवास), किए जाते हैं, उसके नीचे सारिका आती है, उसमें उपवास अर्धमासक्षपण (पखवाड़ा), मासक्षपण, दो मास, तीन मास, चार से लेकर क्रमशः १६ दिन तक का तप किया जाता है। नीचे मास, पांच मास और छह मास का तप-ये सब इत्वरिक तप के के बड़े दाडिमपुष्प में ३४ बेले फिर १६ दिन के तप से Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप २७८ आगम विषय कोश-२ क्रमश: उतरते-उतरते उपवास तक आते हैं, फिर दाडिमपुष्प है। इस तप की आराधना महासती महाकाली ने की थी। के रूप में ८ बेले किए जाते हैं, फिर काहिलिका के रूप में ० महासिंहनिष्क्रीडित तप-इस तप की विधि लघुसिंहक्रमश: तेला, बेला और उपवास किया जाता है। इस क्रम निष्क्रीडित तप के समान है, अंतर यह है कि इस तप में १६ से रत्नावलि तप की एक परिपाटी पूर्ण होती है। एक दिन के उपवास तक आगे बढ़ा जाता है। इस तप की एक परिपाटी में १ वर्ष ३ मास २२ दिन लगते हैं, जिसमें ३८४ परिपाटी में १ वर्ष ६ मास १८ दिन तथा चार परिपाटियों में दिन तप के और ८८ दिन पारणा के होते हैं। इस तप की ६ वर्ष २ मास और १२ दिन लगते हैं। चारों आवृत्तियों में चार आवृत्तियां होती हैं। चारों आवृत्तियों का क्रम यही है, पारणे की विधि समान है। इस तप की आराधना महासती केवल पारणा में अंतर आता है। कृष्णा ने की थी। साधक पहली परिपाटी के पारणा में सर्व विकृति ले . भद्रोत्तर प्रतिमा-इसमें न्यूनतम पांच दिन का तप और सकता है, दूसरी परिपाटी के पारणा में विकति नहीं लेता. अधिकतम नौ दिन का तप होता है। इस तप में पांच लताएं तीसरी परिपाटी के पारणा में लेप लगने वाली वस्तु का वर्जन होती हैं, अतः प्रत्येक तप की पांच बार पुनरावृत्ति होती है। करता है. चौथी परिपाटी में पारणा में आचाम्ल करता है। इस एक आवृत्ति में २०० दिन लगते हैं-१७५ दिन तप और २५ प्रकार चार आवत्तियों में५ वर्ष २ मास और २८ दिन का समय दिन पारण। चार परिपाटियों में कुल दो वर्ष दो मास बीस लगता है। इस तप की आराधना महासती काली ने की थी। दिन लगते हैं। आर्या रामकृष्णा ने इस तप की आराधना की कनकावलि तप-यह तप रत्नावली तप के समान है. अंतर थी।द्रष्टव्य यंत्रकेवल यही है कि दाडिमपुष्पों में रत्नावली तप में बेले किए जाते हैं और इस तप में तेले किए जाते हैं। इस तप की एक परिपाटी में १ वर्ष ५ मास १२ दिन लगते हैं, जिनमें ४३४ दिन का तप और ८८ दिन पारणा के होते हैं। कुल मिलाकर चार परिपाटी में ५ वर्ष ९ मास १८ दिन लगते हैं। इस तप की आराधना महासती सुकाली ने की थी। ० मुक्तावलि तप-इसमें उपवास से लेकर सोलह दिन तक -जैन साधनापद्धति में तपोयोग, पृष्ठ ३४-३६ का तप किया जाता है किन्तु बीच-बीच में उपवास किया • लघु सिंहनिष्क्रीडित तप-यह तप सिंह की चाल से उपमित जाता है। यथा-उपवास बेला, उपवास तेला-इस क्रम से १६ है। सिंह दो कदम आगे बढ़ता है फिर एक कदम पीछे रखता तक पहुंच कर पुनः इसी क्रम से अवतरण होता है। इसकी है, फिर दो कदम आगे बढ़ता है। इसी प्रकार इस तप में भी चार परिपाटियां तीन वर्ष और दस मास से सम्पन्न होती हैं। पूर्व-पूर्व आचरित तप की पुन: आराधना करता हुआ साधक साध्वी पितृसेनकृष्णा ने इस तप की आराधना की थी। आगे बढ़ता है। इसमें न्यूनतम एक उपवास और अधिकतम नव ० आयंबिल वर्धमान तप-इसमें एक आयंबिल (आचाम्ल) उपवास का तप किया जाता है। उसका क्रम यह है से सौ की संख्या तक आरोहण होता है। प्रत्येक आयंबिल के उपवास के पारणा पर बेला, बेला के पारणा पर बाद उपवास किया जाता है। जैसे-आयंबिल फिर उपवास, उपवास। उसके पारणा पर तेला एवं तेला के पारणा पर दो आयंबिल फिर उपवास, तीन आयंबिल फिर उपवास बेला। इस प्रकार ९ दिन के उपवास तक चढ़ा जाता है और यावत् सौ आयंबिल फिर उपवास। इस प्रकार इसमें ५०५० उसी क्रम से पुनः उतरा जाता है । इस तप की एक परिपाटी आयंबिल और १०० उपवास किए जाते हैं। कुल समय १४ में ६ मास ७ दिन लगते हैं। चारों परिपाटियों में कुल २ वर्ष वर्ष ३ मास और २० दिन। आर्या महासेनकृष्णा ने इस तप २८ दिन लगते हैं। पारणा की विधि रत्नावलि तप की भांति की आराधना की थी।-अंतकृतदशा ८/२०-२२, ३०-३३) Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ तप आगम विषय कोश-२ रत्नावली तप कनकावली तप किनकावली तय (रत्नावली तय तप यंत्र سه اسماندها د اسه ------- महासिंह-निष्क्रीड़ित بهانه اس اس امام سه امام -- वहासिह-निष्क्री क्रीड़ित तप ३३३३३. |३|३३ ३३३३३३ ३३ ३३३ । शश ३३ २ |२|२|२ शिशरा२ २ शशशर २RR२ मुक्तावली तप मुक्तावली तय N रा लघुसिंह-निष्क्रीडित तप सिंह-निष्क्रीडित ता T T बनाना T.ITTTTT १५ volvolualvolvali.lval..hol. Marjar Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर २८० आगम विषय कोश-२ तिर्यंच-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा पशु-पक्षी आदि पंचेन्द्रिय। द्र जीवनिकाय * तिर्यंच के भेद द्र श्रीआको१तिर्यंच तीर्थंकर-परम अर्हतासम्पन्न, प्रवचन-द्वादशांगी के अर्थोपदेष्टा, धर्मतीर्थ के प्रवर्तक। १. अर्हत् ऋषभ के कल्याणक नक्षत्र २. अर्हत् अरिष्टनेमि के कल्याणक नक्षत्र ० गण और गणधर ३. पुरुषादानीय पार्श्व के कल्याणक नक्षत्र ० अभिनिष्क्रमण ० केवलज्ञान की उत्पत्ति ० गण और गणधर ४. महावीर के कल्याणक नक्षत्र ५. महावीर का गर्भ में आगमन ० च्यवन-संहरणकाल-ज्ञान ० महावीर का गर्भ-संहरण ६. त्रिशला के स्वप्न और उनका फलित ७. महावीर द्वारा गर्भ में प्रतिज्ञा |१५. केवलज्ञान की प्राप्ति ___ * समवसरण रचना द्र समवसरण |१६. महावीर का धर्मोपदेश: जीवनिकाय-निरूपण ० तीर्थंकर कल्याणक, उपदेश, वचनातिशय * अर्हत् वचन से कल्याण : रोहिणेय दृष्टांत द्र देव |१७. महावीर के गण और गणधर १८. लोहार्य-गौतम द्वारा वीर-भक्ति * वीर-गौतम-सिंह दृष्टांत द्रवैयावृत्त्य तीर्थंकर भिक्षाटन नहीं करते १९. तीर्थकर के अतिशय अनुधर्मता से मुक्त २०. तीर्थंकरों को भी व्यवहार मान्य : उदायन-प्रव्रज्या २१. एक क्षेत्र में रहने का काल | २२. महावीर के वर्षावास | २३. महावीर का निर्वाण, सर्व आयु, अंतिम देशना २४. निर्वाण रात्रि में घटित घटना प्रसंग * ऋषभ आदि के अंतकृतभूमि. द्र अंतकृत १. अर्हत् ऋषभ के कल्याणक नक्षत्र ..."उसभेणं अरहा कोसलिए "उत्तरासाढाहिं चुए चइत्ता गब्भंवक्कंते। उत्तरासाढाहिं जाए।उत्तरा-साढाहिं पव्वइए। उत्तरासाढाहिं"केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने। अभीइणा परिनिव्वुए। (दशा ८ परि सू १६०) कौशलिक अर्हत् ऋषभ के चार कल्याणक-च्यवन, जन्म, दीक्षा और कैवल्यप्राप्ति उत्तराषाढा नक्षत्र में हुए। उनका परिनिर्वाण अभिजित नक्षत्र में हुआ। * ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकर : जीवन परिचय द्र श्रीआको १ तीर्थंकर २. अर्हत् अरिष्टनेमि के कल्याणक नक्षत्र ...."अरहा अरिट्ठनेमी पंचचित्ते होत्था चित्ताहिं चुए"जाए"पव्वइए"केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने परिनिव्वुए “वासाणं पढमे मासे "सावणसुद्धस्स पंचमी" दारयं पयाया। (दशा ८ परि सू १२६, १२८) __ अर्हत् अरिष्टनेमि के पांच कल्याणक चित्रा नक्षत्र में हुए-१. च्यवन २. जन्म ३. दीक्षा ४. कैवल्यप्राप्ति ५. परिनिर्वाण। वर्षा ऋतु के प्रथम मास- श्रावण शुक्ला पंचमी को उनका जन्म हुआ। ० नामकरण ० परिवार ८. महावीर का बाल्यकाल ०विवाह ९. माता-पिता कालधर्म को प्राप्त १०. अवधि ज्ञान से अभिनिष्क्रमणकाल-निर्णय ११. तीर्थंकर द्वारा वर्षीदान ___* लोकांतिक देवों द्वारा निवेदन द्र देव १२. महावीर का अभिनिष्क्रमण ० देवदूष्यधारी महावीर ० केशलुंचन ० सामायिकचारित्र ग्रहण ० मन:पर्यवज्ञान-उत्पत्ति |१३. महावीर का अभिग्रह १४. महावीर की अनुत्तर विहारचर्या __ * कंबल-शबल देव : महावीर उपसर्ग-मुक्त द्र देव Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २८१ तीर्थंकर ० गण और गणधर अरहओ णं अरिट्टनेमिस्स अट्ठारस गणा अट्ठारस गणहरा होत्था॥ (दशा ८ परि सू १३१) अर्हत् अरिष्टनेमि के अठारह गण, अठारह गणधर थे। ३. पुरुषादानीय पार्श्व के कल्याणक नक्षत्र पासे अरहा पुरिसादाणीए पंचविसाहे होत्था, तं जहा-विसाहाहिं चुए चइत्ता गब्भं वक्कंते जाए पव्वइए"..."केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने विसाहाहिं परिनिव्वुए॥ (दशा ८ परि सू १०८) पुरुषादानीय (लोकमान्य) अर्हत् पार्श्व के पांच कल्याण विशाखा नक्षत्र में हुए-च्यवन, जन्म, प्रव्रज्या, कैवल्यप्राप्ति और परिनिर्वाण। ____."पासे अरहा पुरिसादाणीए जेसे हेमंताणं दोच्चे मासे..."पोसबहुलस्स दसमी-पक्खेणं नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्ठमाणं राइंदियाणं विइक्कंताणं पुव्वरत्तावरत्त-कालसमयंसि""दारयं पयाया" (दशा ८ परि सू १११) हेमन्त ऋतु का दूसरा महीना, पौष के कृष्ण पक्ष की दशमी बहपतिपर्ण नौ मास साडे सात दिन-रात व्यतीत होने पर मध्यरात्रि में अर्हत् पार्श्व का जन्म हुआ। ० अभिनिष्क्रमण ___ "पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स"हेमंताणं दोच्चे मासे तच्चे पक्खे"""पोसबहुलस्स एक्कारसी-पक्खेणं पुव्वण्हकालसमयंसि विसालाए सिवियाए सदेवमणुयासुराए परिसाए"वाणारसिंनगरिं आसमपए उज्जाणे असोगवर- पायवस्स अहे"सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमयति सयमेव पंचमद्वियं लोयं करेइ अमेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं एगं देवदूसमायाय तिहिं पुरिससएहिं सद्धिं मुंडे भवित्ता अगारओ अणगारियं पव्वइए। (दशा ८ परि सू ११३) पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व ने हेमन्त के द्वितीय मास, तृतीय पक्ष, पौष कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन, पूर्वाह्न काल में, विशाला शिविका में बैठकर देव, मानव और असुरों की परिषद् के साथ अभिनिष्क्रमण किया। वाराणसी नामक नगरी से निष्क्रमण कर आश्रमपद नामक उद्यान में अशोकवृक्ष के नीचे स्वयं आभूषण, मालाएं और अलंकार उतारकर स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया। तीन दिन का निर्जल उपवास, विशाखा नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग, एक देवदूष्य वस्त्र को धारण कर तीन सौ पुरुषों के साथ मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हुए। ० केवलज्ञान की उत्पत्ति तए णं पासे अरहा पुरिसादाणीए"अप्पाणं भावेमाणस्स तेसीइं राइंदियाई विइक्कंताई चउरासीइमस्स राइंदियस्स अंतरा वट्टमाणस्स जेसे गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे-चित्तबहुले, तस्स णं चित्तबहुलस्स चउत्थीपक्खेणं पुव्वण्हकालसमयंसि धायइपायवस्स अहे छटेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अणंते केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने। (दशा ८ परि सू ११५) अनुत्तर संयम आदि से अपने आपको भावित करते हुए अर्हत् पार्श्व के तैयासी अहोरात्र व्यतीत हो गए। चौरासीवां दिन । ग्रीष्म ऋतु का प्रथम महीना, प्रथम पक्ष, चैत्र कृष्णा चतुर्थी, पूर्वाह्न का समय, धातकी वृक्ष के नीचे, दो दिन का निर्जल उपवास, विशाखा नक्षत्र के साथ चन्द का योग, शक्लध्यान की अन्तरिका में वर्तमान अर्हत पार्श्व को अनन्त प्रवर केवलज्ञान और दर्शन समुत्पन्न हुए। ० गण और गणधर पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अट्ठ गणा अट्ठ गणहरा होत्था, तं जहा सुंभे य अजघोसे य, वसिटे बंभयारि य। सोमे सिरिहरे चेव, वीरभद्दे जसे वि य॥ (दशा ८ परि सू ११६) पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के आठ गण, आठ गणधर के १. शुंभ ५. सोम २. आर्यघोष ६. श्रीधर ३. वशिष्ठ ७. वीरभद्र ४. ब्रह्मचारी ८. यश Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर २८२ आगम विषय कोश-२ ४. महावीर के कल्याणक नक्षत्र ब्राह्मण-कुण्डपुर सन्निवेश में कोडालसगोत्र ऋषभदत्त ब्राह्मण ___"समणेभगवं महावीरे पंचहत्थुत्तरे यावि होत्था- की भार्या जालंधरगोत्रीया देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में १. हत्थुत्तराहिं चुए चइत्ता गब्भं वक्कंते २. हत्थुत्तराहिं सिंह-उद्भव की भांति गर्भ रूप में उत्पन्न हुए। गब्भाओ गब्भं साहरिए ३. हत्थुत्तराहिं जाए ४. हत्थुत्तराहिं . च्यवन-संहरणकाल-ज्ञान सव्वओसव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओअणगारियं पव्वइए समणे भगवं महावीरे तिणाणोवगए यावि होत्था५. हत्थुत्तराहिं "अणुत्तरे केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे। चइस्सामित्ति जाणइ, चुएमित्ति जाणइ, चयमाणेन जाणेइ, साइणा भगवं परिनिव्वुए॥ (आचूला १५/१, २) सुहमेणं से काले पण्णत्ते॥ श्रमण भगवान महावीर के पांच कल्याण हस्तोत्तर ..."साहरिज्जिस्सामित्ति जाणइ, साहरिएमित्ति (उत्तराफाल्गनी) नक्षत्र में हए-१. हस्तोत्तर नक्षत्र में च्यत जाणड, साहरिज्जमाणे वि जाणड...॥ हुए, च्युत होकर गर्भ में अवक्रांत हुए, २. देवानंदा के गर्भ से _ 'चवमाणे ण जाणइ' त्ति आन्तर्मुहूर्तिकत्त्वात्रिशला के गर्भ में संहृत हुए, ३. जन्मे, ४. सर्वात्मना मुण्डित च्छद्मस्थोपयोगस्य, च्यवनकालस्य च सूक्ष्मत्वात्। होकर अगारधर्म से अनगारधर्म में प्रव्रजित हुए, ५. अनुत्तर _(आचूला १५/४, ७ वृ) केवलज्ञानवरदर्शन को सम्प्राप्त हुए। श्रमण भगवान महावीर तीन ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि) स्वाति नक्षत्र में भगवान का परिनिर्वाण हुआ। सेसम्पन्न थे-च्यवन होगा-यह जानते थे, च्यवन हो गया है५. महावीर का गर्भ में आगमन यह जानते थे, च्यवन हो रहा है-यह नहीं जानते थे, क्योंकि समणे भगवं महावीरे इमाए ओसप्पिणीए"दुसम- छद्मस्थ का उपयोग आंतर्मोहूर्त्तिक होता है और च्यवन का काल सुसमाए समाए बहु वीतिक्कंताए-पण्णहत्तरीए वासेहिं, बहुत सूक्ष्म होता है। महावीर मेरा संहरण होगा'-यह जानते थे, मासेहि य अद्धणवमेहिं सेसेहिं, जे से गिम्हाणंचउत्थे मासे, संहरण हो गया है-यह जानते थे, संहरण हो रहा है-यह भी अट्ठमे पक्खे-आसाढसुद्धे, तस्स णं आसाढसुद्धस्स जानते थे। (च्यवन एक समय में हो सकता है, स्वतः होता छट्ठीपक्खेणं"महाविजय-सिद्धत्थ-पुप्फुत्तर"वद्धमाणाओ है, अज्ञेय है। संहरण में असंख्यात समय लगते हैं, परकत महाविमाणाओवीसं सागरोवमाइं आउयं पालइत्ता""चुए है, ज्ञेय है।) चइत्ता इह खलु जंबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे, दाहिणड्डभरहे ० महावीर का गर्भ-संहरण दाहिणमाहणकुंडपुरसन्निवेसंसि उसभदत्तस्स माहणस्स .."समणस्स भगवओ महावीरस्स अणुकंपए णं कोडालसगोत्तस्स देवाणंदाएमाहणीए जालंधरायणसगोत्ताए देवेणं 'जीयमेयंति कट्ट जे से वासाणं तच्चे मासे, पंचमे सीहोब्भवभूएणं अप्पाणेणं कुच्छिसि गब्भं वक्कंते॥ पक्खे-आसोयबहुले, तस्स णं आसोयबहुलस्स तेरसी (आचूला १५/३) पक्खेणं"बासीतिहिं राइंदिएहिं वीइक्कंतेहिं तेसीइमस्स इस अवसर्पिणी कालखंड में दुःषम-सुषमा अर के राइंदियस्स परियाए वट्टमाणे ''तिसलाए खत्तियाणीए बहुत बीत जाने पर, पचहत्तर वर्ष और साढे आठ महीने वासिट्ठ-सगोत्ताए असुभाणं पुग्गलाणं अवहारं करेत्ता, शेष रहने पर, ग्रीष्म का चौथा महीना, आठवां पक्ष-आषाढ सुभाणं पुग्गलाणं पक्खेव करेत्ता कुच्छिसि गब्भंसाहरड़॥ का शुक्ल पक्ष, षष्ठी तिथि को श्रमण भगवान महावीर जे विय से तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिसि गब्भे, महाविजय-सिद्धार्थ-पुष्पोत्तर वर्धमानक महाविमान में बीस तंपि य "देवाणंदाए"कुञ्छिसि साहरड़ ॥(आचूला १५/५, ६) सागरोपम का आयुष्य पूर्ण कर च्युत हुए, च्युत होकर इसी श्रमण भगवान महावीर के अनुकम्पक देव ने 'यह जम्बूद्वीप द्वीप में, भरतवर्ष के दक्षिणार्ध भरत में, दक्षिण जीत आचार है' ऐसा सोचकर, वर्षाकाल का तीसरा महीना, Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २८३ तीर्थंकर पांचवां पक्ष-आश्विन मास का कृष्ण पक्ष, त्रयोदशी तिथि, त्रिशला क्षत्रियाणी मध्यरात्रि के समय अर्धजागृत बयासी रात्रियां बीतने पर तैंयासीवीं मध्यरात्रि में त्रिशला अवस्था में बार-बार ऊंघती हुई चौदह महास्वप्न देखकर क्षत्रियाणी की कुक्षि से अशुभ पुद्गलों का अपहार कर, शुभ जाग उठी। यथा-हाथी, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, फूलों की पुद्गलों का प्रक्षेप कर गर्भ का संहरण किया-प्रवेश कराया। माला, चांद, सूर्य, ध्वजा, कुंभ, पद्मसरोवर, सागर, देवविमान, जो त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में गर्भ था, उसे भी रत्नराशि और अग्नि। देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में संहृत (स्थापित) किया। त्रिशला ने राजा सिद्धार्थ से कहा-स्वामिन ! आज मैं ___ (देवेन्द्र शक्र की आज्ञप्ति से हरि-नैगमेषी देव ने महावीर गज, वृषभ आदि चौदह महास्वप्न देखकर जाग उठी।स्वामिन्! का गर्भ-संहरण किया था। दशा ८ परि सू१४-१७ क्या मैं मानूं इन उदार चौदह महास्वप्नों का कल्याणकारी __शक्र का दूत हरि-नैगमेषी देव "सुखपूर्वक योनि से विशिष्ट फल होगा? गर्भ में संहरण करता है। वह स्त्री के गर्भ का नख के राजा सिद्धार्थ ने स्वप्नपाठकों को स्वप्न-फल पूछा। अग्रभाग अथवा रोमकूप से संहरण अथवा निर्हरण करने में स्वप्नपाठकों ने कहा-इन स्वप्नों के अनुसार त्रिशला क्षत्रियाणी समर्थ है। ऐसा करते समय वह गर्भ को किंचिद् भी आबाधा- एक सुंदर बालक को जन्म देगी। वह बालक युवावस्था को विबाधा उत्पन्न नहीं करता है और न उसका छविच्छेद करता प्राप्त कर पराक्रमी, चातुरन्त चक्रवर्ती राजा बनेगा अथवा है।-भ५/७६, ७७ त्रिलोकनाथ श्रेष्ठ धर्मचक्रवर्ती जिन होगा। सुलसा ने हरि-नैगमेषी की प्रतिमा बनाकर उसकी ७. महावीर द्वारा गर्भ में प्रतिज्ञा आराधना की थी। हरि-नैगमेषी ने सुलसा के मृत पुत्रों को "समणे भगवं महावीरे माउअणुकंपणवाए निच्चले करतल-सम्पुट में उठाकर देवकी के पास और देवकी के पुत्रों णिप्फंदे निरयणे अल्लीणपल्लीणगुत्ते या वि होत्था॥ को सुलसा के पास रखा था।-अंत ३/३५-४१) तए णं तीसे तिसलाए चिंतासोगसागरं संपविट्ठा" ६. त्रिशला के स्वप्न और उनका फलित महावीरे माऊए अयमेयारूवं"विजाणित्ता एगदेसेणं एयइ॥ ___"तिसलाए खत्तियाणीए"पुव्वरत्तावरत्तकाल तएणं सा तिसला खत्तियाणी हट्टतुट्टा"तए णं समणे समयंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी-ओहीरमाणी इमेयारूवे भगवं महावीरे गब्भत्थे चेव इमेयारूवं अभिग्गहं अभिओराले जाव चोदस महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा, तं गिण्हइ-नो खलु मे कप्पइ अम्मापिईहिं जीवंतेहिं मुंडे • भवित्ता अगारवासाओ अणगारियं पव्वइत्तए॥ गय वसह सीह अभिसेय दामससि दिणयरं झयं कुंभं। (दशा ८ परि सू ५३-५७) पउमसर सागर विमाणभवण रयणुच्चय सिहिं च॥ तए णं सा तिसला खत्तियाणी.सिद्धत्थं खत्तियं श्रमण भगवान महावीर माता की अनुकंपा के लिए "एवंवयासी-एवंखलुअहंसामी!"चोहस महा-समिणे निश्चल, निस्पंद, निष्कंप, आलीन-प्रलीनगुप्त हो गए। इससे पासित्ताणं पडिबद्धा...। तं एतेसिं सामी!...के मन्ने त्रिशला चिंताशोकसागर में डूब गई। महावीर ने मां को इस कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ?.... प्रकार देखकर कुछ हलन-चलन किया। माता त्रिशला प्रसन्न तएणं सिद्धत्थे खत्तिए समिणलक्खणपाढए एवं हुई। श्रमण भगवान महावीर ने गर्भ में ही अभिग्रह ग्रहण वयासितएणं ते समिणलक्खणपाढगा"एवं वयासी.. किया कि मैं माता-पिता के जीवित रहते मुंड होकर अगारवास तिसला खत्तियाणी"सुरूवं दारयं पयाहिइ से वि य णं से अनगारता में प्रवजित नहीं होऊंगा। दारए ''जोव्वणगमणुप्पत्ते सूरे "चाउरंतचक्कवट्टी रज्ज- जन्म वई राया भविस्सइ, जिणे वा तेलोक्कनायए धम्मवर- ..."णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं, अद्धट्ठमाणं चक्कवट्टी"। (दशा ८ परि सू २०, ३७, ४६, ४७) राइंदियाणं वीतिक्कंताणं, जे से गिम्हाणं पढमे मासे, दोच्चे Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर - पक्खे – चेतसुद्धे, तस्स णं चेत्तसुद्धस्स तेरसीपक्खेणं''''महावीरं अरोया अरोयं पसूया । .....तणं रयणिं बहवे देवा य देवीओ य एगं महं अमयवासं च, गंधवासं च, चुण्णवासं च, हिरण्णवासं च, रयणवासं च वासिंसु ॥ ( आचूला १५/८, १० ) बहुप्रतिपूर्ण नौ माह और साढे सात अहोरात्र बीतने पर, ग्रीष्म का पहला महीना, दूसरा पक्ष - चैत्रमास का शुक्लपक्ष, त्रयोदशी तिथि को त्रिशला क्षत्रियाणी ने स्वस्थ अवस्था में स्वस्थ महावीर को जन्म दिया । उस रात्रि को बहुत से देव-देवियों ने अमृत, गंध, चूर्ण, हिरण्य और रत्नों की विपुल वर्षा की। ० नामकरण ....... तस्स णं इमे तिणिण णामधेज्जा.... १. अम्मापिउसंतिए " वद्धमाणे " २. सह सम्मुइए "समणे" ३. "भीमं भयभेरवं अचेलयं परिसहं सहइ" त्ति कट्टु देवेहिं से णामं कयं " समणे भगवं महावीरे ॥ " (आचूला १५/१६) वे 'तीन नामों से संबोधित किए जाते थे, जैसेइन १. उनका माता-पिता के द्वारा प्रदत्त नाम वर्धमान । २. उन्हें सहज ज्ञान प्राप्त था, इसलिए समण कहलाए । ३. भीम, अति भयंकर अचेल परीषह को सहते हैं - यह जानकर देवों ने उनका नाम रखा - श्रमण भगवान महावीर । ० महावीर का परिवार .....महावीरस्स पिआ कासवगोत्तेणं । तस्स णं तिणिण णामधेज्जा" सिद्धत्थे ति वा, सेज्जंसे ति वा, जसंसे ति वा ॥''''अम्मा''''' तिण्णि णामधेज्जा' तिसला ति वा, विदेहदिण्णा ति वा, पियकारिणी ति वा ॥..... पित्तियए सुपाजे भाया दिवद्धणे. जेट्ठा भइणी सुदंसणा" महावीरस्स भज्जा जसोया कोडिण्णागोत्तेणं ॥ धूया ..... अणोज्जाति वा, पियदंसणा ति वा ॥ णत्तुई कोसियागोत्ते...सेसवती ति वा, जसवती ति वा ॥ (आचूला १५/१७-२४) महावीर के पिता काश्यपगोत्रीय थे। उनके तीन नाम थे - १. सिद्धार्थ, २. श्रेयांस, ३. यशस्वी । मां के तीन नाम थे - १. त्रिशला, २ . विदेहदत्ता, ३ . प्रियकारिणी । आगम विषय कोश - २ चाचा सुपार्श्व, ज्येष्ठ भ्राता नंदीवर्धन, ज्येष्ठा भगिनी सुदर्शना, महावीर की पत्नी यशोदा कौडिन्यगोत्रीय थी । पुत्री के दो नाम थे - अनवद्या, प्रियदर्शना । दौहित्री कौशिकगोत्रीय थी। उसके दो नाम थे - शेषवती, यशस्वती । ८. महावीर का बाल्यकाल ''महावीरे पंचधातिपरिवुडे, (तं जहा - खीरधाईए, मज्जणधाईए, मंडावणधाईए, खेल्लावणधाईए, अंकधाईए ।) ..... (आचूला १५/१४) महावीर पांच धात्रियों से परिवृत थे, (जैसे- क्षीरधात्री, मज्जनधात्री, मण्डनधात्री, क्रीड़नधात्री और अंकधात्री ) । o विवाह २८४ विणियत्तबाल-भावे अप्पुस्सुयाई उरालाई माणुसगाई पंचलक्खणाई कामभोगाई सद्द-फरिस - रस- रूवगंधा परियारेमाणे, एवं च णं विहरइ ॥ (आचूला १५/१५) महावीर बालभाव से विनिवृत्त हुए, मनुष्य संबंधी पांच प्रकार के - शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध-उदार कामभोगों का अनुत्सुकता (अनासक्ति) से भोग करते हुए रहने लगे। ९. माता-पिता कालधर्म को प्राप्त ........महावीरस्स अम्मापियरो पासावच्चिज्जा समणोवासा यावि होत्था । ते णं बहूइं वासाइं समणोवासगरियागं पालइत्ता ...कुससंथारं दुरुहित्ता भत्तं पच्चक्खाइंति, भत्तं पच्चक्खाइत्ता अपच्छिमाए मारणंतियाए सरीर-संलेहणाए सोसियसरीरा कालमासे कालं किच्चा तं सरीरं विप्पजहित्ता अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववण्णा । तओ णं आखणं चत्ता महाविदेहवासे चरिमेणं उस्सासेणं सिज्झिस्संति ॥ (आचूला १५/२५) महावीर के माता-पिता भगवान पार्श्व की परम्परा के श्रमणोपासक थे। उन्होंने बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक धर्म का पालन किया, अंतिम समय में कुश के संस्तारक पर आरूढ हो भक्तप्रत्याख्यान अनशन किया, आहार का प्रत्याख्यान कर अपश्चिम मारणांतिक शरीर-संलेखना से शरीर को शोषित कर मृत्युकाल प्राप्त होने पर मृत्यु को प्राप्त कर उस शरीर को छोड़कर अच्युत कल्प में देवरूप में उत्पन्न हुए। वहां से Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २८५ तीर्थंकर आयुक्षय होने पर च्यवन कर महाविदेहक्षेत्र में चरम उच्छ्वास । अर्थ और सम्पदा-दान में प्रवृत्त होते हैं । सूर्योदय से प्रातराशमें सिद्ध होंगे। प्रभातकालीन भोजन ले समय तक एक करोड़ और पूरी आठ १०. अवधिज्ञान से अभिनिष्क्रमणकाल निर्णय लाख स्वर्णमुद्राओं का दान करते हैं। पूरे वर्ष में कुल तीन पुट्वि पि य णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अरब, अठासी करोड़ अस्सी लाख मुद्राएं देते हैं। माणुस्सगाओ गिहत्थधम्माओअणुत्तरे आहोहिए अप्पडिवाई १२. महावीर का अभिनिष्क्रमण नाणदंसणे होत्था।तए णं समणे भगवं महावीरे तेणं अणु "से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे-मग्गसिरत्तरेणं आहोहिएणं नाणदंसणेणं अप्पणो निक्खमणकालं बहुले, तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं, सुव्वएणं आभोएइ"। (दशा ८ परि सू ७४) दिवसेणं, विजएणं मुहत्तेणं, हत्थुत्तराहिं णक्खत्तेणं, जोगो___ "विदेहसुमाले तीसं वासाई विदेहत्ति कट्टअगारमझे वगएणं, पाईणगामिणीए छायाए, वियत्ताए पोरिसीए, वसित्ताअम्मापिऊहिं कालगएहिं देवलोगमणुपत्तेहिं समत्त छद्रेणं भत्तेणं अपाणएणं, एगसाडगमायाए, चंदप्पहाए पइण्णे संवच्छरं दलइत्ता जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे" सिवियाए सहस्सवाहिणीए, सदेवमणुयासुराए परिसाए" मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं हत्थुत्तराहिं णक्खत्तेणं जेणेवणायसंडे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ"पुरत्थाभिमुहे जोगोवगएणं अभिणिक्खमणाभिप्याए याविहोत्था। सीहासणे णिसीयइ, आभरणालंकारं ओमुयइ। तओ णं (आचूला १५/२६) वेसमणे देवे जन्नुव्वायपडिए समणस्स भगवओ महाश्रमण भगवान महावीर को पहले से ही मनुष्य वीरस्स हंसलक्खणेणं पडेणं आभरणालंकारं पडिच्छइ। धर्मतायुक्त (केवल मनुष्य को होने वाला) अनुत्तर, अप्रतिपाति आधोवधि ज्ञानदर्शन प्राप्त था। उस ज्ञान से उन्होंने अपने (आचूला १५/२९) निष्क्रमणकाल को जाना। हेमंत ऋत के प्रथम मास का प्रथम पक्ष-मार्गशीर्ष का विदेहसुकुमार तीस वर्षों तक विदेह रूप में घर में कृष्ण पक्ष। दशमी तिथि, सुव्रत दिवस। विजय मुहूर्त। रहे । माता-पिता कालधर्म को प्राप्त कर देवलोक में उत्पन्न उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग। पूर्वगामिनी छाया। अंतिम द्वारातत्यचात अपनी पतिता की पर्णता को जानका महावीर हुए। तत्पश्चात् अपनी प्रतिज्ञा की पूर्णता को जानकर महावीर प्रहर का समय। दो दिन का निर्जल उपवास। उन्होंने एक ने वर्षभर दान दिया। हेमन्त ऋतु के प्रथम मास का पहला शाटक लेकर सहस्र-वाहिनी चन्द्रप्रभा नामक शिविका में पक्ष-मार्गशीर्ष का कृष्ण पक्ष । दशमी तिथि। चन्द्रमा के साथ बैठ अभिनिष्क्रमण किया। देव, मनुष्य और असुरों की परिषद् उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग। अभिनिष्क्रमण का निर्णय उनके पीछे-पीछे चल रही थी। शिविका जहां ज्ञातखंड (संकल्प) किया। उद्यान था, वहां पहुंची। उससे उतरकर महावीर पूर्वाभिमुख ११. तीर्थंकर द्वारा वर्षीदान सिंहासन पर बैठे, आभरण-अलंकार उतारे। तत्पश्चात् वैश्रवण संवच्छोण होहिति, अभिणिक्खमणं तु जिणवरिंदस्स। देव ने घुटनों के बल बैठ श्रमण भगवान् महावीर के आभरणतो अत्थ-संपदाणं, पवत्तई पुव्वसूराओ॥ अलंकारों को एक श्वेत वस्त्रखंड में ग्रहण किया। एगा हिरण्णकोडी, अद्वैव अणूणया सयसहस्सा। ० देवदूष्यधारी महावीर सूरोदयमाईयं, दिज्जइ जा पायरासो ति॥ ...."एगं देवदूसमादाय एगे अबीए मुंडे भवित्ता तिण्णेव य कोडिसया, अट्ठासीतिं च होंति कोडीओ।। अगाराओ अणगारियंपव्वइए।"महावीरे संवच्छरं साहियं असितिं च सयसहस्सा, एयं संवच्छरे दिण्णं॥ मासं जाव चीवरधारी होत्था, तेण परं अचेले पाणिपडि(आचूला १५/२६/१-३) ग्गहए॥ (दशा ८ परि सू ७५, ७६) तीर्थंकर अभिनिष्क्रमण से एक वर्ष पूर्व, सूर्योदय से महावीर एक देवदूष्य ग्रहण कर, अकेले, अद्वितीय Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर मुंड होकर अगारता से अनगारता में प्रव्रजित हुए । महावीर तेरह मास तक चीवरधारी रहे, उसके पश्चात् अचेल और पाणिपात्र हो गए। केशलुंचन .....समणे भगवं महावीरे दाहिणेणं दाहिणं वामेणं वामं पंचमुट्ठियं लोयं करेइ ॥ तओ णं सक्के देविंदे देवराया समणस्स भगवओ महावीरस्स जन्नुव्वायपडिए वयरामएणं थालेणं केसाई पडिच्छइ, पडिच्छित्ता 'अणुजाणेसि भंते ' त्ति कट्टु खीरोयसायरं साहरइ ॥ (आचूला १५/३०, ३१) ० दीक्षा के समय श्रमण भगवान महावीर ने दाहिने हाथ से दाहिनी ओर का एवं बायें हाथ से बायीं ओर का पंचमुष्टि - लुंचन किया। तब देवेन्द्र देवराज शक्र ने घुटनों के बल बैठ श्रमण भगवान महावीर की केशराशि को वज्ररत्नमय थाल में ग्रहण किया, ग्रहण कर " भंते! आपकी आज्ञा है "- ऐसा कह उस केशराशि को क्षीरोद सागर में प्रवाहित कर दिया। ० सामायिक चारित्र ग्रहण ...लोयं करेत्ता सिद्धाणं णमोक्कारं करेइ, करेत्ता, "सव्वं मे अकरणिज्जं पावकम्मं" ति कट्टु सामाइयं चरितं पडिवज्जइ । (आचूला १५/३२) महावीर ने केश - लुंचन कर सिद्धों को नमस्कार किया, नमस्कार कर (आज से) मेरे लिए सब पापकर्म अकरणीय " - इस संकल्प के साथ सामायिकचारित्र स्वीकार किया। ० मनः पर्यवज्ञान - उत्पत्ति 44 ......महावीरस्स सामाइयं खाओवसमियं चरितं पडिवन्नस्स मणपज्जवणाणे णामं णाणे समुप्पन्ने । (आचूला १५/३३) क्षायोपशमिक सामायिक चारित्र प्रतिपन्न महावीर को मनः पर्यवज्ञान समुत्पन्न हुआ। १३. महावीर का अभिग्रह .......महावीरे पव्वइते समाणे....अभिग्गहं अभि आगम विषय कोश- २ गिण्हइ - ' बारसवासाइं वोसट्टकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जति दिव्वा वा माणुसा वा तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे अणाइले अव्वहिए अद्दीणमाणसे तिविहमणवयणकायगुत्ते सम्मं सहिस्सामि ॥ (आचूला १५/३४) महावीर ने प्रव्रजित होकर यह अभिग्रह ग्रहण किया'मैं बारह वर्ष पर्यंत शरीर का व्युत्सर्ग और देह का त्याग करूंगा - शरीर की सार-संभाल नहीं करूंगा। इस अवधि में देव, मनुष्य और तिर्यंच संबंधी जो भी उपसर्ग उत्पन्न होंगे, उन्हें मैं अनाकुल, अव्यथित और अदीनभाव से मन, वचन और काया - इन तीनों से गुप्त रहकर सम्यक् प्रकार से सहन करूंगा।' २८६ १४. महावीर की अनुत्तर विहारचर्या .....समणे भगवं महावीरे वोसट्ठचत्तदेहे अणुत्तरेणं आलएणं, अणुत्तरेणं विहारेणं, अणुत्तरेणं संजमेणं, अणुत्तरेणं पग्गहेणं, अणुत्तरेणं संवरेणं, अणुत्तरेणं तवेणं, अणुत्तरेणं बंभचेरवासेणं, अणुत्तराए खंतीए, अणुत्तराए मोत्तीए, अणुत्तराए तुट्ठीए, अणुत्तराए समितीए, अणुत्तराए गुत्तीए, अणुत्तरेणं ठाणेणं, अणुत्तरेणं कम्मेणं, अणुत्तरेणं सुचरियफल- णिव्वाणमुत्तिमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरड़ ॥ (आचूला १५/३६) श्रमण भगवान महावीर शरीर का व्युत्सर्ग कर, देहाध्यास से मुक्त 'होकर अनुत्तर आलय, अनुत्तर विहार, अनुत्तर संयम, अनुत्तर प्रग्रह ( निग्रह), अनुत्तर संवर, अनुत्तर तप, अनुत्तर ब्रह्मचर्यवास, अनुत्तरक्षांति, अनुत्तर मुक्ति (निर्लोभता), अनुत्तर संतुष्टि (संतृप्ति), अनुत्तर समिति, अनुत्तर गुप्ति, अनुत्तर स्थान (कायोत्सर्ग), अनुत्तर कर्म और अनुत्तर उपशम सार वाले श्रामण्य तथा मुक्तिमार्ग - ज्ञान-दर्शन- चारित्र से अपने आपको भावित करते हुए विहरण करने लगे । (परमावधि ज्ञान की प्राप्ति-साधना का छठा वर्ष । वानमंतरी कटपूतना द्वारा भयंकर उपसर्ग की स्थिति उत्पन्न किये जाने पर भी भगवान् महावीर ध्यान में अविचल रहे । उस समय उन्हें विशिष्ट अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे वे सम्पूर्ण लोक को देखने लगे ।-द्र श्रीआको १ तीर्थंकर) Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २८७ तीर्थंकर १५. केवलज्ञान की उत्पत्ति "महावीरे “गोयमाईणं समणाणं णिग्गंथाणं पंच तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स एएणं महव्वयाइं सभावणाई छज्जीवनिकायाई आइक्खइ॥ विहारेणं विहरमाणस्स बारसवासा विइक्कंता, तेरस __ (आचूला १५/४१, ४२) मस्स य वासस्स परियाए वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं प्रवर केवलज्ञान और केवलदर्शन के धारक श्रमण दोच्चे मासे चउत्थे पक्खे-वइसाहसुद्धे, तस्स णं भगवान महावीर ने अपने आपको और जगत् को भलीभांति वइसाहसुद्धस्स दसमीपक्खेणं, सुव्वएणं दिवसेणं, विजएणं मुहुत्तेणं, हत्थुत्तराहिं णक्खत्तेणं जोगोवगतेणं, देखकर-जानकर पहले (समवसरण में) देवों को धर्म का पाईणगामिणीए छायाए, वियत्ताए पोरिसीए, जंभिय उपदेश दिया, तत्पश्चात् (दूसरे समवसरण में) मनुष्यों को धर्म गामस्स णगरस्स बहिया णईए उजुवालियाए उत्तरे कूले, का उपदेश दिया। महावीर ने गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों के सामागस्स गाहावइस्स कट्ठकरणंसि, वेयावत्तस्स चेइ मध्य पांच महाव्रतों, उनकी पचीस भावनाओं तथा छह यस्स उत्तरपुरथिमे दिसीभाए, सालरुक्खस्स अदूर जीवनिकाय का आख्यान किया। सामंते, उक्कुडुयस्स, गोदोहियाए आयावणाए आया (आचार्य सिद्धसेन ने द्वात्रिंशद द्वात्रिंशिका (१/१३) वेमाणस्स, छटेणं भत्तेणं अपाणएणं, उडजाणु में लिखा हैअहोसिरस्स, धम्मज्झाणोवगयस्स, झाणकोट्ठोवगयस्स, य एव षड्जीवनिकायविस्तर:, परैरनालीढपथस्त्वयोदितः । सुक्कज्झाणंतरियाए वट्टमाणस्स णिव्वाणे, कसिणे, पडि अनेन सर्वज्ञपरीक्षणक्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः ॥ पुण्णे केवलवरणाणदंसणेसमुप्पण्णे। (आचूला १५/३८) प्रभो! तुमने दूसरे दार्शनिकों के द्वारा अनास्वादित श्रमण भगवान महावीर को इस प्रकार विहरण करते (अज्ञात-अनुक्त-अक्षुण्ण) पथ-छहजीवनिकाय का सूक्ष्मरूप हए बारह वर्ष बीत गए। तेरहवां वर्ष चल रहा था। ग्रीष्म का से विशद निरूपण किया है-इस नवीन मौलिक स्थापना से दूसरा मास, चौथा पक्ष, वैशाख शुक्ल पक्ष, उस वैशाख शुक्ल ___ अनुगृहीत सर्वज्ञ-परीक्षा-प्रवीण पुरुष आनन्दोदय-उत्सव के पक्ष की दशमी, सुव्रत दिवस, विजय मुहूर्त । चन्द्रमा के साथ साथ तुम्हारे चरणों में प्रणत हैं।) उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग। पूर्वगामिनी छाया। व्यक्त ० तीर्थंकर-कल्याणक, उपदेश, वचनातिशय (चतुर्थ) प्रहर। जृम्भिकग्राम नगर के बाहर । ऋजुबालिका जम्मण-णिक्खमणेसु य, तित्थकराणं करेंति महिमाओ। नदी का उत्तरी तट । श्यामाक गृहपति का खेत । व्यावृत्त चैत्य भवणवति- वाणमंतर- जोतिस- वेमाणिया देवा।। का ईशानकोण। शालवृक्ष से न अति दूर न अति निकट। उप्पण्णे णाणवरे, तम्मि अणंते पहीणकम्माणो। महावीर पहले उत्कुटुक आसन में, फिर गोदोहिका मुद्रा में तो उवदिसंति धम्मं, जगजीवहियाय तित्थगरा॥ सूर्य की आतापना ले रहे थे। दो दिन का निर्जल उपवास। ऊर्ध्वजानु-अध:शिर। धर्म्यध्यान में लीन। ध्यान-कोष्ठक में लोगच्छेरयभूयं, उप्पयणं निवयणं च देवाणं। प्रविष्ट । शुक्लध्यान की अंतरिका में वर्तमान भगवान् महावीर संसयवागरणाणि य, पुच्छंति तहिं जिणवरिंदे ॥ को निर्वाणदायी/ शांत-प्रशांत, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, अनुत्तर केवलज्ञान ___ (निभा ५७३५-५७३७) और दर्शन समुत्पन्न हुए। आर्यजनपदों में भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क और * केवलज्ञान का स्वरूप द्र ज्ञान वैमानिक देव तीर्थंकरों के जन्मकल्याण, अभिनिष्क्रमण १६. महावीर का धर्मोपदेश : जीवनिकाय-निरूपण कल्याण आदि उत्सव करते हैं। ..."समणे भगवं महावीरे उप्पण्णणाणदंसणधरे तीर्थंकर घातिकर्मों के क्षीण होने पर, प्रवर अनंत अप्पाणं च लोगं च अभिसमेक्ख पव्वं देवाणं धम्म- (केवल) ज्ञान उत्पन्न होने पर जगत के जीवों के कल्याण के माइक्खति, तओ पच्छा मणुस्साणं॥ लिए धर्म का उपदेश देते हैं। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर २८८ आगम विषय कोश-२ समवसरण में देवों के उत्पतन-निपतन (आवाजाही) ग्यारह ही गणधर द्वादशांग के ज्ञाता थे, चौदह पूर्वो को देखकर लोग आश्चर्य से अभिभूत हो जाते हैं। श्रोता एक के वेत्ता थे और समग्र गणिपिटक के धारक थे। ये सभी साथ अनेक प्रश्न उपस्थित करते हैं और अर्हत् एक साथ राजगृह नगर में एक मासिक निर्जल अनशन कर कालधर्म अनेक संशयों को छिन्न करने वाला समाधान देते हैं। को प्राप्त हुए यावत् सर्व दुःखों से मुक्त हुए। भगवान महावीर १७. महावीर के गण और गणधर के निर्वाण के पश्चात् स्थविर इन्द्रभूति और स्थविर आर्य ___"समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा एक्कारस सुधर्मा परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। गणहरा होत्था। जेटे इंदभूई अणगारे गोयमे गोत्तेणं पंच * गणधरों का जीवनपरिचय द्र श्रीआको १ गणधर समणसयाई वाएइ। मज्झिमे अग्गिभूई अणगारे गोयमे १८. लोहार्य-गौतम द्वारा वीर-भक्ति गोत्तेणं"कणीयसे वाउभूई अणगारे गोयमे गोत्तेणं"थेरे जइ वि य लोहसमाणो, गेण्हति खीणंतराइणो उंछं। अज्जवियत्ते भारद्दाए गोत्तेणं"थेरे अज्जसुहम्मे अग्गि- तह वि य गोतमसामी, पारणए गिण्हती गुरुणो॥ वेसायणे गोत्तेणं पंच समणसयाई वाएइ। थेरे मंडियपुत्ते धन्नो सो लोहज्जो, खंतिखमोवरलोहसरिस वन्नो। वासिटे गोत्तेणं "थेरे मोरियपुत्ते कासवे गोत्तेणं अद्धटाई जस्स जिणो पत्तातो, इच्छइ पाणीहिं भोत्तुं जे॥ समणसयाई"थेरे अकंपिए गोयमे गोत्तेणं, थेरे अयलभाया (व्यभा २६७१ वृ) हारियायणे गोत्तेणं-ते दुन्नि विथेरा"।थेरे मेयजे, थेरे य स्वर्णाभ शरीर वाले लोहार्य श्रमण (आर्य सुधर्मा) पभासे-एए दोन्नि वि थेरा कोडिन्ना गोत्तेणं तिन्नि-तिन्नि समणसयाज्ञवाएंति। क्षीणांतराय भगवान महावीर के लिए एषणीय आहार लाते थे। भगवान महावीर उनके पात्र से अपने हाथ में लेकर ___"एक्कारस वि गणहरा दुवालसंगिणो चोद्दसपुग्विणो समत्तगणिपिडगधरा रायगिहे नगरेमासिएणं भत्तेणं आहार करते थे। लोहार्य वीर-वैयावृत्त्य में नियुक्त थे, गौतम अपाणएणं कालगया जाव सव्वदुक्खप्पहीणा।थेरे इंदभूई, नियुक्त नहीं थे फिर भी वे अपने पारणक (उपवास आदि थेरे अज्जसुहम्मे सिद्धिं गए महावीरे पच्छा दोन्नि वि परि तप की सम्पन्नता) के दिन भगवान के लिए आहार लाते थे। "धन्य है वह लोहार्य श्रमण, परम सहिष्णु कनक-गौरवर्ण। निव्वुया। (दशा ८ रि सू १८२-१८४) जिसके पात्र में लाया हुआ आहार भगवान खाते थे अपने हाथों से॥" श्रमण भगवान महावीर के नौ गण और ग्यारह गणधर थे। ज्येष्ठ इन्द्रभूति नामक गौतमगोत्रीय अनगार पांच ० तीर्थंकर भिक्षाटन नहीं करते सौ श्रमणों को वाचना देते थे। मध्यम अग्निभूति नामक देविंदचक्कवट्टी, मंडलिया ईसरा तलवरा य। गौतमगोत्रीय अनगार, कनिष्ठ वायुभूति गौतम-गोत्रीय अनगार, अभिगच्छंति जिणिंदे, तो गोयरियं न हिंडंति॥ शिष्य स्थविर आर्य व्यक्त भारद्वाजगोत्रीय, स्थविर आर्य सुधर्मा संखादीया कोडी, सुराण णिच्चं जिणे उवासंति। अग्निवैश्यायनगोत्रीय-इनमें से प्रत्येक गणधर पांच सौ-पांच सौ संसयवागरणाणि य, मणसा वयसा च पुच्छंति॥ श्रमणों को वाचना देते थे। स्थविर मण्डितपुत्र वाशिष्ठगोत्रीय (व्यभा २५६९, २५७०) तीन सौ पचास श्रमणों को तथा स्थविर मौर्यपुत्र काश्यपगोत्रीय तीर्थंकर को केवलज्ञान उत्पन्न होने पर उनके उपपात तीन सौ पचास श्रमणों को वाचना देते थे। में देवेन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, माण्डलिक राजा, स्थविर अकंपित गौतमगोत्रीय और स्थविर अचलभ्राता युवराज, कोतवाल आदि व्यक्ति आते रहते हैं। अतः कैवल्यहरितायनगोत्रीय-ये दोनों स्थविर तीन सौ-तीन सौ श्रमणों को प्राप्ति के पश्चात् वे भिक्षार्थ नहीं घूमते।। तथा स्थविर मेतार्य और स्थविर प्रभास कौडिन्यगोत्रीय-ये दोनों असंख्य सुरकोटियां (देव) सदा अर्हत् की उपासना स्थविर तीन सौ-तीन सौ श्रमणों को वाचना देते थे। करती हैं। उनसे देव, मनुष्य आदि प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २८९ तीर्थंकर मानसिक एवं वाचिक प्रश्नों का समाधान प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार ह्रद में सहज अचित्त जल था, ह्रदस्वामी १९. तीर्थंकर के अतिशय अनुधर्मता से मुक्त द्वारा अनुज्ञात था। समभूमि वाली, बिल आदि से रहित सहज ."लोउत्तरिया धम्मा, अणुगुरुणो तेण ते वज्जा॥ अचित्त स्थण्डिलभूमि वहां थी। किन्तु तिल, पानी और कामंखलुअणुगुरुणो, धम्मा तह विहुन सव्वसाहम्मा। स्थण्डिल-ये तीनों ही शस्त्र से उपहत नहीं थे। अनेक साधु गुरुणो जं तु अइसए, पाहुडियाई समुपजीवे॥ भूख-प्यास से तथा अनेक साधु तृतीय पौरुषी में आहार करने (बभा ९९५, ९९६) के पश्चात् उत्सर्ग की बाधा से पीड़ित हो दिवंगत हो गए। फिर यद्यपि यह तथ्य मान्य है कि लोकोत्तर धर्म अनगरु भी अशस्त्रोपहत ग्रहण के प्रसंग को टालने के लिए भगवान् ने हैं-जैसा पूर्वगुरुओं ने आचरण किया है, वैसा ही आचरण उन तीनों कल्पनीय वस्तुओं की भी अनुज्ञा नहीं दी। उन तीनों पश्चाद्वर्ती गुरु-शिष्यों को करना चाहिए, किन्तु उस आचीर्ण भविष्य में होने वाले मुनि कहेंगे कि जब तीर्थंकर ने में भी देशसाधर्म्य ही करणीय है, सब प्रकार की समानता भी ऐसी वस्तुएं ग्रहण की हैं तो हम क्यों नहीं लें-इस करणीय नहीं है। जैसे-तीर्थंकर प्राभृतिका-देवकृत समवसरण भावना से वे अशस्त्रोपहत भी ग्रहण कर लेंगे। व्यवहारनय आदि अतिशयों के उपजीवी होते हैं-यह तीर्थंकरों का जीतकल्प की बलवत्ता ख्यापित करने के लिए भगवान ने उस प्रसंग में है, अतः इस विषय में अनुधर्मता नहीं होती है। कुछ भी ग्रहण नहीं किया। प्रमाणस्थ पुरुषों के लिए यह २०. तीर्थंकरों को भी व्यवहार मान्य : उदायन-प्रव्रज्या युक्तियुक्त है। सगड-बह-समभोमे, अविय विसेसेण विरहियतरागं। मुनि शस्त्र से अनुपहत वस्तु ग्रहण न करे--यह तह वि खलु अणाइन्नं, एसऽणुधम्मो पवयणस्स॥ तीर्थ का अनुधर्म है। वक्कंतजोणि थंडिल, अतसा दिन्ना ठिई अविछहाए। २१. एक क्षेत्र में रहने का काल तह वि न गेण्हिसु जिणो, मा हु पसंगो असत्थहए॥ ."अट्ठ गिम्ह-हेमंतिए मासे गामे एगराइए नगरे एमेव य निज्जीवे, इहम्मि तसवज्जिए दए दिन्ने। पंचराइए. (दशा ८ परि सू ८०) समभोम्मे य अवि ठिती, जिमिता सन्नान याऽणुन्ना॥ भगवान महावीर हेमंत और ग्रीष्म के आठ महीनों ""भगवान् श्रीमन्महावीरस्वामी राजगृहनगराद् में ग्राम में एक रात्रि और नगर में पांच रात्रि से अधिक नहीं उदायननरेन्द्रप्रव्राजनार्थं सिन्धुसौवीरदेशवतंसं वीतभयं नगरं ठहरते थे। प्रस्थितः तीर्थकरेणापि गृहीतम् इति मदीयमालम्बनं कत्वा मत्सन्तानवर्तिनः शिष्या अशस्त्रोपहतं मा ग्राहिषः २२. महावीर के वर्षावास (पावस स्थल) इति भावात्, व्यवहारनयबलीयस्त्वख्यापनाय भगवता न ...भगवं महावीरे अट्ठियगामं नीसाए पढमं तु प्रमाणस्थपुरुषाणाम्।। अंतरावासं"चंपं च पिट्टिचंपं च नीसाए तओवेसालिं (बभा ९९७-९९९) नगरिं वाणियगामं च नीसाए दुवालस"रायगिहं नगरं नगार वाणियगाम च नासाए दुवालस" भगवान महावीर ने उदायन नप को प्रव्रजित करने के नालंदं च बाहिरियं नीसाए चोद्दस""छ मिहिलाए, दो लिए राजगृह नगर से सिन्धु-सौवीर देश के अवतंसभूत भद्दियाए, एगं आलभियाए, एगं सावत्थीए, एगं पणियवीतभयनगर की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में जहां भगवान भूमीए एगं पावाए मज्झिमाए 'अपच्छिमं अंतरावासं रुके, वहां तिल से भरे शकट थे, जिनमें बिना शस्त्र-प्रयोग के वासावासं उवागए। (दशा ८ परि सू ८३) सहज आयुक्षय से ही तिल अचित्त हो गए थे। वे अचित्त भगवान महावीर ने तेरह स्थानों में कुल बयालीस भूमि पर स्थित थे, त्रस जीवों से भी रहित थे, शकट-स्वामी चातुर्मास किए, उनमें बारह छद्मस्थ अवस्था में और तीस द्वारा अनुज्ञात थे। केवली अवस्था में किए थे। ता Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर २९० आगम विषय कोश-२ वर्षावास-क्षेत्र चातुर्मास-संख्या अपापा नगरी में हस्तिपाल राजा की रज्जुकसभा में किया। अस्थिकग्राम (प्रथम वर्षावास) कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात्रि के समय श्रमण भगवान चम्पा और पृष्ठचम्पा महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए। उस समय चन्द्र नाम का दूसरा वैशाली और वाणिज्यग्राम संवत्सर, प्रीतिवर्द्धन मास, नन्दिवर्धन पक्ष, अग्निवेश दिनराजगृह नगर और नालंदा जिसे उपशम कहा जाता है, देवानंदा रात्रि-जिसे निर्ऋति भी मिथिला कहा जाता है, अर्चि लव, मुहूर्त प्राण, स्तोक सिद्ध, नाग भद्रिका करण, सर्वार्थसिद्ध मुहूर्त और स्वाति नक्षत्र के साथ चन्द्र का आलभिका योग था। श्रावस्ती श्रमण भगवान महावीर तीस वर्ष गृहवास में, बारह वज्रभूमि (अनार्य देश) वर्ष से भी अधिक समय छद्मस्थ श्रमण पर्याय में, तीस वर्ष से मध्यम पावा (अंतिम वर्षावास) कुछ कम केवलि-पर्याय में रहे, कुल बयालीस वर्ष तक २३. महावीर का निर्वाण, सर्वआयु, अंतिम देशना । श्रमण-पर्याय का पालनकर, बहत्तर वर्ष की आयु पूर्णकर, __ तत्थ णं जेसे पावाए मज्झिमाए हत्थिपालगस्स रण्णो ___ वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म क्षीण होने पर इस रज्जुगसभाए अपच्छिमं अंतरावासं वासावासं उवागए।" अवसर्पिणीकाल का दुःषम-सुषमा नामक चतुर्थ आरा प्रायः कत्तियबहुलस्स पन्नरसी-पक्खेणं जासा चरमा रयणी तं व्यतीत होने पर तथा उस चतुर्थ आरे के तीन वर्ष और साढ़े आठ रयणिंच णं समणे भगवं महावीरे कालगए"चंदे नाम से महीने शेष रहने पर, एकाकी, अद्वितीय, षष्ठ तप (दो दिन के दोच्चे संवच्छरे, पीतिवद्धणे मासे नंदिवद्धणे पक्खे उपवास) में, प्रत्यूषकाल के समय पर्यंकासन में बैठे हुए, अग्गिवेसे नाम से दिवसे उवसमेत्ति पवुच्चइ, देवाणंदा नामं कल्याण-फलविपाक के पचपन अध्ययन और पाप-फल विपाक सा रयणी निरतित्ति पवुच्चइ, अच्चे लवे, मुहुत्ते पाणू, के पचपन अध्ययन तथा छत्तीस अपृष्ट व्याकरणों को कहकर, थोवे सिद्धे, नागे करणे, सव्वट्ठसिद्धे मुहुत्ते, साइणा प्रधान अध्ययन का निरूपण करते-करते सिद्ध, बुद्ध और नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं॥ मुक्त हुए। "तीसं वासाई अगारवासमझे वसित्ता, साइरेगाइं २४. निर्वाण-रात्रि में घटित घटना प्रसंग दुवालस वासाइं छउमत्थपरियागं", देसूणाई तीसं वासाइं जंरयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए". केवलिपरियागं", बायालीसं वासाइं सामण्णपरियायं __ तं रयणिं च णं जेठुस्स गोयमस्स इंदभूइस्स अणगारस्स पाउणित्ता, बावत्तरिं वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता, खीणे अंतेवासिस्स नायए पेज्जबंधणे वोच्छिन्ने अणंते...... वेयणिज्जाउयनामगोत्ते इमीसे ओसप्पिणीए दुसमसुसमाए केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने॥ समाए बहुवीइक्कंताए तिहिं वासेहिं अद्धनवमेहिं य "तं रयणिं च णं नव मल्लई नव लिच्छई कासीमासेहिं सेसेहिंएगे अबीए छटेणं भत्तेणं अपाणएणं । कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो अमावसाए पाराभोयं पच्चूसकालसमयंसि संपलियंकनिसन्ने पणपन्नं अज्झ- पोसहोववासं पट्ठविंसु गते से भावुज्जोए दव्वुज्जोयं करियणाई कल्लाणफलविवागाइं, पणपन्नं अज्झयणाइं स्सामो॥ पावफलविवागाई, छत्तीसं च अपट्टवागरणाइं वागरित्ता "तं रयणिं च णं खुद्दाए भासरासी महग्गहे पधाणं नाम अज्झयणं विभावेमाणे विभावेमाणे "सिद्धे दोवाससहस्सट्ठिई समणस्स भगवओ महावीरस्स जम्मनबुद्धे मुत्ते"। (दशा ८ परि सू८४, १०६) क्खत्तं संकंते॥"तप्पभियं च णं समणाणं निग्गंथाणं श्रमण भगवान महावीर ने अंतिम वर्षावास मध्यम निग्गंथीण य नो उदिए-उदिए पूयासक्कारे पवत्तति॥" Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश--२ २९१ दिग्बंध भासरासी महग्गहे"महावीरस्स जम्मनक्खत्ताओ वीति- ४. सूक्ष्म जीवराशि की उत्पत्ति, अनेकों द्वारा अनशन-उस क्कंते भविस्सई तया णं"उदिए-उदिए पूयासक्कारे रात्रि में कुंथु नामक सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति हुई । जब वे जीव पवत्तिस्सति॥ स्थिर रहते. तब छद्मस्थ साध-साध्वियों की दष्टि का विषय ...कुंथू अणुंधरी नामं समुप्पन्ना, जा ठिया नहीं बनते। जब वे चल होते, तब साधु-साध्वियों की दृष्टि अचल-माणा छउमत्थाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य नो में आते। इस प्रकार के जीवों की उत्पत्ति देखकर अनेक चक्खुफासं हव्वमागच्छड़, जा अद्विया चलमाणा"चक्ख- साधु-साध्वियों ने अनशन स्वीकार कर लिया। फासंहव्वमागच्छइ, जंपासित्ता बहूहिं निग्गंथेहिं निग्गंथीहिं दशाश्रतस्कंध-छेदसूत्र वर्ग का एक ग्रंथ, जिसकी य भत्ताइं पत्चक्खायाई। (दशा ८ परि सू ८७-९२) दस दशाओं में भिक्षप्रतिमा, उपासकप्रतिमा, गणिसम्पदा १. गौतम को कैवल्य-प्राप्ति-जिस रात्रि में श्रमण भगवान् आदि का प्रतिपादन है। द्र छेदसूत्र महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए, उसी रात्रि में उनके ज्येष्ठ दिग्बंध-आचार्य-उपाध्याय और प्रवर्तिनी के पद पर अंतेवासी इन्द्रभूति गौतम अनगार का रागबन्धन विच्छिन्न हो । गया। उसे अनन्त, प्रवर केवलज्ञान और दर्शन उत्पन्न हुए। नियुक्त करना। २. दीपावली पर्व-अमावस्या को नव मल्लवी और नव १.दिग्बंध लिच्छवि-काशी-कौशल के अठारह गणराजाओं ने प्रतिपूर्ण ० पूर्वदिग् पौषध किया। भाव उद्योत चला गया है-यह सोच उन्होंने । २. इत्वरिक-यावत्कथिक दिग्बंध द्रव्य-उद्योत करने का संकल्प किया। ___ * मार्गवर्ती उपसम्पदा में इत्वरदिग्बंध द्र उपसम्पदा ३. भस्मराशि महाग्रह-उस रात्रि में क्षुद्र स्वभाव वाला, दो ३. दिशा-अनुदिशा हजार वर्ष की स्थिति का भस्मराशि नाम का महाग्रह उनके ४. द्विविध-त्रिविध दिशा * साधु द्विसंग्रहीत, साध्वी त्रिसंग्रहीत द्र आचार्य जन्मनक्षत्र पर संक्रान्त हुआ, तब से श्रमण निग्रंथ और निग्रंथियों * दिशादान का उदितोदित रूप से पूजा-सत्कार नहीं रहा। उस महाग्रह द्र दीक्षा के श्रमण भगवान महावीर के जन्मनक्षत्र से व्यतिक्रान्त होने | ५. दिशापहार का प्रायश्चित्त पर पुनः श्रमण निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों का उदितोदित रूप में १. दिग्बंध पूजा-सत्कार होगा। ...."कुज्जा कमसो दिसाबंधो॥ (पैंतालीस आगमों में एक आगम है-वंकचूलिया। दिग्बन्धे आचार्यपदे उपाध्यायपदे वा स्थाप्यमाने।" उसमें उल्लेख है कि शिष्य अग्निदत्त ने जिनशासन के उदय (व्यभा १३०३ वृ) अस्त के संदर्भ में जिज्ञासा की, तब श्रुतकेवली यशोभद्र ने आचार्यपद अथवा उपाध्यायपद पर स्थापित करना कहवीरनिर्वाण से २९१ वर्षों तक शुद्ध प्ररूपणा रहेगी, दिग्बंध कहलाता है। फिर राजा सम्प्रति धर्मक्षेत्र का विस्तार करेगा। तत्पश्चात ० पूर्वदिग् १६९९ वर्षों तक दुष्ट लोग हिंसाधर्म की प्ररूपणा करेंगे। __..निप्फण्णा तेसि बंधति दिसाओ...... जब भस्मगृह की १० वर्ष की स्थिति शेष रहेगी, तब वीर- राइणिया गीतत्था, अलद्धिया धारयति पुव्वदिसं।..... निर्वाण १९९० में संघ और सूत्र की जन्मराशि पर धूमकेतु ____..."सलक्खण, केवलमेगे दिसाबंधो॥ ग्रह लगेगा। उसकी ३३३ वर्षों की स्थिति पूर्ण होने पर संघ "अलब्धिकाः ते पूर्वदिशं पूर्वाचार्यप्रदत्तं दिशऔर सूत्रमार्ग का उद्योत होगा।) मनुरत्नाधिकत्वलक्षणं धारयन्ति ।... विशिष्टाचार्य Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिग्बंध २९२ आगम विषय कोश-२ लक्षणोपेते दिग्बंध आचार्यपदाध्यारोपः क्रियते। एकपाक्षिकः प्रव्रज्यया श्रुतेन च स्ववर्गस्य भिक्षोः (व्यभा १३२२, १३२५ वृ) कल्पते इत्वरां कियत्कालभाविनीमित्वरग्रहणमुपलक्षणं निष्पन्न शिष्यों को आचार्य-उपाध्याय पद पर स्थापित यावत्काथका च दिशमाचार्यत्वमुपाध्यायत्वं वा अनदिर्श किया जाता है। जो रात्निक गीतार्थ अलब्धिमान होते हैं वे वा आचार्योपाध्यायपदद्वितीयस्थानवर्तित्वम। पूर्वदिक्-पूर्वाचार्यप्रदत्त अनुरत्नाधिकत्व आदि रूप दिशा को (व्य २/२६ वृ) धारण करते हैं। दिग्बंध केवल सलक्षण गीतार्थ का ही होता जिसकी प्रव्रज्या और वाचना एक गुरुकुल के अधीन है। विशिष्ट आचार्यलक्षणों से युक्त शिष्य में दिग्बंध - होती है, वह एकपाक्षिक भिक्ष कहलाता है। उसे इत्वरिकआचार्य पद का अध्यारोपण किया जाता है। अल्पकालिक अथवा यावत्कथिक दिशा या'अनुदिशा के लिए (तेरापंथ धर्मसंघ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य ने उद्दिष्ट किया जा सकता है । दिशा के दो रूप हैं-आचार्यरूप वि. सं. १९१० में सरदारसती को साध्वीप्रमुखा पद पर और उपाध्यायरूप।अनुदिशा का अर्थ है-आचार्य-उपाध्यायपद नियुक्त किया। श्रमण-श्रमणी परिवार उन्हें प्रवर्तिनी साध्वी से द्वितीयस्थानवर्ती। चंदनबाला की उपमा से अलंकृत करता था। ४. द्विविध-त्रिविध दिशा -शासन समुद्र भाग ७ पृ. १९९, २०४) ...."दुविहं तिविह दिसाए...|| २. इत्वरिक-यावत्कथिक दिग्बंध आयरियोवज्झाया दुविहा दिसा साहूणं आयरियो....."अब्भुज्जयपरिकम्मे, मोहे रोगे व इत्तरिओ॥ वज्झाया पवत्तिणी य तिविहा संजतीण दिसा। (व्यभा १३००) (निभा २७५९ चू) जो आचार्य अभ्युद्यतविहार (जिनकल्प आदि) अथवा साधुओं के द्विविध दिशा होती है-आचार्य, उपाध्याय। अभ्युद्यतमरण (अनशन) स्वीकार करते हैं, वे यावत्कथिक साध्वियों के त्रिविध दिशा होती है-आचार्य, उपाध्याय, दिग्बंध करते हैं-योग्य गीतार्थ को सम्पूर्ण रूप से आचार्यपद पर प्रवर्तिनी। नियुक्त करते हैं। मोहचिकित्सा अथवा रोगचिकित्सा करने के ५. दिशापहार का प्रायश्चित्त इच्छुक आचार्य इत्वर दिग्बंध-अल्पकाल के लिए किसी को जे भिक्खू दिसं अवहरति......"तं सेवमाणे आचार्यपद पर नियुक्त करते हैं। आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घातियं ।। परिकर्मकाल में अभ्युद्यतविहारी द्वारा इत्वरदिग्बंध दिशा"तस्यापहारी-तं परित्यज्य अन्यमाचार्य भी किया जाता है। द्र जिनकल्प उपाध्यायं वा प्रतिपद्यते इत्यर्थः। (नि १०/११, ४१ चू) ३. दिशा-अनुदिशा जो साधु-साध्वी दीक्षा के समय व्यपदिष्ट आचार्यदिशेति व्यवदेशः। प्रव्राजनकाले उपस्थापनाकाले उपाध्याय-प्रवर्तिनी को छोड़ अन्य आचार्य आदि को स्वीकार वा।यो आचार्य उपाध्यायो वा व्यपदिश्यते सा तस्य दिशा करता है, वह दिशापहारी है। उसे चतुर्गुरुमासिक प्रायश्चित्त इत्यर्थः । .."संजतीए पवत्तिणी"। (नि १०/११ की चू) प्राप्त होता है। प्रव्राजनकाल या उपस्थापनाकाल में आचार्य, उपाध्याय दिशा-ताप दिशा, प्रज्ञापक दिशा आदि। और प्रवर्तिनी के रूप में जिसका व्यपदेश (आदेश-निर्देश में * चरंती आदि प्रशस्त दिशा द्र आलोचना रहने का निर्देश) किया जाता है, वह उसकी दिशा है। * दिशामूढ द्र मूढ एगपक्खियस्स भिक्खुस्स कप्पति इत्तरियं दिसं वा * महास्थंडिल की दिशा : गुण-दोष" द्र महास्थण्डिल अणुदिसंवा उद्दिसित्तए॥ * तापक्षेत्र दिशा आदि द्र श्रीआको १ लोक Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २९३ दीक्षा दीक्षा-अगारधर्म से अनगारधर्म में प्रव्रजित होना, भवेत्। अभिसमागमो जातिस्मरणादिकः"आदिग्रहणात् महाव्रत ग्रहण करना। श्रावकस्य गुणप्रत्ययप्रभवेणावधिज्ञानेन अन्यतीर्थिकस्य वा विभंगज्ञानेन प्रव्रज्या-प्रतिपत्तिः सम्भवति। १. दीक्षा (प्रव्रज्या) के दो हेतु (बृभा ११३३ ७) २. सर्वप्रथम मुनि दीक्षा का उपदेश व्यक्ति दो हेतुओं से प्रव्रजित होता है३. दीक्षा के छह प्रस्थान ४. दीक्षाविधि क्रम १. श्रुत्वा-तीर्थंकर, गणधर आदि से धर्मदेशना सुनकर। ___ * शैक्षभूमि : सामायिक की कालावधि द्र चारित्र २. अभिसमेत्य-जातिस्मरण आदि रूप स्वसन्मति से स्वयं ५. प्रव्रज्या के पश्चात् उपस्थापना । संबुद्ध होकर। श्रावक गुणप्रत्यय से उत्पन्न अवधिज्ञान के ० उपस्थापनाकल्पिक : बड़ी दीक्षा विधि द्वारा तथा अन्यतीर्थिक विभंगज्ञान के द्वारा तत्त्व को ० उपस्थापना की कालमर्यादा जानकर/प्रतिबद्ध होकर दीक्षित हो सकता है। ० पहले उपस्थापना किसकी? (प्रव्रज्या के दस हेतु हैं६. उपस्थापना के पश्चात् : दिशादान आदि १. छन्दा-अपनी या दूसरों की इच्छा से ली जाने वाली। ७. चिरदीक्षित कौन? २. रोषा-क्रोध से ली जाने वाली। __* आगमवाचना में संयमपर्याय की सीमा द्र श्रुतज्ञान ३. परिघुना-दरिद्रता से ली जाने वाली। ८.दीक्षा के अनर्ह कौन? ४. स्वप्ना-स्वप्न के निमित्त या स्वप्न में ली जाने वाली । ९. बाल के प्रकार एवं लक्षण ५. प्रतिश्रुता-पहले की हुई प्रतिज्ञा के कारण ली जाने वाली। ० न्यून अष्टवर्षीय बालक दीक्षायोग्य नहीं ६. स्मारणिका-जन्मान्तरों की स्मृति होने पर ली जाने वाली। दीक्षार्ह की न्यूनतम वय ७. रोगिणिका-रोग का निमित्त मिलने पर ली जाने वाली। १०. बाल-वृद्ध दीक्षा के अपवाद ८. अनादृता-अनादर होने पर ली जाने वाली। ११. दस दशाएं, दीक्षा-योग्य बाल-वृद्ध १२. नपुंसक के प्रव्राजन आदि का निषेध ९. देवसंज्ञप्ति-देव के द्वारा प्रतिबुद्ध होकर ली जाने वाली। ० नपुंसक को दीक्षा क्यों नहीं? १०. वत्सानुबन्धिका-दीक्षित होते हुए पुत्र के निमित्त से ली * दीक्षा के अर्ह-अनर्ह : नपुंसक जाने वाली।-स्था १०/१५) १३. दीक्षा के अनर्ह : जड्ड। २. सर्वप्रथम मुनिदीक्षा का उपदेश ० भावस्तेन : गोविन्द आदि उदाहरण जइधम्मं अकहेत्ता, अणु दुविधं सम्म मंसविरई वा। ० शासक का अपकारी अणुवासए कहिंते, चउजमला कालगा चउरो॥ ०पंचविध मूढ जीवा अब्भुटुिंता, अविहीकहणाइ रंजिया संता। ० जुंगित अभिसंछूढा होती, संसारमहन्नवं तेणं॥ * सम्यक्त्व, दीक्षा के अयोग्य द्र सम्यक्त्व १४. गच्छनिर्गत मुनि के संवेगप्राप्ति के स्थान एसेव य नूण कमो, वेरग्गगओ न रोयए तं चा.." ___* नई दीक्षा (मूल प्रायश्चित्त) के स्थान द्र प्रायश्चित्त तित्थाणुसज्जणाए, आयहियाए परं समुद्धरति। मग्गप्पभावणाए, जइधम्मकहा अओ पढमं॥ १. दीक्षा (प्रव्रज्या) के दो हेतु (बृभा ११३९-११४२) सोच्चाऽभिसमेच्चा वा, पव्वज्जा अभिसमागमो तत्था कोई अनुपासक यदि धर्मश्रवण के लिए आया है, तो 'श्रुत्वा' तीर्थकर-गणधरादीनां धर्मदेशनां निशम्य उसके समक्ष धर्मकथन का क्रम यह है-सबसे पहले यतिधर्म 'अभिसमेत्य वा' सह सन्मत्यादिना स्वयमेवावबुध्य प्रव्रज्या का कथन करे। यदि वह यतिधर्म स्वीकार करने में असमर्थ द्र वेद Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा २९४ आगम विषय कोश-२ शा . हो, तो मूलगुण-उत्तरगुण रूप द्विविध अणुव्रतधर्म (श्रावक कदाचित् अयोग्य व्यक्ति को प्रव्रजित कर दिया जाए के बारह व्रतों) का उपदेश दे। यदि श्रावकधर्म ग्रहण करने में तो उसके लिए शेष मुंडन आदि पांचों प्रस्थान वर्जनीय हैं। भी असमर्थ हो, तो सम्यग्दर्शन का उपदेश देकर मद्य-मांस (निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां पूर्व और उत्तर-इन दो की विरति का कथन करे। तत्पश्चात् मद्य-मांस की विरति से दिशाओं की ओर मुंह कर-मुंडित करें, शिक्षा दें, महाव्रतों होने वाला ऐहिक और पारलौकिक फल बताए। इस क्रम का में आरोपित करें, भोजन मंडली में सम्मिलित करें, संस्तारक अतिक्रमण करने वाला तप और काल-दोनों से गुरु, चतुर्गुरु मंडली में सम्मिलित करें ।....-स्था २/१६८ प्रायश्चित्त का भागी होता है। चार पदों में क्रमव्यवस्था बतलाई गई हैउपासक के लिए यथारुचि धर्मोपदेश किया जा सकता १. प्रवाजित-मुनिवेश देना। २. मुंडित-केशलुंचन करना। ३. शैक्षित-दिनचर्या से संबंधित क्रियाकलाप का ज्ञान कराना। व्युत्क्रम से उपदेश देने से हानि-प्रव्रज्या ग्रहण करने के ४. शिक्षित-सूत्र-अर्थ-अध्ययन कराना।–भ २/५२ की वृ) लिए तत्पर कोई व्यक्ति मुनि के पास धर्मश्रवण के लिए जाता ४. दीक्षाविधिका कम है। मुनि के अविधिकथन से रंजित होकर वह सोचता है पुच्छा सुद्धे अट्टा, वा सामाइयं च तिक्खुत्तो। व्यक्ति श्रावक धर्म का पालन करता हुआ, कामभोग भोगता सयमेव उ कायव्वं, सिक्खा य तहिं पयत्तेणं॥ हुआ भी यदि सुगति को प्राप्त कर सकता है, तो फिर गोयरमचित्तभोयणसज्झायऽण्हाणभूमिसेज्जादी। कष्टसाध्य प्रव्रज्या से क्या प्रयोजन? यदि सम्यग्दर्शन मात्र से अब्भुवगय थिरहत्थो, गुरू जहण्णेण तिण्णट्टा॥ सुगति प्राप्त हो सकती है, तो फिर व्रतबंधन से लाभ ही क्या दव्वादी अपसत्थे, मोत्तु पसत्थेसु फासुगाहारं। है? इस प्रकार विपरिणत होकर वह प्रव्रज्या-ग्रहण नहीं लग्गाति व तूरंते, गुरुअणुकूले वाहाजायं। करता, संसारसागर में डूब जाता है। तिगुणपयाहिणपादे, नित्थारो गुरुगुणेहि वट्टाहि।" ___ कभी-कभी परम वैराग्यवान् व्यक्ति धर्मकथी मुनि से गोयरे ति दिणे दिणे भिक्खं हिंडियव्वं । जत्थ जं मुनिधर्म की बात न सुनकर श्रावकधर्म की बात सुनता है, तो । लब्भइ तं अचित्तं घेत्तव्वं, तं पिएसणादिसुद्धं, आणियं पि उसे रुचिकर नहीं लगती और वह आर्हत धर्म से विपरिणत बालवुड्डसेहादिएहिं सह संविभागेण भोत्तव्वं। निच्चं होकर अन्यतीर्थिकों के पास प्रव्रजित हो जाता है। सज्झायज्झाणपरेण होयव्वं । सदा अण्हाणगं, उदुबद्धे सया विधि से उपदेश देने के चार लाभ हैं भूमिसयणं, वासासु फलगादिएसु सोतव्वं। अट्ठारस० तीर्थ की अविच्छिन्नता। सीलंगसहस्सा धरेयव्वा लोयादिया य किलेसा अणेगे ० तीर्थ को दीर्घजीवी बनाने से आत्महित। कायव्वा। एयं सव्वं जति अब्भुवगच्छति तो पव्वावेयव्वो। ० प्रव्रज्या प्रदान करने से पर-कल्याण, संसार से समुद्धरण। एसा पव्वावणिज्जपरिक्खा पव्वावणा भण्णति। ० मोक्षमार्ग की प्रभावना। ___सणिसेज्ज रयोहरणं मुहपोत्तिया चोलपट्टो य अतः यतिधर्मप्रतिपादन को प्राथमिकता दी गई है। एयं अहाजातं दातुं वा। ३. दीक्षा के छह प्रस्थान वामपासट्ठियस्स आयरितो भणाति-इमस्स साधुस्स पव्वाविओ सिय त्ति य, सेसंपणगंअणायरणजोग्गं" सामाइयस्स आरुहावणं करेमि काउसग्गं। अन्नत्थू..."तंच इमं मुंडावण सिक्खावण उवट्ठावण सं - ससिएणं जाव वोसिरामि त्ति, लोगस्सुज्जोयगरं चिंतित्ता जण संवासे त्ति। (निभा ३७४६ चू) णमोऽरहताणं ति पारित्ता, लोगस्सुजोयगरं कड्डित्ता पच्छा दीक्षाविधि में क्रमशः छह प्रस्थान हैं-प्रव्राजना, मुंडन, पव्वावणिज्जेण सह सामाइयसुत्तं तिक्खुत्तो कडति, पच्छा शिक्षण, उपस्थापना, सहभोजन, संवास। सेहो इच्छामि खमासमणो त्ति वंदति। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २९५ दीक्षा ताहे वंदति, वंदित्ता णमोक्कारमुच्चारतो पयाहिणं वंदना कर, प्रत्युत्थित हो कहता है-भंते! आपने मुझे सामायिक करेति, पादेसु णिवडति। एवं बितियं ततियं च वारा। ताहे में आरोहण करवाया, अब मैं आपकी अनुशिष्टि चाहता हूं। साधूण णिवेदाविज्जति"ते भणंति-"नित्थारगपारगो गुरु कहते हैं-'स्व-पर का कल्याण करो, श्रुत के होहि, आयरियगुणेसु वट्टसु"एसा मुंडावणा। पारगामी बनो और गुरु-गुणों में वर्तन करो।' (निभा ३७४८-३७५१ चू) इस अनुशासन को सुन शैक्ष पुनः वंदना कर नमस्कार ० प्रव्राजना-दीक्षार्थी से गुरु पूछते हैं-तुम कौन हो? क्यों का उच्चारण कर तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक चरण-वंदना करता प्रव्रजित हो रहे हो? वैराग्य कैसे हुआ? है और फिर सब साधुओं को अनुशिष्टि के लिए निवेदन ___ पृच्छा में उत्तीर्ण होने पर वह प्रव्राजनीय है। प्रव्रज्या करता है, तब साधु कहते हैंसे पूर्व उसे साधुचर्या से अवगत कराया जाता है निस्तारक और पारगामी बनो, आचार्य के अनुशासन साधु जीवन में प्रतिदिन भिक्षा के लिए घूमना होता में वर्तन करो-यह मुंडापना है। है। प्रासुक-एषणीय आहार आदि प्राप्त होने पर स्थान पर (भगवान् पावं के शासन में केवल सामायिक चारित्र आकर बाल, वृद्ध, शैक्ष आदि के साथ उसे संविभागपूर्वक था और भगवान महावीर के शासन में सामायिक चारित्र तथा खाना होता है। मुनि सदा स्वाध्याय-सद्ध्यान में रत रहता है। छेदोपस्थापनीय चारित्र दोनों थे। दीक्षा सामायिक चारित्र के वह कभी स्नान नहीं करता। ऋतुबद्धकाल में भूमि पर तथा संकल्प के साथ दी जाती और एक सप्ताह, चार मास अथवा वर्षाकाल में फलक आदि पर सोता है। वह अठारह हजार छह मास के पश्चात् छेदोपस्थापनीय चारित्र स्वीकृत किया शीलांग को धारण करता है। उसे केशलंचन आदि अनेक कष्ट जाता था। सामायिक चारित्र में केवल सर्व सावधयोग का सहने होते हैं यह सब स्वीकार करने पर उसे प्रव्रजित किया प्रत्याख्यान होता था। भगवान महावीर ने दीक्षा के समय “सव्वं जा सकता है। दीक्षार्थी की यह परीक्षा प्रव्राजना कहलाती है। मे अकरणिज्जं पावकम्म"-इस संकल्प के साथ सामायिक • मुंडापना-जो स्थिरहस्त समर्थ आचार्य होते हैं, वे प्रव्रजित चारित्र स्वीकार किया था।छेदोपस्थापनीय चारित्र में सावद्ययोग शैक्ष का जघन्यतः तीन मुष्टि से सारा लोच करते हैं। का प्रत्याख्यान विस्तार के साथ किया जाता था। विस्तार की दो गुरु अप्रशस्त द्रव्य आदि का वर्जन कर प्रशस्त द्रव्य- परम्पराएं प्रस्तुत (भगवती) सूत्र में विद्यमान हैंक्षेत्र-काल-भाव में प्रव्रजित करते हैं। प्रशस्त लग्न आदि में १. पांच महाव्रतों का स्वीकार।। शीघ्र प्रव्रजित करते हैं। केवल गुरु के अनुकूल लग्न आदि में २. अठारह प्रकार की सावध प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान। भी प्रव्रजित किया जा सकता है। इन दोनों में पहले कौन-सी परम्परा प्रचलित हुईगुरु शैक्ष को यथाजात-निषद्यासहित रजोहरण, मुख- यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है। संभावना की जा सकती वस्त्र और चोलपट्ट देते हैं। है कि पहले अठारह प्रकार की सावध प्रवृत्तियों के प्रत्याख्यान गुरु अपने बायीं ओर स्थित शैक्ष के लिए कहते हैं की परम्परा रही हो और उसके पश्चात् उसका संक्षिप्त रूप मैं इस साध को सामायिक में आरोहण कराने के लिए कायोत्सर्ग पांच महाव्रतों के रूप में हुआ हो। सूत्र संकलन के काल में करता हूं-'अन्नत्थ ऊससिएणं वोसिरामि'-कायोत्सर्गसूत्र के दोनों परम्पराओं का एक साथ उल्लेख हआ है-यह संभावना इतने अंश का उच्चारण कर लोगस्स...' का ध्यान कर, नम- की जा सकती है।-भ २/६८ का भाष्य) स्कारमंत्र से उसको पूरा कर पुनः 'लोगस्स..' (उक्कित्तणं) ५. प्रव्रज्या के पश्चात् उपस्थापना का उच्चारण कर प्रव्राजनीय के साथ तीन बार 'सामायिक' फासुयआहारो से, अणहिंडंतो य गाहए सिक्खं। पाठ बोलते हैं। ताहे उ उवट्ठावण, छज्जीवणियं तु पत्तस्स॥ तत्पश्चात् शैक्ष 'इच्छामि खमासमणो!.....' पाठ से दव्वादिपसत्थवया, एक्केक्क तिगंतु उवरिमं हेट्ठा।" Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा ईसिं अवणय अंतो, वामे पासम्मि होति आवलिया । अभिसरणम्मि य वुड्डी, ओसरणे सो व अण्णो वा ॥ (व्यभा २०३७, २०४५, २०५२) प्रव्रज्याप्रदान के पश्चात् उसे प्रासुक आहार कराया जाता है। उसे भिक्षा लाने नहीं भेजा जाता। वह ग्रहण और आसेवन शिक्षा प्राप्त करता है। षड्जीवनिका अध्ययन ( दशवैकालिक के प्रथम चार अध्ययन) पर्यंत के सूत्र - अर्थ ग्रहण के पश्चात् उसे उपस्थापित किया जाता है (सात दिन बाद छेदोपस्थापनीय चारित्र दिया जाता है)। प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव में व्रतों का आरोपण किया जाता है - प्रारम्भ से अन्त तक एक-एक व्रत का तीन बार उच्चारण किया जाता है I उपस्थाप्यमान साधुओं की आवलिका गुरु के वाम पार्श्व में गजदन्त की भांति ईषद् प्रणत हो स्थित होती है। वे उपस्थापित साधु यदि गुरु के पास आगे से अभिसरण करते हैं तो गच्छ की वृद्धि होती है। (अन्य बहुत से व्यक्ति निकट भविष्य में दीक्षा लेते हैं) । यदि गुरु के पीछे से अपसरण करते हैं तो उपस्थाप्यमान या अन्य कोई साधु गच्छ से हर्भूत हो जाता | ० उपस्थापनाकल्पिक : बड़ी दीक्षा विधि अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुगा।" पढिए य कहिय अहिगय, परिहर उवठावणाए सो कप्पो ।" (बृभा ४११, ४१४) अप्पत्तं उ सुतेणं, परियाए उट्ठवेंते चउगुरुगा ।'' सुत्तत्थे अकहेत्ता, जीवाजीवे य पुण्ण पावं च । वा चउगुरुगा, अणभिगयपुण्णपावं, उवट्ठवेंतस्स चउगुरू होंति । आणादिणो विराहण, मालाए होति दिट्टंतो ॥ दव्वातिसाह 11 ता, ........... पुवि जाहे सत्थपरिण्णा सुत्ततो अधीता ताहे उवट्ठावणापत्तो भन्नति। दसवेयालियमुप्पत्तिकालतो पुण जाहे छज्जीवणिया अधीता "उच्चे द्वावणा उत् प्राबल्येन वा ठावणा उट्ठावणा । आगम विषय कोश - २ ...... अणभिग्गाहिता जस्स णो सद्दहति जहा पंचवण्णसुंगधपुप्फमाला पउमुप्पलोवसोभिया उद्धसुक्कखाणुमालड़ता ण सोभति तहा पंचमहव्वयमाला सभावेणोवसोभिता तस्स न सोभति । २९६ (निभा ३७५३-३७५५, ३७५९ चू) ......उवट्ठाविज्जमाणे आयरिओ अप्पणो वामपासे ठवेति । ... महव्वयकहणा य काउस्सग्गं करेति, तत्थ चउवीसत्थयं चिंतेति, णवक्कारेण पारेत्ता चउवीसत्थयं फुडवियडं वायाते कड्डित्ता ताहे महव्वयउच्चारणं करेंति । (निभा ३७५८ की चू) सूत्रार्थ की दृष्टि से अप्राप्त, अकथित, अनभिगत और अपरीक्षित है, उसे उपस्थापित (विभागपूर्वक महाव्रतों में आरोपित करने वाला चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है । ० अप्राप्त - षड्जीवनिका सूत्र पढ़े बिना उपस्थापनाकल्पिक नहीं होता। प्राचीनकाल में आचारांग के प्रथम अध्ययन 'शस्त्रपरिज्ञा' को सूत्रतः पढ़ने पर उपस्थापना होती थी । दशवैकालिक की रचना के पश्चात् उसके चतुर्थ अध्ययन 'षड्जीवनिका' को पढ़ने पर उपस्थापनार्ह माना जाने लगा। संयम के उच्च स्थान पर स्थापना अथवा प्रबलता से स्थापना उपस्थापना (छेदोपस्थापनीय चारित्र) है। • अकथयित्वा - सूत्र का अर्थ-जीव, अजीव, आश्रव, बंध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष-ये नव पदार्थ भेद-प्रभेद पूर्वक बताये बिना उपस्थापित नहीं किया जाता । • अनभिगत — जो नव पदार्थों को सुनकर जानकर उन पर श्रद्धा नहीं करता, उसे उपस्थापित करने पर आज्ञाभंग आदि दोषों का तथा जीवविराधना का प्रसंग आता है। अभिनव प्रव्रजित को सूत्र पढ़ाकर, अर्थ बताकर परीक्षा की जाती है कि उसने सम्यक् ग्रहण किया या नहीं, उस पर श्रद्धा की या नहीं ? तत्पश्चात् उसे छहजीवनिकाय की हिंसा का विभागपूर्वक प्रत्याख्यान कराया जाता है। माला दृष्टांत - पद्म-उत्पल से शोभित पंचवर्णी सुगंधित पुष्पमाला ऊंचे, शुष्क स्थाणु पर शोभित नहीं होती, वैसे ही सहज सुंदर पंचमहाव्रत-माला अश्रद्धालु के शोभित नहीं होती । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २९७ दीक्षा उपस्थापना विधि-आचार्य उपस्थापनीय शिष्य को अपने वर्ष पर्यंत आचार्य-उपाध्याय पद पर नहीं रह सकते। वामपार्श्व में खड़ा करते हैं, फिर महाव्रतकथन के लिए सूत्रोक्त विधि से यथासमय उपस्थापना न करने पर कायोत्सर्ग में चउवीसत्थव (लोगस्स....) का चिंतन कर आचार्य-उपाध्याय को स्वांतरकृत छेद या परिहार आता हैनमस्कार मंत्र से उसे पूरा कर पुनः चतुर्विंशतिस्तव का स्पष्टता यह प्रथम आदेश है। से वाचिक उच्चारण कर पांच महाव्रतों का उच्चारण करते हैं। द्वितीय आदेश के अनुसार तप या छेद से अदम्यमान सामायिक की भांति अनुकूल प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल- (वहन करने योग्य न) होने पर अथवा धृतिबल और कायबल भाव-तारा-चन्द्रबल में इस विधि को सम्पन्न किया जाता है। से दुर्बल होने पर एक वर्ष पर्यंत आचार्य-उपाध्याय पद का ० उपस्थापना की कालमर्यादा त्याग करना होता है। आयरिय-उवज्झाए सरमाणे परं चउरायाओ ० पहले उपस्थापना किसकी? दण्डिक दृष्टांत पंचरायाओ कप्पागं भिक्खुं नो उवट्ठावेइ । अत्थियाइं स्थ पिय-पुत्त-खुड्ड-थेरे, खुड्डगथेरे अपावमाणम्मि। से केइ माणणिज्जे कप्पाए, नत्थि से केइ छए वा परि-हारे सिक्खावण पण्णवणा, दिटुंतो दंडिगादीहिं॥ वा। नत्थियाइं स्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए, से संतरा राया रायाणो वा, दोण्णि वि समपत्त दोसु ठाणेसु। छए वा परिहारे वा॥ ईसर सेट्ठि अमच्चे, निगम घडा कुल दुवे चेव॥ आयरिय-उवज्झाए सरमाणे वा असरमाणे वा परं समगं तु अणेगेसू, पत्तेसू अणभिओगमावलिया। दसरायकप्पाओ कप्पागंभिक्खुंनो उवट्ठावे" नत्थियाई एगतो दुहतो व ठिता, समराइणिया जहासण्णा॥ त्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए, संवच्छरं तस्स तप्पत्तियं (निभा ३७६४, ३७६८, ३७७०) नो कप्पइ आयरियत्तं उद्दिसित्तए॥ (व्य ४/१५, १७) पिता और पुत्र-दो व्यक्ति एक साथ प्रव्रजित हुए हैं, एसादेसो पढमो, बितिए तवसा अदम्ममाणम्मि। एक साथ सत्र का अध्ययन किया है तो दोनों को एक साथ उभयबलदुब्बले वा, संवच्छरमादि साहरणं॥ उपस्थापित किया जाता है। (व्यभा २०६०) क्षुल्लक ने सूत्र नहीं सीखा है, स्थविर ने सीख लिया आचार्य या उपाध्याय स्मरण रखते हुए, कल्पाक है, तो उसे उपस्थापित किया जाता है। क्षुल्लक ने सूत्र सीख (उपस्थापना योग्य) भिक्षु को चार या पांच अहोरात्र तक लिया, स्थविर ने सूत्र नहीं सीखा तो उसे प्रयत्नपूर्वक सूत्र उपस्थापित नहीं करते, उस समय यदि नवदीक्षित के कोई सिखाकर दोनों को युगपत् उपस्थापित किया जाता है। पूज्यजन (पिता आदि) भावी कल्पाक हों (उनकी बड़ी स्थविर की स्वीकृति होने पर क्षुल्लक को पहले भी दीक्षा में विलम्ब हो), तो आचार्य को छेद या परिहार तप रूप उपस्थापित किया जा सकता है। स्थविर समय पर सूत्र सीख प्रायश्चित्त नहीं आता। नहीं पाता है और क्षुल्लक के लिए अनुज्ञा भी नहीं देता है तो यदि पूज्यजन भावी कल्पाक न हों, तो (दीक्षा के सात उसे समझाने हेतु दृष्टांत का प्रज्ञापन किया जाता हैदिन बाद आठवीं यावत् बारहवीं रात्रि का उल्लंघन करने ० दण्डिक (राजा) दृष्टांत-एक राजा अपने राज्य से परिभ्रष्ट पर) स्वांतरकृत छेद या परिहार प्राप्त होता है। हो गया। पुत्र भी उसके साथ था। वे दोनों एक अन्य राजा की __ आचार्य-उपाध्याय स्मृति में रहते हुए (नक्षत्र आदि सेवा में नियुक्त हो गए। वह राजा राजपुत्र की सेवा से संतुष्ट प्रशस्त न होने पर) या (व्याक्षेपों के कारण) स्मृति में न रहते हआ और उसे राजा बनाने का निर्णय किया। क्या पिता राजा हुए कल्पाक भिक्षु को दस अहोरात्र के पश्चात् भी (७+१०= उसे अनुमति नहीं देगा? अवश्य देगा। १७ वीं रात्रि पर्यंत) उपस्थापित न करे तथा कोई पूज्य भावी इसी प्रकार तुम्हारा पुत्र यदि महाव्रत-राज्य को प्राप्त कल्पाक भी न हो, तो वे तत्प्रत्ययिक प्रायश्चित्त स्वरूप एक करता है तो क्या तुम इसे मान्य नहीं करोगे? Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा २९८ आगम विषय कोश-२ राजा, युवराज, श्रेष्ठी, मंत्री, वणिक्, गौष्ठिक और संवास-अनुपस्थापित के साथ एकत्र संवास नहीं किया जा महाकुलीन-यदि ये सब दो-दो दीक्षित होते हैं तो सूत्र- सकता। बड़ी दीक्षा के पश्चात् संभोजन और संवास होता है। अध्ययन समान होने पर एक साथ उपस्थापित कर उन्हें ७. चिरदीक्षित कौन? समरात्निक रखा जाता है। उपस्थापना के समय ऐसी समानश्रेणी चिरपव्वडओ तिविहो, जहण्णओमज्झिमो य उक्कोसो। वाले अनेक व्यक्ति हों तो वे सहजरूप से आवलिका में तिवरिस पंचग मज्झो, वीसतिवरिसो य उक्कोसो॥ स्थित होते हैं। उन्हें आचार्य के सामीप्य के क्रम से ज्येष्ठ (बृभा ४०३) अनुज्येष्ठ रखा जाता है। जो आचार्य के दोनों पार्यों में स्थित होते हैं, उन्हें समरानिक रखा जाता है। चिरप्रव्रजित के तीन प्रकार हैं६. उपस्थापना के पश्चात् : दिशादान आदि जघन्य चिरप्रव्रजित - तीन वर्ष का दीक्षित। ..."दविहा तिविहाय दिसा, आयंबिल जस्स वाजंत॥ मध्यम चिरप्रव्रजित - पांच वर्ष का दीक्षित। .."उवद्वावियस्स साधस्स आयरियउवझाया दविहा उत्कृष्ट चिरप्रव्रजित – बीस वर्ष का दीक्षित। दिसा दिज्जति।इत्थियाए तइया-पवत्तिणीदिसा दिज्जति। ८. दीक्षा के अनर्ह कौन? जद्दिवसं उवट्ठावितो तदिवसं केसिं चि अभत्तट्ठो भवति, जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा केसिंचि निव्वितियं, केसिं चि आयंबिलं, केसिं चि न अणुवासगं वा अणलं पव्वावेति, पव्वावेंतं वा किंचि। जस्स वा जं आयरियपरंपरागतं छट्ठट्ठमातियं सातिज्जति ॥..."आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं कारविज्जति। एसा उवट्ठावणा। अणुग्घातियं॥ (नि ११/८५, ९३) संभुंजणा-जतो मंडलिसंभोगट्ठा सत्त आयंबिले ___ अट्ठारस पुरिसेसुं, वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसु। कारविज्जति, णिव्वितए वा जस्स वा जं आयरियस्स पव्वावण अणरिहा, ....॥ परंपरागयं। (निभा ३७५९ चू) बाले वुड्ढे णपुंसे य, जड्डे कीवे व वाहिए। वासो ण कप्पति। तेणे रायावकारी य उम्मत्ते य अदंसणे॥ .."उवट्ठावेउं संभुंजेज्ज संवासेज्ज वा। दासे दुढे य मूढे य, अणत्ते जुंगिए इ य। (निभा ३७६३ की च) उब्बद्धए य भयए, सेहणिप्फेडियाइ य॥ ० दिशादान-उपस्थापित साधु को द्विविध दिशा दी जाती गुव्विणि बालवच्छा य, पव्वावेउं ण कप्पती..." है-आचार्य और उपाध्याय (उसे इनकी निश्रा में रहने का पंडए वातिए कीवे, कुंभी इस्सालुए त्ति य। निर्देश दिया जाता है।) सउणी तक्कम्मसेवी य, पक्खियापक्खिते ति य॥ साध्वी के त्रिविध दिशा का निर्धारण किया जाता सोगंधिए य आसित्ते....... । है-आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तिनी। जिस दिन उपस्थापित किया जाता है, उस दिन किसी (निभा ३५०५-३५०८, ३५६१, ३५६२) के उपवास, किसी के निर्विकृतिक, किसी के आचाम्ल और जो भिक्षु अयोग्य स्वजन या अस्वजन, उपासक या किसी के कुछ नहीं होता। अथवा जिसकी जो आचार्य परम्परा अनुपासक को प्रव्रजित करता है, वह चातुर्मासिक गुरु होती है, उसके अनुसार षष्ठभक्त-अष्टमभक्त (बेला-तेला) प्रायश्चित्त का भागी होता है। आदि कराया जाता है-यह उपस्थापना है। अठारह प्रकार के पुरुष, बीस प्रकार की स्त्रियां ० संभोजन-आहारमंडली में भोजन करने के लिए सात आयंबिल और दस प्रकार के नपुंसक-ये अड़तालीस व्यक्ति दीक्षा या निर्विकृतिक या जो आचार्य परंपरा से प्राप्त है, वह कराया के योग्य नहीं हैं। जाता है। ० अठारह प्रकार के पुरुष-बाल, वृद्ध, नपुंसक, स्थूल, क्लीव, Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ २९९ दीक्षा रोगी, स्तेन, राजा के अपकारी, उन्मत्त, अचक्षु, दास, दुष्ट, अकरणीय से निवृत्त होता है, वह मध्यम बाल है। जघन्य मूढ, ऋणी, मुंगिक, अवबद्ध (शिल्पकार, ग्वाल आदि), बाल वह है, जो हाथ पकड़कर रोकने पर भी नहीं मानता है। भृतक और शैक्षस्तेन (अभिभावक की आज्ञा अप्राप्त)। (वह दायें हाथ से फूल तोड़ रहा है। कोई उसके उस हाथ ०बीस प्रकार की स्त्रियां-बाला, वृद्धा आदि उल्लिखित को पकड़ता है तो वह बाएं हाथ से तोड़ने लगता है)। अठारह प्रकार तथा गर्भवती और बालवत्सा। अथवा पहले को जैसा कहा जाता है, वैसा कर लेता ० दस प्रकार के नपुंसक है। दूसरा रोकने पर रुक जाता है। तीसरा निवारण करने पर १. पंडक-स्त्री स्वभाव वाला। स्त्री, पुरुष-दोनों में आसक्त। भी निवृत्त नहीं होता है। २. वातिक-वायुदोष से स्तब्ध वस्ति वाला। ० न्यून अष्टवर्षीय बालक दीक्षायोग्य नहीं ३. क्लीव-कामेच्छा से विकृत सागारिक वाला। ऊणद्वे णत्थि चरणं, पव्वावेंतो वि भस्सते चरणा। ४. कुंभी-वातदोष से शोथयुक्त वस्ति वाला। मूलावरोहिणी खलु, णारभति वाणितो चेटुं॥ ५. ईर्ष्यालु-प्रतिसेवना करते देख उत्पन्न कामेच्छा वाला। जेण ण भस्सति तं पव्वावेति। (निभा ३५३२ चू) ६. शकुनि-गृहचटक की भांति अभीक्ष्ण प्रतिसेवना प्रसक्त। आठ वर्ष से न्यून वय वाले बालक में चारित्र नहीं ७. तत्कर्मसेवी-निसृष्टबीज को श्वान की भांति चाटने वाला। होता। जो उसे प्रव्रजित करता है, वह भी चारित्र से भ्रष्ट हो ८. पाक्षिकपाक्षिक-एक पक्ष (कृष्ण या शुक्ल) में उत्कट जाता है। लाभार्थी वणिक् मूल पूंजी-नाशक व्यापार नहीं मोहोदय, अपर पक्ष में अल्प मोहोदय। करता। जिससे चारित्रविनाश की संभावना न हो, तो उसे ९. सौगंधिक-सागारिक-गंध को सुगंध मानने वाला। प्रव्रजित किया जा सकता है। १०. आसिक्त-स्त्रीशरीर में अत्यंत आसक्त। ० दीक्षाह की न्यूनतम वय ९. बाल के प्रकार एवं लक्षण तिविहो यहोति बालो, उक्कोसोमझिमो जहण्णो या" कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा खुड्डगं वा सत्तट्ठगमुक्कोसो, छप्पणमझो तु जाव तु जहण्णो। खुड्डियं वा साइरेगट्ठवासजायं उवट्ठावेत्तए वा संभुंजित्तए वा॥ एवं वयणिप्फण्णं, भावो वि वयाणुवत्ती वा॥ (व्य १०/२२) उक्कोसो दट्ठणं, मज्झिमओ ठाति वारितो संतो। ऊणऽट्ठए चरित्तं, न चिट्ठए चालणीय उदगं वा।" जो पुण जहण्णबालो, हत्थे गहितो वि ण वि ठाति॥ काय-वइ-मणोजोगो, हवंति तस्स अणवट्ठिया जम्हा।" जह भणितो तह चिट्ठइ, पढमो बितिएण फेडियं ठाणं। (व्यभा ४६४६, ४६४७) ततितो ण ठाति ठाणे ........ । निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी कुछ अधिक आठ वर्ष वाले (निभा ३५१०-३५१२, ३५१६) बालक या बालिका को उपस्थापित कर सकते हैं (बड़ी दीक्षा बाल के तीन प्रकार हैं दे सकते हैं), उनके साथ एक मण्डली में आहार कर सकते हैं। उत्कृष्ट बाल-सात-आठ वर्ष का बालक। जो बालक आठ वर्ष से कम उम्र वाला होता है, मध्यम बाल-पांच-छह वर्ष का बालक। चालनी में जल की भांति उसमें चारित्र नहीं टिकता। उसके जघन्य बाल-एक से चार वर्ष तक का बालक। मन, वचन और काया के योग चंचल होते हैं। यह वयनिष्पन्न बालत्व है अथवा भाव प्रायः वय का १०. बाल-वृद्ध -दीक्षा के अपवाद अनुवर्तन करते हैं। पव्वाति जिणाखलु, चोहसपुव्वी यजोय अइसेसी उत्कृष्ट बालक वह है, जो गुरु आदि के दृष्टिपात सत्थाए अइमुत्तो, मणओ सेज्जंभवेण पुव्वविदा। मात्र से अकार्य से निवृत्त हो जाता है। जो निषेध करने पर पव्वाविओ य वइरो, छम्मासो सीहगिरिणा वि॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा ३०० आगम विषय कोश-२ सत्थाए पुव्वपिता, चोहसपुव्वीण जंबुनाम पिता। वरिसोवरिं नवमदसमेसुं दिक्खा, आदेसेण वा गब्भट्ठतं मझेणं जणओ, दिक्खिओ रक्खियऽज्जेहिं॥ मस्स दिक्खा जम्मणओ अट्ठमवरिसे। ओहिमणा उवउज्जिय, परोक्खणाणी णिमित्त घेत्तूणं। ___ (निभा ३५४२-३५४६ चू) जति पारगा तो दिक्खा, जुगप्पहाणा व होहिंति॥ जिस काल में जितनी उत्कृष्ट आयु होती है, उसको __ (निभा ३५३५, ३५३६, ३५५६, ३५६०) दस भागों में विभक्त करने पर दस आयु विपाकदशाएं होती तीर्थंकर, चौदहपूर्वी और अतिशयधारी आचार्य बाल हैं। जो प्रतिसमय उदय में आती है, वह आयु है। उसका तथा वृद्ध को भी प्रव्रजित करते हैं। यथा विपाक होता है। प्रतिक्षण आयुष्य की हानि होती है। अनुभागतीर्थंकर श्रमण महावीर ने अतिमुक्तक को तथा युक्त विभाग को दशा कहा जाता है। प्रत्येक दशा दस वर्ष चतुर्दशपूर्वी आचार्य शय्यंभव ने मनक को दीक्षित किया। प्रमाण होने से उनका कुल परिमाण सौ वर्ष है। अतिशयज्ञानी सिंहगिरि ने छहमासिक वज्र को दीक्षित दशाएं दस हैं-बाला, मंदा, क्रीड़ा, प्रबला, प्रज्ञा, हायनी, किया (योग्य जानकर भिक्षापात्र में ग्रहण किया)। प्रपंचा, प्रारभारा, मुन्मुखी, शायनी। (-द्र श्रीआको १ मनुष्य) भगवान् महावीर ने अपने पूर्व पिता ऋषभदत्त ब्राह्मण दशा और दीक्षार्हता-प्रथम बाला दशा में आठ वर्ष से अधिकको, चतुर्दशपूर्वी सुधर्मा ने जम्बू के पिता ऋषभदत्त को तथा नौ-दस वर्षीय बाल दीक्षित किया जा सकता है। नवपूर्वी आर्यरक्षित ने अपने पिता सोमदेव को प्रव्रजित किया। एक आदेश यह भी है-गर्भसहित आठवां वर्ष यानी अवधिज्ञानी आदि अपने प्रत्यक्षज्ञान से तथा परोक्षज्ञानी जन्म से आठवें वर्ष में दीक्षा हो सकती है। निमित्तज्ञान अथवा अतिशय श्रुतज्ञान से जान लेते है कि अमुक ___ (तेरापंथ धर्मसंघ के चतुर्थ आचार्य प्रज्ञापुरुष श्रीमज्ज याचार्य ने वि. सं. १९०८ फाल्गन कृष्णा षष्ठी को साधिक बाल या वृद्ध कालिकश्रुत और पूर्वगतश्रुत के पारगामी होंगे अथवा युग-प्रधान होंगे अथवा श्रमणसंघ के आधारभूत होंगे अष्टवर्षीया बालिका गुलाब को बीदासर में दीक्षित किया, यह जानकर वे बाल और वृद्ध को भी दीक्षित कर सकते है। जिनका जन्म वि. सं. १९०१ कार्तिक के शुक्ल पक्ष में हुआ था। वे आचार्य श्री मघवा की लघु भगिनी थीं। उन्होंने साध्वीप्रमुखा ११. दस दशाएं, दीक्षा-योग्य बाल-वृद्ध पद को अलंकृत किया।-शासन समुद्र भाग ९ पृ. २१) तिविहो य होइ वुड्डो, उक्कोसो मज्झिमो जहण्णोया" मंदा यावत् प्रपंचा-ये छह दशाएं दीक्षाह हैं। सामान्यतः प्राग्भारा, दस आउविवागदसा, अट्टमवरिसाइ दिक्खपढमाए। मृन्मुखी और शायनी दशा में दीक्षा अनुज्ञात नहीं है क्योंकि सेसासु छसु वि दिक्खा, पब्भाराईसु सा ण भवे॥ सत्तर वर्ष से अधिक उम्र वृद्ध अवस्था है। अट्ठमि दस उक्कोसो, मझोणवमीइ जहण्ण दसमीए। चेष्टा, बुद्धि आदि की बहुलता की अपेक्षा से आठवीं जं तुवरिं तं हेट्ठा, भयणा व बलं समासज्ज ॥ ज॥ दशा उत्कृष्ट है, नवमी मध्यम और दसवीं जघन्य है। बाला मंदा किड्डा, पबला पण्णा य हायणी।। अथवा अल्प वृद्धभाव के कारण आठवीं दशा जघन्य, पवंचा पब्भारा या, मुम्मुही सायणी तहा॥ नौवीं मध्यम और दसवीं उत्कृष्ट है। दसवीं से पुनः बचपन केसिं चि एवं वाती, वुड्डो उक्कोसगो उ जा सयरी। प्रारम्भ हो जाता है। अट्ठमदसा वि मझो, नवमीदसमीसु तु जहन्नो॥ बल की अपेक्षा से वृद्धत्व की उत्कृष्टता आदि जंजम्मि काले आउयं उक्कोसं दसधा विभत्तं दस वैकल्पिक है। आठवीं-नौवीं-दशवी दशा में जो भिक्षाटन आउविवागदसा भवंति। प्रतिसमयभोगत्वेन आयातीत्यायुः आदि में अशक्त है, वह जघन्य वृद्ध है, मध्यम बल वाला विपचनं विपाकः, आयुषो परिहाणीत्यर्थः ।अनुभागेन युक्तो मध्यम और उत्कृष्ट बल वाला उत्कृष्ट वृद्ध है। विभागो दशा उच्यते, ततो य दस दसाओ दसवरिस- साठ वर्ष के पश्चात् इन्द्रियबल आदि की प्रबल पमाणातो वरिससयाउसो भवंति... पढमदसाए अटु- हानि होती है, इसलिए कुछ आचार्यों का अभिमत है कि Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ सत्तर वर्ष का उत्कृष्ट वृद्ध है। आठवीं दशा मध्यम और नौवीं दसवीं दशा जघन्य है । ३०१ १२. नपुंसक के प्रव्राजन आदि का निषेध तओ नो कप्पंति पव्वावेत्तए॥ मुंडावेत्तए सिक्खावेत्तए उट्ठावेत्तए संभुंजित्तए संवासित्तए, तं जहा - पंड वाइए कीवे ॥ ( क ४/४, ५ ) नपुंसक, वातिक (तीव्र वात रोगों से पीड़ित) और क्लीव (वीर्यधारण में अशक्त ) - ये तीनों प्रकार के व्यक्ति प्रव्रज्या, मुण्डन, शिक्षण, उपस्थापन, संभोज और संवास के अयोग्य होते हैं। पव्वाविओ सियत्ति उ, सेसं पणगं अणायरणजोग्गो ।" (बृभा ५१९० ) नपुंसक को अनजान में दीक्षा दे दी गई हो तो ज्ञात होने पर मुण्डन आदि पांचों उस के लिए विहित नहीं हैं। • नपुंसक को दीक्षा क्यों नहीं ? थीपुरिसा जह उदयं, धरेंति झाणोववासणियमेणं । एवमपुमं पि उदयं, धरेज्जति को तहिं दोसो ॥ थीपुरिसा पत्तेयं वसंति दोसरहितेसु ठाणेसु । संवासफासदिट्ठे, इय वच्छंब दिट्ठतो ॥ ( निभा ३६०२, ३६०४) शिष्य ने पूछा- ध्यान, उपवास, नियम आदि में उपयुक्त स्त्री और पुरुष के भी जैसे वेद का उदय रहता वैसे ही नपुंसक के वेदोदय रहता है, फिर नपुंसक को प्रव्रजित करने में क्या दोष है ? आचार्य ने कहा- स्त्री और पुरुष प्रव्रजित होकर निर्दोष स्थानों में रहते हैं - स्त्री स्त्रियों (साध्वियों ) के साथ और पुरुष पुरुषों (साधुओं) के साथ। नपुंसक यदि स्त्रियों या पुरुषों के साथ रहता है तो संवास, स्पर्श और दृष्टिजनित दोषों की संभावना रहती है। वत्स-अंब दृष्टांत—जैसे माता को देखकर वत्स के स्तनाभिलाषा होती है, एक व्यक्ति को आम खाते हुए देखकर दूसरे के मुंह में पानी आ जाता है, वैसे ही नपुंसक को देखकर स्त्री और पुरुष के प्रबल वेदोदय हो सकता है। १३. दीक्षा के अनर्ह : जड्डु दीक्षा तिविहो य होइ जड्डो, सरीर-भासाए करणजड्डो उ भासाजड्डो तिविहो, जल मम्मण एलमूओ य ॥ दंसण - नाण- चरित्ते, तवे य समितीसु करणजोगे य । उवदिट्ठे पण गेहति, जलमूओ एलमूओ य ॥ णाणादट्ठा दिखा, भासाजड्डो अपच्चलो तस्स । सो बहिरो विणियमा, गाहणउड्डाह अहिकरणं ॥ तिविहो सरीरजड्डो, पंथे भिक्खे य होति वंदणए । एतेहि कारणेहिं, जड्डुस्स ण दिज्जती दिक्खा ॥ इरियासमिती भासेसणा य आदाणसमितिगुत्तीसु । न वि ठाति चरणकरणे, कम्मुदएणं करणजड्डो ॥ ( निभा ३६२५, ३६२७-३६२९, ३६३३) जड्ड (क्रिया, वचन और बुद्धि से हीन) के तीन प्रकार हैं- शरीरजड्डु, भाषाजड्ड, करणजड्ड । ये तीनों प्रकार के जड्डु दीक्षायोग्य नहीं होते । ० भाषाजड्ड - इसके तीन प्रकार हैं १. जलमूक - जलनिमग्न व्यक्ति की भांति बुडबुड - अव्यक्त भाषण करने वाला । २. मन्मनमूक - बीच-बीच में स्खलित उच्चारण वाला। ३. एडमूक - मेमने की तरह बुडबुडाने वाला । मूक और एडमूक दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, समिति, करण और योग के स्वरूप को समझाने पर भी नहीं समझते । दीक्षा का प्रयोजन है ज्ञान आदि की उपलब्धि । भाषाजड्डु उसे ग्रहण करने में असमर्थ होता है। जलमूक और एडमूक- दोनों नियमत: बधिर होते हैं। उन्हें जोर से बोलकर समझाने पर उड्डाह होता है और वे सम्यक् ग्रहण नहीं कर पाते हैं तो क्रुद्ध होकर अधिकरण करते हैं । अत: उन्हें दीक्षित नहीं करना चाहिए। २. शरीरजड्डु - शरीरभेद के आधार पर नहीं, क्रियाभेद के आधार पर इसके तीन भेद हैं-पंथ, भिक्षा और वंदना । जिनका शरीर स्थूल होता है, उन्हें पदयात्रा, भिक्षाटन और वंदना करने में कठिनाई होती है, अतः वे दीक्षायोग्य नहीं हैं। ३. करणजड्ड - जो ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उत्सर्ग - पांच समिति, मन-वचन-काय गुप्ति और चरण Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा ३०२ आगम विषय कोश-२ (व्रत, श्रमणधर्म आदि)-इन सबका चारित्रावरण कर्म के जिसने राजा के सचित्त-अचित्त-मिश्र (पुत्र, रत्नहार आदि) उदय के कारण सम्यक् अनुशीलन नहीं कर पाता, वह का अपहरण किया हो, कूटलेख लिखे हों या राजपुत्र आदि करणजड्ड है। को वध-बंधन द्वारा व्यथित किया हो। ० भाव-स्तेन : गोविंदार्य आदि उदाहरण ० पंच विध मूढ ....... भावम्मि य नाणतेणोतु॥ मोत्तूण वेदमूढं, आदिल्लाणं तु नत्थि पडिसेहो। गोविंदऽज्जो णाणे, दंसणसत्थट्ठहेतुगट्ठा वा। वुग्गाहणमण्णाणे, कसायमूढा तु पडिकुट्ठा। ........"उदायिवहगातिया चरणे॥ (निभा ३७०२) (निभा ३६५३, ३६५६) द्रव्य, दिशा, क्षेत्र, काल, सादृश्य और अभिनव-मूढ जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र का हरण करने के लिए __ के ये सात प्रकार दीक्षा के योग्य हैं। वेद, व्युद्ग्राह्य, अज्ञान, चारित्र ग्रहण करते हैं, वे भाव स्तेन हैं। कषाय और मत्त-ये पांच प्रकार के मूढ प्रव्रज्या के लिए ज्ञानस्तेन-गोविंद नाम का एक भिक्षु था। एक आचार्य ने उस प्रतिषिद्ध हैं। मूढ के बारह प्रकार हैं। (द्र मूढ) भिक्षु को शास्त्रार्थ में अठारह बार पराजित किया। भिक्षु ने ० जुंगित सोचा-जब तक मैं इनके सिद्धांत का स्वरूप नहीं जानूंगा, तब ....."ण कप्पती तारिसे दिक्खा॥ तक इन्हें जीत नहीं सकूँगा। अतः उसने ज्ञान के आवरण को चउरो य जुंगिया खलु, जाती कम्मे य सिप्प सारीरे। हटाने के लिए उन्हीं आचार्य के पास दीक्षा ली, सामायिक णेक्कारपाणडोंबा, वरुडा वि य जुंगिता जाती। आदि आगमों का अध्ययन करते हुए सम्यक्त्व प्राप्त की। पोसग-संपर-णड-लंख-वाह-सोगरिंग-मच्छिया कम्मे। तत्पश्चात् उसने गुरु को वन्दन कर व्रत देने को कहा। तुम्हें पदकारा य परीसह, रयगा कोसेज्जगा सिप्पे॥ व्रत दे चुका हूं'-गुरु के ऐसा कहने पर उसने अपनी यथास्थिति हत्थे पाए कण्णे, नासा उट्ठे विवज्जिया चेव। बताई, तब गुरु ने व्रत-दीक्षा दी। वामणग-वडभ-खुज्जा, पंगुल-कुंटा य काणा य॥ उसी गोविंदार्य ने एकेन्द्रिय जीवों का अस्तित्व सिद्ध (निभा ३७०६-३७०९) करने वाली 'गोविंदनियुक्ति' की रचना की। पाणा नाम ये ग्रामस्य. बहिराकाशे वसन्ति तेषां दर्शनस्तेन-दर्शनप्रभावक ग्रंथों तथा कर्कटक आदि हेतुओं का गृहाणामभावात्। डोम्बा, येषां गृहाणि सन्ति गीतं च अध्ययन करने के लिए निष्क्रमण करने वाला। गायन्ति। (व्यभा १४४९ की वृ) चारित्रस्तेन-जैसे राजा के वध के लिए उदायिमारक ने प्रव्रज्या जुंगित (जाति आदि से हीन) को दीक्षा नहीं दी जा ली। सकती। उसके चार प्रकार हैं। ० शासक का अपकारी १. जातिजुंगित-जुलाहा, पाण (गांव के बाहर खुले आकाश रण्णो ओरोहातिसु, संबंधे तह य दव्वजायम्मि। में रहने वाले), डोंब, (गायक, जिनके घर होते हैं), वरुड अब्भुट्टितो विणासाय होति रायावकारी तु॥ (चटाई बनाने वाले) आदि जगप्सित जातियां। सच्चित्ते अच्चित्ते, व मीसए कूडलेहवहकरणे। २. कर्मजुंगित-स्त्री-मयूर-कुक्कुट-पोषक, संवर (नाईसमणाण व समणीण व, ण कप्पती तारिसे दिक्खा॥ धोबी अथवा शांबर-जादूगर), नट, लंख (बांस पर चढ़कर (निभा ३६६३, ३६६४) खेल दिखाने वाले), शिकारी, कसाई, मच्छीमार।। श्रमण और श्रमणी वैसे व्यक्ति को दीक्षित नहीं कर ३. शिल्पजुंगित-चर्मकार, नापित, रजक, कौशेयक (रेशमी सकते, जिसने राजा के अंत:पुर आदि से संबंधित कोई अपराध वस्त्र बनाने वाले)। किया हो, जो रत्न आदि द्रव्यों के विनाश के लिए उद्यत हो, ४. शरीरजुंगित-हाथ, पैर, कान, नाक और होठ से रहित, Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ वामन, वडभ (शरीर का आगे या पीछे का भाग उभरा हुआ हो), कुब्ज, पंगु, हाथ से विकल, एकाक्ष आदि । १४. गच्छनिर्गत मुनि के संवेगप्राप्ति के स्थान तिद्वाणे संवेगे, सावेक्खों निवत्त तद्दिवससुद्धो ।" अज्जेव पाडिपुच्छं, को दाहिति संकियस्स मे उभए । दंसणे कं उववूहे, किं थिरकरे कस्स वच्छल्लं ॥ सारेहिति सीदंतं, चरणे सोहिं च काहिती को मे । एव नियत्तऽणुलोमं, काउं उवहिं च तं देंती ॥ (व्यभा ३६५२-३६५४) अविधि से गच्छनिर्गत मुनि के संवेगप्राप्ति के तीन स्थान हैं - ज्ञान, दर्शन और चारित्र । ज्ञान -- वह सोचता है- आज ही सूत्र - अर्थ में शंकित होने पर मुझे कौन समाधान देगा ? दर्शन - मैं किसका उपबृंहण करूंगा, किसे स्थिर करूंगा, किसके प्रति वत्सलता रखूंगा ? चारित्र - चारित्र में श्लथ या विषण्ण होने पर कौन मेरी सारणावारणा करेगा ? प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर कौन मेरी शोधि करेगा? इस चिन्तनत्रिपदी से संवेग प्राप्त कर यदि वह पुनः उसी दिन गच्छ में आ जाता है तो शुद्ध । गच्छ में लौट आने वाले मुनि की अनुलोमना कर उसे उपधि दी जाती है। (तुम धन्य हो कि तुमने आत्मकृत्य को पहचान लिया और पुनः संयम में आरूढ़ हो गए - इस अनुलोमना से संयम में स्थिरीकरण होता है ।) ३०३ * दीक्षा : ग्राह्य दिशा आदि द्र श्रीआको १ सामायिक दृष्टिवाद - विभिन्न दार्शनिकों की दृष्टियों का निरूपण करने वाला, सब नयदृष्टियों से वस्तुसत्य का विमर्श करने वाला आगम । बारहवां अंग । द्र आगम देव - दिव्यशक्ति से सम्पन्न । १. देवों के प्रकार * देवशरीर और लक्षण * 'देवशरीर अचित्त नहीं होता * दिव्यरूप के प्रकार * 'सुखविज्ञप्या आदि देवियां द्र शरीर ब्रह्मचर्य २. देवों की पहचान ० अर्हत्-वचन से कल्याण : रोहिणेय दृष्टांत ३. लवसत्तम देव ४. लोकान्तिक देवों द्वारा संबोध ५. वैश्रवण देव ६. गंधर्वनगर : देवकृत * समवसरण : देवकृत ७. देवों की मनुष्य लोक में आने की प्रक्रिया ८. शक्रेन्द्र - ईशानेन्द्र का प्रभुत्वक्षेत्र * शक्रेन्द्र- ईशानेन्द्र : क्षेत्रावग्रह और अनुज्ञा * शक्रेन्द्र का कालावग्रह ९. अर्धसागरोपम स्थिति वाले देव का सामर्थ्य * प्रश्न 'घण्टिकयक्ष आदि * दैवकिल्विषी आदि भावनाएं १०. व्यंतरदेव : माणिभद्र आदि देव द्र समवसरण द्र अवग्रह द्र मंत्र - विद्या द्र भावना * कुत्रिकापण निर्माण देवाधीन * कुत्रिकापण में व्यंतर - विक्रय द्र कुत्रिकापण ११. कंबल- शबल नागकुमार : महावीर उपसर्गमुक्त * देवसहयोग : महाशिलाकंटक संग्राम १२. देवों द्वारा साधु- वैयावृत्त्य द्र युद्ध * सम्यक्त्वी देव के पास आलोचना * अरुणोपपात'''''देवों की उपस्थिति १३. पूर्वतप से देवायुबंध कैसे ? * देवायुबंध के हेतु * देवभववीर्य * देवदर्शन से चित्तसमाधि द्र आलोचना द्र स्वाध्याय द्र कर्म द्रवीर्य द्र चित्तसमाधिस्थान १. देवों के प्रकार .....भवणवइ-वाणमंतर - जोइसिय-विमाणवासिणो देवा'''''। (आचूला १५/२७) देव चार प्रकार के हैं- भवनपति, वानमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक । * भवनपति आदि देवों का स्वरूप श्रीआको १ देव (जन्म के तीन प्रकार हैं- सम्मूर्च्छन, गर्भ और उपपात । देव उपपातजन्म से उत्पन्न होते हैं। उनके जन्मस्थान को उपपातसभा कहा जाता है। उस सभा में देवशय्या होती है। उस पर एक प्रच्छदपट बिछा होता है। वह शय्या देवदूष्य से Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव ३०४ आगम विषय कोश-२ ढकी हुई होती है। सिद्धसेनगणी के अनुसार प्रच्छदपट के एइ। तस्सेवं बोलमाणस्स कंटकः पादे लग्नो तं जाव ऊपर और देवदूष्य के नीचे इन दोनों के अन्तराल में वर्तमान एगेणं हत्थेणं उद्धरइ ताव तित्थगरो इमंगाहत्थं पण्णवेइवैक्रियवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर देव उत्पन्न होता है। 'अमिलायमल्लदामा......."सुरा जिणो कहति॥' वह प्रच्छदपट और देवदूष्य के पुद्गलों से अपने शरीर का एवं सोउं कंटगं उद्धरित्ता पुणो कण्णे ठवेउं गतो। निर्माण नहीं करता है और न शुक्र और शोणित से अपने शरीर अन्नया रत्तिं चोरो त्ति गहितो"पिट्टिउमाढत्तो भण्णइ य का निर्माण करता है। उसके जन्म का हेतु उपपात सभा के अक्खाहि सव्वं तुमं रोहिणितो न व त्ति। जइ रोहिणितो देवशयनीय क्षेत्र को प्राप्त होना ही है।-भ ३/१७ का भाष्य सिया तो मुयामो। एवं सो नीतिसत्थपविठ्ठाहिं अट्ठारसहिं एक-एक देवनिकाय में दशविध देव होते हैं कारणेहिं एक्केक्कं काउं पुच्छिज्जइ।सो न कहेइ।ताहे १. इन्द्र ६. लोकपाल अट्ठारसमा सुहुमा कारणा करिउमाढत्ता मज्जं पाइतो मत्तो २. सामानिक ७. अनीकाधिपति निच्चेयणो जातो। ताहे देवलोगभवणसरिसंभवणं काउं ३. त्रायस्त्रिंश ८. प्रकीर्णक तत्थ महरिहे सयणिज्जे निवज्जावितो।ततो पडिबोहवेलाए ४. पारिषद्य ९. आभियोग्य इत्थिनाडए निव्वतिज्जमाणे ताहिं भण्णइ-तुमं देवलोगे ५. आत्मरक्ष १०. किल्विषिक उववन्नो।देवलोए य एसो अणुभावो जो "पुव्वभवं सम्म व्यंतर और ज्योतिष्क देवनिकाय में त्रायस्त्रिश तथा अक्खाति सो चिरठिती देवति अत्थति, जो न अक्खाति लोकपाल नहीं होते।-तसू ४/४, ५) सो तक्खणं पडति। तो मा अम्हे अणाहा काहिसि। ततो रोहिणिएण तित्थयरवयणं संभरित्ता चिंतियं २. देवों की पहचान -अपूतिवयणा तित्थगरा"इमं च सव्वं वितहं दीसइ। अमिलायमल्लदामा, अणिमिसनयणा य नीरजसरीरा। तओ कयगं एवं ति भणाइ नाहं रोहिणितो।ततो मुक्को" चउरंगुलेण भूमि, न छिवंति सुरा जिणो कहति॥ अहो एगस्स वि सामिणो वयणस्स केरिसं माहप्पं । अहं (व्यभा १२७८) जीवियसुहआभागी जातो, जइ पुण निग्गंथाण वयणं एक बार राजगृह की परिषद् में श्रमण महावीर ने सुणेमि तो इहलोए परलोए य सुहिओ भवामि त्ति चिंतिकहा ऊण पव्वइतो। (व्यभा १२७७, १२७८ वृ) ० चतुर्निकायभावी देवों के माल्यदाम म्लान नहीं होते। __रोहिणेय को पकड़ने के लिए अभयकुमार ने सूक्ष्म ० वे अनिमिषनयन होते हैं (उनकी पलकें नहीं झपकतीं)। निर्वापणा की-मृदु उपाय से उसके मन की बात जानने का ० उनका शरीर निर्मल कांति वाला होता है। प्रयत्न किया० पैर चार अंगुल ऊपर रहते हैं, भूमि का स्पर्श नहीं करते। राजगह नगर के बाहर वैभारगिरि की गुफा में लोहखरो ० अर्हत्-वचन से कल्याण : रोहिणेय दृष्टांत चोर रहता था। उसकी पत्नी थी रोहिणी, पुत्र था रोहिणेय । पिता ....."सहमं परिनिव्वति ................. ने अंतिम इच्छा प्रकट की-पुत्र! महावीर नाम के व्यक्ति बहुत सूक्ष्मं परिनिर्वापणं.."रोहिणिकचौरस्याभय- प्रभावशाली हैं। वे चोर को अचोर बना देते हैं, अतः तुम न कुमारेण कृतम्।तच्चैवम् - रायगिहं नगरं। तत्थ रोहिणितो उनके पास जाना, न उनकी वाणी सुनना। इस आदेश को चोरो बाहिं दुग्गट्ठितो। सो सयलं नगरं मुसति।न कोइ तं शिरोधार्य कर वह पिता से भी आगे बढ़ गया, राजगृह को घेत्तुंसक्कति।अन्नया वद्धमाणसामी समोसढो।रोहिणितो आतंकित कर दिया। उसके पास गगनगामिनी पादुकाएं थीं और भयवतो धम्मं कहेंतस्स नातिदूरेणं बोलेइ।सो चलमाणो वह रूपपरिवर्तनी विद्या को जानता था। वह नगर में चोरी करता मा तित्थगरवयणं सोउं चोरियं न कहामि त्ति कण्णे ठवेइ किन्तु किसी की पकड़ में नहीं आता। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ एक बार भगवान् महावीर वहां समवसृत हुए। वे प्रवचन कर रहे थे। रोहिणेय चोरी कर उधर से गुजरा। कुछ लोग उसका पीछा कर रहे थे। भगवान् के वचन कानों में न पड़ जाएं, अन्यथा मेरा चौर्यकर्म छूट जाएगा - ऐसा सोच उसने कानों में अंगुलि डाली। पैर में कांटा चुभ गया। उसने कानों से अंगुलियां हटाकर कांटा निकाला। उस समय भगवान् देवता के बारे में चर्चा कर रहे थे- 'देवों के नयन अनिमिष होते हैं, उनके पैर भूमि से चार अंगुल ऊपर रहते हैं - ये शब्द उसके कानों में पड़ गए। वह फिर कानों में अंगुलियां डालकर दौड़ा।' ३०५ एक दिन राजगृह में रात्रि में चोरी करते हुए वह पकड़ा गया किन्तु कोई पहचान नहीं सका कि यह रोहिणेय है या अन्य चोर है। राजपुरुष ने उसकी पिटाई की और पूछा- तुम रोहिणेय हो या नहीं ? यदि रोहिणेय हो, तो तुम्हें छोड़ देते हैं। कूटनीति में सम्मत अठारह प्रकार की कारणा ( यातना ) से उसका परीक्षण किया जाने लगा। सतरह कारण पूर्ण हो जाने पर भी उसने नहीं बताया कि मैं रोहिणेय हूं। तब अठारहवीं सूक्ष्म कारणा- परिनिर्वापणा का प्रयोग किया गया। उसे मद्य पिलाया गया। वह अचेत हो गया, तब उसे देवलोक - भवन सदृश भवन में सुकोमल शय्या पर सुलाया गया। जब वह जागा, सचेत हुआ तो अप्सरातुल्य रमणियों ने पूछा- देव ! आप देवलोक में उत्पन्न हुए हैं। आप पूर्व भव में क्या थे? अपनी बात सहीसही कहेंगे तो यहां चिर काल तक रह सकेंगे अन्यथा तत्काल गिर जाएंगे- - यह यहां की रीति है। अतः आप सही स्थिति बताएं ताकि हम अनाथ न हों। रोहिणेय तीर्थंकर के वचन याद कर सोचने लगा-भगवान् की वाणी यथार्थ होती है। उन्होंने देवों की जो पहचान बताई थी, वह यहां दिखाई नहीं दे रही है- 'इनके नेत्र अनिमिष नहीं हैं, पैर धरती को छू रहे हैं। ये मानवीय युवतियां हैं, अप्सराएं नहीं हैं। यह अभयकुमार की कूटनीति का चक्र है ।' उसने तत्काल उत्तर दिया- मैं रोहिणेय नहीं हूं। वह वहां से मुक्त हो गया । उसके चिंतन की धारा बदली - अहो ! अर्हत् महावीर मात्र एक वचन ने ही मुझे जीवन का सुख दे दिया, यदि मैं देव सम्पूर्ण निर्ग्रथवचन सुनूं तो मेरा इहभव - परभव - दोनों सफल हो जाएं - यह सोचकर वह भगवान् के समवसरण में पहुंचा, प्रवचन सुना और प्रव्रजित हो गया। हिंसा पर अहिंसा की और भय पर अभय की विजय हुई। ३. लवसप्तम देव ........ आउगपरिहीणा, देवा लवसत्तमा जाता ॥ सत्तलवा जदि आउं, पहुप्पमाणं ततो तु सिज्झतो । तत्तियमेत्त न भूतं, तो ते लवसत्तमा जाता ॥ सव्वट्टसिद्धिनामे, उक्कोसठितीय विजयमादीसु । एगावसेसगब्भा, भवंति लवसत्तमा देवा ॥ (व्यभा २४३२ - २४३४ ) कुछ उत्कृष्ट साधु आयुष्य की क्षीणता/अल्पता के कारण सिद्धत्व से वंचित रह जाते हैं और वे लवसप्तम देव बनते हैं। उन्हें लवसप्तम इसलिए कहा जाता है कि यदि उनका आयु सात लव (३४३ श्वासोच्छ्वास/ लगभग ४ मिनिट २१ सैकिण्ड ) अधिक होता, तो वे उसी जन्म में केवली होकर सिद्ध हो जाते । जो देव सर्वार्थसिद्ध नामक महाविमान में उत्पन्न होते हैं और जो विजय, वैजयन्त, जयन्त तथा अपराजित विमानों में उत्कृष्ट स्थिति वाले देव बनते हैं तथा जिनका एक जन्म शेष रहता है (एक भवावतारी/मनुष्य जन्म लेकर मुक्त होने वाले हैं), वे लवसप्तम देव कहलाते हैं। (जैसे कोई निपुण तरुण पुरुष बिखरी हुई परिपक्व शालि आदि धान्य की नाल को इकट्ठा कर, मुट्ठी में पकड़कर सात मुट्ठी धान्य को तीक्ष्ण दात्र से अतिशीघ्र सात लव में काट लेता है, वैसे ही लवसत्तम देवों का यदि सात लव आयु शेष होता, तो वे उसी भव में मुक्त हो जाते। इसलिए उन्हें लवसत्तम कहा जाता है। अनुत्तरोपपातिक देवों के शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श अनुत्तर होते हैं, इसलिए उन्हें अनुत्तरोपपातिक कहा जाता है। एक श्रमण-निर्ग्रथ बेले (दो दिन के उपवास) से जितने कर्मों की निर्जरा करता है, उतने कर्म जिनके अवशेष रहते हैं, वे अनुत्तरोपपतिक देव के रूप में उपपन्न होते हैं । - भ १४/८४-८८ ) Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ आगम विषय कोश-२ ४. लोकान्तिक देवों द्वारा संबोध ....."देवा . लोगंतिया महिड्डीया।.... बोहिंति य तित्थयरं, पण्णरससु कम्मभूमीसु॥ बंभंमि य कप्पम्मि य, बोद्धव्वा कण्हराइणो मझे। लोगंतिया विमाणा, अट्ठसु वुत्था असंखेज्जा॥ एए देवणिकाया, भगवं बोहिंति जिणवरं वीरं। सव्वजगजीवहियं, अरहं तित्थं पव्वत्तेहि॥ (आचूला १५/२६/४-६) महान् ऋद्धि वाले लोकान्तिक देव पन्द्रह कर्मभूमियों में निष्क्रमणाभिमुख तीर्थंकरों को संबोधित करते हैं। ब्रह्मलोक देवलोक के नीचे आठ कृष्णराजियों (काले पुद्गलों की पंक्तियों) के आठ अवकाशान्तरों में असंख्येय योनजकोटाकोटि आयाम वाले आठ लोकान्तिक विमान हैं, उनमें आठ प्रकार के लोकान्तिक देव रहते हैं। उन्होंने अपने जीत-आचार के अनुसार अर्हत् जिनवर भगवान् महावीर को निवेदन किया-भंते ! सारे जगत् के जीवों के हित के लिए तीर्थ का प्रवर्तन करें। ('ये देव लोकांत-ब्रह्मलोक के अंत-समीप रहने के कारण लोकान्तिक कहलाते हैं। ये सब सम्यग्दृष्टि और थोड़े भवों में मोक्ष जाने वाले होते हैं।' लोहित, पीत और शुक्ल वर्ण वाले लोकान्तिक विमानों में आठ लोकान्तिक देव निवास करते हैंविमान लोकान्तिक देव अर्चि सारस्वत अर्चिमाली आदित्य वैरोचन वह्नि प्रभंकर वरुण चन्द्राभ गर्दतोय सूराभ तुषित शुक्लाभ अव्याबाध सुप्रतिष्टाभ आग्नेय मध्य में रिष्टाभ रिष्ट । -भ६/१०६,११०व) ५. वैश्रवण देव ..........."संवच्छरे दिण्णं॥ वेसमणकुंडलधरा......."पण्णरससुकम्मभूमीसु॥ (आचूला १५/२६/३, ४) देवेन्द्र शक्र की आज्ञा से कुंडलधर वैश्रवण लोकपाल पन्द्रह कर्मभूमियों में तीर्थंकर की प्रव्रज्या से पूर्व वर्षीदान में सहयोग करते हैं। (वैश्रवण की प्रेरणा से जुंभक देव स्वर्ण, रत्न आदि की व्यवस्था करते हैं। द्र श्रीआको १ देव सौधर्मावतंसक महाविमान के उत्तर भाग में वैश्रवण का वल्गु नाम का महाविमान है। देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज वैश्रवण की आज्ञा, उपपात, वचन और निर्देश में रहने वाले देव ये हैं-वैश्रवणकायिक, वैश्रवणदेवकायिक, सुपर्णकुमार, सुपर्णकुमारियां, द्वीपकुमार, द्वीपकुमारियां, दिक्कुमार, दिक्कुमारियां, वानमन्तर, वानमन्तरियां। जम्बूद्वीप द्वीप में मेरुपर्वत के दक्षिण भाग में जो ये स्थितियां उत्पन्न होती हैं-लोहे की खान, रांगे की खान, ताम्बे की खान, सीसे की खान, चांदी की खान, सोने की खान, रत्नों की खान, वज्र की खान, वसुधारा, हिरण्यवर्षा, सुवर्णवर्षा.. हिरण्यवृष्टि, सुवर्णवृष्टि, रत्नवृष्टि, वज्रवृष्टि, आभरणवृष्टि, पत्रवृष्टि, पुष्पवृष्टि, फलवृष्टि, बीजवृष्टि माल्यवृष्टि, वर्णवृष्टि, चूर्णवृष्टि, गन्धवृष्टि, वस्त्रवृष्टि, भाजनवृष्टि, क्षीरवृष्टि, सुकाल, दुष्काल, अल्पार्घ्य, महाऱ्या, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, क्रय-विक्रय, सन्निधि, संनिचय, निधि, निधान हैं-वे चिरपुराण अल्पस्वामित्व वाले हों, उनमें धन का न्यास करने वाले कम रहे हो, उन तक पहुंचने के मार्ग कम हों, वहां धन का न्यास करने वालों का गोत्रगृह कम रहा हो, उनका स्वामित्व उच्छिन्न हो गया हो, उनमें धन का न्यास करने वाले उच्छिन्न हो गए हों." विहां जो दुराहे, तिराहे, चौराहे, चोक , चारों ओर प्रवेशद्वार वाले स्थान, राजपथ और वीथियों में, नगर के जलनिर्गमन मार्गों में, श्मशानगृहों, गिरिगृहों, कन्दरागृहों, शांतिगृहों, शैलगृहों, उपस्थानग्रहों और भवनग्रहों में जो निधान निक्षिप्त हैं-वे देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज वैश्रवण और वैश्रवणकायिक देवों से अज्ञात, अदृष्ट, अश्रुत, अस्मृत और अविज्ञात नहीं होतीं।-भ ३/२६६-२६८) Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ ६. गंधर्वनगर : देवकृत गंधव्वनगरनियमा सादिव्वं गन्धर्वनगरं नाम यच्चक्रवर्त्यादिनगरस्योत्पातसूचनाय सन्ध्यासमये तस्य नगरस्योपरि द्वितीयं नगरं प्राकाराट्टालकादिसंस्थितं दृश्यते । (व्यभा ३११८ वृ) चक्रवर्ती आदि के नगर में उत्पात की सूचना के लिए सन्ध्या के समय उस नगर के ऊपर प्राकार, अट्टालक आदि से संस्थित जो दूसरा नगर दिखाई देता वह गन्धर्व नगर है । यह नियमतः देवकृत होता है । ( गंधर्वनगर - आकाश में व्यंतरकृत नगराकारप्रतिबिम्ब । - भ ३ / २५३ की वृ) ७. देवों की मनुष्यलोक में आने की प्रक्रिया तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अभिणिक्खमणाभिप्पायं जाणेत्ता भवणवइ-वाणमंतरजोइसिय-विमाण - वासिणो देवा य देवीओ य सएहिंसहिं रूवेहिं, सएहिं सएहिं णेवत्थेहिं, सएहिं -सएहिं चिंधेहिं, सव्विड्डीए सव्वजुतीए सव्वबलसमुदएणं सयाईसयाइं जाणविमाणाइं दुरुहंति, सयाई-सयाइं जाणविमाणाई दुरुहित्ता अहाबादराइं पोग्गलाई परिसाडेंति, अहाबादराइं पोग्गलाई परिसाडेत्ता अहासुहुमाई पोग्गलाई परियाइंति, अहासुहुमाई योग्गलाई परियाइत्ता उड्ड उप्पयंति, उड्डुं उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए सिग्घाए चवलाए तुरियाए दिव्वाए देवगईए अहेणं ओवयमाणा-ओवयमाणा तिरिएणं असंखेज्जाइं दीवसमुद्दाई वीतिक्कममाणावीक्किममाणा जेणेव जंबुद्दीवे दीवे तेणेव उवागच्छंति ।" (आचूला १५/२७) ..... श्रमण भगवान् महावीर के अभिनिष्क्रमण के निर्णय को जानकर भवनपति, वानमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव-देवियां अपने-अपने रूप, नेपथ्य ( वेश-भूषा), चिह्न, सर्वऋद्धि, सर्वद्युति और सर्व बलसमुदय के साथ अपनेअपने यान- विमानों में आरूढ़ होते हैं, अपने-अपने यानविमानों में आरूढ़ हो यथास्थूल पुद्गलों का परिशाटन (पृथक्करण) करते हैं, यथास्थूल पुद्गलों का परिशाटन कर ३०७ देव यथासूक्ष्म पुद्गलों का परिग्रहण करते हैं, यथासूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण कर ऊर्ध्वगमन ( उड़ान) करते है, ऊर्ध्वगमन कर उस उत्कृष्ट शीघ्र, चपल, त्वरित और दिव्य देवगति से क्रमशः नीचे उतरते हुए तिरछे लोक के असंख्य द्वीप-समुद्रों को लांघकर जहां जम्बूद्वीप नामक द्वीप है, वहां आते है। | ( जब कोई अनेक रूपों का निर्माण करने के लिए अपनी शक्ति का उपयोग करता है, उस समय आत्मा के प्रदेश शरीर से बाहर निकलते है। उस अवस्था में वह नाना रूपों का निर्माण करने वाला वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है। यह वैक्रिय समुद्घात की प्रक्रिया का पहला चरण है। दूसरा चरण है - दण्ड का निर्माण। उसकी लम्बाई संख्येय योजन की होती है। उसकी चौड़ाई और मोटाई शरीरप्रमाण होती है। वह आत्मा के प्रदेश और कर्मपुद्गलों के योग से निर्मित होता है। तीसरा चरण है-रत्नों के असार पुद्गलों का परिशोधन कर सारपुद्गलों को ग्रहण करना। चौथे चरण में वैक्रियकर्त्ता वांछित रूपनिर्माण के लिए फिर दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात का प्रयोग कर उस रूप का निर्माण करता है।'''' रत्नों के पुद्गल औदारिक (स्थूल) हैं, फिर उनका वैक्रिय शरीर के निर्माण में उपयोग कैसे हो सकता है ? वैक्रिय कर्त्ता वैक्रिय रूप निर्माण के समय औदारिक पुद्गलों को ग्रहण करता है । तत्पश्चात् वे वैक्रिय के रूप में परिणत हो जाते हैं । - भ ३/४ का भाष्य वैमानिक आदि देव जब मनुष्यलोक में आते हैं, तब मनुष्यलोक के अनुरूप नए शरीर का निर्माण करते हैं । देवों के दो प्रकार का शरीर होता है- भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । ग्रैवेयक और अनुत्तरविमान के देव उत्तरवैक्रिय नहीं करते. शेष देवों के दोनों प्रकार का शरीर होता है। उनके नए शरीर का निर्माण होता है, वह उस शरीर की अपेक्षा उत्तरवैक्रिय शरीर कहलाता है। देव अपने भवधारणीय शरीर से प्रायः अन्यत्र नहीं जाते। वे उत्तरवैक्रिय शरीर का अपने स्थान में ही निर्माण कर लेते हैं, फिर अन्यत्र जाते हैं। - भ ३ / ११२ का भाष्य तिर्यक्लोक में जाने के लिए जिस पर्वत से उड़ान भरी जाती है, उसे उत्पातपर्वत कहा जाता है। इसकी तुलना वर्तमान की हवाई पट्टी से की जा सकती है। ये संख्या में अनेक हैं। इन उत्पात पर्वतों पर वैक्रिय शरीर का पुनर्निर्माण Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव ३०८ आगम विषय कोश-२ मृग कर देव ऊपर, नीचे या तिरछे लोक में जाने के लिए अपने उत्तरार्धलोक का अधिपति देवेन्द्र ईशान है। वह शलपाणि विमानों के साथ उड़ानें भरते हैं।-भ २/११८ का भाष्य) है, वृषभ उसका वाहन है।-प्रज्ञा २/५०, ५१ ८. शक्रेन्द्र-ईशानेन्द्र का प्रभुत्वक्षेत्र देवराज ईशान को ऐसी दिव्य ऋद्धि कैसे मिलीपुव्वावरायया खलु, सेढी लोगस्स मज्झयारम्मि। इस विषय में पांच प्रश्न पूछे गए हैं-१. क्या दिया? २. जा कणड दहा लोगं. दाहिण तह उत्तरदं च॥ क्या खाया? ३. क्या किया? ४. क्या आचरण किया? ५. साधारण आवलिया, मज्झम्मि अवद्धचंदकप्पाणं। क्या सुना? इन प्रश्नों का उत्तर वृत्तिकार ने दिया है-अशन अद्धं च परक्खित्ते, तेसिं अद्धं च सक्खित्ते॥ आदि दिया, रूखा-सूखा आहार खाया, शुभ ध्यान आदि सेढीइ दाहिणेणं, जा लोगो उड्ड मो सकविमाणा। किया और सामाचारी का आचरण किया। इससे पुण्य का हेट्ठा वि य लोगंतो, खित्तं सोहम्मरायस्स॥ उपार्जन कर मनुष्य देव बनता है। तामलि ने तप तपा और वह ईशानेन्द्र बना, यह किंकिच्चा का निदर्शन है। सुबाहुकुमार (बृभा ६७२-६७४) की ऋद्धि किंदच्चा का निदर्शन है। उसने सुमुख के भव में संपूर्ण लोक के मध्य में मन्दर पर्वत है। उसके ऊपर मुनि को विशुद्ध आहार दिया था। उस दान के कारण उसने श्रेणि (एक प्रादेशिकी आकाश प्रदेश पंक्ति) पूर्व से पश्चिम मनुष्य-आय का निबंध किया।-भ ३/३० का भाष्य तक आयत है, जो लोक को दो भागों में विभक्त करती है वैमानिक देवलोक इन्द्र मुकुट-चिह्न दक्षिणार्ध और उत्तरार्ध । दक्षिणार्ध का स्वामी देवेन्द्र शक्र और सौधर्म शक्रेन्द्र उत्तरार्ध का स्वामी देवेन्द्र ईशान है। ईशान ईशानेन्द्र महिष ___अर्धचन्द्राकार सौधर्म और ईशानकल्प की मध्यमश्रेणि सनत्कुमार सनत्कुमारेन्द्र वराह की पूर्व-पश्चिम दिशा में तेरह प्रस्तटों में आवलिकाप्रविष्ट । माहेन्द्र या पुष्पावकीर्ण जो विमान हैं, उनमें से कुछ पर शक्र का और ब्रह्मलोक ब्रह्मेन्द्र अज कुछ पर ईशान का प्रभुत्व है। जो वृत्ताकार विमान हैं, उन सब लांतक लांतकेन्द्र पर शक्र का और त्रिकोण-चतुष्कोण विमानों में कुछ पर शक्र महाशुक्र महाशुक्रेन्द्र अश्व का तथा कुछ पर ईशान का प्रभुत्व है। सहस्रार सहस्रारेन्द्र (जे दक्खिणेण इंदा, दाहिणओ आवली भवे तेसिं। आनत प्राणतेन्द्र भुजग जे पुण उत्तरइंदा, उत्तरओ आवली तेसिं॥ प्राणत प्राणतेन्द्र पुव्वेण पच्छिमेण य, जे वट्टा ते वि दाहिणल्लस्स। आरण अच्युतेन्द्र तंस चउरंसगा पुण, सामन्ना हंति दोण्हं पि॥ अच्युत अच्युतेन्द्र -देवेन्द्रस्तव गाथा २११, २१३) ग्रैवेयक अहमिन्द्र मध्यश्रेणिगत आधे विमान अपने-अपने कल्प की अनुत्तर अहमिन्द्र बालमृग सीमा में तथा आधे विमान अपर कल्प की सीमा में स्थित हैं सौधर्म और ईशान-इन दो कल्पों में ही देवियां उत्पन्न सौधर्मराज शक्र का श्रेणि की दक्षिण दिशा में तिर्यकलोक ' होती हैं। -प्रज्ञा २/४९-६३ ।। पर्यन्त, ऊर्ध्व दिशा में स्तूप और ध्वजासहित अपने विमानपर्यन्त सौधम-ईशानकल्प के देव कायप्रवीचार (शरीर से तथा अधो दिशा में अधस्तन लोकान्तपर्यन्त प्रभुत्व होता है। विषयसुख भोगने वाले) होते हैं। तीसरे-चौथे कल्प के देव (दक्षिणार्धलोक का अधिपति देवेन्द्र शक्र है। वज्रपाणि, देवियों के स्पर्शमात्र से, पांचवें-छठे के रूपदर्शन से, सातवेंपुरंदर, शतक्रतु, सहस्राक्ष, मघवा, पाकशासन-येशक्र के पर्याय आठवें के शब्दश्रवण से तथा नौवें यावत् बारहवें कल्प के देव वाची नाम हैं। ऐरावण उसका वाहन है। देवी के मानसिक संकल्पमात्र से कामतृप्ति का अनुभव करते माहेन्द्र सिंह दर्दुर भुजग गेंडा गेंडा वृषभ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ हैं। इससे आगे के देव सब प्रकार के प्रवीचार से मुक्त होते हैं। कामवासना की अल्पता के आधार पर उनका चित्तसंक्लेश भी अत्यल्प होता है । अप्रवीचार देव उत्तरोत्तर अधिकाधिक सुख का अनुभव करते हैं। देवियों की पहुंच आठवें स्वर्ग से आगे नहीं है । - तसू ४/८-१० ) ३०९ ९. अर्धसागरोपम स्थिति वाले देव का सामर्थ्य अन्नतरपमादजुत्तं, छलेज्ज अप्पिड्डिओ ण पुण जुत्तं । अद्धोदहिद्विती पुण, छलेज्ज जयणोवउत्तं पि॥ सरागसंजतो सरागत्तणतो इंदियविसयादि अण्णतरे पमादजुत्तो हवेज्ज, विसेसतो महामहेसु तं पमायजुत्तं पडिणीयदेवता अप्पिड्डिया खित्तादि छलणं करेज्ज । जणात्तं पुण साहुं जो अप्पिडितो देवो अद्धोदधीओ इत्ति सो ण सक्केति छलेउं । अद्धसागरोवमठितितो पुण जयणाजुत्तं पिछलेति, अत्थि से सामत्थं, तंपि पुव्ववेरसंबंधसरणतो कोति छलेज्ज । ( निभा ६०६६ चू) सरागसंयत सरागता के कारण इन्द्रियविषय आदि किसी न किसी प्रमाद से युक्त हो सकता है। विशेष रूप से पर्व के दिनों में स्वाध्यायसंलग्न प्रमत्त साधु को अल्प ऋद्धि वाले प्रत्यनीक देव छल सकते हैं, चित्त को विक्षिप्त कर सकते हैं। अर्धसागरोपम से न्यून स्थिति वाला अल्पर्द्धिक देव यतनायुक्त अप्रमत्त साधु को छल नहीं सकता। अर्ध सागरोपम की स्थिति वाले देव में इतना सामर्थ्य होता है कि वह पूर्वबद्ध वैर का स्मरण कर अप्रमत्त मुनि को भी छल सकता है। १०. व्यंतर देव : माणिभद्र आदि कुण्डलमेण्ठनाम्नो वानमन्तरस्य यात्रायां भरुकच्छपरिसरवर्ती भूयान् लोकः संखडिं करोति । (बृभा ३१५० की वृ) कुंडलमेंठ नामक वानमंतर देव की यात्रा में भृगुकच्छ के परिसर में बहुत लोग भोज करते थे । पुणभद्दमाणिभद्दा सव्वाणजक्खा (सव्वजक्खाणं ) । (नि ११/८२ की चू) पूर्णभद्र और माणिभद्र देव यक्ष- व्यंतरों के इन्द्र हैं। देव ( व्यंतर - वानमंतर के सोलह भेद हैं, जिनमें से प्रत्येक के दो-दो इन्द्र हैं— व्यन्तर देव पिशाच भूत यक्ष राक्षस किन्नर किंपुरुष महोरग गन्धर्व अणपन्न पणपन्न ऋषिवादी भूतवादी स्कन्दक महास्कन्दक कूष्माण्डक पतग इन्द्र काल, महाकाल सुरूप, प्रतिरूप पूर्णभद्र, माणिभद्र भीम, महाभीम किन्नर, किंपुरुष सत्पुरुष, महापुरुष अतिकाय, महाकाय गीतरति, गीतयशा सन्निहित सामान्य धाता विधाता ऋषि, ऋषिपालक ईश्वर, महीश्वर सुवत्स, विशाल हास्य, हास्यरति श्वेत, महाश्वेत पतंग, पतगगति -स्था २/३६३-३७८) ११. कंबल-शबल नागकुमार : महावीर उपसर्गमुक्त ....... कंबल - सबला य घाडितिनिमित्तं । अणुसट्टा कालगता, नागकुमारेसु उववण्णा ॥ वीरवरस्स भगवतो, नावारूढस्स कासि उवसग्गं । मिच्छद्दिट्ठि परद्धो, कंबल - सबलेहिं तारिओ भगवं ॥ मथुरायां भण्डीरयक्षयात्रायां कम्बल-शबलौ वृषभौ घाटिकेन - मित्रेण जिनदासस्यानापृच्छया वाहितौ तन्निमित्तं सञ्जातवैराग्यौ श्रावकेणानुशिष्टौ भक्तं प्रत्याख्याय कालगतौ नागकुमारेषूपपन्नौ । वीरवरस्य भगवतो नावारूढस्य सुदाढो नागकुमार उपसर्गमकार्षीत् । (बृभा ५६२७, ५६२८ वृ) मथुरा में जिनदास श्रावक रहता था। कंबल और शबल नाम वाले दो बैल थे । श्रावक प्रासुक चारे से उनका पोषण Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव करता । वह प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को उपवास करता, तो वे भी भूखे रहते। दोनों बैल भद्र और सम्यक्त्वयुक्त थे 1 एक बार भंडीरयक्षयात्रा में जिनदास का मित्र उसे बिना पूछे ही दोनों बैलों को ले गया। उनको खूब दौड़ाया। दोनों बैल परिश्रान्त हो गए। उसने दोनों को लाकर श्रावक के घर बांध दिया। उसी दिन से दोनों ने चारा-पानी छोड़ दिया। अंत में श्रावक ने (दशविध भवनपतिदेवों में दूसरा प्रकार है नागकुमार। प्रज्ञापना और चिह्न प्रतिपादित हैं- भवनपति असुरकुमार नागकुमार सुपर्णकुमार विद्युत्कुमार अग्निकुमार द्वीपकुमार उदधिकुमार दिशाकुमार वायुकुमार स्तनितकुमार इन्द्र चमर, बलि धरण, भूतानन्द वेणुदेव, वेदा हरिकांत, हरिसह अग्निशिख, अग्निमाणव पूर्ण, विशिष्ट १२. देवों द्वारा साधु- वैयावृत्त्य जड़ तत्थ दिसामूढो, हवेज्ज गच्छो सबाल-वुड्डो उ । वणदेवयाऍ ताहे, णियमपगंपं तह करेंति ॥ सम्मद्दिट्ठी देवा, वेयावच्चं करेंति. साहूणं । ..'' (बृभा ३१०८, ३१०९ ) जब अटवी में बाल-वृद्ध सहित सारा गच्छ दिशा भ्रमित हो जाता है, तब मुनि कायोत्सर्ग के द्वारा वन देवता को आकंपित करते हैं । वे आकर उन्हें दिशा बोध करवाते हैं । सम्यग्दृष्टि देव साधु का वैयावृत्त्य करते हैं । भूतार्थनिर्णये तवोत्ति तपस्वी कायोत्सर्गेण देवतामाकम्प्य पृच्छति । (व्यभा १२४३ की वृ) ३१० आगम विषय कोश - २ दोनों बैलों को प्रतिबोध देकर अनशन कराया। फिर उन्हें नमस्कार मंत्र सुनाता रहा। वे मरकर नागकुमार देवयोनि में उत्पन्न हुए। नौका में आरूढ़ भगवान् को सुदाढ नामक मिथ्यादृष्टि नागकुमार देव ने उपसर्ग दिए। उसने संवर्तकवायु की विकुर्वणा नौका को डुबोना चाहा। इतने में कंबल-शबल देव उपस्थित हुए और उन्होंने भगवान् को उपसर्ग से मुक्त किया । ( २/३४, ४०) में भवनपति देवों के दो-दो इन्द्र तथा उनके वर्ण शरीर - वर्ण कृष्ण पांडुर कनक रक्त रक्त रक्त पांडुर कनक जलकान्त, जलप्रभ शिलीन्ध्रपुष्प अश्व श्वेत हस्ती अमितगति, अमितवाहन वेलम्ब, प्रभंजन घोष, महाघोष श्याम संध्याराग मकर कनक श्वेत वर्धमानक तत्त्वार्थभाष्य (४/११) के अनुसार उदधिकुमार का चिह्न मकर और वायुकुमार का चिह्न अश्व है। विद्युत्कुमार, अग्निकुमार और वातकुमार का वर्ण अवदात तथा शेष सबका श्याम वर्ण है ।) वस्त्र-वर्ण रक्त शिलीन्ध्रपुष्प श्वेत नील नील नील मुकुट - चिन्ह चूड़ामणि नागफण गरुड़ वज्र पूर्ण कलश सिंह तपस्वी यथार्थ का निर्णय करने के लिए कायोत्सर्ग के द्वारा देवता को आवर्जित कर उससे पृच्छा करता है । १३. पूर्वतप से देवायुबंध कैसे ? 'उववज्जति केण देवेसु ॥ पुव्वतव-संजमा होंति, रागिणो पच्छिमा अरागस्स । रागो संगो वुत्तो, संगा कम्मं भवे तेणं ॥ यत्र तपः तत्र नियमात् संयमः, यत्र संयमः तत्रापि नियमात् तपः । यथा यत्रात्मा तत्रोपयोगः, यत्रोपयोगस्तत्रात्मा इति । सामाइयं छेदोवद्वावणियं परिहारविसुद्धियं सुहुमसंपरागं च एते पुव्वतवसंजमा । एते णियमा रागिणो भवंति । पश्चिमा तव - संजमा अरागिणो भवंति । तं च अहाख्यातचारित्रं इत्यर्थः । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३११ अहवा अणसणादीया जावसुक्कज्झाणस्स आदिमा है या निष्कारण ही पैदा होता है? इस प्रश्न के समाधान में दो भेया, पुहुत्तवितक्कसवियारं एगत्तवियक्कअवियारं च, चार स्थविरों ने चार उत्तर दिए हैंएते पुव्वतवा'हुमकिरियानियट्टी वोच्छिन्नकिरिय- पूर्व तप, पूर्व संयम, कर्मिता और संगिता-इन चारों में मप्पडिवाई च एते पच्छिमा तवा, अहक्खायचारित्तं एक संगति है। चारों के समवाय से एक उत्तर बनता है। पूर्व पच्छिमसंजमो "एतेहिं पुव्वतवसंजमेहिं देवेहिं उववज्जति । तप का अर्थ है-सराग अवस्था में होने वाला तप और पूर्व सरागित्वात्। (निभा ३३३१, ३३३२ चू) संयम का अर्थ है-सराग अवस्था में होने वाला संयम । इन दो शिष्य ने पूछा-जीव देवगति में किस हेतु से उपपन्न उत्तरों का तात्पर्यार्थ यह है कि वीतराग संयम और वीतराग होता है? आचार्य ने कहा-पूर्व तप-संयम-सामायिक, तप की अवस्था में स्वर्गोत्पत्ति के हेतभूत आयुष्य का बंध छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसंपराय चारित्र रागी। नहीं होता, वह सराग संयम और सराग तप की अवस्था में के तथा पश्चिम तप-संयम-यथाख्यात चारित्र अरागी के होता ___ होता है, छठे, सातवें गुणस्थान में होता है। इसलिए तप और है। जहां तप है, वहां संयम है और जहां संयम है, वहां तप । संयम के साथ 'पूर्व' शब्द को जोड़ा गया है। मुख्यतया है, जैसे-जहां आत्मा है, वहां उपयोग है और जहां उपयोग रपयोग और जहां उपयोग स्वर्गोत्पत्ति के दो हेतु हैं-कर्मिता और संगिता। तप से कर्म है, वहां आत्मा है। की निर्जरा होती है और संयम से कर्म का निरोध होता है। __अथवा पूर्व तप का अर्थ है-निर्जरा के भेद-अनशन ___ इन दोनों से आयुष्य कर्म का बंध नहीं होता। उसके बंध के से लेकर शुक्लध्यान के प्रथम दो भेद-पृथक्त्ववितर्क सविचार दो कारण हैं-कर्म का अस्तित्व और संग (राग) का और एकत्ववितर्क अविचार पर्यंत । पूर्व संयम का अर्थ है अस्तित्व। सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशद्धि और सक्ष्मसंपराय प्रश्न पूछा गया-देव के आयुष्य का बंध किस कर्म चारित्र। इस पूर्व तप-संयम के कारण सरागसंयमी देवलोक के उदय से होता है? उत्तर दिया गया—यह शरीरप्रयोग में उपपन्न होता है। राग और संग एकार्थक हैं। नामकर्म के उदय से होता है। कर्म बंध का मल कारण हैपश्चिम तप है-शुक्लध्यान के अंतिम दो भेद-सूक्ष्म शरीरप्रयोग नामकर्म का उदय। इसके अतिरिक्त देवगति योग्य कर्म बंधने के हेत चार बतलाये गये हैं-१.सराग संयम क्रियाअनिवृत्ति और समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति । पश्चिम संयम है-यथाख्यात चारित्र। पश्चिम तप-संयम वीतराग के होता है, २. संयमासंयम ३. बालतप ४. अकाम निर्जरा। ये चारों इसलिए उससे देवायु का बंध नहीं होता। देवगति के आयुष्य बंध के हेतु हैं। उसके बंध का कारण (कालिकपुत्र नामक स्थविर ने श्रमणोपासकों से कहा (साधकतम साधन या साक्षात् कारण) है-शरीरप्रयोग नामकर्म आर्यो! पूर्वकृत तप से देव देवलोक में उपपन्न होते हैं। महिल का उदय। नामक स्थविर ने कहा-पूर्वकृत संयम से देव देवलोक में आयुष्य का बंध संग या राग के अस्तित्व में ही होता उपपन्न होते हैं। आनन्दरक्षित नामक स्थविर ने कहा-कर्म है; इसलिए वह भी देवत्व-प्राप्ति का एक हेतु बतलाया की सत्ता से देव देवलोक में उपपन्न होते हैं। काश्यप नामक गया है। तात्पर्य की भाषा में निर्जरा के साथ पुण्य का बंध स्थविर ने कहा-आसक्ति के कारण देव देवलोक में उपपन्न होता है, इसलिए संयम और निर्जरा की साधना देवगति का होते हैं। हेतु बनती है। -भ २/१०२ भाष्य) धर्म के दो तत्त्व हैं-संयम और व्यवदान। संयम के द्रव्य-गुण और पर्याय का आश्रय। द्वारा कर्म का निरोध होता है और व्यवदान के द्वारा कर्म की निर्जरा होती है। ये दोनों स्वर्गोत्पत्ति के कारण नहीं हैं, फिर | १. द्रव्यस्कंध और समय-स्थिति कोई जीव स्वर्ग में कैसे उपपन्न होता है ? उसका कोई कारण २. गुरुलघु-अगुरुलघु द्रव्य Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य ० परमाणु भी गुरुलघु ३. निश्चय - व्यवहारनय: गुरु-लघु-अगुरुलघु ४. मूर्त्त-अमूर्त्त द्रव्य : पर्यायों का अल्पबहुत्व * ज्ञान का परिमाण : अगुरुलघु पर्यव ५. जीवादिषट्क का अल्पबहुत्व * द्रव्य के परिणमन : शीत-उष्ण * द्रव्य अवग्रह द्र ज्ञान द्र आहार द्र अवग्रह १. द्रव्यस्कंध और समय-स्थिति दु-पएसओ ति-पसिओ चउ-पंच-छ- सत्त- ट्ठra - दस - पसिओ एवं जावऽणंताणंतपएसितो खंधो ततो परं अण्णो बृहत्तरो भवति सो खंधो दव्वग्गं । एगसमयठितियं दव्वं दुसमयठितियं जाव असंखेज्जसमयठितियं ततो परं अण्णं उक्कोसतरठितिजुत्तं ण भवति परमाणुसु एग-समयादारम्भ जाव असंखकालठिती जातो परमाणुठितीतो परं अण्णो परमाणू उक्कोसतरठितिओ ण भवति । (निभा ५४ की चू) द्रव्य के स्कंध अनेक प्रकार के होते हैं-द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, चार-पांच-छह-सात-आठ-नौ-दस प्रदेशी यावत् अनंतानंतप्रदेशी । अनंतानंतप्रदेशी पुद्गलस्कंध से बृहत्तर अन्य स्कंध नहीं है, अतः यह द्रव्याग्र है । द्रव्य एक समय की स्थिति वाला, दो समय की स्थिति वाला यावत् असंख्य समय की स्थिति वाला होता है। द्रव्य की उत्कृष्टतर स्थिति असंख्य काल से अधिक नहीं होती। इसी प्रकार परमाणुओं में भी एक समय से लेकर उत्कृष्टतर असंख्य काल की स्थिति वाले परमाणु होते हैं। * 'द्रव्य के गुण, पर्याय, प्रकार आदि द्र श्रीआको १ द्रव्य २. गुरुलघु- अगुरुलघु द्रव्य णिच्छयतो सव्वगुरुं, सव्वलहुं वा ण विज्जते दव्वं । ववहारतो तु जुज्जति, बादरखंधेसु णऽण्णेसु ॥ गुरु द्रव्यं यथा— अयस्पिण्डः, लघु यथा— अर्कतूलम् गुरुलघु यथा – वायुः, अगुरुलघु परमाण्वादि । निश्चयतः पुनरेवं द्विविधद्रव्यभावना - परमाण्वादेरारभ्य संख्यातप्रदेशात्मकोऽसंख्यातप्रदेशात्मको यश्चानन्तप्रदेशात्मकः आगम विषय कोश- २ सूक्ष्मस्कन्धः कार्मणप्रभृतिक एते अगुरुलघवः, बादराः स्कन्धा औदारिकवैक्रिया ऽऽहारक- तैजसरूपा गुरुलघवः । (बृभा ६५ वृ) ३१२ निश्चयनय के अनुसार द्रव्य एकान्ततः गुरु अथवा एकान्ततः लघु नहीं होता । व्यवहारनय के अनुसार द्रव्य अर्थात् बादर स्कंध एकान्ततः गुरु अथवा एकान्ततः लघु होता है, जैसे - गुरु —- लोहपिंड । लघु- अर्कतूल। गुरुलघु- वायु । अगुरुलघु — परमाणु आदि । जो सूक्ष्म परिणाम में परिणत हो जाते हैं, वे द्रव्य एकान्ततः गुरु या लघु नहीं होते । निश्चयनय के अनुसार द्रव्य दो प्रकार के हैं— परमाणु से प्रारम्भ कर संख्येय- प्रदेशात्मक, असंख्येय- प्रदेशात्मक अथवा अनन्तप्रदेशात्मक सूक्ष्म स्कन्ध-कार्मण शरीर आदि अगुरुलघु होते हैं तथा औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस-ये बादर स्कंध गुरुलघु होते हैं । (नैरयिक वैक्रिय और तैजस की अपेक्षा से गुरुलघु हैं, जीव और कार्मण की अपेक्षा से अगुरुलघु हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय - न गुरु हैं, न लघु हैं, न गुरुलघु हैं, अगुरुलघु हैं । पुद्गलास्तिकाय गुरुलघु भी है, अगुरुलघु भी है। गुरुलघु द्रव्यों की अपेक्षा से वह गुरुलघु है। अगुरुलघु द्रव्यों की अपेक्षा से वह अगुरुलघु है । समय अगुरुलघु हैं। कर्म अगुरुलघु हैं। कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या न गुरु हैं, न लघु हैं, गुरुलघु भी हैं, अगुरुलघु भी हैं। द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से वे गुरुलघु हैं, भावलेश्या की अपेक्षा से अगुरुलघु हैं । दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, अज्ञान और संज्ञा अगुरुलघु हैं । प्रथम चार शरीर गुरुलघु और कार्मणशरीर अगुरुलघु हैं। मनयोग और वचनयोग अगुरुलघु हैं, काययोग गुरुलघु है। पदार्थ दो प्रकार के होते हैं- भारयुक्त और भारहीन । भार का संबंध स्पर्श से है। वह पुद्गल द्रव्य का एक गुण है । शेष सब द्रव्य भारहीन अगुरुलघु होते हैं । पुद्गल द्रव्य भारयुक्त और भारहीन दोनों प्रकार का होता है। जिनभद्रगणी के अनुसार गुरु, लघु, गुरुलघु और अगुरुलघु- ये चार विकल्प व्यवहारनय के अनुसार होते हैं। निश्चय नय के Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३१३ द्रव्य अनुसार सर्वथा गुरु और सर्वथा लघु कुछ भी नहीं होता। यहां विवक्षित नहीं है। यहां गुरुलघु की नियामक शक्ति के इसमें केवल दो ही विकल्प मान्य हैं -गुरुलघु और रूप में अगुरुलघु विवक्षित है। यह शक्ति स्वयं भारहीन है, अगुरुलघु।..." साथ-साथ गुरुलघु की नियामक भी है। यह शक्ति सिद्ध सामान्य धारणा है-गुरु वस्तु नीचे जाती है और लघु जीवों में पाई जाती है। सिद्ध जीव गुरुलघु नहीं हैं। यह वस्तु ऊपर जाती है। पत्थर नीचे जाता है और धुआं ऊपर जाता निषेध पक्ष है। उसका विधिपक्ष है कि वे अगुरुलघु हैं। यह है। जिनभद्रगणी ने इस प्रश्न की तर्कपूर्ण समीक्षा की है। उनके सिद्धों में पाया जाने वाला अगुरुलघु गुरुलघु का अभाव नहीं मतानुसार गुरुता और लघुता गति के नियामक तत्त्व नहीं हैं। है, किन्तु यह एक विधायक शक्ति है। इसीलिए उसके गति के नियामक तत्त्व हैं-गति-परिणाम और वीर्यपरिणाम। अनन्त पर्यव होते हैं और इसी के द्वारा वे न नीचे आते हैं और इसलिए सर्वथा गुरु और सर्वथा लघु होने का अस्वीकार गति- न इधर-उधर परिभ्रमण करते हैं। यह अगुरुलघु- शक्ति नियम में बाधक नहीं बनता।-भ १/३९८-४१३ भाष्य अणु, सूक्ष्म स्कंन्ध और अमूर्त द्रव्यों में पाई जाती है। संसारी भावत: लोक में अनन्त वर्णपर्यव, अनन्त गन्धपर्यव, जीव में गुरुलघु और अगुरुलघु दोनों पर्यवों का अस्तित्व अनन्त रसपर्यव, अनन्त स्पर्शपर्यव, अनन्त संस्थानपर्यव, अनन्त । होता है। औदारिक आदि शरीरों के कारण गुरुलघु पर्यवों का गुरुलघुपर्यव और अनन्त अगुरुलघुपर्यव हैं। अस्तित्व होता है और कार्मण आदि पुद्गल द्रव्यों की अपेक्षा पर्यव दो प्रकार के होते हैं-स्वभावपर्यव और विभाव- से तथा जीव की अपेक्षा से अगुरुलघु पर्यवों का अस्तित्व पर्यव। जीव और पुद्गल में दोनों प्रकार के पर्यव रहते हैं, शेष होता है। सिद्धजीव अशरीरी होते हैं; इसलिए उनमें केवल द्रव्यों में स्वभाव पर्यव होता है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श- अगुरुलघु पर्यव होते हैं।-भ २/४५ भाष्य) ये पुद्गल के स्वभाव पर्यव हैं। एक परमाणु या स्कंध एक ० परमाणु भी गुरुलघु गुण काले रंग वाला यावत् अनन्त गुण काले रंग वाला हो निश्चयात्तु गुरु-लघवः सर्वे पुद्गलाः, यस्मात् जाता है। इसी प्रकार गंध, रस और स्पर्श में भी स्वाभाविक परमाणोरपि गुरु-लघुभावो विद्यते। कथम्? यदि परिणमन होता रहता है। गुरुलघु पर्यव पुद्गल और पुद्गल तस्यैकान्तेन गुरुभावो न स्यात् ततोऽनन्तपरमाणुयक्त जीव में होता है। इसका संबंध स्पर्श से है। अगुरुलघु समवायेऽपि गुरुत्वं न स्यात्, ततश्चासत्कार्यप्रसंगः, पर्यव एक विशेष गुण या शक्ति है। इस शक्ति से द्रव्य का असत्कार्ये च वैशेषिकादिसिद्धांतप्रसंगः, यस्मादमी द्रव्यत्व बना रहता है। चेतन अचेतन नहीं होता और अचेतन दोषास्तस्मात् परमाणौ गुरुत्वं विद्यते। एवं लघुत्वमपि। चेतन नहीं होता-इस नियम का आधार अगुरुलघु पर्यव ही अगुरुलघवश्च सर्वेऽमूर्तास्तिकायाः। अतो आवेक्खिता है। इसी शक्ति के कारण द्रव्य के गुणों में प्रतिसमय पसिद्धी एतेसिं। षट्स्थानपतित हानि और वृद्धि होती रहती है। इस शक्ति (बृभा ६५ की चू) को सूक्ष्म वाणी से अगोचर, प्रतिक्षण वर्तमान और आगम निश्चयनय के अनुसार सभी पुद्गल गुरु-लघु प्रमाण से स्वीकरणीय बतलाया गया है। अगुरुलघु पर्यव स्वभाव वाले होते हैं अतः परमाणु में भी गुरु और लघु भाव को स्वभाव-पर्याय और अर्थपर्याय भी कहा जाता है। होता है। यह क्यों? यदि परमाणु में गुरुभाव न हो तो अनन्त अगुरुलघु का दूसरा अर्थ है भारहीन। नामकर्म की एक परमाणुओं के समवाय में भी गुरुत्व नहीं होगा। इस स्थिति में प्रकृति का नाम भी अगुरुलघु नाम कर्म है। उसका संबंध असत्कार्यवाद, वैशेषिक आदि मतों का प्रसंग भी आएगा, जो भी भारहीनता से है। सदोष है, अतः परमाणु में गुरुत्व और लघुत्व भी है। सभी अनादि पारिणामिक अगरुलघ शक्ति प्रत्येक द्रव्य में अमूर्त अस्तिकाय अगुरुलघु होते हैं। अत: यह सारा आपेक्षिक होती है। वह यहां विवक्षित नहीं है। अगरुलघ नाम कर्म भी प्ररूपण है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य ३१४ आगम विषय कोश-२ ३. निश्चय-व्यवहार नय : गुरु-लघु-अगुरुलघु जो ऊर्ध्वगति में ले जाते हैं, वे लघु तथा जो मनुष्यगति गुरुयं लहुयं मीसं, पडिसेहो चेव उभयपक्खे वि। तिर्यञ्चगति में ले जाते हैं, वे गुरुलघु हैं। तत्थ पुण पढमबिइया, पया उ सव्वत्थ पडिसिद्धा॥ ४. मूर्त-अमूर्त द्रव्य : गुरुलघु-अगुरुलघु पर्यव जा तेयगं सरीरं, गुरुलहु दव्वाणि कायजोगो य। इय पोग्गलकायम्मी, सव्वत्थोवा उ गुरुलहू दव्वा। मण-भासा अगुरुलहू, अरूविदव्वा य सव्वे वि॥ उभयपडिसेहिया पुण, अणंतकप्पा बहुवियप्पा॥ अहवा बायरबोंदी, कलेवरा गुरुलहू भवे सव्वे। ते गुरुलहुपज्जाया, पण्णाछेदेण वोकसित्ताणं। सुहुमाणंतपदेसा, अगुरुलहू जाव परमाणू॥ जा बायरो जहण्णो, अणंतहाणीए हायंता॥ ववहारनयं पप्प उ, गुरुया लहुया य मीसगा चेव। __ (बृभा ६७, ६८) लेढुग पदीव मारुय, एवं जीवाण कम्माई॥ पुद्गलास्तिकाय में गुरुलघु द्रव्य सबसे थोड़े हैं और __(बृभा २६८५-२६८८) अगुरुलघु द्रव्य के अनन्त भेद हैं। गुरुलघु द्रव्यों में भी बहुत व्यवहारनय के अनुसार द्रव्य के चार प्रकार हैं-गुरु, विकल्प हैं। लघु, गुरुलघु, अगुरुलघु। निश्चयनय के अनुसार कोई भी द्रव्य द्रव्य के गुरुलघुपर्यायों से अगुरुलघुपर्यायों का एकान्ततः गुरु अथवा एकान्ततः लघु नहीं होता। अत: वस्तु की प्रज्ञाच्छेदन-बुद्धि विकल्पित पृथक्करण करने पर जघन्य परिभाषा यह होगी-जगत् में जो बादर वस्तु है, वह सब बादर स्कंध के गुरुलघु पर्याय सर्वस्तोक होते हैं-उत्कृष्ट गुरुलघु है और शेष सारा अगुरुलघु है। बादर स्कंध की अपेक्षा अनंतगुणहानि से हीयमान होते हैं, निश्चयनय की अपेक्षा से औदारिक, वैक्रिय, आहारक। अगुरुलघुपर्याय क्रमश: अनंतगुणवृद्धि से प्रवर्धमान होते हैं। और तैजस शरीर के पुद्गल द्रव्य तथा इन शरीरों से संबंधित * बादर-सूक्ष्म स्कंध : अनंत वर्गणाएं द्र श्रीआको १ वर्गणा काय योग-ये सब गुरुलघु होते हैं। मन, भाषा, श्वासोच्छ्वास और कार्मण वर्गणा के प्रायोग्य द्रव्य तथा इनके अन्तरालवर्ती केण हवेज्ज विरोहो, अगुरुलहूपज्जवाण उ अमुत्ते। द्रव्य अगुरुलघु होते हैं। अच्चंतमसंजोगो, जहियं पुण तव्विवक्खस्स॥ धर्म, अधर्म, आकाश और जीव-ये अरूपी द्रव्य भी एवं तु अणंतेहिं, अगुरुलहुपज्जवेहिं संजुत्तं । अगुरुलघु होते हैं। होड़ अमत्तं दव्वं, अरूविकायाण उ चउण्हं॥ ___ बादरनामकर्मोदयवर्ती जीवों के शरीर तथा बादर परिणत (बृभा ६९, ७०) पृथ्वी, पहाड़, इन्द्रधनुष आदि सारे पदार्थ गुरुलघु हैं। ___ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्ती जीवों के शरीर तथा सूक्ष्मपरिणाम- जीवास्तिकाय-इन अमूर्त द्रव्यों में गुरुलघु पर्यायों का अत्यन्त परिणत अनन्त प्रदेशी स्कन्ध यावत् परमाणु पुद्गल अगुरुलघु असंयोग है, किन्तु उनमें अगुरुलघु पर्यायों का कौन विनाश होते हैं। कर सकता है? इनका प्रतिप्रदेश सदैव अनन्त अगुरुलघु __ व्यवहारनय की अपेक्षा से द्रव्य के तीन प्रकार हैं- पर्यायों वाला है। ऐसा होने पर चारों अरूपी अस्तिकायों का १. गुरु-ऊपर फेंकने पर भी जिसका स्वभाव नीचे जाने का अमूर्त द्रव्य अनन्त अगुरुलघु पर्यवों से संयुक्त होता है। होता है, जैसे-लेष्टु आदि। ५. जीवादिषट्क का अल्पबहुत्व २. लघु-ऊर्ध्वगति स्वभाव वाले पदार्थ, जैसे दीपकलिका। ""जीवादिछक्कए पुण, बहुयग्गं पज्जवा होंति॥ ३. गुरुलघु-तिर्यग् गति स्वभाव वाले पदार्थ, जैसे वायु। जीवा पोग्गलसमया, दव्वपएसा य पज्जवा चेव। इसी प्रकार जीवों के कर्म तीन प्रकार के हैं-गुरु, लघु, थोवाणंताणंता, विसेसहिया दुवेणंता॥ अगुरुलघु। जो कर्म जीव को अधोगति में ले जाते हैं, वे गुरु, (निभा ५५, ५६) Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३१५ ध्यान जीव, पुद्गल, समय, द्रव्य, प्रदेश और पर्याय-यह कायिकं नाम यत् कायव्यापारेण व्याक्षेपान्तरं एक षट्क है। इस षट्क में जीव सबसे अल्प हैं। पुद्गल परिहरन्नुपयुक्तो भंगकचारणिकां करोति, कूर्मवद्वा संलीजीवों से अनंतगुना अधिक हैं। समय पुद्गलों से अनंतगुना नांगोपांगस्तिष्ठति। वाचिकं तु मयेदृशी निरवद्या भाषा हैं। द्रव्य समयों से विशेषाधिक हैं। प्रदेश द्रव्यों से अनंतगुना भाषितव्या, नेदृशी सावद्या इति विमर्शपुरस्सरं यद् भाषते, हैं। पर्याय प्रदेशों से अनंतगुना हैं। यद्वा विकथादिव्युदासेन श्रुतपरावर्तनादिकमुपयुक्तः करोति धारणा-निर्णयात्मक ज्ञान की अविच्युति । मतिज्ञान तद्द्वाचिकम्।मानसं त्वेकस्मिन् वस्तुनि चित्तस्यैकाग्रता। __ (बृभा १६४२ वृ) का एक भेद। द्र गणिसम्पदा ध्यान के तीन प्रकार हैंधारणा व्यवहार-आचार्य के द्वारा प्रायश्चित्त आदि १. कायिक ध्यान-अन्य व्याक्षेपों का परिहार करते हुए एकाग्रता के लिए प्रयुक्त विधि को याद रखकर वैसी परिस्थिति से कायिक व्यापार (अंगुलि आदि) द्वारा विकल्प रचना करना। में उस विधि का प्रयोग करना। द्र व्यवहार अथवा कछुए की भांति अंग-उपांगों को निश्चल रखना। ध्यान-चित्त की एकाग्रता। योगनिरोध। २. वाचिक ध्यान-मुझे इस प्रकार निरवद्य भाषा ही बोलनी चाहिए, सावध भाषा नहीं-इस प्रकार विमर्शपूर्वक बोलना १. ध्यान क्या है? अथवा विकथा आदि से रहित श्रुतपरावर्तन में उपयुक्त होना। २. ध्यान के प्रकार : कायिक आदि ३. मानसिक ध्यान-आलम्बनभूत वस्तु में चित्त की स्थिरता। __ * कायोत्सर्ग : कौन-सा ध्यान द्र कायोत्सर्ग ___ जिस प्रकार सिंह की गति तीन प्रकार की होती है-मंद, ३. महाप्राणध्यान का काल प्लुत और द्रुत, वैसे ही त्रिविध ध्यान के तीन-तीन प्रकार हैं० महापान की व्युत्पत्ति * महाप्राणध्यान से विशिष्ट उपलब्धि द्र आचार्य मृदु (मंद), मध्य और तीव्र। * एकरात्रिकी अनिमेष-प्रेक्षा द्र भिक्षुप्रतिमा ३. महाप्राण ध्यान का काल * जिनकल्पी में ध्यान द्र जिनकल्प बारसवासा भरधाधिवस्स, छच्चेव वासुदेवाणं । ४. ध्यान और चिन्ता में अन्तर तिण्णि य मंडलियस्सा, छम्मासा पागयजणस्स॥ ० ध्यानान्तरिका (व्यभा २७०१) ० ध्यानकोष्ठक महाप्राणध्यान की साधना का उत्कृष्ट काल बारह | ५. चंचलता का हेतु : मोह का उदय वर्ष का है। भरतक्षेत्र के अधिपति (चक्रवर्ती) ऐसा कर १. ध्यान क्या है? सकते हैं। वासुदेव-बलदेव के वह काल छह वर्ष का, .."अज्झवसाओ उ दढो, झाणं असुभो सुभो वा वि॥ मांडलिक राजाओं के तीन वर्ष का और सामान्य लोगों के (बृभा १६४०) छह मास का होता है। दृढ़ (निश्चल) अध्यवसाय ध्यान है। वह शुभ और । और महापान की व्युत्पत्ति अशुभ दोनों प्रकार का होता है। इय पुव्वगताधीते, बाहु सनामेव तं मिणे पच्छा। * ध्यान के चार प्रकार आदि द्र श्रीआको १ ध्यान पियति त्ति व अत्थपदे, मिणति त्ति व दो वि अविरुद्धा॥ २. ध्यान के प्रकार : कायिक आदि पिबति अर्थपदानि यत्रस्थितस्तत्पानं, महच्च तत्पानं कायादि तिहिक्किक्कं, चित्तं तिव्व मउयं च मझंच। च महापानम्। (व्यभा २७०३ वृ) जह सीहस्स गतीओ, मंदा य पुता दुया चेव॥ जिस ध्यान में पूर्वगत श्रुत के अर्थपदों का पान/ज्ञान/मनन Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान ३१६ आगम विषय कोश-२ किया जाता है, वह महापान है। पिबति और मिनोति-दोनों किस मार्ग से जाना चाहिए। दोनों मार्गों के मध्य जो विमर्श धातुपद एकार्थक हैं। का क्षण है, उसके तुल्य ध्यानान्तरिका है। ___ आचार्य भद्रबाहु ने चौदह पूर्वो का अध्ययन कर ० ध्यानकोष्ठक महापान-महाप्राण ध्यान की साधना की थी। ___.."भगवओ महावीरस्स"झाणकोट्ठोवगयस्स, ___ (चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु ने नेपाल देश में महाप्राण सुक्कज्झाणंतरियाए वट्टमाणस्स"केवलवरणाणदंसणे ध्यान की साधना की थी। जब महाप्राण ध्यान सम्पन्न हो समुप्पण्णे॥ (आचूला १५/३८) जाता है, उस अवस्था में प्रयोजन उत्पन्न होने पर अंतर्मुहूर्त में चौदह पूर्वो की अनुप्रेक्षा की जा सकती है। उनका अनुलोम ध्यानकोष्ठ में लीन शुक्लध्यानांतरिका में वर्तमान विलोम पद्धति अथवा पूर्वानपर्वी-पश्चानपर्वी से परावर्तन भगवान् महावीर को केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुए। किया जा सकता है।- श्रीआको १ आगम पूर्व) ('ध्यानकोष्ठक' पद एकाग्रता का सूचक है। कोठे ४. ध्यान और चिन्ता में अन्तर में डाला हुआ अनाज इधर-उधर नहीं बिखरता, वैसे ही एकाग्रता की साधना के द्वारा इन्द्रियां, मन और वृत्तियां इधरझाणं नियमा चिंता, चिंता भइया उ तीसु ठाणेसु। । उधर नहीं दौड़तीं, किन्तु एक ध्येय पर ही स्थिर हो जाती झाणे तदंतरम्मि उ, तव्विवरीया व जा काइ॥ हैं।कोष्ठ का तात्पर्य है ध्येय। जब ध्यान अपने ध्येय में (बृभा १६४१) लीन हो जाता है, उस अवस्था में चित्त की 'ध्यानकोष्ठ' ध्यान नियमतः चिन्ता है। चिन्ता के तीन स्थान अवस्था का निर्माण होता है। पतञ्जलि ने इसे 'देशबन्ध' विकल्पित हैं या प्रत्ययैकतानता' कहा है। १. ध्यान में दृढ अध्यवसाय रूप चिन्ता होती है। 'कोष्ठ' का एक अर्थ आन्तरिक अंग या अवयव २. ध्यानान्तरिका में जो चिन्तन किया जाता है, वह चिन्ता है। है। इस आधार पर ध्यानकोष्ठ का अर्थ-ध्यान के लिए ३. ध्यान या ध्यानान्तरिका के अतिरिक्त चित्तचेष्टा भी चिन्ता उपयक्त शरीरवर्ती चैतन्यकेन्द्र नाभि, कण्ठ, हृदय आदि किया जा सकता है। व्यासभाष्य में 'देशबन्ध' के लिए दृढ़ अध्यवसाय रूप ध्यान में जो चिन्तन किया जाता बाह्यदेश का गौणरूप में और शरीर के अंगों का मुख्य है. वहां ध्यान और चिन्ता में अभेद है। अन्यत्र ध्यान और रूप में निर्देश मिलता है। भ१/९ का भाष्य) चिन्ता में भेद है। ५. चंचलता का हेतु : मोह का उदय ० ध्यानान्तरिका परिणामाणवत्थाणं सति मोहे उ देहिणं। अन्नतरझाणऽतीतो, बिइयं झाणं तु सो असंपत्तो। तस्सेव उ अभावेणं जायते एगभावया॥ झाणंतरम्मि वट्टइ, बिपहे व विकुंचियमईओ॥ जधाऽवचिज्जते मोहो, सुद्धलेसस्स झाइणो। (बृभा १६४३) तहेव परिणामो वि, विसुद्धो परिवडते॥ ध्याता द्रव्य आदि किसी भी वस्तुविषयक एक ध्यान जधा य कम्मिणो कम्म, मोहणिज्जं उदिज्जति। को सम्पन्न कर जब तक दूसरा ध्यान प्रारम्भ नहीं करता है तधेव संकिलिट्ठो से, परिणामो विवढती॥ और यह विमर्श करता है कि अब मुझे कौन सा ध्यान करना __ (व्यभा २७५९-२७६१) है-यह ध्यानान्तर–दो ध्यानों के बीच का समय ही ध्यानान्तरिका मोह के कारण प्राणियों के मन:परिणाम चंचल होते है। जैसे पथ से गुजरते हुए व्यक्ति के सामने जब दो मार्गों हैं। मोह के अभाव में मन:परिणामों की एकरूपता/ एकाग्रता वाला पथ आ जाता है, तब वह विमर्श करता है कि मुझे होती है। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ शुद्ध लेश्या वाले ध्याता (धर्मध्यानी-शुक्लध्यानी) का मोह जैसे-जैसे क्षीण होता है, वैसे-वैसे उसके परिणामों विशुद्धि बढ़ती है। जैसे-जैसे अशुभलेश्यी ध्याता (आर्त्त - रौद्रध्यानी) के मोहनीय कर्म का उदय होता है, वैसे-वैसे उसके संक्लिष्ट परिणामों में वृद्धि होती है। निदान - पौद्गलिक सुखसमृद्धि की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला संकल्प अथवा कोई भी आकांक्षात्मक संकल्प | १. निदान का अर्थ ० निदान के पर्याय २. कामभोगों का निदान और फलश्रुति ३. देवभोग का निदान ...... ४. सहज दिव्यभोगों का निदान ....... ५. श्रमणोपासक होने का निदान ....... ६. दरिद्रकुलोत्पत्ति का निदान O दरिद्रता का निदान : रत्नविक्रय दृष्टांत * निदान : मोक्षमार्ग का परिमंथ ७. निदान : कर्मबंध का हेतु ८. श्रमण की आजाति का हेतु : निदान * श्रमण और देवायुबंध ९. अनिदानता सर्वत्र श्रेयस्करी ३१७ द्र परिमंथ द्र देव १. निदान का अर्थ निदानकरणं - देवेन्द्र - चक्रवर्त्यादिविभूतिप्रार्थनं सम्यग्दर्शनादिरूपस्य परिमन्धुः, आर्त्तध्यानचतुर्थभेदरूपत्वात् । (क ६/१९ की वृ) देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि के वैभव की आशंसा करना निदान है। यह सम्यग्दर्शन आदि का विघ्न है। निदानकरण आर्त्तध्यान का चौथा भेद है । (द्र श्रीआको १ ध्यान) ० निदान के पर्याय ...... संदाण निदाणं ति य, पव्वो त्ति य होंति एगट्ठा ॥ एगट्टिया - संताणंति वा निदाणंति वा बंधोति वा । (दशानि १३७ चू) निदान तणियाणं तिय, आसंसजोगो य होंति एगट्ठा।" (बृभा ६३४७) संदान, निदान, पर्व (ग्रंथि), बंध, आशंसायोग - ये निदान के पर्यायवाची नाम हैं। २. कामभोगों का निदान और फलश्रुति .....जइ इमस्स सुचरियस्स तव-नियम- बंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अत्थि, तं अहमवि आगमिस्साई इमाई एयारूवाइं ओरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरामि निदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइयप्पडिक्कंते कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति । से णं ताओ देवलोगातो "चयं चइत्ता से जे इमे भवंति उग्गपुत्त । तस्स णिदाणस्स इमेतारूवे पावए फलविवागे जं णो संचाएति केवलिपण्णत्तं धम्मं पडिसुणेत्तए । (दशा १०/२४) मानुषिक भोगसामग्री में लुब्ध होकर कोई तपस्वी यह संकल्प करता है-यदि मेरे द्वारा आचीर्ण इस तप-नियम और ब्रह्मचर्यवास का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी अगले जन्म में औदारिक मानुषिक भोगों का उपभोग करूं । ऐसा निदान कर वह उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना कालमास में कालधर्म को प्राप्तकर किसी देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होता है। वहां से च्यवन कर उग्र, भोज आदि कुलों में उत्पन्न होता है। उस निदान के पापकारी फलस्वरूप वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म को नहीं सुन सकता। ( मुनि तपस्या से पूजा पाने की अभिलाषा न करे । शब्दों और रूपों में आसक्त न हो और सभी कामों-इन्द्रियविषयों की लालसा को त्यागे । परं लोकाधिकं धाम, तपः श्रुतमिति द्वयम् । तदेवार्थित्वनिर्लुप्तसारं वायते ॥ लोक में दो उत्तम स्थान हैं-तप और श्रुत। ये दो ही श्रेष्ठ स्थान की प्राप्ति के हैं। यदि इनसे पौद्गलिक सुख की आकांक्षा की जाती है तो ये तृण के टुकड़े की भांति निस्सार हो जाते हैं । - सू१/७/२७ वृ) Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निदान ३१८ आगम विषय कोश-२ ३. देवीभोग का निदान निदाणस्स इमेतारूवे पावए फलविवागे, जंणो संचाएति ...'जति इमस्स सुचरियस्स तव-नियमबंभ- सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं चेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अत्थि तं अहमवि पव्वइत्तए। (दशा १०/३१) आगमेस्साई इमाइं एतारूवाइं दिव्वाइं भोग-भोगाई मनुष्यसंबंधी कामभोग अध्रुव हैं, दिव्य कामभोग भुंजमाणे विहरामि। तस्स निदाणस्स इमेतारूवे पावए भी अध्रुव हैं। इसलिए कोई तपस्वी श्रमणोपासक को देखकर फलविवागे, जं णो संचाएति केवलिपण्णत्तं धम्मं यह संकल्प करता है-यदि मेरे द्वारा आचीर्ण इस तपसद्दहित्तए"। (दशा १०/२८) नियम-ब्रह्मचर्यवास का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो ___ कोई तपस्वी देवी परिचारणा से आकृष्ट हो यह संकल्प मैं भी अगले जन्म में श्रमणोपासक बनूं। करता है-यदि मेरे द्वारा आचीर्ण इस सुचरित तप-नियम उस निदान का पापकारी परिणाम यह होता है कि वह अगले जन्म में सर्वतः सर्वात्मना मण्ड होकर अगार से अनगारता ब्रह्मचर्यवास का कल्याणकारी सुफल हो तो मैं भी अगले जन्म में इस प्रकार के दिव्य भोगों का परिभोग करूं। में प्रव्रजित नहीं हो सकता। उस निदान का पापकारी परिणाम यह होता है कि ६. दरिद्रकुलोत्पत्ति का निदान वह व्यक्ति अगले जन्म में केवलि-प्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा नहीं जइ इमस्स सुचरियस्स तव-नियम-बंभचेरवासस्स कर सकता। कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अस्थि, तं अहमवि आगमेस्साणं ४. सहज दिव्यभोगों का निदान..... जाइं इमाइं अंतकुलाणि वा पंतकुलाणि वा "एतेसि णं जइ इमस्स सुचरियस्स तव-नियम-बंभचेरवासस्स अण्णतरंसि कुलंसि पुमत्ताए पच्चाइस्सामि। एस मे आता कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अस्थि, तं अहमवि आगमेस्साई परियाए सुणीहडे भविस्सति। तस्स निदाणस्स इमेतारूवे इमाई एतारूवाइं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरामि। पावए फलविवागे, जंणो संचाएति तेणेव भवग्गहणेणं ..." तस्स निदाणस्स इमेतारूवे पावए फलविवागे जंणो सिज्झित्तए जाव सव्वदुक्खाणमंतं करित्तए।(दशा १०/३२) संचाएति सील-व्वत-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण- कोई तपस्वी किसी दरिद्र कुल में उत्पन्न धार्मिक पोसहोववासाइं पडिवज्जित्तए। (दशा १०/३०) को देखकर निदान करता है-यदि मेरे द्वारा सुचरित इस कोई तपस्वी दिव्य कामभोगों को देखकर यह संकल्प तप-नियम-ब्रह्मचर्यवास का कल्याणकारी फल हो तो मैं करता है कि यदि मेरे द्वारा सुचरित इस तप-नियम-ब्रह्मचर्यवास भी अगले जन्म में अंत-प्रांत कुलों में पुरुष रूप में उत्पन्न का कल्याणदायी फल हो तो मैं भी भविष्य में इस प्रकार के होऊं, जिससे मैं आसानी से मुनि बन सकू। दिव्य कामभोगों का भोग करता हुआ विहरण करूं। इस निदान के पापकारी फलविपाक के कारण वह उस निदान का पापकारी परिणाम यह होता है कि अगले जन्म में प्रव्रजित होकर भी सिद्ध नहीं हो सकता वह आगमी मनुष्य भव में शीलव्रत-गुण-विरमण-प्रत्याख्यान यावत् सब दुःखों का अंत नहीं कर सकता। और पौषधोपवास स्वीकार नहीं कर सकता। ० दरिद्रता का निदान : रत्नविक्रय दृष्टांत ५. श्रमणोपासक होने का निदान.... एवं सुनीहरो मे, होहिति अप्प त्ति तं परिहरंति। ..माणुस्सगा कामभोगा अधुवा""दिव्वावि खलु । हंदि! हु णेच्छंति भवं, भववोच्छित्तिं विमग्गंता॥ कामभोगा अधुवा“जइ इमस्स सुचरियस्स तव-नियम जो रयणमणग्घेयं, विक्किज्जऽप्येण तत्थ किं साहू। बंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अस्थि, तं दुग्गयभवमिच्छंते, एसो च्चिय होति दिद्रुतो॥ अहमवि आगमेस्साणं समणोवासए भविस्सामि"तस्स (बृभा ६३४४, ६३४५) Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३१९ निदान (भोगों के लिए किया गया निदान तीव्र विपाकी होता तित्थगर-गुरु-साहूसु, भत्तिमं हत्थ-पायसंलीणो। है, वह अकरणीय है, लेकिन मैं राजकुल में उत्पन्न न होकर पंचसमिओ कलह-झंझ-पिसुण-ओहाणविरओ य॥ दरिद्र कुल में उत्पन्न होऊं, जिससे भोगों में अनासक्त रहकर पाएण एरिसो सिज्झइ त्ति कोइ पुण आगमेस्साए। प्रव्रज्या को स्वीकार कर सकू। ऐसे निदान में क्या दोष है ?) केण हु दोसेण पुणो, पावइ समणो वि आयाई॥ गरु ने शिष्य को समाधान देते हए कहा-दरिद्र कुल जाणि भणियाणि सुत्ते, तहागएसुं नव य निदाणाणि में उत्पन्न होने से मेरी आत्मा असंयम से सुगमता से निकल (दशानि १३३-१३७) जाएगी-ऐसा जो निदान है, साधु उसका भी परिहार करते हैं एकांत रूप से असंयत का मोक्ष नहीं होता, निश्चित क्योंकि निदान से भववृद्धि होती है। प्रव्रज्या का सारा प्रयत्न ही उसकी आजाति (जन्म) होती है। किस विशेषता से भव-व्यवच्छित्ति के लिए होता है। मुनि भव-व्यवच्छित्ति के श्रमण अनाजाति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होता है? उपायों की मार्गणा करता है। वह भव-प्राप्ति की इच्छा नहीं ___जो श्रमण मूलगुणों और उत्तरगुणों का अप्रतिसेवी होता करता। है, उनका नाश नहीं करता, इहलोक के प्रति प्रतिबद्ध नहीं कोई व्यक्ति इन्द्रनील, मरकत आदि अमूल्य रत्नों को। होता, सदा निर्दोष भक्त-पान, उपधि और विविक्त शयनअल्पमूल्य में बेच देता है, क्या यह शोभनीय है ? जो दरिद्रकुल आसन का सेवन करता है, प्रयत्नवान-अप्रमत्त होता है, में उत्पन्न होने का निदान करता है, वह अमूल्य चारित्ररत्न को तीर्थंकर, गुरु और साधुओं के प्रति भक्तिमान होता है, हस्तबेचकर दरिद्रकुल रूपी काच के टुकड़े को प्राप्त करता है। पाद से प्रतिसंलीन, पांच समितियों से समित, कलह, झंझा ६. निदान : कर्मबंध का हेतु और पैशुन्य से विरत तथा अवधावनविरत-स्थिर संयमवाला संगं अणिच्छमाणो, इह-परलोए य मुच्चति अवस्सं। होता है, वह प्रायः उसी भव में सिद्ध हो जाता है। कोई-कोई एसेव तस्स संगो, आसंसति तुच्छतं जं तु॥ श्रमण भविष्यत काल में सिद्ध होता है। किस दोष के कारण बंधो त्ति णियाणं ति य, आससजोगो य होंति एगट्ठा। श्रमण आजाति को प्राप्त होता है ? ते पुण ण बोहिहेऊ, बंधावचया भवे बोही॥ तथागत-तीर्थंकर ने दशाश्रुतस्कंध (दशा १०/२४-३२) (बृभा ६३४६, ६३४७) में जो नौ निदानस्थान बतलाए हैं, उनका सेवन करने वाला जो ऐहिक-पारलौकिक संग की इच्छा (भोगाशंसा) श्रमण-श्रमणीवर्ग आजाति को प्राप्त होता है। नहीं करता, वह अवश्य मुक्त हो जाता है। नेच्छंति भवं समणा, सो पुण तेसिं भवो इमेहिं तु। जो मोक्षदायी महान तप के द्वारा (प्रतिदान में) तुच्छ पुव्वतवसंजमेहिं, कम्मं तं चावि स फल की आशंसा करता है, यही उसका संग (मुक्ति पद का पूर्व...... सरागावस्थाभाविना तपसा साधवो प्रतिपक्षभूत अभिष्वंग) है। देवलोकेषूत्पद्यन्ते "पूर्वसंयमेन–सरागेण सामायिकादिबंध, निदान और आशंसायोग-ये पर्यायवाची नाम हैं। चारित्रेण साधूनां देवत्वं भवति। पूर्वतपःसंयमावस्थायां ये बोधि-ज्ञान-दर्शन-चारित्र की प्राप्ति के हेतु नहीं हैं। हि देवायुर्देवगतिप्रभृतिकं कर्म बध्यते ततो भवति अनिदानता आदि गुण कर्मबंध के अपचय के हेतु हैं। उनसे देवेषूपपातः। तदापि कर्म 'संगेन' संज्वलनक्रोधादिबोधिलाभ होता है। रूपेण बध्यते। (बृभा ६३४८ वृ) ८. श्रमण की आजाति का हेतु : निदान साधु भवभ्रमण नहीं चाहते. फिर वे देवलोकों में कामं असंजतस्सा, नस्थि हु मोक्खे धुवमेव आजाई। उत्पन्न कैसे होते हैं ? उनका भव इन कारणों से होता हैकेण विसेसेण पुणो, पावइ समणो अणायाइं॥ पूर्वतप-संयम-सरागअवस्था में आचरित तप और सामायिक मूलगुण-उत्तरगुणे, अप्पडिसेवी इहं अपडिबद्धो। आदि चारित्र के कारण साधु देव होते हैं। (वीतरागअवस्था भत्तोवहि-सयणासणविवित्तसेवी सया पयओ॥ से पहले होने के कारण सरागअवस्था पूर्व अवस्था है।) Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्रंथ ३२० आगम विषय कोश-२ पूर्वतप-संयम की अवस्था में ही देवाय. देवगति जे वि अ न सव्वगंथेहिँ निग्गया होंति केड निग्गंथा। आदि कर्मों का बंध होता है, उससे देवों में उपपात होता ते वि य निग्गहपरमा, हवंति तेसिं खउजुत्ता। है। उस कर्मबंध का हेतु है संग-संज्वलन क्रोध आदि। कलुसफलेण न जुज्जइ, किं चित्तं तत्थ जं विगयरागो। * पूर्व तप से देवायुबंध कैसे ? संते वि जो कसाए, निगिण्हई सो वि तत्तुल्लो॥ द्र देव जइ अभितरमुक्का, बाहिरगंथेण मुक्कया किह णु। ९. अनिदानता सर्वत्र श्रेयस्करी गिण्हंता उवगरणं, जम्हा अममत्तया तेसु॥ ..."सव्वत्थ भगवया अनियाणया पसत्था॥ (बृभा ८३२, ८३६-८३८) (क ६/१९) निग्रंथ वे हैं, जो सपाप बाह्य और आभ्यन्तर ग्रंथ से भगवान् ने अनिदानता को सर्वत्र प्रशस्त कहा है। मुक्त हैं। जो आभ्यन्तर ग्रंथ से सर्वथा मुक्त नहीं हैं, किन्तु अनियाणं निव्वाणं, काऊणमुवट्ठितो भवे लहुओ। क्रोध आदि दोषों को जानते हैं और उन पर विजय पाने का पावति धुवमायातिं, तम्हा अणियाणया सेया॥ । प्रयत्न करते हैं, वे भी निग्रंथ हैं। इह-परलोगनिमित्तं, अवि तित्थकरत्तचरिमदेहत्तं । सर्वग्रंथ से मुक्त न होने पर भी कुछ निग्रंथ कर्मक्षय (उदयनिरोध और उदयप्राप्त के विफलीकरण) के लिए उद्यत सव्वत्थेसु भगवता, अणिदाणत्तं पसत्थं तु॥ तथा निग्रहप्रधान होते हैं, वे निग्रंथ कहलाते हैं। (बृभा ६३३३, ६३३४) वीतराग कषायमुक्त होते हैं अतः कषायफल (परुष अनिदानता से निर्वाण होता है। निदान करके जो पुनः भाषण, नयनविकार, मुखविकार आदि) के साथ उनका कोई निदान नहीं करने का संकल्प स्वीकार करता है, उसे भी । संबंध न हो तो उसमें क्या आश्चर्य ? कषाय विद्यमान होने मासलघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। जो निदान करता है, वह पर भी जो उसके निग्रह का प्रयास करते हैं, वे सरागसंयत यद्यपि उसी भव में सिद्धि गति को प्राप्त करना चाहता है. भी निर्ग्रन्थ हैं, वीतरागतुल्य हैं। फिर भी वह अवश्य पुनर्जन्म को प्राप्त करता है। इसलिए निर्ग्रन्थ आभ्यन्तर ग्रन्थ से मुक्त होते हैं पर वे भी अनिदानता ही श्रेयस्करी है। वस्त्र आदि उपकरण रखते हैं । ऐसी स्थिति में वे बाह्य ग्रन्थ इहलोक संबंधी चक्रवर्ती आदि के भोगों के निदान से मुक्त कैसे? इसका हेतु देते हुए आचार्य कहते हैं-वस्त्र तथा परलोक संबंधी इन्द्र, सामानिक आदि महर्द्धिक देवों के आदि के प्रति अमूर्छा ही निर्ग्रन्थता का मूल है। भोगों के निदान का तो प्रतिषेध है ही, भवांतर में तीर्थंकरत्व ..."इरियासमिए से णिग्गंथे.... मणं परिजाणाइ से यक्त चरम देह की प्राप्ति की आशंसा का भी निषेध है। णिगंथे. जे यमणे अपावर ति....जे वडं परिजाणड से अर्हतों ने अभिष्वंगविषयक सब प्रयोजनों में अनिदानत्व को णिग्गंथे, जा य वई अपावियत्ति....."आयाणभंडप्रशस्त कहा है। मत्तणिक्खेवणासमिए से णिग्गंथे "आलोइयपाण(सनिदान के चारित्र नहीं होता, क्योंकि निदान के गोगोई क्याक निदान क भोयणभोई से णिग्गंथे अणुवीइ-भासी से णिग्गंथे. साथ हिंसा की अनुमोदना जुड़ी हुई है। निदानकृत कर्म कोहं परिजाणइ से निग्गंथे लोभं परिजाणइ से णिग्गंथे. अवश्य उदय में आता है।- श्रीआको १ निदान) भयं परिजाणइ से णिग्गंथे हासं परिजाणइ से णिग्गंथे । निग्रंथ-कर्मोपादान के हेतुभूत ग्रंथों-बाह्याभ्यन्तर (आचूला १५/४४-४८,५१-५५) आकर्षणों-आसक्तियों से मुक्त। ० निग्रंथ वह है, जो ईर्यासमित है। सावजेण विमक्का, सभितर-बाहिरेण गंथेण। ० मनपरिज्ञा से सम्पन्न-निष्पाप मन वाला है। निग्गहपरमा य विद, तेणेव य होंति निग्गंथा॥ ० वचनपरिज्ञा से सम्पन्न-निष्पाप निरवद्य वचन बोलने वाला है। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३२१ नौका नौका-जलयान। जलसंतरण का साधन। ० विवेकपूर्वक वस्त्र-पात्र आदि को लेता और रखता है। ० आलोकित पानभोजनभोजी है। ० अनुवीचिभाषी-विचारपूर्वक बोलता है। ० क्रोधपरिज्ञा-क्रोधप्रत्याख्यान करता है। ० लोभपरिज्ञा-लोभप्रत्याख्यान करता है। ० भयपरिज्ञा-भयप्रत्याख्यान करता है। ० हास्यपरिज्ञा-हास्यप्रत्याख्यान करता है। जैन श्रमण को निग्रंथ कहा जाता है।-द्र श्रमण १. जलसंतरण के साधन : सामुद्रिक नौका आदि २. जलसंतरण के मार्ग : संक्रम, संघट्ट आदि ३. अन्य मार्ग के अभाव में जलमार्ग-गमन ४. मुनि की नौका-विहार-विधि ___ * महावीर और नौकाविहार ५. महानदी-संतरण की सीमा द्र देव निर्जरा-तप के द्वारा कर्मविलय से होने वाली आत्मा की उज्ज्वलता। इसके बारह भेद हैं। द्र तप निर्यापक-अनशनकर्ता की समाधि में योगभूत मुनि। द्र अनशन निशीथ-छेदसूत्रवर्ग का एक ग्रंथ, जिसमें प्रायश्चित्त का विधान और प्रायश्चित्त देने की प्रक्रिया निर्दिष्ट है। द्र छेदसूत्र निषद्या-अभिशय्या, स्वाध्याय भूमि। द्र स्वाध्याय नैरयिक-नरकगति में रहने वाले, स्वकृत प्रकृष्ट पापजन्य दुःखों का वेदन करने वाले जीव। नैरयिक सुख का वेदन भी करते हैं ।(द्र सम्यक्त्व) * नरकायुबंध के हेतु द्र कर्म * नैरयिक की आयुस्थिति द्र श्रीआको १ नरक नैषधिका-निषद्या, बैठकर किए जाने वाले आसन। द्र कायक्लेश १. जलसंतरण के साधन : सामुद्रिक नौका आदि णावातारिम चतुरो, एग समुइंमि तिण्णि य जलंमि। ओयाणे उजाणे, तिरिच्छसंपातिमे चेव॥ .कुंभे दतिए तुंबे, उडुपे पण्णी य एमेव॥ (निभा १८३, १८५) नौका के चार प्रकार हैं१. सामुद्रिक नौका-यथा-तेयालगपत्तन (वेरावल) से द्वारवती जाने वाली। समुद्रगामिनी के अतिरिक्त अन्यत्र जलयानी के तीन प्रकार हैं२. अवयानी-अनुस्रोतगामिनी नौका। ३. उद्यानी-प्रतिस्रोतगामिनी नौका। ४. तिर्यक् सम्पातिम-एक कूल से दूसरे कूल तक सीधी जाने वाली तिर्यक्संतारिणी नौका। उदक-संतरण के पांच अन्य साधन भी हैं० कुम्भ-चतु:काष्ठी के कोनों में घड़े बांधकर, उनका अवलम्बन लेकर जलसंतरण करना। ० दृति-वायु से भरी हुई मशक से तैरना। • तुम्ब-जाल में तुंबे भरकर उन पर आरूढ़ हो संतरण करना। ० उडुप-कोटिंब (लकड़ियों को बांधकर बनाई हुई नौका) से संतरण करना। .पर्णी-पर्ण या पर्णलताओं को यमल रूप में बांधकर उनके सहारे संतरण करना। णावाए""ऊर्द्ध कसणं उक्कसणं समुद्दवातेणं। (आचूला ३/१७ की चू) समुद्री वायु के कारण नौका का उत्कर्षण किया जाता है-उसे ऊपर की ओर खींचा जाता है। नषेधिकी-सूत्रार्थ-प्रायोग्य स्थान, जहां स्वाध्याय- द्र व्यातारक्त शष सब प्रवृत्तिया का निषष होता है। द्र स्वाध्याय दशविध सामाचारी का एक भेद, मुनि द्वारा कार्य से निवृत्त होकर आने पर 'निसीहिया' नैषेधिकी-मैं निवृत्त हो चुका हूं, ऐसा कहना। द्र सामाचारी Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौका (वायु के चार प्रकार हैं - १. पुरोवात - पूर्वी वायु । २. पश्चाद्वात – पश्चिमी वायु । ३. मन्दवात - मन्दगति से चलने वाली वायु । ४. महावात - तेज चलने वाली वायु । द्वीपों और समुद्रों में चारों प्रकार की वायु होती है । किन्तु उन दोनों में एक साथ एक प्रकार की वायु नहीं चलती । द्वीप में यदि मंदवात चलता है तो समुद्र में महावात चलेगा । द्वीप में यदि महावात चलता है तो समुद्र में मंदवात चलेगा। इस विपरीत गति के कारण ही लवण समुद्र वेला का अतिक्रमण नहीं करता । - भ५/३१, ३६-३९) २. जलसंतरण के मार्ग : संक्रम, संघट्ट आदि संकम थले य णोथल.... ॥...... एगंगिय चल थिर पारिसाडि सालंबवज्जिए सभए । पडिपक्खेसु य गमणं, तज्जातियरे व संडेवा॥ नदिकोप्पर वरणेण व, थलमुदयं णोथलं तु तं चउहा । उवलजल वालुगजलं, सुद्धमही पंकमुदगं च ॥ लत्तगपहे य खुलए, तहऽद्धजंघाएँ जाणुउवरिं च । वे य लेववरिं, 11 (बृभा ५६४०, ५६४२-५६४४) जंघद्धा संघट्टो, णाभी लेवो परेण लेवुवरिं ।'' (निभा १९५ ) नदीसमुत्तरण के तीन पथ हैं१. संक्रम - एक या अनेक फलक आदि से निर्मित सेतु । अनेकांगिक, चल, परिशाटि, निरालम्ब और भययुक्त संक्रम पथ से नहीं जाना चाहिये। जो संक्रम एकांगिक, स्थिर, अपरिशाटि, सालम्ब और भयमुक्त हो, उसी से नदी आदि को पार करना चाहिये । संक्रम का ही एक भेद है० संडेवक - इसके दो भेद हैं- तज्जात ( वहीं प्राप्त व्यवस्थित निक्षिप्त शिला आदि) और अतज्जात (अन्य स्थान से लाकर स्थापित की गई ईंटें आदि) । २. स्थल -‍ - नदीकूर्पर या वरण से जल का परिहार करते हुए गमन करना । आकुण्ठित कूर्पर के आकार का वलन कूर्पर तथा जल पर कपाट डालकर किया गया पालिबंध वरण कहलाता है। - ३२२ ३. नोस्थल - इसके चार प्रकार हैं ० उपलजल - नीचे पत्थर, ऊपर जल । वालुकाजल - नीचे बालू, ऊपर जल । शुद्धोदक - नीचे शुद्ध पृथ्वी, ऊपर जल । पंकोदक-नीचे कर्दम, ऊपर जल । पंकोदक के अनेक प्रकार हैं • लत्तक पथ - जितनी मात्रा में अलत्तक से पैर रंगा जाता है, पथ में उतना मात्र कर्दम । • खुलकमात्र - पैर के टखने प्रमाण जल । ० जंघार्ध / संघट्ट- अर्ध जंघाप्रमाण जल । ० जानूपरि — जानुमात्र जल । ० लेप - नाभिप्रमाण जल । लेपोपरि- नाभि से ऊर्ध्ववर्ती जल । पूर्वं स्थलेन गन्तव्यम्, तदभावे संक्रमेण, तदभावे नोस्थलेनापि । (बृभा ५६४६ की वृ) ० ० ० आगम विषय कोश - २ पहले स्थलमार्ग (तीव्र वेगवती नदी, भयंकर जलजंतु आदि अपायों से रहित पथ) से, उसके अभाव में संक्रम से और संक्रम के अभाव में नोस्थल से भी जाया जा सकता है। ३. अन्य मार्ग के अभाव में जलमार्ग गमन ....... जत्थ अचित्ता पुढवी । जोणिपरित्त थिरेहिं ॥ ..अक्कंत-थिरसरीरे, णिरच्चएहिं तु गंतव्वं ॥ तेऊ - वाउ विहूणा, ********* ..... ........ आउक्काए णियमा वणस्सती अत्थि तम्हा तेण मा गच्छतु । वणस्सतिणा गच्छतु । तत्थ वि परित्तजोणिएण थिरसंघयण" । "तेउ वाउसु गमणस्सासंभवो।'' वणस्सतितसेसु विपुव्वं तसेसु थिरादिसु गंतव्वं, जतो वणे विणियमा तसा अस्थि । ...पुढवि-आउ-वणस्सति-तसेसु चउक्कसंभवे कतरेण गंतव्वं ? पुव्वं अचित्तपुढवीए, तओ विरलतसेसु, तओ सचित्तपुढवीए, तओ वणस्सतिणा, तओ आउणा । ( निभा ४२४० - ४२४२ चू) मुनि को जहां अचित्त पृथ्वी हो, उसी पथ से जाना चाहिये। दो मार्ग हों - जलमार्ग और वनस्पति मार्ग । जलमार्ग Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३२३ नौका से नहीं जाना चाहिये, क्योंकि जल में वनस्पति नियमत: ...."परो सहसा बलसा बाहाहिं गहाय णावाओ होती है। अत: वनस्पति मार्ग से जाना चाहिये। उसमें भी उदगंसि पक्खिवेज्जा, तं णो सुमणे सिया, णो दुम्मणे प्रत्येक वनस्पति पथ से जाए, साधारण वनस्पति से नहीं। सिया, णो उच्चावयं मणं णियच्छेज्जा, णो तेसिं प्रत्येक वनस्पति का अपेक्षाकृत स्थिर संहनन होता है। बालाणं घाताए वहाए समुद्रुज्जा"॥ दो मार्ग हों-जलजीवयुक्त पथ और त्रसजीवयुक्त उदगंसि पवमाणे णो हत्थेण हत्थं, पाएण पायं, पथ । जलपथ से नहीं, साकुल पथ से जाए। पहले स्थिरशरीरी काएण कायं आसाएज्जा"|| जीवयुक्त, क्षुण्ण और निर्बाध पथ से जाए। ."णो उम्मग्ग-णिमग्गियं करेज्जा। मामेयं उदगं अग्निपथ और वायुपथ पर गमन असंभव है। कण्णेसु वा, अच्छीसु वा. णक्कंसि वा, मुहंसि वा दो पथ हों-वनस्पति और त्रस। त्रस स्थिरसंहननी परियावज्जेज्जा, तओ संजयामेव उदगंसि पवेज्जा। होते हैं, अतः विरल त्रसपथ से जाए, क्योंकि वनस्पति में (आचूला ३/१४-१६, २६-२८) नियमतः त्रस होते हैं। चार पथ हों-पृथ्वी, जल, वनस्पति और त्रस. तो किस पथ से जाए? इनका क्रम इस प्रकार है-पहले __ वह भिक्षु अथवा भिक्षुणी एक गांव से दूसरे गांव अचित्त पृथ्वी, फिर विरल त्रसमार्ग, फिर वनस्पति-ये सब न परिव्रजन करे, बीच में नौका से तैरने जितना जल (जलमार्ग) हों तो जलमार्ग से जाए। आ जाये। वह भिक्षु नौका को जाने-कोई गृहस्थ भिक्षु के ४ मुनि की नौका-विहार-विधि उद्देश्य से नौका को खरीदता है, उधार लेता है, नौका से नौका से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्ज का परिवर्तन करता है, स्थल से नौका को जल में अवगाहित करता है, जल में से नौका को स्थल की ओर खींचता है, जल माणे अंतरा से णावासंतारिमे उदए सिया। सेज्जं पुण णावं जाणेज्जा-अस्संजए भिक्खु-पडियाए किणेज वा, में भरी हुई नौका को खाली करता है, जल में निमग्न नौका को पामिच्चेज्ज वा, णावाए वा णाव-परिणाम कट्ट थलाओवा ऊपर उठाता है (बाहर निकालता है)। इस प्रकार की ऊर्ध्वगामिनी, अधोगामिनी अथवा तिर्यगगामिनी नौका, जो उत्कृष्ट णावं जलंसि ओगाहेज्जा, जलाओ वा णावं थलंसि उक्कसेज्जा, पुण्णं वा णावं उस्सिचेज्जा, सण्णं वाणावं एक योजन अथवा अर्धयोजन की सीमा में चलती है, पार जाने उप्पीलावेज्जा। तहप्पगारंणावं उड्वगामिणिं वा, अहेगा के लिए उस नौका में एक बार या बार-बार न बैठे। मिणिं वा, तिरियगामिणिं वा, परं जोयणमेराए अद्ध (यदि नौका से पार जाना हो तो)वह सर्वप्रथम तिर्यगजायणमेराए वा अप्पतरो वा भुज्जतरो वा णो दरुहेज्ज गाामना नौका को जाने, जानकर गृहस्थ से उसकी आज्ञा लेकर गमणाए। एकांत में चला जाये, भाण्ड-उपकरणों की प्रतिलेखना करे. ..पुवामेव तिरिच्छ-संपातिम णावं जाणेज्जा, उपकरणों को इकट्ठा करे (बांध ले), सिर से पैर तक शरीर जाणेत्ता सेत्तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा"भंडगं पडिले- का प्रमार्जन करे, प्रमार्जन कर साकार भक्तप्रत्याख्यान हेज्जा,"""एगाभोयं भंडगं करेज्जा..."ससीसोवरियं कायं (सविकल्प अनशन) करे, प्रत्याख्यान कर एक पैर जल में पाए य पमज्जेज्जा, पमज्जेत्ता सागारं भत्तं पच्चक्खा- कर, एक पैर स्थल में रखे, संयमपूर्वक नौका में चढ़े। एत्ता एगं पायं जले किच्चा, एगं पायं थले किच्चा, तओ न नौका के अग्रभाग में बैठे, न नौका के पृष्ठभाग में संजयामेवणावं दुरुहेज्जा॥ बैठे, न नौका के मध्य भाग में बैठे, भुजाओं से (नौका के ___ णो णावाए पुरओ दुरुहेज्जा, णो णावाए मग्गओ छोर को) पकड़-पकड़कर, अंगुलि से संकेत कर, नीचे दुरुहेज्जा, णो णावाए मज्झतो दुरुहेज्जा, णो बाहाओ झुक-झुककर, ऊपर उठ-उठकर (जल आदि को) पगिल्झिय-पगिज्झिय, अंगुलिए उवदंसिय-उवदंसिय, अवधानपूर्वक न देखे। ओणमिय-ओणमिय, उण्णमिय-उण्णमिय णिज्झाएज्जा॥ (यदि) गृहस्थ सहसा बलपूर्वक भुजा से पकड़कर Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौका ३२४ आगम विषय कोश-२ नौका से जल में गिरा दे, वह न सुमनस्क हो, न दुर्मनस्क हो, है। सूखी नौका में जलाकर्षण का भय रहता है। अतः आर्द्र मन में समता को धारण करे, मानसिक उतार-चढाव को प्राप्त न नौका हो तो उसकी मार्गणा करे, उ हो, उन अज्ञानियों को मारने-पीटने के लिए प्रयत्न न करे। जल नौकाउत्तरणस्थान से दो योजन तक स्थल हो तो में उतरकर हाथ से हाथ का, पैर से पैर का और शरीर (अंगोपांग) स्थलपथ से जाए, नौका से नहीं। नदीकर्पर आदि स्थल से शरीर का स्पर्श न करे (जिससे जलकायिक जीवों को परिरय कहलाते हैं। दो योजन तक परिरय हो तो उससे जाए, पीड़ा न हो), उन्मज्जन-निमज्जन न करे। यह जल मेरे कान, नौका से नहीं। यदि उस पथ में द्विविध स्तेन (शरीरस्तेन, आंख, नाक अथवा मुंह में न चला जाये (ऐसा न सोचे), उपकरणस्तेन) या द्विविध श्वापद (सिंह-व्याल) का भय संयमपूर्वक जल में प्लवन करे। हो, तो डेढ़ योजन तक संघट्ट विधि से जाए, नौका से नहीं। ..."कुंभे दतिए तुंबे, णावा उडुवे य पण्णी य॥ उसमें भी कठिनाई हो तो योजन तक लेप से जाए, उसके एत्तो एगतरेणं तरियव्वं कारणंमि जातंमि।.... अभाव में अर्धयोजन तक लेपऊर्ध्व (नाभिप्रमाण जल) से णवाणवे विभासा तु, भाविताभाविते ति या। जाए। यदि वह भी सदोष हो या निर्बाध न हो तब नौका से तदण्णभाविए चेव, उल्लाणोल्ले य मग्गणा॥ संतरण करे। असती य परिरयस्स, दुविधा तेणा तु सावए दुविधे। ० संघट्टयतना-अर्ध जंघा प्रमाण जल में गमन के समय एक संघट्टण लेवुवरिं, दु जोयणा हाणि जा णावा॥ पैर जल में रखकर एक पैर स्थल यानी आकाश में रखे। तट .एगो जले थलेगो, णिप्पगलण तीरमुस्सग्गो॥ पर पहुंचकर, पानी सूख जाने पर (वस्त्र और शरीर से जल असति गिहि णालियाए, आणक्खेत्तुं पुणो वि परियरणं। बूंदें न गिरने पर) ईर्यापथिक कायोत्सर्ग करे। एगाभोग पडिग्गह, केई सव्वाणि ण य पुरतो॥ यदि कोई उत्तरमाण गृहस्थ न हो तो नालिका (चार ठाणतियं मोत्तूणं, उवउत्तो ठाति तत्थणाबाहे। अंगुल अधिक आत्मप्रमाण दण्ड) ग्रहण कर प्रतिचरण करता दति उडुवे तुंबेसु य, एस विही होति संतरणे॥ हुआ परतीर पर पहुंचे-यह जंघातरण विधि है। एगं पायं जले काउंएगं थले।थलमिहागासं भण्णति ० नौसंतरण विधि-मात्रक और उपकरणों को एकत्र कर बंधन सामइगसण्णाए।उवउत्तो त्ति णमोक्कारपरायणो से बांधकर, प्रतिग्रह (पात्र) को पृथक् रखकर- सिक्कग को सागारपच्चक्खाणं पच्चक्खाउ य ठाति। जया पुण पत्तो अधोमुख कर, सिर से पैर तक प्रमार्जन कर नौका प तीरं तदा णो पुरतो उत्तरेज्जा'ण य पिट्ठतो "मझे कुछ आचार्य मानते हैं-मात्रक और पात्र-सब उपकरणों को उत्तरियव्वं। (निभा १९१-१९५, १९८, १९९ चू) एक साथ बांधे। मुनि कारण होने पर (अन्य मार्ग न होने पर) कुंभ नौका में आगे न चढ़े, पीछे भी न चढ़े, नौका के मध्य से नदी पार करे. उसके अभाव में क्रमश: दृति, तुंब, उडुप, में आरोहण करे। नौका में पुरतः देवता स्थान, मध्य में म आराह और पर्णी से तथा पर्णी के अभाव में नौका से जलसंतरण करे। कूपक स्थान और पृष्ठतः तोरण-निर्यामक-स्थान होता है। कुंभ से नौका पर्यंत सब यान जल से भावित होने चाहिये। इन तीनों स्थानों का वर्जन कर अनाबाध स्थान में स्थित हो मुनि यथाकृत-सहजरूप से नौका जा रही हो तो जाए। नमस्कार मंत्र में उपयुक्त हो साकार (अपवाद सहित) उसी से जाए। यथाकृत न हो तो साधु के निमित्त जाने वाली अनशन करे। नौका से जाए। पुरानी नौका प्रत्यपायबहुल होती है, अत: नई जब नौका तट पर पहुंच जाए ,तब न सबसे पहले नौका काम में ले। नौका उसी नदी आदि के जल से भावित उतरे, न सबसे पीछे उतरे, मध्य में उतरे। जलसंघटन न होने होनी चाहिए। अभावित नौका से जलविराधना होती है। अन्य पर भी उत्तीर्ण होकर ईर्यापथिक कायोत्सर्ग करे। जल से भावित होने पर वह उस जल के लिए शस्त्र बन जाती दृति, उडुप और तुम्ब द्वारा संतरण की भी यही विधि है। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३२५ परिमंथ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा दगतीरंसि चिट्ठित्तए वा होने पर, ३. किसी के द्वारा व्यथित या प्रवाहित किए जाने पर, ४. बाढ़ निसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा निदाइत्तए वा पयलाइत्तए आ जाने पर, ५. अनार्यों द्वारा उपद्रुत किए जाने पर।-स्था ५/९८) वा आहारेत्तए, उच्चारं वा पासवणं वा. परिद्ववेत्तए, * महीने में तीन उदकलेप लगाने वाला शबल। द्र चारित्र सज्झायं वा करेत्तए धम्मजागरियं वा जागरित्तए काउस्सग्गंवा परिणामक-आगमोक्त विषय में श्रद्धावान्। उत्सर्ग विधि ठाणं ठाइत्तए॥ (क १/१९) और अपवाद विधि का ज्ञाता। द्र अंतेवासी निग्रंथ और निर्ग्रथी नदी आदि के तट पर खड़े रहना, बैठना, सोना, निद्रा लेना, खड़े-खड़े नींद लेना, आहार करना, मल परिमंथ-अवश्यकरणीय कार्य में व्याघात पैदा करने वाला। मूत्र-श्लेष्म-सिंघाण का परिष्ठापन आदि क्रियाएं तथा स्वाध्याय, १. परिमंथु का निर्वचन और पर्याय धर्मजागरिका-ध्यान और कायोत्सर्ग नहीं कर सकते। २. द्रव्य-भाव परिमंथ ५. महानदी-संतरण की सीमा ३. परिमंथ के प्रकार ____नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाओ पंच | ४. कौकुचिक आदि परिमंथुओं का स्वरूप महण्णवाओ महानईओ"अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो १. परिमंथु का निर्वचन और पर्याय वा उत्तरित्तए वा संतरित्तए वा, तं जहा-गंगा जउणा सरयू साधुसमाचारस्य परि:-सर्वतो मनन्ति -विलोडकोसिया मही॥""एरावई कुणालाए जत्थ चक्किया एगं पायं यन्तीति परिमन्थवः, उणादित्वादप्रत्ययः। पाठान्तरेण परिमन्था जले किच्चा एग पाय थले किच्चा एवण्ह कप्पइ अतो मासस्स वा, व्याघातका इत्यर्थः। (क ६/१९ को व) दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरित्तए वा।.... जो साधु-सामाचारी का परि-सर्वतः मंथन-विलोडन ___."उत्तरीतुं वा बाहु-जंघादिना सन्तरीतुं वा नावादिना" 'स्थले' आकाशे' उत्तरीतुं' लंघयितुं 'सन्तरीतुं' भूयः (विनाश) करते हैं, वे परिमंथु-व्याघातक हैं। परिमंथु में उणादि प्रत्यागन्तुम्।" से उ प्रत्यय हुआ है। पाठांतर में परिमंथ शब्द भी है। (क ४/२९, ३० वृ) एरवइ कुणालाए, वित्थिण्णा अद्धजोअणं वहति। ....... पलिमंथो मंथिजति संजमो जेण॥ कप्पति तत्थ अपुण्णे, गंतुं जा वेरिसी अण्णा॥ (व्यभा ३३९३) जो संयम को क्षति पहुंचाता है, वह परिमंथ है। (बृभा ५६३९) पलिमंथे.....",णामा एगट्ठिया इमे पंच। निग्रंथ और निर्ग्रथियों को इन पांच महार्णव (बहुउदक वाली पलिमंथो वक्खेवो, वक्खोड विणास विग्यो य॥ अथवा समुद्रपर्यंतगामिनी) महानदियों का महीने में दो बार या (बृभा ६३१४) तीन बार बाहु-जंघा आदि से उत्तरण तथा नौका आदि से संतरण परिमंथ के पांच पर्यायवाची नाम हैं-परिमंथ. व्याक्षेप, नहीं करना चाहिए, जैसे-गंगा, यमुना, सरयू, कोशिका, मही। ___व्याखोट, विनाश और विघ्न। कुणाला नगरी के निकट बहने वाली अर्ध योजन विस्तीर्ण. जंघार्ध प्रमाण जल वाली ऐरावती अथवा वैसी अन्य नदी में २. द्रव्य-भाव परिमंथ ऋतुबद्धकाल में मासकल्प पूर्ण हुए बिना ही दो बार या तीन बार, करणे अधिकरणम्मि य, कारग कम्मे य दव्वपलिमंथो। एक पैर जल में रखकर, एक पैर स्थल-आकाश में रखकर एमेव य भावम्मि वि, चउसु वि ठाणेसु जीवे तु॥ गमनागमन किया जा सकता है। दव्वम्मि मंथितो खलु, तेणं मंथिज्जए जहा दधियं। _(पांच कारणों से महानदी-संतरण किया जा सकता है- दधितुल्लो खलु कप्पो, मंथिज्जति कोकुआदीहिं । १. शरीर, उपकरण आदि के अपहरण का भय होने पर, २. दुर्भिक्ष (बृभा ६३१५, ६३१६) Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमंथ ३२६ आगम विषय कोश-२ द्रव्य परिमंथ चार स्थानों में होता है कमफंदण आउंटण, ण यावि बद्धासणो ठाणे॥ ०करण-साधकतम मन्थान आदि से दही आदि मथा जाता है। छेलिय मुहवाइत्ते, जंपति य तहा जहा परो हसति। ० अधिकरण-जिस मंथनी में दही मथा जाता है।। कुणइ य रुए बहुविधे, . वग्घाडिय-देसभासाए॥ ० कर्ता-जो पुरुष या स्त्री दही का बिलौना करती है। मुहरिस्स गोण्णणामं, आवहति अरिं मुहेण भासंतो" ० कर्म-दही-मन्थन से जो नवनीत आदि निकलता है। आलोएंतो वच्चति, थूभादीणि व कहेति वा धम्म । इसी प्रकार भावविषयक परिमंथ चार स्थानों में होता है- परियट्टणाऽणुपेहण, न यावि पंथम्मि उवउत्तो॥ ० करण—जिस चपलता आदि की प्रवृत्ति से संयम मथा जाता है। तितिणिएँ पुव्वभणिते, इच्छालोभे य उवहिमतिरेगे।" ० अधिकरण-जिस आत्मा में वह मथा जाता है। (बृभा ६३१९, ६३२१, ६३२४, ६३२७, ६३३०, ६३३२) ० कर्ता-जो साधु संयम का विनाश करता है। १. कौकुचिक परिमंथु-इसके तीन प्रकार हैं-स्थान, शरीर, भाषा। ० कर्म-मथ्यमान संयम असंयम में परिणत हो जाता है। ० स्थान कौकुचिक-खंभे या दीवार पर चढ़ना, यन्त्रवत् निरंतर __यह परिमंथ जीव से अनन्य होने के कारण जीव ही है। घूमना, पैरों का संकोच-विकोच करना, स्थिरता से नहीं बैठना। मन्थान द्रव्यपरिमंथ है। उससे जैसे दही मथा जाता है, वैसे ० शरीर कौकुचिक-हाथ, गोफणा, धनुष, पैर आदि से पत्थर आदि ही कौकुचिक आदि से दधितुल्य साधुसमाचार विनष्ट होता है। फेंकना, भौंह, दाढ़ी, पुत आदि अवयवों को नर्तकी की भांति ३. परिमंथ के प्रकार विकम्पित करना शरीर कौकुचिक है। छ कप्पस्स पलिमंथ पण्णत्ता, तं जहा-कोक्कडए संजमस्स पलिमंथू, मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमंथू, चक्खुलोलुए तरह ध्वनि करना, दूसरों को हंसाने वाले वचन बोलना, मयूर, हंस, इरियावहियाए पलिमंथू, तिंतिणए एसणागोयरस्स पलिमंथू, कोयल आदि की आवाज में बोलना, उपहासकारी ध्वनि करना, इच्छालोभिए मुत्तिमग्गस्स पलिमंथू, भिज्जानियाणकरणे मालवी, महाराष्ट्री आदि देशी भाषाओं में इस लहजे से बोलना कि मोक्खमग्गस्स पलिमंथू।सव्वत्थ भगवया अणियाणया पसत्था॥ श्रोता हास्यरस में डूब जाएं-यह सब भाषा कौकुचिक है। "मुक्तिः-निष्परिग्रहत्वम् अलोभतेत्यर्थः। मोक्ष- २. मौखरिक-यह गुणनिष्पन्न नाम है। अत्यधिक बोलने के दोष मार्गस्य सम्यग्दर्शनादिरूपस्य। (क ६/१९ वृ) से वह शत्रुओं को पैदा कर लेता है । यह सत्यभाषा का परिमंथु है। __साधुसमाचार के छह परिमंथु हैं ३. चक्षुलोल-मार्ग में स्तूप, देवकुल, आराम आदि को देखते हुए १. कौकुचित-चपलता करने वाला संयम का परिमंथु है। या धर्मकथा, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा करते हुए चलना, गतिक्रिया २. मौखरिक-वाचाल सत्य वचन का परिमंथु है। में उपयुक्त नहीं होना। ३. चक्षुलोलुप-दृष्टिआसक्त ईर्यापथिकी का परिमंथ है। ४. तितिणिक-आहार, उपधि आदि के अनुकूल नहीं मिलने पर ४. तिंतिणक-यह भिक्षा की एषणा का परिमंथु है। अपलाप करना। (द्र छेदसूत्र) ५. इच्छालोभिक-अतिलोभी मुक्तिमार्ग/निर्लोभता का परिमंथु ५. इच्छालोभ-लोभ से अभिभूत होकर गणना और प्रमाण से अतिरिक्त उपधि रखना। ६. भिध्यानिदानकरण-आसक्तभाव से किया जाने वाला पौद्गलिक ६. निदानकरण-पौद्गलिक सुखप्राप्ति का संकल्प। (द्र निदान) सुखों का संकल्प सम्यग्दर्शन आदि रूप मोक्षमार्ग का परिमंथु है। परिषद्-जिज्ञासुओं अथवा श्रोताओं का समुदाय। भगवान् ने अनिदानता को सर्वत्र प्रशस्त कहा है। ४. कौकुचिक आदि परिमंथुओं का स्वरूप | १. परिषद् के प्रकार : ज्ञ-अज्ञ-दुर्विदग्ध ठाणे सरीर भासा, तिविधो पुण कक्कओ समासेणं... | २. परिषद् के प्रकार : लौकिक-लोकोत्तर आवडइ खंभकुड्डे, अभिक्खणं भमति जंतए चेव। ।३. लौकिक परिषद् के प्रकार Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश--२ ३२७ परिषद् ४. लोकोत्तर परिषद् के प्रकार रत्नों के तुल्य हैं, जो सुखप्रज्ञापनीय तथा विनय आदि गुणों से . ५. सिंह-वृषभ-मृग-परिषद् समृद्ध हैं, जो कुसिद्धांतों से अभावित हैं और स्व-सिद्धांतों के सार * यात्रापथ में वृषभ के कर्त्तव्य द्र विहार को भी जिन्होंने ग्रहण नहीं किया है, जो अक्लेशकारी हैं तथा * चतुर्-षट्-अष्टकर्णा परिषद् द्र आलोचना षट्कोटिशुद्ध (छहों कोणों से परिशुद्ध) वज्र की तरह गुणों के ६. बाह्य-आभ्यंतर परिषद् निधान हैं, वे अज्ञपरिषद् के सदस्य हैं। ७. भीतपरिषद ३. दुर्विदग्ध परिषद्-इसके तीन प्रकार हैं१. परिषद् के प्रकार : ज्ञ-अज्ञ-दुर्विदग्ध १. किंचित्मात्रग्राही-इस परिषद् का व्यक्ति कुछ जानता है और जाणंतिया अजाणंतिया य तह दुव्वियड्डिया चेव। उसी के आधार पर बोलता है, दूसरों को बोलने का अवकाश नहीं तिविहा य होइ परिसा, तीसे नाणत्तगं वोच्छं॥ देता। वह पराजय से भी लज्जित नहीं होता और उच्च स्वर से गुण-दोसविसेसन्नू, अणभिग्गहिया य कुस्सुइमतेसु। बोलकर विजय चाहता है। सा खलु जाणगपरिसा, गुणतत्तिल्ला अगुणवज्जा॥ २. पल्लवग्राही-जो किसी भी विषय में परिपूर्ण नहीं है, वह खीरमिव रायहंसा, जे घोट्टंति उ गुणे गुणसमिद्धा। अनेक विषयों के अल्पज्ञान के कारण ग्रामीणों में विद्वान् माना जाता दोसे वि य छडूंता, ते वसभा धीरपुरिस त्ति॥ है। पराजित होने के भय से वह किसी को कुछ पूछता नहीं और जे होंति पगयमुद्धा, मिगछावग-सीह कुक्कुरगभूया। अपने पांडित्य के गर्व से पवन-पूरित मशक की भांति फूला नहीं रयणमिव असंठविया, सुहसण्णप्पा गुणसमिद्धा॥ समाता। यह पल्लवग्राही परिषद् है। जे खलु अभाविया कुस्सुतीहिँ न य ससमए गहियसारा। ३. त्वरितग्राही-अवसर पर अंटसंट बोलकर अपना पांडित्य प्रकट अकिलेसकरा सा खलु, वयरं छक्कोडिसुद्धं वा॥ करने वाली परिषद् । एक व्यक्ति ने व्याकरण के कुछ सूत्रों को याद किंचिम्मत्तग्गाही, पल्लवगाही य तुरियगाही य। कर स्वयं को वैयाकरण के रूप में उपस्थापित कर दिया। एक बार दुवियड्डगा उ एसा, भणिया परिसा भवे तिविहा॥ एक पंडित वहां आया। दोनों मिले। ग्रामवासी वैयाकरण ने पूछानाऊण किंचि अन्नस्स, जाणियव्वे न देति ओगासं। काग को क्या कहा जाता है ? उसने कहा-काकः । दुर्विदग्ध न य निज्जितो वि लज्जइ, इच्छइ य जयं गलरवेण॥ पंडित ने कहा-सारे लोग काक ही कहते हैं फिर व्याकरण का न य कत्थइ निम्मातो, ण य पुच्छइ परिभवस्स दोसेण। क्या प्रयोजन ? मैं तो 'क्रीकाक' कहता हूं। वत्थी व वायपुण्णो, फुट्टइ गामिल्लगवियड्ढो॥ * वाचनायोग्य परिषद, योग्य-अयोग्य श्रोता द्र श्रीआको १ परिषद दरहियविज्जो पच्चंतनिवासो, वावदूक कीकाको। * बारह प्रकार की परिषद श्रीआको समवसरण खलिकरण भोइपुरतो, लोगुत्तर पेढियागीते॥ २. परिषद के प्रकार : लौकिक-लोकोत्तर (बृभा ३६४-३७२) परंत पूरंती छत्तंतिय, बुद्धी मंती रहस्सिया चेव। परिषद् के तीन प्रकार हैं पंचविहा खलु परिसा, लोइय लोउत्तरा चेव॥ १. ज्ञपरिषद्-गुणों और दोषों को जानने वाली, कुतीर्थिकों के (बृभा ३७८) सिद्धांतों से अनभिगृहीत, गुणों में यत्नशील और अगुणों का वर्जन करने वाली परिषद् ज्ञपरिषद् कहलाती है। इसके सदस्य गुणों से परिषद के दो प्रकार हैं-लौकिक परिषद और लोकोत्तर समृद्ध तथा दोषों का परित्याग करने वाले होते हैं। जैसे राजहंस परिषद। इन दोनों के पांच-पांच प्रकार हैं-परयन्ती, छत्रवती क्षीर का आस्वादन करते हैं, वैसे ही जो गुणों का आस्वादन करते (छत्रांतिका), बुद्धि, मंत्री और राहस्यिकी। हैं, वे गीतार्थ धीरपुरुष अधिकृत अध्ययन के योग्य होते हैं। ३. लौकिक परिषद् के प्रकार २. अज्ञपरिषद्-जो प्रकृति से भद्र हैं अर्थात् जिनमें मृगशावक, पूरंतिया महाणो, छत्तविदिन्ना उ ईसरा बितिया। सिंहशावक, कुक्कुरशावक जैसा भोलापन है. जो असंस्थापित समयकुसला उ मंती, लोइय तह रोहिणिज्जा या॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिषद् ३२८ आगम विषय कोश-२ नीहम्मियम्मि पूरति, रणो परिसा न जा घरमंतीति। लोइय-वेइय-सामाइएसु सत्थेसु जे समोगाढा। जे पुण छत्तविदिन्ना, अयंति ते बाहिरं सालं॥ ससमय-परसमयविसारया य कुसला य बुद्धिमती॥ जे लोग-वेय-समएहिं कोविया तेहिँ पत्थिवो सहिओ। आसन्नपतीभत्तं, खेयपरिस्समजतो तहा सत्थे। समयमतीतो परिच्छइ, परप्पवायागमे चेव॥ कहमुत्तरं च दाहिसि, अमुगो किर आगतो वादी॥ जे रायसत्थकुसला, अतक्कुलीया हिता परिणया य। पुव्वं पच्छा जेहिं, सिंगणादितविही समणुभूतो। माइकुलीया वसिया, मंतेति निवो रहे तेहिं॥ लोए वेदे समए, कयागमा मंतिपरिसा उ॥ कुविया तोसेयव्वा, रयस्सला, वारअण्णमासत्ता। गिहवासे अस्थसत्थेहिँ कोविया केइ समणभावम्मि। छण्ण पगासे य रहे, मंतयते रोहिणिज्जेहिं॥ कज्जेसु सिंगभूयं, तु सिंगनादिं भवे कज्जं॥ याऽपि कन्या यौवनप्राप्ता तामपि राज्ञः कथयन्ति। ....भत्तोवहिवोच्छेदे, अभिवायण-बंध-घायादी॥ (बृभा ३७९-३८३ ७) वितहं ववहरमाणं, सत्थेण वियाणतो निहोडेइ । लौकिक परिषद् के पांच प्रकार हैं अम्हं सपक्खदंडो, न चेरिसो दिक्खिए दंडो॥ १. पूरयन्तिका परिषद्-महाजनों की परिषद् । राजा प्रस्थान करता सल्लुद्धरणे समणस्स चाउकण्णा रहस्सिया परिसा। है और जब तक घर नहीं लौटता, तब तक जो महान् जन राजा अज्जाणं चउकण्णा, छक्कण्णा अट्ठकण्णा वा ।। का अनुगमन करते हैं, वह परिषद्। (बृभा ३८४-३९१) २. छत्रान्तिका परिषद्-छत्रप्राप्त श्रेष्ठ पुरुषों की परिषद् । राजा ने ___लोकोत्तर परिषद् के पांच प्रकार हैंजिन्हें छत्र प्रदान किया है, वे राजा तथा योद्धा और भोजिक (ग्राम १. पूरयन्तिका परिषद्-आवश्यक सूत्र से सूत्रकृतांग पर्यंत आगमों का मुखिया) बाह्य शाला में साथ-साथ आते हैं, शेष को रोक दिया। का अध्ययन करने वाली परिषद्। जाता है, वह परिषद्। २. छत्रान्तिका परिषद्-दशा श्रुतस्कंध आदि उपरितन आगमों का ३. बद्धि परिषद-जो लौकिक, वैदिक और आगमिक शास्त्रों में अध्ययन करने वाली परिषद। पारिणामिक शिष्य ही इसमें प्रवेश अध्ययन करने वाली शिट पनि शिय टी निपुण हैं, अवसर आने पर राजा उनको साथ लेकर पर-प्रवादियों पा सकते हैं। के आगमों की परीक्षा करता है, वह बुद्धि परिषद् है। ३. बुद्धिमती परिषद्-जिन्होंने लौकिक, वैदिक और सामयिक ४. मंत्री परिषद्-जो राजनीति शास्त्र (कौटिल्य आदि) में कुशल (आगमिक) शास्त्रों का गहराई से अवगाहन किया है, जो स्वसमय हैं. जो राजा के पितकुल-संबंध सं संबद्ध हैं, जो राज्य के हितचिन्तक और परसमय में विशारद हैं. कशल हैं. वह परिषद। हैं, वय से परिणत हैं, मातृकुलीन (राजा के मातृकुल से संबंधित) बुद्धि परिषद् के साथ निरंतर श्रम करने से आसन्नप्रतिभत्व हैं, राजा के अधीन हैं तथा जिनके साथ राजा एकान्त में मंत्रणा (तत्काल उत्तर देने का सामर्थ्य) उत्पन्न होता है। शास्त्रों के करता है, वह मंत्री परिषद् है। अभ्यास में जो कष्ट और श्रम होता है, उससे विजय होती है। ५. रोहिणीया (राहस्यिकी) परिषद्-जो कुपित रानी को संतुष्ट बुद्धि परिषद् यह सिखाती है-अमुक वादी आ गया तो तुम वाद करने के लिए राजा के द्वारा भेजी जाती है, जो ऋतुस्नात रानी के करते समय उसको उत्तर कैसे दोगे? क्रम के विषय में निवेदन करती है, राजकन्या विवाह योग्य है ४. मंत्री परिषद्-जिसने गृहवास और श्रमणभाव में श्रृंगनादित इसकी सूचना देती है, अमुक रानी अन्य व्यक्ति में आसक्त है विधियों का अनुभव किया है, जो लौकिक, वैदिक और सामयिक इसकी सूचना देती है, जो गुप्त और प्रकट रतिकार्यों के विषय में शास्त्रों का ज्ञाता है, गहवास में जो अर्थशास्त्र में कोविद था तथा राजा के साथ मंत्रणा करती है, वह रोहिणीया परिषद है।। श्रमणभाव में जो स्वसमय और परसमय में कोविद है, वह परिषद् । ४. लोकोत्तर परिषद् के प्रकार सब कार्यों में जो शृंगभूत (प्रधान) कार्य होता है, उसे आवासगमादी या, सुत्तकड पुरंतिया भवे परिसा। शृंगनादित कार्य कहा जाता है। जैसेदसमादि उवरिमसुया, हवति उ छत्तंतिया परिसा॥ ० मुनियों के आहार और उपधि का व्यवच्छेद होता हो। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३२९ परिहारतप ० श्रमणविरोधी कहे---ब्राह्मणों का अभिवादन करो, वंदना करो। मानस्तिष्ठति न च क्वचिदन्याये प्रवृत्तिं करोति। मनियों को बंधन में बांधे, पीटे, देश से निष्कासित करे अथवा __ (बृभा २०५८ की वृ) राजा प्रद्विष्ट हो जाए। इन गनादित कार्यों में जो मुनि संघ की जिससे परिषद् डरती है-परिवार में जिस व्यक्ति की आज्ञा सुरक्षाविधि का अनुभूत ज्ञाता है, वह मंत्री परिषद् का सदस्य है। की अखंड परिपालना होती है, जिसकी भृकुटी मात्र को देखकर राजा द्वारा असम्यक् व्यवहार किए जाने पर शास्त्रज्ञ मुनि सारा ही परिवार भय से कांप उठता है और किसी भी अन्यायपूर्ण शास्त्रीय प्रमाणों से सरलता से उसे रोक देता है-राजन्! मुनि को कार्य में प्रवृत्त नहीं होता, वह व्यक्ति भीतपरिषद् है। संघ द्वारा दंड दिया जाता है। राजा उसे दंडित नहीं कर सकता तथा दीक्षित को इस प्रकार का दंड नहीं दिया जा सकता। परिहारतप-वह प्रायश्चित्त, जिसमें परस्पर आलाप-संलाप ५. राहस्यिकी परिषद्-माया, निदान तथा मिथ्यादर्शन-इन तीनों आदि दस पदों का परिहार किया जाता है। शल्यों के उद्धरण अथवा अतिचारों की शुद्धि हेतु आचार्य के पास आलोचना करने वाले श्रमण के लिए राहस्यिकी परिषद् होती है। १. परिहारतप और पारिहारिक २. परिहारतप के स्थान साधु के लिए वह चतुष्कर्णा तथा साध्वी के लिए चतुष्कर्णा, ___* परिहारस्थान ही प्रायश्चित्त स्थान द्र प्रायश्चित्त षट्कर्णा और अष्टकर्णा परिषद् होती है। ३. परिहारतप के अयोग्य-योग्य ५. सिंह-वृषभ-मृग परिषद् ४. परिहारतप की योग्यता के परीक्षण बिन्दु कडजोगि सीहपरिसा, गीयत्थ थिरा य वसभपरिसा उ। ५. तपवहन का उचित समय सुत्तकडमगीयत्था, मिगपरिसा होइ नायव्वा॥ |६. परिहार-ग्रहणविधि : आलाप आदि पदों का वर्जन कतयोगिनो नाम गीतार्थाः परं न तथा समर्थाः..."स्थिराः ७. संभोज-वर्जन की अवधि और उसका हेतु ८. कल्पस्थिति और अनुपारिहारिक की सामाचारी बलवन्तः परमगीतार्थाः। (बृभा २८९६ वृ) ९. परिहारी-अपरिहारी की पात्र-सामाचारी परिषद् के तीन प्रकार हैं |१०. पारिहारिक के वैयावृत्त्य का विधान १. सिंह परिषद्-कृतयोगी-गीतार्थ परन्तु शरीर बल से न्यून। ११. परिहारी : आहारवितरण-विकृतिसेवन-अनुज्ञा २. वृषभ परिषद्-समर्थ गीतार्थ।। १२. पारिहारिक द्वारा गच्छ की सेवा ३. मृग परिषद्-कृतसूत्र-सूत्रों को पढ़ने वाले किन्तु अगीतार्थ। * संघ-कार्य की प्रधानता ६. बाह्य-आभ्यन्तर परिषद् १३. तपवहन काल में आचार्य द्वारा वैयावृत्त्य |१४. पारिहारिक की क्षमताएं ___"बाहिरिया परिसा भवति, तंजहा-दासेति वा पेसेति वा १५. परिहारतप का निक्षेप-झोष भतएति वा भाइल्लेति वा कम्मारएतिवा... अबिभंतरिया परिसा। १६. पारिहारिक : मार्ग में रुकने के कारण भवति, तं जहा-माताति वा पिताति वा भायाति वा भगिणीति १७. वादी पारिहारिक को अल्प प्रायश्चित्त वा भजाति वा धूयाति वा सुण्हाति वा (दशा ६/३) १८. शुद्धतप और परिहारतप में अन्तर बाह्य परिषद्-जैसे-दास, प्रेष्य, भृतक, भागीदार, कर्मकर आदि। १९. परिहार और छेद आभ्यन्तर परिषद्-माता-पिता, भाई-बहिन, पत्नी, पुत्री, पुत्रवधू। * अनवस्थाप्य परिहारतपवहन द्र पारांचित ६. भीतपरिषद् १. परिहारतप और पारिहारिक भीता-चकिता पर्षद् यस्य स भीतपर्षद्, आज्ञैकसारतया पञ्चकादिषु भिन्नमासान्तेषु परिहारतपो न भवति, किन्तु यस्य भृकुटिमात्रमपि दृष्ट्वा परिवार: सर्वोऽपि भयेन कम्प- मासादिषु। (व्यभा ५९८ की ४) द्र संघ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारतप ३३० आगम विषय कोश-२ पांच अहोरात्र यावत् भिन्न मास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना अगीतार्थ, धृति से दुर्बल और प्रथम तीन संहननों (वज्रऋषभनाराच, करने पर परिहारतप प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता, किन्तु मास, दो ऋषभनाराच, नाराच) से विकल। जो धृतिसम्पन्न, संहननसम्पन्न मास आदि स्थानों में वह दिया जाता है। और गीतार्थता आदि गुणों से सम्पन्न हैं, उन्हें यदि परिहारतप प्राप्त पायच्छित्तमणावण्णो अपरिहारिओ, आवण्णो मासाति हो तो नियमत: वही देना चाहिए। जाव-छम्मासियं सो परिहारिओ। (नि ४/११८ की चू) ४. परिहारतप की योग्यता के परीक्षण बिन्दु जो एक मासिक यावत् छहमासिक प्रायश्चित्तसमापन्न है, को भंते! परियाओ, सुत्तत्थाभिग्गहो तवोकम्मं ।' सगणम्मि नत्थि पुच्छा, अन्नगणा आगतं तु जं जाणे। वह पारिहारिक है। जिसे प्रायश्चित्त प्राप्त नहीं है, वह अपारिहारिक अण्णातं पुण पुच्छे, परिहारतवस्स जोग्गट्ठा॥ गीतमगीतो गीतो, अहं ति किं वत्थु कासवसि जोग्गो। २. परिहार तप के स्थान अविगीते त्ति य भणिते, थिरमथिर तवे य कयजोग्गो॥ असरिसपक्खिगठविते, परिहारो ......। गिहिसामन्ने य तहा, परियाओ दुविह होति नायव्वो। ....."काऊण व तेगिच्छं, सातिज्जियआगते......॥ इगुतीसा वीसा वा, जहन्न उक्कोस देसूणा॥ अहवा गणस्स अप्पत्तियं तु ठावेति होति परिहारो। नवमस्स ततियवस्थू, जहन्न उक्कोस ऊणगा दसओ। सुत्तत्थऽभिग्गहा पुण, दव्वादि तवो रयणमादी॥ (व्यभा १३३४, १३३५) परिहारतप प्रायश्चित्त प्राप्ति के कुछ स्थान ये हैं (व्यभा ५३६-५४०) जिसे परिहार तप प्रायश्चित्त दिया जाता है, उसका पृच्छा, ० कुल और श्रुत से असदृश पक्ष वाले मुनि को आचार्य बनाना। पर्याय, सूत्रार्थ आदि बिंदुओं से परीक्षण किया जाता है। ० चिकित्सा काल में मनोज्ञ आहार का आसक्ति से सेवन करना। ० पृच्छा-अपने गण का मुनि परिचित ही होता है, इसलिए उससे ० गण के द्वारा असम्मत शिष्य को आचार्य पद पर नियुक्त करना। पृच्छा नहीं की जाती। दूसरे गण से समागत मुनि की गीतार्थता जो गण के लिए अप्रतीतिकर अयोग्य शिष्य को स्वेच्छा से आचार्य आदि यदि आकार और इंगित से जान ली जाती है, तो उसकी भी बनाता है, वह चतुर्गुरु परिहार तप का भागी होता है। पृच्छा नहीं की जाती। जो अपरिचित आगंतुक साधु है, उससे पूछा निक्कारणपडिसेवी, अजयणकारी व कारणे साहू। जाता है-तुम गीतार्थ हो या अगीतार्थ ? वह कहे कि मैं गीतार्थ हं अदुआ चिअत्तकिच्चे, परिहारं पाउणे॥ तो पूछा जाता है-तुम आचार्य हो अथवा सामान्य साधु? तुम किस __ (बृभा ६०३३) तप को करने में समर्थ हो? धृति-संहनन से स्थिर हो या अस्थिर निष्कारण प्रतिसेवना करने वाला, कारण होने पर अयतना (दुर्बल)? तपस्या में कृतयोग (कर्कश तप से भावित) हो या से प्रतिसेवना करने वाला, स्वस्थ हो जाने पर भी म्रक्षण आदि अकृतयोग? यदि वह कृतयोग हो तो उसे परिहार तप और अकृतयोग क्रियाएं उसी रूप में करने वाला परिहारतप को प्राप्त करता है। हो तो शुद्ध तप देना चाहिए। ० पर्याय-जन्मपर्याय जघन्यत: उनतीस वर्ष तथा श्रमणपर्याय बीस ३. परिहार तप के अयोग्य-योग्य वर्ष, उत्कृष्टतः दोनों ही पर्याय देशोन पर्वकोटि हो सकते हैं। सुद्धतवो अन्जाणं, ऽगीयत्थे दुब्बले असंघयणे। ० सूत्रार्थ-जघन्यतः नौवें पूर्व की तृतीय आचारवस्तु, उत्कृष्टतः धिति-बलिते य समन्नागत सव्वेसिं पि परिहारो॥ कुछ कम दस पूर्व। (व्यभा ५४५) ० अभिग्रह-भिक्षाचर्या आदि में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से परिहारतप प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी जिन्हें परिहारतप संबंधित अभिग्रह करने वाला। नहीं दिया जाता, शुद्ध तप दिया जाता है, वे ये हैं-आर्या, तपःकर्म-रत्नावलि. कनकावलि आदि तपःकर्म से भावित। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ ५. तपवहन का उचित समय गिम्हाणं आण्णो, चउसु वि वासासु देंति आयरिया |..... .......गुणा ततो वास ॥ वासासू''बलिओ कालो चिरं च ठायव्वं ।....... ( व्यभा १३३८ - १३४० ) ३३१ आचार्य ग्रीष्म और शीतकाल में प्राप्त परिहार तप का वहन वर्षाकाल के चारों मासों में करवाते हैं क्योंकि यह काल तपस्या आदि गुणकारी है । वर्षाऋतु में काल की स्निग्धता तथा एक स्थान पर लम्बे प्रवास के कारण तप का वहन सुखपूर्वक होता है। ६. परिहार - ग्रहणविधि : आलाप आदि पदों का वर्जन ..... अगडे नदी य राया, दितो भीयआसत्थो ॥ निरुवस्सग्गनिमित्तं भयजणणट्ठाय सेसगाणं च । तस्सऽप्पणी य गुरुणो, य साहए होति पडिवत्ती ॥ कप्पट्ठितो अहं ते, अणुपरिहारी य एस ते गीतो । पुवि कतपरिहारो, तस्सऽसतितरो वि दढदेहो ॥ एस तवं पडिवज्जति, न किंचि आलवति मा य आलवह। अत्तट्ठचिंतगस्सा, वाघातो भे ण कायव्व ॥ आलावण पडिपुच्छण, परियद्दृट्ठाण वंदणग मत्ते । पडिलेहण संघाडग, भत्तदाण संभुंजणा चेव ॥ (व्यभा ५४६-५५०) कदाचित् पारिहारिक भयभीत हो जाए कि मैं इस उग्र तप का वहन कैसे करूंगा, तो गुरु कूप आदि के दृष्टांत से उसे आश्वस्त कर देते हैं। गुरु कहते हैं - कोई कूप में गिर जाता है या नदी में बह जाता है तो तटस्थ व्यक्ति उसे आश्वस्त करते हुए कहते हैं - तुम डरो मत। हम तुम्हें निकाल देंगे। देखो, हम रज्जु ले आए हैं। इस प्रकार आश्वस्त होने पर वह निर्भय हो जाता कोई राजा कुपित हो, किसी को मृत्युदंड देता है तो अन्य व्यक्ति आश्वस्त करते कहते हैं - डरो मत। हम राजा से प्रार्थना हुए करेंगे। राजा अन्याय नहीं करेगा। वह अभय हो जाता है। 1 गुरु पूर्व या उत्तर अथवा चरन्ती दिशा के अभिमुख होते हैं, पारिहारिक शिष्य गुरु के वाम पार्श्व में कुछ पीछे की ओर स्थित होता है। वे दोनों कहते हैं- 'परिहार तप स्वीकार कराने (करने) के लिए कायोत्सर्ग करता हूं।' कायोत्सर्ग के दो हेतु हैं परिहारतप १. परिहारतप की निर्विघ्न समाप्ति के लिए। २. अन्य साधुओं में भय पैदा करने के लिए। यथा - अमुक साधु ने ऐसी प्रतिसेवना की है, जिससे इसे महाघोर परिहारतप दिया गया है, अतः हमें ऐसे आपत्तिस्थान से प्रयत्नपूर्वक बचना है। पच्चीस उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग कर नमस्कारमंत्र से उसे पूरा कर चतुर्विंशतिस्तव का उच्चारण करते हैं। तत्पश्चात् परिहारतप प्रतिपत्ता तथा गुरु के अनुकूल शुभ तिथि- करण- मुहूर्त, शुभ ताराबल और शुभ चन्द्रबल में परिहारतप की प्रतिपत्ति होती है । गुरु उसे कहते हैं - तुम्हारी कल्पपरिहार- समाप्ति पर्यन्त मैं तुम्हारे लिए कल्पस्थित हूं (वंदना, वाचना आदि के लिए कल्पभाव में स्थित हूं, परिहार्य नहीं हूं, शेष साधु परिहार्य हैं) । यह गीतार्थ साधु तुम्हारा अनुपरिहारी (भिक्षा आदि के लिए परिहारी के पीछे-पीछे जाने वाला) है। यह कृतपरिहार होने से सकल सामाचारी का ज्ञाता है। पूर्व कृतपरिहार के अभाव में अन्य अकृतपरिहार गीतार्थ को अनुपरिहारी के रूप में स्थापित किया जाता | वह दृढ़ संहनन वाला होता है । तत्पश्चात् आचार्य सबालवृद्ध गच्छ को आमन्त्रित कर आलाप आदि दस वर्जनीय पदों को बताते हैं• यह साधु परिहारतप स्वीकार कर चुका है। यह किसी से बातचीत नहीं करेगा। तुम लोग भी इसके साथ आलाप-संलाप मत करना। यह आत्मार्थचिन्तक है - अपने लिए ही भिक्षा आदि की चिन्ता करेगा अथवा आत्मशोधन का चिन्तन करेगा। इसकी साधना में किसी प्रकार का व्याघात मत करना । • यह पारिहारिक सूत्र - अर्थ से संबंधित कोई भी प्रश्न तुमसे नहीं पूछेगा और न ही तुम इसे कुछ पूछ सकोगे 1 • यह तुम्हारे साथ सूत्रार्थ परिवर्तना नहीं करेगा, तुम भी इसके साथ परिवर्तना नहीं करोगे । • न यह तुम्हें काल वेला में उठायेगा, न तुम इसे उठाओगे । • न यह तुम्हें वंदना करेगा, न तुम लोग इसे वंदना करोगे। • न यह तुम्हें मात्रक लाकर देगा, न तुम इसे दोगे । • यह तुम्हारे किसी भी उपकरण की प्रतिलेखना नहीं करेगा, तुम भी इसकी नहीं करोगे । • इससे तुम्हारा और तुमसे इसका संघाटक नहीं होगा । ० न यह तुम्हें भक्त - पान लाकर देगा, न तुम इसको दोगे । ० न यह तुम्हारे साथ खायेगा, न तुम इसके साथ खाओगे । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारतप ३३२ आगम विषय कोश-२ आलापन, प्रतिपृच्छा, परिवर्तना, उत्थान, वंदन, मात्रकानयन, । सकता यावत् छह मासिक परिहारी छह मास तीस दिन (सात प्रतिलेखन, संघाटक, भक्तदान और सहभोजन-इन दस स्थानों से मास) एक साथ आहार नहीं कर सकता। गच्छ उसका और वह गच्छ का परिहार करता है। मासस्स गोण्णणामं, परिहरणा पूतिनिव्वलणमासो। जे भिक्खू अपरिहारिए परिहारियं बूया-'एहि अज्जो! तत्तो पमोयमासो, भुंजणवजण न सेसेहिं॥ तुमं च अहं च एगओ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दिज्जति सुहं च वीसुं, तवसोसियस्स य जं बलकरं तु। पडिग्गाहेत्ता तओ पच्छा पत्तेयं-पत्तेयं भोक्खामो वा पाहामो पुणरवि य होति जोग्गो, अचिरा दुविहस्स वि तवस्स॥ वा'-जे तं एवं वदति..."आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं (व्यभा १३४१, १३४२) उग्घातियं॥ (नि ४/११८) कुथित मद्य आदि से दुर्गधित पात्र में जब तक गंध आती जो अपारिहारिक भिक्षु पारिहारिक को कहता है-आओ है, तब तक उसमें क्षीर आदि नहीं डाला जाता, वैसे ही दुश्चरित आर्य! तुम और मैं एक साथ (भिक्षार्थ गमन कर) अशन, पान, की दर्गंध से भावित उसके साथ एक मास तक आहार नहीं किया खाद्य और स्वाद्य ग्रहण कर तत्पश्चात् पृथक्-पृथक् खाएंगे, जाता। इस मास के गुणनिष्पन्न नाम दो हैं-प्रतिनिर्वलन (दुर्गंधपीएंगे-इस प्रकार कहने वाले को लघुमास परिहारस्थान प्राप्त विनाशक)मास और प्रमोदमास (संभाषण आदि द्वारा प्रमुदित मास)। होता है। पृथक् आहार का एक कारण यह है कि उसका शरीर तप से ७. संभोज-वर्जन की अवधि और उसका हेतु शोषित हो जाता है। जब तक वह पृथक् भोजन करता है तो सब बहवे परिहारिया बहवे अपरिहारिया इच्छेज्जा एगयओ साधु सलक्ष्य सुखपूर्वक उसे बलवर्धक आहार देते हैं। इससे वह एगमासं वा दुमासं वा तिमासं वा चउमासं वा पंचमासं वा शीघ्र ही पुन: बाह्य तप और आभ्यंतर तप के योग्य हो जाता है। छम्मासं वा वत्थए। ते अण्णमण्णं संभंजंति, अण्णमण्णं नो ८. कल्पस्थित और अनुपारिहारिक की सामाचारी संभुंजंति मासं, तओ पच्छा सव्वे वि एगओ संभुंजंति॥ कितिकम्मं च पडिच्छति, परिण पडिपुच्छणं पि से देति। पणगं पणगं मासे, वजेजति मास छण्हमासाणं।" सो चिय गुरुमुवचिट्ठति, उदंतमवि पुच्छितो कहए। (व्य २/२७ भा १३३९) उद्वेज्ज निसीएज्जा, भिक्खं हिंडेज भंडगं पेहे। अनेक परिहारी और अनेक अपरिहारी भिक्षु एक, दो, तीन, कुवियपियबंधवस्स व, करेति इतरो वि तुसिणीओ॥ चार, पांच या छह मास पर्यंत एक साथ रहना चाहें तो परिहारी (व्यभा ५५३, ५५४) भिक्षु परिहारी और अपरिहारी के साथ आहार नहीं कर सकते। ___ जो कल्पस्थित (मुखिया) है, वह पारिहारिक की वंदना अपरिहारी भिक्षु अपरिहारी के साथ बैठकर आहार कर सकते हैं, __ स्वीकार करता है, आलोचना सुनता है, प्रत्याख्यान करवाता है, परिहारी के साथ नहीं कर सकते। सूत्रार्थ संबंधी प्रश्न पूछने पर उत्तर देता है। पारिहारिक भी जब गुरु छह मासिक परिहार तप की पूर्णता के एक मास पश्चात् बाहर से स्थान पर आते हैं तो उनका अभ्युत्थान आदि के द्वारा सब (परिहारी और अपरिहारी) एक साथ आहार कर सकते हैं। विनय करता है। गरु सुखपृच्छा करते हैं। पारिहारिक अपनी शरीर जो एकमासिक परिहारतपसमापन्न है, वह एक मास तक आदि की स्थिति का निवेदन करता है। परस्पर आलाप आदि नहीं करता तथा एक मास और पांच दिन तक यदि वह उठने-बैठने में असमर्थ हो जाता है और कहता एक साथ भोजन नहीं करता। (इन अतिरिक्त पांच दिनों में शेष है कि मझे उठना है या बैठना है तो अनपारिहारिक उसके कहते आलाप आदि सब क्रियाएं कर सकता है।) इसी प्रकार पांच-पांच ही शीघ्र आकर उसे उठाता है, बिठाता है। दिन की क्रमवृद्धि से संभोज वर्जनीय है अर्थात् दो मास परिहारतप भिक्षा के लिए गया हआ पारिहारिक भिक्षा लेने में असमर्थ वहन करने वाला दो मास और दस दिन एक साथ भोजन नहीं कर हो तो अनुपारिहारिक भिक्षा ग्रहण करता है। जाने में असमर्थ हो Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ तो अनुपारिहारिक अकेला ही भिक्षा के लिए जाता है। उसके भण्डोपकरण की प्रतिलेखना में सहयोग करता है । अनुपारिहारिक यह सारा कार्य उसी प्रकार मौनभाव से करता है, जैसे कोई व्यक्ति अपने कुपित प्रिय बंधु के कार्य करता है। ३३३ दो साहम्मिया एगओ विहरंति, एंगे तत्थ अण्णयरं अकिच्चद्वाणं पडिसेवेत्ता आलोएज्जा, ठवणिज्जं ठवइत्ता करणिज्जं वेयावडियं ॥ .... एकत एकस्मिन् स्थाने समुदितौ विहरतः । तत्र यद्यगीतार्थः प्रतिसेवितवान्, ततस्तस्मै शुद्धतपो दातव्यमथ गीतार्थस्तर्हि यदि परिहारतपोयोग्यमापन्नस्ततः परिहारतपो दद्यात्।'''''य आपन्नः स परिहारतपः प्रतिपद्यते । इतरः कल्पस्थितो भवति । स एव च तस्यानुपारिहारिकः । (व्य २/१ वृ) दो साधर्मिक मुनि एक साथ विहरण करते हों, उनमें से एक मुनि यदि किसी अकृत्यस्थान की प्रतिसेवना कर आलोचना करे तो उसे स्थापनीय (परिहारतप) में स्थापित कर दूसरा साधर्मिक उसका वैयावृत्त्य करे । आलोचक यदि अगीतार्थ है तो उसे शुद्ध तप रूप प्रायश्चित्त देना चाहिए। यदि वह गीतार्थ है और उसे परिहारतप योग्य प्रायश्चित्त प्राप्त है तो उसे परिहारतप देना चाहिए। वह परिहारतप स्वीकार करता है। दूसरा साधर्मिक कल्पस्थित होता है और वही अनुपारिहारिक होता है । ९. परिहारी - अपरिहारी की पात्र सामाचारी परिहारकपट्ठिए भिक्खू सएणं पडिग्गहेणं बहिया अप्पणी वेयावडिया गच्छेज्जा । थेरा य णं वएज्जापडिग्गाहेहि णं अज्जो ! अहं पि भोक्खामि वा पाहामि वा । एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए । तत्थ नो कप्पड़ अपरिहारियस्स परिहारियस्स पडिग्गहंसि असणं वा पाणं वा, कप्पड़ से सयंसि वा पडिग्गहंसि पाणिंसि वा उद्धट्टु-उद्धड्ड भोत्तए वा पाय वा । एस कप्पो अपरिहारियस्स परिहारियाओ ॥ परिहारकपट्ठिए भिक्खू थेराणं पडिग्गहेणं बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा । थेरा य णं वएज्जा - -पडिग्गाहेहि अज्ज! तुमं पि भोक्खसि वा पाहिसि वा । एवं से कप्पड़ पडिग्गात्त । तत्थ नो कप्पड़ परिहारियस्स अपरिहारियस्स पडिग्गहंसि असणं वा पाणं वा... भोत्तए वा पायए वा, कप्पड़ से सयंसि वा परिहारतप पडिग्गहंसि "पाणिंसि वा उद्धट्टु-उद्धट्टु भोत्तए वा पायए वा । एस कप्पो परिहारियस्स अपरिहारियाओ ।। (व्य २ / २९, ३०) सपडिग्गहे परuडिग्गहे, य बहि पुव्व पच्छ तत्थेव ।...... कारणिय दोन्नि थेरा, सो व गुरू अधव केणई असहू । पुव्वं सयं तु गेहति, पच्छा घेत्तुं च थेराणं ॥ ....सम्पडिग्गहेतरेण व, परिहारी वेयवच्चकरे ॥ दुल्लभदव्वं पडुच्च, व तवखेदितो समं व सति काले । ......पुव्वं भोक्तुं थेरा, दलंति समगं च भुंजंति ॥ (व्यभा १३५२ - १३५६) परिहारकल्पस्थित को अपना पात्र लेकर अपने वैयावृत्त्यभिक्षा लाने के लिए वसति से बाहर जाते हुए देखकर यदि स्थविर (आचार्य) कहें - आर्य! मेरे लिए भी भिक्षा लाना, मैं भी खाऊंगापीऊंगा - ऐसा कहने पर वह अपने पात्र में स्थविर के लिए ला सकता है। अपरिहारी परिहारी के पात्र में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य खा-पी नहीं सकता। वह अपने पतद्ग्रह ( तुम्बा आदि पात्र) या हाथ में ले-लेकर खा सकता है, पी सकता है। यह अपरिहारी का परिहारी की अपेक्षा से आचार है। परिहारकल्पस्थित भिक्षु स्थविर का पात्र लेकर स्थविर के वैयावृत्त्य के लिए उपाश्रय से बाहर जाए, उस समय स्थविर कहें- आर्य! तुम अपने खाने-पीने के लिए भी भिक्षा ग्रहण कर लेना। ऐसा कहने पर वह अपने लिए भी आहार ग्रहण कर सकता है । पारिहारिक अपारिहारिक के पात्र में अशन, पान आदि खा-पी नहीं सकता। वह अपने पात्र या हाथ में ले-लेकर खा सकता है, पी सकता है, पारिहारिक की अपारिहारिक के प्रति यह सामाचारी है। परिहारी भिक्षु का सामान्य आचार यह है कि वह पहले अपने पात्र में अपने योग्य भिक्षा लाकर फिर स्थविर के पात्र में स्थविर योग्य भिक्षा लाता है। अथवा पहले स्थविर योग्य लाकर फिर अपने योग्य लाता है। कारणवश एक ही पात्र में लाए तो स्थविर के खाने के पश्चात् स्वयं खाता है। कारण ये हो सकते हैं • अशिव आदि के कारण अन्य साधुओं को अन्यत्र भेज दिया हो । स्थविर और परिहारी दो ही रह गए हों । स्थविर भिक्षाटन में असमर्थ हो । अथवा परिहारी तप के कारण खेदखिन्न हो । • द्रव्य दुर्लभ हों। सब घरों में भिक्षा का समय एक हो I समय कम हो या पानी की अल्पता हो तो पारिहारिक और अपारिहारिक एक ही पात्र में एक साथ खा सकते हैं। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारतप ३३४ आगम विषय कोश-२ १०. पारिहारिक के वैयावृत्त्य का विधान परिहारकप्पट्ठियस्स णं भिक्खुस्स कप्पइ आयरिय- उवज्झाएणं तद्दिवसं एगगिहंसि पिंडवायं दवावेत्तए, तेण परं नो से कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउँ वा। कप्पड़ से अण्णयरं वेयावडियं करेत्तए, तं जहा-उद्रावणं वा निसीयावणं वा तयद्रावणं वा उच्चार- पासवण-खेल-सिंघाण-विगिंचणं वा विसोहणं वा करेत्तए॥ अह पुण एवं जाणेज्जा-छिन्नावाएसु पंथेसु आउरे झिंझिए पिवासिए तवस्सी दुब्बले किलंते मुच्छेज वा पवडेज्ज वा, एवं से कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा॥ (क ४/२७, २८) __आचार्य-उपाध्याय परिहारकल्पस्थित भिक्षु को, जिस दिन वह परिहारकल्प स्वीकार करता है, उस दिन एक घर से आहार दिला सकते हैं। उस दिन के बाद उसे अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य एक बार या बार-बार न दे सकते हैं, न दिला सकते हैं। किन्तु अपेक्षा होने पर उसका किसी भी प्रकार का वैयावृत्त्य कर सकते हैं। यथा-उठाना, बिठाना, करवट बदलना (सुलाना), मल-मूत्र, श्लेष्म, कफ आदि का परिष्ठापन करना, मल आदि से खरंटित उपकरणों का प्रक्षालन करना। यदि उन्हें ऐसा ज्ञात हो कि ग्लान और भूख-प्यास से क्लांत पारिहारिक आवागमन रहित पथों से गुजरता हुआ गांव तक नहीं पहुंच सकता अथवा तपस्या के कारण दुर्बल बना हुआ भिक्षाचर्या करता हुआ मूर्छित हो सकता है, गिर सकता है, तो वे उसे अशन आदि लाकर दे सकते हैं, दिला सकते हैं। परिहारकप्पट्ठियं भिक्खं गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स निज्जूहित्तए। अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुसए नामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया॥ (व्य २/६) गणावच्छेदक ग्लान परिहारकल्पस्थित भिक्षु का निर्वृहणउसके वैयावृत्त्य का निषेध नहीं कर सकता। रोग और आतंक से मुक्त होने तक उसकी अग्लान भाव से सेवा करणीय है। तत्पश्चात् वह यथालघुस्वक (अत्यल्प) प्रायश्चित्त में प्रस्थापनीय है। ११. परिहारी : आहारवितरण-विकृतिसेवन-अनुज्ञा परिहारकप्पट्ठियस्स भिक्खुस्स नो कप्पइ असणं वा .."दाउँ वा अणुप्पदाउं वा।थेरा यणं वएज्जा-इमंता अज्जो! तुमं एएसिं देहि वा अणुप्पदेहि वा। एवं से कप्पइ दाउं वा अणुप्पदाउं वा।कप्पइ से लेवं अणुजाणावेत्तए अणुजाणह भंते! लेवाए? एवं से कप्पइ लेवं समासेवित्तए।। ..."अन्यस्मै साक्षात् स्वहस्तेन दातुमनुप्रदातुं वा परम्परकेण प्रदातम अनशब्दस्य परम्परकद्योतकत्वात इह यहानमनुप्रदानं वा परिभाजनमुच्यते। (व्य २/२८ वृ) परिहारकल्पस्थित भिक्षु (अपारिहारिक भिक्षु को) अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का दान-अनुप्रदान नहीं कर सकता। आचार्य कहें-आर्य! इस भोजन को इन भिक्षओं में वितरित करो-इस प्रकार अनुज्ञा पाकर वह अशन आदि परोस सकता है। वह गुरु की आज्ञा प्राप्त कर लेप (घत आदि विगय) ले सकता है। 'भंते ! मुझे लेप की अनुज्ञा दें'-इस प्रकार अनुज्ञा प्राप्त कर वह लेप का आसेवन कर सकता है। दान का अर्थ है-साक्षात अपने हाथ से अन्य साधको देना और अनुप्रदान का अर्थ है-परम्पर देना। अथवा दान-अनुप्रदान का अर्थ है-परिंभाजन भोजन का विभाग करना वितरण करना। किह तस्स दाउ किज्जति, चोदग! सुत्तं तु होति कारणियं। सो दुब्बलो गिलायति, तस्स उवाएण देंतेवं॥ तवसोसियस्स मज्झो, ततो व तब्भावितो भवे अधवा। थेरा णाऊणेवं, वदंति भाएहि तं अज्जो॥ परिमित असती अण्णो, सो वि य परिभायणम्मि कसलो उ। उच्चूरपउरलंभे, अगीतवामोहणनिमित्तं ॥ परिभाइयसंसद्धे, जो हत्थं संलिहावइ परेण। फुसति व कुड्डे छड्डे, अणणुण्णाए भवे लहुओ॥ कप्पति य विदिण्णम्मी, चोदगवयणं च सेससूवस्स। एवं कप्पति अप्पायणं च कप्पट्टिती चेसा॥ (व्यभा १३४४-१३४८), __ परिहारी आहार का विभाग नहीं कर सकता, फिर वह क्यों करता है ? गुरु ने कहा-आयुष्मन् ! यह कारणिक सत्र है-परिहारी का शरीर तप से शोषित है, वह दुर्बल और ग्लान हो रहा है-इस कारण को जानकर ग्लान की अनुकम्पा के लिए आचार्य इस उपाय से उसे विकृति देते हैं। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३३५ परिहारतप अथवा आहार परिमित हो. साध विभागकशल न हो. वैयावृत्त्य का उद्यम करने के प्रसंग में गणी (गच्छाधिपति) परिहारी आहारवितरण में कशल हो, तब आचार्य उसे आहार- और आचार्य (अनयोगाचार्य-उपाध्याय परिवेषण की अनुज्ञा देते हैं। नाना प्रकार का प्रचुर आहार प्राप्त होने गया? संघ का वैयावृत्त्य पारिहारिक भिक्षु भी करता है तो फिर पर, अगीतार्थ की व्यामोहनिवृत्ति के लिए आचार्य कहते हैं- गणी, आचार्य आदि क्यों नहीं करते? वे करते हैं किन्तु आचार्य आर्य! तुम आहार का संविभाग कर साधुओं को परोसो। आदि अपने पद से मुक्त होकर परिहारतप का वहन करते हैं। उस विकृति-अनुज्ञा-आहार वितरण के पश्चात् उसके संसृष्ट हाथ समय वे भी नियमतः सामान्य भिक्षु होते हैं। को दूसरा साधु चाटकर साफ करता है या वह उस लिप्त हाथ को : "तप का स्थगन दीवार या काष्ठ से साफ करता है या गुरु की अनुज्ञा बिना स्वयं परिहारिओ उ गच्छे, सुत्तत्थविसारओ सलद्धीओ। चाटकर साफ करता है-इन सबमें वह लघुमासिक प्रायश्चित्त का अन्नेसिं गच्छाणं, इमाइ कज्जाइ जायाई॥ भागी होता है। वह आचार्य की अनुज्ञा मिलने पर स्वयं हाथ को अकिरिय जीए पिट्टण, संजमबद्धे य भत्तमलभंते। चाटता है और शेष बचे हुए आहार को अनुज्ञा से ही खाता है । जैसे भत्तपरिणगिलाणे, संजमऽतीते य वादी य॥ सूपकार (रसोइया) बचे हुए भोजन का स्वामी की आज्ञा से स्वयं नवि य समत्थो वन्नो, अहयं गच्छामि निक्खिविय भूमिं। परिभोग करता है। यह परिहारी की आचार-मर्यादा है कि सरमाणेहि य भणियं, आयरिया जाणगा तुझं ॥ शक्तिसंवर्धन के लिए वह ऐसा कर सकता है। जाणंता माहप्पं, कहेंति सो वा सयं परिकधेति। १२. पारिहारिक द्वारा गच्छ की सेवा तत्थ स वादी हु मए, वादेसु पराजितो बहुसो॥ मयण च्छेव विसोमे, देति गणे सो तिरो व अतिरो वा। अक्रियावादी नास्तिकवादी स राजसमक्षं वादं याचते। तब्भाणेस सएस व.............॥ जीए त्ति जीविते साधूनां प्राणेषु वा राजा केनापि कारणेन छेवकम-अशिवं तिरोहितं नाम–स आनीयानपारि- प्रद्विष्टः।"दुर्भिक्षे वा समापतिते भक्तमतीव दुर्लभं जातम्। हारिकस्य ददाति"""कल्पस्थितस्यापि ग्लानत्वेऽतिरोहितं (व्यभा ६९४-६९७ वृ) स्वयमेव गच्छस्य ददाति। (बृभा ५६१५ वृ) पारिहारिक साधु सूत्रार्थविशारद तथा लब्धि-सम्पन्न होता है। उसे इन प्रयोजनों से अन्य गच्छों में भेजा जाता हैमदन-कोद्रव आदि खाने से साधु ग्लान हो गए हों, महामारी ० कोई नास्तिकवादी राजा के समक्ष वाद करने की याचना करे। से गच्छ ग्रसित हो गया हो अथवा शत्रु के द्वारा विष दे दिया गया ० साधुजीवन के प्रति द्वेषभाव रखने वाले राजा आदि के द्वारा किसी हो-ऐसे कारण उत्पन्न होने पर पारिहारिक मुनि गच्छ के लिए साधु के मारण-पिट्टन-बंधन-उत्प्राव्रजन आदि का प्रंसग हो। आहार-पानी लाकर दे। आहार आदि उनके ही पात्रों में लाए। ०दर्भिक्ष आदि के कारण आहार-प्राप्ति न हो। उनके अभाव में अपने पात्रों का उपयोग करे। आहार आदि लाकर ० किसी साधु ने अनशन किया हो। (पारिहारिक अच्छा निर्यापक अनुपारिहारिक को अर्पित कर दे, उसके ग्लान होने पर कल्पस्थित होता है।) प्रवचन के आधारभूत आचार्य आदि ग्लान हो गये हों। को, उसके अभाव में वह स्वयं ही गच्छ को अर्पित करे। (पारिहारिक वैद्यकलाकुशल होता है।) १३. तप वहन काल में आचार्य द्वारा वैयावृत्त्य ० राजा आदि ने किसी मुनि को संयम से उत्प्रव्रजित कर पकड़ वेयावच्चुज्जमणे गणि-आयरियाण किण्णु पडिसेधो। लिया हो, उसे छुड़ाना हो। भिक्खपरिहारिओ वि हु, करेति किमुतायरियमादी॥ ० अन्य मतावलम्बी शास्त्रार्थ करना चाहता हो। जम्हा आयरियादी निक्खिविऊणं करेति परिहारं। इनमें से किसी भी कारण के उत्पन्न होने पर गच्छवासी तम्हा आयरियादी, वि भिक्खुणो होंति नियमेणं॥ अपने संघाटक को भेजते हैं। यह संघाटक आचार्य को निवेदन (व्यभा ६९२, ६९३) करता है। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारतप ३३६ आगम विषय कोश-२ आचार्य पारिहारिक के माहात्म्य को जानते हुए कहते हैं- १६. पारिहारिक : मार्ग में रुकने के कारण इसके अतिरिक्त अन्य कोई साधु इतना समर्थ नहीं है, जो वादी उभतो गेलण्णे वा, वास नदी सुत्त अत्थ पुच्छा वा। का निग्रह कर सके या अन्य प्रयोजन सिद्ध कर सके। अथवा विज्जानिमित्तगहणं, करेति आगाढपण्णे वा॥ वह पारिहारिक स्वयं कह देता है-उस वादी को मैंने शास्त्रार्थ (व्यभा ७०६) में अनेक बार पराजित किया है। यदि गरुवर्य अनज्ञा दें तो मैं पारिहारिक प्रयोजनस्थान (गन्तव्य) तक पहुंचने से पूर्व जाऊं। छह कारणों से कहीं भी रुक सकता हैयह परिहारतप वहन कर रहा है-इस बात का स्मरण कर १. वह मार्ग में स्वयं ग्लान हो जाये या अन्य किसी ग्लान साधु को गुरु कहते हैं-आर्य! वहां से प्रत्यागमन न हो, तब तक के लिए। देखे या उसके बारे में सने तो परिचर्या के लिए। तुम अपनी परिहारतपोभूमि को छोड़ दो। यदि वह कहे-गुरुदेव! २. वर्षा या नदी का पूर आ जाये। मैं प्रायश्चित्त वहन करता हुआ भी उस प्रयोजन को साध सकता ३. कोई सूत्रार्थ की प्रतिपृच्छा करे तो प्रतिपृच्छा दान के लिए। हं, तो प्रत्युत्तर में गुरु कहते हैं-तुम जहां जा रहे हो, वहां जो । ४. किसी के पास परवादिमुखबंधकरणी या मायूरी, नाकुली आदि आचार्य हैं, वे जैसा कहें, वैसा करना। विद्याएं हों या कोई विशिष्ट निमित्तज्ञ मिल जाये, उससे निमित्त १५. परिहारतप का निक्षेप-झोष आदि सीखने के लिए। निक्खिव न निक्खिवामी, पंथे च्चिय देसमेव वोज्झामि। ५. कई साधु आगाढयोगप्रविष्ट हों और उनको वाचना देने वाले असहू पुण निक्खिवते, झोसंति मुएज्ज तवसेसं॥ आचार्य कालगत हो गए हों, तो उन्हें वाचना देने के लिए। एमेव य सव्वं पि ह. दरद्धाणम्मि तं भवे नियमा। ६. अपान्तराल में कोई ऐसा ग्रंथ उपलब्ध हो जाये, जिसका एमेव सव्वदेसे, वाहणझोसा पडिनियत्ते॥ अध्येता गाढ प्रज्ञावान् बन जाता है, तो 'मैं प्रज्ञ (महाप्रज्ञ) हो (व्यभा ७६५, ७६६) जाऊं' इस बुभूषा से वहां ठहर जाता है। गमनप्रयोजन उपस्थित होने पर गुरु कहते हैं-अधिकृत १७. वादी पारिहारिक को अल्प प्रायश्चित्त तप को अभी छोड़ दो। वह कहता है-मैं समर्थ हूं, मार्ग में ही ."बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, से य आहच्च उस अवशिष्ट देशभाग को वहन कर लूंगा। असमर्थ पारिहारिक अइक्कमेज्जा, तं च थेरा जाणेज्जा अप्पणो आगमेणं अण्णेसिं उसे छोड़ देता है। अथवा आचार्य उसे शेष तप से मुक्त कर वा अंतिए सोच्चा, तओ पच्छा तस्स अहालहुसए नाम ववहारे देते हैं। पट्टवियव्वे सिया। (क ५/४०) इसी प्रकार जिसने अभी मात्र प्रारंभ किया है, सारा ही तप परिहारिओ य गच्छे, आसण्णे गच्छ वाइणा कज्जं। शेष है, वह समर्थ पारिहारिक कहता है-मार्ग लंबा है, अतः मैं आगमणं तहिं गमणं, कारण पडिसेवणा वाए। मार्ग में ही सारा वहन कर लूंगा। (सर्वजघन्य परिहारतप मासिक पाया व दंता व सिया उ धोया, वा बुद्धिहेतुं व पणीयभत्तं। होता है। आनंदपुर से मथुरा तक जिसका गन्तव्य है, वह मार्ग में तं वातिगं वा मइ-सत्तहेउं, सभाजयट्ठा सिचयं व सुक्कं॥ ही उसे पूरा कर लेता है।) अथवा प्रसादबुद्धि से गुरु उसे सम्पूर्ण नव-दस-चउदस-ओही-मणनाणी केवली य आगमिउं' तप से ही मुक्त कर देते हैं। उब्भावियं पवयणं, थोवं ते तेण मा पुणो कासि। गुरु यदि मुक्त न करें तो प्रयोजन सम्पन्न कर वह पुनः मतिर्नाम-""""ऊहात्मको ज्ञानविशेषः, सत्त्वं""आन्तर निजी क्षेत्र में आकर, देशभाग का निक्षेप किया था तो देशभाग का और सर्वभाग का निक्षेप किया था तो सर्वभाग का वहन करता है। उत्साहविशेषः। (बृभा ६०३४, ६०३५, ६०३७, ६०४६ वृ) अथवा अहो! इसने दुष्कर कार्य किया है-इस रूप में परितुष्ट परिहारकल्पस्थित मुनि आचार्य के वैयावृत्त्य के लिए बाहर आचार्य उसे देश या सर्व तप से मुक्त कर देते हैं। जाता है। वह उस कार्यावधि में कदाचित नियमों का अतिक्रमण | Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश---२ ३३७ परिहारविशुद्धि भी कर लेता है। उसके पुनः आगमन पर आचार्य अपने ज्ञानबल से शिष्य ने पूछा-भंते! किसी को परिहारतप और किसी अथवा दूसरों से सुनकर उसके अतिक्रमण को जान जाते हैं। को शुद्ध तप प्रायाश्चित्त देने का आधार क्या है? तब आचार्य ने तत्पश्चात वे उसे यथालघुस्वक (पांच दिन का निर्विकृतिक तप) कहा-पाषाण-मण्डप में जितना समा सके, उतना प्रक्षेप करने पर प्रायश्चित्त देते हैं। __ भी उसके टूटने का भय नहीं रहता। एरण्ड मण्डप में उसकी __ वादी का निग्रह करना भी वैयावृत्त्य है। किसी नगर में झेलने की क्षमता के अनुसार ही प्रक्षेप किया जाता है। इसी प्रकार कोई वादी आ पहुंचा। वहां के श्रमणसंघ के पास कोई वादलब्धिसंपन्न धुति और संहनन से जो बलवान् है, उसे परिहार तप तथा दुर्बल मुनि नहीं था। आगंतुक आचार्य के पास परिहारतप वहन करने को शुद्ध तप दिया जाता है। वाला मनि वादलब्धि से संपन्न था। नगरस्थ आचार्य ने दो मुनियों १० परिवार और लेट के साथ संदेश भेजकर कहलवाया कि वादी का निग्रह करना है, परिहाराच्छेदो गरीयान्। (व्यभा ७१८ की वृ) इसलिए वादलब्धिसंपन्न मुनि को भेजें। उन्होंने परिहारतप वहन करने वाले मुनि को वहां भेजा। परिहारतप से छेद प्रायश्चित्त बड़ा है। वह राजसभा में जाता है। वादी का निग्रह कर प्रवचन की 'छेदो' वा पञ्चरात्रिन्दिवादिः 'परिहारो' वा मासलघुप्रभावना करता है। उस समय प्रवचन की जुगुप्सा न हो, इस दृष्टि कादिस्तपोविशेषो भवति। (क २/४ की वृ) से वह पैर धोता है, दांतों का प्रक्षालन करता है, वाक्पाटव और छेद पांच अहोरात्र से छह मास पर्यंत होता है। मेधापरिवर्धन के लिए प्रणीत आहार करता है, ऊहात्मक मति और आंतरिक उत्साह बढ़ाने के लिए वातिक आदि पदार्थों का सेवन परिहार तपविशेष है। वह मासलघु से छह मास पर्यंत होता है। करता है, सभा में विजय प्राप्त करने के लिए शुक्ल वस्त्र धारण परिहारविशुद्धि-चारित्र का तीसरा प्रकार, विशिष्ट श्रुतकरता है-ये प्रतिसेवनाएं करता है। जब वह लौटकर आता है, सम्पन्न नौ साधुओं द्वारा अठारह मास तक तब नौ-दसपूर्वी, चतुर्दशपूर्वी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी अथवा किया जाने वाला तप का विशेष प्रयोग। केवलज्ञानी अपने ज्ञानबल से स्वयं जानकर अथवा अन्य स्रोतों से | १. परिहारकल्प : निर्विशमान-निर्विष्टकायिक जानकर उसे कहते हैं-तुमने परवादी का निग्रह कर प्रवचन की | * निर्विशमान" : कल्पस्थिति के भेद द्रकल्पस्थिति प्रभावना की है, अतः अल्प प्रायश्चित्त दिया गया है। आगे से ये | २. परिहारकल्प के अर्ह : श्रुत आदि प्रतिसेवनाएं मत करना। ३. परिहारकल्प स्वीकार करने से पूर्व १८. शुद्धतप और परिहारतप में अंतर ४. निर्विशमान-निर्विष्टकायिक : तपसमाचरण-विधि आलवणादी उ पया, सुद्धतवे तेण कक्खडो न भवे। ५. शुद्धपरिहार और जिनकल्प में अंतर इतरम्मि उ ते नत्थी, कक्खडओ तेण सो होति ।। ०क्षेत्र, संहरण आदि (व्यभा ५५८) ० गणना : गण-पुरुष-प्रमाण शद्ध तप में आलपन, वंदन, सहभोजन आदि दसों पदों का .परिहारी-अनपरिहारी...: परस्पर व्यवहार प्रयोग होता है, इसलिए वह कर्कश नहीं है। परिहारतप में इन ७. परिहारकल्प-परम्परा की कालावधि दसों पदों का परिहार-निषेध कर दिया जाता है, इसलिए वह ८.सामायिक"परिहारविशद्धि के संयमस्थान कठोर है। ०संयमस्थान : अविभागपरिच्छेद"कण्डक.... काल और तपःकरण की अपेक्षा से दोनों तप तुल्य हैं। १. परिहारकल्प : निर्विशमान-निर्विष्टकायिक जं मायति तं छुब्भति, सेलमए मंडवे न एरंडे। परिहारकप्पं ...... परिहरंति जहा विऊ।...... उभयबलियम्मि एवं, परिहारो दुब्बले सुद्धो॥ ...विदितपूर्वगतश्रुतरहस्यास्तं कल्पं परिहरन्ति' धातू (व्यभा ५४२) नामनेकार्थत्वाद् आसेवन्ते। (बृभा ६४४७ वृ) Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारविशुद्धि ***** निव्विसमाणकप्पट्ठिती, निव्विट्टकाइयकप्पट्ठिती, ॥ निर्विशमानाः - परिहारविशुद्धिकल्पं वहमानास्तेषां कल्पस्थिति:..... निर्विष्टकायिका नाम - यैः परिहारविशुद्धिकं तपो व्यूढम्, निर्विष्ट:- - आसेवितो विवक्षितचारित्रलक्षणः काय यैस्ते निर्विष्टकायिकाः, तेषां कल्पस्थितिः । (क ६/२० वृ) पूर्वगतश्रुत के रहस्यों के पारगामी मुनि परिहारविशुद्धि चारित्र की आचार - मर्यादा का परिहार -- आसेवन करते हैं, वह परिहारकल्प है । कल्पवहन की पूर्वापरता के आधार पर इसके दो रूप हैं१. निर्विशमानकल्पस्थिति - परिहारविशुद्धिकल्प को वहन करने वालों की आचार - मर्यादा । २. निर्विष्टकायिककल्पस्थिति - जो परिहारविशुद्धिकल्प की आराधना कर चुके हैं, उनकी आचार - मर्यादा । २. परिहारकल्प के अर्ह : श्रुत आदि सव्वे चरितमंतो य, दंसणे परिनिट्ठिया । पुलिया जहन्नेणं, उक्कोस दसपुव्विया ॥ पंचविहे ववहारे, कप्पे त दुविहम्मि य । दसविहे य पच्छित्ते, सव्वे ते परिणिट्टिया ॥ ......उत्कर्षतः 'दशपूर्विणः ' किञ्चिद् न्यूनदशपूर्वधरा मन्तव्याः । तथा 'पञ्चविधे व्यवहारे' आगम-श्रुता SS-ज्ञाधारणा - जीतलक्षणे 'द्विविधे च कल्पे' अकल्पस्थापनाशैक्षस्थापनाकल्परूपे जिनकल्प - स्थविरकल्परूपे वा । (बृभा ६४५४, ६४५५ वृ) परिहारकल्प स्वीकार करने वाले का चारित्र निरतिचार तथा सम्यक्त्व परम विशुद्ध होता है। वह जघन्य नौ पूर्व तथा उत्कृष्ट कुछ कम दस पूर्वों का ज्ञाता होता है। आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत- इन पांच व्यवहारों और दो प्रकार के कल्पों-अकल्पस्थापनाकल्प और शैक्षस्थापनाकल्प अथवा जिनकल्प और स्थविरकल्प का वेत्ता तथा आलोचना आदि दस प्रकार की प्रायश्चित्त विधि में पारंगत मुनि ही परिहारकल्पस्थिति को स्वीकार कर सकता है। ३. परिहारकल्प स्वीकार करने से पूर्व अप्पणो आउगं सेसं, जाणित्ता ते परक्कमं च बल विरियं पच्चवाते ३३८ महामुनी । तहेव य ॥ आपुच्छिऊण अरहंते, मग्गं पमाणाणि य सव्वाई, आगम विषय कोश - २ देखेंति ते इमं । अभिग्गहे य बहुविहे || (बृभा ६४५६, ६४५७) परिहारकल्प स्वीकार से पूर्व मुनि विशिष्ट श्रुत के उपयोग से अपने आयुष्य, शारीरिक सामर्थ्य और जीवनीशक्ति को जानकर, भविष्य में रोग आदि की संभावना नहीं होने पर ही इस कल्प को स्वीकार करते हैं। वे तीर्थंकर की अनुज्ञा लेकर उनके पास ही इस कल्प को स्वीकार करते हैं। तीर्थंकर उनके समक्ष गणप्रमाण, पुरुषप्रमाण, उपधिप्रमाण आदि सामाचारी का प्रतिपादन करते हैं। और विविध प्रकार के अभिग्रहों का प्रज्ञापन करते हैं । ४. निर्विशमान-निर्विष्टकायिक : तपसमाचरण - विधि बारस दसऽट्ठ दस अट्ठ छ च्च अद्वेव छ च्च चउरो य । उक्कोस - मज्झिम- जहण्णगा उ वासा सिसिर गिम्हे ॥ आयंबिल बारसमं, पत्तेयं परिहारिगा परिहरति । अभिगहितएसणाए, पंचण्ह वि एगसंभोगो ॥ परिहारिओ वि छम्मासे अणुपरिहारिओ वि छम्मासा । कप्पट्ठितो वि छम्मासे एते अट्ठारस उ मासा ॥ अणुपरिहारिगा चेव, जे य ते परिहारिगा । भवंति ते ॥ भवंति ते । अण्णमण्णेसु ठाणेसु, अविरुद्धा गएहिं छहिं मासेहिं निव्विट्ठा ततो पच्छा ववहारं, पट्टवंति अणुपरिहारिया ॥ गएहिं छहिं मासेहिं निव्विट्ठा भवंति ते। पच्छा, परिहारं तहाविहं ॥ वह ये तु चत्वारोऽनुपारिहारिका एकश्च कल्पस्थित: ते च प्रतिदिवसमाचाम्लं कुर्वन्ति । यस्तु कल्पस्थितः स स्वयं न हिण्डते, तस्य योग्यं भक्तपानमनुपारिहारिका आनयन्ति । (बृभा ६४७२-६४७७ वृ) शुद्ध पारिहारिक वर्षाकाल में उत्कर्षत: पांच दिन का उपवास कर पारणक में आयंबिल करते हैं। कल्पस्थित और अनुपारिहारिक प्रतिदिन आयंबिल करते हैं। ऋतु के अनुसार तप इस प्रकार हैतप वर्षा ग्रीष्म उत्कृष्ट पांच दिन मध्यम चार दिन शिशिर जघन्य तीन दिन चार दिन तीन दिन दो दिन तीन दिन (तेला) दो दिन (बेला) एक दिन (उपवास) Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ पारिहारिक पृथक्-पृथक् आहार करते हैं । वे आहार आदि की दृष्टि से परस्पर साम्भोजिक नहीं होते, कल्पस्थित और चार अनुपारिहारिक- इन पांचों का एक सम्भोज होता है। ३३९ शुद्धपारिहारिक अभिगृहीत एषणाओं से आहार- पानी ग्रहण करते हैं। कल्पस्थित स्वयं भिक्षाचर्या नहीं करता, अनुपारिहारिक उसके योग्य भक्त - पान लाते हैं। पारिहारिक प्रथम छह महीनों में प्रस्तुत तप वहन करते हैं। तत्पश्चात् अनुपारिहारिक छह मास पर्यंत तप करते हैं और पूर्व पारिहारिक उनका अनुपारिहारिकत्व स्वीकार करते हैं। अंतिम छह मास पर्यंत कल्पस्थित परिहारतप करता है और उन आठों में से एक कल्पस्थित (गुरुकल्प) तथा शेष अनुपारिहारिक के रूप में नियुक्त होते हैं। पारिहारिक और अनुपारिहारिक परस्पर एक-दूसरे का वैयावृत्त्य करते हैं, कालभेद के कारण उनमें विरोध नहीं आता । वे तप-वहन काल में निर्विशमान और छह-छह मास तक तप-वहन के पश्चात् निर्विष्टकायिक कहलाते हैं । इस प्रकार अठारह महीनों में इस परिहारकल्प की साधना सम्पन्न होती है। * निर्विशमान और निर्विष्टकायिक द्र श्रीआको १ चारित्र अट्ठारसहिं मासेहिं, कप्पो होति समाणितो । मूलट्ठवणाएँ समं, छम्मासा तु अणूणगा ॥ एवं समाणिए कप्पे, जे तेसिं जिणकप्पिया । तमेव कप्पं ऊणा वि, पालए जावजीवियं ॥ अट्ठारसेहिं पुण्णेहिं, मासेहिं थेरकप्पिया । पुणो गच्छं नियच्छंति, एसा तेसिं अहाठिती ॥ (बृभा ६४७८-६४८० ) पारिहारिक प्रथमतः जो तप स्वीकार करते हैं, उनकी अवधि अन्यून छह मास होती है— उसे मूलस्थापना कहा गया है। अनुपारिहारिक और कल्पस्थित का तप मूलस्थापना के तुल्यछह-छह मास का होता है। इस प्रकार अठारह मास में यह कल्प सम्पन्न होता है। इस कल्प साधना के सम्पन्न होने पर उनमें जो जिनकल्पिक होते हैं, वे जीवनपर्यंत उसी कल्प की अनुपालना करते हैं। उनकी संख्या न्यून (आठ आदि) भी हो सकती है। उनमें जो स्थविरकल्पिक होते हैं, वे पुनः अपने गच्छ में परिहारविशुद्धि चले जाते हैं - यह उनकी कल्पस्थिति ( आचार मर्यादा) है। ५. शुद्धपरिहार और जिनकल्प में अंतर एसेव कमो नियमा, सुद्धे परिहारिए अहालंदे । नाणत्ती य जिणेहिं, पडिवज्जइ गच्छ गच्छो य ॥ तवभावणणाणत्तं, करंति आयंबिलेण परिकम्मं । इत्तिरिय थेरकप्पे, जिणकप्पे आवकहियाओ ॥ पुणे जिपं वा अइंति तं चेव वा पुणो कप्पं । गच्छं वा इंति पुणो, तिन्नि विहाणा सिं अविरुद्धा ॥ इत्तरियाणुवसग्गा, आतंका वेयणा य न भवंति । आवकहियाण भइया, तहेव छ ग्गामभागा उ ॥ (बृभा १४२५ - १४२८ ) शुद्धपारिहारिक और यथालन्दिक का प्रव्रज्या, शिक्षा, देशाटन आदि का क्रम जिनकल्पिक के समान ही है। जिनकल्पिक से शुद्धपारिहारिक की सामाचारी में अनेक बातों में भेद है । यथा० व्यक्ति - जघन्यतः तीन गच्छ यानी नौ मुनि एक साथ शुद्धपरिहारकल्प स्वीकार करते हैं । ० तपभावना—आयंबिल का पूर्वाभ्यास करते हैं । ० प्रकार - इनके दो प्रकार हैं - १. इत्वरिक - जो कल्प सम्पन्न होने के बाद स्थविरकल्प स्वीकार कर लेते हैं । २. यावत्कथिकजो कल्प सम्पन्न होने पर जिनकल्प को स्वीकार करते हैं। इस प्रकार पारिहारिक के अविरुद्ध तीन प्रकार बन जाते हैं १. परिहारकल्प पूर्ण होने पर जिनकल्प स्वीकार करना । २. अथवा पुनः उसी परिहारविशुद्धि कल्प का पालन करना । ३. अथवा पुनः गच्छ में आना ( स्थविरकल्प स्वीकार करना) । ० उपसर्ग - इत्वरिक पारिहारिक के उपसर्ग, आतंक और वेदनाये नहीं होते - यह उस कल्प का ही प्रभाव है। यावत्कथिक पारिहारिक के उपसर्ग आदि की भजना है, क्योंकि जिनकल्पस्थिति में ये संभव हैं। ० भिक्षाचर्या - जिनकल्पिक की तरह पारिहारिक भी भिक्षाटन के लिए ग्राम के छह विभाग करते हैं। ० क्षेत्र, संहरण आदि खेत्ते भरहेरवएसु होंति, साहरणवज्जिया नियमा । ठियकप्पम्मि उ नियमा, एमेव य दुविह लिंगे वि ॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारविशुद्धि ३४० आगम विषय कोश-२ काले उत्सर्पिण्यामवसर्पिण्यां वा भवेयुः, न नोअव- पूर्वप्रतिपन्न की भी भजना है-एक भी हो सकता है, सर्पिण्युत्सर्पिण्यां सुषमसुषमादिषु वा प्रतिभागेषु। पृथक्त्व भी हो सकते हैं। (अठारह मास पूर्ण होने पर आठ (बृभा १४३१७) पारिहारिक अन्य कल्प को स्वीकार कर लेते हैं-इस अपेक्षा से ०क्षेत्र -पारिहारिक भरतक्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र में होते हैं। एक मुनि तथा दो, तीन आदि उसी कल्प का पालन करते हैं इस ० संहरण-इनका नियमत: संहरण नहीं होता। अपेक्षा से पृथक्त्व परिमाण है।) ० कल्प-प्रथम और चरम तीर्थंकर के तीर्थ में होने कारण ये ६. परिहारी-अनुपरिहारी..." : परस्पर व्यवहार नियमतः स्थितकल्प में होते हैं। पमाणं कप्पट्ठितो तत्थ, ववहारं ववहरित्तए। ०लिंग-इसी प्रकार इनके नियमत: द्रव्य और भाव दोनों प्रकार अणुपरिहारियाणं पि, पमाणं होति से विऊ॥ का लिंग होता है। आलोयण कप्पठिते, तवमुज्जाणोवमं परिवहंते। ० काल-ये उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल में होते हैं, नोअवसर्पिणी- अणुपरिहारिएँ गोवालए, व णिच्च उज्जुत्तमाउत्ते॥ उत्सर्पिणी या सुषमसषमा आदि प्रतिभागों में नहीं होते। पडिपुच्छं वायणं चेव, मोत्तूणं णत्थि संकहा। * वसति, स्थण्डिल आदि द्रजिनकल्प आलावो अत्तणिद्देसो, परिहारिस्स कारणे॥ ० गणना : गण-पुरुष-प्रमाण (बृभा ६४६९-६४७१) गणओ तिन्नेव गणा, जहन्न पडिवत्ति सयसो उक्कोसा। पारिहारिक और अनुपारिहारिक के द्वारा किसी प्रकार की उक्कोस जहन्नेणं, सतसो च्चिय पुव्वपडिवन्ना॥ स्खलना होने पर कल्पस्थित ही प्रायश्चित्त देने के लिए प्रमाणपुरुष सत्तावीस जहन्ना, सहस्स उक्कोसतो उ पडिवत्ती। होता है। पारिहारिक और अनुपारिहारिक मुनि कल्पस्थित के समक्ष सयसो सहस्ससो वा, पडिवन्ना जहन्न उक्कोसा॥ आलोचना, प्रत्याख्यान आदि करते हैं। पारिहारिक मुनि तप का वहन पडिवजमाण भइया, इक्को विउ होज्ज ऊणपक्रोवे। करते हुए उद्यानिका के स्वच्छन्द विहारी की भांति सुखानुभूति करते पुव्वपडिवन्नया वि उ, भइया इक्को पहत्तं वा॥ हैं। अनुपारिहारिक भिक्षा आदि में उनके पीछे वैसे ही प्रयत्नशील १४३५-१४३७) और आयुक्त रहते हैं, जैसे गायों के पीछे ग्वाला। गणप्रमाण-जघन्यतः तीन गण (सत्ताईस मनि) और उत्कर्षतः पारिहारिक आदि नवों व्यक्ति सूत्र-अर्थ की वाचना और शत-पृथक्त्व (दो सौ से नौ सौ) गण एक साथ इस कल्प को प्रतिपृच्छा के अतिरिक्त परस्पर आलाप-संलाप नहीं करते। उठनेस्वीकार कर सकते हैं। पूर्वप्रतिपन्न उत्कृष्ट और जघन्य शतपृथक्त्व बैठने आदि में अशक्त होने पर पारिहारिक आत्मनिर्देश रूप आलाप गण होते हैं। (जघन्य पद से उत्कृष्ट पद अधिकतर होता है।) करते हैं, यथा-उत्थास्यामि, उपवेक्ष्यामि, भिक्षां हिण्डिष्ये...... ० पुरुष प्रमाण-जघन्य सत्ताईस व्यक्ति और उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व ७. परिहारकल्प-परम्परा की कालावधि (दो हजार से नौ हजार) व्यक्ति एक साथ इस कल्प को स्वीकार पुव्वसयसहस्साइं, पुरिमस्स अणसज्जती। करते हैं। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा जघन्य शतपृथक्त्व और उत्कृष्ट वीसग्गसो य वासाइं, पच्छिमस्साणुसज्जती॥ सहस्रपृथक्त्व होते हैं। पव्वज्ज अट्ठवासस्स, दिट्ठिवातो उ वीसहिं । इस कल्प को स्वीकार करने वाले पुरुषों में भजना है। इति एकूणतीसाए, सयमूणं तु पच्छिमे॥ अठारह मास की साधना पूर्ण होने के बाद कोई मुनि मृत्यु को प्राप्त पालइत्ता सयं ऊणं, वासाणं ते अपच्छिमे। हो जाता है। कोई जिनकल्प को स्वीकार कर लेता है। कोई गच्छ काले देसिंति अण्णेसिं, इति ऊणा तु बे सता॥ में चला जाता है। शेष मुनि यदि वही साधना करना चाहते हैं, तब पडिवन्ना जिणिंदस्स, पादमूलम्मि जे विऊ। उस गण की पूर्ति एक, दो आदि जितने साधुओं से होती है, उतने ठावयंति उ ते अण्णे, णो उ ठावितठावगा। साधु एक-साथ उस कल्प को स्वीकार करते हैं। (बृभा ६४५०-६४५३) Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३४१ परिहारविशुद्धि प्रथम तीर्थंकर के समय देशोन (कुछ कम) दो पूर्व कोटि तो परिहारविशुद्धि के पश्चात् भी रहेगा। इसलिए इन दोनों के तक यह परम्परा रहती है और अंतिम तीर्थंकर के समय कुछ कम असंख्येय संयमस्थान अधिक हैं। दो सौ वर्ष तक यह परम्परा रहती है। परिहारकल्प का स्वीकरण परिहारविशुद्धि चारित्र के __आठ वर्ष की अवस्था में प्रव्रजित मुनि की नौवें वर्ष में संयमस्थान में विद्यमान होने पर ही होता है। पूर्वप्रतिपन्न की उपस्थापना होती है। मुनिपर्याय के उन्नीसवें वर्ष में उसे दृष्टिवाद अपेक्षा से सामायिक आदि के संयमस्थान विशुद्धतर होते हैं। की वाचना दी जाती है और एक वर्ष में दृष्टिवाद संबंधी योग सामायिक आदि अन्य संयमस्थानों में विद्यमान होने पर सम्पन्न होता है। इस प्रकार उनतीस वर्षीय मुनि अर्हत ऋषभ के भी व्यवहार नय की अपेक्षा वह परिहारविशद्धिक कहलाता है पास परिहारतप स्वीकार करते हैं और देशोन (उनतीस वर्ष कम) क्योंकि वह परिहारविशुद्धि संयमस्थानों का अनुभव कर चुका है पर्वकोटि पर्यंत उस कल्प का अनुपालन करते हैं। उनकी आय के और व्यवहारनय अतीत अर्थ को भी मान्य करता है। निश्चय नय पर्यंत भाग में उनके पास अन्य मुनि परिहारकल्प स्वीकार करते की अपेक्षा उसे पारिहारिक नहीं कहा जा सकता। हैं। वे भी देशोन पूर्वकोटि तक कल्प का पालन करते हैं। इस (सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनकसंयत और परिहारप्रकार देशोन दो पूर्वकोटि तक परिहारकल्प की परम्परा चलती है। विशुद्धिक-संयत-इनके संयमस्थान असंख्य होते हैं। सूक्ष्मसंपराययह कथन पूर्वकोटि आयुष्य वाले मुनियों की अपेक्षा से है। संयत के आन्तर्मुहूर्त्तिक असंख्य संयमस्थान होते हैं। यथाख्यातसंयत भगवान महावीर के शासनकाल में कुछ कम दो सौ वर्ष के एक संयमस्थान होता है। सामायिकसंयत यावत् यथाख्यातसंयत तक परिहारकल्प की परम्परा अनवर्तित होती है-यह प्रतिपादन के चारित्रपर्यव अनंत होते हैं।-भ २५/४८६-४८८, ४९० सौ वर्ष के आयुष्य वाले मुनियों की अपेक्षा से है। परिहारविशुद्धिक स्थितकल्पी, कषायकुशीलनिग्रंथ और तीर्थकर के पास परिहारकल्प स्वीकार करने वाले मुनि ही अप्रतिसेवी होते हैं। उनकी गति जघन्य सौधर्मकल्प, उत्कृष्ट अन्य मुनियों को परिहारकल्प में स्थापित कर सकते हैं । वे स्थापित सहस्रारकल्प है।-भ २५/४६२, ४६५, ४६८, ४८१) मुनि अन्य मुनियों को इस कल्प में स्थापित नहीं कर सकते। अतः संयमस्थान : अविभागपरिच्छेद कण्डक यह परम्परा दो पूर्वकोटि या दो सौ वर्ष से अधिक नहीं चलती। अविभागपलिच्छेया, ठाणंतर कंडए य छट्ठाणा।" अविभागपलिच्छेदं, ८. सामायिक : ..."परिहारविशुद्धि के संयमस्थान चरित्तपज्जव-पएस-परमाणू।... तुल्ल जहन्ना ठाणा, संजमठाणाण पढम-बितियाणं।। ते कित्तिया पएसा, सव्वागासस्स मग्गणा होइ। तत्तो असंख लोए, गंतुं परिहारियट्ठाणा॥ ते जत्तिया पएसा, अविभाग तओ अणंतगुणा॥ ते वि असंखा लोगा, अविरुद्धा ते वि पढम-बिइयाणं। इह संयमस्थानं केवलिप्रज्ञाच्छेदनकेन छिद्यमानं निरंशतया यदा विभागं न यच्छति तदाऽसावन्तिमो अंशो उवरिं पि ततो असंखा, संजमठाणा उ दोण्हं पि॥ अविभागपरिच्छेद उच्यते। सर्वाकाशप्रदेशेभ्यश्चारित्रस्य सट्ठाणे पडिवत्ती, अन्नेसु वि होज्ज पुव्वपडिवन्नो। अविभागपरिच्छेदा अनन्तगुणाः सर्व-जघन्येऽपि संयमस्थाने अन्नेसु वि वतो, तीयनयं वुच्चई पप्प॥ प्रतिपत्तव्याः। एषा अविभागपरिच्छेद-प्ररूपणा। (बृभा १४३२-१४३४) प्रथमसंयमस्थानगतनिर्विभागभागापेक्षया द्वितीये सामायिक और छेदोपस्थापनीय के जघन्य संयमस्थान तुल्य संयमस्थाने निर्विभागा भागा अनन्ततमेन भागेनाधिका होते हैं। उसके बाद असंख्येय लोकाकाशप्रदेश-प्रमाण सामायिक- भवन्तीति। एषा स्थानान्तरप्ररूपणा। छेदोपस्थापनीय के संयमस्थान व्यतीत होने पर परिहारविशद्धि के तस्मादपि यदनन्तरं तृतीयं तत् ततोऽनन्तभागवृद्धम्, संयमस्थान भी असंख्येय लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं। तीनों में एवं पूर्वस्मादुत्तरोत्तराणि अनन्ततमेन भागेन वृद्धानि निरन्तरं विशुद्धि की दृष्टि से साम्य है किन्तु सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयमस्थानानि तावद् वक्तव्यानि यावदङ्गलमात्रक्षेत्रासंख्येय Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारविशुद्धि ३४२ आगम विषय कोश-२ भागगत प्रदेशराशिप्रमाणानि भवन्ति। एतावन्ति च समुदि- ० कण्डकप्ररूपणा-दूसरे संयमस्थान से तीसरा संयमस्थान तानि स्थानानि कण्डकमित्युच्यते। एषा कण्डकप्ररूपणा। अनंतभाग अधिक है। इस प्रकार उत्तरोत्तर निरंतर अनंततमभाग से ___ पाश्चात्यकण्डकसत्कचरमसंयमस्थानगतनिर्वि- परिवृद्ध संयमस्थान तब तक वक्तव्य हैं, जब तक वे अंगुलमात्रक्षेत्र भागभागापेक्षया कण्डकानन्तरे संयमस्थाने निर्विभागा भागा के असंख्येयभागगत प्रदेशराशि जितने परिमाण में होते हैं। इतने असंख्येयतमेन भागेनाधिकाः प्राप्यन्ते। ततः पराणि पुनरपि समुदित स्थानों को कण्डक कहा जाता है। कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि ० षट्स्थान प्ररूपणा-पश्चाद्वर्ती कण्डक के चरम संयमस्थानगत भवन्ति, ततः पुनरेकमसंख्येयभागाधिकं संयमस्थानम्, निर्विभाग भाग की अपेक्षा कण्डकानंतर संयमस्थान में निर्विभाग एवमनन्तभागाधिकैः कण्डकप्रमाणैः संयमस्थानैर्व्यवहितानि भाग असंख्येयतम भाग अधिक होते हैं। उससे आगे कण्डकमात्र असंख्येयभागाधिकानि संयमस्थानानि तावद् वक्तव्यानि संयमस्थान यथोत्तर अनंतभाग अधिक होते हैं। उससे आगे पुनः यावत् तान्यपि कण्डकप्रमाणानि भवन्ति । ततश्चरमादसंख्येय- असंख्येय भाग अधिक एक संयमस्थान तथा उससे आगे यथोत्तर भागाधिकसंयमस्थानात् पराणि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि अनंतभागवृद्ध कण्डकमात्र संयमस्थान, तत्पश्चात् पुनः असंख्येयकण्डकमात्राणि संयमस्थानानि भवन्ति, ततः परमेकं संख्येय- भाग अधिक एक संयमस्थान-इस प्रकार अनंतभाग अधिक भागाधिकं संयमस्थानम्, "तत उक्तक्रमेण भूयोऽपि संख्येय- कण्डकप्रमाण संयमस्थानों से व्यवहित असंख्येय भाग अधिक भागाधिकसंयमस्थानप्रसंगे संख्येयगुणाधिकमेकं संयमस्थानं संयमस्थान वहां तक वक्तव्य हैं, जहां वे भी कण्डकप्रमाण होते हैं। वक्तव्यम्,"असंख्येयगुणाधिकं "अनन्तगुणाधिकं संयमस्थानं उस चरम असंख्येय भाग अधिक संयमस्थान से परे यथोत्तर वक्तव्यम्, "एवमनन्तगुणाधिकानि तावद् वक्तव्यानि यावत् अनंतभाग अधिक कण्डकमात्र संयमस्थान होते हैं। उससे आगे कण्डकमात्राणि भवन्ति।''इत्थम्भूतान्यसंख्येयानि कण्ड- संख्येय भाग अधिक एक संयमस्थान होता है। उससे आगे पूर्वोक्त कानि समुदितानि षट्स्थानकं भवति।'षट्स्थानकान्यपि से पुनः कण्डकमात्र स्थान होने पर संख्येयभाग अधिक संयमस्थान तावद् वाच्यानि यावदसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि भवन्ति। इत्थम्भूतानि चासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि प्रकार उत्तरोत्तर पूर्व परिपाटी से असंख्येयगुण अधिक और अनंतगुण षट्स्थानकानि संयमश्रेणिरुच्यते। अधिक संयमस्थान कण्डकप्रमाणपर्यंत वक्तव्य हैं। (बृभा ४५०९, ४५११, ४५१२ वृ) ० षट्स्थानप्ररूपणा- इस प्रकार के असंख्येय कण्डक समुदित होने पर षट्स्थानक भी जब तक असंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाण अविभागपरिच्छेद, स्थानांतर, कण्डक, षट्स्थानक आदि होते हैं, तब तक वाच्य हैं। इस प्रकार के षट्स्थानकों को संयमश्रेणि प्ररूपणाद्वारों से चारित्रश्रेणि के संयमस्थानों की प्ररूपणा की जाती है। केवली के प्रज्ञाच्छेदनक से छिद्यमान संयमस्थानों में जो कहा जाता है। अंतिम निरंश विभाग है, उसका नाम 'अविभाग परिच्छेद' है। पर्युषणाकल्प-वर्षाकल्प, पर्युषणा की आचारमर्यादा। चारित्रपर्यव, चारित्रप्रदेश और चारित्रपरमाणु-ये अविभागपरिच्छेद | १. पर्युषणा के पर्यायवाची नाम के पर्यायवाची नाम हैं। __ * पर्युषणाकल्प : स्थित-अस्थित द्र कल्पस्थिति ० अविभागपरिच्छेद प्ररूपणा-इसमें सर्व लोकाकाश की मार्गणा २. पर्युषणा की स्थापना कब? कैसे? होती है। सर्वआकाश के जितने प्रदेश हैं, उन सर्वाकाशप्रदेशों से ० द्रव्य आदि की स्थापना चारित्र के अविभागपरिच्छेद सर्वजघन्य संयमस्थान में भी अनन्तगण * वर्षावास-योग्य क्षेत्र द्र क्षेत्रप्रतिलेखना ३. वर्षावासक्षेत्र की अनुज्ञापना और प्रवेश ० स्थानांतरप्ररूपणा-सर्वजघन्य प्रथम संयमस्थान की अपेक्षा द्वितीय ० शय्या-ग्रहण-प्रतिलेखन संयमस्थान के चारित्रपर्यव अनन्ततम भाग अधिक हैं। ० वस्त्र-ग्रहण-निषेध Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३४३ पर्युषणाकल्प * वर्षावास में उपधि-अग्रहण, तीन मात्रक द्र उपधि संखा-एत्तिया वरिसा मम उवद्रावियस्स" "सव्वलोगप४. प्रथम प्रावृट् और वर्षावास में विहार-निषेध सिद्धेण पागताभिधाणेण पज्जोसवणा भण्णति । बहूण ० विहार से हानि, विहार के अपवाद समवातोसमोसरणं।तेय दो समोसरणा-एर्गवासासु, बितियं ५. पर्युषणाकाल : जघन्य-उत्कृष्ट ज्येष्ठावग्रह उबद्धे। जतो पज्जोसवणातो वरिसं आढप्पति अतो पढमं ६. वर्षावास के पश्चात् वहीं रहने का हेतु समोसरणं भण्णति।"वासकप्पमेरा ठविज्जति"। ७. पर्युषणा में क्षेत्रगमन-सीमा, भिक्षाचरी-क्षेत्र ८. वर्षावास में करणीय कार्य (निभा ३१३८-३१३९ की चू) ९. पर्युषणा (संवत्सरी) पर्व दिन प्रथमसमवसरणं ज्येष्ठावग्रहो वर्षावास इति । द्वितीय० आर्यकालक : चतुर्थी को संवत्सरी समवसरणम् ऋतुबद्ध इति चैकार्थम्। (बृभा ४२४२ की वृ) * पर्युषणा में क्षमायाचना अनिवार्य द्र अधिकरण पर्युषणा के गुणनिष्पन्न पर्यायवाची नाम आठ हैं१०. पर्युषण तप की अनिवार्यता १. पर्यायव्यवस्थापन–पर्युषणा के दिन प्रव्रज्यापर्याय की संख्या ० पूर्ण निराहार अथवा योगवृद्धि का व्यपदेश किया जाता है-मुझे दीक्षित हुए इतने वर्ष हुए हैं। ० वर्षाकालीन तप से बलवृद्धि २. पर्योसवना-इसमें ऋतुबद्धिक द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-पर्यायों का * आज्ञापूर्वक विकृति-ग्रहण और तप द्र आज्ञा ११. नित्यभोजी और तपस्वी : गोचरकाल परित्याग तथा वर्षाकल्पप्रायोग्य द्रव्यों का ग्रहण किया जाता है। १२. तप और पानक प्रमाण ३. परिवसना-पर्युषणा-मुनि चार मास तक सर्वथा एक स्थान पर ० विविध पानक : ग्रहणविधि रहते हैं, सब दिशाओं में परिभ्रमण का निषेध होता है। १३. पर्युषणा में लोच की अनिवार्यता ४. पर्युपशमना- इसमें कषायों का उपशमन किया जाता है। पूर्व ० जिनकल्पी आदि और लोच कलह का क्षमायाचना द्वारा सर्वथा उपशमन किया जाता है। इसकी केशलोच क्यों? लोकप्रसिद्ध प्राकृत अभिधा है-पज्जोसवणा। ५. वर्षावास-वर्षा में चार मास एक स्थान में रहना होता है। १. पर्युषणा के पर्यायवाची नाम ६. प्रथम समवसरण-कोई व्याघात न हो तो प्रथम प्रावट (आषाढ) पज्जोसमणाए अक्खराइं होंति उ इमाइं गोण्णाई। जान में ही वर्षावासप्रायोग्य क्षेत्र में प्रवेश किया जाता है। परियायववत्थवणा, पज्जोसमणा य पागइया॥ समवसरण का अर्थ है-बहुतों का समवाय। वे दो होते परिवसणा पज्जुसणा, पज्जोसमणा य वासवासो य। हैं-वर्षाकाल में और ऋतुबद्धकाल में। पर्युषणाकाल से वर्ष का पढमसमोसरणं ति य, ठवणा जेट्ठोग्गहेगट्ठा॥ प्रारंभ होता है, इसलिए इसे प्रथम समवसरण कहा जाता है। ___ ......"उड़बद्धिया दव्वखेत्तकालभावपज्जाया एत्थ __ प्रथम समवसरण, ज्येष्ठावग्रह और वर्षावास-ये एकार्थक पज्जोसविजंति, उज्झिज्जंतित्ति भणितं होइ, अण्णारिसा हैं। द्वितीय समवसरण और ऋतुबद्ध-ये एकार्थक हैं। दव्वादिपज्जाया वासारत्ते आयरिजंति तम्हा पज्जोसमणा ७. स्थापना वर्षावास-सापाचारी की स्थापना की जाती है। भण्णति।"एगत्थ चत्तारि मासा परिवसंतीति परिवसणा। ८. ज्येष्ठावग्रह-ऋतुबद्धकाल में एक-एक मास का क्षेत्रावग्रह सव्वासु दिसासुण परिब्भमंतीति पज्जुसणा। वरिसासु चत्तारि । होता है, वर्षावास में चार मास का एक क्षेत्रावग्रह होता है। मासा एगत्थ अच्छंतीति वासावासो। निव्वाघातेणं पाउसे चेव २. पर्युषणा की स्थापना कब? कैसे? वासपाउग्गं खित्तं पविसंतीति पढमसमोसरणं ।'उडुबद्धे आसाढपुण्णिमाए, वासावासासु होति अतिगमणं। एक्केक्कं मासं खेत्तोग्गहो भवति, वरिसासु चत्तारि मासा एग ___मग्गसिरबहुलदसमी, उ जाव एक्कम्मि खेत्तम्मि॥ खेत्तोग्गहो भवति त्ति जेट्ठोग्गहो। (दशानि ५३, ५४ चू) बाहि ठिया वसभेहिं, खेत्तं गाहेत्त वासपाउग्गं। ."पज्जोसवणादिवसे पव्वज्जापरियागो व्यपदिश्यते कप्पं कधेत्तु ठवणा, सावणबहुलस्स पंचाहे॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणकल्प एत्थ य अणभिग्गहियं, वीसतिरायं सवीसगं मासं । तेण परमभिग्गहियं गिहिणायं कत्तिओ जाव ॥ असिवाइकारणेहिं, अहवण वासं ण सुट्टु आरद्धं । अभिवड्डियम्मि वीसा, इयरेसु सवीसती मासे ॥ एत्थ उ पणगं पणगं, कारणिगं जा सवीसती मासो । सुद्धदसमीठियाण व, आसाढीपुण्णिमोसरणं ॥ (बृभा ४२८० - ४२८४) ''सवीसतिराते मासे पुण्णे जति वासखेत्तं ण लब्भति तो रुक्खट्ठा विपज्जोसवेयव्वं । तं च पुण्णिमाए पंचमीए दसमीए एवमादिपव्वेसुणो अपव्वेसु । (निभा ३१५३ की चू) वर्षावासक्षेत्र में आषाढी पूर्णिमा को प्रवेश कर कार्तिक पूर्णिमा तक रहकर, वहां से निर्गमन करना चाहिए। वर्षा आदि कारणों से मिगसर कृष्णा दसमी तक भी वहां रहा जा सकता है। श्रावण की पंचमी को वर्षाकाल की सामाचारी की स्थापना की जाती है, परन्तु वह स्थान अनवधारित ही रखा जाता है। यदि गृहस्थ पूछे कि क्या आप यहां वर्षावास के लिए स्थित हो गए ? मुनि निश्चयपूर्वक कुछ न कहे । यदि अभिवर्धित संवत्सर हो तो बीस दिन-रात तक तथा चान्द्र संवत्सर हो तो एक मास बीस दिन-रात तक यह अनिश्चितता रह सकती है। इस अवधि के पश्चात् स्थिति की निश्चितता कर देनी चाहिए। गृहस्थों को भी कह देना चाहिए कि हम यहां वर्षावास के लिए स्थित हैं। वर्षावास स्थिति की निश्चितता में इतना लंबा कालक्षेप क्यों ? आचार्य कहते हैं- महामारी, राजद्वेष आदि कारणों से अथवा अच्छी वर्षा के अभाव में धान्यनिष्पत्ति न होने पर मुनियों को अन्यत्र जाना पड़ता है, तब लोगों में अपवाद होता है। इन सबसे बचने के लिए कालक्षेप आवश्यक होता है। इस प्रकार पांच-पांच दिन-रात बढ़ाते-बढ़ाते एक मास और बीस दिन-रात के पश्चात् भी यदि वर्षावास योग्य क्षेत्र प्राप्त न हो तो भाद्रपद शुक्ला पंचमी को वृक्ष के नीचे ही पर्युषण कर लेना चाहिये । आषाढ शुक्ला दशमी को वर्षाक्षेत्र में प्रवेश कर लेने पर आषाढी पूर्णिमा को पर्युषण करना चाहिये। पर्युषण (वर्षावास में अवस्थान) पूर्णिमा, पंचमी, दशमी और अमावस्या - इन पर्वतिथियों में करना चाहिये, अपर्वतिथि में नहीं । आगम विषय कोश- २ .....समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे विइक्कंते वासावासं पज्जोसवेइ ॥ (दशा ८ परि सू २२३) श्रमण भगवान महावीर वर्षाऋतु के पचास दिन बीत जाने पर वर्षावास के लिए पर्युषित (स्थित) हुए। (वर्षावास में मुनि पचास दिन तक उपयुक्त वसति की गवेषणा के लिए इधर-उधर आ-जा सकता है। किन्तु भाद्रपद शुक्ला पंचमी के दिन उसे जो स्थान प्राप्त हो, उसी में स्थित होना पड़ता है। इसे पर्युषणा कहते हैं। यदि कोई स्थान न मिले तो वृक्ष के नीचे ही उसे स्थित हो जाना चाहिए। -- सम ७० / १ की वृ) ० द्रव्य आदि की स्थापना ३४४ सचित्ते सेहो ण पव्वाविज्जति, अचित्ते वत्थादि ण घेप्पति । खेत्तठवणा सकोसजोयणं । कालट्ठवणा चत्तारि मासा, यच्च तस्मिन् कल्प्यं । भावठवणा कोहादिविवेगो भासासमितिजुत्तेण य होतव्यं । (दशानि ५५-५६ की चू) द्रव्य आदि के विधि-निषेध की स्थापना की जाती हैसचित्त द्रव्य स्थापना- -पर्युषण में किसी को दीक्षा नहीं देना । अचित्त द्रव्य स्थापना - वस्त्र आदि ग्रहण नहीं करना । क्षेत्र स्थापना - भिक्षा हेतु पांच कोश तक जाना-आना । काल स्थापना - चार मास और उस काल में जो कल्पनीय है । भाव स्थापना - क्रोध आदि कषायों का विवेक और भाषासमिति आदि के प्रति विशेष जागरूकता । मोत्तुं पुराण- भावितसड्ढे, संविग्ग मा होहिति निद्धम्मो, भोयण मोए सेसपडिसेहो । य उड्डाहो ॥ (दशानि ८७) परम्परा से पुराना (जिसको पहले दीक्षा दी जा चुकी हो), श्रद्धा से ओत प्रोत तथा वैरागी व्यक्ति को छोड़कर शेष व्यक्तियों को चातुर्मास में प्रव्रजित करने का निषेध है । उनको प्रव्रजित करने पर वे धर्मशून्य अर्थात् वर्षा आदि में जाने-आने में शंकाशील हो सकते हैं तथा मंडली में भोजन करने, मात्रक प्रस्रवण आदि करने पर उनके के मन में उड्डाह - प्रवचन के प्रति तिरस्कार का भाव पैदा हो सकता है। ३. वर्षावासक्षेत्र की अनुज्ञापना और प्रवेश खेत्ताण अणुण्णवणा, जेट्ठामूलस्स सुद्धपाडिवए ।" " Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३४५ पर्युषणाकल्प जतणाए समणाणं, अणुण्णवेत्ता वसंति खेत्तबहिं। प्राप्त-वर्षावासप्रायोग्य क्षेत्र और आषाढपूर्णिमा तिथि-इस क्षेत्र वासावासट्ठाणं, आसाढे सुद्धदसमीए॥ और कालविभाग में प्राप्त वस्त्रग्रहण नहीं कर सकते। वे द्वितीय (व्यभा ३९०१, ३९२३) समवसरण (ऋतुबद्धकाल) में वस्त्र ग्रहण कर सकते हैं। ज्येष्ठामूल मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को क्षेत्रों की ४. प्रथमप्रावृट् और वर्षावास में विहार-निषेध अनुज्ञापना होती है। श्रावक आदि को यतनापूर्वक अनुज्ञापित कर जे भिक्खू पढमपाउसंसि गामाणुगाम दूइज्जति ॥ मुनि क्षेत्र के बाहर रहे और आषाढ़ शुक्ला दशमी को वर्षावास- .....वासावासंसि पज्जोसवियंसि दूइज्जति...॥ स्थान में प्रवेश करे। पाउसो आसाढो सावणो य दो मासा। तत्थ आसाढो ० शय्या-ग्रहण-प्रतिलेखन पढम पाउसो भण्णति। अहवा छण्हं उतूणं जेण पढमपाउसो वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पड़तओ उवस्सया वणिजति तेण पढमपाउसो भण्णति। (नि १०/३४, ३५ चू) गिण्हित्तए, वेउव्विया पडिलेहा साइज्जिया पमज्जणा॥ वह भिक्षु प्रायश्चित्त का भागी होता है, विउव्विया पडिलेहा-पुणो पुणो पडिलेहिज्जति ० जो प्रथम प्रावृट्-आषाढ़ में ग्रामानुग्राम विहार करता है। संसत्ते, असंसत्ते तिन्नि वेलाउ पव्वण्हे भिक्खं गतेस वेतालियं, जो वर्षावास में पर्युषणाकल्पपूर्वक निवास कर विहार करता है। जे अन्ने दो उवस्सयादिणे दिणे निहालिज्जति"ततिए दिवसे आषाढ़ और श्रावण-ये दो मास प्रावृट् कहलाते हैं। इनमें पादपुंछणेण पमज्जिज्जति। (दशा ८ परि सू २८४ चू) आषाढ़ प्रथम प्रावृट् है । अथवा छह ऋतुओं में प्रावृट् ऋतु का वर्णन ___ वर्षावास में स्थित निग्रंथ और निपॅथी तीन उपाश्रय ग्रहण प्रथम होने से यह प्रथम प्रावृट् है। (१. प्रथम प्रावृट् में विहार नहीं करना चाहिए। कर सकते हैं। वे उपयोग में आने वाले, जीवों से संसक्त उपाश्रय २. वर्षावास में पर्युषणाकल्पपूर्वक निवास करने पर विहार नहीं की बार-बार तथा असंसक्त उपाश्रय की दिन में तीन बार करना चाहिए। यहां दो सूत्रों में बताया गया है कि प्रथम प्रावृट् में पूर्वाह्न, भिक्षाकाल में और सायंकाल प्रतिलेखना करते हैं। अन्य दो और वर्षावास में पर्युषणाकल्प के द्वारा निवास करने पर विहार न उपाश्रयों की प्रतिदिन प्रतिलेखना और तीसरे दिन पादपोंछन से किया जाए। प्रथम प्रावृट् में विहार न किया जाए-अर्थात् आषाढ़ प्रमार्जना करते हैं। में विहार न किया जाये। प्रावृट् का अर्थ यदि चातुर्मास प्रमाण० वस्त्र-ग्रहण-निषेध वर्षाकाल किया जाये तो प्रथम प्रावृट् में विहार के निषेध का अर्थ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पढमसमोसर- यह करना होगा कि पर्युषणाकल्प से पूर्ववर्ती पचास दिनों में णुद्देस-पत्ताई चेलाइं पडिग्गाहित्तए॥ विहार न किया जाए। पर्युषणाकल्पपूर्वक निवास करने के बाद कप्पइदोच्चसमोसरणुद्देसपत्ताई चेलाई पडिग्गाहित्तए॥ विहार न किया जाए- इसका अर्थ है कि भाद्रशुक्ला पंचमी से प्रथमसमवसरणे-वर्षाकाले उद्देश:-क्षेत्रकाल- कार्तिक तक विहार न किया जाए। इन दोनों सूत्रों का संयुक्त अर्थ विभागस्तं प्राप्तानि “वर्षावासप्रायोग्यं क्षेत्रं प्राप्ताः आषाढपूर्णिमा यह है कि चातुर्मास में विहार न किया जाए। मुनि पर्युषणाकल्पपूर्वक च सजाता तत इयन्तं क्षेत्र-कालविभागं प्राप्तानि वस्त्राणि न निवास करने के बाद साधारणतः विहार कर ही नहीं सकते। किन्तु कल्पन्ते। (क ३/१६, १७ वृ) पूर्ववर्ती पचास दिनों में उपयुक्त सामग्री के अभाव में विहार कर भी आसाढपुण्णिमाए, ठिया उ दोहिं पि होंति पत्ता उ। सकते हैं।-स्था ५/९९, १०० टिप्पण) तत्थेव य पडिसिज्झइ, गहणं .........॥ अब्भुवगए खलु वासावासे अभिपवुढे, बहवे पाणा ___(बृभा ४२४८) अभिसंभूया, बहवे बीया अहुणुब्भिन्ना, अंतरा से मग्गा निग्रंथ और निपॅथी प्रथम समवसरण-वर्षाकाल में उद्देश बहुपाणा बहुबीया बहुहरिया बहुओसा बहुउदया बहुउत्तिंग Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणाकल्प ३४६ आगम विषय कोश-२ पणग-दग-मट्टिय-मक्कडासंताणगा, अणभिक्कंता पंथा, णो स्थाणु, कंटक, जलप्रवाह आदि बाधित कर सकते हैं। विण्णाया मग्गा, सेवं णच्चा णो गामाणगामंदइज्जेज्जा. तओ गिरिनदी के तटवर्ती मार्ग से जाने से अपि संजयामेव वासावासं उवल्लिएज्जा॥ (आचूला ३/१) ० भीग जाने के भय से वह वृक्ष के नीचे जाता है, उस समय वायु वर्षाकाल आने पर वर्षा होती है, बहुत से प्राणी उत्पन्न के प्रबल वेग से वृक्ष टूट सकता है। होते हैं, तत्काल बहुत से बीज अंकुरित होते हैं, मार्ग में प्राणी, ० श्वापद, स्तेन आदि संत्रस्त कर सकते हैं। बीज, हरित, ओस और उदक की बहलता हो जाती है. चींटियों ० ग्लान-गीले वस्त्र पहनने से अजीर्ण हो सकता है। के बिल, फफूंदी, दलदल और मकड़ी के जाले बहुत होते हैं, मार्ग असिवे ओमोयरिए, रायहुढे भए व गेलन्ने। अनभिक्रान्त हो जाते हैं, (हरियाली आदि के कारण) मार्ग नाणादितिगस्सऽट्ठा, वीसुंभण पेसणेणं वा॥ अच्छी तरह से ज्ञात नहीं होते, इसको जानकर मुनि ग्रामानुग्राम आऊ तेऊ वाऊ, दुब्बल संकामिए अ ओमाणे। परिव्रजन न करे, एक स्थान में ही संयत होकर वर्षावास बिताये। ___ पाणाइ सप्प कुंथू, उट्ठण तह थंडिलस्सऽसती॥ ......"जओ णं पाएणं अगारीणं अगाराई कडियाई (बृभा २७४१, २७४२) उक्कंबियाई छन्नाइं लित्ताइं गुत्ताइं घट्ठाई मट्ठाई सम्मट्ठाई तेरह कारणों से वर्षावास में विहार किया जा सकता हैसंपधूमियाइं खाओदगाइं खातनिद्धमणाई अप्पणो अट्ठाए कयाइं . महामारी, दुर्भिक्ष, राजद्विष्ट, स्तेनभय आदि स्थितियां उत्पन्न परिभुत्ताइं परिणामियाइं भवंति। (दशा ८ परि सू २२४) होने पर उनसे छुटकारा पाने के लिए। ...."कटादिभिः समन्तत: पाश्र्वानामाच्छादनम् उपरि ० ग्लान-ग्लान की परिचर्या के लिए। कम्बिकानां बन्धनम्"दर्भादिभिराच्छादनम"कड्यानां... ० ज्ञान-अपूर्व श्रुतस्कंध के ज्ञाता कोई आचार्य अनशन करना गोमयेन च लेपप्रदानम् .....। (बभा ५८३ की व) चाहते हों, उस श्रुत का व्यवच्छेद न हो जाए इसलिए उसे प्राप्त वर्षाकाल में साधु को एक स्थान पर स्थित हो जाना चाहिये। करने के लिए। क्योंकि उस समय तक प्रायः गृहस्थों के घरों के सब ओर के पार्श्व ० दर्शन-दर्शन प्रभावक ग्रन्थों का अध्ययन करने के लिए। भाग चटाइयों से आच्छादित, स्तंभ पर बांस की कम्बिकाओं का . ° चारित्र-स्त्री और एषणा संबंधी दोषनिवारण के लिए। बन्धन, घर का उपरि भाग दर्भ से आच्छादित, दीवारें गोबर से टित दीन गोल विष्वग्भवन-आचार्य की मृत्यु हो जाने पर तथा गण में दूसरा लीपी हुई, द्वार कपाटों से संरक्षित, विषम भूमिभाग घर्षण द्वारा सम शिष्य आचार्य-योग्य न होने पर दूसरे गण की उपसम्पदा स्वीकार किये हुए, घर प्रमार्जित, अत्यंत साफ-सुथरे और धूप आदि सुगंधित करने के लिए अथवा अनशन प्रतिपन्न की विशोधि के लिए। द्रव्यों से सुवासित होते हैं, भूमि को खोदकर जलाशय और नालियां ० प्रेषित-तात्कालिक कोई कारण उत्पन्न होने पर आचार्य के द्वारा भेजे जाने पर वह वर्षाकाल में जाता है और कार्य सम्पन्न होने पर बनाई जाती हैं-गृहस्थ ये कार्य अपने प्रयोजन से करते हैं, इस प्रकार घर आदि स्थान गृहस्थों द्वारा कृत, परिभुक्त और परिणामित होते हैं। तत्काल गुरु के पास आ जाता है। ० जलप्रवाह, अग्नि या तेज हवा से वसति भग्न हो गई हो अथवा ० विहार से हानि, विहार के अपवाद गिरने जैसी स्थिति को प्राप्त हो गई हो। छक्कायाण विराहण, आवडणं विसम-खाणु-कंटेसु। ० संक्रामित-श्राद्धकुलों का अन्यत्र संक्रमण हो गया हो। वुब्भण अभिहण रुक्खोल्ल, सावय तेणे गिलाणे य॥ ० अवमान–परतीर्थिकों के आने से भोजन में कमी हो गई हो। (बृभा २७३६) ० प्राणी-वसति जीव-जंतुओं से अथवा कुंथु जीवों से संसक्त हो वर्षावास में यात्रा करने के अनेक दोष हैं गई हो अथवा. उसमें सर्प आदि आकर स्थित हो गए हों। ० छह काय की विराधना होती है। ० उत्थित-ग्राम उजड़ गया हो। ० विषम या पंकिल भूभाग में वह स्खलित हो सकता है। ० स्थण्डिल-स्थण्डिलभूमि का अभाव हो गया हो। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३४७ पर्युषणाकल्प (पांच कारणों से प्रथम प्रावृट् (आषाढ) में विहार किया स्थित होना पड़ता है। कार्तिकी पूर्णिमा के बाद कर्दम, वर्षा आदि जा सकता है-भय से, दुर्भिक्ष होने पर, ग्राम से निकाल दिए जाने कारणों से मार्गशीर्ष मास भी यदि वहीं बिताना पडता है, तो छह पर, बाढ़ आ जाने पर, अनार्यों द्वारा उपद्रुत किए जाने पर। महीनों का उत्कृष्ट ज्येष्ठावग्रह होता है। पांच कारणों से वर्षावास-पर्युषण में विहार किया जा सकता ६. वर्षावास के पश्चात् वहीं रहने का हेतु है-ज्ञानार्थ. दर्शनार्थ. चारित्रार्थ. आचार्य-उपाध्याय-विष्वग-भवन, .."चत्तारि मासा वासाणं वीइक्कंता, हेमंताण य पंचआचार्य-उपाध्याय-वैयावृत्त्यकरण।-स्था ५/९९, १००) दस-रायकप्पे परिवुसिए, अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुबीया ५. पर्युषणाकाल : जघन्य-उत्कृष्ट ज्येष्ठावग्रह बहुहरियाणो जत्थ बहवे समण-माहण-अतिहि-किवणइय सत्तरी जहण्णा, असीति णउई दसुत्तर सयं च। वणीमगा उवागया उवागमिस्संति य। सेवं णच्चा णो . जति वासति मग्गसिरे, दस राया तिणि उक्कोसा॥ गामाणगामं दडज्जेज्जा॥ गामाणुगामं दूइज्जेज्जा॥ (आचूला ३/४) जे आसाढचाउम्मासियातो सवीसतिराते मासे गतेपज्जोसवेंति तेसिं सत्तरीदिवसा जहण्णतो जेट्ठोग्गहो भवति। जे वर्षाकाल के चार मास बीत गए हैं, हेमंत ऋतु के पांच या भद्दवयबहुलस्स दसमीए पज्जोसवेंति तेसिं असीति दिवसा दस (अथवा पन्द्रह) अहोरात्र तक रह चुका है, (तो मुनि विहार जेटोग्गहो, जे सावणपुन्निमाए पज्जोसवेंति तेसिंणउतिं दिवसा करे, किन्तु) मार्ग में प्राणी, बीज, हरित आदि बहुत हैं, जहां बहुत श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और वनीपक आए हुए नहीं हैं और जेट्ठोग्गहो, जे सावणबहुलदसमीए ठिता तेसिं दसुत्तरं दिवससतं जेट्ठोग्गहो। __ (दशानि ६९ चू) न आयेंगे-मुनि ऐसा जानकर (मार्गशीर्ष मास पर्यंत) एक गांव से १. जघन्य ज्येष्ठावग्रह-सत्तर दिनों का। आषाढ़ी चातुर्मासिक दूसरे गांव परिव्रजन न करे। पक्खी के बाद एक मास बीस दिनों पश्चात् पर्यषणा करने पर ७. पर्युषणा में क्षेत्रगमन-सीमा, भिक्षाचरी-क्षेत्र वर्षावास के ७० दिन शेष रहते हैं-यह जघन्य ज्येष्ठावग्रह है। वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गं२. मध्यम ज्येष्ठावग्रह-भाद्रपद कृष्णा दसमी को पर्युषणा करने थीण वा जाव चत्तारि पंच जोयणाई गंतुं पडिनियत्तए, अंतरा पर ८० दिन का। श्रावणी पूर्णिमा को पर्युषणा करने पर ९० दिन वि से कप्पइ वत्थए, नो से कप्पड़ तं रयणिं तत्थेव का, श्रावण शुक्ला पंचमी को पर्युषणा करने पर १०० दिन का तथा उवाइणावित्तए॥ श्रावण कृष्णा दसमी को पर्युषणा करने पर ११० दिन का। .."वासकप्पओसधनिमित्तं गिलाणवेज्जनिमित्तं वा। ३. उत्कृष्ट ज्येष्ठावग्रह-आषाढी पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक (दशा ८ परि सू २८६ चू) १२० दिन का उत्कृष्ट वर्षावास। मुनि को कार्तिकी पूर्णिमा को वर्षावास में पर्युषित निग्रंथ अथवा निग्रंथी वर्षावासकल्प, विहार कर देना चाहिए। यदि मृगशिर में प्रचुर वृष्टि हो, तो उत्कृष्ट तीन दशरात्र-मृगशिर की पूर्णिमा तक वहां रहे। उसके औषधि, ग्लान, वैद्य आदि निमित्तों से चार-पांच योजन जा-आ पश्चात् भी यदि निरन्तर सघन वर्षा हो रही हो, तब भी अवश्य सकते हैं, मार्ग में भी रह सकते हैं, किन्तु वह रात्रि वहां नहीं बिता विहार करे। इस प्रकार पांचमासिक ज्येष्ठावग्रह होता है। सकते। काऊण मासकप्पं, तत्थेव ठिताणऽतीते मग्गसिरे। वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंसालंबणाण छम्मासिओ उ जेट्ठोग्ग्हो होति॥ थीण वा सव्वओ समंता सकोसं जोयणं भिक्खायरियाए गंतुं (बृभा ४२८६) पडिनियत्तए॥ (दशा ८ परि सू २३२) जिस क्षेत्र में आषाढ़मासकल्प किया, वर्षावास प्रायोग्य अन्य वर्षावास में पर्युषित निग्रंथ-निग्रंथी सक्रोश योजन (पांच क्षेत्र न मिलने पर मासकल्प वाले उसी क्षेत्र में वर्षावास के लिए कोश) की सीमा में चारों ओर भिक्षाचर्या के लिए जा-आ सकते हैं। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणाकल्प ८. वर्षावास में करणीय कार्य पच्छित्तं बहुपाणा, कालो बलिओ चिरं च ठायव्वं । सज्झाय- संजम तवे, धणियं अप्पा णियोतव्वो । पुरिमचरिमाण कप्पो, तु मंगलं वद्धमाणतित्थम्मि । तो परिकहिया जिणगणहरा य थेरावलिचरितं ॥ ( निभा ३२०२, ३२०३) ऋतुबद्धकाल में प्राप्त तप-प्रायश्चित्त का वहन वर्षावास में करना चाहिए क्योंकि उस समय प्राणियों की बहुलता के कारण भिक्षाटन कठिन होता है, दीर्घकालिक प्रवास और तप हेतु काल की अनुकूलता होती है। शीतलता के कारण इन्द्रियां उद्दीप्त हो जाती हैं, उनके निरोध के लिए भी तप आवश्यक है। वर्षावास में अपने आपको स्वाध्याय, संयम और तप में सघनता से नियोजित करना चाहिए। वर्षा हो या न हो, वर्षाकाल में पर्युषणा करना प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के शिष्यों का आचार है। वर्धमानस्वामी के तीर्थ में मंगल होता है, मंगल के लिए अर्हत्-चरित्र, गणधर - चरित्र और स्थविरावलि का वाचन होता है। ९. पर्युषणा (संवत्सरी) पर्व दिन भिक्खू पज्जोसवणाए ण पज्जोसवेति अपज्जोसवणाए पज्जोसवेति आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अघातियं ॥ ( नि १० / ३६, ३७, ४१ ) जो भिक्षु पर्युषण में पर्युषण नहीं करता या अपर्युषण में पर्युषण करता है, वह गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। ...... भद्दवयसुद्धपंचमीए युज्जति । सीसो पुच्छति - " इयाणिं कहं चउत्थीए अपव्वे पज्जोसविज्जति ? " आयरिओ भणति - "कारणिया चउत्थी अज्जकालगायरिएण पवत्तिया । " (निभा ३१५३ की चू) भाद्रपद शुक्ला पंचमी को संवत्सरी होती है। शिष्य ने पूछा- आजकल अपर्वतिथि-चतुर्थी को संवत्सरी क्यों होती है ? आचार्य ने कहा- चतुर्थी कारणिक तिथि है, जो आचार्य कालक के द्वारा प्रवर्तित है। • आर्यकालक : चतुर्थी को संवत्सरी अज्जकालएण सातवाहणो भणितो - भद्दवयजोण्हस्स आगम विषय कोश - २ पंचमीए पज्जोसवणा । रन्ना भणितो - तद्दिवसं मम इंदो अणुजातव्वो होहिति तो ण पज्जुवासिताणि चेतियाणि साधुणो वा भविस्संति त्ति कातुं तो छट्ठीए पज्जोसवणा भवतु । आयरिएण भणितं न वट्टति अतिक्कामेतुं । रन्ना भणियं - ते उत्थी भवतु | आयरिएण भणितं - एवं होउत्ति चउत्थीए कता पज्जोसवणा । एवं चउत्थीवि जाता कारणिता । (दशानि ६८ की चू) ३४८ में आर्यकालक ने महाराज शातवाहन से कहा- 'भाद्रपद मास शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को पर्युषणा (संवत्सरी) है।' राजा ने कहा- आर्य ! उस दिन मेरे इन्द्रमहोत्सव होता है अतः उस दिन चैत्य और साधु पर्युपासित नहीं होंगे। इसलिए पंचमी तिथि के स्थान पर छठ के दिन पर्युषणा हो । आचार्य ने कहा- तिथि का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। राजा ने कहा- यदि ऐसा है तो चतुर्थी के दिन पर्युषणा हो जाए। आचार्य ने कहा- ऐसे ही हो । इस प्रकार चतुर्थी को पर्युषणा की आराधना की गई। इस तिथि का निर्णय कारणवश लिया गया। (संवत्सरी जैन शासन का सबसे बड़ा पर्व है। इसका महत्त्व सार्वदेशिक और सार्वकालिक है। आगमकालीन व्यवस्था --- आगम युग में संवत्सरी जैसा शब्द प्रचलित नहीं था । संवत्सरी का मूल नाम है- पर्युषणा । पर्युषणा के विषय में आगमों में अनेक निर्देश मिलते हैं। पर्युषणाकल्प के अनुसार श्रमण भगवान् महावीर ने वर्षा ऋतु के पचास दिन बीत जाने पर वर्षावास की पर्युषणा की थी। गणधरों, स्थविरों और आधुनिक श्रमण निर्ग्रन्थों ने भी उस परम्परा का अनुसरण किया। इसमें केवल पचास दिन का उल्लेख है 1 समवायांग सूत्र में उत्तरवर्ती दिनों का भी उल्लेख किया गया है। उसके अनुसार श्रमण भगवान् महावीर ने वर्षावास के पचासवें दिन तथा सत्तर दिन शेष रहने पर वर्षावास की पर्युषणा की। प्राचीन परम्परा -- भाष्य और चूर्णिकालीन परम्परा पर्युषणा की प्राचीन परम्परा है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन पर्युषणा करना उत्सर्ग मार्ग बतलाया है। अपवाद मार्ग में पांच-पांच दिन बढ़ाने का निर्देश प्राप्त है। इसका नियम यह रहा कि पर्युषणा पर्वतिथि में होनी चाहिए, जैसे- पूर्णिमा, पंचमी और दसमी । आधुनिक परम्परा - आधुनिक परम्परा में पर्युषणा के स्थान पर Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ संवत्सरी शब्द का प्रयोग हो रहा है। पर्युषणा शब्द का प्रयोग संवत्सरी के सहायक दिनों के लिए होता है। पर्युषणा का मूल रूप संवत्सरी के नाम से प्रचलित हो गया। प्राचीन काल में पर्युषणा का एक ही दिन था। वर्तमान में अष्टाह्निक पर्युषणा मनाई जाती है। संवत्सरी का पर्व आठवें दिन मनाया जाता है। दिगम्बर परम्परा में संवत्सरी जैसा कोई शब्द उपलब्ध नहीं है। उनकी परम्परा में दस लक्षण पर्व मनाया जाता है। सामान्य विधि के अनुसार उसका प्रथम दिन भाद्रपद शुक्ला पंचमी का दिन होता है। श्वेताम्बर परम्परा में पंचमी से पहले सात दिन जोड़े गए। हैं और दिगम्बर परम्परा में नौ दिन उसके बाद जोड़े गए हैं। मूल दिन (पंचमी) में कोई अन्तर नहीं है। १. दो श्रावण मास २. दो भाद्रपद मास संवत्सरी के सम्बन्ध में मुख्य समस्याएं चार हैं३. चतुर्थी और पंचमी ४. उदिया तिथि, घड़िया तिथि जैन ज्योतिष के अनुसार वर्षा ऋतु में अधिक मास नहीं होता । इस दृष्टि से दो श्रावण मास और दो भाद्रपद मास की समस्या ही पैदा नहीं होती। लौकिक ज्योतिष के अनुसार वर्षा ऋतु में अधिक मास हो सकता है। दो श्रावण मास या दो भाद्रपद मास होने पर पर्वाराधना की विधि इस प्रकार है- कृष्णपक्ष के पर्व की आराधना प्रथम मास के कृष्ण पक्ष में और शुक्लपक्ष के पर्व की आराधना अधिमास के शुक्ल पक्ष में। समस्या अधिक मास की- जैन संप्रदायों में कुछ सम्प्रदाय दो श्रावण होने पर दूसरे श्रावण में पर्युषणा की आराधना करते हैं । भाद्रपद मास दोहों तो प्रथम भाद्रपद में पर्युषणा की आराधना करते हैं। ऐसा करने वालों का तर्क यह है कि संवत्सरी की आराधना पचासवें दिन करनी चाहिए। इस तर्क में सिद्धांत का एक पहलू ठीक है। किन्तु उसका दूसरा पहलू, ७० दिन शेष रहने चाहिए, विघटित हो जाता है। संपूर्ण नियम पहले ५० दिन और बाद में ७० दिन- दोनों पक्षों से सम्बन्धित है। 1 जो पचासवें दिन को प्रमाण मानकर संवत्सरी करते हैं, उनके शेष में ७० दिनों का प्रमाण भी रहना चाहिए। इसी प्रकार ७० दिन शेष रहने की बात पर दो श्रावण होने पर भाद्रपद में और दो भाद्रपद होने पर दूसरे भाद्रपद में संवत्सरी करने की स्थिति में संवत्सरी से पहले ५० दिन की व्यवस्था विघटित हो जाती है। इसका सीधा-सा समाधान है अधिक मास को मलमास या लूनमास पर्युषणाकल्प मानकर संख्यांकित नहीं करना। ऐसा होने से ५० और ७० दोनों की व्यवस्था बैठ सकती है। वर्तमान में सभी जैन लौकिक पंचांग को आधार मानकर चल रहे हैं। इस दृष्टि से लौकिक ज्योतिष की धारणा को मान्य करके ही पर्व की आराधना करना उचित है। एक ओर आगमोक्त ५० और ७० दिनों का आग्रह, दूसरी ओर लौकिक ज्योतिष का आधार - ये दोनों बातें एक साथ संगत नहीं हो सकतीं। यदि ५० और ७० दिनों का आग्रह हो तो चातुर्मास में मास - वृद्धि अस्वीकार कर देनी चाहिए। यदि चातुर्मास में मास - वृद्धि की बात स्वीकार की जाती है तो लौकिक ज्योतिष के अनुसार पर्वाराधना की दृष्टि से पन्द्रह दिन (कृष्ण पक्ष ) प्रथम मास में, पन्द्रह दिन (शुक्ल पक्ष ) अधिमास में मान्य होते हैं। इस धारणा के आधार पर दो भाद्रपद मास होने की स्थिति में संवत्सरी पर्व की आराधना द्वितीय भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में होनी चाहिए। – युवाचार्य महाप्रज्ञ ( आचार्य महाप्रज्ञ) द्वारा लिखित लेख - आवश्यक है संवत्सरी की समस्या का समाधान - जैनभारती, अगस्त १९९३) १०. पर्युषण तप की अनिवार्यता ३४९ भिक्खू पज्जोसवणाए इत्तिरियं पाहारं आहारेति, आहारेंतं वा सातिज्जति ॥ (नि १०/३९) ...... तय भूइ - बिंदुमादी, सो पावति आणमादीणि ॥ उत्तरकरणं एगग्गया य आलोयचेइवंदणया । मंगलधम्मका वि य, पव्वेसुं तवगुणा होंति ॥ अट्टम छट्ठ चउत्थं, संवच्छर-चाउमास पक्खे य । पोसहियतवे भणिए, बितियं असहू गिलाणे य ॥ इत्तरियं णाम थोवं एगसित्थमवितये त्ति तिलतुसतिभागमेत्तं । भूतिरिति यत् प्रमाणमंगुष्ठ-प्रदेशनीसंदंसकेन भस्म गृह्यते, पानके बिंदुमात्रमपि । (निभा ३२१५-३२१७ चू) जो भिक्षु पर्युषण के दिन एक सिक्थ या तिलतुषत्रिभागमात्र या चिमटीमात्र भस्म जितना आहार करता है, बिंदुमात्र पानक लेता है, वह चतुर्गुरु दण्ड और आज्ञाभंग आदि दोषों को प्राप्त होता है। पर्युषण - तप से उत्तरगुण की अनुपालना और एकाग्रता की वृद्धि होती है । वर्षाकाल का आदि मंगल होता है । उस दिन वार्षिक आलोचना, अर्हत् वंदन और धर्मकथा करणीय है। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणाप सांवत्सरिक तेला, चातुर्मासिक बेला और पाक्षिक उपवास अवश्य करना चाहिए। असमर्थ, ग्लान और परिचारक इसके अपवाद हैं । तप को व्रतपुष्टिकारक कहा गया है। ० पूर्ण निराहार अथवा योगवृद्धि पुव्वाहारोसवणं, जोगविवड्डी य सत्तिउग्गहणं । दव्वट्ठवणाए आहारे चत्तारि मासे निराहारे अच्छतु, तरति तो एगदिवसूणो, एवं जति जोगहाणी भवति तो व दिदिणे आहारेतुं जोगवुड्डी – जो णमोक्कारेणं पारेंतओ सो पोरिसीए पारेतु, पोरिसिइत्तो पुरिमड्ढेण, पुरिमइत्तो एक्कासणएण । (दशानि ८१ चू) वर्षावास में पूर्वाहार का परित्याग करे। अपनी शक्ति के अनुसार योगवृद्धि - प्रत्याख्यान में वृद्धि करे । द्रव्य स्थापना में आहारविषयक यह निर्देश है - वर्षावास में चार मास तक निराहार रहे। यदि न रह सके तो एक-एक दिन की न्यूनता करता जाए। यदि यह प्रतीत हो कि इससे अवश्यकरणीय योगों की हानि होती है तो आहार करता हुआ भी प्रतिदिन योगवृद्धि करे - नमस्कारसहिता करने वाला पौरुषी करे, पौरुषी करने वाला पुरिमड्ढ और पुरिमड्ड करने वाला एकाशन करे। • वर्षाकालीन तप से बलवृद्धि वर्षाकालः स्निग्धतया स कालो बलिको तपः कुर्वतां बलोपष्टम्भं करोति । (व्यभा १३४० की वृ) वर्षाकाल स्निग्धता के कारण शक्तिप्रदायक होता है। जो तपस्या करते हैं, उनके लिए यह काल बल का आधारभूत होता है। ११. नित्यभोजी और तपस्वी : गोचरकाल वासावासं पज्जोसवियस्स निच्चभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पइ एगं गोयरकालं गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्त वा पविसित्तए वा, नण्णत्थ आयरियवेयावच्चेण वा उवज्झाय-वेयावच्चेण वा तवस्सि गिलाण - वेयावच्चेण वा खुड्डुएण वा अवंजणजायएणं ॥ (दशा ८ परि सू २३९) वर्षावास में स्थित नित्यभोजी भिक्षु के एक गोचरकाल होता है - वह आहार- पानी के लिए गृहपति के घर एक बार गमनप्रवेश कर सकता है। आगम विषय कोश-- २ आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी और ग्लान के वैयावृत्त्य हेतु अथवा अव्यंजनजात बाल शैक्ष हेतु एक से अधिक गोचरकाल हो सकते हैं। ३५० वासावासं पज्जोसवियस्स चउत्थभत्तियस्स भिक्खुस्स... पाओ निक्खम्म कप्पड़ से तद्दिवसं तेणेव भत्तद्वेणं पज्जोसवित्तए, से य नो संथरिज्जा एवं से कप्पइ दोच्चं पि गाहावइकुलं भत्ता ... | ॥छट्टभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति दो गोयरकाला ॥''''अट्ठमभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति ओ गोयरकाला ॥ विकट्ठभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति सव्वे वि गोयरकाला .... ॥ एगं गोयरकालं सुत्तपोरिसिं कातुं अत्थपोरिसिं कातुं एक्कवारं ण चरिमं । (दशा ८ परि सू २४०-२४३ चू) वर्षावास के लिए स्थित चतुर्थभक्तिक (उपवास करने वाले) भिक्षु के लिए प्रातः काल का एक गोचरकाल ही विहित है । प्रात: कालगृहीत वह भोजन यदि पर्याप्त न हो तो वह दूसरी बार भी आहार के लिए गृहपतिकुल में जा सकता है। षष्ठभक्तक (बेले की तपस्या करने वाले) भिक्षु के लिए दो गोचरकाल, अष्टमभक्तिक (तेले की तपस्या करने वाले) भिक्षु के लिए तीन गोचरकाल तथा विकृष्टभक्त करने वाले भिक्षु लिए सभी गोचरकाल विहित हैं। एक गोचरकाल अर्थात् सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी सम्पन्न कर एक बार भिक्षाचर्या के लिए जाना, चरमपौरुषी में नहीं जाना । ....... सव्वे गोयरकाला, विगिट्ठ छट्टऽट्टमे बि-तिहिं ॥ संखुन्ना जेणंता, दुगाइ छट्ठादिणं तु तो कालो । भुत्तणुभुत्ते अ बलं, जायइ न य सीयलं होइ ॥ 'विकृष्टभक्तिकः 'दशम-द्वादशमादिक्षपकः । (बृभा १६९८, १६९९ वृ) षष्ठभक्तिक, अष्टमभक्तिक आदि के दो या तीन तथा विकृष्ट तप - लगातार चार उपवास, पांच उपवास आदि तप करने वाले भिक्षु के सभी गोचरकाल विहित हैं। इसका कारण यह है कि बेले आदि की तपस्या से आंतें सिकुड़ जाती हैं, दो या इससे अधिक बार आहार करने से ही उसमें बेले या विकृष्ट तप का सामर्थ्य आता है। एक ही गोचरकाल में पूरा आहार Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश--२ ३५१ पर्युषणाकल्प ग्रहण करने से एक बार खाने के बाद शेष आहार को रख देने से भिक्षु अथवा भिक्षुणी गृहपति के घर में भिक्षा की प्रतिज्ञा से वह ठंडा हो जाता है, वह आहार उसके दुर्बल शरीर के प्रवेश कर पानक-जात (धोवन) को जाने-आटे का धोवन, अनुकूल नहीं होता। उबले हुए केर आदि का धोवन, चावल का धोवन अथवा इस १२. तप और पानकप्रमाण प्रकार का अन्य धोवन, जो अनाम्ल (जिसका स्वाद न बदला) ___वासावासं पज्जोसवियस्स निच्चभत्तियस्स भिक्खुस्स हो, अव्युत्क्रांत (जिसकी गंध न बदली) हो, अपरिणत (जिसका कप्पंति सव्वाइं पाणगाइं पडिगाहेत्तए॥.."चउत्थभत्तियस्स रंग न बदला) हो, विरोधी शस्त्र के द्वारा जिसके जीव ध्वस्त न भिक्खस्स कप्पंति तओ पाणगाई..... उस्सेडम संसेडम हुए हों, उस अधुनाधौत-तत्काल के धोवन को अप्रासुक-अनेषणीय चाउलोदगं "छट्ठभत्तियस्सतिलोदए तुसोदए जवोदए॥ मानता हुआ मिलने पर ग्रहण न करे। ..."अट्ठमभत्तियस्स"आयामए सोवीरए सुद्धवियडे ॥... ____ यदि भिक्षु ऐसा जाने-पानक चिरधौत (अन्तर्मुहूर्त्तकाल के बाद का धोवन), आम्ल (स्वाद बदला हुआ), व्युत्क्रांत (गंध विकिट्ठभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पइ एगे उसिणवियडे पडिगाहेत्तए, से वि य णं असित्थे 'नो वि य णं' ससित्थे॥ बदली हुई), परिणत (रंग बदला हुआ) और विध्वस्त (शस्त्र से उपहत) है, उसे प्रासुक और एषणीय मानता हुआ मिलने पर ग्रहण __ (दशा ८ परि सू २४४-२४८) (दशा करे। वर्षावास में स्थित नित्यभोजी भिक्षु सब प्रकार के पानक से भिक्खूवा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं"अणुपविढे ग्रहण कर सकता है। चतुर्थभक्त (उपवास) वाला भिक्षु तीन समाणे सेज्जं पुण पाणगजायं जाणेज्जा, तं जहा-तिलोदगं प्रकार के पानक ग्रहण कर सकता है-१. उत्स्वेदिम-आटे का वा, तुसोदगंवा, जवोदगं वा, आयामं वा, सोवीरं वा, सुद्धधोवन। २. संसेकिम-उबले हुए केर आदि का धोवन। ३. चाउ वियडं वा-अण्णयरं वा तहप्पगारं पाणगजायं पव्वामेव लोदक-चावल का धोवन । आलोएज्जा-आउसो! त्ति वा भगिणि! त्ति वा, दाहिसि मे षष्ठभक्त (बेले की तपस्या) वाला भिक्षु तीन प्रकार के एत्तो अण्णयरं पाणग-जायं? पानक ले सकता है-तिलोदक, तुषोदक, यवोदक। से सेवं वदंतं परो वदेज्जा-आउसंतो! समणा! तुमं चेवेदं अष्टमभक्त (तेले की तपस्या) वाला भिक्षु त्रिविध पानक पाणग-जायं पडिग्गहेण वा उस्सिंचियाणं, ओयत्तियाणं ले सकता है-१. आयामक-अवस्रावण-ओसामन। ३. गिण्हाहि-तहप्पगारं पाणग-जायं सयं वा गिण्हेज्जा.परो वा सौवीरक-कांजी। ३. शुद्धविकट-उष्णोदक। से देज्जा-फासुयं एसणिज्जं ति मण्णमाणे लाभे संते विकृष्ट भक्तिक (चोले आदि की तपस्या करने वाला) पडिगाहेज्जा। भिक्षु केवल गर्म जल ले सकता है, वह भी ससिक्थ नहीं, असिस्था ..."अंब-पाणगं वा, अंबाडग-पाणगं वा, कविट्ठ-पाणगं ० विविध पानक : ग्रहण-विधि वा, मातुलिंग-पाणगं वा, मुद्दिया-पाणगं वा, दाडिम-पाणगं से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवाय- वा, खजूर-पाणगं वा, णालिएर-पाणगं वा, करीर-पाणगं पडियाए अणुपविढे समाणे सेज्जं पुण 'पाणग-जायं' वा, कोल-पाणगं वा, आमलग-पाणगं वा, चिंचा-पाणगं जाणेज्जा, तंजहा–उस्सेइमं वा, संसेइमं वा, चाउलोदगंवा- वा-अण्णयरं वा तहप्पगारं पाणग-जायं सअट्ठियं सकणुयं अण्णयरं वा तहप्पगारं पाणग-जायं अहुणा-धोयं, अणंबिलं, सबीयगं अस्संजए भिक्खु-पडियाए छब्बेण वा, दूसेण वा, अव्वोक्कंतं, अपरिणयं, अविद्धत्थं-अफासुयं अणेसणिज्जं वालगेण वा, आवीलियाण वा, परिपीलियाण वा, परिस्सातिमण्णमाणे लाभेसंते णो पडिगाहेज्जा..."चिराधोयं, अंबिलं, वियाण आहट्टदलएज्जा-तहप्पगारं पाणग-जायं-अफासुयं वुक्कंतं, परिणय, विद्धत्थं-फासुयं एसणिज्जति मण्णमाणे अणेसणिज ति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिगाहेज्जा॥ लाभेसंते पडिगाहेज्जा॥ (आचूला १/९९, १००) (आचूला १/१०१, १०४) Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणाकल्प ३५२ आगम विषय कोश-२ भिक्षु गृहपति के घर में प्रवेश कर पानकवर्ग को जाने- जिनकल्पी नित्य नियमतः लोच करते हैं। स्थविरकल्पी के तिलोदक, तुषोदक, यवोदक, ओसामन, कांजी, उष्णोदक अथवा लिए वर्षावास में लोच की अनिवार्यता है। असहिष्णु और ग्लान इस प्रकार का कोई पानकजात हो तो पहले ही आलोचना करे मुनि भी पर्युषणरात्रि का अतिक्रमण नहीं करते। (कहे)-आयुष्मन् ! भगिनि! इनमें से कोई पानकजात मुझे दोगी? केशलोच क्यों? उसके ऐसा कहने पर गृहस्थ कहे-आयुष्मन्तो! श्रमणो! तुम ही जे भिक्खू पज्जोसवणाए गोलोममाइं पि वालाई इस पानकजात को पात्र से उलीचकर, उंडेलकर ग्रहण करो-वैसे उवाढणावेति..........॥ (नि १०/३८) पानकजात को स्वयं ग्रहण करे अथवा गृहस्थ दे-उसे प्रासक और णिसुढंते आउवधो, उल्लेसु य छप्पदीउ मुच्छंति। कल्पनीय मानता हआ मिलने पर ग्रहण करे। ता कंडूय विराहे, कुज्जा व खयं तु आयाते॥ आम्रपानक, आम्रातक पानक, कैथपानक, बिजौरा-पानक, ..."उडु तरुणे चउमासो, खुर-कत्तरि छल्लहू गुरुगा॥ द्राक्षापानक, दाडिमपानक, खजूरपानक, नारियलपानक, केरपानक, पक्खिय-मासिय-छम्मासिए य थेराण तू भवे कप्यो। बेरपानक, आमलक पानक, इमली-पानक-इसी प्रकार का अन्य कोई पानकजात, जो गुठली, छाल और बीजसहित हो, उसे गृहस्थ कत्तरि-छुर-लोए वा, बितियं असहू गिलाणे य॥ भिक्षु के उद्देश्य से वंशपिटक, वस्त्र या वालज से एक बार या ___(निभा ३२१२-३२१४) बार-बार मसलकर, छानकर लाकर दे-वैसे पानकजात को अप्रासक जो भिक्षु पर्युषणा में गोरोम जितने बाल रखता है, वह और अनेषणीय मानता हुआ मिलने पर ग्रहण न करे। प्रायश्चित्त का भागी होता है। केश न काटने पर उन पर वर्षा की (हरिभद्र ने पानक का अर्थ आरनाल 'कांजी' किया है। बूंदें टिक जाती हैं, उससे जलकायिक जीवों की विराधना होती ..... प्रवचनसारोद्धार के अनुसार सुरा आदि को 'पान', साधारण है। गीले बालों में यूका आदि पैदा हो जाती हैं। खुजलाने से जल को 'पानीय' और द्राक्षा, खजूर आदि से निष्पन्न जल को उनकी तथा चमड़ी क्षत होने पर अपनी विराधना होती है। 'पानक' कहा जाता है। ...... ऋतुबद्धकाल में तरुण और वृद्ध चार माह से लोच करवाते सुश्रुत के अनुसार गुड़ से बना खट्टा या बिना अम्ल का हैं, वृद्ध उत्कृष्टतः छह मास से भी करवा सकते हैं। पानक गुरु और मूत्रल होता है। द्राक्षा से बना पानक श्रम, मूर्छा, क्षुर और कैंची से लोच करवाने पर क्रमशः षडलघु और दाह और तृषा का नाशक है। फालसे से और बेरों से बना पानक चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है। हृदय को प्रिय तथा विष्टम्भि होता है। -द ५/४७ का टिप्पण) असहिष्णुता, शिरोरोग, आंख की ज्योति की मंदता आदि १३. पर्युषणा में लोच की अनिवार्यता आपवादिक स्थितियों में कैंची से पाक्षिक तथा क्षर से मासिक लोच वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा किया जाता है। अपवादरूप में छह मास से भी किया जा सकता है। निग्गंथीण वा परं पज्जोसवणाओ गोलोमप्पमाणमित्ते वि केसे तं रयणिं उवाइणावित्तए..."छम्मासिए लोए संवच्छरिए पात्र-भाजन। धातु, मिट्टी आदि से निर्मित पात्र। द्र उपधि वा थेरकप्पे। (दशा ८ परि सू २८१) पात्रैषणा- मुनि द्वारा ग्राह्य पात्र की गवेषणा। द्र उपधि __ वर्षावास में स्थित साधु और साध्वियां पर्युषणा के पश्चात् पानैषणा-पेय द्रव्य-कांजी आदि की एषणा। द्र पिण्डैषणा उस रात्रि का अतिक्रमण कर गोरोम-प्रमाणमात्र भी केश नहीं रख * पानक के विविध प्रकार द्र पर्युषणाकल्प सकतीं। स्थविरकल्प में षाण्मासिक या सांवत्सरिक लोच होता है। ० जिनकल्पी आदि और लोच पारांचित-दसवां प्रायश्चित्त, अवहेलनापूर्वक पुनः व्रतारोपण। धवलोओ य जिणाणं, णिच्चं थेराण वासवासास। १. पारांचित के निर्वचन असहू गिलाणस्स व, तं रयणिं तू णऽतिक्कामे॥ | २. पारांचित के प्रकार और चारित्र की भजना (निभा ३१७३) ३. आशातना पारांचित के स्थान Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३५३ पारांचित ४. प्रतिसेवना पारांचित के प्रकार ५. दुष्ट पारांचिक : सर्षपनाल आदि दृष्टांत ६. प्रमत्त (स्त्यानर्द्धि) पारांचिक : लिंग पारांचिक ० अचारित्री की लिंग-हरण-विधि ० पुनः लिंगापहार कैसे? ७. क्षेत्र-लिंग-तप-पारांचिक दो प्रायश्चित्तों का विच्छेद ८. तपपारांचित-तप अनवस्थाप्य वहन की अर्हता ९. अन्य गण में पारांचित वहन क्यों? १०. पारांचिक की जिनकल्पी सदृश चर्या ११. पारांचिक का कालमान १२. संघ कार्य में पारांचिक की भूमिका * पारांचित : प्रायश्चित्त का दसवां भेद * अनवस्थाप्य : प्रायश्चित्त का नौवां भेद द्र प्रायश्चित्त १३. अनवस्थाप्य के प्रकार ० आशातना अनवस्थाप्य ० प्रतिसेवना अनवस्थाप्य १४.अनवस्थाप्य-ग्रहणविधि तथा सामाचारी १५. अनवस्थाप्य का कालमान |१६. प्रायश्चित्त वाहक के प्रति आचार्य का दायित्व १७. अनवस्थाप्य और पारांचित में भिन्नता १८. अनवस्थाप्य-पारांचिक गृहीभूत ० गृहस्थवेष क्यों? ० गृहस्थवेष और उपस्थापना विधि * अवहेलनापूर्वक प्रायश्चित्त : सावध जीत द्र व्यवहार ० अनवस्थाप्य-पारांचिक अगृहीभूत भी * साध्वी को अनवस्थाप्य-पारांचित नहीं द्र प्रायश्चित्त १. पारांचित के निर्वचन अंचु गति-पूयणम्मि य, पारं पुणऽणुत्तरं बुधा बिंति। सोधीय पारमंचइ, ण यावि तदपूतियं होति॥ ..."अपश्चिमं प्रायश्चित्तम् तत् पाराञ्चिकं पाराञ्चितं वाभिधीयते। तद्योगात् साधुरपि पाराञ्चिकः। (बृभा ४९७१ वृ) ० अञ्चु धातु यहां गति और पूजा के अर्थ में ग्राह्य है। ० साधु जिस प्रायश्चित्त का वहन कर संसार-समुद्र के तीरभूत अनुत्तर निर्वाण को प्राप्त कर लेता है. वह पारांचिक है। ० जो प्रायश्चित्त के पार को प्राप्त है-अंतिम प्रायश्चित्त है। ० प्रायश्चित्ती साधु जिस तप की पूर्णता से अपूजित नहीं होता, प्रत्युत् श्रमणसंघ की पूजा प्राप्त करता है, वह पारांचिक या पारांचित है। इसके योग से-उपचार से साधु भी पारांचिक कहलाता है। (० जो तप के द्वारा अपराध का पार/विशोधन कर पुनः दीक्षित होता है, वह पारांची है। ० जिसमें लिंग-क्षेत्र-काल-विवेक और तप द्वारा अपराध का पार पाया जाता है, वह पारांचिक है।-निको पृ १९९) २. पारांचित के प्रकार और चारित्र की भजना आसायण पडिसेवी, दुविहो पारंचितो समासेणं। एक्केक्कम्मि य भयणा, सचरित्ते चेव अचरित्ते । सव्वचरित्तं भस्सति, केणति पडिसेवितेण तु पदेणं। कत्थति चिट्ठति देसो, परिणामऽवराहमासज्ज॥ (बृभा ४९७२, ४९७३) पारांचित के दो प्रकार हैं१. आशातना पारांचित २. प्रतिसेवना पारांचित। इनमें चारित्र की भजना है-ये दोनों ही सचारित्री भी हो सकते हैं, अचारित्री भी हो सकते हैं। किसी-किसी पारांचित प्रायश्चित्त योग्य अपराध में व्यक्ति का पूरा चारित्र ही नष्ट हो जाता है और किसी-किसी के चारित्र का अंश बच जाता है। इसका हेतु है मंद-तीव्र परिणामों से आसेवित जघन्य-उत्कृष्ट अपराध। ३. आशातना पारांचित के स्थान तित्थकर पवयण सुते, आयरिए गणहरे महिड्डीए। एते आसायंते, पच्छित्ते मग्गणा होइ॥ पाहुडियं अणुमण्णति, जाणतो किं व भुंजती भोगे। थीतित्थं पि य वुच्चति, अतिकक्खडदेसणा यावि॥ ............ पावति पारंचियं ठाणं॥ अक्कोस-तज्जणादिसु , संघमहिक्खिवति संघपडिणीतो। अण्णे वि अस्थि संघा, सियाल-णंतिक्क-ढंकाणं॥ काया वया य ते च्चिय, ते चेव पमायमप्पमादा य। मोक्खाहिकारियाणं, जोतिसविज्जासु किं च पुणो॥ इड्डि-रस-सातगुरुगा, परोवदेसुज्जया जहा मंखा। अत्तट्ठपोसणरया, पोसेंति दिया व अप्पाणं॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारांचित अब्भुज्जयं विहारं, देसिंति परेसि सयमुदासीणा । उवजीवंति य रिद्धिं, निस्संगा मो त्ति य भांति ॥ गणधर एव महिड्डी, महातवस्सी व वादिमादी वा । ... पढम- बितिएसु चरिमं, सेसे एक्केक्क चउगुरू होंति । सव्वे आसादितो, पावति पारंचियं ठाणं ॥ तित्थयरपढमसिस्सं, एक्कं पाऽऽसादयंतु पारंची। अत्थस्सेव जिणिंदो, पभवो सो जेण सुत्तस्स ॥ 'प्राभृतिकां' सुरविरचितसमवसरण महाप्रातिहार्यादिपूजालक्षणाम् ।...... (बृभा ४९७५-४९८४ वृ) आशातना के छह स्थान हैं - तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर और महर्द्धिक मुनि - इनकी आशातना करने वाले के प्रायश्चित्त में मार्गणा होती है । १. तीर्थंकर - आशातना - तीर्थंकर देवों द्वारा रचित समवसरण तथा महाप्रातिहार्य पूजा रूप प्राभृतिका की अनुमोदना करते हैं, यह ठीक नहीं है। वे अतिशय ज्ञान से भव के स्वरूप को जानते हैं, फिर भोगों को क्यों भोगते हैं ? मल्लिनाथ स्त्री थीं, उन्हें तीर्थंकर कहना असमीचीन है। सर्वोपायकुशल तीर्थंकरों की देशना का आचरण अत्यन्त दुष्कर है, अतः ऐसी देशना भी अयुक्त है - इस प्रकार के वचन प्रयोगों से तीर्थंकर की आशातना होती है। २. प्रवचन - आशातना - संघप्रत्यनीक व्यक्ति आक्रोश, तर्जना आदि से संघ का तिरस्कार करता है। वह कहता है- शृगाल, नांतिक्क, ढंक आदि के अन्य संघ भी हैं। ३. श्रुत- आशातना - दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि में षट्काय, छह व्रत, प्रमाद और अप्रमाद का जो बार-बार वर्णन किया गया है, वह अनुपयुक्त है। आगमों में ज्योतिष विद्या, निमित्त विद्या आदि का विवेचन है। मोक्षार्थी मुनि का उनसे क्या प्रयोजन ? ४. आचार्य - आशातना - आचार्य ऋद्धि-रस- सातप्रधान, मंख की भांति परोपदेश में उद्यत तथा आत्मार्थ पोषण में रत होते हैं। वे द्विज की तरह अपना पोषण करते हैं। ५. गणधर - आशातना - गौतम आदि गणधर दूसरों को अभ्युद्यत विहार (जिनकल्प आदि) का उपदेश देते हैं पर स्वयं उससे उदासीन रहते हैं। वे अक्षीणमहानस, चारण आदि लब्धियों के उपजीवी होते हैं और 'हम निस्संग हैं' ऐसा कहते हैं । ६. महर्द्धिक- आशातना - सर्वलब्धि सम्पन्न होने से गणधर ही आगम विषय कोश - २ महर्द्धिक होते हैं अथवा महातपस्वी, वादी आदि महर्द्धिक कहलाते । उनका अवर्णवाद बोलना महर्द्धिक- आशातना है। तीर्थंकर और संघ की देशतः या सर्वतः आशातना करने पर पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। श्रुत, आचार्य और महर्द्धिक में से प्रत्येक की देशतः आशातना से चतुर्गुरु तथा सर्व आशातना से पारांचित प्राप्त होता है। तीर्थंकर के प्रथम शिष्य - गणधर की आशातना से भी पारांचित प्राप्त होता है। क्योंकि तीर्थंकर मात्र अर्थ के प्रणेता होते हैं, सूत्र के प्रणेता गणधर ही होते हैं । ४. प्रतिसेवना पारांचिक के प्रकार - तओ पारंचिया पण्णत्ता, तं जहा दुट्ठे पारंचिए, पमत्ते पारंचिए, अण्णमण्णं करेमाणे पारंचिए । (क ४/२) पडिसेवणपारंची, तिविधो सो होइ आणुपुवीए।..... (बृभा ४९८५) ३५४ सूत्रोक्त परिपाटी से तीन प्रकार के श्रमण प्रतिसेवना पारांचित (दसवें प्रायश्चित्त) के भागी होते हैं १. दुष्ट पारांचिक - कषाय और विषय से दूषित । २. प्रमत्त पारांचिक -- स्त्यानर्द्धि निद्रा वाला । ३. अन्योन्यक्रिया पारांचिक - मैथुन सेवन करने वाला । ( पांच स्थानों में श्रमण पारांचित का भागी होता है - १. कुल में भेद डालने वाला, २. गण में भेद डालने वाला, ३. हिंसाप्रेक्षी, ४. छिद्रान्वेषी, ५. बार-बार प्रश्नायतनों का प्रयोग करने वाला । - स्था ५ / ४७ ) । ५. दुष्ट पाचिक : सर्षपनाल आदि दृष्टांत दुविधो य होइ दुट्ठो, कसायदुट्ठो य विसयदुट्ठो या..... सासवणाले मुहणंत य उलुगच्छि सिहरिणी चेव । सासवणाले छंदण, गुरु सव्वं भुंजें एतरे कोवो । खामणमणुवसमंते, गणिं ठवेत्तऽण्णहिँ परिण्णा ॥ पुच्छंतमणक्खाए, सोच्चऽण्णतो गंतु कत्थ से सरीरं । गुरु पुव्व कहितऽदातण, पडियरणं दंतभंजणता ॥ मुहणंतगस्स गहणे, एमेव य गंतु णिसि गलग्गहणं।'''' अत्थंगए वि सिव्वसि, उलुगच्छी ! उक्खणामि ते अच्छी ।'' सिहरिणिलंभाऽऽलोयण, छंदिऍ सव्वाइते अ उग्गिरणा । (बृभा ४९८६-४९९२) Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३५५ पारांचित ईदृशाः स्वपक्षकषायदुष्टा लिंगपाराञ्चिकाः कर्त्तव्याः। ६. प्रमत्त (स्त्यानर्द्धि) पारांचिक : लिंग पारांचिक (बृभा ४९९३ की वृ) निद्दा पमाद पंचविधो।"तहिगं च इमे उदाहरणा॥ दुष्ट पारांचिक के दो प्रकार हैं-१. कषाय दुष्ट २. विषय पोग्गल मोयग फरुसग, दंते वडसालभंजणे सुत्ते। दुष्ट । कषाय दुष्ट के चार दृष्टांत हैं-१. सर्षपभर्जिका २. मुखवस्त्रिका । एतेहिं पुणो तस्सा, विविंचणा होति जतणाए॥ ३. उलूकाक्ष ४. शिखरिणी। स्त्याना-प्रबलदर्शनावरणीयकर्मोदयात् कठिनीभूता १. सर्षपनाल-एक बार एक साधु को सरसों की भाजी प्राप्त हई। ऋद्धिः-चैतन्यशक्तिर्यस्यामवस्थायां सा स्त्यानर्द्धिः । यथा वह उसमें अत्यन्त आसक्त था। उसने गुरु को दिखाया, निमन्त्रित घृते उदके वा स्त्याने न किञ्चिदुपलभ्यते एवं चैतन्यऋद्ध्यामपि किया। गुरु ने सारी सब्जी खाई। यह देख शिष्य कुपित हुआ। गुरु स्त्यानायां न किञ्चिदुपलभ्यते "पारांचिकस्य प्रस्तुतत्वात् को ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्षमायाचना की। पर शिष्य का कोप शांत स्त्यानर्द्धिनिद्रयाधिकारः। (बृभा ५०१६, ५०१७ वृ), नहीं हुआ। मेरी असमाधिपूर्ण मृत्यु न हो, ऐसा सोच गुरु अपने निद्राप्रमाद के पांच भेद हैं-निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, गण में योग्य शिष्य को गणी के रूप में स्थापित कर स्वयं दूसरे प्रचलाप्रचला, स्त्यानर्द्धि। पारांचित में स्त्यानर्द्धि निद्रा का प्रसंग है। गण में जाकर भक्त-प्रत्याख्यान अनशन में स्थित हो गए। वहां जिस अवस्था में प्रबल दर्शनावरणीय कर्म के उदय से चेतनाशक्ति समाधिपूर्ण मृत्यु को प्राप्त हो गए। वह साधु गुरु को खोजता हुआ जड़ीभूत हो जाती है, जम जाती है, वह स्त्यानर्द्धि है। जैसे घी या वहां पहुंचा और गुरु के विषय में पूछा। साधुओं ने कुछ भी नहीं पानी (हिम) के जम जाने पर किंचित् प्राप्त नहीं होता, वैसे ही बताया। दूसरों के द्वारा उसे ज्ञात हुआ कि गुरु समाधिमृत्यु को प्राप्त चेतनाऋद्धि के भी जम जाने पर कुछ उपलब्ध नहीं होता। इस हो गए हैं। उसने पुन: पूछा-गुरु के शरीर का परिष्ठापन कहां निद्रा के संदर्भ में पांच दृष्टांत हैं-पुद्गल (मांस), मोदक, कुम्भकार, किया गया है? लेकिन गुरु ने पहले ही कह दिया था कि उसको दांत, वटशाखाभंजन। (द्र श्रीआको १ कर्म) मेरे शरीर की परिष्ठापन-भूमि मत बताना। अत: वे मौन रह गए। इन दृष्टांतों के माध्यम से स्त्यानर्द्धि निद्रा की पहचान कर वह दूसरों से पूछकर परिष्ठापन भूमि में गया और मृत कलेवर के प्रतिसेवी का यतनापूर्वक परित्याग किया जाता है-उसे लिंगपारांचित दांतों को पत्थर से तोड़ा। प्रतिचारक साधओं ने उसे देखा। प्रायश्चित्त दिया जाता है। २. एक शिष्य को अत्यन्त उज्ज्वल मुखवस्त्रिका मिली। उसने गुरु । ० अचारित्री की लिंग-हरण-विधि को दिखाई, गुरु ने अपने पास रख ली। उसको आक्रुष्ट हुआ __केसवअद्धबलं पण्णवेंति मुय लिंग णत्थि तुह चरणं। देख गुरु ने वह मुखवस्त्रिका शिष्य को देनी चाही। शिष्य ने णेच्छस्स हरइ संघो, ण वि एक्को मा पदोसं तु॥ इन्कार कर दिया। गुरु ने अनशन कर लिया। रात्रि में शिष्य ने __ केशवः-वासुदेवस्तस्य बलादर्धबलं स्त्यानर्द्धिमतो गला इतने जोर से दबाया कि गुरु का प्राणान्त हो गया। ३. एक मुनि सूर्यास्त के पश्चात् भी कपड़ा सी रहा था। दूसरे मुनि भवति"एतच्च प्रथमसंहननिनमंगीकृत्योक्तम्, इदानीं पुनः ने परिहास में कहा-अरे ! उलूकाक्ष ! अभी तक सिलाई कर रहे सामान्यलोकबलाद् द्विगुणं त्रिगुणं चतुर्गुणं वा बलं भवतीति हो? यह बात उसे चभ गई। उसने अनशनपूर्वक कालधर्म को मन्तव्यम्। (बृभा ५०२३ वृ) प्राप्त उस मुनि की दोनों आंखें निकालकर प्रतिशोध लिया। स्त्यानर्द्धि निद्रा वाले व्यक्ति में वासुदेव के बल से आधा ४. शिष्य को उत्कृष्ट शिखरिणी प्राप्त हुई। गुरु को निमंत्रित करने बल होता है। यह कथन प्रथम (वज्रऋषभनाराच) संहनन वाले पर उन्होंने स्वयं उसका उपभोग कर लिया। शिष्य का मन प्रतिशोध व्यक्ति की अपेक्षा से है। सामान्यतः लोकबल से उसका बल से भर गया। उसने समाधिपूर्वक कालप्राप्त गुरु के शरीर को दंड दुगुना, तीन गुना अथवा चार गुना भी हो सकता है। ऐसी निद्रा से पीटा। इस प्रकार के स्वपक्ष के प्रति तीव्रकषायपरिणत मुनि वाले साधु से कहना चाहिए-मुने! तुम लिंग छोड़ दो, तुम्हारे में लिंगपारांचिक किए जाते हैं। चारित्र नहीं है। इस प्रकार कहे जाने पर यदि वह लिंग छोड़ना न Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारांचित ३५६ आगम विषय कोश-२ चाहे तो पूरा संघ मिलकर उसके लिंग का हरण करे, अकेला न ०दो प्रायश्चित्तों का विच्छेद करे, ताकि वह उस एक पर द्वेष न करे। प्रथमसंहननचतुर्दशपूर्विणोः समकं व्यवच्छिन्नयोरन० पुनः लिंगापहार कैसे? वस्थाप्यं पाराञ्चितं च व्यवच्छिन्नम्। (व्यभा ४१८१ की वृ) अवि केवलमुप्पाडे, न य लिंगं देति अणतिसेसी से। प्रथम संहनन (वज्रऋषभनाराच) और चतुर्दशपूर्वी-दोनों देसवत दंसणं वा, गिण्ह अणिच्छे पलायंति॥ का एक साथ विच्छेद हुआ। उनके व्यवच्छिन्न होने पर अनवस्थाप्य यः पुनरतिशयज्ञानी स जानाति-न भूय एतस्य और पारांचित-ये दोनों अंतिम प्रायश्चित्त भी विच्छिन्न हो गए। स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयो भविष्यति, ततो लिङ्गं ददाति, इतरथा न (अनवस्थाप्य और पारांचित के चार-चार भेद हैं-लिंग, ददाति। (बभा ५०२४ व) क्षेत्र, काल और तप। तप अनवस्थाप्य और तप पारांचित का स्त्यानर्द्धिनिद्रा वाले के उसी भव में केवली होने की चौदहपूर्वी के साथ विच्छेद हो गया। शेष भेद जब तक तीर्थ है. संभावना हो. फिर भी अनतिशायी जानी उसे पनः लिंग नहीं देता। तब तक रहग।-जातकल्प गाथा ८९, ९७, १०२) जो अतिशयज्ञानी है, वह जान लेता है कि अब इसके स्त्यानर्द्धि ८. तपपारांचित-तपअनवस्थाप्य वहन की अर्हता निद्रा का उदय नहीं होगा तो वह उसे पुनः लिंग देता है, अन्यथा संघयण-विरिय-आगम-सुत्त-ऽत्थ-विहीए जो समग्गो तु। नहीं देता है। तवसी निग्गहजुत्तो, पवयणसारे अभिगतत्थो॥ लिंगापहार के समय उसे कहा जाता है-तुम अणुव्रतधारी तिलतुसतिभागमित्तो, वि जस्स असुभो ण विज्जती भावो। श्रावक बन जाओ। यह संभव न हो तो दर्शन श्रावक हो जाओ। निज्जूहणाइ अरिहो, सेसे निजूहणा नत्थि॥ यदि इस बात को वह मान्य न करे और लिंग छोड़ना न चाहे तो ..... एयगुणविप्पमुक्के, तारिसगम्मी भवे मूलं ॥ रात्रि में उसे सोया हुआ छोड़कर गच्छ अन्यत्र चला जाए। एयगुणसंपउत्तो, अणवठ्ठप्पो य होति नायव्वो।.... ७. क्षेत्र-लिंग-तप-पारांचिक (बृभा ५०२९-५०३१, ५१३१) ...""कुल गण संघे निज्जूहणाएँ पारंचितो होति॥ जो वज्रऋषभनाराच संहनन से युक्त हो, जिसकी धृति बिइओ उवस्सयाई, कीरति पारंचितो न लिंगातो। वज्रभित्ति की भांति सुदृढ हो, जो कम से कम नौवें पूर्व के तृतीय अणुवरमं पुण कीरति, सेसा नियमा तु लिंगाओ॥ आचारवस्तु का ज्ञाता तथा उत्कृष्टतः असम्पूर्ण दशपूर्वी हो, जो इंदिय-पमाददोसा, जो पुण अवराहमुत्तमं पत्तो। सूत्र और अर्थ-दोनों से परिचित और विधि के समाचरण में सब्भावसमाउट्टो, कुशल हो, तपःकर्म से भावित, इन्द्रिय और कषाय का निग्रह करने 'निश्चयेन भूयोऽहमेवं न करिष्यामि' इति व्यवसितस्तदा वाला तथा प्रवचन के रहस्यों का ज्ञाता हो, गच्छ से निर्मूढ होने पर सतपःपाराञ्चिकः क्रियते। (बृभा ५०१२, ५०२७,५०२८ वृ) भी जिसके मन में तिल-तुष मात्र भी अशुभ भाव न आता हो, वह ० क्षेत्र-लिंग-पारांची-विषय दुष्ट को उपाश्रय आदि क्षेत्रों से नि!हणा के योग्य है, शेष नहीं। इन गुणों से रहित होने पर पारांचिक किया जाता है, लिंग से नहीं। विषयदोष से उपरत नहीं ___ पारांचित के स्थान पर मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। होने पर लिंग से भी पारांचिक किया जाता है। शेष-कषायदुष्ट, अनवस्थाप्य वहन की अर्हता पारांचित के समान ही है। प्रमत्त और अन्योन्यसेवी को नियमतः लिंगपारांची किया जाता है। ९. अन्य गण में पारांचितवहन क्यों? जो कुल के द्वारा बहिष्कृत है, वह कुल पारांचिक, जो गण इत्तिरिय णिक्खेवं, काउं अण्णं गणं गमित्ताणं। और संघ से बाह्यकृत है, वह गणपारांचिक और संघपारांचिक है। दव्वादि सुभे विगडण, निरुवस्सग्गट्ठ उस्सग्गो॥ ० तपपारांची-जो इन्द्रियदोष अथवा प्रमाददोष के कारण उत्कृष्ट अप्पच्चय णिब्भयया, आणाभंगो अजंतणा सगणे। अपराध कर निश्चयपूर्वक यह कहता है कि मैं पुनः ऐसा अपराध परगणे न होंति एए, आणाथिरता भयं चेव॥ नहीं करूंगा, उसे तप-पारांचिक किया जाता है। (बृभा ५०३३, ५०३४) Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ प्रायश्चित्ती आचार्य अपने तुल्य शिष्य में अल्पकालिक गण-निक्षेप कर दूसरे गण में चले जाते हैं। प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में दूसरे गण के आचार्य के समक्ष आलोचना करते हैं, फिर निर्विघ्नता के लिए दोनों आचार्य कायोत्सर्ग करते हैं। अपने गच्छ में पारांचित वहन करने से अगीतार्थ साधुओं के मन में अविश्वास उत्पन्न होता है, गुरु का भय नहीं रहता। भय के अभाव में गुरु की आज्ञा का भंग सहज हो जाता है, शिष्यों के अनुरोध से प्रायश्चित्तवाही आचार्य स्वयं भिक्षाचर्या संबंधी नियंत्रण का पालन नहीं कर पाते। दूसरे गण में इन दोषों की उत्पत्ति नहीं होती । अर्हत् की आज्ञा की अनुपालना में स्थिरता आती है और आत्मा में पाप के प्रति भय उत्पन्न होता है । १०. पारांचिक की जिनकल्पी सदृश चर्या जिणकप्पियपडिरूवी, बाहिं खेत्तस्स सो ठितो संतो । विहरति बारस वासे, एगागी झाणसंजुत्तो ॥ (बृभा ५०३५) पारांचिक मुनि जिनकल्पिकप्रतिरूपी होता है। अलेपकृत भिक्षा ग्रहण करना, तृतीय पौरुषी में पर्यटन करना इत्यादि चर्या जिनकल्पी के सदृश होती है। वह क्षेत्र से बाहर रहता हुआ अकेला ध्यानसंयुक्त- श्रुतपरावर्तन में एकचित्त होकर बारह वर्ष तक विहरण करता है। ११. पारांचिक का कालमान आसायणा जहणणे, छम्मासुक्कोस बारस तु मासे । वासं बारस वासे, पडिसेवओ कारणे भतिओ ॥ (बृभा ५०३२) पारांचिक जघन्यकाल आशातना पारांचिक उत्कृष्टकाल बारह मास प्रतिसेवना पारांचिक छह मास एक वर्ष बारह वर्ष पारांचिक इतने काल तक गण से बाहर रहता है। संघीय कार्य उपस्थित होने पर अवधि से पूर्व भी गण में प्रवेश कर सकता है। १२. संघकार्य में पारांचिक की भूमिका निव्विसउत्ति य पढमो, बितिओ मा देह भत्तपाणं से। ततितो उवकरणहरो, जीय चरित्तस्स वा भेतो ॥ जाणता माहप्पं, सयमेव भांति एत्थ तं जोग्गो । अथ मम एत्थ विसओ, अजाणए सो व ते बेति ॥ ३५७ पारांचित अच्छउ महाणुभागो, जहासुहं गुणसयागरी संघो । गुरुगं पि इमं कज्जं मं पप्प भविस्सए लहुयं ॥ अभिहाणहेउकुसलो, बहूसु नीराजितो विउसभासु । गंतूण रायभवणे, भणाति तं रायदारट्ठे ॥ (बृभा ३१२१, ५०४४-५०४६) कदाचित् राजा ने कुपित होकर संघ को देशनिष्काशन का आदेश दिया हो, आहार- पानी देने का निषेध कर दिया हो, उपकरणों का हरण कर लिया हो अथवा जीवन या चारित्र को विच्छिन्न करने की आज्ञा दी हो-इनमें से किसी भी कार्य के उत्पन्न होने पर आचार्य यदि उस पारांचिक मुनि के माहात्म्य को जानते हैं तो स्वयं उसे कहते हैं - इस कार्यसिद्धि के लिए तुम योग्य हो, अत: उद्यम करो। यदि वे उसकी शक्ति से परिचित नहीं हैं तो वह पारांचिक स्वयं कहता है इस विषय में मेरा प्रवेश है। सैकड़ों गुणों का निधान यह महानुभाग संघ अक्षुण्ण रहे, इसका हित हो। मैं इस महान् संघसुरक्षा के कार्य को सरलता से संपादित कर सकता हूं । संघ की अनुज्ञा प्राप्त कर शब्दप्रयोग और हेतुवाद में कुशल तथा अनेक विद्वत्सभाओं में संभागिता वाला वह पारांचितवाहक राजभवन में जाकर प्रतीहार से कहता है पडिहाररूवी! भण रायरूविं, तमिच्छए संजयरूवि दठ्ठे । निवेदयित्ता य स पत्थिवस्स, जहिं निवो तत्थ तयं पवेसे ॥ तं पूयइत्ताण सुहासणत्थं, पुच्छ्सुि रायाऽऽगयकोउहल्लो । पहे उराले असुए कयाई, स चावि आइक्खइ पत्थिवस्स ॥ जारिसग आयरक्खा, सक्कादीणं न तारिसो एसो । तुह राय ! दारपालो, तं पि य चक्कीण पडिरूवी ॥ समणाणं पडिरूवी, जं पुच्छसि राय ! तं कहमहं ति । निरतीयारा समणा, न तहाऽहं तेण पडिरूवी ॥ निज्जूढो मि नरीसर ! खेत्ते वि जईण अच्छिउं न लभे । अतियारस्स विसोधिं, पकरेमि पमायमूलस्स ॥ कहणाऽऽउट्टण आगमणपुच्छणं दीवणा य कज्जस्स । वीसज्जियंति य मए, हासुस्सलितो भणति राया ॥ संघो न लभइ कज्जं लद्धं कज्जं महाणुभाएणं । तुब्भं ति विसज्जेमिं, सो वि य संघो त्ति पूएति ॥ (बृभा ५०४७-५०५३) Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारांचित हे प्रतिहाररूपिन् ! तुम भीतर जाकर राजरूपी को कहो कि एक श्रमणरूपी आपसे मिलना चाहता है । प्रतिहारी ने राजा को निवेदन किया। जहां राजा था, मुनि ने वहां प्रवेश किया। राजा ने मुनि का अभिवादन किया, शुभ आसन पर बिठाया और कुतूहलवश पूछा - हे मुने! तुम्हारे गम्भीर अर्थ वाले और अश्रुतपूर्व प्रतिहाररूपी, राजरूपी और श्रमणरूपी शब्दों का अर्थ क्या है ? मुनि ने कहा- हे राजन्! शक्रेन्द्र और चमरेन्द्र के जैसे आत्मरक्षक होते हैं, वैसे आत्मरक्षक आपके नहीं हैं इसलिए मैंने प्रतिहाररूपिन् शब्द का प्रयोग किया। जैसे चक्रवर्ती होता है, वैसे आप नहीं हैं क्योंकि आपके पास चक्ररत्न नहीं है किन्तु शौर्य और न्याय की अनुपालना में आप चक्रवर्ती के प्रतिरूप हैं इसलिए मैंने राजरूपी शब्द का प्रयोग किया है। राजा ने प्रश्न किया- तुम श्रमणों के प्रतिरूपी कैसे हो ? उसने कहा - श्रमण निरतिचार होते हैं, मैं वैसा नहीं हूं इसलिए मैं श्रमणों का प्रतिरूपी हूं । हे नरेश ! मैं अपने प्रमादजनित अतिचार विशोध कर रहा हूं इसलिए संघ से निष्कासित हूं। जिस क्षेत्र में श्रमण रहते हैं, मैं उनके साथ नहीं रह सकता इसलिए मैं श्रमण का प्रतिरूपी हूं। राजा यदि पूछे - मुने! तुमने कौन-सा अतिचार किया और उसकी विशोधि कैसे कर रहे हो ? तब मुनि प्रवचन की प्रभावना के लिए इस प्रश्न के उत्तर के साथ-साथ अन्य प्रासंगिक बातें बताकर राजा को प्रभावित और आकृष्ट करता है। आपके आगमन का प्रयोजन क्या है ? - राजा द्वारा यह पूछे जाने पर मुनि अपना प्रयोजन प्रकाशित करता है, तब राजा हर्ष से उल्लसित होकर कहता है-मैंने जो निषेधाज्ञा जारी की थी, उसे विसर्जित करता हूं। जिस कार्य को संघ नहीं कर सका, उस कार्य को पारांचिक साधु के अचिन्त्य प्रभाव ने कर दिया। राजा कहता है - हे मुने! तुम्हारे कहने से ही मैं अपनी पूर्व आज्ञा को विसर्जित करता हूं। पारांचिक भी कहता है- मेरी क्या शक्ति है ? संघ महान् है, आचार्य महान् हैं। इसलिए आप संघ को बुलाकर क्षमायाचना कर कहें- 'मैंने संघविषयक सारी आज्ञाएं विसर्जित कर दी हैं', तब राजा संघ की पूजा करता है। अब्भत्थितो व रण्णा, सयं व संघो विसज्जति तु तुट्ठो । आदी मज्झऽवसाणे, स यावि दोसो धुओ होइ ॥ आगम विषय कोश - २ एक्को य दोन्नि दोन्नि य, मासा चउवीस होंति छब्भागे । देसं दोन्ह वि एयं वहेज्ज मुंचेज्ज वा सव्वं ॥ अट्ठारस छत्तीसा, दिवसा छत्तीसमेव वरिसं च । बावत्तरिं च दिवसा, दसभाग वहेज्ज बितिओ तु ॥ पारंचीणं दोण्ह वि, जहन्नमुक्कोसयस्स कालस्स । छब्भागं दसभागं, वहेज्ज सव्वं व झोसिज्जा ॥ (बृभा ५०५४-५०५७) राजा संघ से अभ्यर्थना करता है - इस पारांचिक को प्रायश्चित्त से मुक्त करें । इस प्रकार राजा की प्रार्थना पर अथवा मुनि के कार्य से संतुष्ट होकर संघ स्वयं उसे प्रायश्चित्त से मुक्त कर सकता है। ३५८ उसके पारांचित तप का आदि, मध्य या अवसान जो भी हो, जितना वहन करना शेष हो, वह विसर्जित कर दिया जाता है। गुरु और संघ के प्रसाद से प्रायश्चित्त का हेतुभूत अवशिष्ट दोष प्रकम्पित हो क्षीण हो जाता है। आचार्य चाहें तो उसे प्रायश्चित्त का देश (छठा भाग) अथवा देशदेश (दसवां भाग ) भी वहन करा सकते हैं, सर्वथा मुक्त भी कर सकते हैं। आशातना पारांचित में जघन्य देश (छठा भाग) एक मास, उत्कृष्ट दो मास तथा जघन्य देशदेश (दसवां भाग) अठारह दिन, उत्कृष्ट छत्तीस दिन होते हैं । प्रतिसेवना पारांचिक में जघन्य देश दो मास, उत्कृष्ट देश चौबीस मास तथा जघन्य देशदेश छत्तीस दिन, उत्कृष्ट देशदेश बहत्तर दिन होते हैं । १३. अनवस्थाप्य के प्रकार आसायण पडिसेवी, अणवटुप्पो वि होति दुविहो तु । एक्केक्को वि य दुविहो, सचरित्तो चेव अचरित्तो ॥ (बृभा ५०५९) अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के दो प्रकार हैं- आशातना अनवस्थाप्य और प्रतिसेवना अनवस्थाप्य । इन दोनों के दो-दो प्रकार हैंसचारित्री और अचारित्री । - • आशातना अनवस्थाप्य तित्थयर पयण सुते, आयरिए गणहरे महिड्डीए । आसादेंते, पच्छित्ते मग्गणा होइ ॥ पढम-बितिसु णवमं, सेसे एक्केक्क चउगुरू होंति । सव्वे आसादेंतो, अणवटुप्पो उ सो होइ ॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३५९ पारांचित .." तीर्थंकर-संघाशातनयोरुपाध्यायस्य"अनवस्थाप्यं ही उत्कृष्ट बारह वर्ष विहरण करता है। पर-गण में वह उपाश्रय भवति। के शेष साधुओं द्वारा अपरिभोग्य एक पार्श्व में संवास कर सकता तीर्थकर प्रवचन श्रत. आचार्य गणधर और महर्टिक की है, किन्तु आलाप आदि दस पदों का वर्जन करता है । (दस पदआशातना करने पर प्रायश्चित्त की मार्गणा होती है। तीर्थंकर और वर्जन द्र परिहारतप) वजन संघ की आशातना से उपाध्याय को अनवस्थाप्य प्राप्त होता है। शेष १५. अनवस्थाप्य का कालमान श्रुत आदि चारों पदों में एक-एक की आशातना करने पर प्रत्येक का आसायणा जहण्णे, छम्मासुक्कोस बारस उ मासा। चतुर्गुरु और सबकी आशातना करने से अनवस्थाप्य आता है। वासं बारस वासे, पडिसेवओ कारणे भइओ॥ ० प्रतिसेवना अनवस्थाप्य (बृभा ५१३२) तओअणवठ्ठप्या पण्णत्ता, तं जहा-साहम्मियाणं तेणियं अनवस्थाप्य जघन्य उत्कृष्ट करेमाणे, अण्णधम्मियाणं तेणियं करेमाणे, हत्थादालं दल- आशातना छह मास बारह मास माणे॥ प्रतिसेवना एक वर्ष बारह वर्ष ....."अनवस्थाप्याः तत्क्षणादेव व्रतेष्वनवस्थापनीयाः। संघीय कार्य होने पर प्रतिसेवना अनवस्थाप्य का काल न्यून (क ४/३ वृ) भी हो सकता है, जिसकी विधि पारांचित की भांति वक्तव्य है। पडिसेवणअणवट्ठो, तिविधो सो होड़ आणपव्वीए।.... १६. प्रायश्चित्त वाहक के प्रति आचार्य का दायित्व (बृभा ५०६२) ओलोयणं गवेसण, आयरिओ कुणति सव्वकालं पि। तीन अनवस्थाप्य (नौवें प्रायश्चित्त) के भागी होते हैं उप्पण्णे कारणम्मि, सव्वपयत्तेण कायव्वं ।। १. साधर्मिकों की चोरी करने वाला, २. अन्यधार्मिकों की चोरी जो उ उवेहं कुज्जा, आयरिओ केणई पमादेणं। करने वाला, ३. हस्तताल देने वाला-मारक प्रहार करने वाला। आरोवणा उ तस्सा, कायव्वा पुव्वनिद्दिट्ठा। भाष्य में इन्हें प्रतिसेवनाअनवस्थाप्य कहा गया है। आहरति भत्तपाणं, उव्वत्तणमादियं पिसे कुणति। अनवस्थाप्य का अर्थ है-तत्क्षण ही व्रतों में अनवस्थापनीय। सयमेव गणाधिवती, अध अगिलाणो सयं कुणति॥ १४. अनवस्थाप्य-ग्रहणविधि तथा सामाचारी उभयं पिदाऊण सपाडिपुच्छं, वोढुं सरीरस्स य वट्टमाणिं। ...."दव्वाइ सुहे वियडण, निरुवस्सग्गट्ठ उस्सग्गो॥ आसासइत्ताण तवो किलंतं, तमेव खेत्तं समुवेंति थेरा॥ सेहाई वंदंतो, पग्गहियमहातवो जिणो चेव। गेलण्णेण व पुट्ठो, अभिणवमुक्को ततो व रोगातो। विहरइ बारस वासे, अणवट्ठप्पो गणे चेव॥ कालम्मि दुब्बले वा, 'कज्जे अण्णे' व वाघातो॥ ..."संवासो से कप्पड़, सेसा उ पया न कप्पंति॥ पेसेति उवज्झायं, अन्नं गीतं व जो तहिं जोग्गो। (बृभा ५१३३, ५१३५, ५१३६) पुट्ठो व अपुट्ठो वा, स वावि दीवेति तं कज्जं ॥ अनवस्थाप्यप्राप्त मुनि गुरु के समक्ष प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, (व्यभा १२११-१२१६) काल और भाव में-वटवृक्ष आदि क्षीरवृक्षों के नीचे, इक्षुक्षेत्र में भिक्षु आचार्य के पास अनवस्थाप्य या पारांचित प्रायश्चित्त पूर्वाह्न के समय, प्रशस्त चन्द्रतारा-बल होने पर आलोचना करता वहन करता है। वे आचार्य प्रायश्चित्त वहन के पूरे काल में है। गरु अनवस्थाप्य तप की निर्विघ्न सम्पन्नता के लिए कायोत्सर्ग प्रतिदिन उसका अवलोकन तथा गवेषणा (सुखपृच्छा) करते हैं करते हैं। और यदि वह बीमार हो जाता है तो स्वयं आचार्य सम्पूर्ण प्रयत्नों ___ अनवस्थाप्य मुनि शैक्ष आदि सब मुनियों को वन्दना करता से उसकी सेवा करते हैं-आहार-पानी लाकर देते हैं, उद्वर्तनहै और जिनकल्पी की भांति महातपस्वी बन जाता है। वह गण में परिवर्तन (करवट बदलना आदि) करते हैं। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारांचित ३६० आगम विषय कोश-२ किसी प्रमादवश आचार्य उसकी उपेक्षा करते हैं, तो वे चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। भिक्षु स्वस्थ होने पर पुनः सब कार्य स्वयं करता हैं। आचार्य अपने शिष्यों और प्रतीच्छकों को सूत्र-अर्थ संबंधी पृच्छा-प्रतिपृच्छा देकर उस प्रायश्चित्त वाहक के पास जाते हैं, उसके शरीर की वर्तमान स्थिति के बारे में पूछते हैं। यदि वह तप से क्लांत होता है तो आचार्य उसे आश्वस्त कर उसी क्षेत्र में आ जाते हैं, जहां गच्छ है। आचार्य स्वयं ग्लान हो गये हों या तत्काल रोगमुक्त हुए हों, ज्येष्ठ-आषाढ का समय हो अथवा किसी अन्य कार्य से व्याघात उत्पन्न हो गया हो, तो वे उपाध्याय को या वहां जाने योग्य गीतार्थ को भेजते हैं। गीतार्थ के वहां जाने पर भिक्ष कछ पछे या न पछे. तब भी गीतार्थ उसे बता दे कि अमक प्रयोजन से आचार्य नहीं आये हैं। १७. अनवस्थाप्य और पारांचित में भिन्नता वूढे पायच्छित्ते , ठविजई जेण तेण नव होति। जं वसइ खित्तबाहिं, चरिमं तम्हा दस हवंति॥ .."तदेव परिहारतपःप्रायश्चित्तं वहमानः सन्नेकाकी सक्रोशयोजनप्रमाणक्षेत्राद् बहिर्वसति तदेतावतांशेनानवस्थ्याप्यात् चरमं पाराञ्चितं विभिन्नम्। (बृभा ७१२ वृ) गण में रहते हुए बारह वर्ष पर्यंत परिहारतप प्रायश्चित्त वहन करने के पश्चात् अनवस्थाप्य मुनि को व्रतों में उपस्थापित किया जाता नाता है, अतः मूल प्रायश्चित्त से अनवस्थाप्य भिन्न है। अनवस्थाप्य के प्रक्षेप से प्रायश्चित्त के नौ भेद होते हैं। पारांचित में परिहारतप प्रायश्चित्त को वहन करता हुआ मुनि सक्रोश योजन प्रमाण क्षेत्र से बाहर अकेला रहता है। इस दृष्टि से अनवस्थाप्य से पारांचित भिन्न होने से प्रायश्चित्त के दस भेद होते हैं। * परिहारतपवहन विधि द्र परिहारतप १८. अनवस्थाप्य-पारांचित गृहीभूत अणवठ्ठप्पंभिक्खुंअगिहिभूयं नो कप्पइ "गिहिभूयं कप्पइ ॥ पारंचियं भिक्खुं अगिहिभूयं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावेत्तए॥"गिहिभूयं कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावेत्तए॥ (व्य २/१८-२१) अनवस्थाप्य और पारांचित प्रायश्चित्त वाहक भिक्ष को गृहस्थ वेश धारण कराये बिना गणावच्छेदक उसे पुनः संयम में उपस्थापित नहीं कर सकता। उसके गृहीभूत होने पर (गृहस्थ वेश धारण करने पर) गणावच्छेदक उसे उपस्थापित कर सकता है। स च बहिर्यावत्तिष्ठति तावन्न गहस्थः क्रियते किन्त्वागत:.....। (व्यभा १२१० की वृ) वह जब तक बाहर रहता है, तब तक उसे गृहस्थ नहीं। किया जाता। वसति में आने पर उसे गृहिलिंग दिया जाता है। ० गृहस्थवेश क्यों? ओभामितो न कुव्वति, पुणो वि सो तारिसं अतीचारं। होति भयं सेसाण, गिहिरूवे धम्मता चेव॥ किं वा तस्स न दिज्जति, गिहिलिंगं जेण भावतो लिंग। अजढे वि दव्वलिंगे, सलिंग पडिसेवणा विजढं ॥ (व्यभा १२०८, १२०९) प्रायश्चित्ती के गृहस्थ वेश धारण करने के दो लाभ हैं१. पुनः गृहस्थ-अवस्था प्राप्ति का अर्थ है-तिरस्कार । तिरस्कृत भिक्षु पुनः वैसा दोषसेवन नहीं करता। २. शेष साधुओं में दोषसेवन के प्रति भय उत्पन्न होता है। उसे गहिलिंग क्यों नहीं दिया जाये? दिया जाना ही चाहिये क्योंकि उसने द्रव्यलिंग छोडे बिना स्वलिंग में ही प्रतिसेवना की यो है, इससे भावलिंग तो परित्यक्त हो ही गया। गृहस्थवेश और उपस्थापना विधि वरनेवत्थं एगे, हाणविवजमवरे जुगलमेत्तं। परिसामज्झे धम्म, सणेज्ज कधणा पणो दिक्खा॥ (व्यभा १२०७) कुछ आचार्य कहते हैं-उसे उपस्थापन से पूर्व अच्छी वेशभूषा पहनायी जाती है, स्नान नहीं कराया जाता। दाक्षिणात्य आचार्यों का मत है-उसे मात्र वस्त्रयुगल धारण करवाया जाता है। उपस्थापनार्ह भिक्षु परिषद् में खड़ा होकर कहता है-भंते ! मैं धर्मदेशना सुनना चाहता हूं। इस निवेदन पर आचार्य धर्मकथा करते हैं। धर्मश्रवण कर वह पुनः प्रार्थना करता है-मैं इस निर्ग्रथप्रवचन पर श्रद्धा करता हूं। अब मुझे पुनः प्रव्रजित करें। तत्पश्चात् उसे मुनिवेश समर्पित कर दीक्षित किया जाता है। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३६१ पारिहारिक ० अनवस्थाप्य-पारांचित अगृहीभूत भी का वर्जन करने वाला उद्यतविहारी साधु। पार्श्वस्थ, अवसन्न, अणवठ्ठप्पं भिक्खं"॥पारंचियं भिक्खं अगिहिभूयं वा कुशील, संसक्त और यथाच्छंद श्रमण अपारिहारिक हैं। गिहिभूयं वा कप्पड़ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावेत्तए, जहा पारिहारिओ मूलुत्तरदोसे परिहरति। अहवा मूलुत्तरगुणे तस्स गणस्स पत्तियं सिया॥ धरेति आचरतीत्यर्थः ।.."अपरिहारी ते य अण्णतित्थिययस्त्वगृहीभूतः सोऽपवादविषयस्तस्योत्सर्गतः प्रतिषिद्धत्वात्। गिहत्था। (नि २/३९ की चू) (व्य २/२२, २३ वृ) आधाकम्मादी णिकाए सावज्जजोगकरणं च। अनवस्थाप्य या पारांचिक भिक्षु अगृहीभूत हो या गृहीभूत, परिहारित्त परिहरं, अपरिहरंतो अपरिहारी॥ गणावच्छेदक उसे उपस्थापित कर सकता है, यदि उससे गण में (निभा १०८१) प्रतीति उत्पन्न हो (जो उस गण के लिए प्रीतिकर हो)। जो मूलगुण-उत्तरगुण संबंधी दोषों का वर्जन करता है अथवा प्रायश्चित्ती को गृहलिंग नहीं देना आपवादिक है। अगृहीभूत मूलगुणों और उत्तरगुणों को धारण करता है-उनका आचरण को पुनः प्रव्रजित नहीं करना-यह उत्सर्ग विधि है। करता है, वह पारिहारिक है। अन्यतीर्थिक और गृहस्थ अपारिहारिक अग्गिहिभूतो कीरति, रायणुवत्तिय पदुट्ठ सगणो वा। हैं। परमोयावणइच्छा, दोण्ह गणाणं विवादो वा॥ जो आधाकर्म आदि दोषों, छहजीवनिकायअसंयम तथा (व्यभा १२१०) पापकारी प्रवृत्तियों का तीन करण (मनसा, वाचा, कर्मणा), तीन पांच कारणों से प्रायश्चित्ती को गृहीभूत नहीं किया जाता योग (कृत-कारित-अनुमति) से परिहार करता है, वह परिहारी ० राजानुवृत्ति-गृहस्थ न बनाने का राजा का आग्रह हो या उस __ है और जो इनका परिहार नहीं करता, वह अपरिहारी है। भिक्षु ने किसी राजा को संघ के अनुकूल बनाया हो। ___..."लोउत्तरपरिहारो, दुविहो परिभोग धरणे य॥ ० गणप्रद्वेष-स्वगण ने द्वेषवश उसे यह प्रायश्चित्त दिलवाया हो। ...... आवण्ण सद्धपरिहारे। ........ ० परमोचापन-अपने उपकारी को कठोर प्रायश्चित्त वहन करते परिभोगे परि जति पाउणिज्जतीत्यर्थः । धारणपरिहारो देख अनेक शिष्य संयम छोड़ने को उद्यत हों। नाम जं संगोविज्जति पडिलेहिज्जति य, ण य परि/जति।" ० इच्छा-उस भिक्षु या अनेक शिष्यों का वैसा आग्रह हो। ..."सुद्धपरिहारो जो वि सुच्चा पंचयामं अणुत्तरं धम्म ० विवाद-उस प्रायश्चित्त के संबंध में दो गणों में विवाद हो। परिहरइ-करोतीत्यर्थः। विसुद्धपरिहारकप्पो वा घेप्पइ। पारिहारिक-पापकारी प्रवृत्तियों का वर्जन करने वाला आवण्णपरिहारो पुण जो मासियं वा जाव छम्मासियं वा पायच्छित्तं आवण्णो तेण सो सपच्छित्ती असुद्धो अविसुद्धसाधु। चरणेहिं साहूहिं परिहरिज्जति। (निभा ६२९४, ६२९५ चू) से भिक्खूणो ... परिहारिओ अपरिहारिएण वा सद्धिं लोकोत्तर परिहार के दो रूप हैं-परिभोग और धारण। गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए पविसेज्ज। परिभोग-उपयोग या प्रयोग करना। __ पारिहारिकः-पिण्डदोषपरिहरणादुद्युक्तविहारी साधु धारण-संगोपन और प्रतिलेखन करना, किन्तु परिभोग नहीं करना। रित्यर्थः.... 'अपरिहारिकेण' पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्त परिहारी के दो प्रकार हैं-१. शुद्धपरिहारी-जो पंचयाम यथाच्छन्दरूपेण""। (आचूला १/८ वृ) ___ रूप अनुत्तर धर्म को सुनकर उसका आचरण करता है। अथवा जो पारिहारिक अपारिहारिक के साथ गृहपति के घर में पिंडपात परिहारविशुद्धि चारित्र की आराधना करता है। की प्रतिज्ञा से (आहार प्राप्ति के लिए) प्रवेश न करे। २. आपन्नपरिहारी-जो मासिक यावत् षाण्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त पारिहारिक का अर्थ है आहार संबंधी उद्गम आदि दोषों है। सप्रायश्चित्त होने से वह अशुद्ध है, इसलिए विशुद्ध चारित्र मा Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्डैषणा ३६२ आगम विषय कोश-२ वाले साधुओं द्वारा परित्यक्त है--परस्पर आलाप-संलाप आदि पदों द्वारा परिहरणीय है। (द्र परिहारतप) पारिहारिककुल-स्थापनाकुल। गुरु-गिलाण-बाल-वुड्ड-आदेसमादियाण जत्थ पाउग्गं लभति ते परिहारियकुले। (निभा २७७७ की चू) जहां गुरु, ग्लान, बाल, वृद्ध, अतिथि आदि के प्रायोग्य द्रव्य प्राप्त हों, वह पारिहारिक कुल है।( द्र स्थापनाकुल) पार्श्व-तेईसवें अर्हत्। द्र तीर्थंकर पार्श्वस्थ-वह मुनि जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप में सम्यक् प्रयत्नवान् नहीं है। द्र श्रमण पिण्डैषणा-कल्पनीय आहार की गवेषणा, ग्रहण और परिभोग का उपक्रम। | १. पिण्डकल्पिक कौन? २. पिण्डैषणा-पानैषणा-प्रतिमा ० उपहृत-अवगृहीत-प्रतिमा * विविध पानक द्र पर्युषणाकल्प * जिनकल्पी और पिण्डैषणा द्र जिनकल्प ३. एषणा ( उद्गम) के दोष : औद्देशिक, क्रीत" ४. औद्देशिक के भेद-प्रभेद : यावंतिका, उद्देश..... ___ * स्थित-अस्थितकल्प : औद्देशिक-राजपिंड द्रकल्पस्थिति ५. आधाकर्मिक आहार-निषेध ६. चार उपाश्रय : ग्राह्य-अग्राह्य आधाकर्म ७. उद्गम का एक दोष : पूतिकर्म ० पूतिदोष के भेद : आहार-उपधि-शय्या ० स्थापित और रचित दोष ८. उत्पादन के दोष : धात्रीपिंड"अंतर्धानपिंड ___ * अंतर्धानपिंड आदि के दृष्टांत द्र मंत्र-विद्या ९. पूर्वसंस्तव-पश्चात्संस्तव-निषेध १०. एषणा का एक दोष : शंकित ११. पुराकर्मकृत दोष । ० संसृष्ट के अठारह प्रकार : पुराकर्म आदि १२. नित्यपिंड और अभिहतपिंड का वर्जन ० अभिहत और नियतपिंड ० नित्य अग्रपिण्ड वर्जित १३. कालातिक्रांत-क्षेत्रातिक्रांत आहार-निषेध ० कालातिक्रांत : जिनकल्पी-स्थविरकल्पी * आज्ञापूर्वक भिक्षाटन द्र आज्ञा __ * दूर भिक्षा के लाभ द्र स्थविरकल्प |१४. भिक्षागमन-विधि __ * वर्षा आदि में भिक्षाटन निषिद्ध द्र स्थविरकल्प | |१५. गमनमार्ग, अवस्थान और याचनाविधि | १६. पूर्व-पश्चात्-संस्तुत : भिक्षाकाल में भिक्षा, * स्थाप्य कुल : आहार-ग्रहण सामाचारी द्र स्थापनाकुल १७. अगर्हित कुलों से भिक्षा * शय्यातरपिंड निषिद्ध द्र शय्यातर १८. दानफल बताकर लेना निषिद्ध : सप्तविध दानविधि १९. इन्द्रमह, मृत्युभोज आदि में भिक्षा अग्राह्य २०. सचित्त लशुन आदि अकल्पनीय २१. प्राप्त भिक्षाविषयक पृच्छा ____ * परिभोगैषणा विवेक, आहारविधि द्र आहार २२. अतिरिक्त आहार-ग्रहण संबंधी निर्देश २३. अचित्त-अनेषणीय संबंधी विधि २४. अप्रासुक आहार-परिष्ठापन विधि २५. कसैले पानक के परिष्ठापन का निषेध २६. सचित्त जल-व्युत्सर्ग विधि १. पिण्डकल्पिक कौन? पढिए य कहिय अहिगय, परिहरती पिंडकप्पितो एसो। तिविहं तीहिं विसुद्धं, परिहरनवगेण भेदेणं॥ पिण्डैषणाध्ययने पठिते तस्यार्थे कथिते तेन चाधिगते ....."सम्यक् श्रद्धिते च यः 'त्रिविधम्' उद्गमशुद्धमुत्पादनाशुद्धमेषणाशुद्धं “एष पिण्डकल्पिकः। (बृभा ५३२ वृ) जो पिण्डैषणा अध्ययन (आचारचूला का प्रथम अध्ययन अथवा दशवैकालिक का पांचवां अध्ययन) पढ़ लेता है, गुरु द्वारा कथित उसके अर्थ का अवधारण कर उस पर श्रद्धा करता है, मनवचन-काया से विशुद्ध रहकर, उद्गम, उत्पादन और एषणा से शुद्ध कल्पनीय आहार ग्रहण करता है, मनसा-वाचा-कर्मणा और कृत-कारित-अनुमति-इन परिहरणीय नौ भेदों से अग्राह्य को Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३६३ पिण्डैषणा ग्रहण नहीं करता है, वह पिण्डकल्पिक-भिक्षाटन के योग्य है। अलिप्त हाथ या पात्र से गृहस्थ अशन आदि दे-उसे प्रासुक और * उद्गम आदि के दोष द्र श्रीआको १ एषणासमिति एषणीय मानता हुआ मिलने पर ग्रहण करे। २. पिण्डैषणा-पानैषणा-प्रतिमा २. द्वितीय पिंडैषणा–संसृष्ट हाथ और संसृष्ट पात्र । ३. तृतीय पिंडैषणा-उपनिक्षिप्तपूर्वा (उद्धृता)-किसी पात्र से ."सत्त पिंडेसणाओ, सत्त पाणेसणाओ...॥"पढमा (परोसने के लिए) पहले से ही निकाला हुआ हो, जैसे थाल में, पिंडेसणा-असंसटे हत्थे असंसटे मत्ते-तहप्पगारेण असंसटेण पिठर में। असंसृष्ट हाथ संसृष्ट पात्र से अथवा संसृष्ट हाथ हत्थेण वा, मत्तेण वा असणं वा..."परो वा से देज्जा–फासुयं असंसृष्ट पात्र से पात्र या हाथ में निकालकर लाकर दे, उसे लेना। एसणिज्जं ति मण्णमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा.॥ ४. चौथी पिंडैषणा-अल्पलेपा-बेर का चूर्ण, चावल या चावल ___ अहावरा दोच्चा पिंडेसणा-संसटे हत्थे संसटे मत्ते...॥ का आटा आदि रूखा आहार लेना। उनके ग्रहण करने पर पश्चात्कर्म अहावरा तच्चा पिंडेसणा........."अण्णतरेसु विरूवरूवसु दोष नहीं लगता तथा तृष आदि पर्यव परिष्ठापनीय नहीं होते। भायण-जाएस उवणिक्खित्तपुव्वे सिया, ते जहा-थालसि पांचवीं पिंडैषणा-उपहत भोजनजात (अवगहीता)-खाने के वा. पिढरंसि वा..."असंसद्रुण हत्थेण संस?ण मत्तेण, सस?ण लिए थाली में परोसा हआ आहार लेना। वा हत्थेण असंस?ण मत्तेण, अस्सि पडिग्गहगंसि वा पाणिंसि ६. छठी पिंडैषणा-प्रगृहीत भोजनजात (प्रगृहीता), जो स्वयं के वा णिहट्ट उवित्तु दलयाहि ।.... लिए प्रगृहीत है, दूसरों के लिए प्रगृहीत है, वह भोजन पात्र में चउत्था पिंडेसणा"मथुवा, चाउलं वा, चाउल-पलंबं स्थित है अथवा हाथ में रखा हुआ है, उसे लेना। वा। अस्सि खलु पडिग्गहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे अप्पे पज्ज- ७. सातवीं पिंडैषणा-उज्झितधर्मा-बहुउज्झितधर्मिक भोजनजात वजाए""पंचमा पिंडेसणा..."उवहितमेव भोयणजायं ॥" को जाने-जिसे अन्य बहुत द्विपद (दास), चतुष्पद (पशु), श्रमण, छट्ठा पिंडेसणा... पग्गहियमेव भोयण-जायं..."सयट्ठाए माहन, अतिथि, कृपण और वनीपक नहीं चाहते, उसे लेना। पग्गहियं, जं च परवाए पग्गहियं, तं पाय-परियावन्नं, तंपाणि- पानैषणा के सात प्रकार हैंपरियावण्णं ....॥"सत्तमा पिंडेसणा बहुउज्झिय-धम्मियं १. प्रथम पानैषणा-असंसृष्ट हाथ असंसृष्ट पात्र से पानक लेना। भोयण-जायं जाणेज्जा-जं चण्णे बहवे दुपय-चउप्पय- २! द्वितीय पानैषणा–संसृष्ट हाथ संसृष्ट पात्र। समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगाणावकंखंति ॥ ३. तृतीय पानैषणा-उद्धृता (उपनिक्षिप्तपूर्वा)। .."पढमा पाणेसणा-असंसद्धे हत्थे असंसट्टे मत्ते... ४. चतुर्थ पानैषणा-अल्पलेपा-तिलोदक, तुषोदक आदि पानक। दोच्चा पाणेसणा-संसटे हत्थे संसटे मत्ते।"तच्चा पाणेसणा (द्र पर्युषणाकल्प) उवणिक्खित्तपव्वे""चउत्था पाणेसणा.... पाणग-जायं.... ५. पांचवीं पानैषणा-अवगृहीता-उपहत पानकजात। तिलोदगंवा, तुसोदगंवा ॥ पंचमा पाणेसणा"उवहितमेव । पंचसापासणावद्वितमेव ६: छठी पानैषणा-प्रगृहीता-प्रगृहीत पानकजात। पाणग-जायं "छटा पाणेसणा"पग्गहियमेव पाणगजायं ७. सातवीं पानैषणा-उज्झितधर्मा-बहुउज्झितधर्मिक पानकजात। ""सत्तमा पाणेसणा... बहुउझियधम्मियं पाणग-जायं...॥ इन सात पिंडैषणाओं और सात पानैषणाओं में से किसी इच्चेयासिं सत्तण्हं पिंडेसणाणं, सत्तण्डं पाणेसणाणं प्रतिमा (अभिग्रह) को स्वीकार कर ऐसा न कहे-ये भगवान अण्णतरं पडिमं पडिवज्जमाणे णो एवं वएज्जा -मिच्छा (साध) मिथ्याप्रतिपन्न हैं, केवल मैं सम्यकप्रतिपन्न हं । मैं और ये पडिवन्ना खलु एते भयंतारो, अहमेगे सम्म पडिवन्ने।"""सव्वे । सब अर्हत् की आज्ञा में उपस्थित हैं। (अलेप, अल्पलेप आदि द्रव्यवेते उ जिणाणाए उवट्ठिया"॥ (आचूला १/१४०-१५५) ० अलेप-ओदन, मण्डक, सत्तू, कुल्माष, चवला, चना आदि। पिण्डैषणा के सात प्रकार हैं ० अल्पलेप-बथुए आदि का शाक, यवाग, कोद्रव, तक्र-उल्लण, १. प्रथम पिंडैषणा-असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र-देय वस्तु से सूप, कांजी, तीमन आदि। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्डैषणा ० बहुलेप- दूध, दही, क्षीरपेया, कट्टर (कढी में डाला हुआ घी का बड़ा), फाणित आदि । - पिनि ६२३ - ६२५ लेपकृत पानक- इक्षुरस, द्राक्षापानक, दाडिमपानक आदि । अलेपकृत पानक-तिलोदक, तुषोदक, यवोदक, कांजी, ओसामन, गर्म जल, चावलों का धोवन आदि । - आचूला १/१०४, १५१ ) ० उपहृत- अवगृहीत-प्रतिमा तिविहे उवहडे पण्णत्ते, तं जहा - सुद्धोवहडे फलिओवहडे संसट्टोवहडे ॥ तिविहे गहिए पण्णत्ते, तं जहाजं च ओगिण्हइ, जंच साहरइ, जंच आसगंसि पक्खिवइ ॥ (व्य ९/४४, ४५ ) उपहृत भोजन तीन प्रकार का होता है १. शुद्धोपहृत - खाने के लिए साथ में लाया हुआ लेप रहित भोजन - अल्पलेपा नाम की चौथी पिण्डैषणा । o २. फलिकोपहृत - खाने के लिए थाली आदि में परोसा हुआ भोजन - अवगृहीता नाम की पांचवीं पिण्डैषणा । ३. संसृष्टोपहृत-खाने के लिए हाथ में उठाया हुआ भोजन । अवगृहीत भोजन तीन प्रकार का होता है- १. परोसने के लिए उठाया हुआ, २ . परोसा हुआ, ३. पुनः पाकपात्र में डाला हुआ । (उपहृत - अवगृहीत- ये अभिग्रहधारियों की भिक्षाविधि प्रकार हैं । कोई अभिग्रहधारी उठाया हुआ लेता है, कोई परोसा हुआ लेता है और कोई पुनः पाकपात्र में डाला हुआ लेता है ।) * पिण्डैषणाप्रतिमा : भिक्षाचरी का अंग द्र श्रीआको १ भिक्षाचर्या ३. एषणा (उद्गम ) के दोष : औद्देशिक, क्रीत...... सेभिक्खू जाणेज्जा - असणं वा पाणं वा अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स, पाणाइं भूयाई जीवाई सत्ताइं समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसट्टं अ आ इ । तं तहप्पगारं असणं वा... पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा, बहिया णीहडं वा अणीहडं वा, अत्तट्ठियं वा अणत्तट्ठियं वा, परिभुत्तं वा अपरिभुत्तं वा, आसेवियं वा अणासेवियं वा - अफासुयं अणेसणिज्जं ति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिगाहेज्जा ॥ (आचूला १/१२) भिक्षु (गृहपति के घर में प्रवेश कर) जाने - यह अशनपान खाद्य-स्वाद्य देने की प्रतिज्ञा से मेरे एक साधर्मिक के उद्देश्य ३६४ आगम विषय कोश - २ प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ कर, उन्हें पीड़ित कर किया गया है अथवा उसी के उद्देश्य से खरीदा गया, उधार लिया गया, छीना गया, भागीदार द्वारा अननुमत, सामने लाया गया अथवा साधु के पास आकर देता है - इस प्रकार का अशन-पान पुरुषान्तरकृत हो या अपुरुषान्तरकृत, ( पात्र से) बाहर निकाला हुआ हो या नहीं निकाला हुआ, (दाता के द्वारा ) स्वीकृत हो या अस्वीकृत, परिभुक्त हो या अपरिभुक्त, आसेवित हो या अनासेवित — उसे अप्रासुक और अकल्पनीय मानता हुआ मिलने पर ग्रहण न करे । - ४. औद्देशिक के भेद-प्रभेद: यावन्तिका, उद्देश...... जावंतिया पगणिया ........... आचंडाला पढमा, बितिया पासंड- जाति - णामेसु ॥ जावंतियमुद्देसो, पासंडाणं भवे समुद्देसो । समणाण तु आदेसो, निग्गंथाणं समादेसो ॥ ( निभा १४७२, १४७३, २०२० ) औद्देशिकं द्विविधम् - ओघेन विभागेन च; तत्र विभागतो द्वादशविधम्, तद्यथा - उद्दिष्टं कृतं कर्म च उद्दिष्टं चतुर्विधम् – औद्देशिकं समुद्देशिकमादेशिकं समादेशिकं च; कृतमपि चतुर्विधम्, तद्यथा - उद्देशकृतं समुद्देशकृतमादेशकृतं समादेशकृतं च; कर्मापि चतुःप्रकारम्, तद्यथा - उद्देशकर्म समुद्देशकर्म आदेशकर्म समादेशकर्म च । (बृभा ५३३ की वृ) यावन्तिका -कार्पटिक आदि से लेकर चंडाल पर्यन्त समस्त भिक्षुओं उद्देश्य से बना हुआ भोजन । प्रगणिता - शाक्य, परिव्राजक आदि की जाति या नाम से गणना करके दी जाने वाली भिक्षा। शिक के दो प्रकार हैं १. ओघ - समुच्चय रूप में देने के लिए बनाया गया भोजन । २. विभाग - श्रमण, माहण आदि का विभाग करके पकाया गया भोजन। उद्दिष्ट, कृत और कर्म के भेद से विभाग औद्देशिक के बारह प्रकार हैं उद्दिष्ट के चार प्रकार - -औद्देशिक, समुद्देशिक, आदेशिक, समादेशिक । कृत के चार प्रकार हैं- उद्देशकृत, समुद्देशकृत, आदेशकृत, समादेशकृत । कर्म के चार प्रकार हैं- उद्देशकर्म, समुद्देशकर्म, आदेशकर्म, समादेशकर्म । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३६५ पिण्डैषणा ० उद्देश-भिक्षाचरों के उद्देश्य से निष्पन्न आहार । पुरिसाणं एगस्स वि, कयं तु सव्वेसि पुरिम-चरिमाणं। समद्देश-पाखंडियों के उद्देश्य से निष्पन्न आहार। ण वि कप्पे ठवणा मेत्तगं तु गहणं तहिं णत्थि॥ ० आदेश-श्रमणों के उद्देश्य से निष्पन्न आहार । एवमुवस्सयपुरिमे, उद्दिष्टुं तं ण पच्छिमा भुंजे। ० समादेश-निग्रंथों के उद्देश्य से निष्पन्न आहार। मज्झिमतव्वज्जाणं, कप्पे उद्दिट्ठसमपुव्वा॥ ५. आधाकर्मिक आहार-निषेध पंचयामसमणाण एगो, समणीण बितिओ, एवं "परो आहाकम्मियं असणं वा पाणं वा. उवक्खडेता चाउज्जामियाण वि दो, एवं चउरो। (निभा २६६७-२६७३ चू) चार उपाश्रय हैं-१. पंचयाम श्रमण और २. श्रमणीआहट्ट दलएज्जा। तहप्पगारं असणं अफासुयं अणेसणिज्जं ति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिगाहेज्जा॥ प्रथम-चरम तीर्थवर्ती । ३. चतुर्याम श्रमण और ४. श्रमणी-मध्यम बाईस तीर्थंकर-शासनवर्ती । आधाकर्मकारी व्यक्ति सामान्यत: चार (आचूला १/१२३) विकल्पों का संकल्प कर आहार आदि तैयार करता हैगृहस्थ आधाकर्मिक अशन-पान तैयार कर, संस्कारित कर १. संघ के उद्देश्य से ३. उपाश्रय के उद्देश्य से लाकर दे, उसे अप्रासुक (अनभिलषणीय) अनेषणीय मानता हुआ २. श्रमण-श्रमणी के उद्देश्य से ४. एक पुरुष के उद्देश्य से मिलने पर भी ग्रहण न करे। ० ओघ औद्देशिक-सर्वसंघ या सर्व श्रमण-श्रमणी के उद्देश्य से (आधाकर्म-भोजी श्रमण निग्रंथ आयुष्य कर्म को छोड़कर कृत वस्तु चतुर्याम और पंचयाम-दोनों ही नहीं ले सकते। शेष सोत कर्मों की शिथिल बंधनबद्ध प्रकृतियों को गाढ बन्धनबद्ध । ० विभाग औद्दशिक-प्रथम (ऋषभकालीन) संघ के उद्देश्य से करता है।... आधाकर्म का अर्थ साधु को मन में रखकर उसके कृत आहार आदि मध्यम (बाईस तीर्थंकरकालीन) संघ के लिए निमित्त किया जाने वाला आहार है। जर्मन विद्वान् डॉ. लायमान कल्पनीय है। प्रथम और चरम संघ के लिए वह अकल्प्य है। ने आहाकम्म का अर्थ याथाकाम्य किया है। ... याथाकाम्य आहार मध्यम संघ के लिए निर्मित आहार आदि प्रथम-चरम और मध्यमखाने वाला सभी जीवनिकायों के प्रति निरनकम्प होता है। याथाकाम्य सबके लिए अग्राह्य है। चरम संघ के उद्देश्य से कृत वस्तु प्रथमआहार का अर्थ है---गृहस्थ अपनी इच्छा के अनुसार मुनि के लिए चरम के लिए अकल्प्य तथा मध्यम संघ के लिए कल्प्य है। कोई वस्तु बनाना चाहता है और मुनि उसके लिए अपनी स्वीकृति इसी प्रकार ऋषभस्वामी के तीर्थ के साधु-साध्वियों के दे देता है अथवा मुनि अपने इच्छानुकूल भोजन के लिए गृहस्थ को लिए कृत वस्तु मध्यम के लिए ग्राह्य और मध्यम के लिए कृत प्रेरित करता है।-भ १/४३६,४३७ भाष्य) वस्तु दोनों के लिए अग्राह्य है। प्रथम तीर्थंकर के शासन में एक पुरुष के उद्देश्य से कृत ६. चार उपाश्रय : ग्राह्य-अग्राह्य आधाकर्म प्रथम और चरम संघ में सबके लिए अग्राह्य है। चरम में एक के संघस्स परिम-पच्छिम-समणाणं चेव होइ समणीणं। लिए कत वस्त प्रथम और चरम में सबके लिए अग्राह्य है। प्रथम चउण्डं उवस्सयाणं, कायव्व परूवणा होति॥ और चरम संघ में काल का प्रलम्ब अंतराल होने के कारण परस्पर संघं समुद्दिसित्ता, पढमो बितिओ य समण-समणीणं। ग्रहण संभव नहीं है, अतः यह विकल्प प्रज्ञापन मात्र है। ततिओ उवस्सए खल, चउत्थओ एगपुरिसं तु॥ मध्यम संघ में इतना विशेष है कि सामान्य रूप से एक के जदि सव्वं उद्दिसिउं, संघं तु करेति दोण्ह वि ण कप्पे। लिए कृत वस्तु किसी एक के ग्रहण करने पर शेष सबके लिए अहवा सव्वे समणा, समणी वा तत्थ वि तहेव॥ ग्राह्य है किन्तु विशेष रूप से किसी एक पुरुष के उद्देश्य से कृत जइ पुण पुरिमं संघ, उद्दिसती मज्झिमस्स तो कप्पे। वस्तु उस एक के लिए अग्राह्य, शेष सबके लिए ग्राह्य है। पूर्व और मज्झिम उद्दिढे पुण, दोण्हं पि अकप्पियं होइ॥ पश्चिम तीर्थ में वह सबके लिए अग्राह्य है। एमेव समणवग्गे, समणीवग्गे य पुव्वणिहिटे। पूर्व उपाश्रय के लिए कृत पूर्व-पश्चिम-दोनों के लिए मज्झिमगाणं कप्पे, तेसि कडं दोण्ह वि ण कप्पे॥ अग्राह्य है, मध्यम के लिए ग्राह्य है। मध्यम उपाश्रय में जिसके Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्डैषणा ३६६ आगम विषय कोश-२ उद्देश्य से कृत है, मात्र उसके लिए ही अग्राह्य है, शेष सबके लिए ण केवलं आहाकम्मेण पुढे पूतितं, पूतिएण वि पुढे ग्राह्य है। मध्यम श्रमणवर्ग के लिए कृत वस्तु श्रमणीवर्ग के लिए पूइं।"वत्थे आहाकम्मकडेण सत्तेण सिव्वति थिग्गलं वा ग्राह्य है। शेष सबके लिए अग्राह्य है। चरम में श्रमणवर्ग के लिए देति, पाए वि सीवति थिग्गलं वा देति। (निभा ८०५-८११ चू) कृत चरम श्रमण-श्रमणी वर्ग के लिए अग्राह्य तथा मध्यम के लिए पूति दोष के दो प्रकार हैं-सूक्ष्म और बादर । ग्राह्य है। ० सूक्ष्मपूति-आधाकर्म आहार पकाते समय ईंधन से धुआं उठता ७. उद्गम का एक दोष : पूतिकर्म है, उस धुएं से जो वस्तु स्पृष्ट होती है, वह पूतियुक्त है। वा सातिज्जति-तं इसी प्रकार आधाकर्म आहार आदि के गंध-पुद्गलों अथवा सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घातियं॥ अन्य सूक्ष्म अवयवों से स्पृष्ट वस्तु भी पूतिदोषयुक्त है। जो सूक्ष्म ___ वावण्णं विणटुं कुहितं पूति भण्णति । इह पुण समए प्रति वर्ण्य है, उसका प्रायश्चित्त विहित है। विसुद्धं आहाराति अविसोधिकोटीदोसजुएणं सम्मिस्सं पूतितं ० बादरपूति-इसके तीन प्रकार हैं-आहार , उपधि, शय्या। भण्णति। (नि १/५६ चू) १. आहारपूति-अशन आदि चार भेद । अथवा इसके दो भेद हैं__ पूती कुहितं, कम्ममिति आहाकम्म, समए तस्यानिष्टत्वात्, ० उपकरण पूति-जो वस्तु पकाने आदि में उपकारक है, वह तत् पूति, तदपि तेन संसृष्टं तदपि पूति, इह तु संसृष्टं परिगृह्यते। उपकरणपूति है। यथा-आधाकर्मिक चुल्ली, थाली आदि में पकाई (निभा ८०४ की चू) गई या रखी हुई वस्तु पूति है। किसी ने साधु के निमित्त डोय या जो भिक्षु पूतिकर्म युक्त आहार करता है और करने वाले दर्वी बनवाई, वह आधाकर्मिक है। एक नई दर्वी अपने लिए दसरे का अनमोदन करता है, वह गरुमास प्रायश्चित्त प्राप्त करता बनवाई, जिसमें आधाकर्मिक दर्वी का कोई अवयव लगा दिय है। पूति का अर्थ है-व्यावर्ण, विनष्ट या कुथित । जिनशासन में और उसे शुद्ध आहार में डाल दिया- इस मिश्रण से, उपकरणपूति विशुद्ध आहार आदि अविशोधि कोटि के दोष से युक्त वस्तु के के कारण वह आहार कल्पनीय नहीं है। साथ मिश्रित होने पर पति कहलाता है। ० आहारपूति-गृहस्थ ने साधु के निमित्त पत्रशाक किया, नमक पृति और कर्म-पति यानी कथित और कर्म यानी आधाकर्म। सिद्धांत और हींग को पीसा या पकाया। इन आधाकर्मी द्रव्यों को अपने में आधाकर्म को भी अग्राह्य होने से पति कहा गया है। आधाकर्म लिए पकाये जाने वाले भोजन में थोड़ा-थोडा डाल दिया-वह से संसृष्ट को भी पूति कहा जाता है, उसी का यहां प्रसंग है। आहारपूति है। जहां आधाकर्म द्रव्य पकाया, उसको बाहर निकालकर ० पूति दोष के भेद : आहार-उपधि-शय्या उसी में अपने लिए भोजन पकाया, आधाकर्मिक राई आदि से इंधणधमे गंधे, अवयवमादी य सहमपूईयं। संस्कारित और अग्नि आदि से धूपित द्रव्य में अपने लिए कोई जेसिं तु एत वजं, सोधी पुण विज्जते तेसिं॥ द्रव्य डाल दिया-यह सब आहारपूति है। बादरपूतीयं पुण, आहारे उवधि वसधिमादीसु। केवल आधाकर्म से मिश्रित शुद्ध आहार ही पूति दोष युक्त आहारपूइयं पुण, चउव्विहं होति असणादी॥ नहीं होता, पूति आहार से संस्पृष्ट शुद्ध आहार भी पूति है। अहवाऽऽहारे पूती, दुविधं तु समासतो मुणेयव्वं। २. उपधिपूति-आधाकर्मिक धागे से शुद्ध वस्त्र और पात्र की उवकरण पूति पढम, बीयं पुण होति आहारे॥ सिलाई करना, थेगली लगाना-यह उपधिपूति है। चुल्लुक्खलियं डोए, दव्वी छूढे य मीसियं पूति। ३. शय्यापूति-निर्दोष शय्या में मूल-उत्तरकरण संबंधी आधार्मिक डाए लोणे हिंगू, संकामण फोड संधूमे॥ बांस, काष्ठ आदि का उपयोग करना शय्यापूति है। ...."जावतियं फासते पूर्ति॥ (श्रद्धालु गृहस्थ ने आगन्तुक भिक्षुओं के लिए भोजन उवही य पूतियं पुण, वत्थे पादे य होति नायव्वं । .... निष्पादित किया। उस (आधाकर्म) भोजन से दूसरा भोजन मिश्रित वसधी य पूतियं पुण, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य।... हो गया। वह पूतिकर्म भोजन यदि भिक्षु हजार घरों के अंतरित हो Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ जाने पर भी लेता है, खाता है, वह प्रव्रजित होने पर भी भोजन के निमित्त गृहस्थ 'जैसा आचरण करता है । - सू १ / २ / ६० ) ० स्थापित और रचित दोष स्थापितं यत्संयतार्थं स्वस्थाने परस्थाने वा स्थापितम् । रचितं नाम संयतनिमित्तं कांस्यपात्रादौ मध्ये भक्तं निवेश्य पार्श्वेषु व्यञ्जनानि बहुविधानि स्थाप्यन्ते । (व्यभा १५२० की वृ) १. स्थापित - जो आहार साधु के उद्देश्य से स्वस्थान या परस्थान में स्थापित है। २. रचित - साधु के निमित्त कांस्यपात्र आदि के मध्य में आहार रखकर उसके पार्श्व भागों में नाना प्रकार के व्यंजन स्थापित किए जाते हैं। ये दोनों उद्गम के दोष हैं। I * उद्गम - उत्पादन आदि दोष द्र श्रीआको १ एषणासमिति ८. उत्पादन के दोष : धात्रीपिंड अंतर्धानपिंड जे भिक्खू धाइपिंडं दूतिपिंडं णिमित्तपिंड...... आजीवियपिंडं वणीमगपिंडं तिगिच्छा पिंडं कोहपिंडं ......माणपिंडं...मायापिंडं लोभपिंडं विज्जापिंडं मंतपिंडं जोगपिंडं चुणपिंड अंतद्धाणपिंडं भुंजति चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं उग्घातियं ॥ (नि १३/६१-७५) उत्पादन - दोष के पन्द्रह प्रकार हैं१. धात्रीपिंड ६. चिकित्सापिंड २. दूतीपिंड ३. निमित्तपिंड ७. क्रोधपिंड ८. मानपिंड ४. आजीवपिंड ५. वनीपकपिंड ९. मायापिंड १०. लोभपिंड ३६७ ११. विद्यापिंड १२. मंत्रपिंड १३. योगपिंड १४. चूर्णपिंड १५. अंतर्धानपिंड इनका भोग करने वाला चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। (पिंडनिर्युक्ति में उत्पादन के सोलह दोष निरूपित हैं, जिनमें ग्यारहवां संस्तव और सोलहवां मूलकर्म है। वहां अंतर्धानपिंड का उल्लेख नहीं है। चूर्णपिंड में इसका समावेश किया जा सकता है । नि २ / ३७ में पूर्व - पश्चात् संस्तव दोष का उल्लेख है ।) ९. पूर्वसंस्तव पश्चात्संस्तव - निषेध जे भिक्खू पुरेसंथवं वा पच्छासंथवं वा करेति --''॥'''' मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं ॥ (नि २/३७, ५६ ) पिण्डैषणा गुणसंथवेण पुव्विं, संतासंतेण जो थुणेज्जाहि । दातारमदिण्णम्मी, सो पुव्वो संथवो होति ॥ गुणसंथवेण पच्छा, संतासंतेण जो थुणिज्जाहि । दातारं दिण्णम्मी, सो पच्छासंथवो होति ॥ ( निभा १०४६, १०४८ ) जो भिक्षु गृहपति के भिक्षादान से पहले और भिक्षादान के पश्चात् उसमें विद्यमान-अविद्यमान गुणों की स्तुति करता है - इस पूर्वसंस्तव तथा पश्चात्संस्तव के कारण वह मासलघु प्रायश्चित्त का भागी होता है । १०. एषणा का एक दोष : शंकित भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा एसणिज्जे सिया, अणेसणिज्जे सिया - विचिगिच्छसमावण्णेणं अप्पाणेणं असमाहडाए लेस्साए, तहप्पगारं असणं णो पडिगाहेज्जा ॥ (आचूला १/३६) भिक्षु अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य एषणीय है या अनेषणीय - इस विचिकित्सासमापन्न चित्त से, अविशुद्ध लेश्या से वैसे अशन आदि को न ले । ११. पुराकर्मकृत दोष .........परो हत्थं वा, मत्तं वा, दव्वि वा, भायणं वा सीओदगवियडेण वा, उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेत्ता पहोइत्ता आहट्टु दलएज्जा - तहप्पगारेण पुरेकम्मकरण हत्थे वा मत्तेण वा दव्वी वा भायणेण वा असणं वा अफासुर्य अणेसणिज्जं ति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिगाहेज्जा ।। • (आचूला १/६३) गृहस्थ हाथ, पात्र, कड़छी या भाजन को शीतोदक या उष्णोदक से धोकर, बार-बार धोकर, ( उससे आहार आदि) लाकर दे - वैसा पुराकर्मकृत हाथ, पात्र, कड़छी या भाजन से दिया जाने वाला अशन आदि अप्रासुक और अनेषणीय है - ऐसा मानता हुआ प्राप्त होने पर भी उसे न ले। O संसृष्ट के अठारह प्रकार : पुराकर्म आदि ....ससरक्खादी गणो "पुरेकम्मे, पच्छाकम्मे, उदउल्ले, ससिणिद्धे, ससरक्खे, मट्टिआ-ऊसे, हरियाले, हिंगुलए, Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्डैषणा मोसिला, अंजणे, लोणे, गेरुय, वण्णिय, सेडिय, सोरट्ठिय, पिट्ठ, कुकुस, उक्कुडे चेव । एते अट्ठारस कायणिप्फण्णा पिंडेसणाए भणिया हत्था ससिणिद्धं । दुहा कम्त पुरेकम्मं, पच्छाकम्मं । उदउल्लं "एते आउक्कायहत्था । रोट्टो उक्कुट्टो कुकुसाएते वणस्सतिकायहत्था । सेसा सव्वे उ पत्थित्वा पुढविकायहत्थ त्ति ससरक्खादिजाव सोरट्ठिय ति एक्कारस हत्था । (निभा १४७ की चू) संसृष्ट के अठारह प्रकार हैं- १. पुराकर्म, २. पश्चात् कर्म, ३. उदकार्द्र, ४. सस्निग्ध, ५. सचित्त रज- कण, ६. मृत्तिका - क्षार, ७. हरिताल, ८. हिंगुल, ९. मैनशिल, १०. अंजन, ११. नमक, १२. गैरिक, १३. वर्णिका, १४. श्वेतिका, १५. सौराष्ट्रका, १६. पिष्ट, १७. कुक्कुस और १८. उत्कृष्ट । इनमें पुराकर्म, पश्चात्कर्म, उदकार्द्र और सस्निग्ध-ये अप्काय से संबंधित हैं। पिष्ट, कुक्कुस और उत्कृष्ट - ये वनस्पतिकाय से संबंधित है। शेष ग्यारह प्रकार पृथ्वीकाय से संबंधित हैं । ( आचूला १/६३ - ८० में पश्चात् कर्म के अतिरिक्त शेष सबका उल्लेख है। वहां मृत्तिका और क्षार - ये दो पृथक् पद हैं।) १२. नित्यपिंड और अभिहृतपिंड का वर्जन जे भिक्खू नितियं पिंडं भुंजति. ॥....तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारद्वाणं उग्घातियं ॥ जे भिक्खू गाहावइकुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे परं ति घरंतराओ असणं साइमं वा अभिहडं आह दिज्जमाणं पडिग्गाहेति ॥ (नि २/३२, ५६; ३/१५) भिक्षु नित्यपिंड आहार करता है और जो भिक्षु गृहपति के घर में भिक्षा की प्रतिज्ञा से प्रवेश कर तीन घरों से आगे से लाकर दिए जाने वाले अभिहृत दोष से दूषित अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ग्रहण करता है, वह मासलघु प्रायश्चित्त का भागी होता है। • अभिहृत और नियतपिंड आइण्णमणाइण्णं, निसीधऽभिहडं च णोनिसीहं च । साभावियं च नियतं, निकायण निमंतणा लहुगो ॥ ''''तत्राचीर्णमुपयोगसम्भवे गृहत्रयमध्ये, ततः परमनाचीर्णमुपयोगासम्भवात् । अनाचीर्णमपि द्विविधं निशीथाभ्याहृतं नोनिशीथाभ्याहृतं च । तत्र यत् साधोर ३६८ आगम विषय कोश - २ विदितमभ्याहृतं तन्निशीथाभ्याहृतमितरत् साधोर्विदितमानीतं नोनिशीथाभ्याहृतं नियतं त्रिविधम्, तद्यथा स्वाभाविकं, निकाचितं, निमन्त्रितं च । तत्र यन्न संयतार्थमेव किन्तु य एव श्रमणोऽन्यो वा प्रथममागच्छति तस्मै यदग्रपिण्डादि दीयते, तत्स्वाभाविकम्। यत्पुनर्भूतिकर्मादिकरणतश्चतुर्मासादिकं कालं यावत् प्रतिदिवसं निकाचितं निबद्धीकृतं गृह्यते तन्निकाचितम् । यत्तु दायकेन निमन्त्रणापुरस्सरं प्रतिदिवसं नियतं दीयते तन्निमन्त्रितम् । (व्यभा ८५७ वृ) अभिहत और नियत - ये भिक्षासंबंधी दोष हैं। अभिहत - इसके दो प्रकार हैं १. आचीर्ण - गृहस्थ तीन घरों के मध्य से सम्मुख जाकर भिक्षा दे- इसमें उपयोग सम्भव I २. अनाचीर्ण- तीन घरों से आगे से लाने में उपयोग संभव नहीं है। अनाचीर्ण के भी दो प्रकार हैं १. निशीथ - वह अभिहृत भिक्षा, जो साधु को ज्ञात न हो। २. नोनिशीथ - जिस आनीत आहार की साधु को जानकारी हो । • नियत के तीन प्रकार हैं १. स्वाभाविक - जो केवल साधु के लिए ही नहीं है, साधु या अन्य, जो भी सर्वप्रथम आता है, उसे अग्रपिंड आदि जो दिया जाता है, वह स्वाभाविक नियत पिण्ड है । २. निकाचित - चतुर्मास आदि काल में भूतिकर्म आदि के कारण जो प्रतिदिन निकाचित रूप से - निबद्धीकृत लिया जाता है। ३. निमंत्रित – जो दायक के द्वारा निमन्त्रणापूर्वक नियत रूप से प्रतिदिन दिया जाता है, वह निमंत्रित नियत पिण्ड है । जो इन्हें ग्रहण करता है, वह मासलघु प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। ० नित्य अग्रपिण्ड वर्जित जे भिक्खू नितियं अग्गपिंडं भुंजति, भुजंतं वा सातिज्जति ॥ 'णितियं' धुवं सासयमित्यर्थः 'अग्रं' वरं प्रधानं । अहवा जं पढमं दिज्जति । (नि २/३१ चू) णितिए उ अग्गपिंडे, णिमंतणोवीलणा य परिमाणे । साभाविए य एत्तो, तिणिण ण कप्पंति तु कमेणं ॥ साभावि णितिय कप्पति, अणिमंतणोवील अपरिमाणे य । जं वा वि सामुदाणी, तं भिक्खं दिज्ज साधूणं ॥ निष्फण्णो वि सअट्ठा, उग्गमदोसा उठवितगादिया । उप्पज्जंते जम्हा, तम्हा सो वज्जणिज्जो उ ॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ .३६९ पिण्डैषणा ओसक्कण अहिसक्कण, अज्झोयरए तहेव णेक्कंती। वा दलमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्धाइयं॥ अण्णत्थ भोयणम्मि य, कीते पामिच्चकम्मे य॥ (क ४/१२, १३) (निभा ९९९, १००४-१००६) निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी प्रथम पौरुषी में गृहीत अशन, पान, जो भिक्षु नित्य अग्रपिण्ड-प्रधानपिण्ड या प्रथम दिया खाद्य तथा स्वाद्य को चतुर्थ पौरुषी में नहीं रख सकते । कदाचित् जाने वाला पिण्ड खाता है, खाते हुए दूसरे का अनुमोदन करता है, रह जाए तो उसे न स्वयं खाए, न दूसरों को खाने के लिए दे। वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। वे अशन आदि को दो कोस की सीमा से आगे नहीं ले जा गृहस्थ नित्य अग्रपिण्ड ग्रहण के लिए साधु को निमंत्रित सकते। कदाचित् ले जाए तो न स्वयं खाए, न औरों को दे। करता है। साध निमंत्रण स्वीकार करता हआ कहता है-घर जाने . एकांत में बहुप्रासुक स्थण्डिल का प्रतिलेखन-प्रमार्जन कर पर तुम दोगे या नहीं दोगे-इस रूप में उसे उत्पीड़ित करता है उस (गृहीत या आनीत आहार) का परिष्ठापन करे। उसे स्वयं खाने और कितना दोगे? इस रूप में वस्तु का परिमाण निर्धारित वाला या दूसरों को देने वाला चतुर्लघु प्रायश्चित्त को प्राप्त करता है। करवाता है, इस प्रकार निमंत्रण, उत्पीड़न और परिमाणकरण-ये कालातिक्रांत : जिनकल्पी-स्थविरकल्पी तीनों भंग कल्पनीय नहीं हैं। जो स्वाभाविक है-गृहस्थ के अपने चिया उसमणा संचयी गिढ़ी त होति धारेता...... लिए कृत है, अनिमंत्रित, अनुत्पीड़ित, अपरिमाणकृत और तम्हा उ जहिं गहियं, तहि भुंजणे वज्जिया भवे दोसा।.... सामुदानिक है, वह साधु के लिए प्रतिदिन कल्पनीय है। एवं ता जिणकप्पे, गच्छम्मि चउत्थियाए जे दोसा।.... यद्यपि निमंत्रित भिक्षा गृहस्थ के लिए निष्पन्न है, फिर भी मोक्खपसाहणहेडं, णाणादी तप्पसाहणे देहो। वह स्थापित आदि उद्गमदोषों से युक्त है-'मैं अवश्य दूंगा' देहट्ठा आहारो, तेण तु कालो अणुण्णातो॥ यह सोचकर गृहस्थ अलग पात्र में उसे स्थापित करता है, अत: काले उ अणुण्णाते, जइ वि हु लग्गेज्ज तेहि दोसेहिं । वह वर्जनीय है। सुद्धो उवातिणितो, लग्गति उ विवज्जए परेणं । गृहस्थ अवश्य दातव्य आहार में से साधु को पूरा न पकने पर भी उसमें से निकाल कर देता है, विवक्षित काल से पहले-पीछे (निभा ४१४४, ४१४७, ४१४८, ४१५९, ४१६०) श्रमण संचय नहीं करते। संचय करने वाले श्रमण गृहस्थ पकाता है, पच्यमान वस्तु में साधु के निमित्त अधिक डाल देता है। अन्यत्र निमंत्रित होने पर भी 'मैं अमुक वस्तु अवश्य दूंगा'-यह की तरह हो जाते हैं। इसलिए जिस प्रहर में आहार ग्रहण किया, उसी प्रहर में खाने से संचय आदि दोष स्वतः परिहत हो जाते हैंसाधु के लिए खरीदकर या उधार लाकर देता है अथवा यह जिनकल्पी साधु का आचार है। स्थविरकल्पी प्रथम प्रहर में आधाकर्म आहार निष्पन्न करता है-यह सब कल्पनीय नहीं है। ग्रहण कर चतुर्थ प्रहर में रखते हैं या खाते हैं तो संचय आदि सब १३. कालातिक्रांत-क्षेत्रातिक्रांत आहार-निषेध दोष संभव हैं। (जो निग्रंथ अभिलषणीय और एषणीय अशन नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा असणं वा पाणं आदि का प्रथम प्रहर में प्रतिग्रहण कर अंतिम प्रहर आने पर आहार वा खाइमं वा साइमं वा पढमाए पोरिसीए पडिग्गाहित्ता करता है, यह कालातिक्रांत आहार है।-द्र भ ७/३४) पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावेत्तए। से य आहच्च उवाइणाविए ज्ञान. दर्शन और चारित्र मोक्षप्रसाधन के हेत हैं। ज्ञान आदि सिया, तं नो अप्पणा भुंजेज्जा नो अण्णेसिं अणुप्पदेज्जा॥ की साधना के लिए शरीर अपेक्षित है। शरीर-धारण के लिए आहार नो कप्पइ असणं वा "अद्धजोयणमेराए उवाइणा- आवश्यक है, अत: आहार के ग्रहण-धारण का काल अनुज्ञात हैवेत्तए।से य आहच्च उवाइणाविए सिया, तं नो अप्पणा भुंजेज्जा दिन के प्रथम तीन प्रहर या अंतिम तीन प्रहर। अनुज्ञात काल में संचय नोअण्णेसिं अणुप्पदेज्जा, एगते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता आदि दोष लगते हों, तब भी शुद्ध है । अनुज्ञात-काल का अतिक्रमण पमज्जित्ता परिट्ठवेयव्वे सिया। तं अप्पणा भुंजमाणे अण्णेसिं करने पर कोई दोष न भी लगे, तब भी प्रायश्चित्त आता है। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्डैषणा १४. भिक्षागमन - विधि से भिक्खू सव्वं भंडगमायाए गाहावइ-कुलं पिंडवायपडियाए पविसेज्ज वा णिक्खमेज्ज वा ॥ ''गाहावइकुलस्स दुवार - बाहं कंटक - बोंदियाए परिपिहियं पेहाए, तेसिं पुव्वामेव उग्गहं अणणुण्णविय अपडिलेहिय अपमज्जियो अगुणिज्ज ॥ (आचूला १/३७, ५४) भिक्षु सब उपकरणों को साथ लेकर भिक्षा की प्रतिज्ञा से गृहपति- कुल में प्रवेश और निष्क्रमण करे। गृहपतिकुल के द्वारभाग को कंटकशाखा से ढका हुआ देखकर गृहस्थों से अवग्रह की आज्ञा लिए बिना, प्रतिलेखन और प्रमार्जन किए बिना द्वार को न खोले । १५. गमनमार्ग, अवस्थान और याचनाविधि ......रसेसिणो बहवे पाणा घासेसणाए संथडे सण्णिवइए पेहाए, तं जहा - कुक्कुडजाइयं वा, सूयरजाइयं वा, अग्गपिंडंसि वा वायसा संथडा सण्णिवइया पेहाए - सइ परक्कमे संजयामेव परक्कमेज्जा, नो उज्जुयं गच्छेज्जा ॥ भोगाव - कुलस्स दुवार- साहं अवलंबियअवलंबियगाहावइ - कुलस्स दगच्छड्डणमत्ताए चंदणिउयए " सिणाणस्स वा, वच्चस्स वा, संलोए सपडिदुवारे चिट्टेज्जा । णो गाहावइ - कुलस्स आलोयं वा थिग्गलं वा, संधिं वा, दगभवणं वा बहाओ परिझिय-पगिज्झिय, अंगुलियाए वा उद्दिसियउद्दिसय, ओणमिय- ओणमिय, उण्णमिय- उण्णमिय णिज्झाएज्जा | णो गाहावई अंगुलियाए उद्दिसिय- उद्दिसिय" चालियचालितज्जि - जिय" उक्खलुंपिय-उक्खलुंपिय वंदियवंदिय जाएजा | णो व णं फरुसं वएज्जा ॥ (आचूला १ / ६१, ६२ ) मार्ग में रस की एषणा करने वाले बहुत से प्राणियों को ग्रास की एषणा (भोजन) के लिए सघनता से एकत्रित देखे, जैसे - कुक्कुटजाति, शूकरजाति, अग्रपिण्ड के लिए कौए एकत्रित बैठे हुए देखकर, दूसरा मार्ग होने पर संयमपूर्वक उस मार्ग से जाए, सीधे मार्ग से न जाए। गृहपति के घर के द्वारभाग का सहारा लेकर खड़ा न हो, गृह की नाली और आचमन-स्थान के पास तथा स्नानगृह और वर्चोगृह के सामने खड़ा न हो, जहां से गृहस्थ दीखता हो । ३७० आगम विषय कोश- २ गृहपति- गृह के गवाक्ष, थिग्गल, संधि और जलगृह की ओर भुजाओं को बार-बार फैलाकर, अंगुलि से निर्देशकर, पुनः पुनः झुककर अथवा ऊंचा होकर उन स्थानों को न देखे | गृहपति को अंगुलि से निर्देश कर, चालित कर, तर्जित कर, शरीर को खुजला कर, स्तुति कर याचना न करे। (न देने पर) कठोर वचन न बोले । १६. पूर्व-पश्चात् - संस्तुत: भिक्षाकाल में भिक्षा “भिक्खुस्स पुरेसंथुया वा, पच्छासंथुया वा परिवसंति" तहप्पगाराई कुलाई णो पुव्वामेव भत्ताए वा, पाणाए वा णिक्खमेज्ज वा, पविसेज्ज वा ॥ पुरा पेहाए तस्स परो अट्ठाए असणं "उवकरेज्ज वा, उवक्खडेज्ज वा । एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमेत्ता अणावायमसंलोए चिट्टेज्जा। से तत्थ काले अणुपविसेज्जा, अणुपविसेत्ता तत्थियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं, एसियं, वेसियं पिंडवायं एसित्ता आहारं आहारेज्जा ।" ( आचूला १ / १२२, १२३ ) भिक्षु के पूर्वसंस्तुत (माता, पिता आदि) अथवा पश्चात्संस्तुत ( श्वसुर आदि ग्राम आदि में ) रहते हैं । उनके घरों में भिक्षाकाल से पूर्व आहार- पानी के लिए न जाए, न प्रवेश करे। गृहस्थ भिक्षु को अपने सामने समागत देखकर उसके लिए अशन आदि तैयार कर सकता है, उपस्कृत कर सकता है। (इसलिए वह वहां सामने खड़ा न रहे,) एकांत में चला जाए, एकांत में जाकर नापात और असंलोक स्थान में खड़ा रहे। भिक्षाकाल होने पर ग्राम में प्रवेश कर इतर इतर कुलों में सामुदानिक, एषणीय और शिक (केवल साधुवेश से लब्ध) भिक्षा को प्राप्त कर आहार करे । १७. अगर्हित कुलों से भिक्षा "कुलेसु अदुगुछिए अगरहिएसु असणं फासूयं एसणिज्जं तिमण्णमाणे पडिगाहेज्जा ॥ ( आचूला १/२३) भिक्षु अजुगुप्सित और अगर्हित कुलों में अशन आदि को प्रासुक और कल्पनीय मानता हुआ मिलने पर ग्रहण करे। १८. दानफल बताकर लेना निषिद्ध : सप्तविध दानविधि जे भिक्खू लव- गवेसियं पडिग्गहगं धरेति, धरेंतं वा सातिज्जति ॥ (नि २/३०) दाणफलं लवितूणं, लावावेतु गिहिअण्णतित्थीहिं । जो पादं उप्पाए, लव-गविट्टं तु तं होति ॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ लोइय लोउत्तरियं दाणफलं तु दुविधं समासेणं । लोइयणेगविधं पुण, लोउत्तरियं इमं तत्थ ॥ अण्णे पाणे भेसज्ज -पत्त-वत्थे य सेज्ज संथारे । भोज्जाविधी पाणारोगे, भायण भूसा गिहा सयणा ॥ अथवा वि समासेणं, साधूणं पीतिकारओ पुरिसो । इह य परत्थ य पावति, पीतीओ पीवरतरीओ ॥ ( निभा ९९३ - ९९६) भिक्षु स्वयं दान का फल बताकर अथवा गृहस्थ और अन्यतीर्थिक द्वारा दानफल कहलवाकर पात्र का उत्पादन करता है - यह लव - गवेषित है और भिक्षु के लिए ऐसा करना विहित नहीं है। दान के दो प्रकार हैं ० लौकिक दान - गोदान, भूमिदान, भोजनदान आदि । लोकोत्तर दान - अन्न आदि । सप्तविध दान की सात परिणतियां हैं o दान अन्नदान पानदान भैषजदान विधिप्रवर्तन भोज्यविधि पानकविधि आरोग्यविधि ३७१ पात्रदान भाजनविधि वस्त्रदान विभूषाविधि शय्यादान विविध गृह शय्याविधान संस्तारकदान जो भक्तपान आदि के द्वारा साधुओं में प्रीति उत्पन्न करता है, वह इहलोक और परलोक में सर्वाधिक प्रीति प्राप्त करता है। १९. इन्द्रमह, मृत्युभोज आदि में भिक्षा अग्राह्य भिक्खू असणं समवा-एसुवा, पिंड - णियरेसुवा, इंद-महेसु वा, खंद-महेसु वा विरूवरूवेसु महामहेसु मासु, बहवे समण-माहण- अतिहि किविण - वणीम " परिएसिज्जमाणे पेहाएनो पडिगाहेज्जा | अह पुण एवं जाणेज्जा - दिण्णं जं तेसिं दायव्वं ....... ... पुरे संखडिं वा, पच्छा-संखडिं वा, संखडिं संखडिपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए ॥ ( आचूला १/२४, २५, २९ ) भिक्षु अशन आदि को गोष्ठी, मृत्युभोज, इन्द्रमह, स्कन्दमह पिण्डैषणा आदि विविध महोत्सवों के समय गृहस्वामी द्वारा बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और वनीपकों को परोसते हुए देखकर उसे ग्रहण न करे। यदि ऐसा जाने -उन अतिथि, कृपण आदि के लिए जो दातव्य था, वह दे दिया गया है, तत्पश्चात् मिलने पर ग्रहण करे । मुनि पूर्वसंखडी (विवाहभोज आदि) या पश्चात्संखडी (मृत्युभोज) में संखडी की प्रतिज्ञा से जाने के लिए पर्यालोचन न करे । २०. सचित्त लशुन आदि अकल्पनीय .... लसुणं वा, लसुण-पत्तं वा, लसुण-नालं वा, लसुणकंदं वा, लसुण-चोयगं वा - अण्णयरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणयं - अफासुयं अणेसणिजजं ति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिगाज्जाकणं वा, कण-कुंडगंवा, कण-पूयलियं वा, चाउलं वा, चाउल-पिट्टं वा, तिलं वा, तिल-पिट्टं वा, तिल - पप्पडगं वा अण्णतरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणयं ... णो पडिगाहेज्जा ॥ ( आचूला १/११७, ११९) लसुन (लहसुन), लसुन पत्र, लसुन-नाल, लसुन - कंद, लसुन की छाल अथवा अन्य इस प्रकार की अपक्व और शस्त्र से अपरिणत वनस्पतिशालि आदि की कणिका, चावलों की भूसी (कुक्कुस), कणिका मिश्रित पूपलिका, चावल, चावल का पिष्ट, तिल, तिल का पिष्ट, तिलपपड़ी अथवा इस प्रकार का अन्य कण आदि अपक्व और शस्त्र से अपरिणत हो, भिक्षु उसे अप्रासुक और अनेषणीय मानता हुआ मिलने पर भी न ले । २१. प्राप्त भिक्षा विषयक पृच्छा से एगइओ साहारणं वा पिंडवायं पडिगाहेत्ता, ते साहम्मिए अणापुच्छित्ता जस्स-जस्स इच्छइ तस्स तस्स खद्धंखद्धं दलाति । माइट्ठाणं संफासे, णो एवं करेज्जा। से त्तमायाए तत्थ गच्छेज्जा, गच्छेत्ता वएज्जा आउसंतो! समणा! संति मम पुरे - संथुया वा, पच्छा-संथुया वा, तं जहा- आयरिए वा, झ वा अवियाई एएसिं खद्धं खद्धं दाहामि । 'से णेवं' वयंतं परो वएज्जा - कामं खलु आउसो ! अहापज्जत्तं णिसिराहि । जावइयं - जावइयं परो वयइ, तावइयं - तावइयं णिसिरेज्जा | सव्वमेयं परो वयइ, सव्वमेयं णिसिरेज्जा । (आचूला १/१३०) Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्डैषणा ३७२ आगम विषय कोश-२ कोई भिक्षु सामान्य रूप से भिक्षा लेकर आता है, उन साधर्मिकों मुनि आहार उतना ही ग्रहण करे, जितना उपयोगी या को पूछे बिना जिस-जिसको देना चाहता है, उस-उसको प्रचुर- अपेक्षित है। निष्कारण प्रमाण से अतिरिक्त आहार ग्रहण करने पर प्रचुर दे देता है, वह मायास्थान का आचरण करता है, उसे इस संचय, परिष्ठापन, आज्ञाभंग आदि दोषों का प्रसंग आता है। प्रकार नहीं करना चाहिए। वह एषणीय भिक्षा लेकर आचार्य आदि अतिरिक्त पर्याप्त आहार-ग्रहण के अनेक कारण हैंके पास जाए, वहां जाकर कहे-आयुष्मन्! श्रमणो! यहां मेरे जहां स्थापनाकुल नहीं होते, वहां प्रत्येक संघाटक आचार्य, पूर्वपरिचित (दीक्षाचार्य आदि),पश्चात् परिचित (वाचनाचार्य आदि) ग्लान और अतिथि साधु के लिए आहार ले आता है। हैं, जैसे आचार्य, उपाध्यायः...-इनको प्रचुर-प्रचुर दूंगा। उसके ० कोई दाता दुर्लभ द्रव्यों से सहसा मुनि के भिक्षापात्र भर देता है। ऐसा कहने पर गुरु कहे-आयुष्मन् ! अपनी इच्छानुसार यथापर्याप्त भिक्षाग्रहण के पश्चात् उपवास की इच्छा हो जाती है। दो। गरु जितना-जितना कहे. उतना-उतना दे। गुरु सारा देने के इन कारणों से अतिरिक्त पर्याप्त आहार आ जाने पर जो मुनि लिए कहे तो वह सारा आहार दे दे। अन्य मुनियों को आमंत्रित किए बिना उसका परिष्ठापन करता है, २२. अतिरिक्त आहार-ग्रहण संबंधी निर्देश । वह दोषों का भागी होता है। जिन्हें बार-बार भख लगती है, वे ..."बहुपरियावण्णं भोयणजायं पडिगाहेत्ता साहम्मिया बाल-वृद्ध-शैक्ष पुनः खा सकते हैं, तपस्वी पारणक में दुबारा खा तत्थ वसंति संभोइया समणुण्णा अपरिहारिया अदूरगया।तेसिं सकता है, ग्लान प्रायोग्य द्रव्य ग्लान के काम आ सकता है, महोदर अणालोइया अणामंतिया परिट्ठवेइ।माइट्ठाणं संफासे, णो एवं मंडलीभोजन के पश्चात् भी खा सकता है, अतिथि साधु मार्ग की करेज्जा। (आचला १/१२७) थकान दूर होने पर पुनः खा सकता है, इसलिए बाल, वृद्ध, शैक्ष, तपस्वी, ग्लान और महोदर (अधिक खुराक वाले) को पूछे बिना भिक्षु प्रमाण से अधिक आहार ग्रहण कर लिए जाने पर आहार-व्युत्सर्ग करने वाले के द्वारा ये सब परित्यक्त-उपेक्षित होते (अतिरिक्त आहार-परिष्ठापन की स्थिति उत्पन्न होने पर) यदि वहां पास में रहने वाले समनुज्ञ साम्भोजिक अपारिहारिक साधुओं को बिना पूछे, बिना आमंत्रित किए उस आहार का व्युत्सर्ग करता अतिरिक्त आहार को कोई साधु न खाए, तब भी जो साधु आत्मशुद्धि की भावना से अतिरिक्त आहार लाता है, वह विपुल है, तो वह मायास्थान का संस्पर्श करता है। वह ऐसा न करे। निर्जरा का भागी होता है, अतः छद्मस्थ मुनि को अतिरिक्त आहार जावतियं उवयुजति, तत्तियमेत्ते तु भोयणे गहणं। अतिरेगमणट्ठाए, गहणे आणादिणो दोसा॥ लाना चाहिये। अतिशयज्ञानी के लिए यह विधि वैकल्पिक है-कोई खाता है तो वह अतिरिक्त लाता है, अन्यथा नहीं लाता। (अभिग्रहधारी आयरिए य गिलाणे, पाहुणए दुल्लभे सहसदाणे। पुव्वगहिते व पच्छा, अभत्तछंदो भवेज्जाहि॥ भिक्षु के ऐसा संकल्प होता है-मैं अपनी आवश्यकता से अधिक, एतेहिं कारणेहिं, अतिरेगं होज्ज पज्जयावण्णं । .... अपनी कल्प-मर्यादा के अनुसार ग्रहणीय तथा अपने लिए लाए हुए अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य से निर्जरा के उद्देश्य से उन साधर्मिकों बाला वुड्डा सेहा, खमग-गिलाणा महोदरा एसा। की सेवा करूंगा-पारस्परिक उपकार की दृष्टि से।-आ ८/१२०) सव्वे वि परिच्चत्ता, परिट्ठवेंतेण ऽणापुच्छा॥ भुंजंतु मा व समणा, आतविसुद्धीए णिज्जरा विउला। २३. अचित्त अनेषणीय संबंधी विधि तम्हा छउमत्थेणं, णेयं अतिसेसिए भयणा॥ ...."गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविद्वेणं बाला वुड्डाऽभिक्खछुहा पुणो वि जेमेज्ज"खमगो वा अण्णयरे अचित्ते अणेसणिज्जे पाण-भोयणे पडिग्गाहिए पारणगे पुणो जेमेज्ज, गिलाणस्स वा तं पाउग्गं, महोदरा वा सिया, अस्थि या इत्थ केइ सेहतराए अणुवट्ठावियए, कप्पइ से मंडलीएण उवउट्टा जेमेज्जा, आदेसा वा तेहि आगता होज्ज, तस्स दाउं वा अणुप्पदाउं वा।"अणुवट्ठावियए, तं नो अप्पणा अद्धाणखिन्ना वाण जिमिता पुणो जेमेज्ज। भुंजेज्जा नो अण्णेसिंदावए, एगते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता (निभा ११२३, ११२६-११२८, ११३१ चू) पमज्जित्ता परिट्ठवेयव्वे सिया॥ (क ४/१४) Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ ३७३ गृहपति के घर में आहार के लिए अनुप्रविष्ट निर्ग्रन्थ द्वारा कोई अचित्त अनेषणीय (आधाकर्मिक आदि) पान - भोजन का ग्रहण हो जाए और वहां कोई अनुपस्थापित शैक्ष हो तो उसे वह पानभोजन दिया जा सकता है। अनुपस्थापित शैक्ष न हो तो स्वयं उसे न खाए, न दूसरों को दिलाए । एकांत में बहुप्रासुक स्थंडिल का प्रतिलेखन प्रमार्जन कर परिष्ठापन करे । २४. अप्राक आहार परिष्ठापन विधि से य आहच्च पडिग्गाहिए सिया से तं आयाय एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमेत्ता - अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अप्प - पाणे विगिंचिय-विगिंचिय, उम्मिस्सं विसोहिय-विसोहिय तओ संजयामेव भुंजेज्ज वा पीएज्ज वा ॥ जं च णो संचाएजा भोत्तए वा पायए वा, से तमायाय ..... एगतमवक्कमेत्ता - अहे झाम - थंडिलंसि वा तुस - रासिंसि वा, गोमय-रासिंसि वा, अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि पडिलेहिय - पडिलेहिय पमज्जिय- पमज्जिय तओ संजयामेव परिवेज्जा ॥ (आचूला १/२, ३) मुनि ने कदाचित् अप्राक और अनेषणीय आहार ग्रहण कर लिया हो, उसे लेकर वह एकान्त में चला लाए। एकान्त में जाकर उद्यान या उपाश्रय, जहां जीवजंतु न हों, वहां उस आहार का विवेक (पृथक्करण) कर उन्मिश्र आहार का विशोधन कर संयमपूर्वक उसे खाए या पीए। जिस आहार का (विवेक और विशोधन कर) खाना-पीना शक्य न हो, उसे लेकर वह एकान्त में जली हुई भूमि, तुष के ढेर, उपल अथवा राख के ढेर या इसी प्रकार की अन्य अचित्त भूमि को देखकर उसका प्रतिलेखनप्रमार्जन कर संयमपूर्वक उस आहार का परिष्ठापन करे। २५. कसैले पानक के परिष्ठापन का निषेध ..... अण्णतरं भोयण - जायं पडिगाहेत्ता सुब्भिं- सुब्भिं भोच्या दुब्भिं दुब्भिं परिट्ठवेइ ॥ अण्णतरं वा पाणगजायं पडिगात्ता पुष्पं-पुष्पं आविइत्ता कसायं- कसायं परिवे । माइट्ठाणं संफासे, जो एवं करेज्जा । पुष्पं पुष्फे ति वा, कसायं कसाए त्ति वा सव्वमेयं भुंजेज्जा, णो किंचि वि परिवेज्जा ॥ (आचूला १ / १२५, १२६) भिक्षु किसी प्रकार के भोजनजात को प्राप्त कर सुगंधित 1 पिण्डैषणा सुगंधित खाकर दुर्गंधित-दुर्गंधित का परिष्ठापन करता है। इसी प्रकार विविध पानक प्राप्त कर अच्छे-अच्छे (वर्ण-गंधयुक्त) पानक को पीकर कसैले कसैले (दुर्वर्ण-दुर्गंध युक्त) पानक का परिष्ठापन करता है, वह मायास्थान का संस्पर्श करता है। वह ऐसा न करे। मधुर को मधुर और कसैले को कसैला जानकर सारे पानक को पी ले, थोड़ा भी परिष्ठापित न करे । तम्मि य गिद्धो अण्णं, णेच्छे अलभतो एसणं पेल्ले । परिठाविते य कूड, तसाण संगामदिट्ठतो ॥ कलुसे परिविए मच्छियाओ लग्गंति, तेसिं घरकोइला धावति, तीए वि मज्जारी, मज्जारीए सुणगो, सुणगस्स वि अण्णो सुणगो, सुणगणिमित्तं सुणगसामिणो कलहें ति । एवं पक्खापक्खीए संगामो भवति । (निभा ११०७ चू) जो मधुर मनोज्ञ पानक में गृद्ध होता है, वह कसैले पानक को पीना नहीं चाहता, अतः उसका विसर्जन कर मधुर पानक की अन्वेषणा करता है, इससे सूत्र - अर्थ पौरुषी की हानि होती है । इच्छित पानक न मिलने पर एषणा संबंधी दोषों का भी सेवन कर लेता । कटु पानक के परिष्ठापन में कूट दोष संभव है - जैसे जाल में प्राणी फंस जाते हैं, वैसे ही उस व्युत्सृष्ट पानक में मक्खियां, चींटियां आदि जंतु फंस जाते हैं। इस प्रकार त्रस जीवों के उपघात का प्रसंग आता है। मक्खियों के लिए गृहकोकिला और गृहकोकिला के लिए कुत्ता, कुत्ते के पीछे दूसरा कुत्ता दौड़ता है, तब कुत्ते के निमित्त दोनों कुत्तों के स्वामियों में कलह हो जाता । इस प्रकार अपने-अपने पक्ष की सुरक्षा के लिए संग्राम शुरू हो जाता है T २६. सचित्त जल - व्युत्सर्ग विधि से य आहच्च पडिग्गहिए सिया खिप्पामेव उदगंसि साहरेज्जा, सपडिग्गहमायाए पाणं परिट्ठवेज्जा, ससणिद्धाए वा भूमी यिज्जा । उदउल्लं वा, ससणिद्धं वा पडिग्गहं णो आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, संलिहेज्ज वा, णिल्लिहेज्ज वा, उव्वलेज्ज वा, उवट्टेज्ज वा, आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा ॥ (आचूला ६/४७, ४८ ) मुनि कदाचित् सचित्त जल ग्रहण कर ले, तो तत्काल उसे दाता के जलपात्र में डाल दे, (वैसा न हो सके तो ) पात्र को लेकर Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक ३७४ आगम विषय कोश-२ (एकांत में) स्निग्ध भूमि में पानी का परिष्ठापन करे और स्निग्ध पुस्तक शब्द जब से संस्कृत और प्राकृत में व्यवहत होने लगा, पात्र का नियमन करे (स्थिर रख दे)। वह उदक से आर्द्र अथवा उसका अर्थ बदल गया। हरिभद्र सूरि ने पुस्तकर्म का अर्थ वस्त्रनिर्मित स्निग्ध पात्र का न आमार्जन-प्रमार्जन करे (न एक बार साफ करे, पुतली, वर्त्तिका से लिखित पुस्तक तथा ताडपत्रीय प्रति किया न बार-बार साफ करे) न पोंछे, न घिसे, न उपलेपन करे, न है।-अनु १/१० का टि) उद्वर्तन करे और न आतापन-प्रतापन करे। पुस्तकलेखन के दोष संघस अपडिलेहा, भारो अहिकरणमेव अविदिण्णं। पुस्तक-ताड़पत्र, भोजपत्र आदि पर लिखित ग्रंथ। संकामण पलिमंथो, पमाय परिकम्मणा लिहणा॥ गंडी कच्छवि मुट्ठी, संपुट फलए तहा छिवाडी य।" ..."तीर्थकरैरदत्तश्चायमुपधिः। स्थानान्तरे च पुस्तकं दीहो बाहल्लपुहत्तेण तुल्लो चउरंसो गंडीपोत्थगो।अंते तणुओ, मझे पिहलो, अप्पबाहल्लो कच्छवि। चउरंगुलदीहो संक्रामयतः पलिमन्थः । प्रमादो नाम' पुस्तके लिखितमस्तीति वृत्ताकृती मुट्ठीपोत्थगो। अहवा-चउरंगुलदीहो चउरस्सो कृत्वा न गुणयति, अगुणनाच्च सूत्रनाशादयो दोषाः। परिमुट्ठिपोत्थगो। दुगमाइफलगसंपुडं। दीहो हस्सो वा पिहुलो कर्मणायां च सूत्रार्थपरिमन्थो भवति। अक्षरलेखनं च कुर्वतः अप्पबाहल्लो छेवाडी।अहवा-तणुपत्तेहिं उस्सिओ छेवाडी। कुन्थुप्रभृतित्रसप्राणव्यपरोपणेन कृकाटिकादिबाधया च संयमात्मविराधना। (बृभा ३८२६ वृ) (निभा ४००० चू) ० ग्रामान्तर गमन के समय पुस्तकें कंधों पर वहन की जाती हैं। पुस्तकें पांच प्रकार की होती थीं उनके घर्षण से कंधे छिल सकते हैं, व्रण हो सकता है। १. गंडी-मोटाई और चौड़ाई में तुल्य तथा चोकोर पुस्तक। ० पुस्तकें शुषिर होने से उनकी पूरी प्रतिलेखना नहीं हो पाती। २. कच्छपी-अन्त में पतली और मध्य में विस्तीर्ण तथा कम मोटाई ० विहार में कंधों पर भार अधिक हो जाता है। वाली पुस्तक। ० कुंथु, पनक आदि प्राणी संसक्त हो जाने से उनकी हिंसा हो ३. मुष्टि-चार अंगुल लंबी और वृत्ताकार अथवा चार अंगुल सकती है अथवा पुस्तकें चोरों द्वारा चुरा ली जाए तो अधिकरण हो लम्बी और चतुष्कोण पुस्तक। सकता है। यह उपधि तीर्थंकर द्वारा प्रदत्त नहीं है। ४. संपुटफलक-दोनों ओर जिल्द बंधी पुस्तक। ५. छिवाडी-लम्बी या छोटी, विस्तीर्ण और कम मोटाई वाली ' पुस्तक को स्थानांतरित करने में स्वाध्याय में बाधा आती है। पुस्तक अथवा पतले पन्ने वाली ऊंची पुस्तक। ० ज्ञान पुस्तक में लिखा हुआ है-ऐसा सोचकर परिवर्तना नहीं (बाहल्ल-पुहत्तेहिं, गंडीपोत्थो उ तुल्लगो दीहो। की जाती है तो सीखा हुआ ज्ञान विस्मृत हो जाता है। इससे सूत्र के विनष्ट होने का प्रसंग भी आ सकता है। कच्छवि अंते तणुओ, मज्झे पिहुलो मुणेयव्वो॥ ० पुस्तक का परिकर्म सूत्र-अर्थ का विघ्न है। चउरंगुलदीहो वा, वट्टागिइ मुट्ठिपुत्थगो अहवा। चउरंगलदीहो च्चिय, चउरंसो होइ विन्नेओ॥ ० अक्षर-लेखन कार्य से कुंथु आदि जीवों की हिंसा हो सकती है, संपुडगो दुगमाई, फलगा वोच्छं छिवाडिमित्ताहे। गर्दन आदि अवयव अकड़ सकते हैं, इस प्रकार संयमविराधना तणुपत्तूसियरूवो, होइ छिवाडी बहा बेंति॥ तथा आत्मविराधना होती है। दीहो वा हस्सो वा, जो पिहलो होइ अप्पबाहल्लो। पुस्तक की उपयोगिता तं मुणियसमयसारा, छिवाडिपोत्थं भणंतीह ॥ ....घेप्पति पोत्थगपणगं, कालियणिज्जुत्तिकोसट्ठा॥ -प्रसा १ गा ६६५-६६८ मति-मेधादिपरिहाणिं विज्ञाय कालिकश्रुतस्य..... __ भाषाशास्त्रीय दृष्टि से 'पुस्त' शब्द पहलवी भाषा का है। उत्कालिकश्रुतस्य वा निर्युक्तीनां चाऽऽवश्यकादिप्रतिबद्धानां इसका अर्थ है चमड़ा। चमड़े में चित्र आदि बनाए जाते थे। उसमें दान-ग्रहणादौ कोश इव-भाण्डागारमिवेदं भविष्यतीत्येवमर्थं ग्रन्थ भी लिखे जाते थे इसलिए उसका नाम पुस्तक हो गया। पुस्तकपञ्चकमपि गृह्यते। (बृभा ३८४३ वृ) Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३७५ प्रतिमा मति-मेधा आदि की हानि हो रही है-इस स्थिति को जानकर कालिक-उत्कालिक-श्रुत और आवश्यक आदि से प्रतिबद्ध नियुक्तियों के आदान-प्रदान में पुस्तकें भाण्डागार की भांति सारभूत होंगी-इस प्रयोजन से पुस्तक-पंचक का ग्रहण किया जाता है। पूतिकर्म-आधाकर्म से मिश्रित आहार आदि । उद्गम का एक दोष। द्र पिण्डैषणा पूर्वगत-दृष्टिवाद का अन्तरालवर्ती ग्रन्थ-समूह। द्र आगम प्रग्रहस्थान-धर्मसंघमान्य पद। लोकमान्य पद। द्र राज्य प्रतिक्रमण-प्रमादवश परस्थान (असंयम) में चले जाने पर पुनः स्वस्थान (संयम) में आना। क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में चले जाने पर पुनः क्षायोपशमिक भाव में लौट आना। प्रायश्चित्त का एक भेद। द्र प्रायश्चित्त प्रतिमा-साधना का विशिष्ट प्रयोग। अभिग्रह । प्रतिज्ञा। १. प्रतिमा का अर्थ एवं प्रकार ० समाधिप्रतिमा के इकहत्तर भेद ० उपधान, विवेक आदि प्रतिमाओं के प्रकार २. एकलविहार-प्रतिमा-प्रतिपत्ति से पूर्व ० प्रतिमा-प्रतिपत्ता की अर्हता ० पांच भावनाओं द्वारा परिकर्म ० अपरिकर्मित अयोग्य : शावक दृष्टांत ० अव्यक्त मुनि : अक्षिप्रत्यारोपण दृष्टांत ० अशुभ संकल्पमात्र से प्रायश्चित्त ० प्रतिमाप्रतिपत्ता का पर्याय-श्रुत-संहनन ० एकलविहारप्रतिमा की अनुज्ञा-याचना ० प्रतिमाप्रतिपत्ता का आचार्य द्वारा परीक्षण ० प्रतिमाप्रतिपत्ति की विधि ० एकलविहारप्रतिमा और चारित्र ० प्रतिमा-साधना : पिंडैषणा, उपधि" ० प्रतिमा-समापनविधि : ससम्मान गण-प्रवेश ३. चन्द्रप्रतिमा के प्रकार ० यवमध्य-वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा का स्वरूप ० चन्द्रप्रतिमा-प्रतिपत्ता की अर्हता ___० चन्द्रप्रतिमाप्रतिपन्न उपसर्ग-परीषहजयी ० आहारग्रहण-विधि ४. सप्तसप्तमिका आदि भिक्षुप्रतिमाएं ० सप्तसप्तमिका : दत्तिप्रमाण में सिंहविक्रम-उपमा ० दत्ति परिमाण की करण गाथा, दत्ति-स्वरूप ५. मोकप्रतिमा के प्रकार । ० मोकप्रतिमाप्रतिपत्ति की विधि ० मोक ( पेय प्रस्त्रवण) का स्वरूप ० मोकप्रतिमा की द्रव्य आदि से मार्गणा ० मोकप्रतिमा और संहनन ० मोकप्रतिमासिद्धि की निष्पत्ति ० मोकप्रतिमा पूर्ण होने पर आहारविधि ६. भद्रा-महाभद्रा-प्रतिमा * बारह भिक्षुप्रतिमा द्र भिक्षुप्रतिमा * ग्यारह उपासक प्रतिमा द्र उपासकप्रतिमा * द्रव्य आदि संबंधी अभिग्रह द्र भिक्षाचर्या * जिनकल्पी प्रतिमा द्र जिनकल्प प्रतिमा का अर्थ एवं प्रकार प्रतिपत्तिः प्रतिमाणं वा पडिमा। (दशा ६/८ की चू) प्रतिमाभिः अभिग्रहविशेषभूताभिः। ___ (आचूला २/६२ की वृ) प्रतिमा का अर्थ है-प्रतिपत्ति , प्रतिमान अथवा अभिग्रह। (० प्रतिमा-एकरात्रिकी आदि प्रतिमाओं में प्रतिमा की भांति कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित रहना।-स्था ५/४२ की वृ ० द्रव्य, क्षेत्र आदि द्वारा जिस साधना के प्रकार का प्रतिमान किया जाता है, उसे प्रतिमा कहा जाता है।-जैसिदी ६/२५) समाधिओवहाणे य, विवेगपडिमाइया। पडिसंलीणा य तहा, एगविहारे य पंचमिया॥ (दशानि ४६) प्रतिमा के पांच प्रकार हैं-१. समाधिप्रतिमा-श्रुत-स्वाध्याय का विशेष संकल्प तथा समता का विशेष अभ्यास करना। २. उपधानप्रतिमा--तप का विशेष प्रयोग करना। ३. विवेकप्रतिमा-इस प्रतिमा के अभ्यासकाल में आत्मा और अनात्मा की भिन्नता का अनुचिंतन किया जाता है। ४. प्रतिसंलीनताप्रतिमा-वृत्ति को अन्तर्मुखी बनाने का अभ्यास। ५. एकलविहारप्रतिमा-साधना का विशेष प्रयोग-एकाकीविहार। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा • समाधिप्रतिमा के इकहत्तर भेद आयारे बायाला, पडिमा सोलस य वण्णिया ठाणे । चत्तारि य ववहारे, मोए दो चंदपडिमाओ ॥ एवं तु सुयसमाधिपडिमा छावट्टिया य पण्णत्ता । सामाइयमाईया, चारित्तसमाहिपडिमाओ ॥ समाधिपडिमा द्विविधा - सुतसमाधिपडिमा चरितसमाधि - पडिमा य, दर्शनं तदन्तर्गतमेव । ....आयारग्गेहिं सत्ततीसं, बंभचेरेहिं पंच एवं बातालीसं आयारे । ववहारे चत्तारि, दो मोयपडिमातो खुड्डिगा महल्लिगा य मोयपडिमा दो चंद- पडिमा - जवमज्झा व मज्झा य । (दशानि ४७, ४८ चू) समाधिप्रतिमा के दो प्रकार हैं - १. श्रुतसमाधिप्रतिमा २. चारित्र - समाधिप्रतिमा । दर्शनप्रतिमा इनके अन्तर्गत ही है। श्रुतसमाधिप्रतिमा के छासठ भेद इस प्रकार हैं० आचारांग (८ / ११६ - १२० ) में पांच प्रतिमाएं हैं १. मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य लाकर दूंगा और उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार करूंगा। २. मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन आदि लाकर दूंगा, किन्तु उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार नहीं करूंगा। ३. मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन आदि लाकर नहीं दूंगा, किन्तु उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार करूंगा। ४. मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन आदि लाकर न दूंगा और न उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार करूंगा। ५. मैं अपनी आवश्यकता से अधिक, अपनी कल्प-मर्यादा के अनुसार ग्रहणीय तथा अपने लिए लाए हुए अशन आदि से निर्जरा के उद्देश्य से उन साधर्मिकों की सेवा करूंगा। ३७६ ( अथवा आचारांग के छठे धुताध्ययन के पांच धुत पांच प्रतिमा के रूप में निर्दिष्ट किए जा सकते हैं - निजकधुत, कर्मधुत, शरीर - उपकरणधुत, गौरवधुत, उपसर्गधुत । धुतवाद कर्मनिर्जरा का सिद्धांत है, ममत्वविसर्जन की प्रक्रिया है । इसे व्युत्सर्गप्रतिमा का प्रतिरूप माना जा सकता है। विशुद्धिमा में तेरह धुतांग बतलाए गए हैं - पांशुकूलिकांग, चीवरिकांग, पिंडपातिकांग, सापदानचारिकांग, एकासनिकांग, पात्रपिंडिकांग, खलुपच्छाभत्तिकांग, आरण्यकांग, वृक्षमूलिकांग, आगम विषय कोश- २ अभ्यवकाशिकांग, श्मशानिकांग, यथासंस्तरिकांग, नेसज्जिकांग ।) • आचारचूला में सैंतीस प्रतिमाएं हैंसात पिंडैषणा-सात पानैषणा प्रतिमा चार संस्तारकप्रतिमा चार वस्त्रप्रतिमा चार पात्रप्रतिमा सात अवग्रहप्रतिमा चार स्थानप्रतिमा (द्र अवग्रह) (द्र कायोत्सर्ग) ० स्थानांग में सोलह प्रतिमाएं हैं, जो चार-चार के भेद से निर्दिष्ट हैं - १. समाधिप्रतिमा २ उपधानप्रतिमा ३. विवेकप्रतिमा ४. व्युत्सर्गप्रतिमा । (द्र पिण्डैषणा) (द्र शय्या) (द्र उपधि) (द्र उपधि) १. भद्रा २. सुभद्रा ३. महाभद्रा ४. सर्वतोभद्रा । (स्था ५ / १८ में भद्रोतर प्रतिमा का उल्लेख भी है ।) १. क्षुल्लकप्रश्रवण २. महत्प्रश्रवणप्रतिमा ३. यवमध्या ४. वज्रमध्या । १. शय्याप्रतिमा २. वस्त्रप्रतिमा ३ पात्रप्रतिमा ४. स्थानप्रतिमा । -स्था ४/९६-९८, ४८७-४९० • व्यवहार में दत्ति तप की चार प्रतिमाएं हैं - १. सप्तसप्तमिका २. अष्ट अष्टमिका ३. नवनवमिका ४. दसदसमिका । ० o दो मोकप्रतिमा - १. क्षुल्लकमोकप्रतिमा २. महत्मोकप्रतिमा । -व्य ९/३५-४१ दो चन्द्रप्रतिमा - १. यवमध्या २. वज्रमध्या । - व्य १०/१-५ यद्यपि ये चारित्रप्रतिमाएं हैं, किन्तु ये विशिष्ट श्रुतवान् मुनि होती हैं, इसलिए इन्हें श्रुतप्रतिमा कहा गया है, ऐसा संभव है।) चारित्रसमाधिप्रतिमा के पांच प्रकार हैं- सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात प्रतिमा । इस प्रकार समाधिप्रतिमा के कुल ६६+५=७१ भेद हैं। ० उपधान, विवेक आदि प्रतिमाओं के प्रकार भिक्खूणं उवहाणे, उवासगाणं च वण्णिया सुत्ते । गणको वाइविवेगो, सब्भंतर बाहिरो दुविहो ॥ सोतिंदियमादीया, पडिसंलीणा चउत्थिया दुविहा । अट्ठगुणसमग्गस्स य, एगविहारिस्स पंचमिया ॥ विवेगपडिमा अब्धिंतरिया कोधादीणं ।.....बाहिरिया गणसरीरभत्तपाणस्स य अणेसणिज्जं । एवं छण्णउतिं सव्वग्गेण भावपडिमा । (दशानि ४९, ५० चू) Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३७७ प्रतिमा ० उपधानप्रतिमा-भिक्षु के विशिष्टतम तप संबंधी बारह प्रतिमाएं की अनाशातना, भक्ति, बहुमान और वर्णवाद करना। तथा उपासक की ग्यारह प्रतिमाएं दशाश्रुतस्कंध सूत्र में वर्णित हैं। औपचारिक विनय के सात प्रकार हैं। (द्र विनय) ० विवेकप्रतिमा-क्रोध आदि का विवेक। इसके दो भेद हैं वैयावृत्त्य चौदह प्रकार का है-प्रव्राजनाचार्य, दिगाचार्य, १. आभ्यंतरविवेक-क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म और संसार का उद्देशाचार्य, समुद्देशाचार्य, वाचनाचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, विवेचन-पृथक्करण। इनकी भिन्नता का अनुभव करना। ग्लान, शैक्ष, साधर्मिक, कुल, गण और संघ का वैयावृत्त्य। २. बाह्यविवेक-गण, शरीर और अनेषणीय आहार का विवेक। इस प्रकार विनय के कुल प्रकार-१०+६०+७+१४९१ ० प्रतिसंलीनता प्रतिमा चौथी प्रतिमा है। उसमें श्रोत्रेन्द्रिय आदि होते हैं।-सम ९१/१ वृ) पांचों इन्द्रियों का विषय-निरोध होता है। उसके दो प्रकार हैं- २. एकलविहारप्रतिमा-प्रतिपत्ति से पूर्व इन्द्रियप्रतिसंलीनता प्रतिमा और नोइन्द्रियप्रतिसंलीनता प्रतिमा। पव्वज्जा सिक्खावय, अत्थग्गहणं च अणियतो वासो। ० आठ गुणों से युक्त एकलविहारी भिक्षु की पांचवीं प्रतिमा है। निप्फत्ती य विहारो, सामायारी ठिती चेव। समाधिप्रतिमा ६६+५-७१ विवेकप्रतिमा १ पव्वजा सिक्खावय, अत्थग्गहणं तु सेसए भयणा। उपधानप्रतिमा १२+११=२३ प्रतिसंलीनताप्रतिमा १ सामायारिविसेसो, नवरं वत्तो उ पडिमाए। इस प्रकार प्रतिमाओं का कुल योग छियानवे (९६) है। प्रथमतस्तावत्प्रव्रज्या भवति, सा च द्विधा धर्मश्रवणतो (एकलविहारप्रतिमा भिक्षुप्रतिमा के अंतर्गत गिनी गई है। इस ऽभिसमागमतश्च। तत्र या आचार्यादिभ्यो धर्मदेशनामाकर्ण्य गणना में कुछ प्रतिमाओं का दो-दो बार उल्लेख हुआ है। यथा- संसाराद्विरज्य प्रतिपद्यते सा धर्मश्रवणतः। या पुनर्जातिस्मरणादिना शय्या आदि प्रतिमाएं आचारचूला में भी हैं, स्थानांग में भी हैं। सा अभिसमागमतः, प्रव्रजितस्य शिक्षापदं भवति। शिक्षा च यवमध्यचन्द्रप्रतिमा आदि स्थानांग में भी हैं, व्यवहार में भी हैं। द्विधा-ग्रहणशिक्षा आसेवनाशिक्षा च। तत्र ग्रहणशिक्षा सूत्रावसाधना के जितने संकल्पबद्ध विशिष्ट प्रयोग हैं, वे सब गाहनलक्षणा। आसेवनाशिक्षा सामाचार्यभ्यसनम्। शिक्षा पदमनन्तरं चार्थग्रहणं भवति, अर्थग्रहणकरणानन्तरं चानियतो प्रतिमा की कोटि में आ सकते हैं। जिनकल्प, यथालंद आदि भी वासो नानादेशपरिभ्रमणं कर्तव्यम् । तदन्तरेण नानादेशीयसाधना के विशिष्ट उपक्रम हैं, किन्तु उन्हें यहां नहीं गिनाया गया शब्दाकौशलेन नानादेशीभाषात्मकस्य सूत्रस्य परिस्फुटरूपार्थहै। यह सब विवक्षासापेक्ष है। निर्णयकारित्वानुपपत्तेः, तदनन्तरं वाचनाप्रदानादिना गच्छस्य एकाकीसाधना के संदर्भ में त्रिविध प्रतिमा का उल्लेख है- निष्पत्तिर्निष्पादनं कर्त्तव्यम्। तदनन्तरं विहारोऽभ्युद्यतो विहारो १. एकाकीविहारप्रतिमा २. जिनकल्पप्रतिमा ३. मासिकीआदि ..."करणीयः।..."प्रव्रज्या“सामाचारीति सप्त द्वाराणि प्रतिमाभिक्षुप्रतिमाएं।-स्था ८/१ की वृ यामुपयोगीनि"अनियतवासनिष्पत्तिलक्षणद्वारद्विके भजना... समवायांग में दसरों के वैयावृत्त्यकर्म की इक्यानवे प्रतिमाएं आचार्यपदार्हस्तस्य नियमादिदंद्वारद्वयमस्ति, शेषस्य तु नास्तीत्यर्थः। निर्दिष्ट हैं। इन प्रतिमाओं के नाम अन्यत्र उपलब्ध नहीं हैं। विहारः पुनः प्रतिमाप्रतिपत्ति-लक्षणोऽस्त्येव सामाचार्या अपि वृत्तिकार ने संभावित रूप में इक्यानवे प्रतिमाओं का उल्लेख किया जिनकल्पिकसामाचारीतो विशेषोऽस्ति""दशाश्रुतस्कन्धे भिक्षहै-दर्शनगुण से विशिष्ट व्यक्तियों के प्रति दस प्रकार का शुश्रूषा प्रतिमाध्ययने प्रतिपादितः॥ (व्यभा ७७४/१, २ वृ) विनय होता है-सत्कार, अभ्युत्थान, सम्मान, आसनाभिग्रह, आसन- ० प्रव्रज्या-आचार्य आदि से धर्मश्रवण कर अथवा जातिस्मरण अनुप्रदान, कृतिकर्म, अंजलिप्रग्रह, अभिमुखगमन, स्थिरवास वालों आदि से अभिसमागत (संबुद्ध-विरक्त) हो दीक्षित होना। की पर्युपासना करना और पहुंचाने जाना। ० शिक्षापद-सूत्रअवगाहन रूप ग्रहण शिक्षा और सामाचारी अनाशातना विनय साठ प्रकार का है-तीर्थंकर, धर्म, आचार्य, अभ्यासरूप आसेवन शिक्षा। वाचक, स्थविर, कुल, गण, संघ, सांभोजिक, क्रिया, मतिज्ञान, ० अर्थग्रहण-सूत्रों का अर्थपरिज्ञान। श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान-इन पन्द्रह ० अनियतवास-नाना देशों में भ्रमण। देशाटन से नानादेशीय Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा ३७८ आगम विषय कोश-२ शब्दों का परिज्ञान होता है, जिससे नानादेशीभाषात्मक सूत्र का जो एकाकीविहारप्रतिमा स्वीकार करना चाहता है, वह परिस्फुट अर्थनिर्णय किया जा सकता है। तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल-इन पांच भावनाओं के अभ्यास ० निष्पत्ति-वाचना आदि द्वारा शिष्यों का निष्पादन। से अपने को परिकर्मित करता है। (भावना-परिकर्म द्र जिनकल्प) ० विहार-प्रतिमा स्वीकार रूप अभ्युद्यत विहार। जैसे लंख (नट) अभ्यास से रज्जु पर भी नृत्य कर सकता ० सामाचारी-एकलविहारप्रतिमा की सामाचारी का परिज्ञान। है। मल्ल व्यायाम आदि से शरीर को परिकर्मित कर प्रतिमल्ल को उल्लिखित सातों द्वार प्रतिमा-साधना में उपयोगी हैं। प्रव्रज्या, __ पराजित करता है। अश्वकिशोर हाथी आदि की निकटता के अभ्यास शिक्षापद और अर्थग्रहण-ये तीनों प्रतिमा-प्रतिपत्ता के नियमतः से युद्ध में भयभीत नहीं होता, वैसे ही तप आदि भावनाओं के पुनः होते हैं, शेष में भजना है। अनियतवास और निष्पत्ति-ये दो द्वार पुनः अभ्यास से प्रतिमाप्रतिपत्ति की योग्यता प्राप्त होती है। आचार्य पद योग्य शिष्य के अवश्य होते हैं, शेष के नहीं होते। गणहरगुणेहि जुत्तो, जदि अन्नो गणहरो गणे अत्थि। प्रतिमाप्रतिपत्ति अभ्युद्यत विहार है ही। इस प्रतिमा की नीति गणातो इहरा, कुणति गणे चेव परिकम्मं ॥ सामाचारी जिनकल्प की सामाचारी से भिन्न है। वह दशाश्रुतस्कंध (व्यभा ७७५) की भिक्षुप्रतिमा नामक सातवीं दशा में प्रतिपादित है। यदि गण में गणधरगणों से युक्त अन्य गणधर हो तो प्रतिमा (द्र भिक्षुप्रतिमा) प्रतिपित्सु आचार्य गण से बाहर रहकर परिकर्म करता है, अन्यथा ० प्रतिमा-प्रतिपत्ता की अर्हता गण में रहता हुआ ही परिकर्म करता है। दढसम्मत्तचरित्ते, मेधावि बहुस्सुए य अयले य। परिचियसुओ उ मग्गसिरमादि जा जे? कुणति परिकम्म। अरइरइसहे दविए, खंता भयभेरवाणं च॥ एसो च्चिय सो कालो, पुणरेति गणं उवग्गम्मि॥ जो जति मासे काहिति, पडिमं सो तत्तिए जहण्णेण। (दशानि ५१) कुणति मुणी परिकमं, उक्कोसं भावितो जाव॥ प्रतिमाप्रतिपत्ता आठ गुणों से युक्त होता है-सम्यक्त्व और तव्वरिसे कासिंची, पडिवत्ती अन्नहिं उवरिमाणं। चारित्र में दृढ रहने वाला, मेधावी, बहुश्रुत, अचल, अरति-रति . आइण्णपतिण्णस्स तु, इच्छाए भावणा सेसे॥ को सहन करने वाला, राग-द्वेष-रहित और अत्यंत भयोत्पादक (व्यभा८००-८०२) दृश्यों को सहन करने वाला। . मुनि श्रुत का अत्यंत अभ्यास हो जाने पर मार्गशीर्ष मास से (आठ स्थानों से सम्पन्न अनगार एकलविहारप्रतिमा ज्येष्ठ मास पर्यंत परिकर्म करता है। जघन्यतः जो मुनि जितनी संघमुक्त साधना को स्वीकार कर विहार कर सकता है मासिकी प्रतिमा करना चाहता है, वह उतने ही मास तक परिकर्म १. श्रद्धावान् २. सत्यवादी ३. मेधावी ४. बहुश्रुत ५. शक्तिमान करता है। जघन्य पद में इतना ही काल है। उत्कृष्ट पद में जितने ६. कलहमुक्त ७. धृतिमान ८. वीर्यवान। -स्था ८/१ काल में वह आगमोक्त विधि से पूर्ण भावित होता है, उतना भगवान् महावीर ने दो प्रकार की मुनिचर्या का प्रतिपादन उत्कृष्ट काल है। आषाढ़ मास समीप होने से वह वर्षाकाल किया है-गणचर्या और एकाकीचर्या। अगीतार्थ मनि के लिए प्रायोग्य उपधिग्रहण के लिए पुनः गण में आता है। गणचर्या ही सम्मत है। गीतार्थ मुनि बहुश्रुत गुरु की आज्ञा से । एकमासिकी यावत् चातुर्मासिकी प्रतिमा की प्रतिपत्ति उसी एकाकीचर्या भी स्वीकार करते हैं। -आ ६/५२ का भाष्य) वर्ष में होती है, जिस वर्ष में उसका परिकर्म होता है। ० पांच भावनाओं द्वारा परिकर्म (योग्यता प्राप्ति) पंच, षट् और सप्तमासिकी प्रतिमा का परिकर्म अन्य वर्ष में तवेण सत्तेण सुत्तेण, एगत्तेण बलेण य। और प्रतिपत्ति अन्य वर्ष में होती है। तुलणा पंचधा वुत्ता पडिमं पडिवज्जतो॥ जो प्रतिमा की साधना कर चुका है, वह पुनः उस प्रतिमा ..... लखग-मल्ले उवमा, आसकिसोरे व्व जोग्गविते॥ की साधना करे तो उसके लिए भावना-परिकर्म ऐच्छिक है, (व्यभा ७७७, ७८३) किन्तु अनाचीर्ण प्रतिमा वाले के लिए परिकर्म अनिवार्य है। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ • अपरिकर्मित अयोग्य : शावक दृष्टांत वासगगतं तु पोसति, चंचूपूरेहि सउणिया छावं । वारेति तमुडुंतं, जाव समत्थं न जातं तु ॥ एमेव वणे सीही, सा रक्खति छावपोयगं गहणे । खीरमउपिसियचव्विय, जा खायइ अट्ठियाई पि ॥ ..... पडिवक्खेण उवमिमो, सउणिग- सीहादिछावेहिं ॥ (व्यभा ७७१, ७७२, ७७४) ३७९ शकुनिका अपने शावक का नीड़ में ही चंचुपूर द्वारा पोषण करती है, उड़ते हुए शिशु को तब तक रोकती है, जब तक वह समर्थ नहीं हो जाता। इसी प्रकार गहन वन में स्थित सिंहनी अति लघु शावक की व्याघ्र आदि से रक्षा करती है। वह अपने दूध और मृदु- चर्वित मांस से आत्मीय शिशु का तब तक पोषण करती है, जब तक कि वह अस्थियां खाने नहीं लग जाता । अकृतपरिकर्मा एकलविहारी नीड़ से निर्गत असंजातपक्ष पक्षीशावक और गुफा से निर्गत क्षीराहार सिंहशावक की भांति विनष्ट हो जाता है। (जो भिक्षु अव्यक्त (अपरिपक्व ) अवस्था में अकेला ग्रामानुग्राम विहार करता है, उसकी यात्रा दुर्यात्रा होती है और उसका पराक्रम दुष्पराक्रम होता है। अपरिपक्व भिक्षु थोड़े से प्रतिकूल वचन सुनकर कुपित हो जाता है, थोड़ी-सी प्रशंसा सुनकर महान् मोह से मूढ़ हो जाता है। अज्ञानी और अद्रष्टा भिक्षु बार-बार आने वाली बहुत सारी बाधाओं का पार नहीं पा सकता। 'मैं अव्यक्त अवस्था में अकेला विहार करूं' - यह तुम्हारे मन में भी न हो। यह महावीर का दर्शन है।-आ ५/६२-६७) • अव्यक्त मुनि : अक्षिप्रत्यारोपण दृष्टांत परिकम्मणाय खवगो, सेह बलामोडि सो वि तध ठाति । पाभातिय उवसग्गे, कतम्मि पारेति सो सेहो ॥ पारेहि तं पि भंते! देवयअच्छी चवेडपाडणया । काउस्सग्गाऽऽकंपण, एलगस्स सप्पदेसनिव्वत्ती ॥ (व्यभा ७९५, ७९६ ) एक क्षपक एकलविहार प्रतिमा के परिकर्म हेतु प्रतिमा में स्थित हो सूत्र - अर्थ का परावर्तन कर रहा था। एक शैक्ष मुनि भी गुरु आज्ञा की अवज्ञा कर हठपूर्वक उस क्षपक के पास ही प्रतिमा प्रतिमा में स्थित हो गया। इसने आज्ञा का अतिक्रमण किया है- यह सोच देवता ने उपसर्ग किया - अर्धरात्रि में ही उसे प्रभात का आभास करा दिया। शैक्ष प्रतिमा सम्पन्न कर बोला- क्षपक! प्रभात हो गया है, प्रतिमा सम्पन्न करो। तब देवता ने उसके एक चपेटा मारा, दोनों आंखें बाहर आ गिरी। तपस्वी ने सघन कायोत्सर्ग किया। आकंपित हो देव ने पूछा- क्षपक ! कहो, मेरे लिए क्या आदेश है ? क्षपक ने कहा - शैक्ष की आंखें पूर्ववत् करो। देव ने कहा- अब इसकी आंखें आत्मप्रदेशों से शून्य हो गई हैं। क्षपक बोला- कैसे भी करो, यह कार्य तो करना ही है। देवता ने तत्काल मारित एडक की आंखें, जो आत्मप्रदेशों से युक्त थीं, लाकर उस मुनि के लगा दीं । • अशुभ संकल्पमात्र से प्रायश्चित्त पत्थरमणसंकप्पे, मग्गण दिट्ठे य गहित खित्ते य । पडित परितावित मऍ, पच्छित्तं होति तिन्हं पि ॥ मासो लहुओ गुरुगो, चउरो लहुगा य होंति गुरुगा य । छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ (व्यभा ८१७, ८१८) अकृतपरिकर्म मुनि आचार्य के निषेध करने पर भी प्रतिमा स्वीकार कर शून्यगृह में रहता है, रात्रि में मार्जार, श्वापद आदि से भयभीत हो उन पर प्रहार करने के लिए) प्रस्तर आदि ग्रहण करता है, वह प्रायश्चित्त का भागी होता है । अशुभ प्रवृत्ति प्रायश्चित्त प्रस्तरग्रहण का मानसिक संकल्प प्रस्तर की मार्गणा ग्रहण बुद्धि से अवलोकन प्रस्तर ग्रहण श्वापद आदि पर प्रक्षेप प्राणी पर प्रस्तर गिरना लघु मास गुरुमास चतुर्लघु चतुर्गुरु षड्लघु षड्गुरु छेद गाढ परिताप प्राणी की मृत्यु मूल गणावच्छेदी का प्रायश्चित्त गुरुमास से प्रारंभ होकर अनवस्थाप्य में और आचार्य का प्रायश्चित्त चतुर्लघु से प्रारंभ होकर पारांचित में निष्ठित होता है। बहुपुत्त पुरिसमेहे, उदयग्गी जड्डु सप्प चउलहुगा |...... Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा ३८० आगम विषय कोश-२ उदगभएण पलायति, पवति व रुक्खं व रोहए सहसा। ० एकलविहारप्रतिमा की अनुज्ञा-याचना एमेव सेसएसु वि, भएसु पडिकार मो कुणति॥ तो विण्णवेंति धीरा, आयरिए एगविहरणमतीया। (व्यभा ८१९, ८२२) परियागसुतसरीरे कतकरणा तिव्वसद्धागा॥ जो प्रतिमाप्रतिपन्न अव्यक्त मुनि देवता द्वारा विकुर्वित रोते __ यथा-'भगवन्! कृतपरिकर्माहमिच्छामि युष्माभिरनुज्ञात हए बच्चों को देखकर विचलित होता है. परुषयज्ञ. जलप्रवाह. एकाकिविहारप्रतिमा प्रतिपत्तुमिति, यः पुनराचार्यः स स्वगआगजनी, सम्मख आते हए हाथी और सर्प से भयभीत होता है. च्छाय कथयति। (व्यभा ७८९ व) जलप्रवाह के भय से पलायन अथवा उसमें प्लवन करता है यो जो एकाकीविहारप्रतिमा ग्रहण करने का अभिलाषी है, वह वृक्षारोहण करता है अथवा किसी प्रकार का प्रतिकार करता है, वह महासत्त्व सम्पन्न शिष्य आचार्यचरणों में निवेदन करता है-भंते ! चतर्लघ प्रायश्चित्त का भागी होता है। इसी प्रकार शेष स्थितियों में मैं आपकी अनुज्ञा से एकाकिविहारप्रतिमा को स्वीकार करना चाहता भयभीत होने पर भी यही प्रायश्चित्त है। हूं। प्रतिमाप्रतिपत्ता यदि आचार्य हों तो वे अपने गच्छ के समक्ष यह विज्ञप्ति करते हैं। एवं सुभपरिणामं, पुणो वि गच्छम्मि तं पडिनियत्तं। ० प्रतिमाप्रतिपत्ता का आचार्य द्वारा परीक्षण जे हीलति खिंसति वा, पावति गुरुए चउम्मासे ॥ न किलम्मति दीघेण वि, तवेण न वि तासितो वि बीहेति। (व्यभा ८३२) छण्णे वि ठितो वेलं, साहति पुट्ठो अवितधं तु॥ प्रतिमाप्रतिपन्न अव्यक्त मुनि शुभ परिणाम-अध्यवसाय आने पुरपच्छसंथुतेहिं, न सज्जती दिद्विरागमादीहिं । पर अपूर्ण प्रतिमा सम्पन्न कर गण में आ जाता है, तब जो मुनि दिट्ठी-मुहवण्णेहि य, अज्झत्थबलं समूहति॥ असूया से उस प्रतिनिवृत्त मुनि की हीलना-खिंसना करते हैं- "किसदढो, ......... दोहि वि दढो य॥.. ‘धिक्कार है इस भ्रष्टप्रतिज्ञ को'-इस प्रकार निंदा करते हैं, वे (व्यभा ७८५-७८७) चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। जो दीर्घ तप से क्लांत नहीं होता, वह तपपरिकर्मित और ० प्रतिमाप्रतिपत्ता का पर्याय-श्रुत-संहनन जो डराने पर भी नहीं डरता, वह सत्त्वपरिकर्मित है। एगूणतीसवीसा, कोडी आयारवत्थु दसमं च। __ आकाश मेघाच्छन्न है या वह मुनि उपाश्रय में स्थित है, फिर भी पूछने पर सही समय बता देता है, वह सूत्र परिकर्मित है। संघयणं पुण आदिल्लगाण तिण्हं तु अन्नतरं । __ पूर्व-पश्चात्-संस्तुत (माता-पिता, श्वसुर आदि) व्यक्तियों __ (व्यभा ७९०) के वंदना आदि के लिए उपस्थित होने पर जो दृष्टिराग आदि से ० पर्याय-जन्म पर्याय जघन्यतः उनतीस वर्ष । दीक्षा पर्याय जघन्यतः रंजित नहीं होता. उसकी दष्टि और मख की कांति से आचार्य बीस वर्ष (जो गर्भ सहित आठ वर्ष का प्रव्रजित होता है, दीक्षा उसके इस अध्यात्मबल को जान लेते हैं कि वह एकत्वभावना से पर्याय के बीस वर्ष होने पर एक वर्ष में दृष्टिवाद की योगवाहिता भावित है। जो देह से कश किन्त धति से सदढ है अथवा देह और सम्पन्न करता है-इस प्रकार कुल योग उनतीस वर्ष होता है। धति दोनों से सदढ है. वह बलभावना भावित है। उत्कृष्ट जन्मपर्याय या दीक्षा पर्याय देशोन पूर्वकोटी है-यह पूर्वकोटि ० प्रतिमाप्रतिपत्ति की विधि आयुष्य वाले की अपेक्षा से है। .... आपुच्छणा विसजण, पडिवजण गच्छसमवायं ।। ० श्रुत-जघन्यतः नौवें प्रत्याख्यानप्रवाद पूर्व की तृतीय आचार परिकम्मितो वि वुच्चति, किमुत अपरिकम्म मंदपरिकम्मा। वस्तु का ज्ञाता, उत्कृष्ट भिन्न (कुछ कम) द आतपरोभयदोसेसु, होति दुक्खं खु वेरग्गं । ० संहनन-तीन (वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच) में से पढम-बितियादलाभे, रोगे पण्णादिगा य आताए। किसी एक संहनन से सम्पन्न। सीउण्हादी उ परे, निसीहियादी उ उभए वि॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३८१ प्रतिमा ..."दव्वादि सुभे य पडिवत्ती॥ च, द्वितीये भरतादिप्रथम-पश्चिमतीर्थकरतीर्थेषु । एतच्च निरुवस्सग्गनिमित्तं, उस्सग्गं वंदिऊण आयरिए। प्रतिपद्यमानकानधिकृत्योक्तं । पूर्वप्रतिपन्नाः पुनः पञ्चानां आवस्सियं तु काउं, निरवेक्खो वच्चए भगवं॥ संयमानामन्यतमस्मिन् संयमे भवेयुः।। (व्यभा ८०३ वृ) वैराग्यं रागनिग्रहणमुपलक्षणमेतदद्वेषनिग्रहणम्। मुनि प्रतिमा-प्रतिपत्ति के समय प्रथम चारित्र-सामायिक (व्यभा ७९१-७९३, ७९७,७९८ वृ) संयम अथवा द्वितीय चारित्र-छेदोपस्थापनीय संयम में वर्तमान शिष्य द्वारा अनुज्ञा मांगने पर आचार्य कहते हैं- यद्यपि होता है। मध्यम बाईस तीर्थंकरों के तथा विदेह क्षेत्रवर्ती तीर्थंकरों परिकर्मित हो, फिर भी पुन: आपृच्छा की जाती है-तुम सत्परिकर्मा के ताथों में प्रथम सयम होता है । भरत-ऐरावत क्षेत्र में प्रथम और हो या मन्दपरिका हो या अकृतपरिकर्मा हो? क्योंकि साधनाकाल अंतिम तीर्थंकर के तीर्थ में द्वितीय संयम होता है। यह कथन में स्व-पर-उभय-समुत्थ परीषह उत्पन्न हो सकते हैं प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से है। पूर्वप्रतिपन्न मनि पांचों चारित्रों में से ० आत्मसमुत्थ-क्षुधा, पिपासा, अलाभ, रोग, प्रज्ञा आदि परीषह। किसी में भी हो सकते हैं। ० परसमुत्थ-शीत, उष्ण, दंशमशक आदि। ० प्रतिमा-साधना : पिंडैषणा, उपधि...... ० उभयसमुत्थ-नैषेधिकी, चर्या आदि। इन परीषहों के समुत्थित पग्गहियमलेवकडं, भत्त जहण्णेण नवविधो उवही। होने पर वैराग्य भावना- राग-द्वेष-निग्रह करना बहुत कठिन है। पाउरणवज्जियस्स उ, इयरस्स दसादि जा बारा॥ ___ 'यह सम्यक् परिकर्मित है'--आपृच्छा से यह ज्ञात होने वसहीए निग्गमणं, हिंडंतो सव्वभंडमादाय। पर उसे गच्छविसर्जन की अनुज्ञा दी जाती है। तब वह प्रशस्त न य निक्खिवति जलादिसु, जत्थ से सूरो वयति अत्थं ॥ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में समग्र गच्छ के समक्ष एकलविहारप्रतिमा मणसा वि अणग्घाया, सच्चित्ते यावि कुणति उवदेसं। स्वीकार करता है। प्रतिमा-प्रतिपत्ति से पूर्व वह सम्पूर्ण गच्छ से अच्चित्तजोग्गगहणं, भत्तं पंथो य ततियाए। रत्नाधिक क्रम से क्षमायाचना करता है, फिर संघसमन्वित आचार्य सप्तसु पिण्डैषणासु मध्ये उपरितनीनां चतसृणामन्यतके साथ निर्बाध प्रतिमा साधना के लिए कायोत्सर्ग करता है। मस्याः पिण्डैषणाया अभिग्रहः । आद्यानां तिसृणां पिण्डैषणानां तत्पश्चात आचार्य को वन्दन और आवश्यकी का उच्चारण कर प्रतिषेधः । एतच्च चूर्णिकारोपदेशात्"। (व्यभा ८०४-८०६ वृ) गच्छगुफा से सिंह की भांति निरपेक्ष हो निष्क्रमण करता है। ० भिक्षाचर्या-वह मुनि सात पिण्डैषणाओं में से अंतिम चार में से एमेव गणायरिए, गणनिक्खिवणम्मि नवरि नाणत्तं । किसी एक से अलेपकृत आहार और पानक ग्रहण करता है। प्रथम पुव्वोवहिस्स अहवा, निक्खिवणमपुव्वगहणं तु॥ तीन पिण्डैषणाएं उसके लिए प्रतिषिद्ध हैं-यह चूर्णिकार की (व्यभा ८०७) व्याख्या है। (सात पिण्डैषणा द्र पिण्डैषणा) प्रतिमाप्रतिपत्ति में भिक्षु की जो विधि प्रतिपादित है, वही . उपधि-वह जघन्यतः नवविध उपधि रखता है-पात्र, पात्रबंध, विधि आचार्य आदि के लिए है। विशेष यह है-गणावच्छेदी पात्रस्थापना, पात्रकेसरिका, पटल, रजस्त्राण, गोच्छक, मुखवस्त्रिका गणावच्छेदित्व से मुक्त होकर तथा आचार्य अन्य को आचार्य और रजोहरण। जिसके प्रावरण-परिहार का स्थापित कर एकलविहारप्रतिमा स्वीकार करे। वह दस (दसवां एक सूती कल्प), ग्यारह (दो सूती कम्बल) ___ अथवा गणावच्छेदी और आचार्य पूर्वगृहीत उपधि का निक्षेप और बारह (तीन सूती कम्बल) उपधि भी रख सकता है। कर अन्य प्रायोग्य उपधि का उत्पादन कर प्रतिमा स्वीकार करे। . उपकरणनिक्षेप-अपनी वसति (उपाश्रय) से बाहर जाता है, तब ० एकलविहारप्रतिमा और चारित्र सर्व भण्डोपकरण साथ में लेकर घूमता है, वसति में नहीं छोड़ता। .."संजम पढमे व बितिए वा॥ ० विहरण करते हुए यदि सूर्यास्त हो जाए तो वह जल में (खुले प्रथमे संयमे मध्यम-तीर्थकरतीर्थेषु विदेहतीर्थकरतीर्थेषु आकाश में-द्र भिक्षुप्रतिमा), स्थल में या जहां भी है, वहीं Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा ३८२ आगम विषय कोश-२ कायोत्सर्ग में स्थित हो जाता है, एक कदम भी आगे नहीं बढ़ता। एगा पाणस्स"बिइज्जाए से कप्पड़ दोण्णि दत्तीओ।.. ० प्रायश्चित्त-मानसिक दोष में भी गुरु प्रायश्चित्त आता है। पन्नरसमीए से कप्पइ पन्नरस दत्तीओ। ० लाभ- 'यह व्यक्ति निश्चित ही प्रव्रजित होगा'-ऐसा ज्ञात बहुलपक्खस्स पाडिवए कप्पंति चोद्दस दत्तीओ भोयणस्स होने पर प्रतिमाधारी उसे उपदेश ही दे सकता है, दीक्षा नहीं दे पडिगाहेत्तए, चोइस पाणस्स। बितियाए कप्पइ तेरस दत्तीओ सकता। वह कल्पनीय अचित्त वस्तु ग्रहण करता है। ..."चउदसीए कप्पड़ एगा दत्ती भोयणस्स पडिगाहेत्तए, एगा ० गमन-वह भिक्षाचर्या और विहार तृतीय पौरुषी में करता है। पाणस्स।अमावासाए से य अभत्तट्ठे भवइ॥" ० प्रतिमा-समापनविधि : ससम्मान गण-प्रवेश वइरमज्झण्णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स बहुलतीरियमब्भाम णियोग दरिसणं साधु सणि वप्पाहे। पक्खस्स पाडिवए कप्पइ पण्णरस दत्तीओ भोयणस्स दंडिग भोइंग असती, सावगसंघो व सक्कारं॥ पडिगाहेत्तए, पण्णरस पाणस्स। बितियाए से कप्पइ चउद्दस उब्भावणा पवयणे, सद्धाजणणं तहेव बहमाणो। दत्तीओ एवं एगुत्तरियाए हाणीए जाव पण्णरसीए एगा ओहावणा कुतित्थे, जीतं तह तित्थवडी य॥ दत्ती"।सुक्कपक्खस्स पाडिवए से कप्पइ दो दत्तीओ""""" (व्यभा ८०८, ८०९) एवं एगुत्तरियाए वड्डीए जाव चोदसीए पण्णरस दत्तीओ....। पुण्णिमाए अभत्तढे भवइ। प्रतिमाकाल सम्पन्न होने पर प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि, जिस (व्य १०/३, ५) उवमा जवेण चंदेण, वावि जवमज्झ चंदपडिमाए। प्रत्यासन्न गांव में बहुत भिक्षाचर और साधु आते हैं, वहां अपने एमेव य बितियाए, वइरं वजं ति एगटुं ॥ आपको प्रकट करता है, फिर साध या श्रावक के साथ गरु को संदेश भेजता है। गुरु राजा को सूचित करता है। राजा सत्कारपूर्वक पण्णरसे व उ काउं, भागे ससिणं तु सुक्कपक्खस्स। उसे संघ में प्रवेश करवाता है। राजा के अभाव में भोजिक जा वड्ढयते दत्ती, हावति ता चेव कालेण॥ (ग्राममखिया), उसके अभाव में श्रावकवर्ग और उसके अभाव में (व्यभा ३८३३, ३८३४). संघ उसे सम्मानपूर्वक लाता है। यव (जौ) और वज्र की उपमा से उपमित चन्द्राकार प्रतिमाएं सत्कारपूर्वक प्रवेश से प्रवचन की प्रभावना होती है, इस । यवमध्य तथा वज्रमध्य चन्द्रप्रतिमा कहलाती हैं। तप को करने की श्रद्धा पैदा होती है, संघ के प्रति बहमान बढ़ता है ० यवमध्यचन्द्रप्रतिमा-इस चन्द्रप्रतिमा में मध्यभाग यव की तरह तथा कुतीर्थ की हीलना होती है। स्थूल तथा आदि-अंत भाग तनु होता है। प्रतिमा अनुष्ठान सम्पन्न होने पर सत्कार किया जाता है जैसे शुक्ल पक्ष में पन्द्रह भागों में विभक्त चन्द्रमा की यह जीतकल्प (जीतव्यवहार) है। इस दृश्य को देख अनेक व्यक्ति कलाओं में से प्रतिपदा को एक कला दिखाई देती है। द्वितीया को विरक्त हो प्रव्रज्या लेते हैं-इससे तीर्थ की वृद्धि होती है। दो, तृतीया को तीन-इस प्रकार एक-एक की वृद्धि से पूर्णिमा को ३. चन्द्रप्रतिमा के प्रकार पन्द्रह कलाएं पूर्ण हो जाती हैं। वैसे ही यवमध्यचन्द्रप्रतिमाप्रतिपन्न दो पडिमाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-जवमज्झा य मुनि प्रतिपदा को आहार-पानी की एक-एक दत्ती ग्रहण करता है चंदपडिमा, वइरमज्झा य चंदपडिमा॥ ' (व्य १०/१) और प्रतिदिन एक-एक दत्ती बढ़ाता हुआ पूर्णिमा के दिन आहार पानी की पन्द्रह-पन्द्रह दत्तियां ग्रहण करता है। प्रतिमा के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं-यवमध्यचन्द्रप्रतिमा और कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को चन्द्रमा की चौदह कलाएं दृष्टिगोचर वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा। होती हैं। प्रतिदिन एक-एक कला घटती है। चतुर्दशी को एक कला ० यवमध्य-वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा का स्वरूप दृष्टिगत होती है, अमावस्या को एक भी नहीं। वैसे ही प्रतिमाप्रतिपन्न जवमझण्णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स सुक्क- मुनि कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को चौदह दत्तियां लेता है और प्रतिदिन पक्खस्स पाडिवए कप्पइ एगा दत्ती भोयणस्स पडिगाहेत्तए, एक-एक दत्ती कम करते-करते अमावस्या को उपवास करता है। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३८३ प्रतिमा इस प्रकार यवमध्यचन्द्रप्रतिमा मास के आदि में तन, मध्य यवमध्य-वज्रमध्य-चन्द्रप्रतिमाप्रतिपन्न अनगार एक मास में स्थूल तथा अंत में पुनः तनु हो जाती है। पर्यंत नित्य व्युत्सृष्टकाय और त्यक्तदेह रहता है। ० वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा-इस चन्द्राकार प्रतिमा में मध्यभाग वज्रमध्य ० व्यत्सष्टकाय-वह वातिक, पैत्तिक और श्लैष्मिक रोग-आतंकों की तरह कुश तथा आदि-अंत भाग स्थूल होता है। से स्पृष्ट होने पर भी शरीर का किञ्चित् भी परिकर्म नहीं करता। यह प्रतिमा कृष्णपक्ष में प्रारंभ की जाती है। इसमें भिक्षु . त्यक्तदेह-वह शरीर की प्रतिबद्धता से मुक्त होता है। कोई प्रतिपदा को पन्द्रह दत्तियां ग्रहण करता है। प्रतिदिन एक-एक दत्ती उसे बांधता है, निरुद्ध और आहत करता है अथवा मारता है, वह । घटाता हुआ अमावस्या को एक दत्ती ग्रहण करता है। शुक्लपक्ष उसका निवारण नहीं करता। वह उत्पन्न दिव्य, मानुषिक और की प्रतिपदा को दो दत्ती से प्रारंभ कर प्रतिदिन एक-एक दत्ती तिर्यंचयोनिक उपसर्गों को समभाव से सहन करता है। बढ़ाता हुआ चतुर्दशी को आहार-पानी की पन्द्रह-पन्द्रह दत्तियां ___० अनुकूल-परीषह-कोई उसको वन्दना-नमस्कार करे, सत्कारग्रहण करता है। पूर्णिमा को उपवास करता है। सम्मान करे, कोई उसके कल्याण-मंगल-देव-ज्ञानरूप की पर्युपासना ० चन्द्रप्रतिमाप्रतिपत्ता की अर्हता करे-वह इनमें गर्व नहीं करता। संघयणे परियाए, सत्ते अत्थे य जो भवे बलिओ। ० प्रतिकूल परीषह-किसी दण्ड, चाबुक आदि से शरीर पर प्रहार सो पडिमं पडिवज्जति. जवमज्यं वडरमज्यं च॥ ___ करने पर वह उन सबको सम्यक् सहन करता है। जैसे वृक्ष वसौले से काटने पर और चन्दन का लेप करने (व्यभा ३८३६) पर सम होता है, वैसे ही रागद्वेषमुक्त मुनि सुख-दुःख में सम यवमध्य और वज्रमध्य चन्द्रप्रतिमाप्रतिपत्ता की संहनन, पर्याय रहता है, अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गों को सम्यक् सहन करता है। और श्रुत संबंधी अर्हता एकलविहारी की भांति ज्ञातव्य है। * उपसर्ग-परीषह द्र श्रीआको १ परीषह ० चन्द्रप्रतिमाप्रतिपन्न उपसर्ग-परीषहजयी ० आहारग्रहण-विधि, अभिग्रह जवमज्झण्णं चंदपडिम पडिवन्नस्स अणगारस्स मासं ..."अण्णायउंछं सुद्धोवहडं निहित्ता बहवे समणनिच्चं वोसट्टकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति, तं माहण-अतिहि-किवण-वणीमगा, कप्पइ से एगस्स भुंजजहा-दिव्वा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा,"अणुलोमा । माणस्स पडिगाहेत्तए, नो दोण्हं नो तिण्हं नो चउण्हं नो ताव वंदेज्जा वा नमसेज्जा वा सक्कारेज्जा वा सम्माणेज्जा वा पंचण्हं. नोगविणीए नो बालवच्छाए नो दारगं पेज्जमाणीए, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेज्जा, तत्थ पडिलोमा नो अंतो एलुयस्स दो वि पाए साहट्ट दलमाणीए नो बाहिं अण्णयरेणं दंडेण वा कसेण वा काए आउडेज्जा-ते सव्वे । एलुयस्स दो वि पाए साहट्ट दलमाणीए। एगं पायं अंतो उप्पण्णे सम्मं सहेज्जा॥ किच्चा एगं पायं बाहिं किच्चा एलुयं विक्खंभइत्ता एवं वइरमज्झण्णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स मासं दलयइ, एवं से कप्पइ पडिगाहेत्तए॥ (व्य १०/३) निच्चं वोसटकाए चत्तदेहे। (व्य १०/२, ४) पडिमापडिवण्ण एस, भगवं अज्ज किर एत्तिया दत्ती। वातिय-पित्तिय-सिंभियरोगातंकेहि तत्थ पुट्ठो वि। आदियति त्ति न नज्जाति, अण्णाउंछं तवो भणितो। न कुणति परिकम्मं सो, किंचि वि वोसट्ठदेहो उ॥ दव्वादभिग्गहो खलु, दव्वे सुद्धंछ मे त्ति या दत्ती। बंधेज्ज व रुंभेज्ज व, कोई व हणेज्ज अधव मारेज्ज। एलुगमेत्तं खेत्ते, गेण्हति ततियाएँ कालम्मि॥ वारेति न सो भगवं, चियत्तदेहो अपडिबद्धो॥ अण्णाउंछं च सुद्धं, पंच काऊण अग्गहं । वासीचंदणकप्यो, जह रुक्खो इय सुहदुक्खसमो उ। दिणे दिणे अभिगेण्हे, तासिमन्नतरी य तु॥ रागहोसविमुक्को, सहती अणुलोमपडिलोमे॥ (व्यभा ३८५४, ३८५५, ३८५७) (व्यभा ३८३९, ३८४१, ३८५१) प्रतिमाप्रतिपन्न अनगार शुद्धोपहृत (एक व्यक्ति के लिए Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा ३८४ आगम विषय कोश-२ उपनीत अलेपकृत)अज्ञात उंछ (भिक्षा) ग्रहण करता है। बहुत से अट्ठअट्ठमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्ठीए राइंदिएहिं श्रमण, माहन, अतिथि, कृपण और वनीपकों के लौट जाने पर, दोहिं य अट्ठासीएहिं भिक्खासएहिं "अणुपालिया भवइ॥ भोजन करते हुए एक व्यक्ति के भोजन में से भिक्षा लेता है, दो, नवनवमिया णं भिक्खुपडिमा एगासीए राइंदिएहिं तीन, चार या पांच के भोजन में से नहीं। चउहि य पंचुत्तरेहिं भिक्खासएहिं."अणुपालिया भवइ॥ वह गर्भवती स्त्री, बालवत्सा और बच्चे को दूध पिलाती दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं राइंदियसएणं स्त्री से भिक्षा नहीं ले सकता। दाता के दोनों पैर देहली के भीतर अद्धछटेहि य भिक्खासएहिं."अणुपालिया भवइ॥ या बाहर न हों, एक पैर भीतर और एक पैर बाहर रखकर देहली (व्य ९/३५-३८) को आक्रांत कर भिक्षा दे, तो ले सकता है। सप्तसप्तमिका (७४७)भिक्षुप्रतिमा उनचास (४९) दिनप्रतिमाप्रतिपन्न आज इतनी दत्तियां ग्रहण करेंगे—यह ज्ञात रात की अवधि में एक सौ छियानवे (१९६) भिक्षादत्तियों से नहीं होता, अतः वह अज्ञातोञ्छ है। उसके चार अभिग्रह हैं यथासूत्र, यथाकल्प, यथामार्ग और यथातत्त्व (सूत्र, कल्प, मार्ग और १. द्रव्य अभिग्रह-सात पिण्डैषणाओं में से प्रथम पांच से ग्रहण नहीं करता। अंतिम दो में से एक दिन में किसी एक से अलेपकृत तत्त्व के अनुसार) सम्यक् प्रकार से काया से आचीर्ण, पालित, शोधित, पूरित, कीर्तित और जिन आज्ञा से अनुपालित की जाती है। भिक्षा ग्रहण करता है। आज मेरे लिए इतनी दत्तियां ग्राह्य हैं-यह अष्टअष्टमिका भिक्षुप्रतिमा चौसठ (८४८-६४) अहोरात्र द्रव्य अभिग्रह है। की अवधि में २८८ भिक्षादत्तियों द्वारा अनुपालित होती है। २. क्षेत्रअभिग्रह-देहली विष्कम्भमात्र क्षेत्र में भिक्षा लेना। नवनवमिका भिक्षुप्रतिमा इक्यासी (९४९-८१) अहोरात्र में ३. काल अभिग्रह-दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षाटन करना। ४. भाव अभिग्रह-अमुक अवस्था में भिक्षा लेना। ४०५ भिक्षादत्तियों से और दसदसमिका भिक्षुप्रतिमा सौ (१०४ १०=१००) अहोरात्र में ५५० भिक्षादत्तियों से आराधित होती है। पुव्वं व चरति तेसिं, नियट्टचारेसु वा अडति पच्छा। जत्थ भवे दोण्णि काला, चरती तत्थ अतिच्छिते॥ ° सप्त • सप्तसप्तमिका : दत्तिपरिमाण में सिंहविक्रम-उपमा नवमासगुव्विणिं खलु, गच्छे वज्जति इतरो सव्वा उ। पढमा सत्तिगा सत्त, पढमे तत्थ सत्तए। खीराहारं गच्छो, वजे तितरो तु सव्वं पि॥ एक्केक्कं गेण्हती भिक्खं, बितिए दोण्णि दोण्णि उ॥ एवमेक्के क्कियं भिक्खं. छब्भेजेक्केक्क सत्तगे। (व्यभा ३८६१, ३८६३) जहां तीन भिक्षाकाल हों, वहां मुनि श्रमणों से पूर्व अथवा गिण्हती अंतिमे जाव, सत्त सत्त दिणे दिणे॥ श्रमणों के लौट जाने के पश्चात भिक्षा के लिए जाता है। जहां दो अहवेक्कक्कियं दत्ती, जा सत्तेक्केक्कसत्तए। भिक्षाकाल हों, वहां श्रमणों के चले जाने पर भिक्षा करता है। आदेसो अस्थि एसो वि, सीहविक्कमसन्निभो॥ (प्रतिमाधारी सर्वत्र दायक व ग्राहक के प्रति अप्रीति का वर्जन (व्यभा ३७८२-३७८४) करते हैं।) गच्छवासी मुनि नवमास वाली गर्भवती स्त्री से भिक्षा प्रथम (सप्तसप्तमिका) प्रतिमा में सात सप्तक (७४७-४९ नहीं लेते। प्रतिमाधारी मुनि किसी भी गर्भवती से भिक्षा नहीं दिन) होते हैं। भिक्षु प्रथम सप्तक में प्रतिदिन एक-एक भिक्षादत्ति लेते। गच्छवासी क्षीराहार बालक का और प्रतिमाधारी मुनि बालकमात्र । ग्रहण करता है। दूसरे सप्तक में प्रतिदिन दो-दो तथा तीसरे आदि का वर्जन करते हैं (उनसे भिक्षा नहीं लेते)। सप्तक में क्रमश: एक-एक की वृद्धि करते हुए सातवें सप्तक में ४. सप्तसप्तमिका आदि भिक्षुप्रतिमाएं सात-सात भिक्षादत्तियां ग्रहण करता है। सत्तसत्तमिया णं भिक्खुपडिमा एगूणपण्णाए राइदिएहिं । अथवा भिक्षादत्तियों की वृद्धि में दूसरा आदेश भी हैएगेण छन्नउएणं भिक्खासएणं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं प्रत्येक सप्तक के प्रथम दिन से आरंभ कर क्रमश: एक-एक की अहातच्चं सम्मं काएण फासिया पालिया सोहिया तीरिया वृद्धि के क्रम से सातवें दिन सात भिक्षादत्तियां ग्रहण करता है। किट्टिया आणाए अणुपालिया भवइ॥ यह आदेश सिंहविक्रम सदृश है। जैसे सिंह चलते-चलते Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३८५ प्रतिमा पुनः-पुनः पीछे की ओर देखता है, वैसे ही प्रत्येक सप्तक में हाथ में या पात्र में प्राप्त भोजन भिक्षा है। वही भिक्षा भिक्षादत्तियां परावर्तित होती हैं। विच्छिन्न रूप में जितनी बार में दी जाती है, उतनी दत्तियां होती हैं। ० दत्तिपरिमाण की करणगाथा, दत्ति-स्वरूप अव्यवच्छिन्न रूप से एक साथ एक बार में एक धार से उद्दिट्ठवग्गदिवसा, य मूलदिणसंजुया दुहा छिन्ना। जितना आहार या जल दिया जाता है, वह एक दत्ति है। इससे इतर मूलेणं संगुणिया, माणं दत्तीण पडिमासु॥ भिक्षा कहलाती है। (व्यभा ३७८६) भिक्षा और दत्ति के चार विकल्प हैंउद्दिष्ट वर्गदिवसों को मल दिनों से संयत कर. तदनन्तर १. एक भिक्षा एक दत्ति-अव्यवच्छिन्न रूप में प्रदत्त भिक्षा। उन्हें द्विधा छिन्न कर मूल दिनों से संगुणित करने पर प्रतिमाओं की। २. एक भिक्षा अनेक दत्तियां-व्यवच्छिन्न रूप में प्रदत्त भिक्षा। भिक्षादत्तियों का परिमाण निकल आता है। यथा ३. अनेक भिक्षा एक दत्ति-अनेक व्यक्तियों के भोजन को एकत्र सप्तसप्तमिकवर्गदिवस ४९ हैं। इनमें मूल सात दिवस मिलाकर अव्यवच्छिन्न रूप में दी जाने वाली भिक्षा। जोड़ने पर ५६ तथा इन्हें आधा करने पर २८ होते हैं। २८ को मूल ४. अनेक भिक्षा अनेक दत्तियां-अनेक व्यक्तियों के भोजन को सप्तक से गुणन करने पर २८४७-१९६ भिक्षादत्तियां होती हैं। एकत्र मिलाकर व्यवच्छिन्न रूप में दी जाने वाली भिक्षा। संखादत्तियस्स णं भिक्खस्स पडिग्गहधारिस्स जावड़यं- ५. मोयप्रतिमा के प्रकार एवं स्वरूप जावइयं केइ अंतो पडिग्गहंसि उवित्ता दलएज्जा तावड़याओ दो पडिमाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-खुड्डिया चेव ताओ दत्तीओ वत्तव्वं सिया, तत्थ से केइ छव्वेण वा दूसएण मोयपडिमा महल्लिया चेव मोयपडिमा॥ वा वालएण वा अंतो पडिग्गहंसि उवित्ता दलएज्जा, सव्वा i मोयपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स कप्पड़ वि णं सा एगा दत्ती "तत्थ से बहवे भुंजमाणा सव्वे ते सयं से पढमसरदकालसमयंसि वा चरिमनिदाहकालसमयंसि वा पिंडं अंतो पडिग्गहंसि उवित्ता दलएज्जा, सव्वा वि णं सा बहिया गामस्स वा जाव सन्निवेसस्स वा वणंसि वा वणएगा दत्ती"॥ (व्य ९/४२) विदुग्गंसि वा पव्वयंसिवा पव्वयविदग्गंसिवा।भोच्चा आरुभड हत्थेण व मत्तेण व, भिक्खा होति समजता। चोदसमेणं पारेइ।अभोच्चा आरुभइ सोलसमेणं पारे॥ दत्तिओ जत्तिए वारे, खिवंति होंति तत्तिया॥ महल्लियण्णं मोयपडिम पडिवन्नस्स अणगारस्स...." अव्वोच्छिन्ननिवाताओ, दत्ती होति उ वेतरा। भोच्चा आरुभइ सोलसमेणं पारेइ।अभोच्चा आरुभइ अट्ठारएगाणेगासु चत्तारि, विभागा भिक्खदत्तिसु॥ समेणं पारेइ॥ __ (व्य ९/३९-४१) एगा भिक्खा एगा, दत्ति एग भिक्खऽणेग दत्ती उ। ___ मोयप्रतिमा के दो प्रकार हैं-क्षुल्लिकामोयप्रतिमा (लघु णेगातो वि य एगा, णेगाओ चेव णेगाओ॥ प्रस्रवणप्रतिमा) और महती मोयप्रतिमा। (व्यभा ३८११-३८१३) क्षुल्लिकामोयप्रतिमाप्रतिपन्न अनगार प्रथम शरदकाल अथवा संख्यादत्तिक (दत्तियों की संख्या का अभिग्रह करने वाले) चरम निदाघकाल में गांव यावत् सन्निवेश के बाहर, वन, वनविदुर्ग, पात्रधारी भिक्षु को कोई गृहस्थ जितनी बार झुकाकर पात्र में भिक्षा पर्वत या पर्वतविदुर्ग में रहता है। यह प्रतिमा खाकर प्रारंभ की देता है, उतनी दत्तियां होती हैं। कोई दाता भिक्षपात्र में टोकरी. जाती है तो छह दिन के उपवास वस्त्र या बालों से बनाए हुए साधन से एक बार में एक साथ जितनी सात दिन के उपवास से पूर्ण होती है। भिक्षा देता है, वह सारी एक दत्ति होती है। महती प्रस्रवणप्रतिमा की विधि क्षल्लिकाप्रस्रवण प्रतिमा के खाने वाले व्यक्ति बहत हैं, वे अपने-अपने भोजन में से समान ही है। केवल इतना अन्तर है कि जब वह खाकर आरंभ निकालकर इकट्ठा कर एक बार में एक साथ जितना पिंड देते हैं, की जाती है, तब सात दिन के उपवास से, अन्यथा आठ दिन के वह सब एक दत्ति है। उपवास से पूर्ण होती है। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा ३८६ . ३८६ . . आगम विषय कोश-२ सव्वाओ पडिमाओ, साधुं मोयंति पावकम्मेहिं। कमेण हायमाणी तु, अंतिमे होति वा न वा। एतेण मोयपडिमा, अधिगारो इह तु मोएणं॥ पडिणीयऽणुकंपा वा, मोयं वद्धंति गुज्झगा केई। मोकापरित्यागप्रधाना प्रतिमा मोकप्रतिमा। बीजादिजुतं जं वा, विवरीयं उज्झए सव्वं॥ (व्यभा ३७९० वृ) (व्यभा ३७९४-३७९९) यद्यपि सब प्रतिमाएं साधु को पापकर्म से मुक्त करती हैं, मोयप्रतिमाप्रतिपन्न भिक्षु स्वाभाविक और अस्वाभाविक अतः मोचा-मोका हैं, किन्तु मोक (कायिकी) पान की प्रधानता प्रस्रवण को जानता है। वह दिन में समागत, प्राण, बीज (वीर्य), के कारण इसे मोय/मोकप्रतिमा कहा गया है। सस्निग्ध और सरजस्क से रहित स्वाभाविक प्रस्रवण पीता है, इसके विपरीत नहीं पीता। अल्प या बहुत, दिन में जितनी बार । ० मोयप्रतिमा प्रतिपत्ति की विधि जितना प्रस्रवण होता है, उतना सब पीता है। निसज्जं चोलपढें, कप्पं घेत्तूण मत्तगं चेव। . प्राण-कमिसंकुल उदर में कृमिरूप प्राणी होते हैं। वे कृमि एगते पडिवज्जति, काऊण दिसाण वालोयं॥ उष्णता से अभितप्त हो कायिकी के साथ बाहर आ जायें तो छाया (व्यभा ३७९२) में उनका विसर्जन करे। मोयप्रतिमा स्वीकार करने वाला भिक्ष निषद्या. चोलपट ०बीज-सस्निग्ध-शुष्क शुक्र पुद्गल बीज और चिकने शुक्र कल्प और कायिकीमात्रक लेकर गांव आदि के बाहर जाता है। पुद्गल सस्निग्ध कहलाते हैं। शरीर के शिथिल होने पर, तपस्या वहां जाकर एकांत में प्रतिमा स्वीकार करता है। मात्रक में प्रस्रवण और उष्णता से संतप्त होने पर शुक्र पुद्गल गिरने लगते हैं। सबीज का व्यत्सर्ग कर दिशा का अवलोकन करता है, अनापात और प्रस्रवण पेय नहीं होता। असंलोक स्थान में प्रस्रवणपान करता है। यद्यपि वह अपने ज्ञानातिशय सरजस्क-प्रमेहकणों को आचार्यों ने सरजस्काधिराज कहा है। (अतिशयज्ञान) से जान लेता है कि यहां कोई गृहस्थ है या नहीं, उसका पान दोषकारक होता है, उससे रोगमुक्ति नहीं होती। फिर भी सामाचारी पालन के लिए दिशावलोकन करता है। प्रतिमा के प्रारम्भिक दिनों में प्रस्रवण की मात्रा अधिक होती है। वह क्रमशः कम होती हुई अंतिम दिन में होती भी है या ० मोय ( पेय प्रस्त्रवण) का स्वरूप नहीं भी होती। कभी कोई प्रत्यनीक या अनुकम्पक गुह्यक देव __ ""जाए मोए आईयब्वे, दिया आगच्छइ आईयव्वे, राई प्रस्रवण की मात्रा को बढ़ा देता है अथवा बीज आदि से संसक्त आगच्छइ नो आईयव्वे,.."अप्पाणे ..."अबीए."अससणिद्धे कर देता है। वह प्रस्रवण स्वाभाविक नहीं होता, अत: त्याज्य है। ....."अससरक्खे आगच्छड आईयव्वे। जाए मोए आईयव्वे, तं मोयपतिमा की द्रव्य आदि से मार्गणा जहा-अप्पे वा बहुए वा. (व्य ९/४०) दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य होति सा चउविगप्पा। साभावियं च मोयं, जाणति जं वावि होति विवरीयं। दव्वे तु होति मोयं, खेत्ते गामाइयाण बहिं । पाण-बीय ससणिद्धं, सरक्खाधिराय न पिएज्जा॥ काले दिया व रातो, भावे साभावियं व इतरं वा।... किमिकुटे सिया पाणा, ते य उण्हाभिताविया। (व्यभा ३८००, ३८०१) मोएण सद्धि एज्जण्हु, निसिरेते तु छाहिए॥ मोयप्रतिमा के चार विकल्प हैंबीयं तु पोग्गला सुक्का, ससणिद्धा तु चिक्कणा। द्रव्यत:-प्रस्रवण । क्षेत्रत:-गांव आदि के बाहर। कालत:-दिन पडंति सिथिले देहे, खमणुण्हाभिताविया॥ और रात्रि। भावतः-स्वाभाविक और विकृत । पमेहकणियाओ य, सरक्खं पाहु सूरयो। ० मोयप्रतिमा और संहनन । सो उ दोसकरो वुत्तो, तं च कजं न साधए॥ ....न हु रोगि बलिस्स वा एसा॥ बहुगी होति मत्ताओ, आइल्लेसु दिणेसु तु। ...."संघयणधितीजुत्तो, फासयती दो वि एयाओ॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश--२ ३८७ प्रतिसेवना आद्यसंहननत्रयोऽन्यतमसंहननयुक्तो धृत्या च वज्रकुड्य- . सातवें सप्ताह में मधुर दही में थोड़ा सा उष्णोदक मिलाकर समानः। (व्यभा 3/12 (व्यभा ३८०८, ३८०९ वृ) उसके साथ चावल। प्रतिमासाधक रोगी नहीं होता। अथवा बलवान ही इन्हें आठवें सप्ताह में मधुर दही अथवा अन्य जषों के साथ चावल। ग्रहण करता है। वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच अथवा नाराच संहनन अन्य सात सप्ताह तक रोग के प्रतिकूल न हो, वैसा भोजन वाला और वज्रकुड्य के समान धुति वाला भिक्षु ही इन दोनों दही के साथ किया जा सकता है। प्रस्रवणप्रतिमाओं को स्वीकार कर सकता है। ६. भद्रा-महाभद्रा-प्रतिमा ० मोयप्रतिमासिद्धि की निष्पत्ति ."पडिमा.."मासाई जा य सेसाओ। ..."सिद्धाए पडिमाए, कम्मविमुक्को हवति सिद्धो॥ 'शेषाः' भद्र-महाभद्रादिकाः प्रतिमाः। (बृभा १३९८ वृ) देवो महिड्डिओ वावि, रोगातोऽहव मुच्चती। प्रतिमा के अनेक प्रकार हैं-भिक्षु की मासिकी आदि जायती कणगवण्णो उ, .......॥ प्रतिमा, भद्र-प्रतिमा, महाभद्र-प्रतिमा आदि। (व्यभा ३८०१, ३८०२) भिक्षुप्रातमा, उपासकप्रातमा . द्र संबद्ध नाम मोयप्रतिमा सिद्ध होने पर वह कर्ममक्त होकर सिद्ध हो (भगवान् महावीर ने भद्रा, महाभद्रा और सर्वतोभद्रा प्रतिमा जाता है। अथवा मृत्यु के बाद महर्द्धिक देव बनता है। अथवा वह । की साधना की थी।-श्रीआको १ तीर्थंकर) रोग से मुक्त हो जाता है। उसका शरीर कनकवर्ण हो जाता है। प्रतिलेखना-वस्त्र, पात्र, स्थान आदि का यथासमय विधिपूर्वक • मोयप्रतिमा पूर्ण होने पर आहारविधि अवलोकन करना। ओदणं उसिणोदेणं, दिणे सत्त उ भुंजिउं। (शरीर, उपकरण, स्थण्डिल और मार्ग प्रतिलेखनीय हैं। जसमंडेण वा अन्ने, दिणे जावेति सत्त उ॥ वस्त्रप्रतिलेखना के पच्चीस प्रकार हैं, आठ विकल्प हैं, आरभटा मधरोल्लेण थोवेण, मीसे तइय सत्तए। आदि छह दोष हैं।- श्रीआको १ प्रतिलेखना) तिभागद्धजतं . चेव, तिभागो थोवमीसिय॥ * पतिलेखना काल द्र स्थविरकल्प मधरेण य सत्तन्ने, भावेत्ता उल्लणादिणा। * कालप्रतिलेखना द्र स्वाध्याय दधिगादीण भावेत्ता, ताहे वा सत्त सत्तए॥ द्र क्षेत्रप्रतिलेखना (व्यभा ३८०४-३८०६) भिक्षु मोयप्रतिमा पालन के पश्चात् उपाश्रय में आ जाता है। प्रतिसेवना-दोषाचरण, अकल्पनीय का समाचरण । उसकी आहार-ग्रहण की प्रक्रिया इस प्रकार निर्दिष्ट है १. प्रतिसेवना का स्वरूप ० प्रथम सप्ताह में गर्म पानी के साथ चावल। २. प्रतिसेवना के दो प्रकार, तीन रूप ० दूसरे सप्ताह में यूष-मांड। ३. मूलगुण-उत्तरगुण-प्रतिसेवना : अतिक्रम"संरंभ ० तीसरे सप्ताह में त्रिभाग उष्णोदक और थोड़े से मधुर दही के ४. प्रतिसेवना के चार प्रकार साथ चावल। ५. कल्प प्रतिसेवना के स्थान : अपवादपद ० चतुर्थ सप्ताह में दो भाग उष्णोदक और तीन भाग मधुर दही के * अपवादसेवन का नियामक तत्त्व साथ चावल। ६. दर्प और कल्प प्रतिसेवना के प्रकार ७. परिग्रह दर्पिका-कल्पिका प्रतिसेवना ० पांचवें सप्ताह में अर्ध भाग उष्णोदक और अर्ध भाग मधुर दही ८. मिश्र प्रतिसेवना और उसके प्रकार के साथ चावल। | ९. दर्पिका और कल्पिका में अन्तर ० छठे सप्ताह में त्रिभाग उष्णोदक और दो भाग मधर दही के १०. आज्ञा व्यवहार : गूढ़पदों में प्रतिसेवना-प्रायश्चित्त-कथन साथ चावल। ho सूत्र Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिसेवना ११. शठ-अशठ भाव से प्रतिसेवना १२. विराधना या प्रतिसेवना का हेतु १३. प्रतिसेवना और कर्म • अप्रतिसेवी दृढधर्मी १४. कल्पिका प्रतिसेवना भी सावद्य * अतिचार: ज्ञान..' चारित्र और भाव १५. बकुश - प्रतिसेवना और सचारित्र तीर्थ * प्रतिसेवना : आरोपणा का एक भेद * प्रतिसेवना पारांचित के प्रकार * निरंतर प्रतिसेवी और कृतिकर्म द्र आचार द्र प्रायश्चित्त द्र पारांचित द्र कृतिकर्म १. प्रतिसेवना का स्वरूप पडिसेवणा तु भावो, सो पुण कुसलो व होज्जऽकुसलो वा । कुसलेण होति कप्पो, अकुसलपरिणामतो दप्पो ॥ (व्यभा ३९ ) प्रतिसेवना जीव का परिणाम है। वह परिणाम कुशल (ज्ञान आदि) और अकुशल (अविरति आदि) दोनों प्रकार का हो सकता है। कुशल परिणाम से की गई प्रतिसेवना कल्पिका और अकुशल परिणाम से की गई प्रतिसेवना दर्पिका कहलाती है। २. प्रतिसेवना के दो प्रकार, तीन रूप दप्पे सकारणमि य, दुविधा पडिसेवणा समासेणं । एक्केक्का वि य दुविधा, मूलगुणे उत्तरगुणे य॥ ( निभा ८८ ) प्रतिसेवना के दो प्रकार हैं १. दर्प प्रतिसेवना-राग-द्वेष की प्रेरणा से निष्कारण की जाने वाली । २. कल्प प्रतिसेवना - विशेष परिस्थितिवश की जाने वाली । प्रत्येक के दो प्रकार हैं- मूलगुण और उत्तरगुण प्रतिसेवना । जेण मुसावाएण अभिहिण पारंचियं भवति एस उक्कोसो मुसावाओ, जेण पुण दसराइंदियाति जाव अणवट्ठ एस मज्झिमो, जेण पंचराइंदियाणि एस जहण्णो । (निभा ८९ की चू) मूलगुण प्रतिसेवना के तीन रूप हैं ० उत्कृष्ट - यथा - जिस मृषावाद से पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त हो । ० मध्यम - जिससे दस अहोरात्रिक यावत् अनवस्थाप्य प्राप्त हो । ० जघन्य - जिस प्रतिसेवना से पांच अहोरात्र का प्रायश्चित्त प्राप्त हो । आगम विषय कोश- २ ३. मूलगुण- उत्तरगुण-प्रतिसेवना : अतिक्रम'''''संरंभ''''' मूलगुण- उत्तरगुणे, दुविहा पडिसेवणा समासेणं । मूलगुणे पंचविहा पिंडविसोहादिया इयरा ॥ सा पुण अइक्कम वइक्कमे य अतियार तह अणायारे । संरंभ समारंभे, आरंभे रागदोसादी ॥ आधाकम्मनिमंतण, पडिसुणमाणे अतिक्कमो होति । पदभेदादि वतिक्कम, गहिते ततिएतरो गिलिए ॥ संकप्पो संरंभो, परितावकरो भवे समारंभो । उद्दवतो, आरंभो ************ || ३८८ उत्तरगुणप्रतिसेवना अतिक्रमादिभेदतश्चतुःप्रकारा, मूलगुणप्रतिसेवना संरंभादिभेदतस्त्रिप्रकारा । (व्यभा ४१-४३, ४६ वृ) संक्षेप में प्रतिसेवना दो प्रकार की है-मूलगुण विषयक प्रतिसेवना और उत्तरगुणविषयक प्रतिसेवना । मूलगुण विषयक प्रतिसेवना पांच प्रकार की है- प्राणातिपात आदि । पिंडविशोधि आदि उत्तरगुणविषयक प्रतिसेवना है, जो अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार के भेद से चार प्रकार की है। आधाकर्म आहार का निमंत्रण स्वीकार करना अतिक्रम है। उसके लिए प्रस्थान करना ( यावत् घर में प्रवेश कर पात्र फैलाना) व्यतिक्रम है । उसे ग्रहण करना ( यावत् मुंह में डालना) अतिचार और निगल जाना अनाचार है। मूलगुण प्रतिसेवना के तीन प्रकार हैं- संरंभ, समारंभ और आरंभ। संरंभ आदि के हेतु हैं-राग-द्वेष और अज्ञान । प्राणातिपात आदि का संकल्प संरंभ, दूसरे को परितप्त करने वाला व्यापार समारंभ और प्राणव्यपरोपण करना आरंभ है। ४. प्रतिसेवना के चार प्रकार दप्पे कप्प - पत्ताणा भोग आहच्चतो य चरिमा तु । ... एसेव चतुह पडिसेवणा तु संखेवतो भवे दुविधा । दप्पो तु जो पमादो, कप्पो पुण अप्पमत्तस्स ॥ णय सव्वो विपत्तो, आवज्जति तध वि सो भवे वधओ । जह अप्पमादसहिओ, आवण्णो वी अवहओ उ ॥ ....... सा तु अणाभोगेणं, सहसक्कारेण वा होज्जा ॥ अण्णतरपमादेणं, असंपउत्तस्स गोवउत्तस्स । होतणाभोगो ॥ यादिसु भूतत्थेसु अवट्टतो Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३८९ प्रतिसेवना पुव्वं अपासिऊणं, छूढे पादंमि जं पुणो पासे। होने पर भी प्रमाद के कारण वह वधक होता है। ण य तरति णियत्तेउं पादं सहसाकरणमेतं॥ पांच समितियों से समित गुणसम्पन्न मुनि जब कायिक पंचसमितस्स मुणिणो, आसज्ज विराहणा जदि हवेज्जा। प्रवृत्ति करता है, तब विस्मृति से या सहसा उसके द्वारा यदि प्राणी रीयंतस्स गुणवओ, सुव्वत्तमबंधओ सो उ॥ की विराधना हो जाती है, तो भी वह स्पष्टतः अबंधक है। कसाय-विकहा-वियडे, इंदिय-णिद्द-पमायपंचविहे।... प्रमाद प्रतिसेवना के पांच प्रकार हैं-कषाय, विकथा, मद्य, जा सा अपमत्तपडिसेवा सा दुविहा-अणाभोगा इन्द्रिय और निद्रा प्रमाद। आहच्चओ य। चरिमा णाम अप्पमत्तपडिसेवा। अतिवात- ५. कल्प प्रतिसेवना के स्थान : अपवादपद लक्खणो दप्पो।अनुपयोगलक्खणो प्रमादः।"कारणावेक्ख जे सुत्ते अवराहा, पडिकुट्ठा ओहओ य सुत्तत्थे। अकप्पसेवणा कप्यो। उवओगपुव्वकरणक्रियालक्खणो कप्पंति कप्पियपदे, मूलगुणे उत्तरगुणे य॥ अप्रमादः।"""अणाभोगो णाम अत्यंतविस्मृतिः। भूयत्थो हत्थादिवातणंतं, सुत्तं ओहो तु पेढिया होति। णाम विआर-विहार-संथार-भिक्खादि संजमसाहिका किरिया।। विधिसुत्तं वा ओहो, जं वा ओहे समोतरति॥ (निभा ९०-९२, ९५-९७, १०३, १०४ चू) ___.."ओहो निसीहपेढिया, तत्थ जे गाहासुत्तेण वा अत्थेण प्रतिसेवना के चार प्रकार हैं-दर्पप्रतिसेवना, कल्पप्रतिसेवना, वा अत्था पडिसेधिता। सामातियादिविधिसुत्तं भण्णति, तत्थ प्रमत्तप्रतिसेवना और अप्रमत्तप्रतिसेवना। जे अत्था पडिसिद्धा।"उस्सग्गो ओहो त्ति वुत्तं भवति। तत्थ अप्रमत्त प्रतिसेवना के दो प्रकार हैं सव्वं कालियसुत्तं ओयरति। एयम्मि ओहे जे अत्था.... ० अनाभोग प्रतिसेवना-जो कषाय, विकथा आदि किसी भी णिवारिया ते 'कप्पंति' कप्पियाए, ते अववायपदेत्यर्थः । प्रकार के प्रमाद में सम्प्रयुक्त नहीं है तथा भूतार्थ-विचारभूमिगमन, (निभा ४६१, ४६२ चू) विहार. संस्तारक. भिक्षा आदि संयमसाधिका क्रियाओं को करता निशीथ के प्रथम उन्नीस उद्देशकों के हस्तकर्म (नि १/१) हुआ प्राणातिपात नहीं करता है किन्तु ईर्या आदि समितियों में से वाचनापर्यंत (नि १९/३७) सत्रों में निशीथपीठिका के गाथासत्रों अत्यंत विस्मति के कारण उपयुक्त नहीं है-यह अनाभोग या अर्थों में सामायिक आदि विधिसत्रों में तथा ओघसत्रोंप्रतिसेवना है। यद्यपि इसमें प्राणातिपात नहीं होता, फिर भी उत्सर्गविधिप्ररूपक कालिकसूत्रों में जिन अपराधपदों का प्रतिषेध अनुपयुक्तभाव के कारण यह प्रतिसेवना है। किया गया है, उनका प्रशस्त आलंबनपूर्वक आचरण करना कल्प० सहसाकार प्रतिसेवना-मुनि ने पहले चक्षु से स्थान की प्रतिलेखना प्रतिसेवना है और वह अपवादमार्ग है। अपवादपद मूलगुणों और की, उस समय वहां कोई प्राणी नहीं था। पैर रखते समय पूर्व उत्तरगुणों से संबंधित हैं। प्रतिलेखित स्थान पर प्राणी को देखता है किन्तु वह पैर को ऊपर । ६.दर्प और कल्प प्रतिसेवना के प्रकार रखने में असमर्थ है, तब वह जानता हुआ भी परवशता के कारण दप्प अकप्प निरालंब, चियत्ते अप्पसत्थ वीसत्थे। उस प्राणी पर पैर रख देता है-यह सहसाकार प्रतिसेवना है। अपरिच्छ अकडजोगी, अणाणुतावी य णिस्संको॥ संक्षेप में प्रतिसेवना के दो ही भेद हैं दंसण-नाण-चरित्ते, तव-पवयण-समिति-गुत्तिहेउं वा। १. प्रमत्त की दर्पप्रतिसेवना। २. अप्रमत्त की कल्पप्रतिसेवना साहम्मियवच्छल्लेण वावि कुलतो गणस्सेव॥ ___ दर्प का लक्षण है-निष्कारण सावध प्रवृत्ति। कल्प का । संघस्सायरियस्स य, असहुस्स गिलाण-बालवुड्डस्स। लक्षण है-सकारण सावध प्रवृत्ति । प्रमाद का लक्षण अनुपयोगयुक्त उदयग्गि-चोर-सावय, भय-कंतारावती वसणे॥ प्रवृत्ति और अप्रमाद का लक्षण उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति है। एयऽन्नतरागाढे, सदसणे नाण-चरण-सालंबो। जैसे अप्रमत्त मुनि द्वारा प्राणवध होने पर भी वह अप्रमाद पडिसेविउं कयाई, होति समत्थो पसत्थेसु॥ के कारण अवधक होता है, वैसे ही प्रमत्त मुनि द्वारा प्राणातिपात न (व्यभा ४४६२, ४४६४-४४६६) Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिसेवना वायामवग्गणादी, णिक्कारणधावणं तु दप्पो तु । कायापरिणयगहणं, अकप्पो जं वा अगीतेणं ॥ णिक्कारणपडिसेवा, अपसत्थालंबणा य जा सेवा । ''''' जं सेवितं तु बितियं, गेलण्णाइसु असंथरंतेणं । हट्ठो वि पुणो तं, चिय चियत्तकिच्चो णिसेवंतो ॥ ......जो अविसुद्धं, णिसेवते वण्णमादट्ठा ॥ .....परपक्खे सपक्खे वा वीसत्था सेवगमलज्जे ॥ अपरिक्खिमायवए, णिसेवमाणो तु होति अपरिच्छं । तिगुणं जोगमकातुं बितियासेवी अकडजोगी ॥ ( निभा ४६४, ४६७-४७१) ........पवयणे, विहुस्स विउव्वणा चेव ॥ जहा विण्हुअणगारो, तेण रुसिएण लक्खजोयणप्पमाणं विगव्वियं रूवं (निभा ४८७ चू) ***** I ० दर्प प्रतिसेवना – इसके दस प्रकार हैं १. दर्प- निष्कारण व्यायाम, वल्गन, धावन आदि करना । २. अकल्प - सचित्त पृथ्वी आदि का ग्रहण, अगीतार्थ द्वारा आनीत उपधि, आहार आदि का उपभोग । ३. निरालंब- निष्कारण और अप्रशस्त आलंबन से प्रतिसेवना करना । ४. त्यक्तकृत्य-ग्लान आदि अवस्था में अपेक्षा होने पर जिसका सेवन किया, स्वस्थ होने के बाद भी उसका सेवन करना । ५. अप्रशस्त - बल, वर्ण आदि के निमित्त प्रतिसेवना करना । ६. विश्वस्त - अकृत्य कर स्वपक्ष-परपक्ष से लज्जित नहीं होना । ७. अपरीक्ष्य - लाभ-हानि की परीक्षा किए बिना प्रतिसेवना करना । ८. अकृतयोगी - तीन बार गवेषणा किए बिना, प्रथम बार या दूसरी बार में ही अनेषणीय का ग्रहण करना । ९. अननुतापी - दोषाचरण करके भी पश्चात्ताप न करना । १०. निःशंक - निर्भय होकर प्रतिसेवना करना । ० कल्पप्रतिसेवना- इसके चौबीस प्रकार हैं १. दर्शन - दर्शनप्रभावक ग्रंथों का अध्ययन करते समय अपेक्षा होने पर प्रतिसेवना करना। २. ज्ञान - सूत्र - अर्थ का अध्ययन करते समय प्रतिसेवना करना । ३. चारित्र - अनेषणा आदि दोषों से चारित्र की रक्षा के लिए अन्यत्र गमन-काल में की जाने वाली प्रतिसेवना । ३९० ४. तप - विकृष्टतप हेतु घृतपान आदि करना । ५. प्रवचन-- शासन रक्षा हित प्रतिसेवना करना । जैसे विष्णु अनगार ने एक लाख योजन की विक्रिया की । ६. समिति - ईर्यासमिति आदि की रक्षा के लिए आंख की सावद्य चिकित्सा करवाना आदि । ७. गुप्ति - मनोगुप्ति आदि की रक्षा हेतु अकल्प्य सेवन । ८-१६. साधर्मिक वात्सल्य, कुलकार्य, गणकार्य, संघकार्य तथा आचार्य, असहिष्णु, ग्लान, बालदीक्षित एवं वृद्धदीक्षित की समाधि - इन निमित्तों से वशीकरण, मंत्र, निमित्त आदि का प्रयोग आगम विषय कोश- २ करना । १७- २४, जल, अग्नि, चोर, श्वापद म्लेच्छभय, अटवीमार्ग, विपदा (द्रव्य आदि का अभाव ), व्यसन - इन कारणों से बचने के लिए यतना से प्रतिसेवना करना । ज्ञान-दर्शन- चारित्र के आलम्बन से, आगाढ कारण उत्पन्न होने पर अकल्प की प्रतिसेवना करने वाला कदाचित् प्रशस्त प्रयोजन सम्पादित करने में समर्थ हो जाता है, इस कारण से यह कल्पका प्रतिसेवना है ७. परिग्रह दर्पिका -कल्पिका प्रतिसेवना सुहुमो य बादरो य, दुविहो लोउत्तरो समासेणं । कागादि साण गोणे, कप्पट्ठग रक्खण ममत्ते ॥ सेहादी पडिकुट्ठो, सच्चित्ते अणेसणादि अच्चित्ते । ओरालिए हिरण्णे, छक्काय परिग्गहे जं च ॥ "वत्थादिगतं ण गणेंति ॥ ओगासे संथारो, उवस्सय-कुल- गाम-नगर-देस- रज्जे य।'' कालादीते काले, कालविवच्चास कालतो अकाले । ...... भावमि रागदोसा, उवधीमादी ममत्त णिक्खित्ते ।..... ( निभा ३८०, ३८१, ३८५ - ३८८ ) परिग्रह दर्पिका प्रतिसेवना के दो प्रकार हैं १. सूक्ष्म परिग्रह - ईषद् ममत्वभाव । २. बादर परिग्रह - तीव्र ममत्वभाव । उ अथवा परिग्रहप्रतिसेवना के चार प्रकार हैंद्रव्य परिग्रह - आहार आदि के पास आने पर या स्वयं को काटने पर कौओं, कुत्तों, शृगाल, बैल आदि को हटाना। बच्चों की रखवाली करना, स्वजन आदि पर ममत्व करना । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३९१ प्रतिसेवना प्रतिषिद्ध अयोग्य व्यक्ति को प्रव्रजित करना, अनाभाव्य (अनधिकृत) व्यक्ति को दीक्षित करना, अनेषणीय अचित्त वस्तु ग्रहण करना, सोने के आभूषण या सोना आदि लेना, छह जीवनिकाय ग्रहण करना परिग्रह है। वस्त्र आदि धर्मोपकरण परिग्रह नहीं माने जाते। महामूल्यवान् और मर्यादा से अतिरिक्त ग्रहण करना तथा मूर्छा से उनका परिभोग करना परिग्रह है। ० क्षेत्र परिग्रह-उपाश्रय, उसका रमणीय एवं वायुप्रधान भाग, संस्तारक भूमि, कुल, ग्राम, नगर, देश (सिंधु, सौराष्ट्र आदि), राज्य-इन क्षेत्रों में ममत्व करना। ० काल परिग्रह-मर्यादा से अधिक समय तक एक स्थान में रहना, काल-विपर्यास करना (दिन में विहार नहीं करना, रात्रि में करना), काल से अकाल (वर्षाकाल) में विहार करना। ० भाव परिग्रह-उपधि आदि पर ममत्व करना, चोर के भय से उपधि को छिपाकर रखना। राग-द्वेष से भाव परिग्रह होता है। अणभोगा अतिरित्तं, वसेज्ज अतरंतो तप्पडियरा वा... सप्पडियरो परिणी, वास तदद्वा व गम्मते वासे।.... (निभा ४०४, ४०६) परिग्रह कल्पिका प्रतिसेवना के अनेक कारण हैं, जैसे० अनाभोग-अत्यंत विस्मृति या अनुपयोग के कारण एक स्थान पर सीमा से अधिक रहना। ग्लान लान में विहार करने का सामर्थ्य न होना। रोगी के परिचारकों का अतिरिक्त रहना आदि। ० उत्तमार्थ-अनशनधारी और उसका वैयावृत्त्य करने वाले एक स्थान पर अतिरिक्त काल तक रह सकते हैं अथवा उसकी परिचर्या हेतु वर्षाकाल में भी अन्यत्र जा सकते हैं। ८. मिश्र प्रतिसेवना और उसके प्रकार सालंबो सावज, णिसेवते णाणुतप्यते पच्छा। जं वा पमादसहिओ, एसा मीसा तु पडिसेवा॥ दप्पपमादाणाभोगा आतुरे आवतीसु य। या तिंतिणे सहसक्कारे, भयप्पदोसा य वीमंसा॥ (निभा ४७५, ४७७) ज्ञान आदि का प्रशस्त आलम्बन लेकर जो सावद्य आचरण करता है, किन्तु उसका पश्चात्ताप नहीं करता—यह मिश्र प्रतिसेवना है। इसमें सालंब पद शुद्ध और अननुतापी पद अशुद्ध है। किसी प्रमाद से जो प्रतिसेवना की जाती है, वह अशुद्ध है और उसका अनुताप कर लिया जाता है, वह शुद्ध है। इस प्रकार पश्चात्तापयुक्त प्रमादप्रतिसेवना भी मिश्र प्रतिसेवना है। मिश्र प्रतिसेवना के दस प्रकार हैं-दर्प, प्रमाद, अनाभोग, आतुर, आपद, तिंतिण, सहसाकार, भय, प्रद्वेष और विमर्श (परीक्षा)। ० दर्प-निष्कारण प्रतिसेवना करना। . प्रमाद और अनाभोग के कारण प्रतिसेवना करना। ० आतुर-क्षुधा-पिपासा-परीषह से अथवा ज्वर, श्वास आदि से बाधित होने पर की जाने वाली प्रतिसेवना। . आपद्-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव संबंधी आपदा में शुद्ध द्रव्य आदि के प्राप्त न होने पर की जाने वाली प्रतिसेवना। तिंतिण-पदार्थ की अप्राप्ति पर असंतोष तिनतिनाहट कर की जाने वाली प्रतिसेवना। ० सहसाकार-सहसा अयतना से होने वाली प्रतिसेवना। ० भय-राजा के भय से निषिद्ध कार्य करना। सिंह आदि के भय से वृक्ष पर चढ़ जाना आदि। ० प्रद्वेष-कषायों के वशीभूत होकर की जाने वाली प्रतिसेवना। विमर्श-परीक्षा के निमित्त की जाने वाली प्रतिसेवना। . इसमें जो पश्चात्तापरहित सालंब प्रतिसेवना है या पश्चात्तापसाहत प्रमाद प्रातसवना है, वह मिश्र प्रातसवना है। ९.दर्पिका और कल्पिका में अन्तर रागद्दोसाणुगता तु, दप्पिया कप्पिया तु तदभावा। आराधतो तु कप्पे, विराधतो होति दप्पेणं॥ (निभा ३६३) ० दर्पिका-यह प्रतिसेवना राग-द्वेष से अनुगत है, निष्कारण की जाती है। इसका प्रतिसेवी विराधक (आचारविनाशक) होता है। ० कल्पिका-इस प्रतिसेवना में राग-द्वेष का अभाव होता है। यह सप्रयोजन की जाती है। इसका प्रतिसेवी आराधक होता है। कज्जाकज्ज जताजत, अविजाणतो अगीतो जं सेवे। सो होति तस्स दप्पो, गीते दप्पाऽजते दोसा॥ __ (व्यभा १७१) अगीतार्थ कार्य-अकार्य तथा यतना-अयतना को नहीं जानता Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिसेवना ३९२ आगम विषय कोश-२ हआ जो प्रतिसेवना करता है, वह उसकी दर्पिका प्रतिसेवना है। के अनुरूप कृष्ण (गुरु) मासिक, चातुर्मासिक या पाण्मासिक तप गीतार्थ भी दर्पिका अथवा अयतना से कल्पिका प्रतिसेवना करता है करो-यह उद्घात-अनुद्घात (लघु-गुरु) प्रायश्चित्त है। तो वह भी प्रायश्चित्त का भागी होता है। ११. शठ-अशठ भाव से प्रतिसेवना १०. गूढ़ पदों में प्रतिसेवना-प्रायश्चित्त-कथन कप्पम्मि अकप्पम्मिय, जो पुण अविणिच्छितो अकजंपि। पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा। कजमिति सेवमाणो, अदोसवं सो असढभावो॥ पढमे छक्के अभितरं त पढमं भवे ठाणं॥ जं वा दोसमजाणतो, हेहंभूतो निसेवती। बितियस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। होज्ज निद्दोसवं केण, विजाणतो तमायरं॥ पढमे छक्के अळिभतरं तु पढमं भवे ठाणं॥ (व्यभा १७४, १७५) पढमं कजं नामं, निक्कारणदप्यतो पढमं पदं। जो निश्चय नहीं कर पाता कि यह कल्प्य है या अकल्प्य, पढमे छक्के पढम, पाणऽइवाओ मुणेयव्वो॥ वह अकल्प्य का कल्पिक बुद्धि से सेवन करता हुआ भी दोष का एवं तु मुसावाओ, अदिन्न-मेहुण-परिग्गहे चेव। भागी नहीं होता। इसका हेतु है उसका अशठभाव बिति छक्के पुढवादी, तति छक्के होयऽकप्पादी॥ पढमस्स य कजस्सा, दसविहमालोयणं निसामेत्ता। (. समियं ति मण्णमाणस्स समिया वा असमिया नक्खत्ते भे पीला, सुक्के मासं तवं कुणसु॥ वा, समिया होइ उवेहाए।-आयारो ५/९६ एवं ता उग्घाए, अणुघाते ताणि चेव किण्हम्मि। व्यवहार वास्तव में सम्यग् हो या असम्यग्, किन्तु सम्यग् मानने वाले के मध्यस्थ भाव के कारण वह सम्यग् होता है।) मासे चउमास-छमासियाणि......॥ जिसे गुण और दोष का विवेक नहीं है, वह दोष को नहीं (व्यभा ४४६८, ४४७५, ४४८१, ४४८२, ४४९०, ४४९३) प्रतिसेवना संबंधी गूढ़ पद-यहां प्रथम कार्य से तात्पर्य जानता हुआ अशठभाव से प्रतिसेवना करता है, वह निर्दोष है। किन्तु जो जानता हुआ भी उस दोष का सेवन करता है, वह निर्दोष है-दर्प प्रतिसेवना और प्रथम पद का अर्थ है-निष्कारण दर्प कैसे हो सकता है ? जानता हुआ व्यक्ति अध्यवसाय की मलिनता (दशविध दर्पप्रतिसेवना का प्रथम भेद) से सेवित । द्वितीय कार्य का अर्थ है-कल्पप्रतिसेवना और उसके प्रथम पद का अर्थ है के कारण ही दोष का सेवन करता है, वह निर्दोष नहीं हो सकता। दर्शन (कल्पिका के चौबीस प्रकारों में प्रथम प्रकार) के निमित्त १२. विराधना या प्रतिसेवना का हेतु प्रतिसेवित। किध भिक्खू जयमाणो, आवज्जति मासियं तु परिहारं। दोषसेवन के तीन षट्क-अठारह स्थान हैं कंटगपहे व छलणा, भिक्खू वि तहा विहरमाणो॥ ० प्रथम षट्क का अर्थ है-व्रतषट्क-प्राणातिपात विरमण से तिक्खम्मि उदगवेगे. विसमम्मि व विज्जलम्मि वच्चंतो। रात्रिभोजनविरमण पर्यंत । इनमें प्रथम स्थान है-प्राणातिपात । कणमाणो वि पयत्तं, अवसो जह पावए पडणं॥ ० द्वितीय षट्क का अर्थ है-कायषट्क-पृथ्वीकाय आदि । तह समण-सुविहियाणं, सव्वपयत्तेण वी जतंताणं। ० तृतीय षट्क का अर्थ है-अठारह में अंतिम छह स्थान (अकल्प, कम्मोदयपच्चइया, विराहणा कस्सइ हवेज्जा।। गृहिपात्र, पर्यंक, निषद्या, स्नान और शोभा)। (व्यभा २२२-२२४) गूढ़ पदों में प्रायश्चित्त-आलोचनार्ह आचार्य प्रथम कार्य (दर्प) शिष्य ने पूछा- भंते ! यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने वाला भिक्षु संबंधी दशविध (दर्पप्रतिसेवना के दर्प आदि दस भेद) आलोचना मासिक आदि प्रायश्चित्त क्यों प्राप्त करता है? को सुनकर शिष्य से कहते हैं-नक्षत्र (मास) जितने प्रायचित्त से आचार्य ने कहा-जैसे कंटकाकीर्ण पथ में सावधानीपूर्वक • शुद्धि हो सके, उतनी व्रत की पीड़ा हुई है (दोष सेवन किया है), चलने वाले पथिक के पैर भी कांटों से बिंध जाते हैं, तीव्र अतः तुम शुक्ल (लघु) मासिक तप करो। इसी प्रकार प्रतिसेवना जलप्रवाह, विषम-दुर्गममार्ग या पंकिलमार्ग में प्रयत्नपूर्वक चलने Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ ३९३ वाला व्यक्ति भी फिसल जाता है-यह उसकी विवशता है। वैसे ही सर्वप्रयत्न से यतनाशील सुविहित श्रमण भी कर्मोदयप्रत्ययिक विराधना कर लेता है। इसलिए वह भी प्रायश्चित्त का भागी होता है। असिवे ओमोदरिए, रायदुट्ठे भये य अद्धाणरोधए वा, कप्पिया तीसु गेलणे । वी जतणा ॥ (निभा ४५८) अशिव (देवकृत उपद्रव या महामारी प्रकोप), दुर्भिक्ष, प्रशासन की प्रतिकूलता, चोर आदि का भय, रुग्णता, बीहड़ मार्ग, नगररोध (नगरबंद) - इन स्थितियों में निर्दोष आहार न मिलने पर यतापूर्वक सदोष को भी ग्रहण कर लिया जाता है । १३. प्रतिसेवना और कर्म विहु डिसेवा, सा तु न कम्मोदएण जा जयतो । सा कम्मक्खयकरणी, दप्पाऽजत कम्मजणणी उ ॥ पडिसेवणा उ कम्मोदएण कम्ममवि तं निमित्तागं । अण्णोण्णहेउसिद्धी, तेसिं बीयंकुराणं व ॥ (व्यभा २२५, २२६ ) · एक अन्य प्रतिसेवना भी है, जो कर्मोदयहेतुक नहीं होती । कारण उपस्थित होने पर यतनापूर्वक की जाने वाली प्रतिसेवना कर्मक्षय करने वाली होती है। दर्पिका प्रतिसेवना और अयतना से की जाने वाली कल्पिका प्रतिसेवना भी कर्मबंध का हेतु है । कर्मोदय से प्रतिसेवना होती है और प्रतिसेवना से कर्मबंध होता है अतः प्रतिसेवना और कर्म में बीज और अंकुर की तरह परस्पर हेतुहेतुमद्भाव स्वतः सिद्ध है । १४. कल्पिका प्रतिसेवना भी सावद्य मूलगुणउत्तरगुणेसु पुव्वं पडिसेहो भणितो ततो पच्छा कारणे पडिसेहस्सेव अणुण्णा भणिता। तो जा सा अणुण्णा किमेतेण सेवणिज्जा उत णेति ? आयरियाहकारणपडिसेवा विय, सावज्जा णिच्छए अकरणिज्जा । बहुसो विचारइत्ता अधारणिज्जेसु अत्थेसु ॥ ...... अकर्त्तव्या येऽर्थाः ते अवहारणीया जइ अण्णो णत्थि णाणातिसंधणोवाओ तो वियारेऊण अप्पबहुत्तं अधारणिजे अत्थेसु प्रवर्त्तितव्यमित्यर्थः । (निभा ४५९ चू) मूलगुण- उत्तरगुण संबंधी जिन दोषों का पहले प्रतिषेध किया गया है, तत्पश्चात् प्रयोजन होने पर उसी प्रतिषेध की अनुज्ञा दी गई है, तो जो वह अनुज्ञा है, क्या वह एकांत रूप से सेवनीय है अथवा नहीं है ? आचार्य ने कहा- प्रयोजनवश जिस प्रतिसेवना की अनुज्ञा दी गई है, वह सावद्य - बंधन का कारण है, अतः परमार्थ दृष्टि से वह अकरणीय ही है। अकरणीय कृत्य परिहरणीय हैं । कारण उत्पन्न होने पर यदि यह निश्चय हो जाए कि ज्ञान आदि के संधान का दूसरा कोई उपाय नहीं है, तब पुनः पुनः विचारणा कर, दोषसेवन और हानि-लाभ के अल्पबहुत्व का गहराई से विमर्श कर अकरणीय कृत्यों में प्रवृत्त होना चाहिए। प्रतिसेवना ० अप्रतिसेवी दृढ़धर्मी जति विय समणुण्णाता, तह वि य दोसो ण वज्जणे दिट्ठो । दधम्मता हु एवं णाभिक्खणिसेव- णिद्दयता ॥ ( निभा ४६० ) यद्यपि कल्पिका प्रतिसेवना अपवादरूप में अनुज्ञात है, फिर भी उसका वर्जन करने में आज्ञाभंग आदि कोई भी दोष दृष्ट नहीं है, प्रत्युत् इससे अप्रतिसेवी की दृढधर्मिता परिलक्षित होती है। वह बार-बार होने वाले प्रतिसेवना के दोषों से बच जाता है और जीवों के प्रति उसका निर्दयतापूर्ण व्यवहार नहीं होता । अतः कल्पका प्रतिसेवना का प्रयोग भी सहसा नहीं करना चाहिए। १५. बकुश प्रतिसेवना और सचारित्र तीर्थ मूलगुण उत्तरगुणा, जम्हा भंसंति चरणसेढीतो । तम्हा जिणेहि दोण्णि वि, पडिसिद्धा सव्वसाहूणं ॥ अग्गघातो हणे मूलं, मूलघातो य अग्गयं । तम्हा खलु मूलगुणा, न संति न य उत्तरगुणा उ ॥ चोदग छक्कायाणं, तु संजमो जाऽणुधावते ताव । मूलगुण उत्तरगुणा, दोण्णि वि अणुधावते ताव ॥ इत्तरिसामाइय छेद संजम तह दुवे नियंठा य । बउस - पडिसेवगाओ, अणुसज्जंते य जा तित्थं ॥ (व्यभा ४६५ - ४६८) जहा तालदुमस्स अग्गसूतीए हताए मूलो हतो चेव, मूले वि हते अग्गसूती हता । (निभा ६५३१ चू) मूलगुण और उत्तरगुण पृथक्-पृथक् या युगपद् अतिचरित Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ३९४ आगम विषय कोश-२ होने पर वे साधुओं को संयमश्रेणि से भ्रष्ट करते हैं, इसलिए अर्हतों से गृहीत पट्ट, फलक, पुस्तक आदि), जो प्रयोजन पूर्ण होने पर ने दोनों के अतिचारों का निषेध किया है। मुनि द्वारा प्रतिहरणीय/प्रत्यर्पणीय है, प्रातिहारिक कहलाता है। मूलगुणों के नष्ट होने पर मूलगुण और उत्तरगुण तथा * संस्तारक-प्रत्यर्पणविधि द्र शय्या उत्तरगुणों के विनष्ट होने पर मूलगुण भी विनष्ट होते हैं। जैसे अपाडिहारियं थावरं। (निभा ६९३ की चू) तालद्रुम के अग्र पर किया गया आघात मूल का और मूल पर किया स्थायी रूप से गृहीत वस्तु अप्रातिहारिक है। गया आघात अग्र का विनाश कर देता है।। ___भंते ! किसी एक गुण की प्रतिसेवना से मूल और उत्तर- प्रायश्चित्त-दोष-विशुद्धि के लिए किया जाने वाला प्रयत्न। दोनों गुणों का अभाव होने से संयम का ही अभाव हो जाएगा और | १. प्रायश्चित्त के निर्वचन, एकार्थक. तब क्या तीर्थ चारित्रविहीन नहीं हो जाएगा? गुरु ने कहा- २. परिहारस्थान ही प्रायश्चित्तस्थान शिष्य ! जब तक छहजीवनिकाय के प्रति संयम का अनुवर्तन होता |३. प्रायश्चित्त राशि की उत्पत्ति : असंख्य असंयमस्थान है, तब तक मूल और उत्तर दोनों गुण प्रवर्तित होते हैं। | ४. प्रतिसेवना ही प्रायश्चित्त ___ मूलगुण-उत्तरगुण होने पर इत्वरिक सामायिक चारित्र और ५. प्रायश्चित्त के दस प्रकार छेदोपस्थापनीय चारित्र-दोनों होते हैं और जब तक तीर्थ है, तब * आलोचना प्रायश्चित्त के स्थान द्र आलोचना तक बकुश (उत्तरगुणप्रतिसेवी)और प्रतिसेवक (मूलगुणप्रतिसेवी) ६. प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त के स्थान निर्ग्रन्थ होते हैं, इससे तीर्थ अचारित्र नहीं होता। ० तदुभय प्रायश्चित्त के स्थान ७. विवेकाह प्रायश्चित्त प्रवचन-जिनशासन, द्वादशांग ८. व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त के स्थान "दुवालसंग पवयणं तु॥ (व्यभा २६२९) ९. तपयोग्य प्रायश्चित्त पवयणं चाउवण्णो समणसंघो।“साहु-साहुणि-सावग ० प्रतिक्रमण और तप प्रायश्चित्त कब? ० तप और छेद के योग्य प्रायश्चित्तस्थान साविगा। (निभा ४३४१ की चू) ० तप और छेद के स्थान तुल्य साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका-यह चतुर्विध श्रमणसंघ ___ * बिना आज्ञा भिक्षाटन से प्रायश्चित्त द्र आज्ञा प्रवचन कहलाता है। (द्र श्रीआको १ प्रवचन/तीर्थ) १०. देशछेद-सर्वछेद : प्रायश्चित्त के सात प्रकार * प्रवचन-स्थिरीकरण सूत्र द्र जिनशासन | * परिहार और छेद द्र परिहारतप |११. मूल प्रायश्चित्त (नई दीक्षा) के स्थान प्रातिहारिक-लौटाने योग्य वस्तु, मुनि द्वारा गृहीत वह वस्तु ० छेद व मूल में अंतर : प्रायश्चित्त के आठ प्रकार जिसका गृहस्थ को प्रत्यर्पण किया जा सके। * अनवस्थाप्य और पारांचित : मूल से विलक्षण द्र पारांचित जम्मि कुले गहितो संथारयो तस्स पच्चप्पिणंतस्स त्ति |१२. साध्वी को अनवस्थाप्य-पारांचित नहीं जं धारणं सो पाडिहारितो। (निभा १३०० की चू) १३. त्रिविध प्रायश्चित्त : दान आदि ० दान प्रायश्चित्त : तीन आदेश जिस घर से संस्तारक ग्रहण किया है, मासकल्प आदि ० काल और तप प्रायश्चित्त : गुरु भी लघु कालावधि पूर्ण होने पर उसी घर में उसे लौटाना है-इस अवधारणा |१४. उद्घातिक अनुद्घातिक (लघु-गुरु ) प्रायश्चित्त के साथ जो वस्तु ली जाती है, वह प्रातिहारिक कहलाती है। ० अनुद्घात के स्थान गिहिसंतियं उवकरणं पडिहरणीयं पाडिहारितं। ० उद्घात-अनुद्घात के स्तर (निभा ३३४ की चू) ० गुरु-लघु प्रायश्चित्त के दो हेतु * निशीथ में चतुर्विध प्रायश्चित्त गृहस्थ का वह उपकरण (प्रयोजनविशेष या अस्थायी रूप Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३९५ प्रायश्चित्त * प्रायश्चित्तसूत्रों का परिमाण द्र छेदसूत्र १५. स्थविरकल्पी : अनाचारजन्य तप प्रायश्चित्त * सापेक्ष-निरपेक्ष के प्रायश्चित्त में अंतर द्र स्थविरकल्प ० अतिक्रम चतुष्क : मासगुरु आदि ० सूक्ष्म-बादर प्रायश्चित्त ० विषयराग से गुरु प्रायश्चित्त * प्रथम पांच शबल : गुरु प्रायश्चित्त द्र चारित्र १६. राग-द्वेष की वृद्धि से प्रायश्चित्त-वृद्धि १७. प्रायश्चित्तवृद्धि के प्रकार : स्वस्थान-परस्थान ० स्थान के आधार पर प्रायश्चित्तवृद्धि १८. मासलघु आदि : प्रतीकाक्षर १९. प्रायश्चित्त व्यवहार के चार प्रकार ० पृथ्वीकायविराधना और प्रायश्चित्त २०. प्रायश्चित्त (व्यवहार): गुरु-लघु-लघुस्वक २१. प्रायश्चित्त के भेद : प्रतिसेवना आदि ___ * प्रतिसेवना का स्वरूप द्र प्रतिसेवना २२. संयोजना प्रायश्चित्त २३. आरोपणा प्रायश्चित्त : स्वरूप और प्रकार ० स्थापना-आरोपणा क्या? क्यों? ० आरोपणा छह मास की क्यों? धान्यपिटक दृष्टांत विषम प्रायश्चित्त : तुल्य विशोधि ० शासनभेद और उत्कृष्ट प्रायश्चित्त ० उत्कृष्ट प्रायश्चित्त : जीत व्यवहार ० गीतार्थ के प्रायश्चित्त में स्थापना-आरोपणा नहीं ० वणिक्-मरुक और निधि दृष्टांत ० कृत्स्न आरोपणा के छह प्रकार ० अनुग्रह कृत्स्न और निरनुग्रह कृत्स्न प्रायश्चित्त ० दुर्बल को प्रायश्चित्त कम क्यों? २४. प्रतिकुंचना प्रायश्चित्त | ० ऋजुता से आलोचना : न्यून प्रायश्चित्त २५. प्रायश्चित्तदान के अधिकारी ___ *."प्रायश्चित्तदान की समानता द्र व्यवहार * आज्ञा-व्यवहार : गूढपदों में प्रायश्चित्त द्र प्रतिसेवना २६. दोष स्वीकृति के बिना प्रायश्चित्त नहीं २७. दोषों के एकत्व के हेतु * आगमव्यवहारी : आलोचना श्रवण... द्र आलोचना ० जिन : घृतकुट दृष्टांत । पूर्वधर : नालिका दृष्टांत २८. प्रायश्चित्त में नानात्व और विशोधि : घट-पट दृष्टांत |२९. न्यूनाधिक प्रायश्चित्त : रत्नवणिक् दृष्टांत ३०. सदृश अपराध में विसदृश दंड : कुमार दृष्टांत ३१. पुरुषभेद से प्रायश्चित्त में भेद |३२. प्रायश्चित्तवाहक के प्रकार : कृतकरण आदि ० निर्गत-वर्तमान, आत्मतरक-परतरक ३३. छोटी त्रुटि की उपेक्षा : सारणि आदि दृष्टांत ___* प्रमादनिवारण हेतु सारणा-वारणा द्र आचार्य ३४. अप्रमत्त भी प्रायश्चित्तभागी ३५. निग्रंथ-संयत : कितने प्रायश्चित्त? ३६. कर्मबंध हेतुक प्रवृत्ति और प्रायश्चित्त ३७. पूर्व-उत्तर प्रायश्चित्त, उपस्थापना आदि में अंतर ३८. प्रायश्चित्त का प्रयोजन : चारित्र संरक्षण आदि ३९. अपराध रोग : प्रायश्चित्त औषध ४०. सापेक्ष-निरपेक्ष प्रायश्चित्त से तीर्थ-अव्यवच्छित्ति ४१. कल्याणक प्रायश्चित्त के सापेक्ष विकल्प * कल्याणक प्रायश्चित्त की द्विरूपता द्र कल्याणक ४२. प्रायश्चित्त एवं चारित्र कब तक? ० वर्धकिरत्न और धनिक दृष्टांत *उत्सारण और प्रायश्चित्त द्र उत्सारकल्प * क्षिप्तचित्त : प्रायश्चित्त संबंधी आदेश द्रचित्तचिकित्सा * दिशापहार का प्रायश्चित्त द्र दिग्बंध * अशुभ संकल्पमात्र से प्रायश्चित्त द्र प्रतिमा * अविधि से सूत्रग्रहण और प्रायश्चित्त द्रवाचना * असामाचारीनिष्पन्न प्रायश्चित्त द्र सामाचारी १. प्रायश्चित्त के निर्वचन, एकार्थक पावं छिंदति जम्हा, पायच्छित्तं तु भण्णते तेण। पाएण वा वि चित्तं, विसोहए तेण पच्छित्तं ॥ (व्यभा ३५) जिससे संचित पापकर्म नष्ट होता है, वह प्रायश्चित्त है। जो चित्त का प्रायः विशोधन करता है, वह प्रायश्चित्त है। (प्रायो नाम तपः प्रोक्तं, चित्तं निश्चय उच्यते। तपो निश्चयसंयोगात्, प्रायश्चित्तमितीर्यते ॥-आप्टे 'प्रायः' तपस्या का वाचक तथा 'चित्त' निश्चय अर्थात् Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त जीव का वाचक है। निश्चय का संयोग होने पर 'तप' प्रायश्चित्त कहलाता है । ) ववहारो आलोयण, सोही पच्छित्तमेव एगट्ठा |....... (व्यभा १०६४) व्यवहार, आलोचना, शोधि और प्रायश्चित्त- ये एकार्थक हैं। २. परिहारस्थान ही प्रायश्चित्त स्थान परिहारट्ठाणं - परिहारो वज्जणं ति वृत्तं भवति । अहवापरिहारो वहणं ति वृत्तं भवति, तं प्रायश्चित्तं । इह प्रायश्चित्तमेव ठाणं । (नि २० / १ की चू) परिहार का अर्थ है वर्जन अथवा वहन । वहन करने योग्य होता है प्रायश्चित्त, अतः प्रायश्चित्त ही परिहारस्थान है। ३. प्रायश्चित्तराशि की उत्पत्ति : असंख्य असंयमस्थान असमाहीठाणा खलु, सबला य परीसहा य मोहम्मि । पलितोवम - सागरोवम, परमाणु ततो असंखेज्जा ॥ प्रायश्चित्तराशिः कुत उत्पन्नः ? असंख्यातानि देशकालपुरुषभेदतोऽसमाधिस्थानानि एतेभ्यो ऽसंयमस्थानेभ्य एष प्रायश्चित्तराशिरुत्पद्यते, पल्योपमे सागरोपमे यावन्ति वालाग्राणि तावन्ति न भवन्ति, किन्तु व्यावहारिकपरमाणुमात्राणि यानि वालाग्राणां खण्डानि तेभ्यो ऽसंख्येयानि ।....... असंयमस्थानानि चोत्कर्षतोप्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि । (व्यभा ४०१ वृ) प्रायश्चित्तराशि कहां से उत्पन्न होती है? आचार्य कहते हैंबीस असमाधिस्थान हैं, किन्तु देश, काल और पुरुष के भेद से वे असंख्य हो जाते हैं। इसी प्रकार इक्कीस शबल, बाईस परीषह, तीस मोहनीयस्थान - इन सभी असंयमस्थानों से प्रायश्चित्तराशि उत्पन्न होती है। वे असंयमस्थान कितने हैं ? आचार्य कहते हैं- पल्योपम और सागरोपम में जितने बालाग्र होते हैं, उतने ही असंयम स्थान नहीं हैं, किन्तु वे व्यावहारिक परमाणु जितने खंड वाले बालाग्रों से भी असंख्य गुण अधिक हैं । उत्कृष्ट असंयमस्थान असंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं। ४. प्रतिसेवना ही प्रायश्चित्त पडिसेवियम्मि दिज्जति, पच्छित्तं इहरहा उ पडिसेहे । तेण पडिसेवणच्चिय, पच्छित्तं वा इमं दसहा ॥ ३९६ आगम विषय कोश - २ 'प्रतिसेविते' प्रतिषिद्धे सेविते प्रतिसेवना प्रायश्चित्तस्य निमित्तमिति कारणे कार्योपचारात् प्रतिसेवनारूपं प्रायश्चित्तमिदं दशधा । (व्यभा ५२ वृ) प्रतिसेवना - प्रतिषिद्ध का आचरण करने पर प्रायश्चित्त दिया जाता है । अन्यथा प्रायश्चित्त का प्रतिषेध है । प्रतिसेवना प्रायश्चित्त का निमित्त है, इसलिए कारण में कार्य का उपचार कर प्रतिसेवना को ही प्रायश्चित्त कहा गया है। प्रतिसेवनारूप प्रायश्चित्त के आलोचना आदि दस प्रकार हैं। ५. प्रायश्चित्त के दस प्रकार आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे तहा विउस्सग्गे । तव-छेय-मूल-अणवट्ठया पारंचिए चेव ॥ (व्यभा ५३) य प्रायश्चित्त के दस प्रकार हैं १. आलोचना - अपने दोषों का निवेदन । २. प्रतिक्रमण - मिथ्या मे दुष्कृतं - इसका उच्चारण । ३. तदुभय- दोनों - आलोचना और प्रतिक्रमण | ४. विवेक - अशुद्ध आहार आदि का परिष्ठापन । ५. व्युत्सर्ग -- कायोत्सर्ग । ६. तप- अनशन आदि तप अथवा मासिक, चातुर्मासिक तप । ७. छेद - दीक्षापर्याय का छेदन । (द्र आलोचना ) ८. मूल - पुनर्दीक्षा । ९. अनवस्थाप्य - तपस्यापूर्वक पुनर्दीक्षा । (द्र पारांचित) १०. पारांचित - भर्त्सना एवं अवहेलनापूर्वक पुनर्दीक्षा । * प्रायश्चित्त के स्थान, परिणाम द्र श्रीआको १ प्रायश्चित्त ( जीव के परिणाम असंख्येय लोकाकाशप्रदेशपरिमाण होते हैं। जितने परिणाम होते हैं, उतने ही अपराध होते हैं और जितने अपराध होते हैं, उतने ही उनके प्रायश्चित्त होने चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है । प्रायश्चित्त के जो प्रकार निर्दिष्ट हैं, वे व्यवहार - नय की दृष्टि से पिंडरूप में निर्दिष्ट हैं। - तवा ९/२२) ६. प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त के स्थान जो जत्थ उ करणिज्जो, उद्वाणादी उ अकरणे तस्स । होति पडिक्कमियव्वं, एमेव य वाय- माणसिए ॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३९७ प्रायश्चित्त अवराह अतिक्कमणे, वइक्कमे चेव तह अणाभोगे। ७. विवेकाह प्रायश्चित्त भयमाणे उ अकिच्चं, पायच्छित्तं पडिक्कमणं॥ कडजोगिणा तु गहियं, सेजा-संथार-भत्त-पाणं वा। अपराधे उत्तरगुणप्रतिसेवनरूपे अकृत्यमपि मूलोत्तर- अफासु-अणेसणिज्जं, नाउ विवेगो उ पच्छित्तं॥ गुणप्रतिसेवनालक्षणं भजमाने ..। (व्यभा ९७, ९८ वृ) (व्यभा १०८) मुनि आचार्य आदि के प्रति अभ्युत्थान आदि करणीय क्रियाएं गीतार्थ मुनि शय्या-संस्तारक या आहार-पानी ग्रहण करता नहीं करता है, तो उसे प्रतिक्रमण (मिच्छा मि दुक्कडं) प्रायश्चित्त है और तत्पश्चात् किसी तरह से उसे ज्ञात हो जाता है कि ये करना होता है। इसी प्रकार मन और वचन संबंधी करणीय क्रियाओं वस्तुएं अप्रासुक और अनेषणीय हैं, तो उसे विवेक प्रायश्चित्त प्राप्त को न करने पर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त आता है। होता है। (सदोष शय्या आदि का त्याग करना 'विवेक' है।) उत्तरगुणप्रतिसेवना रूप अपराध में अतिक्रम और व्यतिक्रम ..."वसहि त्ति य कता, ठिएसु अतिसेसिय विवेगो॥ होने पर तथा अनजान में मूलगुण-उत्तरगुणप्रतिसेवना रूप अतिक्रमण __ अशठभावेन गिरिराहुमेघमहिकारज:समावृते सवितरि होने पर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उद्गतबुद्ध्या अनस्तमितबुद्ध्या वा गृहीतमशनादिकं पश्चात् ० तदुभय प्रायश्चित्त के स्थान ज्ञातमनुद्गते अस्तमिते वा सूर्ये गृहीतं तथा प्रथमपौरुष्यां संकिए सहसक्कारे भयाउरे आवतीसु य। गृहीत्वा-चतुर्थामपि पौरुषीं यावत् धृतमशनादि शठमहव्वयातियारे य, छण्हं ठाणाण बज्झतो॥ भावेनाऽशठभावेन वा अर्द्धयोजनातिक्रमेण नीतमानीतं वाश इह केषाञ्चिद् अनवस्थितपारांचिते प्रायश्चित्ते द्वे अपि नादि तत्र विवेक एव प्रायश्चित्तम्। (व्यभा १०९ वृ) एकं प्रायश्चित्तमिति प्रतिपत्तिः तन्मतेन नवधा प्रायश्चित्तम्। विवेक प्रायश्चित्त के कुछ स्थान ये हैंतत्र चाद्ये द्वे प्रायश्चित्ते मुक्त्वा शेषाणि सप्त प्रायश्चित्तानि, ० आधाकर्मिक वसति में ठहरने पर और कुछ दिन बाद ज्ञात तेषां च सप्तानां प्रायश्चित्तानां यदाद्यं प्रायश्चित्तं तद् उपरित- होने पर उस वसति को छोडना होता है। नानां षण्णां बाह्ये नाभ्यन्तरमिति,“यच्च तदुभयं तच्चेवं. ० पर्वत, राह, बादल, कुहासा और रज से सूर्य आवृत हो जाता प्रथमं गुरूणां पुरत आलोचनं, तदनन्तरं गुरुसमादेशेन मिथ्या- है। ऐसी स्थिति में यदि मुनि अशठभाव से सूर्य उग गया है या दुष्कृतदानम्। (व्यभा ९९ वृ) सूर्य अस्त नहीं हुआ है-इस बुद्धि से अशन आदि ग्रहण कर लेता ___ मैंने प्राणातिपात किया या नहीं? मैं असत्य बोला या है, किन्तु बाद में उसे ज्ञात हो जाए कि सूर्योदय से पूर्व या सूर्यास्त नहीं?-इस प्रकार शंकित होने पर, सहसा दोष सेवन होने पर, के पश्चात् अशन आदि ग्रहण किया है तो उस गृहीत अशन आदि भय, रोग तथा आपदाओं के समय दोष सेवन होने पर, महाव्रतों का त्याग करना होता है। में सहसा अतिक्रम, व्यतिक्रम तथा अतिचार होने पर अथवा ० प्रथम पौरुषी में गृहीत अशन आदि को चतर्थ पौरुषी तक रखने आशंका होने पर-इनमें तदुभय (आलोचना और प्रतिक्रमण) वाला मुनि विवेक प्रायश्चित्तार्ह है। प्रायश्चित्त आता है। यह अंतिम छह प्रायश्चित्तों के भीतर नहीं शठ या अशठभाव से आधे योजन का अतिक्रमण कर ले जाया है, बाह्य है। गया या लाया गया अशन आदि विवेक प्रायश्चित्त के योग्य है। कुछ आचार्य अनवस्थाप्य और पारांचित को एक मानकर ८. व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) प्रायश्चित्त के स्थान प्रायश्चित्त के नौ भेद मानते हैं। प्रथम दो को छोडकर शेष सात में गमणागमण-वियारे, सुत्ते वा सुमिण-दसणे राओ। प्रथम प्रायश्चित्त-'तदुभय' है। वह शेष छह से बाह्य है। तदुभय नावा नदिसंतारे, पायच्छित्तं विउस्सग्गो॥ से आशय है-पहले गुरु के पास आलोचना करना, फिर गुरु के __(व्यभा ११०) आदेश से 'मिच्छा मि दुक्कडं' कहना। कार्यवश उपाश्रय से बाहर जाने-आने पर ऐर्यापथिकी Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त ३९८ आगम विषय कोश-२ गुरुगा प्रतिक्रमणपूर्वक कायोत्सर्ग करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। इसी प्रकार अविधि से उच्चार आदि के परिष्ठापन तथा सूत्र विषयक परिवर्तना आदि करने पर, रात्री में सावध अथवा अनिष्टसूचक स्वप्न देखने पर, प्रयोजनवश समुद्र अथवा नदी को पार करने के लिए नौका का प्रयोग करने पर तथा यतनापूर्वक पैरों से चलकर नदी-संतरण करने पर व्युत्सर्ग अथवा कायोत्सर्गात्मक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। * कायोत्सर्ग में उच्छ्वास परिमाण द्र श्रीआको १ कायोत्सर्ग ९. तपयोग्य प्रायश्चित्त सज्झायस्स अकरणे, काउस्सग्गे तहा य पडिलेहा। पोसहिय-तवे य तधा, अवंदणा...... । चउ-छट्ठऽट्ठमऽकरणे, अट्ठमि-पक्ख-चउमास-वरिसे य। लहु-गुरु-लहुगा, ""॥ (व्यभा १२९, १३३) यथाविधि यथासमय स्वाध्याय, कायोत्सर्ग और प्रतिलेखना न करने पर तथा अष्टमी आदि पर्वतिथियों में पौषध युक्त तप और अन्य बस्ती में स्थित साधुओं को वन्दना न करने पर मासलघ प्रायश्चित्त आता है। अष्टमी को उपवास न करने पर मासलघ, पाक्षिक उपवास न करने पर मासगुरु, चातुर्मासिक बेला न करने पर चतर्लघ और सांवत्सरिक तेला न करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है। ० प्रतिक्रमण और तप प्रायश्चित्त कब? गुत्तीसु य समितीसु य, पडिरूवजोगे तहा पसत्थे य। वतिक्कमे अणाभोगे, पायच्छित्तं पडिक्कमणं॥ केवलमेव अगुत्तो, सहसाणाभोगतो व ण य हिंसा। तहियं तु पडिक्कमणं, आउट्टि तवो न वाऽदाणं ॥ (व्यभा ६०, ६१) गुप्तियों, समितियों, प्रतिरूप आदि विनय के प्रकारों तथा इच्छाकार आदि प्रशस्त योगों को सम्पादित न करने पर. उत्तरगणों में अतिक्रम-व्यतिक्रम होने पर तथा अनजान में अकत्य करने पर प्रतिक्रमण (मिच्छा मि दुक्कडं) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। जो केवल अगुप्त है या केवल असमित है, किन्तु जिसने सहसा या विस्मृति के कारण हिंसा नहीं की है, उसे प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त आता है। हिंसा होने पर उसे तप प्रायश्चित्त आता है। अथवा मानसिक स्तर पर असमित या अगुप्त स्थविरकल्पिक मुनि को तप प्रायश्चित्त नहीं आता। ० तप और छेद योग्य प्रायश्चित्त स्थान दंडग्गहनिक्खेवे, आवस्सियाय निसीहियाए य। गुरुणं च अप्पणामे, पंचराइंदिया होंति॥ वेंटियगहनिक्खेवे, निट्ठीवण आतवा उ छायं च। थंडिल्लकण्हभोमे, गामे - राइंदिया पंच॥ एतेसिं अण्णतरं, निरंतरं अतिचरेज तिक्खुत्तो। निक्कारणमगिलाणे, पंच उ राइंदिया छेदो॥ (व्यभा १२५-१२७) पांच अहोरात्रिक तप प्रायश्चित्त के कुछ स्थान ये हैंदंड ग्रहण-निक्षेप के समय प्रतिलेखन-प्रमार्जन न करने पर। आवश्यकी-नैषेधिकी सामाचारी का प्रयोग (उच्चारण) न करने पर। ० गुरु को प्रणाम न करने पर। ० संस्तारक को अयतनापर्वक लेने-रखने पर। ० अविधि से थूकने पर। ० उपकरण को अविधि से, धूप से छाया में, छाया से धूप में रखने पर। ० अविधि से स्थण्डिल से अस्थण्डिल में या अस्थण्डिल से स्थण्डिल में अथवा कृष्ण भूमि (सचित्त काली मिट्टी) से नीली (हरित) भूमि में या नीली भूमि से कृष्ण भूमि में जाने पर। ० यात्रापथ से ग्राम में प्रवेश करते समय पैरों की प्रत्यपेक्षाप्रमार्जना न करने पर। कोई स्वस्थ मनि निष्कारण ही इनमें से किसी स्थान का निरन्तर तीन बार अतिक्रमण कर लेता है, तो उसके पांच अहोरात्र के संयमपर्याय का छेद किया जाता है। ...."आगाढम्मि यकज्जे, दप्पेण वि ते भवे छेदो॥ (व्यभा ७१९) जो आगाढ संघीय प्रयोजन उपस्थित होने पर दर्प से संघकार्य नहीं करता है, वह छेद प्रायश्चित्त का भागी होता है। ० तप और छेद के स्थान तुल्य तुल्ला चेव उ ठाणा, तव-छेयाणं हवंति दोण्हं पि। पणगाइ पणगवुड्डी, दोण्ह वि छम्मास निट्ठवणा॥ (बृभा ७०७) Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ३९९ प्रायश्चित्त तप और छेद-दोनों के स्थान तुल्य ही होते हैं। दोनों में . छेद व मूल में अंतर : प्रायश्चित्त के आठ प्रकार ही आदि स्थान पांच अहोरात्र है, फिर पांच-पांच की वृद्धि से छिज्जंते वि न पावेज्ज कोइ मूलं अओ भवे अट्ठ। अंतिम स्थान छह मास है। (पांच अहोरात्र से कम और छह मास चिरघाई वा छेओ, मूलं पुण सज्जघाई उ॥ से अधिक अवधि वाले तप और छेद प्रायश्चित्त नहीं होते।) (बृभा ७११) १०. देशछेद-सर्वछेद : प्रायश्चित्त के सात प्रकार जो चिरप्रव्रजित है, उसके दीक्षापर्याय का यदि छह मास दुविहो अ होइ छेदो, देसच्छेदो अ सव्वछेदो अ। से अधिक छेद किया जाता है तो वह मूल के अंतर्गत है, छेद से मूला-ऽणवट्ठ-चरिमा, सव्वच्छेओ अतो सत्त॥ विलक्षण है, अतः प्रायश्चित्त के आठ प्रकार हो जाते हैं। (बृभा ७१०) छेद चिरघाती है, क्योंकि इसमें चिरकाल तक दीक्षा छेद के दो प्रकार हैं--१. देशछेद और २. सर्वछेद। पर्याय का छेद होता है। मूल सद्योघाती है, क्योंकि यह शीघ्र ही पांच अहोरात्र से लेकर छह मास पर्यंत का प्रायश्चित्त देशछेद। दीक्षा पर्याय को समाप्त कर देता है। * अनवस्थाप्य और पारांचित द्र पारांचित है। मूल, अनवस्थाप्य और पारांचित-इन तीनों का समावेश सर्वछेद के अन्तर्गत किया गया है। क्योंकि ये श्रमणपर्याय का युगपद् छेद १२. साध्वी को अनवस्थाप्य-पारांचित नहीं १ करते हैं। इस प्रकार अंतिम तीन प्रायश्चित्तों का सर्वछेद में समावेश एसेव गमो नियमा, समणीणं दुगविवजितो होति। होने से प्रायश्चित्त के सात प्रकार होते हैं। (व्यभा ६२३) ११. मूल प्रायश्चित्त (नई दीक्षा) के स्थान जो प्रायश्चित्तविधि श्रमण के लिए अभिहित है, वही तवऽतीतमसद्दहिए, तवबलिए चेव होति परियागे। नियमतः श्रमणो के लिए है। इतना विशेष है कि अनवस्थाप्य दुब्बल अपरीणामे, अत्थिर अबहुस्सुते मुलं॥ और पारांचित-ये दो प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी श्रमणी को नहीं __ (व्यभा ५०२) दिए जाते। उसको परिहार तप भी नहीं दिया जाता। .१३. त्रिविध प्रायश्चित्त : दान आदि आठ प्रकार से मुनि मूल प्रायश्चित्त के भागी होते हैं० तप-अतीत-छह मास पर्यंत तप करने पर भी शुद्धि न हो। गुरु-लघुविशेषविस्तरपरिज्ञानार्थमाचार्यस्त्रिविधं प्रायश्चित्तं ० अश्रद्धा-तप से पाप की शुद्धि नहीं होती-ऐसा सोचने वाला। दर्शयति, तद्यथा-दानप्रायश्चित्तं तपःप्रायश्चित्तं काल - ० तपोबली-जो महान् तप से क्लांत नहीं होता और 'मैं तप । प्रायश्चित्तं च। तत्र दानप्रायश्चित्तं गुरुकं लघुकं च। एवं करूंगा' ऐसा गर्व कर प्रतिसेवना करता है अथवा छहमासिक तप तप:- कालप्रायश्चित्ते अपि गुरु-लघुके"। देने पर जो कहता है-मैं अन्य तप करने में भी समर्थ हूं। (बृभा २९९ की वृ) ० पर्याय-छेद प्रायश्चित्त से शोधि न होने पर अथवा मैं रत्नाधिक गुरु-लघु प्रायश्चित्त को विशेष विस्तार से जानने के लिए हूं, छेद देने पर भी मेरा पर्याय दीर्घ है, ऐसा कहने वाला। आचार्यों ने तीन प्रकार के प्रायश्चित्तों का प्रतिपादन किया है० दुर्बल-जिसे बहुत तप प्रायश्चित्त प्राप्त है किन्तु वह उसे वहन १. दान प्रायश्चित्त २. तप प्रायश्चित्त ३. काल प्रायश्चित्त । करने में असमर्थ है। इनमें से प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-गुरु और लघु। ० अपरिणामी-इस छहमासिक प्रायश्चित्त से मेरी शुद्धि नहीं ० दान प्रायश्चित्त : तीन आदेश होगी-ऐसा कहने वाला। अहवा वातो तिविहो, एगिंदियमादी जाव पंचिंदी। ० अस्थिर-अधृति के कारण पुनः-पुनः प्रतिसेवना करने वाला। पंचण्ह चउत्थाई, अहवा एक्कादि कल्लाणं॥ ० अबहुश्रुत-अगीतार्थ, जिसे अनवस्थाप्य या पारांचित भी प्राप्त छक्काय चउसु लहुगा, परित्त लहुगा य गुरुग साधारे। है, किन्तु अबहुश्रुतता के कारण उसे मूल दिया जाता है। संघट्टण परितावण, लहुगुरु अतिवायणे मूलं ।। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त एए दो आदेसा । दाणपच्छित्तं भणितं । अहवा दो एए। इमोतिओ आवत्ति पच्छित्तेण भण्णति । (निभा ११६, ११७ चू) • एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय जीवों का व्यापादन होने पर क्रमशः उपवास से द्वादश भक्त तक का प्रायश्चित्त। यह एक आदेश है। द्वितीय आदेश - एक कल्याणक यावत् पांच कल्याणक तृतीय आदेश - पृथ्वी, अप्, तेजस् और वायुकाय - इन चार जीवनिकायों तथा परित्त वनस्पति का संघट्टन होने पर लघु, परितापन में गुरु तथा अपद्रावण में चतुर्लघु । शेष क्रम इस प्रकार हैपरितापन अपद्रावण संघट्टन चतुर्गुरु षड्लघु ० ० साधारण वनस्पति द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय मासगुरु चतुर्लघु चतुर्गुरु षड्लघु चतुर्लघु चतुर्गुरु षड्लघु षड्गुरु छेद षड्गुरु छेद षड्गुरु मूल सुयस्स अव .....सुत्तस्स देसे चउलहुगा अत्थस्स देसे चउगुरुगा। सव्वसुयस्स अवण्णे भिक्खुणो मूलं । अभिसेस्स अणवट्टो । गुरुणो चरिमं । एयं दाणपच्छित्तं । (निभा ३३०१ की चू) श्रुत का देशतः अवर्णवाद करने पर चतुर्लघु और अर्थ का देशतः अवर्णवाद करने पर चतुर्गुरु तथा सर्वश्रुत का अवर्णवाद करने पर भिक्षु को मूल उपाध्याय को अनवस्थाप्य और आचार्य को पारांचित प्राप्त होता है - यह दान प्रायश्चित्त है । उवदेसो उ अगीते, दिज्जति बितिओ उ सोधिववहारो।.... द्विविधः साधुः गीतार्थोऽगीतार्थश्च । तत्र यो गीतार्थः सः गीतार्थत्वादनाभाव्यं न गृह्णातीति न तस्योपदेशः । यः पुनरगीतार्थस्तस्यानाभाव्यं गृह्यत उपदेशो दीयते, यथा न युक्तं तवानाभवत् गृहीतुं यदि पुनरनाभवत् ग्रहीष्यसि, ततस्तन्निमित्तं प्रायश्चित्तं भविष्यतीत्युपदेशदानं, तत एवमुपदेशे दत्ते सति दानप्रायश्चित्तं दीयते । (व्यभा ३३ वृ) के दो प्रकार हैं - गीतार्थ और अगीतार्थ । गीतार्थ साधु साधु गीतार्थता के कारण अनाभाव्य ( अकल्पनीय ) का ग्रहण नहीं करता, इसलिए उसे उपदेश नहीं दिया जाता। जो अगीतार्थ है, वह अनाभाव्य का ग्रहण करता है, इसलिए उसे उपदेश दिया जाता है। ४०० आगम विषय कोश - २ यथा - 'अनाभवत् ग्रहण करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है। यदि अनाभवत् ग्रहण करोगे तो प्रायश्चित्त लेना होगा' - इस प्रकार उपदेश देने के पश्चात् दान प्रायश्चित्त दिया जाता है। ० दान, काल और तप प्रायश्चित्त : गुरु भी लघु जं तु निरंतरदाणं, जस्स व तस्स व तवस्स तं गुरुगं । जं पुण संतरदाणं, गुरू वि सो खलु भवे लहुओ ॥ काल- तवे आसज्ज व, गुरू वि होइ लहुओ लहू गुरुगो । कालो गिम्हो उ गुरू , अट्ठाइ तवो लहू सेसो ॥ (बृभा ३००, ३०१ ) जिस किसी को अष्टमभक्त आदि गुरु प्रायश्चित्त अथवा निर्विकृति आदि लघु प्रायश्चित्त निरन्तर दिया जाता है, वह गुरु दान प्रायश्चित्त है । यदि गुरु प्रायश्चित्त अन्तर से दिया जाता है, तो वह गुरु भी लघु हो जाता है - काल और तप की अपेक्षा से गुरु प्रायश्चित्त भी लघु हो जाता है और लघु भी गुरु हो जाता है। काल की दृष्टि से ग्रीष्मऋतु कालगुरु है और तप की दृष्टि से अष्टमभक्त (तेला) आदि तपोगुरु हैं। शेषकाल - वर्षा व हेमंत ऋतु काललघु हैं और तपनिर्विकृतिक से षष्ठभक्त पर्यन्त तपोलघु हैं। "लहुगा चतु जमलपदा, ॥ जमलपदं णाम तवकाला । तेहिं विसेसिया कज्जति । पढपए दोहिं लहुं, बितियपदे कालगुरुं, ततियपदे तवगुरुं, उत्थे दोहिं पि गुरुं । (निभा १३१ चू) तप और काल के आधार पर गुरु लघु के चार विकल्प हैं१. तप से लघु काल से लघु ३. तप से गुरु काल से लघु २. तप से लघु काल से गुरु ४. तप से गुरु काल से गुरु | १४. उद्घातिक - अनुद्घातिक ( लघु-गुरु ) प्रायश्चित्त गुरुकमिति वा अनुद्घातीति वा कालकमिति वा गुरुकस्य नामानि । लघुकमिति वा उद्घातितमिति वा शुक्लमिति वा लघुकस्य नामानि । (बृभा २९९ की वृ) गुरुक, अनुद्घातिक और कालक- ये गुरु प्रायश्चित्त के तथा लघुक, उद्घातिक और शुक्ल-ये लघु प्रायश्चित्त के पर्यायवाची नाम हैं I Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ ४०१ उग्घायमणुग्घाया, दव्वम्मि हलिद्दराग - किमिरागा । खेत्तम्मि कण्हभूमी, पत्थरभूमी य हलमादी ॥ कालम्मि संतर णिरंतरं तु समयो य होतऽणुग्घातो । भव्वस्स अट्ठ पयडी, उग्घातिम एतरा इयरे ॥ जेण खवणं करिस्सति, कम्माणं तारिओ अभव्वस्स । णय उप्पज्जइ भावो, इति भावो तस्सऽणुग्घातो ॥ कालत उद्घातिकं सान्तरं प्रायश्चित्तस्य दानम्, अनुद्घातिकं निरन्तरदानम् । तुशब्दाद् लघुमासादिकमुद्घातिकम्, गुरुमासादिकमनुद्घातिकम् । (बृभा ४८९१ - ४८९३ वृ) भागपातः सान्तरदानं वा उद्घातः, स विद्यते येषु ते उद्घातिकाः तद्विपरीता अनुद्घातिकाः । (क ४/१ की वृ) उद्घातिक अनुद्घातिक के चार निक्षेप हैं ० द्रव्यतः - हल्दी का रंग आसानी से दूर हो जाता है, अतः यह उद्घातिक द्रव्य है । कृमिराग- अनुद्घातिक है । ० क्षेत्रतः - कृष्णभूमि उद्घातिक है। इसमें हल आदि आसानी से चलाया जा सकता है। प्रस्तरभूमि अनुद्घातिक है । ० कालतः - समय अविभागी होने से अनुद्घातिक है । आवलिका आदि उद्घातिक है। प्रायश्चित्त, जो सांतर है, जिसका भाग किया जा सकता है, वह उद्घातिक है। जो निरंतर दान है, जिसमें भाग नहीं किया जाता, वह अनुद्घातिक है। अथवा लघुमासिक आदि उद्घातिक और गुरुमासिक आदि अनुद्घातिक हैं । ० भावतः - भव्य प्राणी की आठ कर्मप्रकृतियां उद्घातिक और अभव्य की अनुद्घातिक हैं। जिन शुभ अध्यवसायों से कर्मों का क्षय किया जा सके, वैसे शुभ अध्यवसाय अभव्य के उत्पन्न ही नहीं होते, इसलिए उसके कर्म अनुद्घातिक हैं। • अनुद्घात के स्थान ओ अणुग्घाइया पण्णत्ता, तं जहा - हत्थकम्मं करेमाणे, मेहुणं पडिसेवमाणे, राईभोयणं भुंजमाणे ॥ (क ४/१) तीन अनुद्घात्य (गुरु) प्रायश्चित्त के भागी होते हैं - १. हस्तकर्म करने वाला, २ . मैथुन - सेवन करने वाला और ३. रात्रिभोजन करने वाला। (शय्यातरपिंड और राजपिंड का भोजन करने वाला भी अनुद्घातिक होता है । -स्था ५ / १०१ ) प्रायश्चित्त ० उद्घात - अनुद्घात के स्तर उग्घातियं वहंते, उग्घातिय संकप्पिय, अवघा होति । य ॥ सुद्धे परिहारियतवे अणुग्घातियं वहंते, आवण्णऽणुघातहेउगं होति । अणुघातिय- संकप्पिय, सुद्धे परिहारिय तवे य ॥ उग्घातियं ति पायच्छित्तं वहंतस्स - पायच्छित्तमापण्णस्स जाव णालोइयं ताव हेउं भण्णति, आलोइए " अमुगदिणे तुज्झेयं पच्छित्तं दिज्जिहिति" त्ति संकप्पियं भन्नति । एयं पुण दुविधं पि दुविहं वहति - सुद्धतवेण वा परिहारतवेण वा । हेऊ वि सुद्धस्स तवस्स वा परिहारतवस्स वा । संकप्पियं पि सुद्धतवेण वा परिहारतवेण वा । ( निभा २८६८, २८६९ चू) उद्घात के तीन स्तर हैं— उद्घात, उद्घात हेतु और उद्घात संकल्प। उद्घातिक प्रायश्चित्त का वहन करने वाला जब तक आलोचना नहीं करता, तब तक वह उद्घात हेतु कहलाता 1 आलोचना के पश्चात् 'अमुक दिन तुम्हें यह प्रायश्चित्त दिया जाएगा' - यह उद्घात संकल्प कहलाता है। उद्घातिक, हेतु और संकल्प का दो-दो प्रकार से वहन किया जाता है - शुद्ध तप से, परिहार तप से। इसी प्रकार अनुद्घात के तीन रूप हैं - अनुद्घातिक, हेतु और संकल्प । ० गुरु-लघु प्रायश्चित्त के दो हेतु पच्चयहे जं, तेसिं भयहेउ सेसगाण य, इमा उ आरोवणारयणा ॥ (बृभा ६०३८) अपरिणामक मुनियों में यह विश्वास पैदा करने के लिए कि प्रायश्चित्त के द्वारा यहां विशुद्धि कराई जाती है तथा अतिपरिणामक मुनियों में प्रतिसेवना के प्रति भय पैदा करने के लिए लघु, लघुतर, गुरु, गुरुतर आदि प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है। १५. स्थविरकल्पी : अनाचारजन्य तप प्रायश्चित्त ********** अतिक्कमे वतिक्कमे चेव अतियारे तह अणाचारे । गुरुओ य अतीयारो, गुरुगतरो उ अणायारो ॥ सव्वे वि य पच्छित्ता, जे सुत्ते ते पडुच्चऽणायारं । थेराण भवे कप्पे, जिणकप्पे चतुसु वि पदेसु ॥ थेरकप्पियाण''जति पडिस्सुते पदभेदातो णियत्ति Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त ४०२ आगम विषय कोश-२ गहियं वा परिट्ठवेति तहावि सुज्झति, अह भुंजति तो अणायारे सुहुमं स्वल्पं, बादरं णाम बहुगं। पायच्छित्त-विहाणगे वटुंतस्स पच्छित्तं भवति। (निभा ६४९७, ६४९९ चू) वा सुहुमबादरविकप्पो भवति। जत्थ पणगं तं सुहुमं, सेसं ___ स्वीकृत व्रतों में लगने वाले दोषों के चार स्तर हैं बादरं। (निभा ३३० की चू) अतिक्रम-दोषसेवन के लिए मानसिक संकल्प। . सूक्ष्म मृषावाद में मासलघु या मासगुरु तथा बादर मृषावाद व्यतिक्रम-दोषसेवन के लिए प्रस्थान। में चतुर्लघु आदि प्रायश्चित्त आता है। अतिचार-दोषसेवन के लिए सामग्री जुटाना। सूक्ष्म का अर्थ है स्वल्प, बादर का अर्थ है बहुत । प्रायश्चित्त अनाचार-दोष का सेवन करना। विधान में सूक्ष्म और बादर का विकल्प होता है। जिसमें पांच इनमें अतिचार गुरु और अनाचार गुरुतर है। इनका प्रायश्चित्त अहोरात्र का प्रायश्चित्त हो, वह सूक्ष्म है, शेष बादर है। भी क्रमशः गुरु, गुरुतर होता है। • विषयराग से गुरु प्रायश्चित्त निशीथ सूत्र में निर्दिष्ट सारे प्रायश्चित्त स्थविरकल्पी के लिए रागेतर गुरुलहुगा, सद्दे रूवे रसे य फासे य। अनाचार सेवन की अपेक्षा से हैं। स्थविरकल्पी को अतिक्रम, गुरुगो लहुगो गंधे, जं वा आवजती जुत्तो॥ व्यतिक्रम और अतिचार के लिए तप प्रायश्चित्त नहीं आता, (निभा १३२) मिथ्यादुष्कृत के उच्चारण आदि से उनकी शुद्धि हो जाती है। शब्द, रूप, रस और स्पर्श-इन चार इन्द्रियविषयों में राग यथा-कोई मुनि आधाकर्म आहार-ग्रहण की स्वीकृति दे देता है किन्तु उसके लिए प्रस्थान नहीं करता है अथवा प्रस्थान कर उस __ करने पर चतुर्गुरु तथा द्वेष करने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है। आहार को ग्रहण कर लेता है, किन्तु परिभोग नहीं करता, उसका गंधराग से मासगुरु तथा गंधद्वेष से मासलघु प्राप्त होता है। परिष्ठापन कर देता है तो वह शुद्ध है। उसे खाने वाला अनाचार- १६. राग-द्वेष की वृद्धि से प्रायश्चित्त-वृद्धि जन्य प्रायश्चित्त का भागी होता है। जिनकल्पी को अतिक्रम आदि जध मन्ने दसमं सेविऊण, निग्गच्छते तु दसमेण। चारों पदों में प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। तध मन्ने दसमं सेविऊण एगेण निग्गच्छे । ० अतिक्रम चतुष्क : मासगुरु आदि (व्यभा ५०९) तिन्नि य गुरुगा मासा, विसेसिया तिण्ह व अह गुरुअंते। पारांचित (दशम प्रायश्चित्त) जितनी प्रतिसेवना करने पर एते चेव उ लहुया, विसोधिकोडीय पच्छित्ता॥ पारांचित प्रायश्चित्त से शुद्धि होती है। कदाचित् पारांचित जितनी त्रयाणामतिक्रमव्यतिक्रमातिचाराणां त्रयो गुरुका मासाः प्रतिसेवना करने पर उसकी अनवस्थाप्य से भी शुद्धि होती है। .""एते च त्रयोऽपि यथोत्तरं तपःकालविशेषिताः अथ अन्ते इसी प्रकार कभी मूल, छेद, छह मास यावत् एक मास या भिन्न अनाचारलक्षणे दोषे चतुर्गुरु चतुर्मासगुरुप्रायश्चित्तं.... मास, बीस, पन्द्रह दस या पांच अहोरात्र, दशमभक्त (चोला) शोधिकोट्या त्वेत एव मासादयो लघुका प्रायश्चित्तानि... अट्ठमभक्त (तेला), छट्ठभक्त, चतुर्थभक्त, आचाम्ल, एकाशन, अनाचारे चतुर्मासलघु। (व्यभा ४४ वृ) पुरिमड्ड (दो प्रहर) और निर्विकृतिक के द्वारा भी दशम प्रायश्चित्त अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार-इन तीनों में तप और स्थान की शुद्धि हो जाती है । नौवें (अनवस्थाप्य) प्रायश्चित्त स्थान काल से विशेषित गुरुमास प्रायश्चित्त आता है। अनाचार दोष का का सेवन करने वाला आठवें (मूल) से भी शुद्ध हो सकता है। प्रायश्चित्त चतुर्गुरु है। (यह विधान अविशोधि कोटि के लिए है।) प्रायश्चित्त के इस हानि के क्रम की भांति वृद्धि का क्रम भी विशोधि कोटि वाले अतिचार आदि का प्रायश्चित्त लघुमास है। है। निर्विकृतिक से शोधि हो सके, उतनी प्रतिसेवना करने वाले को ० सूक्ष्म-बादर प्रायश्चित्त निर्विकृतिक यावत् पारांचित प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है। "लहुगुरुमासो सुहुमो, लहुमादी बादरे होंति॥(निभा ३०१) इसका हेतु है-अध्यवसाय (राग-द्वेष) की मंदता और तीव्रता। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ मणपरमोधिजिणाणं, चउदसदसपुव्वियं च नवपुव्विं । थेरेव समासेज्जा, ऊणऽब्भहिया च पट्टवणा ॥ हा दुट्टु कतं हा दुट्टु कारितं दु अणुमयं मेति । अंतो अंतो डज्झति, पच्छातावेण जिणपण्णत्ते भावे, असद्दहंतस्स तस्स हरिसमिव वेदयंतो, तथा तथा वडते (व्यभा ५१४- ५१६) वेवंतो ॥ पच्छित्तं । उवरिं ॥ मनः पर्यवजिन, परमावधिजिन, केवली, चौदहपूर्वी, दसपूर्वी और नवपूर्वी - ये प्रत्यक्षज्ञानी होते हैं, अपराधी के अध्यवसायों की हानि - वृद्धि को साक्षात् जानकर तुल्य अपराध पद में भी राग-द्वेष की मात्रा के अनुरूप न्यूनाधिक प्रायश्चित्त देते हैं । परोक्षज्ञानी आचार्य आदि अपराधी को पश्चात्ताप आदि बाह्य चिह्नों से जान लेते हैं। यथा-हा ! मैंने गलत किया, गलत करवाया, गलत अनुमोदन किया- इस प्रकार पश्चात्ताप की अग्नि में जलते हुए अपराधी के प्रकम्पित चित्त से उसकी रागद्वेष की हानि को जानकर तदनुरूप स्वल्प प्रायश्चित्त देते हैं। जो जिनप्रज्ञप्त भावों में अश्रद्धा करता है, आलोचना-काल में हर्षित होता है, उसे उत्तरोत्तर अधिक प्रायश्चित्त दिया जाता है। १७. प्रायश्चित्तवृद्धि के प्रकार : स्वस्थान- परस्थान पच्छित्तस्स विवड्डी, सरिसट्ठाणातो विसरिसे तमेव । तप्पभिती अविसुद्धमादी संभुंजतो गुरुगा ॥ ( निभा २०८१) प्रायश्चित्त की वृद्धि के दो प्रकार हैं१. स्वस्थान वृद्धि-सदृश स्थानों में वृद्धि । यथा - तीन बार मासलघु प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ तो चौथी बार वृद्धि होने पर वही मासगुरु हो जाता है। इसी प्रकार चतुर्लघु से चतुर्गुरु, षड्लघु से षड्गुरु । २. परस्थान वृद्धि - विसदृश स्थानों में वृद्धि । यथा - मासलघु दो मासिक, दो मास से त्रैमासिक - यह सारी परस्थान वृद्धि है। तीन बार से अधिक वही प्रतिसेवना करने वाला नियमतः मायी और अविशुद्ध होता है। उसके साथ सम्भोज करने वाला चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। ० स्थान के आधार पर प्रायश्चित्तवृद्धि ..........गुरूहिं आरोवण वसभेहि कायव्वा, ४०३ कुल गणे संघे। ************* Il .....चतुर्गुरवः । अथ नावृत्ताः किन्तु गुरुवचनातिक्रमं कुर्वन्ति ततः षड्गुरुकाः छेदः मूलम् अनवस्थाप्यम्”” पाराञ्चिकम् । (बृभा २८५९ वृ) .... चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्ति जितना दोषसेवन कर आवृत्त न होने पर और गुरु के वचन का अतिक्रमण करने पर स्थान के आधार पर प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है, यथा ● गुरु के वचन का अतिक्रमण करने से - षड्गुरु • वृषभ के वचन का अतिक्रमण करने से - छेद प्रायश्चित्त ० ० कुलस्थविर के वचन का अतिक्रमण करने से - मूल • गणस्थविर के वचन का अतिक्रमण करने से - अनवस्थाप्य संघस्थविर के वचन का अतिक्रमण करने से - पारांचित । १८. मासलघु आदि के प्रतीकाक्षर चगुरु चलहु सुद्धो, छल्लहु चउगुरुग अंतिमो सुद्धो । छग्गुरु चउगुरु लहुओ ॥ ङ्का, ङ्क, सु, फ्रु, ङ्का, सु, फ्र, ङ्का, ०। (निभा ६६३६ चू) द्दि (ल) द्दी (गु)'''''। (निभा १६१ की चू) प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में अंक या प्रायश्चित्त संबंधी कुछ सांकेतिक संज्ञाओं का प्रयोग किया गया है। जैसेचतुर्लघु = ङ्क । चतुर्गुरु = ङ्का । ० • षड्लघु = फ्रु । षड्गुरु = फ्री | ० लघु मास = ० ० शुद्ध = सु । • लघु = द्दियाल । ० गुरु = द्दी या गु। ..... नक्खत्ते भे पीला, सुक्के मासं तवं कुणसु ॥ एवं ता उग्घाए, अणुघाते ताणि चेव किण्हम्मि ।....... नक्षत्रशब्देनात्र मासः सूचितः । शुक्ले इति सांकेतिकी संज्ञेति उद्घातं मासं ... | (व्यभा ४४९०, ४४९३ वृ) नक्षत्र, शुक्ल और कृष्ण- ये तीन सांकेतिक पद क्रमशः मास, लघुमास और गुरुमास के सूचक हैं। संख्या के सांकेतिक पद .....चउ विधो दसविधो ङ्क ( ई = ४ ) र्ल् (१० ) । ङ्क पद चार का तथा लृ पद दस का प्रतीक है। ******* | (निभा ४ चू) Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त ४०४ आगम विषय कोश-२ (अंक ShahALE प्रतीकाक्षर अंक प्रतीकाक्षर द्रीन्द्रिय जीवों का अपद्रावण होने पर बेला। त्रीन्द्रिय, चतरिन्द्रिय एका लृ ३ और पंचेन्द्रिय जीवों का अपद्रावण होने पर क्रमश: बेला (दो दिन लण्का का उपवास), तेला, चोला और पंचोला आता है। लृ र्तृ एकेन्द्रिय आदि जीवों का संघट्टन और परिताप होने पर लृ फ्र जीत व्यवहार के आधार पर निर्विकृतिक आदि तप प्रायश्चित्त लृ ा दिया जाता है (द्र व्यवहार)। अथवा जिनके जितनी इन्द्रियां हैं, १८ ल ह्र ल ॐ उतने कल्याणक का प्रायश्चित्त आता है। (द्र कल्याणक) ० निषिद्ध व्यक्तियों को दीक्षित करने पर-पुरुषों में अठारह, २५ लृटुंर्तृ स्त्रियों में बीस तथा नपुंसक में दस प्रकार के व्यक्ति दीक्षा के -दअचू पृ २५०, २५१) । अयोग्य माने गए हैं। इनको दीक्षित करने वाला प्रायश्चित्त का १९. प्रायश्चित्त व्यवहार के चार प्रकार भागी होता है। (द्र दीक्षा) अथवा आरोपणा प्रायश्चित्त निशीथ सो पुण चउव्विहो दव्व-खेत्त-काले य होति भावे य। और कल्पाध्ययन में अभिहित है। सच्चित्ते अच्चित्ते, दुविधो पुण होति दव्वम्मि॥ ० अचित्त का प्रायश्चित्त-दस एषणा दोष, पन्द्रह उद्गम दोष पुढवि-दग-अगणि-मारुय-वणस्ति-तसेसुहोति सच्चित्ते। (अध्यवपूरक का मिश्र में अन्तर्भाव) तथा सोलह उत्पादन के दोषों अचित्ते पिंड उवधी, दस पन्नरसेव सोलसगं॥ से युक्त भक्त-पान और उपधि ग्रहण करने पर। संघट्टण परितावण-उद्दवणा वज्जणा य सट्ठाणं। २. क्षेत्र विषयक-जनपद, मार्ग. सेना का अवरोध. मार्गातीत दाणं तु चउत्थादी, तत्तियमित्ता व कल्लाणे॥ (क्षेत्रातिक्रांत आहार आदि ग्रहण करना)--इनमें अविधि से आचरण अधवा अहारसग, पुरिस इत्यासु वाज्नया वासार करने पर प्राप्त प्रायश्चित्त। दसगं च नपुंसेसुं, आरोवण वणिया तत्थ॥ ३. काल विषयक- दुर्भिक्ष, सुभिक्ष, दिन में या रात में अयतना जणवयऽद्धाणरोधएँ, मग्गादीए य होति खेत्तम्मि। में या विधि-विपरीत आचरण करने से प्राप्त प्रायश्चित्त। दुब्भिक्खे य सुभिक्खे, दिया व रातो व कालम्मि॥ ४. भाव विषयक योगत्रिक (मन, वचन, काय) और करणत्रिक जोगतिए करणतिए, दप्प-पमायपुरिसे य भावम्मि। (कृत-कारित-अनुमति) की अशुभ प्रवृत्ति, दर्पिका प्रतिसेवना पृथिव्यादीनां संघट्टनादौ प्रत्येकं यथापत्तिप्रायश्चित्तं (निष्कारण अकल्प्य सेवन) तथा प्रमाद से संबंधित प्रायश्चित्त। तत् स्वस्थानमित्युच्यते,द्वीन्द्रियमपद्रावयतः षष्ठं त्रीन्द्रिय इसमें पुरुषों के आधार पर भी प्रायश्चित्त दिया जाता है। मपद्रावयतोऽष्टमं चतुरिन्द्रिये दशमं, पञ्चेन्द्रिये द्वादशमम्,"" अथवा यस्य यावन्ति इन्द्रियाणि तस्य तावन्ति कल्याणानि म . पथ्वीकाय-विराधना और प्रायश्चित्त प्रायश्चित्तं,... वर्जना नाम प्रव्राजनायां निषेध:""अथवा चतुरंगुलप्पमाणा, चउरो दो चेव जाव चतुवीसा। आरोपणाप्रायश्चित्तं प्राककल्पाध्ययने सप्रपञ्चमभिहित अंगुलमादी वडी, पमाण करणे य अटे व॥ मिति। . (व्यभा ४०१०-४०१४,४०१७ वृ) उवरिं तु अप्पजीवा, पुढवी सीताऽऽतवाऽणिलाऽभिहता। प्रायश्चित्त व्यवहार के चार प्रकार हैं चउरंगुलपरिवुड्डी, तेणुवरि अहे दुअंगुलिया॥ १. द्रव्यविषयक-इसके दो प्रकार हैं-सचित्त और अचित्त । (निभा १५६, १५७) सचित्त का प्रायश्चित्त दो प्रकार से आता है पृथ्वीकाय-खनन संबंधी प्रायश्चित्त इस प्रकार है• जीवों की विराधना होने पर एकेन्द्रिय-पृथ्वी, पानी, अग्नि, पृथ्वी को चार अंगुल प्रमाण खोदने पर चतुर्लघु, पांच से वायु और वनस्पति का अपद्रावण (प्राणवियोजन) होने पर उपवास। आठ अंगुल तक खोदने पर चतुर्गरु, नौ से बारह और तेरह से Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ ४०५ सोलह अंगुल तक खोदने पर क्रमशः षड्लघु और षड्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। सतरह - अठारह अंगुल में छेद, उन्नीस-बीस में मूल, इक्कीस-बाईस में अनवस्थाप्य और तेईस - चौबीस अंगुल में पारांचित प्राप्त होता है। इस प्रकार अभीक्ष्ण खनन करने पर आठवीं बार में पारांचित आता है। पहले चार-चार अंगुल और फिर दो-दो अंगुलपरिमाण से प्रायश्चित्त वृद्धि का कारण यह है कि पृथ्वी के नीचे उपरि भागों में अल्प जीव होते हैं, बहुत जीव शीत, आतप, हवा आदि से अभिहत हो जाते हैं। पृथ्वी के निम्न, निम्नतर भागों में जीवपरिमाण की अधिकता के कारण जीवविराधना भी अधिक होती है, अतः प्रायश्चित्त में वृद्धि हो जाती है। ..... आहारट्ठा व हे बलिया ।। .....मूलपलंबणिमित्तं खणेज्जा । वातातवमादीहिं असोसिया सरसा य अहे बलिया ... । (निभा १६६ चू) आहारहेतु भी पृथ्वी का खनन किया जाता है। मूलप्रलंब आदि वनस्पति पृथ्वी के अधोभागों में सरस और बलिक होती है, बाहरी धूप - हवा से उसका रस अवशोषित नहीं होता । २०. प्रायश्चित्त (व्यवहार) : गुरु-लघु-लघुस्वक गुरुओ गुरुअतराओ, अहागुरूओ य होइ ववहारो । लहुओ लहुयतराओ, अहालहू होइ ववहारो ॥ लहुसो लहुसतराओ, अहालहूसो अ होइ ववहारो । एतेसिं पच्छित्तं, वुच्छामि अहाणुपुवीए ॥ गुरुगो य होइ मासो, गुरुगतरागो भवे चउम्मासो । अहगुरुगो छम्मासो, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती ॥ तीसा य पण्णवीसा, वीसा वि य होइ लहुयपक्खम्मि | पन्नरस दस य पंच य, अहालहुसगम्मि सुद्धो वा ॥ गुरुगं च अट्टमं खलु, गुरुगतरागं च होति दसमं तु । अहगुरुग दुवालसमं, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती ॥ छट्टं च चउत्थं वा, आयंबिल - एगठाण- पुरिमङ्कं । निव्वीयं दायव्वं, अहालहुसगम्मि सुद्धो वा ॥ (बृभा ६०३९-६०४४) व्यवहार के तीन प्रकार हैं- गुरु, लघु और लघुस्वक । इन तीनों के तीन-तीन प्रकार हैं १. गुरुक, गुरुतरक यथागुरुक । २. लघुक, लघुतरक, यथालघुक । ३. लघुस्वक, लघुस्वतरक, यथालघुस्वक । गुरुक आदि नौ व्यवहारों का प्रायश्चित्त परिमाण एक मा आदि है, जो तेले आदि के तप से पूर्ण होता है। देखें यंत्रप्रायश्चित्त परिमाण व्यवहार १. २. ३. ४. गुरुक एकमास गुरुतरक चार मास यथागुरुक छह मास लघुक तीस दिन लघुतरक पच्चीस दिन यथालघुक बीस दिन लघुस्वक पन्द्रह दिन लघुस्वतरक दस दिन निर्विकृतिक यथालघुस्वक पांच दिन अथवा जिसे यथालघुस्वक व्यवहार प्राप्त है, वह शुद्ध हैप्रायश्चित्तभागी नहीं है । परिहारतपप्रायश्चित्तप्रतिपन्न उस मुनि को आलोचनाप्रदानमात्र से शुद्ध किया जाता है। (निशीथ टब्बा तथा जयाचार्यकृत झीणी चरचा, तात्त्विक ढाल ७ के आधार पर प्रायश्चित्तविधि का यंत्र - प्रायश्चित्त तप उपवास २५ दिन २५ छेद भिन्नमास २७ २७ ३० ३० १०५ १०५ १२० १२० १६५ १६५ ५. ६. ७. ८. ९. लघुमास गुरुमास लघुचौमासी गुरुचौमासी लघु छहमासी गुरु छहमासी प्रत्याख्यान निर्विकृतिक २५ पूर्वार्द्ध २७ एकासन ३० आयंबिल ४ ४ उपवास बेला तेला 22 33 " प्रायश्चित्त " तप तेला चोला पंचोला बेला "" उपवास आचाम्ल एकस्थान पूर्वार्द्ध " 22 ६ ६ १८० ,, १८० महानिशीथ के दूसरे अध्ययन तथा झीणी चरचा, तात्त्विक ढाल ८ के आधार पर उपवास आदि के अन्य मानदंडों की तालिका इस प्रकार है १. १२०० गाथाओं का स्वाध्याय या १६०० नवकार का जाप या २००० गाथाओं का वाचन " 12 27 एक उपवास Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त ४०६ आगम विषय कोश-२ २. ४५ नवकारसी एक उपवास प्रायश्चित्त के चार भेद हैं२४ प्रहर १. प्रतिसेवना-निषिद्ध-अकल्प्य आचार का समाचरण। १२ पुरिमड्ड (दो प्रहर) २. संयोजना-शय्यातरपिंड, राजपिंड आदि भिन्न-भिन्न १० अपार्ध (तीन प्रहर) अपराधजन्य प्रायश्चित्तों की संकलना। ६ निर्विगय ३. आरोपणा-एक दोष से प्राप्त प्रायश्चित्त में दूसरे दोष के ४ एकासन आसेवन से प्राप्त प्रायश्चित्त का आरोपण करना। २ आयंबिल ४. परिकुंचना-बड़े दोष को माया से छोटे दोष के रूप में बताना। ३. आगम की आठ गाथाओं का ध्यान में * प्रतिसेवना का स्वरूप द्र प्रतिसेवना अर्थ सहित चिन्तन करना। २२. संयोजना प्रायश्चित्त । ४. आगम की १३ गाथाओं का अर्थ सहित चिन्तन दो उपवास सेज्जायरपिंडे या, उदउल्ले खलु तहा अभिहडे य। " , २० , , , , , एक बेला आहाकम्मे य तहा, सत्त उ सागारिए मासा॥ , , ४० , , , , , एक तेला रणो आधाकम्मे, उदउल्ले खलु तहा अभिहडे य। " , ६० , , , , , एक चोला दसमास रायपिंडे, उग्गमदोसादिणा चेव॥ " , ८० , , , , , एक पंचोला एतेषां चैकाधिकारिकाणामपि नानात्वं न तु शय्यातर,, ,, १०० ,, , , , , छह का थोकड़ा पिण्डे एव शेषाण्यन्तर्भवन्ति, ततः सर्वाण्यपि पृथगालोचनीइसी प्रकार बीस गाथाओं के ध्यान को बढ़ाते हुए तत्फलस्वरूप यानि... शय्यातरपिण्डे मासलघु उदकार्टेपि मासलघु एक-एक थोकड़ा आगे बढ़ाना चाहिए। स्वग्रामाहृतेपि मासलघु आधाकर्मिके चत्वारो गुरुमासाः... ५. पोष या माघ महीने में पछेवड़ी को बिना ओढ़े आगम की १३ एवं शय्यातरपिण्डे अधिकृत संयोजनाप्रायश्चित्तं सप्तगाथाओं का ध्यान करे तो प्रायश्चित्तस्वरूप प्राप्त एक उपवास, २५ मासाः॥ गाथाओं का दो उपवास, ५० गाथाओं का चार उपवास और १०० (व्यभा १३८, १३९ वृ) गाथाओं का ध्यान करे तो दस उपवास उतरते हैं। जो मुनि एक साथ शय्यातरपिंड, उदकाई, अभिहत और ६. पोष तथा माघ महीने में रात्रि में आठ हाथ का वस्त्र पहने तथा आधाकर्म-इन चारों दोषों का सेवन करता है तो उसे इन सबकी ओढ़े तो प्रायश्चित्त रूप में प्राप्त एक तेला, तेईस हाथ ओढ़े- पृथक्-पृथक् आलोचना करनी होती है, एक शय्यातरपिंड में पहने तो एक बेला,अड़तीस हाथ ओढ़े-पहने तो एक उपवास सबका अन्तर्भाव नहीं होता। उतरता है। शय्यातरपिंड, उदका और अभिहत-इनमें से प्रत्येक का ७. वैशाख तथा ज्येष्ठ महीने में एक प्रहर तक आतापना ले तो एक मासलघु तथा आधाकर्म का चातुर्मासिक गुरु-इस प्रकार अधिकृत तेला उतरता है। शय्यातरपिंड में सप्तमासिक संयोजना प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २१. प्रायश्चित्त के भेद : प्रतिसेवना आदि एक मुनि पहले राजपिंड का उपभोग कर लेता है, उसकी पडिसेवणा य संजोयणा य आरोवणा य बोधव्वा। आलोचना किए बिना ही आधाकर्म, उदका, अभिहत आदि का पलिचणा चउत्थी पायच्छिन्नं चलटा उ उपभोग करता है-ये सब पथक-पथक आलोचनीय हैं। राजपिंड पतिषिदस्य वना पतिसेवना. अकल्यसमाचरणम... में उद्गम, उत्पाद आदि दोषों की संयोजना होने पर दस मास का संयोजना शय्यातरराजपिण्डादिभेदभिन्नाऽपराधजनित- प्रायश्चित्त आता है। प्रायश्चित्तानां संकलनाकरणं, आरोपणा प्रायश्चित्तानामु- २३. आरोपणा प्रायश्चित्त : स्वरूप और प्रकार पर्युपर्यारोपणं, परिकुञ्चना गुरुदोषस्य मायया लघुदोषस्य ... वीसे दाणाऽऽरोवण, मासादी जाव छम्मासा॥ कथनम्। (व्यभा ३६ वृ) ...." णो पणगादिभिण्णमासंता। (निभा ६२७२ च) Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ ४०७ निशीथ के बीसवें उद्देशक में दान आरोपणा निरूपित है। पांच अहोरात्र से भिन्न मास तक का आरोपणा प्रायश्चित्त नहीं होता । वह एक मास से छह मास पर्यंत होता है । (किसी मुनि ने ज्ञान आदि आचार के विषय में कोई अपराध किया। उसे अमुक प्रायश्चित्त दिया गया । तदन्तर उसी मुनि ने कोई दूसरा अपराध भी कर डाला, तब उस मुनि को पहले दिए गए प्रायश्चित्त में वृद्धि कर एक महीने तक वहन करने योग्य प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसे 'मासिकी आरोपणा' कहते हैं 1 पांच दिन के प्रायश्चित्त से शुद्ध होने वाला तथा एक मास के प्रायश्चित्त से शुद्ध होने वाला - ऐसे दो अपराध हो जाने पर, उस मुनि के पूर्व प्रायश्चित्त में एक मास और पांच दिन के प्रायश्चित्त की आरोपणा करना 'एक मास और पांच दिन की आरोपणा' कही जाती है। इसी प्रकार चार मास और पच्चीस दिनों की आरोपणा की जाती है। -सम २८ / १ टि) पट्टविता ठविता या कसिणाकसिणा तहेव हाडहडा । आरोवण पंचविहा पायच्छित्तं पुरिसजाते ॥ पट्ठविता य वहंते, वेयावच्चट्ठिता ठवितगा उ । कसिणा झोसविरहिता, जहिं झोसो सा अकसिणा उ ॥ उग्घातमणुग्घातं, मासादितवो उ दिज्जते सज्जं । मासादी निक्खित्ते, जं सेसं तं अणुग्घातं ॥ छम्मासादि वहंते, अंतरे आवण्ण जा तु आरुवणा । सा होति अणुग्घाता तिन्नि विगप्पा उ चरिमाए ॥ सा पुण जहन्न उक्कोस-मज्झिमा होंति तिन्नि तु विगप्पा | मासो छम्मासा वा अजहन्नुक्कोस जे मज्झे ॥ (व्यभा ५९९-६०३) प्रायश्चित्त पुरुष की क्षमता आदि के आधार पर दिया जाता । इस प्रसंग में आरोपणा के पांच प्रकार हैं १. प्रस्थापिता - आरोपित प्रायश्चित्त को वहन करना । २. स्थापिता – वैयावृत्त्यकाल में प्राप्त प्रायश्चित्त को वैयावृत्त्य समाप्ति तक स्थापित (स्थगित) करना । ३. कृत्स्ना - आरोपित प्रायश्चित्त में झोष (न्यूनता) न करना, उसे पूर्ण रूप से वहन करना। ( वर्तमान शासन में तप की उत्कृष्ट अवधि छह मास की है। जिसे इस अवधि से अधिक तप प्राप्त न हो, उसकी आरोपणा को अपनी अवधि में परिपूर्ण होने के कारण कृत्स्ना आरोपणा कहा जाता है।) प्रायश्चित्त ४. अकृत्स्ना - आरोपित प्रायश्चित्त को कुछ कम कर देना । (जिसे छह मास से अधिक तप प्राप्त हो, उसकी आरोपणा अपनी अवधि में पूर्ण नहीं होती। छह मास से अधिक तप नहीं दिया जाता। उसे उसी अवधि में समाहित करना होता है। इसलिए उसे अपूर्ण होने के कारण अकृत्स्ना आरोपणा कहा जाता है। आरोपणा के द्वारा प्रायश्चित्त का समीकरण दिया जाता है ।) ५. हाडहडा - प्राप्त प्रायश्चित्त को शीघ्र ही दे देना। इसके तीन प्रकार हैं • सद्योरूपा हाडहडा -लघु या गुरु मासिक आदि तप, जो भी प्रायश्चित्त प्राप्त है, उसे तत्काल देना, कालक्षेप न करना । ० स्थापिता हाडहडा—प्राप्त प्रायश्चित्त को वैयावृत्त्यकरणकाल में स्थापित करना तथा उस काल में अन्य लघु, गुरु जो भी प्राप्त हो, प्रमादनिवारण के लिए उसे सारा गुरु प्रायश्चित्त ही देना । ० प्रस्थापिता हाडहडा - तप वहन काल में अन्य लघु-गुरु प्राप्त हो तो उसे गुरु प्रायश्चित्त ही देना। इसके तीन विकल्प जघन्य - गुरु मास । उत्कृष्ट - छह गुरु मास । अजघन्योत्कृष्ट - दो यावत् पांच गुरु मास । ० स्थापना - आरोपणा क्या ? क्यों ? बहुपडिसेवी सोविय, गीतोऽगीतो वि अपरिणामो य । अहवा अतिपरिणामो, तप्पच्चयकारणा ठवणा ॥ यावन्तो मासा दिवसा वा प्रतिसेवितास्तावन्तः सर्वे एकत्र स्थाप्यन्ते यत् संक्षेपार्हं विंशिकादिकं प्रतिसेवितं तत् स्थाप्यते, एषा स्थापना । तदनन्तरं येऽन्ये मासाः प्रतिसेवितास्ते सफलीकर्त्तव्या इत्यकैकस्मात् मासात् प्रतिसेवनापरिमाणानुरूपं स्तोकान् स्तोकतरान् समान् विषमान् वा दिवसान् गृहीत्वा एकत्र रोपयति एषा आरोपणा, एषा चोत्कर्षतस्तावत् कर्त्तव्या, यावत्या स्थापनया सह संकलय्यमानाः षण्मासाः पूर्यन्ते नाधिकाः । ततः स्थापनारोपणयोर्यदेकत्र संकलनमेषः संचयः, अयं स्थापनारोपणासंचयानां परस्परप्रतिभक्तोऽर्थः । (व्यभा ३५२ वृ) ठवणा होति जहन्ना, वीसं राइंदियाणि पुण्णाई | पण चेव सयं, ठवणा उक्कोसिया होति ॥ आरोवणा जहन्ना, पन्नरराइंदियाइ पुणाई | उक्कोसं सट्ठिसतं, दोसु वि पक्खेवगो पंच ॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त पंचण्हं परिवुड्डी, तीसं ठवणाठाणा, तीसं ***** ******** आरोवणाय ठाणाई । (व्यभा ३५८ - ३६०, ३६३) प्रायश्चित्त ग्रहण करने वाले ये पुरुष होते हैं - गीतार्थ, अगीतार्थ, अपरिणामक और अतिपरिणामक । जो बहुत मासिकस्थानों का प्रतिसेवी है, वह यदि अगीतार्थ, अपरिणामक या अतिपरिणामी है तो उसके प्रत्यय के लिए स्थापना-आरोपणा की जाती है। जितने मास या दिवस की प्रतिसेवना की है, उन सबको एकत्र स्थापित किया जाता है, उन्हें स्थापित कर बीस दिन आदि की संक्षेपार्ह प्रतिसेवना को स्थापित किया जाता है- यह स्थापना है । तत्पश्चात् जो अन्य प्रतिसेवित मास हैं, उन सबका प्रायश्चित्त वहन करना है - यह सोचकर एक-एक मास से प्रतिसेवनापरिमाण के अनुरूप अल्प- अल्पतर सम या विषम दिनों को ग्रहण कर एकत्र रोपित किया जाता है - यह आरोपणा है । स्थापना के साथ संकलित करने पर जब तक छह मास पूर्ण न हों, तब तक आरोपणा करनी चाहिए। स्थापना और आरोपणा का जो एकत्र संकलन है, वह संचय कहलाता है। स्थापना, आरोपणा और संचय का अर्थ परस्पर प्रतिभक्त / अविभक्त है। स्थापना-आरोपणा स्थान -तीस स्थापनास्थान और तीस आरोपणास्थान हैं। प्रथम स्थापनास्थान में जघन्य स्थापना परिपूर्ण बीस अहोरात्र, मध्यम स्थानों में उत्तरोत्तर पांच-पांच की वृद्धि होती है । यथा-पच्चीस, तीस आदि। अंतिम तीसवें स्थापना स्थान में उत्कृष्ट एक सौ पैंसठ अहोरात्र स्थापनीय हैं। यही क्रम आरोपणा का है, विशेष इतना है कि स्थापना स्थान में जघन्य आरोपणा पन्द्रह अहोरात्र और उत्कृष्ट आरोपणा एक सौ साठ अहोरात्र होती है। • आरोपणा छह मास की क्यों ? धान्यपिटक दृष्टांत पंचादी आरोवण, नेयव्वा जाव होंति छम्मासा । तेण पणगादियाणं, छण्हुवरिं झोसणं कुज्जा ॥ किं कारणं न दिज्जति, छम्मासाण परतो उ आरुवणा । भणति गुरू पुण इणमो, र्ज कारण झोसिया सेसा ॥ आरोवणनिप्फण्णं, छउमत्थे जं जिणेहिं उक्कोसं । तं तस्स उ तित्थम्मी, ववहरणं धन्नपिडगं वा ॥ ४०८ आगम विषय कोश - २ जो जया पत्थिवो होति, सो तदा धन्नपत्थगं । ठावितेऽन्नं पुरिल्लेणं, ववहरंते य दंडए॥ (व्यभा १४०-१४३) पूर्व प्राप्त प्रायश्चित्त में पांच अहोरात्र से लेकर छह मास पर्यंत आरोपणा प्रायश्चित्त जानना चाहिए। छह मास से पांच अहोरात्र आदि अधिक हों तो वे सब त्याज्य हैं। शिष्य ने पूछा- भंते! छह मास से अधिक की आरोपणा क्यों नहीं दी जाती ? गुरु ने कहा- जो तीर्थंकर छद्मस्थ काल में जितना उत्कृष्ट तप करते हैं, उनके तीर्थ में उतने ही प्रमाण में आरोपणा - निष्पन्न तपः कर्म का व्यवहार होता है, उससे अधिक नहीं । राजा अपने शासनकाल में जिस धान्यप्रस्थक को स्थापित करता है, उस काल में धान्यमापन के लिए वही प्रस्थक मान्य होता है। जो व्यक्ति पुराने अथवा स्वबुद्धिकल्पित प्रस्थक का व्यवहार करता है, वह दंडित होता है। ० विषम प्रायश्चित्त : तुल्य विशोधि पुणरवि चोएति ततो, पुरिमा चरमा य विसमसोहीया । किह सुज्झती ते ऊ, चोदग! इणमो सुणसु वोच्छं ॥ कालस्स निद्धयाए, देहबलं धितिबलं च जं पुरिमे । तदणंतभागहीणं, कमेण जा पच्छिमा अरिहा ॥ संवच्छरेणावि न तेसि आसी, जोगाण हाणी दुविहे बलम्मि । जे यावि धिज्जादि अणोववेया, तद्धम्मया सोधयते त एव ॥ पत्थगा जे पुरा आसी, हीणमाणा उ तेऽधुणा । माणभंडाणि धन्नाणं, सोधिं जाणे तहेव उ॥ ( व्यभा १४५ - १४८ ) शिष्य ने पूछा- भंते! तब तो प्रथम तीर्थंकर, मध्यवर्ती तीर्थंकरों तथा चरम तीर्थंकर के शिष्यों का प्रायश्चित्त विषम होगा और शोधि भी विषम होगी। वे पूर्ण रूप से शुद्ध कैसे होंगे ? गुरु ने कहा- वत्स ! प्रथम तीर्थंकर के काल में काल की स्निग्धता के कारण साधकों का जो शारीरिक बल और धृतिबल था, चरम तीर्थंकर के काल में वह बल क्रमशः हीन होता हुआ अनंत भाग हीन हो गया । शरीरबल और धृतिबल की विषमता के कारण विषम प्रायश्चित्त का विधान है। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४०९ प्रायश्चित्त प्रथम तीर्थंकर के काल में दोनों प्रकार के बलों-शारीरिक जो गीतार्थ है या परिणामी अगीतार्थ है, उसे यदि एक बल और धृतिबल के उपचय के कारण बारह मास तक निरंतर तप मासिकी प्रतिसेवना में (उत्तरोत्तर राग-द्वेष की वृद्धि के कारण) करने पर भी साधुओं के संयमयोगों की हानि नहीं होती थी। शेष अनेक मास, अनेक मासिकी प्रतिसेवना में (अध्यवसाय की मंदता तीर्थंकरों के काल में कालदोष के कारण साधु धृतिबल आदि से के कारण) एक मास अथवा एक मासिकी प्रतिसेवना में एक मास का संपन्न नहीं रहे, किन्तु वे तद्धर्मता-प्रथम अर्हत् के साधुओं की प्रायश्चित्त दिया जाता है (अथवा सात-आठ-मासिकी प्रतिसेवना तरह अशठता, वीर्य का अनिगूहन आदि के कारण उनके समान में छह, पांच या चार मास का प्रायश्चित्त दिया जाता है), तो वह ही शोधि को प्राप्त कर लेते हैं। उसे सम्यक् ग्रहण करता है, शुद्धि में श्रद्धा करता है, अतः वहां प्राचीन काल में धान्य का प्रमाण करने वाले जो मानभांड--- स्थापना-आरोपणा विधि से प्रायश्चित्त दान का प्रयोजन नहीं है। प्रस्थक थे, वे अब हीन-हीनतर मान वाले हो गए। फिर भी धान्य बहमासिक प्रतिसेवना में एकमासिक प्रायश्चित्त मिलने का परिमाण उन्हीं से होता है क्योंकि संख्या व्यवहार (एक, दो, पर अपरिणामी सोचता है कि जिस एक मास का मुझे प्रायश्चित्त तीन, चार आदि) सदा समान रहता है। इसी प्रकार प्रायश्चित्त की दिया है, वह एक मास ही शुद्ध हुआ है, शेष मास नहीं-इस विषमता होने पर भी अशठभाव से किया जाने वाला तप:कर्म सभी आशंका से बचने के लिए स्थापना-आरोपणा की विधि से प्रायश्चित्त (प्राचीन और अर्वाचीन)मनियों की शोधि का कारण बनता है। देकर अपरिणामी के सब मास सफल किए जाते हैं। ० शासनभेद और उत्कृष्ट प्रायश्चित्त बहमासिक प्रतिसेवना में एक मासिक प्रायश्चित्त देने पर बारस अट्टग छक्कग, माणं भणितं जिणेहि सोधिकरं... अतिपरिणामी कहता है-आगम में जो आरोपणा प्रायश्चित्त है, (व्यभा ४०२) वह स्थापनामात्र है-ऐसा जानकर वह अतिप्रसंग करता हैप्रायश्चित्त का उत्कृष्ट कालमान तीन प्रकार का है- पुनः-पुनः अकरणीय में प्रवृत्त होता है। बहमासिक प्रतिसेवना ० प्रथम तीर्थंकर ऋषभ के शासन में बारह मास का। करके भी आलोचना नहीं करता। अत: अतिपरिणामी को स्थापना० मध्यम बाईस तीर्थंकरों के शासन में आठ मास का। आरोपणा के प्रकार से प्रायश्चित्त दिया जाता है। ० चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के शासन में छह मास का। सुबहूहि वि मासेहिं, छम्मासाणं परं न दातव्वं । ० उत्कृष्ट प्रायश्चित्त : जीत व्यवहार अविकोवितस्स एवं, विकोविए अन्नहा होति॥ इह जीतकल्पोऽयं, यस्य तीर्थकरस्य यावत्प्रमाण- गीतो विकोविदो खलु, कतपच्छित्तो सिया अगीतो वि। मुत्कृष्टं तपःकरणं, तस्य तीर्थे तावदेव शेषसाधूनामुत्कृष्टं छम्मासिय पट्ठवणाय तस्स सेसाण पक्खेवो।। प्रायश्चित्तदानम्। (व्यभा ३२४ की वृ) (व्यभा ४५९,४६१) जिस तीर्थंकर का जितना उत्कृष्ट तप होता है, उसके शासन बहत अधिक मासार्ह प्रतिसेवना करने पर भी छह मास में शेष साधुओं को उत्कृष्ट प्रायश्चित्त उतना ही दिया जाता है- से अधिक प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता। यह जीतकल्प है। अपरिणामी या अतिपरिणामी अकोविद को स्थापना-आरोपणा ० गीतार्थ के प्रायश्चित्त में स्थापना-आरोपणा नहीं विधि से अतिरिक्त सब मासों को सफल कर षाण्मासिक तप दिया एगम्मि णेगदाणे, णेगेसु य एगदाणमेगेगं। जाता है। विकोविद को प्रायश्चित्त अन्यथा दिया जाता हैजं दिज्जति तं गिण्हति गीतमगीतो य परिणामी॥ सुबहुमासिक प्रतिसेवना करने पर भी शेष सब मासों को छोड़कर बहुएसु एगदाणे, सोच्चिय सुद्धो न सेसगा मासा। छहमासिक तप दिया जाता है, यहां स्थापना-आरोपणा विधि का माऽपरिणामे, संका, सफला मासा कता तेणं॥ प्रयोग नहीं किया जाता। ठवणामेत्तं आरोवण त्ति इति नाउमतिपरीणामो। जो कृतप्रायश्चित्त गीतार्थ है, वह विकोविद है। जो अगीतार्थ कुज्जा व अतिपसंगं, बहुए सेवित्तु मा विगडे॥ है, प्रथम बार प्रायश्चित्त स्वीकार करता है या कहने पर भी जो (व्यभा ३५३-३५५) सम्यक परिणत नहीं होता, वह अविकोविद है। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त यदि कोविद षाण्मासिक तप आरंभ कर अंतरालकाल में मासिक आदि प्रतिसेवना करता है तो छह मास के जो शेष मास या दिवस हैं, उन्हीं में पुन: मासिक आदि प्रायश्चित्त का प्रक्षेप कर दिया जाता है, छह मास पूर्ण होने पर तद्विषयक भिन्न प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता । वणिक् मरुक और निधि दृष्टांत वणिमरुगनिही य पुणो, दिट्टंता तत्थ होंति कायव्वा । गीतत्थमगीताण य, उaraणं तेहि कायव्वं ॥ वीसं वीसं भंडी, वणिमरुसव्वा य तुल्लभंडीओ । वीसतिभागं सुंकं, मरुगसरिच्छो इहमगीतो ॥ अहवा वणिमरुगेण य, निहिलंभऽनिवेदिते वणियदंडो । मरुए पूयविसज्जण, इय कज्जमकज्ज जतमजते ॥ (व्यभा ४५४-४५६) • एक वणिक् और एक मरुक - दोनों व्यापार करने निकले। दोनों ने बीस-बीस शकट माल से भर कर एक साथ प्रस्थान किया । सभी शकटों में समान माल था और सभी समान वजन वाले थे। मार्ग में शुल्कपाल ने प्रत्येक शकट से बीसवां बीसवां भाग शुल्क रूप में मांगा। वणिक् चतुर था। उसने सोचा, प्रत्येक शकट से बीसवां भाग देने से माल को उतारने- चढ़ाने में श्रम होगा, इसलिए उसने बीस शकटों में से एक शकट का माल शुल्कपाल को दे दिया, जो प्रत्येक शकट का बीसवां भाग था । मरुक ने प्रत्येक शकट से बीसवां भाग दिया। उसे अत्यंत श्रम करना पड़ा। वणिक् सदृश गीतार्थ स्थापना - आरोपणा के बिना ही प्रायश्चित्त को स्वीकार कर लेता है। अगीतार्थ मरुक सदृश होता है । उसे स्थापना - आरोपणा के विधान से प्रायश्चित्त देना होता है। O ४१० ० निधि दृष्टांत - एक वणिक् को नींव खोदते समय निधि प्राप्त हुई। उसने राजा को निवेदन नहीं किया। राजा ने वणिक् को दंडित किया और निधि का भी हरण कर लिया। मरुक को भी निधि प्राप्त हुई। उसने सारा वृत्तान्त बता दिया। राजा ने मरुक की प्रशंसा की और निधि भी उसको दक्षिणा के रूप में दे दी। जो कार्य के प्रति यतनावान् होता है, वह मरुक की भांति लाभान्वित होता है । जो कार्य के प्रति अयतनावान् और अकार्य के प्रति यतनावान् होता है, वह वणिक् की भांति हानि में रहता है। आगम विषय कोश- २ ० कृत्स्न आरोपणा के छह प्रकार पडिसेवणा य संचय, आरुवणअणुग्गहे य बोधव्वे । अणुघातनिरवसेसं, कसिणं पुण छव्विहं होति ॥ पारंचि सतमसीतं छम्मासारुवणछद्दिणगतेहिं । कालगुरुनिरंतरं व, अणूणमधियं भवे छट्टं ॥ (व्यभा ५७२, ५७३) कृत्स्न (निरवशेष) के छह प्रकार हैं१. प्रतिसेवना कृत्स्न - पारांचित । २. संचय कृत्स्न - एक सौ अस्सी मास । ३. आरोपणा कृत्स्न - छहमासिक । ४. अनुग्रह कृत्स्न - छहमासिक तप के छह दिन बीतने पर अन्य छहमासिक तप पुनः प्राप्त होने पर पूर्व के पांच मास चौबीस दिन झोषित - परित्यक्त हो जाते हैं। ५. अनुद्घात कृत्स्न - काल गुरु आदि । अथवा निरन्तर प्रायश्चित्त दान । ६. निरवशेष कृत्स्न - अन्यूनाधिक । • अनुग्रह कृत्स्न और निरनुग्रह कृत्स्न प्रायश्चित्त छहि दिवसेहि गतेहिं, छण्हं मासाण होंति पक्खेवो । छहि चेव य सेसेहिं छण्हं मासाण पक्खेवो ॥ ये ते प्रस्थापिताः षण्मासास्तेषां षड् दिवसा व्यूढास्तदनन्तरमन्यान् षण्मासानापन्नास्ततः पूर्वं प्रस्थापित - षण्मासानां पञ्चमासाश्चतुर्विंशतिदिनाश्च झोष्यन्ते । झोषयित्वा च तत्र पाश्चात्याः षण्मासाः प्रक्षिप्यन्ते । एवं पाश्चात्यानामपि षण्मासानां षड् दिवसा झोषिता इति । एतद् धृतिसंहननाभ्यां दुर्बलमपेक्ष्यानुग्रहकृत्स्नमेष: मित्रवाचकक्षमाश्रमणानामादेशः । साधुरक्षितगणिक्षमाश्रमणाः पुनरेवं ब्रुवते, तेषां षण्णां मासानां षट् दिवसाः प्रायश्चित्तं, शेषं समस्तमपि झोषितं, पूर्व-प्रस्थापितषण्मासानामपि षट् दिवसाः झोषिताः । एतद् धृति-संहननदुर्बलमपेक्ष्यानुग्रहकृत्स्नम्। (व्यभा ४९२ वृ) ***** प्रस्थापित छहमासिक प्रायश्चित्त के छह दिन बीतने पर यदि किसी दोष के प्रायश्चित्त के रूप में पुनः छहमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तो पूर्व प्रायश्चित्त के पांच मास और चौबीस दिन की झोषणा (परित्याग) कर पश्चात्वर्ती छह मास का पूर्ववर्ती में प्रक्षेप कर दिया जाता है। जो धृति संहनन से दुर्बल है, उसके Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४११ प्रायश्चित्त लिए यह अनुग्रह कृत्स्न प्रायश्चित्त है-ऐसा मित्रवाचक क्षमाश्रमण बड़े काष्ठ को नहीं जला सकती और शीघ्र बुझ जाती है। वही का आदेश (कथन) है। श्लक्ष्ण काष्ठ या छगण आदि के चर्ण में डालने से क्रमशः प्रबल साधु रक्षितगणि क्षमाश्रमण कहते हैं-छह मासिक प्रायश्चित्त का ___ हो जाती है। इसी प्रकार धृति-संहनन से दुर्बल व्यक्ति पुनः पुनः वहन कर लिया हो, केवल छह दिन शेष रह गए हों और उसी छहमासिक तप करता हुआ विषाद को प्राप्त होता है। बीच अन्य छह मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त हो जाए तो वे छह मास स्कन्धाग्नि-बड़े काष्ठ की आग बड़े काष्ठ को जलाने में उन छह दिनों में प्रक्षिप्त कर दिये जाते हैं तथा पूर्व प्रस्थापित के समर्थ होती है। इसी प्रकार धृति-संहनन से सुदृढ़ व्यक्ति छह छह दिन झोषित होते हैं। इस प्रकार बारह मास का प्रायश्चित्त छह मास की पुनः पुनः आरोपणा से विषण्ण नहीं होता। मास में ही वहन कर लिया जाता है-यह अनुग्रह कृत्स्न प्रायश्चित्त एक माह के शिशु को चार माह के शिशु का आहार देने पर धृति-संहनन से दुर्बल व्यक्ति की अपेक्षा से है। वह अजीर्ण रोग से ग्रस्त हो जाता है। चार माह के शिशु को एक एवं बारसमासा, छद्दिवसूणा तु जेट्ठपट्ठवणा।... माह के शिशु का आहार देने पर वह दुर्बल हो जाता है। पाश्चात्यं पाण्मासिकं परिपूर्णं दीयते। धृतिसंहनन एक माह के शिशु को अल्प और चार माह के शिशु को बलिष्ठत्वात्, एवं च षण्मासाः षड्भिर्दिवसैयूंनाः पूर्वस्थापिताः प्रचुर आहार देने वाला पक्षपात के दोष से दूषित नहीं होता। दुर्बल पाश्चात्याः परिपूर्णाः षण्मासाः ततः सर्वसंकलनया द्वादश और सबल को शास्त्रोक्त विधि से प्रायश्चित्त देने वाला राग-द्वेष मासाः षड्भिर्दिवसैयूँना भवन्ति। एषा ज्येष्ठा प्रस्थापना के आरोप से मुक्त होता है। दानम्। (व्यभा ४९३ ७) तं दिज्जउ पच्छित्तं, जं तरती सा य कीरती मेरा। कोई मुनि छहमासिक तप प्रायश्चित्त का वहन कर रहा है, जा तीरति परिहरिलं, मोसादि अपच्चओ इहरा॥ केवल छह दिन शेष हैं, अन्य समस्त दिन वहन कर चुका है, इसी जो जत्तिएण सुज्झति, अवराधो तस्स तत्तियं देति ।.... मध्य अन्य छहमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त हो गया हो तो अवशिष्ट (व्यभा ६६०, ६६१) छह दिन झोषित (परित्यक्त) हो जाते हैं। धृति-संहनन की प्रायश्चित्ताह को उतना प्रायश्चित्त देना चाहिए, जितना सबलता के कारण पश्चाद्वर्ती छहमासिक प्रायश्चित्त परिपूर्ण वह वहन कर सके। मर्यादा वैसी करनी चाहिए, जिसका पालन दिया जाता है। पूर्वप्रस्थापित छह दिन न्यून छहमास और पश्चात् किया जा सके। मात्रा से अधिक प्रायश्चित्त देने से गुरु को मृषा आगत परिपूर्ण छह मास-इस प्रकार कुल मिलाकर छह दिन कम दोष तथा आशातना दोष लगता है। शिष्य में आचार्य के प्रति बारह मास हो जाते हैं। यह ज्येष्ठ प्रस्थापना-दान है-यह अविश्वास पैदा हो जाता है। अतः देश, काल और शारीरिक शक्ति निरनुग्रह कृत्स्न प्रायश्चित्त है। को ध्यान में रखकर आचार्य, जितने प्रायश्चित्त से अपराध की • दुर्बल को प्रायश्चित्त कम क्यों? विशोधि होती है, उतना ही प्रायश्चित्त देते हैं। चोदेति रागदोसे, दुब्बलबलिते य.......। २४. प्रतिकुंचना प्रायश्चित्त भिण्णे खंधग्गिम्मि य, मासचउम्मासिए चेडे ॥ दव्वे खेत्ते काले, भावे पलिउंचणा चउविगप्या..." (व्यभा ४९४) सच्चित्ते अच्चित्तं, जणवयपडिसेवितं तु अद्धाणे। शिष्य ने जिज्ञासा की-भंते ! दुर्बल व्यक्ति पश्चाद् प्राप्त सुब्भिक्खम्मि दुभिक्खे, हटेण तधा गिलाणेणं॥ छहमासिक प्रायश्चित्त का पर्वप्रस्थापित के शेष रहे छह दिनों में अन्यथा प्रतिसेवितमन्यथा कथ्यते, यया सा प्रतिही वहन कर लेता है आपका दुर्बल के प्रति राग और कुञ्चना। (व्यभा १४९, १५० वृ) बलिष्ठ के प्रति द्वेष परिलक्षित हो रहा है। दोषसेवन कर उसे अन्यथा कहना परिकुंचना है। उसके गुरु ने कहा-शिष्य ! भिन्न-अरणिघर्षण से उत्पन्न आग चार विकल्प हैं Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त ४१२ आगम विषय कोश-२ १. द्रव्य प्रतिकुंचना-सचित्त की प्रतिसेवना कर साधु कहे कि मैंने घेप्पंति च सद्देणं, निज्जुत्ती-सुत्त-पेढियधरा य। अचित्त की प्रतिसेवना की है-यह द्रव्यसंबंधी माया है। आणा-धारण-जीते य होंति पभुणो उ पच्छित्ते॥ २. क्षेत्र प्रतिकुंचना-जनपद में प्रतिसेवना कर इस रूप में कहे कि नवमस्य पूर्वस्य यत् तृतीयमाचारनामकं वस्तु मैंने मार्ग में प्रतिसेवना की है। तावन्मात्रधारिणोऽपि नवपूर्विणः, तथा कल्पधराः कल्प३. काल प्रतिकुंचना-सुभिक्ष में प्रतिसेवना कर कहे कि मैंने व्यवहारधारिणः प्रकल्पो निशीथाध्ययनं तद्धारिणः नियुक्तिर्या दुर्भिक्ष में प्रतिसेवना की है। भद्रबाहुस्वामिकृता, सूत्रपीठिका निशीथकल्पव्यवहारप्रथम४. भाव प्रतिकंचना-स्वस्थ अवस्था में प्रतिसेवना कर इस रूप में पीठिका गाथारूपाः तथा आज्ञायां धारणे जीते च य व्यवआलोचना करे कि मैंने ग्लान अवस्था में प्रतिसेवना की है। हारिणः"एते प्रायश्चित्तदाने प्रभवः । (व्यभा ४०३, ४०४ वृ) ० ऋजुता से आलोचना : न्यून प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त देने के लिए अधिकृत हैं-केवलज्ञानी, मन:जे भिक्खू मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, दसपूर्वी, नौपूर्वी-नौवें पूर्व अपलिउंचियं आलोएमाणस्स मासियं, पलिउंचियं आलोए- की तृतीय आचारवस्तु के धारक भी नौपूर्वी हैं तथा कल्प, व्यवहार माणस्स दोमासियं॥ (नि २०/१ चू) और निशीथ के ज्ञाता, भद्रबाहुस्वामीकृत नियुक्ति के धारक, निशीथ, जो भिक्ष मासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना कर ऋजुता से कल्प और व्यवहार सूत्रों की पीठिका के धारक, आज्ञाव्यवहारी, आलोचना करता है, वह मासिक प्रायश्चित्त तथा जो मायापूर्वक धारणाव्यवहारी और जीतव्यवहारी। आलोचना करता है, वह दोमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। * प्रकल्पधर प्रायश्चित्तदानार्ह द्र छेदसूत्र __ केनापि गीतार्थेन कारणे अयतनया त्रीन्वारान् बहून्वारान् जो जत्तिएण रोगो, पसमति तं देति भेस वेजो। वा मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेवितमालोचनाकाले चाप्रति- एवागम-सुतनाणी, सुज्झति जेणं तयं देंति॥ कुञ्चनयालोचितं तस्मै एकमेव मासिकं प्रायश्चित्तं"कारण- अवि य हु सुत्ते भणियं, सुत्तं विसमं ति मा भणसु एवं। प्रतिसेवनायाः कृतत्वात्। अथ प्रतिकुञ्चनयालोचयति, ततो संभवति न सो हेऊ, अत्ता जेणालियं ब्रूया॥ द्वितीयमासो मायानिष्यन्नो गुरुर्दीयते। (व्यभा ३२४ की वृ) (व्यभा ३२६, ३२८) कोई गीतार्थ सकारण अयतना से तीन बार या बहुत बार जो रोग पुरुष की प्रकृति के अनुसार औषध की जितनी मासिक परिहारस्थान प्रतिसेवना कर आलोचना काल में ऋजुता से मात्रा से उपशांत होता है, वैद्य रोगी को उतनी ही मात्रा में औषध आलोचना करता है तो उसे एकमासिक और जो माया से आलोचना देता है। इसी प्रकार आगम-श्रृतज्ञानी गीतार्थ-अगीतार्थ को उतनी करता है, उसे द्वैमासिक प्रायश्चित्त दिया जाता है। दूसरा मास मात्रा में प्रायश्चित्त देते हैं, जितनी मात्रा से उनकी शोधि होती है। गुरुमास होता है। सूत्रों में विषम प्रतिसेवनाओं के लिए भी तुल्य प्रायश्चित्त जो जं काउ समत्थो, सो तेण विसुज्झते असढभावो। प्रतिपादित है। कोई कहे कि सूत्र ही विषम है तो यह कथन ठीक गृहितबलो न सुज्झति, ............. ॥ नहीं है। सूत्र के अर्थकर्ता अर्हत् हैं, वीतराग हैं। उनमें ऐसा कोई (व्यभा ५५७) कारण संभव नहीं है, जिससे वे असत्य कहें। विषम भाषण के जो जिस तप को करने में समर्थ है, वह उसे ऋजुभाव से तीन कारण हैं-राग, द्वेष और मोह। अर्हत् इनसे अतीत होते हैंकरता है तो शुद्ध हो जाता है। अपने वीर्य का गोपन करने वाला रागाद्वा द्वेषाद्वा, मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम्। शुद्ध नहीं होता। यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं किं स्यात् ? ॥ २५. प्रायश्चित्तदान के अधिकारी दोसविभवाणुरूवो, लोए दंडो वि किमुत उत्तरिए। केवल-मणपज्जवनाणिणो य तत्तो य ओहिनाणजिणा। तित्थुच्छेदो इहरा, निराणुकंपा न य विसोही॥ चोद्दस-दस-नवपुव्वी, कप्पधर पकप्पधारी य॥ (व्यभा १७२) Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ लोक में भी दोष और विभव ( धन अथवा सामर्थ्य) के अनुरूप दण्ड दिया जाता है तो लोकोत्तर की तो बात ही क्या ? अन्यथा तीर्थ का उच्छेद हो जाता है। प्रायश्चित्तदाता निष्करुण हो तो अपराधी की विशोधि भी नहीं होती । २६. दोष स्वीकृति के बिना प्रायश्चित्त नहीं ४१३ पम्हुट्टे पडसारण, अप्पडिवज्जंतयं न खलु सारे । जइ पडिवज्जति सारे, दुविहऽतियारं पि पच्चक्खी ॥ (व्यभा ३१९ ) साधु मूलगुण-उत्तरगुण संबंधी अतिचारों की आलोचना करते हुए कुछ आलोचनीय को भूल जाता है तो आगमव्यवहारी उसे वह आलोचनीय बात याद दिला देते हैं। यदि वह स्वीकार कर लेता है तो ठीक है, अन्यथा उसे प्रतिस्मारणा नहीं करवाते । (वे जान लेते हैं कि यह स्वीकार नहीं करेगा, इसलिए उसे निष्फल स्मारणा नहीं करवाते । आगमव्यवहारी अमूढलक्ष्य होते हैं। आलोचक के अस्वीकार करने पर उसे प्रायश्चित्त नहीं देते।) २७. दोषों के एकत्व के हेतु जिणचोद्दसजातीए, आलोयणदुब्बले य आयरिए । एतेण कारणेणं दोसा एगत्तमावन्ना ॥ घतकुडगो उ जिणस्सा, चोहसपुव्विस्स नालिया होति । दव्वे एगमणेगे, निसज्ज एगा अणेगा य ॥ मास - चउमासिएहिं, बहूहि वेगं तु दिज्जते सरिसं । जातिर्द्विधा - प्रायश्त्तिक जातिर्द्रव्यजातिश्च । तत्र प्रायश्चित्तकजातिमधिकृत्येदमुच्यते, ''बहुषु लघुमासिकेषु प्रतिसेवितमासानामपि सादृश्यत्वात् आलोचनायामपि सर्वेषामशठभावेनैकवेलायामालोचितत्वात् एकं लघुमासिकं दातव्यं, एवं बहुषु गुरुमासिकेषु प्रतिसेवितेष्वेकं गुरुकम् । (व्यभा ४३७, ४३८, ४४५ वृ) विभिन्न दोषों के एकत्व में छह हेतु बनते हैं१. जिन ४. आलोचना ५. २. चौदहपूर्वी आदि ३. एकजातीय दोष . दुर्बल अपराधी ६. आचार्य जिन के लिए घृतकुटक तथा चौदहपूर्वी के लिए नालिका दृष्टांत निरूपित है। एकजातीय में एक-अनेक द्रव्यविषयक तथा आलोचना में एक-अनेक निषद्या विषयक कथन है 1 ० जाति के दो प्रकार हैं- प्रायश्चित्तकजाति तथा द्रव्यजाति। यहां प्रायश्चित्तकजाति गृहीत है। मास, चतुर्मास आदि प्रायश्चित्त की अनेक जातियां - प्रकार । उनको पिंडित कर प्रायश्चित्त का कथन किया जाता है । जैसे- किसी ने बहुत लघुमासिक प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवनाएं मंद अनुभावों से की हैं, उन सबकी आलोचना एक साथ एक समय में करता है, ऋजुभावों से आलोचना करता है और प्रतिसेवित मासों की सदृशता है तो उसे उन सब एकजातीय प्रतिसेवनाओं का एक लघुमासिक प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसी प्रकार बहुत गुरुमासिक प्रतिसेवनाओं का एक गुरुमासिक प्रायश्चित्त दिया जाता है। • एक आलोचना एक निषद्या - गुरु जितनी बार आलोचना देते हैं, उतनी बार निषद्या करनी होती है। सभी अपराधों की एक साथ आलोचना देने पर एक ही निषद्या करनी होती है ० जिन : घृतकुट दृष्टांत उप्पत्ती रोगाणं, तस्समणे ओसधे य विब्भंगी । नाउं तिविधामयिणं, देंति तथा ओसधगणं तु ॥ एक्केणेक्को छिज्जति, एगेण अणेग णेगेहि एक्को । गेहिं पि अणेगे, पडिसेवा एव मासेहिं ॥ एक्कोसण छिज्जति, केइ कुविता य तिण्णि वातादी । बहुएहिं छिज्जंती, बहूहि एक्केक्कतो वा वि॥ विभंगी व जिणा खलु, रोगी साहू य रोग अवराहा । सोधी य ओसहाई, तीए जिणा उ वि सोहंति ॥ एसेव य दितो, विब्भंगिकतेहिं वेज्जसत्थेहिं । भिसजा करेंति किरियं, सोहेंति तधेव पुव्वधरा ॥ प्रायश्चित्त मिथ्यादृष्टिरुत्पन्नाऽवधिर्विभंगी क्वचिदेकेन घृतकुटेन एको वातादिको रोग: छिद्यते, एष प्रथमो भंग: क्वचिदेकेनघृतकुटेन अनेके त्रयोपि वातादयो दोषाः छिद्यन्ते, एष द्वितीयः तथा क्वचिदनेकैर्धृतकुटैरेको ऽत्यंतमवगाढो रोगो वातादिकश्छेदमुपयाति एष तृतीयः क्वचिदनेकैर्धृतकुटैरनेके वातादयो दोषा उपशाम्यन्ति, एष चतुर्थो भंग: विभंगज्ञानिनः सर्वरोगाणां निदानमेकानेकौषधसामर्थ्यं चावबुध्यमाना उपसम्पन्नानां रोगिणां घृताद्यौषधगणं प्रयुञ्जन्ते । (व्यभा ४३९-४४३ वृ) चिकित्साकाल में एक विभंगज्ञानी - मिथ्यादृष्टि अवधिज्ञानी रोगों की उत्पत्ति (निदान) और उन रोगों की शामक औषधि को Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त ४१४ आगम विषय कोश-२ जानकर तीन प्रकार के रोगियों (वात-पित्त-कफ-ग्रस्त) को वैसी नालिका से जलसंगलनद्वारा अहोरात्र का अतीत या अवशिष्ट औषधि देता है, जिससे उनका रोग उपशांत हो जाता है। काल जान लिया जाता है। इसी प्रकार पूर्वधर आगमबल से घृतकुट के चार विकल्प आलोचक के अभिप्राय को सम्यक् रूप से जानकर उसके अनुरूप १. एक घृतकुट से एक रोग का शमन। प्रायश्चित्त देते हैं, जिससे उसकी शुद्धि हो जाती है। २. एक घृतकुट से अनेक रोगों का शमन। नालिका का अर्थ है घटिका। सर्वप्रथम उसकी प्ररूपणा ३. अनेक घृतकुटों से एक असाध्य रोग का शमन। करनी चाहिए। पादलिप्तकृत विवरण में कालज्ञान के प्रसंग में ४. अनेक घृतकुटों से अनेक रोगों का शमन। उसके छिद्र का परिमाण इस प्रकार प्रतिपादित हैइसी प्रकार एकमासिकी और अनेकमासिकी प्रतिसेवना का दाडिम के फल की आकृति वाली एक लोहमयी नालिका प्रायश्चित्त भी एकमासिक अथवा अनेकमासिक होता है। का निर्माण कर उसके तल में एक छिद्र किया जाता है। उस छिद्र औषधप्रदान के भी चार विकल्प हैं का परिमाण सुनो-एक तीन वर्ष की गजबालिका के मूल के १. एक औषध से एक रोग का शमन । छियानवें बालों को समश्रेणी में पिण्डीभूत कर उनसे नालिका के २. एक औषध से वात-पित्त-कफजनित त्रिविध रोगों का शमन। छिद्र का परिमाण किया जाता है। अथवा दो वर्ष की गजबालिका ३. बहुत औषधियों से एक रोग का शमन। के पूंछ के बालों से अथवा चार स्वर्णमाषों से निर्मित चार अंगुल ४. बहुत औषधियों से बहुत रोगों का शमन। की सचिका से नालिका के छिद्र का परिमाण किया जाता है। विभंगज्ञानी रोगों के निदान और औषधसामर्थ्य को जानकर २८. प्रायश्चित्त में नानात्व और विशोधि : घट-पट दृष्टांत औषध देते हैं। धन्वन्तरि तुल्य हैं-जिन। रोगीतुल्य है-साधु। जिणनिल्लेणवकुडए, मासें अपलिकुंचमाणे सट्ठाणं। रोगतल्य है अपराध। औषधतल्य है प्रायश्चित्त। मासेण विसुज्झिहिती, तो देंति गुरूवदेसेणं॥ जैसे वैद्य विभंगज्ञानीकृत वैद्यशास्त्रों के माध्यम से विभंगज्ञानी एगुत्तरिया घडछक्कएण, छेदादि होंति निग्गमणं। की भांति घृत या औषध के चारों विकल्पों से रोगापनयन क्रिया एतेहि दोसवडी, उप्पत्ती रागदोसेहिं॥ करते हैं, वैसे ही पूर्वधर जिनोपदिष्ट शास्त्रों के माध्यम से प्रायश्चित्त अप्पमलो होति सुची, कोइ पडो जलकुडेण एगेण। देकर 'जिन' की भांति अपराधी की शोधि करते हैं। मलपरिवुड्डीय भवे, कुडपरिवुड्डीय जा छ तू॥ ० पूर्वधर : नालिका दृष्टांत तेण परं सरितादी, गंतुं सोधेति बहुतरमलं तु। नालीय परूवणता, जह तीय गतो उ नज्जते कालो। मलनाणत्तेण भवे, आदंचण-जत्त-नाणत्तं ॥ तह पुव्वधरा भावं, जाणंति विसुज्झए जेणं॥ बहुएहिं जलकुडेहिं, बहूणि वत्थाणि काणि वि विसुझे। नालिका नाम घटिका, तस्याः पूर्वं प्ररूपणा कर्तव्या, अप्पमलाणि बहूणि वि, काणिइ सुझंति एगेणं॥ यथा पादलिप्तकृतविवरणे कालज्ञाने सा चैवं (व्यभा ५०४-५०८) "दाडिमपुप्फागारा, लोहमयी नालिगा उ कायव्वा।। जिन आदि आगम-व्यवहारी अपराधी की प्रतिसेवना को तीसे तलंमि छिदं, छिद्दपमाणं च मे सुणह ।। अतिशायी ज्ञान से जानकर जितने प्रायश्चित्त से उसकी विशोधि छन्नउयमूलबालेहिं, तिवस्सजायाए गयकुमारीए। होती है, उतना प्रायश्चित्त देते हैं। श्रुतव्यवहारी गुरु के उपदेश के उज्जुकयपिंडिएहिं, कायव्वं नालियाछिदं॥ आधार पर यथोचित प्रायश्चित्त देते हैं। कोई मासिक प्रायश्चित्त अहवा दुवस्सजायाए गयकुमारीए पुच्छबालेहिं। जितनी प्रतिसेवना कर ऋजुता से आलोचना करता है तो उसे विविहगुणेहिं तेहिं, कायव्वं नालियाछि६॥ स्वस्थान (मासिक) प्रायश्चित्त दिया जाता है। अहवा सुवण्णमासेहि, चउहिं चउरंगुला कया सूई। जलकुंभ और वस्त्र की चतुर्भंगीनालियतलंमि तीए, कायव्वं नालियाछिदं॥" ० एक वस्त्र एक जलकुंभ से स्वच्छ होता है। (व्यभा ४४४ वृ) ० एक वस्त्र अनेक जलकुंभों से स्वच्छ होता है। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४१५ प्रायश्चित्त ० अनेक वस्त्र एक जलकुंभ से स्वच्छ होते हैं। एक राजा के तीन पुत्रों ने परस्पर मिलकर मंत्रणा की-हम ० अनेक वस्त्र अनेक जलकुंभों से स्वच्छ होते हैं। पिता को मारकर राज्य को तीन भागों में बांट लेते हैं। यह बात अल्प मल वाला वस्त्र एक जलकुट से स्वच्छ हो जाता है। राजा को ज्ञात हो गई। यह युवराज है, प्रधान वस्तु (पुरुष) हैमलवृद्धि से जलकुटों की वृद्धि होती है। छह जलकुटों की वृद्धि ऐसा सोचकर राजा ने ज्येष्ठ पुत्र का भोगहरण किया, बंधन, तक तो घर में ही वस्त्र को प्रक्षालित किया जाता है। इससे अधिक ताडन, तिरस्कार आदि सब प्रकारों से उसे दण्डित किया। जल की अपेक्षा वाले, बहुतर मल वाले पट को नदी आदि के तट मध्यम पत्र भ्रमित किया हआ है, अप्रधान है-यह सोचकर पर जाकर क्षार, गोमूत्र आदि का प्रयोग कर काष्ठपट्टिका से पीट राजा ने उसका भोगहरण नहीं किया, बंधन-वध आदि उपायों को पीट कर नाना प्रयत्नों से उसे स्वच्छ किया जाता है। काम में लिया। कनिष्ठ पुत्र अव्यक्त है, ठगा गया है-यह इसी प्रकार थोड़े अपराध की शुद्धि मासिक यावत् छहमासिक सोचकर उसके कान पर एक चपेटा दिया और खिंसना की। तप से तथा गुरुतर अपराध की शुद्धि छेद आदि प्रायश्चित्तों से होती लोक-लोकोत्तर में सर्वत्र वस्तुसदृश दंड दिया जाता है। है। रागद्वेषवृद्धि से दोषवृद्धि तथा प्रायश्चित्तवृद्धि होती है। प्रधान प्रमाणपुरुष के अपराध करने पर अनेक दोष उत्पन्न होते २९. न्यूनाधिक प्रायश्चित्त : रत्नवणिक् दृष्टांत जं जह मोल्लं रयणं, तं जाणति रयणवाणिओ निउणो। आचार्य और उनके उपदेश में अप्रत्यय पैदा होता है। साधु थोवं तु महल्लस्स वि, कासति अप्पस्स वि बहुं तु॥ क्रोध आदि करने में विश्वस्त हो जाते हैं। लोक-गर्दा होती है। को अधवा कायमणिस्स उ, सुमहल्लस्स विउकागिणीमोल्लं। क्रोधी गुरु के लिए शिष्य दुर्लभ होते हैं। शिष्य उनसे डरते नहीं वइरस्स उ अप्पस्स वि, मोल्लं होती सयसहस्सं ॥ और उनकी आज्ञा की अवमानना करते हैं। अत: पुरुष की प्रधानताइय मासाण बहूण वि, रागहोसऽप्पयाय थोवं तु। अप्रधानता के आधार पर दंड भी विसदृश होते हैं। रागद्दोसोवचया, पणगे वि जिणा बहुं देंति॥ (व्यभा ४०४३-४०४५) तुल्लम्मि वि अवराहे, तुल्लमतुल्लं व दिज्जए दोण्हं। निपुण रत्नवणिक् रत्नों का यथार्थ मूल्य जानता है। वह पारंचिके वि नवमं, गणिस्स गुरुणो उ तं चेव॥ गुणविहीन बड़े रत्न का भी कम और गुणोपेत छोटे रत्न का भी अहवा अभिक्खसेवी, अणुवरमं पावई गणी नवमं। बहुत मूल्य आंकता है। अथवा वह बड़ी काचमणि का काकिणी ___पावंति मूलमेव उ, अभिक्खपडिसेविणो सेसा॥ जितना ही मूल्य देता है तथा छोटे वज्र रत्न का भी एक लाख मुद्रा पाराञ्चिकापत्तियोग्येऽप्यपराधपदे सेविते 'गणिनः' का मूल्य दे देता है। उपाध्यायस्य नवमम्... 'गुरोः' आचार्यस्य पुनः तदेव पाराञ्चिकं इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष राग-द्वेष के अपचय-उपचय के दीयते। (बृभा ५१२६, ५१२७ वृ) आधार पर कम या ज्यादा प्रायश्चित्त देते हैं। अपराध समान होने पर भी पुरुष-विशेष के आधार पर ३०. सदृश अपराध में विसदृश दंड : कुमार-दृष्टांत प्रायश्चित्त का विधान है। पारांचित योग्य अपराध करने पर आचार्य ....... पुच्छा य कुमारदिटुंतो॥ को पारांचित प्रायश्चित्त ही दिया जाएगा और उपाध्याय को सरिसावराहदंडो, जुगरण्णो भोगहरण बंधादी। अनवस्थाप्य दिया जाएगा। अथवा पुनः-पुनः प्रतिसेवना कर, उससे मज्झिमे बंधवहादी, अव्वत्ते कण्णादि खिंसा य॥ ॥ उपरत नहीं होने पर उपाध्याय को अनवस्थाप्य और शेष साधुओं अप्पच्चय वीसत्थत्तणं च लोगगरहा य दुरभिगमो। को मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। आणाए य परिभवो, णेव भयं तो तिहा दंडो॥ (निभा २८०९, २८१४, २८१५) ३१. पुरुषभेद से प्रायश्चित्त में भेद शिष्य ने पूछा-सदृश अपराध में विसदृश दण्ड क्यों दिया गुरुमादीया पुरिसा, तुल्लवराहे वि तेसि नाणत्तं। जाता है ? गुरु ने कुमारदृष्टांत दिया परिणामगादिया वा, इड्डिमनिक्खंत असहू वा॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त ४१६ आगम विषय कोश-२ पुमं बाला थिरा चेव, कयजोग्गा य सेतरा। होते हैं-कृतकरण और अकृतकरण, स्थिर और अस्थिर, गीतार्थ अधवा दुविहा पुरिसा, होंति दारुण-भद्दगा॥ और अगीतार्थ। (व्यभा ४०२५, ४०२६) कृतकरण वे हैं, जो गृहस्थपर्याय और मुनिपर्याय में बेले, पुरुषों के अनेक प्रकार हैं-गुरु आदि पुरुष अथवा परिणामक, तेले आदि की विशिष्ट तपस्या से अपने आपको परिकर्मित कर अपरिणामक और अतिपरिणामक पुरुष अथवा ऋद्धिमान प्रव्रजित चुके हैं। कुछ आचार्यों का अभिमत है कि गीतार्थ नियमतः कृतकरण ऋद्धिविहीन प्रव्रजित, असह-ससह, पुरुष, स्त्री, नपुंसक, बाल होते हैं। क्योंकि महाकल्पश्रुत आदि आगमों के अध्ययनकाल में वे वृद्ध, स्थिर-अस्थिर, कृतयोगी-अकृतयोगी-इन सबके तुल्य अपराध दीर्घकाल तक योगवहन कर योगार्ह हो जाते हैं। होने पर भी प्रायश्चित्त में भिन्नता रहती है। अथवा स्वभावतः पुरुष । ० निर्गत-वर्तमान, आत्मतरक-परतरक दो प्रकार के होते हैं-दारुण और भद्र-तुल्य अपराध होने पर भी । निग्गयवटुंता वि य, संचइता खलु तहा असंचइता। इनके प्रायश्चित्त में भेद रहता है। एक्केक्काए दुविधा, उग्घात तहा अणुग्घाता॥ छेदादी आवण्णा, उ निग्गता ते तवा उ बोधव्वा। ३२. प्रायश्चित्तवाहक के प्रकार : कृतकरण आदि जे पुण वटुंति तवे, ते वटुंता मुणेयव्वा॥ कतकरणा इतरे वा, सावेक्खा खलु तहेव निरवेक्खा। मासादी आवण्णे, जा छम्मासा असंचयं होति। निरवेक्खा जिणमादी, सावेक्खा आयरियमादी। छम्मासाउ परेणं, संचइयं तं मुणेयव्वं ॥ अकतकरणा वि दुविहा, अणभिगता अभिगता य बोधव्वा। (व्यभा ४७२-४७४) जं सेवेति अभिगते, अणभिगते अत्थिरे इच्छा॥ प्रायश्चित्त वहन करने वाले पुरुष के दो प्रकार हैंअहवा सावेक्खितरे, निरवेक्खा सव्वसो उ कयकरणा। १. निर्गत-तपोयोग्य प्रायश्चित्त को अतिक्रान्त कर छेद आदि इतरे कयाऽकया वा, थिराऽथिरा होति गीतत्था। प्रायश्चित्त प्राप्त। छद्रऽट्रमादिएहिं, कयकरणा ते उ उभयपरियाए। २. वर्तमान-तपयोग्य प्रायश्चित्त में वर्तमान अथवा तपपर्यंत प्रथम अभिगतकयकरणत्तं, जोगायतगारिहा केई॥ छह प्रायश्चित्तों में स्थित। (व्यभा १५९-१६२) वर्तमान के दो प्रकार हैं-१. संचयिता-छह मास से तप के आधार पर प्रायश्चित्त वाहक पुरुषों के दो भेद हैं- अधिक (उत्कृष्ट १८० मास) प्रायश्चित्त प्राप्त। कृतकरण और अकृतकरण । कृतकरण के दो भेद हैं २. असंचयिता-मासिक यावत् छहमासिक प्रायश्चित्त में वर्तमान। १. सापेक्ष - गच्छवासी। जैसे आचार्य, उपाध्याय, साधु । इन दोनों के दो-दो प्रकार हैं-उद्घात और अनुद्घात। २. निरपेक्ष - संघमक्त । जैसे जिनकल्पिक आदि। पच्छित्तस्स उ अरहा, इमे उ पुरिसा चउव्विहा होति। अकृतकरण भिक्षु दो प्रकार के होते हैं-अगीतार्थ और गीतार्थ। उभयतर आततरगा, परतरगा अण्णतरगा य॥ इनके दो-दो भेद हैं आततर-परतरे या, आततरे अभिमुहे य निक्खित्ते ।.... १. स्थिर-धृति-संहनन-संपन्न, २. अस्थिर-धुति-संहनन-हीन। (व्यभा ४७९, ४८०) स्थिर गीतार्थ जितनी मात्रा में प्रायश्चित्त स्थान का सेवन प्रायश्चित्त के योग्य पुरुष चार प्रकार के होते हैंकरता है, उतनी मात्रा में उसे परिपूर्ण प्रायश्चित्त दिया जाता है। १. उभयतरक-उत्कृष्ट छहमासिक तप करने पर भी जो अग्लान अस्थिर अगीतार्थ को गुरु उसकी सामर्थ्य के आधार पर भाव से आचार्य आदि का वैयावृत्त्य करते हैं। वे स्वयं और कम या पूर्ण प्रायश्चित्त देते हैं। आचार्य-दोनों के उपग्रहकारी होते हैं। अथवा पुरुषों के दो प्रकार हैं-सापेक्ष और निरपेक्ष। निरपेक्ष २. आत्मतरक-जो तपोबलिष्ठ हैं किन्तु वैयावृत्त्यलब्धिसम्पन्न सर्वथा कतकरण, गीतार्थ और स्थिर होते हैं। सापेक्ष दोनों प्रकार के नहीं हैं। वे तप के द्वारा स्वयं पर ही अनग्रह करते हैं। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ ३. परतरक - जो तपोबल से हीन हैं, केवल वैयावृत्त्य करते हैं। ४. अन्यतरक - जो तप और वैयावृत्त्य दोनों में समर्थ हैं किन्तु एक समय में एक ही कार्य कर सकते हैं। ४१७ उभयतरक और आत्मतरक - ये दोनों प्रायश्चित्त के अभिमुख होते हैं। परतरक और अन्यतरक जब तक वैयावृत्त्य करते हैं, तब तक उनका प्रायश्चित्त निक्षिप्त रहता है। ३३. छोटी त्रुटि की उपेक्षा : सारणि आदि दृष्टांत अवसो व रायदंडो, न एवमेवं तु होति पच्छित्तं । संकर - सरिसव-सगडे, मंडववत्थेण दिट्टंता ॥ राजदण्डोऽवश्यमवशेनाप्युह्यते, यदि पुनर्नेति नोह्यते ततः शरीरविनाशो भवति । प्रायश्चित्तमप्यवश्यं भवति वोढव्यं, तद्वहनाभावे चारित्रशरीरविनाशापत्तेः ।" संकरस्तृणाद्यवकरः '' यथा सारण्या क्षेत्रे पाय्यमाने सारणिस्त्रोतसि तृणशूकमेकं तिर्यग् लग्नं तैर्नापनीतं तन्निश्रया अन्यान्यपि तृणशूकानि लग्नानि तन्निश्रया प्रभूतः पंको लग्नः । तत एवं तस्मिन् स्त्रोतसि रुद्धे क्षेत्रे समस्तमपि शुष्कम् । एकः पाषाणः शकटे प्रक्षिप्तः स नापनीतः अन्यः प्रक्षिप्तः कोऽपि गरीयान् पाषाणो यस्मिन् प्रक्षिप्ते तच्छकटं भंक्ष्यति । एरण्डमण्डपे एकः सर्षपः प्रक्षिप्तः स नापपीतः अन्यः प्रक्षिप्तः सोऽपि नापनीतः ।" एरण्ड-मण्डपो भज्यते । शुद्धे वस्त्रे कर्दमबिन्दुः पतितः, स न प्रक्षालितः, अन्यः पतितः सर्वं तद्वस्त्रं कर्दमवर्णं संजातम् एवं तु शुद्धचारित्रं स्तोकायां स्तोकायामापतितायामापत्तौ प्रायश्चित्तेनाशोध्यमानायां कालक्रमेणाचारित्रं सर्वथा भवति । (व्यभा ५५५ वृ) मुनि को चारित्र की विशुद्धि के लिए स्वेच्छा से प्रायश्चित्त वहन करना चाहिए, न कि राजदण्ड की तरह विवश होकर । राजदण्ड वहन न करने पर शरीर का नाश तथा प्रायश्चित्त वहन न करने पर चारित्र का विनाश होता है। ० सारणि - एक सारणि से खेत की सिंचाई की जाती थी। उसमें एक तृणशूक फंस गया। उसे निकाला नहीं गया, फिर दूसरा फंस गया। कालांतर में धीरे-धीरे वह सारणि कचरे से भर गई । पानी का आगे बढ़ना बंद हो गया । खेत सूख गया। • शकट - एक गाड़ी में पत्थर भरे जाने लगे। एक काष्ठ टूटा। प्रायश्चित्त उसकी उपेक्षा की गई। भरते भरते एक बड़ा पत्थर गाड़ी में डाला गया और पूरी गाड़ी ही टूट गई। ० मण्डप - एरण्डमण्डप पर प्रतिदिन सरसों के दाने फेंके जाने लगे। एक दिन उनके अत्यधिक भार से मंडप भग्न हो गया। ० वस्त्र–स्वच्छ वस्त्र पर कीचड़ की एक बूंद गिरी, उसे साफ नहीं किया गया । पुनः पुनः बूंदें गिरने से एक दिन वह वस्त्र कर्दमवर्ण वाला हो गया। 1 इसी प्रकार छोटे-छोटे अपराधों की उपेक्षा कर प्रायश्चित्त से शुद्धि न करने पर एक दिन चारित्र अचारित्र हो जाता है। ३४. अप्रमत्त भी प्रायश्चित्तभागी परीषहाणामसहनेन श्रोत्रेन्द्रियादिविषयेष्विष्टानिष्टेषु रागद्वेषाभिगमनतो वा प्रायश्चित्तस्थानापत्त्या'''''। (व्यभा ६२६ की वृ) आवरिता वि रणमुहे, जधा छलिज्जंति अप्पमत्ता वि मूलगुण-उत्तरगुणे, जयमाणा वि हु तथा छलिजंति .... (व्यभा ६२७, ६२८) प्रमत्तमुनि प्रायश्चित्त का भागी होता है। इसके मुख्य हेतु दो हैं - १. परीषहों को सहन न कर पाना। २. इष्ट-अनिष्ट इन्द्रियविषयों में राग-द्वेष करना । जैसे रणभूमि में प्रविष्ट कवचधारी योद्धा भी शत्रुओं से छले जाते हैं, वैसे ही मूलगुण-उत्तरगुणों में जागरूक श्रमण भी परीषह और उपसर्गों से छले जाते हैं। ३५. निर्ग्रथ - संयत: कितने प्रायश्चित्त ? पंचे नियंठा खलु, पुलाग - बकुसा कुसील-निग्गंथा । तह य सिणाया तेसिं, पच्छित्त जधक्कमं वोच्छं ॥ आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे तहा विउस्सग्गे । तत्तो तवे य छट्टे, पच्छित्त पुलाग छप्पेते ॥ बकुसपडिसेवगाणं, पायच्छित्ता हवंति सव्वे वि । थेराण भवे कप्पे, जिणकप्पे अट्ठहा होति ॥ आलोयणा विवेगो य, नियंठस्स दुवे भवे । विवेगो य सिणातस्स, एमेया पडिवत्तिओ ॥ पंचे संजता खलु, नातसुतेणं कधिय जिणवरेणं ...... सामाइसंजताणं, पच्छित्ता छेदमूलरहितऽट्ठा । थेराण जिणाणं पुण, तवमंतं छव्विधं होति ॥ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त ० छेदोवट्ठावणिए, पायच्छित्ता हवंति सव्वे वि । थेराण जिणाणं पुण, मूलंर्ती अट्टहा होति ॥ परिहारविसुद्धीए, मूलंता अट्ठ होंति पच्छित्ता । थेराण जिणाणं पुण, छव्विध छेदादिवज्जं वा ॥ आलोयणा विवेगे य, तइयं तु न विज्जती । सुहुमे य संपराए, अधक्खाए तथेव य ॥ (व्यभा ४१८४ - ४१९२ ) निग्रंथ और प्रायश्चित्त - आचारविशुद्धि की तरतमता के आधार पर निर्ग्रथ के पांच प्रकार हैं- पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रथ और स्नातक। इनके प्रायश्चित्त का क्रम इस प्रकार है पुलाक निर्ग्रथ को प्रथम छह प्रायश्चित्त दिए जाते हैं- आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग और तप । • बकुश और प्रतिसेवनाकुशील - ये दोनों स्थविरकल्प में होते हैं। इन दोनों प्रकार के निर्ग्रथों के दस तथा यथालंदकल्पी और जिनकल्पी के लिए प्रथम आठ प्रायश्चित्त विहित हैं। o निर्ग्रथ (वीतराग) के लिए आलोचना और विवेक तथा स्नातक (केवली) के लिए केवल विवेक प्रायश्चित्त का विधान है। संयत और प्रायश्चित्त-संयत के पांच प्रकार हैं- सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात । • स्थविरकल्पी सामायिक संयत के छेद और मूल को छोड़कर आठ तथा छेदोपस्थापनीयसंयत के दस प्रायश्चित्त होते हैं। ० जिनकल्पी सामायिक संयत के तपपर्यंत छह तथा छेदोपस्थापनीय संत के मूलपर्यंत आठ प्रायश्चित्त होते हैं। ० परिहारविशुद्धि स्थविरकल्पी के लिए प्रथम आठ तथा जिनकल्पी के लिए छेद आदि वर्जित प्रथम छह प्रायश्चित्तों का विधान है। सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यातचारित्री के लिए आलोचना और विवेक - ये दो प्रायश्चित्त विहित हैं। ३६. कर्मबंध हेतुक प्रवृत्ति और प्रायश्चित्त ता जेहि पगारेहिं, बज्झती णाणणिण्हवादीहिं । णिक्कारणम्मि तेसू, वट्टंते होति पच्छित्तं ॥ कामं आउयवज्जा, णिच्चं बज्झति सव्वपगडीतो । जो बादरो सरागो, तिव्वासु तासु पच्छित्तं ॥ अहिकिच्च उ असुभातो, उत्तरपगडीतो होति पच्छित्तं । अनियाणेण सुभासु, न होति सद्वाणपच्छित्तं ॥ ( निभा ३३२२-३३२४) 0 ४१८ आगम विषय कोश - २ ज्ञानविन आदि कर्मबंध की हेतुभूत प्रवृत्तियों में निष्कारण प्रवृत्त होने पर प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यद्यपि आयुष्य को छोड़कर शेष सब कर्मप्रकृतियों का बादरसंपराय (नौवें गुणस्थान ) पर्यंत नित्य बंध होता है—यह सही है, किन्तु तीव्र हेतुओं में प्रवृत्त होने पर ही प्रायश्चित्त आता है, मंद में नहीं। आठ मूल प्रकृतियों की ज्ञानप्रद्वेष आदि अशुभ उत्तर प्रकृतियों प्रायश्चित्त होता है । अनिदानपूर्वक की गई तीर्थंकर नाम गोत्र आदि शुभ प्रकृतियों का प्रायश्चित्त नहीं होता । ३७. पूर्व - उत्तर प्रायश्चित्त, उपस्थापना आदि में अंतर आयारपकप्पे ऊ, नवमे पुव्वम्मि आसि सोधी य । तत्तो च्चिय निज्जूढो, इधाणितो एहि किं न भवे ? ॥ तालुग्घाडिणि ओसावणादि विज्जाहि तेणगा आसि । एहिं ताउ न संती, तधावि किं तेणगा न खलु ॥ पुव्वि चोद्दसपुव्वी, एहि जहण्णो पकप्पधारी उ । मज्झिमगकप्पधारी, कह सो उ न होति गीतत्थो । पुव्विं सत्थपरिण्णा, अधीत पढिताइ होउवटुवणा । एहि छज्जीवणिया, किं सा उ न होउवट्ठवणा ॥ बितियम्मि बंभचेरे, पंचमउद्देस आमगंधम्मि । सुत्तम्मि पिंडकप्पी, इह पुण पिंडेसणा एसो ॥ आयारस्स उ उवरिं, उत्तरझयणाणि आसि पुठिंव तु । दसवेयालिय उवरिं, इयाणिं किं ते न होंति उ ॥ मत्तंगादी तरुवर, न संति एपिंह न होंति किं रुक्खा । महजूहाहिव दप्पिय, पुव्वि वसभाण पुण एहिं ॥ पुव्वि कोडीबद्धा, जूहाओ नंदगोवमादीणं । एहि न संति ताई, किं जूहाइ न होंती उ॥ साहस्सी मल्ला खलु, महपाणा पुठिंव आसि जोहाओ । ते तुल्ला नत्थेहि, किं ते जोधा न होंती उ॥ पुव्विं छम्मासेहिं, परिहारेणं व आसि सोधी तु । सुद्धतवेणं निव्वितियादी एहि वि सोधी तु ॥ किध पुण एवं सोधी, जह पुव्विल्लासु पच्छिमासुं च । पुक्खरिणीसुं वत्थादियाणि सुज्झति तध सोधी ॥ एवं आयरियादी, चोहसपुव्वादि यासि पुवि तु । एहि जुगाणुरूवा, आयरिया होंति नायव्वा ॥ (व्यभा १५२८ - १५३९) Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४१९ प्रायश्चित्त प्राचीनकाल में नौवें पूर्व में आचारप्रकल्प था, उससे शोधि पुष्करणियों में वस्त्र साफ किये जाते थे। अब छोटे जलाशयों में भी की जाती थी-उसके आधार पर प्रायश्चित्त दिया जाता था। वस्त्रशुद्धि होती है। इसी प्रकार शोधि होती है। वर्तमान में उसी पूर्व से निर्मूढ आचारप्रकल्प (निशीथ) के आधार पहले चौदहपूर्वी आदि आचार्य होते थे। अब युगानुरूप दशापर प्रायश्चित्त दिया जाता है, शुद्धि होती है। कल्प-व्यवहारधर आचार्य होते हैं। यह सब ज्ञातव्य है। पहले विजय, प्रभव आदि चोर तालोद्घाटिनी, अवस्वापिनी ३८. प्रायश्चित्त का प्रयोजन : चारित्रसंरक्षण आदि आदि विद्याओं को जानते थे, अब वे विद्याएं नहीं हैं, फिर भी क्या पच्छित्तेण विसोही, पमायबहुयस्स होइ जीवस्स। आज चोर नहीं हैं? तेण तदंकुसभूतं, चरित्तिणो चरणरक्खट्ठा। पूर्वकाल में चौदहपूर्वी गीतार्थ होते थे। वर्तमान में आचार पायच्छित्ते असंतम्मि, चरित्तं पि ण चिट्ठती। प्रकल्पधर जघन्य और कल्प व्यवहारधर मध्यम गीतार्थ होता है। चरित्तम्मि असंतम्मि, तित्थे नो संचरित्तया॥ वह गीतार्थ तो है ही। चरित्तम्मि असंतम्मि, निव्वाणं पि ण गच्छती। प्राचीनकाल में शस्त्रपरिज्ञा (आचारांग के प्रथम अध्ययन) निव्वाणम्मि असंतम्मि, सव्वा दिक्खा निरत्थया॥ का अर्थतः अध्ययन करने पर, सूत्रतः पढ़ने पर उपस्थापना होती (निभा ६६७७-६६७९) थी। वर्तमान में षड़जीवनिका (दशवैकालिक के चौथे अध्ययन) के अध्ययन-पठन से उपस्थापना होती है। प्रमादबहुल प्राणी प्रायश्चित्त से विशोधि प्राप्त करता है। पहले मुनि आचारांग के लोकविजय नामक दूसरे अध्ययन के चारित्री के चारित्र की रक्षा के लिए प्रायश्चित्त अंकुश के समान है। पांचवें 'ब्रह्मचर्य' उद्देशक के आमगंधि सत्र पर्यंत (सव्वामगंधं प्रायश्चित्त के अभाव में चारित्र भी नहीं रहता। चारित्र के परिण्णाय, णिरामगंधो परिव्वए। २/१०८) सूत्रतः और अर्थतः पढ़ अभाव में तीर्थ सचारित्र नहीं रहता। चारित्र के अभाव में मुनि निर्वाण लेने पर पिण्डकल्पी होता था। वर्तमान में दशवैकालिक के पांचवें को प्राप्त नहीं होता। निर्वाण के अभाव में दीक्षा निरर्थक है। अध्ययन 'पिण्डैषणा' को पढ लेने पर वह पिण्डकल्पी हो जाता है। (प्रायश्चित्त के निम्न निर्दिष्ट प्रयोजन हैं-१ प्रमादजनित पहले आचारांग के पश्चात् उत्तराध्ययन पढा जाता था। अब दोषों का निराकरण, २. भावों की प्रसन्नता, ३. शल्य रहित होना, दशवैकालिक के पश्चात् उत्तराध्ययन पढ़ा जाता है। ४. अव्यवस्था का निवारण, ५. मर्यादा का पालन, ६. संयम की सुषमसुषमा आदि कालखण्डों में मत्तंग आदि दशविध दृढ़ता और ७. आराधना। -तवा ९/२२) कल्पवृक्ष होते थे। अब वे वृक्ष नहीं हैं किन्तु आम्र आदि के वृक्ष ३९. अपराध रोग : प्रायश्चित्त औषध तो हैं ही। धण्णंतरितुल्लो जिणो, णायव्वो आतुरोवमो साहू। पहले वृषभों के दर्पित महायूथाधिप होते थे। अब वैसे वृषभ रोगा इव अवराहा, ओसहसरिसा य पच्छित्ता॥ नहीं हैं। पहले नन्दगोप आदि के पास करोड़ों गायों के यूथ थे। (निभा ६५०७) अब उतने नहीं हैं। पांच-दस आदि वृषभों और गायों के यूथ तो हैं ही। धन्वंतरितुल्य हैं तीर्थंकर, रोगीतुल्य है अपराधी साधु, पहले महाप्राणवान् साहस्रिकमल्ल (हजार व्यक्तियों को। रोगतुल्य है अपराध और औषधतुल्य है प्रायश्चित्त । (प्रायश्चित्त हराने की क्षमता वाले) योद्धा होते थे। आज उनके तुल्य योद्धा एक प्रकार की चिकित्सा है। चिकित्सा रोगी को कष्ट देने के लिए नहीं हैं, किन्तु शक्ति से अनंतभाग हीन योद्धा हैं ही। नहीं दी जाती, किन्तु रोगनिवारण के लिए दी जाती है, इसी प्रकार ___पहले छहमासिक तप अथवा परिहारतप से शोधि होती प्रायश्चित्त भी अपराधों के उपशमन के लिए दिया जाता है।) थी। अब निर्विकृतिक आदि शुद्ध तप से शोधि हो जाती है। ४०. सापेक्ष-निरपेक्ष प्रायश्चित्त से तीर्थ-अव्यवच्छित्ति पहले महान् तप से और अब अल्प तप से शोधि हो जाती संघयण-धितीहीणा, असंतविभवेहि होंति तुल्ला तु। है। ऐसा क्यों? इस जिज्ञासा पर आचार्य कहते हैं-पहले महान निरवेक्खो जदि तेसिं, देति ततो ते विणस्संति ॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त ४२० आगम विषय कोश-२ सावेक्खो पवयणम्मि, अणवत्थपसंगवारणाकुसलो। एक्कासणपुरिमड्डा, निव्विगती चेव बिगुणबिगुणा य। चारित्तरक्खणटुं, अव्वोच्छित्तीय तु विसुज्झो॥ पत्तेयाऽसहु दाउं, कारेंति य सन्निगासं तु॥ .."जं जो उ तरति तं तस्स, देंत असहुस्स भासेंती॥ चउ-तिग-दुगकल्लाणं, एगं कल्लाणगं च कारेती.. एवं सदयं दिजति, जेणं सो संजमे थिरो होति। पञ्च अभक्तार्थाः पञ्च आचाम्लानि पञ्च एकाशनकानि न य सव्वहा न दिज्जति, अणवत्थपसंगदोसाओ॥ पञ्चपूर्वार्धानि पञ्च निर्विकृतिकानि एतत् पञ्चकल्याणं तत् दिटुंतो तेणएण, पसंगदोसेण जध वहं पत्तो। ज्येष्ठं यथाक्रमेण च कर्तुमशक्नुवन्तस्तान् दश चतुर्थान् पावंति अणंताई, मरणाइ अवारियपसंगा॥ कारयन्ति तथाप्यशक्नवन्तस्तदद्विगणाचाम्लतपः कारयन्ति (व्यभा ४२०२,४२०४,४२०७-४२०९) विंशतिमायामाम्लं कारयन्तीत्यर्थः"(व्यभा ४२०५-४२०७वृ) जो शिष्य धृति और संहनन से हीन होते हैं, उनके प्रति यदि जिस मुनि को अपराध के प्रायश्चित्त स्वरूप पांच कल्याणक आचार्य निरपेक्ष होकर पूरा प्रायश्चित्त देते हैं तो उससे वे विनष्ट हो जाते हैं। प्रवचन में सापेक्ष आचार्य चारित्र की रक्षा के लिा प्राप्त हैं और वह उन्हें ज्येष्ठानक्रम से वहन करने में असमर्थ हो अनवस्था-दोषनिवारण में कुशल होते हैं और उपाय से तीर्थ आचार्य उसके लिए अनेक विकल्पों का निर्देश करते हैं। परम्परा को अविच्छिन्न रखते हैं। वे प्रायश्चित्त प्राप्त शिष्य के प्रति पांच उपवास, पांच आचाम्ल (आयंबिल), पांच एकाशन, सापेक्ष होकर, वह अपने सामर्थ्य से एक साथ जितना प्रायश्चित्त पांच पूर्वार्ध और पांच निर्विकृतिक-इन पच्चीस दिनों का उपवास वहन कर सकता है, उसकी अनुमति देते हैं। वे प्रायश्चित्त के आदि के क्रम से प्रत्याख्यान करने पर पांच कल्याणक प्रायश्चित्त अनेक विकल्प प्रस्तुत कर उसे इच्छानुसार विकल्प ग्रहण करने का निर्वहन होता है। जो इस रूप में वहन नहीं कर सकता है, की बात कहते हैं। आचार्य उसे सानुग्रह दस उपवास का निर्देश देते हैं। यह भी आचार्य प्रायश्चित्तवाही मुनि के प्रति सानुकंप होते हैं, जो संभव न हो तो इस प्रायश्चित्त के अनुपा गने-दगने के क्रम जितना कर सकता है, उसे उतना प्रायश्चित्त देते हैं। इस विधि से से वहन करवाते हैं-बीस आचाम्ल या चालीस एकाशन या वह शिष्य संयम में स्थिर हो जाता है। यदि आचार्य दोष-सेवन पर अस्सी पूर्वार्ध या एक सौ साठ निर्विकृतिक करवाते हैं। अथवा प्रायश्चित्त दे ही नहीं तो फिर अनवस्थादोष का प्रसंग आता है। पांच कल्याणक क्रमशः न कर सके तो दूसरा. तीसरा आदि क्रमश: अनिवारित प्रसंग दोष के कारण मनि अनन्त जन्ममरण करता है। करवाकर शेष कल्याणकों को विच्छिन्न क्रम से करवाते हैं। तिल-दृष्टांत-एक बालक स्नान कर, खेलता हुआ तिलों के एक ढेर यथाक्रम या विच्छिन्न क्रम से करने में भी असमर्थ हो तो में घुस गया। शरीर गीला था। सारे शरीर पर तिल चिपक गए। वह चार, तीन, दो अथवा एक कल्याणक भी करवाते हैं। दौड़ा-दौड़ा घर आया। माता ने बालक के शरीर से तिल झाड़कर ४२. प्रायश्चित्त एवं चारित्र कब तक? एकत्रित कर लिए। वह प्रतिदिन स्नान कर जाता और तिल चुरा कर एवं भणिते भणती, ते वोच्छिन्ना व संपयं इहइं। लाता। धीरे-धीरे वह चोरी करने में निपुण हो गया। एक बार वह तेसु य वोच्छिन्नेसुं, नत्थि विसुद्धी चरित्तस्स ॥ पकड़ा गया और मारा गया। मां के कारण यह बालक चोर हुआ, यह देंता वि न दीसंती, न वि य करेंता तु संपयं केई। जान कर राजपुरुषों ने माता के स्तन काट डाले। दूसरा बालक भी तित्थं च नाण-दसण, निज्जवगा चेव वोच्छिन्ना॥ स्नान कर तिलराशि पर गया। शरीर पर चिपके तिल देखकर मां ने चोद्दसपुव्वधराणं, वोच्छेदो केवलीण वुच्छेदे। डांटा और उन तिलों को इकट्ठा कर पुनः तिलराशि में डाल दिया। केसिंची आदेसो, पायच्छित्तं पि वोच्छिन्नं ॥ बालक चोरी की आदत से बच गया। जं जत्तिएण सुज्झति, पावं तस्स तध देंति पच्छित्तं। ४१. कल्याणक प्रायश्चित्त के सापेक्ष विकल्प जिणचोद्दसपुव्वधरा, तव्विवरीता जहिच्छाए। कल्लाणगमावन्ने, अतरंत जहक्कमेण काउं जो। सव्वं पि य पच्छित्तं, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थुम्मि। दस कारेंति चउत्थे, तब्बिगुणायंबिलतवे व॥ तत्तो च्चिय निज्जूढं, पकप्पकप्पो य ववहारो॥ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ ४२१ सपदपरूवण अणुसज्जणा य दस चोद्दसऽट्ठ दुप्पसभे। दस ता अणुसज्जंती, जा चोहसपुव्वि पढमसंघयणं । तेण परेणऽद्वविधं जा तित्थं ताव बोधव्वं ॥ (व्यभा ४१६३ - ४१६६, ४१७३, ४१७४, ४१८१ ) शिष्य ने पूछा- वर्तमान में आगमव्यवहारी का विच्छेद हो चुका है, अतः यथार्थ शुद्धिदायक के अभाव में चारित्रशुद्धि का भी अभाव हो गया है। मासिक, चातुर्मासिक आदि प्रायश्चित्त के दाता और कर्त्ता भी दृष्टिगत नहीं हो रहे हैं। ज्ञानदर्शनात्मक तीर्थ का अनुवर्त्तन हो रहा है । चारित्र के निर्यापक ही विच्छिन्न हो गए हैं। केवलीविच्छेद के थोड़े समय पश्चात् चतुर्दशपूर्वधरों का भी विच्छेद हो गया। कुछ आचार्यों का यह अभिमत है कि शोधिदाता के अभाव में प्रायश्चित्त भी व्यवच्छिन्न हो गये हैं। दूसरी बात, जिन और चौदहपूर्वी उतना प्रायश्चित्त देते हैं, जितने प्रायश्चित्त से पाप की शुद्धि होती है। किन्तु कल्प-व्यवहार- निशीथधारक आगमव्यवहार के अभाव में मनचाहा प्रायश्चित्त दे सकते हैं। आचार्य ने कहा- सब प्रायश्चित्तों का विधान प्रत्याख्यानप्रवाद नामक नौवें पूर्व की तीसरी आचारवस्तु में है। वहीं से निशीथ, कल्प और व्यवहार का निर्यूहण किया गया है। वर्तमान में चारित्र के प्रवर्तक, प्रायश्चित्त के प्रज्ञापक, निर्यापक और प्रायश्चित्तवाहक विद्यमान हैं। प्रायश्चित्त की प्ररूपणा व व्यवहार उनका निजी स्थान / दायित्व है । ० चतुर्दशपूर्वी के काल तक दसों प्रायश्चित्तों का अस्तित्व रहता है। चौदहपूर्वी और प्रथम संहनन का एक साथ विच्छेद होता है। उनके व्यवच्छिन्न होने पर अनवस्थाप्य और पारांचित - इन दोनों अंतिम प्रायश्चित्तों का भी विच्छेद हो गया। तत्पश्चात् प्रथम आठ प्रायश्चित्त तब तक रहेंगे, जब तक तीर्थ चलेगा। तीर्थव्यवच्छेद दुः प्रसभ आचार्य के कालगत होने पर तीर्थ और चारित्र का व्यवच्छेद हो जाएगा। वर्धकिरत्न और धनिक दृष्टांत भुंजति चक्की भोए, पासाए सिप्पिरयणनिम्मविते । किंच न कारेति तथा, पासाए पागयजणो वि ॥ जदि अत्थि न दीसंती, केइ करेंतत्थ धणियदिट्टंतो । संतमसंते विहिणा, मोयंता दो वि मुच्यंति ॥ आज ज्ञानी प्रायश्चित्तदाता और प्रायश्चित्तवाहक यदि विद्यमान हैं, तो वे दिखाई क्यों नहीं देते ? गुरु शिष्य की इस जिज्ञासा को दो दृष्टांतों से समाहित करते हैं ० वर्धकिरत्न - चक्रवर्ती शिल्पीरत्न - वर्धकिरत्न द्वारा निष्पादित भव्य प्रासाद में रहता हुआ भोग भोगता है । उस प्रासाद को देखकर अन्यान्य राजा या सामान्य जन भी अपने-अपने वर्धकियों से प्रासाद बनवाते हैं। इसी प्रकार परोक्षज्ञानी भी आगमव्यवहारी के अनुरूप व्यवहार करते हैं। ० धनिक दृष्टांत - साहूकार दो प्रकार के होते हैं - सापेक्ष और निरपेक्ष । ऋण लेने वाले भी दो प्रकार के होते हैं बहुश्रुत संतविभवो तु जाधे, मग्गति ताहे य देति तं सव्वं । जो पुण असंतविभवो, तत्थ विसेसो इमो होति ॥ निरवेक्खो तिणि चयति, अप्पाण धणागमं च धारणगं । सावेक्खो पुण रक्खति, अप्पाण धणं च धारणगं ॥ (व्यभा ४१७७, ४१९४-४१९६) ० सद्विभव - मांगने पर तत्काल सर्वस्व लौटाने वाले । असद्विभव- - पास में पर्याप्त धन नहीं होने के कारण ऋण नहीं चुकाने वाले । ऐसे व्यक्तियों के प्रति जो निरपेक्ष होकर कठोर व्यवहार करता है, उसके तीन हानियां होती हैं- स्वयं की हानि - परेशानी, प्राप्तव्य धन की अप्राप्ति और ऋणी की ऋणवृद्धि । जो धनिक सापेक्ष होकर उपाय द्वारा (ऋणी को प्रतिमास ब्याज देने की प्रेरणा देकर अपने गृहकार्य में व्यापृत कर ) सारा ऋण वसूल कर लेता है, वह अपनी, धन की और ऋणी की रक्षा करता है। इस प्रकार सापेक्ष धनिक उपायपूर्वक दोनों प्रकार के कर्जदारों को मुक्त कर देता है । सापेक्ष आचार्य अपने उपायकौशल से अपराधी मुनि को प्रायश्चित्त- वहन करवाकर चारित्र और तीर्थ की सुरक्षा करते हैं। ० बहुश्रुत - विविध श्रुतग्रंथों का ज्ञाता । द्र गीतार्थ बहुश्रुत बारह अंगों का ज्ञाता होता है। शंख, सूर्य, शक्रेन्द्र आदि सोलह उपमाओं से उसके वैशिष्ट्य का निरूपण किया गया है। द्र श्रीआको १ बहुश्रुत Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ४२२ आगम विषय कोश-२ ब्रह्मचर्य-मैथुनविरति, इन्द्रिय-मन-संयम। आत्मरमण। १. द्रव्य-भाव ब्रह्मचर्य * ब्रह्मचर्य : चतुर्थ महाव्रत द्र महाव्रत २. द्रव्य-भाव मैथुन ३. भाव मैथुन (अब्रह्मचर्य) के प्रकार ४. संवास के प्रकार ५. दिव्य रूप के प्रकार, दिव्य प्रतिमा ० परिगृहीत प्रतिमा और उसके प्रकार ० देवियों के दृष्टांत ६. देवशरीर अचित्त नहीं होता ७. मनुष्य-स्त्री : सुखविज्ञप्या आदि ८. तिर्यंचस्त्री के प्रकार ० तिर्यंच में मैथुन संज्ञा : सिंहनी दृष्टांत ९. कामवेग के दस प्रकार ० कामरागवृद्धि के प्रकार १०. अब्रह्मचर्य की उत्पत्ति के कारण ११. मोहोदय : शब्द आदि तुल्य-अतुल्य ० सजातीय का आकर्षण, विजातीय का विकर्षण १२. मुनि के भी वेदोदय १३. वेदोदय का हेतु : कर्म या सहायक सामग्री? * तीन वेद : त्रिविध अग्नि से तुलना * वेदोदय में अवस्था प्रमाण नहीं द्र वेद |१४. सहेतुक-अहेतुक मोहोदय १५. मोहचिकित्सा के विविध उपाय १६ एकांत स्थान : सागारिक शय्यानिषेध ० सदोष वसति : यंत्रप्रतिमा दृष्टांत * सचित्र उपाश्रय में रहने का निषेध द्र शय्या १७. कामकथा-वर्जन ___ . मां के साथ धर्मकथा का वर्जन |१८. ब्रह्मचर्य का विघ्न : दृष्टिराग ० शब्दराग-रूपराग-वर्जन |१९. अब्रह्मचर्य दुःखशय्या २०. विषय-विराग ही ब्रह्मचर्य २१. ब्रह्मरक्षा हेतु सूत्रों में वैविध्य ____ * ब्रह्मरक्षा हेतु भावना द्र महाव्रत २२. मैथुनधर्म का अपवाद नहीं २३. ब्रह्मचर्य की तेजस्विता : यक्ष दृष्टांत १. द्रव्य-भाव ब्रह्मचर्य दव्वबंभंतं दुविहं-आगमओ नो आगमओ य।आगमओ जाणए, अणुवउत्ते।नोआगमओ जाव वइरित्तं। अण्णाणीणं जो वत्थिसंजमो, जाओ यं अकामिआओ रंडकुरडाओ बंभं धरेंति तं सव्वं दव्वबंभं। भावबंभं दुविहं-आगमओ णोआगमओ य। आगमओ जाणए उवउत्ते। णोआगमओ साहूणं वस्थिसंजमो। वत्थिसंजमोत्ति मेहुणाओ विरती"अहवा सत्तरसविहो संजमो भावबंभं भवति। (निभा १ की चू) __द्रव्य ब्रह्मचर्य के दो प्रकार हैंआगमतः-ब्रह्मचर्य का ज्ञाता, किन्तु अनुपयुक्त। नोआगमत:-इसके तीन भेद हैं-ज्ञ, भव्य और व्यतिरिक्त। अज्ञानी का वस्तिसंयम तथा विधवा आदि द्वारा अकामभाव से ब्रह्मपालन द्रव्य ब्रह्मचर्य है। भाव ब्रह्मचर्य के दो प्रकार हैंआगमत:-ब्रह्मचर्य का ज्ञाता और उसमें उपयुक्त। नोआगमत:-साधुओं का वस्तिसंयम-मैथुन से विरति। अथवा पृथ्वीकायसंयम आदि सतरह प्रकार का संयम भाव ब्रह्मचर्य है। २. द्रव्य-भाव मैथुन रूवं आभरणविही, वत्थालंकारभोयणे गंधे। आओज्ज णट्ट णाडग, गीए सयणे य दव्वम्मि॥ जं कट्ठकम्ममादिसु, रूवं सट्ठाणे तं भवे दव्वं । जं वा जीवविमुक्कं, विसरिसरूवं तु भावम्मि॥ (निभा ५०९९, ५१००) मैथुन के दो प्रकार हैं१. द्रव्य मैथुन-रूप, आभरणविधि, वस्त्र, अलंकार, भोजन, गंध, आतोद्य, नृत्य, नाटक, गीत और शयनीय-ये द्रव्य मैथुन हैं। काष्ठकर्म,, चित्रकर्म अथवा लेप्यकर्म में निर्मित पुरुषरूप और स्त्रीरूप स्वस्थान में (पुरुष के लिए पुरुषरूप और स्त्री के लिए स्त्रीरूप) द्रव्य मैथुन है। २. भाव मैथुन- जीवविप्रमुक्त विसदृश रूप भाव मैथुन है अर्थात् पुरुष शरीर पुरुष के लिए द्रव्य मैथुन है तथा स्त्री के लिए भाव मैथुन है। इसी प्रकार जीवमुक्त स्त्री का शरीर स्त्री के लिए द्रव्य मैथुन और पुरुष के लिए भाव मैथुन है। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४२३ ब्रह्मचर्य कहा ३. भाव मैथुन ( अब्रह्मचर्य ) के प्रकार इस संदर्भ में देव शब्द से वैमानिक और ज्योतिष्क देवों अट्ठारसविहऽबंभं, भावउ ओरालियं च दिव्वं च। का, असुर शब्द से भवनपति देवों का तथा राक्षस शब्द से व्यंतरदेवों मण-वयस-कायगच्छण, भावम्मि य रूवसंजत्तं॥ का परिग्रहण किया गया है। अहव अबंभं जत्तो, भावो रूवाउ सहगयाओ वा। अथवा देव और छवी (मनुष्य) संबंधी संवास के चार भूसण-जीवजुयं वा, सहगय तव्वज्जियं रूवं॥ विकल्प हैं- १. देव देवी के साथ संवास करता है। (बृभा २४६५, २४६६) २. देव छविमती के साथ संवास करता है। ३. छविमान् देवी के साथ संवास करता है। अब्रह्मचर्य के मूल भेद दो हैं-औदारिक और दिव्य। मन, ४. छविमान् छविमती के साथ संवास करता है। वचन-काय और कृत-कारित-अनुमति के भेद से प्रत्येक के नौ-नौ यहां देव शब्द चतुर्विध देवनिकाय का और छविमान् शब्द भेद होने से अब्रह्मचर्य के कुल अठारह भेद होते हैं। यह अठारह मनुष्य का वाचक है। प्रकार का अब्रह्मचर्य भाव सागारिक है। अथवा अब्रह्मभाव की उत्पत्ति का हेतु होने के कारण रूप ५. दिव्य रूप के प्रकार, दिव्यप्रतिमा और रूपसहगत भी भाव सागारिक है। वाणंतरिय जहन्नं, भवणवई जोइसं च मज्झिमगं। रूप-आभूषणरहित जीववियुक्त स्त्रीशरीर। वेमाणिय उक्कोसं, पगयं पुण ताण पडिमासु ॥ रूपसहगत-अलंकृत अथवा अनलंकृत जीवयुक्त स्त्रीशरीर। कटे पुत्थे चित्ते, जहन्नयं मज्झिमं च दंतम्मि। ४. संवास के प्रकार सेलम्मि य उक्कोसं, जं वा रूवाउ निष्फन्नं॥ चउधा खलु संवासो, देवाऽसुर रक्खसे मणुस्से य। (बृभा २४६८, २४६९) अण्णोण्णकामणेण य, संजोगा सोलस हवंति॥ दिव्य रूप के तीन प्रकार हैंअधवण देव-छवीणं, संवासे एत्थ होति चउभंगो।..... जघन्य - व्यन्तरदेवों का रूप। अत्र देवशब्देन वैमानिको ज्योतिष्को वा, असरशब्देन मध्यम – भवनपति तथा ज्योतिष्क देवों का रूप। भवनवासी, राक्षसशब्देन तु सामान्यतो व्यन्तरः परिगृह्यते।...... उत्कृष्ट – वैमानिक देवों का रूप। अत्र देवशब्देन सामान्यतो भवनपत्यादिनिकायचतुष्टयाभ्यन्तर यहां दिव्य प्रतिमाओं का प्रसंग है। वर्ती गृह्यते, छविमांश्च मनुष्य उच्यते। दिव्य प्रतिमा के तीन प्रकार हैं(बृभा ४१९२, ४१९३ वृ) जघन्य - काष्ठकर्म, चित्रकर्म आदि में कृत दिव्यप्रतिमा। मध्यम - हस्तिदन्त में कृत दिव्यप्रतिमा। संवास-मैथुन चार प्रकार का होता है उत्कृष्ट - शैल, मणि आदि में की गई दिव्य प्रतिमा। १. देवताओं का २. असुरों का ३. राक्षसों का ४. मनुष्यों का। परस्पर कामना से संवास के सोलह संयोग होते हैं ० परिगृहीत प्रतिमा और उसके प्रकार १. देव का देवी के साथ ९. राक्षस का देवी के साथ कढे पुत्थे चित्ते, दंतकम्मे य सेलकम्मे य। २. देव का असुरी के साथ १०. राक्षस का असुरी के साथ दिढिप्पत्ते रूवे, वि खित्तचित्तस्स भंसणया॥ ३. देव का मानुषी के साथ ११. राक्षस का मानुषी के साथ सुहविन्नवणा सुहमोयगा य सुहविन्नवणा य होति दुहमोया। ४. देव का राक्षसी के साथ १२. राक्षस का राक्षसी के साथ दुहविन्नप्पा य सुहा, दुहविन्नप्पा य दुहमोया॥ ५. असुर का देवी के साथ १३. मनुष्य का देवी के साथ (बृभा २५०४, २५०५) ६. असुर का असुरी के साथ १४. मनुष्य का असुरी के साथ देवियों की प्रतिमाएं पांच प्रकार की होती थीं७. असुर का मानुषी के साथ १५. मनुष्य का राक्षसी के साथ १. काष्ठमयी-काष्ठ से निर्मित। ८. असुर का राक्षसी के साथ १६. मनुष्य का मानुषी के साथ २. पुस्तकमयी-मिट्टी, धातु आदि से निर्मित। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ४२४ आगम विषय कोश-२ ३. चित्रमयी-भित्ति आदि पर चित्रित। अमुक है। यह तुम्हारी माता है। यह उसकी बहिन है। अभी ४. दन्तकर्ममयी-हाथी-दांत आदि से निर्मित । अमुक के साथ संप्रलग्न है। वे किसी एक के साथ प्रतिबंधित ५. शैलकर्ममयी-प्रस्तरखंड से निर्मित। न होकर, जो मनोज्ञ लगता है, उसी के साथ रहती हैं। यह सुनकर ये प्रतिमाएं इतनी सुन्दर बनाई जाती थीं कि दृष्टिगत होते। उन देवियों के पूर्वभविक पुत्रों आदि ने 'हमारा अपयश होगा' यह ही क्षिप्त चित्त वाला व्यक्ति इनमें आसक्त होकर भ्रष्ट हो जाता। सोचकर विद्या-प्रयोग से उन देवियों को कीलित कर डाला। था। ये प्रतिमाएं देवियों द्वारा सन्निहित-परिगृहीत होती थीं। २. सुखविज्ञप्या दुःखमोचा-इस दूसरे विकल्प का निदर्शन है सन्निहित देवता (परिगृहीत प्रतिमा) के चार प्रकार हैं- रयणादेवी (रत्नदेवता)। अल्पऋद्धि और कामातुरता के कारण वह १. सुखविज्ञप्या सुखमोचा–जिसके साथ सरलता से प्रतिसेवना सुखविज्ञप्या थी। वह सर्वसुख सम्पादन करने में दक्ष थी, इसलिए की जा सके तथा जिसे सरलता से छोड़ा जा सके। उसका परित्याग कठिन होता था। वह दुःखमोचा थी। २. सुखविज्ञप्या दुःखमोचा-जिसके साथ सरलता से प्रतिसेवना ३. दुःखविज्ञप्या सुखमोचा-इस तृतीय विकल्प का निदर्शन है की जा सके, परन्तु जिसको छोड़ना कठिन हो। शुचि और महर्द्धिक विद्यादेवियां। महान् ऋद्धि के कारण वे ३. दुःखविज्ञप्या सुखमोचा-जिसको मनाना कष्टप्रद हो परन्तु दुःखविज्ञप्या होती हैं (नित्य अत्यन्त अप्रमत्त होकर सघनता से छोड़ना सरल हो। उनकी आराधना करनी होती है, तभी वे प्रसन्न होती हैं) और ४. दुःखविज्ञप्या दुःखमोचा-जिसके पास काम-प्रार्थना या प्रतिसेवना अपाययुक्त होने के कारण सुखमोचा होती हैं। कठिन हो तथा जिससे विरत होना भी कठिन हो। ४. दुःखविज्ञपना दु:खमोचा-गौरी, गांधारी आदि मातंगविद्यादेवियां साधनकाल में लोकगर्हितता के कारण दुःखविज्ञप्या तथा इच्छानुरूप ० देवियों के दृष्टांत . काम की सम्प्रापकता के कारण द:खमोचा हैं। सोपारयम्मि नगरे, रन्ना किर मग्गितो उ निगमकरो। ६. देवशरीर अचित्त नहीं होता अकरो त्ति मरणधम्मा, बालतवे धुत्तसंजोगो॥ पण्णवणमेत्तमिदं, जं देहजुतं अचेतणं दिव्वं । पंच सय भोइ अगणी, अपरिग्गहि सालिभंजि सिंदूरे। तं पुण जीवविमुक्कं, भिज्जति स तधा जह य दीवो।। तुह मज्झ धुत्त पुत्तादि अवन्ने विज्जखीलणया॥ (निभा २१९८) बिइयम्मि रयणदेवय, तइए भंगम्मि सुइगविज्जाओ। देहयुत देवता के दो प्रकार हैं-सचेतन और अचेतन। गोरी-गंधाराइ, दुहविण्णप्पा य दुहमोया॥ इनमें अचेतन का प्रकार प्रज्ञापनमात्र है। वस्तुतः देवशरीर अचित्त (बृभा २५०६-२५०८) नहीं होता क्योंकि वह जीवच्यूत होते ही प्रदीपशिखा की भांति १. सुखविज्ञप्या-सुखमोचा-सोपारक नगर में राजा ने पांच सौ तत्काल नष्ट हो जाता है। व्यापारियों से कर मांगा। उन्होंने स्वीकार नहीं किया। राजा ने ७. मनुष्य-स्त्री : सुखविज्ञप्या आदि कहा-या तो कर दो या अग्नि में प्रवेश करो। उन्होंने मरना माणुस्सं पि य तिविहं, जहन्नगं मज्झिमं च उक्कोसं। स्वीकार कर लिया। उनकी पांच सौ पत्नियों ने उनके साथ अग्नि पायावच्च-कुडुंबिय-दंडियपारिग्गहं चेव।। में प्रवेश कर जीवनलीला समाप्त कर दी। वे मरकर बालतप के उक्कोस माउ-भज्जा, मझं पुण भगिणि-धूतमादीयं। कारण अपरिग्रहीत वानव्यंतर देवियों के रूप में उत्पन्न हईं। उन खरियादी य जहन्नं, पगयं सजितेतरे देहे ॥ देवियों ने 'सिंदूर' (देवकुल) की पांच सौ शालभंजिकाओं को सुहविन्नप्पा सुहमोइगा य सुहविन्नप्पा य होंति दुहमोया। परिगृहीत कर लिया। अल्पऋद्धिक देव भी उनको नहीं चाहता दुहविन्नप्पा य सुहा, दुहविन्नप्पा य दुहमोया॥ था, तब वे धूर्तों के साथ संयुक्त हो गईं। 'यह तेरी नहीं है, यह खरिया महिड्डिगणिया, अंतेपुरिया य रायमाया य। मेरी है'-इस प्रकार धूर्त परस्पर कलह करने लगे। देवियों से उभय सुहविन्नवणा, सुमोय दोहिं पि य दुमोया। पूर्वभव का वृत्तान्त सुनकर धूर्त परस्पर कहने लगे-अरे ! यह तो (बृभा २५१६, २५१७, २५२७, २५२८) Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४२५ ब्रह्मचर्य . . अगसाचारण माना जाता है अन. मनुष्यरूप के तीन प्रकार हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। १. सुखविज्ञप्या सुखमोच्या-भेड़, बकरी, गर्दभी आदि उभयसुखा प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-प्राजापत्य (सामान्यजन)-परिगृहीत, हैं। ये निष्प्रत्यपाय होने के कारण सुखविज्ञप्या तथा तुच्छ कौम्बिक-परिगृहीत और दण्डिक-परिगहीत। सुखास्वादमात्र का हेतु होने के कारण सुखमोच्या हैं। __मनुष्य रूप में उत्कृष्ट हैं-माता और पत्नी, क्योंकि वे २. सुखविज्ञप्या दुःखमोच्या-मर्कटी (बन्दरी) आदि। अर्हन्नक किसी को नहीं दी जाती हैं। मध्यम रूप है-भगिनी, पुत्री, पौत्री की भाभी उसके प्रति अनुराग के कारण मरकर मर्कटी बनी। माना आदि-जो इनको चाहता है, उनको दी जाती हैं। जघन्य रूप है- जाता है कि मर्कटी आदि ऋतुकाल में कामातुर होती हैं, उस समय दासी आदि स्त्रियां। ये सब रूप दो प्रकार के हो सकते हैं- वे सुखविज्ञप्या होती हैं। परन्तु जब वे अत्यन्त अनुरक्त हो जाती प्रतिमायुत और देहयुत । मैथुन के सन्दर्भ में सजीव और निर्जीव हैं, तब उनसे छुटकारा पाना कठिन होता है। देहयुत का प्रसंग है। ३. दुःखविज्ञप्या सुखमोच्या-गाय, महिषी आदि स्वपक्ष के साथ देहयुत मनुष्यस्त्री के चार प्रकार हैं भी कठिनाई से संगम करती हैं तो परपक्ष (मनुष्य) के साथ की तो १. सुखविज्ञप्या सुखमोच्या-दासी आदि। बात ही क्या? ये दुःखविज्ञप्या हैं। इनका संगम लोकजुगुप्सित २. सुखविज्ञप्या दुःखमोच्या-महान ऋद्धि वाली गणिका साधारण ये सुखमोच्या हैं। स्त्री होने के कारण सुखविज्ञप्या और यौवन, रूप, विभ्रम आदि के ४. दुःखविज्ञप्या दुःखमोच्या-सिंही, व्याघ्री-ये उभयदुःखा हैंकारण दुःखमोच्या होती है। मृत्यु का कारण बनती हैं, अतः दुःखविज्ञप्या हैं तथा अनुरक्त होने ३. दुःखविज्ञप्या सुखमोच्या-राजा के अन्तःपुर की स्त्रियां। रक्षपालक पर प्रतिबद्धता के कारण ये दःखमोच्या होती हैं। की सुरक्षा में रहने के कारण कठिनाई से प्राप्त होती हैं, इसलिए जह हास-खेड्ड-आगार-विब्भमा होति मणुयइत्थीसु। दुःखविज्ञप्या होती हैं। उनका संपर्क आपत्तिबहल होने के कारण वे आलावा य बहुविधा, तह नत्थि तिरिक्खइत्थीसु॥ सुखमोच्या होती हैं। (बृभा २५४३) ४. दुःखविज्ञप्या दुःखमोच्या-राजमाता गुरुस्थान में पूजनीय होती है। उसकी सुरक्षा-व्यवस्था भी बहुत होती है, अतः वह दुःखविज्ञप्या जैसे मनुष्य-स्त्री में हास्य, क्रीड़ा, आकार, विभ्रम तथा है। वह सौख्यसंपत्तिकारिणी तथा प्रत्यपायों से बचाने वाली होती अनेक प्रकार के आलाप होते हैं, वैसे तिर्यंच-स्त्रियों में नहीं होते। है, अतः दुःखमोच्या है। (फिर भी मनुष्य इतना कामी है कि वह तिर्यंच-स्त्रियों के साथ भी मैथुन सेवन की प्रवृत्ति करता है।) ८. तिर्यंचस्त्री के प्रकार अइय अमिला जहन्ना, खरि महिसी मज्झिमा वलवमादी। ० तिर्यंच में मैथुन संज्ञा : सिंहनी दृष्टांत गोणि करेणुक्कोसा, पगयं सजितेतरे देहे॥ जइ ता सणप्फईसुं, मेहुणभावं तु पावए पुरिसो। अमिलाई उभयसुहा, अरहण्णगमाइमक्कडि दुमोया। __ जीवियदोच्चा जहियं, किं पुण सेसासु जाईसु॥ गोणाइ तइयभंगे, उभयदुहा सीहि-वग्घीओ॥ एक्का सीही रिउकाले मेहुणत्थी सजाइपुरिसं अलभ. (बृभा २५३५, २५४५) माणी सत्थे वहंते इक्कं पुरिसं घित्तुं गुहं पविट्ठा चाटुं काउ माढत्ता। सा य तेण पडिसेविता। तत्थ तेसिं दोण्ह वि तिर्यंचस्त्री के तीन प्रकार हैं-१. जघन्य-बकरी, भेड़ संसाराणुभावतो अणुरागो जातो। गुहापडियस्स तस्स सा आदि। २. मध्यम-गर्दभी, महिषी, वडवा आदि। ३. उत्कृष्ट दिणे दिणे पोग्गलं आणेउं देइ। सो वि तं पडिसेवइ। गौ, हथिनी आदि। (बृभा २५४६) यहां सजीव और अजीव देहयुत का प्रसंग है। देहयुत तिर्यंचस्त्री रूप के चार प्रकार हैं जिसके साथ रहने में प्राणों को भी खतरा है, उस सनखपदी Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ४२६ आगम विषय कोश-२ सिंहनी के साथ भी पुरुष मैथुन सेवन कर लेता है, फिर शेष पारस्परिक संदर्शन से पहले प्रीति उत्पन्न होती है। प्रीति जातियों की तो बात ही क्या? से रति (चित्तविश्रांति) पैदा होती है। रति से विश्वास बढ़ता है। एक बार एक सिंहनी की कामवासना उद्दीप्त हो गई। उसे विश्वास से परस्पर कथा करते हुए अप्रशस्त राग उत्पन्न हो जाता सिंह का योग नहीं मिला तो वह किसी सार्थ में से एक पुरुष को है। इन पांच प्रकारों से राग बढ़ता है। उठाकर ले आई। गुफा में प्रविष्ट हुई और उसे चाटने लगी। १०. अब्रह्मचर्य की उत्पत्ति के कारण व्यक्ति ने उसके साथ प्रतिसेवना की। उनमें परस्पर सहज अनुराग कोहाति समभिभूओ, जो तु अबंभं णिसेवति मणुस्सो। हो गया। वह प्रतिदिन उसे मांस लाकर देती। वह भी उसके साथ चउ अण्णतरा मुलुप्पत्ती तु सव्वत्थ पुण लोभो॥ प्रतिसेवना करता। (निभा ३५६) ९. कामवेग के दस प्रकार क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चारों में से किसी भी चिंता य दट्टमिच्छइ, दीहं नीससइ तह जरो दाहो। , ___कारण से अभिभूत-आर्त व्यक्ति में मैथुन की उत्पत्ति हो सकती भत्तअरोयग मुच्छा, उम्मत्तो न याणई मरणं॥ है। लोभ की उपस्थिति सर्वत्र रहती ही है। पढमे सोयइ वेगे, दटुं तं इच्छई बिइयवेगे। नीससड तयवेगे. आरुहहु जरो चउत्थम्मि॥ ११. मोहोदय : शब्द आदि तुल्य-अतुल्य डज्झइ पंचमवेगे, छठे भत्तं न रोयए वेगे। नत्थि अनिदाणओ होइ उब्भवो तेण परिहर निदाणं। सत्तमगम्मि य मुच्छा, अट्ठमए होइ उम्मत्तो॥ ते पुण तुल्ला-ऽतुल्ला, मोहनिदाणा दुपक्खे वि॥ नवमे न याणइ किंची, दसमे पाणेहिँ मुच्चइ मणूसो... रस-गंधा तहिँ तुल्ला, सद्दाई सेस भय दुपक्खे वि। (बृभा २२५८-२२६१) सरिसे वि होइ दोसो, किं पुण ता विसम वत्थुम्मि॥ स्त्रीदर्शन से मोहजन्य वेग (आवेग-आवेश) उत्पन्न होते __ (बृभा १०४९, १०५०) हैं। वे दस हैं मोह का उद्भव निदान (कारण) के बिना नहीं होता। चिन्ता-प्रथम वेग में प्राप्ति की चिन्ता रहती है। इसलिए निदान (इष्ट शब्द, रूप आदि) का परिहार करो। दिदक्षा-दसरे वेग में वह उसे देखना चाहता है। मोह के निदानभूत शब्द आदि स्त्रीवर्ग और पुरुषवर्गदीर्घश्वास-तीसरे वेग में दीर्घ निःश्वास छोड़ता है। दोनों पक्षों में मोह की उत्पत्ति में तुल्य भी हैं, अतुल्य भी हैं। ज्वर-चतुर्थ वेग में ज्वर से पीड़ित हो जाता है। स्त्री और पुरुष के मोहोद्भव में रस और गंध की समान दाह-पंचम वेग में सारे अंग जलने लग जाते हैं। भूमिका है। पुरुषसम्बन्धी शब्द, रूप और स्पर्श में पुरुष का अरुचि-षष्ठ वेग में भोजन से अरुचि हो जाती है। मोहोदय हो भी सकता है, नहीं भी होता। यदि होता है तो उतना मूर्छा-सप्तम वेग में मूर्च्छित हो जाता है। तीव्र नहीं होता। स्त्रीसंबंधी शब्द आदि में पुरुष का मोहोदय उन्मत्तता-अष्टम वेग में उन्मत्त हो जाता है। प्रायः होता ही है और तीव्र होना है। जड़ता-नवम वेग में वह निश्चेष्ट हो जाता है। स्त्री के स्त्रीसंबंधी और पुरुषसंबंधी विषयों में भी यही मरण-दशम वेग में वह प्राणों को छोड़ देता है। क्रम है। सदृश स्पर्श आदि में भी मोहोदय हो जाता है, तो विसदृश • कामराग-वृद्धि के प्रकार वस्तु में तो वह होता ही है। संदंसणेण पीई, पीईउ रई रईउ वीसंभो। ० सजातीय का आकर्षण, विजातीय का विकर्षण वीसंभाओ पणओ, पंचविहं वड्डए पिम्मं॥ तत्थऽन्नतमो मुक्को, सजाइमेव परिधावई पुरिसो। (बभा २२६८) पासगए वि विवक्खे, चरइ सपक्खं अवेक्खंतो॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४२७ ब्रह्मचर्य निब्भयया य सिणेहो, वीसत्थत्तं परोप्पर निरोहो। घटजलतुल्य ज्ञान आदि की प्रवृत्तियां उसे बुझा नहीं सकतीं। दाणकरणं पि जुज्जइ, लग्गइ तत्तं च तत्तं च॥ १३. वेदोदय का हेतु : कर्म या सहायक सामग्री ? (बृभा २१६९, २१७२) ."लब्भीय कूलवालो, गुणमगुणं किं व सगडाली। अश्व, गौ आदि पशु बन्धन से मुक्त होने पर विजातीय वर्ग कस्सइ विवित्तवासे, विराहणा दुन्नए अभेदो वा। को छोड़कर सजातीय वर्ग का ही अनुसरण करते हैं। अत्यन्त पार्श्व में जह सगडालि मणो वा, तह बिइओ किं न रंभिंसु॥ गौ आदि के होने पर भी अश्व अत्यन्त दूरस्थ सजातीय वडवा की होज्ज न वा वि पभुत्तं, दोसाययणेसु वट्टमाणस्स। ओर ही दौड़ता है। चूयफलदोसदरिसी, चूयच्छायं पि वज्जेइ॥ संयत और संयती एक-दूसरे से निर्भय होते हैं। स्वपक्ष के न चात्रारण्यं जनाकुलं वा प्रमाणम्, यतः कूलवालकोकारण दोनों में स्नेहभाव होता है। गोपनीय विषय में दोनों एक- ऽटव्यामपि वसन् कं गुणं लब्धवान् ? 'शाकटालिः' स्थूलदूसरे से विश्वस्त होते हैं। दोनों ही वस्ति का निग्रह करने वाले भद्रस्वामी स जनमध्ये गणिकाया गृहेऽपि तिष्ठन् कमगुणं होते हैं, वस्त्र-पात्र आदि का परस्पर आदान-प्रदान करते हैं। जैसे लब्धवान् ? न कमपीति भावः । दुर्नये' स्त्र्यादिसंसक्तप्रतिश्रयतपाये हए लोहे के दो टुकड़े आपस में संबद्ध हो जाते हैं, वैसे ही वासेऽपि वेदमोहनीयक्षयोपशमप्रबलत्वेन 'अभेदः' न ब्रह्मचर्यनिरोध से संतप्त श्रमण-श्रमणी एकान्त को पाकर जड जाते हैं। विलोपो भवति""यद्येवं तर्हि कर्मोदय-क्षय-क्षयोपशमादिरेव १२. मुनि के भी वेदोदय प्रमाणं न स्त्रीसंसर्गादि, नैवम् कर्मणामुदय-क्षय-क्षयोपशमा दयोऽपि प्रायस्तथाविधद्रव्यक्षेत्रादिसहकारिकारणसाचिव्यादेव लुक्खमरसुण्हमनिकामभोइणं देहभूसविरयाणं। तथा तथा समुपजायन्ते नान्यथा। यथा वा 'शाकटालिः' सज्झाय-पेहमादिसु, वावारेसुं कओ मोहो॥ स्थूलभद्रस्वामी स्वीकयं मनः स्त्रीसंसर्गेऽपि निरुद्धवान् तथा पहरण-जाणसमग्गो, सावरणो वि हु छलिज्जई जोहो। वालेण य न छलिज्जइ, ओसहहत्थो वि किं गाहो॥ _ 'द्वितीयः' सिंहगुफावासी किं न निरुद्धवान् ? ॥ उदगघडे वि करगए, किमोगमादीवितं न उज्जलइ। (बृभा २१६४-२१६६ वृ) अइइद्धो वि न सक्कइ, विनिव्ववेउं कुडजलेणं॥ कोई मुनि एकान्त स्थान में निवास करता है, किंतु प्रबल (बृभा २१५४, २१६०, २१६१) वेद का उदय होने से वह ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट हो जाता है। इसमें मुनि रूक्ष, अरस, ठण्डा और परिमित आहार करते हैं, देह- अरण्य या जनाकुल स्थान प्रमाण नहीं है, क्योंकि कूलवालक ने विभूषा से विरत होते हैं, स्वाध्याय, प्रत्युपेक्षणा आदि कार्यों में जंगल में रहते हुए भी कौन सा गुण प्राप्त किया? स्थूलभद्रस्वामी व्यापृत रहते हैं, फिर उनके मोह का उदय कैसे संभव है? को जनमध्य गणिका के घर में रहते हुए भी कौन सी हानि हुई? गुरु ने कहा-जो योद्धा खड्ग आदि शस्त्रों, हस्ती. रथ आदि कुछ भी हानि नहीं हुई। कोई मुनि स्त्रियों से संसक्त वसति में यान-वाहनों तथा अन्य युद्ध सामग्री से युक्त है, कवच से सन्नद्ध रहता है, किन्तु वेद मोहनीय के क्षयोपशम की प्रबलता के कारण है और युद्धकला का पारगामी है, वह भी युद्ध के मोर्चे पर पराक्रम ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट नहीं होता। . से लड़ता हुआ अन्य योद्धा के द्वारा छल से मारा जाता है। __'ब्रह्मचर्य के लोप-अलोप में कर्मों का उदय, क्षय और गारुडिक के हाथ में औषध होने पर भी क्या वह दष्ट सर्प क्षयोपशम ही प्रमुख कारण है, स्त्री आदि का संसर्ग नहीं'-यह के द्वारा नहीं छला जाता? छला जाता है। जलकुम्भ हाथ में होने कथन उपयुक्त नहीं है क्योंकि कर्मों का उदय, क्षय, क्षयोपशम भी पर भी क्या प्रज्वलित होता हुआ घर नहीं जल जाता? अत्यन्त प्रायः तथाविध द्रव्य, क्षेत्र आदि सहकारी कारणों के सहयोग से ही प्रदीप्त आग को घटमात्र जल से नहीं बझाया जा सकता। उसी होता है, अन्यथा नहीं। प्रकार मोहोदयरूप अग्नि से प्रज्वलित चारित्रगृह जल जाता है, अथवा जैसे स्थलभद्र स्वामी ने कोशावेश्या के प्रति अपने मन Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ४२८ आगम विषय कोश-२ का निग्रह किया, वैसे ही क्या सिंहगुफावासी यति ने अपने मन मोह का उद्भव होता है। आहार से रस का उपचय, रसोपचय से का निरोध नहीं किया? निरोध करने पर भी वह सहायक सामग्री रक्त का उपचय, रक्तोपचय से मांसोपचय तथा इसी क्रम से वसा, के प्रभाव में आकर मार्गच्युत हो गया था। हड्डी, मज्जा और शुक्र का उपचय होता है। शुक्रोपचय से वायुप्रकोप ___कोई मुनि ब्रह्मचर्य की विराधना करने वाले स्थानों में अपने ___ और वायुप्रकोप से प्रजनन अंग स्तब्ध हो जाते हैं। इस प्रकार मन को नियंत्रित करने में सक्षम हो या न हो, फिर भी उसे उन आहार एवं शरीरोपचय से मोहोदय होता है। स्थानों का वर्जन करना चाहिए। जैसे आम्रफल के खाने में दोष ० कल्याण आहार देखने वाले को आम्रवृक्ष की छाया का भी वर्जन करना चाहिए। ......"वाईकरणाऽऽहरणं, कल्लाणपुरोध उज्जाणे॥ १४. सहेतुक-अहेतुक मोहोदय पणीयाहारो वाजीकरणं दप्पकारकेत्यर्थः। कंपिल्लपुरं कामं कम्मणिमित्तं, उदयो णस्थि उदओ उ तव्वज्जो। णगरं। ब्रह्मदत्तो राजा। तस्स कल्लाणगं णाम आहारो। सो तहवि य बाहिरवत्थं, होति निमित्तं तिमं तिविधं ॥ वरिसेण णिफिज्जति। तं च इत्थिरयणं चक्की य भुंजंति। सह वा सोऊणं, दटुं सरितुं व पुव्वभुत्ताई। तव्वइरित्तो अण्णो जइ भुंजति, तो उम्माओ भवति । पुरोहिओ सणिमित्तऽणिमित्तं पुण, उदयाहारे सरीरे य॥ य तमाहारमभिलसति। "राइणा रूसिएण भणिओ-कल्लं दिद्वीपडिसंहारो, दिटे सरणे विरग्गभावणा भणिता। णातिस्थिवग्गसहिओ णिमंतिओ सि।राइणा उज्जाणेजेमाविओ। जतणा सणिमित्तम्मी, होतऽणिमित्ते इमा जतणा॥ तेहिं मोहुदओ गोधम्मो समाचरितो।एवं पणीयाहारेण मोहदओ छायस्स पिवासस्स व, सहाव गेलण्णतो वि किसस्स। भवति। (निभा ५७२ चू) बाहिरणिमित्तवज्जो, अणिमित्तुदओ हवति मोहे ॥ प्रणीत आहार दर्पकारक-उन्माद पैदा करने वाला होता है, आहारउब्भवो पुण, पणीतमाहारभोयणा होति।... जिसका उदाहरण है-कल्याण आहार। मंसोवचया मेदो, मेदाओ अट्ठि-मिंज-सुक्का णं। काम्पिल्यपुर में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती 'कल्याणक' आहार करता सुक्कोवचया उदओ, सरीरचयसंभवो मोहे॥ था। कल्याणक आहार एक वर्ष में निष्पन्न होता है। उसे चक्रवर्ती (निभा ५१५, ५१६, ५७०-५७३) और स्त्रीरत्न ही पचा सकते हैं । अन्य कोई भी व्यक्ति इसे खाता है संक्लिष्ट भाव का उदय कर्म के निमित्त से होता है, यह तो वह उन्मत्त हो जाता है। एक दिन पुरोहित ने उस आहार की सही है। कर्मोदय के बिना संक्लिष्ट कर्म नहीं होता। बाह्य वस्तु याचना की। राजा ने निषेध कर दिया। पुरोहित के अत्यधिक कर्मोदय में निमित्त बनती है। बाह्य निमित्त के तीन प्रकार हैं- अनुरोध करने पर राजा ने रुष्ट होकर कहा-कल उद्यान में तुम शब्दश्रवण, रूपदर्शन, भुक्तभोगस्मरण। अपने ज्ञातिजनों के साथ आ जाना। दूसरे दिन पुरोहित अपने विकारयुक्त स्थानों पर दृष्टि पड़ते ही उसको वहां से हटा लेना ज्ञातिजनों के साथ उद्यान में आ पहुंचा। राजा ने सभी को भोजन चाहिए। वासनोत्तेजक शब्द सुनाई देने पर या पूर्वभुक्त भोगों की ___ कराया और पुरोहित को स्वयं के भोजन में से कुछ हिस्सा दिया। समति होने पर वैराग्य भावना से अपने आपको भावित करना चाहिए। पुरोहित ने वह भोजन किया और वह इतना उन्मत्त हो गया कि बाह्य निमित्तों के बिना आंतरिक कारणों से जो वासना का वासना के तीव्र उद्रेक से अपनी बहिन-बेटियों के साथ भी कुकर्म उदय होता है, उसे अनिमित्तक कहा गया है। उसके तीन प्रकार हैं- कर बैठा। इस प्रकार प्रणीत आहार से मोहोदय होता है। १. कर्मप्रत्ययिक उदय-जो भूख-प्यास से पीड़ित है, जिसका १५. मोहचिकित्सा के विविध उपाय शरीर स्वभाव से या रुग्णता के कारण कृश है, उसके जो मोहोदय निव्विति ओम तव वेय, वेयावच्चे तधेव ठाणे य। होता है, वह शब्द आदि बाह्य निमित्त के बिना ही हो जाता है। आहिंडणा य मंडलि, .......॥ २,३. आहार एवं शरीर प्रत्ययिक उदय-प्रणीत आहार करने से (व्यभा १६०१) Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४२९ ब्रह्मचर्य कामवासना का उदय होने पर निम्न उपायों से कामासक्ति चावल देती है और किसी के आय-व्यय का लेखा-जोखा देखती की चिकित्सा की जा सकती है है। इन कार्यों में उसका दिन बीत गया। वह अत्यंत श्रांत होकर ० निर्विकृतिक, अवमौदर्य, उपवास आदि तप। इनसे कामेच्छा का जब रात को सोने लगी तो धायमाता ने पूछा-तेरे लिए पुरुष उपशमन न हो तो सेवाकार्य में नियोजन। लाऊं? वह बोली-पुरुष से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। मुझे तो ० खड़े-खड़े कायोत्सर्ग का प्रयोग। नींद लेने दो। ० देशाटन करने वालों के साथ सहयोगी के रूप में नियुक्ति तथा इसी प्रकार मंडली में उपविष्ट गीतार्थ सूत्र-अर्थ की वाचना बहुश्रुत हो तो सूत्र-अर्थमंडली का दायित्व सौंपना, जिससे वह देने में इतनी सघनता से व्याप्त हो जाता है कि उसके चित्त में सतत कार्य में व्याप्त रहे। काम का संकल्प ही नहीं जागता। ____ नोदक आह-जति तावागीयत्थस्स निव्वीयादि तव- १६. एकांत स्थान : सागारिकशय्या-निषेध विसेसा उवसमो ण भवति तो गीयत्थस्स कहं सीयच्छायादि- जे भिक्खू सागारियं सेज्जं अणुपविसति अणुपविसंतं वा ठियस्स उवसमो भविस्सति ? 'कप्पट्ठियाहरणं'ति सातिजति। "आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं॥ __एगस्स कुडुबिगस्स धूया णिक्कम्मवावारा सुहास (नि १६/१, ५१) णत्था अच्छति। तस्स य अब्भंगुव्वट्टणण्हाणविलेवणादि सन्नासुत्तं सागरियं ति जहा मेहुणुब्भवो होइ। परायणाए मोहुब्भवो। अम्मधाति भणति। तीए अम्मधातीए माउए से कहियं। तीए विपिउणो। पिउणा वाहरित्ता जत्थित्थी पुरिसा वा, वसंति सुत्तं तु सट्ठाणे॥ भणिया-पुत्तिए! एताओ दासीओ सव्वधणादि अवर (निभा ५०९६) हंति, तुमं कोठायारं पडियरसु, तह त्ति पडिवन्नं, सा जो भिक्षु सागारिका वसति में रहता है अथवा रहने का जाव अण्णस्स भत्तयं देति, अण्णस्स वित्तिं, अण्णस्स अनुमोदन करता है, वह चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। तंदुला, अण्णस्स आयं देक्खती, अण्णस्स वयं, एव- 'सागारिक' (अगारी सहित)-यह सामयिकी संज्ञा है। मादिकिरियासु वावडाए दिवसो गतो।सा अतीव खिण्णा जिस वसति में रहने से मैथुन संज्ञा का उद्भव होता है अथवा जहां रयणीए णिवण्णा अम्मधातीते भणिता-आणेमि ते स्त्री-पुरुष रहते हैं, वह सागारिका है। निग्रंथ स्त्रीसागारिका पुरिसं? सा भणेति-ण मे पुरिसेण कजं, णि लहामि। वसति में और निग्रंथी पुरुषसागारिका वसति में नहीं रह सकती। एवं गीयत्थस्स वि सुत्तपोरिसिं देंतस्स अतीव सुत्तत्थेसु णिच्चं पि दव्वकरणं, अवहितहिययस्स गीयसहेसु। वावडस्स कामसंकप्पो ण जायइ। (निभा ५७४ की चू) पडिलेहण सज्झाए, आवासग भुंज वेरत्ती॥ ____ कन्या दृष्टांत-शिष्य ने पूछा-अगीतार्थ का निर्विकृति । ते सीदिउमारद्धा, संजमजोगेहि वसहिदोसेणं। आदि तप विशेष से भी मोहशमन नहीं होता है तो गीतार्थ का गलति जतुं तप्पंतं, एव चरित्तं मुणेयव्वं ॥ शीतछाया आदि में बैठने मात्र से मोह शांत कैसे होगा? (निभा ५१०९, ५११०) ____ आचार्य ने कहा-एक कुटुम्बी की कन्या सदा निठल्ली सागारिक वसति में गीत, वाद्य आदि के शब्द सुनाई देते रहते सुखासन में बैठी रहती थी। अभ्यंग-उबटन-स्नान-विलेपन में हैं, मुनि का चित्त सदा उन्हीं में लगा रहता है। इससे उसकी लगी रहने के कारण उसमें कामवासना जाग गई। वह धाय से प्रतिलेखना, स्वाध्याय, आवश्यक आदि समस्त संयमयोग की क्रियाएं बोली-मेरे लिए एक पुरुष लाओ। बात माता-पिता तक पहुंची। द्रव्य क्रियाएं होती हैं (संयमयोगों में उसका मन स्थिर नहीं रहता)। पिता ने बुलाकर कहा-बेटी ! ये दासियां धन-धान्य को चुरा रही जैसे अग्नि के ताप से लाख का गोला पिघल जाता है, वैसे हैं, अतः कोष्ठागार को अब तुम संभालो। पुत्री ने स्वीकृति दी। ही सदोष वसति में रहने से संयम-योगों में उसका मन विषण्ण अब वह किसी को भत्ता देती है, किसी को वृत्ति, किसी को रहता है, इससे चारित्र की हानि होती है। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ४३० आगम विषय कोश-२ वडपादव उम्मूलण, तिक्खम्मि व विज्जलम्मि वच्चंतो। प्रकार हैं-१. तत्रगत-जिस वसति में पहले से ही काष्ठकर्म, कुणमाणो वि पयत्तं, अवसो जह पावती पडणं॥ पुस्तकर्म या चित्रकर्म में निर्वर्तित स्त्रीप्रतिमा अथवा दंतमय, उपलमय तह समणसुविहिताणं, सव्वपयत्तेण वी जतंताणं। या मृत्तिकामय स्त्रीरूप विद्यमान हैं, उनसे होने वाले दोष। कम्मोदयपच्चइया, विराधणा कासति हवेज्जा॥ २. आगंतुक-आगंतुक प्रतिमा से होने वाले दोष। (बृभा ४९२९, ४९३०) । स्त्रीप्रतिमा दृष्टांत-पादलिप्त आचार्य ने राजा की बहिन के सदृश जैसे वटवृक्ष का मूल अनेक शाखाओं से प्रतिबद्ध होता एक यन्त्र प्रतिमा बनाई। उस प्रतिमा में चंक्रमण और उन्मेष-निमेष की क्षमता थी। उसके हाथ में तालवृन्त का पंखा था। वह आचार्य है किन्तु पहाड़ी नदी के जल का तीव्र वेग उसे उखाड़ देता है। के सामने प्रस्थापित थी। राजा भी पादलिप्त आचार्य से स्नेह करता कोई व्यक्ति कीचड़ संकुल मार्ग का प्रयत्नपूर्वक वर्जन करता हुआ भी अवश होकर गिर जाता है। उसी प्रकार सर्वप्रयत्नों से था। एक दिन द्वेषवश एक ब्राह्मण ने राजा से कहा-आपकी बहिन यतमान सुविहित श्रमणों के भी मोह का उदय हो जाता है। आचार्य द्वारा अभिमंत्रित है। राजा को विश्वास नहीं हुआ। ब्राह्मण राजा को अपने साथ ले गया और आचार्य के सम्मख प्रस्थापित किसी मुनि के वेदमोहनीयकर्म के उदय के कारण चारित्र की यन्त्रमयी प्रतिमा दिखाई। राजा रुष्ट होकर वहां से लौट आया। विराधना हो जाती है। तब आचार्य ने तत्काल उस प्रतिमा को विसर्जित कर दिया। राजा ० सदोष वसति : यंत्र प्रतिमा दृष्टांत का संदेह दूर हो गया। यवन देश में ऐसी प्रतिमाएं प्रचुरता से दुविहो वसहीदोसो, वित्थरदोसो य रूवदोसो य। निर्मित की जाती थीं। दुविहो य रूवदोसो, इत्थिगत णपुंसतो चेव॥ एक्केक्को सो दुविहो, सच्चित्तो खलु तहेव अच्चित्तो। १७. कामकथा-वर्जन अच्चित्तो वि य दुविहो, तत्थगताऽऽगंतुओ चेव॥ सिंगाररसुत्तुइया, मोहमई फुफुका हसहसेति। कट्ठे पुत्ते चित्ते, दंतोवल मट्टियं व तत्थगतं। जं सुणमाणस्स कहं, समणेण न सा कहेयव्वा॥ एमेव य आगंतुं, पालित्तय बेट्टिया जवणे॥ समणेण कहेयव्वा, तव-णियमकहा विरागसंजुत्ता। जं सोऊण मणूसो, वच्चइ संवेग-णिव्वेयं ॥ ___अत्र पादलिप्ताचार्यकृता 'बेट्टिक' त्ति राजकन्यका दृष्टान्तः । स चायम्-पालित्तायरिएहिं रन्नो भगिणीसरिसिया __ (बृभा ४५८८, ४५८९) जंतपडिमा कया। चंकमणुम्मेस-निमेसमयी तालविंटहत्था श्रमण को वैसी कथा नहीं कहनी चाहिये, जिसको सनकर आयरियाणं परतो चिड़। राया वि अईव पालित्तगस्स सिणेहं श्रोता का शृंगाररस उत्तेजित हो जाए और उस उत्तेजना से मोहमयी करेइ।धिज्जाइएहिं पउद्वेहिं रन्नो कहियं-भगिणी ते समण- करीषाग्नि प्रज्वलित हो उठे। एणं अभिओगिया। राया न पत्तियति पासित्तारुट्ठो पच्चो श्रमण को वैराग्यमयी तप-नियम-कथा करनी चाहिए, सरिओ य। तओ सा आयरिएहिं चड त्ति विगरणी कया।" जिसको सुनकर मनुष्य संवेग-निर्वेद को प्राप्त हो। एवमागन्तुका अपि स्त्रीप्रतिमा भवन्ति । 'जवणे' त्ति यवन- ० मां के साथ धर्मकथा का वर्जन विषये ईदृशानि स्त्रीरूपाणि प्राचुर्येण क्रियन्ते। अवि मायरं पि सद्धिं , कधा तु एगागियस्स पडिसिद्धा। (बृभा ४९१३-४९१५ वृ) किं पुण अणारियादी, तरुणित्थीहिं सह गयस्स। वसति संबंधी दोषों के दो प्रकार हैं (निभा २३४४) १. विस्तर दोष-विस्तीर्ण वसति (घंघशाला आदि)। अकेला साधु अपनी एकाकी मां, बहिन आदि (अगम्य २. रूपदोष-इसके दो प्रकार हैं-स्त्रीरूपगत और नपुंसकरूपगत। स्त्रियों) के साथ भी धर्मकथा नहीं कर सकता, तब अन्य तरुणियों इन दोनों के दो-दो प्रकार हैं-सचित्त और अचित्त। अचित्त के दो के साथ अनार्य (काम) कथा कैसे कर सकता है? Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४३१ ब्रह्मचर्य १८. ब्रह्मचर्य का विघ्न : दृष्टिराग से हुप्परिण्णा समयंमि वट्टइ, णिराससे उवरय-मेहुणे चरे। जह वा सहीणरयणे, भवणे कासइ पमाय-दप्पेणं। भुजंगमे जुण्णतयं जहा जहे, विमुच्चइ से दुहसेज्ज माहणे॥ डझंति समादित्ते, अणिच्छमाणस्स वि वसूणि॥ __(आचूला १६/७, ९) इय संदंसण-संभासणेहिं संदीविओ मयणवण्ही। मुनि नाना प्रकार की आसक्तियों और मतवादों से बंधे हुए बंभादीगुणरयणे, डहइ अणिच्छस्स वि पमाया॥ लोगों के बीच में अप्रतिबद्ध रहता हआ परिव्रजन करे। स्त्रियों में सुक्खिधण-वाउबलाऽभिदीवितो दिप्यतेऽहियं वही। आसक्त न हो, पूजा-सत्कार की चाह छोड़ दे। ऐहिक और दिटुिंधण-रागानिलसमीरितो ईय भावग्गी॥ पारलौकिक विषयों से अनिश्रित रहने वाला पंडित भिक्षु कामगुणों (बृभा २१५१-२१५३) में आसक्त न हो। पद्मराग आदि बहुरत्नों से कलित भवन किसी के प्रमाद परिज्ञासम्पन्न, समता में वर्तमान और अभिलाषामुक्त भिक्षु या दर्प के कारण प्रज्वलित हो जाने पर, श्रेष्ठी के नहीं चाहने पर मैथुन से उपरत हो विहरण करे। जैसे सांप अपने शरीर की जीर्ण भी वे रत्न जल जाते हैं। उसी प्रकार साधु-साध्वी के पारस्परिक केंचुली को छोड़ देता है, वैसे ही माहन (अहिंसक भिक्षु) दुःखशय्या अवलोकन और संभाषण से कामाग्नि प्रज्वलित होती है। उस को छोड़ दे। (भोगाशंसा एक दुःखशय्या है। द्र स्था ४/४५०) प्रदीप्त कामाग्नि से साधु-साध्वी नहीं चाहते हुए भी अपने ब्रह्मचर्य, २०. विषय-विराग ही ब्रह्मचर्य । तप और संयम रूप गुणरत्नों को जला देते हैं। ण सक्का ण सोउं सद्दा, सोयविसयमागता। ___ शुष्क ईंधन अथवा वायुबल से अभिप्रेरित अग्नि अत्यधिक रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥ प्रज्वलित होती है। उसी प्रकार दृष्टि रूप ईंधन और राग रूप हवा णो सक्का रूवमदटुं, चक्खुविसयमागयं । से प्रेरित होकर भावाग्नि अत्यधिक उद्दीप्त हो जाती है। रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥ ० शब्दराग-रूपराग-वर्जन णो सक्का ण गंधमग्घाउं, णासाविसयमागयं। से भिक्खू णो इहलोइएहिं सद्देहिं, णो परलोइएहिं रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥ सद्देहि, णो सुएहिं सद्देहि, णो असुएहिं सद्देहि, णो दिढेहिं सद्देहिं, णो सक्का रसमणासाउं, जीहाविसयमागयं। णो अदिटेहिं सद्देहि, णो इटेहिं सद्देहि, णो कंतेहिं सद्देहिं रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए। सज्जेज्जा।"णो इहलोइएहिं रूवेहि, णो परलोइएहिं रूवेहि, णो सक्का ण संवेदेउं, फासविसयमागयं। णो सुएहिं रूवेहि, णो असुएहिं रूवेहिं, णो दिटेहिं रूवेहिं, रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए। णो अदितुहिं रूवेहिं, णो इटेहिं रूवेहि, णो कंतेहिं रूवेहिं (आचूला १५/७२-७६) सज्जेज्जा ...॥ (आचूला ११/१९ ; १२/१६) श्रोत्रेन्द्रिय में आने वाले शब्द न सुने, यह शक्य नहीं है। भिक्षु इहलौकिक (मनुष्यकृत)और पारलौकिक (तिर्यंच किन्तु उनमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः संयमी पुरुष आदि कृत) शब्दों में, श्रुत-अश्रुत और दृष्ट-अदृष्ट शब्दों में, इष्ट उनके प्रति होने वाले राग-द्वेष का वर्जन करे।। और कांत शब्दों में आसक्त न हो। चक्षुइन्द्रिय के सामने आने वाले रूप न देखे, यह शक्य भिक्षु ऐहिक-पारलौकिक, श्रुत-अश्रुत , दृष्ट-अदृष्ट और नहीं है। किन्तु उनमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः संयमी इष्ट-कांत रूपों में आसक्त न हो। पुरुष उनके प्रति होने वाले राग-द्वेष का वर्जन करे। १९. अब्रह्मचर्य दुःखशय्या घ्राणेन्द्रिय में आने वाली गंध का आघ्राण न करे, यह सितेहिंभिक्ख असितेपरिवए, असज्जमित्थीसुचएज्ज अणं। शक्य नहीं है। किन्तु उसमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः अणिस्सिओलोगमिणंतहा परं, णमिज्जति कामगुणेहिं पंडिए॥ संयमी पुरुष उसके प्रति होने वाले राग-द्वेष का वर्जन करे। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ४३२ आगम विषय कोश-२ रसनेन्द्रिय द्वारा चखे जाने वाले रस का आस्वाद न ले, यह साध्वी अभिन्न तालप्रलंब नहीं ले सकती, साधु भिन्न और। शक्य नहीं है। किन्तु उसमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः अभिन्न दोनों ले सकता है-इस द्विरूपता को देख शिष्य पूछता संयमी पुरुष उसके प्रति होने वाले राग-द्वेष का वर्जन करे। है-क्या इस सूत्रार्थभेद की तरह साधु-साध्वियों के महाव्रतों में ____ स्पर्शनेन्द्रिय से स्पृष्ट होने वाली वस्तु का संस्पर्श न करे, भी भेद है ? गुरु कहते हैं-जैसे बौद्ध मत में भिक्षु के लिए ढाई सौ यह शक्य नहीं है। किन्तु उसमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। शिक्षापद और भिक्षुणी के लिए पांच सौ शिक्षापद प्ररूपित हैं, वैसे अतः संयमी पुरुष उसके प्रति होने वाले राग-द्वेष का वर्जन करे। जिनशासन में नहीं हैं-साध्वीवर्ग के लिए न छह महाव्रत हैं और २१. ब्रह्म-रक्षा हेतु सूत्रों में वैविध्य न स'धुवर्ग से दुगुने (दस )महाव्रत हैं। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए ___नो कप्पइ निग्गंथीए अचेलियाए""""अपाइयाए ॥ दोनों वर्गों के सूत्र-निर्माण में भिन्नता है। वोसट्टकाइयाए होत्तए॥नो"बहिया गामस्स"आयावणाए २२. मैथुनधर्म का अपवाद नहीं आयावेत्तए॥ (क ५/१६-१९) कामं सव्वपदेसु विउस्सग्गववातधम्मता जुत्ता। मोत्तुं मेहुण-धम्म ण विणा सो रागदोसेहि॥ (निग्रंथ और निग्रंथी की आचारसंहिता के भिन्नता है-एक सूत्र निग्रंथ के लिए जिसका विधान करता है, (निभा ३६४) दूसरा सूत्र निग्रंथी के लिए उसका निषेध करता है। यथा-) मूलगुण-उत्तरगुण संबंधी सब पदों में उत्सर्गधर्म और ० निग्रंथी अचेल और अपात्र नहीं रह सकती। अपवादधर्म प्रतिपादित है, किन्तु ब्रह्मचर्य में कोई अपवाद नहीं है। • वह (अभिग्रहपूर्वक) व्युत्सृष्टकायिक-कायोत्सर्गप्रतिमा में मैथुनभाव में कल्पिका प्रतिसेवना का अभाव है, क्योंकि राग-द्वेष स्थित नहीं हो सकती। के बिना मैथुन सेवन नहीं हो सकता। ० वह गांव के बाहर सूर्य का आतप नहीं ले सकती। २३. ब्रह्मचर्य की तेजस्विता : यक्ष दृष्टांत ___कप्पइ निग्गंथाणं पक्के तालपलंबे भिन्ने वा अभिन्ने वा ...."पव्वज्जाभिमुहंतर, गुज्झग उठभामिया वासो॥ पडिगाहित्तए॥नो कप्पइ निग्गंथीणं पक्के तालपलंबे अभिन्ने बितियणिसाए पुच्छा, एत्थ जती आसि तेण मि न आतो। पडिगाहित्तए॥ जतिवेसोऽयं चोरो, जो अज्ज तुहं वसति दारे । नो कप्पइ निग्गंथीणं सलोमाइंचम्माइं अहिट्ठित्तए॥ कप्पइ अत्र कल्ये यतिरासीत् तेन कारणेन अहमत्र नायातः, निग्गंथाणं सलोमाई चम्माइं॥ (क १/३, ४ ; ३/३, ४) अपि च साधुसम्बन्धिना तेजसैव तमुल्लंध्य गन्तुं न शक्यते। • निग्रंथ भिन्न या अभिन्न पक्व तालप्रलंब ग्रहण कर सकता है। सा प्राह-किमेवं मृषा भाषसे ?..."यक्षः प्राह-एष चारित्रं • निग्रंथी अभिन्न पक्व तालप्रलंब ग्रहण नहीं कर सकती। प्रति विपरिणतश्चौर्यं कर्तुकामः, अतो यतिवेषेण चौरोऽयं ० निग्रंथियों के लिए सरोम चर्म का उपयोग विहित नहीं है। मन्तव्यः। (बृभा ४१९३, ४१९४ वृ) ० निग्रंथ रोमसहित चर्म का उपयोग कर सकते हैं। प्रव्रज्या ग्रहण करने की भावना से एक युवक गुरु के पास अभिण्णे महव्वय पुच्छा ................... जा रहा था। उसने मार्ग में एक कशीला स्त्री के घर में रात्रि ण वि छम्महव्वता णेव दुगुणिता जह उ भिक्खुणीवग्गे।" बितायी। वहां एक यक्ष निरंतर आता था, किन्तु उस रात वह नहीं ..."बंभवयरक्खणट्ठा, वीसुं वीसुं कता सुत्ता॥ आया। दूसरी रात्रि में स्त्री ने यक्ष से पूछा-तुम कल रात को क्यों जहा तच्चण्णियाणं भिक्खुयाणं किल अड्डाइज्जा नहीं आये ? यक्ष ने कहा-कल यहां यति था, इसलिए मैं नहीं सिक्खापदं सता, भिक्खुणीणं पंचसिक्खापदं सता। आया। साधु ब्रह्मचर्य के तेज से प्रदीप्त होते हैं, उस तेज का (निभा ४९०८, ४९०९, ४९ अतिक्रमण कर भीतर आना संभव नहीं है। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४३३ भावना स्त्री ने कहा-झूठ क्यों बोल रहे हो? आज भी तो कोई उष्ण से भावित उष्णसहिष्णु, व्यायाम से पुष्ट देह व्यायामसहिष्णु साध द्वार के पास सो रहा है, उसे लांघ कर कैसे आ गए? आदि द्रव्यभावना है। यक्ष ने कहा-जो आज तुम्हारे द्वार पर सो रहा है, वह यतिवेश भावभावना के दो प्रकार हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त। में चोर है-चारित्र से भ्रष्ट हो चोरी करना चाहता है। २. द्रव्य-भाव भावना : स्वरवेध आदि दृष्टांत * ब्रह्मचर्य के दस समाधिस्थान आदि द्र श्रीआको १ ब्रह्मचर्य सरवेह-आस-हत्थी-पवगाईया उ भावणा दव्वे।। अब्भास भावण त्ति य, एगटुं तत्थिमा भावे ॥ भावना-लक्ष्य के अनुरूप होने का पुनः-पुन: अभ्यास। दुविहाओ भावणाओ, असंकिलिट्ठा य संकिलिट्ठा य। चित्त को भावित/वासित करने का उपाय। मुत्तूण संकिलिट्ठा, असंकिलिट्ठाहि भावंति॥ १. भावना के प्रकार (बृभा १२९०, १२९१) २. द्रव्य-भाव भावना : स्वरवेध आदि दृष्टांत ३. अप्रशस्त भावना : हिंसा आदि · अभ्यास और भावना एकार्थक हैं। भावना के दो प्रकार ४. प्रशस्त भावना : दर्शन आदि हैं-द्रव्य और भाव । द्रव्यतः भावना के दृष्टांत० दर्शन भावना-ज्ञान भावना ० स्वरवेध-धनुर्विद्या का अभ्यास करने वाला पहले स्थूल-द्रव्य ० चारित्र भावना-तप भावना को, फिर केश से बंधी कपर्दिका को बींधता है और अभ्यास ० वैराग्य भावना : अनित्य आदि भावनाएं करते-करते वह स्वर से भी लक्ष्य का वेधन कर शब्दवेधी बन ५. अनित्य भावना : आचार्य द्वारा प्रतिबोध जाता है। * एकत्व भावना : पुष्पचूल दृष्टांत द्र जिनकल्प ० अश्व-अश्व प्रशिक्षित होने पर पैरों से भूमि का स्पर्श न करता . अन्यत्व भावना हुआ बड़े-बड़े नदी-नालों को लांघ जाता है। ६. देवसंबंधी संक्लिष्ट भावना ० हाथी-प्रशिक्षणकाल में हाथी को पहले अपनी सूंड से काष्ठ कांदी भावना का स्वरूप के टुकड़े उठाने का अभ्यास कराया जाता है। फिर कंकर, फिर ० दैवकिल्विषिकी भावना का स्वरूप गोलिका, फिर बेर । वह अपने अभ्यास से अन्त में सरसों के दाने ० आभियोगी भावना : प्रश्न, प्रश्नाप्रश्न भी उठा लेता है। ० आसुरी भावना का स्वरूप ० साम्मोही भावना का स्वरूप ० प्लवक- एक तैराक पहले बांस के सहारे तैरता है, फिर. ७. संक्लिष्ट भावना की निष्पत्ति अभ्यस्त हो जाने पर बिना किसी आलम्बन के भी तैरने लगता है। ८. असंक्लिष्ट भावना की निष्पत्ति अथवा एक नट पहले बांस, रस्सी आदि के सहारे, फिर अभ्यास * पांच असंक्लिष्ट भावनाएं द्र जिनकल्प होने पर अधर रहकर भी नाना करतब दिखाता है। एक चित्रकार * महाव्रतों की पचीस भावनाएं द्र महाव्रत अभ्यास की निरन्तरता से जीवन्त चित्र बनाने लगता है। भावतः भावना के दो प्रकार हैं-असंक्लिष्ट भावना और १. भावना के प्रकार संक्लिष्ट भावना। जिनकल्प स्वीकार करने के इच्छुक मुनि संक्लिष्ट दव्वं गंधंग-तिलाइएसु, सीउण्ह-विसहणादीसु। भावना को छोड़कर असंक्लिष्ट भावना से अपने आपको भावित भावम्मि होइ दुविहा, पसत्थ तह अप्पसत्था य॥ करते हैं। (आनि ३४९) ३. अप्रशस्त भावभावना : हिंसा आदि भावना के दो प्रकार हैं-द्रव्यभावना और भावभावना। पाणवह-मुसावाए, अदत्त-मेहुण-परिग्गहे चेव। जातिकुसुम आदि सुगंधित द्रव्यों के द्वारा तिल आदि को कोहे माणे माया, लोभे य हवंति अपसत्था॥ वासित करना द्रव्यभावना है। इसी प्रकार शीत से भावित शीतसहिष्णु, (आनि ३५०) Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया और लोभ-ये अप्रशस्त भावभावनाएं है । ४. प्रशस्त भावना : दर्शन आदि दंसण-नाण-चरित्ते, तव वेरग्गे य होइ उ पसत्था ।'' (आनि ३५१ ) प्रशस्त भावनाएं हैं- दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वैराग्य । ० दर्शन भावना - ज्ञान भावना तित्थगराण भगवओ, पवयण-पावयणि अइसइड्डीणं । अभिगमण गमिय दरिसण, कित्तण संपूयणा थुणणा ॥ गणियं णिमित्त जुत्ती, संदिट्ठी अवितहं इमं नाणं । इय एगंतमुवगया, गुणपच्चइया इमे गुणमाहप्पं इसिनामकित्तणं सुर-नरिंदपूया एसा दंसणे अत्था ॥ य। होति ॥ दिट्ठा । य ॥ "इति तत्तं जीवाजीवा, नायव्वा जाणणा इहं इह कज्ज-करण-कारगसिद्धी इह बंधमोक्खे बद्धो य बंधहेऊ, बंधण-बंधप्फलं सुकहियं तु । संसारपवंचो वि य, इहयं कहिओ जिणवरेहिं ॥ नाणं भविस्सई एवमाइगा वायणाइयाओ य । सज्झाए आउत्तो, गुरुकुलवासे य इति नाणो ॥ (आनि ३५२, ३५५-३५९) दर्शन भावना - तीर्थंकर भगवान का प्रवचन, प्रावचनिक - युगप्रधान आचार्य आदि, अतिशायी और ऋद्धिधारी मुनि - इनके अभिमुख जाना, जाकर दर्शन, कीर्तन, संपूजन तथा स्तवन करना निरंतर भाव्यमान दर्शन भावना से दर्शनशुद्धि होती है। ४३४ प्रावचनिक के ये गुणप्रत्ययिक विषय हैं - गणितज्ञता, निमित्तज्ञता, युक्तिमत्ता, अविचल सम्यग्दर्शन, ज्ञान की अवितथता - इनकी प्रशंसा करना, आचार्य आदि के अन्यान्य गुणों का माहात्म्य प्रकट करना, ऋषियों का नामोत्कीर्त्तन करना, उनकी पूजा करने वाले देवता तथा राजाओं के विषय में बतानायह प्रशस्त दर्शन भावना है। ज्ञान भावना - तत्त्व दो हैं—जीव और अजीव, दोनों को जानना चाहिए। यह परिज्ञान जिनशासन में ही उपलब्ध है। जिनप्रवचन में कार्यलक्ष्य, करण - साधन ( सम्यग् ज्ञान आदि), कारक - मुनि और आगम विषय कोश - २ सिद्धि - मोक्ष- इनका पूर्ण विवेचन है। यहां कर्मबंध तथा उससे मुक्ति का उपाय भी निर्दिष्ट है। बंध, बंधहेतु, बंधन तथा बंधन-फल- इनका समुचित विवेचन जिनप्रवचन में है। जैन शासन में संसार के प्रपंच का भी तीर्थंकरों ने प्रतिपादन किया है। 'मुझे विशिष्ट ज्ञान प्राप्त होगा'यह ज्ञानभावना करनी चाहिए। ज्ञान से एकाग्रचित्तता आदि गुण भी प्राप्त होते हैं । वाचना, पृच्छना आदि स्वाध्याय के प्रकारों में उपयुक्त रहना भी ज्ञानभावना । ज्ञानभावना की वृद्धि के लिए सदा गुरुकुलवास में रहना भी ज्ञानभावना है। ० चारित्र भावना - तप भावना साधु अहिंसाधम्मो, सच्चमदत्तविरई य बंभं च । साहु परिग्गहविरई, साहु तवो बारसंगे वेरग्गमप्पमाओ, एगग्गे भावणा य य ॥ परिसंगं । #1 इति चरणगयाओ किह मे होज्ज अवंझो, दिवसो ? किं वा पभू तवं काउं । को इह दव्वे जोगो, खेत्ते काले समय-भावे ॥ उच्छाहपालणाए, इई तवे संजमे य संघयणे । ....... (आनि ३६०-३६३) अहिंसा धर्म अच्छा है। सत्य, अदत्तविरति, ब्रह्मचर्य, परिग्रहविरति तथा बारहविध तप- ये सब शोभन हैं। वैराग्य भावना, अप्रमाद भावना, एकत्व भावना - ये ऋषित्व के परम अंग हैं। ये सारी भावनाएं चारित्र के आश्रित हैं । ******* मेरा दिन तपस्या से अवंध्य कैसे हो ? मैं कौन-सी तपस्या करने में समर्थ हूं? मैं किस द्रव्य के योग से कौन-सा तप कर सकता हूं? मैं कैसे क्षेत्र और काल में तथा किस आत्मभाव में तप कर सकता हूं ? (मैं अग्लानभाव से कौन सा तप करने में समर्थ हूं ? ) गृहीत तप के परिपालन में उत्साह रखना चाहिए। इसी प्रकार संयम और संहनन (जो तप का निर्वहन कर सके) की भावना करनी चाहिए। यह तप भावना है। • वैराग्य भावना : अनित्य भावना आदि वेरग्गेऽणिच्चादी || (आनि ३६३) अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाएं वैराग्य भावना है। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ ५. अनित्य भावना : आचार्य द्वारा प्रतिबोध तेलोक्कदेवमहिया, तित्थयरा नीरया गया सिद्धिं । थेरा वि गया केई, चरणगुणपभावया धीरा ॥ बंभीय सुंदरी या, अन्ना वि य जाउ लोगजेट्ठाओ । ताओ व य कालगया, किं पुण सेसाउ अज्जाउ ॥ न हु होइ सोइयव्वो, जो कालगओ दढो चरित्तम्मि । सो होइ सोतियव्वो, जो संजमदुब्बलो विहरे ॥ (बृभा ३७३७-३७३९) (साध्वी के संबंधीजन कालगत होने पर आचार्य साध्वियों उपाश्रय में अनुशिष्टि हेतु जा सकते हैं। आचार्य उसे सांत्वना देते हुए अनित्य अनुप्रेक्षा को समझाते हुए कहते हैं—- ) तीन लोक के देवों द्वारा पूजित, कर्मरज से रहित तीर्थंकर मुक्त हो गए। कई चरणगुणप्रभावक धीरस्थविर (आचार्य आदि) भी मुक्त हो गएकालगत हो गए, तो शेष जनों के मरण का क्या आश्चर्य ? लोकज्येष्ठा ब्राह्मी, सुन्दरी, चन्दनबाला, मृगावती आदि साध्वियां भी कालगत हो गईं तो शेष साध्वियों की क्या बात ? यदि चारित्र में दृढ़ पुरुष कालगत होता है, तो वह शोचनीय नहीं है। शोचनीय वह है, जो संयम में शिथिल होकर विहरण करता है। ४३५ • अन्यत्व भावना जह नाम असी कोसे, अण्णो कोसे असी वि खलु अण्णे । इय मे अन्नो देहो, अन्नो जीवो त्ति मण्णंति ॥ (व्यभा ४३९९ ) 'जैसे कोश (म्यान) में निक्षिप्त तलवार भिन्न है, कोश भिन्न है, वैसे ही मेरा शरीर भिन्न है, आत्मा भिन्न है ' - इस प्रकार अनुचिन्तन करना अन्यत्व भावना है। * अनित्य आदि भावनाएं द्र श्रीआको १ अनुप्रेक्षा, भावना (तत्त्वार्थभाष्य के अनुसार अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षाओं तथा मैत्री आदि चार भावनाओं का स्वरूप इस प्रकार है१. अनित्य अनुप्रेक्षा - शय्या, आसन, वस्त्र, परिवार आदि का संयोग अनित्य है, यह शरीर अनित्य है, इसका उपचय- अपचय होता है। जिसका संयोग होता है, उसका वियोग निश्चित है - इस भावना प्रकार परिणमन की अनित्यता का अनुचिन्तन करने वाला वस्तु का वियोग होने पर दुःखी नहीं होता। उसका पदार्थ के प्रति स्नेहप्रतिबंध छिन्न हो जाता है। २. अशरण अनुप्रेक्षा - जैसे सिंह से आहत मृगशिशु के लिए कहीं शरण नहीं है, वैसे ही जन्म, जरा, व्याधि, मृत्यु, प्रियवियोग, अप्रियसंप्रयोग आदि से समुत्थित दुःखों से आहत प्राणी के लिए संसार में शरण नहीं है। ऐसा चिंतन करने वाला निर्विण्ण होकर अर्हत् प्रज्ञप्त धर्म की शरण स्वीकार करता है। ३. संसार अनुप्रेक्षा - अनादिकाल से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवयोनि में कृतकर्मों के अनुसार चक्र की तरह परिभ्रमण कर रहा है। इस संसार में कोई स्वजन नहीं है, कोई परजन नहीं है अथवा सब स्वजन भी हैं, परजन भी हैं। एक जन्म की मां दूसरे जन्म में भगिनी हो जाती है, भगिनी भार्या हो जाती है, स्वामी दास और दास स्वामी हो जाता है। चौरासी लाख जीवयोनियों में भटकता हुआ जीव तीव्र कष्टों का अनुभव करता है - इस अनुचिन्तन से निर्वेद - भवविराग उत्पन्न होता है। ४. एकत्व अनुप्रेक्षा- मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है। मैं अकेला जन्मता हूं, अकेला मरता हूं, अकेला ही अपने कृतकर्मों का फल भोगता हूं । - इस अनुचिन्तन से स्वजनों के प्रति रागानुबंध और परजनों के प्रति द्वेषानुबंध छिन्न हो जाता है। निःसंगता से मुक्तिपथ प्रशस्त होता है - ऐसा अनुचिन्तन करना एकत्व अनुप्रेक्षा है। ५. अन्यत्व अनुप्रेक्षा - शरीर अन्य है, मैं (आत्मा) अन्य हूं। शरीर इन्द्रियग्राह्य है, मैं अतीन्द्रिय हूं। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूं। शरीर जड़ है, मैं चेतन हूं। शरीर अज्ञ है, मैं प्राज्ञ हूं। संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों-लाखों शरीर अतीत हो गए, किन्तु मैं वही यह हूं, उन सबसे भिन्न हूं। इस प्रकार 'आत्मा भिन्न, शरीर भिन्न' का अनुचिन्तन करने से शरीर - ममत्व विच्छिन्न होता है, निःश्रेयस का प्रयत्न सफल होता है । ६. अशुचि अनुप्रेक्षा- यह शरीर अशुचि है, अशुचि का भाजन है, अशुचि से उत्पन्न हुआ है, आहार की परिणति अशुचिमय है। यह सुगंधित द्रव्यों को भी दुर्गंधित कर देता है। अशुचिता की अनुप्रेक्षा से शरीर में निर्वेद उत्पन्न होता है। ७. आश्रव अनुप्रेक्षा - पांच इन्द्रियविषयों में प्रसक्त चित्त से अकुशल आगम और कुशल का निर्गम होता है। एक इन्द्रिय-विषय की Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना ४३६ आगम विषय कोश-२ आसक्ति भी व्यक्ति को विनष्ट कर देती है। जैसे-शलभ रूपासक्ति नहीं हैं, हितशिक्षा का आचरण नहीं करते हैं, उनके प्रति उपेक्षाभाव के कारण दीपक में गिर कर जल जाता है। आसक्ति कर्मबंध का रखना। यह अनुचिन्तन करना कि जो मृत्पिण्ड या काष्ठ के तुल्य द्वार है। राग से उत्पन्न अनिष्ट परिणामों का चिंतन करना आश्रव- हैं, वे तीर्थंकर के उपदेश को भी निष्फल कर देते हैं, उन पर क्रोध अनुप्रेक्षा है। करने से क्या?-तभा ७/६) ८. संवर अनुप्रेक्षा-आश्रवद्वारों को निरुद्ध करने से संवर होता ६. देवसंबंधी संक्लिष्ट भावना है। व्रत, गुप्ति आदि के परिपालन से निष्पन्न गुणों का अनुचिन्तन कंदप्प देवकिव्विस, अभिओगा आसुरा य सम्मोहा। करना संवर अनुप्रेक्षा है। एसा य संकिलिट्ठा, पंचविहा भावणा भणिया॥ ९. निर्जरा अनुप्रेक्षा-वेदना और विपाक निर्जरा के पर्यायवाची हैं। __ कन्दर्पः-कामस्तत्प्रधाना: षिङ्गप्राया देवविशेषाः नारक आदि जीवों के कर्मभोग से होने वाली निर्जरा अ कन्दा उच्यन्ते तेषामियं कान्दी। एवं देवानां मध्ये है-उससे अशुभानुबंध होता है, भवभ्रमण नहीं मिटता। तपस्या और किल्बिषाः-पापा अत एवास्पृश्यादिधर्माणश्चण्डालपरीषहजय से निष्पन्न निर्जरण शुभानुबंध या निरनुबंध होता है, प्रायास्तेषामियं दैवकिल्बिषी।"किङ्करस्थानीया देवविशेषाअतः यह बुद्धिपूर्वक निर्जरा है। स्तेषामियमाभियोगी।असुरा:-भवनपतिदेवविशेषास्तेषामिय१०. लोक अनुप्रेक्षा-इसमें पंचास्तिकायात्मक लोक के स्वरूप मासुरी। सम्मोहा:-मूढात्मानो देवविशेषास्तेषामियं का तथा उसमें होने वाली विचित्र-विविध परिणतियों का अनचिन्तन साम्मोही। (बृभा १२९३ वृ) किया जाता है। इससे तत्त्वज्ञान की विशुद्धि होती है। ११. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा-अनादि काल से संसार में भ्रमण करने देव से संबंधित संक्लिष्ट भावना के पांच प्रकार हैंवाला प्राणी मिथ्यादर्शन, अज्ञान आदि से अभिभत होता है। विविध १. कांदपी-कामप्रधान कामुकप्राय देवविशेष से संबंधित भावना। दुःखों से अभिहत प्राणी के लिए सम्यगदर्शन आदि से विशुद्ध २. दैवकिल्विषिकी-देवों में जो किल्बिष-अस्पृश्यधर्मा होते हैं, बोधि की प्राप्ति दुर्लभ है। इस अनुचिन्तन से बोधिलाभ होने पर उनसे संबंधित भावना। ३. आभियोगी-किंकरस्थानीय देव प्रमाद का स्वतः परिहार हो जाता है। आभियोग्य कहलाते हैं, उनसे संबंधित भावना। ४. आसुरी१२. धर्म अनुप्रेक्षा-परमर्षि अर्हत् द्वारा प्रणीत स्वाख्यात धर्म भवनपति देव असुर कहलाते हैं, उनसे संबंधित भावना। संसार से निस्तार करने वाला है, निःश्रेयस को प्राप्त कराने वाला ५. साम्मोही-मूढात्मा देवविशेष सम्मोह कहलाते हैं, उनसे है। सम्यग्दर्शन उसका साधन है। समिति-गुप्ति से उसकी सुरक्षा होती है। इस प्रकार धर्म की अनुप्रेक्षा करने से स्वीकृत मोक्षमार्ग ०कांदी भावना का स्वरूप की सम्यक् आराधना होती है। तभा ९/७ कंदप्पे कुक्कुइए, दवसीले यावि हासणकरे य। मैत्री आदि चार भावनाएं विम्हाविंतो य परं, कंदप्पं भावणं कुणइ॥ १. मैत्रीभावना-सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव का अनुचिन्तन कहकहकहस्स हसणं, कंदप्पो अनिहुया य संलावा। करना-सब सत्त्वों से मेरी मैत्री है, किसी के साथ वैर नहीं है। कंदप्पकहाकहणं, कंदप्पुवएस संसा य॥ २. प्रमोद भावना-जो गुणों में अपने से अधिक हों, उनके प्रति भुम-नयण-वयण-दसणच्छदेहिं कर-पाद-कण्णमाईहिं। विनय का प्रयोग करना, उनका गुणोत्कीर्तन करते हुए उत्फुल्ल तं तं करेइ जह हस्सए परो अत्तणा अहसं॥ होकर मानसिक प्रहर्ष प्रकट करना। वायाकोक्कुइओ पुण, तं जंपइ जेण हस्सए अन्नो। ३. करुणा भावना-संक्लिष्ट प्राणियों के प्रति करुणा भावना नाणाविहजीवरुए, कुव्वइ मुहतूरए चेव॥ करना, हितोपदेश के द्वारा उन पर अनुग्रह करना। भासइ दुयं दुयं गच्छए अ दरिउ व्व गोविसो सरए। ४. माध्यस्थ भावना-जो शिक्षा को ग्रहण-धारण करने के योग्य फुट्ट व ठिओ वि दप्पेणं॥ सव्वहु Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४३७ भावना वेस-वयणेहिं हासं, जणयंतो अप्पणो परेसिं च। एगंतरमुप्पाए, अन्नोन्नावरणया दुवेण्हं पि। अह हासणो त्ति भन्नइ, घयणो व्व छले नियच्छंतो॥ केवलदंसण-णाणाणमेगकाले व एगत्तं॥ सुरजालमाइएहिं, तु विम्हयं कुणइ तव्विहजणस्स।। जच्चाईहिँ अवन्नं, भासइ वट्टइ न यावि उववाए। तेसु न विम्हयइ सयं, आहट्ट-कुहेडएहिं च॥ अहितो छिद्दप्पेही, पगासवादी अणणुकूलो॥ (बृभा १२९५-१३०१) अविसहणाऽतुरियगई, अणाणुवत्ती य अवि गुरूणं पि। खणमित्तपीइ-रोसा, गिहिवच्छलकाऽइसंचइआ॥ जो कन्दर्पवान् और कौत्कुच्यवान् है, जो द्रवशील, हासन गृहइ आयसभावं, घाएइ गुणे परस्स संते वि। शील तथा परविस्मापक है, वह कान्दी भावना करता है। चोरो व्व सव्वसंकी, गूढायारो वितहभासी॥ ० कन्दर्प-अट्टहास करना, जो अपने अनुरूप हो, उसके साथ परिहास करना, निष्ठुर वक्रोक्ति से गुरु आदि के साथ संलाप (बृभा १३०२-१३०७) करना, काम से सम्बद्ध कथा करना, काम का उपदेश देना तथा जो ज्ञान का, केवली, धर्माचार्य और सर्वसाधुओं का काम की प्रशंसा करना-यह सब कन्दर्प कहलाता है। अवर्णवाद करता है, जो मायावी है, वह किल्विषिकी भावना ० कौत्कुच्य-इसके दो प्रकार हैं- कायिक और वाचिक। कायिक करता है। कौत्कुच्य करने वाला स्वयं न हंसता हुआ भ्रू, नयन, वदन, दांत, ० ज्ञान का अवर्णवाद-कुछ व्यक्ति श्रुत का अवर्णवाद इस रूप में बोलते हैं-आगमों में छहजीवनिकाय का प्ररूपण दशवैकालिक में ओष्ठ, हाथ, पैर, कान आदि अवयवों की ऐसी चेष्टा करता है, भी है, आचारांग में भी है। व्रतों का निरूपण भी अनेक अध्ययनों जिससे दूसरे लोग हंसने लगे। हास्य प्रधान शब्द बोलना, जिससे दूसरे हंसने लगें, मयूर, मार्जार, कोकिल आदि नाना प्रकार के में है। प्रमाद-अप्रमाद का प्ररूपण उत्तराध्ययन, आचारांग आदि में पशुओं की ध्वनि निकालना, मुख से वाद्य आदि की ध्वनि है। इस प्रकार पुनः पुनः प्ररूपण से पुनरुक्त दोष आता है। मोक्ष के अधिकारी साधुओं के लिए ज्योतिषशास्त्र (सर्यप्रज्ञप्ति आदि), निकालना-यह वाचिक कौत्कुच्य है। योनिप्राभूत जैसे ग्रन्थों से क्या प्रयोजन? ० द्रवशील-जो आवेशवश बिना विमर्श किए जल्दी-जल्दी बोलता केवली का अवर्णवाद-केवली के ज्ञान-दर्शन-उपयोग यदि है, शरदकालीन दर्प से उद्धत बैल की तरह निरंकुश होकर त्वरित क्रमशः माना जाये तो ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग दोनों परस्पर गति से चलता है, प्रत्युपेक्षणा आदि सभी क्रियाओं में शीघ्रता एक-दूसरे के आवारक हो जाएंगे। यदि एक समय में युगपद् करता है, स्वभावस्थ होने पर भी दर्प के कारण अत्यंत चंचल-सा उपयोग माने जाएं तो साकारोपयोग और अनाकारोपयोग दोनों में लगता है, वह द्रवशील है। एकत्व हो जाएगा। दो नहीं रहेंगे-केवलज्ञान और केवलदर्शन। • हास्यकर-जो भाण्ड की भांति दूसरों के विरूप वेश और भाषा ० धर्माचार्य का अवर्णवाद-जो गुरु की जाति आदि को लेकर संबंधी विपर्ययों की अन्वेषणा कर उसी प्रकार के वेश और वचनों अवर्णवाद बोलता है, गुरु के उपपात में नहीं रहता, गुरु के दोषों से स्वयं में और प्रेक्षकों में हास्य पैदा करता है। का अन्वेषण करता है, उन्हें सबके समक्ष प्रकाशित करता है, • परविस्मापक-जो इन्द्रजाल, प्रहेलिका, वक्रोक्ति आदि के द्वारा अनुचित कार्य करता है, गुरु के अनुकूल वर्तन नहीं करता-वह मूर्खप्राय लोगों को विस्मित करता है, उनमें स्वयं विस्मित नहीं किल्बिषी भावना करता है। होता। ० साधु का अवर्णवाद-ये साधु किसी का पराभव सहन नहीं • दैवकिल्विषिकी भावना का स्वरूप करते, लोगों को आकृष्ट करने के लिए मंद-मंद चलते हैं, गुरु का नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियाण सव्वसाहूणं। अनुवर्तन नहीं करते, प्रकृति से ही निष्ठुर हैं, क्षणमात्र में तुष्ट होते माई अवन्नवाई, किदिवसियं भावणं कुणइ॥ हैं, क्षणमात्र में रुष्ट होते हैं, गृहिवत्सल हैं, वस्त्र आदि का अति काया वया य ते च्चिय, ते चेव पमाय अप्पमाया य। संग्रह करते हैं--इस प्रकार साधुओं का अवर्णवाद करने वाला मोक्खाहिगारिगाणं, जोइसजोणीहिं किं च पुणो॥ किल्विषी भावना करता है। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ भावना ४३८ ० मायी-मायावी अपने स्वभाव (अशुभ परिणामों) को छिपाता भवति-गौरवरहितः सन्नतिशयज्ञाने सति निस्पृहवृत्त्या है, दूसरों के विद्यमान गुणों का अपने अभिनिवेश के कारण घात प्रवचनप्रभावनार्थमेतानि कौतुकादीनि कुर्वन्नाराधको भवति करता है (परगुण छिपाता है), प्रच्छन्न पाप करने के कारण चोर उच्चैर्गोत्रं च कर्म बध्नाति, तीर्थोन्नतिकरणाद्। की भांति सबके प्रति सशंक रहता है, मायापूर्ण प्रवृत्ति करता है, (बृभा १३०८-१३१४ वृ) असत्यभाषी होता है, वह किल्विषी भावना करता है। जो कौतुक, भूतिकर्म, प्रश्न, प्रश्नाप्रश्न और निमित्त से ० आभियोगी भावना : प्रश्न, प्रश्नाप्रश्न आदि अपनी आजीविका चलाता है, ऋद्धि, रस और सात का गौरव कोउअ भूई पसिणे, पसिणापसिणे निमित्तमाजीवी। करता है, वह आभियोगी भावना करता है। इडि-रस-सायगुरुतो, अभिओगं भावणं कुणइ॥ . कौतक-इसके अनेक रूप हैंविण्हवण-होम-सिरपरिरयाइ खारदहणाइँ धूवे य। विस्नपन-बालक आदि की रक्षा हेतु अथवा स्त्री के सौभाग्य असरिसवेसग्गहणं, अवयासण-उत्थुभण-बंधा॥ संपादन के लिए विशेष रूप से स्नान करवाना। भूईएँ मट्टियाएँ व, सुत्तेण व होइ भूइकम्मं तु। होम-शांति आदि के लिए अग्निहवन करना। वसही- सरीर- भंडगरक्खाअभियोगमाईया॥ शिरःपरिरय-कर-भ्रमण आदि से अभिमन्त्रित करना। पण्हो उ होइ पसिणं, जं पासइ वा सयं तु तं पसिणं। क्षारदहन-तथाविध व्याधिशमन के लिए अग्नि में लवण डालना। अंगुट्ठच्चिट्ठ-पडे, दप्पण-असि-तोय-कुड्डाई॥ धूप-तथाविध द्रव्ययोगयुक्त धूप करना। पसिणापसिणं सुमिणे, विजासिटुं कहेइ अन्नस्स। असदृशवेष–पुरुष होने पर भी स्त्री का वेष करना आदि। अहवा आइंखिणिया, घंटियसिटुं परिकहेइ॥ ० अवयासण-वृक्ष आदि का आलिंगन करवाना। तिविहं होइ निमित्तं, तीय-पडुप्पन्न-ऽणागयं चेव। अवस्तोभन-अनिष्ट की उपशांति के लिए थुथकारा डालना। तेण न विणा उ नेयं, नज्जइ तेणं निमित्तं तु॥ बन्ध-कण्डे आदि बांधना। एयाणि गारवट्ठा, कुणमाणो अभिओगियं बंधे। . भूतिकर्म-विद्या से अभिमन्त्रित भस्म, गीली मिट्टी या धागे से बीयं गारवरहिओ, कुव्वं आराहगुच्चं च॥ चारों ओर वेष्टन करना भूतिकर्म कहलाता है। ___...'अवयासणं' वृक्षादीनामालिङ्गापनम्, अवस्तो- वसति, शरीर और उपकरण की सुरक्षा तथा ज्वरशमन के भनम्- अनिष्टोपशान्तये निष्ठीवनेन थुथुकरणम्, बन्धः- लिए अभियोग-वशीकरण आदि किया जाता है। यह भूतिकर्म है। कण्डकादिबन्धनम्, एतत् सर्वमपि कौतुकमुच्यते।"अभि- ० प्रश्न/पसिण-इसके दो अर्थ हैंयोग:-वशीकरणम्, आदिशब्दाद् ज्वरादिस्तम्भन-परिग्रहः। १. देवता आदि से प्रश्न पूछना। 'प्रश्नस्तु' देवतादिपृच्छारूप: पसिणं भण्यते, यद्वा यत् 'स्वयम्' २. विभिन्न वस्तुओं में अवतीर्ण देवता आदि को अपने द्वारा तथा आत्मना तुशब्दादन्येऽपि तत्रस्थाः पश्यन्ति तत् पसिणं तत्रस्थित दूसरे लोगों द्वारा देखा जाना तथा प्रश्न पूछना। प्राकृतशैल्याऽभिधीयते।... उच्चिट्ठ' त्ति कंसारादिभक्ष- अंगुष्ठ, कीटकों द्वारा काटा गया वस्त्र, दर्पण, असि, उदक, णेनोच्छिष्टे पटे..."विद्यया-विद्याधिष्ठात्र्या देवतया... भित्ति, बाहु आदि पर अवतरित देवता आदि को कुछ पूछा जाता है 'आइंखिणिया' डोम्बी तस्याः कुलदैवतं घण्टिकयक्षो नाम"। या देखा जाता है, वह प्रश्न/पसिण है। "कालत्रयवर्तिलाभाऽलाभादिपरिज्ञानहेतुश्चूडामणि- ० प्रश्नाप्रश्न-स्वप्न में अवतीर्ण विद्या की अधिष्ठात्री देवी के प्रभृतिकः शास्त्रविशेषः..."विवक्षितशास्त्रविशेषेण विना द्वारा कही गई बात को पृच्छक को कहना प्रश्नाप्रश्न है। अथवा 'ज्ञेयं' लाभाऽलाभादिकं न ज्ञायत इति लाभाऽलाभादि- डोम्बी का घंटिकयक्ष नामक कुलदेवता कुछ पूछे जाने पर डोंबी के ज्ञाननिमित्तत्वाद् निमित्तमुच्यते। आभियोगिकं' देवादिप्रेष्य- कान में कुछ कहता है, उसे वह शुभ-अशुभ के बारे में पूछने वाले कर्मव्यापारफलं कर्म बध्नाति। 'द्वितीयम्' अपवादपदमत्र दूसरे व्यक्ति को बता देती है-यह प्रश्नाप्रश्न है। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४३९ भावना ० निमित्त-अतीत, वर्तमान और अनागत के भेद से निमित्त तीन निमित्तादेशी-निमित्त के तीन प्रकार हैं-अतीतसंबंधी, वर्तमानप्रकार का है। चूडामणि आदि शास्त्र त्रिकालवर्ती लाभ-अलाभ संबंधी और भविष्यसंबंधी। इनमें से प्रत्येक के छह भेद हैंज्ञान के हेतु हैं। निमित्तशास्त्र के बिना लाभ-अलाभ का ज्ञान नहीं लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, जीवन-मरण-इनका कथन करने वाला होता, इसलिए इसे निमित्त कहा जाता है। यद्यपि आभियोगिकी भावना करता है, किन्तु प्रबल अहंकार के ० ऋद्धि आदि का गौरव एवं अपवाद-जो ऋद्धि, रस और सात- अभिनिवेश में बताया जाने वाला यह निमित्त आसुरी भावना का गौरव के लिए कौतुक आदि का प्रयोग करता है, वह आभियोगिक जनक होता है, अन्यथा यह आभियोगिकी भावना ही कहलाती है। -देव आदि के प्रेष्यकर्मव्यापार फल वाले कर्म का बंध करता है। ० निष्कृप-जो गमन, शयन आदि करते समय स्थावर आदि जीवों जो अतिशयज्ञानी गौरवरहित होकर निस्पृहवृत्ति से प्रवचन की के प्रति निर्दयी हो जाता है, उन जीवों पर चंक्रमण आदि करके प्रभावना के लिए कौतुक आदि करता है, वह आराधक होता है भी अनुताप नहीं करता, वह निष्कृप होता है। और तीर्थोन्नति करने के कारण उच्चगोत्र का बंध करता है-यह ० निरनुकंप-जो दूसरे को किसी भय से कांपता हुआ देखकर अपवाद पद है। कम्पित नहीं होता, कठोर हृदय बन जाता है। पीड़ित प्राणी के ० आसुरी भावना का स्वरूप प्रकम्पन के साथ जो कम्पन होता है, वह अनुकम्पन है। यह अणुबद्धविग्गहो चिय, संसत्ततवो निमित्तमाएसी। अनुकम्पन जिसमें नहीं होता, वह निरनुकम्प है। निक्किव निराणुकंपो, आसुरियं भावणं कुणइ॥ ० साम्मोही भावना का स्वरूप निच्चं वुग्गहसीलो, काऊण य नाणुतप्पए पच्छा। उम्मग्गदेसणा मग्गदूसणा मग्गविप्पडीवत्ती। न य खामिओ पसीयइ, सपक्ख-परपक्खओ आवि॥ मोहेण य मोहित्ता, सम्मोहं भावणं कुणइ॥ आहार-उवहि-पूयासु, जस्स भावो उ निच्चसंसत्तो। नाणाइ अदूसिंतो, तव्विवरीयं तु उवदिसइ मग्गं। भावोवहतो कुणइ अ, तवोवहाणं तदट्ठाए॥ उम्मग्गदेसओ एस आय अहिओ परेसिं च॥ तिविह निमित्तं एक्केक्क छव्विहं जं तु वन्नियं पुव्वि। नाणादि तिहा मग्गं, दूसयए जे य मग्गपडिवन्ना। अभिमाणाभिनिवेसा, वागरियं आसुरं कुणइ॥ अबुहो पंडियमाणी, समुट्ठितो तस्स घायाए॥ चंकमणाई सत्तो, सुनिक्किवो थावराइसत्तेसु। जो पुण तमेव मग्गं, दूसेउमपंडिओ सतक्काए। काउं च नाणुतप्पइ, एरिसओ निक्किवो होइ॥ उम्मग्गं पडिवज्जइ, अकोविअप्पा जमालीव॥ जो उ परं कंपंतं, दवण न कंपए कढिणभावो। भावोवहयमईओ, मुज्झइ नाण-चरणंतराईसु। एसो उ निरणुकंपो, अणु पच्छाभावजोएणं॥ इड्डीओ अ बहुविहा, दटुं परतित्थियाणं तु॥ (बृभा १३१५-१३२०) जो पुण मोहेइ परं, सब्भावेणं व कइअवेणं वा। जो अनुबद्धविग्रह है, संसक्ततपस्वी है, निमित्त बताता है, सम्मोहभावणं सो, पकरेइ अबोहिलाभाय॥ जो दया और अनुकंपा से शून्य है, वह आसुरी भावना करता है। 'ज्ञानादीनि' पारमार्थिकमार्गरूपाण्यदूषयन् 'तद्विपरीतं' ० अनुबद्धविग्रह-जिसका नित्य कलह करने का स्वभाव है, ज्ञानादिविपरीतमेवोपदिशति 'मार्ग' धर्मसम्बन्धिनम्, एष कलह करने के पश्चात जो अनताप नहीं करता है, स्वपक्ष-परपक्ष उन्मार्गदेशकः"त्रिविधं पारमार्थिकं मार्गस्वमनीषिकाकल्पितै(साधु-साध्वीवर्ग-गृहस्थवर्ग) के द्वारा क्षमा मांगे जाने पर भी जो ऑतिदूषणैर्दूषयति... अकोविदात्मा' सम्यक् शास्त्रार्थपरिज्ञानप्रसन्न नहीं होता, वह अनुबद्ध-विग्रह कहलाता है। विकलो जमालिवत् यथाऽसौ भगवद्वचनं "क्रियमाणं कृतम्" ० संसक्ततप-जिसकी भावधारा आहार, उपधि और पूजा-प्रतिष्ठा इति दूषयित्वा "कृतमेव कृतम्" इति प्रतिपन्नवान्। एषा में सदा प्रतिबद्ध रहती है, वह रसगौरव आदि भावों से उपहत मार्गविप्रतिपत्तिः। "ज्ञानान्तराणि नाम ज्ञानविशेषाः तद्विषयो होकर आहार आदि की प्राप्ति के लिए तप उपधान करता है। व्यामोहो यथा-यदि नाम परमाण्वादिसकलरूपिद्रव्यावसान Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना विषयग्राहकत्वेन संख्यातीतरूपाण्यवधिज्ञानानि सन्ति तत् किमपरेण मनः पर्यवज्ञानेन ? इति । चरणान्तरव्यामोहो यथायदि सामायिकं सर्वसावद्यविरतिरूपं छेदोपस्थापनीयमप्येवंविधमेव तत् को नामानयोर्विशेषः ? आदिशब्दाद् दर्शनान्तरमतान्तर - वाचनान्तरादिपरिग्रहः । (बृभा १३२१-१३२६ वृ) जो उन्मार्गदेशना, मार्गदूषणा और मार्गविप्रतिपत्ति करता है, स्वयं मूढ होता है और दूसरों को मूढ बनाता है, वह साम्मोही भावना करता है। ४४० ० • उन्मार्गदेशना - ज्ञान आदि पारमार्थिक मार्गरूपों को दूषित नहीं करता हुआ उसके विपरीत धर्ममार्ग की देशना देता है, वह उन्मार्गदेशक है । वह स्व और पर- दोनों के लिए अहितकर है। मार्गदूषणा - जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र - इस त्रिविध परमार्थ मार्ग को स्वमतिकल्पित जाति दूषणों से दूषित करता है, मार्गप्रतिपन्न साधुओं को दूषित करता है, तत्त्वपरिज्ञान से शून्य होने पर भी अपने को पण्डित मानता है, वह पारमार्थिक पथ के विनाश के लिए समुद्यत होता है। यह मार्गदूषणा है। • मार्गविप्रतिपत्ति- जो अतत्त्वज्ञ अपण्डित (सद्बुद्धिरहित) उसी पारमार्थिक मार्ग को असत् दूषणों से दूषित कर निजी मिथ्याविकल्पना से देशतः उन्मार्ग को स्वीकार करता है। जैसे जमाली ने भगवद् वाणी 'क्रियमाणं कृतं' को दूषित कर 'कृतमेव कृतम्' के रूप में स्वीकार किया। यह मार्गविप्रतिपत्ति है । ० मोह - शंका आदि के परिणामों से जिसकी मति उपहत हो जाती है, वह ज्ञानांतर, चरणांतर आदि में तथा परतीर्थिकों की अनेक प्रकार की समृद्धि को देखकर मूढ हो जाता है। ० ज्ञानांतर का अर्थ है - ज्ञानविशेष, उस विषयक व्यामोह, यथापरमाणु आदि समस्त रूपी द्रव्यों का ग्राहक होने से अवधिज्ञान असंख्य प्रकार का है, तब फिर मनः पर्यवज्ञान से क्या प्रयोजन ? ० चरणांतर - चारित्र विषयक व्यामोह, जैसे- सामायिक चारित्र सर्वसावद्यविरति रूप है और छेदोपस्थापनीय चारित्र भी ऐसा ही है, फिर दोनों में क्या अंतर है? इसी प्रकार दर्शनांतर, मतांतर, वाचनांतर आदि में भी वह मूढ हो जाता है। ० परमोहक – जो दूसरे में वास्तविक या काल्पनिक रूप से सन्मार्ग के प्रति चित्तविभ्रम पैदा करता है, वह सम्मोह भावना करता है। यह भावना अबोधिफलदायिनी है। I आगम विषय कोश - २ ( भगवती १ / १७० में ज्ञानमोह विषयक तेरह अंतरों का उल्लेख किया गया है - ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चारित्रान्तर, लिंगान्तर, प्रवचनान्तर, प्रवचनी - अन्तर, कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयान्तर, नियमान्तर और प्रमाणांतर । प्रस्तुत तेरह 'अंतरों' में तत्त्वश्रद्धा का प्रश्न नहीं है। यह विभिन्न विचारों के प्रति होने वाली आकांक्षा है। आचार्य भिक्षु के अनुसार तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों में विपरीत श्रद्धा करने से असत्य का दोष लगता है, पर सम्यक्त्व का नाश नहीं होता । आचार्य भिक्षु ने 'ज्ञानमोह' शब्द की मीमांसा में लिखा हैज्ञानमोह से ज्ञान में व्यामोह उत्पन्न होता है, वह ज्ञानावरणीय कर्म का उदय है, वह निश्चित ही मोहनीय कर्म का उदय नहीं है ......... जैन धर्म ग्रन्थ- प्रधान नहीं, पुरुष प्रधान रहा है । इसमें अनेक पुरुषों का प्रामाण्य स्वीकार किया गया है। प्रामाण्य की पांच श्रेणियां बतलाई गई हैं -- केवलज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वधर और दशपूर्वधर। इन श्रेणियों से भिन्न विशिष्ट आचार्य भी सापेक्ष दृष्टि से अनेक तत्त्वों का प्रतिपादन करते हैं। ये सापेक्ष प्रतिपादन एक सामान्य मुनि के लिए कांक्षामोहनीयवेदन के हेतु बन जाते हैं। ज्ञानान्तर - ज्ञान के विषय में अनेक भूमिकाएं उपलब्ध थीं। प्रथम भूमिका पांच ज्ञान की है। सिद्धसेन दिवाकर ज्ञान के तीन प्रकारों को ही मान्य करते हैं। उनके अनुसार श्रुतज्ञान मतिज्ञान से भिन्न नहीं है और मनः पर्यवज्ञान अवधिज्ञान से भिन्न नहीं है। इस प्रकार देवर्धिगणी के समय तक ज्ञान की पृथक्-पृथक् भूमिकाएं बन गई थीं। इसीलिए ज्ञानान्तर को कांक्षामोहनीय के वेदन का एक हेतु माना गया। दर्शनान्तर - दर्शन के चार प्रकार हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। इस विषय में एक मत यह रहा है कि दर्शन के तीन प्रकार ही पर्याप्त हैं। चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनइन दोनों में भेदरेखा खींचने का कोई स्पष्ट आधार नहीं मिलता । यह चिन्तन भेद कांक्षामोहनीय के वेदन का हेतु बना है। चारित्रान्तर- भगवान् पार्श्व के शासनकाल में चारित्र के तीन प्रकार थे - सामायिक, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात । भगवान् महावीर के शासनकाल में चारित्र के पांच प्रकारों की निरूपणा की गई ।.... यह अन्तर भी कांक्षामोह के वेदन का हेतु बना है। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ भाषा मतान्तर-यहां मत का अर्थ दृष्टिभेद है। केवली और श्रुतकेवली ० एकत्वभावना से भावित मुनि लाघव को प्राप्त करता है। की परम्परा का विच्छेद होने के पश्चात् मतान्तर का सूत्रपात होता . श्रुतभावना से भावित मुनि दूसरों में भी स्वाध्याय के प्रति श्रद्धा है। आगम-साहित्य में अनेक मतान्तर उपलब्ध हैं। उपाध्याय पैदा करता है। पौरुषी आदि कालज्ञान के लिए उसे दूसरों की समयसुन्दर ने आगम-साहित्य में सौ दृष्टि-भेदों का संकलन अपेक्षा नहीं रहती। वह श्रुतपरावर्तन के आधार पर उच्छ्वास आदि किया है। ......"यद्यपि अनुभवगम्य आध्यात्मिक विषय में आगम के काल का आकलन कर पौरुषी आदि का प्रमाण जान लेता है। में कहीं भी पूर्वापर-विरोध या दृष्टिभेद होना संभव नहीं है, परन्तु ० धृतिबलभावना से भावित मुनि का स्वजन आदि पर ममत्व नहीं सूक्ष्म, दूरस्थ और अंतरित पदार्थों के संबंध में कहीं-कहीं आचार्यों होता। (जिसकी आत्मा भावना-योग से शुद्ध है, वह जल में का मतभेद पाया जाता है। प्रत्यक्षज्ञानियों के अभाव में उनका नौका की तरह कहा गया है। वह तट पर पहुंची हुई नौका की निर्णय दुरन्त होने के कारण धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी का भांति सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।-सू १५/५) सर्वत्र यही आदेश है कि दोनों दृष्टियों का यथायोग्य रूप में ग्रहण भाषा-ध्वन्यात्मक, शब्दात्मक तथा संकेतात्मक प्रयोग। कर लेना योग्य है।"-भ १/१६९-१७२ भा) भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम। ७. संक्लिष्ट भावना की निष्पत्ति १. भाषा के प्रकार जो संजओ वि एआसु अप्पसत्थासु भावणं कुणइ। २. भाषा का स्वरूप सो तव्विहेसु गच्छइ, सुरेसु भइओ चरणहीणो॥ ३. भाषा द्रव्यजात (बृभा १२९४) ___ * भाषाद्रव्य अगुरुलघु द्र द्रव्य व्यवहार में साधु होने पर भी जो कान्दी आदि अप्रशस्त | ४. भाषा-अभाषा भावनाओं से अपने को भावित करता है, वह उन भावनाओं के १. भाषा के प्रकार अनुरूप ही कान्दर्पिक आदि देवों की योनि में उत्पन्न होता है। जो व्यक्ति सर्वथा चारित्रविकल अथवा द्रव्य चारित्र से रहित है, वह सत्या-मृषा-मिश्रा-ऽसत्यामृषाभेदात् चतस्रो भाषाः। तत्र इन देवों के अतिरिक्तं नरक, तिर्यञ्च और मनुष्ययोनि में भी उत्पन्न परेण सह विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुनः साधकत्वेन बाधकत्वेन हो सकता है। वा प्रमाणान्तरैरबाधिता या भाषा भाष्यते सा सत्या, सैव प्रमाणैर्बाधिता मृषा, सैव बाध्यमानाऽबाध्यमानरूपा मिश्रा। १.असंक्लिष्ट भावना की निष्पत्ति या तु वस्तुसाधकत्वाद्यविवक्षया व्यवहारपतिता स्वरूपखयावणाआ साहसजआ य लहुया तवा असगा आ मात्राभिधित्सया प्रोच्यते सा पूर्वोक्तभाषात्रयविलक्षणा सद्धाजणणं च परे, कालन्नाणं च नऽन्नत्तो॥ असत्यामषा नाम चतर्थभाषा भण्यते. सा चामन्त्रण्या.....धृतिभावनाभावितस्य स्वजनादिषु असंगः' निर्ममत्वं भवति।" ऽऽज्ञापनीप्रभृतिस्वरूपा। (बृभा ५२३५ की वृ) (बृभा १२८९ वृ) भाषा के चार प्रकार हैं-सत्य, मृषा, मिश्र (सत्यामृषा) साहसं णाम भयं तंण उप्पज्जति। (बृभा १२८९ की चू) और असत्यामृषा (व्यवहार)। असंक्लिष्ट भावनाएं पांच हैं-तपोभावना, सत्त्वभावना, १. सत्यभाषा-जो दूसरे के साथ विप्रतिपत्ति होने पर वस्तु के एकत्वभावना, श्रुतभावना और धृति (बल) भावना। इन पांच साधक-बाधक प्रमाणों से अबाधित भाषा बोली जाती है। भावनाओं से भावित होने पर निम्न गुण प्रकट होते हैं- २. मृषाभाषा-प्रमाणों से बाधित भाषा। ० तपोभावना के अभ्यास से खेद का अपनयन होता है-उपवास आदि ३. मिश्रभाषा-जो प्रमाणों से बाधित भी है, अबाधित भी है। तप करने पर भी वह भूख से खेदखिन्न नहीं होता। ४. असत्यामृषा भाषा-जिसमें वस्तु को सिद्ध करना आदि विवक्षित ० सत्त्वभावना से भावित मुनि भय पर विजय प्राप्त कर लेता है। नहीं है, जो व्यवहार में उपयोगी है, स्वरूप मात्र को प्रकट करने Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा की इच्छा से बोली जाती है, पूर्वोक्त तीनों भाषाओं से विलक्षण है, वह असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा है। इसे चतुर्थ भाषा भी कहा जाता है। इसके आमंत्रणी, आज्ञापनी आदि दस भेद हैं। * चतुर्विध भाषा के ४२ भेद द्र श्रीआको १ भाषा (० सिद्ध, चतुर्दशगुणस्थानवर्ती जीव, एकेन्द्रिय और सब अपर्याप्तक- ये अभाषक होते हैं। नैरयिक, मनुष्य और देव-ये चारों प्रकार की भाषा बोलते हैं । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक – ये न सत्यभाषा बोलते हैं, न मृषा बोलते हैं, न सत्यामृषा बोलते हैं, एक असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा बोलते हैं । इतना विशेष है- प्रशिक्षित अथवा उत्तरगुण लब्धिसम्पन्न पंचेन्द्रियतिर्यंच चारों प्रकार की भाषा बोल सकते हैं । - प्रज्ञा ११ / ३८-४६ ) २. भाषा का स्वरूप ''''' चत्तारि भासज्जायाइं, तं जहा - सच्चमेगं पढमं भासज्जायं, बीयं मोसं, तइयं सच्चामोसं, जं णेव सच्च व मोसं णेव सच्चामोसं - असच्चामोसं णाम तं चउत्थं भासज्जातं ॥ सव्वाइं चणं एयाणि अचित्ताणि वण्णमंताणि गंधमंताणि रसमंताणि फासमंताणि चयोवचइयाइं विपरिणामधम्माई भवतीति अक्खायाई ॥ (आचूला ४/६, ८) ४४२ भाषा के चार प्रकार हैं - १. सत्य भाषा, २. मृषा भाषा, ३. सत्यामृषाभाषा, ४. न सत्य, न मृषा, न सत्यामृषा -असत्यामृषा भाषा। ये सारे भाषाद्रव्य अचेतन हैं, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त हैं, चयोपचयिक तथा विविध परिणमनधर्मा हैं । ( जीव ग्रहणद्रव्य की अपेक्षा से एक वर्ण वाले भी यावत् पांच वर्ण वाले भी और सर्वग्रहण की अपेक्षा से नियमतः पांच वर्ण वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। दो गंध और पांच रस के संदर्भ में भी यही वक्तव्य है। आठ स्पर्श में से ग्रहण द्रव्य की अपेक्षा से भाषाद्रव्य दो स्पर्श वाले होते हैं यावत् चार स्पर्श वाले भी होते हैं। एक, पांच यावत् आठ स्पर्श वाले नहीं होते । सर्वग्रहण की अपेक्षा से जीव नियमतः चार स्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है - शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष । जीव जिन अणु या बादर भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, वे आगम विषय कोश - २ तह य ॥ स्पृष्ट और अनन्तरावगाढ होते हैं। उनका ग्रहण सांतर भी होता है, निरंतर भी होता है तथा निसर्जन सांतर होता है, निरंतर नहीं । ग्रहण- निसर्जन का काल जघन्य दो समय और उत्कृष्ट असंख्यात समय वाला अंतर्मुहूर्त है। भाषाद्रव्य भिन्न और अभिन्न दोनों रूपों में निसृष्ट होते हैं । - प्रज्ञा ११ / ५२-७२) ३. भाषाद्रव्यजात ......उप्पत्ती पज्जवंतरे जायगहणे द्रव्यजातं चतुर्विधम्, उत्पत्तिजातं पर्यवजातम् अन्तरजातं ग्रहणजातं, तत्रोत्पत्तिजातं नाम यानि द्रव्याणि भाषावर्गणान्तः पातीनि काययोगगृहीतानि वाग्योगेन निसृष्टानि भाषात्वेनोत्पद्यन्ते तदुत्पत्तिजातं यद् द्रव्यं भाषात्वेनोत्पन्नमित्यर्थः१ । पर्यवजातं तैरेव वाग्निसृष्टभाषाद्रव्यैर्यानि विश्रेणिस्थानि भाषावर्गणान्तर्गतानि निसृष्टद्रव्यपराघातेन २। यानि त्वन्तराले समश्रेण्यामेव निसृष्टद्रव्यमिश्रितानि भाषा - परिणामं भजन्ते तान्यन्तरजातमित्युच्यन्ते ३ । यानि पुनर्द्रव्याणि समश्रेणिविश्रेणिस्थानि भाषात्वेन परिणतानि कर्णशष्कुलीविवरप्रविष्टानि गृह्यन्ते तानि चानन्तप्रदेशिकानि द्रव्यतः, क्षेत्रतोऽसंख्येप्रदेशावगाढानि, कालत एकद्वित्र्यादि यावदसंख्येयसमयस्थितिकानि, भावतो वर्णगन्धरसस्पर्शवन्ति तानि चैवंभूतानि ग्रहणजातमित्युच्यन्ते४ । (आनि ३३६ वृ) भाषाद्रव्यजात के चार प्रकार हैं १. उत्पत्तिजात - भाषावर्गणा के अंत:पाती द्रव्य काययोग से गृहीत होकर वचनयोग से निसृष्ट होने पर भाषा के रूप में उत्पन्न होते हैं। भाषा रूप में उत्पन्न द्रव्य उत्पत्तिजात है । २. पर्यवजात—उन वाग्निसृष्ट भाषाद्रव्यों के पराघात से भाषा की विश्रेणी में स्थित भाषावर्गणा के द्रव्य भाषा के रूप में उत्पन्न होते हैं, वे पर्यवजात कहलाते हैं। ३. अंतरजात - अन्तराल में समश्रेणि में स्थित भाषावर्गणा के द्रव्य निसृष्ट द्रव्यों से मिश्रित होकर भाषा परिणाम से परिणत होते हैं, वे अंतरजात कहलाते हैं । ४ ग्रहणजात -- सम श्रेणि अथवा विषमश्रेणि में स्थित भाषा रूप में परिणत द्रव्य श्रोता द्वारा कर्णशष्कुलीविवर से ग्रहण किए जाते हैं। वे द्रव्य की अपेक्षा से अनंतप्रदेशी स्कन्ध, क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्येयप्रदेशावगाढ, काल की अपेक्षा से एक, दो, तीन यावत् Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश--- २ असंख्येय समय की स्थिति वाले और भाव की अपेक्षा से वर्णगंध-रस-स्पर्श-युक्त होते हैं। वे इस प्रकार के भाषा द्रव्य ग्रहणजात कहलाते हैं । (भाषा के पुद्गलस्कंध छहों दिशाओं में विद्यमान आकाशप्रदेश की श्रेणियों से गुजरते हुए प्रथम समय में ही लोकांत तक पहुंच जाते हैं । ...... "निसृष्ट भाषाद्रव्य तीन, चार अथवा पांच समय में पूरे लोक में व्याप्त हो जाते हैं । - श्रीआको १ भाषा भाषा का आदि स्रोत है जीव। वह जीव के वाक्प्रयत्न से पैदा होती है। भाषा शरीर से उत्पन्न होती है। वह वज्र संस्थान से संस्थित और लोकान्तपर्यवसित है । - प्रज्ञा ११ / ३० ) ४. भाषा-अभाषा .......पुव्वं भासा अभासा, भासिज्जमाणी भासा भासा, भासासमयविइक्कंता भासिया भासा अभासा ॥ (आचूला ४ / ९ ) बोलने से पहले भाषा अभाषा है, बोलते समय भाषा भाषा है, बोलने का समय व्यतिक्रांत होने पर बोली गई भाषा अभाषा है। * भाषाद्रव्यवर्गणा द्र श्रीआको १ वर्गणा भाषासमिति — भाषा का सम्यक् प्रयोग । द्र समिति भिक्षाचर्या - गोचराग्रों, एषणाओं तथा अन्य अभिग्रहों के द्वारा भिक्षावृत्ति को संक्षिप्त करना । १. भिक्षाचर्या (अभिग्रह ) के प्रकार २. आठ गोचरभूमियां : ऋज्वी आदि * प्रतिमाधारी और भिक्षाचर्या * सात एषणाएं * जिनकल्प और एषणा ४४३ द्र भिक्षुप्रतिमा द्र पिण्डैषणा द्र जिनकल्प १. भिक्षाचर्या (अभिग्रह ) के प्रकार लेवडमलेवडं वा, अमुगं दव्वं च अज्ज घिच्छामि । अमुगेण व दव्वेणं, अह दव्वाभिग्गहो नाम ॥ अट्ठ उ गोयरभूमी, एलुगविक्खंभमित्तगहणं च । सग्गाम परग्गामे, एवइय घरा य खित्तम्मि ॥ काले अभिग्गहो पुण, आई मज्झे तहेव अवसाणे । अप्पत्ते सइ काले, आई बिइओ अ चरिमम्मि ॥ भिक्षाचर्या उक्खित्तमाइचरगा, भावजुया खलु अभिग्गहा होंति । गायंतो व रुदंतो, जं देइ निसन्नमादी वा ॥ ओसक्कण अहिसक्कण, परम्मुहाऽलंकिएयरो वा वि । भावन्नयरेण जुओ, अह भावाभिग्गहो नाम ॥ ....अभिग्रहो नाम भिक्षाग्रहणादिविषयः प्रतिज्ञाविशेषः । ''''एलुकः उदुम्बरस्तस्य विष्कम्भः आक्रमणं तन्मात्रेण मया ग्रहणं कर्त्तव्यमिति कस्याप्यभिग्रहो भवति, यथा भगवतः श्रीमन्महावीरस्वामिनः । उत्क्षिप्तं - पाकपिठरात् पूर्वमेव दायकेनोद्धृतं तद् ये चरन्ति - गवेषयन्ति ते उत्क्षिप्तचरकाः, आदिशब्दाद् निक्षिप्तचरकाः संख्यादत्तिका दृष्टलाभिका: पृष्टलाभका इत्यादयो गृह्यन्ते । त एते गुण-गुणिनो: कथञ्चिदभेदाद् भावयुताः खल्वभिग्रहा भवन्ति । चतुर्विधा अप्यभिग्रहास्तीर्थकरैरपि यथायोगमाचीर्णत्वाद् मोहमदापनयनप्रत्यलत्वाच्च गच्छ्वासिनां तथाविधसहिष्णुपुरुषविशेषापेक्षया महत्याः कर्मनिर्जराया निबन्धनं । (बृभा १६४८ - १६५०, १६५२, १६५३ वृ) भिक्षाग्रहण आदि विषयकं प्रतिज्ञाविशेष का नाम अभिग्रहभिक्षाचर्या है। इसके चार प्रकार हैं १. द्रव्यअभिग्रह - आज मैं अमुक लेपकृत या अलेपकृत द्रव्य लूंगा, अमुक दर्वी आदि से देने पर ही लूंगा । २. क्षेत्र अभिग्रह - ऋज्वी आदि आठ प्रकार की गोचर भूमियों में से किसी एक का संकल्प ग्रहण कर भिक्षा लूंगा। स्वग्राम अथवा परग्राम में इतने घरों में भिक्षार्थ प्रवेश करूंगा। दाता का एक पैर देहली के भीतर और एक पैर बाहर होगा तो भिक्षा लूंगा । भगवान् महावीर ने यह अभिग्रह किया था । (साधना का बारहवां वर्ष। भगवान् महावीर ने कौशाम्बी में पौष मास के पहले दिन कुछ अभिग्रह ग्रहण किए ० द्रव्यतः - शूर्प के कोने में उबले हुए उड़द हों । ० क्षेत्रत:- देने वाली देहली को विष्कंभित - आक्रांत किए हुए हो - एक पैर देहली के भीतर और एक पैर बाहर हो । ० कालतः - भिक्षा का काल अतिक्रांत हो चुका हो। ० भावतः - दासी बनी हुई राजकुमारी, हाथ-पैरों में बेड़ियां, मंडित सिर, आंखों में अश्रुधारा और तीन दिन की भूखी-ऐसी कन्या के हाथ से भिक्षा लूंगा, अन्यथा नहीं। पांच मास पचीस दिन Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षाचर्या ४४४ आगम विषय कोश-२ बीतने पर ये अभिग्रह पूर्ण हुए। चन्दनबाला के हाथ से उड़द के १९. मौनचरक २५. अभिक्षालाभिक बाकले ग्रहण किये।-आवचू १ पृ ३१६, ३१७) २०. दृष्टलाभिक २६. अन्नग्लायक ३. काल अभिग्रह-भिक्षावेला के आदि, मध्य या अवसान में २१. अदृष्टलाभिक २७. औपनिधिक भिक्षा ग्रहण करूंगा-ऐसी प्रतिज्ञा करना। २२. पृष्टलाभिक २८. परिमितपिण्डपातक ० आदि-भिक्षाकाल से पहले ही भिक्षा के लिए जाना। २३. अपृष्टलाभिक २९. शुद्धएषणिक ० मध्य-भिक्षाकाल के समय भिक्षा के लिए जाना। २४. भिक्षालाभिक ३०. संख्यादत्तिक-औप ३४ ० अवसान-भिक्षा का समय अतिक्रांत होने पर जाना। वृत्तिसंक्षेप के आठ प्रकार हैं४. भाव अभिग्रह-अमुक अवस्था में भिक्षा लूंगा। जैसे- १. संसृष्ट-शाक, कुल्माष आदि धान्यों से संसृष्ट आहार। उत्क्षिप्तचरक–दायक के द्वारा पाकभाजन से पहले से ही बाहर २. फलिहा-मध्य में ओदन और उसके चारों ओर शाक रखा हो, निकाले हुए भोजन की गवेषणा करने वाले। निक्षिप्तचरक ऐसा आहार। ३. परिखा-मध्य में अन्न और उसके चारों ओर (पाकभाजन में स्थित भोजन लेने वाले), संख्यादत्तिक (परिमित व्यंजन रखा हो, वैसा आहार । ४. पुष्पोपहित-व्यंजनों के मध्य में दत्तियों का भोजन लेने वाले), दृष्टलाभिक (सामने दीखने वाले पुष्पों के समान अन्न की रचना किया हुआ आहार।५. शुद्धोपहितआहार को लेने वाले), पृष्टलाभिक (क्या भिक्षा लोगे? यह पूछे निष्पाव आदि धान्य से अमिश्रित शाक आदि। ६. लेपकृत-हाथ जाने पर ही भिक्षा लेने वाले) इत्यादि । गुण गुणी से किसी अपेक्षा के चिपकने वाला आहार। ७. अलेपकृत-हाथ के न चिपकने से अभिन्न होने से भावयुत अभिग्रह ही भावाभिग्रह है। वाला आहार । ८. पानक-द्राक्षा आदि से शोधित पानक, चाहे वह गाता हुआ, रोता हुआ, बैठा हुआ, खड़ा हुआ, पीछे सिक्थ-सहित हो या सिक्थ-रहित।-मूला ३/२२० की वृ) हटता हुआ, सम्मुख आता हुआ, पराङ्मुख होता हुआ, आभूषणों ० आठ गोचरभूमियां से अलंकृत अथवा अनलंकृत पुरुष आदि देगा तो भिक्षा लूंगा- अट्ठ उ गोयरभूमी....... ........... इनमें से किसी भी भाव (संकल्प) से युत होना भावाभिग्रह है। १. ऋज्वी २. गत्वाप्रत्यागतिका ३. गोमूत्रिका ४. पतंग द्रव्य आदि चतुर्विध अभिग्रह तीर्थंकरों द्वारा भी यथायोग वीथिका ५. पेटा ६. अर्द्धपेटा ७. अभ्यन्तर-शम्बूका ८. बहिःआचीर्ण हैं तथा मोह और अहंकार का अपनयन करने में समर्थ हैं। शम्बका च। तत्र यस्यामेकां दिशमभिगृह्योपाश्रयाद् निर्गतः इन अभिग्रहों को धारण करने में समर्थ सहिष्णु गच्छवासियों के प्राञ्जलेनैव पथा समश्रेणिव्यवस्थितगृहपंक्तौ भिक्षां परिभ्रमन् लिए ये महान् कर्मनिर्जरा के हेतु हैं। तावद् याति यावत् पंक्तौ चरमगृहम्, ततो भिक्षामगृह्णन्ने* भिक्षाचर्या के अंग द्र श्रीआको १भिक्षाचर्या वापर्याप्तेऽपि प्राञ्जलयैव गत्या प्रतिनिवर्त्तते सा ऋग्वी। यत्र (भिक्षाचर्या के तीस प्रकार हैं पुनरेकस्यां गृहपंक्तौ परिपाट्या भिक्षमाणः क्षेत्रपर्यन्तं गत्वा १. द्रव्याभिग्रहचरक १०. संह्रियमाणचरक प्रत्यागच्छन् पुनर्द्वितीयस्यां गृहपंक्तौ भिक्षामटति सा गत्वा२. क्षेत्राभिग्रहचरक ११. उपनीतचरक प्रत्यागतिका"। यस्यां तु वामगृहाद् दक्षिणगृहे दक्षिणगृहाच्च ३. कालाभिग्रहचरक १२. अपनीतचरक वामगृहे भिक्षांपर्यटति सा गो:-बलीवर्दस्य मूत्रणं गोमूत्रिका, ४. भावाभिग्रहचरक १३. उपनीतअपनीतचरक उपचारात तदाकारा गोचरभमिरपि गोमत्रिका। यस्यां त ५. उत्क्षिप्तचरक १४. अपनीतउपनीतचरक त्रिचतुरादीनि गृहाणि विमुच्याग्रतः पर्यट ६. निक्षिप्तनिक्षिप्तचरक १५. संसृष्टचरक गच्छन्नुत्प्लुत्योत्प्लुत्यानियतया गत्या गच्छति एवं गोचर७. उत्क्षिप्तचरक १६. असंसृष्टचरक भूमिरपि या पतङ्गोड्डयनाकारा सा पतंगवीथिका....। ८. निक्षिप्तउत्क्षिप्तचरक १७. तज्जातसंसृष्टचरक यस्यां तु साधुः क्षेत्रं पेटावत् चतुरस्त्रं विभज्य मध्यवर्तीनि ९. परिवेष्यमाणचरक १८. अज्ञातचरक च गृहाणि मुक्त्वा चतसृष्वपि दिक्षु समश्रेण्या भिक्षामटति सा ह Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ पेटा । अर्द्धपेटाऽप्येवमेव, नवरमर्द्धपेटासदृशसंस्थानयोर्दिग्द्वयसम्बद्धयोर्गृहश्रेण्योरत्र पर्यटति । शम्बूक :- शंखः तद्वद् या वीथिः सा शम्बूका । सा द्वेधा - अभ्यन्तरशम्बूका बहिः शम्बूका च । यस्यां क्षेत्रमध्यभागात् शंखवद् वृत्तया परिभ्रमण भंग्या भिक्षां गृह्णन् क्षेत्रबहिर्भागमागच्छति सा अभ्यन्तरशम्बूका। यस्यां तु क्षेत्रबहिर्भागात् तथैव भिक्षामन् मध्यभागमायाति सा बहिः शम्बूका । (बृभा १६४९ वृ) . गोचर भूमियां (गोचराग्र) आठ हैं १. ऋज्वी - किसी एक दिशा में उपाश्रय से प्रस्थान कर सीधे पथ से समश्रेणि में व्यवस्थित गृहपंक्ति में भिक्षाटन करता हुआ उस पंक्ति के अंतिम घर तक जाता है, फिर प्रांजल गति से ही लौटता है, लौटते समय अपर्याप्त होने पर भी भिक्षा ग्रहण नहीं करता । २. गत्वाप्रत्यागतिका - सीधी गली की एक पंक्ति में क्रमशः भिक्षा करता हुआ क्षेत्र के पर्यंत भाग तक जाता है, लौटते समय दूसरी पंक्ति से भिक्षा करता है। ३. गोमूत्रिका - गोमूत्रिका के आकार वाली गोचरभूमि में बाएं पार्श्व के घर से दाएं पार्श्व के घर में और दाएं पार्श्व से बाएं पार्श्व के घर में भिक्षाटन करता है। ४. पतंगवीथिका – शलभ अनियत गति से उड़ता है। पतंग के उड्डयन के आकार में तीन, चार आदि घर छोड़-छोड़ कर अक्रम से किसी घर में भिक्षा मिले तो लूं - इस प्रकार के संकल्प से भिक्षाटन करना पतंगवीथिका गोचर भूमि है। ५. पेटा - इसमें साधु क्षेत्र को पेटा की भांति चार कोणों में विभक्त कर मध्यवर्ती घरों को छोड़ कर चारों ही दिशाओं में समश्रेणि में स्थित घरों में भिक्षा करता है। ६. अर्धपेटा - इस अभिग्रह वाला साधु अर्धपेटा सदृश संस्थान से संस्थित दो दिशाओं में स्थित गृहश्रेणि में भिक्षा करता है । ७. आभ्यंतर शम्बूका - इसमें भिक्षु शंख के नाभिभाग से प्रारंभ हो बाहर आने वाले आवर्त की भांति गांव के भीतरी भाग से भिक्षा ग्रहण करते हुए क्षेत्र के बाहरी भाग में आता है। ८. बहिः शम्बूका - इसमें मुनि क्षेत्र के बाहरी भाग से भिक्षाटन करता हुआ भीतरी भाग में आता है। यह गोचरभूमि बाहर से भीतर जाने वाले शंख के आवर्त की भांति है । ( शम्बूकावर्त्त की एक अन्य व्याख्या भी है- दक्षिणावर्त्त शंख की भांति दाईं ओर ४४५ भिक्षुप्रतिमा आवर्त्त करते हुए 'भिक्षा मिले तो लूं अन्यथा नहीं' इस संकल्प से भिक्षा करना प्रदक्षिणशम्बूकावर्त्ता है। इसी प्रकार वामावर्त्त शंख की भांति बाईं ओर आवर्त्त करते हुए भिक्षाटन करना वामशम्बूकावर्त्ता । - प्रसा ७४९ की वृ ऋज्वी (आयत) और गत्वाप्रत्यागता को एक मानने पर तथा शम्बूकावर्त्ता के दो भेद नहीं करने पर गोचराग्र के छह भेद होते हैं । - श्रीआको १ भिक्षाचर्या) भिक्षु–भिक्षाशील, साधु । द्र श्रमण भिक्षुप्रतिमा - विशिष्ट श्रुत आदि से सम्पन्न अनगार द्वारा किया जाने वाला साधना का विशेष प्रयोग । १. बारह भिक्षुप्रतिमा * भिक्षुप्रतिमाप्रतिपत्ता: श्रुत-अर्हता, परिकर्म २. प्रथम सात प्रतिमाओं का स्वरूप ३. आठवीं से बारहवीं प्रतिमा : तप-आसन-स्थान ० व्युत्सृष्ट- त्यक्त - देह ० एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा : अनिमेष प्रेक्षा ४. एकरात्रिकी प्रतिमा की निष्पत्ति * प्रतिमाप्रतिपन्न और उपधि द्र प्रतिमा द्र उपधि १. बारह भिक्षुप्रतिमा ...... बारस भिक्खुपडिमाओ पण्णत्ताओ, तं जहामासिया भिक्खुपडिमा, दोमासिया भिक्खुपडिमा, तेमासिया भिक्खु-पडिमा चउमासिया भिक्खुपडिमा, पंचमासिया भिक्खुपडिमा छम्मासिया भिक्खुपडिमा, सत्तमासिया भिक्खुपडिमा पढमा सत्तरातिंदिया भिक्खुपडिमा दोच्चा सत्तरातिंदिया भिक्खुपडिमा तच्चा सत्तरातिंदिया भिक्खुपडिमा अहोरातिंदिया भिक्खुपडिमा, एगराइया भिक्खुपडिमा ॥ (दशा ७/३) भिक्षुप्रतिमा के बारह प्रकार हैं १. मासिकी भिक्षुप्रतिमा, २. द्विमासिकी भिक्षुप्रतिमा, ३. त्रिमासिकी भिक्षुप्रतिमा, ४. चातुर्मासिकी भिक्षुप्रतिमा, ५. पंचमासिकी भिक्षुप्रतिमा, ६. छहमासिकी भिक्षुप्रतिमा, ७ सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा, ८. प्रथम सप्तरात्रिंदिवा भिक्षुप्रतिमा, ९. द्वितीय सप्तरात्रंदिवा भिक्षुप्रतिमा, १०. तृतीय सप्तरात्रिंदिवा भिक्षुप्रतिमा, Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुप्रतिमा ११. अहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा, १२ एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा । * * भिक्षुप्रतिमाप्रतिपत्ता की श्रुतअर्हता ...... द्र प्रतिमा २. प्रथम सात प्रतिमाओं का स्वरूप मासियण्णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स निच्चं वोसट्टकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उववज्जंति, तं जहादिव्वा वा माणुस्सा वा तिरिक्खजोणिया वा, ते उप्पन्ने सम्म सहति ॥ ...... कप्पति एगा दत्ती भोयणस्स पडिगाहेत्तए एगा पाणगस्स अण्णाउंछं सुद्धोवहडं निज्जूहित्ता बहवे दुपय-चउप्पयसमण-माहण- अतिहि-किवण-वणीमए, कप्पति से एगस्स भुंजमाणस्स पडिगाहेत्तए, नो दोण्हं नो तिण्हं नो चउण्हं नो पंचन्हं, नो गुव्विणीए, नो बालवच्छाए, नो दारगं पिज्जेमाणीए दलमा ए..ए पादं अंतो किच्चा एगं पादं बाहिं किच्चा एलुयं विक्खंभत्ता एवं दलयति एवं से कप्पति पडिग्गाहेत्तए । तओ गोयरकाला पण्णत्ता, तं जहा- आदिं मज्झे चरिमे।" छव्विधा गोयरचरिया पण्णत्ता, तं जहा - पेला, अद्धपेला, गोमुत्तिया, पयंगवीहिया, संबुक्कावट्टा, गंतुंपच्चागता ॥'''' जत्थ णं केइ जाणइ गामंसि वा कप्पति से तत्थ एगरायं वत्थए, जत्थ णं केइ न जाणइ कप्पति से तत्थ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए । ....कप्पंति चत्तारि भासाओ भासित्तए, तं जहा - जायणी पुच्छणी अणुण्णमणी पुट्ठस्स वागरणी ॥ कप्पंति ओ उवस्सया पडिलेहित्तए । अणुण्णवेत्तए । उवाइत्तिए, तं जहा - अहेआरामगिहंसि वा अहेवियडगिहंसि वा अहेरुक्खमूलगिहंसि वा ॥ कप्पंति तओ संथारगा पडिले - हित्तए ''अणुण्णवेत्त उवाइणित्तए, तं जहा - पुढविसिलं वा कट्ठसिलं वा अहासंथडमेव ॥ ''''' इत्थी उवस्सयं हव्वमागच्छेज्जा, सइत्थिए व पुरिसे, नो से कप्पति तं पडुच्च निक्खमित्त वा ॥ केइ उवस्स अगणिकाएण झामेज्जा णो से कप्पति तं पडुच्च निक्खमित्तए । केइ बाहाए गहाय आगसेज्जा नो से पति तं अवलंबित्तए, कप्पति से अहारियं रीइत्तए ॥ ...पायंसि खाणू वा कंटए वा अणुपविसेज्जा"" ॥ "अच्छिसि रए वा परियावज्जेज्जानो से कप्पति नीहरित्तए ****** आगम विषय कोश - २ वा विसोहित्तए वा ॥ जत्थेव सूरिए अत्थमेज्जा तत्थेव जलंसि वा थलंसि वा दुग्गंसि वा कप्पति से तं रयणिं तत्थेव उवातिणावेत्तए नो से कप्पति पदमपि गमित्त उट्ठियम्मि सूरे पाईणाभिमुहस्स वा पडीणाभिमुहस्स वा अहारियं इत्तए ॥ णो कप्पति अणंतरहिताए पुढवीए निद्दाइत्तए वा पयलाइत्तए वा।”“उच्चारपासवणेणं उव्वाहेज्जा नो से प् ओगिहित्तए वा, कप्पति से पुव्वपडिलेहिए थंडिले उच्चारपासवणं परिट्ठवित्तए ॥ .......नो कप्पति ससरक्खेणं काएणं गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा ॥ नो कप्पति सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा हत्थाणि वा पादाणि वा दंताणि वा अच्छीणि वा मुहं वा उच्छोलित्तए वा पधोइत्तए वा । णण्णत्थ लेवालेवेण वा भत्तामासेण वा ॥ ४४६ .....नो कप्पति आसस्स वा हत्थिस्स वा "दुट्ठस्स आवदमाणस्स पदमवि पच्चोसक्कित्तए, अदुट्ठस्स आवदमाणस्स कप्पति जुगमित्तं पच्चोसक्कित्तए ॥'''''नो कप्पति छायातो सीयंति उन्हं एत्तए, उण्हाओ उण्हंति नो छायं एत्तए, जं जत्थ जया सिया तं तत्थ अहियासए । एवं खलु एसा मासियभिक्खुपडिमा अहासुतं पालिया भवति ॥ दोमासियण्णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स सेसं तं चेव, नवरं - दो दत्तीओ, तेमासियं तिण्णिचउमासियं चत्तारि ...पंचमासियं पंच'छम्मासियं छसत्तमासियं सत्त दत्तीओ। जतिमासिया तत्तिया दत्तीओ। (दशा ७/४-२६) भिक्षुप्रतिमाप्रतिपन्न भिक्षु की विहारचर्या इस प्रकार है० उपसर्ग - मासिकी भिक्षुप्रतिमाप्रतिपन्न अनगार व्युत्सृष्टकाय और त्यक्तदेह होता है। उसके जो कोई उपसर्ग होते हैं - देवसंबंधी, मनुष्यसंबंधी और तिर्यंचसंबंधी, वह उन उत्पन्न उपसर्गों को सम्यक् प्रकार से समभाव से सहन करता है । ० दत्ति - वह भोजन और पानी की एक-एक दत्ति ग्रहण कर सकता है। (दाता द्वारा एक बार में एक धार से जितना दिया जाता है, वह एक दत्ति है । द्र प्रतिमा) ***** • भिक्षाचर्या - वह अज्ञातकुलों से भिक्षाग्रहण करता है, शुद्धोपहतखाने के लिए साथ में लाया हुआ लेपरहित भोजन लेता है, अनेक द्विपद, चतुष्पद, श्रमण, माहन, कृपण और वनीपकों के लौट जाने Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४४७ भिक्षुप्रतिमा पर भिक्षा करता है। एक व्यक्ति भोजन कर रहा हो, वहां भिक्षा एक कदम भी आगे नहीं चल सकता, फिर वह स्थान चाहे जल ग्रहण कर सकता है, दो, तीन, चार या पांच व्यक्ति भोजन कर रहे हो. स्थल हो. दर्ग हो, वह वहीं रात बिताता है। सर्योद हों, वहां भिक्षा नहीं ले सकता। गर्भवती, बालवत्सा और स्तनपान वह पूर्व, पश्चिम आदि किसी भी दिशा में ईर्यापूर्वक गमन कर कराती हुई स्त्री से भिक्षा नहीं ले सकता। दाता एक पैर देहली के । सकता है। (प्रतिमाप्रतिपन्न के ठहरने के स्थान के संदर्भ में जल भीतर और एक पैर देहली के बाहर कर देहली को विष्कंभित कर का अर्थ है अभावकाश और स्थल का अर्थ है अटवी। अंतरिक्ष से दे तो उससे भिक्षा ले सकता है। सूक्ष्म अप्काय-जल गिरता है। निग्रंथ को यदि ऊपर से आच्छादित ० गोचरकाल-भिक्षाचर्या के तीन काल हैं-आदि (भिक्षावेला गृह न मिले तो वह सूक्ष्म जलकायिक जीवों की रक्षा के लिए से पूर्व), मध्य (वेला) और चरम (भिक्षावेला अतिक्रांत होने सघन निश्छिद्र वृक्ष के नीचे रहता है, खुले आकाश में नहीं। मार्ग पर)-इनमें से किसी एक काल में भिक्षा करता है। में यदि वृक्ष के नीचे भी स्थान न मिले तो अभावकाश में भी रह ० गोचराग्र-गोचरचर्या के छह प्रकार हैं-पेटा, अर्धपेटा, गोमूत्रिका, सकता है।-दशा ७/२० की चू, बृभा ३५०९ की वृ पतंगवीथिका, शम्बूकावर्ता, गत्वाप्रत्यागता- इनमें से किसी एक सूक्ष्म स्नेहकाय तीनों लोकों में निरंतर गिरता है और शीघ्र का संकल्प कर भिक्षा करता है। ही विध्वस्त हो जाता है।-भ १/३१४-३१६) * पेटा आदि का स्वरूप द्र भिक्षाचर्या ० नींद, उत्सर्ग-वह सचित्तभूमी के निकट न नींद ले सकता है ० प्रवास-वह जिस गांव में कोई जानता हो,वहां एक रात और और न ऊंघ सकता है। वह मल-मूत्र के वेग को नहीं रोकता। पूर्व कोई नहीं जानता हो, वहां एक या दो रात रह सकता है। प्रतिलेखित स्थंडिल में मल-मूत्र का विसर्जन करता है। ० भाषा-वह चार प्रकार की भाषा बोल सकता है-याचनी. वह सचित्त रजों से स्पृष्ट शरीर से गृहपति के घर भक्त-पान के पृच्छनी, अनुज्ञापनी और पृष्टव्याकरणी। लिए नहीं जा सकता। ० उपाश्रय-वह आरामगृह में, विवृतगृह (चारों ओर दीवारों से ० प्रक्षालन-वह प्रासुक जल अथवा गर्म जल से हाथ, पैर, दांत, रहित किन्तु ऊपर से आच्छादित घर) में और वृक्ष के नीचे-इन आंखें तथा मुंह नहीं धो सकता, किन्तु लेपयुक्त अवयव या आहार तीन प्रकार के उपाश्रयों-आवासों का प्रतिलेखन (गवेषणा) कर से लिप्त मुंह आदि धो सकता है। सकता है, अनुज्ञा ले सकता है और उनमें रह सकता है। ० अभय-वह अश्व, हाथी आदि दुष्ट प्राणियों को सामने आते ० संस्तारक-वह पृथ्वीशिला, काष्ठशिला और यथासंस्तृत (घास देख एक पैर भी पीछे नहीं हटता। सामने आने वाले तिर्यंच यदि आदिनारक टन तीन पक नारकों का पतिलेखन कर अदुष्ट हों तो वह युगमात्र भूमी पीछे हट सकता है। सकता है, अनुज्ञा ले सकता है, उनका उपयोग कर सकता है। ० धूप-छाया--वह सर्दी अधिक जानकर छाया से धूप में अथवा ० स्त्री-पुरुष-उपाश्रय में स्त्री या स्त्रीसहित पुरुष उसकी ओर गमी अधिक जानकर धूप से छाया में नहीं जाता। इस प्रकार यह शीघ्र आ जाए तो वह उनके कारण निष्क्रमण नहीं कर सकता। मासिकी भिक्षुप्रतिमा सूत्र के अनुरूप पालित होती है। ० अग्नि-कोई उपाश्रय में आग लगा दे तो वह भिक्षु उससे द्वैमासिकी भिक्षुप्रतिमा यावत् सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा निष्क्रमण नहीं कर सकता। यदि कोई दूसरा उसके बाहु पकड़कर प्रतिपन्न अनगार की समग्र विहारचर्या मासिकी भिक्षप्रतिमा की बाहर निकाले तो उसका आलम्बन नहीं ले सकता किन्तु ईर्यापूर्वक भांति आचरणीय-अनुपालनीय है। केवल दत्ति-परिमाण में अंतर चल सकता है। है-द्वैमासिकी में दो दत्ति. त्रैमासिकी में तीन दत्ति, चातुर्मासिकी ० कंटक-मार्ग में चलते हुए उस भिक्षु के पैरों में यदि स्थाण, में चार दत्ति, पंचमासिकी में पांच दत्ति, पाण्मासिकी में छह दत्ति, कांटा आदि चुभ जाए अथवा आंख में रजकण आदि गिर जाए तो सप्तमासिकी में सात दत्ति-जितने मास, उतनी दत्तियां। वह उन्हें निकाल नहीं सकता, ईर्यासमितिपूर्वक चल सकता है। ३. आठवीं से बारहवीं प्रतिमा : तप-आसन-स्थान ० विहार-वह भिक्षु जहां सूर्यास्त हो जाए, वहीं ठहर जाता है, पढमं सत्तरातिंदियण्णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अण Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुप्रतिमा ४४८ आगम विषय कोश-२ गारस्स निच्चं वोसट्टकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उववजंति" इसी प्रकार दूसरी सात अहोरात्रिकी (नौवीं)प्रतिमा की सम्मंसहति"॥कप्पति से चउत्थेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया आराधना की जाती है, केवल आसन में अंतर है-वह दण्डायतिक, गामस्स वा जाव रायहाणीए वा उत्ताणगस्स वा पासेल्लगस्स लगंडशयन अथवा उत्कुटुक आसन में स्थित हो कायोत्सर्ग वा नेसज्जियस्स वा ठाणं ठाइत्तए।.... करता है। एवं दोच्चा सत्तरातिंदियावि भवति, नवरं-दंडायति इसी प्रकार तीसरी सात अहोरात्रिकी (दसवीं) प्रतिमा है. यस्स वालगंडसाइस्स वा उक्कडयस्स वा ठाणं ठाइत्तए... केवल आसन में अंतर है-इसमें वह गोदोहिका, वीरासन या एवं तच्चा सत्तरातिंदियावि, नवरं-गोदोहियाए वा आम्रकुब्ज आसन में स्थित हो कायोत्सर्ग करता है। वीरासणियस्स वा अंबखुज्जस्स वा ठाणं ठाइत्तए।" इसी प्रकार ग्यारहवीं अहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा की आराधना एवं अहोरातियावि, नवरं-छद्रेणं भत्तेणं अपाण- की जाती है। अंतर केवल इतना है कि इसमें मुनि दो दिन का एणं..."ईसिं दोवि पाए साहट्ट, वग्घारियपाणिस्स ठाणं निर्जल उपवास कर गांव के बाहर दोनों पैरों को सटा, दोनों हाथों ठाइत्तए।" . को प्रलंबित कर कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित होता है। एगराइयण्णं भिक्खुपडिम पडिवन्नस्स"" ।। कप्पड़ से बारहवीं एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमाप्रतिपन्न अनगार गांव के अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामस्स"दोवि पाए साहट्ट बाहर तीन दिन का निर्जल उपवास ग्रहण कर तीसरे दिन पूरी रात वग्धारियपाणिस्स एगपोग्गलनिरुद्धदिद्विस्स अणिमिस- कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित रहता है-दोनों पैरों को सटा, दोनों नयणस्स ईसिं पब्भारगतेणं कारणं अहापणिहितेहिं गत्तेहिं भुजाओं को प्रलंबित कर, एक पुद्गल पर दृष्टि टिका, नेत्रों को सव्विदिएहिं गुत्तेहिं ठाणं ठाइत्तए। तत्थ दिव्व-माणुस्स- अनिमेष बना, शरीर को आगे की ओर कुछ झुका, अवयवों को तिरिच्छजोणिया उवसग्गा समुप्पज्जेज्जा, ते णं पयालेन्ज वा अपने-अपने स्थान पर सम्यक् नियोजित कर, सब इन्द्रियों को पवाडेज वा, नो से कप्पति पयलित्तए वा पवडित्तए वा। संवृत बना स्थानस्थित होता है। देव, मनुष्य या तिर्यंच संबंधी तत्थ से उच्चारपासवणं उव्वाहेज्जा नो से कप्पति उच्चार- उपसर्ग उत्पन्न हों, वे उसे ध्यान से विचलित या पतित करें तो वह पासवणं ओगिण्हित्तए वा, कप्पति से पव्वपडिलेहियंसि उनसे विचलित या पतित नहीं होता। उस समय मल-मूत्र की थंडिलंसि परिद्ववित्तए, अहाविहिमेव ठाणं ठाइत्तए॥ बाधा उत्पन्न हो तो वह उसे रोकता नहीं है, पूर्व प्रतिलेखित पढमसत्तरातिंदियादिसु कालकृतो उपधानकृतो य स्थण्डिल में उच्चार-प्रस्रवण का परिष्ठापन कर पुनः यथाविधि विसेसो, ण दत्तीए परिमाणं, चउत्थपारणए आयंबिलं, अपाणगं उस स्थान में आकर कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित हो जाता है। तवोकम्मं सव्वासिं। (दशा ७/२७-३३ चू) ० व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह आठवीं से बारहवीं भिक्षप्रतिमा में पूर्व प्रतिमाओं से जो भेद असिणाण भूमिसयणा, अविभूसा कुलवधू पउत्थधवा। है, वह कालकृत और उपधानकृत भेद है। इनमें दत्तिपरिमाण नहीं रक्खति पतिस्स सेज्जं, अणिकामा दव्ववोसट्ठो॥ होता। वातियपित्तियसिंभियरोगातंकेहि तत्थ पुट्ठो वि। प्रथम सात अहोरात्रिकी (आठवीं)भिक्षुप्रतिमाप्रतिपन्न अनगार न कुणति परिकम्मं सो, किंचि वि वोसट्ठदेहो उ॥ कायिक ममत्व का विसर्जन और देहपरिकर्म का त्यागकर उत्पन्न बंधेज व रुंभेज्ज व, कोई व हणेज्ज अहव मारेज्ज। उपसर्गों को सम्यक प्रकार से सहन करता है, सात दिन तक _वारेति न सो भगवं, चियत्तदेहो अपडिबद्धो॥ एकांतर निर्जल उपवास और पारणक में आचाम्ल तप करता है। (व्यभा ३८३८, ३८३९, ३८४१) वह गांव के बाहर उत्तानशयन अथवा पार्श्वशयन अथवा निषद्या वोसटुं दुविधं-दव्ववोसटुं भाववोसटुं च। दव्ववोसटे आसन की मुद्रा में कायोत्सर्ग करता है। (आसन विवरण द्र कुलवधुदिटुंतो भाववोसटे साधू"। (दशा ७/४ की चू) कायक्लेश) व्युत्सर्ग के दो प्रकार हैं Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४४९ भिक्षुप्रतिमा १. द्रव्य व्युत्सर्ग-प्रोषितधवा कुलवधू स्नान नहीं करती, भूमि ठाणा अहियाए असुभाए""तं जहा-उम्मायं वा लभेज्जा, पर सोती है, अनिकामभाव से पति की शय्या की रक्षा करती है, दीहकालियं वा रोयायंकं पाउणेज्जा, केवलिपण्णत्ताओ वा विभूषा नहीं करती, यह उसका द्रव्य व्युत्सर्ग है। धम्माओ भंसेज्जा॥एगराइयण्णं भिक्खुपडिमंसम्म अणुपाले२. भाव व्युत्सर्ग-मुनि वात, पित्त, कफ-इस त्रिदोष से उत्पन्न माणस्स अणगारस्स इमे तओठाणा हियाए सुभाएतं जहारोग या आतंक से स्पृष्ट होने पर भी उसका प्रतिकार नहीं करता, ओहिनाणे वा से समुप्पज्जेज्जा, मणपज्जवनाणे वा से शरीर का परिकर्म नहीं करता, यह उसका भाव व्युत्सर्ग है। समुप्पज्जेज्जा, केवलनाणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा। जो बंधन, रोधन, हनन और मारण की स्थिति उत्पन्न होने एवं खलु एसा एगरातिया भिक्खुपडिमा अहासुत्तं अहाकप्पं पर भी उसका निवारण या प्रतिकार नहीं करता, वह त्यक्तदेह है, अहामग्गं अहातच्चं सम्मं काएण फासिया पालिया शरीर की प्रतिबद्धता से मुक्त है। (जो शारीरिक चेष्टा और ममत्व अणुपालिया यावि भवति। (दशा ७/३४, ३५) का विसर्जन कर शरीर के परिकर्म का त्याग करता है, वह व्युत्सृष्ट एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा की सम्यक् अनुपालना नहीं करने त्यक्तदेह है।- श्रीआको १ कायोत्सर्ग) वाले भिक्षु के तीन स्थान अहित और अशुभ के हेतु होते हैं० एकरात्रिकी प्रतिमा : अनिमेष प्रेक्षा १. या तो वह उन्माद को प्राप्त हो जाता है। ....एगपोग्गलनिरुद्धदिट्ठिस्स अणिमिसनयणस्स"॥ २. या दीर्घकालिक रोग और आतंक से ग्रसित हो जाता है। ..... रूविदव्वे कम्हिवि अचेयणे निवेसिया दिट्ठी..... ३. या केवलीप्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। उम्मेसादीणिविण करेति, सुहुमुस्सासंच। (दशा ७/३३ चू) एकरात्रिकीभिक्षुप्रतिमा की सम्यक् अनुपालना करने वाले एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा की आराधना करने वाला मुनि एक भिक्षु के लिए तीन स्थान हित और शुभ के हेतु होते हैंपुद्गल-किसी अचेतन रूपी द्रव्य पर अपनी दृष्टि को निविष्ट १. या तो उसे अवधिज्ञान प्राप्त हो जाता है। करता है, नयनों को अनिमेष बनाता है-श्वास की सूक्ष्म क्रिया के २. या मनःपर्यवज्ञान प्राप्त हो जाता है। अतिरिक्त उन्मेष-निमेष आदि सभी क्रियाओं का विसर्जन कर ३. या पूर्वअसमुत्पन्न केवलज्ञान समुत्पन्न हो जाता है। आत्मलीन हो जाता है। इस प्रकार यह एकरात्रिकी भिक्षप्रतिमा यथासत्र, यथाकल्प. (भगवान् महावीर प्रहर-प्रहर तक तिर्यक् भित्ति पर आंखों यथामार्ग और यथातत्त्व (विधिसूत्र, मर्यादा-व्यवस्था, पद्धति और को स्थिर कर ध्यान करते थे।-आ ९/१/५ प्रतिमा के वास्तविक स्वरूप के अनुरूप), सम्यक् प्रकार से काया नासाग्र या भृकुटि पर दृष्टि को अनिमेष करना ध्यान का से स्पृष्ट, पालित और आज्ञा से अनुपालित होती है। महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। आचार्य हेमचन्द्र ने अयोगव्यवच्छेदिका (गाथा (भगवान् महावीर ने छद्मस्थ अवस्था के ग्यारह वर्षीय २०) में अनिमेष दृष्टि को जिनेन्द्र-मुद्रा का एक लक्षण माना है- दीक्षापर्याय में सुसुमारपुर के अशोकषण्ड उद्यान में अशोकवृक्ष के वपुश्च पर्यंकशयं श्लथं च, दृशौ च नासानियते स्थिरे च। नीचे पृथ्वीशिलापट्ट पर तीन दिन का उपवास ग्रहण कर एकरात्रिकी न शिक्षितेयं परतीर्थनाथैः, जिनेन्द्र ! मुद्रापि तवान्यदास्ताम्॥ महाप्रतिमा स्वीकार की थी।-भ ३/१०५ अनिमेषप्रेक्षा से निर्विकल्प समाधि सिद्ध होती है। घेरण्ड- मुनि गजसुकुमाल ने दीक्षा के प्रथम दिन अर्हत् अरिष्टनेमि संहिता (१/५३) में इसे त्राटक कहा गया है से अनुज्ञा प्राप्त कर महाकाल श्मशान में एकरात्रिकी महाप्रतिमा निमेषोन्मेषकं त्यक्त्वा, सूक्ष्मलक्ष्यं निरीक्षयेत्। स्वीकार की थी। वे अनिमिषनयन-शुष्क पुद्गल पर दृष्टि निरुद्ध पतन्ति यावदश्रूणि, त्राटकं प्रोच्यते बुधैः ॥) कर खड़े थे, उस संध्या काल में सोमिल ब्राह्मण वहां आया, उसने ४. एकरात्रिकी प्रतिमा की निष्पत्ति प्रतिशोध की भावना से उपसर्ग किया-पहले आक्रोशवचन कहे. एगराइयण्णं भिक्खुपडिमं अणणुपालेमाणस्स इमे तओ फिर उसने गजसुकुमाल के मस्तक पर गीली मिट्टी की पाल बांध Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० मंगल आगम विषय कोश-२ उसमें खदिर के जलते अंगारे डाल दिये। मुनि ने विपुल वेदना को प्रतिमाप्रतिपन्न अनगार अनेक प्रकार के कष्टों को सहन समभाव से सहा, मन से भी द्वेष नहीं किया। वे प्रशस्त भावधारा, करते हैं, अतः उनके वेदना महान् होती है। प्रशस्त अध्यवसाय प्रशस्त अध्यवसायों से कर्मों को क्षीण कर केवली हो गए, तत्पश्चात् और वेदना में समभाव रखने के कारण उनके महानिर्जरा होती है। मुक्त हो गए। -अंत ३/८/८८-९२ अतः वे महावेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं।-भ६/१६) प्रतिमा-विवरण-यंत्र नाम साधनास्थल आसन-ध्यान » 3 एकमासिकी भिक्षुप्रतिमा द्वैमासिकी भिक्षुप्रतिमा त्रैमासिकी भिक्षुप्रतिमा चातुर्मासिकी भिक्षुप्रतिमा पंचमासिकी भिक्षुप्रतिमा षाण्मासिकी भिक्षुप्रतिमा सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा प्रथम सप्तअहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा द्वितीय सप्तअहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा तृतीय सप्तअहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा अहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा आहारपरिमाण, तप एक-एक दत्ति दो-दो दत्तियां तीन-तीन दत्तियां चार-चार दत्तियां पांच-पांच दत्तियां छह-छह दत्तियां सात-सात दत्तियां चतुर्थभक्त, पारणक में आचाम्ल चतुर्थभक्त, पारणक में आचाम्ल चतुर्थभक्त, पारणक में आचाम्ल षष्ठ भक्त (बेला) अष्टम भक्त (तेला) आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल गांव आदि के बाहर उत्तान, पार्श्वशयन, निषद्या गांव आदि के बाहर दंडायत, लगंडशयन, उकडू गांव आदि के बाहर गोदोहिका, वीरासन, आम्रकुब्ज गांव आदि के बाहर गोदोहिका, वीरासन, आम्रकुब्ज गांव आदि के बाहर कायोत्सर्ग, अनिमेषप्रेक्षा | १०. मंगल-कल्याणकारी । निर्विघ्नता हेतु की जाने वाली क्रिया। विषय में उसका अभीक्ष्ण उपयोग रहता है, यथार्थ ज्ञान उपलब्ध | १. मंगल का प्रयोजन : नप आदि दृष्टांत होता है। इससे वह विपुल निर्जरा का भागी बनता है और २. स्थापना मंगल और द्रव्य मंगल ज्ञानावरण की निर्जरा के कारण उसका शास्त्रीय ज्ञान स्फुट० अष्ट मंगल स्फुटतर होता चला जाता है। उससे शास्त्र, प्रवचन तथा गुरु के ३. द्रव्य मंगल और भाव मंगल में अंतर प्रति सहज भक्ति समुल्लसित होती है। उससे प्रभावना होती ४. प्रस्थान वेला में शकुन-अपशकुन है-शिष्य के भक्तिभाव को देखकर दूसरों में भी श्रद्धा-आदर १. मंगल का प्रयोजन : नृप आदि दृष्टांत के भाव उत्पन्न होते हैं। विग्धोवसमो सद्धा, आयर उवयोग निज्जराऽधिगमो। ० नृप दृष्टांत-एक व्यक्ति किसी प्रयोजनवश राजा का साक्षात्कार भत्ती पभावणा वि य. निवनिहिविज्जाइ आहरणा॥ करने हेतु पुष्प, अक्षत आदि मांगलिक द्रव्यों को लेकर उपस्थित (बुभा २०) होता है। उन द्रव्यों को राजा के चरणों में अर्पित करता है। राजा मंगल से विघ्नों का उपशम होता है। विघ्नशमन होने पर प्रसन्न होकर उसके प्रयोजन को सिद्ध कर देता है। आचार्य अनुयोग (शास्त्र की व्याख्या) प्रारंभ करते हैं। इससे निधि और विद्या-कोई व्यक्ति निधि का उत्खनन करना चाहता शिष्य की शास्त्रग्रहण में श्रद्धा पैदा होती है तथा उसके अवधारण है या किसी विद्या को सिद्ध करना चाहता है, उसे द्रव्य, क्षेत्र, में आदर के भाव उत्पन्न होते हैं। आदर के कारण शास्त्र के काल और भाव के अनुसार उपचार करना होता है। जैसे द्रव्य Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४५१ मंगल से-पुष्प आदि, क्षेत्र से श्मशान आदि, काल से-कृष्णपक्ष की 'चोरस्स करिसगस्स य, रित्तं कुडयं जणो पसंसेइ। चतुर्दशी आदि तथा भाव से- अनुलोम-प्रतिलोम उपसर्गों को गेहपवेसे मन्नइ, पुन्नो कुंभो पसत्थो उ॥' सहना। इतना करने पर ही वह निधि, विद्या और मंत्र को सिद्ध कर ___..‘नाप्यात्यन्तिकम्, यथा कोऽपि शोभनैर्द्रव्यमङ्गलैसकता है। विनिर्गतः, तेन चाग्रे किञ्चिदशोभनं दृष्टम्, येन तानि * मंगल के निक्षेप, उत्कृष्ट मंगल द्र श्रीआको १ मंगल सर्वाण्यपि प्राक्तनानि प्रतिहतानि, तत एवमनात्यन्तिकमिति।" २. स्थापना मंगल और द्रव्य मंगल न तद् भावमङ्गलं कस्यचिद्भवति कस्यचिन्न भवति, किन्तु ....... असब्भावे, मंगलठवणागतो अक्खो॥ सर्वस्याविशेषेण भवतीत्यैकान्तिकम्, न च केनाप्यन्येन प्रतिजे चित्तभित्तिविहिया, उ घडादी ते य हुंति सब्भावे। हन्यत इत्यात्यन्तिकम्॥ (बृभा १० वृ) तत्थ पुण आवकहिया, हवंति जे देवलोगेसु॥ द्रव्य मंगल ऐकान्तिक मंगल नहीं होता। जैसे-भरा हुआ उत्तरगुणनिप्फन्ना, सलक्खणा जे उ होंति कुंभाई। घट एकान्तरूप से सबके लिए मंगल नहीं होता। शकुनविद् चोर तं दव्वमंगलं खलु, जह लोए अट्ठ मंगलगा॥ और किसान के लिए रिक्त घट को मंगल तथा गहप्रवेश के समय (बृभा ७-९) भरे हुए घट को मंगल मानते हैं। अतः यह अनैकांतिक है। द्रव्य चित्रभित्ति पर विहित घट आदि सद्भाव स्थापना मंगल हैं। मंगल आत्यन्तिक भी नहीं होता। कोई व्यक्ति शुभ मंगल द्रव्यों सद्भूत आकार का अभाव होने से अक्ष, वराटक आदि की मंगल का शकुन लेकर बाहर निकलता है। उसको कुछ दूरी पर अशुभ रूप में स्थापना असद्भाव स्थापना मंगल है। शकुन का योग होता है। उससे पहले के सारे शुभ शकुन प्रतिहत देवलोकों में चित्रभित्ति पर विहित घट आदि यावत्कथिक हो जाते हैं। यह अनात्यन्तिक है। (शाश्वत) हैं और मनुष्यलोक में वे इत्वरिक (अशाश्वत) हैं। भाव मंगल एकांत रूप से मंगल है। वह किसी के होता ___ मूल गुण-मिट्टी से, उत्तरगुण-चक्र, दंड, सूत्र, उदक है, किसी के नहीं होता, ऐसा नहीं है। वह सबके समान रूप आदि तथा पुरुष के प्रयत्न से निष्पन्न, लक्षणसम्पन्न-निश्छिद्र, से होता है इसलिए ऐकान्तिक है और किसी के द्वारा प्रतिहत अखंड, जलसंभृत और पद्म-उत्पलों से प्रतिच्छन्न कुंभ आदि नहीं होता, इसलिए आत्यन्तिक भी है। नन्दी (पांच ज्ञान) द्रव्य मंगल हैं। जैसे-लोक में स्वस्तिक आदि अष्ट मंगल हैं। भावमंगल है। ० अष्ट मंगल ४. प्रस्थान वेला में शकुन-अपशकुन ..."अट्ठ मंगलया"""सोवत्थिय-सिरिवच्छ-णंदियावत्त- मइल कुचेले अब्भंगियल्लए साण खुज्ज वडभे य। एए तु अप्पसत्था, हवंति खित्ताउ जिंतस्स ।। वद्धमाणग-भहासण-कलस-मच्छ-दप्पणया" रत्तपड चरग तावस, रोगिय विगला य आउरा वेज्जा। (दशा १०/१४) कासायवत्थ उद्धूलिया य जत्तं न साहंति॥ आठ मंगल हैं--स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त्त, वर्धमानक, नंदीतूरं पुण्णस्स दंसणं संख-पडहसद्दो य। भद्रासन, कलश, मत्स्य और दर्पण। भिंगार-छत्त-चामर-वाहण-जाणा पसत्थाई॥ * स्वस्तिक आदि मंगल क्यों? द्र श्रीआको १ मंगल समणं संजयं दंतं, सुमणं मोयगा दधिं । ३. द्रव्य मंगल और भाव मंगल में अंतर मीणं घंटं पड़ागं च, सिद्धमत्थं वियागरे॥ णेगंतियं अणच्चंतियं च दव्वे उ मंगलं होइ। (बृभा १५४७-१५५०) तव्विवरीयं भावे, तं पि य नंदी भगवती उ॥ ० अपशकुन-मलिन, जीर्णवस्त्रधारी, तैल आदि से चुपड़े हुए "न पूर्णकलश एकान्तेन सर्वेषां मङ्गलम्। शरीर वाला व्यक्ति, बाईं ओर से दायीं ओर जाता हुआ कुत्ता, Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्र - विद्या कुब्ज, वामन, रक्तपट, चरक, तापस, रोगी, अवयवहीन, आतुर, वैद्य, कषायवस्त्रधारी, धूलिधूसरदेह - ये व्यक्ति प्रस्थान के समय दिखाई दें तो यात्राकार्य सिद्ध नहीं होता । • प्रशस्त शकुन - प्रस्थान के समय नन्दी आदि बारह प्रकार के वाद्यों की 'युगपद् ध्वनि, पूर्णकलश का दर्शन, शंख और पटह का शब्द - श्रवण, भृंगार, छत्र, चमर, वाहन, यान, इन्द्रियदमी संयत श्रमण, पुष्प, मोदक, दधि, मत्स्य, घंटा, पताका आदि का दर्शनश्रवण होने पर कार्य की सिद्धि होती है। (प्रस्थान - वेला में जम्बू, चास, मयूर, भारद्वाज और नकुल का दर्शन शुभ शकुन है । - श्रीआको १ शकुन) मंत्र - विद्या - विशिष्ट प्रकार का वर्णविन्यास | मंत्र विशेष अनुष्ठान से प्राप्त होने वाली शक्ति । १. मंत्र और विद्या २. अभिचारुक मंत्र ३. मंत्र - चिकित्सा : पादलिप्त आचार्य ४. अवनामनी - उन्नामनी विद्या ५. आभोगिनी, प्रश्न आदि विद्याएं ६. प्रश्नप्रश्न : घण्टिकयक्ष * आभियोगी भावना : भूतिकर्म, प्रश्न आदि ७. अभियोग, तालोद्घाटिनी अंतर्धान विद्या • अंतर्धानपिण्ड : क्षुल्लक-चाणक्य दृष्टांत ८. स्तम्भनी विद्या ९. मानसी विद्या १०. विद्याचक्रवर्ती ११. दूती आदि विद्याएं: सर्पदंशचिकित्सा ० साधु-साध्वी चिकित्सा : विद्याप्रयोग विधि १२. गर्दभी विद्या : गर्दभिल्ल नृप १३. मातंग विद्या : गौरी-गांधारी १४. योगपिण्ड : तापस और आर्य समित १५. योनिप्राभृत ग्रंथ : अश्व उत्पादन १६. विद्यासिद्धि का काल उपचार आदि द्र भावना १. मंत्र और विद्या विद्या स्त्रीदेवताधिष्ठिता पूर्वसेवादिप्रक्रियासाध्या वा मन्त्राः पुरुषदेवताधिष्ठिताः पठितसिद्धा वा । (बृभा १२३५ की वृ) आगम विषय कोश - २ साधना विद्या असाधनो मन्त्रः । यस्याधिष्ठात्री देवता सा विद्या, यस्य पुरुषः स मन्त्रः । (व्यभा ८७९ की वृ) जो स्त्रीदेवताअधिष्ठत है और जो पूर्वसेवा आदि प्रक्रिया से साध्य है-साधने से सिद्ध होती है, वह विद्या है। जिसका अधिष्ठाता पुरुषदेवता होता है और जो साधे बिना पठनमात्र से सिद्ध होता है, वह मंत्र है। (जो ह्रीं आदि वर्णविन्यासात्मक है, वह मंत्र है । - श्रीआको १ मंत्र - विद्या ) २. अभिचारुक मंत्र ४५२ .....करणं वा पडिमाए, तत्थ तु भेदो पसमणं च ॥ अशिव-पुररोधादौ तत्प्रशमनार्थं 'प्रतिमां' पुत्तलकं करोति, तत अभिचारुकमन्त्रं परिजपन् प्रतिमायां भेदं करोति । (बृभा ५१०६ वृ) अशिव ( व्यंतरकृत उपद्रव), नगररोध आदि उपद्रवों को शांत करने के लिए प्रतिमा - पुतले का निर्माण किया जाता है, फिर अभिचारुक मंत्र का उच्चारण करते हुए प्रतिमा के मध्य भाग में भेद किया जाता है, तब उस उपद्रव का शमन हो जाता है। ३. मंत्रचिकित्सा : पादलिप्त आचार्य जह जह पएसिणि जाणुयम्मि पालित्ततो भमाडेति । तह तह सीसे वियणं, पणासति मुरुंडरायस्स ॥ ( निभा ४४६० ) मुरुण्ड राजा ने पादलिप्त आचार्य को निवेदन किया- मेरे सिर-दर्द को दूर करो । आचार्य ने एकांत में मंत्र का ध्यान करते हु जैसे जैसे अपने जानु पर प्रदेशिनी अंगुलि को घुमाया, वैसेवैसे राजा की शिरोवेदना समाप्त हो गई। ४. अवनामनी और उन्नामनी विद्या हरिएसो" । तस्स य दो विज्जातो अस्थि- ओणामणी उणामणी य । ओणामणीए ओणामित्ता गहियाणि पज्जत्तगाणि । उण्णामणी उण्णामिआ साहा । ( निभा १३ की चू) हरिकेश चण्डाल के पास दो विद्याएं थीं १. अवनामनी - इस विद्या से उसने उद्यान में आम्रवृक्ष की शाखाओं को झुकाकर पर्याप्त आम्रफल ग्रहण किये। २. उन्नामनी - इस विद्या से शाखाओं को पुनः ऊंचा कर दिया। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४५३ मंत्र-विद्या ५. आभोगिनी, प्रश्न आदि विद्याएं भवति, स एव इंखिणी भण्णति॥पुच्छगंभणति-अतीतकाले आभोगिणीय पसिणेण, देवताए णिमित्तओ वा वि।... वट्टमाणे वा इमो ते लाभो लद्धो, अणागते वा इमं भविस्सति।.. जा विज्जा जविता माणसं परिच्छेदमुप्पादयति सा (निभा ४२९०, ४२९१ चू) आभोगिणी।""अहवा अंगुट्ठपसिणा किज्जति, सुविणपसिणा विद्या द्वारा स्वप्न में कथित बात प्रश्नकर्ता को बताना वा।खवगो वा देवतं आउट्टेउं पुच्छति। अवितहणिमित्तेण वा प्रश्नाप्रश्न है। अथवा विद्या से अभिमंत्रित घंटिका कानों के पास जाणंति। (निभा १३६९ चू) बजाई जाती है, तब देवता शुभाशुभ का कथन करते हैं-वह ० आभोगिनी विद्या-मानसिक निर्णय उत्पन्न कराने वाली विद्या। प्रश्नाप्रश्न है। उसी को इंखिनी कहा जाता है। इस विद्या के जप से मानसिक स्तर पर यह ज्ञान हो जाता है कि देवता पृच्छक को कहता है-अतीत या वर्तमान में तुमने अमुक व्यक्ति ने अमुक वस्तु चुराई है आदि-आदि। यह लाभ प्राप्त किया है, अनागत में यह लाभ होगा। इसी प्रकार ० प्रश्न विद्या-अंगुष्ठ प्रश्न, स्वप्न प्रश्न आदि। वह अलाभ और सुख-दुःख का भी निर्देश करता है। तुम्हारे ० देव-आवाहन-तपस्वी मुनि देवता को आकृष्ट कर या उसका माता-पिता आदि इतने काल तक जीवित थे, अमुक काल में आवाहन कर अपने ज्ञातव्य विषय में पूछ लेता है। उनकी मृत्यु हुई–यह निर्देश भी करता है। • निमित्त-यथार्थ निमित्तज्ञान से ज्ञातव्य को जाना जा सकता है। पसिणा एते पण्हवाकरणेसु पुव्वं आसी। ६. प्रश्नप्रश्न, प्रश्न-अप्रश्न : घण्टिकयक्ष ___ (निभा ४२८९ की चू) पसिणापसिणं सुमिणे, विज्जासिटुं कहेइ अन्नस्स। प्राचीनकाल में प्रश्नव्याकरण सूत्र में प्रश्न, प्रश्नाप्रश्न आदि अहवा आइंखिणिया, घंटियसिटुं परिकहेइ॥ विद्याएं थीं। (प्रश्नव्याकरण में आदर्श, अंगुष्ठ, बाहु, असि, मणि, यत् स्वप्नेऽवतीर्णया विद्यया-विद्याधिष्ठात्र्या देवतया वस्त्र, आदित्य आदि से संबंधित महाप्रश्न, मनःप्रश्न आदि विद्याओं शिष्टं-कथितं सद् 'अन्यस्मै' पृच्छकाय कथयति, अथवा का आख्यान किया गया है। 'आइंखिणिया' डोम्बी तस्याः कुलदैवतं घण्टिकयक्षो नाम ० प्रश्न, अप्रश्न-अंगुष्ठप्रश्न, बाहुप्रश्न आदि मंत्रविद्याओं की स पृष्टः सन् कर्णे कथयति, सा च तेन शिष्टं “सदन्यस्मै संज्ञा 'प्रश्न' है। व्यक्ति के अंगूठे को देखकर उसके शुभाशुभ पृच्छकाय शुभाशुभादि यत् परिकथयति एष प्रश्नप्रश्नः। का निर्देश करना अंगुष्ठ विद्या है। मंत्र की विधि से जाप करने (बृभा १३१२ ) पर कुछ विद्याएं सिद्ध हो जाती हैं। वे बिना प्रश्न किए ही विद्या की अधिष्ठात्री देवी द्वारा स्वप्न में अवतरित होकर जो व्यक्ति को शुभ-अशुभ का निर्देश कर देती हैं। इन्हें अप्रश्न कहा जाता है। बात कही जाती है, वह बात प्रश्नकर्ता को बताई जाती है-यह प्रश्नप्रश्न है। अथवा डोम्बी का घण्टिकयक्ष नाम का कुलदेव कुछ ० प्रश्नाप्रश्न-जो विद्या अंगुष्ठ आदि के सदभाव या अभाव में पूछे जाने पर डोंबी के कान में जो शुभ, अशुभ आदि का कथन शुभ-अशुभ का कथन करती है, वह प्रश्न-अप्रश्न विद्या है। ० महाप्रश्न-वाणी के द्वारा पूछने पर ही जो उत्तर देती है। करता है, वह कथन अन्य पृच्छक को बताया जाता है-यह प्रश्न ० मनःप्रश्न-मन में उठने वाले प्रश्नों का उत्तर देने वाली विद्याएं। प्रश्न है। पसिणापसिणं सुविणे, विज्जासिटुं तु साहति परस्स।... इनके अधिष्ठाता देवता होते हैं।-सम प्र सू ९८ वृ, टि) लाभालाभसुहदुहं, अणुभूय इमं तुमे सुहीहिं वा। ७. अभियोग, तालोद्घाटिनी"अन्तर्धान-विद्या जीवित्ता एवइयं, कालं सुहिणो मया तुझं ॥ ... अभियोग ताले, ओसोवण अंतधाणादी॥ .........अहवा विज्जाभिमंतिया घंटिया कण्णमूले अभियोगो वसीकरणं, तं पुण विज्जाचुण्णमंताचालिज्जति, तत्थ देवता कधिति, कहेंतस्स पसिणापसिणं दीहिं.. तालुग्घोडणीए विज्जाए तालगाणि विहाडेऊण, Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्र - विद्या ऊसोवणिविज्जाए य ओसोवेडं गेण्हंति । जेणंजणविज्जादिणा अहिस्सो भवति तं अंतद्धाणं भण्णति । (निभा ३४७ चू) विद्या के अनेक प्रकार हैं। यथा ० अभियोग - वशीकरण - विद्या, चूर्ण, मंत्र आदि के प्रयोग द्वारा दूसरे व्यक्ति को अपने वश में करना । o तालोद्घाटिनी - ताले खोलकर इच्छित वस्तु ग्रहण करना । ० अवस्वापिनी - दूसरों को निद्रा में सुलाकर वस्तु ग्रहण करना । ० अन्तर्धान- अंजनविद्या आदि के द्वारा अदृश्य हो जाना। • अंतर्धानपिंड : क्षुल्लक-चाणक्य दृष्टांत जंघाहीणे ओमे, कुसुमपुरे सिस्स जोगरहकरणं । खुड्डदुगंऽजणसुणणं, गमणं देसंत ओसरणं ॥ भिक्खे परिहायंते, थेराणं ओमे तेसि देंताणं । सहभोज्ज चंदगुत्ते, ओमोयरियाए दोब्बल्लं ॥ चाणक्कपुच्छ इट्टालचुण्ण दारं पिहेउ धूमो य । दिस्सा कुच्छ पसंसा थेरसमीवे उवालंभो ॥ पाडलिपुत्ते गरे चंदगुत्तो राया, चाणक्को मंती, सुट्ठिया आयरिया। सीसस्स अंतद्धाणजोगं रहे एकांते कहेति । सो य ...........सो अंतद्धाणजोगो मेलिओ, एगेणं अक्खी अंजिता बितितो पण पस्सति । दिट्ठा पयपद्धती चुण्णे । चाणक्केणं णायं - पादचारिणो एते अंजणसिद्धा । ताहे दारं ठवेडं धूमो कतो, अंसुणा गलंतेण गलितं दिवं खुड्डगदुगं । चंदगुत्तो पिच्छति - अहमेतेहिं विट्टालितो । ततो चाणक्केण भणियं - एते रिसओ कुमारसमणा, पवित्तं ते एतेहिं सह भोयणं । तो अप्पसागारियं चाणक्केण णीणिता । थेराण समीवं चाणक्को गतो - कीस खुड्डे ण सारवेह ? ततो थेरेहिं चाणक्को उवालद्धो- तुमं परमो सावगो, एरिसे ओमकाले साधुवावारण वहसित्ति । तेण भणियं - संता पडिचोदणा, मिच्छा मे दुक्कडं ति । '''' ( निभा ४४६३ - ४४६५ चू) पाटलिपुत्र नगर । चन्द्रगुप्त राजा । चाणक्य मंत्री । सुस्थित आचार्य विहार करने में समर्थ नहीं थे। दुर्भिक्ष का समय था । उन्होंने कुछ साधुओं के साथ एक शिष्य को सुभिक्ष- क्षेत्र में भेजना चाहा और उसे एकांत में अन्तर्धान विद्या सिखाई। दो क्षुल्लकों ने उस विद्या - अंजनयोग की पूरी पद्धति को सुन लिया। आगम विषय कोश - २ क्षुल्लकों ने एक बार तो वहां से प्रस्थान कर दिया किन्तु आचार्य के प्रति स्नेह के कारण वे कुछ दूर जाकर लौट आये। आचार्य भिक्षा में प्राप्त आहार का अधिक भाग क्षुल्लकों को देते, स्वयं ऊनोदरी करते। शिष्यों ने अदृश्य विद्या का प्रयोग किया - आंखों में अंजन आंज लिया, जिससे वे किसी दूसरे को दीख न सकें। वे चन्द्रगुप्त के साथ भोजन कर आते । चन्द्रगुप्त राजा अवमोदरिका के कारण दुर्बल हो गया । चाणक्य ने पूछा तो राजा ने कहा- मेरे भोजन को कोई अंतर्हित रहकर खा रहा है। मैं उसे जान नहीं पा रहा हूं । चाणक्य ने जानने का उपाय किया। भोजनकक्ष को चारों ओर से बंद कर दिया, केवल एक द्वार खुला रखा। दरवाजे पर ईंटों का बारीक चूर्ण बिखेर दिया। राजा कक्ष में अकेला था। क्षुल्लक आये, कक्ष में प्रविष्ट हुए। चूर्ण पर पदचिह्न अंकित हो गए । चाणक्य ने जान लिया कि आगंतुक अंजनसिद्ध पादचारी हैं। उसने द्वार बंद कर धुआं किया। क्षुल्लकों की आंखों से आंसुओं के साथ अंजन भी बह गया और अब दोनों अदृश्य से दृश्य हो गए। राजा ने कहा - इन्होंने मुझे अपवित्र कर दिया। चाणक्य ने कहा- ये ऋषिकुमार श्रमण हैं, आप इनके कारण पवित्र हो गए हैं। चाणक्य उन्हें आचार्य के पास ले गया और कहा- गुरुदेव ! आपने इनकी सारणा वारणा क्यों नहीं की ? आचार्य ने उपालंभ देते हुए चाणक्य से कहा- तुम परम श्रावक हो, तुमने इस दुर्भिक्ष काल में भी साधुओं की सुखपृच्छा क्यों नहीं की ? चाणक्य ने अपनी त्रुटि स्वीकार करते हुए 'मिच्छा मि दुक्कडं' कहा और तत्पश्चात् साधुओं की तत्परता से सारसंभाल करने लगा। ८. स्तम्भनी विद्या ४५४ उदग - ग्गि- तेण - सावयभएसु थंभणिविज्जं मंतेऊण थंभेज्ज । थंभणि'''''।'''''' (निभा ४९२ चू) स्तम्भनीविद्या का ज्ञाता व्यक्ति सम्मुख आने वाले जलप्रवाह, दावानल, चोर, श्वापद (सिंह आदि) और मनुष्य अपहर्त्ता - इन्हें स्तम्भनीविद्या से अभिमंत्रित कर स्तम्भित कर देता है। ९. मानसी विद्या माणसिविज्जा णाम मणसा चिंतिऊण जं जावं करेति तं लभति । (निभा ४०९ की चू) Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४५५ मंत्र-विद्या जिस विद्या से मन से चिंतन कर जितना पाने की इच्छा की अपने अंग का प्रमार्जन करने पर रोगी स्वस्थ हो जाता है। जाती है. उतना प्राप्त हो जाता है, वह मानसी विद्या है। ० दर्भ विद्या-वह विद्या, जिससे दर्भ के द्वारा प्रमार्जन करने पर १०. विद्याचक्रवर्ती रोगी नीरोग हो जाता है। ...."विज्ञानरिंदस्स, जं किंचिदपि भासियं। ० व्यजन विद्या-वह विद्या, जिससे व्यजन (पंखे) को अभिमन्त्रित विज्जा भवति सा चेह. देसे काले य सिज्यति॥ कर उससे रोगी का अपमार्जन करने पर रोगी स्वस्थ हो जाता है। ० तालवृन्त विद्या-वह विद्या, जिससे तालवन्त को अभिमंत्रित (व्यभा ३०२०) कर उससे रोगी का अपमार्जन करने से वह स्वस्थ हो जाता है। विद्याचक्रवर्ती जो कुछ भी बोलता है, वह विद्या में परिणत . चापेटी विद्या-वह विद्या, जिससे किसी दूसरे के चांटा जड़ने हो जाता है। वह विद्या इस लोक में देशोचित और कालोचित सेरोगी स्वस्थ हो जाता है। उपचार से सिद्ध होती है। (यद्यपि ये विद्याएं साध के सर्पदंश की चिकित्सा के प्रसंग ११. दूती आदि विद्याएं : सर्पदंशचिकित्सा में निर्दिष्ट हैं। किन्तु प्रतीत होता है कि ये विद्याएं विषापहार तथा दती अहाए ता, वत्थे अंतेउरे य दब्भे वा। सर्व रोगापनयन के लिए प्रयक्त होती थीं।) वियणे य तालवंटे, चवेड ओमज्जणा ....॥ काचिद् दूतविद्या भवति। तया च दूतविद्यया यो दूत ० साधु-साध्वी-चिकित्सा : विद्याप्रयोग विधि आगच्छति, तस्य दंशस्थानमपमार्व्यते। तेनेतरस्य दंशस्थानमु दूयस्सोमाइज्जइ, असती अद्दाग परिजवित्ताणं। पशाम्यति। आदर्शविद्या तया आतुर आदर्श प्रतिबिम्बितो परिजवितं वत्थं वा, पाउज्जइ तेण वोमाए॥ ऽपमाय॑ते, आतुरः प्रगुणो जायते। अन्या विद्या वस्त्रविषया भवति एवं दब्भादीसु, ओमाएऽसंफुसंत हत्थेणं। तया परिजपितेन वस्त्रेण वा प्रमृज्यमान आतुरः प्रगुणो भवति। चावेडीविज्जाएँ व, ओमाए चेडयं दितो॥ 'यया आतुरस्य नाम गृहीत्वा आत्मनोअंगमपमार्जयति, आतुरश्च एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होति नायव्वो। प्रगुणो जायते, सा आन्तःपुरिकी।"दर्भविषा भवति विद्या, विज्ञादी मोत्तूणं, अकुसलकुसले य करणं च॥ यया दभैरपमृज्यमान आतुरः प्रगुणो भवति। व्यजनविषया मंतो हवेज्ज कोई, विज्जा उ ससाहणा न दायव्वा। भवति विद्या, यया व्यजनमभिमन्त्र्य तेनातुरोऽपमृज्यामनः ....."पुव्वाधीता य उ करेज्जा। स्वस्थो भवति, सा व्यजनविद्या। एवं तालवृन्तविद्यापि (व्यभा २४४०-२४४३) भावनीया।"यया अन्यस्य चपेटायां दीयमानायामातुरः __(किसी मुनि को सर्प काट खाये और कोई मुनि या गृहस्थ स्वस्थीभवति, सा चापेटी। (व्यभा २४३९ वृ) विष को उतारने में कुशल न हो तो साध्वी से उसका अपमार्जन सर्पदंशचिकित्सा के लिए प्रयुक्त विद्या के अनेक प्रकार हैं- कराया जा सकता है।) • दूतीविद्या-जो दूत उपस्थित होता है, उसके दंशस्थान का इस दूती विद्या से आगत दूत के अंग का अपमार्जन किया जाता विद्या के द्वारा अपमार्जन किया जाता है, इससे दूसरे का दंशस्थान है, इससे रोगी मुनि स्वस्थ हो जाता है। उपशांत (सांप द्वारा काटा गया अवयव स्वस्थ) हो जाता है। इस विद्या के अभाव में आदर्श में संक्रांत रोगी मुनि के ० आदर्श विद्या-वह विद्या, जिससे दर्पण में प्रतिबिंबित रोगी के प्रतिबिम्ब को पोंछकर उसे स्वस्थ किया जाता है। बिम्ब को पोंछने से वह नीरोग हो जाता है। आदर्श विद्या के अभाव में वस्त्र-विद्या से परिजपित ० वस्त्र विद्या-वह विद्या, जिससे परिजपित वस्त्र से रोगी के (अभिमंत्रित) वस्त्र से रोगी मुनि को प्रावृत किया जाता है, अथवा अंग को प्रमार्जित कर उसे स्वस्थ कर दिया जाता है। परिजपित वस्त्र से रोगी का अपमार्जन किया जाता है। ० आन्त:पुरिकी विद्या-वह विद्या, जिससे रोगी का नाम लेकर इसी प्रकार दर्भ आदि विद्याओं के द्वारा हाथ से स्पर्श न Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्र-विद्या ४५६ आगम विषय कोश-२ लो करते हुए रोगी मुनि का अपमार्जन किया जाता है । चापेटी विद्या से उसे पादप्रहार से प्रताड़ित कर चली गई। शकों ने निर्बल गर्दभिल्ल अन्य के चांटा मारकर अन्य का ही अपमार्जन किया जाता है। का उन्मूलन कर अवन्ति पर अपना अधिकार जमा लिया। साध्वी के लिए भी विद्याप्रयोग की यही यतनाविधि ज्ञातव्य १३. मातंग-विद्या : गौरी-गांधारी है। विद्या ससाधन होती है अतः साध्वी को विद्या नहीं देनी ...'गोरी-गंधारीया, दुहविण्णप्या य दुहमोया॥ चाहिए। मंत्र असाधन होता है, वह कदाचित् दिया जा सकता है। गोरि-गंधारीओ मातंगविज्जाओ साहणकाले लोगयदि साधु अकुशल हों और साध्वी कुशल हो तो वह पूर्वगृहीत गरहियत्तणतो दुहविण्णवणाओ। (निभा ५१५८ चू) मंत्र या विद्या से साधु के विष का अपनयन करती है। १२. गर्दभी विद्या : गर्दभिल्ल नृप गौरी और गांधारी-ये दोनों मातंग-विद्याएं हैं । इन विद्याओं की साधना लोक गर्हित होती है, अतः ये दुःखविज्ञप्या तथा यथेष्ट ___.. गद्दभिल्लस्स एक्का विज्जा गद्दहीरूवधारिणी कामसम्प्रापकता के कारण दुःखमोचा हैं। अत्थि। सा य एगम्मि अट्टालगे परबलाभिमुहा ठविया। ताहे परमे आधिकप्पे गद्दभिल्लो राया अट्टमभत्तोववासी तं * गौरी आदि महाविद्याएं द्र श्रीआको १ मंत्र-विद्या अवतारेति।ताहेसा गद्दभी महंतेण सद्देण णदति, तिरिओ मणुओ . १४. योगपिण्ड : तापस और आर्य समित वा जो परबलिच्चो सई सुणेति स सव्वोरुहिरंवमंतो भयविहलो पादलेवादिजोगेहिं आउट्टेउं जो पिंडं उप्पादेति। णट्ठसण्णो धरणितलं णिवडइ। (नि १३/७३ की चू) कालगज्जो. सद्दवेहीण दक्खाणं अट्ठसतं जोहाण सूभगदूभग्गकरा, जे जोगाऽऽहारिमे य इतरे य। णिरूवेति-'जाहे एस गद्दभी मुहं विडंसेति जाव य सदं ण आघंस वास धूवा, पादपलेवाइणो इतरे॥ करेति ताव जमगसमगं सराण मुहं पूरेज्जेह।' तेहिं पुरिसेहिं णदिकण्हवेण्णदीवे, पंचसया तावसाण णिवसंति। तहेव कयं। ताहे सा वाणमंतरी तस्स गद्दभिल्लस्स उवरिं पव्वदिवसेसु कुलवती, पादलेवुत्तारसक्कारो॥ हदिउं मुत्तेउं वलत्ताहि य हंतुंगता।सो वि य गद्दभिल्लो अबलो जण सावगाण खिंसण, समियक्खण मातिठाण लेवेणं। उम्मूलिओ। उहिया उज्जेणी। (निभा २८६० की चू) सावगपयत्तकरणं, अविणयलोए चलणधोए॥ उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल के पास रासभी का रूप धारण पडिलाभित वच्चंता, णिबुड्डु णदिकूलमिलण समिताए। करने वाली गर्दभी विद्या थी। जब शकसामंतों ने अवन्ति पर विम्हय पंचसया तावसाण पव्वज्ज साहा य॥ आक्रमण किया तो उसने एक अट्टालक पर गर्दभी विद्या को आभीरविसए कण्हवेण्णा णाम नदी। तस्स कूले स्थापित किया, जिसका मुख शत्रुसेना की ओर था। कालकाचार्य बंभद्दीवो।.."अण्णदा वइरसामीमाउलो समियायरिओ द्वारा शकसामंतों को ज्ञात हुआ कि गर्दभिल्ल अष्टमी-चतुर्दशी को विहरंतो तत्थागतो."भणंति आयरिया-वेण्णे! कम देहि अष्टोत्तर सहस्र जप पूर्वक रासभी विद्या की सिद्धि करता है। वह त्ति। ताहे दो वि तडीओ आसण्णं ठिताओ कममेत्तवाहिणी तीन दिन का उपवास कर गर्दभी का अवतारण करता है। वह तेज जाता।आयरिया एगक्कमेण परतीरं गता, पिट्ठओ णदी महंती आवाज में रेंकती है। शत्रुसेना के तिर्यंच और मनुष्य जो भी उसके जाता"तेय पंचतावससया समियायरियस्स समीवे पव्वतिता। शब्द को सुनते हैं, वे सब रुधिर का वमन करने लगते हैं, ततो य बंभद्दीवा साहा संवुत्ता। (निभा ४४६९-४४७२ चू) भयविह्वल और संज्ञाशून्य होकर धरती पर गिर पड़ते हैं। कालकाचार्य के निर्देश के अनुसार शत्रुसेना के शब्दवेधकला आकाशगमन आदि के साधक द्रव्यों का मिश्रण योग है। में दक्ष एक सौ आठ योद्धाओं ने गर्दभी का मुंह खुलते ही तत्काल योग प्रयोग से भिक्षा प्राप्त करना सदोष है। योग दुर्भाग्य को एक साथ बाणों से उसका मुंह भर दिया। इससे गर्दभी रूप सुभाग्य और सुभाग्य को दुर्भाग्य कर देता है । वह दो प्रकार वानव्यंतरी कपित हई और गर्दभिल्ल पर मलमत्र विसर्जित कर का है Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ ० आहार्य - पानी के साथ खाने योग्य चूर्ण आदि । २. अनाहार्य - चंदन आदि का घर्षण करना, वस्त्र को सुगंधित द्रव्य से वासित करना, अगरु आदि से धूपित करना, पादतल पर लेप करना, जिससे दूर तक जल के ऊपर चला जा सके। ० योगसिद्ध आचार्य - आभीर जनपद में कृष्णवेना नदी के तट पर ब्रह्मद्वीप था, वहां पांच सौ तापसों का आश्रम था । तापस- कुलपति पादलेपयोग जानता था। वह अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वतिथियों में पादलेपयोग के प्रभाव से वेना नदी को पार कर वेनातट नगर में पहुंच जाता। वह जल पर ऐसे चलता, जैसे कोई भूमि पर चल रहा हो। उस नगर के सब लोग आकृष्ट होकर भोजन - पानी से उसका सत्कार करते। कुछ लोग श्रावकों की अवहेलना करने लगेतुम्हारे जिनशासन में ऐसा अतिशय नहीं है। एक बार वज्रस्वामी के मातुल समिताचार्य विहार करते हुए वहां आये । श्रावकों ने वहां की स्थिति बताई। आचार्य ने कहायह मायावी है, पादलेप के प्रभाव से नदी पार करता है, अतः तुम लोग इसे अपने घर पर निमंत्रित कर गर्म जल से पैरों का प्रक्षालन करो । श्रावकों ने प्रयत्नपूर्वक यह कार्य किया । तापस नहीं चाहता था, पर श्रावकों ने कहा- आपके भक्त विनयपरिपाटि को नहीं जानते। हम आपका विनय करते हैं, यह कहते हुए उसके पैर धो डाले, फिर उसे भिक्षा दी और पहुंचाने नदी तट पर गए। लेप धुल जाने के कारण तापस डूबने लगा । इतने में आर्य समित आए, द्रव्ययोग का प्रक्षेप कर बोले-वेना! मुझे मार्ग दो । तत्काल दोनों तट सिमट गए, नदी पदमात्र वाहिनी हो गई। आचार्य उस तट पर पहुंचे, पीछे से नदी पुनः बड़ी हो गई। सब लोग तथा ताप विस्मित हुए। पांच सौ तापस आचार्य के पास प्रव्रजित हो गए, तब ब्रह्मद्वीप शाखा प्रवर्तित हुई । १५. योनिप्राभृतग्रंथ : अश्व उत्पादन योनिप्राभृतादिना यदेकेन्द्रियादिशरीराणि निर्वर्त्तयति, यथा सिद्धसेनाचार्येणाश्वा उत्पादिताः । (बृभा २६८१ की वृ) योनिप्राभृत आदि ग्रंथों में ऐसे योग-द्रव्यों के मिश्रण की प्रक्रिया प्रतिपादित है, जिसके प्रयोग से एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय जीवों के शरीर का निर्माण किया जा सकता है। यथा - आचार्य सिद्धसेन ने अश्वों का उत्पादन किया था। मंत्र - विद्या महिष, सर्प आदि का उत्पादन भी किया गया था। इसे निर्वर्त्तना अधिकरण कहा गया है।-द्र अधिकरण (सूयगडो २/२/१८ में छब्बीस प्रकार की विद्याओं का नामोल्लेख है - १. सुभगाकर - दुर्भाग्य को सुभाग्य करने वाली विद्या । २. दुर्भगाकर - सुभाग्य को दुर्भाग्य करने वाली विद्या । ३. गर्भकर - गर्भाधान की विद्या । ४. मोहनकर - वाजीकरण विद्या । ५. आथर्वणी - अथर्ववेद के मंत्र । ६. पाकशासनीइन्द्रजाल विद्या । ७. द्रव्यहोम - उच्चाटन आदि के लिए की जाने वाली हवन क्रिया । ८. वैताली - इच्छित देश-काल में दंडे को ऊंचा उठाने वाली विद्या । ९. अर्धवैताली - वैताली की प्रतिपक्षी विद्या । इससे दंडा नीचे आ गिरता है । १०. अवस्वापिनी - निद्रा दिलाने वाली विद्या । ११. तालोद्घाटिनीताले को खोलने वाली विद्या । १२. श्वपाकी - मातंगी विद्या । १३. शाबरी - शबर भाषा में निबद्ध विद्या । १४. द्राविड़ीतमिल भाषा में निबद्ध विद्या । १५. कालिंगी - कलिंग देश की भाषा में निबद्ध विद्या । १६. गौरी - एक मातंग विद्या । १७. गांधारी - एक मातंग विद्या । १८. अवपतनी - नीचे गिराने वाली विद्या । १९. उत्पतनी - ऊंचा उठाने वाली विद्या । २०. जृम्भणी - उबासी लाने वाली विद्या । २१. स्तम्भनीस्तंभित करने वाली विद्या । २२. श्लेषणी - जंघा और ऊरु को आसन से चिपकाने वाली विद्या । २३. आमयकरणी-रोग पैदा करने वाली विद्या । २४. विशल्यकरणी - शल्य को निकालने वाली विद्या, औषधिज्ञान । २५. प्रक्रामणी - भूत दूर करने वाली विद्या । २६. अन्तर्धानी - अदृश्य होने की विद्या । ) १६. विद्यासिद्धि का काल उपचार आदि कालादिउवयारेणं, विज्जा न सिज्झए विणा देति । रंधे व अवद्धंसं, सा वा अण्णा वा से तहिं ॥ कालाद्युपचारेण विना विद्या न सिध्यति, न केवलं न सिध्यति किन्तु कालादिवैगुण्यलक्षणे 'रन्ध्रे' छिद्रे सति साधिकृतविद्याधिष्ठ्यऽन्या वा क्षुद्रदेवता तत्रावसरे अवध्वंसं ददाति । (व्यभा ३०१८ वृ) कालोचित, देशोचित आदि उपचारों के बिना विद्या सिद्ध नहीं होती। वह सिद्ध तो होती ही नहीं, किन्तु अकाल आदि छिद्र ४५७ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन देखकर अधिकृत विद्या अधिष्ठात्री अथवा अन्य क्षुद्र देवता उस प्रसंग पर विद्यासाधक का अवध्वंस कर सकती है। निधिमुत्खनितुकामो विद्यां मन्त्रं वा साधयितुकामो यदि द्रव्य-क्षेत्र - काल- भावयुक्तमुपचारं करोति, तद्यथा - द्रव्यतः पुष्पादिषु, क्षेत्रतः श्मशानादिषु, कालतः कृष्णपक्षचतुर्दश्यादिषु, भावतः प्रतिलोमानुलोमोपसर्गसहिते, तदा निधिं विद्यां मन्त्रं वा साधयति । (बृभा २० की वृ) जो खजाने का उत्खनन करना चाहता है, अथवा विद्या-मंत्र को सिद्ध करना चाहता है, वह यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से संबंधित उपचार करता है, जैसे-पुष्प आदि द्रव्यों, श्मशान आदि क्षेत्रों, कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी आदि तिथियों में तथा भावतः अनुकूलप्रतिकूल उपसर्ग सहन करता है, तो निधि को प्राप्त कर लेता है। अथवा विद्या - मंत्र को साध लेता है। ..... पक्खस्स अट्ठमी खलु, मासस्स य पक्खियं मुणेयव्वं । अण्णं पि होति पव्वं, उवरागो चंदसूराणं ॥ चाउदसीगहो होति, कोइ अधवावि सोलसिग्गहणं । ......मासस्य मध्यं पाक्षिकं तच्च कृष्णचतुर्दशीरूपम् तत्र प्रायो विद्यासाधनोपचारभावात् बहुलादिका मासाः एतेषु च पर्वसु विद्यासाधनप्रवृत्तेः । कोऽपि विद्याया ग्रहश्चतुर्दश्यां भवति अथवा षोडश्यां शुक्लपक्षप्रतिपदि विद्याया ग्रहणम् । (व्यभा २६९८, २६९९ वृ) पर्वतिथियों में विद्याओं का ग्रहण अथवा परावर्तन किया जाता है । मास और अर्धमास मध्य की तिथियां पर्व कहलाती हैंपक्ष की मध्यतिथि अष्टमी मास की मध्य तिथि चतुर्दशी । विद्यासाधना प्रायः कृष्ण पक्ष में होती है। चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण भी पर्व हैं। इन पर्व दिनों में विद्या साधी जाती है। कोई विद्या का ग्रहण कृष्णा चतुर्दशी को और कोई शुक्ला प्रतिपदा को करता है। मतिज्ञान - आभिनिबोधिक ज्ञान, इन्द्रिय और मन से होने वाला ज्ञान । * मतिसम्पदा क्षिप्र अवग्रह आदि : ४५८ माध्यम द्र ज्ञान द्र गणिसम्पदा आगम विषय कोश - २ मन - शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों को ग्रहण करने वाला कालिक संज्ञान । मनोद्रव्य से उपरंजित चित्त । १. मन का विषय २. मनोलब्धि और मनोवर्गणा ३. मन : बन्धन-मुक्ति का हेतु ४. मनपरिणामों की विचित्रता ५. मन की एकाग्रता का हेतु * मन चंचल क्यों * मन विकास का क्रम द्र ध्यान द्र ज्ञान १. मन का विषय यस्य तत्तथा । अत्थाणंतरचारिं, नियतं चित्तं तिकालविसयं तु । अर्थे - शब्दादाविन्द्रियव्यापारादनन्तरं चरति इन्द्रिये प्रथमं व्यापृते पश्चान्मनो व्याप्रियते नियतार्थविषयंनैककालमनेकविषयम् त्रिष्वपि कालेषु यथायोग्यं विषयो (बृभा ४० वृ) ० मन अर्थानंतरचारी है- वह शब्द आदि विषयों में इन्द्रियप्रवृत्ति के पश्चात् प्रवृत्त होता है। (स्वप्न आदि में इन्द्रियव्यापार के अभाव में भी केवल मन की स्वतंत्र रूप से प्रवृत्ति होती है ।) • मन नियतार्थ विषय वाला है - एक काल में अनेक विषय वाला नहीं है। (एक साथ दो क्रियाएं, दो उपयोग नहीं हो सकते।) • मन त्रिकालवर्ती विषयों को जानता है। (इसके द्वारा अतीत की स्मृति, वर्तमान का चिन्तन और भविष्य की कल्पना - इन तीनों कालखंडों का ज्ञान होता है, अतः इसे कालिकी अथवा दीर्घकालिकी संज्ञा कहा गया है। - श्रीआको १ मन ) २. मनोलब्धि और मनोवर्गणा खंधेऽणंतपसे, मणजोगे गिज्झ गणणतोऽणंते । तल्लद्धि मणेति तहा, भासादव्वे व भासते ॥ ......मुच्छित मत्ते, पासुत्ते वावि होइ उवलंभो । इय होति असन्नीणं, उवलंभो इंदिया जेसिं ॥ (बृभा ७९, ८२) जैसे भाषालब्धिक जीव भाषाद्रव्यों को ग्रहण कर बोलता है, वैसे ही मनोलब्धिसम्पन्न जीव मन के योग्य अनंतप्रदेशी Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ स्कंधों को ग्रहण कर मनन करता है। वे स्कंध संख्या में अनंत 1 असंज्ञी प्राणी मनोद्रव्य के अभाव में मूर्च्छित, उन्मत्त और प्रसुप्त व्यक्ति की तरह अव्यक्त उपयोग वाले होते हैं । उनमें से जिनके जितनी इन्द्रियां होती हैं, उनको उतना स्फुट बोध होता है। ३. मन : बंधन और मुक्ति का हेतु माणसा उवेति विसए, मणसेव य सन्नियत्तए तेसु । इति वि हु अज्झत्थसमो, बंधो विसया न उ पमाणं ॥ (व्यभा १०२९) व्यक्ति मन से विषयों में आसक्त होता है और मन से ही उनसे विरक्त होता है। इसी प्रकार अध्यात्म-परिणामों के अनुरूप कर्मबंध होता है । अतः कर्मबंध में विषय प्रमाण नहीं हैं । ४. मन - परिणामों की विचित्रता मणपरिणामो वीई, सुभासुभे कंटएण दिट्टंतो । खिप्पकरणं जध लंखियव्वं तहियं इमं होति ॥ (व्यभा २७५८) जैसे सरिता में निरंतर अनेक तरंगें उठती रहती हैं, वैसे ही मन की शुभ-अशुभ परिणतियां होती रहती हैं। जैसे वृश्चिककंटक कृष्ण आदि रेखाओं के कारण नाना प्रकार का होता है, वैसे ही कालभेद से एक लेश्यास्थान में असंख्येय परिणाम स्थान होते हैं । (द्र लेश्या) से नर्तकी के बांस पर आरोह-अवरोह की भांति मन की शुभ अशुभ में और अशुभ से शुभ में परिणति होती रहती है। ५. मन की एकाग्रता का हेतु ॥ मणसो एगग्गत्तं, जणयति....। काउस्सग्गगुणा" तच्चैकाग्रत्वं परमं ध्यानम् । (व्यभा १२४ वृ) कायोत्सर्ग से मन की एकाग्रता निष्पन्न होती है और वह एकाग्रता परम ध्यान है। 1 ४५९ मनः पर्यवज्ञान - मनोद्रव्य को साक्षात् जानकर उसके आधार पर मनोगत भावों को जानने वाला अतीन्द्रिय ज्ञान । द्र ज्ञान * मनः पर्यवज्ञान : चित्तसमाधिस्थान * मनः पर्यवज्ञान- विच्छेद कब ? द्र चित्तसमाधिस्थान द्र स्थविरावलि मनुष्य - विकास की सर्वाधिक क्षमता रखने वाला प्राणी । द्र दीक्षा द्र श्रीआको १ मनुष्य * 'मनुष्य' 'की दस अवस्थाएं मरण - जीवनकाल को निष्पन्न करने वाले आयुष्यकर्म के परमाणुस्कंधों की समाप्ति । १. मरण- च्यवन : आयुक्षय..... २. बालमरण के प्रकार * 'अभ्युद्यत (पण्डित) मरण ३. मरण और गति मरण * आराधना से भवसीमा * सशल्यमरण से भवभ्रमण * अनित्य भावना से शोकापनयन * मुनि के शव - परिष्ठापन की विधि * आयुष्यकर्मबंध के हेतु द्र अनशन द्र आराधना द्र आलोचना द्र भावना द्र महास्थण्डिल द्र कर्म १. मरण- च्यवन : आयुक्षय..... समणे भगवं महावीरे महाविमाणाओ वीसं सागरोमाई आउयं पालइत्ता आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं चुए देवाणंदा कुच्छिंसि गब्भं वक्कंते ॥ ( आचूला १५/३) श्रमण भगवान् महावीर प्राणत नामक दसवें देवलोक के महाविमान में देवरूप में बीस सागरोपम की आयु पालकर आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनंतर उस देवलोक से च्यवन कर देवानंदा की कुक्षि में अवतरित हुए । (नैरयिक और भवनवासी देव अधोलोक में रहते हैं । वे मरकर ऊपर आते हैं, इसलिए उनके मरण को उद्वर्तन कहा जाता है। ज्योतिष्क देव और वैमानिक देव ऊर्ध्व स्थान में रहते हैं । वे आयुष्य पूर्ण कर नीचे आते हैं, इसलिए उनके मरण को च्यवन कहा जाता है । -स्था २ / २५१, २५२ • आयुक्षय - आयुष्य कर्म के पुद्गलों का निर्जरण । ० भवक्षय - वर्तमान भव (पर्याय) का सर्वथा विनाश। ० स्थितिक्षय - आयुस्थितिबंध का क्षय ।-स्था ८/१० की वृ) २. बालमरण के प्रकार ......गिरिपडणाणि वा मरुपडणाणि वा भिगुपडणाणि Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण ४६० आगम विषय कोश-२ वा तरुपडणाणि वा, गिरिपक्खंदणाणि वा मरुपक्खंदणाणि चारों में पतनक्रिया सामान्य होने के कारण यह मरण का एक वा भिगुपक्खंदणाणि वा तरुपक्खंदणाणि वा, जलपवेसाणि भेद है। वा जलणपवेसाणि वा, जलपक्खंदणाणि वा जलणपक्खंद- गिरिप्रस्कन्दन आदि चारों में प्रस्कन्दन सामान्य होने से णाणि वा, विसभक्खणाणि वा सत्थोपाडणाणि वा, वलय- यह मरण का द्वितीय भेद है। स्थान से ऊपर की ओर उत्पतन मरणाणि वा, वसट्टमरणाणि वा, तब्भवमरणाणि वा, कर गिरना पतन और निकट से ही दौड़कर गिरना प्रस्कन्दन है। णसमरणाणि वा, गिद्धपट्ठाणि वा प्रवेश सामान्य होने से जल और अग्नि में प्रवेश-यह मरण का अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि बालमरणाणि ॥ (नि११/९३) तीसरा भेद है। मरण का चौथा भेद है-जल और अग्नि में बालमरण के २० प्रकार हैं प्रस्कन्दन। शेष विषभक्षण आदि आठ भेद हैं। इस प्रकार बालमरण १. गिरिपतन ११. जलप्रस्कन्दन के बारह भेद होते हैं। २. मरुपतन १२. अग्निप्रस्कन्दन * वलयमरण, वशार्त्तमरण आदि द्र श्रीआको १ मरण ३. भृगुपतन १३. विषभक्षण (निशीथ सूत्र में बालमरण के बीस प्रकार और निशीथ ४. तरुपतन १४. शस्त्रावपाटन चूर्णि में बालमरण के बारह प्रकार प्ररूपित हैं-यह संख्याभेद ५. गिरिप्रस्कन्दन १५. वलयमरण विवक्षा-सापेक्ष है। भगवती में यह बारह प्रकार का प्रज्ञप्त है६. मरुप्रस्कन्दन १६. वशार्त्तमरण १. वलयमरण-संयमजीवन से च्युत होकर मरना। ७. भृगुप्रस्कन्दन १७. तद्भवमरण २. वशार्तमरण-इन्द्रियों के वशवर्ती होकर मरना। ८. तरुप्रस्कन्दन १८. अंतःशल्यमरण ३. अन्तःशल्यमरण-माया आदि आंतरिक शल्य की दशा में मरना। ९. जलप्रवेश १९. वैहायसमरण ४. तद्भवमरण-तिर्यंच या मनुष्यभव में विद्यमान प्राणी पुनः १०. अग्निप्रवेश २०. गृध्रस्पृष्ट तिर्यंच या मनुष्यभवयोग्य आयुष्य का बंध कर वर्तमान आयु के इस प्रकार के बालमरण के अन्य प्रकार भी हैं। क्षय होने पर मरता है, उसका मरण तद्भवमरण है। जत्थ पवातो दीसति, सो तु गिरी मरु अदिस्समाणो तु। ५. गिरिपतन-पर्वत से गिरकर मरना। नदितडमादी उ भिगू , तरू य अस्सोत्थवडमादी॥ ६. तरुपतन-वृक्ष से गिरकर मरना। पडणं तु उप्पतित्ता, पक्खंदण धाविऊण जं पडति।.... ७. जलप्रवेश-जल में डूबकर मरना। गिरी""मरू भिगू"तरू-एतेहिंतो जो अप्पाणं मंचड ८. ज्वलनप्रवेश-अग्नि में प्रवेश कर मरना। मरणं ववसिउंतं पवडणं भन्नइ । एते चउरो विपडणसामन्नओ ९. विषभक्षण-जहर खाकर मरना। एक्को मरणभेदो।- (निभा ३८०२, ३८०३ चू) १०. शस्त्रावपाटन-शस्त्रों से शरीर को विदीर्ण कर मरना। ११. वैहानश-गले में फांसी लगा वृक्षशाखा आदि से लटक कर __ चउरोवि पक्खंदणा पक्खंदणसामन्नओ बिइओ मरण मरना। भेदो। जलजलणपवेसो पवेससामण्णओ तइओ मरणभेदो। १२. गृध्रस्पृष्ट-गीध आदि द्वारा मांस नोचे जाने पर मरना। जल-जलणपक्खंदणे चउत्थो मरणभेदो। सेसा विसभक्ख इस द्वादशविध बालमरण से मरता हुआ जीव अनंत भवग्रहण णाइया वा अटू पत्तेयभदा। (निभा ३८०४ का चू) से अपने आपको संयोजित करता है।.....पण्डितमरण से मरता जिस पर्वत पर आरूढ होने से प्रपातस्थान दिखाई दे, उसे हुआ जीव अनंत भवग्रहण से अपने आपको विसंयोजित करता गिरि और जहां से प्रपात दिखाई न दे, उसे मरु कहा जाता है। है।..-भ २/४९ नदीतट आदि भुग तथा अश्वत्थ, वट आदि तरु हैं। मरने का स्था २/४१३ में बालमरण के अंतिम दो भेद-वैहायस निश्चय कर इनसे गिरकर मरना गिरिपतन आदि मरण हैं। इन और गृध्रस्पृष्ट विशेष स्थिति में अनुज्ञात हैं। आयारो ८/५८ में Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ केवल वैहायस का विधान है। गृध्रस्पृष्ट की अर्थपरम्परा आलोच्य है। इसकी प्राचीनता भी संदिग्ध है। द्र भ २/४९ का भाष्य ) ३. मरण और गति मरिऊण अट्टझाणो गच्छे तिरिएसु वणयरेसुं वा।'''''' (व्यभा ४२५६) आर्त्तध्यानी- कामानुरंजित वेदनामय एकाग्र परिणति वाला प्राणी मरकर तिर्यंचगति अथवा वानव्यंतरों में उत्पन्न होता है। महाव्रत - हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह - इन पापकारी प्रवृत्तियों का पूर्णतः प्रत्याख्यान । (रौद्रध्यानी नरकगति में और धर्म्यध्यानी वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है। शुक्लध्यानी अनुत्तरविमानों में उत्पन्न होता है। अथवा उसका परिनिर्वाण होता है । - श्रीआको १ ध्यान) १. पांच महाव्रत ० महाव्रत महागुरु २. द्रव्यत: - भावतः हिंसा-अहिंसा * सत्य महाव्रत की सूक्ष्मता ३. अचौर्य महाव्रत की सूक्ष्मता * साधर्मिक आदि की अनुज्ञा ४. व्रतविभाग : ब्रह्मचर्य स्वतंत्र व्रत * व्रत : ऋजुप्राज्ञ आदि * मैथुनधर्म का अपवाद नहीं * परिग्रह : कल्पिका प्रतिसेवना ५. मूलगुण : पांच महाव्रत ० उत्तरगुण : समिति आदि ६. रात्रिभोजनविरमण व्रत : छट्टा व्रत • रात्रि में अशन आदि का अग्रहण, शय्याग्रहण रात्रिभोजन से मूलगुण- विराधना * मूल - उत्तर- गुणभंग से चारित्रभंग ० ७. मूलगुण- उत्तरगुण कब तक ? ८. स्वप्न में व्रतभंग : व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त ९. महाव्रतरक्षा हेतु भावना ० पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएं द्र समिति द्र अवग्रह द्र कल्पस्थिति द्र ब्रह्मचर्य द्र प्रतिसेवना ४६१ द्र चारित्र १. पांच महाव्रत पढमं भंते! महव्वयं-पच्चक्खामि सव्वं पाणाड़वायं - से सुहुमं वा बायरं वा, तसं वा थावरं वा - णेव सयं पाणाइवायं करेज्जा, णेवण्णेहिं पाणाइवायं कारवेज्जा, ठेवण्णं पाणाइवायं करंतं समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं - मणसा वयसा कायसा, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ महाव्रत ......पढमे भंते! महव्वए पाणाइवायाओ वेरमणं ॥ .....दोच्चे भंते! महव्वए मुसावायाओ वेरमणं ॥ .......तच्चे भंते! महव्वए अदिण्णादाणाओ वेरमणं ॥ ......चउत्थे भंते! महव्वए मेहुणाओ वेरमणं ॥ ......पंचमे भंते! महव्वए परिग्गहाओ वेरमणं ॥ (आचूला १५/४३, ४९, ५६, ६३, ७०, ७७) भंते! पहले महाव्रत में मैं सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूं - सूक्ष्म या स्थूल, त्रस या स्थावर जो भी प्राणी हैं, उनके प्राणों का अतिपात मैं स्वयं नहीं करूंगा, दूसरों से नहीं कराऊंगा और अतिपात करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए, तीन करण तीन योग से-मन से, वचन से, काया से । भंते! मैं अतीत में कृत प्राणातिपात से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्हा करता हूं और सपाप आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं। भंते! प्रथम महाव्रत में प्राणातिपात की विरति होती है। दूसरे महाव्रत में मृषावाद की विरति होती है। तीसरे महाव्रत में अदत्तादान की विरति होती है। चतुर्थ महाव्रत में मैथुन की विरति होती है। पांचवें महाव्रत में परिग्रह की विरति होती है। * पांच महाव्रतों का विवरण द्र श्रीआको १ महाव्रत • महाव्रत महागुरु दिसोदिसंऽणंतजिणेण ताइणा, महव्वया खेमपदा पवेदिता । महागुरू स्पियरा उदीरिया, तमं व तेजो तिदिसं पगासया ॥ 'दिशोदिश' मिति सर्वास्वप्येकेन्द्रियादिषु भावदिक्षु 'क्षेमपदानि' रक्षणस्थानानि... ' महागुरूणि' कापुरुषैर्दुर्वहत्वात् । (आचूला १६ / ६ वृ) Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाव्रत ४६२ आगम विषय कोश-२ महाव्रत भावदिशाओं-एकेन्द्रिय आदि सभी प्राणियों के लिए सुरक्षास्थान हैं - यह अनंतज्ञानी सर्वभूतसंयत अर्हत् द्वारा प्रवेदित है। जो तमस को नष्ट कर ऊर्ध्व, अध: और तिर्यक-इन तीनों दिशाओं को प्रकाशित करने वाले तैजस की भांति सब प्राणियों के प्रकाशक तथा संरक्षक और कल्याणकारक हैं, उन महाव्रतों को कायरपुरुषों द्वारा दुर्वह होने से महागुरु और कर्मअपनयनकारक होने से नि:स्वकर कहा गया है। २. द्रव्यतः-भावतः हिंसा-अहिंसा अप्पेव सिद्धतमजाणमाणो, तं हिंसगं भाससि जोगवंतं। दव्वेण भावेण य संविभत्ता, चत्तारि भंगा खलु हिंसगत्ते॥ आहच्च हिंसा समितस्स जा तू, सा दव्वतो होति ण भावतो उ। भावेण हिंसा तु असंजतस्सा, जे वा वि सत्तेण सदा वधेति॥ संपत्ति तस्सेव जदा भविज्जा, सा दव्वहिंसा खलु भावतो य। अज्झत्थसुद्धस्स जदाण होज्जा, वधेण जोगो दुहतोवऽहिंसा॥ नहि सिद्धान्ते योगमात्रप्रत्ययादेव हिंसोपवर्ण्यते, अप्रमत्तसंयतादीनां सयोगिकेवलिपर्यन्तानां योगवतामपि तदभावात्।"हिं सायां व्याप्रियमाणकाययोगोऽपि भावत उपयुक्ततया भगवद्भिरहिंसक एवोक्तः। (बृभा ३९३२-३९३४ वृ) जो निर्ग्रन्थप्रवचन के रहस्य को नहीं जानते, वे योगमात्रप्रत्ययिक हिंसा का निरूपण करते हैं । वस्तुतः सिद्धान्त में ऐसा निरूपण नहीं है, क्योंकि अप्रमत्तसंयत से सयोगिकेवली पर्यन्त- सातवें गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थानपर्यंत जीव सयोगी होते हुए भी भावतः अहिंसक हैं। द्रव्य और भाव की अपेक्षा से हिंसा के चार विकल्प हैं१. द्रव्यतः हिंसा, भावतः हिंसा नहीं-जो ईर्यासमिति आदि में उपयुक्त है, उसके कदाचित् द्रव्यहिंसा हो सकती है, भाव हिंसा नहीं। क्योंकि उसमें प्रमत्त योग का अभाव है। अर्हत् ने उसे अहिंसक कहा है, जिसका काययोग हिंसा में व्याप्त होने पर भी जो उपयोगयुक्त है। २. भावतः हिंसा, द्रव्यतः हिंसा नहीं-जो असंयत है अथवा संयत होते हुए भी उपयोग उपयुक्त नहीं है, उसके भावतः हिंसा होती है, द्रव्यत: नहीं, क्योंकि वह सदा प्राणवध नहीं करता। ३. द्रव्यत: हिंसा, भावतः हिंसा-असंयत व्यक्ति जब प्राणवध में प्रवृत्त होता है, तब उसके द्रव्यतः और भावतः हिंसा होती है। ४. न द्रव्यतः हिंसा, न भावतः हिंसा-जो चित्तप्रणिधान से शुद्ध है-उपयोग उपयुक्त होकर गमनागमन आदि क्रियाएं करता है, वह जब प्राणवध में प्रवृत्त नहीं है, तब उसके न द्रव्यतः हिंसा होती है और न भावतः हिंसा होती है। ३. अचौर्य महाव्रत की सक्षमता तण-डगल-च्छार-मल्लग-लेवित्तिरिए य अविदिण्णे॥ लद्धं ण णिवेदेती, परिभुजति वा णिवेदितमदिण्णं.... .."इत्तिरिरो यत्ति पंथं वच्चंतो जत्थ विस्समिउ कामो तत्थोग्गहंणाणुण्णवेइ। (निभा ३३०, ३३३ चू) स्वामी की अनुमति लिए बिना कोई वस्तु ग्रहण करना अदत्तादान है। यथा-तृण, ढेला, छार, शराव (पात्र विशेष), लेप (पात्ररंगण) आदि। इत्वरिक-मार्ग में चलते हुए जहां अल्पकालिक विश्राम करना हो, उस स्थान की अनुमति नहीं लेना भी अदत्तादान है। कोई साधु भिक्षाचर्या से लौटकर आहार आदि आचार्य को नहीं दिखाता है, निवेदन किए बिना ही परिभोग करता है अथवा निवेदन तो करता है पर बिना दिए ही भोग लेता है-यह सब अदत्तादान है। (मुनि सूई, कैंची आदि प्रातिहारिक वस्तुएं स्वयं के लिए लाए तो दूसरों को न दे, जिस कार्य के लिए लाए, वही कार्य उनसे सम्पादित करे, अन्यथा वह दोष का भागी होता है।-द्र उपधि) ४. व्रतविभाग : ब्रह्मचर्य स्वतंत्र व्रत आइक्खिउं विभइउं, विण्णाउं चेव सुहतर होइ। एतेण कारणेणं, महव्वया पंच पण्णत्ता॥ (आनि ३१५) पांच महाव्रतों के रूप में व्यवस्थापित होने से संयमधर्म का आख्यान-व्याख्या, उसके विभाग का निरूपण (विभज्यवाद की शैली से कथन) और उसकी उपादेयता का विज्ञान सुगमता से होता है। इसलिए पांच महाव्रतों का प्रज्ञापन किया गया है। (चतुर्याम धर्म अल्प विभाग वाला प्रतिपादन था। अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य-दोनों एक हैं-यह बात विज्ञ के लिए सहजगम्य Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २. हो सकती है, किन्तु अज्ञ मनुष्य इसे नहीं समझ सकता। इस बुद्धि- क्षमता को ध्यान में रखकर भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह महाव्रत से पृथक् कर दिया। अतः इस विभाग का मुख्य तु है बुद्धि की ऋजुता और जड़ता । - द्र कल्पस्थिति भगवान् महावीर के पहले से ही कुछ श्रमण अब्रह्मचर्य का अनेक दृष्टिकोणों से समर्थन कर रहे थे, जिसका सोदाहरण निरसन किया गया । द्र सू १/३/७०-७८ टि, नि ५१-५३ भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्व के चतुर्याम धर्म का विस्तार कर त्रयोदशांग धर्म की प्रतिष्ठा की। जैसे- १. अहिंसा २. सत्य ३. अचौर्य ४. ब्रह्मचर्य ५. अपरिग्रह ६. ईर्या समिति ७. भाषा समिति ८. एषणा समिति ९ आदाननिक्षेप समिति १०. उत्सर्ग समिति १९. मनोगुप्ति १२. वचनगुप्ति १३. कायगुप्तिसत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषानिमित्तोदयाः, तिस्रः पञ्चेर्यादिसमाश्रयः समितयः पञ्चव्रतानीत्यपि । चारित्र त्रयोदशतयं पूर्वं न दृष्टं परैः, आचारं परमेष्ठिनो जिनमते वीरान् नमामो वयम् ॥ - पूज्यपादकृत चारित्रभक्ति, श्लोक ७ o • ईर्या - एषणा - उत्सर्ग-समिति, कायगुप्ति और मनोगुप्ति के सम्यक् अभ्यास का अर्थ है - जीवन में अहिंसा की प्रतिष्ठा । - • भाषासमिति और वचनगुप्ति के सम्यक् अभ्यास का अर्थ हैजीवन में सत्य की प्रतिष्ठा । कायगुप्ति और मनोगुप्ति के सम्यक् अभ्यास का अर्थ हैजीवन में ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा । o ० कायगुप्ति के सम्यक् अभ्यास का अर्थ है - जीवन में अपरिग्रह की प्रतिष्ठा । - श्रमण महावीर पृ १२४ ) ५. मूलगुण : पांच महाव्रत पाणवहादिया पंच मूलगुणा । ( निभा ६५३३ की चू) प्राणातिपात विरमण, मृषावाद विरमण, अदत्तादान विरमण, मैथुन विरमण, परिग्रह विरमण - ये पांच महाव्रत मूलगुण हैं। ० उत्तरगुण : समिति आदि पिंडस्स जा विसोधी, समितीओ भावणा तवो दुविधो । पडिमा अभिग्गा वि य, उत्तरगुण मो वियाणाहि ॥ ४६३ महाव्रत बायाला अट्ठेव य, पणुवीसा बार बारस उ चेव । दव्वादि चउरभिग्गह, भेदा खलु उत्तरगुणाणं ॥ (व्यभा ४७०, ४७१ ) उत्तरगुणों की संख्या एक सौ तीन है पिण्डविशोधि- उद्गम, उत्पादन तथा एषणा के बयालीस भेद । समिति - ईर्या आदि पांच समितियां तथा मन समिति, वाक्समिति और काय समिति । (इन तीनों को गुप्ति भी कहा जाता है।) भावना - पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएं । तप - अनशन आदि बारह प्रकार का तप । प्रतिमा - एकमासिकी आदि बारह भिक्षुप्रतिमाएं। अभिग्रह - द्रव्य - क्षेत्र - काल- भाव अभिग्रह | उत्तरगुण के कुल भेद हैं- ४२ +८+ २५ +१२+१२+४ = १०३ । ६. रात्रिभोजनविरमण व्रत : छठा व्रत पंच य महव्वयाई, तु पंचहा राइभोयणे छट्टा ।'' (आनि ३१४) छह प्रकार का संयम है-पांच महाव्रत तथा छठा व्रतरात्रिभोजनविरमणव्रत । ० रात्रि में अशन आदि का अग्रहण, शय्याग्रहण नो कप्पइ निग्गंथाण राओ वा वियाले वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्तए । नन्नत्थ एगेणं पुव्व पडिलेहिणं सेज्जा- संथारएणं ॥ नो कप्पराओ वा वियाले वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिग्गाहेत्तए ।'' (क १ / ४२, ४३) निर्ग्रथ रात्रि या विकालवेला में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ग्रहण नहीं कर सकते। किन्तु पूर्वप्रतिलेखित शय्या-संस्तारक ग्रहण कर सकते हैं। वे रात्रि या विकाल में वस्त्र, पात्र, कंबल और पादप्रोंछन ग्रहण नहीं कर सकते। * रात्रिभोजन : एक अनाचार द्र श्रीआको १ अनाचार (अर्हत् पार्श्व ने चातुर्याम धर्म का प्रतिपादन किया। उसमें स्त्रीत्याग या ब्रह्मचर्य तथा रात्रिभोजनविरति — इन दोनों का स्वतंत्र स्थान नहीं था । श्रमण महावीर ने पांच महाव्रत धर्म का प्रतिपादन Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाव्रत ४६४ आगम विषय कोश-२ किया। उसके साथ छठे रात्रिभोजनविरमण व्रत को जोड़ा जाता है, वैसे ही मूलगुणप्रतिसेवना से उत्तरगुण और उत्तरगुणसे वारिया इत्थि सराइभत्तं, उवहाणवं दुक्खखयट्टयाए। प्रतिसेवना से मूलगुण नष्ट होते हैं। जब तक छहकाय संयम है, लोगं विदित्ता अपरं परं च. सव्वं पभ वारिय सव्ववारी॥ तब तक मूलगुण और उत्तरगुण दोनों विद्यमान हैं। जब तक ये दोनों दुःखों को क्षीण करने के लिए तपस्वी जातपत्र ने स्त्री और हैं, तब तक इत्वरिक सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीय चारित्र रात्रिभोजन का वर्जन किया। साधारण और विशिष्ट-दोनों प्रकार तथा बकुश निग्रंथ और प्रतिसेवना निर्ग्रन्थ विद्यमान हैं। के लोगों को जानकर सर्ववर्जी प्रभु ने स्त्री, रात्रिभोजन, प्राणातिपात ८. स्वप्न में व्रतभंग : व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त आदि सभी दोषों का वर्जन किया। सू १/६/२८) पाणवध-मुसावादे, अदत्त-मेहुण-परिग्गहे सुमिणे। ० रात्रिभोजन से मूलगुण-विराधना सयमेगं ति अणूणं, ऊसासाणं भवेन्जासि॥ जइ वि य फासुगदव्वं, कुंथू-पणगाइ तह वि दुप्पस्सा। महव्वयाइं झाएज्जा, सिलोगे पंचवीस वा। पच्चक्खनाणिणो वि हु, राईभत्तं परिहरंति॥ इत्थीविप्परियासे तु, सत्तावीससिलोइओ॥ __(बृभा २८६३) (व्यभा ११९, १२०) यद्यपि अवगाहिम (मिठाई) आदि द्रव्य प्रासुक (अभिल - मुनि स्वप्न में प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और षणीय) हैं किन्तु उन पर लगे हुए कुंथु , पनक आदि आगन्तुक परिग्रह का सेवन करने पर पूरे सौ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग अथवा तद्-उद्भव जीव रात्रि में दुर्दर्श होते हैं। केवली आदि करे। अथवा पच्चीस श्लोक प्रमाण महाव्रतों (द ४/११-१५) का प्रत्यक्षज्ञानी पुरुष आगन्तुक तथा तद्-उद्भव जन्तुरहित आहार ध्यान करे। स्वप्न में स्त्रीविपर्यास होने पर कायोत्सर्ग में सत्ताईस को देख सकते हैं, फिर भी वे रात्रिभोजन का परिहार करते हैं, श्लोक (१०८ उच्छ्वास) का ध्यान करे। इसलिए कि मूलगुण की विराधना न हो। ९. महाव्रतरक्षा हेतु भावना (पांच महाव्रत मूलगुण और रात्रिभोजनविरति उत्तरगुण है, तेसिं च रक्खणट्ठाय, भावणा पंच पंच एक्केक्के ।.. किन्तु यह मूलगुणों की रक्षा का हेतु है, इसलिए इसका मूलगुणों भावयतीति भावना, यथा शिलाजतो आयसं। के साथ प्रतिपादन किया गया है। -श्रीआको १ रात्रिभोजनविरमण) ___ (आनि ३१६ चू) ७. मूलगुण-उत्तरगुण कब तक? महाव्रतों की सुरक्षा के लिए प्रत्येक महाव्रत की पांच-पांच मूलगुण उत्तरगुणा, जम्हा भंसंति चरणसेढीओ। भावनाएं हैं। जो भावित करती है, वह भावना है। जैसे लोह तम्हा जिणेहि दोन्नि वि, पडिसिद्धा सव्वसाहूणं॥ रसायन को शिलाजत की भावना दी जाती है। अग्गघातो हणे मूलं, मूलघातो य अग्गगं। (महाव्रतों की सुरक्षा के तीन साधनों में एक साधन है भावनाछक्काय संजमो जाव, तावऽणुसज्जणा दोण्हं॥ तेसिं चेव वदाणं, रक्ख, रादिभोजणणियत्ती। .....इत्तरिय छेद संजम, नियंठ बकुसा य पडिसेवी॥ अट्ठपवयणमादाओ, भावणाओ य सव्वाओ॥ जहा तालदुमस्स अग्गसूतीए हताए मूलो हतो चेव, भगवती आराधना ६/११७९) मूले वि हते अग्गसूती हता, एवं मूलुत्तरगुणेसु वि उव- ..."समणे भगवं महावीरे उप्पण्णणाणदंसणधरे गोयसंहारो। (निभा ६५३०-६५३२ चू) माईणं समणाणं णिग्गंथाणं पंच महव्वयाई सभावणाई मूलगुणों और उत्तरगुणों की प्रतिसेवना करने वाले मुनि छज्जीवनिकायाई आइक्खइ"। (आचूला १५/४२) चारित्रश्रेणि से भ्रष्ट होते हैं, इसलिए अर्हतों ने सर्व साधुओं के श्रमण भगवान् महावीर ने केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न लिए दोनों के अतिक्रमण का निषेध किया है। जैसे ताडवृक्ष का होने पर गणधर गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रथों के लिए भावनाओं अग्र आहत होने पर मूल और मूल आहत होने पर अग्र नष्ट हो सहित पांच महाव्रतों और छहजीवनिकायों का निरूपण किया। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ • पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएं (अहिंसामहव्वयस्स) तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति । पढमा भावणा – इरियासमिए । अहावरा दोच्चा भावणा - मणं परिजाणाइ ॥ तच्चा भावणा - वइं परिजाणइ .... ||... चउत्था भावणा - आयाणभंडमत्तणिक्खेवणासमिए ॥ पंचमा भावणा-आलोइयपाणभोयणभोई... | ( सच्चमहव्वयस्स) तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति । ...... पढमा भावणा- - अणुवीइभासी ॥ अहावरा दोच्चा भावणा- कोहं परिजाणइ ॥ अहावरा तच्चा भावणा - लोभं परिजाणइ ... ||... चउत्था भावणा - भयं परिजाइ ॥ पंचमा भावना - हासं परिजाणइ ॥ ( अतेणगमहव्वयस्स) पंच भावणाओ भवंति । पढमा भावणा- - अणुवीइमिओग्गहजाई ॥ दोच्चा भावणाअणुवियपाणभोयणभोई ॥ तच्चा भावणा - ओग्गहंसि ओग्गहियंसि एतावताव ओग्गहणसीलए..' || '''''चउत्था भावणा - ....अभिक्खणं ओग्गहणसीलए.... ||..... पंचमा भावणा- -अणुवीइमितोग्गहजाई से णिग्गंथे साहम्मिएसु ॥ (बंभचेरमहव्वयस्स) पंच भावणाओ भवंति । पढमा १. २. ३. ४. ५. १. २. ३. ४. ५. आचारचूला ईर्यासमिति मनपरिज्ञा वचनपरिज्ञा आदानभाण्ड अमत्रनिक्षेपणासमिति आलोकित पान- भोजन अनुवीचिभाषण क्रोधपरिज्ञा लोभपरिज्ञा भयपरिज्ञा हास्यपरिज्ञा ४६५ भावणा - णो णिग्गंथे अभिक्खणं-अभिक्खणं इत्थीणं कहं कहइत्तए सिया ॥ अहावरा दोच्चा भावणा - णो णिग्गंथे इत्थीणं मणोहराई इंदियाइं आलोएत्तए || अहावरा तच्चा भावणा - णो णिग्गंथे इत्थीणं पुव्वरयाई पुव्वकीलियाई सरित्तए सिया... ॥ अहावरा चउत्था भावणा - णाइमत्तपाणभोयणभाई से णिग्गंथे, णो पणीयरसभोयण भोई ******** Il अहावरा पंचमा भावणा - णो णिग्गंथे इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवित्तए सिया... ॥ (अपरिग्गहमहव्वयस्स) पंच भावणाओ भवंति । तत्थिमा पढमा भावणा - मणुण्णामणुण्णेहिं सहिं णो सज्जेज्जा... ॥ ... दोच्चा भावणा- ....मणुण्णामणुण्णेहिं रूवेहिं णो सज्जेज्जा... ॥ तच्चा भावणा - ....मणुण्णाहिं गंधेहिं णो सज्जेज्जा ॥ चउत्था भावणामणामणेहिं रसेहिं णो सज्जेज्जा ॥ अहावरा पंचमा " मणुण्णामणुण्णेहिं फासेहिं णो सज्जेज्जा | (आचूला १५ / ४४-४८; ५१-५५; ५८- ६२; ६५-६९, ७२-७६ ) भावणा - ..... आचारचूला में पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएं प्रतिपादित हैं। समवायांग (२५) और प्रश्नव्याकरण ( संवरद्वार) में कुछ भिन्नता के साथ इनका उल्लेख है। देखें यंत्र समवायांग १. अहिंसा महाव्रत की भावनाएं ईर्यासमिति मनोगुप्ति वचनगुप्ति आलोक-भाजन - भोजन आदानभाण्डअमत्रनिक्षेपणासमिति २. सत्य महाव्रत की भावनाएं अनुवीचिभाषण क्रोधविवेक लोभविवेक भयविवेक हास्यविवेक प्रश्नव्याकरण महाव्रत ईर्यासमिति अपापमन (मनसमिति) अपापवचन (वचनसमिति ) एषणासमिति आदाननिक्षेपसमिति अनुवीचिभाषण क्रोधप्रत्याख्यान लोभप्रत्याख्यान अभय (भयप्रत्याख्यान) हास्यप्रत्याख्यान Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महास्थंडिल १. २. ३. ४. ५. १. २. ३. ४. ५. १. २. ३. ४. ५. अनुवीचिमितावग्रहयाचन अनुज्ञापित पानभोजन अवग्रह का अवधारण अभीक्ष्ण अवग्रहयाचन स्वयमेव अवग्रह- अनुग्रहण साधर्मिकों द्वारा याचित अवग्रह का उनकी अनुज्ञा से परिभोग साधर्मिकों से अनुवीचिमितावग्रहयाचन साधारण भक्तपान अनुज्ञाप्य परिभोग ४. ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावनाएं अभीक्ष्ण स्त्रीकथा - वर्जन स्त्रियों के इन्द्रियों के अवलोकन का वर्जन पूर्वभुक्तभोगपूर्वक्रीड़ा की स्मृति का वर्जन अतिमात्र पानभोजन और प्रणीत रसभोजन का वर्जन स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शयनासन का वर्जन मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्द में अनासक्त मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूप में अनासक्त मनोज्ञ-अमनोज्ञ गंध में अनासक्त मनोज्ञ-अमनोज्ञ रस में अनासक्त मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्श में अनासक्त महास्थंडिल - शवपरिष्ठापन भूमि । १. शवपरिष्ठापन हेतु भूमि - प्रतिलेखना * महास्थंडिल निर्माण की प्रमुखता २. महास्थंडिल - दिशाप्रेक्षा और लाभ-हानि ३. शव ढांकने योग्य वस्त्र का स्वरूप ४. मृतकनिर्हरणक्रियाविधि, रात्रिजागरण ५. सार्धक्षेत्र आदि नक्षत्रों का अवलोकन ४६६ ३. अचौर्य महाव्रत की भावनाएं अवग्रहानुज्ञापना अवग्रहसीमाज्ञान स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शयन और आसन का वर्जन स्त्रीकथा का विवर्जन स्त्रियों की इन्द्रियों के अवलोकन का वर्जन पूर्व भुक्त तथा पूर्वक्रीडित कामभोगों की स्मृति का वर्जन प्रणीत आहार का विवर्जन ५. अपरिग्रह महाव्रत की भावनाएं श्रोत्रेन्द्रिय-राग- उपरति चक्षुरिन्द्रिय रागोपरति घ्राणेन्द्रिय रागोपरति रसनेन्द्रिय रागोपरति स्पर्शनेन्द्रिय रागोपरति द्र वास्तुविद्या विविक्त वास वसति अभीक्ष्ण- अवग्रहयाचन शय्यासमिति साधारण पिंडपात्रलाभ विनयप्रयोग आगम विषय कोश- २ असंसक्त वास वसति स्त्रीजन में कथा - वर्जन स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों और चेष्टाओं के अवलोकन का वर्जन पूर्व भुक्तभोग की स्मृति का वर्जन प्रणीत रसभोजन का वर्जन ६. शव - परिष्ठापन दिन में या रात में ? ७. शव-परिष्ठापन के लिए निर्गमन ८. श्मशानभूमि में परिष्ठापन की विधि ० विषम संस्तारक के दोष मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द में समभाव मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूप में समभाव मनोज्ञ और अमनोज्ञ गंध में समभाव मनोज्ञ और अमनोज्ञ रस में समभाव मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श में समभाव ९. परिष्ठापन के पश्चात् तप, स्वाध्याय १०. मृतक के पात्र आदि की विधि ११. मृत शरीर के आधार पर सुभिक्ष-दुर्भिक्ष Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४६७ महास्थंडिल १. शवपरिष्ठापन हेतु भूमि-प्रतिलेखना २. महास्थंडिल-दिशाप्रेक्षा और लाभ-हानि 'महास्थण्डिलं' शवपरिष्ठापनभूमिलक्षणं...। दिस अवरदक्खिणा दक्खिणा य अवरा य दक्खिणापुव्वा। (बृभा १५०५ की वृ) अवरुत्तरा य पुव्वा, उत्तर पुव्वुत्तरा चेव॥ पुव्विं दव्वोलोयण, नियमा गच्छे उवक्कमनिमित्तं।। पउरन्न-पाण पढमा, बीयाए भत्त-पाण न लहंति । भत्तपरिण गिलाणे, पुव्वुग्गहो थंडिलस्सेव॥ तइयाइ उवहिमाई, चउत्थी सज्झाय न करिंति॥ यत्र साधवो मासकल्पं वर्षावासं वा कर्तुकामास्तत्र पंचमियाएँ असंखड, छट्ठीऍ गणस्स भेयणं जाण। .....।"पूर्वमेव महास्थण्डिलस्य वहनकाष्ठादेश्च अवग्रहः' सत्तमिया गेलन्नं, मरणं पुण अट्ठमीए उ॥ प्रत्युपेक्षणं विधेयम्। (बृभा ५४९९ वृ) (बृभा १५०६-१५०८) गच्छवासी (स्थविरकल्पी) साधु जहां मासकल्प अथवा दक्षिणपश्चिम दिशा (नैर्ऋती) में महास्थंडिल की प्रत्युपेक्षा वर्षावास करना चाहते हैं, वहां पहले ही वहनकाष्ठ आदि द्रव्यों सबसे श्रेष्ठ है। उसके अभाव में दक्षिण दिशा, उसके अभाव में का नियमतः अवलोकन करते हैं। क्योंकि भक्तपरिज्ञा अनशन पश्चिम दिशा, उसके अभाव में दक्षिण-पूर्व (आग्नेयी), उसके करने वाले अथवा रोगी आदि साधु का उपक्रम-मरण हो सकता अभाव में पश्चिम उत्तर (वायवी), उसके अभाव में पूर्व, उसके है। अतः सर्वप्रथम महास्थण्डिल-शवपरिष्ठापनयोग्य भूमि का अभाव में उत्तर, उसके अभाव में पूर्व-उत्तर (ईशानी) दिशा में प्रत्युपेक्षण करना चाहिये। महास्थंडिल की प्रत्यपेक्षा करनी चाहिए। आसन्न मज्झ दूरे, वाघातट्ठा तु थंडिले तिन्नि। नैर्ऋती में महास्थंडिल की प्रत्युपेक्षा करने से अन्नखेत्तुदय हरिय-पाणा, णिविट्ठमादी व वाघाए॥ पान का प्रचुर लाभ होता है, इससे समूचे संघ में समाधि होती (बभा ५५०७) है। दक्षिण दिशा में प्रत्युपेक्षण करने से अन्न-पान का अभाव स्थंडिल के तीन प्रकार हैं-१. गांव के नजदीक २. बीच। नदी सीन और पश्चिम में करने से उपकरणों का अलाभ होता है। में ३. गांव से दर। इन तीनों की अपेक्षा इसलिए है कि एक के आग्नेयी में करने से साधुओं में परस्पर तं-तं मैं-मैं होती है। अव्यवहार्य होने पर दसरा स्थंडिल काम में आ सके। संभव है. वायवी में करने से साधुओं में परस्पर कलह बढ़ता है। पूर्व में देखे हए स्थंडिल को खेत के रूप में परिवर्तित कर दिया गया हो, करने से गणभेद होता है। उत्तर में करने से रोग बढ़ता है। उस क्षेत्र में पानी का जमाव हो गया हो. हरियाली और त्रस ईशानी में महास्थंडिल होने से दूसरा कोई साध (निकट काल प्राणियों का उद्भव हो गया हो, अथवा नया गांव बसा दिया गया में) मृत्यु को प्राप्त होता है। हो अथवा किसी सार्थ ने पडाव डाल दिया हो। ३. शव ढांकने योग्य वस्त्र का स्वरूप गामाणुगामं दूइज्जमाणे भिक्खूय आहच्च वीसंभेज्जा वित्थारा-ऽऽयामेणं, जं वत्थं लब्भती समतिरेगं । तं च सरीरगं केइ साहम्मिया पासेज्जा, कप्पइ से तं सरीरगं चोक्ख सुतिगं च सेतं, उवक्कमट्ठा धरेतव्वं ॥ 'मा सागारियं'ति कट्टथंडिले बहुफासुए पडिलेहित्ता पमज्जित्ता । अत्थुरणट्ठा एगं, बिइयं छोढुमुवरिं घणं बंधे। परिट्ठवेत्तए। (व्य ७/२२) उक्कोसयरं उवरिं, बंधादीछादणट्ठाए। ग्रामानुग्राम विहरण करता हुआ भिक्षु कदाचित् कालधर्म उज्झाइए अवण्णो, दुविह णियत्ती य मइलवसणाणं। को प्राप्त हो जाए और उसके शरीर को कोई साधर्मिक मुनि देखे तम्हा तु अहत कसिणं, धरेंति...... । तो वह 'यहां कोई गृहस्थ नहीं है'- यह जानकर, अत्यंत प्रासुक (बृभा ५५१०, ५५११, ५५१३) स्थण्डिल का प्रतिलेखन-प्रमार्जन कर वहां शव का परिष्ठापन कर मृतक को ढाई हाथ लम्बे, सफेद और सुगंधित वस्त्र से सकता है। ढांकना चाहिए। उसके नीचे भी वैसा ही एक वस्त्र बिछाना Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महास्थंडिल ४६८ आगम विषय कोश-२ चाहिए। तत्पश्चात् उसको उन वस्त्रों सहित एक डोरी से हो, मूढ मत हो। अन्यअधिष्ठित कलेवर विकराल रूप दिखाकर बांधकर, उस डोरी को ढांकने के लिए तीसरा अति उज्ज्वल डराए , चिल्लाए या भयंकर अट्टहास करे, फिर भी सुविहित मुनि वस्त्र ऊपर डाल देना चाहिए। सामान्यतः तीन वस्त्रों का उपयोग निर्भयता से विधिपूर्वक शव का व्युत्सर्ग करे। अवश्य होना चाहिए और आवश्यकतावश अधिक वस्त्रों का भी रात्रिजागरण-प्राचीन विधि के अनुसार जो मुनि निद्राजयी, उपयोग किया जा सकता है। शव को मलिन वस्त्रों से ढांकने से उपायकुशल, महापराक्रमी, धैर्यसम्पन्न, कृतकरण (उस विधि प्रवचन की अवज्ञा होती है। मलिन वस्त्रों के कारण दो प्रकार के ज्ञाता), अप्रमत्त और अभय होते थे, वे मृतक के पास की हानि होती है-सम्यक्त्व और प्रव्रज्या ग्रहण करने के रहकर रात्रिजागरण करते थे। रात्रि में वे परस्पर धर्मचर्चा करते इच्छुक व्यक्ति लौट जाते हैं। अत: नवीन और प्रमाणोपेत वस्त्र अथवा उपस्थित श्रावकों को धर्मकथा सुनाते अथवा स्वयं सूत्र धारणीय हैं। या धार्मिक आख्यानक का स्वाध्याय मधुर वाणी में उच्च स्वर ४. मृतक-निर्हरणक्रियाविधि, रात्रिजागरण से करते थे। वातेण अणक्कंते, अभिणवमुक्कस्स हत्थ-पादे उ। ५. सार्धक्षेत्र आदि नक्षत्रों का अवलोकन कवंतऽहापणिहिते, मह-णयणाणं च संपुडणं॥ टोणि य दिवइखेत्ते. दब्भमया पुत्तगऽत्थ कायव्वा। कर-पायंगटे दोरेण बधिउ पुत्तीए मुह छाए। समखेतमि य एक्को, अवड अभिए ण कायव्वो॥ अक्खयदेहे खणणं, अंगुलिविच्चे ण बाहिरतो॥ कालगते सति संयते नक्षत्रं विलोक्यते।..."नक्षत्रे अण्णाइट्ठसरीरे, पंता वा देवतऽत्थ उद्वेज्जा। __विलोकिते यदि सार्द्धक्षेत्रं तदानीं नक्षत्रम्, सार्द्धक्षेत्रं नामपरिणामि डब्बहत्थेण बुज्झ मा गुज्झगा! मुज्झ॥ पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तभोग्यं सार्द्धदिनभोग्यमिति यावत्, तदा वित्तासेज्ज रसेज्ज व, भीमं वा अट्टहास मुंचेज्जा। दर्भमयौ द्वौ पुत्रको कर्तव्यौ। यदि न करोति तदाऽपरं साधुअभिएण सुविहिएणं, कायव्व विहीय वोसिरणं ॥ द्वयमाकर्षति।तानि च सार्द्धक्षेत्राणि नक्षत्राणि षड् भवन्ति, (बृभा ५५२१, ५५२४-५५२६) तद्यथा-उत्तराफाल्गुन्य उत्तराषाढा उत्तराभद्रपदा: पुनर्वसू जितणिहुवायकुसला, ओरस्सबली य सत्तजुत्ता य। रोहिणी विशाखा चेति। अथ समक्षेत्रं-त्रिंशन्मुहूर्त भोग्यं कतकरण अप्पमादी, अभीरुगा जागरंति तहिं॥ यदा नक्षत्रं तत एकः पुत्तलकः कर्त्तव्यः 'एष ते द्वितीयः' इति जागरणट्ठाएँ तहिं, अन्नेसिं वा वि तत्थ धम्मकहा। च वक्तव्यम्।अकरणेऽपरमेकमाकर्षति। समक्षेत्राणि चामूनि सुत्तं धम्मकहं वा, मधुरगिरो उच्चसद्देणं॥ पञ्चदश-अश्विनी कृत्तिका मृगशिरः पुष्यो मघाः पूर्वा(बृभा ५५२२, ५५२३) फाल्गुन्यो हस्तश्चित्रा अनुराधा मूलं पूर्वाषाढाः श्रवणो वायु से शरीर अकड़ न जाए, इसलिए साधु के कालगत धनिष्ठाः पूर्वभद्रपदा रेवती चेति। अथापार्द्धक्षेत्रं-पञ्चहोते ही उसके हाथ-पैरों को सीधा लम्बा फैलाकर, मुंह तथा . दशमुहूर्तभोग्यं तद् नक्षत्रम् अभीचिर्वा तत एकोऽपि पुत्तलको आंखों को संपुटित कर दिया जाता है। मृतक के हाथ-पैर के । न कर्तव्यः । अपार्द्धक्षेत्राणि चामूनि षट्-शतभिषग् भरणी अंगूठों को रस्सी से बांधकर, मुखवस्त्रिका से मुंह को ढांक आर्द्रा अश्लेषा स्वातियेष्ठा चेति। (बृभा ५५२७ वृ) दिया जाता है। उसके अक्षत देह में अंगुलि के बीच के पर्व का कुछ छेदन किया जाता है। इस प्रकार बंधन-छेदन करने पर भी मुनि के कालगत होने पर नक्षत्र का अवलोकन किया जाता यदि शरीर व्यंतर अधिष्ठित हो जाए या कोई प्रत्यनीक देव है। सत्ताईस नक्षत्र तीन रूपों में विभक्त हैंकलेवर में प्रवेश कर उत्थित हो तो मुनि अपने बाएं हाथ में मूत्र १. सार्धक्षेत्र नक्षत्र-पैंतालीस मुहूर्त तक चन्द्रमा के साथ योग लेकर उसका सिंचन करे और कहे-गुह्यक ! सचेत हो, सचेत करने वाले-यानी सार्ध दिन चन्द्रभोग्य नक्षत्र। (तीस मुहूर्त का Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ एक अहोरात्र होता है।) वे छह हैं - उत्तरफल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तरभद्रपदा, पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा । इनमें से किसी नक्षत्र में मुनि के कालगत होने पर दर्भमय दो पुतले बनाने चाहिये । अन्यथा दो अन्य साधु दिवंगत हो सकते हैं। २. समक्षेत्र नक्षत्र - तीस मुहूर्त्त तक चन्द्रमा के साथ योग करने वाले नक्षत्र । वे पन्द्रह हैं- अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिर, पुष्य, मघा, पूर्वफल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वभद्रपदा और रेवती । मृत्यु के समय समक्षेत्र नक्षत्र हो तो एक पुतला बनाकर शव के समक्ष कहना चाहिये - यह तुम्हारा द्वितीय है। पुतला नहीं करने पर वह एक अन्य साधु को आकर्षित करता है। ३. अपार्धक्षेत्र नक्षत्र - चन्द्रमा के साथ पन्द्रह मुहूर्त्त तक योग करने वाले नक्षत्र । वे छह हैं - शतभिषक्, भरणी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा । अपार्धक्षेत्र अथवा अभीचि नक्षत्र में मृत्यु होने पर एक भी 'पुतला नहीं करना चाहिये । ६. शव - परिष्ठापन दिन में या रात में ? जं वेलं कालगतो, निक्कारण कारणे भवें निरोधो ।'' हिम- तेण - सावयभया, पिहिता दारा महाणिणादो वा । ठवणा नियगा व तहिं, आयरिय महातवस्सी वा ॥ णंतक असती राया, वऽतीति संतेपुरो पुरवती तु । णीति व जणणिवणं, दार निरुद्धाणि णिसि तेणं ॥ (बृभा ५५१८-५५२० ) साधु जिस समय कालगत हुआ हो, उसका उसी समय निर्हरण करना चाहिए, फिर चाहे रात हो या दिन । लेकिन रात्रि में विशेष हिम गिरता हो, चोरों या हिंसक जानवरों का भय हो, नगर के द्वार बन्द हों, अथवा मृतक महाजनों द्वारा ज्ञात हो अथवा किसी ग्राम की ऐसी व्यवस्था हो कि वहां रात्रि में शव को बाहर नहीं ले जाया जाता, मृतक के संबंधियों ने पहले से ऐसा कहा हो कि हमको पूछे बिना मृतक को न ले जाया जाए अथवा मृतक मुनि प्रसिद्ध आचार्य हो अथवा अनशन का पालन कर कालगत हुआ हो अथवा महान् तपस्वी हो तो शव को रात्रि के समय नहीं ले जाना चाहिए। इसी प्रकार यदि सफेद कपड़ों का अभाव हो, नगरनायक ४६९ महास्थंडिल अथवा अंतःपुर सहित राजा जनसमूह के साथ नगर में प्रवेश कर रहा हो अथवा नगर के बाहर जा रहा हो, उस स्थिति में शव का निर्हरण दिन में नहीं, रात्रि में करना चाहिए । भिक्खू ओवा वियाले वा आहच्च वीसुंभेज्जा, तं च सरीरगं केइ वेयावच्चकरे इच्छेज्जा एगंते बहुफासु पएसे परिवेत्त, अथिया इत्थ केइ सागारियसंतिए उवगरणजाए अचित्ते परिहरणारिहे, कप्पड़ से सागारियकडं गहाय तं सरीरगं एगंते बहुफासुए पएसे परिद्ववेत्ता तत्थेव उवनिक्खिवियव्वे सिया ॥ 'आहच्च' कदाचिद् 'विष्वग् भवेत्' जीवशरीरयोः पृथग्भावमाप्नुयात्, म्रियत इत्यर्थः । ....' परिहरणाईं ' परिभोगयोग्यमुपकरणजातम्, वहनकाष्ठमित्यर्थ: । ... सागारिक- कृतं ' सागारिकस्यैव सत्कमिदं नास्माकम् इत्येवं गृहीत्वा । (क ४/२५ वृ) रात्रि में अथवा विकाल वेला में कदाचित् भिक्षु मृत्यु को प्राप्त हो जाए, कोई वैयावृत्त्यकर मुनि एकांत और बहुप्रासुककीटिका आदि प्राणियों से सर्वथा रहित प्रदेश में उस शरीर का परिष्ठापन करना चाहे, (उपाश्रय में) गृहस्थ का कोई परिभोगयोग्य अचित्त उपकरण - वहनकाष्ठ उपलब्ध हो तो वह मुनि यह गृहस्थ का है, हमारा नहीं - इस प्रकार वहनकाष्ठ को ग्रहण कर, उस पर शव को वहनकर एकांत बहुप्रासुक प्रदेश में उसको परिष्ठापित कर सकता है। मृत शरीर को परिष्ठापित कर जहां से वह वहनकाष्ठ ग्रहण किया है, वहीं उसे रख देना चाहिये । ७. शव - परिष्ठापन के लिए निर्गमन सुत्त-त्थतदुभयविऊ, पुरतो घेत्तूण पाणग कुसे य । गच्छति जड़ सागरियं परिट्ठवेऊण आयमणं ॥ जत्तो दिसाऍ गामो, तत्तो सीसं तु होइ कायव्वं । उतरक्खणट्ठा, अमंगलं लोगगरिहा य ॥ (बृभा ५५३०, ५५३१) शव को परिष्ठापन के लिए ले जाते समय सूत्र - अर्थ - सूत्रार्थविद् मुनि पात्र में शुद्ध पानक ले तथा एक हाथ चार अंगुल प्रमाण समान रूप से काटे हुए कुश लेकर, पीछे मुड़कर न देखते Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महास्थंडिल हुए, स्थंडिल की ओर गमन करे। यदि वहां कोई गृहस्थ हो तो शव को परिष्ठापित कर आचमन करे । शव का निर्हरण या परिष्ठापन करते समय उसका सिर गांव की ओर रहे - ऐसा करने से कदाचिद् शव उत्थित हो जाए, तब भी वह उपाश्रय की ओर नहीं आता। गांव की ओर पैर करने से अमंगल होता है और लोक गर्दा करते हैं। ८. श्मशानभूमि में परिष्ठापन की विधि कुसमुट्ठिएण एक्केणं, अव्वोच्छिण्णाऍ तत्थ धाराए । संथार संथरिज्जा, सव्वत्थ समो य कायव्वो ॥ चिंधट्ठा उवगरणं, दोसा तु भवे अचिंधकरणम्मि । मिच्छत्त सो व राया, कुणति गामाण वहकरणं ॥ उट्ठाणाई दोसा, हवंति तत्थेव काउसग्गम्मि | अविहीय आगम्मुवस्सयं गुरुसमीव उस्सग्गो ॥ जो जहियं सो तत्तो, णियत्तइ पयाहिणं न कायव्वं । उणादी दोसा, विराहणा बालवुड्डाणं ॥ (बृभा ५५३२, ५५३६, ५५३८, ५५३९) स्थंडिल भूमि में पहुंचकर एक मुनि एक कुशमुष्टि से अव्यवच्छिन्न धारा से सर्वत्र सम संस्तारक तैयार करे। शव को उस पर परिष्ठापित कर और उसके पास रजोहरण, मुखवस्त्रिका और चोलपट्टक रखने चाहिए। इन यथाजात चिह्नों के न रखने से कालगत साधु मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है तथा चिह्नों के अभाव में राजा के पास जाकर कोई शिकायत कर सकता है कि एक मृत शव पड़ा है - यह सुनकर राजा कुपित होकर, आसपास के दो-तीन गांवों का उच्छेद भी कर सकता है। स्थंडिल भूमि में मृतक का व्युत्सर्जन कर मुनि वहीं कायोत्सर्ग न करे किन्तु उपाश्रय में आकर आचार्य के पास, परिष्ठापन में कोई अविधि हुई हो तो उसके लिए कायोत्सर्ग करे। शव का परिष्ठापन कर लौटते समय प्रदक्षिणा न दे। यदि ऐसा करते हैं तो उत्थान आदि दोष होते हैं और बाल-वृद्धों की विराधना होती है। ० विषम संस्तारक के दोष विसमा जति होज्ज तणा, उवरिं मज्झे तहेव हेट्ठा य । मरणं गेलन्नं वा, तिण्हं पि उ णिद्दिसे तत्थ ॥ ४७० आगम विषय कोश - २ उवरिं आयरियाणं, मज्झे वसभाण हेट्ठि भिक्खूणं । तिन्हं पि रक्खणट्ठा, सव्वत्थ समा य कायव्वा ॥ (बृभा ५५३३, ५५३४) शव के लिए कृत तृणसंस्तारक का ऊपरी भाग विषम होने पर आचार्य, मध्य भाग विषम होने पर वृषभ और नीचे का भाग विषम होने पर साधु मरण या ग्लानत्व को प्राप्त करता । अतः तीनों की सुरक्षा के लिए सर्वत्र सम संस्तारक करना चाहिए। ९. परिष्ठापन के पश्चात् तप, स्वाध्याय बिइयं वसहमतिंते ॥ जोगपरिवुड्डी ॥ गिves णामं एगस्स दोण्ह अहवा वि होज्ज सव्वेसिं । खिप्पं तु लोयकरणं, परिण्ण गणभेद बारसमं ॥ ....... मंगलं - संतिनिमित्तं थओ तओ अजितसंतीणं ॥ खमणे य असज्झाए, रातिणिय महाणिणाय णितए वा । सेसेसु णत्थि खमणं, णेव असज्झाइयं होइ ॥ ********** 7 (बृभा ५५४४, ५५४५, ५५४७, ५५४९, ५५५०) शव का परिष्ठापन करने के बाद यदि वह व्यंतराधिष्ठित होकर दो-तीन बार उपाश्रय में आ जाए तो मुनि अपने-अपने तपयोग की परिवृद्धि करें- एकाशन करने वाले उपवास, उपवास करने वाले बेला आदि करें। योगवृद्धि करने पर भी गुह्यक आए. एक, दो या उपस्थित सभी श्रमणों के नाम ले तो उन-उन नाम वाले श्रमणों को लुंचन करा लेना चाहिए और पांच दिन का उपवास करना चाहिए। जो इतना तप न कर सकें, उन्हें चार, तीन, दो या एक उपवास करना चाहिए। गण से निष्क्रमण कर विहरण करना चाहिए। उपद्रवनिवारण और शांति के लिए अजितस्तवन और शांतिस्तवन का पाठ करना चाहिए। यदि रानिक- आचार्य आदि अथवा महानिनाद (लोकविश्रुत) मुनि दिवंगत होता है और उसके ज्ञातिजन अत्यंत अधीर हो जाते हैं, तो उस दिन उपवास किया जाता है और अस्वाध्यायिक रहता है । अन्य साधु के कालगत होने पर न उपवास किया जाता है और नही अस्वाध्यायिक होता है। १०. मृतक के पात्र आदि की विधि ... अत्थियाइं त्थ केइ साहम्मियसंतिए उवगरणजाए Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४७१ मुद्रा परिहरणारिहे, कप्पड़ से सागारकडं गहाय दोच्चं पि ओग्गहं ...... वन्दन-नमस्कार कर कहते हैं-देवानुप्रिय का अन्तेवासी अणुण्णवेत्ता परिहारं परिहरेत्तए॥ स्कन्दक नाम का अनगार, जो प्रकृति से भद्र और उपशांत था ......"सागारकृतं नाम नात्मना स्वीकरोति आचार्यसत्क- उसने देवानुप्रिय की आज्ञा पाकर स्वयं ही पांच महाव्रतों की मेतत्। आचार्य एव एतस्य ज्ञायक एवं गृहीत्वा आचार्याणां आरोहणा की, श्रमण-श्रमणियों से क्षमायाचना की, हमारे साथ समर्पयेदिदं आचार्यस्तस्यैव ददाति, ततः स 'मस्तकेन वन्दे' धीरे-धीरे विपुल पर्वत पर चढ़ा यावत् एक मास की संलेखना से इति ब्रुवाण आचार्यवचः प्रमाणं करोति-एष द्वितीयो- अपने आपको कृश बनाया, अनशन के द्वारा साठ भक्त (भोजन के ऽवग्रहः""। (व्य ७/२२ व) समय) का छेदन किया, वह आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्णदशा में क्रमशः दिवंगत हो गया। ये प्रस्तुत हैं उसके मृत साधर्मिक श्रमण का कोई उपकरण परिभोगयोग्य हो. साधुजीवन के उपकरण।'-भ २/७०) तो उसे सागारकृत-यह मेरा नहीं, आचार्य का है, आचार्य ही ११. मृत शरीर के आधार पर सुभिक्ष, दुर्भिक्ष इसके ज्ञाता हैं-इस भावना से ग्रहण कर आचार्य को समर्पित करे। (यह प्रथम अवग्रह है) आचार्य वह उपकरण उसे दे तो जं दिसि विगड्डितो खलु, देहेणं अक्खुएण संचिक्खे। तं दिसि सिवं वदंती, सुत्त-ऽत्थविसारया धीरा॥ वह 'मस्तकेन वन्दे' इसका उच्चारण करता हुआ वन्दन कर जति दिवसे संचिक्खति, तति वरिसे धातगं च खेमं च। गुरुवचन को प्रमाण माने-यह द्वितीय अवग्रह है, उसे अनुज्ञापित विवरीए विवरीतं, अकड्डिए सव्वहिं उदितं॥ कर वह उसका ग्रहण-परिभोग कर सकता है। (बृभा ५५५५, ५५५६) उच्चार-पासवण-खेलमत्तगा य अत्थरण कुस-पलालादी। जिस दिशा में मृतक का शरीर शृगाल आदि द्वारा आकर्षित संथारया बहुविधा, उज्झंति अणण्णगेलन्ने॥ होता है और अक्षत रहता है, उस दिशा में सुभिक्ष और सुखविहार अहिगरणं मा होहिति, करेइ संथारगं विकरणं तु। होता है-ऐसा सूत्र-अर्थ के पारगामी धीर मुनि कहते हैं। जितने सव्ववहि विगिंचंती, जो छेवइतस्स छित्तो वि॥ दिन तक वह कलेवर जिस दिशा में अक्षतरूप में स्थित होता है, . (बृभा ५५५१, ५५५२) उस दिशा में उतने ही वर्षों तक सुभिक्ष रहता है तथा शत्रु आदि के मृत साधु के उच्चारपात्र, प्रश्रवणपात्र, श्लेष्मपात्र तथा आस्तरण उपद्रवों का अभाव रहता है। इसके विपरीत यदि उसका शरीर के लिए कृत, कुश, पलाल आदि के बहविध संस्तारकों का क्षत-विक्षत हो जाता है तो उस दिशा में दर्भिक्ष तथा शत्र आदि के परिष्ठापन कर देना चाहिए। यदि कोई बीमार मनि है तो उसके उपद्रव उत्पन्न होते हैं। यदि वह मृतक-शरीर उसी स्थान पर लिए इनका उपयोग भी किया जाता है। अक्षत रहता है तो सर्वत्र सुभिक्ष और सुखविहार होता है। ___कोई मुनि महामारी आदि किसी छूत की बीमारी से मरा हो, मासकल्प-शेषकाल (ऋतुबद्धकाल के आठ महीनों) जिस संस्तारक से उसे ले जाया जाए, उसके टुकड़े-टुकड़े कर में मुनि की एक क्षेत्र में रहने की एक मास की परिष्ठापन कर देना चाहिए। उसी प्रकार अन्य उपकरण उसके अवधि। द्र कल्पस्थिति शरीर से छए गए हों, उनका भी परिष्ठापन कर देना चाहिए। * यथालंद और मासकल्प द्र यथालन्दकल्प __(मुनि का परिनिर्वाण होने पर कायोत्सर्ग और उपकरणसमर्पण विधान है। 'भगवान महावीर के शिष्य स्कन्दक अनगार मिथ्यात्व-अतत्त्व में होने वाली तत्त्वश्रद्धा। द्र सम्यक्त्व को दिवंगत जानकर वहां उपस्थित स्थविर मुनि कायोत्सर्ग करते मुद्रा-दीनार आदि सिक्के। हैं, कायोत्सर्ग कर उसके पात्र और चीवरों को लेकर, विपुल पर्वत कवड्डगमादी तंबे, रुप्पे पीते तहेव केवडिए।... से नीचे उतरकर जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहां आते हैं, ताम्रमयं वा नाणकं यद् व्यवह्रियते, यथा-दक्षिणापथे Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ आगम विषय कोश-२ एगो काकिणी। रूपमयं वा नाणकं भवति, यथा-भिल्लमाले अभिभूतो सम्मुज्झति, सत्थ-ऽग्गी-वादि-सावतादीहिं। द्रम्मः । पीतं नाम सुवर्णं तन्मयं वा नाणकं भवति, यथा- अच्चुदयअणंगरती, वेदम्मि ......॥ पूर्वदेशे दीनारः । केवडिको नाम यथा तत्रैव पूर्वदेशे केतरा- पुव्वं वुग्गाहिता केती, नरा पंडितमाणिणो। भिधानो नाणकविशेषः। (बृभा १९६९ वृ) णेच्छंति कारणं सोउं ....... । प्राचीन काल में अनेक प्रकार के सिक्कों का व्यवहार होता अन्नाण कुतित्थिमते, कोहमाणातिमत्तेण वि चेतो। था। जैसे-कौड़ी आदि। वियडेण व जो मत्तो, ण वेयती एस बारसमो॥ ० तांबे का सिक्का। जैसे दक्षिणापथ में काकिणी। ___ (निभा ३६९४-३६९८, ३७००, ३७०१) ० चांदी का सिक्का। जैसे भिल्लमाल में द्रम्म। मूढ बारह प्रकार के हैं-१. द्रव्यमूढ २. दिशामूढ ३. क्षेत्र० सोने का सिक्का। जैसे पूर्वदेश में दीनार। मूढ ४. कालमूढ ५. गणनामूढ ६. सादृश्यमूढ ७. अभिभवमूढ पूर्वदेश में केतर नामक सिक्का भी चलता था। ८. वेदमूढ ९. व्युद्ग्राहणामूढ १०. अज्ञानमूढ ११. कषायमूढ और दो साभरगा दीविच्चगा तु सो उत्तरापथे एक्को। १२. मत्तमूढ। दो उत्तरापहा पुण, पाडलिपुत्तो हवति एक्को ॥ १. द्रव्यमूढ-जो बाह्य-धूम आदि द्रव्यों से अथवा आभ्यंतरदो दक्खिणावहा तु, कंचीए णेलओ स दुगुणो य। धतूरा आदि खाने से मूर्च्छित होता है। अथवा जो पूर्वदृष्ट द्रव्य को कसमणगरगो.............॥ घटिकावोद्र की भांति कालांतर में देखने पर भी नहीं जान पाता। 'द्वीपं नाम' सुराष्ट्राया दक्षिणस्यां दिशि समुद्रमवगाह्य घटिकावोद्र दृष्टांत-एक अध्यापक की भार्या दुःशीला थी। एक यद् वर्त्तते तदीयौ द्वौ।"काञ्चीपुर्या द्रविडविषयप्रतिबद्धाया बार वह अनाथमृतक को घर में डालकर, उसे जलाकर किसी धर्त एकः 'नेलकः' रूपको भवति। "कुसुमपुरं पाटलिपुत्रम के साथ भाग गई। भर्ता अपनी भार्या के गुणों को याद करता हुआ भिधीयते। (बृभा ३८९१, ३८९२) उसकी अस्थियों को एक घड़े में डालकर गंगा की ओर प्रस्थित हुआ। मार्ग में पत्नी ने उसे पहचान लिया। वह बोली-मैं वही ० सुराष्ट्रा की दक्षिण दिशा में समुद्र को अवगाहित कर जो द्वीप हूं। मूढ ने कहा-तुम्हारे सब चिह्न उसके सदृश हैं किन्तु उसकी है, वहां के दो साभरक उत्तरापथ के एक रुपये के बराबर होते थे। ये हड्डियां हैं, इसलिए मुझे प्रतीति नहीं है कि तुम वह हो। ० उत्तरापथ के दो रुपयों के तुल्य पाटलिपुत्र का एक रुपया था। २. दिशामुढ-पूर्व को पश्चिम दिशा समझने वाला। ० दक्षिणापथ के दो रुपयों के तुल्य द्रविड़देशीय कांचीपुरी का एक ३. क्षेत्रमूढ-क्षेत्रसंबंधी विपर्यास करने वाला। नेलक (रुपया) होता था। ४. कालमूढ-दिन को रात और रात को दिन मानने वाला। • कांचीपुरी के दो रुपये पाटलिपुत्र के एक रुपये के तुल्य थे। । पिंडार दृष्टांत-एक ग्वाला किसी स्त्री में आसक्त था। वह मूढ-कार्य-अकार्य के विवेक से शून्य। नींद से उठा और रात समझकर दिन में ही भैंसों को घर की दव्व दिसि खेत्त काले, गणणा सारक्खि अभिभवे वेदे। ओर संचरित कर स्वयं झाड़ियों के बीच से उस स्त्री के घर वुग्गाहणमण्णाणे, कसायमत्ते य मूढपदा॥ चला गया। लोगों ने कोलाहल किया-यह क्या? वह भ्रांत धूमादी बाहिरितो, अंतो धत्तूरगादिणा दव्वे। हो गया। जो दव्वं व ण याणति, घडियावोद्दो व दिलृ पि॥ ५. गणनामूढ-जो गणना करता हुआ कम या अधिक गिनता दिसिमूढो पुव्वावर, मण्णति खेत्ते उ खेत्तवच्चासं। है। उष्ट्रपाल के पास इक्कीस ऊंट थे। वह गिनती करता है दियरातिविवच्चासो, काले पिंडारदिटुंतो॥ तो बीस ऊंट होते हैं । पुनः गिनती की, बीस ही हुए। किसी ऊणाहियमण्णंतो, उट्टारूढो य गणणतो मूढो। अन्य व्यक्ति ने बताया-जिस पर तुम आरूढ हो, वह इक्कीसवां सारिक्खे थाणुपुरिसो ........॥ ऊंट है। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ ६. सादृश्यमूढ---जो पुरुष को स्थाणु और स्थाणु को पुरुष मानता है। ७. अभिभवमूढ - जो शस्त्र, अग्नि, शास्त्रार्थ, श्वापद आदि से अभिभूत हो उनके भय से मूढ बन जाता है। ८. वेदमूढ - अत्यन्त वेदमोहोदय होने से जो अनंगक्रीड़ा करता है। ९. व्युद्ग्राहणामूढ - कुछ पंडितमानी व्यक्ति पहले से ही व्युद्ग्राहित - मिथ्याभिनिविष्ट होते हैं, बहकावे में आ जाते हैं, फिर वे किंचित् भी कारण सुनना नहीं चाहते, वे व्युद्ग्राहणामूढ हैं। १०. अज्ञानमूढ - जो कुतीर्थिकमत में मूढ बन जाता है। ११. कषायमूढ - जो कषाय- क्रोध-मान- माया - लोभ के उदय कारण हित-अहित कार्य-अकार्य को नहीं जानता । १२. मत्तमूढ - जो यक्षावेश, मोहोदय अथवा मद्यपान से उन्मत्त हो जाता है और हित-अहित का विवेक नहीं करता । * मूढ: दीक्षा के अयोग्य * मूढ: सम्यक्त्व और वाचना के अयोग्य द्र दीक्षा द्र सम्यक्त्व मेधावी - अवग्रहण - धारण- पटु । मर्यादा- कुशल । उग्गहण धारणाए, मेराए चेव होइ मेधावी । तिविहम्मि अहीकारो, मेरा संजुत्तों मेहावी ॥ अवग्रहणमेधावी सूत्रार्थग्रहणपटुप्रज्ञावान्। धारणामेधावी पूर्वाधीतयोः प्रभूतयोरपि सूत्रार्थयोश्चिरमवधारणाबुद्धिमान् । मर्यादामेधावी चरणकरणप्रवणमतिमान्।'मर्यादामेधाविनो ग्रहण - धारणामेधाभ्यां सम्पन्नस्यासम्पन्नस्य वा दातव्यम्, मर्यादाविकलयोरितरयोर्न दातव्यम् । (बृभा ७५९ वृ) मेधावी के तीन प्रकार हैं - १. अवग्रहणमेधावी - सूत्र और अर्थ का ग्रहण करने वाली पटु प्रज्ञा से सम्पन्न । २. धारणा मेधावी - पूर्व अधीत विपुल सूत्र और अर्थ को चिरकाल तक धारण करने वाली बुद्धि से सम्पन्न । ३. मर्यादा मेधावी - चरण- करण-आचारविषयक मर्यादा में प्रवण मतिमान् । कल्प, व्यवहार आदि ग्रंथों के अध्ययन के लिए तीनों प्रकारों से संयुक्त मेधावी अधिकृत है । मर्यादाविहीन ग्रहणधारणामेधावी अयोग्य है। मर्यादामेधावी ग्रहण - धारणामेधा से सम्पन्न हो या असम्पन्न, वह सूत्र अध्ययन के योग्य है। जो मेरा - मर्यादा से संयुक्त है, वह मेधावी है। ४७३ मेधा अपूर्वा पूर्वऊहणोहात्मको (ऊहापोहात्मको) ज्ञानविशेषः । (व्यभा ७५८ की वृ) (विमर्श-निर्णयात्मक) ज्ञान अपूर्व-अपूर्व ऊहा-अपोहात्मक विशेष को मेधा कहा जाता है। * मेधा और धारणा बल कैसे ? मोक्ष ......धारण, उग्गह सीले धारणा दृढस्मृतिः । बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितासंदिग्धध्रुवाणां उग्गहं करेति । अक्कोहणादिणा सीलेण जुत्तो सीलवं । चक्कवालसामायारीए जुत्तो कुसलो वा । (निभा २६०९ चू) मुक्त होने की साधना * मोक्ष : साध्य सिद्धि-क्रम मेधावी धारणा - अवग्रह - शील- सामाचारी से युक्त होता है । • धारणा-दृढ स्मृति/चिरस्थायी स्मरणशक्ति से सम्पन्न । • अवग्रह - बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिश्रित, असंदिग्ध और ध्रुवमतिज्ञान के इन छह प्रकारों से अवग्रहण में कुशल । शील - शांति, ऋजुता आदि शीलों से युक्त । • सामाचारी - चक्रवालसामाचारी के पालन में निपुण । मोक्ष - कर्मबंधन से मुक्त अवस्था । अव्याबाध सुख । सव्वारंभपरिग्गहणिक्खेवो सव्वभूतसमया य । एक्कग्गमणसमाहाणया य अह एत्तिओ मोक्खो ॥ (बृभा ४५८५) सर्वआरंभ (हिंसा) और सर्वपरिग्रह से संन्यास, सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के प्रति समता तथा एकाग्र मनसमाधानतायह इतना मोक्ष है। ( हिंसाविरति आदि मोक्ष के उपाय हैं, कारण में कार्य का उपचार कर इन्हें मोक्ष कहा गया है ।) अपासत्थाए अकुसीलयाए अकसाय - अप्पमाए य । अणिदाणयाइ साहू, संसारमहण्णवं तरई ॥ (दशानि १४३) साधु अपार्श्वस्थता (संविग्नविहार), सुशीलता, निष्कषायता, अप्रमत्तता और अनिदानता से संसार-महासागर को तर जाता है । द्र अंतकृत द्र श्रीआको १ मोक्ष * द्र चिकित्सा सामायारी ॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथालंदकल्प ४७४ आगम विषय कोश-२ यथालंदकल्प-अप्रमाद की साधना का विशिष्ट उपक्रम। ...सुयसंघयणादीओ, सो चेव गमो निरवसेसो॥ (बृभा १४३९, २०१४) १. यथालंदिक कौन? २. यथालंदिक की सामाचारी जिनकल्प में तुलना, श्रुत, संहनन आदि संबंधी जो भी * यथालंदिक का श्रुत, संहनन आदि द्र जिनकल्प मर्यादा (सामाचारी) है, वही यथालन्दिकों की है। केवल सूत्र, ३. प्रतिबद्ध-अप्रतिबद्ध और जिन-स्थविर यथालंदिक भिक्षाचर्या, मासकल्प और प्रमाण में नानात्व है। ० भिक्षाचर्या और मासकल्प ३. प्रतिबद्ध-अप्रतिबद्ध और जिन-स्थविर यथालंदिक ० गण प्रमाण, पुरुष प्रमाण पडिबद्धा इअरे वि य, इक्किक्का ते जिणा य थेरा य। * यथालंदिक की उपधि द्र उपधि अत्थस्स उ देसम्मी, असमत्ते तेसि पडिबंधो॥ ४. यथालंदिक और क्षेत्रप्रतिलेखना थेराणं नाणत्तं, अतरंतं अप्पिणंति गच्छस्स। ___ * अवग्रह के अधिकारी-अनधिकारी द्र अवग्रह ते वि य से फासुएणं, करिंति सव्वं तु पडिकम्मं ॥ ५. आचार्य द्वारा यथालंदिक को वाचना एक्केक्कपडिग्गहगा, सप्पाउरणा हवंति थेराओ। ६. यथालंदिक और कृतिकर्म जे पुण सिं जिणकप्पे, भय तेसिं वत्थ-पायाणि॥ १. यथालंदिक कौन? ये प्रस्तुतकल्पपरिसमाप्तौ जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते लंदो उ होइ कालो, उक्कोसगलंदचारिणो जम्हा।.... । जिनाः, ये तु स्थविरकल्पं भूयः समाश्रयिष्यन्ते ते स्थविराः। तिविहं च अहालंदं, जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं। ""तदानीं हि लग्न-योग चन्द्रबलादीनि प्रशस्तानि वर्तन्ते, उदउल्लं च जहण्णं, पणगं पुण होड़ उक्कोसं॥ अन्यानि च प्रशस्तलग्नादीनि दूरकालवर्तीनि, न वा तथायावता कालेनोदकाः करः शुष्यति तावान् जघन्यः, भव्यानि, ततोऽमी अगृहीतेऽप्यर्थदेशे तं कल्पं प्रतिपद्य उत्कृष्टः पञ्चरात्रिन्दिवानि, जघन्यादूर्ध्वमुत्कृष्टादर्वाक् गुर्वधिष्ठितक्षेत्राद् बहिर्व्यवस्थिता विशिष्टतरानुष्ठाननिरता सर्वोऽपि मध्यमः ।... उत्कृष्टं लन्दं-पञ्चरात्ररूपमेकस्यां अगृहीतमर्थशेषं गृह्णन्ति। (बृभा १४४०-१४४२ वृ) वीथ्यां चरणशीला यस्मात् ततोऽमी, उत्कृष्टलन्दानतिक्रमो यथालन्दिक के दो प्रकार हैं-गच्छप्रतिबद्ध और अप्रतिबद्ध। यथालन्दम्, तदस्त्येषाम्, इति व्युत्पत्त्या यथालन्दिका उच्यन्ते। इन दोनों के दो-दो प्रकार हैं-जिन और स्थविर। (बृभा १४३८, ३३०३ वृ) जो प्रस्तुत कल्प की परिसमाप्ति पर जिनकल्प को स्वीकार करेंगे, वे जिन और पुनः स्थविरकल्प को स्वीकार करेंगे, वे 'लन्द' शब्द काल का वाचक है। उसके तीन प्रकार हैं स्थविर कहलाते हैं। यथालन्द स्वीकार के पश्चात् जब तक सूत्र के ० जघन्य-जितने काल में जल से आर्द्र हाथ सूखता है, उतना काल। अर्थ का एक देश (भाग) भी गुरु से ग्रहण करना अवशिष्ट रहता ० उत्कृष्ट-पांच अहोरात्र। है, तब तक वे गच्छ से प्रतिबद्ध रहते हैं। कल्प-ग्रहण के समय ० मध्यम-जघन्य और उत्कृष्ट का अन्तरालवर्ती काल। में जैसे प्रशस्त लग्न, योग, चन्द्रबल आदि का योग हो, वैसा अन्य ___ जो पांच अहोरात्र तक एक वीथी में रहते हैं और वहीं योग दूरवर्ती हो या उतना उपयुक्त न हो, तो अगृहीत अर्थदेश की भिक्षाचर्या करते हैं, उत्कृष्ट लंद का अतिक्रमण नहीं करते, वे स्थिति में ही उस कल्प को स्वीकार कर गुरु-अधिष्ठित क्षेत्र से यथालंदचारी यथालंदिक कहलाते हैं। बाहर रहते हैं, विशिष्ट अनुष्ठान में निरत हो शेष अर्थ देश को गुरु २. यथालन्दिक की सामाचारी से ग्रहण करते हैं। ज च्चेव य जिणकप्पे, मेरा सा चेव लंदियाणं पि। स्थविरकल्पी यथालंदिक साधुओं में से कोई साधु रुग्ण हो नाणत्तं पुण सुत्ते, भिक्खायरि मासकप्पे य॥ जाता है. रोग को सहन नहीं कर पाता है तो उसे गच्छ को सौंप Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४७५ यथालंदकल्प दिया जाता है। गच्छवासी प्रासुक आहार आदि से उसकी पूरी इस कल्प को स्वीकार करने वाले पुरुषों में भजना भी है। सेवा करते हैं। जिनकल्पी यथालन्दिक निष्प्रतिकर्म होते हैं। वे ग्लान होने पर सेवा के लिए साध गच्छ में चले जाते हैं, इनकी ग्लान होने पर भी चिकित्सा नहीं करवाते। संख्या न्यून हो जाती है, तो पंचकगण की पूर्ति के लिए एक, दो स्थविरकल्पी यथालंदिक एक-एक पात्र और वस्त्र रखते आदि साधु भी इस कल्प को स्वीकार करते हैं। हैं । जिनयथालंदिक के वस्त्र-पात्र की भजना है पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट परिमाण कोटिजो पाणिपात्रभोजी और प्रावरणरहित जिनकल्पी होंगे, वे पृथक्त्व (दो करोड़ से नौ करोड़) है। पांच महाविदेह में ये वस्त्र-पात्र नहीं रखते, शेष यथोचित वस्त्र-पात्र ग्रहण करते हैं। जघन्यपदवर्ती तथा पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्कृष्ट पदवर्ती होते हैं। ० भिक्षाचर्या और मासकल्प ४. यथालन्दिक और क्षेत्रप्रतिलेखना एक्को वा सवियारो, हवंतऽहालंदियाण छ ग्गामा। सुत्तत्थपोरिसीओ, अपरिहवंता वयंतऽहालंदी। मासो विभज्जमाणो, पणगेण उ निट्ठिओ होइ॥ थंडिल्ले उवओगं, करिति रत्तिं वसंति जहिं । सवियारो त्ति वित्थिन्नो। (बृभा २०२२ चू) (बृभा १४७८) यथालंदिक मुनि गुरु-अधिष्ठित मूल क्षेत्र से बाहर यदि जो यथालन्दिक क्षेत्रप्रत्युपेक्षा के लिए जाते हैं, वे सूत्रपौरुषी विस्तीर्ण ग्राम होता है तो उसे छह वीथियों में परिकल्पित कर । और अर्थपौरुषी करते हुए दिवस के तीसरे प्रहर में भिक्षाचर्या तथा प्रत्येक वीथि में पांच-पांच दिन भिक्षाटन करते हैं और वहीं रहते विहार करते हैं। जहां रात्रिवास करते हैं, वहां कालग्रहण आदि के हैं। इस प्रकार प्रत्येक वीथि में अहोरात्रपंचक द्वारा विभज्यमान योग्य स्थंडिल की जानकारी कर लेते हैं। गच्छप्रतिबद्ध यथालंदिक मास छह अहोरात्रपंचक में संपूर्ण होता है। एक दिशा में दो जाते हैं। (द्र क्षेत्रप्रतिलेखना) यदि ग्राम विस्तीर्ण नहीं होता है तो मलक्षेत्र के पार्श्ववर्ती ५. आचार्य द्वारा यथालन्दिक को वाचना छोटे-छोटे छह ग्रामों में से प्रत्यक में पांच-पांच अहोरात्र पर्यंत । सुत्तत्थ सावसेसे, पडिबंधो तेसिमो भवे कप्यो। पर्यटन करते हुए मासकल्प पूर्ण करते हैं। आयरिए किइकम्मं, अंतर बहिया व वसहीए॥ ० गण प्रमाण, पुरुष प्रमाण दोन्नि वि दाउं गमणं, धारणकुसलस्स खेत्तबहि देइ। गणमाणओ जहन्ना, तिन्नि गण सयग्गसो य उक्कोसा। किइकम्म चोलपट्टे, ओवग्गहिया निसिज्जा य॥ पुरिसपमाणे पनरस, सहस्ससो चेव उक्कोसा॥ अत्थं दो व अदाउं, वच्चइ वायावए व अन्नेणं। पडिवज्जमाणगा वा, एक्कादि हवेज्ज ऊणपक्खेवे। एवं ता उडुबद्धे, वासासु य काउमुवओगं॥ होंति जहन्ना एए, सयग्गसो चेव उक्कोसा॥ संघाडो मग्गेणं, भत्तं पाणं च नेइ उ गुरूणं। पुव्वपडिवन्नगाण वि, उक्कोस-जहन्नसो परीमाणं। अच्चुण्हं थेरा वा, तो अंतरपल्लिए एइ॥ कोडिपुहुत्तं भणियं, होइ अहालंदियाणं तु॥ (बृभा २०१५, २०१७-२०१९) ..."महाविदेहपञ्चके जघन्यपदवर्त्तिनः कर्मभूमिपञ्च जिनकी सत्रार्थ की वाचना पूर्ण नहीं हई है. वे यथालन्दिक दशके चोत्कर्षपदवर्तिनः कोटिपृथक्त्वस्यामीषां प्राप्य- गच्छ से प्रतिबद्ध रहते हैं। वे केवल आचार्य को ही वन्दना करते माणत्वात्। (बृभा १४४३-१४४५ वृ) हैं, अन्य साधुओं को नहीं-यह उनका आचार है। आचार्य असमर्थ जघन्य तीन गण (एक गण में पांच मुनि) तथा उत्कृष्ट होने पर मूल क्षेत्र में अथवा वसति के बाहर जाकर उन्हें अर्थ की शतपृथक्त्व (दो सौ से नौ सौ) गण एक साथ इस कल्प को वाचना देते हैं। स्वीकार कर सकते हैं। पुरुष प्रमाण की अपेक्षा जघन्य पन्द्रह पुरुष आचार्य गच्छवासी को सूत्र और अर्थ पौरुषी देकर यथाऔर उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व (दो हजार से नौ हजार) व्यक्ति एक लन्दिक के पास जाते हैं और अर्थ की वाचना देते हैं। यदि आचार्य साथ इस कल्प को स्वीकार करते हैं। अक्षम हैं तो यथालन्दिकों में जो धारणाकुशल है, वह क्षेत्र के बाहर Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्ध ४७६ आगम विषय कोश-२ अन्तरपल्लिका के निकटवर्ती भूभाग में जाता है। आचार्य वहां राजा चेटक और कूणिक के बीच दो युद्ध हुए-महाशिलाजाकर उसे वाचना देते हैं। चोलपट्टधारी वह आचार्य को वंदना कंटक और रथमूसल। इनका निरूपण व्याख्याप्रज्ञप्ति (७/१७३कर, औपग्रहिकी निषद्या पर बैठकर अर्थ सुनता है। २१०) में है। असुरेन्द्र चमर और देवेन्द्र शक्र ने दोनों युद्धों में यदि आचार्य दोनों पौरुषी में वाचना देकर जाने में समर्थ नहीं कणिक का पूर्ण सहयोग किया। शक्र ने उसे वज्रमय कवच प्रदान हैं, तब अन्य शिष्य से अपने शिष्यों को वाचना दिलवाते हैं, स्वयं किया। नृप चेटक अपनी कृत प्रतिज्ञा के कारण युद्ध में एक दिन यथालन्दिक को वाचना देते हैं। यदि आचार्य जाने में असमर्थ हैं, में एक बाण चलाते थे। महाशिलाकंटक संग्राम में चेटक के तब ऋतुबद्धकाल में एक यथालन्दिक वाचना के लिए आचार्य के सारथि ने वृक्ष पर चढ़कर कणग (बाण) से कूणिक की पीठ पर पास आता है। यदि वर्षाकाल है, तब आने से पहले उपयोग प्रहार किया। वह बाण कवच से टकराकर गिर गया। कोणिक ने लगाता है कि कहीं वर्षा की संभावना तो नहीं है। वर्षा की क्रोधावेश में क्षरप्र से सारथि का सिर छिन्न कर डाला। संभावना होने पर आचार्य के पास नहीं जाता है। (महाशिलाकंटक संग्राम-इस संग्राम के परोभाग में देवेन्द्र शक्र यथालंदिक के समीप उपगत गुरु के लिए पीछे से एक एक महान वज्रतल्य अभेद्य कवच का निर्माण कर उपस्थित है। संघाटक (मुनिद्वय) आहर-पानी ग्रहण कर वहां ले जाता है। राजा कणिक ने महाशिलाकंटक संग्राम लडते हए नौ मल्ल और जिस समय गुरु यथालंदिक के उपाश्रय में जाते हैं, उस समय यदि नौ लिच्छवी-काशी-कौशल के अठारह गणराजों को हतअत्यधिक गमी होती है अथवा गुरु वृद्ध होते हैं, तो एक धारणासम्पन्न प्रहत कर दिया। वहां विद्यमान अश्व, हाथी. योद्धा अथवा सारथि यथालदिक अतरपल्लिका में आ जाता है, गुरु भी वहा जाकर पर तण काष्ठ पत्र अथवा कंकर का प्रहार किया जाता. तब वे उसको वाचना देकर, संघाटक द्वारा आनीत आहार कर संध्या के सब अनुभव करते कि उन पर महाशिला से प्रहार किया जा रहा समय मूल क्षेत्र में आ जाते हैं। है। इस संग्राम में चौरासी लाख मनुष्य मारे गए। वे मरकर प्रायः ६. यथालन्दिक और कृतिकर्म नरक और तिर्यक् योनि में उत्पन्न हुए। तस्स जई किइकम्मं, करिंति सो पुण न तेसि पकरेइ। रथमूसल संग्राम-इस संग्राम के पुरोभाग में देवेन्द्र शक्र एक महान् जा पढइ ताव गुरुणो, करेइ न करेइ उ परेणं॥ वज्रतुल्य अभेद्य कवच का निर्माण कर उपस्थित है। उसके पृष्ठभाग (बृभा २०२१) में असुरेन्द्र चमर एक महान् लोह का तापस-पात्र-तुल्य पात्र गच्छवासी यथालन्दिक को वन्दना करते हैं। लेकिन यथा- निर्मित कर उपस्थित है। राजा कणिक ने रथमसल संग्राम लडते लन्दिक पर्यायज्येष्ठ गच्छवासी साधओं को वंदना नहीं करता। हए नौ मल्ल और नौ लिच्छवी-काशी-कौशल के अठारह गणराजों वह वाचना लेता है, तब तक आचार्य को वन्दना करता है, उसके को इत-परत कर दिया। उस समय एक रथ जिसमें घोडे जते हए बाद आचार्य को भी वन्दना नहीं करता-यह उसका आचार है। नहीं थे, कोई सारथि उसे चला नहीं रहा था, जिसमें कोई योद्धा युद्ध-संग्राम। नहीं बैठा था, उसमें एक मुसल था। उस मुसल से युक्त रथ महाशिलाकण्टक और रथमुसल संग्राम योद्धाओं का वध करता हुआ, उनके लिए प्रलयपात के समान बना संगामदगं महसिलरधमुसल चेव परूवणा तस्स। हुआ, युद्धभूमि पर रक्त का कीचड़ फैलाता हुआ चारों तरफ दौड़ असुरसुरिंदावरणं, चेडग एगो गह सरस्स॥ रहा था। रथमुसल संग्राम में छियानवे लाख मनुष्य मारे गए। उनमें महसिल कंटे तहियं, वद्रूते कणिओ उ रधिएणं। से दस हजार मनुष्य एक मछली की कुक्षि में उत्पन्न हुए। एक रुक्खग्गविलग्गेणं, पढ़े पहतो उ कणगेणं॥ (नागनप्तृक वरुण) देवलोक में उत्पन्न हुआ। एक (नागनप्तृक उप्फिडितं सो कणगो, कवयावरणम्मि तो ततो पडितो। वरुण का मित्र) अच्छे मनुष्यकुल में उत्पन्न हुआ। शेष सब नरक तो तस्स कूणिएणं, छिन्नं सीसं खरप्पेणं॥ और तिर्यक् योनि में उत्पन्न हुए। (व्यभा ४३६३-४३६५) कार्तिक सेठ की अवस्था में कणिक का जीव शक्र का मित्र Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४७७ राज्य था। पूरण तापस के जीवनकाल में कूणिक का जीव तापस-पर्याय में था और वह पूरण तापस का मित्र था, इसलिए देवेन्द्र शक्र और असुरेन्द्र चमर ने राजा कूणिक को साहाय्य दिया। ___ दोनों युद्धों में कुल मिलाकर एक करोड़ अस्सी लाख मनुष्य मारे गए।-द्र भ ७/१७३-२१० व चेटक ने अपने देवप्रदत्त बाण से दस दिनों में कोणिक के दस भाइयों को मार डाला। दुःखी कोणिक ने विवश होकर त्रिदिवसीय अनुष्ठान द्वारा सौधर्मेन्द्र और चमरेन्द्र की आराधना की, तब अपना पूर्व साधर्मिक जानकर चमर ने महाशिलाकंटक रण और रथमुसल नामक रण प्रदान किया। महाशिलाकंटक युद्ध में फेंका गया एक कंकर भी शिला जैसा प्रहार करता था और कंटक भी शस्त्र बन जाता था।-उप्रा १ वृ प ३३) * युद्ध और वैद्य द्र चिकत्सिा राज्य-राजा/शासक द्वारा शासित क्षेत्र, शासन। ६.अंतःपुर और उसके रक्षक ___ * युद्ध : महाशिलाकण्टक-रथमुसल संग्राम द्र युद्ध ७. राजा की छह प्रकार की शालाएं ८. विभिन्नभक्त : कान्तारभक्त, ग्लानभक्त आदि * नानाविध नाणक द्र मुद्रा | ९. राज्यकर १०. चक्रवर्ती और राजधानियां ० चक्रवर्ती आदि के भवनों की ऊंचाई |११. परिक्षेप के प्रकार : द्रव्य"भाव |१२. वैराज्य-विरुद्ध राज्य : निर्वचन एवं स्वरूप | * मुनि के लिए वैराज्यगमन निषेध द्र विहार |१३. वैराज्यगमन-निषेध क्यों? ० वैराज्यगमन के अपवाद ० राज्यनिर्गमन-वैराज्यप्रवेश-विधि |१४. राज्य में होने वाले उत्सव ___ * लोकोत्तर पर्व : संवत्सरी द्र पर्युषणाकल्प १.राज्य के पांच आधार : राजा, वैद्य" २. राजा की अर्हता ० राजा व्यसनमुक्त हो ० राजाओं की ऋद्धि ० राजा के प्रकार * राजा के प्रकार और राजपिण्ड द्र कल्पस्थिति ० राजा के चार विकल्प * राजा का अवग्रह द्र अवग्रह * सापेक्ष-निरपेक्ष राजा : मूलदेव दृष्टांत द्र आचार्य * वैद्य का स्वरूप द्र चिकित्सा ०धनवान, नैयतिक, रूपयक्ष * राजाज्ञा भंग का परिणाम : चन्द्रगुप्त... द्र आज्ञा * राजा सम्प्रति और आर्यक्षेत्र द्र आर्यक्षेत्र * संघप्रभावक राजा सम्प्रति ३. युवराज, महत्तरक, अमात्य ० गुप्तचर के प्रकार ० कुमार ४. प्रग्रहस्थान : राजा आदि, आचार्य आदि ५. आरक्षकवर्ग ० अन्य कर्मकर, दासीवर्ग १. राज्य के पांच आधार : राजा, वैद्य..... तत्थ न कप्पति वासो, आधारा जत्थ नत्थि पंच इमे। राया वेज्जो धणिमं, नेवइया रूवजक्खा य॥ दविणस्स जीवियस्स व, वाधातो होज्ज जत्थ णत्थेते। वाघाते चेगतरस्स, दव्वसंघाडणा अफला॥ रण्णा जुवरण्णा वा, महयरग अमच्च तह कुमारेहिं । एतेहिं परिग्गहितं, वसेज्ज रज्जं गुणविसालं ॥ रूपयक्षा धर्मपाठकाः। (व्यभा ९२४-९२६ वृ) जनता के सुव्यवस्थित जीवन के लिए पांच व्यक्ति आधारभूत होते हैं-राजा, वैद्य, धनवान्, नैयतिक और रूपयक्ष-धर्मपाठक। जहां ये न हों, वहां नहीं रहना चाहिए क्योंकि वहां धन और जीवन की हानि होती है। धन और जीवन में से एक का भी व्याघात होने पर धनोपार्जन व्यर्थ है। राजा, युवराज, महत्तरक, अमात्य और कुमार-इन पांचों से परिगृहीत और गुणों से विशाल राज्य में वास करना चाहिए। २. राजा की अर्हता उभओ जोणीसुद्धो, राया दसभागमेत्तसंतुट्ठो। लोगे वेदे समए, कतागमो धम्मिओ राया॥ द्र संघ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्य ४७८ आगम विषय कोश-२ पाला। पंचविधे कामगुणे, साहीणे भुंजते निरुव्विग्गे। राजाओं की ऋद्धि चार प्रकार की होती थीवावारविप्पमुक्को, राया एतारिसो होति॥ १. अतियान ऋद्धि २. निर्याण ऋद्धि ३. सेना और वाहन ४. कोष (व्यभा ९२७, ९२८) । और कोष्ठागार की ऋद्धि। कई कोठार के स्थान पर संठाण राजा की सात अर्हताएं हैं (संस्थान)शब्द पढ़ते हैं, जिसका अर्थ है-वर्ण और नेपथ्य।। ० मातृपक्ष और पितृपक्ष-योनिद्वय से परिशुद्ध। (० अतियानऋद्धि-इसका अर्थ है नगर-प्रवेश के समय की जाने ० प्रजा से दसवां हिस्सा कर लेकर संतुष्ट होने वाला। वाली सजावट। जब राजा आदि नगर में आते थे, उस समय नगर ० लौकिक आचार, समस्त धर्मदर्शनों और नीतिशास्त्र का ज्ञाता। के तोरणद्वार सज्जित किए जाते थे, दुकानें सजाई जाती थीं और ० धर्म के प्रति दृढ़ आस्था रखने वाला। राजपथ पर हजारों आदमी एकत्रित होते थे। ० शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श-इन पंचविध स्वाधीन- ० निर्याणऋद्धि-इसका अर्थ है नगर से निर्गमन के समय साथ स्वोपार्जित कामगुणों का उपभोक्ता। चलने वाला वैभव। जब राजा आदि विशिष्ट व्यक्ति नगर से ० उद्विग्नता से रहित। निर्गमन करते थे, उस समय हाथी, सामन्त, परिवार आदि के लोग ० राज्यव्यवस्था सुचारु होने के कारण उसकी चिन्ता से मुक्त।। उनके साथ चलते थे।-स्था ३/५०३ वृ ० राजा व्यसनमुक्त हो राजकथा के चार प्रकार हैं-१. अतियान कथा २. निर्याण सत्तण्हं वसणाणं, अन्नयरजतो न जाणई रज्जं। कथा ३. सेना-वाहन कथा ४. कोश-कोष्ठागार कथा। स्था४/२४५) अंतेउरे व अच्छइ, कज्जाइँ सयं न सीलेइ ।। ० राजा के दो प्रकार, चार विकल्प इत्थी जूयं मज्जं, मिगव्व वयणे तहा फरुसया य। अधवा या विधो. आतभिसित्तो पराभिसित्तो य। दंडफरुसत्तमत्थस्स, दूसणं सत्त वसणाई॥ आतभिसित्तो भरहो, तस्स उ पुत्तो परेणं तु॥ (बृभा ९३९, ९४०) बलवाहणकोसा या, बद्धी उप्पत्तियाइया। जो सात व्यसनों में से किसी एक से भी युक्त है, वह साधगो उभयोवेतो, सेसा तिण्णि असाधगा॥ राज्यसंचालन नहीं कर सकता। वह अन्तःपुर में रहता है और बलवाहणत्थहीणो द्धीहीणो न रक्खते रज्जं।.... न्याय आदि कार्यों को स्वयं नहीं देखता। सात व्यसन ये हैं (व्यभा २४०८-२४१०) १. स्त्री-सदा अंत:पुर की स्त्रियों में आसक्त। २. द्यूत-अनवरत द्यूत-क्रीड़ा में निमग्न । राजा के दो प्रकार हैं-१. आत्माभिषिक्त-जैसे-भरत ३. मद्य-मद्यपान से निरन्तर मूर्च्छित। चक्रवर्ती । २. पराभिषिक्त-जैसे-भरतपत्र आदित्ययशा। ४. मृगया-शिकार में रत। राजा के चार विकल्प हैं५. वचनपरुषता-कठोर वचन बोलने का आदी। १. सेना आदि से युक्त, बुद्धिसम्पन्न। ६. दंडपारुष्य-उग्र दण्ड देने में प्रवर्तित । २. सेना आदि से युक्त, बुद्धि से हीन। ७. अर्थदूषण-अर्थोत्पत्ति के उपायों को दूषित करने वाला। ३. सेना आदि से रहित, बुद्धिसम्पन्न। ० राजाओं की ऋद्धि 4. सेना आदि से रहित, बुद्धि से हीन। अइयाणं णिज्जाणं, बलवाहणकोसमेव संठाणं( कोठार).... जो राजा सेना, वाहन, कोश और औत्पत्तिकी आदि बुद्धियों ....... संठाणं नेवर्थ से सम्पन्न होता है, वह राज्य के लिए कल्याणकारक होता है। .."कोसमेव कोट्ठागारं चउत्थो भेओ। केपि एयं बल, वाहन, अर्थ (कोश) और बुद्धि से हीन राजा राज्य की सुरक्षा पढंति-कोसमेव संठाणं। (निभा १२८, १२९ चू) नहीं कर सकता। वण्ण Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४७९ राज्य ० धनवान, नैयतिक, रूपयक्ष जो गम्भीर, मृदु, नीतिविशारद, जातिसम्पन्न और विनयकोडिग्गसो हिरण्णं, मणि-मुत्त-सिल-प्पवाल-रयणाई। सम्पन्न होता है तथा युवराज के साथ मिलकर जो राज्यकार्यों को अजय-पिउ-पज्जागय, एरिसया होंति धणमंता॥ सम्पादित करता है, वह महत्तरक है। सणसत्तरमादीणं, धन्नाणं कुंभकोडिकोडीओ। जो जनपदसहित पुर एवं राजा की चिंता करता है, व्यवहारजेसिं तु भोयणट्ठा, एरिसया होंति नेवतिया॥ कुशल और नीतिनिपुण होता है तथा जो समय पर राजा को भी भंभीय मासुरुक्खे, माढरकोडिण्णदंडनीतीसु। शिक्षा देता है, वह अमात्य (मंत्री) है। अधऽलंचऽपक्खगाही, एरिसया रूवजक्खा तु॥ ० गुप्तचर के प्रकार रूपयक्षाः मूर्तिमन्तो धमैकनिष्ठा देवा इत्यर्थः। सूयग तहाणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। (व्यभा ९५०-९५२ वृ) पुरिसा कतवित्तीया, वसंति सामंतरज्जेसु॥ सूयिग तहाणुसूयिग, पडिसूयिग सव्वसूयिगा चेव। जिनके पास पिता-दादा-परदादा से प्राप्त कोटि-परिमाण में . महिला कयवित्तीया, वसंति सामंतरज्जेसु॥ सोना-चांदी, मणि (चन्द्रकान्त आदि), मुक्ता, शिला, प्रवाल और ......"सामंतनगरेसु।।..."नियगम्मि रज्जम्मि॥ रत्न (कर्केतन आदि) हों, वे धनवान हैं। ..."नियगम्मि नगरम्मि॥..."अंतेउरे रणो॥ जिनके घरों में भोजन के लिए सण आदि सतरह प्रकार के (व्यभा ९३८-९४०, ९४२, ९४४, ९४६) धान्यों की कुम्भकोटिकोटियां (विपुल कोष्ठागार) हों, वे नैयतिक गुप्तचरों में पुरुष और स्त्री दोनों होते थे, जिनकी नियुक्ति हैं। (सत्रह प्रकार के धान्य ये हैं-शालि, यव, कोद्रव, व्रीहि, अमात्य करता था। उन्हें उचित वेतन मिलता था। वे पड़ोसी राज्य रालक, तिल, मूंग, उड़द, चवला, चना, तुवरी, मसूर, कुलत्थ, और नगर, अपने राज्य-नगर एवं अन्तःपुर में रहते थे। गेहूं, निष्पाव, अतसी और सन।) गुप्तचर (चारपुरुष) के चार प्रकार हैं-सूचक, अनुसूचक, जो भंभी, आसुरुक्ष, माठर और कोण्डिन्य (कौटिल्य) द्वारा प्रतिसूचक और सर्वसूचक । गुप्तचरस्त्री के चार प्रकार हैं-सूचिका, प्रणीत दण्डनीतियों में कुशल होते हैं, रिश्वत नहीं लेते, यह मेरा अनुसूचिका, परिसूचिका और सर्वसूचिका। अपना है-ऐसा सोचकर जो पक्षपात नहीं करते, वे रूपयक्ष/धर्म- १. सूचक पड़ोसी राज्यों में जाकर अन्तःपुरपालक के साथ मैत्री पाठक/मूर्तिमान् धर्मैकनिष्ठ देव हैं। कर वहां के सारे रहस्यों को जान लेते थे। ३. युवराज, महत्तरक, अमात्य २. अनुसूचक नगर के अन्दर की गुप्त बातों को ज्ञात करते थे। आवस्सयाइ काउं, जो पव्वाडं त निरवसेसादं। ३. प्रतिसूचक नगरद्वार के समीप अवस्थित होकर पडौसी राज्य से आने-जाने वाले शत्रु की घात में रहते थे। अत्थाणी मज्झगतो, पेच्छति कज्जाइँ जुवराया॥ गंभीरो मद्दवितो, कसलो जो जातिविणयसंपन्नो। ४. सर्वसूचक अपने नगर में बार-बार आते-जाते रहते थे। जुवरण्णाए सहितो, पेच्छइ कज्जाइ महतरओ॥ . (इन गुप्तचरों का आपस में गहरा संबंध रहता था। सूचक सजणवयं च पुरवरं, चिंतंतो अच्छई नरवतिं च। जो कुछ भी नयी बात सुनते या देखते, वे अनुसूचक को, अनुसूचक ववहारनीतिकुसलो, अमच्चो एयारिसो अधवा॥ प्रतिसूचक को तथा प्रतिसूचक सारे वृत्तान्त के साथ-साथ स्वयं "यो राज्ञोऽपि शिक्षा प्रयच्छति।(व्यभा ९२९-९३१ वृ) द्वारा गृहीत तथ्य भी सर्वसूचक को बता देते और फिर सर्वसूचक अमात्य तक सारा रहस्य पहुंचा देते।) जो प्रातः उठकर सर्वप्रथम देहचिन्ता, देवपूजा आदि समस्त ० कुमार आवश्यक कार्यों को सम्पन्न कर आस्थानिका (राज्यसभा) में पच्चंते सव्वतो दमेमाणो। बैठकर राज्यव्यवस्था सम्बन्धी कार्यों को देखता है, चिन्तन-विमर्श संगामनीतिकुसलो, कुमार एतारिसो होति॥ करता है, वह युवराज है। (व्यभा ९४८) त Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्य सीमापर्यंतवर्ती प्रजा को क्षुब्ध करने वाला, दुर्दान्त का दमन करने वाला तथा रणनीति में कुशल - ऐसा होता है कुमार । ४. प्रग्रहस्थान : राजा आदि, आचार्य आदि पग्गह लोइय इतरे, एक्केक्को तत्थ होइ पंचविहो । राय - जुवरायऽमच्चे, सेट्ठी पुरोहि लोगम्मि ॥ आयरिय उवज्झाए, पवत्ति थेरे तहेव गणवच्छे । सो लोगुत्तरिओ, पंचविहो पग्गहो होति ॥ प्रकर्षेण प्रधानतया वा गृह्यते उपादीयते इति प्रग्रहः प्रभूतजनमान्यः प्रधानपुरुषः । (व्यभा २१६, २१७ वृ) जो प्रकृष्टरूप से अथवा प्रधानरूप से ग्रहण किया जाता है, जो बहुजनमान्य तथा मुख्य होता है, वह प्रग्रह कहलाता है । प्रग्रह के दो प्रकार हैं- लौकिक और लोकोत्तर । प्रत्येक के पांच-पांच प्रकार हैं। लौकिक प्रग्रह के पांच प्रकार हैं - १. राजा । २. युवराज । ३. अमात्य -: -राजकार्यचिन्ताकृत् । ४. श्रेष्ठी । ५. पुरोहित - शांति - कर्मकारी । लोकोत्तर ग्रह के पांच प्रकार हैं- १. आचार्य २. उपाध्याय ३. प्रवर्त्तक ४. स्थविर और ५. गणावच्छेदक । रायामच्च पुरोहिय, सेट्ठी सेणावती य लोगम्मि।'''''' ( निभा ६२९९ ) पग्गहट्ठाणं "पंचविधं, तं जधा - राया जुवराया सेणावती महत्तरो कुमाराऽमच्चो उ । (दशानि १० की चू) लोक में प्रग्रहस्थान पांच हैं - राजा, अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठी और सेनापति अथवा राजा, युवराज, सेनापति, महत्तर और कुमार- अमात्य | रायाऽमच्चे सेट्टी, पुरोहिते सत्थवाहपुत्ते या ''अट्ठारसह पगतीणं जो महत्तरो सेट्ठी, सपुरजणवयस्स रण्णो जो होमजावादिएहिं असिवादि पसमेति सो पुरोहितो, जो सत्थं वाहेति सो सत्थवाहो । (निभा १७३५ चू) राजा, मंत्री, श्रेष्ठी, पुरोहित और सार्थवाहपुत्र महर्द्धिक हैं । ० श्रेष्ठी - अठारह श्रेणियों में महत्तर । आगम विषय कोश - २ ० पुरोहित-पुर- जनपदसहित राजा के अशिव आदि उपद्रवों का यज्ञ, जप आदि के माध्यम से शमन करने वाला। ० सार्थवाह - सार्थ का नायक । (द्र सार्थवाह ) ४८० ईसर - तलवर - माडंबिएहिं सेट्ठीहिं सत्थवाहेहिं |'''''' ईसरभोइयमादी, तलवरपट्टेण तलवरो हो । वेंट बद्धो सेट्टी, पच्चंतणिवो माडंबी ॥ ऐश्वर्येण युक्तः ईश्वरः, सो य गामभोतियादिपट्टबंधो। रायप्रतिमो चामरविरहितो तलवरो भण्णति । जम्मिय पट्टे सिरिया देवी कज्जति तं वेंणगं, तं जस्स रण्णा अणुन्नातं सो सेट्ठी भण्णति । (निभा २५०२, २५०३ चू) मडम्बं नाम यत् 'सर्वतः ' सर्वासु दिक्षु छिन्नम् अर्द्धतृतीयगव्यूतमर्यादायामविद्यमानग्रामादिकमिति भावः । अन्ये तु व्याचक्षते - -यस्य पार्श्वतोऽर्द्धतृतीययोजनान्तर्ग्रामादिकं न प्राप्यते तद् मडम्बम् । (बृंभा १०८९ की वृ) ईश्वर - ऐश्वर्ययुक्त व्यक्ति। ग्राम का पट्टधारक अधिपति । ० तलवर - तलवरपट्टभूषित। राजा के समान ऐश्वर्यसम्पन्न व्यक्ति, केवल उसके पास चामर नहीं होता है। 1 ० माडंबिक- मडंब का अधिपति। जो सब दिशाओं में छिन्न हो, जिसके आसपास ढाई गव्यूत अथवा ढाई योजन तक कोई ग्राम आदि न हो, वह स्थान मडंब कहलाता है । श्रेष्ठी - राजा द्वारा जिसे श्रीदेवी के चिह्न से अंकित शिरोवेष्टन की अनुज्ञा प्राप्त 1 सार्थवाह - सार्थ का अधिपति । O ( ० राजा - जो नम्रीभूत अठारह श्रेणियों का अधिपति हो, मुकुट को धारण करने वाला हो और सेवा करने वालों के लिए कल्पतरु के समान हो, उसे राजा कहा गया है। अठारह श्रेणियां ये हैंघोड़ा, हाथी और रथ के अधिपति, सेनापति, मंत्री, श्रेष्ठी, दण्डपति, शूद्र, क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, महत्तर, गणराज, अमात्य, तलवर, पुरोहित, स्वाभिमानी महामात्य और पैदल सेना । - षट्खण्डागम, धवला १ / १, १, १, गा ३६-३८/५७ o सेनापति - हाथी, घोड़ा, रथ और पदाति- इस चतुरंगिणी सेना का अधिपति । - अनु १९ टि Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४८१ राज्य ० तलवर-राजा प्रसन्न होकर जिसके सिर पर रत्नखचित सोने का हाण वा असिग्गहाण वा धणुग्गहाण वा सत्तिग्गहाण वा पट्ट बांधता है।-अनु १९ टि कोतग्गहाण वा॥ (नि ९/२६७) • ईश्वर-युवराज। अमात्य। मांडलिक। अणिमा आदि आठ राजा के अधीनस्थ अनेक प्रकार के कर्मकर/अधिकारी होते लब्धियों से युक्त।-स्था ९/६२ टि थे। जैसे-शास्त्रवाहक या शास्त्रवाचक-राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र ० श्रेष्ठी-वणिक-ग्राम का महत्तर।-दचला १/५ व) आदि राज्यशास्त्रों का कथन करने वाले, संबाधक-पगचंपी करने ५. आरक्षकवर्ग वाले, अभ्यंगन-उबटन करने वाले, स्नान कराने वाले, मंडन ."रायारक्खियं""णगरारक्खियं ॥"णिगमारक्खियं करने वाले, छत्र-चामर वहन करने वाले, आभरण-मंजूषा रखने ""देसारक्खियं सव्वत्तरक्खियं"। सीमारक्खियं...॥ वाले, परिवर्तनवस्त्रगृह, दीपिकाग्रह (पिंजरे में तित्तिरि रखने वाले), रायारक्खिओ-सिरोरक्षः...णगररक्खिओ कोट्टपालो। तलवार, धनुष, शक्ति और भाला धारण करने वाले। सव्वपगइओ जो रक्खति णिगमारक्खिओ, सो सेट्ठी।" ...चिलाइयाण वा बब्बरीण वा पउसीण वा जोणिदेसारक्खिओ, चोरोद्धरणिकः । एताणि सव्वाणि जो रक्खति याण वा पल्हवियाण वा ईसिणीण वा थारुगिणीण वा सो सव्वारक्खिओ, एतेषु सर्वकार्येषु आपृच्छनीयः स च लासीण वा लउसीण वा सिंहलीण वा दमिलीण वा महाबलाधिकतेत्यर्थः। (नि ४/२-६, ४१ चू) आरबीण वा पुलिंदीण वा पक्कणीण वा बहलीण वा (निभा १५५५ की च) ""गोमिया दंडवासिया"। मरुडाण वा सबरीण वा पारसीण वा ॥ (नि ९/२९) प्रस्तुत सूत्र में विभिन्न देशों की दासियों का उल्लेख हैआरक्खि दंडवासिओ""चोरचारियं ति या णाऊणं...। किरातिका (किरात नामक देश में उत्पन्न), बर्बरी, बकुसी, योनिका, (निभा ३०७९ की चू) पल्हविका (पल्हविक देश की), ईशानिका, थारुकिनिका, ल्हासिका राज्य की रक्षा करने वाले आरक्षक सात प्रकार के हैं (ल्हासक देश की), लउसिया (लाओसिया/लकुस देश की), ० राजा आरक्षक-अंगरक्षक/शिरोरक्ष। सिंहली (सिंहल देश की), द्रविड़ देश की, आरबी (अरब देश • नगर आरक्षक-कोतवाल। की), पुलिन्दी (पुलिंद देश की), पक्कणी (पक्कण देश की), ० निगम आरक्षक-प्रजा की रक्षा करने वाला महापौर (मेयर)/श्रेष्ठी। बहली (बहल देश की), मुरुंडी (मुरुंड देश की), शबरी (शबर ० देश आरक्षक-देशरक्षक, चोरों से उद्धार करने वाला। देश की), पारसी (पारस देश की)। ० सर्व आरक्षक-सेनापति। नगर, निगम आदि सबकी रक्षा करने वाला। रक्षा संबंधी सब कार्यों में उससे परामर्श लिया जाता था। । ६. अंत:पुर और उसके रक्षक सेना में वरिष्ठ होने के कारण उसे महाबलाधिकृत कहा जाता था। अंतेउरं च तिविधं, जुण्ण णवं चेव कण्णगाणं च। ० सीमा आरक्षक-राज्यसीमा की रक्षा करने वाला। एक्केक्कं पि य दुविधं, सट्ठाणे चेव परठाणे॥ ० आरक्षक-दंडपाशिक, गौल्मिक (कोतवाल), रात्रि में बाहर दंडधरो दंडारक्खिओ उ दोवारिया उ दारिट्ठा। घूमने वाले चोर, गुप्तचर आदि को पकड़ कर राजा के समक्ष वरिसधर-बद्ध-चिप्पित, कंचुगिपुरिसा तु महतरगा। उपस्थित करने वाला। (निभा २५१३, २५१६) ० अन्य कर्मकर, दासीवर्ग राजा का अंत:पुर तीन प्रकार का होता था""सत्थाहाण वा संवाहाण वा अब्भंगाण वा उव्वट्टाण १.जीर्ण अंत:पुर-अपरिभोग्या वृद्धा रानियों का अंत:पुर। वा मज्जावयाण वा मंडावयाण वा छत्तग्गहाण वा चामर वा मडावयाण वा छत्तग्गहाण वा चामर- २. नव अंत:पुर-परिभोग्या युवा रानियों का अंत:पुर । ग्गहाण वा हडप्पग्गहाण वा परियट्टग्गहाण वा दीवियग्ग- ३. कन्या अंत:पुर-अप्राप्तयौवना राजकन्याओं का अंत:पुर। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्य क्षेत्र की दृष्टि से अंतःपुर के दो प्रकार हैं- स्वस्थानराजभवनस्थित अंत:पुर और परस्थान - वसंतोत्सव आदि के समय उद्यानिकागत अंतःपुर । अंतःपुर में पांच प्रकार के रक्षक राजा द्वारा नियुक्त किए जाते थे१. दंडरक्षक - हाथ में दण्ड धारण किए हुए अंत:पुर की रक्षा करने वाला । राजा की आज्ञा से स्त्री अथवा पुरुष को अंतःपुर में प्रवेश दिलाने और बाहर लाने का कार्य करने वाला । २. द्वारपाल - अंतःपुर के द्वार पर स्थित होकर रक्षा करने वाला । ३. वर्षधर (कृतनपुंसकविशेष) । बद्धित और चिप्पित इसी के दो प्रकार हैं। ये अंतःपुर के भीतर रहकर रक्षा कार्य करते थे। ४. कंचुकी - राजा की आज्ञप्ति को अंतःपुर तक और अंत:पुर की आज्ञप्ति को राजा तक पहुंचाने वाला प्रतिहारी । ५. महत्तरक—इसके कार्य हैं- रानियों को राजा के पास ले जाना, उनके क्रोध को शांत करना और क्रोध के कारणों को राजा को बताना आदि। (महत्तरिका राहस्यिकी परिषद्-द्र परिषद्) ७. छह प्रकार की शालाएं रण्णो इमाई छद्दोसाययणाईतं जहा- कोट्ठागारसालाणि वा भंडागारसालाणि वा पाणसालाणि वा खीरसालाणि वा गंजसालाणि वा महाणससालाणि वा । (नि९/७) राजकुल में खाद्यसंबंधी छह शालाएं होती थीं१. कोष्ठागारशाला - धान्य रखने का स्थान । २. भांडागारशाला -- सोने, चांदी आदि के बर्तनों का स्थान । ३. पानशाला - पानी, सुरा आदि रखने का स्थान । ४. क्षीरशाला- दूध, दही आदि की शाला । ५. गंजशाला - धान्य कूटने का स्थान । ६. महानसशाला - रसोईघर, पाकशाला । आगम विषय कोश - २ अतिधीण भत्तं करेति राया। रण्णाो कोति पाहुणगो आगतो तस्स भत्तं आदेसभत्तं | आरोग्गसालाए वा विणावि आरोग्गसालाए जं गिलाणस्स दिज्जति तं गिलाणभत्तं । (नि ९/६ चू) ४८२ राजकुल में अनेक प्रकार के व्यक्तियों के लिए भोजन बनता था । यथा— द्वारपालभक्त, पशुभक्त, भृतकभक्त, बल (सेना) भक्त, दासभक्त, कांतारभक्त, दुर्भिक्षभक्त, द्रमकभक्त, ग्लानभक्त, बार्दलिकाभक्त और प्राघूर्णकभक्त । o ० कांतारभक्त - अटवीनिर्गत यात्रियों के लिए बनाया गया भोजन । • दुर्भिक्षभक्त - भयंकर दुष्काल होने पर राजा तथा अन्य धनाढ्य व्यक्तियों द्वारा बुभुक्षितों के लिए बनाया गया भोजन । ० द्रमकभक्त - दीन - गरीबों के लिए बना भोजन । • ग्लानभक्त - आरोग्यशाला में अथवा आरोग्यशाला के बिना भी सामान्यतः रोगी को दिया जाने वाला भोजन । • बार्दलिकाभक्त - सात दिनों तक वर्षा पड़ने पर राजा द्वारा भिक्षुओं के निमित्त बनाया गया भोजन । • प्राघूर्णकभक्त - आदेशभक्त, अपूर्व अतिथि अथवा राजा के मेहमान लिए कृत भोजन । (कान्तारभक्त - अटवी में मुनि के निर्वाह के लिए बनाया गया भोजन । प्राचीनकाल में मुनियों का गमनागमन सार्थवाहों के साथसाथ होता था। कभी वे अटवी में साधु पर दया लाकर उनके लिए भोजन बना देते थे। इसे कान्तारभक्त कहा जाता है। बार्दलिकाभक्त - आकाश में बादल छाए हुए हैं। वर्षा गिर रही है । ऐसे समय में भिक्षु भिक्षा के लिए नहीं जा सकते। यह सोचकर गृहस्थ उनके लिए विशेषतः भोजन का निर्माण करता है। यह बार्दलिकाभक्त कहलाता है। -स्था ९/६२ का टिप्पण) ९. राज्यकर स्थान साधु के प्रवेश के लिए दोषायतन हैं । ८. विभिन्न भक्त : कांतारभक्त, ग्लानभक्त आदि ......दोवारियभत्तं वा पसुभत्तं वा भयगभत्तं वा बलभत्तं वा कयगभत्तं वा कंतारभत्तं वा दुब्भिक्खभत्तं वा दमगभत्तं वा गिलाणभत्तं वा बद्दलियाभत्तं वा पाहुणभत्तं वा ॥ .....''सत्ताहवद्दले पडते भत्तं करेति राया, अपुव्वाणं वा ० सामान ॥ (व्यभा ४५५) ......वीसतिभागं सुकं " ....राया दस भागमेत्तसंतुट्ठो । (व्यभा ९२७) गम्यः शास्त्रप्रसिद्धानामष्टादशानां कराणामिति ग्रामः । (व्यभा ९३६ की वृ) (बृभा १०८९) जाने वाले पर बीस प्रतिशत चुंगीकर लगता था । नत्थेत्थ करो नगरं ...... [**"*" Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४८३ ० राजा प्रजा से दस प्रतिशत कर लेकर संतुष्ट हो जाता था। ११. राज्य में परिक्षेप के प्रकार : द्रव्य... भाव • गांव में १८ प्रकार के कर लगते थे। नाम ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे य। ० नगर कर से मुक्त होता था। एसो उ परिक्खेवे, निक्खेवो छव्विहो होइ॥ भीताइ करभयस्सा, अंतो बाहिं व होज्ज एगपया।.... सच्चित्तादी दव्वे, सच्चित्तो दुपयमायगो तिविहो। (व्यभा ३७२१) मीसो देसचियादी, अच्चित्तो होइमो तत्थ ॥ अनेक लोग एक साथ मिलकर चुल्ली-कर के भय से एक पासाणिट्टग-मट्टिय-खोड-कडग-कंटिगा भवे दव्वे। खाइय-सर-नइ-गड्डा-पव्वय-दुग्गाणि खेत्तम्मि॥ ही चूल्हे पर अपना खाना पकाते थे। वासारत्ते अइपाणियं ति गिम्हे अपाणियं नच्चा। १०. चक्रवर्ती और राजधानियां कालेण परिक्खित्तं, तेण तमन्ने परिहरंति॥ ......... वसई....."रायहाणि जहिं राया।......" नच्चा नरवइणो सत्त-सार-बुद्धी-परक्कमविसेसे। ___ (बृभा १०९१) भावेण परिक्खित्तं, तेण तमन्ने परिहरंति॥ जहां राजा वास करता है, वह राजधानी है। ___ (बृभा ११२१-११२५) "दस अभिसेयाओ रायहाणीओ"तं जहा-चंपा परिक्षेप (परिधि, परिवेष्टन) के छह प्रकार हैं-नाम, महुरा वाराणसी सावत्थी साएयं कंपिल्लं कोसंबी मिहिला स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। हत्थिणापुरं रायगिहं॥ (नि ९/२०) - द्रव्य परिक्षेप के तीन भेद हैं-सचित्त, अचित्त, मिश्र। संती कुंथूय अरो, तिण्णि वि जिणचक्की एक्कहिं जाया।" सचित्त परिक्षेप के तीन प्रकार हैंबारसचक्कीण एया राजहाणीओ। (निभा २५९१ चू) द्विपद-मनुष्य के द्वारा परिक्षेप। चम्पा, मथुरा, वाराणसी, श्रावस्ती, साकेत, कांपिल्य, चतुष्पद-हस्ति, अश्व आदि के द्वारा परिक्षेप। कौशाम्बी, मिथिला, हस्तिनापुर और राजगृह-ये बारह अपद-वृक्ष के द्वारा परिक्षेप। चक्रवर्तियों की दस अभिषेक राजधानियां थीं। अर्हत् शांति, मिश्र के भी ये ही तीन भेद होते हैं किन्तु यह एक देश से अर्हत् कुंथु और अर्हत् अर-इन तीनों ही एक ही राजधानी सचेतन और एक देश से अचेतन होता है। (हस्तिनापुर) थी। ___ अचित्त परिक्षेप के छह प्रकार हैं-१. पाषाणमय प्राकार, यथा द्वारिका। २. इष्टकामय प्राकार, यथा नन्दपुर। ३. मृत्तिकामय • चक्रवर्ती आदि के भवनों की ऊंचाई प्राकार, यथा सुमनोमुख नगर। ४. काष्ठमय प्राकार । ५. वंशमय अट्ठसतं चक्कीणं, चोवट्ठी चेव वासुदेवाणं। प्राकार । ६. बबूल आदि कंटिका का प्राकार। बत्तीसं मंडलिए, सोलसहत्था उ पागतिए॥ ० क्षेत्र परिक्षेप-परिखा, सरोवर, नदी, गर्त, पर्वत, दुर्ग आदि के भवणज्जाणादीणं, एसुस्सेहो उ वत्थुविज्जाए। द्वारा नगर आदि को परिवेष्टित करना। भणितो सिप्पनिधिम्मि उ, चक्कीमादीण सव्वेसिं॥ . काल परिक्षेप-वर्षा में पानी की अधिकता और ग्रीष्म में (व्यभा ३७४८, ३७४९) जलाभाव के कारण अन्य राजों द्वारा उस नगर का परिहार कर चक्रवर्ती, वासुदेव, माण्डलिक राजा और सामान्य जन (प्रजा) देते हैं। के प्रासाद क्रमश: एक सौ आठ, चौसठ, बत्तीस और सोलह हाथ ० भाव परिक्षेप-राजा को धैर्यशाली, बाह्यसार-बल-वाहन आदि ऊंचे होते हैं। वास्तुविद्या-नैसर्प महानिधि में चक्रवर्ती आदि सभी और आभ्यन्तर सार-रत्न, स्वर्ण आदि से युक्त तथा बुद्धि और के भवन, उद्यान आदि की यही ऊंचाई प्रतिपादित है। पराक्रम से सम्पन्न जानकर अन्य राजा उसका परिहार कर देते हैं। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्य ४८४ आगम विषय कोश-२ १२. वैराज्य-विरुद्ध राज्य : निर्वचन एवं स्वरूप १३. मुनि के लिए वैराज्यगमन-निषेध क्यों? वेरं जत्थ उ रज्जे, वेरं जायं व वेररज्जं वा। नो कप्पइ निग्गंथाण. वेरज्जविरुद्धरजंसि....... जं च विरज्जइ रज्जं, रज्जेणं विगयरायं वा॥ सज्जंगमणागमणं करेत्तए।... (क १/३७) अणराए जुवराए, तत्तो वेरज्जए अ बेरज्जे।..... ....... दो सीमेऽइक्कमई, जिणसीमं रायसीमं च॥ अणरायं निवमरणे, जुवराया जाव दोच्च णऽभिसित्तो। ___ बंधं वहं च घोरं, आवज्जइ एरिसे विहरमाणो।.... वेरजं तु परबलं, दाइयकलहो उ बेरजं॥ (बृभा २७८२, २७८३) अविरुद्धा वाणियगा, गमणागमणं च होइ अविरुद्धं । .."यत्र तु द्वयोरपि राज्ञो राज्ये परस्परं गमनागमनं विरुद्धं निग्रंथ वैराज्य-विरुद्धराज्य में सद्यः गमनागमन नहीं कर सकते। वहां जाने से दो सीमाओं का अतिक्रमण होता हैतद् विरुद्धराज्यमुच्यते। यत्र तु वणिजां शेषजनपदस्य च निस्सञ्चारं कृतं-गमनागमननिषेधो विहितस्तद् वैराज्यं जिनसीमा (अर्हत्-आज्ञा) और राजसीमा। ऐसे निषिद्ध क्षेत्र में विहरण करने वाला घोर बंध और वध को प्राप्त होता है। विरुद्धमुच्यते। (बृभा २७६०, २७६३-२७६५ वृ) • वैराज्य गमन के अपवाद वैराज्य के पांच निर्वचन हैं दसण नाणे माता, भत्तविसोही गिलाणमायरिए। ० जिस राज्य में पूर्व परम्परागत वैर चल रहा हो। अधिकरण वाद राय कुलसंगते कप्पई गंतुं॥ ० जिस राज्य में परम्परागत वैर नहीं किन्तु वर्तमान में वैर हो। सगुरु कुल सदेसे वा, नाणे गहिए सई य सामत्थे। ० जो राजा दूसरों के ग्राम, नगर आदि का दहन करवाने में अथवा वच्चइ उ अन्नदेसे, दंसणजुत्ताइअत्थो वा॥ छोटे-छोटे झगड़े करवाकर विरोध में रस लेता हो, उसका राज्य। ____."तत्रापि ये आसन्नतरा एकवाचनाकाश्चाचार्यास्तेषां ० जिस राज्य के मंत्री आदि प्रधान पुरुष राजा से विरक्त हों। समीपे दर्शनविशुद्धिकारणीया गोविन्दनियुक्तिः"सन्मति० जिस देश का राजा मृत्यु को प्राप्त हो गया अथवा राजा प्रवासी तत्त्वार्थप्रभृतीनि च शास्त्राणि तदर्थः""प्रमाणशास्त्रकुशलाहो गया है, वह राज्य अराजक होने से वैराज्य कहलाता है। वैराज्य के चार प्रकार हैं नामाचार्याणां समीपे गच्छेत्॥ (बृभा २७८४, २८८० वृ) १. अराजक–पूर्व राजा की मृत्यु के पश्चात् नये राजा और युवराज निम्न कारणों से मुनि वैराज्य में जा सकता हैका अभिषेक न हो, तब तक वह राज्य अराजक कहलाता है। ० दर्शनशास्त्र और आगमग्रंथों की विशद जानकारी के लिए। २. यौवराज्य-वह राज्य, जो पूर्व राजा द्वारा युवराजपद पर अभिषिक्त किसी के माता-पिता प्रव्रजित होना चाहते हैं या वे शोकाकुल हैं व्यक्ति से अधिष्ठित है, किन्तु उस युवराज ने अभी तक दूसरे तो उन्हें समाधान देने के लिए। युवराज का अभिषेक नहीं किया है। ० अनशनकामी मुनि गीतार्थ के पास आलोचना करने के लिए ३. वैराज्य-जहां शत्रुसेना आकर विप्लव या उत्पात करती है। अथवा गीतार्थ स्थिरवासी अनशनकामी की विशोधि के लिए। ४. द्वैराज्य-जहां दो गुटों का राज्य हो। वे दोनों गुट सगोत्रीय भी . ग्लान मुनि की परिचर्या या ग्लानप्रायोग्य औषध लाने के लिए। हो सकते हैं अथवा विरोधी भी हो सकते हैं। दोनों के अपनी- आचार्य की उपासना या आचार्य के आदेश-पालन के लिए। अपनी सेना होती है। दोनों प्रायः कलहरत होते हैं। ० कदाचित् किसी मुनि का गृहस्थ के साथ अधिकरण हो गया हो, जिस वैराज्य में वणिक परस्पर अविरुद्ध रूप से गमनागमन । गृहस्थ उपशांत नहीं हो रहा हो तो प्रज्ञापनालब्धिसंपन्न मुनि उसे करते हों, वहां मुनि गमनागमन कर सकता है। विरुद्धराज्य-जहां उपशांत करने के लिए। दोनों ही राजाओं के राज्य में परस्पर गमनागमन विरुद्ध हो, वह वादलब्धिसम्पन्न मुनि वादी का निग्रह करने के लिए। विरुद्धराज्य कहलाता है। जहां वणिक् तथा शेष जनपद का गमना- ० साधुओं से रुष्ट-प्रद्विष्ट राजा को उपशांत करने के लिए। गमन निषिद्ध है, वह वैराज्य विरुद्धराज्य कहलाता है। ० कुल, गण आदि से संबद्ध कार्य के लिए। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४८५ रात्रिभोजनविरमण ० अभिनव श्रुतग्रहण के लिए। अपने गुरु से सम्पूर्ण श्रुत और अर्थ १४. राज्य में होने वाले उत्सव प्राप्त कर लिया, किन्तु श्रुतग्रहण का सामर्थ्य अभी विद्यमान है, ... समवाएसु वा पिंडनियरेसु वा इंदमहेसु वा खंदमतब शिष्य अपने ही देश में साधर्मिक कुल के आचार्य के पास, हेसु वा रुद्दमहेसु वा मुगुंदमहेसु वा भूतमहेसु वा जक्खमहेसु उसके अभाव में दूसरे कुल के आचार्य के पास जाकर शेष श्रुत को वा णागमहेसु वा थूभमहेसु वा, चेतियमहेसु वा रुक्खमहेसु ग्रहण करे। स्वदेश में उस प्रकार के बहुश्रुत आचार्य न होने पर वा गिरिमहेसु वा दरिमहेसु वा, अगडमहेसु वा तडागमहेसु अन्य देश में जाए। उनमें भी पहले निकटस्थ एक वाचना वाले वा दहमहेसु वा णदिमहेसु वा सरमहेसु वा सागरमहेसु वा आचार्य के पास जाए। सम्पूर्ण श्रुत के ग्रहण के बाद प्रतिभा का आगरमहेस वा.....। (नि ८/१४) सामर्थ्य होने पर दर्शन-विशुद्धि करने वाले गोविन्दनियुक्ति, मूर्धाभिषिक्त राजा के राज्य में अनेक प्रकार के मह (उत्सव) सन्मतितर्क, तत्त्वार्थ सूत्र आदि ग्रंथों का अध्ययन करने के लिए होते थे। यथा-समवाय (गोष्ठीभक्त), पितृपिण्डदानमह, इन्द्रमह, प्रमाणशास्त्र में कुशल आचार्यों के पास जाए। स्कन्दमह, रुद्रमह, मुकुन्दमह, भूतमह, यक्षमह, नागमह, स्तूपमह, ० राज्यनिर्गमन -वैराज्यप्रवेश की विधि चैत्यमह, वृक्षमह, गिरिमह, दरीमह, कूपमह, तडागमह, द्रहमह, आपुच्छिय आरक्खिय-सेट्ठि-सेणावई-अमच्च-राईणं। नदीमह, सरोवरमह, सागरमह, आकरमह । अइगमणे निग्गमणे, एस विही होइ नायव्वो॥ रात्रिभोजनविरमण-रात्रिभोजन का वर्जन। आरक्खितो विसज्जइ, अहव भणिज्जा स पुच्छह तु सेटुिं। जाव निवो ता नेयं, मुद्दा पुरिसो व दूतेणं । | १. रात्रिभोजन के विकल्प - * रात्रिभोजनविरमण : छठा व्रत द्र महाव्रत जत्थ वि य गंतुकामा, तत्थ वि कारिंति तेसि नायं तु। २. रात्रिभोजन : मूलगुणप्रतिसेवना आरक्खियाइ ते वि य, तेणेव कमेण पुच्छंति॥ ___ * रात्रिभोजन : शबलदोष द्र चारित्र (बृभा २७८६-२७८८) ३. कालातिक्रांत रात्रिभोजन वैराज्य में जाने के इच्छुक मुनि को अनुज्ञा लेनी होती ४. उद्गार निगलने का प्रायश्चित्त है। अनुज्ञा-पृच्छा के लिए पांच व्यक्ति अधिकृत होते हैं ० उद्गार और अन्नगंध से व्रतभंग नहीं आरक्षिक, नगरसेठ, सेनापति, अमात्य और राजा। गमन हेतु १. रात्रिभोजन के विकल्प पूछने पर यदि आरक्षिक अनुज्ञा दे देते हैं तो अच्छा है और जे भिक्खूदिया असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा यदि वे कहें कि नगरसेठ आदि की आज्ञा लें तो वैसा करना पडिग्गाहेत्ता दिया भुंजति॥"दिया असणं वा "पडिग्गाहेत्ता होता है। अनुज्ञाप्राप्ति के पश्चात् उनके पास से मुद्रापट्टक रत्तिं भुजति"""""रत्तिं असणं वा..."पडिग्गाहेत्ता दिया अथवा दूत की अन्वेषणा करनी चाहिए, जिससे राज्य के भुंजति रत्तिं असणं वा""पडिग्गाहेत्ता रत्तिं ,जति ॥ स्थानपालक आदि यह विश्वास कर सकें कि ये मुनि राजा "आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घातियं॥ आदि के द्वारा अनज्ञात हैं । परराज्य में प्रवेश और पूर्व राज्य से __(नि ११/७५-७८, ९३) निर्गमन की यह विधि है। रात्रिभोजन के चार विकल्प हैंजिस राज्य में वे जाना चाहते हैं, वहां यदि साध पहले से १. जो भिक्षु दिन में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का प्रतिग्रहण ही विद्यमान हों तो उन्हें लेखप्रेषण या संदेशकप्रेषण द्वारा पहले ही कर दिन में (गृहस्थ द्वारा प्रथम दिन सोद्देश्य स्थापित आहार को सूचित कर देना चाहिए कि हम वहां आना चाहते हैं। आप दूसरे दिन ग्रहण कर) खाता है, आरक्षिक आदि से पूछ लें। उनके द्वारा अनुज्ञा की सूचना मिलने २. दिन में (सूर्यास्त से पहले) अशन आदि का प्रतिग्रहण कर पर मुनि वहां के लिए प्रस्थान करें। रात्रि में (सूर्यास्त के पश्चात्) खाता है, Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रिभोजनविरमण ३. रात्रि में (सूर्योदय से पहले) अशन आदि का प्रतिग्रहण कर दिन में (सूरज उगने पर) खाता है, ४. रात्रि में अशन आदि का प्रतिग्रहण कर रात्रि में खाता है, वह गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। २. रात्रिभोजन : मूलगुणप्रतिसेवना मूलगुणे छट्ठाणा' मूलगुणा आद्यगुणा प्रधानगुणा इत्यर्थः । तेसु पडिसेवणा जा सा छट्टाणा भवति पाणातिवाओ, मुसावाओ, अदत्तादाणं, मेहुणं, परिग्गहो, रातीभोयणं च । (निभा ८९ चू) आद्य गुणों- प्रधानगुणों को मूलगुण कहा गया है। उनमें प्रतिसेवना के छह स्थान हैं। वे ये हैं- प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और रात्रिभोजन । ३. कालातिक्रांत रात्रिभोजन भिक्खू य उग्गयवित्तीए अणत्थमियसंकप्पे संथडिए निव्वितिगिच्छे असणं वा पडिग्गाहेत्ता आहारमाहारेमाणे अह पच्छा जाणेज्जा - अणुग्गए सूरिए अत्थमिए वा, से जं च मुहे जं च पाणिंसि जं च पडिग्गहे तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ, तं अप्पणा भुंजमाणे अण्णेसिं वा दलमाणे राई भोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥ (क ५/६) सूर्योदय के पश्चात् और सूर्यास्त से पहले भिक्षाचर्या करने की प्रतिज्ञा वाला असंदिग्ध समर्थ भिक्षु अशन आदि का प्रतिग्रहण कर आहार करता हुआ बाद में जाने कि सूर्योदय नहीं हुआ है या अस्त हो गया है, तो वह जो आहार मुंह में, हाथ में और पात्र में है, उसका व्युत्सर्ग-विशोधन करता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता। उस आहार को स्वयं खाता है अथवा दूसरों को देता है तो उसे रात्रिभोजन - प्रतिसेवनाप्रत्ययिक गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । ४. उद्गार निगलने का प्रायश्चित्त इह खलु निग्गंथस्स वा निग्गंथीए वा राओ वा वियाले वा सपाणे सभोयणे उग्गाले आगच्छेज्जा.....तं ४८६ आगम विषय कोश - २ उग्गिलित्ता पच्चोगिलमाणे राईभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउ - म्मासयं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥ (क ५/१०) निग्रंथ अथवा निर्ग्रथी को रात्रि में या विकाल (संध्या) में पानी- भोजन सहित उद्गार आये, उसका विसर्जन-विशोधन करता हुआ वह आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता। यदि वह उस उद्गार को पुनः निगलता है तो उसे रात्रिभोजनप्रतिसेवना से प्राप्त होने योग्य गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। • उद्गार और अन्नगंध से व्रतभंग नहीं ........न अण्णगंधा, हणंति छट्टं जहेव उग्गारा ।....... (बृभा १७३७) जैसे उद्गार रात्रि में आने पर भी छठे व्रत - रात्रिभोजनविरमण व्रत का उपहनन नहीं करते, वैसे ही भोजन की गंध छठे व्रत का विनाश नहीं करती। * रात्रिभोजनवर्जन...... द्र श्रीआको १ रात्रिभोजनविरमण रोग-व्याधि | द्र चिकित्सा लवसत्तम - एक भवावतारी देव । द्र देव लेश्या - तैजस शरीर के साथ कार्य करने वाली चेतनाभावधारा और उसमें हेतुभूत पुद्गल । १. द्रव्यलेश्या और भावलेश्या २. परिणामों की विविधता : वीचि आदि उपमाएं • लेश्या स्थान और परिणामस्थान ३. लेश्या के अनुसार कर्मबंध ४. भावविशोधि से मोह- अपचय * चंचलता-एकाग्रता का हेतु * जिनकल्पी में लेश्या १. द्रव्यलेश्या और भावलेश्या वण्ण-रस-गंध-फासा, इट्ठाऽणिट्ठा विभासिया सुत्ते । अहिकिच्च दव्वलेसा, ताहि उ साहिज्जई भावो ॥ पत्तेयं पत्तेयं, वण्णाइगुणा जहोदिया सुत्ते । तारिसओ च्चिय भावो, लेस्साकाले वि लेस्सीणं ॥ द्र ध्यान द्र जिनकल्प Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४८७ लेश्या द्रव्यलेश्या नाम जीवस्य शुभाशुभपरिणामरूपायां कालभेद से संख्यातीत अध्यवसायस्थान होते हैं। भावलेश्यायां परिणममानस्योपष्टम्भजनकानि कृष्णादीनि जैसे नर्तकी त्वरा से बांस पर चढती-उतरती है, वैसे ही पुदगलद्रव्याणि। ताभिश्च द्रव्यलेश्याभिः भावः शुभा- शुभ-अशुभ परिणामों में आरोह-अवरोह होता है। शुभाध्यवसायरूपः साध्यते। (बृभा १६४४, १६४५ वृ) ० लेश्यास्थान और परिणामस्थान १. द्रव्यलेश्या-प्रज्ञापनासूत्र (१७) और उत्तराध्ययनसूत्र (३४) लेस्सट्ठाणेसु एक्केक्के, ठाणसंखमतिच्छिया। __ में कृष्ण आदि छह लेश्याओं के इष्ट और अनिष्ट वर्ण, गन्ध, रस किलिटेणेतरेणं, वा जे तु भावेण खंदती॥ तथा स्पर्श वर्णित हैं-ये सब द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से हैं। "खंदति आस्कन्दति प्राप्नोतीत्यर्थः । "कृष्णलेश्याजीव के शुभ-अशुभ परिणाम रूप भावलेश्या के परिणमन परिणामान्नीललेश्यापरिणामो विशद्धो नीललेश्यापरिणामामें अवलम्बनभूत कृष्ण आदि पदगल द्रव्य द्रव्यलेश्या है। दपि कापोतलेश्यापरिणामो विशुद्धस्तस्मादपि तेजोलेश्या२. भावलेश्या-शुभ-अशुभ अध्यवसाय भावलेश्या है। जैसी शुभ- परिणामो विशुद्धस्तस्मादपि पद्मलेश्यापरिणामो विशुद्धस्त__ अशुभ वर्ण-रस-गंध-स्पर्शमयी द्रव्यलेश्या होती है, वैसी ही स्मादपि शक्ललेश्यापरिणामः । शक्ललेश्यापरिणामात् लेश्याकाल में लेश्यावान् की भावलेश्या होती है। पद्मलेश्यापरिणामः क्लिष्टस्तस्मादपि.. कृष्णलेश्या(लेश्या का पौद्गलिक स्वरूप तैजसवर्गणा, प्रवर्तक शक्ति परिणामः। (व्यभा २७६५ वृ) __ वीर्यलब्धि और घटक शक्ति शरीरनामकर्म है। यह आभामंडल या वर्ण का हेतु है।...-- श्रीआको १ लेश्या) एक लेश्यास्थान में संख्यातीत परिणामस्थान होते हैं, जिनकी प्राप्ति का कारण है-संक्लिष्ट-असंक्लिष्ट भाव। २. परिणामों की विविधता : वीचि आदि उपमाएं कृष्णलेश्या के परिणामों से नीललेश्या के परिणाम तथा जहा य अंबुनाधम्मि, अणुबद्धपरंपरा।। नीललेश्या के परिणामों से भी कापोतलेश्या के परिणाम शुद्ध होते वीई उप्पज्जई एवं, परिणामो सुभासुभो॥ हैं। उससे भी तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या के परिणाम कण्हगोमी जधा चित्ता, कंटयं वा विचित्तयं। क्रमशः शुद्ध, शुद्धतर और शुद्धतम होते हैं। तधेव परिणामस्स, विचित्ता कालकंडया॥ शुक्ललेश्या के परिणाम से पद्मलेश्या का परिणाम तथा लंखिया वा जधा खिप्पं, उप्पतित्ता समोवए। पद्मलेश्या के परिणाम से भी तेजोलेश्या का परिणाम क्लिष्ट होता परिणामो तहा दुविधो, खिप्पं एति अवेति य॥ है, उससे भी कापोतलेश्या, नीललेश्या और कृष्णलेश्या का परिणाम ""कृष्ण (कर्ण) शृगाली यथा सा कृष्णादिभी रेखा उत्तरोत्तर अधिक संक्लिष्ट होता है। भिश्चित्रा विचित्रवर्णा भवति। वृश्चिकस्य महाविषलांगूलं कण्टक उच्यते।"कालभेदेन कण्डकान्यसंख्येयस्थानात्म ३. लेश्या के अनुसार कर्मबंध जं चिज्जए उ कम्मं, जं लेसं परिणयस्स तस्सुदओ। कानि भवन्ति। (व्यभा २७६२-२७६४ वृ) असुभो सुभो व गीतो, अपत्थ-पत्थऽन्न उदओ वा॥ जैसे समुद्र में एक के बाद एक लहर उठती रहती है, वैसे (बृभा १६४६) __ ही जीव के अनुबद्ध परम्परा वाले शुभ-अशुभ परिणाम उत्पन्न होते रहते हैं। शुभ या अशुभ लेश्या में परिणत जीव के शुभ या अशुभ जैसे कर्णशृगाली और वृश्चिककंटक (बिच्छू की पूंछ) कर्मों का बन्ध होता है। वे बद्ध कर्म ही उदयावलिका को प्राप्त कृष्ण आदि रेखाओं के कारण विचित्र वर्ण वाले होते हैं. वैसे ही कर शुभ या अशुभ रूप में उदय में आते हैं। जैसे अपथ्य तथा पथ्य कृष्ण लेश्या आदि के कारण परिणामों की विचित्रता होती है- आहार रोग और आरोग्य के रूप में परिणत होता है। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक ४८८ आगम विषय कोश-२ ४. भावविशोधि से मोह-अपचय प्रतिष्ठित है। २. समुद्र वायु पर प्रतिष्ठित है। ३. पृथ्वी समुद्र पर विसुझंतेण भावेण, मोहो समवचिज्जति। प्रतिष्ठित है। ४. त्रस-स्थावर प्राणी पृथ्वी पर प्रतिष्ठित हैं। मोहस्सावचए वावि, भावसुद्धी वियाहिया॥ ५. अजीव जीव पर प्रतिष्ठित हैं। ६. जीव कर्म से प्रतिष्ठित हैं। (व्यभा २७६७) ७. अजीव जीव के द्वारा संगृहीत हैं। ८. जीव कर्म द्वारा संग्रहीत हैं। लेश्यागत विशुद्धयमान भावों से मोह अपचित होता है। आकाश स्व-प्रतिष्ठित है।... पृथ्वी उदधि पर प्रतिष्ठित मोह के अपचय से भावविशोधि होती है। है, यह सापेक्ष वचन है। ईषत्-प्राग्भारा पृथ्वी आकाश पर प्रतिष्ठित है। पृथ्वी-प्रतिष्ठित त्रस-स्थावर प्राणी हैं। यह भी सापेक्ष वचन लोक-विश्व, जगत्। है। वे आकाश-पर्वत-विमान-प्रतिष्ठित भी हैं। १. लोकमध्य मंदर : द्विधा लोक जितने दृश्य-परिवर्तन और परिणमन हैं, वे जीव के द्वारा २. वैताढ्य""मंदरगिरि का अवगाहन कृत हैं। जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह या तो जीवच्छरीर है या ३. द्वीप-समुद्र जीव-मुक्त शरीर है। इस अपेक्षा से अजीव जीव पर प्रतिष्ठित है। ४. कर्मभूमियां : भरत-ऐरवत-विदेह जीव के जितने परिवर्तन और विविध रूप हैं. वे सब कर्म ० भरतक्षेत्र : छह खंड द्वारा निष्पन्न हैं। इस अपेक्षा से जीव कर्म-प्रतिष्ठित है। ० महाविदेह आदि में अवस्थित काल अजीव जीव के द्वारा संग्रहीत हैं, उनमें कथञ्चित् एकात्मक ५. अधोलोकग्राम संबंध स्थापित होता है। इसलिए उनमें परिवर्तन घटित होता है। कर्म का जीव के साथ संबंध स्थापित होता है। इसलिए १. लोकमध्य मंदर : द्विधा लोक पुव्वावरायया खलु, सेढी लोगस्स मज्झयारम्मि। उनके द्वारा जीव में परिवर्तन घटित होता है। भ १/३१० वृ) जा कणड दहा लोगं, दाहिण तह उत्तरद्धं च॥ २. वैताढ्य... मंदरगिरि का अवगाहन इह सर्वस्यापि लोकस्य"मध्यभागे मन्दरस्य पर्वत ओगाहणग्ग सासतणगाण उस्सतचउत्थभागो उ। स्योपरि श्रेणिः' आकाशप्रदेशपंक्तिरेकप्रादेशिकी''प्रदीर्घा मंदरविवज्जिताणं, जं वोगाढं तु जावतियं॥ अंजणग-दहिमखाणं, कंडल-रुयगं च मंदराणं च। समस्ति, या श्रेणिर्लोकमेकरूपमपि द्विधा करोति। तद्यथा ओगाहो उ सहस्सं, सेसा पादं समोगाढा॥ दक्षिणलोकार्धमुत्तरलोकार्धं च। (बृभा ६७२ वृ) ..."अवगाह अधस्तात् प्रवेश इत्यर्थः ।"पव्वता""जे सम्पूर्ण लोक के मध्यभाग में मंदर पर्वत पर श्रेणि-एक जंबुद्दीवे वेयडाइणो ते घेप्पंति, ण सेसदीवेसु।"वेयड्वस्स प्रादेशिकी आकाशप्रदेशपंक्ति पूर्व से पश्चिम तक आयत-प्रदीर्घ पणवीसजोयणाणुस्सओ तेसिं चउत्थभागेण छजोयणाणि है, जो एक रूपात्मक लोक को दो भागों में विभक्त करती है- सपादा तस्स चेवावगाहो भवति। (निभा ५१, ५२ चू) दक्षिणलोकार्ध और उत्तरलोकार्ध। जम्बूद्वीप में मंदरगिरि को छोड़कर शेष वैताढ्य आदि जो * षड्द्रव्यात्मक लोक द्र श्रीआको १ लोक शाश्वत पर्वत हैं, उनका अवगाहन-अधस्तात् प्रवेश उनकी ऊंचाई (पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व ने लोक को शाश्वत कहा है। का चतुर्थ भाग है। जैसे-पचीस योजन ऊंचा वैताढ्य सवा छह वह अनादि, अनन्त, परीत, अलोक से परिवृत, निम्नभाग में योजन पृथ्वी के भीतर गहरा है। अंजन, दधिमुख, कुण्डल, रुचक विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर विशाल है। वह निम्न भाग में और मंदर पर्वत एक हजार योजन पृथ्वी के भीतर हैं। पर्यंक के आकार वाला, मध्य में उसकी आकृति श्रेष्ठ वज्र जैसी है और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाला है।.....-भ ५/२५५ दीवा जंबुद्दीवधाततिसंडातिणो। उदही समुद्दा, ते य लोकस्थिति आठ प्रकार की है- १. वायु आकाश पर लवणाइणो। (निभा ६१ की चू) Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपराजित द्वार: उत्तर AN peror) . मनुम्यो तर प. UP . CATE PHru L DAAL बतादा कामावृधि (समुद्र 1 SEAN -Pr. 2.AM ICILE मनप्योत्तर पर्वत Pramina R PORA ARTHAPPO0220 A जयंत द्वार पमिम ISREE A hunni AN विजय द्वार पूर्व KELEBRS प ORORS ALI FORM 02-N to aihe SAA af PROD Vipassports ar Lamatarvana Fitra artmनो CLFant ANGE VAON HTTA MALE ANTARVEEROcts ना E-/avmgana मनुष्योत्तर पर्वत पूर्वमा काजकीया गानोदधि(समुह) दावत मनम्योत्तर पर्वत पधिभरत SANA जेभरताच बजयंत नारदक्षिण अढाई द्वीप का नक्शा Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ लोक में जम्बूद्वीप, धातकीखंड, पुष्कर आदि असंख्य द्वीप हैं। लवण, कालोदधि आदि असंख्य समुद्र हैं। (जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र पुष्कर द्वीप, वरुण समुद्र घृत, इक्षु .....कुण्डलवर, रुचकवर आभरण, वस्त्र आदि असंख्य द्वीप समुद्र हैं, जिनमें अंतिम है स्वयंभूरमण समुद्र । - अनु १८५ जम्बूद्वीप सब द्वीपसमुद्रों के मध्य में है। वह सबसे छोटा है । वह तेल के पूडे, रथ के चक्के, कमल की कर्णिका तथा प्रतिपूर्ण चन्द्र के संस्थान जैसा वृत्त है। वह एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है। उसकी परिधि तीन लाख, सोलह हजार, दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष, साढ़े तेरह अंगुल कुछ विशेषाधिक है । वह परिधि (जगती) आठ योजन ऊंची, नीचे बारह योजन, मध्य में आठ योजन और ऊपर चार योजन चौड़ी तथा गोपुच्छसंस्थानसंस्थित है । - जम्बू १ / ७, ८ जम्बूद्वीप में दस क्षेत्र हैं, जैसे- भरत, ऐरवत, हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, देवकुरु, उत्तरकुरु, पूर्वविदेह और अपरविदेह । - अनु ५५६) ४. कर्मभूमियां : भरत - ऐरवत - विदेह कर्मभूमीषु भरतपञ्चकैरावतपञ्चकविदेहपञ्चकलक्षणासु'''''। (बृभा १४१५ की वृ) पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह - ये पन्द्रह कर्मभूमियां हैं। * कर्मभूमि- अकर्मभूमि- अन्तद्वप द्र श्रीआको १ मनुष्य o भरत क्षेत्र : छह खंड चक्रवर्त्तिप्रभृतिको षट्खण्डभरतादेः क्षेत्रस्य प्रभुत्वमनुभवति । (बृभा ६६९ की वृ) भरतक्षेत्र के छह खंड (पांच म्लेच्छ खंड और एक आर्यखंड) हैं, जिन पर चक्रवर्ती आदि का आधिपत्य होता है। (चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, दक्षिण लवणसमुद्र के उत्तर में, जम्बूद्वीप द्वीप में भरतक्षेत्र है, जो उत्तर में पर्यंकसंस्थानसंस्थित, दक्षिण में धनुपृष्ठसंस्थित, तीन ओर से लवण समुद्र से स्पृष्ट तथा गंगा-सिंधु महानदियों और वैताढ्य पर्वत से छह भागों में विभक्त है । - जम्बू १ / १८ जम्बूद्वीप में मंदर पर्वत के उत्तर-दक्षिण में दो क्षेत्र हैं लोक भरत दक्षिण में, ऐरवत उत्तर में वे दोनों क्षेत्र प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं। नगर, नदी आदि की दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है। कालचक्र के परिवर्तन की दृष्टि से उनमें नानात्व नहीं है। वे लम्बाई, चौड़ाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते । -स्था २ / २६८ ) महाविदेह आदि में अवस्थित काल नोअवसर्पिण्युत्सर्पिणीरूपे अवस्थितकाले चत्वारः प्रतिभागाः "सुषमसुषमाप्रतिभागः सुषमाप्रतिभागः सुषमदुःषमाप्रतिभागः दुःषमसुषमाप्रतिभागश्चेति । तत्राद्यो देवकुरूत्तरकुरुषु, द्वितीय हरिवर्षरम्यकवर्षयोः, तृतीयो हैमवतैरण्यवतयोः, चतुर्थस्तु महाविदेहेषु । (बृभा १४१७ की वृ) जहां अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी रूप कालविभाग नहीं है, अवस्थित काल है, वैसे चार प्रतिभाग हैं और चार क्षेत्र हैं१. सुषमसुषमा प्रतिभाग – देवकुरु और उत्तरकुरु में । २. सुषमा प्रतिभाग - हरिवर्ष और रम्यकवर्ष में । ३. सुषमदुःषमा प्रतिभाग - हैमवत और ऐरण्यवत में । ४. दुःषमसुषमा प्रतिभाग - महाविदेह में । ४८९ ० ( भरत क्षेत्र में कालखण्ड दो भागों में विभक्त हैअवसर्पिणीकाल और उत्सर्पिणीकाल । प्रत्येक के छह अर (विभाग) हैं। वर्तमान में अवसर्पिणीकाल का दुःषमा नाम का पांचवां अर चल रहा है, जिसका कालमान इक्कीस हजार वर्ष है। इस अर के पश्चिम भाग में गणधर्म, पाषण्डधर्म, राजधर्म और अग्नि- ये चारों विच्छिन्न हो जाएंगे। फिर छठा अर प्रारंभ होगा, जो इक्कीस हजार वर्ष तक चलेगा। दुःषमदुःषमा काल नामक छठे अर में होने वाली पर्यावरणीय परिस्थिति का जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में रोमांचक विस्तृत विवेचन है, जिसका सारांश इस प्रकार है - • प्रलयंकार वायु चलेगी। o दिशाएं धूमिल हो जाएंगी। • चन्द्रमा से अधिक ठंड निकलेगी । ० सूर्य अधिक तपेगा । ० वर्षा वैसी होगी, जिसका पानी व्याधि पैदा करने वाला होगा एवं पीने योग्य नहीं होगा। • वर्षा तूफानी हवा के साथ इतनी तेज बरसेगी, जिससे ग्रामनगर, पशु-पक्षी तथा वनस्पति-जगत का विध्वंस हो जाएगा। Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्त्र ४९० आगम विषय कोश-२ ० वैताढ्य गिरि को छोड़ शेष पर्वत, डूंगर नष्ट हो जाएंगे। ० गंगा-सिन्धु को छोड़ शेष नदियां समतल बनेंगी। ० भूमि अंगारे की भांति तप्त, धूलि-बहुल हो जाएगी। ० मनुष्य सौन्दर्य, सदाचार और शक्ति से हीन हो जाएगा। ० मनुष्य के शरीर की ऊंचाई २४ अंगुल हो जाएगी। ० कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) प्रबल हो जाएगा। ० भोजन पोषणहीन होगा और रोग बढ़ जाएंगे। ० आयुष्य का कालमान १६ से २० वर्ष जितना होगा। ० प्राणी मरकर प्रायः नरक और तिर्यंच योनि में उत्पन्न होंगे। इक्कीस हजार वर्ष वाले इस अर के बीतने पर उत्सर्पिणी कालखंड का प्रथम अर प्रारंभ होगा।-जम्बू २/१२९-१३८) ५. अधोलोकग्राम ___जम्बूद्वीपापरविदेहवर्त्तिनलिनावती-वप्राभिधानविजययुगलसमुद्भवा योजनसहस्रोद्वेधाः समयप्रसिद्धा येऽधोलोकग्रामा:"। (बृभा ६७५ की वृ) जम्बूद्वीप के पश्चिमविदेहक्षेत्रवर्ती नलिनीवती और वप्राइन दो विजयों में समुद्भूत हजार योजन गहरे अधोलोक ग्राम हैं। (इन पर चक्रवर्ती का आधिपत्य होता है। द्र अवग्रह) वनस्पति-जीवनिकाय का एक भेद। द्र जीवनिकाय वन्दना-अभिवादन । स्तुति। द्र कृतिकर्म वर्गणा-सजातीय पुद्गल समूह। द्रद्रव्य वर्षावास-चातुर्मास। द्र पर्युषणाकल्प वसति-उपाश्रय। द्र शय्या वस्त्र-कपास आदि के तंतुओं से निर्मित पट। १. वस्त्र के प्रकार : जांगिक आदि __ * कृत्स्न वस्त्र और सुलक्षण वस्त्र द्र उपधि २. चर्ममय प्रावरण के प्रकार ३. महामूल्यवान् वस्त्रों के प्रकार १. वस्त्र के प्रकार : जांगिक आदि दव्वे तिविहं एगिंदि-विगल-पंचेंदिएहिँ निप्फन्नं ।.... (बृभा ६०४) वस्त्र के तीन प्रकार हैं-१. एकेन्द्रिय निष्पन्न-सती वस्त्र। २. विकलेन्द्रिय निष्पन्न-रेशमी वस्त्र। ३. पंचेन्द्रिय निष्पन्न-भेड़, ऊंट आदि की ऊन से निष्पन्न वस्त्र। """जंगियं वा भंगियं वा साणयं वा पोत्तगं वा खोमियं वा तूलकडं वा तहप्पगारं वत्थं। (आचूला ५/१) वस्त्र के छह प्रकार हैं-जांगिक, भांगिक, सानक, पोतक, क्षौमिक और तूलकृत (अर्कतूल से निष्पन्न)। इनमें प्रथम प्रकार (जांगिक) विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय से निष्पन्न तथा शेष पांच प्रकार एकेन्द्रिय से निष्पन्न हैं। जंगमजायं जंगिय, तं पुण विगलिंदियं च पंचिंदी।.... पट्ट सुवन्ने मलए, अंसुग चीणंसुके च विगलेंदी। उण्णोट्टिय मियलोमे, कुतवे किट्टे त पंचेंदी॥ अतसी-वंसीमादी, उ भंगियं साणियं च सणवक्के। पोत्तय कप्पासमयं, तिरीडरुक्खा तिरिडपट्टो॥ (बृभा ३६६१-३६६३) ० जांगिक-जंगम (स) जीवों के अवयवों से निष्पन्न वस्त्र। जांगिक के दो प्रकार हैं-१. विकलेन्द्रियज और २. पंचेन्द्रियज। विकलेन्द्रिय से निष्पन्न-० पट्टसूत्रज-पट्टसूत्र से निष्पन्न। ० सुवर्णसूत्रज-किन्हीं-किन्हीं कृमियों से सुवर्ण वर्ण वाला सूत्र निष्पादित होता है, उससे निष्पन्न वस्त्र। ० मलयज-मलयदेश में उत्पन्न कीड़ों से बना वस्त्र। ० अंशुक-अत्यन्त मृदु सूत्र से निष्पन्न वस्त्र। ० चीनांशुक-'कोशिकार' कृमि से निष्पन्न सूत्र से अथवा चीन देश में उत्पन्न अत्यंत मृदु रेशमसूत्र से बना वस्त्र। पंचेन्द्रिय से निष्पन्न-० और्णिक-भेड़ की ऊन से निष्पन्न। ० औष्ट्रिक-ऊंट के केशों से निष्पन्न। ० मृगरोमज-मृग के रोमों से निष्पन्न। ० कुतव-छाग के रोमों से निष्पन्न। ० किट्टऊर्णारोम आदि के अवयवों से निष्पन्न। एकेन्द्रिय से निष्पन्न-० भांगिक-अतसी अथवा वंशकरीर के मध्य से निकाले रेशे से निष्पन्न। सानक-सन वृक्ष की छाल से निष्पादित। ० पोतक-कपास से बना वस्त्र। ० तिरीटपट्ट-तिरीट वृक्ष की छाल से बना वस्त्र। (वस्त्र के पांच प्रकार हैं-अंडज, बोंडज, कीटज, बालज और वल्कज। इनका जांगिक आदि में समावेश होता है Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४९१ वस्त्र जांगमिक-अंडज, कीटज और बालज। वा, आयकाणि वा, कायकाणि वा, खोमयाणि वा, दुगुल्लाणि भांगिक-सानिक-तिरीटपट्ट-वल्कज वा, मलयाणि वा, पत्तण्णाणि वा, अंसयाणि वा, चीणंसुयाणि पोतक-बोंडज। द्र श्रीआको १ सूत्र) वा, देसरागाणि वा, अमिलाणिवा, गज्जलाणि वा, फालियाणि २. चर्ममय प्रावरण के प्रकार वा, कोयहा (वा? )णि वा, कंबलगाणि वा, पावाराणि वा"। ___."आईणपाउरणाणि वत्थाणि..."उद्दाणि वा, पेसाणि आजिनानि मूषकादिचर्मनिष्पन्नानि, श्लक्ष्णानि सूक्ष्माणि वा, पेसलेसाणि वा, किण्हमिगाईणगाणि वा, णील- च तानि वर्णच्छव्यादिभिश्च कल्याणानि-शोभनानि वा मिगाईणगाणि वा, गोरमिगाईणगाणि वा, कणगाणि वा, सूक्ष्मकल्याणानि, आयाणि त्ति क्वचिद्देशविशेषेऽजाः कणगकताणि वा, कणगपट्टाणि वा, कणगखइयाणि वा, सक्ष्मरोमवत्यो भवन्ति तत्पक्ष्मनिष्पन्नानि आजकानि भवन्ति, कणगफुसियाणि वा, वग्याणि वा, विवग्याणि वा, आभरणाणि तथा क्वचिद्देशे इन्द्रनीलवर्णः कर्पासो भवति तेन निष्पन्नानि वा, आभरणविचित्ताणि वा"। कायकानि, क्षौमिकं -सामान्यकासिकं, दुकूलंउद्राः-सिन्धुविषये मत्स्यास्तत्सूक्ष्मचर्मनिष्पन्नानि उद्राणि, गौडविषयविशिष्टकार्पासिकं, पट्टसूत्रनिष्पन्नानि पट्टानि, पेसाणि त्ति सिन्धुविषय एव सूक्ष्मचर्माणः पशवस्तच्चर्म- मलयानि-मलयजसूत्रोत्पन्नानि, पन्नुन्नं ति वल्कलतन्तुनिष्पन्नानीति, पेसलाणि त्ति तच्चर्मसूक्ष्मपक्ष्मनिष्पन्नानि निष्पन्न । (आचूला ५/१४ वृ) कनकरसच्चरितानि "कृतकनकरस-पट्टानि"कनकरसस्तब- ..आईणाणि वा"तिरीडपाणि वा"कोतवाणि वा"॥ काञ्चितानि"। (आचूला ५/१५ वृ) "सहिणं सूक्ष्म, कल्लाणं स्निग्धं, लक्षणयुक्तं वा" कणगसुत्तेण फुल्लिया जस्स पाडिया तं कणग आयं णाम तोसलिविसए सीयतलाए अयाणं खुरेसु सेवालखचितं चित्तग-चम्मं विवग्घाणि। एत्थ छपत्रिकादि एका तरिया लग्गति, तत्थ वत्था कीरंति। कायाणि कायविसए भरणेन मंडिता'चंदलेहिक-स्वस्तिक-घंटिक-मोत्तिकमादीहिं काकजंघस्स जहिं मणी पडितो तलागे तत्थ रत्ताणि जाणि मंडिता आभरणविचित्ता। (नि ७/१० की चू) ताणि कायाणि भण्णंति।पोंडमया खोम्मा, अण्णे भणंतिचर्ममय प्रावरण के अनेक प्रकार हैं रुक्खेहितो निग्गच्छंति।"दुगुल्लो रुक्खो तस्स वागो घेत्तुं ० उद्र वस्त्र-सिन्धु देश के मत्स्यों की सूक्ष्म चर्म से निष्पन्न। उदूखले कुट्टिजति पाणिएण ताव जाव झूसीभूतो ताहे ० पेश-सिन्ध देश के सक्ष्म चर्म वाले पशुओं की चर्म से निष्पन्न। कजति एतेस दगल्लो. तिरीडरुक्खस्स वागो. तस्स तंत ० पेशलेश/पेशल वस्त्र-सिन्धु देश के सूक्ष्म चर्म वाले पशुओं के पट्टसरिसो सो तिरीलपट्टो।"दुगुल्लातो अब्भंतरहिते जं सूक्ष्म रोओं से निष्पन्न। उप्पज्जति तं अंसुयं, सुहुमतरं चीणंसुयं भण्णति। चीणविसए ० कृष्णमृग, नीलमृग और गौरमृग के चर्म से निष्पन्न वस्त्र। . वा जं तं चीणंसुयं, जत्थ विसए जा रंगविधी ताए देसे रत्ता ० स्वर्णिम वस्त्र-स्वर्णरस में लिपटे वस्त्र। देसरागा। रोमेसु कया अमिला। गज्जित-समाणसदं करेंति कनकपट्ट-स्वर्ण रसपट्टियों वाले वस्त्र। ते गज्जला। फडिग-पाहाणनिभा फाडिगा अच्छा इत्यर्थः। ० कनकखचित-स्वर्णसूत्र से अंकित पुष्प वाले। कोतवो वरको... (नि ७/१० चू) ० कनकस्पृष्ट-स्वर्णचन्द्रिकाओं से स्पृष्ट । ० आजिन-चूहे आदि के चर्म से निर्मित वस्त्र। ० वैयाघ्र-विवैयाघ्र--व्याघ्रचर्म या चीते के चर्म से निष्पन्न। ० श्लक्ष्ण-सूक्ष्म या मुलायम वस्त्र। ० आभरण-एक आभरण से मंडित वस्त्र। ० श्लक्ष्ण कल्याण-सूक्ष्म स्निग्ध अथवा लक्षणयुक्त वस्त्र। ० आभरणविचित्र-स्वस्तिक, घंटिका, मौक्तिक आदि से मंडित। वर्ण-छवि आदि से शोभित वस्त्र। ३. महामूल्यवान् वस्त्रों के प्रकार ० आयक-आजक-देश विशेष की सूक्ष्मरोमवती अजा के रोमों "आजिणगाणिवा, सहिणाणिवा, सहिण-कल्लाणाणि से निष्पन्न। तोसली देश में शीतल जल वाले तालाब में अजाओं Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचना ४९२ आगम विषय कोश-२ के खरों में सेवाल के रेशे लग जाते हैं, उन रेशों से निष्पन्न वस्त्र। अथवा वनस्पति विशेष से बना वस्त्र। ० कायक-काय देश में काकजंघा (तण वनस्पति विशेषधुंघची) की मणि (अग्रभाग) जिस तालाब में गिरती है, उसकी आभा से रंजित वस्त्र। इन्द्रनीलवर्ण कपास से निर्मित वस्त्र। ० क्षौमिक-सामान्य कपास से निर्मित बारीक वस्त्र। अथवा फलों या वृक्षों के रेशों से निर्मित। ० दुकूल-गौड़ देश में उत्पन्न विशिष्ट कपास से निष्पन्न। दुकूल वृक्ष की छाल को ऊखल में कूटकर, भूसी जैसी बनाकर, पानी में भिगोकर, उसके रेशों से वस्त्र बनाया जाता है। ० तिरीटपट्ट-पट्ट-तिरीट वृक्ष की छाल के तंतु पट्टसदृश होते हैं, उन तंतुओं से निष्पन्न। पट्टसूत्रों से निष्पन्न। (द्र श्रीआको १ सूत्र) ० मलयज-मलय देश में मलयज सूत्र से निर्मित। ० पत्तुन्न-पत्रोर्ण, वल्कल तंतु से निष्पन्न। ० अंशुक-दुकूल वृक्ष के आभ्यंतर अवयव से निष्पन्न। ० चीनांशुक-दुकूल के सूक्ष्म सूत्र से अथवा चीन देश में निष्पन्न। ० देशराग-जिस देश में रंगने की जो विधि हो, उससे रंगा हुआ। ० अमिल-रोम देश में सूक्ष्म रोओं से निर्मित वस्त्र। ० गज्जल-बिजली के समान कड़कड़ शब्द करने वाला वस्त्र। ० स्फटिक-स्फटिक के समान निर्मल कंबल। ० कोयव-कोयव देश में निष्पन्न, रजाई। सिल्हक का सूता। ० कौतव-चूहे के रोमों से निष्पन्न। ० कम्बल और प्रावार। वस्त्रकल्पिक-'वस्त्रैषणा' अध्ययन का ज्ञाता। द्र उपधि वाचना-शिष्यों को आगम पढ़ाना, सूत्रार्थ प्रदान करना। १. वाचनीय और अवाचनीय * छेदसूत्र की वाचना के अयोग्य द्र छेदसूत्र * अपरिणामी-अतिपरिणामी अयोग्य द्र शिष्य ० अविनीत आदि को वाचना देने से हानि २. पात्र-अपात्र विवेक : पात्र को भी वाचना नहीं ३. वाचना के अयोग्य : अव्यक्त और अप्राप्त ४. अविधि से श्रुतग्रहण का प्रायश्चित्त ५. ज्ञानहेतु स्थविर भी कृतिकर्म करे ६. स्थविर के प्रति वाचनाचार्य का दायित्व | ७. वाचनाचार्य के प्रकार : सिंहानुग आदि ____ * वाचना संपदा द्र गणिसम्पदा ८. प्रवाचिका प्रवर्तिनी की अर्हता | * आर्यरक्षित तक साध्वी को छेदसूत्र की वाचना द्र छेदसूत्र | ९. सूत्रार्थ मण्डली व्यवस्था |१०. वाचना मण्डली के प्रकार : क्षेत्र आभवद् व्यवहार । पृच्छा और अवग्रह ११. मण्डली में अभ्युत्थान विधि १२. एकाग्रता से महान् उपलब्धि १३. उत्क्रम से आगमवाचना का निषेध | * आगम वाचना और संयम पर्याय * उद्देश-समुद्देश-अनुज्ञा द्र श्रुतज्ञान * वाचना परिमाण : ओज-अनोज उद्देशक * योगवहन और आहार द्र उत्सारकल्प * यथालन्दिक को वाचना द्र यथालंदकल्प १४. वाचना-स्वाध्याय से लाभ १. वाचनीय और अवाचनीय तओ नो कप्पंति वाइत्तए, तं जहा-अविणीए विगईपडिबद्धे अविओसवियपाहुडे॥ तओ कप्पंति वाइत्तए, तं जहा-विणीए नो विगईपडिबद्धे विओसवियपाहुडे॥ (क ४/६, ७) तीन प्रकार के व्यक्ति वाचना देने के अयोग्य होते हैं१. अविनीत, २. रसलोलुप, ३. अव्यवशमित प्राभूत-कलह का ठपशमन नहीं करने वाला। तीन वाचना के योग्य होते हैं-१. विनीत, २. विकृति में अप्रतिबद्ध, ३. व्यवशमितप्राभृत। ० अविनीत आदि को वाचना देने से हानि इहरा वि ताव थब्भति, अविणीतो लंभितो किमु सुएण। मा णट्ठो णस्सिहिती, खए व खारावसेओ तु॥ गोजूहस्स पडागा, सयं पयातस्स वड्वयति वेगं। दोसोदए य समणं, ण होड न निदाणतल्लं वा॥ विणयाहीया विज्जा, देंति फलं इह परे य लोगम्मि। न फलंति विणयहीणा, सस्साणि व तोयहीणाइं॥ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४९३ वाचना गोपालको गवामग्रतो भूत्वा यदा पताकां दर्शयति तदा अभ्यंगन के बिना गाड़ी नहीं चलती, उसी प्रकार यदि कोई मुनि ता: शीघ्रतरं गच्छन्तीति श्रुतिः। (बृभा ५२०१-५२०३ वृ) । विकृति के बिना शरीर का निर्वाह नहीं कर पाता है और वह गुरु अविनीत श्रुतप्रदान के बिना भी अहंकारी होता है। श्रुतप्राप्ति की अनुज्ञा से विधिपूर्वक विकृति का सेवन करता है तो उसे के पश्चात की तो बात ही क्या? घाव पर नमक डालने की भांति । वाचना दी जा सकती है। वह स्वयं नष्ट होकर दूसरों को नष्ट न करे, इस दृष्टि से वह तपविहीन योग (श्रुत का उद्देशन आदि रूप व्यापार) नहीं वाचनीय नहीं है। होता और तपस्या के बिना गृह्यमाण ज्ञान अभिलषित फल वाला ___ ग्वाला गायों के आगे आकर जब पताका दिखाता है, तब नहीं होता, प्रत्युत विपुल अनर्थकारी होता है। जैसे-साधनहीन विद्या फलित नहीं होती। उनकी गति में तीव्रता आ जाती है-यह श्रुति है। जैसे पताका स्वयं प्रस्थित गोयूथ के वेग को बढ़ाती है, वैसे ही श्रुतदान ..."कलह देवयच्छलणा। अविनीत के अहं को बढ़ाता है। परलोगम्मि य अफलं, खित्तम्मि व ऊसरे बीजं ॥ रोगों के उदय में दी जाने वाली औषधि रोगोत्पत्ति के वाइज्जंति अपत्ता, हणुदाणि वयं पि एरिसा होमो। कारणभूत द्रव्य की भांति नहीं होती, ऐसा नहीं है, वह होती ही ___इय एस परिच्चातो, इह-परलोगेऽणवत्था य॥ है, इसलिए उसको नहीं देना चाहिए। दुर्विनीत के लिए श्रुतऔषध __ (बृभा ५२०८, ५२०९) अहितकर है, अत: वह देय नहीं है। अविनीत को स्मारणा आदि द्वारा प्रेरित करने पर वह कलह विनय से अधीत श्रुतज्ञान इहलोक और परलोक में फलदायी करता है। अपात्र को वाचना देने वाले प्रमत्त साधु को अभद्र होता है। अविनय से प्राप्त विद्या वैसे ही फलवती नहीं होती, जैसे स्वभाव वाला देव छल सकता है। वैसे व्यक्ति की सुगति नहीं जल के बिना धान्य की निष्पत्ति नहीं होती। होती। उसे बोधिलाभ नहीं मिलता। ऊषर भूमि में बोए बीज की सुत्त-ऽत्थे कहयंतो, पारोक्खी सिस्सभावमुवलब्भ। भांति उसका सारा श्रम निष्फल होता है। अपात्र को वाचना देते अणुकंपाएँ अपत्ते, निजूहइ मा विणस्सिज्जा॥ लेखका सो वाचक मोचते हैं- अहो । अब तो हम भी ऐसे ही __'निर्वृहयति' अपवदति-न तेभ्यः सूत्रार्थो कथयति, यूहयात अपवदात-न तभ्यः सूत्राथा कथयात, होंगे-अपात्र को वाचना देंगे। इस प्रकार अपात्र को वाचना देने श्रताशातनादिना मा विनश्येयुरितिकृत्वा। (बृभा २१४ वृ) वाले का इहलोक-परलोक परित्यक्त होता है. अनवस्था का प्रसंग परोक्षज्ञानी गुरु अपने शिष्यों को सूत्र और अर्थ की वाचना आता है-अविनय की परम्परा आगे बढ़ती है। देते समय शिष्यों के अभिप्राय को जानकर, जो शिष्य अपात्र हैं, * अयोग्य को वाचना देने से हानि द्र श्रीआको १ शिक्षा उन पर अनुकंपा कर, उनको सूत्रार्थ की वाचना नहीं देते। क्योंकि अपात्र को वाचना देने से श्रुत की आशातना होती है और उससे २. पात्र-अपात्र विवेक : पात्र को भी वाचना नहीं शिष्यों का विनाश होता है। जे भिक्खू अपत्तं वाएतिपत्तं ण वाएति..॥ रसलोलुताइ कोई, विगतिं ण मुयति दढो वि देहेणं। (नि १९/१८, १९) अब्भंगेण व सगडं, न चलइ कोई विणा तीए॥ पुरिसम्मि दुव्विणीए, विणयविहाणं ण किंचि आइक्खे। अतवो न होति जोगो, ण य फलए इच्छियं फलं विज्जा। न वि दिज्जति आभरणं, पलियत्तियकण्णहत्थस्स॥ अवि फलति विउलमगुणं, साहणहीणा जहा विज्जा॥ मरेज्ज सह विज्जाए, कालेणं आगते विदू। (बृभा ५२०४, ५२०६) अप्पत्तं च ण वातेजा, पत्तं च ण विमाणए॥ ' शरीर से दृढ़ होने पर भी रसलोलुपता के कारण जो विकृति अयसो पवयणहाणी, सुत्तत्थाणं तहेव वोच्छेदो। को नहीं छोड़ता है, वह वाचना के अयोग्य है। किन्तु जिस प्रकार पत्तं तु अवाएंते, मच्छरिवाते सपक्खे वा॥ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचना दव्वं खेत्तं कालं, भावं पुरिसं जहा समासज्ज । एतेहिं कारणेहिं, पत्तमवि विदू ण वाएज्जा ॥ आहारादीणऽसती, अहवा आयंबिलस्स तिविहस्स । खेत्ते अद्धाणादी, जत्थ सज्झाओ ण सुज्झेज्जा ॥ असिवोमाईकाले, असुद्धकाले व भावगेलण्णे । आतगत परगतं वा, पुरिसो पुण जोगमसमत्थो ॥ ( निभा ६२२१, ६२३०, ६२३३-६२३६) अपात्र (अयोग्य) को वाचना देना और पात्र को वाचना न देना - दोनों प्रायश्चित्तार्ह हैं । दुर्विनीत शिष्य को किंचित् भी वाचना नहीं देनी चाहिए। जिस व्यक्ति के कान, हाथ आदि छिन्न हों, उसे कभी आभूषण नहीं दिए जाते। समय आने पर विशिष्ट विद्याओं को साथ लेकर मरना अच्छा है, किन्तु अपात्र को वाचना देना और पात्र की अवमानना करना अच्छा नहीं है । पात्र को वाचना न देने से अपयश होता है, सूत्र - अर्थ का विच्छेद और प्रवचन की हानि होती है (आगमशून्य तीर्थ में कोई प्रव्रजित नहीं होता) । ये मात्सर्ययुक्त एवं पक्षपातयुक्त हैं- इस रूप में की अवज्ञा होती है। गुरु द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पुरुष - इनकी अनुकूलता न हो तो गुरु योग्य शिष्य को भी वाचना न दे ० द्रव्य - आहार आदि की समुचित व्यवस्था या उपलब्धि न हो। आचाम्ल (आयंबिल) के निर्धारित क्रम में ओदन, कुल्माष और सत्तु - यह त्रिविध आचाम्ल संबंधी आहार प्राप्त न हो । ० क्षेत्र - मार्गप्रतिपन्न हो । जहां स्वाध्याय योग्य क्षेत्र न हो। • काल - अशिव या दुर्भिक्ष हो । अस्वाध्यायिक काल हो । ० भाव - स्वयं या शिष्य ग्लान हो या वैयावृत्त्य में व्यापृत हो ० पुरुष - वाचनाभिलाषी योगवहन में असमर्थ हो । 1 ३. वाचना के अयोग्य : अव्यक्त और अप्राप्त जे भिक्खू अपत्तं वाएति ॥ अव्वत्तं वाएति ॥ ( नि १९ / २०, २२) परियाण सुतेण य, वत्तमवत्ते''''''''''' आमे घडे निहित्तं, जहा जलं तं घडं विणासेति । इय सिद्धंतरहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ ॥ सोलसहं वरिसाणं आरतो अव्वत्तो, पव्वज्जाए तिन्हं आगम विषय कोश - २ वरिसाणं पकप्पस्स अव्वत्तो। जो वा जस्स सुत्तस्स कालो तो तं अपावेंतो अव्वत्तो। सुएण आवस्सगे अणधीए दसवेयालिए अव्वत्तो, दसवेयालिए अणधीए उत्तरज्झयणाणं अव्वत्तो । (निभा ६२४०, ६२४३ चू) जिस श्रुताध्ययन का जो काल निश्चित है, उसको अप्राप्त और अव्यक्त - जिसकी अवस्था सोलह वर्ष से कम है, उस शिष्य को वाचना देने वाला भिक्षु प्रायश्चित्त का भागी होता है। ४९४ तीन वर्ष से न्यून दीक्षापर्याय वाला निशीथ के लिए अप्राप्त है । आवश्यक का अनध्येता दशवैकालिक के लिए तथा दशवैकालिक का अनध्येता उत्तराध्ययन के लिए अप्राप्त है। पर्याय से व्यक्त और श्रुत से प्राप्त है, वही वाचनीय है। जैसे कच्चे घड़े में डाला हुआ जल घड़े को ही नष्ट कर देता है, वैसे ही जिसका आधार सुदृढ़ नहीं है, धारणासामर्थ्य नहीं है, उस अव्यक्त - अप्राप्त को बताये गये सिद्धांत (छेदश्रुत आदि) के रहस्य उसे नष्ट कर देते हैं। (जिसने निशीथ नहीं पढ़ा, वह श्रुत से अव्यक्त है तथा जो सोलह वर्ष से कम है, वह वय से अव्यक्त है। - आभा ५ / ६२) ४. अविधि से श्रुतग्रहण का प्रायश्चित्त य ******* 11 दूरत्थो वा पुच्छति, अधव निसेज्जाय सन्निसण्णो उ । अच्चासण्णनिविडुट्ठिते अंजलिपणाम करणं, विप्पेक्खते दिसऽहो उड्ढमुहं । भासंत अणुवउत्ते, व हसंते पुच्छमाणो उ ॥ एतेसु य सव्वेसु वि, सुत्ते लहुओ उ अत्थे गुरुमासो । नाभीतोवरि लहुगा, गुरुगमधो कायकंडुयणे ॥ तम्हा वज्जंतेणं, ठाणाणेताणि पंजलुक्कुडुणा । सोयव्व पयत्तेणं, कितिकम्मं वावि कायव्वं ॥ (व्यभा २३४०-२३४३ ) जो जिज्ञासु श्रोता दूर खड़ा होकर, निषद्या पर बैठकर, अतिनिकट बैठकर या अतिनिकट खड़े होकर श्रुतप्रदाता से पूछता है और सुनता है, जो बद्धांजलि हो नहीं सुनता, पाठ समाप्ति पर वन्दना नहीं करता, दिशाओं को देखता हुआ सुनता है, गुरु के अभिमुख न होकर अधोमुख या ऊर्ध्वमुख हो सुनता है, जिस किसी के साथ बातें करता हुआ या अनुपयुक्त हो सुनता है, हंसता Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ हुआ पूछता है - इस विधि से सूत्र और अर्थ ग्रहण करने वाला क्रमशः लघुमास और गुरुमास प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। नाभि के ऊपर के अवयवों को खुजलाता हुआ सूत्र और अर्थ को सुनता है, उसके लिए क्रमशः चतुर्लघु और चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का विधान है। नाभि से नीचे के अवयवों को खुजलाता हुआ सूत्र श्रवण करता है, उसको चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अतः अविनय के इन सब स्थानों का वर्जन कर बद्धांजलि हो, उत्कुटुक आसन में बैठ प्रयत्नपूर्वक (आदरपूर्वक) सूत्रश्रवण करना चाहिए और कृतिकर्म भी अवश्य करना चाहिए। उट्ठाण-सेज्जा-ऽऽसणमाइएहिं गुरुस्स जे होंति सयाऽणुकूला । नाउं विणीए अह ते गुरू उ, संगिण्हई देइ य तेसि सुत्तं ॥ (बृभा ४४३५) गुरु को आते हुए देखकर खड़ा होना, गुरु का शय्यासंस्तारक सम व सुन्दर स्थान पर करना, उपवेशन योग्य निषद्या करना, गुरु की शय्या और आसन से नीचे स्वयं की शय्या व आसन करना, हाथ जोड़ना - इस विनयपरिपाटी से जो शिष्य सदा गुरु के अनुकूल होते हैं, उनको विनीत जानकर गुरु 'ये मेरे द्वारा सम्यक् पालनीय रक्षणीय हैं' इस संग्रहबुद्धि से उन्हें स्वीकार करते हैं और वाचना देते हैं। ५. ज्ञान हेतु स्थविर भी कृतिकर्म करे सुत्तम्मिय चउलहुगा, अत्थम्मि य चउगुरुं च गव्वेणं । कितिकम्ममकुव्वतो, पावति थेरो सति बलम्मि ॥ उवयारहीणमफलं, होति निहाणं करेति वाऽणत्थं । इति निज्जराऍ लाभो, न होति विब्भंग कलहो वा ॥ (व्यभा २३३८, २३३९) स्थविर किसी समरानिक या अवमरानिक के पास सूत्र या अर्थ का प्रत्युज्वालन ( पूछना, सीखना) करता है या नया पाठ ग्रहण करता है, उस समय वह शक्ति होने पर भी ज्ञानदाता के प्रति उचित विनयपरिपाटी का निर्वाह नहीं करता है, अभिमानवश कृतिकर्म-वन्दना नहीं करता है तो प्रायश्चित्त का भागी होता हैके सन्दर्भ में चतुर्लघु और अर्थ के संदर्भ में चतुर्गुरु । सूत्र निधान का उत्खनन करने वाला तदनुरूप उपचार नहीं करता है तो उसे निधान प्राप्त नहीं होता । वृश्चिक आदि के ४९५ उपद्रव के कारण अनर्थ भी हो जाता है। इसी प्रकार कृतिकर्म आदि उपचार विनय के अभाव में निर्जरा का महान् लाभ प्राप्त नहीं होता, ज्ञान विपरीत हो जाता है । प्रान्त देवता कुपित होकर उससे कलह कर सकता है। वाचना ६. स्थविर के प्रति वाचनाचार्य का दायित्व तेण वि धारेतव्वं, पच्छावि य उट्ठितेण मंडलिओ । वेदुट्ठनिसण्णस्स व सारेतव्वं हवति भूओ ॥ अह से रोगो होज्जा, ताहे भासंत एगपासम्म । सन्निसण्णो तुयट्टो, व अच्छते णुग्गहपवत्तो ॥ . सोतु गणी अगणी वा अणुभासंतस्स सुणति पासम्मि । न चएति जुण्णदेहो, होउं बद्धासणो सुचिरं ॥ (व्यभा २३४४, २३४५, २३४७) स्थविर ने सूत्रमंडली या अर्थमंडली में जो कुछ सुना है, उस मंडली से उठने के पश्चात् भी वह उसका धारण-स्मरण करे । स्थविर बैठे, खड़े या लेटे हुए उस पाठ का स्मरण करता है, इस अंतराल में वह कुछ भूल जाता तो वाचनाचार्य का कर्त्तव्य है कि उसे विस्मृत पाठ का पुनः स्मरण कराये | यदि स्थविर रुग्ण है तो वह व्याख्यामंडली से उठकर भाषक - अनुभाषक (वाचनाचार्य या पुनरावर्त्तक) के एक पार्श्व में निषद्या पर सम्यग्रूप से स्थित होकर अथवा लेटकर उनके अनुग्रह में प्रवृत्त होता है। वह इस अवस्थिति में पाठ सुन सकता है। यह भाषक का अनुग्रह है। यह अनुग्रह गणी हो या अगणी, सब पर किया जाता है क्योंकि जीर्ण देह वाला लम्बे समय तक एक आसन में नहीं बैठ सकता। ७. वाचनाचार्य के प्रकार : सिंहानुग आदि सीहाणुग-व -वसभ - कोल्लुगाणूए । तत्थ जो महंतणिसिज्जाए ठितो सुत्तमत्थं वाएति चिट्ठइ वा सो सीहाणुगो। जो एक्कंमि कप्पे ठितो वाएति चिट्ठइ वा सो वागो । जो यहरणणिसेज्जाए उवग्गहियपादपुंछणे वा ठितो वाएति चिट्ठति वा सो कोल्लुगाणुगो। (निभा ६६२८ चू) आचार्य के तीन प्रकार हैं सिंहानुग - जो महान् निषद्या पर स्थित हो वाचना देते हैं। वृषभानुग — जो एक कल्प पर बैठकर वाचना देते हैं। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचना ४९६ आगम विषय कोश-२ शृगालानुग-जो रजोहरणनिषद्या या औपग्रहिक पादपोंछन पर बैठकर अर्थश्रवण करते हैं, वे सभी अवश्य अपना-अपना कम्बल वाचना देते हैं। निषद्याकारक को दे देते हैं और वह उनसे निषद्या की रचना करता ८. प्रवाचिका प्रवर्तिनी की अर्हता है। यदि अनुयोगग्रहीता संख्या में कम हों तो अन्य अनुयोगअश्रोता समा सीस पडिच्छण्णे, चोदणासु अणालसा। साधु भी यथावश्यक अपने-अपने कम्बल अर्पित कर देते हैं। गणिणी गुणसंपन्ना, पसज्झा पुरिसाणुगा॥ सर्वप्रथम अनुयोगमण्डलीस्थल का प्रमार्जन कर दो निषद्या संविग्गा भीयपरिसा, उग्गदंडा य कारणे। की जाती है। एक पर गुरु बैठते हैं, दूसरी पर प्रमार्जित अक्षों को सज्झायझाणजुत्ता य, संगहे य विसारया॥ स्थापित किया जाता है। फिर कृतिकर्म (गुरुवन्दन) कर विगहा विसोत्तियादिहिं वज्जिता जा य निच्चसो। अनुयोगस्थापना के लिए आठ उच्छ्वास का कायोत्सर्ग तथा ज्येष्ठ __मुनि को वन्दन किया जाता है। एयग्गुणोववेयाए तीए पासम्मि निक्खिवे॥ शिष्य ने पूछा-ज्येष्ठ कौन? जो दीक्षापर्याय में बड़ा है या (व्यभा ३०७८-३०८०) जो जाति-कुल से श्रेष्ठ है या जिसने बहुत श्रुत पढ़ा है या जिसने प्रवाचिका प्रवर्तिनी शिष्यों और प्रातीच्छिकों के प्रति समान अनेक परिपाटियों से अर्थश्रवण किया है. क्या वह ज्येष्ठ है? गरु व्यवहार करती है, शिक्षण-प्रशिक्षण और सारणा-वारणा में उद्यमशील ने कहा-नहीं। अनुयोग के सन्दर्भ में वह साधु ज्येष्ठ है, जो होती है तथा अनभिभवनीय पुरुषों का अनुसरण करती है। वह व्याख्यालब्धिसम्पन्न है, अर्थमंडली के श्रोता जिसके व्याख्यान संविग्न (सामाचारीकुशल) होती है और स्वाध्याय-ध्यान-संलग्न का समर्थन करते हैं और जो अग्रणी होकर क रहती है। उसकी परिषद् उसके भय से कोई भी अकरणीय कार्य । * अनुयोगविधि द्र श्रीआको १ अनुयोग नहीं करती। स्खलना होने पर वह उग्र दण्ड देती है। वह संग्रह १०. वाचनामंडली के प्रकार : क्षेत्र आभवद् व्यवहार में विशारद होती है तथा विकथा और विस्रोतसिका (चैतसिक चंचलता)का सदा वर्जन करती है। इन गुणों से सम्पन्न साध्वी के साधारणट्ठिताणं, जो भासति तस्स तं भवति खेत्तं। वारग तद्दिण पोरिसि, मुहुत्त भासे उ जो ताहे ॥ पास वाचना की व्यवस्था की जा सकती है। आवलिया मंडलिया, घोडगकंडूइतए व भासेज्जा। ९. सूत्रार्थमण्डली-व्यवस्था सुत्तं भासति सामाइयादि जा अट्ठसीतिं तु॥ सुत्तम्मि होइ भयणा, पमाणतो यावि होइ भयणा उ। एमेव मंडलीय वि, पुव्वाहिय नट्ठ धम्मकह-वादे। अत्थम्मि उ जावइया, सुणिंति थेवेसु अन्ने वि॥ अधव पइण्णग सुत्ते , अधिज्जमाणे बहुसुते वि॥ मज्जण निसिज्ज अक्खा, किइकम्मुस्सग्ग वंदणग जेतु। छिण्णाछिण्णविसेसो, आवलियाए उ अंतए ठाति। परियाग जाइ सुअ सुणण समत्ते भासई जो उ॥ मंडलीय सट्ठाणं, सच्चित्तादीसु संकमति॥ (बृभा ७७८, ७७९) दोण्हं तु संजताणं, घोडगकंडूइयं करेंताणं। सूत्रमण्डली में निषद्या की भजना है-सूत्रवाचनाचार्य जो जाहे जं पुच्छति, सो ताधि पडिच्छओ तस्स ॥ यदि तरुण और स्वस्थ है तथा निषद्याप्रिय नहीं है तो निषद्या साधारणट्ठितासुं, सुत्तत्थाई परोप्परं गिण्हे। नहीं की जाती। यदि वह स्थविर है या रुग्ण तरुण है या वारंवारेण तहिं, जह आसा कंडुयंते वा। निषद्याप्रिय है तो निषद्या की जाती है। प्रमाण से भी भजना ..."यद् वारंवारेण परस्परं प्रच्छनं तत् घोटकयोः परस्परं है-एक, दो, तीन अथवा जितने कल्पों पर बैठकर सुखपूर्वक कण्डूयितमिव""आवश्यकमधीते आवश्यक-वाचनाचार्यः वाचना दी जा सके, उतने कल्पों (कंबलों)से निषद्या की रचना पुनरावश्यकप्रतिप्रच्छकस्य समीपे दशवै-कालिकमधीते। करनी चाहिए। दशवैकालिकवाचनाचार्यस्याभवति क्षेत्रम्। अर्थमण्डली की विधि-व्यवस्था यह है कि जितने साध ...बहुश्रुतविषयेऽपि मण्डली भवति। तत्राप्या Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४९७ वाचना भाव्यमावलिकायामिवा"एक एकस्य पार्वे आवश्यक मण्डली में भी आवलिका जैसा ही क्रम होता है यथानष्टमुज्ज्वालयति, एषोऽप्यावश्यकवाचनाचार्योऽप्यन्यस्य जहां एक एक के पास पूर्व अधीत किन्तु विस्मृत आवश्यक को समीपे दशवैकालिकं, दशवैकालिकवाचनाचार्योप्यपरस्य उज्ज्वालित करता है (पुनः सीखता है/स्मरण करता है)और समीपे उत्तराध्ययनानि, उत्तराध्ययनवाचनाचार्योऽप्यन्यस्य आवश्यकवाचनाचार्य पुन: उसके पास दशवैकालिक का पाठ करता समीपे आचाराङ्गम् एवं यावद् विपाकश्रुतवाचनाचार्यः पूर्वाधीतं है तो वह क्षेत्र दशवैकालिकवाचनाचार्य के अधीन होता है। नष्टमन्यस्य पार्श्वे दृष्टिवादमुज्ज्वालयति, दृष्टिवादवाचना- एक एक के पास विस्मृत आवश्यक का पारायण करता चार्यस्याभवति।.. है, आवश्यकवाचनाचार्य किसी दूसरे के पास दशवैकालिकका, आवलिकायामुपाध्यायकोऽन्तर्मध्ये विविक्ते प्रदेशे दशवैकालिकवाचनाचार्य किसी तीसरे के पास उत्तराध्ययन का तिष्ठति, मण्डल्यां पुनः स्वस्थानमाभवनं च पाठयितरि और उत्तराध्ययनवाचनाचार्य किसी अन्य के पास आचारांग का संक्रामति तत्क्षेत्रगतसचित्तादिविषयम्।"यावच्च यः । पाठ करता है। इसी क्रम से उत्तरोत्तर यावत् विपाकश्रुतवाचनाचार्य प्रतीच्छ्यस्तावत्तस्याभवति, न शेषकालमिति। जहां किसी अन्य के पास पूर्व अधीत विनष्ट दृष्टिवाद को ....यथाहमद्य तव पार्वे गृह्णामि। कल्ये त्वं मम उज्ज्वालित करता है तो वह क्षेत्र दृष्टिवादवाचनाचार्य के निश्रित पार्वे ग्रहीष्यसि। अथवा पौरुषीप्रमाणेन मुहूत्र्तेर्वा वारकं होता है। कुर्वन्ति ।(व्यभा १८२३, १८२४, १८३०-१८३२, १८५५ वृ) . ० आवलिका एवं मंडली में अंतर-आवलिका एकांत-छिन्न ___ जो सर्वसाधारण क्षेत्र है, जिसमें अनेक साधुवर्गों का । प्रदेश में तथा मंडली स्वस्थान-अच्छिन्न प्रदेश में होती है। अवग्रह है, वहां जो साधु सूत्र या अर्थ का कथन करता है, वह क्षेत्र । आवलिका में उपाध्याय विविक्त क्षेत्र में तथा मंडली में स्वस्थान उसके अधिकार में होता है। यदि बारी-बारी से कथन किया जाता में स्थित रहता है। उस स्थिति में आभवन पाठयिता में संक्रान्त है तो जो जितने दिन, पौरुषी या मुहूर्त तक श्रुत-संभाषण करता है, हो जाता है-उस क्षेत्रगत सचित्त आदि वस्तुएं उसके निश्रित होती हैं। उतने काल तक उसका अवग्रह है। सूत्र-अर्थ संभाषण (पाठन/वाचना) के तीन प्रकार हैं ० घोटककण्डूयित-दो साधुओं में घोटककण्डूयन की तरह १. आवलिका-जो मंडली एकान्त-छिन्न प्रदेश में होती है। परस्पर पृच्छा होती है। जो जब जिसको पूछता है, तब वह २. मंडली-जो अपने ही स्थान-अच्छिन्न प्रदेश में होती है। उसका प्रतीच्छक होता है। जो जब तक प्रतीच्छ्य-उत्तरदाता ३. घोटककण्डूयित-परस्पर घोटक (अश्व) कण्डूयन की तरह होता है, तब तक वह क्षेत्र उसके निश्रित होता है। जिस मंडली में परस्पर पुनः पुनः पृच्छा-प्रतिपृच्छा होती है। जैसे अश्व परस्पर कण्डूयन करते हैं, वैसे ही साधु वारंवार सूत्रपठन के संदर्भ में सामायिक से लेकर दृष्टिवादगत परस्पर सूत्र-अर्थ ग्रहण करते हैं। यथा-आज मैं तुम्हारे पास अदासी सूत्रपर्यंत सूत्रपाठ किया जाता है। आवश्यकवाचनाचार्य पढूंगा, कल तुम मेरे पास पढोगे। अथवा इतने प्रहर या मुहूर्तों का आवश्यक-प्रतिपृच्छक के पास दशवैकालिक का पाठ करता है तो क्रम निश्चित कर लिया जाता है। वह क्षेत्र दशवैकालिकवाचनाचार्य का होता है। ० पृच्छा और अवग्रह निम्न स्थानों में मंडली विधि का उपक्रम होता है ___ पुच्छा हि तीहि दिवसं, सत्तहि पुच्छाहि मासियं हरति। ० पूर्व अधीत विस्मृत श्रुत का पुनः स्मरण करने के लिए। (व्यभा २२२७) ० धर्मकथा और वादशास्त्रों के स्मरण-अध्ययन के लिए। ० प्रकीर्णकश्रुत-अध्ययन के लिए तथा बहश्रत के विषय में भी तान पृच्छा में एक दिन का तथा सात पृच्छा में एक महीने मण्डली होती है। का अवग्रह-उस काल में प्राप्त शिष्य आदि उसके होते हैं। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचना ४९८ ११. मण्डली में अभ्युत्थान विधि सुत्तस्स मंडलीए, नियमा उट्ठेति आयरियमादी । मोत्तूण पवायंतं, न उ अत्थे दिक्खण गुरुं पि ॥ कथेंतो गोयमो अत्थं, मोत्तुं तित्थगरं सयं । न वि उट्ठेति अन्नस्स, तग्गतं चेव गम्मति ॥ काउस्सग्गे वक्खेवया य विकधा विसोत्तिया पयतो । उवणय वाउलणादि य, अक्खेवो होति आहरणे ॥ आरोवणा परूवण, उग्गह तह निज्जरा य वाउलणा । एतेहि कारणेहिं, अब्भुट्ठाणं तु पडिकुट्टं ॥ (व्यभा २६४४, २६४८, २६५०, २६५१ ) सूत्रमण्डली में वाचना देने वाले आचार्य आदि प्राघूर्णक आदि के आने पर नियमतः अभ्युत्थान करते हैं । अर्थमण्डली में उपविष्ट आचार्य अपने प्रबाचक को छोड़कर शेष कोई भी आये, दीक्षागुरु भी आये, तब भी वे खड़े नहीं होते । गणधर गौतम अनुयोगकाल में केवल अपने धर्माचार्य श्रमण भगवान महावीर को छोड़कर अन्य किसी के आने पर खड़े नहीं होते थे। पूर्व आचीर्ण का ही अब आचरण हो रहा है । अनुयोगारम्भ के निमित्त कायोत्सर्ग करने के पश्चात् अभ्युत्थानकरण निम्न कारणों से निषिद्ध है— बार-बार उठने से व्याक्षेप होता है, व्याक्षेप से विकथा, विकथा से इन्द्रिय-मन की विस्रोतसिका (संयमस्थानच्युति) होती है । इसलिए अभ्युत्थान न करते हुए प्रयत्नपूर्वक सुनना चाहिए। बीच-बीच में बार-बार उठने से चंचलता के कारण नवगृहीत उपनय, निगमन, दृष्टान्त आदि नष्ट हो जाते हैं, प्रारम्भ की हुई पृच्छा विस्मृत हो जाती है । निरन्तर अविच्छिन्न वाचनाश्रवण से शुभ परिणामों की इतनी तीव्रता होती है कि अवधि आदि अतिशायी ज्ञान उत्पन्न हो सकते हैं। जैसे आरोपणा प्रायश्चित्त के प्ररूपणाकाल में व्याक्षेप होने पर (भंगगहनता के कारण) उसका सम्यक् अवग्रहण नहीं हो पाता, वैसे ही अभ्युत्थान से श्रुतोपयोग की विच्छिन्नता के कारण ज्ञानावरणीयकर्म की यथेष्ट निर्जरा नहीं हो पाती। पगतसमत्ते काले, अज्झयणुद्देस अंगसुतखंधे । एतेहि कारणेहिं, अब्भुट्ठाणं तु अणुओगो ॥ आगम विषय कोश- २ केवलिमादी चोद्दस-दस - नवपुव्वी य उट्ठणिज्जो उ। जे तेहि ऊणतरगा, समाण अगुरुं न उट्ठेति ॥ (व्यभा २६६१ - २६६५) तीन कारणों से अनुयोगकाल में अतिथि साधु के आने पर अभ्युत्थान किया जा सकता है- १. प्राकृत / प्रकरण / विषय की समाप्ति पर । २. स्वाध्यायकाल की संपन्नता पर । ३. अध्ययन- उद्देशकअंगश्रुतस्कंध की सम्पन्नता पर । अर्थ की वाचना देते समय केवली, अवधिज्ञानी या मनः पर्यवज्ञानी आ जाये तो अभ्युत्थान करना चाहिए । अर्थवाचक को अपने से अधिक ज्ञानी के आने पर उठना चाहिए। यथा - चौदहपूर्वी के आने पर दसपूर्वी को, दसपूर्वी के आने पर नवपूर्वी को, पूर्वधर के आने पर कालिक - श्रुतधर को उठना चाहिए। यदि आगन्तुक समान श्रुत वाला हो और गुरु न हो तो नहीं उठना चाहिये । १२. एकाग्रता से महान् उपलब्धि भासओ सावगो वावि, तिव्वसंजायमाणसो । लभंतो ओहिलंभादी, जधा मुडिंबगो मुणी ॥ एगग्गो उवगिण्हति वक्खिप्पंतस्स वीसुइं जाति । इंदपुर इंददत्ते, अज्जुणतेणे य दिट्टंतो ॥ मुडिम्बको मुनिस्तथा सुहिडिम्बक आचार्यः परमकाष्ठभूते शुभध्याने प्रवृत्त अवध्यादिलब्धिमलप्स्यत यदि तस्य पुष्पमित्रेण ध्यानविघ्नो नाकरिष्यत । इन्द्रपुरे पत्तने इन्द्रदत्तस्य राज्ञः सुताः दृष्टान्तः । तेषां कलां अभ्यस्यतां प्रमादविकथादिव्याक्षेपान्न किमप्यवगृहीतमभूत् । यद्यपि किञ्चिदवगृहीतं, तदपि विस्मृतिमुपगतमतएव तै: राधावेधो न कर्तुं शक्यः । ''सोऽर्जुनकस्तेनोऽगडदत्तेन सह युध्यमानो न कथमप्यगडदत्तेन पराजेतुं शक्यते । ततो निजभार्यातीवरूपवती सर्वालङ्कारभूषिता रथस्य तुण्डे निवेशिता, ततः स्त्रीरूपदर्शनव्याक्षेपात् युद्धकरणं विस्मृतिमुपगतमिति सोऽगडदत्तेन विनाशितः । (व्यभा २६५७, २६५९ वृ) वाचनाचार्य अविच्छिन्नरूप से वाचना देते हैं और श्रावक ( श्रोता / शिष्य) तन्मय होकर सुनते हैं तो उत्तरोत्तर विशिष्ट Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ४९९ वाचना अर्थअवगाहन से उनमें तीव्र संवेग रस उत्पन्न होता है। उन क्षणों अहवा सस्थपरिणं अवाएत्ता लोगविजयं वाएति। दोस में उन्हें अतिशय परिणाम- विशुद्धिसंयुत एकाग्रता से अवधिज्ञान सुअक्खंधेसु जहा बंभचेरे अवाएत्ता आयारग्गे वाएति। आदि विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न हो सकता है। हेट्ठिल्ला उस्सग्गसुता तेहिं अभावितस्स उवरिल्ला ० मुडिम्बक दृष्टांत-मुडिम्बक मुनि तथा सुहिडिम्बक आचार्य अववादसुया ते ण सद्दहति अतिपरिणामगो भवति, पच्छा वा परम काष्ठीभूत-अत्यंत स्थिरता से शुभध्यान में लीन थे। यदि उस्सग्गं न रोचेइ।"आदिसुत्तवज्जितो उवरिसु अट्ठाणेण य पुष्यमित्र द्वारा ध्यान में विघ्न उपस्थित नहीं किया जाता तो उन्हें । पयत्तेण बहुस्सुतो भण्णति, पुच्छिज्जमाणो य पुच्छं ण अवधिज्ञान प्राप्त हो जाता। णिव्वहति। "पियधम्म-दढधम्मस्स, निसग्गतो परिणामगस्स, ० इन्द्रदत्तसुत दृष्टांत-इन्द्रपुर में इन्द्रदत्तनृप के पुत्रों ने राधावेधकला संविग्गसभावस्स, विणीयस्स, परममेहाविणो-एरिसस्स.... का अभ्यास किया, पर प्रमाद, विकथा आदि के कारण वे उसे उक्कमेण विदेज्जा"सव्वो चरणाणुओगोतंअवाएत्ता उत्तमसुतं पूर्णतः भूल गये। एकाग्रता से ग्रहण किया हुआ श्रुत भी अभ्युत्थान वाएति।"धम्माणुओगं गणियाणुओगं..दवियाणुओगं आदि व्याक्षेपों के कारण विस्मृत हो जाता है। वाएति।" (निभा ६१८०-६१८४ चू) ० अगडदत्त-अर्जुन-दृष्टांत-अगडदत्त रथ पर आरूढ था। अर्जुन जो भिक्षु पूर्ववर्ती समवसरण-आगमग्रंथों की वाचना दिए चोर उसके साथ युद्ध कर रहा था। अपनी विजय असंभव जानकर बिना अग्रिम ग्रंथों की वाचना देता है, नवब्रह्मचर्य (आचारांग) से अगडदत्त ने अपनी रूपवती अलंकृत भार्या को रथ के अग्र भाग पर पूर्व, उत्तम श्रुत-छेदसूत्र और दृष्टिवाद की वाचना देता है, वह बिठाया। अर्जुन रूप-लावण्य को देख मुग्ध हो गया, युद्ध करना लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। आवश्यक से भूल गया। अगडदत्त ने उसे विनष्ट कर दिया। बिंदुसार पूर्व पर्यंत श्रुत की व्युत्क्रम से वाचना देने वाला आज्ञाभंग १३. उत्क्रम से आगमवाचना का निषेध आदि दोषों से दूषित होता है। जे भिक्खू हेट्ठिल्लाइं समोसरणाई अवाएत्ता उवरिम- श्रुतवाचना का क्रम सुयं वाएति....॥णव बंभचेराई अवाएत्ता उत्तमसुयं ० अंग-आचारांग के पश्चात् सूत्रकृतांग। वाएति ॥"तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं ० श्रुतस्कंध-आवश्यक के पश्चात् दशवैकालिक। अथवा आचारांग उग्घातियं॥ (नि १९/१६, १७, ३७) श्रुतस्कंध के पश्चात् आचारचूला श्रुतस्कंध। आवासगमादीयं, सुयणाणं जाव बिंदुसाराओ। ० अध्ययन–सामायिक के पश्चात् चतुर्विंशतिस्तव अथवा उक्कमओ वादेतो, पावति आणाइणो दोसा॥ शस्त्रपरिज्ञा के पश्चात् लोकविचय। ..."तं पुण नियमा अंगं, सुयखंधो अहव अज्झयणं॥ ० उद्देशक-प्रथम उद्देशक के पश्चात् द्वितीय आदि उद्देशक। उवरिसुयमसद्दहणं, हेट्ठिल्लेहि य अभावितमतिस्स। इसी प्रकार दशवैकालिक के पश्चात् उत्तराध्ययन, आचारांग ण य तं भुज्जो गेण्हति, हाणी अण्णेसु वि अवण्णो॥ अथवा सर्वचरणानुयोग के पश्चात् छेदसूत्र, धर्मानुयोग, गणितानुयोग णाऊण य वोच्छेदं, पुव्वगते कालियाणुजोगे य। और द्रव्यानुयोग (दृष्टिवाद) पठनीय हैं। सुत्तत्थ तदुभए वा, उक्कमओ वा वि वाएज्जा। जिसकी मति पूर्ववर्ती उत्सर्गसूत्रों से भावित नहीं है, वह छेयसुयमुत्तमसुयं, अहवा वी दिट्ठिवाओ भण्णइ उ।" अग्रिम अपवादसूत्रों में श्रद्धा नहीं करता और अतिपरिणामक बन ... दसवेयालिस्सावस्सगं हेट्ठिल्लं उत्तरज्झयणाणं जाता है, फिर पूर्ववर्ती श्रुत पढ़ने में उसकी रुचि नहीं रहती, दसवेयालियं हेडिल्लं, एवं णेयं जाव बिंदुसारेति"अंगं जहा इससे आदि सूत्रों की हानि होती है। वह आद्य सूत्रों को ग्रहण आयारो तं अवाएत्ता सुयगडंगं वाएति। सुयक्खंधो-जहा किए बिना अनुचित प्रयत्नों से अग्रिम सूत्रों को पढ़कर बहुश्रुत तो आवस्सयं तं अवाएत्ता दसवेयालियसुयक्खंधं वाएति। बन जाता है पर पूर्ण जानकारी के अभाव में सब प्रश्नों का सही अज्झयणं जहा सामातितं अवाएत्ता चउवीसत्थयं वाएति, समाधान नहीं दे पाता है, इससे लोक में अवर्णवाद होता है। Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचना ५०० आगम विषय कोश-२ कालिकश्रुत और पूर्वो का कहीं विच्छेद न हो जाए-इस वाद-मत, दर्शन। शास्त्रार्थ, परिचर्चा । अपेक्षा से उत्क्रम से भी वाचना दी जा सकती है। किन्तु वाचनाग्राही शिष्य प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, संविग्नस्वभावी, निसर्गतः परिणामक, १. वाद किसके साथ? २. वादी की अर्हता विनीत और परम मेधावी होना चाहिए। ३. वाद के अनर्ह : चाणक्य-नलदाम दृष्टांत ० समवसरण : आगमग्रंथ सुत्तत्थ तदुभयाणं, ओसरणं अहव भावमादीणं।... १. वाद किसके साथ? समोसरणं णाम मेलओ, सो य सुत्तत्थाणं, अहवा अजेण भव्वेण वियाणएण, धम्मप्पतिण्णेण अलीयभीरुणा। जीवादिणवपदत्थभावाणं, अहवा दव्वखेत्तकालभावा, एए सीलंकुलायारसमन्नितेण, तेणं समं वाद समायरेज्जा। जत्थ समोसढा सव्वे अस्थित्ति वुत्तं भवति, तं समोसरणं . (व्यभा ७१२) भण्णति। (निभा ६१८१ चू) वाद (शास्त्रार्थ या परिचर्चा) उसके साथ करना चाहिए, समवसरण का अर्थ है सूत्र और अर्थ का मिलन अथवा . जो आर्य है-श्रेष्ठ कर्म या अनिंदनीय कर्म करता है। जिनमें जीव, अजीव आदि नौ पदार्थों के अस्तित्व की सिद्धि आदि जो भव्य है-जिसने वाद की योग्यता संपादित की है। का निरूपण हो, अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा ० जो विज्ञ है-वाद का ज्ञाता है। निरूपण हो, वे आचारांग आदि ग्रन्थ समवसरण कहलाते हैं। ० जो धर्मप्रतिज्ञ है, जिसका न्याय करने का संकल्प है। १४. वाचना-स्वाध्याय से लाभ ० जो सत्यवादी है, शीलाचार-कुलाचार से समन्वित है। वायंतस्स उ पणगं, पणगं च पडिच्छतो भवे सुत्तं। २. वादी की अर्हता एगग्गं बहुमाणो, कित्ती य गुणा य सज्झाए॥ वाया पोग्गललहुया, मेधा उज्जा य धारणबलं च। संगहुवग्गहनिज्जर, सुतपज्जवजायमव्ववच्छित्ती।। तेजस्सिता य सत्तं, वायामइयम्मि संगामे॥ पणगमिणं पुव्वुत्तं, जे चायहितोपलंभादी॥ (व्यभा ७५८) (व्यभा १७८४, १७८५) वाङ्मय संग्राम में उपयोगी सामग्री इस प्रकार हैसत्र-अर्थ की वाचना देने-लेने से पांच लाभ होते है ० वाक्पाटव-व्यक्त स्पष्ट अक्षर-वाक्। ० संग्रह-श्रुतसम्पन्नता से शिष्यों का संग्रहण सकर होता है। ० पुद्गललघुता-शरीर की जड़ता का अपगम। ० उपग्रह-श्रुतज्ञान दान से संघ का उपष्टम्भ होता है। ० मेधा-अपूर्व-अपूर्व ऊहापोहात्मक ज्ञानविशेष। ० निर्जरा-ज्ञानावरण आदि कर्मों का निर्जरण होता है। • ऊर्जा-प्रवर्धमान बल, आंतरिक उत्साह विशेष । ० श्रुतपर्यवजात-श्रुतज्ञान के पर्यवों की वृद्धि होती है। ० धारणाबल-प्रतिवादी के शब्दार्थ अवधारण की शक्ति । ० अव्यवच्छित्ति-तीर्थ परम्परा अविच्छिन्न रहती है। ० तेजस्विता-शरीर की स्फूर्तिमयी दीप्यमानता। अथवा पांच गुण ये हैं-आत्महित, परहित और उभयहित ० सत्त्व-प्रतिवादी द्वारा प्राणव्यपरोपिणी विद्या प्रयुक्त होने पर भी की उपलब्धि, एकाग्रता तथा बहुमान। __उसके मानमर्दन हेतु उपष्टम्भ, अविचल धृति।। ० एकाग्रता-वाचक और श्रोता की श्रुत में गहरी एकाग्रता से * बाबी का सेवन : मेधा-विकास द्र चिकित्सा चैतसिक चंचलता का निरोध होता है। ३. वाद के अनर्ह : चाणक्य-नलदाम दृष्टांत ० बहुमान-श्रुत और अर्हत् के प्रति बहुमान प्रकट होता है। अत्थवतिणा निवतिणा, पक्खवता बलवया पयंडेण। स्वाध्याय से आर्यवज्र की भांति विश्वव्यापिनी कीर्ति गुरुणा नीएण तवस्सिणा य सह वज्जए वादं॥ होती है। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५०१ वास्तुविद्या नंदे भोइय खण्णा, आरक्खिय घडण गेरु नलदामे। नलदाम ने तब अवसर देखकर सभी चोरों तथा उनके पुत्रों का मूतिंग गेह डहणा, ठवणा भत्ते सपुत्त सिरा॥ शिरच्छेद करवा डाला। (व्यभा ७१५, ७१६) वास्तुविद्या-गृहनिर्माण विद्या। आठ प्रकार के व्यक्ति वाद के योग्य नहीं हैं-१. धनाढ्य २. नृपति ३. पक्षवान् ४. बलवान् ५. प्रचण्ड क्रोधी ६. धर्मगुरु- ग्राम-संस्थान के प्रकार एवं स्वरूप विद्यागुरु ७. नीचजातीय व्यक्ति ८. विकृष्ट तपस्वी।। ...."तत्थ इमे संठाणा, हवंति खलु मल्लगादीया॥ (इनमें से कोई भी व्यक्ति यदि वाद के लिए अत्यंत आग्रह उत्ताणग ओमंथिय, संपुडए खंडमल्लए तिविहे। करे तो चातुर्य से ऐसा प्रयत्न करना चाहिये, जिससे उसकी वाद भित्ती पडालि वलभी, अक्खाडग रुयग कासवए। करने की मानसिकता पूर्णतः समाप्त हो जाए।) मज्झे गामस्सऽगडो, बुद्धिच्छेदा ततो उ रज्जूओ। चाणक्य-नलदाम दृष्टांत-चाणक्य ने नंद राजा को राज्यच्यत निक्खम्म मूलपादे, गिण्हंतीओ वइं पत्ता॥ कर चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक किया और नंद के सामन्तों को ओमंथिए वि एवं, देउल रुक्खो व जस्स मज्झम्मि। तिरस्कृत कर पदच्युत कर दिया। वे सभी सामन्त चन्द्रगुप्त के कूवस्सुवरिं रुक्खो, अह संपुडमल्लओ नाम॥ आरक्षकों से सांठ-गांठ कर नगर में सेंध लगाकर चोरी करने जइ कूवाई पासम्मि होंति तो खंडमल्लओ होइ। लगे। चाणक्य ने दूसरे आरक्षकों की नियुक्ति की। वे सामंत पुव्वावररुक्खेहिं, समसेढीहिं भवे भित्ती॥ इनसे भी सांठ-गांठ कर पूर्ववत् चोरी करने लगे, तब चाणक्य पासट्ठिए पडाली, वलभी चउकोण ईसि दीहा उ। प्रतिदिन परिव्राजक का वेश बनाकर नगर के बाहर घूमने लगा। चउकोणेसु जइ दुमा, हवंति अक्खाडतो तम्हा॥ एक दिन उसने देखा, तंतवायशाला में नलदाम नामक तंतुवाय वट्टाग्गारठि एहिं, रुयगो पुण वेढिओ तरुवरेहिं । बैठा है। उस समय उसका पुत्र खेल रहा था। वह रोता हुआ तिक्कोणो कासवओ, छुरघरगं कासवं बिंती॥ अपने पिता के पास आकर बोला-मकोड़े ने मुझे काट खाया। (बृभा ११०२-११०८) नलदाम मकोडे के बिल के पास गया और जो मकोड़े बिल से ग्राम संस्थान के बाद पकार हैंबाहर निकले हुए थे, उन सबको मार डाला। फिर उसने बिल १. उत्तानकमल्लकसंस्थित ७. भित्तिसंस्थित को खोदा और उसमें जो मकोड़े तथा उनके अंडे थे, उन पर २. अधोमुखमल्लकसंस्थित ८. पडालिकासंस्थित घास डालकर जला डाला। चाणक्य ने यह सब देखकर पूछा ३. सम्पुटकमल्लकसंस्थित ९. वलभीसंस्थित तुमने बिल को खोदकर अंदर आग क्यों लगाई ? नलदाम बोला ४. उत्तानखंडमल्लकसंस्थित १०. अक्षपाटकसंस्थित 'अंडों से मकोड़े पैदा होकर कभी और भी काट सकते हैं।' ५. अधोमुखखंडमल्लकसंस्थित ११. रुचकसंस्थित चाणक्य ने उसे कोतवाल के रूप में नियुक्त कर दिया। नंद-पक्ष ६. सम्पुटखंडमल्लकसंस्थित १२. काश्यपसंस्थित के चोरों को यह ज्ञात हुआ। वे नलदाम के पास आए और १. उत्तानमल्लकसंस्थान-जिस ग्राम के मध्यभाग में कूप है, बोले-हम तुम्हें चोरी के धन का बहुत बड़ा भाग देंगे। तुम बुद्धि से उसके पूर्व आदि दिशाओं में छेद की परिकल्पना की हमारी रक्षा करना। नलदाम ने कहा-ठीक है। अब तुम सभी जाती है। फिर कूप के अधस्तन तल से बुद्धिकृत छेद के द्वारा चोरों को विश्वास दिलाकर मेरे पास ले आओ। एक दिन सभी रज्जुओं को दिशा-विदिशाओं में निकालकर घरों के मूलपाद के चोर नलदाम के पास एकत्रित हुए। नलदाम ने उनका सत्कार ऊपर से ग्रहण करते हुए ग्रामपर्यन्तवर्ती वृति तक तिर्यक् विस्तारित सम्मान किया और दूसरे दिन सभी चोरों के लिए विशाल भोज किया जाता है, फिर ऊपर अभिमुख होकर ऊंचाई में वे हर्म्यतलों की तैयारी की। सभी चोर अपने-अपने पुत्रों को साथ ले आए। ए। के समीभूत होकर वहां पटहच्छेद से उपरत हो जाती हैं। इस Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुविद्या आकार वाला उत्तानमल्लकसंस्थित ग्राम कहलाता है, ऊर्ध्वाभिमुख शराव ( सकोरे) का आकार ऐसा ही होता है । २. अधोमुखमल्लकसंस्थान - यह संस्थान भी ऐसा ही है। विशेष यह है कि जिस गांव के मध्य देवकुल है या बहुत ऊंचा वृक्ष है, उस देवकुल आदि के शिखर से रज्जुओं को उतारकर तिरछे में वृति पर्यंत ले जाया जाता है। वहां से अधोमुख हो घरों के पादमूल तक ग्रहण कर पटहच्छेद से उपरत होने पर यह संस्थान बनता है । ३. सम्पुटकमल्लकसंस्थान - जिस ग्राम के मध्यभाग में कूप है, उसके ऊपर ऊंचा वृक्ष है तो उस कूप के अधस्तल से रज्जु निकालकर घरों के मूल पाद के नीचे-नीचे ले जाकर वृति पर्यंत ले जाया जाता है। फिर ऊर्ध्व अभिमुख होकर हर्म्यतल की समश्रेणीभूत रज्जु को वृक्ष - शिखर से उतारकर वृतिपर्यंत ले जाते हैं । फिर अधोमुखी होकर उसे कूपसंबंधी रज्जु के अग्र भाग के साथ संघटित किया जाता है। यह सम्पुटकमल्लकसंस्थान है । ४. ६. उत्तान - अधोमुख- सम्पुटखंडमल्लकसंस्थान - जिस ग्राम के बाहर एक दिशा में कूप है, उस एक दिशा को छोड़कर शेष सात दिशाओं में रज्जु को निकालकर उसे तिर्यक् वृति तक ले जाकर ऊपर से हर्म्यतल तक लाकर पटहच्छेद से उपरत होने पर उत्तानखंडमल्लकसंस्थान बनता है। अधोमुखखंडमल्लक और सम्पुटखंडमल्लक संस्थान भी ऐसा ही होता है। इन दोनों में विशेष इतना है कि पहले में एक दिशा में देवकुल या ऊंचा वृक्ष होता है, दूसरे में एक दिशा में कूप और उसके ऊपर वृक्ष होता है। ७. भित्तिसंस्थान - जिस गांव की पूर्व और पश्चिम दिशा में समश्रेणी में व्यवस्थित वृक्ष हों, वह भित्तिसंस्थित ग्राम है। ५०२ ८. पडालिका संस्थान - जिस गांव की पूर्व और पश्चिम दिशा में वृक्ष समश्रेणि में तथा पार्श्वभाग में वृक्षयुगल सम श्रेणी में अवस्थित हों, वह पडालिकासंस्थित ग्राम है। ९. वलभी संस्थान - जिस गांव के चारों कोणों में ईषद् दीर्घ वृक्ष व्यवस्थित हों, वह वलभीसंस्थित ग्राम है। १०. अक्षवाटकसंस्थान - ' अक्षवाट ' - मल्लों के युद्ध का अभ्यासस्थल जैसे समचतुरस्र होता है, वैसे ही जिस गांव के चारों कोणों में वृक्ष होते हैं, उससे यह चतुर्विदिशावर्ती वृक्षों के द्वारा समचतुरस्र रूप में जाना जाता है, वह अक्षवाटकसंस्थित ग्राम है। ११. रुचकसंस्थान - यद्यपि गांव स्वयं सम नहीं होता, तथापि जो आगम विषय कोश - २ रुचकवलयपर्वत की भांति वृत्ताकार में व्यवस्थित वृक्षों से वेष्टित है, वह रुचकसंस्थित ग्राम है। १२. काश्यपसंस्थान - जो गांव त्रिकोण रूप में निविष्ट है, वह काश्यपसंस्थित ग्राम है। अथवा जिस गांव के बाहर एक ओर दो तथा दूसरी ओर एक - इस प्रकार तीन वृक्ष त्रिकोण रूप में स्थित हैं, वह काश्यपसंस्थित ग्राम है । नापित के क्षुरगृह को काश्यप कहा जाता है । वह त्रिकोण होता है। * प्रशस्त वसति : वृषभ संस्थान ..... महास्थंडिल - निर्माण की प्रमुखता .....गामस्स व नगरस्स व, सियाणकरणं पढम वत्थं ॥ ग्राम-नगरादीनां...' निवेश्यमानानां वास्तुविद्यानुसारेण प्रथमं श्मशानवास्तु निरूप्य ततः शेषाणि देवकुलसभा-सौधादिवास्तूनि निरूप्यन्ते ।...... (बृभा १५०५ वृ) वास्तुविद्या के अनुसार नये गांव और नगर बसाते समय सर्वप्रथम श्मशानभूमि का, तत्पश्चात् मंदिर, सभा, प्रासाद आदि निर्माणस्थलों का निरीक्षण और निश्चय किया जाता है। * महास्थंडिल की दिशा : गुणदोषविचारणा द्र महास्थंडिल विचारकल्पिक - 'उच्चारप्रस्रवणसप्तैकक' नामक अध्ययन द्र समिति का ज्ञाता । विद्या - देवी - अधिष्ठित अक्षरपद्धति । द्र मंत्र - विद्या विनय - विनम्रता । आचार। शिक्षा। W १. विनय के चार प्रकार २. प्रतिरूप विनय के प्रकार ० उपचार विनय के प्रकार द्र अनशन ३. प्रतिरूप विनय : श्वेत काक आदि दृष्टांत * शिष्य की विनयप्रतिपत्ति के भेद ४. लोकोत्तर विनय बलवान् : गंगा दृष्टांत * विनीत को ही सूत्र की वाचना द्र अंतेवासी द्र वाचना १. विनय के चार प्रकार पडिरूवग्गहणेणं विणओ खलु सूइतो चउविगप्पो । नाणे दंसण-चरणे, पडिरूव चउत्थओ होति ॥ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५०३ विनय काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तहा अनिण्हवणे। तं पुण ऽविरहे भासति, न चेव तत्तोऽपभासियं कुणति। वंजण-अत्थ-तदुभए, अट्ठविधो नाणविणओ उ॥ जोएति तहा कालं, जह वुत्तं होइ सफलं तु॥ निस्संकिय निक्कंखिय, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य।। अमितं अदेसकाले, भावियमवि भासियं निरुवयारं । उववूह-थिरीकरणे, वच्छल्लपभावणे अट्ठ॥ आयत्तो वि न गेण्हति, किमंग पुण जो पमाणत्थो॥ पणिधाणजोगजुत्तो, पंचहि समितीहिं तिहि य गुत्तीहिं। __ पुव्वं बुद्धीए पासित्ता, ततो वक्कमुदाहरे । एस उ चरित्तविणओ, अट्ठविहो होति नायव्वो ॥ अचक्खुओ व्व नेतारं, बुद्धिं अन्नेसए गिरा॥ ___ (व्यभा ६२-६५) माणसिओ पुण विणओ, दुविहो उ समासतो मुणेयव्वो। 'प्रतिरूप' शब्द के द्वारा चार विकल्प वाला विनय सूचित अकुसलमणोनिरोहो, कुसलमणउदीरणं चेव।। किया गया है--ज्ञान, दर्शन, चारित्र और प्रतिरूप विनय। (व्यभा ६६-७७) ज्ञानविनय आठ प्रकार का है-१. काल २. विनय प्रतिरूप विनय के चार भेद हैं-कायविनय, वचनविनय, ३. बहुमान ४. उपधान ५. अनिहवन ६. सूत्र ७.अर्थ मनविनय और उपचार विनय। इन चारों के क्रमश: आठ, चार, दो ८. सूत्रार्थ। और सात प्रकार हैंदर्शन विनय आठ प्रकार का है-१. नि:शंकित २. निष्कांक्षित कायविनय-इसके आठ प्रकार है-गुरु आदि के आने पर खड़े ३. निर्विचिकित्सा ४. अमूढदृष्टि ५. उपबृंहण ६. स्थिरीकरण होना, हाथ जोड़ना, आसन देना, अभिग्रह (गुरु आज्ञा के अनुसार ७. वात्सल्य ८. प्रभावना। कार्य करने का संकल्प करना), कृतिकर्म करना, शुश्रूषा करना, चारित्र विनय आठ प्रकार का है-पांच समिति और तीन सामने जाना और पहचाने जाना। गुप्ति- इनके द्वारा प्रणिधानयोगयुक्त होना चारित्र विनय है। वचनविनय-इसके चार प्रकार हैं-हितभाषण, मितभाषण, * काल, विनय आदि आचार और दृष्टांत द्र आचार अपरुषभाषण तथा अनुवीचिभाषण (विमर्शपूर्वक बोलना)। २. प्रतिरूप विनय के प्रकार १. हितभाषी-व्याधिग्रस्त मुनि व्याधिवर्धक आहार करता है, पडिरूवो खलु विणओ, काय-वइ-मणे तहेव उवयारे। ग्लान मुनि (अनशन आदि) देहविरुद्ध आचरण करता है। एक अट्ठ चउव्विह दुविहो, सत्तविह परूवणा तस्स॥ मुनि शक्तिसीमा का अतिक्रमण कर कोई कार्य करता है, अकालचर्या अब्भुट्ठाणं अंजलि-आसणदाणं अभिग्गह-किती य। करता है-जो मुनि इन कार्यों का निषेध करता है, वह इहलोक सुस्सूसणा य अभिगच्छणा य संसाहणा चेव॥ हितभाषी है। जो सामाचारी के आचरण में विषण्ण मुनि को हित-मित-अफरुसभासी, अणुवीइभासि स वाइओ विणओ।" प्रेरित-प्रोत्साहित करता है, उद्यमशील की प्रशंसा करता है, दारुण वाहिविरुद्धं भुंजति, देहविरुद्धं च आउरो कुणति। स्वभाव का वारण-निवारण करता है, वह परलोकहितभाषी है। आयासऽकालचरियादिवारणं एहियहियं तु॥ स्तब्धता (अनम्रता) आदि कायिकी चेष्टा, परुषता आदि वाचिक सामायारी सीदंत चोयणा उज्जमंत संसा य। चेष्टा, माया आदि मानसिक चेष्टा, अतिलोभता आदि चेष्टाएं दारुणसभावयं चिय, वारेति परत्थहितवादी॥ इहलोक और परलोक में अहितकारी होती हैं। - अस्थि पुण काइचिट्ठा, इह-परलोगे य अहियया होति। २. मितभाषी-जो मन्दस्वर में बोलता है, स्पष्ट और परिमित थद्ध-फरुसत्त-नियडी, अतिलुद्धत्तं व इच्चादी॥ बोलता है, मृदु बोलता है, मर्मवेधी वचन नहीं बोलता तथा तं पुण अणुच्चसई, वोच्छिण्ण मितं च भासते मउयं। अन्यापदेश से गुण-दोषों का वर्णन करता है, वह मितभाषी है। मम्मेसु अदूमंतो, सिया व परिपागवयणेणं॥.. ३. अपरुषभाषी-जो अनिष्ठुर, मृदु, हृदयग्राही और मनोज्ञ वचन तं पि य अफरुस-मउयं, हिययग्गाहिं सुपेसलं भणइ। बोलता है। वह प्रफुल्ल नयन और वदन से बोलता हुआ ऐसा नेहमिव उग्गिरंतो, नयण-मुहेहिं च विकसंतो॥ प्रतीत होता है, मानो आंतरिक स्नेह प्रकट हो रहा है। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय ५०४ आगम विषय कोश-२ ४. अनुवीचिभाषी-जो प्रत्यक्ष में हित-मित बोलता है, परोक्ष में ३. कार्यहेतुक-कार्य की सिद्धि के लिए अनुकूल वर्तन करना। अपभाषण नहीं करता तथा वैसा अवसर देखता है, जिसमें कथित तीर्थंकरों ने इहलोक और परलोक की आशंसा से मुक्त विनय का वचन सफल होता है। जिनमें प्रभूत अक्षर हैं, जो देशोचित और प्रतिपादन किया है, फिर कार्यहेतुक विनय क्यों? आचार्य कहते कालोचित नहीं हैं, ऐसे निरुपकारी वचनों को अधीन व्यक्ति भी हैं-मोक्षार्थी और कार्यहेतुक विनय में परस्पर विरोध नहीं है सुनना नहीं चाहता, प्रमाणस्थ (मान्य) पुरुष की तो बात ही क्या? क्योंकि उनकी प्रवृत्ति मोक्ष की ही अंगभूत है।। इसलिए पहले बुद्धि से पर्यालोचन करना चाहिये, फिर बोलना ४. कृतप्रतिकृति-कृत उपकार के प्रति अनुकूल वर्तन करनाचाहिए। आचार्य ने कहा आचार्य ने मुझे ज्ञान, दर्शन और चारित्र के लाभ से उपकृत किया है शिष्य! तेरी वाणी बुद्धि का वैसे अन्वेषण-अनुगमन करे, इसलिए मुझे उनका विनय करना चाहिए। यद्यपि मुनि सारे कार्य जैसे अंधा आदमी अपने नेता का अनुगमन करता है। किसी वस्त की प्राप्ति के संकल्प से मक्त होकर निर्जरा के लिए ० मन विनय-यह संक्षेप में दो प्रकार का है-अकुशल मन का करता है परन्तु कहीं-कहीं कतप्रतिकति की बद्धि से भी प्रवत्ति निरोध और कुशल मन की प्रवृत्ति। . करता है, वह भी विहित है। ० उपचार विनय के प्रकार ५. आर्तगवेषणा-आर्त्त-अनार्त्त मुनि के लिए द्रव्य आदि की अब्भासवत्ति छंदाणवत्तिया कज्जपडिकिती चेव। गवेषणा करना। उसके चार विकल्प हैंअत्तगवेसण कालण्णुया य सव्वाणुलोमं च॥ ० द्रव्य आपद्-दुर्लभ द्रव्य की संप्राप्ति का प्रयत्न करना। गुरुणो य लाभकंखी, अब्भासे वट्टते सया साध। ० क्षेत्र आपद्-कांतार में फंसे मुनि के निस्तारण का प्रयत्न करना। आगार-इंगिएहिं, संदिट्टो वत्ति काऊणं॥ ० काल आपद्-दुर्भिक्ष आदि में मुनियों की सेवा करना। कालसभावाणुमता, आहारुवही उवस्सया चेव। ० भाव आपद्-गाढ ग्लान मुनि की तितिक्षा के साथ और अनार्त्त नाउं ववहरति तहा, छंदं अणुवत्तमाणो उ॥ मुनि की यथाशक्ति सेवा करना। इह-परलोगासंसविमुक्कं कामं वयंति विणयं तु। ६. कालज्ञता-आचार्य आदि के अभिप्राय को समझकर कालक्षेप मोक्खाहिगारिएसुं, अविरुद्धो सो दुपक्खे वि॥ किए बिना उन्हें आहार आदि प्रदान करना। एमेव य अनिदाणं, वेयावच्चं तु होति कायव्वं। ७. सर्वानुलोमता-गुरु के सामाचारी-प्ररूपण तथा बहुविध निर्देशों कयपडिकिती वि जुज्जति, न कुणति सव्वत्थ तं जइ वि॥ को सुनकर 'यह ऐसा ही है', 'यह ठीक है'-ऐसा कहना। दव्वावदिमादीसुं, अत्तमणत्ते व गवेसणं कुणति। से भिक्खू..."आहारातिणियं दूइज्जमाणे अंतरा से आहारादिपयाणं, छंदम्मि उ छट्टओ पाडिपहिया उवागच्छेज्जा। तेणं पाडिपहिया एवं वदेज्जासामायारिपरूवण, निईसे चव बहुविहे गुरुणा। आउसंतो! समणा! के तुब्भे? कओ वा एह ? कहिं वा एमेव त्ति तध त्ति य, सव्वत्थऽ एसा॥ गच्छिहिह? जे तत्थ सव्वरातिणिए से भासेज्ज वा, वियागरेज्ज (व्यभा ७८-८४) वा। रातिणियस्स भासमाणस्स वा, वियागरेमाणस्स वा णो उपचार विनय के सात प्रकार हैं अंतराभासं भासेज्जा"॥ (आचूला ३/५३) १. अभ्यासवर्तिता-परमार्थ लाभ का आकांक्षी शिष्य गुरु के यथारात्निक क्रम से-रत्नाधिक के साथ परिव्रजन करते आकार और इंगित से उनके अभिप्राय को जानकर अथवा गुरु द्वारा हुए भिक्षु अथवा भिक्षुणी के मार्ग में प्रातिपथिक आ जाएं, वे इस संदिष्ट कार्य को करने के लिए सदा गुरु के समीप रहे। प्रकार पूछे-आयुष्मन्तो ! श्रमणो! आप कौन हैं ? कहां से आये २. छंदोनुवर्तिता-अमुक आहार, उपधि और उपाश्रय अमुक काल हैं ? कहां जायेंगे? जो उनमें सर्वरानिक (ज्येष्ठ) हो, वह में गुरु की प्रकृति के अनुकूल है-यह जानकर गुरु के अभिप्राय का बोले, उत्तर दे। भाषण या व्याकरण करते हुए रात्निक के बीच में अनुवर्तन करते हुए उसी रूप में उन वस्तुओं का व्यवहार करना। कोई न बोले। . .-- - करो विपाआ॥ अगा Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५०५ विनय ३. प्रतिरूप विनय : श्वेत काक आदि दृष्टांत का आदेश देता है, उसके भी उस आदेश का सूत्रोक्तविधि से चउधा वा पडिरूवो, तत्थेगणुलोमवयणसहितत्तं। पालन करना गुरुवाक्यानुलोमता विनय है। पडिरूवकायकिरिया, फासणसव्वाणुलोमं च॥ २. प्रतिरूप कायक्रिया विनय-मार्ग में चलने, वाचना देने अथवा अमुगं कीरउ आमं ति, भणति अणुलोमवयणसहितो उ। निरंतर बैठे रहने से गुरु क्लांत-श्रांत हो जाते हैं। उनका सिर से वयणपसादादीहि य, अभिणंदति तं वई गुरुणो॥ प्रारंभ कर पैर तक मर्दन करना चाहिए। यह विश्रामणा (पगचंपी चोदयंते परं थेरा, इच्छाणिच्छे य तं वई। आदि) प्रतिरूप कायक्रिया विनय है। पैर से प्रारंभ कर सिर तक जुत्ता विणयजुत्तस्स, गुरुवक्काणलोमता॥ चांपना अविनय है। अथवा गुरु जिस अंग से प्रारंभ करने का गुरवो जं पभासंति, तत्थ खिप्पं समुज्जमे। निर्देश दें, उसी से विश्रामणा प्रारंभ करे, कृतिकर्म करे । आज्ञानुरूप न ऊ सच्छंदया सेया, लोए किमुत उत्तरे॥ होने से यह. अविनय नहीं है। जधुत्तं गुरुनिद्देसं, जो वि आदिसती मुणी। ३. संस्पर्शन विनय-गुरु की विश्रामणा मृदुता से करे। वे जितना तस्सा वि विहिणा जुत्ता, गुरुवक्काणुलोमता॥ सहन कर सकें, उस प्रकार से करे। एक आसन में लम्बे समय अद्घाणवायणाए, निण्णासणयाए परिकिलंतस्स। तक बैठे रहने से वात, पित्त और कफ संक्षुब्ध हो जाते हैं। सीसादी जा पाया, किरिया पादादऽविणओ तु॥ विश्रामणा से वे पुनः अपने स्थान पर आ जाते हैं, मार्गगमन, जत्तो व भणाति गरू, करेति कितिकम्म मो ततो पव्वं। वाचना आदि से होने वाली थकान दूर हो जाती है, शरीर सुदृढ संफासणविणओ पण, परिमउयं वा जहा सहति॥ होता है, बल बढ़ता है तथा अर्श आदि रोग नहीं होते।। वातादी सट्ठाणं, वयंति बद्धासणस्स जे खुभिया। ४. सर्वत्र अनुलोमता विनय-'मैंने श्वेत रंग वाला कौआ देखा है खेदजओ तणुथिरया, बलं च अरिसादओ नेवं॥ अथवा मैंने पाण्डुर वर्ण वाला चतुर्दन्त हाथी देखा है'-गुरु के सेतवपू मे कागो, दिवो चउदंतपंडरो वेभो। द्वारा इस प्रकार के लोकव्यवहारविरुद्ध प्रतिलोम वचन कहे जाने आम ति पडिभणंते, सव्वत्थऽणुलोमपडिलोमे ॥ पर शिष्य कहता है-हां, हां (आपने देखा है)। ऐसा कहने वाला मिणु गोणसंगुलेहिं, गणेह से दाढवक्कलाई से। शिष्य सर्वत्र अनुलोमता विनय का प्रयोग करता है। यदि उस अग्गंगुलीय वग्धं, तुद डेव गडं भणति आमं ।। विषय में कुछ पूछना हो तो गुरु को एकान्त में पूछे। गुरु शिष्य को यदि कहे-'वत्स! वह सर्प कितने अंगुल (व्यभा८६-९५) परिमाण का है ? उसके कितनी दाढ़ाएं हैं ? उसकी पीठ पर बालों अथवा प्रतिरूप विनय के चार प्रकार हैं के कितने मंडल हैं?-इन सबको गिनकर बताओ। अपनी अंगुलियों १. अनुलोम वचनसहितता-शिष्य! अमुक कार्य करो-गुरु के के अग्रभाग से व्याघ्र को व्यथित करो। इस कूप को लांघ जाओ।' इस निर्देश पर अनुलोम वचन वाला शिष्य स्वीकृतिसूचक 'आमं' इस प्रकार गुरु के द्वारा प्राणापहारी वचन कहे जाने पर शिष्य उन (हां या तहत्) शब्द का उच्चारण करता है और अपने मुख की आज्ञाओं को 'तहत्' कहकर सहर्ष स्वीकार करता है। प्रसन्नता आदि से गुरु के उस वचन का अभिनंदन करता है। ४. लोकोत्तर विनय बलवान् : गंगा दृष्टांत आचार्य शिष्य को प्रेरणा देते हैं, उस वचन के प्रति इच्छा । विणओ उत्तरिओ त्ति य, बलिओ गंगा कतोमुही वहति। हो या अनिच्छा, विनयसंपन्न शिष्य के लिए तो गुरुवचन के पुव्वमुही अचलंतो, भणति निवं आगितिजुतो वि॥ अनुकूल वर्तन करना ही युक्त है। गुरु जो कहते हैं, उस विषय रण्णा पदंसितो एस, वयउ अविणीयदसणो समणो। में शिष्य को शीघ्र उद्यम करना चाहिए। स्वच्छन्दता लोक में भी पच्चागयउस्सग्गं, काउं आलोयए गुरुणो॥ श्रेयस्करी नहीं है तो लोकोत्तर मार्ग में तो वह श्रेयस्करी हो ही आदिच्च दिसालोयण, तरंगतणमादिया य पुव्वमुही। कैसे सकती है ? जो कोई भी मुनि यथोक्त गुरुनिर्देश के पालन मा होज्ज दिसामोहो, पुट्ठो वि जणो तहेवाह। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहार ५०६ आगम विषय कोश-२ वध-बंध-छेद-मारण, निव्विसिय धणावहार लोगम्मि। ० श्रमणी-रक्षक वृषभ की अर्हता भवदंडो उत्तरिओ, उच्छहमाणस्स तो बलिओ॥ * उपकरण सहित विहार द्र उपधि (व्यभा २५५४-२५५७) | ४. पादविहारी के प्रकार : उपदेश आहिण्डक... राजा ने पूछा-भंते! लौकिक विनय बलवान है या लोकोत्तर |५. भावी आचार्य के लिए देशाटन अनिवार्य विनय? आचार्य ने कहा-लोकोत्तर विनय बलवान् है। ० देशाटन से लाभ, जनपद-परीक्षा द्र उपसम्पदा राजा ने परीक्षा करने की इच्छा से पहले सुन्दर आकृति * उपसम्पदा"देशाटन ६. आचार्य के प्रस्थान की विधि वाले व्यक्ति से कहा-जाओ, जानकारी कर बताओ, गंगा किस ७. संघाटक (मुनिद्वय ) का विहार कब? कैसे? ओर बहती है? वह वहां से प्रस्थित नहीं हुआ। वहीं खड़े ० संघाटक-विहार की अर्हता खड़े उसने कहा-राजन्! यह बात तो सामान्य व्यक्ति भी ८. एकाकी विहरण के दोष जानता है कि गंगा पूर्वाभिमुखी बहती है। फिर राजा ने अविनीत | ९. मुनि और शुद्ध सार्थ दीखने वाले श्रमण को निर्देश दिया। आचार्य ने उसे भेजा। वह * यात्रापथ में उपयोगी सार्थ द्र सार्थवाह आचार्य की आज्ञा लेकर गया, लौटकर उसने कायोत्सर्ग कर गुरु * पथ में भी शय्यातर द्र शय्यातर को निवेदन किया |१०. रात्रि में विहार-निषेध __ भंते ! मैं आपकी अनुमति लेकर गंगातट पर गया, सूर्य को |११. ऋतुबद्धिक क्षेत्र और मासकल्प विहार देखा, क्योंकि सूर्य से सही दिशाबोध हो जाता है। फिर तरंगों के ० नवकल्पी विहार साथ पूर्वाभिमुख बहते तृणों को देखा। दिग्मूढ़ता न हो, इसके लिए * वर्षावास में विहार निषेध, अपवाद द्र पर्युषणाकल्प दो-तीन व्यक्तियों से भी पूछा। उन्होंने भी यही बताया-गंगा पूर्व * जिनकल्प-स्थविरकल्प : विहारकाल द्र स्थविरकल्प दिशा की ओर बहती है। १२. अराज्य-द्विराज्य-वैराज्य-गमन-निषेध * आर्यक्षेत्र में विहरण क्यों? द्र आर्यक्षेत्र राजा ने पुनः जिज्ञासा की-गुरुदेव! लोक में जो हमारी * आर्यकालक का स्वर्णभूमि में गमन द्र अनुयोग आज्ञा का उल्लंघन करता है, उसका वध, बन्धन, छेदन आदि * मुनि की नौकाविहार-विधि द्र नौका किया जाता है। किसी को मृत्युदण्ड, किसी को देशनिकाला और किसी का धन-अपहरण किया जाता है। फिर भी कई लोग आज्ञा १. द्रव्य-भाव विहार और गीतार्थ की अवमानना कर देते हैं। आपके यहां ऐसे कठोर दण्डों का भय ...."विविधपगारेहि रयं, हरती जम्हा विहारो उ॥ नहीं है, फिर भी प्रयत्नपूर्वक अक्षरशः आज्ञा की अनुपालना की आहारादीणट्ठा, जो य विहारो अगीत-पासत्थे। जाती है। इसका क्या कारण है? जो यावि अणुवउत्तो, विहरति दव्वे विहारो उ॥ आचार्य ने कहा-श्रमण को भवदण्ड का भय है। वह गीतत्थो तु विहारो, बितिओ गीतत्थनिस्सितो होति। जानता है कि आचार्य की आज्ञा का भंग करने वाला इहभव और एत्तो ततियविहारो नाणुण्णातो जिणवरेहिं ।। परभव दोनों में दु:खी होता है। अतः वह विनयबली होता है- सो पुण होती दुविधो, समत्तकप्पो तधेव असमत्तो। आंतरिक उत्साह के साथ उद्यम-पराक्रम करता है। तत्थ समत्तो इणमो, जहण्णमुक्कोसतो होति॥ गीतत्थाणं तिण्हं, समत्तकप्पो जहन्नतो होति। विहार-पदयात्रा, देशाटन। बत्तीससहस्साई, हवंति उक्कोसओ एस॥ १. द्रव्य-भाव विहार और गीतार्थ (व्यभा ९९५-९९७, १०१०, १०११) २. गीतार्थ : विहारकल्पिक विहार का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-विविध प्रकारों से कर्मरजों ३. यात्रापथ में वृषभ के कर्तव्य का हरण करने वाला। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५०७ विहार ० द्रव्य विहार-आहार, उपधि आदि द्रव्यों की सम्प्राप्ति के लिए पुरतो य पासतो पिट्ठतो य वसभा हवंति अद्धाणे। अगीतार्थ और पार्श्वस्थ का विहार। अनुपयुक्त (उपयोगशून्य) गणवइपासे वसभा, मिगमज्झे नियम वसभेगो।। मुनि का विहार भी द्रव्य विहार है। वसभा सीहेस मिगेस चेव थामावहारविजढा उ। ० भाव विहार-इसके दो प्रकार हैं-१. गीतार्थ साधओं का जो जत्थ होइ असहू, तस्स तह उवग्गह कुणंति॥ विहार। २. गीतार्थनिश्रित विहार। इनके अतिरिक्त तीसरा विहार भत्ते पाणे विस्सामणे य उवगरण-देहवहणे य। अर्हतों द्वारा अनुज्ञात नहीं है। भावविहार के दो अन्य प्रकार हैं- थामावहारविजढा, तिन्नि वि उवगिण्हए वसभा॥ १. असमाप्तकल्प (जिसके पास पूर्ण सहयोगी न हों)। सभए सरभेदादी, लिंगविओगं च काउ गीयत्था। २. समाप्तकल्प-इसके दो भेद हैं-जघन्य-तीन गीतार्थ मनियों खरकम्मिया व होउं, करेंति गुत्तिं उभयवग्गे॥ का विहार और उत्कृष्ट-बत्तीस हजार मुनियों का विहार। (बृभा २९०१-२९०४, ३०९७) २. गीतार्थ : विहारकल्पिक मार्ग में चलते समय सबसे आगे मृग परिषद् के मुनि जिणकप्पिओ गीयत्थो, परिहारविसुद्धिओ वि गीयत्थो। (अगीतार्थ) चलें, मध्य में वृषभ मुनि (समर्थ गीतार्थ) तथा पीछे गीयत्थे इड्डिदुर्ग, सेसा गीयत्थनीसाए॥ सिंह परिषद् के मुनि (गीतार्थ) चलें। अन्य आचार्यों का मत आयरिय गणी इड्डी, सेसा गीता वि होंति तन्नीसा। है-वृषभ पीछे चलते हैं क्योंकि अगीतार्थ-गीतार्थ या बाल-वृद्ध गच्छगय निग्गया वा, थाणनिउत्ताऽनिउत्ता वा ॥ साधुओं में जो परिश्रांत अथवा भूख-प्यास से पीड़ित हो जाते हैं तो आयारपकप्पधरा, चउदसपुव्वी अ जे अ तम्मज्झा। उनकी रक्षा करने वाले वृषभ पीछे चलते हैं अथवा बाल-वृद्ध तन्नीसाए विहारो, सबाल-वुड्डस्स गच्छस्स॥ मुनियों के आगे, पीछे और पार्श्व में वृषभ चलते हैं। आचार्य के (बृभा ६९१-६९३) पार्श्व में नियमतः वृषभ होते हैं । मृग परिषद् वाले मुनियों के मध्य जिनकल्पिक, परिहारविशुद्धिक, प्रतिमाप्रतिपन्नक और भी नियमतः एक वृषभ साधु होता है। यथालन्दिक निश्चित रूप से गीतार्थ होते हैं (क्योंकि ये जघन्यतः वृषभ साधु अपने बल-वीर्य का गोपन नहीं करते हुए, नौवें पूर्व के अन्तर्गत आचार नामक तृतीय वस्तु के ज्ञाता होते हैं) मृग या सिंह परिषद् का कोई सदस्य मुनि जब जहां असहिष्णु तथा गच्छ में ऋद्धिद्विक-आचार्य और उपाध्याय—ये नियमतः हो जाता है, उसका उसके अनुरूप उपग्रह करते हैं। भूख लगने गीतार्थ होते हैं अतः इनका विहार स्वतंत्र रूप से होता है। शेष । पर आहार और प्यास लगने पर पानी लाकर देते हैं। मार्ग में मुनि जो गच्छगत हैं अथवा गच्छनिर्गत (अशिव आदि कारणों से थकने पर उनकी विश्रामणा करते हैं । जो साधु अपने उपकरणों एकाकी), प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक आदि पदों पर नियुक्त । या शरीर को वहन करने में असमर्थ है, उसको, उसके उपकरणों हैं अथवा सामान्य साधु-ये सब गीतार्थ होने पर भी आचार्य- को वृषभ साधु वहन करते हैं । इस प्रकार अनिगूहित बल-वीर्य उपाध्याय की निश्रा में विहार करते हैं. स्वतंत्र रूप से नहीं। वाले वृषभ मुनि मृग, सिंह और वृषभ-तीनों परिषदों का गीतार्थ के तीन प्रकार हैं उपकार करते हैं। १. जघन्य गीतार्थ-आचारप्रकल्प (निशीथ) के धारक। चोर आदि का भय होने पर वृषभ स्वरभेद और वर्णभेद २. मध्यम गीतार्थ-कल्प, व्यवहार, दशाश्रतस्कंध आदि के ज्ञाता। करने वाली गुटिका के द्वारा स्वर और वर्ण भेद करके या वेश ३. उत्कृष्ट गीतार्थ-चौदहपूर्वी। बदल कर या आरक्षक होकर साधु-साध्वियों की सुरक्षा करते हैं। _इनकी निश्रा में आबाल-वृद्ध साधु विहरण करते हैं। ० श्रमणी-रक्षक वृषभ की अर्हता ३. यात्रापथ में वृषभ के कर्त्तव्य कयकरणा थिरसत्ता, गीया संबंधिणो थिरसरीरा। पुरतो वच्चंति मिगा, मझे वसभा उ मग्गओ सीहा। जियनिहिंदिय दक्खा, तब्भूमा परिणयवया य॥ पिट्ठओं वसभऽन्नेसिं, पडियाऽसहुरक्खगा दोण्हं॥ (बृभा २४४५) Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहार ५०८ आगम विषय कोश-२ श्रमणी-रक्षक की नौ अर्हताएं हैं-१. कृतकरण-सुरक्षाकर्म निष्कारणिक-उत्तरापथ में धर्मचक्र, मथुरा में देवनिर्मित स्तूप, में अभ्यस्त। २. धृति-सम्पन्न। ३. सूत्रार्थ को जानने वाला। ४. कोशल में जीवंतस्वामी की प्रतिमा तथा तीर्थंकरों की जन्म आदि उस श्रमणीवर्ग के भ्राता आदि संबंध वाला। ५. शारीरिक बल से भूमियां-इन्हें देखने के लिए जाने वाले। युक्त। ६. निद्रा और इन्द्रियों को जीतने वाला। ७. कुशल। ८. उस २. आहिण्डक-सतत भ्रमणशील मुनि। इनके दो प्रकार हैंभूमि के लोगों से परिचित।९. मध्यम वयःप्राप्त। ० उपदेश आहिण्डक-सूत्र और अर्थ का अध्ययन कर गुरु के ४. पादविहारी के प्रकार : उपदेश आहिण्डक..... निर्देशानुसार नाना देशों के आचार-व्यवहार, भाषा आदि के ज्ञान के .' दूताऽऽहिंड विहारी, ते वि य होंती सपडिवक्खा॥ लिए देशाटन करने वाले भावी आचार्य। दूइज्जंता दुविधा, णिक्कारणिगा तहेव कारणिगा। ० अनुपदेश आहिण्डक-कुतूहलवश देश-दर्शन करने वाले मुनि। ३. विहारी-मासकल्पविहारी। इनके दो प्रकार हैंअसिवादी कारणिता, चक्के थूभाईता इतरे॥ उवदेस अणुवदेसा, दुविहा आहिंडगा मुणेयव्वा। ० गच्छगत-ऋतुबद्ध काल में मासकल्पविहारी गच्छवासी। ० गच्छनिर्गत-जिनकल्पिक, प्रतिमाप्रतिपन्न, यथालंदिक और विहरंता वि य दुविधा, गच्छगता निग्गता चेव॥ अध्वप्रतिपन्नास्त्रिविधाः-द्रवन्त आहिण्डका विहारि शुद्धपारिहारिक-ये विधिपूर्वक गच्छ से निर्गमन कर अपने अपने कल्प के अनुसार विहरण करते हैं। जो संघीय सारणाणश्च। तत्र द्रवन्तः-ग्रामानुग्रामं गच्छन्तः, आहिण्डका:सततपरिभ्रमणशीलाः, विहारिणः-मासं मासेन विहरन्तः। वारणा से परित्यक्त होकर अविधि से निर्गमन करते हैं, वे एकाकी ..."उपधेर्लेपस्य वा निमित्तं गच्छस्य वा बहुगुणतरमिति कृत्वा, स्वच्छंदविहारी होते हैं। आचार्यादीनां वा आगाढे कारणे ये द्रवन्ति ते कारणिकाः। ये ___ उद्दद्दरे सुभिक्खे, खेमे निरुवद्दवे सुहविहारे। पुनरुत्तरापथे धर्मचक्रं मथुरायां देवनिर्मितस्तूपं आदिशब्दात् जइ पडिवज्जति पंथं, दप्पेण परं न अन्नेणं॥ कोशलायां जीवन्तस्वामिप्रतिमा तीर्थकृतां वा जन्मादिभूमय (बृभा ३०५३) एवमादिदर्शनार्थं द्रवन्तो निष्कारणिकाः।ये सूत्रा-ऽर्थी गृहीत्वा जहां पर्याप्त भिक्षा प्राप्त हो, आहार सुलभ हो, शत्रुसेना भविष्यदाचार्या गरूणामपदेशेन विषया-ऽऽचार-भाषो- आदि का भय न हो. महामारि आदि उपद्रव न हों. मासकल्पपलम्भनिमित्तमाहिण्डन्ते ते उपदेशाहिण्डकाः येत कौतकेन विधि से सखपर्वक विहरण संभव हो. ऐसे जनपद के होने पर भी देशदर्शनं कुर्वन्ति तेऽनुपदेशाहिण्डकाः। गच्छवासिनः यदि मुनि केवल दर्प से (देशदर्शन आदि के निमित्त) पथपरिव्रजन ऋतुबद्धे मासं मासेन विहरन्ति। गच्छनिर्गता द्विविधाः- करता है, तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। विधिनिर्गता अविधिनिर्गताश्च। विधिनिर्गताश्चतुर्धा- ५. भावी आचार्य के लिए देशाटन अनिवार्य जिनकल्पिकाः प्रतिमाप्रतिपन्ना यथालन्दिकाः शुद्धपारिहारि- जइ वि पगासोऽहिगओ, देसीभासाजुओ तहा वि खलु। काश्चेति। अविधिनिर्गताः सारणादिभिस्त्याजिता एकाकी- उंदुय सिया य वीसुं, एरगमाई य पच्चक्खं ॥ भूताः। ___ (बृभा ५८२३-५८२५ वृ) जो वि पगासो बहुसो, गुणिओ पच्चक्खओ न उवलद्धो। मार्गप्रतिपन्न मुनि तीन प्रकार के होते हैं जच्चंधस्स व चंदो, फुडो वि संतो तहा स खलु ॥ १. द्रोता-एक गांव से दूसरे गांव जाने वाले मनि के दो प्रकार हैं आयरियत्तअभविए, भयणा भविओ परीइ नियमेणं। ० कारणिक-अशिव, दुर्भिक्ष, राजद्वेष आदि कारणों से गमन करने अप्पतइओ जहन्ने, उभयं किं चाऽऽरियं त्तं ॥ वाले। अथवा वस्त्र, पात्र, लेप आदि लाने के लिए, गच्छ का "उन्दुकम्' इति स्थानम्। सिय'त्ति स्यात् शब्दो भवत्यर्थे उपकार करने के लिए तथा आचार्य आदि के आगाढ कारण आशंकायां भजनायां वा।... वीसुं' ति विष्वक् पृथगित्यर्थः । उत्पन्न होने पर गमन करने वाले। 'एरका' गुन्द्रा भद्रमस्तक इत्यर्थः पयः पिच्चंनीरमित्यादयश्च Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५०९ विहार शास्त्रप्रसिद्धाः शब्दास्तेषु तेषु देशेषु लोकेन तथातथा व्यवह्रिय- अभिनिष्क्रमण आदि से संबंधित भूमियों में विहरण करता हुआ माणा देशदर्शनं कुर्वता। (बृभा १२२३-१२२५ वृ) जिनवरों की जन्मभूमि आदि को साक्षात् देखता है, तब निःशंकता ___ यद्यपि शिष्य चौबीस वर्षों में सूत्र और उसके अर्थ को के का के कारण उसका सम्यग दर्शन अतीव विशद्ध हो जाता है। सम्यक रूप से अधिगत कर लेता है, फिर भी देशीभाषा के २. स्थिरीकरण-विहरणशील भव्य आचार्य को देखकर तत्रस्थ परिज्ञान के लिए देशदर्शन अवश्य करना चाहिए। इससे शास्त्रों में संविग्न मनियों में संवेग उत्पन्न होता है। वह स्वयं सुविहित, समागत देशी शब्द प्रत्यक्ष हो जाते हैं। यथा अप्रमत्त तथा विशुद्धलेश्य होने से तत्रस्थ सुविहित, अप्रमत्त तथा उन्दुक-स्थान। सिय--१. भवति । २. आशंका । ३. भजना। वीसुं विशुद्ध लेश्या वाले मुनियों का स्थिरीकरण करता है। ३. देशीभाषा कौशल-मगध, मालव, महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में विष्वक्, पृथक् । एरक-गुन्द्रा, भद्रमुस्तक। पयः-पिच्चं, नीरं।। जिस अर्थ का अनेक बार अभ्यास किया है. उस अर्थ भिन्न-भिन्न देशी भाषाएं हैं। वहां विहरण करने वाला मुनि उनको प्रत्यक्षतः उपलब्ध न करना वैसा ही है, जैसा कि जात्यन्ध उन देशी भाषाओं में निष्णात हो जाता है और तब वह नाना व्यक्ति के लिए स्फुट चन्द्रमा का भी साक्षात् न होना। देशीभाषाओं में निबद्ध आगम सूत्रों के उच्चारण तथा अर्थ-कथन जो शिष्य आचार्य पद के योग्य नहीं है. उसके लिए में कुशल हो जाता है। वह मुनि अभाषिक (अव्यक्तवर्णविभागभाषी देशदर्शन वैकल्पिक है, किन्तु जो शिष्य आचार्यपद के योग्य है, अथवा स्वदेशीयभाषाभाषी) लोगों को उनकी भाषा में धर्म का उपदेश देता है और उन्हें प्रतिबुद्ध कर प्रव्रजित भी कर लेता है। वह सूत्रार्थग्रहण के अनंतर नियमतः पर्यटन करता है। वह जघन्यतः आत्मतृतीय होता है (उसके साथ कम से कम शिष्य सोचते हैं-ये आचार्य हमारी भाषा में बोलते हैं, अत: हमारे हैं। वे आचार्य के प्रति प्रीति से बंध जाते हैं। दो साधु और होते हैं)। वह देशाटन से वर्षावास और ऋतुबद्धकाल के योग्य क्षेत्रों तथा आर्य-अनार्य क्षेत्रों को जान लेता है। ४. अतिशय उपलब्धि-पर्यटक मनि भिन्न-भिन्न विद्याओं के पारगामी आचार्य तथा बहुश्रुत मुनियों से मिलता है। उसे तीन ० देशाटन से लाभ, जनपदपरीक्षा प्रकार के अतिशयों की उपलब्धि होती है-१. सूत्रार्थ अतिशय दंसणसोही थिरकरण देस अइसेस जणवयपरिच्छा। २. सामाचारी अतिशय तथा ३. विद्या-योग-मंत्र-विषयक अतिशय। जम्मण-निक्खमणेसु य, तित्थयराणं महाणुभावाणं। भावी आचार्य देशाटन कर रहे हैं-यह सुनकर तथा उनको देखकर इत्थ किर जिणवराणं, आगाढं दंसणं होई॥ अन्यान्य आचार्यों के शिष्य भी सूत्रार्थग्रहण में पराक्रम करने लगते संवेगं संविग्गाण जणयए सुविहिओ सुविहियाणं। हैं। गृहस्थ भी उनके पास प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं। आउत्तो जुत्ताणं, विसुद्धलेसो सुलेस्साणं॥ ५. जनपद-परीक्षा-विविध प्रदेशों की सभ्यता-संस्कृति का ज्ञान। नाणादेसीकुसलो, नाणादेसीकयस्स सुत्तस्स। अभिलावअत्थकुसलो, होइ तओ णेण गंतव्वं ॥ अब्भे नदी तलाए, कूवे अइपूरए य नाव वणी। कहयति अभासियाण वि, अभासिए आवि पव्वयावेइ।। मंस-फल-पुप्फभोगी, वित्थिन्ने खेत्त कप्प विही। सव्वे वि तत्थ पीई, बंधंति सभासिओ णे ति॥ सज्झाय-संजमहिए, दाणाइसमाउले सुलभवित्ती। भवियाइरिओ देसाण दंसणं कणड एस डय सोउ। कालुभयहिए खेत्ते, जाणइ पडणीयरहिए य॥ अन्ने वि उज्जमंते, विणिक्खमंते य से पासे॥ _ (बृभा १२३९, १२४०) सुत्तत्थे अइसेसा, सामायारी य विज्ज-जोगाई। ..... मुनि देशदर्शन करता हुआ जनपदों की परीक्षा कर लेता (बृभा १२२६-१२३०, १२३४, १२३५) है। यथा-लाट देश में वर्षा के पानी से तथा सिन्धु देश में नदी के देशाटन से मुख्यतः पांच लाभ होते हैं पानी से धान्य की निष्पत्ति होती है। द्रविड़ में तालाब के पानी से १. दर्शनविशुद्धि-मुनि अतिशायी अचिन्त्यप्रभावी अर्हतों की जन्म, तथा उत्तरापथ में कूप के पानी से सिंचाई होती है। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहार ५१० आगम विषय कोश-२ ० बन्नास नदी के पूर से भावित भूमि में धान्य बोया जाता है। ० काननद्वीप में नौका के द्वारा आनीत धान्य खाया जाता है। ० मथुरा देश में व्यापार के द्वारा जीविका चलाई जाती है। सिन्धु देश में दुर्भिक्ष होने पर मांस के द्वारा निर्वाह किया जाता है। ० तोसलि और कोंकण के वासी पुष्प-फलभोगी होते हैं। ० वह मुनि विस्तीर्ण और संकीर्ण क्षेत्रों को जान लेता है। ० वह जनपद के आचार को जान लेता है। जैसे सिन्धु देश में मांसाहार अगर्हित माना जाता है। वह जनपद की सामाचारी को जान लेता है। जैसे सिन्ध देश में धोबी और महाराष्ट्र में कल्यपालं सम्भोजी होते हैं। ० वह यह भी जान लेता है-अमुक क्षेत्र स्वाध्याय और संयम साधना के लिए हितकारी है। अमुक क्षेत्र दानी श्रावकों से समाकुल है। अमुक क्षेत्र में भिक्षा सुप्राप्य है। अमुक क्षेत्र वर्षाकाल और ऋतुबद्धकाल के योग्य है, उपद्रवकारी नहीं है। ६. आचार्य के प्रस्थान की विधि तिहि-करणम्मि पसत्थे, णक्खत्ते अहिवईण अणुकूले। घेत्तूण णिति वसभा, अक्खे सउणे परिक्खंता॥ ....... आयरिया मग्गओ (बुभा १५४५, १५४६) प्रशस्त तिथि (नन्दा, भद्रा आदि), प्रशस्त करण (बव, बालव आदि) तथा आचार्य के अनुकूल नक्षत्र के आने पर सबसे पहले वृषभ साधु आचार्य की उत्कृष्ट उपधि को लेकर शकुन देखता हुआ निकले। तत्पश्चात् आचार्य प्रस्थान करें। ७. संघाटक (मुनिद्वय) का विहार कब? कैसे? असिवे ओमोदरिए, राया संदेसणे जतंता वा। अजाण गुरुनियोगा, पव्वज्जा. णातिवग्ग दुवे॥ समगं भिक्खग्गहणं, निक्खमण-पवेसणं अणुण्णवणं। (व्यभा १०२५, १०२६) निम्न कारणों से दो साधु विहार कर सकते हैं० अशिव (क्षुद्रदेवताकृत उपद्रव). दर्भिक्ष या राजप्रद्वेष हो। ० संदेशन-आचार्य द्वारा प्रेषण। ० ज्ञान-दर्शन-वर्धक शास्त्राभ्यास हेतु। ० गुरु की अनुज्ञा से आर्या को दूसरे क्षेत्र में ले जाने हेतु। दीक्षार्थी के स्थिरीकरण के लिए तथा किसी साधु का ज्ञातिवर्ग वन्दापनीय हो तो उसकी वंदना के लिए। कारणवश दो साधु विहार करते हैं, तो वे दोनों भिक्षा आदि के लिए एक साथ जाते हैं, वसति से निष्क्रमण या पुनः प्रवेश भी एक साथ करते हैं, शय्यातर को अनुज्ञापित भी एक साथ करते हैं। ० संघाटक-विहार की अर्हता कयकरणिज्जा थेरा, सुत्तत्थविसारया सुतरहस्सा। जे य समत्था वोढुं, कालगताणं उवहि-देहं । एय गुणसंपउत्ता, कारणजातेण ते दुयग्गा वि। उउबद्धम्मि विहारो, एरिसयाणं अणुण्णातो॥ (व्यभा १७४०, १७४१) प्रयोजन होने पर ऋतुबद्ध काल में दो साधुओं का विहार भी अनुज्ञात है, यदि वे पांच गुणों से सम्पन्न हों० कृतकरण-जो संघाटक-विहार में अभ्यस्त हों। ० स्थविर-जो श्रुत और दीक्षापर्याय से स्थविर हों। ० सूत्रार्थविशारद-जो सूत्रार्थ में निपुण हों। ० श्रुतरहस्य-जिन्होंने सूत्र के रहस्यों को अनेक बार सुना हो। ० समर्थ-जो मार्ग में कदाचित् एक का देहावसान हो जाये तो उसके मृत शरीर और समस्त उपधि को वहन करने में समर्थ हों। ८. एकाकी विहरण के दोष एगविहारी अ अजायकप्पिओ जो भवे चवणकप्पे। उवसंपन्नो मंदो, होहिइ वोसट्ठतिट्ठाणो॥ नाणाई तिट्ठाणा, अहवण चरणऽप्पओ पवयणं च। सुत्त-उत्थ-तदुभयाणि व, उग्गम उप्पायणाओ वा॥ ....."अजातकल्पिकः' अगीतार्थः, तथा च्यवनंचारित्रात् प्रतिपतनं तस्य कल्प:-प्रकारश्च्यवनकल्पः, पार्श्वस्थादिविहार इत्यर्थः। पाश्व (बृभा ६९४, ६९८ वृ) । जो अगीतार्थ अकेला होकर विहार करता है, वह च्यवनकल्पचारित्र से च्युत होकर पार्श्वस्थ विहार करता है। वह एकलविहार को स्वीकार कर सद्बुद्धि से विकल हो जाता है और ज्ञान, दर्शन, चारित्र-इन तीन स्थानों का परित्याग कर देता है। अथवा इन तीन स्थानों का परित्याग कर देता है Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५११ विहार १. षड्कायविराधना से चारित्र का। स्थापितानि काञ्चिदपि पीडां न कुर्वन्ति, एवं यूयमपि मम २. प्रचुर आहार के भक्षण से ग्लान होकर आत्मा का। कमपि भारं न कुरुथ। (बृभा २८९७ वृ) ३. अयतना से व्युत्सर्ग आदि करने से प्रवचन का। मुनि सार्थ के साथ प्रस्थान करने से पूर्व सार्थाधिपति से अथवा सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ का। कहते हैं-'यदि आप हमारा योगक्षेम वहन करना स्वीकार करते अथवा उद्गम, उत्पादन और एषणा की शुद्धि का। हैं तो हम आपके साथ चलने के लिए तैयार हैं।' सार्थाधिपति इसे अपुव्वस्स अगहणं, न य संकिय पुच्छणा न सारणया। स्वीकार करता है तो वह शुद्ध सार्थ है। वह कहता है-जैसे सिर गुणयंते अ अदटुं, सीदइ एगस्स उच्छाहो॥ पर स्थापित सर्षप और चम्पकपष्प किञ्चित भी पीडाकारी नहीं चरगाई वुग्गाहण, न य वच्छल्लाइ दंसणे संका। होते, वैसे ही आप हमारे लिए भारभूत नहीं हैं। थी सोहि अणज्जमया, निप्पग्गहया य चरणम्मि॥ सामन्ना जोगाणं, बज्झो गिहिसन्नसंथओ होड। १०. रात्रि में विहार-निषेध दंसण-नाण-चरित्ताण मइलणं पावई एक्को॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राओ वा (बृभा ६९९-७०१ वृ) वियाले वा अद्धाणगमणं एत्तए॥ (क १/४४) अगीतार्थ एकलविहारी अभिनव ज्ञान का ग्रहण नहीं कर साधु-साध्वी रात्रि या विकाल में विहार नहीं कर सकते। पाता, क्योंकि उस ज्ञान को देने वाला कोई नहीं होता। सूत्र और ११. ऋतुबद्धिक क्षेत्र और मासकल्प विहार । अर्थ विषयक शंका होने पर किसी के पास पृच्छा का अवकाश .."णिक्खमणे य पवेसे, पाउस-सरए य वोच्छामि। नहीं होता। सूत्र और अर्थ का परावर्तन करते समय अशुद्धि के ऊणातिरित्तमासे, अट्ठ विहरिऊण गिम्ह-हेमंते। लिए सचेत करने वाला कोई नहीं होता। दूसरे मुनियों को परावर्तन एगाहं पंचाहं, मासं च जहा समाहीए। करते हुए न देखकर स्वयं का उत्साह भी मंद हो जाता है। काऊण मासकप्पं, तत्थेव उवागयाण ऊणा उ.... एकाकी अगीतार्थ मुनि को चरक आदि अन्यतीर्थिक अपनी वासाखेत्तालंभे ....................... कुयुक्तियों के द्वारा भ्रमित कर सकते हैं। एकाकी होने के कारण पडिमापडिवण्णाणं, एगाहो पंच होतऽहालंदे। वह साधर्मिक मुनियों के प्रति वात्सल्य तथा उनका उपबृंहण, जिण-सुद्धाणं मासो, णिक्कारणतो य थेराणं॥ स्थिरीकरण आदि नहीं कर सकता। उसके मन में शंका आदि दोष ऊणातिरित्तमासा, एवं थेराण अट्ठ णायव्वा। उत्पन्न होने पर दर्शन परित्यक्त हो जाता है। एकाकी होने के कारण स्त्री-संबंधी दोष भी उत्पन्न हो इयरेसु अट्ठ रियितुं, णियमा चत्तारि अच्छंति॥ सकते हैं। अपराध की शोधि के लिए वह प्रायश्चित्त किससे ले? (निभा ३१४३-३१४८) प्रायश्चित्त के बिना विशोधि नहीं होती। सारणा के बिना उद्यमशीलता मुनि ऋतुबद्ध क्षेत्र से प्रावृट् में निष्क्रमण कर वर्षाक्षेत्र में मंद हो जाती है। गुरु की आज्ञा के नियंत्रण से मुक्त होने के कारण प्रवेश करते हैं तथा वर्षाक्षेत्र से शरद् में निष्क्रमण कर ऋतुबद्ध क्षेत्र उसका चारित्र परित्यक्त हो जाता है। में प्रवेश करते हैं। जिनको जैसे ज्ञान-दर्शन-चारित्र-समाधि होती एकाकी मुनि विनय, वैयावृत्त्य आदि श्रामण्य योगों से बाह्य है, वे वैसे विहरण कर वर्षाक्षेत्र में जाते हैं। । हो जाता है। वह गृहस्थों के समाचरण से परिचित हो जाता है। ऋतुबद्धकाल में प्रतिमाप्रतिपन्न अनगार एक दिन, यथालंदिक । उसमें ज्ञान, दर्शन और चारित्र की मलिनता आ जाती है। पांच दिन तथा जिनकल्पिक, शुद्धपारिहारिक और स्थविरकल्पिक ९. मुनि और शुद्ध सार्थ एक मास तक एक स्थान में रहकर विहार करते हैं। इस प्रकार सिद्धत्थग पुप्फे वा, एवं वुत्तुं... ॥ आठ मास (हेमंत के चार मास और ग्रीष्म के चार मास) विहरण यथा 'सिद्धार्थाः' सर्षपाश्चम्पकपुष्पाणि वा शिरसि करते हैं। इनमें न्यूनाधिकता भी हो सकती है Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर्य जिस क्षेत्र में आषाढ़ मासकल्प किया, उसी क्षेत्र में वर्षावास करने पर न्यून आठ मास और वर्षावासयोग्य क्षेत्र न मिलने पर भाद्रपद शुक्ला पंचमी को पर्युषण करने पर अधिक आठ मास होते हैं। यह न्यूनाधिकता कारणिक स्थविरकल्पी की अपेक्षा से है । जिनकल्पी तथा निष्कारणिक स्थविरकल्पी यथाविधि आठ मास विहार कर नियमतः चार मास वर्षावास करते हैं। ० नौ कल्पी विहार .....समाणे वा, वसमाणे वा गामाणुगामं दूइज्माणे ॥ 'समाना:' इति जंघाबलपरिक्षीणतयैकस्मिन्नेव क्षेत्रे तिष्ठन्तः, तथा 'वसमाना: ' मासकल्पविहारिणः । (आचूला १/४६ वृ) समाणो नाम समधीनः अप्रवसितः । उदुबद्धिए अट्ठमासे वासावासं च णवमं, एयं णवविहं विहारं विहरंतो वसमाणो भण्णति । (नि २/३८ की चू ) समाणे वुड्डवासी, वसमाणे णवविकप्पविहारी । ..... ( निभा १०५४) मुनि दो रूपों में वास करते हैं १. समान (सत्)– जंघाबल की क्षीणता के कारण एक ही क्षेत्र में रहने वाले वृद्धवासी भिक्षु । २. वसमान—मासकल्पविहारी। ऋतुबद्ध काल के आठ मास के आठ विहार और वर्षावास का नौवां विहार - इस प्रकार नौकल्पविहारी - ग्रामानुग्राम विहरण करने वाले भिक्षु | * नौकल्पी विहार द्र श्रीआको १ श्रमण १२. अराज्य - द्विराज्य- वैराज्यगमन - निषेध से भिक्खूगामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से अरायाणि वा दोरजाणिवा, वेरज्जाणि वा, विरुद्धरज्जाणि वा सति लाढे विहाराए, संथरमाणेहिं जणवएहिं, णो विहारवत्तियाए पवज्जेज्ज गमणाए ॥ (आचूला ३/१०) भिक्षु ग्रामानुग्राम परिव्रजन करे, मार्ग में अराजक - राजाविहीन क्षेत्र, द्विराज्य वैराज्य या विरुद्धराज्य वाले प्रदेश हों तो मुनि वहां विहार की प्रतिज्ञा से जाने का संकल्प न करे, यदि विहारयोग्य प्रशस्त क्षेत्र हो, अन्य आर्य जनपद विद्यमान हों। ५१२ आगम विषय कोश - २ वीर्य - नाम कर्म के उदय तथा वीर्यान्तराय कर्म के क्षयक्षयोपशम से प्राप्त शक्ति, सामर्थ्य । १. वीर्य प्राप्ति का कारण २. वीर्य के प्रकार ३. अवस्था, आहार और बल * बालवीर्य संहनन - धृति और कर्मबंध १. वीर्य प्राप्ति का कारण वीरियं ति वा बलं ति वा सामत्थं ति वा परक्कमोत्ति वा थामोति वा गट्ठा। वीरियं णाम शक्तिः । सा हि वीर्यान्तरायक्षयोपशमाद् भवति । (निभा ४३ की चू) द्र कर्म वीर्य - शक्ति वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती है । वीर्य, बल, सामर्थ्य, पराक्रम और स्थाम-ये एकार्थक हैं। (जीव कांक्षामोहनीय कर्म का बंध करता है। उसका परिणामी कारण प्रमाद और निमित्त कारण योग है। प्रमाद योग से उत्पन्न होता है। योग वीर्य से, वीर्य शरीर से तथा शरीर जीव से उत्पन्न होता है । प्राणी की सारी प्रवृत्तियां जीव और शरीर दोनों के संयोग से होती हैं। वीर्य दो प्रकार का है-क्रियात्मक (सकरण) और अक्रियात्मक (अकरण) । जीव का अपरिस्पन्दात्मक वीर्य केवल जीव से संबद्ध होता है। जीव का परिस्पन्दात्मक वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है । उसी के द्वारा मन, वचन और शरीर की प्रवृत्तियां संचालित होती हैं । - भ १ / १४१ - १४५ वृ) २. वीर्य के प्रकार भववीरियं गुणवीरियं चरित्तवीरियं समाधिवीरियं च । आयवीरियं पिय तहा, पंचविधं वीरियं अहवा ॥ बालं पंडित उभयं करणं लद्विवीरियं च पंचमगं । ण हु वीरियपरिहीणो, पवत्तते णाणमादीसु ॥ भववीरियं णिरयभवादिसु । तत्थ णिरयभववीरियं इमं जंतासिकुंभिचक्ककंदुपयण भट्टसोल्लणसिंबलिसूलादीसु भिज्जमाणाणं महंतवेदणोदये वि जं ण विलिज्जति । ... तिरियाण य वसभातीण महाभारुव्वहणसामत्थं, अस्साण धावणं तहा सीय- उण्ह - खुह- पिवासादिविसहणत्तं च । मणुयाण सव्वचरणपडिवत्तिसामत्थं । देवाण वि पंचविहपज्जत्तुप्पत्तणं Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ तरमेव जहाभिलसियरूवविउव्वणसामत्थं, वज्जणिवाते वेयणोदीरणे वि अविलयत्तं । ....... गुणवरियं जं ओसहीण तित्त- कडुय कसाय-अंबिलमहुरगुणत्ताए रोगावणयणसामत्थं । एतं गुणवीरियं । चरित्तवीरियं णाम असेसकम्मविदारणसामत्थं, खीरादिलदुप्पादणसामत्थं च । समाहिवीरियं णाम एरिसं मणादिसमाहाणमुप्पज्जति जेण केवलमुप्पाडेति सव्वट्टसिद्धिदेवत्तं वा णिव्वत्तेति, अप्पसत्थमणादिसमाहाणेणं पुण अहे सत्तमणिरयाउयं णिव्वत्तेति । वीरियं दुविहं विओगायवीरियं च अविओगायवीरियं च । विओगायवीरियं जहा संसारावत्थस्स जीवस्स मणमादिजोगा वियोगजा भवंति । अविओगायवीरियं पुण उवओगो, असंखेज्जायपएसत्तणं च । ..... बालं असंजयस्स असंजमवीरियं । पंडितं संजतस्स संजमवीरियं । बालपंडितवीरियं सावगस्स संजमासंजम - वीरियं । करणवीरियं क्रियावीर्यं घटकरणक्रियावीर्यं पटकरणक्रियावीरियं । एवं जत्थ जत्थ उट्ठाणकम्मबलसत्ती भवति तत्थ तत्थ करणवीरियं अहवा करणवीरियं मणोवाक्कायकरणवीरियं । जो संसारीजीवो अप्पज्जत्तगो ठाणादिसत्तिसंजुत्तो तस्स तं लद्धिवीरियं भण्णति । .....ण हु वीरियपरिहीणो पवत्तते णाणमादीसु ।' ओय एवं तत सव्वेसुऽहीकारो । (निभा ४७, ४८ चू) वीर्य के पांच प्रकार हैं- भववीर्य, गुणवीर्य, चारित्रवीर्य, समाधिवीर्य और आत्मवीर्य । १. भववीर्य - नारक आदि भवों का वीर्य/सामर्थ्य | .० नारकभववीर्य - यंत्र, असि, कुंभी, चक्र, कंदु आदि में पकाने पर, शूल आदि से भेदन करने पर महान वेदना होती है, फिर भी नारक जीव विलीन नहीं होते - यह उनका भववीर्य है । ० तिर्यंचभववीर्य - वृषभ में महान् भार वहन का, घोड़े में धावन का तथा शीत-उष्ण, क्षुधा पिपासा सहन करने का सामर्थ्य | ० मनुष्यभववीर्य - मनुष्य में सर्वचारित्र स्वीकार करने का सामर्थ्य । देवभववीर्य - देव पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त होते ही यथेष्ट रूपों की विक्रिया/विकुर्वणा करने में समर्थ होते हैं। वे वज्रनिपात होने पर भी नष्ट नहीं होते । o ५१३ वीर्य २. गुणवीर्य - औषधियों में तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल या मधुर गुण के कारण रोग अपनयन का सामर्थ्य । ३. चारित्रवीर्य - अशेष कर्मविदारण का सामर्थ्य और क्षीरास्रव आदि लब्धि उत्पादन का सामर्थ्य । ४. समाधिवीर्य - मन आदि का ऐसा समाधान उत्पन्न होता है, जिससे केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है अथवा सर्वार्थसिद्धविमान में देवत्व प्राप्त होता है । अप्रशस्त मन आदि के समाधान से सातवीं नरक भी प्राप्त हो सकती है। ५. आत्मवीर्य- इसके दो प्रकार हैं o वियोगात्मवीर्य- जैसे संसारी जीव के मन आदि योग वियोगज होते हैं, उनका वीर्य । ० अवियोगात्मवीर्य - उपयोग (चेतना का व्यापार), आत्मप्रदेशत्व । अथवा वीर्य के पांच प्रकार हैं १. बालवीर्य - असंयमी का सामर्थ्य । २. पंडितवीर्य-संयमी का सामर्थ्य । ३. उभयवीर्य - संयतासंयत ( श्रावक) का सामर्थ्य । ४. करणवीर्य - घटकरण, पटकरण आदि क्रियावीर्य । जहां-जहां उत्थान, कर्म, बल और शक्ति है, वहां-वहां करणवीर्य होता है । अथवा मन, वचन और काया- इन तीन करणों का वीर्य करणवीर्य है। ५. लब्धिवीर्य - जो स्थान आदि की शक्ति से संयुक्त, अपर्याप्तक संसारी जीव हैं, उनका वीर्य । असंख्येय 'वीर्यहीन व्यक्ति ज्ञान आदि किसी भी आचार में प्रवृत्त नहीं हो सकता।' अतः प्रत्येक आचार में वीर्य का प्रयोजन है । (सिद्ध अवीर्य होते हैं । वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है । कर्मशास्त्रीय दृष्टि से अंतराय कर्म का क्षायोपशमिक या क्षायिक भाव और शरीर नाम कर्म का उदय-इनके योग से वीर्य उत्पन्न होता है। सिद्धों में अंतराय कर्म का क्षायिक भाव है, किन्तु उनके शरीर नहीं है, इसलिए उन्हें अवीर्य कहा गया है । संसारी जीव के शरीर और अंतराय कर्म का क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक भावये दोनों होते हैं, इसलिए वे अवीर्य भी हैं और सवीर्य भी हैं। शैलेशी अवस्था में लब्धिवीर्य होता है, किन्तु करणवीर्य नहीं होता । मनुष्य लब्धिवीर्य से सवीर्य होता है और करणवीर्य से वह सवीर्य और अवीर्य दोनों होता है। लब्धिवीर्य एक क्षमता है, Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर्य ५१४ आगम विषय कोश-२ करणवीर्य क्रियात्मकता या प्रवृत्ति है। जिसमें उत्थान, कर्म, बल, (क) औरस्यबल-शारीरिक बल। इसके अन्तर्गत मनोवीर्य वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम होता है, वह करणवीर्य की दृष्टि से वागवीर्य, कायवीर्य तथा आनापान वीर्य का समावेश होता है। सवीर्य होता है। जिसमें उत्थान आदि नहीं होते, वह करणवीर्य (ख) इन्द्रिय बल-श्रोत्र आदि पांच इन्द्रियों का अपने-अपने की दृष्टि से अवीर्य होता है।-भ १/३७६, ३८१ भाष्य विषय के ग्रहण का सामर्थ्य। वीर्य के चार प्रकार हैं (ग) आध्यात्मिक बल-इसके अनेक प्रकार हैं१. द्रव्य वीर्य-इसके तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। ० उद्यम-ज्ञान आदि के अनुष्ठान में उत्साह। सचित्त द्रव्यवीर्य के तीन भेद हैं ० धृति-कष्टों में अक्षुब्धता। ० द्विपद-अर्हत, चक्रवर्ती, बलदेव आदि का वीर्य अथवा स्त्री- शौण्डीर्य-त्याग करने का उत्कृष्ट सामर्थ्य । जैसे-चक्रवर्ती का रत्न का वीर्य अथवा जिस द्रव्य का जो वीर्य हो, वह। मन अपने षखंड राज्य को छोड़ते समय भी प्रकम्पित नहीं • चतुष्पद--अश्वरत्न, हस्तिरत्न आदि का वीर्य अथवा सिंह, होता। अथवा आपदा में अविषण्णता। अथवा कठिन कार्य को व्याघ्र, शरभ आदि का वीर्य। करने में भी हर्षानुभूति। ० अपद-गोशीर्षचन्दन आदि का शीत-उष्णकाल में उष्ण-शीत ० क्षमा-दूसरों के द्वारा आक्रोश किए जाने पर भी किंचित् भी वीर्य परिणाम। क्षुब्ध न होने का सामर्थ्य। अचित्त द्रव्य वीर्य के तीन प्रकार हैं ० गाम्भीर्य-परीषहों तथा उपसर्गों को सहने में अधृष्यता अथवा ० आहारवीर्य-आहार की शक्ति। जैसे सद्यः बनाए हुए 'घेवर' । अपने चमत्कारी अनुष्ठान में भी अहंकारशून्यता। प्राणकारी, हृद्य तथा कफनाशक होते हैं। औषधियों की शल्योद्धरण, ० उपयोग-साकार उपयोग तथा अनाकार उपयोग से युक्त। व्रण-संरोहण, विषापनयन, मेधाकरण आदि जो शक्तियां हैं, वह ० योग-मनोवीर्य, वचनवीर्य तथा कायवीर्य से युक्त। रसवीर्य है। चिकित्साशास्त्र आदि में विपाकवीर्य तथा योनिप्राभृत ० तप- बारह प्रकार के तपोनुष्ठान को अग्लानभाव से करना। ग्रंथ में नानाविध द्रव्यवीर्य प्रतिपादित है। ० संयम-सप्तदशविध संयम में प्रवृत्ति । -सूनि ९१-९७ वृ ० आवरणवीर्य-कवच आदि की शक्ति। वीर्य दो प्रकार का है० प्रहरणवीर्य-चक्र आदि शस्त्रों की शक्ति। १. कर्मवीर्य-कर्मों के उदय से निष्पन्न शक्ति को कर्मवीर्य कहा २. क्षेत्रवीर्य-क्षेत्रगत शक्ति । जैसे देवकुरु, उत्तरकुरु आदि क्षेत्रों में जाता है। यह बालवीर्य है। उत्पन्न सभी द्रव्य उत्कृष्ट शक्ति वाले होते हैं। २. अकर्मवीर्य-वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न शक्ति को ३. कालवीर्य-एकान्तसुषमा आदि काल में अथवा विभिन्न ऋतुओं अकर्मवीर्य कहा जाता है। इसमें कर्म-बंधन नहीं होता और न यह में विभिन्न द्रव्यों की विशिष्ट शक्ति। अथवा भिन्न-भिन्न पदार्थों कर्म-बंध में हेतुभूत ही होता है। यह पंडितवीर्य है। में कालहेतुक बल होता है-'वर्षा ऋतु में नमक, शरद् ऋतु में प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहा गया है। जो पानी, हेमन्त में गाय का दूध, शिीशर में आंवले का रस, बसन्त में कषाय के बंधन से मुक्त, प्रमाद या हिंसा में प्रवृत्त नहीं होने वाला घी और ग्रीष्म में गुड़-ये अमृततुल्य हो जाते हैं।' अकर्मवीर होता है, उसी का वीर्य अकर्मवीर्य कहलाता है, इससे ग्रीष्म ऋतु में हरीतकी (हरड़) बराबर गुड़ के साथ, वर्षा कर्म का क्षय होता है। -सू १/८/२, ३, १० चू) ऋतु में सैन्धव नमक के साथ, शरद् ऋतु में बराबर शक्कर के साथ, ३. अवस्था, आहार और बल हेमन्त ऋतु में सौंठ के साथ, शिशिर में पीपल के साथ और बसंत ऋतु पणपन्नगस्स हाणी, आरेणं जेण तेण वा धरइ।" में मधु के साथ सेवन करने से समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं। एग पणगऽद्धमासं, सट्ठी सुण-मणुय-गोण-हत्थीणं।" ४. भाववीर्य-वीर्यशक्ति से युक्त जीव में वीर्यविषयक अनेक (बृभा १५२८, १५३०) प्रकार की लब्धियां होती हैं। उनके मुख्य तीन प्रकार हैं पचपन वर्ष की अवस्था में मनुष्य का बल विशिष्ट आहार Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५१५ वेद के बिना क्षीण हो जाता है। इससे पूर्व वह जैसे-तैसे आहार से वेद के तीन प्रकार हैं--स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। निर्वाह कर लेता है। १. स्त्रीवेद-पित्त की उग्रता होने पर मधुर वस्तु की अभिलाषा क्षीण शरीर वाला कुत्ता एक अहोरात्र में ही आहार से पुष्ट हो होती है। इसी भांति स्त्री की पुरुष के प्रति अभिलाषा होती है। जाता है। मनुष्य पांच दिनों में, गाय और वृषभ पन्द्रह दिनों में तथा २. परुषवेद-कफ की उग्रता होने पर अम्ल वस्तु की इच्छा होती हाथी साठ दिनों में पौष्टिक आहार प्राप्त करके पुष्ट हो जाता है। है। इसी भांति पुरुष की स्त्री के प्रति अभिलाषा होती है। वद्धवास-स्थविर मनियों का स्थिरवास। द्र स्थविर ३. नपुंसकवेद-पित्त और श्लेष्म दोनों की उग्रता होने पर मंजिका (तुलसी) की अभिलाषा होती है। इसी भांति स्त्री और पुरुष दोनों वृषभ-गच्छ की कार्यचिन्ता में नियुक्त। द्र स्थविरकल्प के प्रति अभिलाषा होना नपुंसकवेद है। * वृषभ की चिकित्सा द्र वैयावृत्त्य (वेद का अर्थ है-'मैथुन की संवेदना उत्पन्न करने वाला * वृषभ संस्थान द्र अनशन मोहकर्म का परमाणु-स्कंध।' इसका दूसरा अर्थ है-'मैथुन की संवेदना।' इसका तीसरा अर्थ है-'मैथुन-क्रिया में उत्पन्न होने वेद-मैथुन की संवेदना। संवेदना को उत्पन्न करने वाला वाला लिंग।'.... संवेदना को भाववेद और अवयव को द्रव्य वेद मोहकर्म का परमाणुस्कंध। कहा जाता है।-भ २/७९ का भाष्य) १. स्त्री-पुरुष-नपुंसक वेद का स्वरूप २. तीन वेद : त्रिविध अग्नि से तुलना २. तीन वेद : त्रिविध अग्नि से तुलना थी पुरिसो अ नपुंसो, वेदो तस्स उ इमे पगारा उ। ३. वेदत्रयी का उदय ० वेद के उदय में अवस्था प्रमाण नहीं फुफुम-दवग्गिसरिसो, पुरदाहसमो भवे तइओ। * वेदोदय का मुख्य-गौण कारण द्र ब्रह्मचर्य उदयं पत्तो वेदो, भावग्गी होइ तदुवओगेणं। * जिनकल्पी में वेद द्र जिनकल्प भावो चरित्तमादी, तं डहई तेण भावग्गी। ४. नपुंसक के सोलह प्रकार (बृभा २०९८, २१५०) ५. पंडक नपुंसक के लक्षण और प्रकार त्रिविध वेद के ये तीन प्रकार हैं० वेदउपघात-उपकरणउपघात-दृष्टांत १. स्त्रीवेद करीष की अग्नि के समान है। कंडे की आग भीतर ही ६. क्लीब नपुंसक : स्वरूप और प्रकार ७. वातिक नपुंसक का स्वरूप भीतर से जलती है, परिस्फुट रूप से प्रज्वलित नहीं होती, न ही ८. दीक्षा के अर्ह-अनर्ह : नपुंसक बुझती है किन्तु चालित करने पर तत्क्षण ही उद्दीप्त हो जाती है। ० नपुंसक के दीक्षा-निषेध का हेतु २. पुरुषवेद दावाग्नि के समान है। दावाग्नि ईंधन का योग पाकर * नपुंसक के मुण्डापन आदि का निषेध द्र दीक्षा सहसा प्रज्वलित होकर बुझ भी जाती है। | ९. पंडक आदि की दीक्षा के अपवाद.... ३. नपुंसकवेद नगरदाह के समान है। यह अग्नि शुष्क में या आर्द्र में सर्वत्र प्रज्वलित हो जाती है। इसी प्रकार नपुंसकवेद स्त्री में, १. स्त्री-पुरुष-नपुंसक वेद का स्वरूप पुरुष में-सर्वत्र उद्दीप्त होता है, उपशांत नहीं होता। वेदस्त्रिविधः स्त्री-पुं-नपुंसकभेदात्। तत्र यत् स्त्रिया: उदय प्राप्त वेद स्त्री-अभिलाषा आदि के कारण भावाग्नि पित्तोदये मधुराभिलाष इव पुंस्यभिलाषो जायते स स्त्रीवेदः, है। वह चारित्र आदि भावों को जलाता है। यत् पुनः पुंसः श्लेष्मोदयादम्लाभिलाषवत् स्त्रियामभिलाषो भवति स पुंवेदः, यत्तु पण्डकस्य पित्त-श्लेष्मोदये मञ्जिका- ३. वेदत्रयी का उदय भिलाषवदुभयोरपि स्त्री-पुंसयोरभिलाषः समुदेति स नपुंसक- ...."तिविहम्मि वि वेदम्मि, तियभंगो होइ कायव्वो॥ _(बृभा ८३१ की वृ) (बृभा ५१४७) वेदः। Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेद तीनों वेदों के तीन-तीन विकल्प करणीय हैं- पुरुष पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसक वेद - इन तीनों वेदों का वेदन करता है। इसी प्रकार स्त्री और नपुंसक के भी तीनों वेदों का उदय होता है । ( एक जीव एक समय में एक ही वेद का वेदन करता है, जैसे - स्त्रीवेद का अथवा पुरुषवेद का । उदय प्राप्त स्त्रीवेद के कारण स्त्री पुरुष की इच्छा करती है और उदय प्राप्त पुरुषवेद के कारण पुरुष स्त्री की इच्छा करता है । - भ २/८० ) • वेद के उदय में अवस्था प्रमाण नहीं न वओ इत्थ पमाणं, न तवस्सित्तं सुयं न परियाओ । अवि खीणम्मि वि वेदे, थीलिंगं सव्वहा रक्खं ॥ ........अत एव स्त्रीकेवली यथोक्तामार्थिकोपकरणप्रावरणादियतनां करोति । (बृभा २१०० वृ) वेद के उदय में न वार्धक्य आदि अवस्था प्रमाण है, न तप, न श्रुत का अवगाहन और न दीर्घ संयमपर्याय ही प्रमाण है। वेद के क्षीण होने पर भी स्त्रीलिंग सर्वथा रक्षणीय है । इसीलिए स्त्रीकेवली साध्वीयोग्य उपकरणों से प्रावृत हो अपनी रक्षा करती है। (अनुत्तरविमान के देवों में वेदमोह का उदय नहीं होता और वह क्षीण भी नहीं होता, किन्तु उपशांत रहता है। —भ ५/१०७ ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान के देव अप्रवीचार होते हैं । उनमें मोह अल्प होता है, वेदाग्नि मंद होती है, इसलिए वे सहज ही परम सुख से तृप्त होते हैं। उनमें रूप आदि के भोग की आकांक्षा उत्पन्न नहीं होती । - तभा ४ / १० वृ) ४. नपुंसक के सोलह प्रकार पंडए वाइए कीवे, कुंभी ईसालुए ति य । सउणी तक्कम्मसेवी य, पक्खियापक्खिते ति य ॥ सोगंधिए य आसित्ते, वद्धिए चिप्पिए ति य । मंतोसहिओवहते, इसिसत्ते देवसत्ते य ॥ (बृभा ५१६६, ५१६७) नपुंसक के सोलह प्रकार हैं- १. पंडक २. वातिक ३. क्लीब ४. कुंभी—उत्कट मोहोदय से जिसका मेहन महाप्रमाण वाला हो । ५. ईर्ष्यालु - प्रतिसेवना करने वाले को देखकर जिसके मन में मैथुन की अभिलाषा उत्पन्न हो जाती है। उसका निरोध करने पर ५१६ आगम विषय कोश- २ कालान्तर में जो नपुंसकत्व को प्राप्त हो जाता है। ६. शकुनि - गृहचटक की तरह अभीक्ष्ण प्रतिसेवी । ७. तत्कर्मसेवी - क्षरित वीर्य का सेवन करने वाला । ८. पाक्षिकापाक्षिक - कृष्ण और शुक्ल — इन दोनों में से किसी एक पक्ष में मोह के तीव्र उदय का अनुभव करने वाला । ९. सौगन्धिक - सागारिक की गंध को शुभ मानने वाला । १०. आसिक्त - स्त्री के शरीर में आसक्त । ११. वर्द्धित - बाल्यकाल में जिसके वृषण निकाल दिए हों। १२. चिप्पित - उत्पन्न होते ही अंगुष्ठ, प्रदेशनी और मध्यमा से मलकर जिसके वृषणद्वय को नष्ट कर दिया गया हो । १३. मंत्र उपहत - मंत्र से उपहत वेद वाला । १४. औषधिउपहत — औषधि से उपहत वेद वाला । १५. ऋषि अभिशप्त - ऋषि के शाप से नपुंसकता को प्राप्त । १६. देव अभिशप्त - देव के शाप से नपुंसकता को प्राप्त व्यक्ति । ५. पंडक नपुंसक के लक्षण और प्रकार महिलासहावो सर- वन्नभेओ, मेण्ढं महंतं मउता य वाया । ससद्दगं मुत्तमफेणगं च, एयाणि छ प्पंडगलक्खणाणि ॥ गती भवे पच्चवलोइयं च, मिदुत्तया सीयलगत्तया य । धुवं भवे दोक्खरनामधेज्जो, सकारपच्चंतरिओ ढकारो ॥ ..... पच्छन्न मज्जणाणि य, पच्छन्नयरं व णीहारो ॥ पुरिसेसु भीरु महिलासु संकरो पमयकम्मकरणो य।...... (बृभा ५१४४-५१४७) पंडक नपुंसक के छह लक्षण हैं - १. महिला जैसा स्वभाव २, ३. स्वर तथा वर्ण स्त्री और पुरुष से विलक्षण, ४. प्रलंब लिंग, ५. मृदु वाणी, ६. सशब्द और फेनरहित सूत्र । पण्डक की गति मन्द होती है। वह अपने पार्श्व में और पीछे देखता हुआ चलता है। उसके शरीर की त्वचा कोमल और स्पर्श शीतल होता है। वह ' षष्ठ' इस द्वयक्षर नाम वाला होता है । वह स्नान और नीहार प्रच्छन्न स्थान में करता है, पुरुषों के बीच भयभीत और महिलाओं के बीच निर्भय रहता है तथा पीसना, पकाना, परोसना आदि स्त्रियोचित कार्यों में रस लेता है। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ दुविहो उ पंडओ खलु, दूसी - उवघापंडओ चेव । उवघा वि य दुविहो, वेए य तहेव उवकरणे ॥ आसित्तो ऊसित्तो, दुविहो दूसी उ होइ नायव्वो । आसित्तो सावच्चो अणवच्चो होड़ ऊसित्तो ॥ (बृभा ५१४९, ५१५१) पण्डक के दो प्रकार हैं- दूषी पण्डक और उपघात पण्डक । दूषी पण्डक के दो प्रकार हैं १. आसिक्त - जिसमें सन्तान उत्पादन का सामर्थ्य है। २. उपसिक्त - जो सन्तान उत्पादन के सामर्थ्य से विकल है। उपघात पण्डक के दो प्रकार हैं- वेद और उपकरण । ० वेदउपघात - उपकरणउपघात-दृष्टांत पुवि दुच्चिण्णाणं, कम्माणं असुभफलविवागेणं । उवहम्मइ वेओ, जीवाणं पावकम्माणं ॥ जह हेमो उ कुमारो, इंदहमहे भूणियानिमित्तेणं । मुच्छिय गिद्धो यमओ, वेओ वि य उवहओ तस्स ॥ उवहय उवकरणम्मि, सेज्जायरभूणियानिमित्तेणं । तो कविलगस्स वेओ, ततिओ जाओ दुरहियासो ॥ (बृभा ५१५२-५१५४) • वेदउपघात - जब पापकर्मा जीव के पूर्व अर्जित दुष्कर्म का अशुभ फलदायी उदय होता है, तब उसका वेद उपहत होता है। ५१७ एक बार राजकुमार हेम इन्द्रमह के अवसर पर इन्द्रस्थान में गया। वहां उसने नगर की पांच सौ रूपवती कुलबालिकाओं को देखा और पूछा- ये बालिकाएं क्यों आई हैं ? क्या चाहती हैं ? सेवकों ने बताया- ये इन्द्र से सौभाग्य का वर चाहती हैं। राजकुमार ने कहा - इन्द्र ने वर रूप में मुझे भेजा है, इसलिए इन सबको अन्तःपुर में ले जाओ। सेवक उन्हें अन्तःपुर में ले गया। राजकुमार ने सबके साथ शादी कर ली। वह उनमें अत्यन्त आसक्त था । आसक्ति के कारण उसका सारा वीर्य निर्गलित हो गया, उससे वेद का उपघात हुआ और वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। • उपकरण उपघात - कपिल मुनि शय्यातर की लड़की में आसक्त हो गया। उसने उसका अपहरण कर लिया। लड़की के पिता ने कपिल को देखा और उसका लिंगच्छेद कर डाला। उसके कारण उसमें नपुंसक वेद का उदय हुआ। वह एक वेश्या के घर चला गया। वहां उसके स्त्रीवेद का भी उदय हो गया। वेद ६. क्लीब नपुंसक : स्वरूप और प्रकार कीवस्स गोन्न नामं, कम्मुदय निरोहें जायती ततिओ ....... स च चतुर्धा - दृष्टिक्लीबः शब्दक्लीब आदिग्धक्लीबो निमन्त्रणाक्लीबश्चेति । तत्र यस्यानुरागतो विवस्त्राद्यवस्थं विपक्षं पश्यतो मेहनं गलति स दृष्टिक्लीबः । यस्य तु सुरतादिशब्दं शृण्वतः स द्वितीयः । यस्तु विपक्षेणोपगूढो निमन्त्रितो वा व्रतं रक्षितुं न शक्नोति स यथाक्रममादिग्धक्लीबो निमन्त्रणाक्लीबश्चेति । (बृभा ५१६४ वृ) क्लब गुणनिष्पन्न नाम है। मैथुन मात्र के अभिप्राय से तथा मोहोदय से जिसके वीर्य का क्षरण होने लग जाता है, वह क्लीब है। क्षरित होते हुए वीर्य का निरोध करने वाला कालान्तर में नपुंसक हो जाता है। उसके चार प्रकार हैं १. दृष्टिक्लीब - अनुराग से अपने विपक्ष को निर्वस्त्र देखते ही जिसका वीर्य स्खलित हो जाता है। २. शब्दक्लीब- शब्द सुनने से जिसके वीर्य का क्षरण होता है। ३. आदिग्धक्लब - विपक्ष का आलिंगन करने से जिसके वीर्य का क्षरण हो जाता है। ४. निमन्त्रणाक्लीब - भोग के लिए निमन्त्रित करने पर जो अपने स्वीकृत व्रत का पालन नहीं कर सकता । ७. वातिक नपुंसक का स्वरूप उदएण वादियस्सा, सविकारं जा ण तस्स संपत्ती ।''''' (बृभा ५१६५) मोह के उदय से जिसका लिंग विकारग्रस्त हो जाता है और प्रतिसेवना के बिना शांत नहीं होता, वह वेद का निरोध करने पर नपुंसक बन जाता है। ८. दीक्षा के अर्ह - अनर्ह : नपुंसक पुंसा दुविहा- इत्थीणपुंसगा य पुरिसणपुंसगा य । इत्थीणपुंसगा अपव्वावणिज्जा । जे ते पुरिसणपुंसगा अप्पडिसेविणो छज्जणा - - वद्धिय, चिप्पिय, मंत-ओसहिउवहता, ईसिसत्तो, देवसत्तो ॥ (निभा ८७ की चू) नपुंसक के दो भेद हैं- पुरुष नपुंसक और स्त्री नपुंसक । स्त्रीनपुंसक अप्रव्राजनीय हैं। छह प्रकार के पुरुष नपुंसक Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेद ५१८ आगम विषय कोश-२ अप्रतिसेवी हों तो प्रव्राजनीय हैं-वर्धित, चिप्पित, मंत्र उपहत, के भी पुत्र को देखने मात्र से दूध का प्रस्रवण होने लगता है। आम्र औषधि उपहत, ऋषिशप्त और देवशप्त। को देखने मात्र से मुख से लार टपकने लगती है, इसी प्रकार स्त्रीदससु वि मूलायरिए, वयमाणस्स वि हवंति चउगुरुगा... पुरुषों के साथ रहने से नपुंसक के वेद का उदय होता है और उसमें ..."दशापि नपुंसकान् यः प्रव्राजयति"।"वर्द्धितादीनां भोग की अभिलाषा उत्पन्न हो जाती है। भुक्तभोगी अथवा षण्णामपि प्रतिसेवकानां प्रव्राजने आचार्यस्य यो वदति अभुक्तभोगी मुनि उस नपुंसक की अभिलाषा कर सकते हैं। अतः 'प्रव्राजयत' तस्यापि चतुर्गुरुकम्। (बृभा ५१६८ व) नपुंसक को दीक्षित करने का निषेध किया गया है। पंडक से आसिक्त पर्यन्त दश प्रकार के नपंसकों को प्रवजित ९. पंडक आदि की दीक्षा के अपवाद...... करने वाला आचार्य मूल प्रायश्चित्त का तथा वर्द्धित आदि छह असिवे ओमोयरिए, रायड्ढे भए व आगाढे। प्रकार के प्रतिसेवी नपुंसकों को प्रवृजित करने वाला आचार्य चतुर्गुरु गेलन उत्तिमढे, नाणे तह दंसणचरित्ते॥ प्रायश्चित्त का भागी होता है। इन सबकी प्रव्रज्या का अनुमोदन एएहि कारणहि, आगाढेहिं तु जो उ पव्वावे। करने वाला भी चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। पंडाईसोलसगं, कए उ कज्जे विगिंचणया॥ ० नपुंसक के दीक्षानिषेध का हेतु (बृभा ५१७२, ५१७५) थी-परिसा जह उदयं, धरेंति झाणोववास-णियमेहिं। यह पंडक प्रव्रजित होकर अशिव का उपशमन करेगा, एवमपुमं पि उदयं, धरिज्ज जति को तहिं दोसो॥ दुर्भिक्ष, राजप्रद्वेष, स्तेनभय, रोग, अनशन और ज्ञान-दर्शन-चारित्र अहवा ततिए दोसो, जायद इयरेस किं न सो भवति। में सहयोगी होगा-इन आगाढ कारणों से सोलह प्रकार के एवं ख नत्थि दिक्खा, सवेययाणं न वा तित्थं ॥ नपुंसकों में से किसी को भी दीक्षा जा सकती है किन्तु प्रयोजन थी-पुरिसा पत्तेयं, वसंति दोसरहितेसु ठाणेस। समाप्ति पर उसको विसर्जित कर देना चाहिए। संवास फास दिट्ठी, इयरे वत्थंबदिटुंतो॥ कडिपट्टए य छिहली, कत्तरिया भंड लोय पाढे य। (बृभा ५१६९-५१७१) धम्मकह सन्नि राउल, ववहार विगिंचणा विहिणा॥ शिष्य ने गुरु से पूछा-जैसे स्त्री और पुरुष ध्यान, उपवास वीयार-गोयरे थेरसंजुओ रत्ति दूरे तरुणाणं। गाहेह ममं पि ततो, थेरा गाहेंति जत्तेणं॥ तथा नियमों में उपयुक्त रहकर वेद के उदय को धारण करते हैं, उसी प्रकार नपुंसक भी वेद के उदय को धारण करता है, तब उसे वेरग्गकहा विसयाण णिंदणा उट्ठ-निसियणे गुत्ता। दीक्षा देने में क्या दोष है? यदि आप कहते हैं-नपुंसक वेद के चुक्क-खलिएसु बहुसो, सरोसमिव चोदए तरुणा॥ उदय से चारित्र का भेदन होता है, तब स्त्री और पुरुष वेद के उदय (बृभा ५१७७, ५१८०, ५१८१) से वह दोष क्यों नहीं होगा? पण्डक को यदि दीक्षा देनी पडे तो उसे कटिपटक धारण नौवें गणस्थान पर्यंत संसारी प्राणी सवेदी होते हैं। उनमें करवाना चाहिए। उसके शिर पर शिखा हो। यदि वह शिखा नहीं दोषदर्शन करने से न दीक्षा होगी और न तीर्थ की परम्परा चलेगी। चाहता हो तो कैंची या क्षुर से मुण्डन करना चाहिए अथवा लोच भी आचार्य ने कहा-स्त्री प्रव्रजित होकर स्त्रियों के मध्य रहती किया जा सकता है। उसे परतीर्थिक के ग्रन्थों का अध्ययन करवाना है। पुरुष प्रवजित होकर पुरुषों के मध्य रहता है। ये दोनों दोषरहित चाहिए। कार्य सम्पन्न होने पर उसके सामने धर्मकथा करनी चाहिए, स्थानों में रहते हैं। पंडक यदि स्त्रियों अथवा पुरुषों के मध्य रहता जिससे वह स्वयं लिंग का परित्याग कर दे। यदि वह लिंग छोड़ने के है तो उस संवास में स्पर्श से और दृष्टि से अनेक दोष उत्पन्न हो लिए तैयार न हो तो श्रावकों के द्वारा प्रेरित करवाना चाहिए। फिर भी सकते हैं। इस संदर्भ में वत्स और आम्र का दृष्टांत है तैयार न हो तो राजकुल में कहना चाहिए। अंत में न्यायालय में बालक माता को देखकर स्तनपान की इच्छा करता है। माता विधिपूर्वक उसका विसर्जन करना चाहिए। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५१९ वैयावृत्त्य पण्डक की आसेवनशिक्षाविधि-वह विचारभूमि और गोचरी में स्थविर साधु के साथ जाए। रात्रि में तरुण साधुओं से उसे पृथक् रखा जाए। तरुण साधु उसे अध्ययन न करवायें। यदि वह पढ़ना चाहता हो तो स्थविर साधु ही प्रयत्नपूर्वक पढ़ायें। उसे वैराग्यकथा और विषयनिन्दा विषयक सूत्रों का ही अध्ययन कराया जाये। उठते-बैठते समय मुनि सुसंवृत रहें । सामाचारी में विस्मृति अथवा स्खलना होने पर तरुण साधु सरोष वचनों से उसे पुनः पुनः प्रेरित करें, जिससे तरुण साधुओं के साथ उसका अनुबंध न हो। वैयावृत्त्य- दूसरों का सहयोग करने के लिए व्यापृत होना। सेवा-शुश्रूषा, अनुशिष्टि,उपग्रह, समाधि। १. वैयावृत्त्य के प्रकार : अनुशिष्टि आदि * वैयावृत्त्य के लिए उपसंपदा द्र उपसम्पदा २. वैयावृत्त्य के प्रकार : आचार्य आदि ३. आचार्य आदि के वैयावृत्त्य से महानिर्जरा ० वाचना द्वारा महान् वैयावृत्त्य ४. श्रुतधर वैयावृत्त्य : निर्जरा का तारतम्य ५. गुणवत्ता और भावधारा के आधार पर निर्जरा ०वीर-गौतम-कपिलसुत दृष्टांत ६. साधु-साध्वी की परस्पर सेवा-विधि, अर्हता ___ * साधु-साध्वी चिकित्सा : विद्याप्रयोगविधि द्र मंत्र-विद्या ७. वैयावृत्त्य के अनर्ह-अर्ह ___० भिक्षासंबंधी वैयावृत्त्य के अनर्ह ८. वैयावृत्त्य के तेरह स्थान : एकांत निर्जरा स्थान ९. अग्लानभाव से सेवा : गिला-अगिला १०. सेवानियुक्ति की प्रार्थना ० आगंतुक परिचारक : वाचना की व्यवस्था ११. अप्रार्थित वैयावृत्त्य : महर्द्धिक दृष्टान्त |१२. सेवा की अनिवार्यता : संघ की प्रभावना __० वैयावृत्त्य में तत्परता : उपेक्षा से प्रायश्चित्त १३. ग्लानप्रायोग्य द्रव्य की गवेषणा १४. मुनि और वैद्य ____ * वैद्य के पास जाने की योग्यता द्र चिकित्सा ० वैद्य आने पर अभ्युत्थानविधि....." १५. वैयावृत्त्य और परपक्ष १६. वैयावृत्त्य के अपवाद ___ * पारिहारिक के वैयावृत्त्य का विधान द्र परिहारतप * उत्सारकल्पी का वैयावृत्त्य द्र उत्सारकल्प * दीप्तचित्त-संरक्षण, संघ द्वारा वैयावृत्त्य द्र चित्तचिकित्सा * वैयावृत्त्य और सापेक्ष-निरपेक्ष द्र स्थविरकल्प १७. वैयावृत्त्य से गुरु प्रायश्चित्त लघु में परिवर्तित |१८. मुनि की चिकित्सा के हेतु |१९. गीतार्थ-अगीतार्थ-चिकित्सा : गंत्री-नौका दृष्टांत | २०. चिकित्सा की कालावधि : आचार्य, वृषभ"" २१. असाध्य रोगी को अनशन की प्रेरणा १. वैयावृत्त्य के प्रकार : अनुशिष्टि आदि वेयावच्चे तिविधे, अप्पाणम्मि य परे तदुभए य। अणुसट्ठि उवालंभे, उवग्गहे चेव तिविधम्मि॥ अणुसट्ठीय सुभद्दा, उवलंभम्मि य मिगावती देवी। आयरिओ दोसु उवग्गहो य सव्वत्थ वायरिओ॥ दंडसुलभम्मि लोए, मा अमतिं कुणसु दंडितो मि त्ति। एस दुलभो हु दंडो, भवदंडनिवारओ जीव!॥ अवि य हु विसोधितो ते, अप्पाणायार मइलितो जीव!। इति अप्प परे उभए, अणुसट्ठि थुतित्ति एगट्ठा॥ तुमए चेव कतमिणं, न सुद्धकारिस्स दिज्जते दंडो। इह मुक्को वि न मुच्चति, परत्थ अह होउवालंभो॥ दव्वेण य भावेण य, उवग्गहो दव्वे अण्णपाणादी। भावे पडिपुच्छादी, करेति जं वा गिलाणस्स॥ परिहारऽणुपरिहारी, दुविहेण उवग्गहेण आयरिओ। उवगेण्हति सव्वं वा, सबालवुड्डाउलं गच्छं। अधवाऽणुसढुवालंभुवग्गहे कुणति तिन्नि वि गुरू से। सव्वस्स वि गच्छस्सा, अणुसट्ठादीणि सो कुणति॥ .''उपदेशप्रदानम्"स्तुतिकरणं वा अनुशिष्टिः । तत्र यद् आत्मानमात्मना अनुशास्ति सा आत्मानुशिष्टिः। यत्पुनः परस्य परेण चानुशासनं सा परानुशिष्टि:..." । तथा अनाचारे कृते सति यत् सानुनयोपदेशनमेष उपालम्भः।"मृगावतीदेवी सा हि आर्यचन्दनया अकालचारिणीति कृत्वा उपालब्धा।""उपग्रहः उपष्टम्भकरणमित्यर्थः। (व्यभा ५६०-५६७ वृ) ___ वैयावृत्त्य के तीन प्रकार हैं- १. अनुशिष्टि, २. उपालंभ और ३. उपग्रह । प्रत्येक के तीन भेद हैं-स्व, पर और तदुभय। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्त्य १. अनुशिष्टि - स्वयं के द्वारा स्वयं पर अनुशासन करना आत्मानुशिष्टि है । दण्ड प्राप्त होने पर व्यक्ति स्वयं को संबोधित करता है—' हे जीव ! इस लोक में दण्ड सुलभ है, मैं आचार्य द्वारा दण्डित हुआ हूं - ऐसा दुश्चिन्तन मत कर। यह दण्ड दुर्लभ है, भदुःखों का निवारक है। हे जीव ! अनाचार से मलिन मेरी आत्मा को अनुपकृतपरहितकारी आचार्य ने प्रायश्चित्तदान से विशोधित किया है।' इसी प्रकार पर के द्वारा पर का अनुशासन परानुशिष्टि तथा स्व और परको अनुशासित करना उभयानुशिष्टि है । अनुशिष्टि के दो अर्थ हैं - उपदेश देना और स्तुति करना । चम्पा नगरी में सभी नागरिकों ने शीलवती सुभद्रा की अनुशिष्टि (स्तुति) की – सुभद्रे ! तुम धन्या हो, कृतपुण्या हो । २. उपालम्भ - अनाचार सेवन करने पर सानुनय उपदेश देना । आत्मोपालंभ-रे जीव ! तुमने स्वयं यह अपराध किया है। यहां निर्दोष को दण्ड नहीं दिया जाता। से रे आत्मन् ! इस लोक में आचार्य किसी भी तरह से प्रायश्चित्त मुक्त भी कर देंगे किन्तु परलोक में इससे नहीं बच पाओगे । परोपालंभ - एक बार साध्वी मृगावती देवी भ्रांति के कारण श्रमण महावीर के समवसरण से अपने स्थान पर विलंब से पहुंची। महासती चन्दनबाला ने कहा- तुम अकालचारिणी हो । ३. उपग्रह — अपना उपष्टम्भ करना आत्मोपग्रह तथा दूसरे का उपकार करना परोपग्रह है। आचार्य अन्न, पान आदि के द्वारा द्रव्यउपग्रह तथा सूत्र - अर्थ संबंधी प्रतिपृच्छा, ग्लान की सुखपृच्छा आदि के द्वारा भावउपग्रह करते हैं। वे परिहारी और अनुपरिहारी दोनों का उपग्रह करते हैं। अथवा आबालवृद्ध समस्त गच्छ का द्रव्य और भाव - दोनों प्रकार से उपग्रह करते हैं। अथवा आचार्य तीनों कार्य करते हैं- सम्पूर्ण गच्छ को अनुशिष्टि देते हैं, उपालंभ देते हैं और सबका उपग्रह करते हैं । २. वैयावृत्त्य के प्रकार : आचार्य आदि दसविहे वेयावच्चे पण्णत्ते, तं जहा- -आयरियवेयावच्चे उवज्झायवेयावच्चे थेरवेयावच्चे तवस्सिवेयावच्चे सेहवेयावच्चे गिलाणवेयावच्चे कुलवेयावच्चे गणवेयावच्चे संघवेयावच्चे साहम्मियवेयावच्चे | आयरियवेयावच्चं .... जाव साहम्मियवेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ (व्य १०/४०, ४१) ० ५२० आगम विषय कोश - २ आयरियरगहणेणं तित्थयरो तत्थ होति गहितो तु । किं व न होयायरिओ, आयारं उवदिसंतो उ ॥ निदरिसण जध मेत्थ खंदएण पुट्ठो उ गोतमो भयवं । केण तु तुब्भं सिहं, धम्मायरिएण पच्चाह ॥ (व्यभा ४६८५, ४६८६ ) वैयावृत्त्य के दस प्रकार हैं१. आचार्य का वैयावृत्त्य २. उपाध्याय का वैयावृत्त्य ३. स्थविर का वैयावृत्त्य ४. तपस्वी का वैयावृत्त्य ५. शैक्ष का वैयावृत्त्य ६. ग्लान का वैयावृत्त्य ७. कुल का वैयावृत्त्य ८. गण का वैयावृत्त्य ९. संघ का वैयावृत्त्य १०. साधर्मिक का वैयावृत्त्य । आचार्य यावत् साधर्मिक का वैयावृत्त्य करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा (महाकर्मविशुद्धि) तथा महापर्यवसान (जन्ममरण का आत्यंतिक उच्छेद) करने वाला होता है। प्रस्तुत प्रसंग में तीर्थंकर के वैयावृत्त्य का उल्लेख नहीं है । शिष्य ने पूछा- क्या तीर्थंकर का वैयावृत्त्य करने से निर्जरा नहीं होती ? आचार्य ने कहा- इन दस प्रकारों में आचार्य के ग्रहण से तीर्थंकर का ग्रहण कर लिया गया है। तीर्थंकर आचार्य क्यों नहीं हैं ? आचार्य का अर्थ है - स्वयं आचार का पालन करना तथा दूसरों से उसका पालन करवाना। इस दृष्टि से तीर्थंकर स्वयं आचार्य होते हैं, वे दूसरों को आचार का उपदेश देते हैं। इस संदर्भ में एक निदर्शन है - स्कन्दक ने भगवान गौतम से पूछाआपको यह अनुशासन किसने दिया ? गणधर गौतम ने कहा'धर्माचार्य ने।' (द्र भ २ / ३८) (तत्त्वार्थ (९/२४) में निर्दिष्ट वैयावृत्त्य के दस प्रकारों तथा स्थानांग (१०/१७) और व्यवहार (१०/४०) के दस प्रकारों में नामभेद तथा क्रमभेद है । तत्त्वार्थराजवार्तिक के अनुसार उनकी व्याख्या इस प्रकार है वैयावृत्त्य का अर्थ है - आचार्य, उपाध्याय आदि जब व्याधि, परीषह या मिथ्यात्व से ग्रस्त हों, तब उन दोषों का प्रतिकार करना । रोग आदि की स्थिति में उन्हें प्रासुक औषधि, आहार, स्थान, पीठ, फलक आदि धर्मोपकरण उपलब्ध कराना तथा उन्हें सम्यक्त्व में पुनः स्थापित करना वैयावृत्त्य है । बाह्य द्रव्यों की प्राप्ति के अभाव में अपने हाथ से कफ, श्लेष्म आदि मलों का अपनयन कर Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ अनुकूलता पैदा करना वैयावृत्त्य है । वह दस प्रकार का है१. आचार्य - वैयावृत्त्य - भव्य जीव जिनकी प्रेरणा से व्रतों का आचरण करते हैं, उनको आचार्य कहा जाता है। उनका वैयावृत्त्य । २. उपाध्याय - वैयावृत्त्य - जो मुनि व्रत, शील और भावना के आधार हैं, शिष्य उनके पास जाकर विनय से श्रुत का अध्ययन करते हैं, उन्हें उपाध्याय कहा जाता है। उनका वैयावृत्त्य करना । ३. तपस्वी-वैयावृत्त्य – मासोपवास आदि तप करने वाला तपस्वी कहलाता है। उसका वैयावृत्त्य करना । ४. शैक्ष- वैयावृत्त्य - जो श्रुतज्ञान के शिक्षण में तत्पर और व्रतों की भावना में निपुण है, उसे शैक्ष कहते हैं। उसका वैयावृत्त्य करना । ५. ग्लान - वैयावृत्त्य - रोगी का वैयावृत्त्य करना । ६. गण- वैयावृत्त्य - स्थविरसंतति की संस्थिति को गण कहा जाता है। उसका वैयावृत्त्य करना । ७. कुल - वैयावृत्त्य - दीक्षा देने वाले आचार्य की शिष्य - परम्परा कुल कहा जाता है। उसका वैयावृत्त्य करना । ८. संघ - वैयावृत्त्य - श्रमण-समूह का वैयावृत्त्य करना । ९. साधु- वैयावृत्त्य - चिरकाल से प्रव्रजित साधक को साधु कहा जाता है। उसका वैयावृत्त्य करना । १०. समनोज्ञ - वैयावृत्त्य - सांभोजिक का वैयावृत्त्य करना । ३. आचार्य आदि के वैयावृत्त्य से महानिर्जरा पावयणी खलु जम्हा, आयरिओ तेण तस्स कुणमाणो । महतीय निज्जराए, वट्टति साधू दसविहम्मि ॥ (व्यभा २६३२) आचार्य प्रावचनिक - द्वादशांग की वाचना देने वाले होते हैं, अत: उनका वैयावृत्त्य करने वाला साधु तथा दशविध वैयावृत्त्य करने वाला साधु महानिर्जरा करता है. I * वैयावृत्त्य के परिणाम द्र श्रीआको १ वैयावृत्त्य • वाचना द्वारा महान् वैयावृत्त्य इदं तु महत्प्रवचनस्य वैयावृत्त्यं यत् सूत्रार्थप्रदानादि (व्यभा ६९४ की वृ) करोति । और अर्थ वाचना देता है, वह जिनप्रवचन का महान् वैयावृत्त्य करता है। ५२१ वैयावृत्त्य ४. श्रुतधर - वैयावृत्त्य : निर्जरा का तारतम्य "दुवालसंगं पवयणं तु ॥ तु अहिज्जंताणं, वेयावच्चे उ निज्जरा तेसिं ...... सुत्तावासगमादी, चोहसपुव्वीण तह जिणाणं च । तं .....दशवैकालिक श्रुतधरवैयावृत्त्यकरस्तस्यावश्यकसूत्रधरवैयावृत्त्यकरान् यथोत्तरं महानिर्जरास्तावदवसेयो यावत् त्रयोदशपूर्वधरवैयावृत्त्यकराच्चतुर्दशपूर्वधरवैयावृत्त्यकरो महानिर्जरः । तदुभयचिन्तायां सूत्रवैयावृत्त्य - करादर्थवैयावृत्त्यकरो महर्द्धिको नवरं निशीथकल्पव्यवहारार्थधराणां वैयावृत्त्यकरात् कालिक श्रुतवैयावृत्त्यकरो महानिर्जरः । (व्यभा २६२९ - २६३१ वृ) जो प्रवचन - द्वादशांग (गणिपिटक) का अध्ययन करते हैं, उनका वैयावृत्त्य करने वालों के महान् कर्मनिर्जरा होती है । आवश्यक सूत्रधर से चतुर्दशपूर्वीपर्यंत का वैयावृत्त्य करने से उत्तरोत्तर महान् निर्जरा होती है। यथा - आवश्यकसूत्रधर के वैयावृत्त्य की अपेक्षा दशवैकालिक श्रुतधर के वैयावृत्त्य से विपुल निर्जरा होती है। त्रयोदशपूर्वी के वैयावृत्त्य की अपेक्षा चतुर्दशपूर्वी के वैयावृत्त्य से महान् निर्जरा होती है । सूत्रधरवैयावृत्त्यकर से अर्थधरवैयावृत्त्यकर महर्द्धिक (महान्) है । केवल निशीथ - कल्प- व्यवहार के अर्थधर के वैयावृत्त्य की अपेक्षा कालिक श्रुतधर के वैयावृत्त्य से महान् निर्जरा होती है। श्रुतज्ञानी की अपेक्षा जिन ( अवधिज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, केवली) के वैयावृत्त्य से महती निर्जरा होती है। ५. गुणवत्ता और भावधारा के आधार पर निर्जरा गुणभूट्ठे दव्वे, जेण य मत्ताहियत्तणं भावे । इति वत्थूओ इच्छति, ववहारो निज्जरं विउलं ॥ सुतवं अतिसयजुत्तो सुहोचितो तथ वि तवगुणुज्जुत्तो । जो सो मणप्पसादो, जायति सो निज्जरं कुणति ॥ निच्छयतो पुण अप्पे, जस्स वि वत्थुम्मि जायते भावो । तत्तो सो निज्जरगो, ' (व्यभा २६३४, २६३६, २६३७ ) ******* II जो जितने अधिक गुणों से संपन्न होता है, उसकी सेवा के लिए परिणामधारा भी उतनी ही अधिक विशुद्ध होती है । Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्त्य के व्यवहारनय के अनुसार वस्तु (व्यक्ति) की गुणवत्ता आधार पर यथाक्रम से विपुल निर्जरा होती है। यह श्रुतवान है, यह अतिशय श्रुतधारी है, यह सुखोचित होने पर भी बाह्य - आभ्यंतर तप में तथा ज्ञान आदि गुणों में उद्यमी है - इस रूप में महान् गुणी प्रति जिसका जैसा मानसिक प्रसन्नता का भाव होता है, उसके उतनी निर्जरा होती है । निश्चय नय के अनुसार भावधारा के आधार पर निर्जरा होती है । अल्पगुणी वस्तु में भी जिसकी शुभ भावधारा तीव्रतम होती है, उसके विपुल निर्जरा होती है। ० वीर - गौतम - कपिलसुत दृष्टांत जिण - गोतमसीहआहरणं ॥ सीहो तिविट्ठ निहतो, भमिउं रायगिह कविलबडुग ति । जिणवीरकहणमणुवसम, गोतमोवसम दिक्खा य॥ (व्यभा २६३७, २६३८ ) श्रमण महावीर ने त्रिपृष्ठ के भव में एक सिंह को मारा। मरते हुए सिंह को इस बात का दुःख हुआ कि मैं एक तुच्छ व्यक्ति द्वारा मारा गया हूं। गौतम ने (उस भव में सारथि के रूप में) उसे आश्वस्त करते हुए कहा- धैर्य मत खोओ। तुम पशुसिंह हो और नरसिंह (वासुदेव) द्वारा मारे गए हो। इसमें कौन सा पराभव है? वही सिंह संसारभ्रमण करता हुआ राजगृह में कपिल ब्राह्मण के घर में पैदा हुआ। एक बार वह कपिलपुत्र भगवान महावीर के समवसरण में आया। भगवान को देख वह धम-धम करने लगा। महावीर के कहने से शांत नहीं हुआ, तब महावीर ने गौतम को भेजा । गौतम ने उसे यह कहते हुए शांत कर दिया कि ये महान् आत्मा हैं, तीर्थंकर हैं। इनकी आशातना से दुर्गति होती है। फिर वह दीक्षित भी हो गया। महागुणी महावीर की अपेक्षा अल्पगुणी (गौतम) के प्रति उसकी भावधारा अत्यन्त विशुद्ध हो गई और उसे महानिर्जरा हुई। ६. साधु-साध्वी की परस्पर सेवा - विधि जे निग्गंथा य निग्गंधीओ य संभोइया सिया, नो पहं कप्पइ अण्णमण्णस्स वेयावच्चं कारवेत्तए अत्थियाई थ आगम विषय कोश- २ केइ वेयावच्चकरे कप्पड़ पहं वेयावच्चं कारवेत्तए नत्थियाई त्थ केइ वेयावच्चकरे एव ण्हं कप्पड़ अण्णमण्णस्स वेयावच्चं कारवेत्तए ॥ (व्य ५/२०) सांभोजिक साधु-साध्वी परस्पर एक-दूसरे का वैयावृत्त्य नहीं कर सकते । स्वपक्ष में वैयावृत्त्यकर हो तो उसी से वैयावृत्त्य करवाया जाता है। स्वपक्ष में वैयावृत्त्यकर न हो तो निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी परस्पर वैयावृत्त्य करवा सकते हैं। संबंधिणि गीतत्था, ववसायि थिरत्तणे य कतकरणा । चिरपव्वइया य बहुस्सुता परीणामिया जाव ॥ गंभीरा मद्दविता, मितवादी अप्पकोउहल्ला य । साधुं गिलाणगं खलु, पडिजग्गति एरिसी अज्जा ॥ ववसायी कायव्वे, थिरा उ जा संजमम्मि होति दढा । कतकरण जीय बहुसो, वेयावच्चा कया कुसला ॥ चिरपव्वइयसमाणं, तिण्हुवरि बहुस्सुया पकप्पधरी । परिणामिय परिणामं, सा जाणति पोग्गलाणं तु ॥ काउं न उत्तुणई, गंभीरा मद्दविया अविम्हइया । कज्जे परिमियभासी, मियवादी होइ अज्जा उ॥ कक्खतं गुज्झादी, न निरिक्खे अप्पकोउहल्ला य। एरिसगुणसंपन्ना, साहूकरणे भवे जोग्गा ॥ (व्यभा २३८६ - २३९१ ) ५२२ बारह गुणों से सम्पन्न साध्वी साधु-सेवा के योग्य है१. संबंधिनी - ग्लान मुनि की भगिनी आदि । २. गीतार्था - एषणीय - अनेषणीय विधि में कुशल । ३. व्यवसायिनी - अध्यवसायिनी / श्रमशीला । ४. स्थिरा - संयम में सुदृढ़ । ५. कृतकरणा - अनेक बार अभ्यास के कारण वैयावृत्त्य में दक्ष । ६. चिरप्रव्रजिता - तीन वर्ष से अधिक दीक्षापर्याय वाली। ७. बहुश्रुता - निशीथधारिणी । ८. परिणामिकी - पुद्गलों की परिणतियों को जानने वाली । ९. गंभीर - कृतसेवा का प्रकाशन नहीं करने वाली। १०. मृदुशीला - मार्दवसम्पन्न, विस्मित नहीं होने वाली । ११. मितवादिनी - प्रयोजन होने पर परिमितभाषिणी । १२. अल्पकुतूहल - गुप्तांगों का निरीक्षण न करने वाली । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ पियधम्मो दढधम्मो, मियवादी अप्पकोतुहल्लो य । अज्जं गिलाणियं खलु, पडिजग्गति एरिसो साहू ॥ सो परिणामविहिण्णू इंदियदारेहिं संवरियदारो । जं किंचि दुब्भिगंधं, सयमेव विगिंचणं कुणति ॥ गुज्झंग-वदण दडुं । साहरति ततो दिट्ठि, न य बंधति दिट्ठिए दिट्ठि ॥ धिइ-बलजुत्तो वि मुणी, सेज्जातर - सण्णि- सिज्झगादि जुतो । वसति परपच्चयट्ठा, सलाहणट्ठा य अवराणं ॥ सो निज्जराए वट्टति, कुणति य आणं अणंतणाणीणं । स बितिज्जओ कहेती, परयिट्टेगागि वसमाणो ॥ (बृभा ३७७४-३७७६, ३७८३, ३७८४) जो साधु प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, मितभाषी और कुतूहलरहित होता है, वही ग्लान साध्वी की परिचर्या कर सकता है। शुभ पुद्गल भी अशुभ हो जाते हैं और अशुभ पुद्गल भी संस्कार विशेष से या सहज ही शुभ हो जाते हैं - वह पुद्गलों की इस परिणमनविधि को जानता है तथा अपनी इन्द्रियों का संवरण करता है। वह दुर्गंधयुक्त उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, कफ आदि का परिष्ठापन करता है, स्त्री के सभी गुप्तांगों से दृष्टि का संहरण करता है तथा स्त्री की दृष्टि से अपनी दृष्टि नहीं मिलाता। " धृति - बलसम्पन्न मुनि भी साध्वी की परिचर्या के लिए उसकी वसति में रहे तो अकेला न रहे। गृहस्थों में प्रतीति उत्पन्न करने के लिए शय्यातर या श्रावक या सहवासी को साथ में रखे। इससे लोग साधुओं की प्रशंसा भी करते हैं - धन्य हैं ये साधु, जिनका ऐसा सुदृष्ट धर्म है। अकेला न रहता हुआ वह साधु विपुल निर्जरा करता है, तीर्थंकर की आज्ञा की आराधना करता है। जो उसके पास दूसरा व्यक्ति है, उसे वह धर्मकथा सुनाता है। यदि अकेला रहता है तो पूरी रात परिवर्त्तना (गाथाओं की स्वाध्याय) करता I ७. वैयावृत्त्य के अनर्ह - अर्ह अलसं घसिरं सुविरं, खमगं कोह- माण- माय लोहिल्लं । कोऊहल पडिबद्धं, वेयावच्चं न कारिज्जा ॥ एयद्दोसविमुक्कं, कडजोगिं नायसीलमायारं । गुरुभत्तिमं विणीयं, वेयावच्चं तु कारिज्जा ॥ (बृभा १५९२, १६०१ ) वैयावृत्त्य दस प्रकार के व्यक्तियों को वैयावृत्त्य में नियोजित नहीं करना चाहिए - १. आलसी २. बहुभक्षी ३. स्वपनशील ४. तपस्वी ५. क्रोधी ६. अभिमानी ७. मायावी ८. लोभी ९. कुतूहलप्रिय १०. सूत्रार्थ में प्रतिबद्ध । (द्र स्थापनाकुल) जो आलस्य आदि दोषों से मुक्त, कृतयोगी, शीलसामाचारीसम्पन्न, गुरुभक्ति में तत्पर और विनीत हो, उसे भिक्षाटन आदि रूप वैयावृत्त्य में नियोजित करना चाहिए । ५२३ • भिक्षासंबंधी वैयावृत्त्य के अनर्ह जे भिक्खू अणलेणं वेयावच्चं कारेति कारेंतं वा सातिज्जति ॥ (नि ११/८७) वेयावच्चे अणलो, चउव्विहो होइ आणुपुव्वीए । सुत्तत्थ अभिगमेण य, परिहरणा एव नायव्वा ॥ (निभा ३७७३ ) जो भिक्षु अयोग्य से वैयावृत्त्य करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है, वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। चार प्रकार के व्यक्ति (भिक्षा की दृष्टि से ) वैयावृत्त्य के अयोग्य होते हैं - १. सूत्रतः - जिसने दशवैकालिक का पांचवां अध्ययन 'पिण्डैषणा' नहीं पढ़ा। २. अर्थतः - जिसने पिण्डैषणा का अर्थ नहीं सुना। ३. अभिगम - जिसकी वैयावृत्त्य में श्रद्धा / रुचि नहीं है। ४. परिहरण - जो अकल्पनीय का वर्जन नहीं करता । ८. वैयावृत्त्य के तेरह स्थान : एकांत निर्जरा स्थान ....... आयरियउवज्झाए, थेरे य तवस्सि सेहे य ॥ अतरंत कुलगणे या, संघे साधम्मिवेयवच्चे य । एतेसिं तु दसण्हं, कातव्वं तेरसपदेहिं ॥ भत्ते पाणे सयणासणे य पडिलेहण पायमच्छिमद्धाणे । राया तेणं दंडग्गहे य गेलण्ण मत्ते य ॥ तीसुत्तरसयमेगं ठाणाणं वण्णितं तु सुत्तम्मि | वेयावच्चसुविहितं, नेम्मं निव्वाणमग्गस्स ॥ ववहारे दसमए उ, दसविह साहुस्स जुत्तजोगस्स । एगंतनिज्जरा से, न हु नवरि कयम्मि सज्झाए ॥ .....पाए ति पादप्रमार्जनेन यदि वा औषधपानेन..... अक्षिरोगिणो भेषजप्रदानेन । सुविहितानां प्रापणं निर्वाणमार्गस्य । (व्यभा ४६७५-४६७७, ४६८८, ४६८९ वृ) Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्त्य ५२४ आगम विषय कोश-२ आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, कुल, १०. सेवानियुक्ति की प्रार्थना गण, संघ और साधर्मिक-इन दसों के वैयावृत्त्य की क्रियान्विति सोऊण वा गिलाणं, तूरंतो आगतो दवदवस्स। के तेरह स्थान हैं-१. भोजन लाकर देना। २. पानी लाकर देना। संदिसह किं करेमी, कम्मि व अटे निउंजामि॥ ३. शय्या-संस्तारक देना। ४. आसन प्रदान करना। ५. क्षेत्र और पडियरिहामि गिलाणं, गेलण्णे वावडाण वा काहं। उपधि का प्रतिलेखन करना । ६. पादप्रमार्जन करना अथवा औषध तित्थाणुसज्जणा खलु, भत्ती य कया भवति एवं॥ पिलाना। ७. अक्षिरोग उत्पन्न होने पर भेषज देना। ८. मार्ग में (निभा २९७५, २९७६) विहार करते समय उनका भार वहन करना तथा मर्दन आदि सेवाभावी मुनि रुग्ण की वार्ता सुनकर तत्काल तीव्र गति करना। ९. राजा के क्रुद्ध होने पर उत्पन्न क्लेश से निस्तार करना। से रोगी के पास उपस्थित हो वहां स्थित परिचारक या आचार्य से १०. शरीर को हानि पहुंचाने वालों तथा उपधि चुराने वालों से निवेदन करता है-आज्ञा दें, मैं क्या करूं? किस सेवाकार्य में संरक्षण करना। ११. बाहर से आने पर दण्ड ग्रहण कर रखना। स्वयं को नियोजित करूं? मैं ग्लान की परिचर्या करूं या परिचारकों १२. ग्लान होने पर उसके योग्य कार्य सम्पादन करना। १३. उच्चार की भिक्षाटन आदि द्वारा सेवा करूं, जिससे तीर्थ की अव्युच्छित्ति पात्र, प्रश्रवणपात्र और श्लेष्मपात्र की व्यवस्था करना। और तीर्थंकर की भक्ति सहज हो जाए। इस प्रकार वैयावृत्त्य के प्रत्येक प्रकार के तेरह स्थान होने (इस निवेदन को सुन पूर्व स्थित मुनि कहते हैं- 'आर्य' से दशविध वैयावृत्त्य के एक सौ तीस स्थान होते हैं। तुम जाओ। हम परिचर्या में समर्थ हैं। यदि वे असमर्थ हों और केवल स्वाध्याययोग से ही एकांत निर्जरा नहीं होती, आगंतुक कुशल हो, तो वे उसे विसर्जित नहीं करते।) वैयावृत्त्य करने से भी एकांत निर्जरा होती है-यह तथ्य व्यवहार ० आगंतुक परिचारक : वाचना की व्यवस्था सूत्र के दसवें उद्देशक में प्रतिपादित है। दशविध वैयावृत्त्ययोग से संजोगदिट्ठपाढी, तेणुवलद्धा व दव्वसंजोगा। युक्त सुविहित मुनि निर्वाण (परम शांति) प्राप्त करता है। सत्थं व तेणऽधीयं, वेज्जो वा सो पुरा आसि॥ ९. अग्लान भाव से सेवा : गिला-अगिला अत्थि य से योगवाही, गेलन्नतिगिच्छणाएँ सो कुसलो। निववेटुिं च कुणंतो, जो कुणती एरिसा गिला होति। सीसे वावारेत्ता, तेगिच्छं तेण कायव्यं ॥ पडिलेहुट्ठवणादी, वेयावडियं तु पुव्वुत्तं ॥ दाऊणं वा गच्छइ, सीसेण व वायएहि वा वाए। ___ यो नाम नृपवेष्टिं राजवेष्टिमिव कुर्वन् वैयावृत्त्यं तत्थऽन्नत्थ व काले, सोहिएँ सव्वुद्दिसइ हटे॥ करोति एतादृशी भवति गिला ग्लानिः । गिलायाः प्रतिषेधोऽ (बृभा १८७९-१८८१) गिला तया करणीयं वैयावृत्त्यम्। (व्यभा १०५३ वृ) यदि आगन्तुक मुनि ने औषध द्रव्य को मिलाने की प्रयोगजो राजविष्टि (राजा की बेगार) की भांति वैयावृत्त्य विधि से संबंधित चिकित्साशास्त्र का अध्ययन किया है, अथवा करता है, यह गिला-ग्लानि है। जिसको अतिशयज्ञान के द्वारा द्रव्यसंयोग की विधियां उपलब्ध हैं, रोगी के उपकरणों की प्रतिलेखना करना, उसे उठाना आदि अथवा जिसने चरक, सुश्रुत आदि शास्त्रों का अध्ययन किया है, सब कार्य सोत्साह अग्लान भाव से करने चाहिए। अथवा जो पहले वैद्य रह चुका है, ऐसे विज्ञ मुनि को ग्लान की "इच्छां तेषामगिलया निर्जराबुद्ध्या पूरयति न चिकित्सा के लिए रखना चाहिए। परोपरोधाच्चित्तनिरोधेन। (व्यभा २१०७ की वृ) आगन्तुक मुनि के गच्छ में योगवाही मुनि हों और वह सेवाभावी सेवा-सहयोग लेने वालों की इच्छा को अगिला- स्वयं ग्लानचिकित्सा में कुशल हो तो वह शिष्यों को सूत्र और अर्थ निर्जराबुद्धि से पूर्ण करते हैं । वे किसी पर अनुग्रह करने के लिए या पौरुषी देकर अथवा शिष्यों को वाचना, वस्त्र-पात्र उत्पादन आदि किसी से बाध्य होकर अनिच्छा से सेवा नहीं करते। कार्यों में यथायोग्य व्यापत कर ग्लान की सेवा में पहंच जाए। यदि Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५२५ वैयावृत्त्य ग्लान का उपाश्रय दूर हो तो सूत्रपौरुषी देकर तथा अधिक दूर नहीं जाऊंगा। यदि राजा को अपने पूर्वजों का अनुग्रह प्राप्त करना हो तो सूत्र और अर्थ पौरुषी के लिए अपने शिष्य को नियुक्त हो तो राजा स्वयं यहां आकर मुझे साथ ले जाए। पत्नी पुनः कर ग्लान की सेवा करे । वाचना देने वाले शिष्य के अभाव में बोली-पतिवर! राजा के पास तुम्हारे जैसे अनुग्रह करने वाले ग्लान मुनि के आचार्य उन्हें वाचना दें। यदि वे असमर्थ हैं तो अनेक ब्राह्मण हैं। यदि तुम्हें धन पाना हो तो वहां जाओ। वह राजा अनागाढ योगवाही शिष्यों के योग को स्थगित कर वहां अथवा से दान लेने नहीं गया, धन से वंचित रह गया। इसी प्रकार तुम अन्यत्र स्थित आगाढ़ योगवाही शिष्यों को कहे-आर्यो ! आप चाहते हो कि वे मुनि तुम्हें सेवा के लिए अभ्यर्थना करें, तो तुम भी काल का शोधन करें । जब वे उचित काल ग्रहण कर चुके हों, निर्जरा के लाभ से वंचित रह जाओगे। जितने दिनों का काल-शोधन किया और रुग्ण मनि स्वस्थ हो संघस्थविर के पूछने पर यदि कोई मुनि यह कहता है कि मैं गया हो. उतने दिनों के उद्देशन कालों की उन्हें एक साथ तो वराक-सर्वथा अशक्त के सदृश हूं, वहां जाकर क्या करूंगा? वाचना दे। वहां अपमान को ही प्राप्त करूंगा। ऐसा कहने वाला मुनि चतुर्गुरु ११. अप्रार्थित वैयावृत्त्य : महद्धिक दृष्टांत प्रायश्चित्त को प्राप्त करता है। अभणितों कोइ न इच्छड, पत्ते थेरेहिँ होउवालंभो। स्थविर उसे अनुशासित करते हैं-आर्य! ग्लान को करवट दिटुंता महिडीए, सवित्थरारोवणं कज्जा बदलवाना, श्लेष्मपात्र-परिष्ठापन करना, संस्तारक बिछाना, रात्रिबहुसो पुच्छिज्जंता, इच्छाकारं न ते मम करिंति। जागरण करना, औषधि का चूर्ण करना, आहार-पानी के पात्र पडिमुंडणा य दुक्खं, दुक्खं च सलाहिउं अप्पा यथास्थान रखना, सेवा करने वालों की उपधि की प्रतिलेखना किं काहामि वराओ. अहं ख ओमाणकारको दो करना-क्या तुम इन कार्यों को करने में भी असमर्थ हो? एवं तत्थ भणंते, चाउम्मासा भवे गुरुगा॥ ११ १२. सेवा की अनिवार्यता : संघ की प्रभावना उव्वत्त-खेल-संथार-जग्गणे पीस-भाणधरणे य। असिवे ओमोयरिए, राय(टे भये व गेलन्ने।.... तस्स पडिजग्गयाण व, पडिलेहेङ पि सि असत्तो॥ एएहिँ कारणेहि, तह वि वहंती न चेव छड्डुिति।.... अहवा वि सो भणेज्जा, छड्डेउ ममं तु गच्छहा तुब्भे। (बृभा १८८३-१८८६) होउ त्ति भणिय गुरुगा, इणमन्ना आवई बिइया॥ एक मुनि वैयावृत्त्य में कुशल था किन्तु दूसरे साधुओं ने पच्चंतमिलक्खेसुं, बोहियतेणेसु वा वि पडिएसु। उसको सेवा के लिए बुलाया नहीं, वह ग्लान के पास गया नहीं। जणवय-देसविणासे, नगरविणासे य घोरम्मि। तब संघ-स्थविर ने उसको महान् प्रायश्चित्त देते हुए उपालम्भ तह वि गिलाण सुविहिया, वच्चंति वहंतगा साहू॥ दिया-तुम सेवा करने क्यों नहीं गए? तारेह ताव भंते! अप्पाणं किं मएल्लयं वहह। उसने कहा- मैंने अनेक बार सेवा के लिए पूछा किन्तु एगालंबणदोसेण मा हु सव्वे विणस्सिहिह। उन्होंने मेरी सेवा की इच्छा नहीं की। फिर भी मैं वहां गया। तब एवं च भणियमेत्ते, आयरिया नाण-चरणसंपन्ना। उन्होंने कहा-तुम्हारी सेवा रहने दो। इस निषेध से मुझे कष्ट अचवलमणलिय हितयं, संताणकरिं वइमुदासी॥ हुआ। ग्लान की जैसी सेवा मैं करता है, वैसी दूसरा कोई नहीं सव्वजगज्जीवहियं, साहुं न जहामों एस धम्मो णे। जानता है'-ऐसी आत्मश्लाघा करना भी मेरे लिए दुष्कर है। जति य जहामो साहुं, जीवियमित्तेण किं अम्हं॥ तब स्थविर मुनि ने महर्द्धिक का दृष्टांत सुनाया तं वयणं हिय मधुरं, आसासंकुरसमुब्भवं सयणो। __ एक राजा कार्तिक पूर्णिमा के दिन ब्राह्मणों को दान देता समणवरगंधहत्थी, बेड़ गिलाणं परिवहंतो॥ था। एक ब्राह्मण को उसकी पत्नी ने कहा-तुम राजा के पास जइ संजमो जइ तवो, दढमित्तित्तं जहुत्तकारित्तं । जाओ। ब्राह्मण ने कहा-मैं राजा के निमंत्रण के बिना दान लेने जइ बंभं जइ सोयं, एएसु परं न अन्नेसुं॥ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्त्य ...बोधिकस्तेना नाम ये मानुषाणि हरन्ति ।' हितं' परिणामपथ्यं मधुरं ' श्रोत्रमनसां प्रह्लादकं । । गन्धहस्ती गजकलभानां यूथाधिपत्यपदमुद्वहमानो गिरिकन्दरादिविषमदुर्गेष्वपि पतितो न तत्परित्यागं करोति, एवमयमपि गणधरपदमनुपालयन् विषमदशायामपि श्रमणवरान्न परित्यजतीति श्रमणवरगन्धहस्तीत्युच्यते । तत इत्थं तदीयवचनं श्रुत्वा समीपवर्ति नामगारिणामित्थं स्थिरीकरणमुपजायते'''' 'यथोक्तकारित्वं' भगवदाज्ञाराधकत्वं ... शौचं ' निरुपलेपता सद्भावसारता वा''''''। (बृभा २००२-२०११ वृ) महामारी, दुर्भिक्ष, राजपद्वेष, चोर आदि का भय, स्वयं की रुग्णता - सेवारत मुनि इन आगाढ़ कारणों के उपस्थित होने पर सेवार्थी ग्लान मुनि को यद्यपि यतनापूर्वक विसर्जित कर सकते हैं, तथापि वे विसर्जित नहीं करते हैं, उसे वहन करते हैं। अथवा वह ग्लान मुनि कहे कि आप मुझे छोड़कर चले जाएं, तब 'ऐसा ही हो' इस रूप में स्वीकृति देने वाला मुनि चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। मार्ग में प्रत्यन्तदेशवासी म्लेच्छ, अपहरणकर्त्ता आदि के मिलने पर अथवा जनपद-देश- नगर के घोर विनाश का प्रसंग उपस्थित होने पर भी सुविहित मुनि ग्लान को साथ लेकर आगे बढ़ते हैं, उसका परित्याग नहीं करते । 'भंते! इस आपदा से आप अपनी सुरक्षा करें। मैं तो मृतप्राय हूं, मुझे क्यों वहन कर रहे हैं। केवल मेरे कारण आप सब विनष्ट न हों ।' ग्लान के इस कथनमात्र पर ज्ञान - चरण सम्पन्न आचार्य अचपल, सत्य, हितकारी और परित्राणकारी वचनों से उसे आश्वस्त करते हैं 'हम अभयदान के द्वारा जगत के सब जीवों का हितसम्पादन करने वाले साधु का परित्याग नहीं करते - यह हमारा धर्म है। यदि हम साधु का परित्याग करते हैं तो हमारे प्राणधारणमात्र से क्या प्रयोजन ? स्वजन की भांति आचार्य ग्लान का योगक्षेमसंवहन करते हुए इस प्रकार का परिणामसुंदर, आह्लादकारी और आश्वासअंकुर को उत्पन्न करने वाला वचन बोलते हैं।' 'आचार्य श्रमणवरगंधहस्ती कहलाते हैं। जैसे गजकलभों के यूथाधिपत्यपद का परिवहन करता हुआ गंधहस्ती गिरिकन्दरा आगम विषय कोश - २ आदि विषम मार्गों में जाने पर भी कलभों का परित्याग नहीं करता, वैसे ही गणधरपद का संवहन करते हुए आचार्य विषम अवस्थाओं में भी श्रमणवरों का परित्याग नहीं करते।' ५२६ इस प्रकार के गुरुवचनों को सुनकर समीपस्थ गृहस्थों का इस रूप में स्थिरीकरण होता है- यदि कहीं संयम, तप, सुदृढ़ मैत्री, भगवान की आज्ञा की आराधना, ब्रह्मचर्यपालन और शौचनिरुपलेपता या सद्भावसार उपलब्ध है, तो वह इन्हीं साधुओं में उपलब्ध है, अन्यत्र नहीं । वैयावृत्त्य में तत्परता : उपेक्षा से प्रायश्चित्त सुहिया मोत्तिय भणती, अच्छह वीसत्थया सुहं सव्वे । एवं तत्थ भणंते, पायच्छित्तं भवे तिविहं ॥ भत्तादिसंकिलेसो, अवस्स अम्हे वि तत्थ न तरामो । काहिंति केत्तियाणं, तेणं चिय तेसु अद्दन्ना ॥ अम्हेहिं तहिँ गएहिँ, ओमाणं उग्गमाइणो दोसा । एवं तत्थ भणते, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥ ''यद्याचार्य एवं ब्रवीति ततश्चतुर्गुरु, उपाध्यायो ब्रवीति चतुर्लघु, भिक्षुर्ब्रवीति मासगुरु । (बृभा १८८७ - १८८९ वृ) ० मासकल्प के लिए स्थित मुनि अन्यत्र स्थित ग्लान मुनि के बारे में सुनते हैं। वे कहते हैं-हमें सेवा के लिए वहां जाना चाहिए। यह सुनकर कोई मुनि कहता है- मैं यहां सुखी हूं। आप सभी विश्वस्त होकर सुखपूर्वक यहां रहें। ऐसी बात कहने वाले आचार्य हों तो उन्हें चतुर्गुरु, उपाध्याय को चतुर्लघु और भिक्षु को मासगुरु प्रायश्चित्त आता है। कुछ मुनि कहते हैं-वहां आहार पानी की कठिनाई आएगी। हम भी अवश्य अपना निर्वाह नहीं कर सकेंगे। वहां के श्रमण भी सेवाकार्यों में व्यस्त हैं, वे कितने श्रमणों का आतिथ्य करेंगे। हमारे वहां जाने पर आहार की कमी से उद्गम आदि दोषों की संभावना है। ऐसा कहने वालों को चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है। भिक्खू गिलाणं सोच्चा ण गवेसति ॥ उम्मग्गं वा पडिपहं वा गच्छति, गच्छंतं वा सातिज्जति ।। चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घातियं ॥ (नि १०/३०, ३१, ४१) Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५२७ वैयावृत्त्य सोऊण वा गिलाणं, पंथे गामे य भिक्खवेलाए। अमुक द्रव्य पथ्य है और इस रोगी के लिए अमुक द्रव्य समाधिकारक जति तुरियं णागच्छति, लग्गति गुरुए सवित्थारं॥ है। फिर उस द्रव्य की प्रयत्नपूर्वक गवेषणा करनी चाहिए। जह भमर-महुयर-गणा, णिवतंति कुसुमितम्मि वणसंडे। जायंते उ अपत्थं, भणंति जायामों तं न लब्भइ णे। तह होति णिवतियव्वं, गेलण्णे कतितवजढेणं॥ विणियदृणा अकाले, जा वेल न बेंति उ न देमो॥ साहम्मियवच्छल्लं कयं, अप्पा य णिज्जरादारे णितो- पडिलेह पोरुसीओ, वि अकाउं मग्गणा उ सग्गामे।... तिओ भवति। (निभा २९७०, २९७१ चू) (बृभा १९०१, १९०३) जो भिक्षु किसी श्रमण को बीमार सुनकर उसकी गवेषणा ग्लान मुनि यदि अपथ्य द्रव्य की मांग करे तो सेवादायी नहीं करता अथवा उन्मार्ग-मूल मार्ग को छोड़कर प्रतिमार्ग- मुनि (मनोवैज्ञानिक ढंग से बर्ताव करते हुए) कहें-हमने इसकी पगडंडी से चला जाता है और जाने वाले का अनुमोदन करता है, गवेषणा-याचना की है किन्तु हमें यह पदार्थ प्राप्त नहीं हुआ वह चातुर्मासिक गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। अथवा ग्लान के सामने पात्र लेकर उपाश्रय के बाहर जाकर लौट यदि कोई मनि मार्ग में जा रहा हो. गांव में प्रवेश कर रहा आएं । ग्लान से कहें-अकाल में जाकर याचना करने से वस्त नहीं हो या भिक्षाटन कर रहा हो, उस समय किसी रो मिलती। जब तक भिक्षा का समय नहीं होता है. तम प्रतीक्षा करो। मिलते ही यदि वह तत्काल वहां नहीं पहुंचता है, तो उसे 'हम अमुक द्रव्य लाकर नहीं देंगे'-ऐसा न कहें। विस्तारयुक्त गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ग्लान प्रायोग्य द्रव्य सुलभ होने पर सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी जैसे गुंजार करते मधुकर कुसुमित वनखंड में पहुंच जाते करके तथा द्रव्य दुर्लभ होने पर दोनों ही पौरुषी किए बिना अपने हैं वैसे ही धर्मतरुरक्षक मनि निश्छलभाव से ग्लान की सेवा में ग्राम में अनवभाषित द्रव्य की गवेष पहुंच जाते हैं। इसके मुख्य दो फलित हैं-साधर्मिक वात्सल्य का १४. मुनि और वैद्य प्रकटीकरण और निर्जराकार्य में आत्मनियोजन। संविग्गमसंविग्गे, दिट्ठत्थे लिंगि सावए सण्णी। १३. पलानप्रायोग्य द्रव्य की गवेषणा अस्सण्णि इड्डि गइरागई य कुसलेण तेगिच्छं। जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे अब्भुट्ठियस्स सएण लाभेण लिंगत्थमाइयाणं, छण्हं वेज्जाण गम्मऊ मूलं । असंथरमाणस्स, जो तस्स न पडितप्पति॥"गिलाणपाउग्गे संविग्गमसंविग्गे, उवस्सगं चेव आणेज्जा॥ दव्वजाए अलब्भमाणे, जो तं न पडियाइक्खति""चाउम्मा 'संविग्नः' उद्यतविहारी... 'श्रावकः' प्रतिपन्नाणुव्रतः सियं परिहारट्ठाणं अणुग्घातियं। (नि २०/३२, ३३, ४१) 'संज्ञी' अविरतसम्यग्दृष्टि: 'असंज्ञी' मिथ्यादृष्टिः, स च त्रिधा-अनभिगृहीतमिथ्यादृष्टिः अभिगृहीतमिथ्यादृष्टिः __ जो भिक्षु रुग्ण मुनि की सेवा में उपस्थित हो, उसे पर्याप्त परतीर्थिकश्चेति।"दृष्टार्थो गीतार्थ इत्यर्थः।"यः संविग्नः स आहार उपलब्ध न हुआ हो, इस स्थिति में वह रुग्ण मुनि को गीतार्थो वा स्यादगीतार्थो वा। एवमसंविग्न-लिंगस्थआहार से तृप्त नहीं करता है। रुग्ण मुनि ने कोई द्रव्य मंगवाया, श्रावक-संज्ञिष्वपि गीतार्थत्वमगीतार्थत्वं अनभिगृहीतादयस्तु वह द्रव्य उपलब्ध नहीं हुआ, रुग्ण मुनि को पुनः उसकी सूचना त्रयोऽपि नियमादगीतार्थाः। 'गत्यागतिः' चारणिका... नहीं देता है-वह चातुर्मासिक गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। तद्यथा-प्रथमं संविग्नगीतार्थेन चिकित्साकर्म कारयितदव्वं तु जाणियव्वं, समाधिकारं तु जस्स जं होति। व्यम्, अथासौ न लभ्यते ततोऽसंविग्नगीतार्थेन "एते च णायम्मि य दव्वम्मि, गवेसणा तस्स कायव्वा॥ पर्वमनद्धिमन्तो गवेषणीयाः न ऋद्धिमन्तः, तदीयगृहेषु दःप्रवेश (बृभा ३७७९) तया बहदोषसद् भावात्। (बृभा १९११, १९१७ वृ) सेवाभावी को सर्वप्रथम यह जानना चाहिए कि इस रोग में मनि संबंधी वैद्य के आठ प्रकार हैं Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्त्य ५२८ आगम विषय कोश-२ १. संविग्न-उद्यतविहारी। ५. संज्ञी-अविरत सम्यग्दृष्टि। गच्छ में कुशल वैद्य या वैयावृत्त्यकर न हो तो निम्न क्रम २. असंविग्न-अनुद्यतविहारी। ६. अनभिगृहीत मिथ्यादृष्टि। से गृहस्थ आदि से चिकित्सा करवाई जा सकती है३. लिंगी-वेशधारी साध। ७. अभिगृहीत मिथ्यादृष्टि। गृहस्थ पिता, भ्राता या अन्य संबंधीजन (पहले स्थविर, फिर ४. श्रावक-अणुव्रतधारी। . ८. परतीर्थिक। मध्यम, फिर तरुण) से, संबंधी न हो तो असंबंधी से। इनमें प्रथम पांच गीतार्थ और अगीतार्थ-दोनों प्रकार के होते . परतीर्थिक पिता आदि संबंधी से, जो स्थविर और अशौचवादी हैं और शेष तीन नियमतः अगीतार्थ ही होते हैं। हो। वह न हो तो मध्यम या तरुण अशौचवादी से, उसके अभाव कुशल वैद्य से चिकित्सा करवानी चाहिए। कुशल संविग्न में स्थविर आदि शौचवादी से, संबंधी के अभाव में असंबंधी से। गीतार्थ हो तो उसी से, वह न हो तो असंविग्न गीतार्थ, वह भी न ० इनके अभाव में गृहस्थ माता, भगिनी, अन्य संबंधी। हो तो संविग्न अगीतार्थ आदि से चिकित्सा करवानी चाहिए। इस असंबंधी स्थविरा आदि। ० परतीर्थिकी स्थविरा आदि। प्रकार के क्रम-उत्क्रम को ही गति-आगति कहा गया है। इनमें ० श्रमणी-स्थविरा आदि। यह साधु संबंधी परपक्ष है। भी अऋद्धिमान की प्राथमिकता है। ऋद्धिमान के पास जाने में साधु समर्थ हो तो स्वयं चिकित्सा करे। साध-साध्वी के अनेक कठिनाइयां आ सकती हैं। पारस्परिक वैयावृत्त्यकर स्थविर-स्थविरा हों तो चतर्लघ और इनमें संविग्न और असंविग्न-इन दो को तो उपाश्रय में तरुण-तरुणी हों तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त विहित है। लाना चाहिए। शेष छह के घर पर ही ग्लान को ले जाना चाहिए। १६. वैयावत्त्य के अपवाद ० वैद्य आने पर अभ्युत्थानविधि...... बितियपदं अणवट्ठो, परिहारतवं तहेव य वहंतो। गीयत्थे आणयणं, पुव्वं उढेितु होति अभिलावो। अत्तट्ठियलाभी वा, सव्वहा वा अलंभंते॥ गिलाणस्स दायणं, सोहणं च चुण्णाइगंधे य॥ (निभा ३११६) ...गंडो ति फाडेयव्वं, तम्हि फालिए उसिणोदगादि निम्न व्यक्तियों की सेवा नहीं की जातीफासुअं हत्थधोवणं दिज्जति। (निभा ३०३५ चू) ० जो अनवस्थाप्य तप या परिहारतप वहन कर रहा हो। गीताथ मुनि वैद्य को लेने जाते हैं और गुरु को वैद्य के आने ० जो अपनी लब्धि का खाता हो। उसे सर्वथा प्राप्ति न होने पर भी की पूर्वसूचना देते हैं। आचार्य पहले से ही उठकर चंक्रमण करने उसकी गवेषणा न करने वाल लगते हैं और वैद्य के निकट आने पर उससे बातचीत करते हैं। १७. वैयावृत्त्य से गुरु प्रायश्चित्त लघु में परिवर्तित रोगी को स्वच्छ वस्त्र पहनाकर वैद्य को दिखाते हैं। स्थान मलिन हो तो उसे साफ कर पटवास आदि चूर्ण से वासित किया वेयावच्चकराणं, होति अणुग्घातियं पि उग्घातं । जाता है। वैद्य रोगी के फोड़े आदि की शल्यक्रिया करे तो उष्णोदक सेसाणमणुग्घाता अप्पच्छंदो ठवेंताणं॥ आदि प्रासुक द्रव्य उसे हाथ धोने के लिए दिए जा सकते हैं। (व्यभा ७६७) १५. वैयावृत्त्य और परपक्ष जो संघ के वैयावृत्त्य में प्रवृत्त है, उसे प्राप्त गुरु परिहारस्थान वेज्जसपक्खाणऽसती, गिहि-परतित्थी उ तिविधसंबंधी। को भी लघु परिहारस्थान में परिवर्तित कर दिया जाता है। जो प्राप्त एमेव असंबंधी, असोयवादेतरा सव्वे॥ तप का स्वच्छन्दता से निक्षेप करते हैं तो यदि वे लघु तप का वहन एतेसिं असतीए, गिहि-भगिणि परतित्थिगी तिविहभेदा। कर रहे हों तो उन्हें गुरु और गुरु तप का वहन कर रहे हों तो उन्हें एतेसिं असतीए, समणी तिविधा करे जतणा॥ गुरुतर तप दिया जाता है। अजाणं गेलण्णे, संथरमाणे सयं तु कायव्वं। १८. मुनि की चिकित्सा के हेतु वोच्चत्थ मासचउरो, लहु-गुरुगा थेरए तरुणे॥ णच्चुप्पतितं दुक्खं, अभिभूतो वेयणाए तिव्वाए। (व्यभा २४३७, २४३८, २४४४) अद्दीणो अव्वहितो, तं दुक्खऽहियासए सम्मं॥ शद्ध है। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ अव्वोच्छित्तिणिमित्तं, जीयट्ठी वा समाहिहेतुं वा ।...... ( निभा १९५०३, १५०४) जब मुनि का शरीर तीव्र वेदना से अभिभूत हो जाए तो वह समुत्पन्न दुःख को जानकर दीन या व्यथित न बने, प्रसन्न मन से समतापूर्वक उस दुःख को सहन करे । मुनि चार कारणों से रोग की चिकित्सा कर सकता है१. मैं श्रुत की परम्परा को अविच्छिन्न करूंगा। २. दीर्घकाल तक संयम जीवन जीऊंगा। ३. ज्ञान - दर्शन - चारित्र - समाधि की साधना करूंगा। ४. समाधिमरण से मरूंगा । (वैयावृत्त्य करने के चार प्रयोजन हैं - १. समाधि पैदा करना । २. विचिकित्सा दूर करना, ग्लानि का निवारण करना। ३. प्रवचनवात्सल्य प्रकट करना । ४. सनाथता -- निःसहायता या निराधारता की अनुभूति न होने देना । - तवा भाग २ पृ ६२४) १९. गीतार्थ - अगीतार्थ चिकित्सा : मंत्री- नौका दृष्टांत तिविधे तेगिच्छम्मी, उज्जुग वाउलण - साहुणा चेव । पण्णवणमणिच्छंते, दिट्टंतो भंडिपोतेहिं ॥ जा एगदेसे अदढा उ भंडी, सीलप्पए सा तु करेति कज्जं । जादुब्बला संठविया वि संती, न तं तु सीलंति विसण्णदारुं ॥ जोगदे अढो पोतो, सीलप्पए सो उ करेति कज्जं । जो दुब्बलो संठवितो वि संतो, न तं तु सीलंति विसण्णदारुं ॥ संदेहियमारोग्गं, पउणो वि न पच्चलो तु जोगाणं । इति सेवंतो दप्पे, वट्टति न य सो तथा गीतो ॥ काहं अछित्तिं अदुवा अधीतं, तवोविधाणेसु य उज्जमिस्सं । गणं व नीइए य सारविस्सं, सालंबसेवी समुवेति मोक्खं ॥ .....त्रिप्रकारे आचार्योपाध्यायभिक्षुलक्षणे चिकित्स्यमाने गीतार्थे इति गम्यते" अथ प्रासुकमेषणीयं न लभ्यते "तथाभूते च दीयमाने स्फुटमेव निवेद्यते, इदमेवंभूतमिति । ...या भंडी मन्त्री तस्याः परिशीलनं कार्यते । यो ग्लानः सन्नेवमवबुध्यते, समर्थो भूतः सन् तीर्थाव्यवच्छेदं करिष्यामि ।" अहमध्येष्ये सूत्रतोऽर्थतश्च नीत्या सूत्रोक्तया सारयिष्यामि गुणैः प्रवृद्धं करिष्यामि । • (व्यभा १७८, १८० - १८३ वृ) आचार्य, उपाध्याय और गीतार्थ भिक्षु की चिकित्सा चल ५२९ वैयावृत्त्य रही हो और उस समय प्रासुक एषणीय द्रव्य पर्याप्त न मिले, तो व्यापृत साधु को चाहिए कि वह स्पष्ट रूप से बता दे कि यह एषणीय है, यह अनेषणीय है। अगीतार्थ ग्लान भिक्षु यदि कहे कि मैं अकल्पनीय का सेवन नहीं करता तो सेवारत साधु यह प्रज्ञापना करे कि ग्लान यतनापूर्वक अकल्प्य का सेवन कर पश्चात् प्रायश्चित्त शुद्ध हो सकता है 1 मंत्री दृष्टांत - जिस गाड़ी का एक भाग सुदृढ़ नहीं होता, उस भाग का परिशीलन करने पर वह गाड़ी अपना कार्य करती है। संस्थापित होने पर भी जो दुर्बल है, उस विषण्ण काष्ठ वाली गाड़ी का परिशीलन नहीं किया जाता । नौका दृष्टांत - जिस नौका का कोई एक भाग श्लथ होता है, उसका परिशीलन करने पर वह कार्य करती है। उस नौका को संस्थापित करने पर भी यदि वह अपना कार्य करने में अक्षम है तो उसके विषण्ण काष्ठ का परिशीलन नहीं किया जाता है। इसी प्रकार जिसको अपने आरोग्य में संदेह है, स्वस्थ होने पर भी स्वाध्याययोग आदि में समर्थ नहीं हो सकूंगा - ऐसा जानता हुआ गीतार्थ मुनि यदि अकल्प्य का सेवन करता है, तो वह दर्प प्रतिसेवना है। गीतार्थ को ऐसा नहीं करना चाहिए। जो ग्लान यह चाहता या जानता है कि मैं स्वस्थ होकर • तीर्थ परम्परा को अविच्छिन्न करूंगा। • द्वादशांग के सूत्र और अर्थ का अध्ययन करूंगा । • नाना प्रकार के तप उपधान में उद्यम करूंगा। ० सूत्रोक्त नीति से गण की सारणा करूंगा - उसे ज्ञान आदि गुणों से 'समृद्ध करूंगा। इनमें से किसी भी सूत्र का आलंबन लेकर चिकित्सा हेतु अकल्प्य का सेवन करने वाला सालंबसेवी मुनि ऋजुता से प्रायश्चित्त वहन कर मुक्त हो जाता है। २०. चिकित्सा की कालावधि : आचार्य, वृषभ...... छम्मासे आयरिओ, कुलं तु संवच्छराणि तिन्नि भवे । संवच्छरं गणो खलु, जावज्जीवं भवे संघो ॥ अथवा बितियादेसो, गुरुवसभे भिक्खुमादि तेगिच्छं ।'' गुरुणो जावज्जीवं "तेगिच्छं । वसभे बारसवासा, अट्ठारस भिक्खुणो मासा ॥ ............यः पुनर्भक्तविवेकं कर्तुं शक्नोति, तेन प्रथमतोऽष्टादशमासान् चिकित्सा कारयितव्या तदनन्तरं Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार चेत् प्रगुणीभवति ततः सुन्दरमथ न भवति तर्हि भक्तविवेकः (व्यभा २०२१ २०२२ २०३० वृ) कर्त्तव्यः । आचार्य छहमास पर्यंत रुग्ण की सेवा करवाते हैं। फिर भी वह स्वस्थ न हो, तब तक क्रमशः तीन वर्ष के लिए कुल को, एक वर्ष के लिए गण को और फिर संघ को सौंप देते हैं। संघ यावज्जीवन उसकी सेवा - चिकित्सा करता है । यह कालावधि उसके लिए है, जो भक्तप्रत्याख्यान (अनशन) करने में असमर्थ है । जो भक्तपरिज्ञा कर सकता है, वह अठारह महीने चिकित्सा करने पर स्वस्थ न हो, तो अनशन करे। अथवा दूसरा आदेश यह है- सारा गच्छ आचार्य के अधीन होता है तथा आचार्य निरंतर यथाशक्ति सूत्र अर्थनिर्णय में प्रवृत्त होते हैं, अतः आचार्य की चिकित्सा जीवनपर्यंत करनी चाहिए। वृषभ बारह वर्ष तक चिकित्सा करवाए ताकि उस काल में समस्त गच्छ का भार उद्वहन करने में समर्थ कोई अन्य वृषभ तैयार हो जाये। फिर शक्ति होने पर अनशन करे। रुग्ण भिक्षु का चिकित्साकाल अठारह मास है । २१. असाध्य रोगी को अनशन की प्रेरणा किरियातीतं गाउं, जं इच्छति एसणाए जं तत्थ । सद्भावणा परिण्णा, पडियरण कहा णमोक्कारो ॥ (बृभा ३७७८) कोई साधु अथवा साध्वी उपचार करने पर भी स्वस्थ न हो, तो उसके रोग को असाध्य जानकर पूछा जाए कि तुम्हारी समाधि कैसे रहे? वह जिस द्रव्य को चाहे, उसकी एषणा की जाए। वह द्रव्य देकर उसमें अनशन की सघन इच्छा पैदा की जाए। अनशन स्वीकार कर लेने के पश्चात् प्रयत्नपूर्वक उसकी परिचर्या की जाए, धर्मकथा और नमस्कार महामंत्र सुनाया जाये, जिससे वह अनशन की सम्यक् आराधना कर सके। वैर- शत्रुता। - व्यवहार — प्रवृत्ति और निवृत्ति की हेतुभूत व्यवस्था । १. व्यवहार के निर्वचन * व्यवहार और प्रायश्चित्त एकार्थक २. व्यवहारी व्यवहार-व्यवहर्त्तव्य - द्र अधिकरण ५३० द्र प्रायश्चित्त आगम विषय कोश-: ३. द्रव्य-भाव व्यवहारी : कसौटी ४. व्यवहारी (आलोचनार्ह) की अर्हता लौकिक-लोकोत्तर व्यवहर्त्तव्य ५. • अव्यवहर्त्तव्य : कुंभकार दृष्टांत ६. व्यवहार के पांच प्रकार प्रधानता गौणता ० प्रथम चार व्यवहारों के धारक ७. आगम व्यवहार के भेद-प्रभेद ० प्रत्यक्ष-परोक्ष आगम व्यवहारी ८. प्रत्यक्ष-परोक्षज्ञानी: प्रायश्चित्तदान में समानता ० नालीधमक दृष्टांत ९. आगम व्यवहारी का स्वरूप १०. श्रुतव्यवहारी का स्वरूप • श्रुतव्यवहार : भद्रबाहु द्वारा निर्यूढ श्रुत * व्यवहार पठन की अर्हता * आलोचनार्ह : आगम- श्रुत-व्यवहारी ११. आज्ञा व्यवहार का स्वरूप शिष्य की परीक्षा ० आज्ञा व्यवहार की एक अन्य व्याख्या १२. धारणा व्यवहार का स्वरूप १३. जीत व्यवहार का स्वरूप ० जीत व्यवहार श्रुत-उपधान के संदर्भ में १४. जीत व्यवहार के आधार पर प्रायश्चित्त १५. सावद्य-निरवद्य जीत व्यवहार १६. जीत व्यवहार प्रवर्तन: बारह वस्तुओं का विच्छेद १७. जीत व्यवहार कब तक ? १८. व्यवहार के भेद आभवद और प्रायश्चित्त * आभवद व्यवहार अधिकारी : ० क्षेत्र आभवद्-श्रुत आभवद् व्यवहार • सुख-दुःख आभवद्-मार्ग आभवद् व्यवहार पश्चात्कृत शिष्य आभवद् व्यवहार विनयोपसम्पद् आभवद् व्यवहार * : द्र छेदसूत्र द्र आलोचना ***** o • श्रुत आदि आभवद् व्यवहार का लाभ १९. गीतार्थ व्यवहर्त्तव्य, गीतार्थ के साथ व्यवहार २०. सम्यग् निर्णय में मध्यस्थता अनिवार्य २१. संव्यवहारी आराधक : आठ व्यवहारी शिष्य द्र अवग्रह द्र आचार्य १. व्यवहार के निर्वचन ....विविहं वा विहिणा वा ववणं हरणं च ववहारो ॥ , Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५३१ व्यवहार ववणं ति रोवणं ति य, पकिरण परिसाडणा य एगटुं। यावत्... व्यवहर्त्तव्या व्यवहारक्रियाविषयीकर्तव्याः ।... हारो त्ति य हरणं ति य, एगटुं हीरते व ति॥ पंचविधेन व्यवहारेण करणभूतेन व्यवहरन् कर्ता यन्निष्पादअत्थी पच्चत्थीणं, हाउं एगस्स ववति बितियस्स। यति कार्यं, तद् व्यवहर्त्तव्यमित्युच्यते।"व्यवहर्त्तव्यकार्ययोगात् एतेण उ ववहारो, ... ॥ पुरुषा अपि व्यवहर्त्तव्याः। (व्यभा १, २ वृ) ___ ""वपनं तपः-प्रभृत्यनुष्ठानविशेषस्य दानं "हरण व्यवहारी व्यवहारक्रिया प्रवर्तक है, प्रायश्चित्तदायी है, मतिचारदोषजातस्य .."वपनशब्दस्य प्रदानलक्षणोऽर्थः । अत: वह कर्ता, व्यवहार करणभूत और व्यवहर्त्तव्य-व्यवहारक्रिया व्यवहारपरिच्छेद- कुशलो..."यस्य यन्नाभवति, तस्मात तत् का विषयीभूत प्रायश्चित्तआदायी कार्यरूप है। जैसे कुंभ कहने से हृत्वा आदाय यस्याभवति तस्मै द्वितीयाय वपति प्रयच्छति.... कुंभत्रिक (कुंभ कार्य, कुंभकार कर्त्ता और मिट्टी करण) की सिद्धि स स्थेयव्यापारो व्यवहारः..."स्थेयपुरुषो विवादनिर्णयाय होती है, (वैसे ही व्यवहार के कथन से व्यवहार, व्यवहारी और एक स्माद्धरति, अन्यस्मै प्रयच्छति, तस्मात्तद्व्यापारी व्यवहर्त्तव्य का कथन हो जाता है)। वपनहरणात्मकत्वात् व्यवहारः। (व्यभा ३-५ वृ) जो व्यक्ति जिस प्रायश्चित्त के योग्य है. वह प्रायश्चित्त विविध प्रकार से अथवा अर्हत्भाषित विधि के अनुसार जिसके द्वारा दिया जाता है, वह व्यवहार है। पांच प्रकार के वपन-तप आदि प्रायश्चित्त देना और हरण-अतिचारों का अपनयन करणभूत व्यवहार से व्यवहार करता हुआ व्यवहारी जो कार्य करना व्यवहार है। वपन, रोपण, प्रकिरण और परिशाटन-ये चारों निष्पादित करता है, वह व्यवहर्त्तव्य है। व्यवहर्त्तव्य कार्य के योग एकार्थक हैं। हार, हरण और ह्रियते-ये एकार्थक हैं। से पुरुष भी व्यवहर्त्तव्य है। ____ अर्थी और प्रत्यर्थी (याचक और प्रतियाचक) में विवाद ३. द्रव्य-भाव व्यवहारी : कसौटी होने पर व्यवहारपरिच्छेदकुशल (न्यायविशारद) मध्यस्थं पुरुष दव्वम्मि लोइया खलु, लंचिल्ला भावतो उ मज्झत्था। एक से वस्तु लेकर जो उसकी नहीं है,दूसरे को देता है जिसकी उत्तरदव्व अगीता, गीता वा लंचपक्खेहिं॥ वह है। इस प्रकार विवादनिर्णय के लिए एक से वस्तु का हरण पियधम्मा दढधम्मा, संविग्गा चेवऽवज्जभीरू य। ___ आदान और दूसरे (मूल स्वामी) को वपन-प्रदान करना, यह सुत्तत्थ-तदुभयविऊ, अणिस्सियववहारकारी य॥ हरणवपनरूप व्यापार व्यवहार है। पियधम्मे दढधम्मे, य पच्चओ होइ गीतसंविग्गे। २. व्यवहारी-व्यवहार-व्यवहर्त्तव्य रागो उ होति निस्सा, उवस्सितो दोससंजुत्तो॥ जेण य ववहरति मुणी, जं पि य ववहरति सो वि ववहारो।" अहवा आहारादी, दाहिइ मझं तु एस निस्सा उ। (व्यभा ३८८८) सीसो पडिच्छिओ वा, होति उवस्सा कुलादी वा॥ मुनि जिसके द्वारा व्यवहार का प्रवर्तन करता है, वह (व्यभा १३-१६) आगम आदि व्यवहार कहलाता है और जिस व्यवहर्त्तव्य का द्रव्य व्यवहारी के दो प्रकार हैंव्यवहार करता है, वह भी व्यवहार है। १. लौकिक द्रव्य व्यवहारी-रिश्वत लेकर व्यवहार करने वाला। __व्यवह्रियते यद् यस्य प्रायश्चित्तमाभवति स तद्दान- २. लोकोत्तर द्रव्य व्यवहारी-अगीतार्थ की अवस्था में व्यवहार विषयीक्रियतेऽनेनेति व्यवहारः। (व्यभापी वृ प ३) करने वाला अथवा गीतार्थ अवस्था में भी लंचा का उपजीवी ववहारो ववहारी, ववहरियव्वा य जे जहा पुरिसा।... होकर अथवा पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने वाला। ववहारी खलु कत्ता, ववहारो होति करणभूतो उ। भाव व्यवहारी के दो प्रकार हैंववहरियव्वं कज्ज, कुंभादितियस्स जह सिद्धी॥ १. लौकिक भाव व्यवहारी-मध्यस्थ भाव से व्यवहार करने वाला। ...व्यवहारी व्यवहारक्रियाप्रवर्तकः प्रायश्चित्तदायीति २. लोकोत्तर भाव व्यवहारी-अनिश्रित (निष्पक्ष) होकर व्यवहार Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार ५३२ आगम विषय कोश-२ करने वाला। वह प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, संवेग (भवविराग) सम्पन्न, थिरपरिवाडीएहिं, संविग्गेहिं अणिस्सियकरेहि। पापभीरु, सूत्रविद्, अर्थविद् और सूत्रार्थविद् होता है। कज्जेसु जंपियव्वं, अणुयोगियगंधहत्थीहिं॥ प्रियधर्मा, दृढधर्मा, गीतार्थ और संविग्न में विश्वास होता है। एयगुणसंपउत्तो, ववहरती संघमज्झयारम्मि। वह निश्रा-उपश्रा से मुक्त होकर प्रायश्चित्त देता है। एयगुणविप्पमुक्के, आसायण सुमहती होति॥ निश्रा का अर्थ है-राग और उपश्रा का अर्थ है-द्वेष अथवा ....."अनुयोगिकगन्धहस्तिभिरनुयोगधरप्रकाण्डैः। मैं इसका अनुवर्तन करूंगा तो यह मुझे आहार आदि देगा-यह (व्यभा १७२५, १७२६ वृ) निश्रा है। यह मेरा शिष्य है, यह प्रतीच्छक है, यह मेरे पितृकुल स्थिर सूत्रार्थपरिपाटी वाले, मोक्षाभिलाषी, राग-द्वेष मुक्त का है-यह उपश्रा है। होकर व्यवहार करने वाले, अनुयोगधरों में गंधहस्ती के समान केरिसओ ववहारी, आयरियस्स उ जुगप्पहाणस्स। प्रधान-इन गुणों से सम्पन्न व्यवहारी ही संघ में व्यवहार के लिए जेण सगासे गहितं, परिवाडीहिं तिहि असेसं॥ अधिकृत हैं। व्यवहारी के इन गुणों से हीन होने पर सूत्र आदि की सूयपारायणं पढम, बितियं पदुब्भेदयं। __ महती आशातना होती है। तइयं च निरवसेसं, जदि सुज्झति गाहगो॥ ४. व्यवहारी (आलोचनाह) की अर्हता गाहगआयरिओ ऊ, पुच्छति सो जाणि विसमठाणाणि। अट्ठारसेहिं ठाणेहिं, जो होति परिणिट्ठितो।.. जति निव्वहती तहियं, ति तस्स हिययं ततो सुझे। अट्ठारसेहिं ठाणेहिं, जो होति सुपतिट्टितो। अहवा गाहगसीसो, तिहि परिवाडीहि जेण निस्सेसं। अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए॥ गहितं गुणितं अवधारितं च सो होति ववहारी॥ वयछक्ककायछक्कं, अकप्प-गिहिभायणे य पलियंको। पारायणे समत्ते, थिरपरिवाडी पुणो उ संविग्गे। गोयरनिसेज्जण्हाणे, भूसा अट्ठारसट्ठाणे॥ जो निग्गतो वितिण्णो, गुरुहिं सो होति ववहारी॥ परिनिहित परिणाय, पतिढिओ जो ठितो उ तेसु भवे। (व्यभा १७०८-१७१२) अविदु सोहिं न याणति, अठितो पुण अन्नहा कुज्जा॥ शिष्य ने पूछा-व्यवहारी कैसा होता है ? आचार्य ने कहा (व्यभा ४०७१, ४०७३-४०७५) जिसने युगप्रधान आचार्य के पास तीन परिपाटियों में समग्र श्रुत को जो अठारह स्थानों में परिनिष्ठित-उनका सम्यक ज्ञाता ग्रहण किया है, वह व्यवहारी है। और सुप्रतिष्ठित-उनमें सम्यग् वर्तमान होता है, वह व्यवहार का प्रथम परिपाटी-पदच्छेदपूर्वक सूत्र का उच्चारण (संहिता)। व्यवहार करने योग्य है। अठारह स्थान ये हैंद्वितीय परिपाटी-पदविभागपूर्वक पारायण। __ व्रतषट्क (प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह ततीय परिपाटी-चालना-प्रत्यवस्थानात्मक निरवशेष पारायण। तथा रात्रिभोजन से विरति), कायषटक (पथ्वी. अप. तेजस. वाय. श्रुतग्रहण के पश्चात् ग्राहक आचार्य विषम पदों द्वारा शिष्य वनस्पति और त्रसकाय का संयम), अकल्प, गृहिभाजन, पर्यंक, की परीक्षा करते हैं। यदि शिष्य प्रश्नों का सही उत्तर देता है, उन पदों गोचरनिषद्या, स्नान और विभूषा का वर्जन। का हार्द जानता है, तो वह व्यवहारकरण के योग्य है। अथवा जिस अपरिनिष्ठित मनि शोधि को नहीं जानता और अप्रतिष्ठित ग्राहक शिष्य ने तीन परिपाटियों से नि:शेष श्रुत को गृहीत, अनेक मनि अन्यथा व्यवहार करता है। बार अवधारित कर लिया है, वह व्यवहारी है। बत्तीसाए ठाणेसु, जो होति परिनिहितो।... व्यवहार आदि ग्रंथों का पारायण सम्पन्न होने पर जो संविग्न छत्तीसाए ठाणेहिं, जो होति सुपतिट्ठितो। के पास अपनी परिपाटी को परिपक्व करता है और गुरु की आज्ञा अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए॥ से विहरण करता है, वह प्रमाणभत व्यवहारी होता है। (व्यभा ४०७७, ४१२८) Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५३३ व्यवहार जो बत्तीस स्थानों तथा छत्तीस गणों में परिनिष्ठित और लोकोत्तर भाव व्यवहर्त्तव्य-जो प्रायश्चित्त के लिए सदभाव से सुप्रतिष्ठित होता है, वह व्यवहार का प्रयोग कर सकता है। उपस्थित होता है, फिर चाहे वह गीतार्थ हो या अगीतार्थ। • बत्तीस स्थान-आचार्य की आठ सम्पदाएं, प्रत्येक सम्पदा के जो मुनि अवक्र-अकुटिल है, जो कारण समुपस्थित होने चार-चार प्रकार। (द्र गणिसम्पदा) पर यतना से अथवा कदाचित् अयतना से प्रतिसेवना करते हैं, यदि ० छत्तीस गुण-अष्ट गणिसम्पदा के बत्तीस भेद तथा विनय- वे प्रियधर्मा और बहुश्रुत हैं, तो व्यवहर्त्तव्य हैं। अगीतार्थ को प्रतिपत्ति के चार भेद। (विनयप्रतिपत्ति-द्र आचार्य) उपदेशपूर्वक दान प्रायश्चित्त दिया जाता है। ५. लौकिक-लोकोत्तर व्यवहर्त्तव्य जो मनि सप्रयोजन या निष्प्रयोजन यतना या अयतना से लोए चोरादीया, दव्वे भावे विसोहिकामा उ। प्रतिसेवना कर पुनः उस दोष का सेवन न करने के लिए संकल्पित जाय-मयसूतगादिसु, निज्जूढा पातगहता य॥ होता है, तो वह भी भाव व्यवहर्त्तव्य है। जो निष्कारण प्रतिसेवी होता है, वह तथाविध कार्य समुत्पन्न फासेऊण अगम्मं, भणाति सुमिणे गतो अगम्मं ति। होने पर करुणाशून्य और निरपेक्ष हो जाता है। प्रतिसेवना कर मैं एमादि लोगदव्वे, उज्जू पुण होति भावम्मि॥ अपने दोषों को आंशिक रूप से अथवा पूर्णरूप से छिपा लूंगा - (व्यभा १७, १८) ऐसा चिंतन करने वाला द्रव्य व्यवहर्त्तव्य है। ०लौकिक द्रव्य व्यवहर्त्तव्य-चोर, पारदारिक आदि। जन्म सूतक, मृत्यु सूतक आदि में भोजन करने के कारण ब्राह्मणों द्वारा बहिष्कृत ० अव्यवहर्त्तव्य : कुंभकार दृष्टांत व्यक्ति तथा माता-पिता आदि की हत्या कर अपना दोष स्वीकार सो वि हु ववहरियव्वो, अणवत्था वारणं तदन्ने य। नहीं करने वाले व्यक्ति भी लौकिक द्रव्य व्यवहर्त्तव्य हैं। घडगारतुल्लसीलो, अणुवरतोसन्नमज्झ त्ति॥ ___ कोई ब्राह्मण अगम्य (पुत्रवधू , चंडाल-स्त्री आदि) का (व्यभा २५) स्पर्श कर प्रायश्चित्त के समय मायापूर्वक कहता है-'मैंने स्वप्न में द्रव्य व्यवहर्त्तव्य भी व्यवहर्त्तव्य है क्योंकि उससे अनवस्था अगम्य का स्पर्श किया है, वह भी लौकिक द्रव्य व्यवहर्त्तव्य है। (पुनः पुनः अकृत्य के आचरण) का निवारण होता है। उसे देख ० लौकिक भाव व्यवहर्त्तव्य-जो अपनी विशोधि का अभिलाषी अन्य साधु भी अकृत्य से निवृत्त हो जाते हैं। जो शिक्षा देने पर भी है और ऋजुता से अपना अपराध प्रकट करता है। अकृत्य से उपरत नहीं होता, वह अवसन्न और पुनः पुनः 'मिच्छा परपच्चएण सोही, दव्युत्तरिओ उ होति एमादी। मि दुक्कडं' करने वाले कुंभकार के तुल्य स्वभाव वाला है। गीतो व अगीतो वा, सब्भावउवट्ठितो भावे॥ एक बार कुंभकार की शाला में मुनि ठहरे। आचार्य ने अवंकि अकुडिले यावि, कारणपडिसेवि तह य आहच्च। शिष्यों से कहा-कुंभकार के बर्तन इतस्ततः बिखरे पड़े हैं। सबको पियधम्मे य बहुसुते, बितियं उवदेस पच्छित्तं॥ अप्रमत्त रहना है । एक शिष्य प्रमादी था। वह कुंभकार के भाडों को अधवा कज्जाकज्जे, जताऽजतो वावि सेवितुं साधू। तोड़कर 'मिच्छा मि दुक्कडं' का उच्चारण कर लेता। बार-बार सब्भावसमाउट्टो, ववहरियव्वो हवइ भावे॥ ऐसा करने पर कुंभकार ने मुनि के कान पकड़कर सिर पर टकोरा निक्कारण पडिसेवी, कज्जे निद्धंधसो य अणवेक्खो। मारा और 'मिच्छा मि दुक्कडं' कहा। मुनि बोला-तुम मुझ देसं वा सव्वं वा, गूहिस्सं दव्वतो एसो॥ निरपराध को क्यों पीटते हो? कुंभकार ने कहा-तुमने मेरे भाजन (व्यभा १९, २०, २३, २४) तोड़ डाले। मुनि बोला-मैंने 'मिच्छा मि दुक्कडं' कर लिया। ० लोकोत्तर द्रव्य व्यवहर्त्तव्य-शोधि को परप्रत्ययिक मानने वाला कुंभकार बोला-मैंने भी 'मिच्छा मि दक्कडं' कर लिया। मुनि यह सोचकर शोधि करता है कि मेरे द्वारा आसेवित अनाचार ६. व्यवहार के पांच प्रकार : प्रधानता-गौणता अन्य साधु ने जान लिया है, अतः मुझे आलोचना करनी चाहिए। पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा-आगमे सुए आणा Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार आगम विषय कोश-२ पच्चक्खो वि य दुविहो, इंदियजो चेव नो व इंदियजो। इंदियपच्चक्खो वि य, पंचसु विसएसु नेयव्वो॥ नोइंदियपच्चक्खो, ववहारो सो समासतो तिविहो। ओहि-मणपज्जवे या, केवलनाणे य पच्चक्खे॥ पारोक्खं ववहारं, आगमतो सुतधरा ववहरंति। चोद्दस-दसपुव्वधरा, नवपुब्वियगंधहत्थी य॥ (व्यभा ४०२९-४०३१, ४०३७) आगम व्यवहार प्रत्यक्ष परोक्ष चौदहपूर्वी दसपूर्वी नौपूर्वी (गंधहस्ती के समान) धारणा जीए। जहा से तत्थ आगमे सिया. आगमेणं ववहारं पट्ठवेज्जा। नो से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ सुए सिया, सुएणं ववहारं पट्ठवेज्जा। नो से तत्थ सुए सियाआणाए ववहारं पट्टवेज्जा। नो से तत्थ आणा सिया"धारणाए ववहारं पट्ठवेज्जा। नो से तत्थ धारणा सिया""जीएणं ववहारं पट्ठवेज्जा""जहा-जहा से आगमे सुए आणा धारणा जीए तहातहा ववहारे पट्ठवेज्जा।" (व्य १०/६) आगमववहारी आगमेण ववहरति सो न अन्नेणं। न हि सूरस्स पगासं, दीवपगासो विसेसेति॥ __ (व्यभा ३८८४) व्यवहार के पांच प्रकार हैं-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत। जहां आगम हो, वहां आगम से व्यवहार की प्रस्थापना करे। जहां आगम न हो, श्रुत हो, वहां श्रुत से, जहां श्रुत न हो, वहां आज्ञा से, आज्ञा न हो, वहां धारणा से और धारणा न हो, वहां जीत से व्यवहार की प्रस्थापना करे। जिस समय इन पांचों में से जो प्रधान हो, उसी से व्यवहार का प्रवर्तन करे। आगमव्यवहारी/आगमपुरुष आगम से व्यवहार का प्रवर्तन करता है, श्रुत आदि से नहीं। क्योंकि श्रुत आगम से हीन है। दीपक का प्रकाश सूर्य के प्रकाश को विशिष्ट नहीं बनाता। • प्रथम चार व्यवहारों के धारक केवल-मणपज्जवनाणिणो य तत्तो य ओहिनाणजिणा। चोदस-दस-नवपव्वी, आगमववहारिणो धीरा॥ सुत्तेण ववहरंते, कप्पव्ववहारधारिणो धीरा। अत्थधरववहरंते, आणाए धारणाए य॥ (व्यभा ४५२९, ४५३०) ० आगम व्यवहारी-केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानजिन, चौदहपूर्वी, दसपूर्वी, नौपूर्वी। ० श्रुत व्यवहारी-कल्प और व्यवहार सूत्र के ज्ञाता। ० आज्ञा और धारणा व्यवहारी-छेदसूत्र के अर्थधर। ७. आगम-व्यवहार के भेद-प्रभेद आगमतो ववहारो, सुणह जहा धीरपुरिसपण्णत्तो। पच्चक्खो य परोक्खो, सो वि य दुविहो मुणेयव्वो॥ इन्द्रिय प्रत्यक्ष नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष पांच इन्द्रियों से होने वाला रूप आदि का ज्ञान अवधि मनःपर्यव केवलज्ञान प्रत्यक्ष-परोक्ष आगम व्यवहारी ओधीगुण-पच्चइए, जे वटुंते सुयंगवी धीरा। ओहिविसयनाणत्थे, जाणस ववहारसोधिकरे॥ उज्जुमती विउलमती, जे वटुंती सुयंगवी धीरा। मणपज्जवनाणत्थे, जाणसु ववहारसोहिकरे॥ आदिगरा धम्माणं, चरित्तवर-नाण-दंसण-समग्गा। सव्वत्तगनाणेणं, ववहारं ववहरंति जिणा॥ पच्चक्खागमसरिसो, होति परोक्खो वि आगमो जस्स। चंदमुही विव सो वि हु, आगमववहारवं होति॥ नातं आगमियं ति य, एगटुं जस्स सो परायत्तो। सो पारोक्खो वुच्चति, तस्स पदेसा इमे होंति॥ पारोक्खं ववहारं, आगमतो सुतधरा ववहरंति। चोद्दस-दसपुव्वधरा, नवपुव्वियगंधहत्थी य॥ किह आगमववहारी, जम्हा जीवादयो पयस्था उ। उवलद्धा तेहिं तू, सव्वेहिं नयविगप्पेहिं ।। जह केवली वि जाणति, दव्वं खेत्तं च काल-भावं च। तह चउलक्खणमेतं, सुयनाणी वी विजाणाति॥ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५३५ व्यवहार प्रदेशाः प्रतिभागा भेदा इत्यर्थः। ये श्रुतधराः.... नवपूर्विणो वा गन्धहस्तिनो गन्धहस्तिसमानाः ते आगमत: परोक्षं व्यवहारं व्यवहरन्ति। (व्यभा ४०३२-४०३९ वृ) ० प्रत्यक्ष आगम व्यवहारी-जो श्रतांगविद धीर मनि गणप्रत्ययिक अवधिज्ञानी होते हैं, वे अवधिज्ञान से तथा जो मुनि ऋजुमति या विपुलमति मन:पर्यवज्ञानी होते हैं, वे मन:पर्यवज्ञान से व्यवहारशोधिकारक होते हैं। जो धर्म के आदिकर हैं, उत्तम ज्ञान-दर्शन-चारित्र से सम्पन्न हैं, वे जिन केवलज्ञान से व्यवहार करते हैं। ० परोक्ष आगम व्यवहारी-जैसे चन्द्रसदृश मुख वाली कन्या चन्द्रमखी कहलाती है, वैसे ही जिनका परोक्ष आगम प्रत्यक्ष आगम के सदृश होता है, वे आगमव्यवहारी कहलाते हैं। ज्ञान और आगम एकार्थक हैं। जिसका आगम परायत्त है, वह परोक्ष है। चौदहपूर्वी, दसपूर्वी और गन्धहस्ती के समान नवपूर्वी-ये श्रुतधर परोक्ष आगम के प्रतिभाग हैं और आगमतः परोक्ष व्यवहार का प्रयोग करते हैं। शिष्य ने पूछा-साक्षात् श्रुत से व्यवहार करने वाले आगम व्यवहारी कैसे? आचार्य ने कहा-चतर्दशपूर्वी आदि श्रुतधर मनि जीव आदि पदार्थों को सर्वनयविकल्पों से जानते हैं। जैसे केवलज्ञानी सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों को सर्वात्मना जानते हैं, वैसे ही श्रुतज्ञानी भी श्रुतबल से इन चारों लक्षणों को जान लेते हैं। ८. प्रत्यक्ष-परोक्षज्ञानी : प्रायश्चित्तदान में समानता पणगं मासविवड्डी, मासिगहाणी य पणगहाणी य। एगाहे - पंचाहं, पंचाहे चेव एगाहं॥ रागहोसविवढेि, हाणिं वा णाउ देंति पच्चक्खी। चोद्दसपुव्वादी वि हु, तह नाउं देंति हीणऽहियं ॥ (व्यभा ४०४०, ४०४१) प्रत्यक्ष आगमव्यवहारी प्रतिसेवक की राग-द्वेष की हानिवृद्धि के आधार पर न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देते हैं। वे पांच दिन जितनी प्रतिसेवना होने पर पांच दिन या मासिक प्रायश्चित्त तथा मासिक जितनी प्रतिसेवना होने पर पच्चीस दिन या पांच दिन का प्रायश्चित्त भी दे सकते हैं। वे एक उपवास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना करने वाले को पांच उपवास तथा पांच उपवास वाले प्रतिसेवक को एक उपवास या नमस्कारसहिता का प्रायश्चित्त भी दे सकते हैं। इसी प्रकार चतुर्दशपूर्वी आदि भी आलोचक की राग-द्वेष की हानि-वृद्धि के आधार पर न्यूनाधिक प्रायश्चित्त देते हैं । . नालीधमक दृष्टांत पच्चक्खी पच्चक्खं, पासति पडिसेवगस्स सो भावं। किह जाणति पारोक्खी, नातमिणं तत्थ धमएणं ।। नालीधमएण जिणा, उवसंहारं करेंति पारोक्खे। जह सो कालं जाणति, सतेण सोहिं तहा सोउं॥ (व्यभा ४०४६, ४०४७) प्रत्यक्ष आगमव्यवहारी आलोचक के भावों को साक्षात् जानते हैं, किन्तु परोक्ष आगमव्यवहारी कैसे जान लेते हैं ? इसमें नालीधमक का दृष्टांत ज्ञातव्य है-जैसे नालिका से गिरते हुए उदक के परिमाण के आधार पर समय जानकर धमक शंख बजाकर समय की सूचना देता है, वैसे ही परोक्ष आगमव्यवहारी आलोचना को सुनकर आलोचक के यथावस्थित भावों को जान लेते हैं। ९. आगमव्यवहारी का स्वरूप अट्ठायारवमादी, वयछक्कादी हवंति अटूरसा। दसविधपायच्छित्ते, आलोयण दोसदसहिं वा॥ छहि काएहि वतेहि व, गुणेहि आलोयणाय दसहिं च। छट्ठाणावडितेहिं, छहि चेव तु जे अपारोक्खा॥ संखादीया ठाणा, छहि ठाणेहि पडियाण ठाणाणं। जे संजया सरागा, सेसा एक्कम्मि ठाणम्मि॥ एयागमववहारी, पण्णत्ता रागदोसणीहूया। आणाय जिणिंदाणं, जे ववहारं ववहरंति॥ (व्यभा ४१५९-४१६२) आलोचनाह के आचारवान् आदि आठ गुण, व्रतषट्क आदि अठारह आचारस्थानों संबंधी अपराधों में प्रायश्चित्त, आलोचना आदि दसविध प्रायश्चित्त, आलोचना के दस दोष, छह जीव निकाय, छह व्रत, आलोचना के दस गुण, षट्स्थानपतित (अनंतभाग वृद्धि-हानि आदि) स्थानों में वर्तमान सराग संयतों के असंख्येय संयम स्थान और वीतराग का एक संयमस्थान (अवस्थित चारित्र)जो इन सब स्थानों को साक्षात् जानते हैं और राग-द्वेष की प्रवृत्ति से Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार ५३६ आगम विषय कोश-२ मुक्त होकर अर्हतों की आज्ञा से व्यवहार का प्रयोग करते हैं, वे अपरक्कमो मि जातो, गंतुं जे कारणं तु उप्पण्णं। आगम व्यवहारी हैं। अट्ठारसमन्नतरे, वसणगते इच्छिमो आणं॥ १०. श्रुतव्यवहारी का स्वरूप अपरक्कमो तवस्सी, गंतुं सो सोधिकारगसमीवं । जो सुतमहिज्जति बहुं, सुत्तत्थं च निउणं वियाणाति। आगंतु न चाएती, सो सोहिकरो वि देसातो॥ कप्पे ववहारम्मि य, सो उ पमाणं सतधराणं॥ अध पट्ठवेति सीसं, देसंतरगमणनट्ठचेट्ठागो। कप्पस्स य निज्जुत्तिं, ववहारस्सेव परमनिउणस्स। इच्छामऽज्जो काउं, सोहिं तुब्भं सगासम्मि॥ जो अस्थतो विजाणति, ववहारी सो अणुण्णातो॥ सो वि अपरक्कमगती, सीसं पेसेति धारणाकुसलं। (व्यभा ४४३३, ४४३५) एयस्स दाणि पुरतो, करेति सोहिं जहावत्तं॥ श्रुतव्यवहारिणोऽवशेषपूर्वधरा एकादशांगधारिकल्प- अपरक्कमो य सीसं, आणापरिणामगं परिच्छेज्जा। व्यवहारादिसूत्रार्थतदुभयविदश्च। (व्यभा ९ की वृ) रुक्खे य बीजकाए, सुत्ते वाऽमोहणाधारिं ॥ जो मुनि कल्प और व्यवहार के सूत्रों को बहुत पढ़ चुका पदमक्खरमुद्देसं, संधी-सुत्तत्थ-तदुभयं चेव। है, सूत्रार्थ को सूक्ष्मता से जानता है तथा अत्यंत सूक्ष्म अर्थों वाले अक्खरवंजणसुद्धं, जह भणितं सो परिकहेति॥ कल्प और व्यवहार की नियुक्तियों को अर्थतः जानता है, वही एवं परिच्छिऊणं, जोग्गं णाऊण पेसवे तं तु। श्रुतधरों में प्रमाणभूत श्रुतव्यवहारी हो सकता है। एकपूर्वी यावत् वच्चाहि तस्सगासं, सोहिं सोऊणमागच्छ॥ अध सो गतो उ तहियं, तस्स सगासम्मि सो करे सोधिं। आठपूर्वी, ग्यारह अंगों के धारक, कल्प, व्यवहार आदि के सूत्र, दुग-तिग-चऊविसुद्धं, तिविधे काले विगडभावो॥ अर्थ और सूत्रार्थ के ज्ञाता श्रुतव्यवहारी कहलाते हैं। दुविहं तु दप्प-कप्पे, तिविहं नाणादिणं तु अट्ठाए। ० श्रुतव्यवहार : भद्रबाहु द्वारा निर्मूढ श्रुत दव्वे खेत्ते काले, भावे य चउव्विधं एयं ॥ निज्जूढं चोद्दसपुव्विएण जं भद्दबाहुणा सुत्तं। सोऊण तस्स पडिसेवणं तु आलोयणं कमविधिं व। पंचविधो. ववहारो, दुवालसंगस्स णवणीतं । आगमपुरिसज्जातं, परियागबलं च खेत्तं च॥ तं चेवऽणुमज्जंते, ववहारविधिं पउंजति जहुत्तं । आहारेउं सव्वं, सो गंतूणं पुणो गुरुसगासं। एसो सुतववहारी, पण्णत्तो धीरपुरिसेहिं॥ तेसि निवेदेति तधा, जधाणुपुव्विं गतं सव्वं ॥ ___कुलादिकार्येषु व्यवहारे उपस्थिते "भद्रबाहुस्वामिना सो ववहारविहिण्णू, अणुमज्जित्ता सुतोवदेसेणं। कल्पव्यवहारात्मकं सूत्रं निर्मूढम्। (व्यभा ४४३१, ४४३६ वृ) सीसस्स देति आणं, तस्स इमं देहि पच्छित्तं ॥ एवं गंतूण तहिं, जधोवदेसेण देति पच्छित्तं। चौदहपूर्वी भद्रबाहु स्वामी ने द्वादशांग से पंचविध व्यवहार आणाय एस भणितो, ववहारो धीरपुरिसेहिं॥ का नि!हण किया, जो द्वादशांग का नवनीत/सार है। वह सूत्र ही (व्यभा ४४३८-४४४३, ४४५४-४४५७,४४८७-४४८९, ४५०१) श्रुत है और उससे होने वाला व्यवहार श्रुतव्यवहार है। अनशन में संलग्न, शल्योद्धरण का इच्छुक तपस्वी मुनि या कुल, गण आदि में व्यवहार का प्रसंग उपस्थित होने पर आचार्य भद्रबाहु ने कल्प और व्यवहारसूत्र का नि!हण किया। जो आचार्य दूरस्थित छत्तीस गुणों से युक्त आचार्य के पास आलोचना इन दोनों सूत्रों में निमज्जन कर, यथोक्त व्यवहारविधि का प्रयोग करना चाहता है किन्तु शोधिकारक के समीप जाने में समर्थ नहीं है और शोधिकारक भी देशांतर से आने में समर्थ नहीं है, तो शोधि करता है, उसे धीर पुरुषों ने श्रुतव्यवहारी कहा है। का इच्छुक आचार्य अपने शिष्य को वहां भेजकर यह कहलवाता ११. आज्ञा व्यवहार का स्वरूप : शिष्य की परीक्षा है-'आर्य! मैं व्रतषट्क आदि अठारह स्थानों में से किसी भी समणस्स उत्तिमढे, सल्लुद्धरणकरणे अभिमुहस्स। स्थान के अतिचार की शोधि के लिए आपकी आज्ञा चाहता हूं, दूरत्था जत्थ भवे, छत्तीसगुणा उ आयरिया॥ आपके पास शोधि करना चाहता हूं।' शिष्य वहां जाता है, आचार्य Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५३७ व्यवहार काल-भाव में त्रिकालवर्ती दर्प-कल्प विषयक ज्ञान-दर्शन-चारित्र के अतिचारों की ऋजुभाव से आलोचना करता है। आगंतुक मुनि आलोचक की प्रतिसेवना को सुनकर, आलोचना की क्रमपरिपाटी का सम्यक अवधारण कर, उनके आगमज्ञान, तपसामर्थ्य, गृहस्थपर्याय, संयमपर्याय, शारीरिक-मानसिक बल, क्षेत्र आदि के विषय में उनसे जानकर या स्वयं निरीक्षण कर अपने गुरु के पास लौट आता है। उसने जिस क्रम से अवधारण किया था, उसी क्रम से सब तथ्य गुरु को निवेदित करता है। तत्पश्चात व्यवहारविधिवेत्ता आलोचनाचार्य ठेटमत्रों के प्रकाश में पौर्वापर्य का पर्यालोचन कर श्रतोपदेश से शिष्य को आज्ञा देते हैं'तम जाओ और उन आचार्य को यह प्रायश्चित्त निवेदित कर आओ।' वह शिष्य वहां जाता है और अपने आचार्य द्वारा कथित प्रायश्चित्त देता है। यह आज्ञा व्यवहार है। को यथोक्त बात कहता है। आलोचनार्ह स्वयं जाने में असमर्थ होने पर अपने धारणाकुशल शिष्य को वहां भेजते हैं यह संदेश देकर कि इसके सामने यथावृत्त शोधि करो। शिष्यप्रेषण से पूर्व वे शिष्य के आज्ञापरिणामकत्व की परीक्षा कर यह परीक्षा भी करते हैं कि वह अवग्रहण-धारण समर्थ है या नहीं, व्यामोहरहित सूत्र-अर्थ का धारक है या नहीं। ० वृक्ष का उदाहरण-गुरु ने शिष्य से कहा-उस ऊंचे वृक्ष पर चढ़ो और नीचे कूद जाओ। अपरिणामी शिष्य ने कहा-साधु के लिए वृक्ष पर चढ़ना कल्पनीय नहीं है। अतिपरिणामी शिष्य ने कहा-मैं अभी वृक्ष से गिरता हूं। मेरी यही इच्छा थी। गुरु ने कहा-तम दोनों ने मेरे कथन पर विमर्श नहीं किया। मेरे कथन का आशय यह था कि भवार्णव आपन्न तुम लोग तप-नियम-ज्ञानमय वक्ष पर आरोहण कर संसारसागरतट के उस पार पहुंच जाओ। परिणामी शिष्य ने सोचा-मेरे गुरु स्थावर जीवों की भी हिंसा की इच्छा नहीं करते, पंचेन्द्रिय जीव-हिंसा का तो प्रश्न ही नहीं है। गुरु के इस आदेश में अवश्य कोई रहस्य है-यह सोचकर वह वृक्ष पर चढ़ने को तत्पर हुआ पर गुरु ने उसे रोक दिया। ० बीज का उदाहरण-गुरु ने कहा-बीज लाओ। अपरिणामक शिष्य ने कहा-साधु बीज ग्रहण नहीं कर सकता। अतिपरिणामक पोटली में बीज बांध कर ले आया। गरु ने कहा-मैंने उगने में समर्थ सचित्त अम्लिका बीज लाने को नहीं कहा था। परिणामक शिष्य ने पूछा-भंते ! कौन से बीज लाऊं? कितनी मात्रा में बीज लाऊं? उगने में समर्थ बीज लाऊं या असमर्थ? गुरु ने कहाअभी मुझे बीजों से प्रयोजन नहीं है, केवल तुम्हारी परीक्षा कर रहा था। तुम उत्तीर्ण हुए हो। गुरु शिष्य को पद, अक्षर, उद्देशक, संधि (अध्याय), सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ बताते हैं, अक्षरव्यंजन से शुद्ध पाठ पढ़ाते हैं। फिर ग्रहण-स्मरण की परीक्षा हेतु कहते हैं-उच्चारण करो। यदि वह जैसा ग्रहण किया है, उसी रूप में सारा पाठ सुना देता है, तो उसे ग्रहण-धारण में कुशल मानते हैं। इस प्रकार गुरु परीक्षा कर, योग्य जानकर उसे भेजते हैं और कहते हैं-जाओ, उन आलोचना-आकांक्षी आचार्य की आलोचना सुनकर लौट आओ। वह शिष्य वहां जाता है। आलोचक प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र- ० आज्ञा व्यवहार की एक अन्य व्याख्या आज्ञाव्यवहारो नाम यदा द्वावप्याचार्यावाऽऽसेवितसूत्रार्थतयातिगीतार्थों क्षीणजंघाबलौ व्यवहारक्रमानुरोधतः प्रकृष्टदेशान्तरनिवासिना च तौ एवान्योन्यस्य समीपं गन्तुमसमर्थावभूतां, तदान्यतरस्मिन् प्रायश्चित्ते समापतिते सति तथाविधयोग्यगीतार्थशिष्याभावे सति धारणाकुशलमगीतार्थमपि शिष्यं गूढार्थान्यतिचारासेवनपदानि कथयित्वा प्रेषयति। एवं तेन कथितेन आचार्यो द्रव्यक्षेत्रकालभावसंहननधृतिबलादिकं परिभाव्य स्वयं वागमनं करोति शिष्यं वा तथाविधं योग्यं गीतार्थं प्रज्ञाप्य प्रेषयति, तदभावे तस्यैव प्रेषितस्य गूढार्थामतिचारविशुद्धिं कथयति। (व्यभा ९ की वृ) जो सूत्र-अर्थ के विशिष्ट ज्ञाता एवं प्रयोक्ता होने के कारण महान् गीतार्थ हैं, ऐसे दो आचार्य भिन्न-भिन्न प्रदेशों में स्थित हैं। वे क्षीण जंघाबल के कारण एक-दूसरे के पास जाने में असमर्थ हैं, ऐसी स्थिति में प्रायश्चित्त व्यवहार का प्रसंग उपस्थित होने पर आचार्य योग्य गीतार्थ शिष्य को और उसके अभाव में धारणाकशल शिष्य को अतिचार-आसेवन स्थानों को गूढ अर्थ वाले पदों में बताकर उनके पास भेज देते हैं। इस प्रकार आगंतुक शिष्य के निवेदन करने पर आचार्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, संहनन, धृति, बल आदि का विचार कर Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार ५३८ आगम विषय कोश-२ 1 स्वयं वहां आ जाते हैं अथवा उस कार्य के योग्य गीतार्थ शिष्य को विविहेहि पगारेहिं, धारेयऽत्थं विधारो उ॥ प्रज्ञापित कर भेजते हैं, वह न हो तो उसी आगंतक को गढार्थ वाले सं एगीभावम्मी, धीय धरणे ताणि एक्कभावेणं। पदों में अतिचार-विशुद्धि बताते हैं। यह आज्ञा व्यवहार है। धारेयऽत्थपयाणि तु, तम्हा संधारणा होति॥ * गूढ पदों में प्रायश्चित्त द्र प्रतिसेवना जम्हा संपहारेउं, ववहारं पउंजती। १२. धारणा व्यवहार का स्वरूप तम्हा कारणा तेण, नातव्या संपधारणा॥ पुरिसस्स उ अइयारं, विधारइत्ताण जस्स जं अरिहं। (व्यभा ४५०३-४५०६) तं देंति उ पच्छित्तं, जेणं देंती उ तं सणह॥ धारणा की क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक चार पद हैंजो धारितो सुतत्थो, अणुयोगविधीय धीरपुरिसेहिं । १. उद्धारणा-छेदसूत्रों में उद्धत अर्थपदों को प्रबलता से धारण आलीणपलीणेहिं, जतणाजुत्तेहिं दंतेहिं ॥ करना। अहवा जेणऽण्णइया, दिट्ठा सोधी परस्स कीरंति। २. विधारणा-अर्थपदों को विविध प्रकार से धारण करना। तारिसयं चेव पुणो, उप्पन्न कारणं तस्स॥ ३. संधारणा-धारण किए हए अर्थपदों को आत्मसात् करना। सो तम्मि चेव दव्वे, खेत्ते काले य कारणे पुरिसे। ४. सम्प्रधारणा-अर्थपदों को सम्यक्तया प्रकर्ष रूप से धारण कर तारिसयं चिय भूतो, कुव्वं आराहगो होति॥ धारणाव्यवहार का प्रयोग करना।। वेयावच्चकरो वा, सीसो वा देसहिंडगो वावि। पवयणजसंसि पुरिसे, अणुग्गहविसारए तवस्सिम्मि। दुम्मेहत्ता न तरति, अवधारेउं बहुं जो तु॥ सुस्सुयबहुस्सुयम्मि य, वि वक्कपरियागसुद्धम्मि॥ तस्स उ उद्धरिऊणं, अत्थपयाइं तु देंति आयरिया। एतेसु धीरपुरिसा, पुरिसज्जातेसु किंचि खलितेसु। जेहिं करेति कजं, आधारेंतो तु सो देसो॥ रहिते वि धारडत्ता. जहारिहं देंति पच्छित्तं॥ (व्यभा ४५११, ४५१२, ४५१५, ४५१७-४५१९) । रहिते नाम असंते, आइल्लम्मि ववहारतियगम्मि। ० ज्ञान आदि में सतत आलीन-प्रलीन, उपशांत, यतनायुक्त और ताहे वि धारइत्ता, वीसंसेऊण जं भणियं॥ दांत-ऐसे मुनि व्याख्याकाल में जो सूत्रार्थ धारण करते हैं, उसकी (व्यभा ४५०८-४५१०) स्मृति रखते हुए उसके आधार पर अपराधी के अपराध का विचार धारणा व्यवहर्त्तव्य की पांच अर्हताएं हैंकर यथायोग्य प्रायश्चित्त देते हैं-वह धारणा व्यवहार है। प्रवचनयशस्वी-जो प्रवचन का यश चाहता है। ० किसी ने कभी किसी की शोधि करते देखा, वह सारा स्मृति में ० अनुग्रहविशारद-जो प्रदत्त प्रायश्चित्त को अनुग्रह मानता है। है। पुनः वैसा कारण उत्पन्न होने पर वैसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल और तपस्वी-जो विविध तपों में रत है। भाव में वैसे पुरुष को वैसा ही प्रायश्चित्त देना धारणा व्यवहार है। ० सुश्रुतबहुश्रुत-जिसका अच्छी तरह से सुना हुआ विशालश्रुत राग-द्वेष मुक्त होकर वैसा व्यवहार करने वाला आराधक होता है। भी विस्मृत नहीं होता। ० जो मुनि वैयावृत्त्यकर है या सम्मत शिष्य है या जो देशदर्शन में ० वाक्यपरिपाकशुद्ध-जो वचनपरिणाम से शुद्ध है। आचार्य का सहयोगी है, वह दुर्मेधा या अल्पमेधा के कारण उपर्युक्त गुणों से युक्त मुनि को आचार में स्खलना होने पर छेदसूत्रों के सम्पूर्ण अर्थपदों को धारण करने में समर्थ नहीं है। प्रथम तीन व्यवहारों (आगम, श्रुत, आज्ञा) के अभाव में कल्प, आचार्य उस पर अनुग्रह कर कुछ उद्धृत अर्थपद उसे सिखाते हैं। निशीथ और व्यवहार-तीनों के कुछ अर्थपदों की अवधारणा कर छेदसूत्र के अर्थ का अंशतः धारक वह मुनि जो प्रायश्चित्त देता है, विमर्शपूर्वक यथायोग्य प्रायश्चित्त दिया जाता है। वह धारणा व्यवहार है। १३. जीत व्यवहार का स्वरूप उद्धारणा विधारण, संधारण संपधारणा चेव।... वत्तणवत्तपवत्तो. बहसो अणवत्तिओ महाणे। पाबल्लेण उवेच्च व, उद्धियपयधारणा उ उद्धारा। एसो उ जीयकप्पो, पंचमओ होति ववहारो॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ वत्तो णामं एक्कसि, अणुवत्तो जो पुणो बितियवारे । ततियव्वार पवत्तो, परिग्गहीओ महाणेणं ॥ अग अगस्थ कतो, जह अमुयस्स अमुएण ववहारो । अमुगस्स विय तह कतो, अमुगो अमुगेण ववहारो ॥ तं चेवऽणुमज्जंते, ववहारविधिं पउंजति जहुत्तं । जीतेण एस भणितो, ववहारो धीरपुरिसेहिं ॥ (व्यभा ४५२१, ४५२२, ४५३४, ४५३५) • जो व्यवहार एक बार, दो बार या अनेक बार प्रवृत्त होता है, महाजन (आचार्य आदि) के द्वारा अनुवर्तित होता है, वह जीतकल्प नामक पांचवां व्यवहार है 1 • अमुक आचार्य ने अमुक कारण उत्पन्न होने पर अमुक पुरुष को अमुक प्रायश्चित्त दिया, वैसा ही प्रयोग वैसी स्थिति में अन्य आचार्यों ने किया—इस वृत्तानुवृत्त जीत का आश्रय लेकर यथोक्त व्यवहार विधि का प्रयोग करना जीत व्यवहार है। ...... आयरियपरंपरएण आगतो जाव जस्स भवे ॥ बहुसो बहुस्सुतेहिं, जो वत्तो न य निवारितो होति । वत्तऽणुवत्तपमाणं, जीतेण कयं भवति एयं ॥ (व्यभा ४५४९, ४५४२) o जो आचार्य परम्परा से प्राप्त व्यवहार है, वह जीत व्यवहार है । • जो व्यवहार बहुश्रुतों के द्वारा अनेक बार प्रवर्तित हुआ और किसी अन्य बहुश्रुत के द्वारा जिसका प्रतिषेध नहीं किया गया, वह वृत्तानुवृत्त व्यवहार प्रमाणीकृत जीत व्यवहार है। असढेण समाइण्णं, जं कत्थइ कारणे असावज्जं । ण णिवारियमण्णेहिं य, बहुमणुमयमेतमाइणं ॥ (बृभा ४४९९) कहीं भी प्रयोजन उपस्थित होने पर प्रमाणस्थ पुरुष द्वारा अशठभाव से जो निरवद्य आचरण किया जाता है, गीतार्थवर्ग के द्वारा जिसका निवारण नहीं किया जाता अपितु उसके द्वारा जो सम्मत अनुमत होता है, वह आचीर्ण है, जीतकल्प है। • जीत व्यवहार : श्रुत-उपधान के संदर्भ में जं जस्स व पच्छित्तं, आयरियपरंपराएँ अविरुद्धं । जोगा य बहुविकप्पा, एसो खलु जीयकप्पो उ॥ ५३९ व्यवहार नागिलकुलवंशवर्तिनां साधूनामाचारादारभ्य यावदनुत्तरोपपातिकदशाः, तावन्नास्ति आचाम्लं, केवलं निर्विकृतिन ते पठन्ति आचार्यानुज्ञाताश्च विधिना कायोत्सर्गं कृत्वा विकृती: परिभुञ्जते तथा कल्पव्यवहारयोः चन्द्रप्रज्ञप्तिसूर्यप्रज्ञप्त्योश्च केचिदागाढं योगं प्रतिपन्ना अपरे त्वनागाढमिति । (व्यभा १२ वृ) जिस आचार्य के गच्छ में पूर्व आचार्यपरम्परा के अविरुद्ध जो प्रायश्चित्त का विधान है और गच्छभेद के आधार पर योग ( श्रुत अध्ययन संबंधी उपधान) के जो अनेक विकल्प हैं, वह जीतकल्प - जीतव्यवहार है। नागिलकुलवंशी साधुओं के लिए आचारांग से लेकर अनुत्तरोपपातिकदशा पर्यंत सूत्रों को पढ़ते समय आचाम्ल का विधान नहीं है। वे केवल निर्विकृतिक रहकर उन सूत्रों को पढ़ते हैं और आचार्य की अनुज्ञा से विधिपूर्वक कायोत्सर्ग कर विकृति का सेवन करते हैं। कल्प - व्यवहार सूत्र और चन्द्रप्रज्ञप्ति - सूर्यप्रज्ञप्ति के पठनकाल में कुछ आगाढ योग को स्वीकार करते हैं और कुछ अनागाढ योग को - यह जीतकल्प है। १४. जीत व्यवहार के आधार पर प्रायश्चित्त सो जह कालादीणं, अपडिक्कंतस्स निव्विगइयं तु । मुहणंत फिडिय पाणगऽसंवरणे एवमादीसु ॥ '''''पानाहारप्रत्याख्यानाकरणे । ( व्यभा ४५३७ वृ) स्वाध्यायकाल आदि का प्रतिक्रमण नहीं करने पर, मुखवस्त्र के बिना रहने अथवा बोलने पर, पानकपात्र नहीं ढकने पर, पानाहारप्रत्याख्यान नहीं करने पर तथा इसी प्रकार की स्खलना होने पर निर्विकृतिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। एगिंदिऽणंत वज्जे, घट्टण तावेऽणगाढ गाढे य । निव्विगितयमादीयं, जा आयामं तु उद्दवणे ॥ विगलिंदणंत घट्टण, तावऽणगाढे य गाढ उद्दवणे । पुरिमड्डादिकमेणं, नातव्वं जाव खमणं तु ॥ पंचिंदि घट्ट - तावणऽणगाढ गाढे तधेव उद्दवणे । एक्कासण- आयामं, खमणं तह पंचकल्लाणं ॥ एमादीओ एसो, नातव्वो होति जीतववहारो ।...... (व्यभा ४५३८-४५४१ ) Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार ५४० आगम विषय कोश-२ पूर्वार्ध पूर्वार्ध अपराध तप प्रायश्चित्त जो जीत सावध है, उस जीत से व्यवहार नहीं होता। जो एकेन्द्रिय (अनन्तकाय वर्जित) जीत निरवद्य है, उस जीत के द्वारा व्यवहार प्रवृत्त होता है। ० जीवों का संघट्टन निर्विकृति १. सावध जीत-जिनशासन और लोक में अपराध की विशुद्धि ० अनागाढ परिताप की अवगति कराने के लिए अपराधी के शरीर पर राख लगाना, ० आगाढ परिताप एकाशन उसे कारागृह में बंदी बनाना, अस्थिमाला पहनाना, गधे पर बिठाकर ० प्राणव्यपरोपण आचाम्ल नगर में घुमाना आदि व्यवहार करना। विकलेन्द्रिय तथा अनंत वनस्पति २. निरवद्य जीत-दशविध (आलोचना आदि) प्रायश्चित्त देना। ० जीवों का संघट्टन यहां व्यवहार का संबंध निरवद्य जीत से है, सावध जीत ० अनागाढ परिताप एकाशन से नहीं। अपवाद रूप से कभी-कभी अनवस्था प्रसंग (दोषों की ० आगाढ परिताप आचाम्ल पुनरावृत्ति) के निवारण के लिए उस व्यक्ति पर सावध जीत का ० अपद्रावण उपवास प्रयोग भी किया जाता था, जो प्रायः बहत दोषों का सेवन करता या पञ्चेन्द्रिय सर्वथा निर्दयी और प्रवचन के विषय में निरपेक्ष होता था। ० संघट्टन एकाशन संविग्न, प्रियधर्मा, अप्रमत्त और पापभीरु मुनि द्वारा स्खलना ० अनागाढ परिताप आचाम्ल होने पर उसके प्रति निरवद्य जीत से व्यवहार करना चाहिए। ० आगाढ परिताप उपवास शोधिकर जीत से व्यवहार करना चाहिए, अशोधिकर जीत ० प्राणव्यपरोपण पांच कल्याणक से नहीं। जो व्यवहार पार्श्वस्थ प्रमत्तसंयत मुनि द्वारा आचीर्ण है, १५. सावद्य-निरवद्य जीतव्यवहार वह अशोधिकर जीत है। उससे व्यवहार नहीं करना चाहिए, फिर जं जीतं सावज्जं, न तेण जीतेण होति ववहारो। चाहे वह अनेक पुरुषों द्वारा भी आचीर्ण क्यों न हो। जं जीतमसावज्जं, तेण उ जीतेण ववहारो॥ जो व्यवहार संवेगपरायण और दान्त मुनि द्वारा आचीर्ण है, छार हडि हड्डुमाला, पोट्टेण य रंगणं तु सावज। वह शोधिकर जीत है। उसी से व्यवहार करना चाहिए, फिर चाहे दसविहपायच्छित्तं, होति असावज्जजीतं तु॥ वह एक ही व्यक्ति द्वारा आचीर्ण क्यों न हो। उस्सण्णबहू दोसे, निद्धंधस पवयणे य निरवेक्खो। एयारिसम्मि पुरिसे, दिज्जति सावज्जजीयं पि॥ १६. जीत व्यवहार-प्रवर्तन : बारह वस्तुओं का विच्छेद संविग्गे पियधम्मे, य अप्पमत्ते अवज्जभीरुम्मि। ......"सिद्धिपहे ततियगम्मि पुरिसजुगे। कम्हिइ पमायखलिए, देयमसावज्जजीतं तु॥ वोच्छिन्ने तिविहे संजमम्मि जीतेण ववहारो॥ ....."जं जीतं सोहिकरं, तेण उ जीएण ववहारो॥ संघयणं संठाणं. च पढमगं जो य पव्वउवओगो। जं जीतमसोहिकरं, पासत्थ-पमत्त-संजयाचिण्णं। ववहारे चउक्कं पि, चोद्दसपुव्विम्मि वोच्छिन्नं । जइ वि महाणाइण्णं, न तेण जीतेण ववहारो॥ आहायरिओ एवं, ववहारचउक्क जे उ वोच्छिन्नं। जं जीतं सोहिकरं, संवेगपरायणेण दंतेणं। चउदसपुव्वधरम्मी, घोसंती तेसऽणुग्घाता॥ एगेण वि आइण्णं, तेण उ जीएण ववहारो॥ मणपरमोहिपुलाए, आहारग-खवग-उवसमे कप्पे। यत् प्रवचने लोके चापराधविशुद्धये समाचरितं संजमतिय केवलिसिझणा य जंबुम्मि वोच्छिन्ना॥ क्षारावगुण्डनं, हडौ गुप्तिगृहप्रवेशनं"खरारूढं कृत्वा ग्रामे संघयणं संठाणं, च पढमगं जो य पुव्वउवओगो। सर्वतः पर्यटनमित्येवमादि सावधं जीतं, अपवादतः कदाचित् एते तिन्नि वि अत्था, चोद्दसपुस्विम्मि वोच्छिन्ना॥ सावद्यमपि जीतं दद्यात्। (व्यभा ४५४३-४५४९ वृ) (व्यभा ४५२३-४५२५, ४५२७, ४५२८) Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ एक परम्परा के अनुसार तीसरे पुरुषयुग (जम्बूस्वामी) के सिद्ध होने पर अंतिम तीन चारित्रों का विच्छेद हो गया, तब जीत से व्यवहार होने लगा। दूसरी परम्परा के अनुसार चतुर्दशपूर्वी का विच्छेद होने पर प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान, अन्तर्मुहूर्त्त में चौदह पूर्वों का परावर्त्तन तथा प्रथम चारों व्यवहारों का विच्छेद हो गया। इन दोनों मतों का निराकरण करते हुए भाष्यकार कहते हैं - जो चतुर्दशपूर्वधर के विच्छेद होने पर व्यवहार - चतुष्क के विच्छेद की घोषणा करते हैं, वे मिथ्यावादी होने के कारण चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी हैं । आचार्य जम्बूस्वामी के सिद्धिगमन के पश्चात् बारह वस्तुओं का विच्छेद हुआ - मनः पर्यवज्ञान, परमावधि, लब्धिपुलाक, आहारकलब्धि, क्षपक श्रेणि, उपशमश्रेणि, जिनकल्प, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय, यथाख्यात चारित्र, केवली, सिद्धि । चतुर्दशपूर्वी के विच्छिन्न होने पर प्रथम संहनन (वज्रऋषभनाराच), प्रथम संस्थान (समचतुरस्र) तथा अन्तर्मुहूर्त्त में चौदहपूर्वी का उपयोग (अनुप्रेक्षण) - इन तीनों वस्तुओं का विच्छेद हुआ। जो आगमे य सुत्ते, य सुन्नतो आणधारणाए य । सो ववहारं जीएण, कुणति वत्ताणुवत्तेण ॥ (व्यभा ४५३३) जो आगम, श्रुत, आज्ञा और धारणा से रहित होता है, वह परम्परा से प्राप्त जीत के द्वारा व्यवहार करता है। १७. जीत व्यवहार कब तक ? यस्मिन् काले गौतमादिभिरिदं सूत्रं कृतं 'ववहारे पंचविहे पन्नत्ते' इत्यादि तदा आगमो विद्यते ततः किं कारणमाज्ञादयोऽपि सूत्रे निबद्धा: ? । (व्यभा ३८८४ की वृ) सुत्तमणागयविसयं, खेत्तं कालं च पप्प ववहारो । होहिंति न आइल्ला, जा तित्थं ताव जीतो तु ॥ .....यस्मिन् यस्मिन् काले यो यो व्यवहारो व्यवच्छिन्नो अव्यवच्छिन्नो वा तदा तदा प्रागुक्तेन क्रमेण व्यवहर्त्तव्यं तथा यत्र यत्र क्षेत्रे युगप्रधानैराचार्यैर्या या व्यवस्था व्यवस्थापिता तया अनिश्रितोपाश्रितं व्यवहर्त्तव्यम् । (व्यभा ३८८५ वृ) शिष्य ने पूछा- जिस समय गौतमस्वामी आदि ने 'ववहारे ५४१ पंचविहे पण्णत्ते....... इस सूत्र की रचना की, उस समय आगम था, तब श्रुत, आज्ञा आदि को सूत्रित क्यों किया ? गुरु ने कहासूत्र का विषय अनागत काल भी है- भविष्य में ऐसा समय भी आयेगा, जब आगम का व्युच्छेद हो जाएगा। व्यवहार क्षेत्र और काल सापेक्ष होता है। जिस काल में जो व्यवहार व्युच्छिन्न हो तो उस समय अव्युच्छिन्न व्यवहार का यथाक्रम प्रयोग करना चाहिए। जिस क्षेत्र में युगप्रधान आचार्यों द्वारा जो व्यवस्था व्यवस्थापित हो, उसी के अनुसार मध्यस्थ भाव से व्यवहार करना चाहिए। व्यवहार प्रथम चार व्यवहार तीर्थपर्यंत नहीं रहेंगे। अंतिम 'जीत' व्यवहार तब तक रहेगा, जब तक तीर्थ रहेगा । १८. व्यवहार के भेद : आभवद् और प्रायश्चित्त आभवंते य पच्छित्ते, ववहरियव्वं समासतो दुविहं । दो वि पणगं पणगं ********** II खेत्ते सुत-सुहदुक्खे, मग्गे विणए य पंचहा होइ । सच्चित्ते अच्चित्ते, खेत्ते काले य भावे य ॥ (व्यभा ३८८९, ३८९०) व्यवहार के दो प्रकार हैं — १. आभवत् व्यवहार - शिष्य आदि को लेकर होने वाला। २. प्रायश्चित्त व्यवहार — अपराधी के प्रति होने वाला। आभवत् व्यवहार पांच प्रकार का है - १. क्षेत्र २. श्रुत ३. सुख-दुःख, ४ मार्ग और ५. विनय संबंधी । प्रायश्चित्त व्यवहार पांच प्रकार का है - सचित्त, अचित्त, क्षेत्र, काल और भाव संबंधी । (द्र प्रायश्चित्त) ० क्षेत्र आभवद्-श्रुत आभवद् व्यवहार वासासु निग्गताणं, अट्ठसु मासेसु मग्गणा खेत्ते । आयरियकहण साहण, नयणे गुरुगा य सच्चित्ते ॥ आलोएंतो सोउं ।गताण तेसिं न तं खेत्तं ॥ दुविहा सुतोवसंपय, अभिधारेंते तहा पढ़ते य । एक्केक्का वि य दुविधा, अनंतर परंपरा चेव ॥ एत्थं सुयं अहीहामि, सुतवं सो वि अन्नहिं । वच्चंतो सोऽभिधारंतो, सो वि अन्नत्थमेव व ॥ दोहं अनंतरा होति, तिगमादी परंपरा । ...... (व्यभा ३८९१, ३८९३, ३९५८-३९६०) Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार अष्टमासिक ऋतुबद्धकाल में विहरणशील मुनि आचार्य प्रायोग्य वर्षावासक्षेत्र की मार्गणा करते हैं। वे क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा कर आचार्य के पास जाकर उस क्षेत्र के गुण-दोष बताते हैं । गच्छान्तर से समागत मुनि उनकी वार्ता को सुनकर अपने आचार्य के पास जाकर सारी बात बताते हैं, उन्हें उस क्षेत्र में ले जाते हैं, वहां वे सचित्त आदि ग्रहण करते हैं तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। क्योंकि वह क्षेत्र उनके अवग्रह में नहीं है। श्रुतउपसम्पदा के दो प्रकार हैं- अभिधारण और पठन । इन दोनों के दो-दो प्रकार हैं- अनंतर और परम्पर। दो के मध्य होने वाली श्रुतोपसम्पद् अनंतर और तीन आदि के मध्य होने वाली श्रुतोपसम्पद् परम्पर कहलाती है । मैं अमुक श्रुतवान् के पास अध्ययन करूंगा - कोई ऐसा निश्चय कर चलता है और वह श्रुतवान् भी किसी अन्य आचार्य को अभिधारित कर अन्यत्र जाता है। अन्यत्र जो है, वह भी अन्यत्र चला जाता है - यह परम्पर अभिधारण श्रुतोपसम्पद् है । ० सुख - दुःख आभवद्-मार्ग आभवद् व्यवहार अभिधारे उवसंपण्णो, दुविधो सुह-दुक्खितो मुणेयव्वो । सहायगो तस्स उ नत्थि कोई, सुत्तं च तक्केइ न सो परत्तो । गाणिए दोसगणं विदित्ता, सो गच्छमब्भेति समत्तकप्पं ॥ खेत्ते सुहदुक्खी तू, अभिधारेंताइँ दोण्णि वी लभति । पुर- पच्छसंथुयाई, ट्ठल्ला च जो लाभो ॥ जह कोई मग्गण्णू, अन्नं देसं तु वच्चती साधू । उवसंपज्जति उ तगं, तत्थऽण्णो गंतुकामो उ ॥ अम्मा- पितिसंबद्धा, मित्ता य वयंसगा य जे तस्स । दिट्ठा भट्ठा य तहा, मग्गुवसंपन्नओ लभति ॥ (व्यभा ३९८१-३९८३, ३९९५, ३९९९) सुखदुःखोपसम्पद् के दो प्रकार हैं- अभिधारक और उपसम्पन्न। जिसके कोई सहायक नहीं है और जो दूसरों से सूत्र की अपेक्षा नहीं रखता है, वह एकाकी-विहार के दोषों को जानकर समाप्तकल्प (जहां ५ या ७ साधु हैं या पर्याप्त सहयोगी हैं, उस) गच्छ में चला जाता है। उस परक्षेत्र में सुखदुःखोपसम्पन्न मुनि को अभिधारित कर प्रव्रजित होने वाले उसके पूर्वसंस्तुत- पश्चात्संस्तुत तथा अन्य व्यक्ति भी उसी के निश्रित होते हैं। कोई मार्गज्ञ मुनि अन्य देश के लिए प्रस्थित है। उसी देश में ५४२ आगम विषय कोश - २ जाने का इच्छुक दूसरा मुनि मार्गज्ञ साधु के पास उपसम्पदा ग्रहण करता है। यात्रापथ में जो शिष्य आदि प्राप्त होते हैं, वे सब मार्गोपदेशक के होते हैं। माता-पिता से सम्बद्ध, मित्र, वयस्य, दृष्ट और भाषित - ये सब उपसम्पदा स्वीकार करें तो ये मार्गोपसम्पत्प्रतिपन्न मुनि के होते हैं। विनयोपसम्पद् आभवद् व्यवहार विणओवसंपयाए, पुच्छण साहण अपुच्छ राहणे यः। .. केचिद् विहरन्तो ऽदृष्टपूर्वदेशं गतास्तैर्वास्तव्यानां साम्भोगिकानां समीपे प्रच्छनं कर्त्तव्यम् । सचित्तादिकस्य ग्रहणे सति परस्परं निवेदनं कर्त्तव्यं, यथैतत्सचित्तं वा लब्धं यूयं गृह्णीतेति, अनिवेदने असमाचारी । (व्यभा ४००० वृ) ० नवागंतुक मुनि साम्भोजिक वास्तव्य मुनियों से मासकल्प प्रायोग्य और वर्षावासप्रायोग्य क्षेत्रों की संपृच्छा करते हैं। पूछे जाने पर वास्तव्य मुनि मौन रहते हैं या आगंतुक मुनिं इस विषय की पृच्छा नहीं करते हैं तो वे दोनों प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। सचित्त या अचित्त वस्तु प्राप्त होने पर परस्पर एक-दूसरे को निवेदन करते हैं - आप इसे ग्रहण करें । यह सामाचारी है । ० श्रुत आदि आभवद् व्यवहार का लाभ सुत- सुह- दुक्खे खेत्ते मग्गे विणओवसंपयाए य। बावीसपुव्वसंथुय, वयंसदिट्ठे य भट्ठे य ॥ इच्चेयं पंचविधं, जिणाण आणाऍ कुणति सट्ठाणे । पावति धुवमाराहं, तव्ववए विवच्चासं ॥ (व्यभा ४००६, ४००८) श्रुतोपसंपदा में बाईस का लाभ - छह अमिश्रवल्ली से - माता, पिता, भाई, भगिनी, पुत्र, पुत्री । सोलह मिश्रवल्ली से - माता की माता, पिता, भाई और भगिनी, पिता की माता, पिता, भाई और भगिनी, भाई का पुत्र और पुत्री, भगिनी का पुत्र और पुत्री, पुत्र का पुत्र और पुत्री, पुत्री का पुत्र और पुत्री - इनमें से कोई प्रव्रजित आदि होते हैं, तो वे श्रुतोपसम्पदा में उपसम्पद्यमान मुनि की निश्रा में होते हैं। सुख - दुःख उपसंपदा में पूर्वसंस्तुत मातापिता से संबंधित तथा वयस्य आदि का लाभ होता है। क्षेत्र उपसंपदा में वयस्य आदि, मार्ग उपसंपदा में दृष्ट-भाषित, मित्र आदि तथा विनय उपसंपदा में शिष्य, उपधि, शय्या आदि सभी वस्तुएं उपसम्पन्न की निश्रा में होती हैं। Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५४३ व्यवहार इस प्रकार श्रुत, सुख-दुःख, क्षेत्र, मार्ग और विनयोप- जड़या णेणं चत्तं, अप्पणतो नाण-दंसण-चरितं । सम्पद्-इस पंचविध आभवद् व्यवहार का जिनाज्ञा के अनुसार ताधे तस्स परेसुं, अणुकंपा नत्थि जीवेसु॥ यथास्थान प्रयोग करने वाला निश्चितरूप से आराधकपद प्राप्त . भवसतसहस्सलद्धं, जिणवयणं भावतो जहंतस्स। करता है, तविपरीत व्यवहारप्रयोक्ता आराधक नहीं होता। जस्स न जातं दुक्खं, न तस्स दुक्खं परे दुहिते। १९. गीतार्थ व्यवहर्त्तव्य, गीतार्थ के साथ व्यवहार तित्थगरे भगवंते, जगजीववियाणए तिलोगगुरू। अग्गीतेणं सद्धिं, ववहरियव्वं न चेव पुरिसेणं। जो उ करेति पमाणं, सो उ पमाणं सुतधराणं॥ जम्हा सो ववहारे, कयम्मि सम्मं न सद्दहति॥ (व्यभा १६७०-१६७३, १६७६) दुविहम्मि वि ववहारे, गीतत्थो पट्टविज्जती जंतु। व्यवहार्य परिषद् के दोनों पक्ष मध्यस्थ होते हैं, राग-द्वेष तं सम्मं पडिवजति, गीतत्थम्मी गुणा चेव॥ रहित होते हैं, तो निर्णय सुखपूर्वक होता है। सच्चित्तादुप्पण्णे, गीतत्थासति दुवेण्ह गीताणं। जो चरण-करण अनुपालन में शिथिल होता है, उसके एगतरे उ निउत्ते, सम्मं ववहारसद्दहणा॥ लिए सत्य व्यवहार दुःश्रद्धेय होता है । वह चरण-करण छोड़ता गीतो यऽणाइयंतो, छिंद तुमं चेव छंदितो संतो। हुआ सत्य-व्यवहारकारिता को भी छोड़ देता है। कहमंतरं ठावेति, तित्थगराणंतरं संघं॥ जो अपने ज्ञान-दर्शन-चारित्र को त्याग देता है, उसमें (व्यभा २७-३०) अन्य जीवों के प्रति अनुकम्पा का भाव नहीं रहता। जो लाखों अगीतार्थ पुरुष व्यवहर्त्तव्य नहीं होता, क्योंकि वह यथोचित जन्मों के पश्चात् प्राप्त जिनप्रवचन को छोड़ता हुआ दुःखी नहीं व्यवहार करने पर भी उसमें सम्यक श्रद्धा नहीं करता। होता, वह दूसरों के दुःख में भी दुःखी नहीं होता। __ प्रायश्चित्त व्यवहार और आभवत् व्यवहार-दोनों प्रकार के तीर्थंकर भगवान् जगत् की जीवयोनियों के ज्ञाता तथा तीन व्यवहार में गीतार्थ को ही प्रज्ञप्ति दी जाती है। क्योंकि वह सम्यक् लोक के नाथ होते हैं। जो उनको, उनके वचनों को प्रमाण मानता रूप में स्वीकार करता है। गीतार्थ में गुण ही होते हैं। है, वही श्रुतधरों के लिए प्रमाणभूत होता है। दो गीतार्थ साथ-साथ विहार कर रहे थे। उन्हें सचित्त पंचविधं उवसंपय, नाऊणं खेत्तकालपव्वजं । (शिष्य), वस्त्र आदि की प्राप्ति हुई। तब दोनों में विवाद हो तो संघमज्झयारे, ववहरियव्वं अणिस्साए॥ गया-एक कहता है-यह मेरा है और दूसरा कहता है-यह मेरा (व्यभा १६९२) है। अन्य गीतार्थ समीप में नहीं था, अतः दोनों गीतार्थों में से एक ___जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैयावृत्त्य-इस पंचविध कहता है-'तुम ही मेरे लिए प्रमाण हो, तुम्हीं इस विवाद को उपसंपदा को जानता है. क्षेत्र. काल और प्रव्रज्या को जानता है. निपटाओ-इस प्रकार निमंत्रित करने पर नियुक्त गीतार्थ सोचता। उसे राग और द्वेष से मुक्त होकर व्यवहार करना चाहिए। है-इसने मुझे प्रमाण मानकर तीर्थंकर की अविच्छिन्न संघपरंपरा २१. संव्यवहारी आराधक : आठ व्यवहारी शिष्य में स्थापित किया है। मैं संघ को तीर्थंकर से अंतरित (विच्छिन्न) ..."आगमबलिया समणा निग्गंथा इच्चेयं पंचविहं कैसे स्थापित कर सकता हूं? यह सोचकर उसने कहा-'मुनिवर्य! ववहारं जया-जया जहिं-जहिं तया-तया तहिं-तहिं यह वस्तु तुम्हारी ही है, मेरी नहीं।' अणिस्सिओवस्सियं ववहारं ववहरेमाणे समणे निग्गंथे २०. सम्यग् निर्णय में मध्यस्थता अनिवार्य आणाए आराहए भवइ ॥ (व्य १०/६) परिसा ववहारी या, मज्झत्था रागदोसनीहूया। श्रमण-निर्ग्रन्थ आगमबली होते हैं। आगम, श्रुत, आज्ञा, जइ होंति दो वि पक्खा , ववहरिउं तो सुहं होति॥ धारणा और जीत-इन पांचों व्यवहारों में जब-जब जहां-जहां जो ओसन्नचरणकरणे, सच्चव्ववहारया दुसहहिया। व्यवहार हो, तब-तब वहां-वहां उसका मध्यस्थ भाव से सम्यग चरणकरणं जहंतो, सच्चव्ववहारयं पि जहे॥ व्यवहार करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ आज्ञा का आराधक होता है। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार ५४४ आगम विषय कोश-२ तगराए नगरीए, एगायरियस्स पास निप्फण्णा। शय्या-वसति, उपाश्रय। संस्तारक। सोलस सीसा तेसिं, अव्ववहारी उ अट्ठ इमे॥ १.शय्या के नौ प्रकार मा कित्ते कंव डुकं, कुणिमं पक्कुत्तरं च चव्वाई। ० कालातिक़ाता और उपस्थाना शय्या बहिरं च गुंठसमणं, अंबिलसमणं च निद्धम्मं॥ ० अभिक्रांता""अल्पक्रिया शय्या तेण न बहुस्सुतो वी, होति पमाणं अणायकारी तु। ० पूर्व शय्या उत्तर शय्या से बाधित नाएण ववहरंतो, होति पमाणं जहा उ डमे।। | २. सर्वथा वर्जनीय शय्या : औद्देशिक आदि कित्तेहि पसमित्तं, वीरं सिवकोट्रगं व अज्जासं। ३. सपरिकर्म शय्या-निषेध अरहन्नग धम्मण्णग, खंदिल गोविंददत्तं च॥ ० मूल-उत्तरकरण शय्या : अविशोधिकोटि..... एते उ कजकारी, तगराए आसि तम्मि उ जुगम्मि। | ४. पुरुषांतरकृत परिकर्मित शय्या कल्पनीय | ५. बादर-सूक्ष्म प्राभृतिक शय्या का निषेध जेहि कया ववहारा, अक्खोभा अण्णरज्जेसु॥ | ६. उपाश्रय के प्रकार इहलोगम्मि य कित्ती, परलोगे सोग्गती धुवा तेसिं। __ * निर्दोष उपाश्रय की गवेषणा द्र क्षेत्रप्रतिलेखना| आणाएँ जिणिंदाणं, जे ववहारं ववहरंति॥ ७. वृषभ क्षेत्र (व्यभा १६९४, १६९५, १७०४-१७०७) ०क्षेत्र अपर्याप्त : कौन रहे? कौन न रहे? ८. साध्वी-क्षेत्र और कुलस्थविर : भोजिक दृष्टांत - तगरा नगरी में एक आचार्य के पास निष्पन्न सोलह शिष्यों ९. एक द्वार वाले क्षेत्र में रहना निषिद्ध में से आठ शिष्य अव्यवहारी थे, जिनके आठ दोष इस प्रकार हैं १०. प्रतिबद्ध शय्या-निषेध : पूपलिकाखाद दृष्टांत १. कांकटुक-कोरडूधान्य तुल्य दुश्छेद्य व्यवहार । ० आधाकर्मिक और स्त्रीप्रतिबद्ध शय्या : सापेक्ष दृष्टि २. कुणप-शव-मांस तुल्य मलिन व्यवहार। ० अप्रतिबद्ध शय्या की गवेषणा, प्रतिबद्ध-यतना ३. पक्व-पतित पक्व फल जैसा अस्थिर व्यवहार । * सागारिक शय्या का निषेध क्यों? द्र ब्रह्मचर्य ४. उत्तर-छलपूर्वक उत्तर देना। * शय्यातर कौन? द्र शय्यातर ५. चर्व-निष्फल प्रयत्न का पुनः पुनः चर्वण। ११. सदोष शय्या से हानि, निर्दोष शय्या दुर्लभ ६. बधिर-दोषश्रवण में बधिर तुल्य होना। १२. विविक्त शय्या की गवेषणा ७. गुंठ-माया से व्यवहार की समाप्ति। १३. गृहकार्य का निवेदन, मुनि द्वारा अस्वीकृति ८. अम्ल-तीखे वचन बोलना। १४. शय्या-प्रवेश-प्रमार्जनविधि ___* शय्या-ग्रहण-प्रतिलेखन द्र पर्युषणाकल्प सदोष व्यवहारछेदक प्रशंसनीय नहीं होता। अन्याय करने ___ * रात्रि में शय्याग्रहण द्र महाव्रत वाला बहुश्रुत भी प्रमाण नहीं होता। १५. चित्रों के आधार पर सदोष-निर्दोष शय्या न्यायपूर्ण व्यवहार करने वाला प्रमाण होता है, जैसे ये १६. विषम शय्या में समता आठ व्यवहारी-पुष्यमित्र, वीर, शिवकोष्ठक, आर्यास, अर्हन्नक, १७. गहान्तर-निषद्या-निषेध एवं अपवाद धर्मान्वग, स्कंदिल और गोविंददत्त-ये सब उस युग में तगरा । ० अंतरगृह में धर्मकथा निषिद्ध नगरी में प्रशंसनीय व्यवहारी थे, जिनके द्वारा कुत व्यवहार अन्य १८. शय्या-संस्तारक का निर्वचन और प्रकार राज्यों में भी अक्षोभ्य था। ० शय्या और संस्तारक में भेद-अभेद जो जिनेन्द्र की आज्ञा से व्यवहार की प्रस्थापना करते हैं, |१९. शय्या-संस्तारककल्पिक : ग्रहणविधि उनकी इहलोक में कीर्ति और परलोक में सुगति होती है। २०. शय्यासंस्तारक प्रतिमा * अवग्रह की सात प्रतिमा द्र अवग्रह व्यवहार-एक प्रायश्चित्त सूत्र । द्र छेदसूत्र * जिनकल्पी की शय्या द्र जिनकल्प Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ २१. यथारानिक क्रम से शय्याग्रहण २२. संस्तारक-फलक-ग्रहण क्यों ? २३. वृद्धावास आदि के योग्य शय्या संस्तारक २४. प्रातिहारिक संस्तारक- प्रत्यर्पणविधि १. शय्या के नौ प्रकार कालातिक्कंतोवट्ठाण अभिकंत अणभिकंता य। वज्जा य महावज्जा, सावज्ज महऽप्यकिरिया य ॥ (बृभा ५९३) शय्या के नौ प्रकार हैं- कालातिक्रांता, उपस्थाना, अभिक्रांता, अनभिक्रांता, वर्ज्या, महावर्ज्या, सावद्या, महासावद्या, अल्पक्रिया । • कालातिक्रांता और उपस्थाना शय्या से आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा जे भयंतारो उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवातिणावित्ता तत्थेव भुज्जो संवसंति, अयमाउसो ! कालाइक्कंत-किरिया वि भवइ ॥ .....उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवातिणावित्ता तं दुगुणा तिगुणेण अपरिहरित्ता तत्थेव भुज्जो संवसंति, अयमाउसो ! उवट्ठाणकिरिया वि भवइ ॥ ५४५ शीतोष्णकालयोर्मासकल्पम् वर्षासु वा चतुरो मासानतिवाह्य तत्रैव पुनः कारणमन्तरेणासते कालातिक्रमदोषः स्त्र्यादिप्रतिबन्धः स्नेहादुद्गमादिदोषसम्भवो वेत्यत★ स्तथा स्थानं न कल्पते । ये 'भगवन्तः ' साधव आगंतागारादिषु ऋतुबद्धं वर्षां वाऽतिवाह्यान्यत्र मासमेकं स्थित्वा 'द्विगुण - त्रिगुणादिना द्वित्रैर्मासैर्व्यवधानमकृत्वा पुनस्तत्रैव वसन्ति, अयमेवंभूतः प्रतिश्रय उपस्थानक्रियादोषदुष्टो भवति । (आचूला २/३४, ३५ वृ) उउ - वासा समतीता, कालातीया उ सा भवे सेज्जा । सच्चेव उवट्ठाणा, दुगुणा दुगुणं अवज्जेत्ता ॥ le.... .....ऋतुबद्धे काले द्वौ मासौ वर्षास्वष्टमासान् अपरिहृत्य यदि पुनरागच्छति तस्यां सा उपस्थाना भवति । उपसामीप्येन स्थानम् – अवस्थानं यस्यां । अन्ये पुनरिदमाचक्षते - यस्यां वसतौ वर्षावासंस्थितास्तस्यां द्वौ वर्षारात्रावन्यत्र कृत्वा यदि समागच्छन्ति ततः सा उपस्थाना न भवति अर्वाक् तिष्ठतां पुनरुपस्थाना। (बृभा ५९५ वृ) ...... शय्या • कालातिक्रांता शय्या - साधुओं ने जिन यात्रीगृहों, आरामगृहों, गृहपतिगृहों या मठों में ऋतुबद्धकल्प - शीतकालीन और ग्रीष्मकालीन मासकल्प या वर्षावासकल्प - चातुर्मास बिताया है, उन्हीं स्थानों में वे बिना कारण पुनः रहते हैं, आयुष्मन् ! वह शय्या कालातिक्रांतक्रिया है । उस शय्या में रहना कल्पनीय नहीं है, क्योंकि वहां रहने से स्त्री आदि के प्रति प्रतिबद्धता तथा रागभाव के कारण गृहस्थ द्वारा उद्गम आदि दोषों की संभावना रहती है। ० उपस्थाना शय्या-आचारचूला के अनुसार जिन स्थानों में ऋतुबद्ध कल्प (मासकल्प) या वर्षाकल्प बिताया है, उससे दुगुना-तिगुना काल- दो या तीन मास और दो या तीन चातुर्मास अन्यत्र बिताये बिना पुनः उन्हीं स्थानों में आकर रहते हैं, वे स्थान उपस्थानक्रियादोष से युक्त हैं, आयुष्मन् ! यह उपस्थानक्रिया है । बृहत्कल्पभाष्य और उसकी वृत्ति में 'दुगुणा दुगुणं' पाठ है, जिसके अनुसार ऋतुबद्धकाल में दो मास और वर्षाकाल में आठ मास (दो वर्षावास) अन्यत्र बिताये बिना पुनः उस शय्या में रहता है तो वह उपस्थाना शय्या है। जिसमें उप-समीपता से स्थान अवस्थान होता है (कालक्षेप नहीं होता), वह उपस्थाना है - यह उपस्थाना का निर्वचन है। बिताया है, उसमें दो वर्षावास अन्यत्र बिताकर यदि पुनः आते हैं कुछ आचार्य यह कहते हैं कि जिस वसति में वर्षावास तो वह वसति उपस्थाना नहीं होती, उससे पहले आकर रहने वालों के लिए वह उपस्थाना शय्या है। (दुगुणेण अपरिहरित्ता ण वट्टति, बितियं ततियं च परिहरिऊण चउत्थे होज्जा । - दचूला २/११ की अचू - जहां मासकल्प या चातुर्मासकल्प किया है, दूसरा और तीसरा मास या चातुर्मास छोड़कर चौथा मासकल्प या चातुर्मास वहां किया जा सकता है। 'दुगुणा दुगुणेन' तथा 'दुगुणा तिगुणेण' इनके आधार पर दो वाचनाओं की संभावना की जा सकती है। प्रथम वाचना के अनुसार दो मास या चातुर्मास का वर्जन तथा दूसरी वाचना के अनुसार दो या तीन मास अथवा चातुर्मास का वर्जन किए बिना वहां रहना उपस्थानक्रिया है । 'दुगुणा दुगुणेन' पाठ की अपेक्षा 'दुगुणा तिगुणेण' यह पाठ सूत्र - वाचना की दृष्टि से अधिक सार्थक लगता है। दो या तीन - इस Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शय्या ५४६ आगम विषय कोश-२ परम्परा का निर्देश करने के लिए 'द्विगण-त्रिगण' इन दोनों पदों का जावंतिया उ सेज्जा, अन्नेहिं निसेविया अभिक्कंता। प्रयोग सार्थक है। -आगम सम्पादन की समस्याएं, पृ. ९०) अन्नेहि अपरिभुत्ता, अनभिक्कंता उ पविसंते॥ ० अभिक्रांता....."अल्पक्रिया शय्या अत्तट्टकडं दाउं, जतीण अन्नं करेंति वज्जा उ। समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स जम्हा तं पुव्वकयं, वजंति ततो भवे वज्जा। तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिताई भवंति,..."जे भयंतारो पासंडकारणा खलु, आरंभो अभिणवो महावज्जा। तहप्पगाराइं"भवणगिहाणि वा तेहिं ओवयमाणेहिं ओवयंति, समणट्ठा सावज्जा, महसावज्जा उ साहूणं॥ अयमाउसो! अभिक्कंत-किरिया वि भवइ॥....."तेहिं जा खलु जहुत्तदोसेहिँ वज्जिया कारिया सअट्ठाए। अणोवयमाणेहिं ओवयंति, अयमाउसो! अणभिक्कंत- परिकम्मविप्पमुक्का, सा वसही अप्पकिरिया उ॥ किरिया"॥ (बृभा ५९६-५९९) .."सेज्जाणिमाणि अम्हं अप्पणो सअट्ठाए चेतिताइं . अभिक्रांता शय्या-श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और वनीपकों भवंति,.."सव्वाणि ताणि समणाण णिसिरामो, अवियाई के उद्देश्य से गृहस्थों द्वारा गृह बनवाये हुए हैं, उन भवनगृहों में, वयं पच्छा अप्पणो सअट्ठाए चेतिस्सामो,"""इतरेतरेहिं यावन्तिकी वसति में चरक, पाखंडी या गृहस्थ रह चुकने के पाहुडेहिं वटुंति, अयमाउसो! वज्ज-किरिया वि भवइ॥ पश्चात् साधु रहता है-आयुष्मन्! यह अभिक्रांतक्रिया है। यह "बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए वसति अल्पदोषा है। पंगणिय-पगणिय समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराई ० अनभिक्रांता शय्या-जो यावन्तिकी वसति गृहस्थ आदि द्वारा चेतिताइं भवंति..."महावज्ज-किरिया वि भवइ॥ अपरिभुक्त है, उसमें यदि साधु प्रवेश करते हैं, तो वह .बहवेवणीमए समुद्दिस्स""अगाराई चेतिआइं अनभिक्रांतक्रिया है, अकल्पनीय है। भवंति, ""सावज्ज-किरिया वि भवइ ।“एगं समणजायं ० वा शय्या-हमने जो ये शय्याएं अपने लिए , अपने प्रयोजन समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिताइं भवंति, से बनवाई हैं, वे सब श्रमणों को दे देंगे, तत्पश्चात् हम अपने लिए इयराइयरेहिं पाहुडेहिं दुपक्खं ते कम्मं सेवंति, अयमाउसो! । दूसरी शय्या बनवा लेंगे-इस प्रकार गृहस्थ अपने लिए निर्मित महासावज्ज-किरिया वि भवइ॥ शय्या साधुओं को देकर, अपने लिए पुन: दूसरी शय्या बनाता है। ..."अप्पणो सअट्ठाए तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराई मुनि भेंट रूप में प्रदत्त उन शय्याओं का उपयोग करता हैचेतिताइं भवंति 'जे भयंतारो तहप्पगाराइंभवणगिहाणि वा । आयुष्मन्! यह शय्या वर्ण्य क्रिया है, अतः ग्राह्य नहीं है। गृहस्थ उवागच्छंति, उवागच्छित्ता इयराइयरेहिं पाहुडेहिं एगपक्खं ते पूर्वकृत बस्ती का वर्जन करता है, इसलिए वह वा है। ० महावा शय्या-बहुत से श्रमण, ब्राह्मण आदि को गिन-गिन अभिक्रान्तक्रिया अल्पदोषा चेयम्। अनभिक्रान्त- कर उनके उद्देश्य से गृहनिर्माण का अभिनव आरंभ किया जाता क्रिया अकल्पनीया।"वर्ण्यक्रियाभिधाना"न कल्पते।" है-यह महावाक्रिया है। यह अकल्पनीय है और विशोधिकोटि महावाभिधानाअकल्प्या चेयं विश में है। (विशोधिकोटि द्र श्रीआको १ एषणासमिति) सावधक्रिया. अकल्पनीया चेयं विशुद्धकोटिश्च। . सावद्या शय्या-बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और आधाकर्मिकवसतिः"महासावधक्रिया""अल्पक्रिया" वनीपकों के उद्देश्य से निर्मित शय्या में साधु रहते हैं-यह शय्या अल्पशब्दोऽभाववाची। (आचला २/३६-४२ व) सावधक्रिया है। यह अग्राह्य और विशोधिको महावज्जा पासंडाण अट्टाए एसा चेव वत्तव्वया, महासावद्या-निग्रंथ श्रमण के उद्देश्य से निर्मित शय्या महासावद्यसावज्जा पंचण्हं समणाणं पगणित-पगणित "महासावज्जा क्रिया से युक्त होती है। गृहस्थ द्वारा उपहार रूप में प्रदत्त उन एगं समणस्स जातं समुद्दिस्स"। (आचूला २/३९-४१ की चू) शय्याओं में रहने वाला साधु द्विपक्षकर्म का-साधुवेश से साधुत्व Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ き 7 आगम विषय कोश - २ का और आधाकर्मिक शय्या प्रवास से गार्हस्थ्य का आचरण करता है । महासावद्या शय्या सर्वथा अग्राह्य है । आचारांग चूर्णि के अनुसार महावर्ज्या शय्या पाखंडियों— साधु-वेशधारियों के लिए निर्मित होती है - यह वक्तव्यता (गुरु परम्परा) है तथा निर्ग्रथ, शाक्य, तापस, गैरिक और आजीवकइन पांच प्रकार के श्रमणों के लिए निर्मित की जाने वाली शय्या सावद्या है। मात्र निर्ग्रथ श्रमण के लिए निर्मित शय्या महासावद्या है । बृहत्कल्पभाष्य में भी यही तथ्य प्रतिपादित है। • अल्पसावद्य (निरवद्य) क्रिया - जो घर गृहस्थों द्वारा अपने लिए सप्रयोजन निर्मित हैं, परिकर्म से सर्वथा मुक्त हैं, कालातिक्रांत आदि दोषों से रहित हैं, उन भवनगृहों में साधु आते हैं, आकर अन्यान्य प्राभृतों के उपयोग द्वारा एकपक्ष कर्म - साधुत्व का आसेवन करते हैं । यह शय्या अल्पसावद्यक्रिया होती है। यहां अल्प शब्द अभाववाची है। (आधाकर्म आदि सावद्य क्रियाओं-दोषों से सर्वथा रहित होने से अल्पक्रिया वसति निरवद्य है, निर्दोष है। उसमें साधु कायोत्सर्ग, स्वाध्याय आदि निरवद्य क्रियाएं करता है, अतः वह अल्पसावद्यक्रिया - निरवद्यक्रिया शय्या है ।) ० पूर्व शय्या उत्तरशय्या से बाधित हिट्ठिल्ला उवरिल्लाहि बाहिया न उ लभंति पाहनं । पुव्वाणुन्नाऽभिणवं च चउसु भय पच्छिमाऽभिणवा ॥ ५४७ नवापि वसतयः क्रमेण स्थाप्यन्ते, तत्राप्यल्पक्रिया निर्दोषेति प्रथमम् । तद्यथा - अल्पक्रिया कालातिक्रान्ता उपस्थाना... । अत्राधस्तनी अल्पक्रिया, अस्यां यद्यतिरिक्तं कालं तिष्ठति ततः सा कालातिक्रान्तया बाध्यते, सा कालातिक्रान्ता भवतीति भावः । कालातिक्रान्तामपि यदि द्विगुणां द्विगुणामपरिहृत्योपागच्छन्ति ततः सा उपस्थानया बाध्यते, ...... पूर्वस्याः पूर्वस्या अलाभे उत्तरस्या उत्तरस्या अनुज्ञा वेदितव्या ।.........अनभिक्रान्तायामपरिभुक्तेति कृत्वा चिरकृतायामप्यभिनव-दोषो भवति, वर्ण्यादिषु पुनर्याः परिभुक्तास्तासु नाभिनव-दोष:, महासावद्योपाश्रयः तस्मिन्नभिनवकृते वा चिरकृते वा परिभुक्ते वा अपरिभुक्ते वा अभिनवदोषा भवन्ति, एकपक्षनिर्धारणात् । (बृभा ६०० वृ) शय्या पूर्ववर्ती बस्तियां उत्तरवर्ती बस्तियों से बाधित होती हैं । बाधित होने के कारण उन्हें प्रधानता नहीं दी जा सकती। नौ बस्तियों की क्रमशः स्थापना की जाए तो अल्पक्रिया बस्ती को निर्दोष होने के कारण प्रथम स्थान पर स्थापित किया जाता है, जैसे- अल्पक्रिया, कालातिक्रांता, उपस्थाना, अभिक्रांता, अनभिक्रांता, वर्ज्या, महावर्ज्या, सावद्या और महासावद्या । मुनि अल्पक्रिया बस्ती में यदि अतिरिक्त काल तक रहता है, तो वह कालातिक्रांता बस्ती से बाधित होती है अर्थात् अल्पक्रिया बस्ती कालातिक्रांता हो जाती है। कालांतिक्रांता भी उपस्थाना बस्ती हो जाती है, यदि दुगुना - दुगुना समय (दो मास अथवा दो वर्षावास) अन्यत्र बिताये बिना ही उस बस्ती में आगमन होता है । नौ बस्तियों में पूर्व बस्ती (अल्पक्रिया) निरवद्य होने से अनुज्ञात है। पूर्व - पूर्व बस्ती की अप्राप्ति होने पर उत्तर - उत्तर बस्ती है। अनभिक्रांता, वर्ज्या, महावर्ज्या और सावद्याअनुज्ञात इन चार बस्तियों में अभिनव दोष (साधु के उद्देश्य से कृत गृहनिर्माण में होने वाले आरंभ दोष) की भजना है - कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता। जैसे- अनभिक्रांता बस्ती चिरकृत होने पर भी अपरिभुक्त होने के कारण अभिनव दोष युक्त है। वर्ज्या आदि बस्तियों में जो परिभुक्त हैं, उनमें अभिनव दोष नहीं । अंतिम महासावद्या बस्ती केवल साधुओं के उद्देश्य से निर्मित होने के कारण अभिनव दोषों से युक्त होती है, चाहे वह अभिनवकृत हो या चिरकृत, परिभुक्त हो या अपरिभुक्त । २. सर्वथा वर्जनीय शय्या : औद्देशिक आदि सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा - अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स ॥ बहवे साहम्मिया समुद्दिस्स बहवे समण- माहण - अतिहि- किवण-वणीमए पगणिय - पगणिय समुद्दिस्स पाणाई भूयाइं जीवाई सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसट्टं अभिहडं आहट्टु चेएइ । तहप्पगारे उवस्सए पुरिसंतरकडे वा अपुरिसंतरकडे वा, अत्तट्ठिए अणत्तट्ठिए वा, परिभुत्ते वा अपरिभुत्ते वा, आसेविए वा सेवि वाणो ठाणं वा, सेज्जं वा, णिसीहियं वा चेतेज्जा ॥ (आचूला २/३, ४, ७) .....' स्थानं' कायोत्सर्गः 'शय्या' संस्तारकः 'निषीधिका' स्वाध्यायभूमिः''''' । (आचूला २/१ की वृ) Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शय्या भिक्षु उपाश्रय को जाने - यदि वह उपाश्रय साधुओं को देने के उद्देश्य से मेरे एक साधर्मिक के उद्देश्य से, अनेक साधर्मिकों के उद्देश्य से, बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और वनीपकों (याचकों) को गिन-गिन कर उनके उद्देश्य से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ कर बनाया गया है अथवा उन्हीं के उद्देश्य से खरीदा गया, उधार लिया गया, छीना गया, भागीदार द्वारा अननुमत, अन्यत्र से समानीत ( संस्तारक आदि ) प्राप्त कर देता है, वैसा उपाश्रय पुरुषान्तरकृत हो या अपुरुषान्तरकृत, स्वीकृत हो या अस्वीकृत, परिभुक्त हो या अपरिभुक्त, आसेवित हो या अनासेवित, उसमें स्थान- कायोत्सर्ग, शय्या - संस्तारकआसन-शयन और निषद्या - स्वाध्याय न करे । भिक्खू उद्देसिसेज्जं अणुपविसति ॥ आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं ॥ (नि ५ / ६१, ७८) जो भिक्षु औद्देशिक शय्या में प्रवेश करता है, वह लघुमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। * औद्देशिक के भेद-प्रभेद द्र पिण्डैषणा ३. सपरिकर्म शय्या - निषेध जे भिक्खू सपरिकम्मं सेज्जं अणुपविसति ॥''' मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं ॥ (नि ५/६३, ७८ ) जो भिक्षु परिकर्मित शय्या में प्रवेश करता है, वह लघुमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त करता है । सपरिकम्मा सेज्जा, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य। एक्केक्का वि य एत्तो, सत्तविहा होइ णायव्वा ॥ ( निभा २०४५) सपरिकर्म शय्या दो प्रकार की है - मूलगुण- परिकर्मयुक्त और उत्तरगुण- परिकर्मयुक्त। इन दोनों के सात-सात प्रकार हैं। ० मूल- उत्तरकरण : अविशोधिकोटि-विशोधिकोटि पट्टीवंसो दो धारणाउ चत्तारि मूलवेलीतो । मूलगुणेहिं उवहया, जा सा आहाकडा वसही ॥ वंसग कडणोक्कंचण, छावण लेवण दुवार भूमी य । सप्परकम्मा दूमिय धूविय वासिय, उज्जोविय बलिकडा अवत्ताय । सित्ता सम्मट्ठा विय, विसोहिकोडी कया वसही ॥ वसही, एसा मूलोत्तरगुणेसु ॥ ५४८ आगम विषय कोश - २ उपरितनस्तिर्यक्पाती पृष्ठवंशः, द्वौ मूलधारणौ ययोरुपरि पृष्ठवंशस्तिर्यग् निपात्यते चतस्रश्च मूलवेलय उभयोर्धारणयोरुभयतो द्विद्विवेलिसम्भवात्। एते वसतेः सप्त मूलभेदाः । साधून् आधाय - सम्प्रधार्य कृता आधाकृता, सप्तविधमुत्तरकरणम् । एषा सपरिकर्मा वसतिर्मूलगुणैरुत्तरगुणैश्च । एषा नियमेनाविशोधिकोटिः । ... (बृभा ५८२-५८४ वृ) • पृष्ठवंश - उपरितन तिर्यक्पाती पृष्ठवंश । o ० दो मूल धारण, जिन पर पृष्ठवंश तिरछा डाला जाता है। ० चार मूल वेली - दोनों धारणों के दोनों ओर दो-दो स्तम्भ । - इन सात मूल गुणों से उपहत बस्ती आधाकर्मिक होती है। मन में साधुओं का सम्प्रधारण कर बनवाई गई बस्ती आधाकृ कहलाती है। उत्तरकरण परिकर्म सात प्रकार से किया जाता हैबांस, जिन्हें स्तंभों पर स्थापित किया जाता है । o ० कटन - चटाई आदि के द्वारा पार्श्वभागों का आच्छादन । ० उत्कंचन - ऊपर कम्बिकाओं का बंधन । ० छादन- घास आदि से आच्छादन । ० लेपन - दीवार पर कर्दम और गोबर से लेपन । ० द्वार - वसति के दूसरी ओर द्वार का निर्माण | भूमि - विषम भूमि का समीकरण । मूलगुणों और उत्तरगुणों से अशुद्ध यह परिकर्मयुक्त वसति निश्चितरूप से अविशोधिकोटि वाली है । ० अन्य भी उत्तरगुण हैं। उनसे परिकर्मित वसति विशोधिकोटि वाली होती है। वे उत्तरगुण मुख्यतः आठ हैं दूमिता - चूने से धवलीकृत भींत वाली बस्ती । 0 धूपिता - अगुरु आदि से धूपित । ० वासिता - पटवास, कुसुम आदि से सुवासित । ० उद्योतिता - अंधकार में दीपक आदि से आलोकित । ० बलिकृता - साधु के निमित्त बलिविधान किया गया हो । • अवात्ता - उपलिप्त भूमि वाली । सिक्ता - जल-आवर्षण से सिंचित । O O सम्मृष्टा - साधु के निमित्त सम्मार्जनी से साफ की हुई । ४. पुरुषांतरकृत परिकर्मित शय्या कल्पनीय 0 .......उवस्सयं''अस्संजए भिक्खुपडियाए कडिए वा, उक्कंबिए वा, छन्ने वा, लित्ते वा, घट्टे वा, मट्ठे वा, संमट्ठे वा, Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५४९ शय्या संपधूमिए वा। तहप्पगारे उवस्सए"॥पुरिसंतरकडे "णिसीहियं भिक्षु उपाश्रय को यदि ऐसा जाने कि वह बहुत से श्रमण, वा चेतेज्जा ।।"खुड्डियाओ दुवारियाओ महल्लियाओ कुज्जा, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और याचकों के उद्देश्य से प्राण, भूत, जीव महल्लियाओ दुवारियाओ खुड्डियाओ कुज्जा, समाओ सिज्जाओ और सत्त्वों का समारंभ कर, उन्हें पीड़ित कर बनाया गया है, विसमाओ कुज्जा, विसमाओ सिज्जाओ समाओ कुज्जा, उनके उद्देश्य सै क्रीत, प्रामित्य (उच्छिन्नक), आछिन्न, अनिसृष्ट पवायाओ सिज्जाओ णिवायाओ कुज्जा, णिवायाओ सिज्जाओ और अभिहत प्राप्त किया है, वैसा उपाश्रय अपुरुषांतरकृत हो, तो पवायाओ कुज्जा, अंतो वा बहिं वा उवस्सयस्स हरियाणि वहां स्थान, शय्या और निषद्या न करे। वह पुरुषांतरकृत छिंदिय-छिंदिय, दालिय-दालिय संथारगं संथारेज्जा, बहिया (अन्यार्थकृत), आत्मीकृत (स्वीकृत), परिभुक्त और आसेवित वा णिण्णक्खु तहप्पगारे उवस्सए ॥ पुरिसंतरकडे, है, तो संयमपूर्वक उसमें कायोत्सर्ग आदि करे। अत्तहिए"तओ संजयामेव ठाणं वा“चेतेज्जा॥ ....... सव्वाणुवाइ केई, केइ तक्कालुवट्ठाणा ॥ अत्र उत्तरगुणा अभिहिताः, एतद्दोषदुष्टापि पुरुषान्तर- हेमंतकडा गिम्हे, गिम्हकडा सिसिर-वासे कप्पंति। स्वीकृतादिका कल्पते, मूलगुणदुष्टा तु पुरुषान्तरस्वीकृता- अत्तट्ठित-परिभुत्ता, तद्दिवसं केइ ण तु केई॥ ऽपि न कल्पते। . (आचूला २/१०-१३ वृ) (निभा २०५८, २०५९) गृहस्थ ने भिक्षु के उद्देश्य से उपाश्रय की भित्तियों को काष्ठ शीतकाल के योग्य निर्मित घर ग्रीष्मकाल के अयोग्य होता आदि से संस्कृत किया हो, कम्बा से बांधा हो, आच्छादित और है, अतः मुनि उस घर में ग्रीष्मऋतु में रह सकता है तथा लिप्त किया हो, घृष्ट-मृष्ट-सम्मृष्ट और संप्रधूमति किया हो, ग्रीष्मऋत योग्य निर्मित घर में शीत या वर्षाऋतु में रह सकता है। वैसा उपाश्रय यदि पुरुषांतरकृत हो तो साधु उसमें रहे। जो घर उत्तरगुणों से दूषित है किन्तु गृहस्थ द्वारा परिभुक्त गृहस्थ साधु की प्रतिज्ञा से उपाश्रय के छोटे द्वार को बड़ा है, उसमें तत्काल भी रहा जा सकता है। और बड़े द्वार को छोटा करे, सम शय्या को विषम और विषम को एक मत यह है कि वह घर कभी कल्पनीय नहीं हो सम करे, प्रवात (हवादार) शय्या को निर्वात और निर्यात को सकता-यह कथन मूलगुणों से दूषित गृहनिर्माण के संदर्भ में है। प्रवात करे, उपाश्रय के भीतर या बाहर की हरितकाय को छिन्न ५. बादर-सूक्ष्म सप्राभृतिक शय्या का निषेध विच्छिन्न कर, दीर्ण-विदीर्ण कर संस्तारक बिछाए, हरित आदि जे भिक्खू सपाहुडियं सेज्जं अणुपविसति...॥ वस्तुओं को बाहर निकाले, वैसा उपाश्रय पुरुषांतरकृत, अधिकृत, ____ जम्मि वसहीए ठियाण कम्मपाहुडं भवति सा सपाहुपरिभुक्त और आसेवित हो, तो उसका प्रतिलेखन-प्रमार्जन कर उसमें संयमपूर्वक स्थान, शय्या और निषद्या करे। डिया छावणलेवणादिकरणमित्यर्थः। (नि ५/६२ चू) उल्लिखित दोष बस्ती के उत्तरकरण परिकर्म से संबंधित जो भिक्षु प्राभृतिकायुक्त शय्या में प्रवेश करता है, वह हैं, अतः इनसे दूषित बस्ती पुरुषांतरकृत होने पर ग्राह्य है। प्रायश्चित्त का भागी है। जिस वसति में रहने पर कर्मप्राभृत होता मूलकरण से दूषित बस्ती पुरुषांतरकृत होने पर भी ग्राह्य नहीं है। है, वह सप्राभृतिका शय्या है। प्राभृतिका का अर्थ है-शय्या का से भिक्खू""उवस्सयं जाणेज्जा-बहवे समण-माहण- छादन, लेपन आदि रूप परिकर्म करना। अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स पाणाई... समारब्भ पाहुडिया वि य दुविहा, बायर सुहुमा य होइ नायव्वा। समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसटुं अभिहडं आहट्ट एक्केक्का वि य एत्तो, पंचविहा होइ नायव्वा॥ चेएइ। तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे"णो ठाणं वा॥ विद्धंसण छायण लेवणे य, भूमीकम्मे पडुच्च पाहुडिया। .''पुरिसंतरकडे, अत्तट्ठिए, परिभुत्ते, आसेविए"तओ संजया- ओसक्कण अहिसक्कण, देसे सव्वे य नायव्वा ॥ मेव ठाणं वा"चेतेज्जा॥ (आचूला २/८, ९) संमज्जण आवरिसण, उवलेवण सुहुम दीवए चेव।.... Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शय्या ५५० आगम विषय कोश-२ .... 'पडुच्च'.... त्रिशालं गृहं कर्तुकामः साधून् प्रतीत्य ७. वृषभक्षेत्र चतुःशालं करोति, आत्मीय वा गृह साधूना दत्त्वा आत्माथमपर जहियं व तिन्नि गच्छा, पण्णरसुभया जणा परिवसंति। कारयतीत्यादि। अवष्वष्कणं नाम विवक्षितविध्वंसनादि एयं वसभक्खेत्तं, कालस्य ह्रासकरणम्, अर्वाक्करणमित्यर्थः ।अभिष्वष्कणंतस्यैव विवक्षितकालस्य संवर्द्धनम्, 'सुहुमे' त्ति सूक्ष्माणि ____ उत्कृष्टं वृषभक्षेत्रं यत्र द्वात्रिंशत्साधुसहस्राणि संस्तरन्ति। यथा ऋषभस्वामिकाले ऋषभशासनस्य (ऋषभसेनस्य) समयभाषया पुष्पाण्युच्यन्ते।"पुष्पाणां प्रकररचनेत्यर्थः। गणधरस्य।... आचार्य आत्मतृतीयो गणावच्छेदीत्वात्म___ (बृभा १६७४, १६७५, १६८१ वृ) चतुर्थः सर्वसंख्यया सप्त, एवं प्रमाणा यत्र च ये गच्छाः संस्तरन्ति प्राभृतिका के दो प्रकार हैं-बादर और सूक्ष्म । इन दोनों के एतत् जघन्यं वर्षाकालप्रायोग्यं वृषभक्षेत्रम्। (व्यभा ३९५२ वृ) पांच-पांच प्रकार हैं जहां ऋतुबद्धकाल में आचार्य और गणावच्छेदक के तीन बादर प्राभृतिका के पांच प्रकार हैं गच्छ (पन्द्रह मुनि) सुविधा से रह सकते हों तथा वर्षाकाल में १. विध्वंसन-वसति को तोड़कर नया रूप देना। आचार्य आदि तीन तथा गणावच्छेदक आदि चार-इस प्रकार कुल २. छादन-दर्भ आदि से आच्छादित करना। सात साधुओं के लिए जो पर्याप्त हो, वह जघन्य वृषभक्षेत्र है। ३. लेपन-भित्ति आदि को गोबर आदि से लीपना। जो बत्तीस हजार साधुओं के लिए पर्याप्त हो, वह उत्कृष्ट ४. भूमिकर्म-सम-विषम भूमि का परिकर्म करना। वषभक्षेत्र है। ऋषभ भगवान के गणधर ऋषभसेन के बत्तीस हजार ५. प्रतीत्यकरण-साधु के निमित्त त्रिशाल से चतुःशाल बनाना, अपना घर साधु को देकर अपने लिए दूसरा घर बनवाना। इन पांचों साधु थे। के भी दो-दो प्रकार हैं-१. अवष्वष्कण-विवक्षित काल से क्षेत्र अपर्याप्त : कौन रहे? कौन न रहे? पहले वसति का विध्वंस आदि करना। २. अभिष्वष्कण-निर्माण ते पण दोण्णी वग्गा, गणि-आयरियाण होज्ज दोण्हं त। या ध्वंस के विवक्षित काल को बढ़ा देना। इन दोनों के भी देशतः गणिणं व होज्ज दोण्हं, आयरियाणं व दोण्हं त॥ और सर्वतः भेद से दो-दो प्रकार हैं। अच्छंति संथरे । सव्वे, गणी णीति असंथरे। सूक्ष्म प्राभृतिका के पांच प्रकार हैं जत्थ तल्ला भवे दो वी, तत्थिमा होति मग्गणा॥ १. सम्मार्जन-प्रमार्जनी आदि से प्रमार्जन करना। निप्फण्ण तरुण सेहे,......। २. आवर्षण-पानी आदि के छींटे देना। एमेव संजतीणं, नवरं वुड्डीसु नाणत्तं ॥ ३. उपलेपन-गोबर या मत्तिका से भूमि का लेपन करना। (व्यभा ३९१६-३९१८) ४. सूक्ष्म-पुष्यों की प्रकररचना। अनेक गच्छों के अनेक मुनि एक ही क्षेत्र में आ गए हों और ५. दीपक-दीपक प्रज्वलित करना। क्षेत्र पर्याप्त न हो तो वहां कौन रहे, इसका क्रम इस प्रकार हैइन्हें साधु के निमित्त पहले या पीछे करना तथा आंशिक दो वर्ग हैं-एक वृषभ का, एक आचार्य का। यदि वह क्षेत्र या पूर्ण रूप में करना सूक्ष्म प्राभृतिका है। पर्याप्त हो तो दोनों वर्ग वहां रहें। यदि क्षेत्र अपर्याप्त हो तो वृषभ ६. उपाश्रय के प्रकार का वर्ग वहां से विहार करे, आचार्य का वर्ग रहे। पष्फावकिण्ण मंडलियावलिय उवस्सया भवे तिविधा. दोनों वर्ग तुल्य हों-दोनों गणी या दोनों आचार्य हों तो (व्यभा १८०६) जिसका शिष्यपरिवार निष्पन्न हो वह विहार करे, अनिष्पन्न उपाश्रय तीन प्रकार के होते हैं-१. पुष्पावकीर्णक, २. मण्ड- वाला वहां रहे। दोनों का परिवार निष्पन्न हो, तो तरुण शिष्य लिकाबद्ध और ३. आवलिकास्थित। परिवार वाला विहार करे, वृद्ध वाला वहां रहे। तरुण और Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ वृद्ध - दोनों में शैक्ष परिवार वाला रहे, चिरप्रव्रजित परिवार वाला विहार करे । साध्वियों की भी यही विधि है । अन्तर इतना है कि तरुणी और वृद्धा हों तो वृद्ध साध्वियां विहार करें, तरुणीवर्ग वहां रहे । ८. साध्वीक्षेत्र और कुलस्थविर : भोजिक दृष्टांत ......थेरा पत्ता, दट्टु निक्कारणट्ठियं तं तु। भोइयनायं काउं, आउट्टि विसोहि निच्छुभणा ॥ एवं ता दप्पेणं, पुट्ठो व भणिज्ज कारण ठिओ मि ....... (बृभा २२०५, २२०६) एक गांव में एक कुलस्थविर आए। उन्होंने साधुओं को ग्राम के प्रवेशद्वार पर ठहरे हुए देखकर पूछा- आर्य ! आप संयतीक्षेत्र में क्यों ठहरे हैं ? यदि निष्कारण ही ठहरे हों, तो स्थविर' भोगिक दृष्टांत' से उनको समझाए और वे विहरण करने के लिए तत्पर हो जाएं तो प्रायश्चित्त देकर उन्हें विहार कराए। स्थविर के पूछने पर यदि वे कहें कि सप्रयोजन यहां ठहरे हैं तो न प्रायश्चित्त प्राप्त होता है और न वहां से विहार करना होता है। आभीराणं गामो, गामद्दारे य देउलं रम्मं । आगमण भोइयस्स य, ठाइ पुणो भोइओ तहियं ॥ महिलाजणो यदुहितो, निक्खमण पवेसणं च सिं दुक्खं । सामत्थणा य तेसिं, गो-माहिससन्निरोधो य ॥ ....... गामस्स विवच्छाओ, बाहिं ठाविंसु गावीओ ॥ वच्छग-गोणीसद्देण असुवणं भोइए अहणि पुच्छा । सब्भावे परिकहिए, अन्नम्मि ठिओ निरुवरोहे ॥ (बृभा २१९९, २२००, २२०२, २२०३ ) आभीरों के एक गांव में प्रवेश के द्वार के पास रमणीय देवकुल था। एक बार भोजिक ( ग्रामस्वामी) का वहां आगमन हुआ, वह वहां ठहरा। लज्जा के कारण महिलाओं का प्रवेशनिर्गम दुष्कर हो गया। उन्हें दुःखी देखकर आभीरों ने पर्यालोचन किया और अपनी गायों-भैंसों को गांव के बाहर तथा बछड़ों को गांव के भीतर रखा और ग्रामद्वार को बंद कर दिया । रातभर वे विस्वर स्वर में एक-दूसरे को पुकारते रहे। भोगिक को नींद नहीं आई। सूर्योदय होने पर उसने जिज्ञासा की तो आभीरों ने सही स्थिति बता दी । भोगिक अन्यत्र निर्बाध स्थान में ठहर गया । 1 ५५१ शय्या ९. एक द्वार वाले क्षेत्र में रहना निषिद्ध से गामंसि वा जाव रायहाणिसिं वा एगवगडाए एगदुवारा एगनिक्खमणपवेसाए नो कप्पइ निग्गंथाण य निग्गंथीण य एगयओ वत्थए ॥ (क १/१०) वगडा उ परिक्खेवो, पुव्वत्तो सो उ दव्वमाईओ । दारं गामस्स मुहं, सो चेव य निग्गम-पवेसो ॥ एगवगडेगदारा, एगमगा अग एगा य। चरिमो अणेगवगडा, अणेगदारा य भंगो उ॥ एगवगडं पडुच्चा, दोण्ह वि वग्गाण गरहितो वासो । जइ वसइ जाणओ ऊ, तत्थ उ दोसा ... ॥ वगडा-द्वारयोश्चत्वारो भंगा: पर्वतादिपरिक्षिप्ते क्वचिद् ग्रामादौ । प्राकारादिपरिक्षिप्ते चतुर्द्वारनगरादौ । पद्मसरःप्रभृतिपरिक्षिप्ते बहुपाटके ग्रामादौ । पुष्पावकीर्णगृहे ग्रामादौ । (बृभा २१२७, २१२९, २१३२ वृ) निर्ग्रथ और निर्ग्रथी एक वगडा ( बाड़ का घेरा / परिधि ), एक द्वार और एक निष्क्रमण-प्रवेश वाले ग्राम यावत् राजधानी में एक साथ नहीं रह सकते। ग्राम के चारों ओर की परिधि वगडा कहलाती है। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से अनेक प्रकार की है। ग्राम का जो मुख है, वह द्वार कहलाता है। उससे निर्गमन और प्रवेश होता है। वगडा-द्वार के चार विकल्प हैं - १. एक वगडा एक द्वार । यथापर्वत से परिक्षिप्त एक द्वार वाला ग्राम। २. एक वगडा अनेक द्वार । यथा- प्राकार आदि से परिक्षिप्त वह नगर, जिसके चारों दिशाओं में चार द्वार हों । ३. अनेक वगडा एक द्वार । यथा- वह ग्राम, जहां द्वार एक हो, किन्तु पद्मसर आदि से घिरे हुए अनेक पाटक (मुहल्ले) हों। ४. अनेक वगडा अनेक द्वार । यथा - पुष्पावकीर्णगृह वाला ग्राम । जिस नगर का एक ही द्वार हो, वहां साधु-साध्वियों का एकत्र रहना निन्दनीय है । जानते हुए भी जो वहां निवास करता है, वह अनेक दोषों का सेवन करता है। १०. प्रतिबद्धशय्यानिषेध : पूपलिकाखाद दृष्टांत नो कप्पड़ निग्गंथाणं पडिबद्धसेज्जाए वत्थए |..... कप्पड़ निग्गंथीणं..." ॥ ( क १/३०, ३१) Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शय्या ....... दव्वम्मि पट्टिवंसो, भावम्मि चव्विहो भेदो ॥ पासवण ठाण रूवे, सद्दे चेव य हवंति चत्तारि ।...... बंभवयस्स अगुत्ती, लज्जानासो य पीइपरिवुड्ढी । साहु तवोवणवासो, निवारणं तित्थपरिहाणी ॥ (बृभा २५८४, २५८५, २५९७ ) निर्ग्रन्थ गृहस्थ के घर से प्रतिबद्ध शय्या में नहीं रह सकता, निर्ग्रथी रह सकती है। प्रतिबद्ध शय्या के दो प्रकार हैं१. द्रव्य प्रतिबद्ध - जिस उपाश्रय में पृष्ठवंश (बलहरण) गृहस्थ के घर से प्रतिबद्ध होता है। २. भावप्रतिबद्ध - यह उपाश्रय चार प्रकार का है ० प्रश्रवणप्रतिबद्ध –गृहस्थ और साधु की कायिकी भूमि एक हो । रूपप्रतिबद्ध-जहां स्त्रियों का रूप दिखाई पड़ता हो । ० o I स्थानप्रतिबद्ध - गृहस्थ और साधु के बैठने का स्थान एक हो ० शब्दप्रतिबद्ध - जहां रहस्य के शब्द सुनाई पड़ते हों । भाव प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने से ब्रह्मचर्य असुरक्षित हो जाता है, पारस्परिक लज्जा का भाव समाप्त हो जाता है, बार-बार देखने से प्रीति पुष्ट होती है । लोग उपहास करते हैं - अहो ! ये साधु लोग तपोवन में रह रहे हैं। अधिकृत व्यक्ति उनके पास दीक्षित होने का निषेध करते हैं, इससे तीर्थ का व्यवच्छेद होता है । अज्जियमादी भगिणी, जा यऽन्न सगारअब्भरहियाओ । विहवा वसंति सागारियस्स पासे अदूरम्मि ॥ बिइयपय कारणम्मी, भावे सद्दम्मि पूवलियखाओ । तत्तो ठाणे रूवे, काइय सविकारसद्दे य॥ नउई - सयाउगो वा, खट्टामल्लो अजंगमो थेरो । अन्नेण उट्ठविज्जइ, भोइज्जइ सो य अन्नेणं ॥ एयारिसम्म रूवे, सद्दे वा संजईण जइऽणुण्णा । समणाण किं निमित्तं, पडिसेहो एरिसे भणिओ ॥ मोहोदएण जइ ता, जीवविउत्ते वि इत्थिदेहम्मि । दिट्ठा दोसपवित्ती, किं पुण सजिए भवे देहे ॥ (बृभा २६१८, २६२२, २६२३, २६२७, २६२८ ) दादी, नानी, भगिनी, भाभी, शय्यातर द्वारा पूजित विधवा आदि स्त्रियां शय्यातर के घर के निकट रहती हों, तो साध्वी उनके द्वारा द्रव्यतः प्रतिबद्ध शय्या में रह सकती है। ५५२ आगम विषय कोश - २ साध्वियां अपवाद रूप से कारणवश भावप्रतिबद्ध उपाश्रय में रह सकती हैं। सबसे पहले उन्हें 'पूपलिकाखादक' के शब्द- प्रतिबद्ध में, वह न हो तो क्रमशः उसी के स्थान प्रतिबद्ध, रूपप्रतिबद्ध और सविकार शब्दयुक्त प्रश्रवण प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहना चाहिए। पूपलिकाखादक- जो वृद्ध नब्बे या सौ वर्ष का है, जो खट्वाल्ल है- जर्जरित देह के कारण खाट से स्वयं उठ नहीं सकता, चल नहीं सकता, दूसरे ही उसे खाट से उठाते हैं और भोजन कराते हैं । О शिष्य ने पूछा- यदि साध्वियों को ऐसे पूपलिकाखाद संबंधी शब्द या रूप से प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने की अनुज्ञा है, तो फिर निर्ग्रन्थों के लिए स्थविराप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने का निषेध क्यों ? आचार्य ने कहा— मोहोदय के कारण पुरुषों की जीववियुक्त स्त्रीदेह प्रतिसेवन की प्रवृत्ति देखी जाती है, तो फिर स्थविरा के सजीव देह के प्रति वह क्यों नहीं होगी ? अतः प्रतिषेध किया गया है। ० आधाकर्मिक और स्त्रीप्रतिबद्ध शय्या : सापेक्ष दृष्टि एगा मूलगुणेहिं तु अविसुद्धा इत्थि सारिया बितिया । तुल्लारोवणवसही, कारणे कहिं तत्थ वसितव्वं ॥ अधवा गुरुस्स दोसा, कम्मे इतरी य होति सव्वेसिं । जइणो तवोवणवासे, वसंति लोए य परिवातो ॥ अथवा पुरिसाइण्णा, णातायारे य भीयपरिसा य । बालासु य वुड्ढासु य, नातीसु य वज्जइ कम्मं ॥ तम्हा सव्वाणुण्णा, सव्वनिसेहो य णत्थि समयम्मि । आय-व्वयं तुलेज्जा, लाभाकंखि व्व वाणियओ ॥ ( निभा २०६३, २०६५-२०६७) एक शय्या आधाकर्म आदि मूलगुणों से अशुद्ध है तथा दूसरी शय्या स्त्रीप्रतिबद्ध है। दोनों ही शय्याओं में रहने से तुल्य (चतुर्गुरु) प्रायश्चित्त आता है, तब हमें किस शय्या में रहना चाहिए ? ऐसा प्रसंग होने पर आधाकर्मिक शय्या में रहना उचित है क्योंकि आधाकर्मिक शय्या में रहने पर केवल गुरु ही प्रायश्चित्त के भागी होते हैं, सब नहीं और स्त्रीप्रतिबद्ध शय्या में रहने वाले सब साधु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। लोक में परिवाद होता है। लोग कह सकते हैं- यतिजन तपोवन में वास करते हैं । Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ अथवा ऐसी स्त्रीप्रतिबद्ध शय्या में भी रहा जा सकता है, जो पुरुषबहुल हो । वे पुरुष शीलसम्पन्न हों, भीतपरिषद् हों - ऐसे प्रभावशाली पुरुष हों, जिनके कारण परिवार के सदस्य गलत कार्य करने से डरते हों। स्त्रियां शीलसम्पन्न हों। वहां बाल और वृद्ध हों तथा साधु के ज्ञातिवर्ग से सम्बद्ध व्यक्ति हों। ऐसी स्थिति में आधाकर्म शय्या वर्जनीय है । निर्ग्रन्थप्रवचन में किसी वस्तु की सर्वथा अनुज्ञा और सर्वथा निषेध नहीं है। साधक को लाभ के आकांक्षी वणिक् की भांति आय - व्यय की तुलना / समीक्षा कर जहां अधिकतम गुणसम्प्राप्ति हो, उसी का उपयोग करना चाहिए। ० अप्रतिबद्ध शय्या की गवेषणा, प्रतिबद्ध-यतना अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण गीयत्था जयणाए, वसंति तो ...... अद्धाण-वास - सावय- तेणेसु व पासवण मत्तएणं, ठाणे अन्नत्थ चिलिमिली रूवे । सज्झाए झाणे वा, आवरणे सहकरणे वा ॥ (बृभा २५८९, २६०३, २६११) असईए । दव्वपडिबद्धे ॥ भावपडिबद्धे ॥ मार्ग से गुजरते हुए मुनि पहले तीन बार द्रव्य और भाव से अप्रतिबद्ध उपाश्रय की गवेषणा करें। उसके न मिलने पर गीतार्थ यतना से द्रव्य प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहें । मार्गवर्ती साधुओं को अन्य वसति की प्राप्ति न हो, निरन्तर वर्षा गिर रही हो, ग्राम के बाहर चोर और श्वापदों का उपद्रव हो, तो भाव प्रतिबद्ध वसति में रहा जा सकता है। प्रश्रवण प्रतिबद्ध उपाश्रय में मात्रक के माध्यम से प्रश्रवण का परिष्ठापन करे । स्थान प्रतिबद्ध में अन्यत्र जाकर बैठे। रूप प्रतिबद्ध में यवनिका का उपयोग करे। शब्द प्रतिबद्ध उपाश्रय में स्वाध्याय और ध्यान में उपयुक्त रहे, ध्यानलब्धि सम्पन्न न हो तो कानों को अंगुलि आदि से बन्द कर ले । अथवा तीव्र स्वर से उच्चारण करे, जिससे गृहस्थ के शब्द सुनाई न दें। ११. सदोष शय्या से हानि, निर्दोष शय्या दुर्लभ ते सीदितुमारद्धा, संजमजोगेसु वसहिदोसेणं । गलइ जतुं तप्पंतं, एव चरित्तं मुणेयव्वं ॥ (बृभा २४६२) ५५३ शय्या साधु दोषपूर्ण वसति के कारण संयमयोगों में विषण्ण हो जाता है। उसका चारित्र राग-रूपी अग्नि से तप्त होने पर उसी प्रकार पिघल जाता है, जैसे अग्नि से तप्त लाक्षा । सिय णो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे णो य खलु सुद्धे इमेहिं पाहुडेहिं तं जहा- छायणओ, लेवणओ, संथारदुवार पिहणओ''''''''' प्रासुक:- -आधाकर्मादिरहितः प्रतिश्रयो दुर्लभः, उंछ इति छादनाद्युत्तरगुणदोषरहितः “मूलोत्तरगुणदोषरहितत्वेनैषणीयो भवति । ''''' (आचूला २/४४ वृ) प्रासुक - आधाकर्म आदि दोषों से रहित, उंछ-छादन आदि उत्तरकरण के दोषों से रहित तथा एषणीय-मूलकरण- उत्तरकरण के दोषों से रहित शय्या दुर्लभ है। प्राभृतों के कारण शय्या अशुद्ध हो जाती है । जैसे - साधु के उद्देश्य से वसति का छादन और लेपन करना, संस्तारक - भूमि को सम करना, द्वार के कपाट लगवाना आदि । १२. विविक्त शय्या की गवेषणा ''उवस्सयं सइत्थियं सखुडुं सपसुभत्तपाणं णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेज्जा ॥ (आचूला २/२०) मुनि स्त्री, बाल, पशु और भक्तपान से युक्त उपाश्रय में स्थान, शय्या और निषद्या न करे । देउलि अणुण्णवणा, अणुण्णविए तम्मि जं च पाउ ''सा प्रायेण ग्रामादीनां बहिर्भवति, साधुभिश्चोत्सर्गतो बहिः स्थातव्यम्, देवकुलिका च विविक्तावकाशा भवति, अतः प्रथमतस्तस्या अनुज्ञापना कर्त्तव्या । ( बृभा १४९६ वृ) मुनि सामान्यतः गांव के बाहर रहे । देवकुलिका प्रायः गांव के बाहर एकांत स्थान में होती है। अतः मुनि सर्वप्रथम उसकी आज्ञा ले। वह सुलभ न हो तो गांव के भीतर उपाश्रय की अन्वेषणा करे, अनुज्ञा ले और प्रायोग्य स्थान में रहे । १३. गृहकार्य का निवेदन : मुनि द्वारा अस्वीकृति जोतिस - णिमित्तमादी, छंदं गणियं व अम्ह साधेत्था । अक्खरमादी डिंभे, गाधेस्सह अजतणा सुणणे ॥ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शय्या ५५४ आगम विषय कोश-२ णवि जोइसंण गणियं,ण अक्सरेण वि य किंचि रक्खामो। मुनि वसति का ऋतुबद्धकाल में दो बार–पूर्वाह्न और अपराह्न अप्पस्सगा असुणगा, भातणखंभोवमा वसिमो॥ में तथा वर्षाकाल में तीन बार प्रमार्जन करे। तीसरी बार है मध्याह्न । (बृभा ३३३७, ३३६५) जीव-संसक्त वसति का बहुत बार प्रमार्जन करे। जीवों का अति गृहस्थ शय्यागवेषक मुनि से कहता है-आप हमें ज्योतिष, संघट्टन हो तो अन्यत्र चले जाना चाहिए। निमित्त, छन्दशास्त्र और गणित का ज्ञान दें तथा हमारे बच्चों को १५. सचित्र शय्या में रहने का निषेध लिपिविज्ञान, व्याकरण आदि पढायें तो यहां रह सकते हैं। अगीतार्थ ""उवस्सयं"आइण्णसंलेक्खं णो पण्णस्स णिक्खइन बातों को स्वीकार कर लेते हैं-यह अनुज्ञापना-अयतना है। मणपवेसाए णो पण्णस्स वायण-पुच्छण-परियट्टणाणुपेहसाधु गृहस्वामी से स्पष्ट कहें धम्माणुओग-चिंताए, तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा, हम न तो ज्योतिष, गणित या अक्षरविज्ञान सिखायेंगे और सेज्जं वा, णिसीहियं वा चेतेज्जा॥ (आचूला २/५६) न घर आदि की सुरक्षा करेंगे। भाजन, स्तंभ आदि की तरह हम ___ जो उपाश्रय स्त्री-पुरुषों से आकीर्ण हो, चित्रकर्मयुक्त हो, व्यापार से मुक्त होकर रहेंगे। घर में कोई हानिप्रद दृश्य देखते हुए वहां प्राज्ञ मुनि निष्क्रमण और प्रवेश न करे। प्राज्ञ के वाचना, भी अपश्यक की तरह रहेंगे। कोई कहेगा कि शय्यातर को अमुक प्रच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मानयोग और धर्मचिंता के लिए बात कह देना, उसे सुनते हुए भी हम अश्रोता की तरह रहेंगे। वह स्थान उपयुक्त नहीं है, वैसे उपाश्रय में स्थान, शय्या और १४. शय्या-प्रवेश-प्रमार्जन विधि निषद्या न करे। पडिलेहण संथारग, आयरिए तिन्नि सेस एक्केक्कं। विंटियउक्खेवणया, पविसइ ताहे य धम्मकही। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सचित्तकम्मे उच्चारे पासवणे, लाउअनिल्लेवणे अ अच्छणए। उवस्सए वत्थए॥ (क १/२०) करणं तु अणुनाए, अणणुन्नाए भवे लहुओ॥ साधु-साध्वियां चित्रकर्मयुक्त उपाश्रय में न रहें। (बृभा १५७४, १५७५) चित्रों के आधार पर सदोष-निर्दोष स्थान क्षेत्रप्रत्युपेक्षक मुनि सबसे पहले आचार्य के लिए तीन तरु गिरि नदी समुद्दो, भवणा वल्ली लयावियाणा य। ता गिरि नदी समहो. भवणा वल्ली लयाविर संस्तारकभूमियों (निवात, प्रवात, निवात-प्रवात) की तथा शेष निद्दोस चित्तकम्मं, पुन्नकलस-सोत्थियाई य॥ साधुओं के लिए रत्नाधिक के क्रम से एक-एक संस्तारकभूमि की तिरिय-मणुय-देवीणं, जत्थ उ देहा भवंति भित्तिकया। प्रत्युपेक्षा कर उन्हें अर्पित करते हैं। सब अपने-अपने स्थान पर सविकार निविकारा, सदोस चित्तं हवइ एयं॥ अपने उपकरणों की गठरी स्थापित करते हैं, उसके बाद धर्मकथी (बृभा २४२९, २४३०) मुनि कथा सम्पन्न कर उपाश्रय में प्रवेश करता है। क्षेत्रप्रत्युपेक्षक मुनि शय्यातर के द्वारा अनुज्ञात भूमि निवेदित करते हैं-उच्चार है जिस प्रतिश्रय में वृक्ष, पहाड़, नदी, समुद्र, भवन, वल्लियों और लताओं के निकुंज तथा पूर्ण कलश, स्वस्तिक आदि मंगल प्रस्रवण-परिष्ठापन, पात्र-प्रक्षालन, निर्लेपन, स्वाध्याय आदि के लिए अमुक-अमुक भूमि अनुज्ञात है। अनज्ञात भमि में कार्य करने वस्तुओं के रूप आलिखित हों, वह प्रतिश्रय निर्दोष है। से भगवान की आज्ञा की आराधना होती है। अननुज्ञात स्थान में जिस उपाश्रय की भित्ति पर देवियों, महिलाओं तथा तिर्यञ्च स्त्रियों के विकार पैदा करने वाले या निर्विकार रूप आलेखित हों, कार्य करने वाला मासलघु प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। वह उपाश्रय सदोष है। दोण्णि उ पमज्जणाओ, उदुम्मि वासासु ततियमज्झण्णे। वसहि बहुसो पमज्जति, अतिसंघटुं तहिं गच्छे ॥ १६. विषम शय्या में समता (निभा ३१३४) ......."समा वेगया सेज्जा भवेज्जा. विसमा वेगया सेज्जा Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ भवेज्जा, पवाताणिवाता वेगया सेज्जा भवेज्जा, ससरक्खा अप्पससरक्खा सदंस-भसगा अप्पदंसमसगा सपरिसाडा ''अपरिसाडा''सउवसग्गा'णिरुवसग्गा''तहप्पगाराहिं सेज्जाहिं संविज्जमाणाहिं पग्गहिततरागं विहारं विहरेज्जा, णो किंचिवि गिलाएज्जा ॥ (आचूला २/७६) कभी शय्या ( मकान ) सम मिलती है, कभी विषम, कभी हवादार और कभी निर्वात, कभी रजों से युक्त और कभी नीरज, कभी डांस-मच्छरों से युक्त और कभी डांस-मच्छरों से रहित, कभी जीर्ण-शीर्ण और कभी सुदृढ़, कभी उपसर्गसहित और कभी निरुपसर्ग-मुनि उस प्रकार की संविद्यमान शय्याओं को ग्रहण कर उनमें समभावपूर्वक रहे, किंचित् भी खेदखिन्न न हो । ......सज्झायस्सऽणुवरोहि समविसमादी सु य, समणेणं जइयव्वं । निज्जरट्ठा ॥ (आनि ३२७) ५५५ स्वाध्याय में उपरोध- बाधा उत्पन्न न करने वाली शय्या सम हो या विषम, निर्जरार्थी श्रमण को उसमें रहना चाहिये । १७. गृहान्तर - निषद्या: निषेध एवं अपवाद नो कप्पड़ अंतरगिहंसि चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा निद्दाइत्तए वा पयलाइत्तए वा, आहारमाहारेत्तए, उच्चारं वा पासवणं वा परिद्ववेत्तए, सज्झायं वा करेत्तए, झाणं वा झात्तए, काउस्सग्गं वा ठाणं ठाइत्तए । 'वाहिए जराणे तवस्सी दुब्बले किलंते एवं से कप्पइ अंतरहिंसि चिट्ठित्तए | (क ३/२१, २२) पीसंति ओसहाई, ओसहदाता व तत्थ असहीणो ।...... वासासु व वासंते, अणुण्णवित्ताण तत्थऽणाबाहे । अंतरगिहे गिहे वा, जयणाए दो वि चिट्ठति ॥ पडिणीय णिवे एंते, तस्स व अंतेउरे गते फिडिए । वुग्गह णिव्वहणाती, वाघातो एवमादीसु॥ (बृभा ४५६०, ४५६२, ४५६३) निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी (भिक्षाटन करते समय ) गृहस्थ के घर में ठहरना, बैठना, सोना, निद्रा लेना, ऊंघ लेना, आहार करना, मल-मूत्र आदि परिष्ठापित करना, स्वाध्याय और ध्यान करना, कायोत्सर्ग में स्थित होना आदि क्रियाएं नहीं कर सकते। रुग्ण, जराजीर्ण, तपस्वी, दुर्बल और क्लांत मुनि गृहांतर में ठहर सकते हैं। शय्या किसी रोगी के लिए औषधि पीसना हो, किसी घर से औषधि लाना हो और औषधिदाता उस समय व्यस्त हो, उसकी प्रतीक्षा करनी हो, वर्षा बरस रही हो - इन कारणों से मुनिद्वय गृहस्थ से आज्ञा लेकर उसके घर या अंतरगृह के निर्बाध स्थान में यतनापूर्वक (विकथा आदि नहीं करते हुए ) ठहर सकते हैं। गृहस्थ के घर गया हुआ मुनि प्रत्यनीक राजा और राजा के अन्तःपुर को आता हुआ देखकर - जब तक ये चले नहीं जाते, तब तक अन्तरगृह में ठहर सकता है। दो व्यक्ति विग्रह करते हुए आ रहे हों, वर-वधू की शोभयात्रा आ रही हो अथवा गायकमंडलियां गीत गाती हुई आ रही हों तो मुनि अन्तरगृह में ठहर सकता है। अंतरगृह में धर्मकथा निषिद्ध नो कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरगिहंसि जाव चउगाहं वा पंचगाहं वा आइक्खित्तएनण्णत्थ एगणाएण वा एगवागरणेण वा एगगाहाए वा एगसिलोएण वा । सेवि य ठिच्चा, नो चेव णं अट्ठिच्चा ॥ (क ३/२३) निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी भिक्षाटन करते समय गृहस्थ के घर में चार या पांच गाथाओं का आख्यान नहीं कर सकते। आवश्यक होने पर केवल एक दृष्टांत, एक प्रश्नव्याकरण, एक गाथा या क श्लोक द्वारा खड़े-खड़े धर्मकथा कर सकते हैं, बैठकर नहीं । १८. शय्या - संस्तारक का निर्वचन और प्रकार शेरतेऽस्यामिति शय्या - वसतिः, सैव संस्तारकः शय्यासंस्तारकः । (बृभा २९२४ की वृ सेज्जासंथारो या, सेज्जा वसही उ थाण संथारो ||....... शय्या - वसतिस्तस्यां यत् स्थानं - शयनयोग्यावकाशलक्षणं स शय्यासंस्तारक उच्यते। (बृभा ४३६८ वृ) सिज्जा संथारो या, परिसाडी अपरिसाडि मो होइ ।" (बृभा ४५९९) "नीहारिमो अणीहारिमो य.....॥ (बृभा ४६१० ) Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शय्या ५५६ आगम विषय कोश-२ जिसमें शयन किया जाता है, वह शय्या-वसति है और दविहकरणोवघाया, संसत्ता पच्चवाय सिजविही। वही संस्तारक है। शय्या में जो शयनयोग्य स्थान-अवकाश है, जो जाणति परिहरिउं, सो गहणे कप्पितो होति। वह शय्यासंस्तारक कहलाता है। पढवि दग अगणि हरियग, तसपाण सागारियादि संसत्ता। शय्या अथवा संस्तारक के दो प्रकार हैं-१. परिशाटी-तृण बंभवयआदि-दंसणविराहिगा पच्चवाया उ॥ आदि का संस्तारक।२. अपरिशाटी-फलक आदि का संस्तारक। (बृभा ५४२, ५६६, ५८०, ५८८) ___ अथवा संस्तारक के दो प्रकार हैं शय्याकल्पिक के दो प्रकार हैं१. निर्हारिम-जिसे अन्यत्र ले जाकर सौंपा जाए। १. रक्षणकल्पिक-बाल आदि वसति की रक्षा नहीं कर सकते, २. अनिर्हारिम-जिसे अन्यत्र न ले जाया जाए। अत: जो बाल और ग्लान नहीं है, प्रमत्त (निद्रालु और कथाव्यसनी) ० शय्या और संस्तारक में भेद-अभेद नहीं है, गीतार्थ, धृतिमान्, वीर्यसम्पन्न और समर्थ है, उसे सव्वंगिया उ सेज्जा, बेहत्थद्धं च होति संथारो। वसतिपाल के रूप में नियुक्त किया जा सकता है। अहसंथडा २. ग्रहणकल्पिक-जिसमें वसतिग्रहण की योग्यता है। वसति (निभा १२१७) तीन दोषों से दूषित हो सकती है-१. द्विविध करणोपहता मूलकरण और उत्तरकरण (गृहनिर्माण संबंधी आरंभ) से उपहत। शय्या सर्वांगिकी-शरीरप्रमाण होती है, संस्तारक ढाई हाथ २. संसक्ता-पृथ्वी, पानी, अग्नि, वनस्पति, त्रस प्राणी और गृहस्थों का होता है। अथवा जो यथासंस्तृत (पृथ्वीशिला, काष्ठशिला) से संयुक्त। ३. प्रत्यपाया--ब्रह्मचर्य आदि व्रतों की तथा सम्यक्त्व अचल है, वह शय्या और जो चल है, वह संस्तारक है। की विराधना में हेतुभूत। शय्या सर्वाङ्गिकी संस्तारकोर्धतृतीयहस्तदीर्घहस्त गहणं च जाणएणं, सेज्जाकप्पो उ जेण समधीतो। चत्वार्यङ्गुलानि विस्तीर्णः। (व्य ८/३ की वृ) उस्सग्गववातेहिं, सो गहणे कप्पिओ होति।। शय्या शरीरप्रमाण तथा संस्तारक ढाई हाथ लम्बा और एक अणुण्णवणाय जतणा, गहिते जतणा य होति कायव्वा। हाथ चार अंगुल चौड़ा होता है। अणुण्णवणाएँ लद्धे, बेंती पडिहारियं एयं॥ १९. शय्या-संस्तारककल्पिक : ग्रहणविधि कास पुणऽप्पेयव्वो, बेति ममं जाधे तं भवे सुण्णो। उग्गम-उप्पायण-एसणाहिँ सुद्धं गवेसए वसहिं ।' अमुगस्स सो वि सुन्नो, ताधे घरम्मि ठवेज्जाहि॥ पढिय सुय गुणियमगुणिय, धारमधार उवउत्तों परिहरति।" (व्यभा ३४१४, ३४१५, ३४१७) (बृभा ६०१, ६०२) जिसने शय्याकल्प को सम्यक रूप से पढ़ लिया है, जो जो उदगम. उत्पाद और एषणा के दोषों का परिहार कर उत्सर्ग-अपवाद मार्ग को जानता है, वह ग्रहणकल्पिक है। शुद्ध शय्या की गवेषणा करता है, जिसने आचारचूला के शय्या' अनुज्ञापना और ग्रहणकाल-दोनों में यतना करनी चाहिए। नामक अध्ययन को पढ़ा हो, सुना हो, वह अध्ययन गुणित (अत्यंत अनुज्ञा प्राप्त होने पर मुनि गृहस्थ से कहे-हम इस संस्तारक अभ्यास से आत्मसात्) हो या अगुणित, धारित हो या अधारित, को प्रातिहारिक के रूप में ग्रहण करेंगे (प्रयोजन सम्पन्न होने पर फिर भी जो मुनि उसमें उपयुक्त होकर सूत्रोक्त विधि से शय्या का लौटा देंगे)-यह अनुज्ञापना यतना है। मुनि पुनः गृहस्थ से परिभोग करता है, वह शय्याकल्पिक है। पूछे-कार्य सम्पन्न होने पर इसे किसे लौटाना है? वह कहता रक्खण गहणे तु तहा, सेज्जाकप्यो उ होइ दुविहो उ... है-मुझे ही सौंप देना, मेरी अनुपस्थिति में अमुक व्यक्ति को तम्हा खलु अब्बाले, अगिलाणे वत्तमप्पमत्ते य। लौटा देना, वह भी न मिले तो घर के अमुक स्थान में रख कप्पड़ य वसहिपालो, धिइमं तह वीरियसमत्थो॥ देना-यह ग्रहण यतना है। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५५७ शय्या २०. शय्या-संस्तारक प्रतिमा उत्कुटुको वा निषण्णो वा पद्मासनादिना सर्वरात्रमास्ते.... । ...''इमाहिं चउहिं पडिमाहिं संथारगं एसित्तए॥ (आचूला २/६२-६६ की वृ) "पढमा पडिमा-से भिक्खू"उद्दिसिय-उद्दिसिय संथारगं भिक्ष चार प्रतिमाओं-अभिग्रहविशेषों से संस्तारक का जाएज्जा,"तणं वा, कुसं वा," ॥अहावरा दोच्चा पडिमा- अन्वेषण करे। वे प्रतिमाएं ये हैं""पेहाए संथारगंजाएज्जा ॥ तच्चा पडिमा-"जस्सुवस्सए १. उद्दिष्ट-प्रथम प्रतिमा का पालन करने वाला मुनि निश्चय संवसेज्जा, ते तत्थ अहासमण्णागए, तं जहा-इक्कडे वा करता है कि मैं उद्दिष्ट (नामोल्लेखपूर्वक संकल्पित) फलहक कढिणे वा तस्स लाभे संवसेज्जा, तस्स अलाभे उक्कुडुए आदि संस्तारक मिलेगा तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं। वा, णेसज्जिए वा विहरेज्जा...... चउत्था पडिमा"अहा- २. प्रेक्ष्य-इसमें मुनि निश्चय करता है कि मैं उद्दिष्ट संस्तारक में संथडमेव संथारगंजाएज्जा, तं जहा-पुढविसिलं वा, कट्ठसिलं दृष्ट को ही ग्रहण करूंगा, अदृष्ट को नहीं। वा "तस्स लाभे संवसेज्जा, तस्स अलाभे उक्कुडुए वा, ३. गृहस्थित-मैं उद्दिष्ट संस्तारक यदि शय्यातर के घर में होगा णेसज्जिए वा विहरेज्जा...॥ (आचूला २/६२-६६) तो ग्रहण करूंगा, दूसरे स्थान से लाकर उस पर नहीं सोऊंगा। भिक्षु चार प्रतिमाओं से संस्तारक की एषणा करे ४. यथासंस्तृत-मैं उद्दिष्ट संस्तारक-शयनयोग्य शिलापट्ट आदि सहज ही बिछा हुआ मिलेगा तो सोऊंगा, अन्यथा नहीं।। १. पहली प्रतिमा-भिक्षु नामोल्लेखपूर्वक संस्तारक की याचना गच्छनिर्गत (जिनकल्पी आदि) मुनि प्रथम दो प्रतिमाओं करे, जैसे-तृण, कुश आदि का संस्तारक। से संस्तारक ग्रहण नहीं करते, अंतिम दो में से एक का अभिग्रह २. दूसरी प्रतिमा-संस्तारक को देखकर उसकी याचना करे। करते हैं। गच्छवासी चारों प्रतिमाओं से ग्रहण कर सकते हैं। ३. तीसरी प्रतिमा-भिक्षु जिस उपाश्रय में रहे, इक्कड, कढिण मुनि गच्छवासी हो या गच्छनिर्गत, यदि शय्यादाता संस्तारक तृण आदि यथासमन्वागत-वहीं विद्यमान हों, तो स्वामी से आज्ञापूर्वक उन्हें प्राप्त कर उनका उपयोग करे, यदि वहां प्राप्त न देता है तो उसे ग्रहण करता है, अन्यथा पूरी रात उत्कुटुकासन हों तो उत्कुटुक या नैषधिक आसन में रात्रि बिताए। अथवा पद्मासन आदि निषद्याओं में स्थित रहता है। ४. चतुर्थ प्रतिमा-यथासंस्तृत संस्तारक की याचना करे, जैसे- २१. यथारानिक क्रम से शय्याग्रहण पृथ्वीशिला, काष्ठशिला। यथासंस्तृत संस्तारक मिले तो ग्रहण कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहाराइणियाए करे, न मिले तो उत्कुटुक या नैषद्यिक आसन में रात बिताए। सेज्जा-संथारए पडिग्गाहित्तए॥ (क ३/१९) ..."चतसृभिः 'प्रतिमाभि' अभिग्रह-विशेषभूताभिः साधु-साध्वियां यथारानिक-बड़े-छोटे के क्रम से संस्तारकमन्वेष्टुं, ताश्चेमा:-उद्दिष्ट-प्रेक्ष्य-तस्यैव-यथा शय्यासंस्तारक-स्थान-बिछौना ग्रहण करें। संस्तृतरूपाः, तत्रोद्दिष्टा फलहकादीनामन्यतमद् ग्रहीष्यामि नेतरदिति प्रथमा, यदेव प्रागुद्दिष्टं तदेव द्रक्ष्यामि ततो २२. संस्तारक-फलक-ग्रहण क्यों? ग्रहीष्यामि नान्यदिति द्वितीया, तदपि यदि तस्यैव शय्यातरस्य ....तणेसु, देस गिलाणे य उत्तमढे य। गृहे भवति ततो ग्रहीष्यामि नान्यत आनीय तत्र शयिष्य इति चिक्खल्ल-पाण-हरिते, फलगाणि वि कारणज्जाते॥ तृतीया, तदपि "यदि यथासंस्तृतमेवास्ते ततो ग्रहीष्यामि असिवादिकारणगता, उवधी कत्थण अजीरगभया वा। नान्यथेति चतुर्थी प्रतिमा। आसु च प्रतिमास्वाद्ययोः प्रतिम- अझुसिरमसंधिऽबीए, एक्कमुहे...॥ योर्गच्छनिर्गतानामग्रहः उत्तरयोरन्यतरस्यामभिग्रहः, गच्छान्त- गेलण्ण उत्तिमढे, उस्सग्गेणं तु वत्थसंथारो।.... जैतानां तु चतस्रोऽपि कल्पन्ते गच्छान्तर्गतो निर्गतो वा यदि ___ वासासु अपरिसाडी, संथारो सो अवस्स घेत्तव्यो।' वसतिदातैव संस्तारकं प्रयच्छति ततो गृह्णाति, तदभावे (व्यभा ३३९५, ३३९६, ३३९९, ३४११) Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शय्या ५५८ आगम विषय कोश-२ तृणसंस्तारक तथा फलक-ग्रहण के कारण करणं नाम यत साधना करणं कतम-तणानां प्रस्तरणं, ० अशिव आदि कारणों से मुनि जब ऐसे प्रदेश में चला जाता है, कम्बिकानां बन्धनं फलकस्य स्थापनम्। (क ३/२५, २६ वृ) जहां वर्षारात्र में जल की प्रचुरता रहती है। जलप्लावित व शीतल ......विकरण पासद्धं वा, फलग तणेसं त साहरणं॥ भूमि के कारण उपधि कुथित हो सकती है, अजीर्ण का भय रहता (बृभा ४६१२ वृ) है, वहां अवश्य तृण ग्रहण करने चाहिये। ० कीचड़, कुंथु आदि प्राणियों से संसक्त भूमि, हरितकाय आदि निर्ग्रन्थ प्रातिहारिक शय्यासंस्तारक को ग्रहण कर कार्य कारणों से संस्तारक-फलक ग्राह्य हैं। सम्पन्न होने पर उसे उसके स्वामी को सौंपे बिना संप्रव्रजन० ग्लान और अनशनप्रतिपन्न के लिए सामान्यतः वस्त्रमय ग्रामांतर विहार नहीं कर सकते। जो प्रत्यर्पणीय-लौटाने योग्य संस्तारक हो, जिससे कोमलता के कारण उसे समाधि मिल वस्तु है, वह प्रातिहारिक कहलाती है। सके। वस्त्रसंस्तारक के अभाव में अझषिर, संधि व बीजों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी शय्यातर के शय्यासंस्तारक को ग्रहण रहित तथा एकमुखी कुश, वच्चक आदि तृणों का उपयोग करना कर प्रयोजन पूर्ण होने पर उसका विकरण किए बिना विहार नहीं चाहिए। कर सकते। साधु के द्वारा जो कृत है, वह अविकरण है। जैसे० वर्षा में फलकरूप संस्तारक अवश्य ग्रहण करना चाहिए। तृणों का प्रस्तरण करना, कम्बिकाओं को बांधना आदि। जो शय्यासंस्तारक शय्यातर के घर में जहां से जिस प्रकार २३. वृद्धावास आदि के योग्य शय्या-संस्तारक से लिया था, उसे वहीं उसी प्रकार से रखना, जैसे-फलक को से अहालहुसगं सेज्जासंथारगं गवेसेज्जा, जं चक्किया एक पार्श्व में रखना या ऊंचा करके रखना, तृणों को इकट्ठा करना, एगेणं हत्थेणं ओगिज्झ जाव एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा कम्बिकाओं के बंधन को खोलना-यह विकरण है। (वस्तु को अद्धाणं परिवहित्तए, एस मे हेमंतगिम्हासु भविस्सइ॥"एस यथावस्थित रूप में सौंपने से गृहस्थ के मन में साधु के प्रति प्रीति मे वासावासासु भविस्सइ।"चउयाहं वा पंचाहं वा अद्धाणं और प्रतीति उत्पन्न होती है, भविष्य में उस वस्तु की प्राप्ति सहज परिवहित्तए, एस मे वुड्डावासासु भविस्सइ॥ (व्य ८/२-४) होती है और अचौर्य महाव्रत का पालन होता है।) काले जा पंचाहं, परेण वा खेत्त जाव बत्तीसा। से भिक्खू"अभिकंखेज्जा संथारगं पच्चप्पिणित्तिए। अप्पडिहारी ॥ (व्यभा ३४७५) सेज्जं पुण संथारगं.."सअंडं सपाणं सबीअं सहरियं... मनि इतने हल्के शय्यासंस्तारक की गवेषणा करे कि जिसे मक्क्डासंताणगं तहप्पगारं संथारगं णो पच्चप्पिणेज्जा" एक हाथ से उठाकर एक. दो या तीन दिन तक मार्ग में वहन किया अप्पंडं......"तहप्पगारं संथारगं पडिलेहिय-पडिलेहिय. जा सके तथा जो हेमन्त-ग्रीष्म और वर्षाकाल के प्रायोग्य हो। वर्षाकाल के प्रायोग्य हो। पमज्जियपमज्जिय, आयाविय-आयाविय, विणिद्धणिय__ वृद्धावास के लिए ऐसे अप्रातिहार्य शय्यासंस्तारक की गवेषणा विणिद्धणिय तओ संजयामेव पच्चप्पिणेज्जा। करनी चाहिए, जिसे बत्तीस योजन की दूरी से तथा चार, पांच या (आचूला २/६८, ६९) उससे अधिक दिनों में भी लाया जा सके। भिक्षु संस्तारक को उसके स्वामी को प्रत्यर्पित करना चाहे २४. प्रातिहारिक संस्तारक-प्रत्यर्पण विधि और वह संस्तारक यदि अंडे, जीवजन्त, बीज, हरित और मकड़ी नो कप्पड""पाडिहारियं सेज्जा-संथारयं आयाए के जालों से युक्त हो तो उस प्रकार के संस्तारक को न लौटाये। अप्पडिहट्ट संपव्वइत्तए॥नो कप्पइ“सागारियसंतियं सेज्जा- यदि वह संस्तारक अंडे आदि से रहित हो तो उसका धीमे-धीमे संथारयं आयाए अविकरणं कट्ट संपव्वइत्तए॥ बार-बार प्रतिलेखन कर, प्रमार्जन कर, धूप में आतापित कर, प्रतिहार:-प्रत्यर्पणं तमहतीति प्रातिहारिकम्।"अवि- अच्छी तरह से झाड़कर यतनापूर्वक उसके स्वामी को सौंपे। Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५५९ शय्यातर शय्यातर-शय्यादाता, वसति या उपाश्रय देने वाला। गोवाइऊण वसहि, तत्थ वि ते यावि रक्खिउं तरइ। | १.शय्यातर कौन? तद्दाणेण भवोघं, च तरति सेज्जातरो तम्हा।। २.शय्यातर के पर्यायवाची नाम जम्हा धारइ सिजं, पडमाणिं छज्ज-लेपमाईहिं। ३. शय्यातर का नाम-गोत्र..... जं वा तीए धरेती, नरगा आयं धरो तम्हा॥ ४. अनेक शय्यातरों में एक का निर्धारण (बृभा ३५२१-३५२४) ५. अवग्रह की अनुज्ञा किससे? शय्यातर के नाना व्यंजन वाले पांच एकार्थक नाम हैं-- * शय्या अवग्रह की सात प्रतिमा १. सागारिक-अगार (गृह) के साथ जिसका योग होता है। घर * शय्यातर का क्षेत्रावग्रह द्र अवग्रह अगम-वृक्ष-काष्ठ से निर्मित होने के कारण अगार कहलाता है। ६. पथ में भी शय्यासर, यक्ष शय्यातर २. शय्याकर-जो शय्या-प्रतिश्रय का निर्माण करता है। * गोष्ठीपुरुष और शय्यातर... द्र गोष्ठी ७. शय्यातर-अशय्यातर कब? अनादेश-आदेश ३. शय्यादाता-जो शय्या-वसति देता है। ८.शय्यातरपिंड के प्रकार ४. शय्यातर-जो वसति का संरक्षण करने में समर्थ है, अथवा वहां ० तृण आदि शय्यातरपिंड नहीं स्थित साधुओं की आपदाओं से रक्षा करने में समर्थ है। अथवा * शय्यासंस्तारक प्रतिमा द्र शय्या शय्या के दान से संसार-प्रवाह को तर जाता है। ९. शय्यातरपिंड और अतिथि, भागीदार आदि ५. शय्याधर-जो जीर्ण-शीर्ण वसति का छादन, लेपन आदि k०.शय्यातरपिंड कहीं भी अनुज्ञात क्यों नहीं? करता है। अथवा शय्यादान द्वारा स्वयं को नरक से बचा लेता है। | * शय्यातरपिंड अवस्थितकल्प द्र कल्पस्थिति (स्थानदान संयम साधना का महान् उपकारी तत्त्व है। इस २१. शय्यातर द्वारा पृच्छा : कब? कितने? संदर्भ में एक प्राचीन श्लोक है१२. शय्यातर की निश्रा-अनिश्रा धृतिस्तेन दत्ता मतिस्तेन दत्ता, गतिस्तेन दत्ता सुखं तेन दत्तम्। २३. साध्वी के शय्यातर की अर्हता गुणश्रीसमालिंगितेभ्यो वरेभ्यो, मुनिभ्यो मुदा येन दत्तो निवासः ।। १.शय्यातर कौन? जिसने गुणश्रीसम्पन्न मुनिवरों को प्रसन्नता से निवास स्थान सेन्जायरो पभू वा, पभुसंदिट्ठो व होड़ कायव्यो। दिया है, उसने उन्हें धृति, मति, गति और सुख दिया है।) एगमणेगे व पभू, पभुसंदिढे वि एमेव॥ ३. शय्यातर का नाम-गोत्र...... (बृभा ३५२५) से भिक्खूवा भिक्खुणी वा जस्सुवस्सए संवसेज्जा, तस्स उपाश्रय का स्वामी अथवा उस स्वामी के द्वारा संदिष्ट पुव्वामेव णाम-गोयं जाणेज्जा। तओ पच्छा तस्स गिडे व्यक्ति शय्यातर होता है। स्वामी एक भी हो सकता है, अनेक भी णिमंतेमाणस्स अणिमंतेमाणस्स वा असणं वा पाणं वाणो हो सकते हैं। इसी प्रकार स्वामी के द्वारा संदिष्ट व्यक्ति भी एक या पडिगाहेज्जा॥ _ (आचूला २/४८) अनेक हो सकते हैं। वह भिक्षु अथवा भिक्षुणी जिसके उपाश्रय में रहे, उस २. शय्यातर के पर्यायवाची नाम शय्यातर का नाम-गोत्र (और घर) पहले ही जान ले। तत्पश्चात् सागारियस्स णामा, एगट्ठा णाणवंजणा पंच। उसके घर में निमंत्रित किए जाने पर या न किए जाने पर उसके सागारिय सेज्जायर, दाता य तरे धरे चेव॥ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को ग्रहण न करे। अगमकरणादगारं, तस्सहजोगेण होइ सागारी। ४. अनेक शय्यातरों में एक का निर्धारण सेन्जाकरणे सेज्जाकरो उ दाता तु तद्दाणा॥ एगे सागारिए पारिहारिए, दो तिण्णि चत्तारि पंच Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शय्यातर सागारिया पारिहारिया, एगं तत्थ कप्पागं ठवइत्ता अवसेसे निव्विसेज्जा ॥ (क २/१३) सहिं वा वि भणिया, एग ठवेत्ताण णिव्विसे सेसे। गणदेउलमादीसु गिण्हंति वारएणं, अणुग्गहत्थीसु जह रुई तेसिं (बृभा ३५८३, ३५८४) व...........॥ एक गृहस्वामी पारिहारिक - भिक्षाग्रहण की दृष्टि से परिहर्त्तव्य होता है । एक सागारिक की तरह दो, तीन, चार या पांच सागारिक पारिहारिक होते हैं । कारणवश या श्रद्धालुओं द्वारा निवेदन किए जाने पर अनेक शय्यातरों में से एक को शय्यातर स्थापित कर शेष घरों में भिक्षार्थ प्रवेश किया जा सकता है।. जब मुनि बहुजनसाधारण देवकुल, सभा आदि में ठहरे, तब एक को शय्यातर स्थापित कर शेष का आहार ग्रहण करे। यदि वे सभी शय्यातर के लाभ को प्राप्त करना चाहते हों, तो उन सबकी रुचि के अनुसार बारी-बारी से उनको शय्यातर स्थापित करे । ५. अवग्रह की अनुज्ञा किससे ? विहवधूया नातिकुलवासिणी सावि ताव ओग्गहं अणुण्णवेयव्वा किमंग पुण पिया वा भाया वा पुत्ते वा पहेवि ओग्गहे ओगेहियव्वे ॥ (व्य ७/२५) आदेस - दास भइए, तिरिक्क-जामातिए य दिण्णा उ । अस्सामि मास लहुओ, सेस पभूऽणुग्गहेणं वा ॥ गहपति गिवतिणी वा, अविभत्तसुतो अदिन्नकण्णा वा । पभवति निसिद्धविहवा, आदिट्ठे वा सयं दाउं ॥ (व्यभा ३३४६, ३३४८) जो विधवा पुत्री अपने पिता के घर में रहती है, उससे भी अवग्रह की आज्ञा ली जा सकती है, तो फिर पिता, भ्राता और पुत्र की आज्ञा क्यों नहीं ली जा सकती ? अतिथि, दास, भृतक, पृथक् घर में रहने वाले दामाद को प्रदत्त कन्या - ये सब घर के स्वामी नहीं हैं। इनसे अनुज्ञा ग्रहण करने वाला लघुमा प्रायश्चित्त का भागी होता है। गृहपति, गृहपत्नी, अविभक्तसुत (जिसने माता-पिता से आगम विषय कोश- २ - पृथक् घर नहीं बसाया है, धन का बंटवारा नहीं किया है), अदत्तकन्या (अथवा गृहजामाता ) – ये सब प्रभु हैं, अनुज्ञापनीय हैं। विधवा दुहिता, जो घर में प्रमाणीकृत है तथा जो व्यक्ति स्वामी द्वारा आदिष्ट है, वह अप्रभु भी अनुज्ञापनीय है । ६. पथ में भी शय्यातर, यक्ष शय्या तर पहिए वि ओग्गहं अणुण्णवेयव्वे | (व्य ७/२६) वीसमंता वि छायाए, जं तहिं पढमं ठिया । चिट्ठेति पुच्छिउं ते वि, पंथिए किं जहिं वसे ॥ वसंति व जहिं गागपरिग्गहे । ठावंतेगमसंथरे ॥ रत्तिं, तत्तिए तु तरे कुज्जा ५६० (व्यभा ३३५२, ३३५३) पथ में भी अवग्रह अनुज्ञापयितव्य है। वृक्ष की छाया में जो पथिक पहले से ही विश्राम कर रहे हों, उन्हें पूछकर ही वहां ठहरे। जहां वृक्ष के नीचे या अन्यत्र प्रवास करना हो, वहां अवश्य अनुज्ञापना करे। रात्रि में वहां रहना हो तो एक या अनेक, जितने पथिकों से वह स्थान या वृक्ष परिगृहीत है, उन सबको शय्यातर स्थापित करे। यदि यह संभव न हो, अपर्याप्त हो तो किसी एक को शय्यातर माने । भूयाइपरिग्रहिते, दुमम्मि तमणुण्णवित्तु सज्झायं । एगेण अणुण्णविए, सो च्चेव य उग्गहो सेसे ॥ सामी अणुविज्जइ, दुमस्स जस्सोग्गहो व्व असहीणे।" जक्खो च्चिय होइ तरो, बलिमादीगिण्हणे भवे दोसा । सुविणे ओयरिए वा, संखडिकारावणमभिक्खं ॥ (बृभा ४७७३, ४७७४, ४७७६) जो वृक्ष व्यंतर देव द्वारा परिगृहीत है, वहां मुनि उस व्यंतर की अनुज्ञा लेकर स्वाध्याय करे। एक मुनि द्वारा अनुज्ञा प्राप्त वह अवग्रह अन्य मुनियों के लिए भी अनुज्ञात है। — मुनि वृक्ष के स्वामी की अनुज्ञा ले। स्वामी वहां न हो तो 'जिसका स्थान है, उसकी आज्ञा है' ऐसा कहकर अनुज्ञा ले 1 वह वृक्ष जिस यक्ष के द्वारा अधिष्ठित होता है, वह यक्ष ही वहां स्थित साधुओं का शय्यातर होता है। उसके लिए अर्पित कूर आदि नैवेद्य शय्यातरपिण्ड है, उसे ग्रहण करना सदोष है। Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५६१ शय्यातर अथवा यक्ष वृक्ष के स्वामी को स्वप्न में अवतीर्ण होकर कहे-मेरे जब वहां दैवसिक प्रतिक्रमण कर लिया जाता है। उद्देश्य से तुम बार-बार भोज करोगे तो मैं तुम्हें कष्ट नहीं दूंगा।' उस ० रात्रि का प्रथम प्रहर बीत जाने पर। भोज का भोजन शय्यातरपिंड है, अत: वह अग्राह्य है। ० रात्रि का दूसरा प्रहर बीत जाने पर ७. शय्यातर-अशय्यातर कब? अनादेश-आदेश ० रात्रि का तीसरा प्रहर बीत जाने पर। अणुणविय उग्गहंगण, पायोग्गाणुण्ण अतिगते ठविते। ० रात्रि का चौथा प्रहर बीत जाने पर। ये सब मतान्तर अनादेश हैं। क्योंकि अनुज्ञापित क्षेत्र में सज्झाय भिक्ख भुत्ते, णिक्खित्ताऽऽवासए एक्को। प्रविष्ट होने पर भी किसी बाधा के उपस्थित होने पर यदि मुनि पढमे बितिए ततिए, चउत्थ जामे व होज्ज वाघातो। निव्वाघाए भयणा, सो वा इतरो व उभयं वा ।। दूसरी बस्ती में चले जाते हैं तो वह किसका शय्यातर होगा? जइ जग्गंति सुविहिया, करेंति आवासगं च अण्णत्थ। __ आदेश यह है कि निर्व्याघात शय्या में रातभर रहने पर सेज्जातरो ण होती, सुत्ते व कए व सो होती॥ शय्यातर की भजना है-उस शय्या का स्वामी शय्यातर हो सकता अन्नत्थ व सेऊणं, आवासग चरममण्णहिं तु करे। है, अन्य भी हो सकता है या दोनों शय्यातर हो सकते हैं । यथादोण्णि वि तरा भवंती, सत्थादिसु इधरधा भयणा ॥ जो सुविहित मुनि रातभर जागते हैं और प्राभातिक आवश्यकअसइ वसहीय वीसुं, वसमाणाणं तरा तु भयितव्वा। प्रतिक्रमण अन्यत्र जाकर करते हैं तो मूल उपाश्रय का स्वामी शय्यातर तत्थऽण्णत्थ व वासे, छत्तच्छायं तु वन्जेति॥ नहा हा नहीं होता। किंतु रात्रि में वहां सोते हैं अथवा प्राभातिक प्रतिक्रमण ""एते सर्वेऽप्यनादेशाः । अनुज्ञापितावग्रहादिष वहां करते हैं तो उस उपाश्रय का स्वामी शय्यातर होता है। निक्षिप्तान्तेषु दिवसत एव व्याघातो भवेत्, व्याघाताच्चान्यां जो मुनि किसी एक स्थान में सोता है और दूसरे स्थान में वसतिमन्यद्वा क्षेत्रं गताः ततः कस्यासौ शय्यातरो भवत?। जाकर प्राभातिक प्रतिक्रमण करता है तो दोनों स्थानों के गृहस्वामी आदेशः पुनरयम् तत्रैव रात्रावृषितास्ततो भजना कर्तव्या। शय्यातर होते हैं। यह स्थिति सार्थ आदि के साथ गमनागमन के लाटाचार्याभिप्रायः"छत्रः-आचार्यस्तस्यच्छायां वर्जयन्ति, समय होती है। अन्यथा भजना है। यथामौलशय्यातरगृहमित्यर्थः। (बृभा ३५२७-३५३१ वृ) बस्ती संकीर्ण होने पर कुछ साधु दूसरे घर में जाकर सोते हैं और दूसरे दिन सूत्रपौरुषी वहीं सम्पन्न कर मूल बस्ती में आते शय्यातर कब होता है? इस प्रश्न के उत्तर में पन्द्रह मत हैं तो दोनों गृहस्वामी शय्यातर हैं। लाटाचार्य के मतानुसार साधु मतान्तरों का उल्लेख प्राप्त है मूल बस्ती में रहें या अन्यत्र रहें, उससे प्रयोजन नहीं है। वे ० शय्यातर तब होता है, जब शय्या की अनुज्ञा प्राप्त हो। छत्रछाया-आचार्य के शय्यातरगह का वर्जन करते हैं अर्थात जहां • जब मुनि शय्यातर के अवग्रह में प्रविष्ट हो जाते हैं। आचार्य रहते हैं, उस स्थान का स्वामी शय्यातर है। • जब मुनि गृहस्वामी के आंगन में प्रविष्ट हो जाते हैं। ."वुत्थे वज्जेज्जऽहोरत्तं ॥ (बृभा ३५३६) • तृण आदि प्रायोग्य वस्तु की आज्ञा प्राप्त कर लेते हैं। • जब मुनि वसति में प्रविष्ट हो जाते हैं। मुनि जिस वसति में रहते हैं और वहां से जिस समय जब उपकरण आदि स्थापित कर दिए जाते हैं अथवा निष्क्रमण करते हैं, उसके पश्चात् अहोरात्र पर्यन्त उस घर से दानश्राद्ध आदि कुलों की स्थापना कर दी जाती है। अशन आदि ग्रहण नहीं किया जा सकता। अहोरात्र के पश्चात् • जब वहां स्वाध्याय प्रारम्भ कर दिया जाता है। उस घर का स्वामी अशय्यातर हो जाता है। जब गरु की आज्ञा से भिक्षा के लिए मनि चले जाते हैं। ८. शय्यातरपिंड के प्रकार .. जब मुनि वहां आहार करना प्रारंभ कर देते हैं। दुविह चउव्विह छव्विह, अट्ठविहो होति बारसविहो य। • जब पात्र आदि वहां रख दिए जाते हैं। सेज्जातरस्स पिंडो, Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शय्यातर आहारोवहि दुविहो, बिदु अण्णे पाण ओहुवग्गहिए । असणादिचउर ओहे, उवग्गहे छव्विहो एस ॥ अण्णे पाणे वत्थे, पादे सूयादिया य चउरट्ठ । असणादी वत्थादी, सूचादि चउक्कका तिन्नि ॥ (बृभा ३५३२-३५३४) शय्यातरपिंड दो प्रकार का, चार प्रकार का, छह प्रकार का, आठ प्रकार का तथा बारह प्रकार का होता है। ० दो प्रकार - १. आहार २. उपधि । २. पान ३. औधिक उपकरण ० चार प्रकार - १. अन्न ४. औपग्रहिक उपकरण । ० छह प्रकार- १. अन्न ५. औधिक उपकरण ६. औपग्रहिक उपकरण । २. पान ३. खाद्य ४. स्वाद्य ० बारह प्रकार - १. अन्न २. पान ३. खाद्य ४. स्वाद्य ५. वस्त्र ६. पात्र ७. कम्बल ८. पादप्रोञ्छन ९. सूई १०. कैंची ११. नखच्छेदनी १२. कर्णशोधनी । • तृण आदि शय्यातरपिंड नहीं तण- डंगल-छार-मल्लग - सेज्जा- संथार-पीढ-लेवादी । सेज्जातरपिंडो सो, ण होति सेहो य सोवहिओ ॥ (बृभा ३५३५) तृण, ढेला, राख, मल्लक, शय्या-संस्तारक, पीठ - फलक, लेप आदि शय्यातरपिंड नहीं होते । यदि शय्यातर का पुत्र दीक्षित होता हो, तो उपधि सहित वह शैक्ष शय्यातरपिंड नहीं होता । ९. श्य्यातरपिंड और अतिथि, भागीदार आदि सागारियस्स आएसे अंतो वगडाए भुंजइ निट्ठिए निसट्टे पाडिहारिए, तम्हा दावए, नो से कप्पड़ पडिगाहेत्तए ।... अपाडिहारिए, तम्हा दावए, एवं से कप्पड़ पडिगाहेत्तए ॥ सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स एगव गडाए अंतो एगपयाए ...अभिनिपयाए सागारियं चोवजीवइ, तम्हा दावए, नो से कप्पड़ पडिगाहेत्तए । (व्य ९ / १, २, ९, १० शय्यातर के घर में कोई अतिथि भोजन करता घर में निष्पन्न भोजन प्रातिहारिक के रूप में अतिथि को प्रदान किया आगम विषय कोश- २ जाता है, वह भोजन साधु को दे तो साधु उसे ग्रहण नहीं कर सकता, अप्रातिहारिक आहार अतिथि से ग्रहण कर सकता है। ५६२ शय्यातर का स्वजन उसके घर में एक या पृथक् चूल्हे पर भोजन पकाये और वह शय्यातर का उपजीवी हो तो उसके द्वारा प्रदत्त वह भोजन साधु नहीं ले सकता । सागारियस्स चक्कियसाला साहारणवक्कयपउत्ता, तम्हा दावए, नो से कप्पड़ पडिगाहेत्तए |" निस्साहारणवक्कयपत्ता ... कप्पड़ पडिगाहेत्तए ॥ (व्य ९ / १७, २०) ० आठ प्रकार- १. अन्न २. पान ३. वस्त्र ४ पात्र ५. सूई तो वहां से साधु तेल ग्रहण कर सकता है या साधु शय्यातर के ६. कैंची ७. नखछेदनी ८. कर्णशोधनी । साझीदार की स्वतंत्र स्वामित्व वाली वस्तु ले सकता है। १०. शय्यातरपिंड कहीं भी अनुज्ञात क्यों नहीं ? तित्थंकरपडिकुट्ठो, आणा अण्णाय उग्गमो ण सुज्झे । अविमुत्ति अलाघवता, दुल्लभ सेज्जा य वोच्छेदो ॥ पुर- पच्छिमवज्जेहिं, अवि कम्मं जिणवरेहिं लेसेणं । भुत्तं विदेहएहि य, ण य सागरियस्स पिंडो उ ॥ (बृभा ३५४०, ३५४१ ) शय्यातर और उसके भागीदार अशय्यातर की साधारण अवक्रय प्रयुक्त तैलविक्रयशाला हो-तैलविक्रय से प्राप्त मूल्य में शय्यातर का भी विभाग हो, उस शाला में से साझीदार तैल दे तो साधु उसे नहीं ले सकता। दोनों की पृथक् अवक्रयप्रयुक्त चक्रिकशाला हो तीर्थंकरों ने शय्यातरपिंड का निषेध किया है। उसे ग्रहण करने से आज्ञा की आराधना नहीं होती। निकटवर्ती निवास के कारण अज्ञातउच्छ नहीं होता। अन्न-पान आदि के निमित्त से बार-बार उस घर में प्रवेश करने से उद्गम भी शुद्ध नहीं होता । स्वाध्याय-श्रवण से आकृष्ट होकर शय्यातर उसे प्रणीत द्रव्य देता है तो ग्रहण-लोलुपता के कारण निर्लोभता नहीं सधती। विशिष्ट आहार के लाभ से शरीर का लाघव तथा प्रचुर वस्त्र आदि के लाभ से उपकरण का लाघव नहीं रहता। जिसने मुनियों को शय्या दी है, उसे आहार आदि भी देना है, इस भय से गृहस्थ द्वारा शय्या मिलना दुर्लभ हो जाता है अथवा उसका व्यवच्छेद हो जाता है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभ और अंतिम तीर्थंकर महावीर के अतिरिक्त शेष बाईस तीर्थंकरों तथा विदेहक्षेत्र के तीर्थंकरों ने किसी एक अपेक्षा से आधाकर्म आहार की अनुज्ञा दी है (जिस साधु के Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५६३ शरीर लिए आधाकर्म आहार निष्पन्न किया गया है, उसके लिए वह आपकी सुरक्षा की चिन्ता करूंगा। आप निश्चित रहें-शय्यातर के निषिद्ध है, शेष साधुओं के लिए वह अनुज्ञात है) किन्तु शय्यातरपिंड इस अभ्युपगम को निश्रा कहा जाता है।) किसी भी तीर्थंकर द्वारा अनुज्ञात नहीं है। निग्रंथ कारण से शय्यातर की निश्रा में और अकारण अनिश्रा ११. शय्यातर द्वारा पृच्छा : कब? कितने? में रहे। वह निष्कारण निश्रा में रहता है, तब चतुर्लघु तथा कारण से जाव गुरूण य तुब्भ य, केवइया तत्थ सागरेणुवमा। निश्रा में नहीं रहता है, तब चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है। केवइ कालेणेहिह, सागार ठवंति अन्ने वि॥ १३. साध्वी के शय्यातर की अर्हता पुव्वद्दिटेविच्छइ, अहव भणिज्जा हवंतु एवइआ। .... भीतपरिस मद्दविदे, अज्जा सिज्जायरे भणिए॥ तत्थ न कप्पइ वासो, असई खेत्तस्सऽणुन्नाओ॥ भीतपर्षद् नाम यद्भयात् तदीयः परिवारो न कमप्य(बृभा १५०१, १५०२) नाचारं कर्तुमुत्सहते। (बृभा ३२२५ वृ) आप कब तक यहां रहेंगे? शय्यातर के द्वारा ऐसा पूछे जाने पर मुनि कहते हैं-जब तक आपको और गुरु को अभीष्ट होगा। जो भीतपर्षद् है जिसके भय से उसका परिवार किसी प्रकार के अनाचार-सेवन का साहस नहीं कर सकता और जो आप कितने साधु यहां रहेंगे? यह पूछने पर मुनि कहे-हमारे गुरु सागरतुल्य हैं। (सागर कभी फैलता है, कभी संकुचित होता है। मधुरभाषी है, वह साध्वियों का शय्यातर बनने योग्य है। उपसम्पदाग्रहण करने पर आचार्य का शिष्यपरिवार बढ़ जाता है, शरीर-काय। पौद्गलिक सुख-दुःख की अनुभूति का उनके अन्यत्र चले जाने पर साधुओं की संख्या घट जाती है।) माध्यम। - आप कब आएंगे? यह पूछने पर मुनि सविकल्प वचन का प्रयोग करते हैं-अन्य दिशाओं में भी क्षेत्रप्रत्युपेक्षक गए हुए हैं। | १. व्यक्ति के बाह्य-आभ्यन्तर लक्षण उनके आने के बाद क्षेत्रविमर्श होने पर गुरु को यदि इष्ट होगा और ___ * द्रव्यबंध : कायप्रयोग द्र कर्म २. देव आदि के शरीर में लक्षण कोई बाधा नहीं होगी तो इतने दिनों के बाद यहां आएंगे। ३. लक्षण और व्यंजन में अंतर __शय्यातर पूर्व दृष्ट साधुओं को चाहता है अथवा वह कहता ___* शरीरसंपदा : आरोह-परिणाह. द्र गणिसंपदा है-परिचित या अपरिचित जो भी साधु हों पर वे इतनी संख्या में ४. मान-उन्मान-प्रमाण पुरुष ही यहां रह सकते हैं- इस प्रकार शय्यातर के द्वारा निर्धारित ___* शरीर और संहनन द्र संहनन करने पर मुनि वहां नहीं रह सकते। लेकिन मासकल्प प्रायोग्य १. व्यक्ति के बाह्य-आभ्यन्तर लक्षण दूसरा क्षेत्र नहीं होने पर वहां अनुज्ञा लेकर रह सकते हैं। दुविहा य लक्खणा खलु, अब्भितरबाहिरा उ देहीणं। १२. शय्यातर की निश्रा-अनिश्रा बहिया सर-वण्णाई, अंतो सब्भावसत्ताई। नो कप्पइ निग्गंथीणं सागारिय-अनिस्साए वत्थए। बत्तीसा अट्ठसयं, अट्ठसहस्सं च बहुतराइं च। कप्पइ निग्गंथाणं सागारिय-निस्साए वा अनिस्साए वा देहेसू देहीणं, लक्खणाणि सुहकम्मजणियाणि॥ वत्थए। (क १/२२, २४) __ पागयमणुयाणं बत्तीसं, अट्ठसयं बलदेववासुदेवाणं, साहू निस्समनिस्सा, कारणि निस्सा अकारणि अनिस्सा। अट्ठसहस्सं चक्कवट्टितित्थकराणं। जे पुट्ठा हत्थपादादिसु निक्कारणम्मि लहुगा, कारणे गुरुगा अनिस्साए॥ लक्खिजंति तेसिं पमाणं भणियं, जे पुण अंतो स्वभावसत्तादी (बृभा २४४६) तेहिं सह बहुतरा भवंति, ते य अण्णजम्मकयसुभणामसरीरनिग्रंथी शय्यातर की निश्रा के बिना न रहे। (साध्वीवर! मैं अंगोवंगकम्मोदयाओ भवंति। (निभा ४२९२, ४२९३ चू) Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर ५६४ आगम विषय कोश-२ मनुष्यों के दो प्रकार के शुभ लक्षण होते हैं लक्षण के तीन प्रकार हैं० बाह्य लक्षण-गंभीरस्वर, प्रशस्त वर्ण आदि। १. मानयुक्त-जलद्रोणिक पुरुष। (द्र श्रीआको १ अंगुल) ० आभ्यन्तर लक्षण-स्वभाव, सत्त्व (अदीनता) आदि। २. उन्मानयक्त-सारपदगलों से निर्मित अर्धभार तोल वाला परुष . सामान्य मनुष्य के बत्तीस, बलदेव-वासुदेव के एक सौ (अर्धभार उन्मान प्रमाण है।- श्रीआको १ प्रमाण) आठ और चक्रवर्ती तथा तीर्थंकर के एक हजार आठ लक्षण होते ३. प्रमाणयुक्त-अपने अंगुल से बारह अंगुल का मुख होता है। हैं-जो शरीर के हाथ-पैर आदि अवयवों पर स्पष्ट रूप से दिखाई नौ मुख जितना (१०८ अंगुल वाला) पुरुष । देते हैं. उनका यह परिमाण है। आभ्यन्तर लक्षणों के साथ उनकी (CHER Aah • eas १०८ अंगुल, मध्यम पुरुष की संख्या और अधिक है। ये लक्षण पूर्वजन्मकृत शुभ शरीर अंगोपांग १०४ अंगुल, अधम पुरुष की ९६ अंगुल।-अनु ३९० नामकर्म के उदय से होते हैं। पदतल से शीर्षपर्यंत प्रामाणिक नाप * औदारिक आदि शरीर द्र श्रीआको १ शरीर पाणि-एड़ी से अंगुलि तक लम्बाई १४ अंगुल २. देव आदि के शरीर में लक्षण ० पदतल के अग्रभाग की चौड़ाई ६ अंगुल भवपच्चइया लीणा, तु लक्खणा होंति देवदेहेस। ० पैर के अंगूठे की लंबाई २ अंगुल भवधारिणिएसु भवे, विउव्वितेसुं तु ते वत्ता॥ ० तर्जनी अंगुलि २ अंगुल ओसण्णमलक्खणसंजुयाओ बोंदीओ होंति निरएस। ० मध्यमा अंगुली से अंगूठे की लम्बाई १/१६ भाग कम १/२ भाग कम नामोदयपच्चइया, तिरिएसु य होंति तिविहा उ॥ ० अनामिका मध्यमा से (निभा ४२९६, ४२९७) ___० कनिष्ठिका अनामिका से १/६ भाग कम ० टखनों से घुटनों तक (जंघा) की लम्बाई १८ अंगुल देवों के भवधारणीय शरीर में भवप्रत्ययिक लक्षण अव्यक्त ० घुटनों से ऊपरी भाग की लम्बाई २१ अंगुल होते हैं, उत्तरवैक्रिय शरीर में वे व्यक्त होते हैं। ० कटिभाग की लम्बाई १८ अंगुल नैरयिकों का शरीर एकांततः अलक्षणयुक्त होता है। ० नाभि से नाभि तक कटिभाग की परिधि ४६ अंगुल तिर्यञ्चों में तीनों प्रकार के शरीर होते हैं-लक्षणयुक्त, अलक्षण ० पुरुष के कटिभाग की अर्द्ध परिधि १८ अंगुल युक्त और मिश्र-ये सब नामकर्म के उदय से होते हैं। ० स्त्री के कटिभाग की अर्द्ध परिधि २४ अंगुल ३. लक्षण और व्यंजन में अंतर ० लिङ्गस्थान से नाभि तक की लम्बाई १२ अंगुल माणुम्माणपमाणादिलक्खणं वंजणं तु मसगादी। . नाभि से हृदय तक की लम्बाई १२ अंगुल सहजं च लक्खणं, वंजणं तु पच्छा समुप्पण्णं ॥ ० हृदय से ग्रीवा तक की लम्बाई १२ अंगुल (निभा ४२९४) ० पष्ठभाग में अस्थिपुच्छ से ग्रीवा तक की लम्बाई ५६ अंगल लक्षण-मान-उन्मान-प्रमाण आदि जो सहजात हैं। ० पुरुष के वक्षः स्थल की अर्द्ध परिधि २४ अंगुल ० व्यंजन-तिल, मस आदि जो पश्चात् समुत्पन्न हैं। ० स्त्री के वक्षः स्थल की अर्द्ध परिधि १८ अंगुल (जिसके हाथ-पैरों में वज्र, शंख आदि चिह्न होते हैं, वह मणिबंध से मध्यमा अंगुली तक की लम्बाई १२ अंगुल श्रीसम्पन्न होता है। श्रीआको १ अष्टांगनिमित्त) ० मणिबंध से कोहनी पर्यंत हाथ की लम्बाई १६ अंगुल ४. मान-उन्मान-प्रमाण पुरुष ० कंधे से कोहनी पर्यंत भुजा की लम्बाई १८ अंगुल जलदोणमद्धभारं, समुहाइ समुस्सितो व जा णव तु। . गर्दन की लम्बाई ४ अंगुल माणुम्माणपमाणं, तिविहं खलु लक्खणं एयं॥ ० गर्दन की परिधि २४ अंगुल (निभा ४२९५) ० ठुड्डी से ललाट की लम्बाई १२ अंगुल Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश--२ ५६५ श्रमण ० नेत्र, मुख, नासिका, कान, ललाट और ग्रीवा की लम्बाई ४४ अंगुल उन्मान का नाप व्यक्ति के अपने पर्वांगुल से किया जाता है। मध्यमा अंगुली का मध्य पर्व या अंगुष्ठ का मध्य पर्व अंगुल प्रमाण का मापक माना जाता है। अंगुल का परिमाण८ यव= १ अंगुल-३ इंच। २४ अंगुल १ हाथ-१८ इंच। __ उपर्युक्त अंगुल प्रमाण से एक सौ आठ अंगुल (६ फिट ९ इंच) की ऊंचाई वाला व्यक्ति उत्तम पुरुष, ९६ अंगुल (६ फिट) की ऊंचाई वाला व्यक्ति मध्यम पुरुष और ८४ अंगुल (५ फिट ३ इंच) की ऊंचाई वाला व्यक्ति अधम पुरुष माना गया है। वर्तमान में आत्मांगुल से १०० अंगुल (६ फिट ३ इंच) की ऊंचाई श्रेष्ठ, ९२ अंगुल (५ फिट ९ इंच) की ऊंचाई मध्यम और ८४ अंगुल (५ फिट ३ इंच) की ऊंचाई निम्न मानी गई है।-अनु ३९० का टिप्पण) शवपरिष्ठापन-मुनि के शव-परिष्ठापन की विधि। द्र महास्थंडिल शिष्य-अनुशासन में रहने वाला। द्र अंतेवासी शीतगृह-वातानुकूलित आलय । वड्वकीरयणणिम्मियं चक्किणो सीयघरं भवति, वासासु णिवाय-पवातं, सीयकाले सोह, गिम्हे सीयलं..... सव्वरिउक्खमं। (निभा २७९४ की चू) शीतघर चक्रवर्ती के वर्धकिरन द्वारा निर्मित होता है। वह सब ऋतुओं में अनुकूल-वर्षाऋतु में निवात-प्रवात (बरसाती हवा से अप्रभावित), शीतकाल में गर्म और ग्रीष्मकाल में ठंडा रहता है। * संघ को शीतघर की उपमा द्र संघ शैक्ष-नवदीक्षित। द्र चारित्र २. भिक्षु कौन? . * भिक्षाविधि द्र पिण्डैषणा * श्रमण की सामाचारी द्र स्थविरकल्प ३. श्लथ श्रमण के प्रकार : पार्श्वस्थ आदि ० पार्श्वस्थ के प्रकार ० यथाच्छंद का स्वरूप पार्श्वस्थ और यथाच्छंद में अंतर ० पार्श्वस्थ आदि श्रमणों का आचार ० कुशील का स्वरूप ० अवसन्न का स्वरूप एवं प्रकार ० संसक्त का स्वरूप ४. काथिक ० पासणिअ/पश्यक/प्राश्निक ० मामक, संप्रसारक ५.नित्यक श्रमण ६. लिंगधारक श्रेणिबाह्य : शर्कराघट दृष्टांत * श्रामण्य का सार द्र अधिकरण * श्रमण की विहारविधि द्र विहार १. सुश्रमण कौन अणिच्चमावासमुति जंतुणो, पलोयए सोच्चमिदं अणुत्तरं। विऊसिरे विण्णु अगारबंधणं, अभीरु आरंभपरिग्गहं चए॥ तहागअंभिक्खुमणंतसंजयं, अणेलिसंविण्णु चरंतमेसणं। तुदंति वायाहि अभिद्दवं णरा, सरेहि संगामगयं व कुंजरं॥ तहप्पगारेहि जणेहि हीलिए, ससद्दफासा फरुसा उदीरिया। तितिक्खए णाणि अदुडुचेयसा, गिरिव्व वाएण ण संपवेवए। उवेहमाणे कुसलेहि संवसे, अकंतदुक्खी तसथावरा दुही। अलूसए सव्वसहे महामुणी, तहा हि से सुस्समणे समाहिए। विदू णते धम्मपयं अणुत्तरं, विणीयतण्हस्स मुणिस्स झायओ। समाहियस्सऽग्गिसिहा वतेयसा, तवोय पण्णा य जसो य वड्डइ॥ (आचूला १६/१-५) प्राणी मनुष्य आदि गतियों में जिस आवास-शरीर आदि को प्राप्त होते हैं, वह अनित्य है-इस अनुत्तर अर्हत्-वचन का श्रवण कर विज्ञ और भयमुक्त मुनि पर्यालोचन-अनित्यता की अनुप्रेक्षा करे, गृहपाश का व्युत्सर्ग करे, आरंभ (हिंसा) और परिग्रह का परित्याग करे। श्रमण-साधु, मुनि, भिक्षु, निर्ग्रन्थ। १. सुश्रमण कौन? * निग्रंथ कौन? * जिनकल्प, यथालंद, परिहारविशुद्धि द्रनिग्रंथ द्र सम्बद्ध नाम Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण ५६६ आगम विषय कोश-२ तथागत (अनित्यभावनाभावित और गृहत्यागी), अनंत कोई कहता है-जब तक मृगों को न देखू, तब तक चारित्रपर्यवों से सम्पन्न, संयत, असाधारण विज्ञ (आगमनिपुण) अहिंसक हूं, स्त्री न मिले तब तक ब्रह्मचारी हूं। कोई कहता हैऔर शुद्ध आहार की एषणा में निरत भिक्षु को अनार्य मनुष्य आहार न मिले तब तक पौषधिक (उपवास-पौषधव्रती) हूं। असभ्य वचनों से वैसे ही व्यथित करते हैं, लोष्ट-प्रहार आदि से मद्य-मांस न मिले तब तक अमद्यमांसभोजी हं। किसी के घर छिद्र अभिद्रुत करते हैं, जैसे संग्राम में हाथी को बाणों से बींधा जाता है, न देख लं, तब तक अचौर्यव्रतधारी हूं-जो ऐसा कहते हैं, वे भिक्षु अभिद्रुत किया जाता है। की अभिधा से अभिहित नहीं हो सकते। ___ उस प्रकार के अनार्य मनुष्यों द्वारा तिरस्कृत होने पर, उनके जो वस्तु का लाभ होने पर भी अग्राह्य-अनेषणीय का द्वारा कठोर शब्दों और प्रतिकूल स्पर्शों (कष्टों) की उदीरणा किए परित्याग करते हैं, वे ही अहिंसक भिक्षु कहला सकते हैं। जाने पर ज्ञानी (मुनि) अकलुषित चित्त से उन्हें सहन करे और वेषधारी भिक्षु यद्यपि भिक्षाजीवी हैं किन्तु वे साधु की तीव्र वायु से अप्रकंपित पर्वत की भांति अविचलित रहे। भांति एषणाशुद्ध भिक्षा ग्रहण नहीं करते। मध्यस्थ भावना-भावित मुनि कुशल (गीतार्थ) मुनियों के यथाकाल (दिन में) प्रासक-एषणीय, परिमित (इकतीस साथ रहे। किसी भी त्रस और स्थावर प्राणी को दुःख प्रिय नहीं है, कवल प्रमाण). परीक्षित. यथालब्ध (संयोजना आदि दोषों से यह सोचकर वह सभी प्राणियों के प्रति अहिंसक रहे। जो पृथ्वी की रहित) और विशुद्ध (परिभोगकाल में आहार की प्रशंसा आदि भांति सर्वंसह होता है, वह समाहित महामुनि सुश्रमण कहलाता है। दोषों से रहित) आहार करना-यह भिक्षु की वृत्ति है। विज्ञ मुनि (क्षांति आदि) अनुत्तर धर्मपदों के प्रति समर्पित * द्रव्यभिक्षु-भावभिक्षु द्र श्रीआको १ भिक्षु होता है। उस वितृष्ण, ध्यानलीन, समाहित (भावक्रियाप्रवण) ३. श्लथ श्रमण के प्रकार : पार्श्वस्थ आदि और अग्निशिखा की भांति तेज से दीप्त मनि के तप, प्रज्ञा और पासत्थ अहाछंदो, कुसील ओसन्नमेव संसत्तो।..." यश बढ़ता है। गच्छम्मि केइ पुरिसा, सउणी जह पंजरंतरनिरुद्धा। ....जे इमे भवंति समणा भगवंतो सीलमंता वयमंता सारण-पंजर-चइया, पासत्थगतादि विहरंति॥ गणमंता संजया संवडा बंभचारी उवरया मेहणाओ धम्माओ, (व्यभा ८३४, ८३५) णो खलु एएसिं कप्पइ आहाकम्मिए असणे वा पाणे वा" शिथिलाचारी और स्वच्छंदविहारी श्रमणों के पांच प्रकार भोत्तए वा, पायत्तए वा।' (आचूला १/१२१) हैं-पार्श्वस्थ, यथाच्छंद, कुशील, अवसन्न और संसक्त। ____ जो ये श्रमण भगवान शीलसम्पन्न, व्रतसम्पन्न, गुणसम्पन्न, जैसे पिंजरे में निरुद्ध शकुनिका कष्ट का अनुभव करती है, संयत, संवृत, ब्रह्मचारी और मैथुन धर्म से उपरत होते हैं, ये वैसे ही कुछ मुनि गच्छ में रहते हुए स्मारणा-वारणा द्वारा महान् आधाकर्मिक अशन-पान खा-पी नहीं सकते।। कष्ट का अनुभव करते हैं, तब वे उस गच्छ को छोड़कर पार्श्वस्थ २. भिक्षु कौन? आदि के रूप में विहार करते हैं। अविहिंस बंभचारी, पोसहिय अमज्जमंसियाऽचोरा। . पार्श्वस्थ के प्रकार सति लंभ परिच्चाई. होति तदक्खा न सेसा उ॥ दविहो खल पासस्थो. देसे सब्वे य होति नायव्यो। अधवा एसणासुद्धं, जधा गिण्हंति साधुणो। सव्वे तिन्नि विकप्या, देसे सेज्जातरकुलादी॥ भिक्खं नेव कुलिंगत्था, भिक्खजीवी वि ते जदि॥ दंसण-नाण-चरित्ते, तवे य अत्ताहितो पवयणे य। अचित्ता एसणिज्जा, य मिता काले परिक्खिता। तेसिं पासविहारी, पासत्थं तं वियाणाहि॥ जहालद्धा विसुद्धा, य एसा वित्ती य भिक्खुणो॥ दंसण-नाण-चरित्ते, सत्थो अच्छति तहिं न उज्जमति। (व्यभा १९०, १९१, १९३) एतेण उ पासत्थो, एसो अन्नो वि पज्जाओ॥ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ पासो त्ति बंधणं ति य, एग बंधहेतवो पासा । पासत्थिय पासत्थो, अन्नो वि एस पज्जाओ ॥ सेज्जायकुलनिस्सित ठवणकुलपलोयणा अभिहडे य । पुवि पच्छासंथुत, णितियग्गपिंडभोड़ य पासत्थो ॥ (व्यभा ८५२ -८५६) ५६७ पार्श्वस्थ के दो प्रकार हैं- देशत: और सर्वतः । सर्वपार्श्वस्थ - इसके तीन प्रकार हैं १. पार्श्वस्थ - जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और प्रवचन में सम्यग् नहीं है, जो ज्ञान आदि के पार्श्व - तट पर स्थित है। आयुक्त २. प्रास्वस्थ - जो ज्ञान आदि में अवस्थित है, अनुद्यमी है। ३. पाशस्थ - पाश और बंधन एकार्थक हैं। जो बंध के हेतुभूत प्रमाद आदि पाशों में स्थित है। देशपार्श्वस्थ - जो शय्यातरपिंडभोजी है, (जिन्होंने उसके पास सम्यक्त्व ग्रहण किया है, उन) निश्रितकुलों से, स्थापनाकुलों अथवा लोक में गर्हित कुलों से जो भिक्षा प्राप्त करता है, जो जीमनवार की प्रतीक्षा करता रहता है, अभिहृत आहार ग्रहण करता है। जो पूर्व-पश्चात् - संस्तुत - माता-पिता, श्वसुर आदि का उपजीवी है या दान से पहले पीछे दाता की प्रशंसा करता है, जो नित्यपिंडभोजी और अग्रपिण्डभजी है । (पासत्थ का संस्कृत रूप केवल पार्श्वस्थ ही होना चाहिए। इसका मूलस्पर्शी अर्थ होना चाहिए - भगवान पार्श्व की परम्परा में स्थित | अर्हत् पार्श्व के अनेक शिष्य श्रमण महावीर के तीर्थ में प्रव्रजित हो गए। हमारा अनुमान है कि जो शिष्य श्रमण महावीर के शासन में सम्मिलित नहीं हुए, उन्हीं के लिए पार्श्वस्थ शब्द प्रयुक्त हुआ है। यह स्पष्ट है कि महावीर के आचार की अपेक्षा पार्श्व का आचार मृदु था। जब तक शत्तिशाली आचार्य थे, तब तक दोनों परम्पराओं में सामंजस्य बना रहा। शक्तिशाली आचार्य नहीं रहे, तब पार्श्वनाथ के शिष्यों के प्रति महावीर के शिष्यों में हीन भावना इतनी बढ़ी कि पार्श्वस्थ शब्द शिथिलाचारी के अर्थ में हो गया । - सू१ / २ / ३२ का टि) रूढ़ • यथाच्छंद का स्वरूप उस्सुत्तमायरंतो, उस्सुत्तं चेव पण्णवेमाणो । एसो उ अधाछंदो, इच्छाछंदो त्ति एगट्ठा ॥ उस्सुत्तमणुवदिट्टं, सच्छंदविगप्पियं अणणुवादी ।..... जा ********** || सच्छंदमतिविगप्पिय, किंची सुहसायविगतिपडिबद्धो । तिहि गारवेहि मज्जति, तं जाणाहि य अधाछंदं ॥ अहछंदस्स परूवण, उस्सुत्ता दुविध होति नायव्वा । चर गतसुं सागारियादि पलियंक निसेज्जा सेवणा य गिहिमत्ते । निग्गंथिचिट्टणादि, पडिसेहो खेत्तं गतो उ अडविं, एक्को संचिक्खती तहिं चेव । तित्थकरोति य पियरो, खेत्तं पुण भावतो सिद्धी ॥ जिणवयणसव्वसारं, मूलं संसारदुक्खमोक्खस्स । मइलेत्ता, ते दुग्गतिवढगा होंति ॥ मासकप्पस्स ॥ सम्मत्तं श्रमण (व्यभा ८६०-८६३, ८६७, ८७१, ८७२) जो स्वयं उत्सूत्र का आचरण करता है और दूसरों के समक्ष उत्सूत्र की ही प्ररूपणा करता है, वह यथाच्छंद या इच्छाछंद कहलाता है । जो तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट नहीं है, स्वेच्छाकल्पित है, सिद्धांत के साथ घटित नहीं है, वह उत्सूत्र है । जो स्वच्छंद मति से विकल्पित का प्रज्ञापन कर लोगों को आकृष्ट कर लेता है, जो सुखस्वादु, विकृति-रसों में प्रतिबद्ध तथा ऋद्धि, रस और साता गौरव से उन्मत्त होता है, वह यथाच्छंद है। यथाच्छंद की उत्सूत्र प्ररूपणा के दो विषय हैं१. चरणसंबंधी - जैसे - शय्यातरपिंड, पर्यंक, गृहिनिषद्या और गृहिपात्र - इनके सेवन में कोई दोष नहीं है। साध्वी के उपाश्रय में अवस्थिति उचित है । मासकल्प से अधिक रहने में दोष नहीं है। २. गतिसंबंधी - तीन भाई हैं- एक खेती करता है, एक देशांतर में चला जाता है, एक घर पर ही रहता है। गृहपति पिता की मृत्यु होने पर सम्पत्ति का विभाग तीनों को मिलता है। इसी प्रकार आपके (सुविहित मुनियों के) और हमारे पिता तीर्थंकर हैं। आपको मुक्ति मिलेगी तो हमें भी मुक्ति मिल जायेगी, आपकी गति ही हमारी गति है । इस प्रकार प्ररूपणा करने वाले यथाच्छंदक सम्यक्त्व को मलिन कर अपनी दुर्गति बढ़ाने वाले होते हैं । सम्यक्त्व ही जिनवाणी का सार और दुःखमुक्ति का मूल है। ० पार्श्वस्थ और यथाच्छंद में अंतर सक्कमहादीया पुण, पासत्थे ऊसवा मुणेयव्वा । अधछंद ऊसवो पुण, जीए परिसाय उ कधेति ॥ लहुगो धि लगा, जधि लहुगा चउगुरू तधिं ठाणे Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण ५६८ आगम विषय कोश-२ ... पासत्थे जं भणियं, अहछंद विवड्डियं जाणे॥ ० कुशील का स्वरूप प्रायश्चित्तं "कस्माद् विवर्धितं प्रतिषिद्धसेवनात् ..."दंसण-नाण-चरित्ते, तिविध कुसीलो मुणेयव्वो॥ कुप्ररूपणाया बहुदोषत्वाद।पार्श्वस्थत्वं त्रयाणामपि सम्भवति, नाणे नाणायारं, जो तु विराधेति कालमादीयं । तद्यथा-भिक्षोर्गणावच्छेदिन आचार्यस्य च। यथाच्छन्दत्वं दंसणे दंसणायारं, चरणकसीलो इमो होति॥ पुनर्भिक्षोरेव। (व्यभा ८७३-८७५ वृ) कोउगभूतीकम्मे, पसिणाऽपसिणे निमित्तमाजीवी। ० उत्सव-पार्श्वस्थ के मान्य उत्सव हैं-इन्द्रमह, स्कन्दमह, कक्क-कुरुया य लक्खण, उवजीवति मंत-विज्जादी॥ जाती कुले गणे या, कम्मे सिप्पे तवे सुते चेव। रुद्रमह आदि। यथाच्छंद का उत्सव है उसकी परिषद्, जिसके समक्ष वह स्वच्छंद विकल्पित कुमत की प्ररूपणा करता है। सत्तविधं आजीवं, उवजीवति जो कुसीलो सो॥ ० प्रायश्चित्त-पार्श्वस्थ को जिस अपराधपद में जितना प्रायश्चित्त (व्यभा ८७७-८८०) आता है, उसी अपराधपद में यथाच्छंद का प्रायश्चित्त वृद्धिंगत हो कुशील के तीन प्रकार हैं-१. ज्ञानकुशील-काल, विनय जाता है। यथा-पार्श्वस्थ को मासलघु तो यथाच्छंदक को चतुर्लघु ___ आदि आठ प्रकार के ज्ञानाचार की विराधना करने वाला। और पार्श्वस्थ को चतुर्लघु तो यथाच्छंद को चतर्गरु। २. दर्शनकुशील-दर्शनाचार का विराधक। यथाच्छंद की प्रायश्चित्तवृद्धि का हेतु है-आगमविरुद्ध ३. चरणकुशील-जो कौतुक (इन्द्रजाल आदि द्वारा आश्चर्य में आचरण और बहुदोषयुक्त कुमत की प्ररूपणा। डाल देना), भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त, आजीव, कल्ककुरुका पार्श्वस्थता भिक्षु, गणावच्छेदी और आचार्य-इन तीनों के (माया अथवा प्रसूति रोग आदि में क्षारपातन), लक्षण, मंत्र, विद्या संभव है। यथाच्छंद केवल भिक्ष ही हो सकता है। आदि से जीवनयापन करता है, वह चरणकुशील है। ० पार्श्वस्थ आदि श्रमणों का आचार * कौतुक, भूतिकर्म आदि : आभियोगी भावना द्र भावना ओसन्न खुयायारो, सबलायारो य होति पासत्थो। ० आजीव-जो जाति (मातृकी), कुल (पैतृक), गण (मल्ल भिन्नायारकुसीलो, संसत्तो संकिलिट्ठो उ॥ गण आदि), कर्म (अनाचार्यक), शिल्प, तप और श्रुत-जीवनयापन (व्यभा १५२२) के लिए इन सातों का उपजीवी है, वह चरणकुशील है। १. अवसन्न-आवश्यक आदि में अनद्यमी क्षत (अपूर्ण) आचार ० अवसन्न श्रमण का स्वरूप एवं प्रकार वाला होता है। सामायारिं वितह, ओसण्णो जं च पावती तत्थ।.... २. पार्श्वस्थ-उद्गम आदि दोषयुक्त आहार आदि सेवन करने ...."जं वा मूलुत्तरगुणातियारं जत्थ किरियाविसेसे वाला शबलाचारी होता है। पयट्टो पावति तं अणिंदंतो अणालोयंतो पच्छित्तं अकरेंतो ३. कशील-जाति आदि से जीविका चलाने वाला भिन्नाचारी ओसण्णो भवति। (निभा ४३४९ चू) (खंडित चारित्र वाला) होता है। जो सामाचारी से विपरीत आचरण करता है, मलगण४. संसक्त-संसर्गवश स्थापित आदि का भोजी संक्लिष्ट आचार उत्तरगुणों में लगे अतिचारों की निंदा, आलोचना और प्रायश्चित्त वाला होता है। नहीं करता, वह अवसन्न (बहुतर दोषसेवी) है। (पार्श्वस्थ आदि तीन श्रेणियों में विभक्त हैं१. उत्कृष्ट दूषित-यथाच्छंद। ये उत्सत्र प्ररूपणा करते हैं। दुविधो खलु ओसण्णे, देसे सव्वे य होति नायव्वो। २. मध्यम दूषित-पार्श्वस्थ आदि। ये महाव्रत-समिति-गुप्तियों देसोसण्णो तहियं, आवासादी इमो होति॥ में अनेक दोष लगाते हैं। आवस्सग-सज्झाए, पडिलेहण-झाण-भिक्ख भत्तठे। ३. जघन्य दुषित-काथिक आदि। ये सामान्य स्खलना करते हैं।) आगमणे निग्गमणे, ठाणे य निसीयण तुयट्टे॥ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५६९ श्रमण आवस्सगं अणियतं, करेति हीणातिरित्तविवरीयं।..... पंचासवप्पवत्तो, जो खलु तिहि गारवेहि पडिबद्धो। जध उ बइल्लो बलवं, भंजति समिलं तु सो वि एमेव। इत्थि-गिहिसंकिलिट्ठो, संसत्तो सो य नायव्वो॥ गुरुवयणं अकरेंतो, वलाति कुणती च उस्सोढुं॥ (व्यभा ८८८-८९०) उउबद्धपीढफलगं, ओसन्नं संजयं वियाणाहि। जैसे अलिंदक में गोभक्त-कुक्कुस, ओदन, अवश्रावण ठवियग-रइयगभोई, एमेया • पडिवत्तीओ॥ आदि मिले हुए होते हैं, रंगभूमि में प्रविष्ट नट कथा के अनुसार ...."स्थापनादोषदुष्टप्राभृतिकाभोजी, रचितकं नाम बहुत से रूप बनाता है, लाक्षारस में निमग्न एडक लोहितवर्ण कांस्यपात्रादिषु पटादिषु वा यदशनादि देयबुद्ध्या वैविक्त्ये वाला और गुलिका कुण्ड में निमग्न एडक नीलवर्ण वाला हो जाता स्थापितम्। (व्यभा ८८२-८८६७) है, वैसे ही संसक्त साधु जिसके साथ मिलता है, उसी के सदृश हो जाता है। उसके दो प्रकार हैंअवसन्न के दो प्रकार हैं १. असंक्लिष्ट-जो पार्श्वस्थ में मिलकर पार्श्वस्थ, यथाच्छंद में १. देश अवसन्न-जो आवश्यक आदि क्रियाओं में जागरूक नहीं यथाच्छंद, कुशील में कुशील, अवसन्न में अवसन्न और संसक्त में होता, आवश्यक नियतकाल में नहीं करता अथवा हीन-अतिरिक्त संसक्त हो जाता है. उनके सदश आचरण करता है तथा प्रियधर्मियों या विपरीत करता है तथा स्वाध्याय, प्रतिलेखना, ध्यान, भिक्षा और में मिलकर प्रियधर्मी बन जाता है। मण्डलीभोजन यथाविधि-यथासमय नहीं करता, प्रत्याख्यान और २. संक्लिष्ट-जो हिंसा आदि पांच आश्रवों में प्रवत्त है. ऋद्धितपस्या नहीं करता। जो उपाश्रय से बाहर जाते समय आवस्सई रस-सात-गौरव, स्त्री और गही-इनमें प्रतिबद्ध है। और लौटते समय निस्सही का उच्चारण नहीं करता, कायोत्सर्ग, ४.काथिक उपवेशन और शयन के समय प्रत्युपेक्षा-प्रमार्जना नहीं करता या आहारादीणऽट्ठा, जसहेउं अहव पूयणनिमित्तं। सम्यक् रूप से नहीं करता। तक्कम्मो जो धम्मं, कहेति सो काहिओ होति॥ जैसे बलवान् बैल को प्रेरित करने पर वह अपनी दुःशीलता कामं खलु धम्मकहा, सज्झायस्सेव पंचमं अंगं। के कारण समिला को तोड़ देता है। इसी प्रकार अवसन्न मुनि अव्वोच्छित्तीइ ततो, तित्थस्स पभावणा चेव॥ गुरुवचनों को संपादित नहीं करता, सहन नहीं करता, रुष्ट हो तह वि य ण सव्वकालं, धम्मकहा जीइ सव्वपरिहाणी। अवांछित अनर्गल बोलता है। नाउं व खेत्तकालं, पुरिसं च पवेदते धमं॥ २. सर्वअवसन्न-जो हर पक्ष में पीठ-फलक आदि के बंधनों को __ (निभा ४३५३-४३५५) खोलकर प्रतिलेखना नहीं करता अथवा जो संस्तारक को सदा जो आहार, वस्त्र आदि की प्राप्ति, यश-प्राप्ति और वंदनाफैलाये-बिछाये रखता है, जो स्थापितभोजी और रचितभोजी है। पूजा के निमित्त धर्मकथा करता है, सूत्र-अध्ययन आदि को छोड़कर ये सारी सर्वअवसन्नविषयक प्रतिपत्तियां हैं। केवल उसी में लगा रहता है, वह काथिक/कथावाचक है। ० स्थापितभोजी-स्थापनादोषदूषित प्राभृतिकाभोजी। यह सही है कि धर्मकथा स्वाध्याय का ही पांचवां भेद है। ० रचितभोजी-जो आहार देयबुद्धि से कांस्यपात्र, पट आदि में उससे तीर्थ की अव्यवच्छित्ति और प्रभावना होती है। फिर भी हर पृथक् स्थापित होता है, उसे खाने वाला। समय धर्मकथा नहीं करनी चाहिए क्योंकि जिससे वाचना, ० संसक्त का स्वरूप प्रतिलेखना, वैयावृत्त्य आदि सब संयमयोगों की परिहानि होती है। गोभत्तालंदो विव, बहुरूवनडोव्व एलगो चेव। क्षेत्र, काल और पुरुष को जानकर यथोचित धर्मकथा करणीय है। संसत्तो सो दुविधो, असंकिलिट्ठो व इतरो य॥ ० पासणिअ/पश्यक/प्राश्निक पासत्थ-अधाछंदे, कुसील-ओसण्णमेव संसत्ते। जणवयववहारेसु णडणट्टादिसु वा जो पेक्खणं करेति पियधम्मो पियधम्मे, असंकिलिट्ठो उ संसत्तो॥ सो पासणिओ। (नि १३/५८ की चू) Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण ५७० आगम विषय कोश-२ जो लौकिक विवादों में साक्षी होता है अथवा नाटक-नृत्य आवाह (वरपक्षसंबंधी भोज अथवा नवोढा का श्वसुरगृह में आदि का प्रेक्षण करता है, वह पासणिअ/प्रेक्षणिक है। प्रवेश),विवाह आदि का मुहूर्त बताता है, यह द्रव्य बेचो, यह (० पासणिअ-साक्षी-देशीनाममाला ६/४१ । खरीदो, इसमें लाभ होगा, इसमें हानि होगी-ऐसा सावध आदेश० प्रेक्षणिका-तमाशा देखने की शौकीन स्त्री।-आप्टे) निर्देश करता है, वह संप्रसारक है। लोइयववहारेसू, लोए सत्थादिएसु कज्जेसु। ५. नित्यक श्रमण पासणियत्तं कुणती, पासणिओ सो य णायव्वो॥ दव्वे खेत्ते काले, भावे णितियं चउव्विहं होति.... साधारणे विरेगं ............। चाउम्मासातीतं, वासाणुदुबद्ध मासतीतं वा। छंदणिरुत्तं सई, अत्थं वा लोइयाण सस्थाणं। वुड्डावासातीतं, वसमाणे कालतोऽणितिते॥ भावत्थए य साहति, छलियादी उत्तरे सउणे॥ ..."तं आलंबणरहितो, सेवंतो होति णितिओ उ॥ (निभा ४३५६-४३५८) (निभा १०१०, १०१६, ४३५२) जो लौकिक व्यवसाय और व्यवहार के संबंध में निर्णय जो द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव संबंधी सीमा का अतिक्रमण देता है, एक जैसी प्रतीत होने वाली वस्तुओं का विभाजन तथा दो कर शय्या आदि का नित्य परिभोग करता है. वह नित्यक है। प्रतियोगियों के विवाद का निपटारा करता है, छंद, निरुक्त, व्याकरण जो वर्षाकाल में चातुर्मासिक कल्प और ऋतुबद्धकाल में आदि लौकिक शास्त्रों के सूत्र, अर्थ और भावार्थ का प्रतिपादन मासकल्प की मर्यादा का अतिक्रमण कर निरंतर एक क्षेत्र में रहता करता है, अर्थशास्त्र, शृंगारकथा, शकुनशास्त्र आदि की व्याख्या है, वह काल नित्यक है। वृद्धवास, वृद्धसेवा आदि कारणों से एक करता है, वह प्राश्निक है। स्थान पर रहने वाला नित्यक नहीं कहलाता। निष्कारण नित्य एक (प्राश्निक-परीक्षक। निर्णायक। मध्यस्थ।-आप्टे) स्थान पर रहने वाले को नित्यक कहा जाता है। • मामक, संप्रसारक ६. लिंगधारक श्रेणिबाह्य : शर्कराघट दृष्टांत आहार उवहि देहे, वीयार विहार वसहि कल गामे। पडिसेहं च ममत्तं, जो कुणति मामतो सो उ॥ लिंगेण निग्गतो जो, पागडलिंग धरेइ जो समणो। .......", ममाई निक्कारणोवयति॥ किध होइ णिग्गतो त्ति य, दिर्सेतो सक्करकुडेहिं ॥ अस्संजयाण भिक्खू, कज्जे अस्संजमप्पवत्तेसु। दाउं हिट्ठा छारं, सव्वत्तो कंटियाहि वेढित्ता। जो देती सामत्थं, संपसारओ सो य णायव्वो॥ सकवाडमणाबाधे, पालेति तिसंझमिक्खंतो॥ गिहिणिक्खमणपवेसे, आवाह विवाह विक्कय कए वा। मुई अविद्दवंतीहिं कीडियाहिं स चालणी चेव। जज्जरितो कालेणं, पमायकुडए निवे दंडो॥ गुरुलाघवं कहेंते, गिहिणो खलु संपसारीओ॥ निवसरिसो आयरितो, लिंग मुद्दा उ सक्करा चरणं। (निभा ४३५९-४३६२) पुरिसा य होंति साहू, चरित्तदोसा मुयिंगाओ। ० मामक-जो आहार, उपधि, देह, विचारभूमि, विहारभूमि, शय्या, कुल, ग्राम-इन सब पर ममत्व करता है और दूसरों को इन (बृभा ४५१६-४५१९) सबके ग्रहण का निषेध करता है तथा स्थान आदि में आसक्त शिष्य ने पूछा-जो श्रमण मुनि-लिंग को छोड़ देता है, होकर उनकी निष्कारण प्रशंसा करता है, वह मामक/मामाक है। वह संयम श्रेणी से बाह्य है। परन्तु जो मुनि-लिंग को धारण ० संप्रसारक-जो गृहस्थों की असंयममय प्रवृत्तियों का पर्यालोचन किए हुए है, वह श्रेणी से बाह्य कैसे? करता है, उन्हें समर्थन देता है, उनको परामर्श देता है, यात्रा के आचार्य ने दृष्टांत देते हुए कहा-एक बार एक राजा ने लिए घर से निष्क्रमण और पुनः प्रवेश का मुहूर्त बताता है, शक्कर से भरे हुए दो घड़ों पर मुद्रा लगाकर उन्हें दो पुरुषों को Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५७१ श्रुतज्ञान सौंपते हुए कहा-इनकी सुरक्षा करना, मांगने पर लौटा देना। एक १२. आगम-वाचना में संयमपर्याय की कालमर्यादा पुरुष ने उस घट के नीचे राख लगाकर, उसे कंटिकाओं से ० संयमपर्याय की कालमर्यादा क्यों? वेष्टित कर कपाटयुक्त निर्बाध प्रदेश में रख दिया और तीनों * उत्क्रम से आगमवाचना का निषेध द्र वाचना संध्याओं में उसकी देखभाल करता रहा। दूसरे पुरुष ने शर्कराघट * अपरिणामक"वाचना के अयोग्य द्र अंतेवासी को कीटिकानगर के पास स्थापित कर दिया। शक्कर की गंध से * छेदसूत्रपठन के योग्य द्र छेदसूत्र समागत चींटियों ने मद्रा को विद्रवित नहीं किया. नीचे से घट |१३. श्रुत का उद्देश-समुद्देश-अनुज्ञा-काल को चालनी कर दिया और उस जर्जरित बने घट में से सारी * सर्वश्रुत का अनुयोग द्र अनुयोग शक्कर खा डाली। कुछ समय पश्चात् राजा ने घड़े मंगवाये। * आगाढ-अनागाढयोग : स्वाध्यायभूमि द्र स्वाध्याय * जिनकल्प, परिहारतप, पारांचित, प्रतिमा प्रथम पुरुष को पुरस्कृत किया, दूसरे पुरुष को प्रमाद करने के कारण दण्डित किया। इसी प्रकार मुद्रा रूपी मुनि-लिंग होने पर और स्थविरकल्प में श्रुतअर्हता द्र सम्बद्ध नाम भी प्रमादयुक्त साधु का शक्कर रूपी चारित्र अपराध रूप चींटियों |१४. जीव में श्रुत की भजना से नष्ट हो जाता है। जो संयमश्रेणी में आरूढ़ होता है, वह ० अकेवली भी केवलीतुल्य * गीतार्थ और केवली : प्रज्ञप्ति में तुल्य द्र गीतार्थ यदा-कदा प्रमाद करके भी संभल जाता है। * चतुर्दशपूर्वी की विलक्षणताएं द्र आगम श्रावक-सम्यग्दृष्टि। व्रती द्र संज्ञी ० श्रुतज्ञान तृतीयनेत्र * प्रतिमाधारी श्रावक द्र उपासकप्रतिमा |१५. श्रुत को प्रमाण मानने वाला प्रमाणभूत * श्रुतसम्पदा द्र गणिसम्पदा श्रुतज्ञान-शब्द,शास्त्र, संकेत, प्रकम्पन आदि के माध्यम से * आचार्य की अवज्ञा से श्रत की हानि द्र आचार्य होने वाला ज्ञान। * श्रुत व्यवहार का स्वरूप द्र व्यवहार १६. श्रुतग्रहण हेतु वृद्धवास की अनुज्ञा १. श्रुत के कर्ता कौन? * ज्ञानहेतु उपसम्पदा द्र उपसम्पदा ___ * श्रुतज्ञान : परोक्षज्ञान द्रज्ञान १७. श्रुत-स्वाध्याय की निष्पत्ति २. श्रुतज्ञान के हेतु | * श्रुतपरावर्तन से कालज्ञान द्र जिनकल्प ३. द्रव्यश्रुत-भावश्रुत १८. अप्रमाद से श्रुतज्ञान की वृद्धि ४. अक्षर श्रुत का एक भेद : संज्ञाक्षर १. श्रुतज्ञान के कर्ता कौन? ५. अक्षर-उपलब्धि-अनुपलब्धि : संज्ञी-असंज्ञी ६. अक्षर-अनक्षरश्रुत की पूर्वता तं पुण केण कतं तू, सुतनाणं जेण जीवमादीया। . ७. सपर्यवसित श्रृत : देवभव में श्रुतग्रंथों की स्मृति नजंति सव्वभावा, केवलनाणीण तं तु कतं॥ ___ * गमिक-अगमिक श्रुत द्र आगम (व्यभा ४०४९) ८. तित्थोगाली में पूर्व-विच्छेद-विवरण वह श्रुतज्ञान किसके द्वारा कृत है, जिसके बल पर परोक्षज्ञानी * उत्थानश्रुत आदि का अतिशय द्र स्वाध्याय भी प्रत्यक्षज्ञानी की भांति जीव, अजीव आदि सभी भावों को जान , * स्वप्नभावना ग्रंथ द्र स्वप्न लेते हैं? वह केवलज्ञानी द्वारा कृत है। ९. सूत्रग्रहण-प्रतिबोध : गज-श्लीपदी दृष्टांत २. श्रुतज्ञान के हेतु |१०. बारह वर्ष सूत्रग्रहण, बारह वर्ष अर्थग्रहण मतिविसयं मतिनाणं, मतिपुव्वं पुण भवे सुयन्नाणं। ११. सूत्र-अर्थ"कल्पिक : आर्यवज्र दृष्टांत तं पुण समतिसमुत्थं, परोवदेसा व सव्वं पि॥ : Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान आगम विषय कोश-२ मतिज्ञानं 'मतिविषयं' मत्यनुसारि, यस्य यादृशी मतिस्तस्य तदनुसारं मतिज्ञानं प्रवर्तते। .. मतिपूर्वं' मति- कारणकम्, श्रुतज्ञानं हि वाच्यवाचकभावेन शब्दप्लावितस्यार्थस्य ग्रहणम्, वाच्यवाचकभावेन च शब्दः प्रवर्त्तते मत्यवधारितेऽर्थे । "स्वमतिसमुत्थं प्रत्येकबुद्धानां पदानुसारिप्रज्ञानां वा, परोपदेशसमुत्थमस्मदादीनाम्। (बृभा ४१ वृ) मतिज्ञान मतिविषयक-मत्यनुसारी है-जिसकी जैसी मति होती है, उस मति के अनुसार उसका मतिज्ञान प्रवर्तित होता है। श्रुत मतिपूर्वक होता है-मतिज्ञान श्रुतज्ञान का कारण है।वाच्यावाचक भाव से शब्दप्लावित अर्थ का ग्रहण श्रुतज्ञान है। वाच्य-वाचक संबंध से मति से अवधारित अर्थ में शब्द प्रवृत्त होता है। सम्पूर्ण मूल भेदों की अपेक्षा से श्रुतज्ञान दो प्रकार का है१. स्वमतिसमुत्थ-अपनी मति से उत्पन्न, जैसे—प्रत्येकबुद्धों अथवा पदानुसारी प्रज्ञा वालों का श्रुतज्ञान। २. परोपदेशसमुत्थ-गुरु आदि के उपदेश से प्राप्त श्रुतज्ञान, जैसेहमारा श्रुतज्ञान। ३. द्रव्यश्रुत-भावश्रुत दव्वसुयं पत्तग-पुत्थएसु जं पढइ वा अणुवउत्तो। आगम-नोआगमओ, भावसुयं होइ दुविहं तु॥ आगमओ सुयनाणी, सुओवउत्तो य होइ भावसुयं। सो सुयभावाऽणन्नो, सुयमवि उवओगओऽणनं॥ जं तं दुसत्तगविहं, तमेव नोआगमो सुर्य होइ। सामित्तासंबद्धं, समिईसहियस्स वा जं तु॥ (बृभा १७५-१७७) द्रव्यश्रुत-इसके दो रूप हैं-१. पत्र-पुस्तकों में न्यस्त अक्षर। २. उपयोगरहित अवस्था में पढना। भावश्रुत-इसके दो प्रकार हैं१. आगमतः भाव श्रुत-श्रुतज्ञान में उपयुक्त श्रुतज्ञानी। श्रुतज्ञानी श्रतभाव से अनन्य है तथा श्रुत भी उपयोग से अनन्य है। २. नोआगमत: भाव श्रुत-श्रुत के चौदह भेद। वे भेद स्वामित्व से असंबद्ध, स्वतंत्र हैं। अथवा समिति सहित उपयोगवान् व्यक्ति का जो श्रुत है, वह भी नोआगमतः भावश्रुत है। * श्रुतज्ञान के चौदह भेद द्र श्रीआको १ श्रुतज्ञान ४. अक्षरश्रुत का एक भेद : संज्ञाक्षर संठाणमगाराई, अप्याभिप्यायतो व जं जस्स।.... (बृभा ४४) अकार आदि अक्षरों के (लिपिभेद के कारण) विविध संस्थान-आकार (यथा-अर्धचन्द्राकृति टकार, घटाकृति ठकार) अथवा स्वाभिप्रायकृत चिह्नविशेष संज्ञाक्षर है। ५. अक्षर-उपलब्धि-अनुपलब्धि : संज्ञी-असंज्ञी अच्चंता सामन्ना, य विस्सुती होइ अणुवलद्धीओ। सारिक्ख विवक्खोभय, उवमाऽऽगमतो य उवलद्धी। अत्थस्स दरिसणम्मि वि, लद्धी एगंततो न संभवइ। दहूं पि न याणंते, बोहिय पंडा फणस सत्त। अत्थस्स उग्गहम्मि वि, लद्धी एगंततो न संभवति। सामन्ना बहुमझे, मासं पडियं जहा दटुं॥ अत्थस्स वि उवलंभे, अक्खरलद्धी न होइ सव्वस्स। पुव्वोवलद्धमत्थे, जस्स उ नामं न संभरति॥ सारिक्ख-विवक्खेहि य, लभति परोक्खे वि अक्खर कोइ। सबलेर-बाहुलेरा, जह अहि-नउला य अणुमाणे॥ एगत्थे उवलद्धे, कम्मि वि उभयत्थ पच्चओ होइ। अस्सतरि खर-ऽस्साणं, गुल-दहियाणं सिहरिणीए॥ पुव्वं पि अणुवलद्धो, धिप्पइ अत्थो उ कोइ ओवम्मा। जह गोरेवं गवयो, किंचिविसेसेण परिहीणो॥ अत्तागमप्पमाणेण अक्खरं किंचि अविसयत्थे वि। भवियाऽभविया कुरवो, नारग दियलोय मोक्खो य॥ ओसन्नेण असन्नीण अत्थलंभे वि अक्खरं नत्थि। अत्थो च्चिय सन्नीणं, तु अक्खरं निच्छए भयणा ॥ (बृभा ४६-५४) अक्षर-अनुपलब्धि के तीन प्रकार हैं१. अत्यन्त अनुपलब्धि-पदार्थ को देखने पर भी उसके वाचक अक्षरों की उपलब्धि एकान्ततः नहीं होती। जैसे-बोधिक (पश्चिमदिग्वासी म्लेच्छ) पनस को और पांडुमथुरावासी सत्तुओं २. सामान्य से अनुपलब्धि-पदार्थ का अवग्रह हो जाने पर भी अन्य पदार्थ की सदृशता के कारण उसकी एकान्तत: उपलब्धि Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ नहीं होती। जैसे- अनेक धान्यों के मध्य पड़े उड़द को देखकर भी अन्य धान्य के साथ उसकी सदृशता के कारण उसकी एकान्ततः उपलब्धि नहीं होती । ३. विस्मृति से अनुपलब्धि- पहले या पीछे अर्थ की उपलब्धि होने पर भी उसके वाचक नाम की विस्मृति के कारण सम्पूर्ण अर्थ का अक्षरलाभ नहीं होता। अक्षर- उपलब्धि के पांच प्रकार हैं १. सदृशता से – कोई शाबलेय को देखकर परोक्षवर्ती बाहुले को सदृशता के कारण जान लेता है। २. विपक्षता से - सर्प को देखकर नकुल का और नकुल देखकर सर्प का अनुमान हो जाता है। ३. उभयधर्म दर्शन से - अश्वतर - खच्चर को देखकर गधे और अश्व दोनों का तथा शिखरिणी को प्राप्त कर गुड़ और दही - दोनों का अक्षरलाभ होता है। ४. औपम्य से - कोई वस्तु पूर्व में अनुपलब्ध होने पर भी औपम्य से जान ली जाती है। यथा-गौ की तरह गवय होता है, केवल उसके गलकम्बल नहीं होता - व्यक्ति ऐसा सुनकर कालांतर में प्रथम बार गवय को देखकर भी जान लेता है कि यह गवय है। ५. आगम से - छद्मस्थ के ज्ञान का विषय न होने पर भी आप्तागमप्रामाण्य के कारण उन-उन वस्तुओं का अक्षरलाभ होता है। जैसे- भव्य, अभव्य, देवकुरु, नारक, स्वर्ग, मोक्ष आदि । असंज्ञी जीवों को पदार्थ का लाभ होने पर भी अक्षर का लाभ निश्चित रूप से नहीं होता (शंख का शब्द सुनने पर भी उन्हें यह लब्धि उत्पन्न नहीं होती कि यह शंख का शब्द है) । संज्ञी जीवों को अर्थ की उपलब्धि के साथ ही अक्षरलाभ होता है। यह शंख का ही शब्द है - इस प्रकार के निर्णय में भजना है - वह कभी हो भी जाता है, कभी नहीं भी होता । ६. अक्षर - अनक्षरश्रुत की पूर्वता सुणतीति सुयं तेणं, सवणं पुण अक्खरेयरं चेव । तेणऽक्खरेयरं वा, सुयनाणे होति ५७३ पुव्वं तु ॥ (बृभा १४७) प्रतिपत्ता उच्यमान शब्द को सुनता है, इस कारण से वह श्रुतज्ञान श्रुत कहलाता है। श्रवण अक्षर-अनक्षर का होता है, अतः श्रुत के चौदह भेदों में अक्षर - अनक्षर श्रुत को प्रथम स्थान प्राप्त है। ७. सपर्यवसितश्रुत: देवभव में श्रुतग्रंथों की स्मृति पणगं खलु पडिवाए, तत्थेगो देवभवमासज्ज । मणुये रोग - पमाया, केवल-मिच्छत्तगमणे वा ॥ चउदसपुव्वी मणुओ, देवत्ते तं न संभरइ सव्वं । देसम्म होइ भयणा, सट्ठाण भवे वि भयणा उ ॥ कश्चित् पुनरेकादशस्वप्यंगेषु सर्वं स्मरति, कश्चितेषामपि देशम् । (बृभा १३७, १३८ वृ) एक पुरुष की अपेक्षा श्रुत के सपर्यवसित होने के पांच हेतु हैं - १. देवभव में गमन, २. मनुष्यभव में रोगोत्पत्ति, ३ . प्रमाद अथवा विस्मृति, ४. केवलज्ञान की उत्पत्ति, ५. मिथ्यादर्शन में गमन । चतुर्दशपूर्वी मनुष्य को देवत्व की प्राप्ति होने पर सम्पूर्ण श्रुत की स्मृति नहीं रहती। इसका हेतु है- विषयप्रमाद में लीनता के कारण उसमें तथाविध उपयोग का अभाव। देश- श्रुत-स्मरण में भजना है - किसी को एक देश (अंश) की स्मृति रहती है तो किसी को देश के भी देश की और किसी को सम्पूर्ण ग्यारह अंगों भी स्मृति रह जाती है तो किसी को उनका भी एक देश याद रहता है। स्वस्थान - मनुष्यभव में भी श्रुतपतन की भजना है - रोग उत्पन्न होने पर तीव्र पीड़ा के कारण स्मृति उपहत हो जाने से सीखा हुआ श्रुत विस्मृत हो जाता है। परिवर्तना के अभाव में प्रमाद से अधीत श्रुत नष्ट हो जाता है। केवलज्ञान उत्पन्न होने पर श्रुतज्ञान कृतकृत्य हो जाता 1 तत्त्वश्रद्धा के विपरीत होने पर सर्वश्रुत का अभाव हो जाता 1 ८. तित्थोगाली में पूर्व-विच्छेद-विवरण तित्थोगाली एत्थं वत्तव्वा होति आणुपुव्वीए । जो जस्स उ अंगस्सा, वुच्छेदो जहि विणिद्दिट्ठो ॥ (व्यभा ४५३२) तित्थोगाली में जिस अंगआगम का जब विच्छेद हुआ, उसका विवरण है। जो व्यक्ति पूर्वविच्छेद के साथ व्यवहार चतुष्क Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान ५७४ आगम विषय कोश-: (आगम आदि) का लोप मानते हैं, उनके समक्ष उनके प्रत्यय के शस्य को असंयम के पंक में मर्दित कर देता है। लिए तित्थोगाली का क्रमशः कथन करना चाहिए। शिष्य कहता है-भंते! रोग से पीड़ित व्यक्ति वैद्य को ही ९. सूत्रग्रहण-प्रतिबोध : गज-श्लीपदी दृष्टांत .. उसका उपचार पूछता है किन्तु वह स्वयं वैद्य-संहिता (आयुर्वेद) पव्वइओऽहं समणो, निक्खित्तपरिग्गहो निरारंभो। कोई ना को नहीं पढ़ता। आप भी कर्मरूप रोग के ज्ञाता हैं। मैं आपको इति दिक्खियमेकमणो, धम्मधुराए दढो होमि॥ पूछकर सब कार्य संपादित कर लूंगा। गुरु कहते हैं-यद्यपि रोगी समितीसु भावणासु य, गुत्ती-पडिलेह-विणयमाईसु। चिकित्सक को पूछे बिना स्वयं कोई उपचार नहीं करता, किन्तु यदि उसका उपचारक्रिया के परिज्ञान में अधिकार है, तो वैद्य से लोगविरुद्धेसु य बहुविहेसु लोगुत्तरेसुं च॥ बार-बार पूछना नहीं पड़ता। उसी प्रकार तुम भी सूत्र पढ़कर तत्त्व जुत्त विरयस्स सययं, संजमजोगेसु उज्जयमइस्स। किं मझं पढिएणं, भण्णइ सुण ता इमे नाए॥ को जानो और वैसा करो, जिससे पुन:-पुनः पूछना न पड़े। जह ण्हाउत्तिण्ण गओ, बहुअतरं रेणुयं छुभइ अंगे। * श्रुत-श्रवण-ग्रहणविधि द्र श्रीआको १ शिक्षा सुट्ट वि उज्जममाणो, तह अण्णाणी मलं चिणइ॥ १०. बारह वर्ष सूत्रग्रहण, बारह वर्ष अर्थग्रहण जं सिलिपई निदायति, तं लाएति चलणेहिं भूमीए। ...... सुत्तग्गहणं ताहे, करेइ सो बारस समाओ॥ एवमसंजमपंके, चरणसई लाइ अमुणितो॥ ....."बारस चेव समाओ, अत्थं.....॥ भणइ जहा रोगत्तो, पुच्छति वेज्जं न संघियं पढइ। (बृभा १२१८, १२२०) इय कम्मामयवेज्जे, पुच्छिय तज्झे करिस्सामि॥ शिष्य गुरु के पास बारह वर्ष पर्यंत सूत्रों का अध्ययन करता भण्णइ न सो सयं चिय, करेति किरियं अपुच्छिउँ रोगी। नायव्वे अहिगारो, तुमं पि नाउं तहा कुणसु॥ है। तत्पश्चात् वह बारह वर्ष उनका अर्थ ग्रहण करता है। ..... अत्थग्गहणमराला, तेहिं चिय पन्नविजंति॥ (बृभा ११४४-११५०) भो भद्राः! निर्दोष-सारवद्-विश्वतोमुखादयः सूत्रस्य (यदि कोई मुनि प्रव्रजित होकर आसेवन शिक्षा का अभ्यास गुणा भवन्ति, ते च यथाविधि गुरुमुखादर्थे श्रूयमाण एव कर लेता है किन्तु ग्रहण शिक्षा की आराधना नहीं करता और प्रकटीभवन्ति। किञ्च यथा द्वासप्ततिकलापण्डितो मनुष्यः कहता है-) 'मैं प्रव्रजित हूं, श्रमण हूं, आरंभ और परिग्रह से प्रसुप्तः सन्न किञ्चिद् तासां कलानां जानीते एवं सूत्रमुक्त हूं। मैं एकाग्रमन होकर धर्मधुरा-धर्मचिन्ता (धर्मध्यान) में मप्यर्थेनाऽबोधितं सुप्तमिव द्रष्टव्यम्। विचित्रार्थनिबद्धानि निष्कम्प हूं। समिति, गुप्ति, भावना, प्रत्युपेक्षण, विनय-वैयावृत्त्य सोपस्काराणि च सूत्राणि भवन्ति, अतो गुरुसम्प्रदायादेव आदि में प्रयत्नवान् हूं। मैं लोकविरुद्ध तथा बहुविध लोकोत्तरविरुद्ध यथावदवसीयन्ते न यतस्ततः। इत्थं युक्तियुक्तैर्वचोभिः कार्यों से निवृत्त हूं, संयमयोगों में सतत उद्यमशील हूं तो फिर मुझे प्रज्ञापितास्ते विनेयाः प्रतिपद्यन्ते गुरूणामुपदेशम्, गृह्णन्ति पठन-पाठन (ग्रहण शिक्षा) की आवश्यकता ही क्या है?' तब द्वादश वर्षाणि विधिवदर्थम्। (बृभा १२२२ वृ) गुरु ने कहा-सुनो ये दो दृष्टांत१. गजस्नान-जिस प्रकार हाथी नदी में स्नान कर बाहर आकर जो अर्थग्रहण में आलसी हैं, उन्हें गुरु प्रज्ञप्ति देते हैं-भद्र अपनी ही सूंड से बहुत सी धूलि उठाकर अपने शरीर पर डाल शिष्यो! निर्दोष, सारयुक्त, विश्वतोमुख आदि जो सूत्र के गुण हैं, लेता है, उसी प्रकार अत्यधिक उद्यमशील होने पर भी अज्ञानी वे गुरुमुख से यथाविधि अर्थ सुनने पर ही प्रकट होते हैं। बहत्तर जीव कर्मरजों का संचय कर लेता है। कलाओं में प्रवीण पुरुष भी सुप्तावस्था में उनको किंचित् भी नहीं २. श्लीपदी-श्लीपद (फीलपांव) रोग से ग्रस्त व्यक्ति धान्य जानता, इसी प्रकार अर्थबोध के बिना सूत्र सुप्त की तरह ही है। का निदाण करता है तो धान के दाने उसके भारी पैरों से कुचले . सूत्रों में विभिन्न अर्थ निबद्ध होते हैं। सूत्र परिकर्म सहित जाकर पृथ्वी के लग जाते हैं। इसी प्रकार अज्ञानी मुनि चारित्ररूपी होते हैं (द्र श्रीआको १ दृष्टिवाद)।अत: उनका अवबोध गुरुपरम्परा Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५७५ श्रुतज्ञान से ही हो सकता है, यत्र-तत्र नहीं। इस प्रकार युक्तियुक्त वचनों अध्ययन विहित है, उनको पढ़ लेने पर वह सर्वसूत्रकल्पिक बन से प्रज्ञापित शिष्य बारह वर्षों तक विधिवत् अर्थग्रहण करते हैं। जाता है। भाव से परिणत (परिणामी) शिष्य निशीथ तथा अन्यान्य सुत्तम्मि य गहियम्मी, दिटुंतो गोण-सालिकरणेणं। अपवादबहुल अध्ययनों और अरुणोपपात आदि अतिशायी अध्ययनों उवभोगफला साली, सुत्तं पुण अत्थकरणफलं॥ का ज्ञाता हो जाता है। (बृभा १२१९) शिष्य ने पूछा-प्रव्रज्या के तीन वर्ष पूरे नहीं हुए और मुनि ने आचारांगपर्यंत पढ़ लिया, फिर वह क्या करे? आचार्य ने सूत्रग्रहण के पश्चात् अर्थग्रहण अवश्य हो । सूत्र का फल कहा-वत्स! मुनि पढ़े हुए सूत्रों से और अधिक परिचित हो __ है अर्थ का ग्रहण। इस विषय में दो दृष्टांत हैं जाए। अथवा उनका अर्थ ग्रहण करे। अथवा प्रकीर्णकसत्रों के सूत्रों १. बलिवर्द-बैल सरस-नीरस चारि को बिना स्वाद लिए ही खा को तथा अर्थ को धारण करे। इस प्रकार अंगों तथा अतिशायी लेता है। वह तृप्त होने के बाद बैठकर उसकी जुगाली करता हुआ अध्ययनों का जब तक कल्पिक होता है, तब तक यह क्रम है। इस स्वाद का अनुभव करता है, उसमें जो कचवर होता है, उसका संदर्भ में जाहक-दृष्टांत है। (द्र श्रीआको १ परिषद्) परित्याग कर सार को ग्रहण कर लेता है। इसी प्रकार मुनि गुरु के अर्थकल्पिक-आवश्यक से लेकर सूत्रकृतांग तक के आगमों के पास सम्पूर्ण सूत्र को ग्रहण करता है, तत्पश्चात् अर्थ का ग्रहण अर्थ का ज्ञाता। सूत्रकृतांग से आगे छेदसूत्रों को छोड़कर जितने करता है। बिना अर्थ के सूत्र स्वादरहित भोजन के तुल्य होता है। सूत्रों का अध्ययन किया है, उतने सत्रों के समग्र अर्थ का २. शालिकरण-कृषक अत्यंत परिश्रम से शालि का उत्पादन कल्पिक होता है । छेदसूत्रों को पढ़ लेने पर भी जब तक मुनि करता है। फिर वह उनका लवन, मलन आदि कर उन्हें उपभोग भावतः परिणत नहीं हो जाता, तब तक वह उनके अर्थ का के योग्य बनाकर कोष्ठागार में डाल देता है। जब वह उनका कल्पिक नहीं हो सकता। यथायोग्य उपभोग करता है, तब वह संग्रह सफल होता है। इसी ० तदुभयकल्पिक-जो सूत्र और अर्थ को युगपद् ग्रहण करने में प्रकार अर्थग्रहण से सूत्रग्रहण का श्रम सफल होता है। समर्थ है । अथवा जिसके द्वारा सूत्र, अर्थ और तदुभय-इन तीनों ११. सूत्र-अर्थ-तदुभयकल्पिक : आर्यवज्र दृष्टांत स्थानों में से एक से दूसरा स्थान अधिक गृहीत हो, वह मुनि। सुत्तस्स कम्पितो खलु, आवस्सगमादि जाव आयारो। जैसे-सूत्र से अर्थ की अधिकता, अर्थ से तभय की अधिकता। तेण पर तिवरिसादी, पकप्पमादी य भावेणं॥ तदुभयकल्पिक प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा और पापभीरु होता है। सुत्तं कुणति परिजितं, तदत्थगहणं पइण्णगाई वा। आर्यवज्र-दृष्टांत-आर्य वज्र ने बचपन में सूत्रश्रवण किया। दीक्षा इति अंगऽज्झयणेसुं, होति कमो जाहगो नायं ॥ के पश्चात् उन्हें उसी दिन उद्देश-समुद्देश-अनुज्ञा और दूसरे प्रहर अस्थस्स कप्पितो खलु, आवासगमादि जाव सूयगडं। में अर्थ की वाचना दी गई। मोत्तूणं छेयसुयं, जं जेणऽहियं तदट्ठस्स॥ तीन प्रकार के मुनियों को सूत्र और अर्थ की युगपत् वाचना दी जा तदुभयकप्पिय जुत्तो, तिगम्मि एगाहिएसु ठाणेसु। सकती है-१. जिसे पूर्वभव में पढ़े हुए श्रुत की स्मृति हो। पियधम्मऽवज्जभीरू, ओवम्मं अज्जवइरेहिं॥ २.बचपन में जिसने श्रुतश्रवण किया हो। ३. जिसकी मेधा/श्रुतधारण पुव्वभवे वि अहीयं, कण्णाहडगं व बालभावम्मि। की क्षमता उत्कृष्ट हो। उत्तममेहाविस्स व, दिज्जति सुत्तं पि अत्थो वि॥ * श्रतग्रहण की प्रक्रिया द्र श्रीआको १ बुद्धि (बृभा ४०६-४१०) १२. आगमवाचना में संयमपर्याय की कालमर्यादा सूत्रकल्पिक-आवश्यक से लेकर आचारांग पर्यंत सूत्रों का ज्ञाता। तिवासपरियायस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ आयारइनके अध्ययन में प्रव्रज्या-वर्षों की कोई सीमा नहीं है। उसके बाद पकप्पं नामं अज्झयणं उद्दिसित्तए॥ चउवासपरियायस्स" मुनिपर्याय के तीन वर्ष से बीस वर्ष पर्यंत जिन-जिन सूत्रों का सयगडे नामं अंगे"॥पंचवासपरियायस्स"दसाकप्पववहारे"॥ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान अट्ठ वासपरियायस्सठाण - समवाए नामं अंगे ॥ दसवासपरियायस्स वियाहे नामं अंगे उद्दिसित्तए || एक्कारसवासपरियायस्स खुड्डिया विमाणपविभत्ती महल्लिया विमाणपविभत्ती अंगचूलिया वग्गचूलिया वियाहचूलिया नामं अज्झयणे उद्दिसित्तए ॥ बारसवासपरियायस्स" अरुणोववाए वरुणोववाए गरुलोववाए धरणोवाए वेसमणोववाए वेलंधरोववाए नामं अज्झयणे... | तेरसवासपरियायस्स“उद्वाणसुए समुट्ठाणसुए देविंदोववाए नागपरियावणिए नामं अज्झयणे ॥ चोद्दसवासपरियायस्स सुविणभावणा नामं अज्झयणं ॥ पण्णरसवासपरियायस्स"चारणभावणा नामं अज्झयणं... ॥ सोलसवासपरियायस्सतेयनिसग्गं नामं अज्झयणं । सत्तरसवासपरियायस्स.. आसीविसभावणानामं अज्झयणं.... ॥ अट्ठारसवासपरियायस्स....दिट्ठीविसभावणानामं अज्झयणं ॥ एगूणवीसवासपरियायस्स कप्पइ दिट्ठिवायनामं अंगं उद्दिसित्तए॥ वीसवासपरियाए समणे निग्गंथे सव्वसुयाणुवाई भव ॥ (व्य १०/२५-३९) तीन वर्ष के दीक्षापर्याय वाले श्रमण निर्ग्रन्थ को आचारप्रकल्प अध्ययन पढ़ाया जा सकता है। इसी प्रकार सूत्रकृतांग आदि के पारायण में दीक्षापर्याय की कालसीमा निर्धारित है। बीस वर्ष का दीक्षित श्रमण निर्ग्रन्थ सर्वश्रुतानुपाती होता है (सम्पूर्ण श्रुतग्रन्थों की वाचना लेने योग्य हो जाता है ) । संयमपर्याय श्रुतग्रन्थ तीन वर्ष आचारप्रकल्प (निशीथ ) अध्ययन सूत्रकृतांग चार वर्ष पांच वर्ष दशाश्रुतस्कंध, कल्प और व्यवहार स्थानांग, समवायांग आठ वर्ष दस वर्ष व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती ) ग्यारह वर्ष बारह वर्ष लघुविमानप्रविभक्ति, महाविमानप्रविभक्ति, अंगचूलिका, वर्गचूलिका, व्याख्याचूलिका अरुणोपपात, वरुणोपपात, गरुड़ोपपात, धरणोपपात, वैश्रमणोपपात, वेलंधरोपपात ५७६ तेरह वर्ष चौदह वर्ष पन्द्रह वर्ष सोलह वर्ष सतरह वर्ष अठारह वर्ष उन्नीस वर्ष बीस वर्ष o ० आगम विषय कोश- २ उत्थानश्रुत, समुत्थानश्रुत, देवेन्द्रोपपात और नागपरिज्ञापनिका अध्ययन स्वप्नभावना अध्ययन चारण भावना अध्ययन तेजोनिसर्ग अध्ययन आशीविषभावना अध्ययन दृष्टिविषभावना अध्ययन दृष्टिवाद सर्वश्रुत अंगचूलिका-उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण और विपाकश्रुत- इन पांच अंगों की क्रमशः पांच चूलिकाएं हैं - निरयावलिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा । वर्गचूलिका - महाकल्पश्रुत की चूलिका । • व्याख्याचूलिका - व्याख्याप्रज्ञप्ति की चूलिका । • संयमपर्याय की कालमर्यादा क्यों ? चउवासो गाढमती, न कुसमएहिं तु हीरते सो उ । पंचवरिसो उ जोग्गो, अववायस्स त्ति तो देंति ॥ पंचहुवरि विगो, सुतथेरा जेण तेण उ विगट्ठो । ठाणं महिड्डियं ति य, तेण दसवासपरियाए ॥ (व्यभा ४६५६, ४६५७) अंगाणमंगचूली, महकप्पसुतस्स वाहचूलिया पुण, पण्णत्तीए वग्गचूलीओ । मुणेयव्वा ॥ (व्यभा ४६५९) चार वर्ष के दीक्षित मुनि की धर्म में दृढ़ता हो जाती है । कुसिद्धान्तों से उसका चित्त अपहृत नहीं होता, अतः उसके लिए सूत्रकृतांग का उद्देशन अनुज्ञात है। सूत्रकृतांग में तीन सौ तिरेसठ मतवादों का प्ररूपण है। उसके अध्ययन से नवदीक्षित मुनि का मतभेद हो सकता है 1 पांच वर्ष का दीक्षित मुनि अपवादपदों का ज्ञाता हो जाता है, अतः वह दशा - कल्प व्यवहार पढ़ सकता है। पांच वर्ष से ऊपर का पर्याय 'विकृष्ट' कहलाता है। स्थानधर और समवायधर Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५७७ श्रुतज्ञान मुनि श्रुतस्थविर कहलाता है, अतः स्थानांग-समवायांग अध्ययन (प्राचीन काल में अध्ययन के स्रोत थे गुरु। शास्त्र लिखे के लिए विकृष्ट पर्याय का ग्रहण किया गया है। नहीं जाते थे। उन्हें कण्ठस्थ रखने की परम्परा थी। इस स्थिति में स्थानांग और समवायांग समृद्ध ग्रन्थ हैं। उनसे बारह ही अध्ययन की गुरुगम व्यवस्था का विकास हुआ, उसका प्रतिपादन अंगों की सूचना मिलती है, अत: उनसे परिकर्मित मति वाला उद्देश (पढने की आज्ञा), समुद्देश (पठित ज्ञान के स्थिरीकरण का दस वर्ष का दीक्षित मुनि व्याख्याप्रज्ञप्ति के अध्ययन के योग्य निर्देश), अनुज्ञा (अध्यापन की आज्ञा) और अनुयोग (व्याख्या)हो जाता है। इन चार पदों द्वारा किया गया है। विद्यार्थी शिष्य पहले गुरु की १३. श्रुत का उद्देश-समुद्देश-अनुज्ञा काल आज्ञा प्राप्त करता। फिर वह परिवर्तना के द्वारा पढे हुए ज्ञान को थवथुतिधम्मक्खाणं, पुवद्दिष्टुं तु होति संझाए। स्थिर रखने का अभ्यास करता। तीसरे चरण में उसे अध्यापन की कालियकाले इतरं त पवटि विगिटे वि अनुमति प्राप्त होती। चौथे चरण में उसे व्याख्या करने की स्वीकृति पत्ताण समुद्देसो, अंगसुतक्खंध पुव्वसूरम्मि।..... मिलती।"-अनु सू २ टि) दिवसस्स पच्छिमाए, निसिं तु पढमाय पच्छिमाए वा। १४. जीव में श्रृतज्ञान की भजना उद्देसज्झयऽणुण्णा, न य रत्ति निसीहमादीणं॥ नियमा सुयं तु जीवो, जीवे भयणा उ तीसु ठाणेसु। आदिग्गहणा दसकालिओत्तरज्झयण चुल्लसुतमादी। सुयनाणि सुयअनाणी, केवलनाणी व सो होज्जा॥ एतेसि भइयऽणुण्णा, पुव्वण्हे वावि अवरण्हे॥ (बृभा १३९) अध्ययनमुद्देशं वा पठन्तो यदैव श्रवणं प्राप्ता भवन्ति, श्रुतज्ञान नियमतः जीव है। जीव में तीन स्थानों से श्रुतज्ञान तदैव तस्याध्ययनस्योद्देशस्य वा समुद्देशः क्रियते।. पूर्वसूरे' की भजना है-वह कभी श्रुतज्ञानी होता है, कभी श्रुतअज्ञानी उद्घाटायामपि पौरुष्याम्"। (व्यभा ३०३४-३०३७ वृ) होता है और कभी केवलज्ञानी होता है। पूर्व उद्दिष्ट स्तव, स्तुति और धर्माख्यान संध्यावेला में भी पठनीय होते हैं। प्रथम पौरुषी में उद्दिष्ट कालिकश्रुत काल (प्रथम ० अकेवली भी केवलितुल्य एवं चरम पौरुषी) में पठनीय है। प्रथम पौरुषी में उद्दिष्ट उत्कालिक .गीयत्थो..."अकेवली वि केवलीव भवति। अहवा श्रुत व्यतिकृष्ट काल में भी पढ़ा जा सकता है, किन्तु संध्या और केवली तिविधो-सुयकेवली अवधिकेवली केवलिकेवली। अस्वाध्यायिक का वर्जन आवश्यक है। (निभा ४८२० की चू) उद्देशक या अध्ययन का जब भी श्रवण प्राप्त होता है, गीतार्थ-श्रुतज्ञानी अकेवली होते हुए भी केवली के समान तभी उसका समुद्देश किया जाता है। अंग अथवा श्रुतस्कंध की होता है। अथवा केवली तीन प्रकार के होते हैं-श्रुतकेवली, पूर्वसूर (उद्घाटा पौरुषी) में अनुज्ञा हो सकती है। अवधिज्ञानकेवली, केवलज्ञानकेवली। उद्देशक और अध्ययनों की अनुज्ञा दिन की पश्चिम (चरम) पौरुषी तथा रात्रि की प्रथम या पश्चिम पौरुषी में प्रवर्तित होती है। १५. श्रुत को प्रमाण मानने वाला प्रमाणभूत निशीथ आदि आगाढ योगों की अनुज्ञा दिन की प्रथम और चरम जो तं जगप्पदीवहिं पणीयं सव्वभावपण्णवणं। पौरुषी में प्रवृत्त होती है, रात्रि में नहीं। ण कुणति सुतं पमाणं, ण सो पमाणं पवयणम्मि॥ ____ दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, क्षुल्लककल्पश्रुत, औपपातिक (बृभा ३६४१) आदि की अनुज्ञा वैकल्पिक है-पूर्वाह्न में भी हो सकती है, जो जगप्रदीप-अर्हत् द्वारा प्रणीत सर्वभावप्रज्ञापक श्रुत को अपराह्न में भी हो सकती है। प्रमाण रूप में स्वीकार नहीं करता, वह स्वयं प्रवचन अर्थात् * ओज-अनोज उद्देशक-काल द्र उत्सारकल्प चतुर्विध धर्मसंघ में प्रमाणभूत नहीं होता। Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान • श्रुतज्ञान तृतीयनेत्र मा एवमसग्गाहं, गिण्हसु गिण्हसु सुयं तइयचक्खु ।' सूक्ष्म-व्यवहितादिष्वतीन्द्रियार्थेषु तृतीयचक्षुः(बृभा ११५४ वृ) कल्पं श्रुतम् । गुरु ने कहा- शिष्य ! तुम श्रुत के अग्रहण का दुराग्रह मत करो। श्रुत सूक्ष्म, व्यवहित आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के ज्ञान के लिए तृतीय चक्षु के समान है। तुम उसका अनुशीलन करो। १६. श्रुतग्रहण हेतु वृद्धवास की अनुज्ञा ....... आयपरे निप्पत्ती, कुणमाणो वावि अच्छेज्जा । संवच्छरं च झरए, बारसवासाइ कालियसुतम्मि ।'' ....सोलस उ दिट्ठिवाए, गहणं झरणं दसदुवे य ॥ जे गेण्हिउं धारइउं च जोग्गा, थेराण ते देंति सहायए तु । हंति ते ठाणठितासुणं, किच्चं च थेराण करेंति सव्वं ॥ सूत्रार्थतदुभयेन निष्पत्तिं कुर्वन् वा वृद्धवासेन तिष्ठेत् ।" 'झरति' परावर्तयति । ग्रहणं झरणं बाधिकृत्य तावन्तं कालमेकत्रावतिष्ठते । (व्यभा २२९१ - २२९३, २२९७ वृ) कालिकश्रुत ग्रहण में बारह वर्ष तथा दृष्टिवादग्रहण में सोलह वर्ष लगते हैं। इन दोनों के परावर्तन में क्रमशः एक वर्ष और बारह वर्ष लगते हैं । मुनि सूत्रार्थ में स्व- परनिष्पन्नता हेतु कालिक श्रुत के लिए तेरह वर्ष और दृष्टिवाद के लिए अट्ठाईस वर्ष पर्यंत वृद्धवास में रह सकते हैं। जो 'सूत्र - -अर्थ के ग्रहण और धारण के योग्य होते हैं, उन्हें स्थविरों के पास सहायक के रूप में रखा जाता है, जिससे एक स्थान पर रहकर वे सुखपूर्वक श्रुतग्रहण करते हैं और स्थविरों के सारे कार्य सम्पादित करते हैं। १७. श्रुत-स्वाध्याय की निष्पत्ति आयहिय परिण्णा भावसंवरो नवनवो अ संवेगो । निक्कंपया तवो निज्जरा य परदेसियत्तं च ॥ ....... नाणी चरित्तगुत्तो, भावेण उ संवरो होइ ॥ जह जह सुयमोगाइ, अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं । तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसंवेगसद्धाओ ॥ .... विहरइ विसुज्झमाणो, जावज्जीवं पि निक्कंपो॥ ५७८ आगम विषय कोश-: बारसविहम्मि वि तवे, सब्भितरबाहिरे कुसलदिट्ठे । न वि अत्थि न वि अ होही, सज्झायसमं तवोकम्मं ॥ जं अन्नाणी कम्मं, खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिँ गुत्तो, खवेइ ऊसासमेत्तेण ॥ आय-परसमुत्तारो, आणा वच्छल्ल दीवणा भत्ती । होति परदेसियत्ते, अव्वोच्छित्ती य तित्थस्स ॥ (बृभा १९६२, ११६६ -- ११७१) १. श्रुत के अध्ययन से आठ गुण निष्पन्न होते हैंआत्महित - आत्महित का सम्यक् ज्ञान होता है। २. परिज्ञा - ज्ञपरिज्ञा - प्रत्याख्यानपरिज्ञा का विकास होता है। ३. भावसंवर - ज्ञानी चारित्रगुप्त होता है - यही भावसंवर है। ४. नव नव संवेग - मुनि जैसे-जैसे अतिशायी अर्थपदों के रसास्वाद से 'युक्त अपूर्व श्रुत का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे वह अपूर्वअपूर्व संवेग श्रद्धा- वैराग्यमयी घनीभूत मोक्षाभिलाषा से अपूर्व आनंद का अनुभव करता है । ५. निष्कम्पता - वह कर्ममल से विशुद्ध होता हुआ जीवनपर्यंत संयम में स्थिर चित्तवृत्ति से विहरण करता है। ६. तप - यह भावना पुष्ट होती है कि अर्हत् द्वारा उपदिष्ट द्वादशविध बाह्य और आभ्यंतर तप में स्वाध्याय के तुल्य कोई तपः कर्म न है, न था और न होगा। ७. निर्जरा - अज्ञानी जीव अनेकों कोटि वर्षों में जितने कर्मों का क्षय करता है, उतने कर्मों का क्षय त्रिगुप्त ज्ञानी उच्छ्वास मात्र में कर लेता है। ८. परदेशकत्व - श्रुत का पारगामी मुनि दूसरों को श्रुत पढ़ाता हुआ स्वयं के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है और उनको अज्ञानतमसागर से पार उतारता है। इससे तीर्थंकर की आज्ञा की आराधना, शिष्यों के प्रति उसके वात्सल्य का प्रकटीकरण, प्रवचन की प्रभावना और भक्ति तथा तीर्थ की अव्यवच्छित्ति होती है। १८. अप्रमाद से श्रुतज्ञान की वृद्धि जागरह नरा ! णिच्चं, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी । जो सुति ण सोधणो, जो जग्गति सो सया धण्णो ॥ सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था । तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्मं ॥ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ सुवति सुवंतस्स सुतं संकित खलियं भवे पमत्तस्स । जागरमाणस्स सुतं, थिर-परिचितमप्यमत्तस्स ॥ नालस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निद्दया । न वेरग्गं ममत्तेणं, नारंभेण दयालुया ॥ जागरिया धम्मीणं, आहम्मीणं च सुत्तया सेया । वच्छाहियभगिणीए, अकहिंसु जिणे जयंतीए ॥ सुवइ य अयगर भूओ, सुयं च से नासई अमयभूयं । होहिड़ गोणब्भूओ, नद्रुम्मि सुए अमयभूए ॥ (बृभा ३३८२-३३८७ ) मनुष्यो ! सदा जागृत रहो। जो जागता है, (सूत्र - अर्थ की अनुप्रेक्षा आदि से) उसकी बुद्धि बढ़ती है। जो सोता है, वह धन्य नहीं होता। जो जागता है, वह सदा धन्य है । सोने वाले पुरुषों के लोक में सारभूत अर्थों की हानि होती है । अत: तुम जागृत रहते हुए बद्ध कर्मों को प्रकम्पित करो । सोने वाले का श्रुत सो जाता है (विस्मृत हो जाता है)। प्रमत्त मुनि-' इस स्थान पर यह आलापक पद है या वह ? यह अर्थपद हैं या अन्य' – इस प्रकार पग-पग पर संदिग्ध और परावर्तन काल में स्खलित हो जाता है जो जागृत रहता है, अप्रमत्त है, उसके श्रुत स्थिर तथा परिचित हो जाता है। आलस्य के साथ सुख, नींद के साथ विद्या, ममत्व के साथ वैराग्य और हिंसा के साथ दया नहीं रह सकती । वत्सा जनपद कौशांबी नगरी शतानीक राजा की बहिन जयंती ने श्रमण महावीर से पूछा- भंते! जीवों का जागना अच्छा है या सोना ? श्रमण महावीर ने कहा - धार्मिकों की जागरिका श्रेयस्करी है और अधार्मिकों की सुप्तता श्रेयस्करी है । (सुत्तत्तं भंते! साहू ? जागरियत्तं साहू ?... ॥ जयंती ! जीवा अहम्मिया एएसि णं जीवाणं सुत्तत्तं साहू । जे ..एएसि णं जीवाणं जागरियत्तं साहू । - भ १२ / ५३, ५४ ) जे इमे धम्मिया जो अजगर के तुल्य होता है, वह निश्चित होकर सोता है। उसका अमृततुल्य श्रुत नष्ट हो जाता है। अमृतसदृश श्रुत के नष्ट होने पर वह बैलसदृश हो जायेगा । संग्राम महाशिलाकंटक आदि संग्राम | - ५७९ द्र युद्ध संघ-समान लक्ष्य तथा समान सामाचारी वाले श्रमणश्रमणियों का संगठन । १. संघ क्या है ? २. श्रेष्ठ संघ के मानक 3. संघ के पांच आधार o आचार्य अर्हत् की अनुकृति, अर्थवाचक ० उपाध्याय (अभिषेक): सूत्रवाचक, वृषभ * वृषभ की चिकित्साकालावधि ० प्रवर्त्तक गणचिन्तक : ० स्थविर ० गीतार्थ ( गणावच्छेदक ) * गणावच्छेदक क्षेत्रप्रतिलेखनार्ह ४. आचार्य आदि सात पद ० प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी * अभिषेका o आचार्य आदि के अभाव में उत्पन्न दोष * आचार्य, उपाध्याय गणावच्छेदक का न्यूनतम दीक्षा पर्याय और श्रुत गण अमान्य आचार्य स्थापन से प्रायश्चित्त * गणधारण में निशीथ की भूमिका ५. गणिविहीन गण नहीं ६. निरहंकारी गण में मान्य व्यवहारी * सारणा वारणा का मूल्य ८. गच्छ का परिमाण * पंचविध गच्छवासी आचार्य आदि * गणपालन दुष्कर ९. कौन महर्द्धिक - गच्छ या जिनकल्प ? गुफासिंह और महिलाद्वय दृष्टांत १०. गुरुकुलवास में गुणवृद्धि | ११. संघ में संयम सुरक्षा के स्थान * चारित्र से तीर्थ की अवस्थिति १२. संघ प्रभावक राजा सम्प्रति ० संघ द्रवैयावृत्त्य द्र क्षेत्रप्रतिलेखना * अनुपशांत की गच्छ में रहने की अवधि द्र अधिकरण ७. सारणा - वारणाशून्य गच्छ गच्छ नहीं * सारणा की अनिवार्यता द्र स्थविरकल्प द्र आचार्य द्र आचार्य द्र छेदसूत्र द्र उपसम्पदा द्र आचार्य द्र स्थविरकल्प द्र जिनकल्प द्र चारित्र | Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ ५८० आगम विषय कोश-२ * पारिहारिक द्वारा गच्छ की सेवा द्र परिहारतप * आचार्य आदि की सेवा से महानिर्जरा द्रवैयावृत्त्य * संघकार्य में मंत्रीपरिषद् का दायित्व द्र परिषद् १३. संघकार्य की प्रधानता : विलंब का प्रयश्चित्त १४. गण अपक्रमण के आठ कारण * गणान्तर उपसम्पदा क्यों? द्र उपसम्पदा १. संघ क्या है? संघो गुणसंघातो, संघायविमोयगो य कम्माणं। रागहोसविमुक्को, होति समो सव्वजीवाणं॥ परिणामियबुद्धीए, उववेतो होति समणसंघो उ। कज्जे निच्छयकारी, सुपरिच्छियकारगो संघो॥ आसासो वीसासो, सीतघरसमो य होति मा भाहि। अम्मापितीसमाणो, संघो सरणं तु सव्वेसिं॥ सीसे कुलव्विए व गणव्विय संघव्विए य समदरिसी। ववहारसंथवेसु य, सो सीतघरोवमो संघो॥ गिहिसंघातं जहितुं, संजमसंघातगं उवगए थे। णाण-चरण-संघातं, संघायंतो हवति संघो॥ नाण-चरणसंघातं, रागद्दोसेहि जो विसंघाए। सो संघाते अबुहो, गिहिसंघातम्मि अप्पाणं॥ (व्यभा १६७७, १६७८, १६८१, १६८६-१६८८) संघ गुणों का संघात है, कर्मसंघात का विमोचक है, रागद्वेष से मुक्त और सब जीवों के प्रति सम है। श्रमणसंघ पारिणामिकी बुद्धि से सम्पन्न होता है और विवादास्पद विषयों में श्रुतबल से सम्यक् निर्णय करता है। संघ सुपरीक्षितकारक होता है। संघ आश्वास और विश्वास है। संघ शीतघर के समान है। माता-पिता के समान यह संघ सबके लिए शरण है। इसलिए तुम डरो मत। (संघ आश्वास-विश्वास है... अभयदाता है-इस रूप में शब्दावलि की एकरूपता की दृष्टि से मा भाहि (डरो मत) के स्थान पर माभाइ (अभयदान-देशीनाममाला ६/१२९) शब्द अधिक संगत प्रतीत होता है।) कुल, गण और संघ के किन्हीं शिष्यों में परस्पर विवाद उत्पन्न होने पर या पूर्वसंस्तुत-पश्चातसंस्तुतों का किसी के साथ विवाद होने पर संघ समदर्शी (निष्पक्ष) होता है, इसलिए वह शीतघर की उपमा से उपमित है। जैसे शीतघर अपने आश्रित सब व्यक्तियों के परिताप का हरण करता है, वैसे ही संघ न्यायार्थ समागत प्रत्येक व्यक्ति को न्याय प्रदान करता है। गृहिसंघात (माता-पिता आदि) को छोड़कर संयम-संघात में उपस्थित साधक में जो ज्ञान-दर्शन-चरण का संघात (अवस्थिति) करता है, वह संघ है। जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र के संघात को राग-द्वेष से विघटित करता है, अपने को गृहिसंघात (गृहस्थ-गार्हस्थ्य) से योजित करता है, वह अबोध संघ संघ नहीं है। २. श्रेष्ठ संघ के मानक बारसविधे तवे तू, इंदिय-नोइंदिए य नियमे उ। संजमसत्तरसविधे, हाणी जहियं तहिं न वसे॥ तव-नियम -संजमाणं, एतेसिं चेव तिण्ह तिगवुड्डी। नाणादीण व तिण्हं, तिगसुद्धी उग्गमादीणं॥ पासत्थे ओसण्णे, कुसील-संसत्त तह अहाछंदे। एतेहि जो विरहितो, पंचविसुद्धो हवति सो उ॥ पंच य महव्वयाई, अहवा वी नाण-दंसण-चरित्तं। तव-विणओ वि य पंच उ, पंचविधुवसंपदा वावि॥ सोभणसिक्खसुसिक्खा, सा पुण आसेवणे य गहणे य। दुविधाए वि न हाणी, जत्थ य तहियं निवासो उ॥ एतेसुं ठाणेसुं, सीदंते चोदयंति आयरिया। हावेंति उदासीणा, न तं पसंसंति आयरिया। (व्यभा १९२६-१९३१) जहां द्वादशविध तप, इन्द्रिय और मन का निग्रह तथा सतरह प्रकार के संयम की हानि हो, वहां मुनि न रहे। मुनि वहां रहे, जहां तप, नियम और संयम-इस त्रिक की अथवा ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इस त्रिक की वृद्धि हो। जहां उद्गम, उत्पाद और एषणा-इस त्रिक की शुद्धि हो, वहां रहे। जो संघ पंचविशुद्ध हो-पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाच्छन्द-इस पंचक से रहित हो, वहां रहे। जो पांच महाव्रतों से अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और विनय-इन पांचों से अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैयावृत्त्यइस पंचविध उपसंपदा से युक्त हो, वहां रहे। आसेवन शिक्षा और ग्रहण शिक्षा-इस द्विविध सुशिक्षा की जहां हानि न हो, वहां रहे। Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५८१ संघ जो शिष्य उल्लिखित तप, ज्ञान आदि स्थानों में प्रमाद उपाध्याय को अभिषेक कहा जाता है। अभिषेक नियमतः करते हैं, उन्हें आचार्य प्रेरित करते हैं। जहां आचार्य उदासीन श्रृतनिष्पन्न होता है, अन्यथा उसमें आचार्यपद पर प्रतिष्ठित होने होते हैं-शिष्यों के प्रमादस्थानों की उपेक्षा करते हैं, तीर्थंकर उस की योग्यता ही नहीं होती।(द्र अभिषेक) संघ की प्रशंसा नहीं करते। ......यः पुनरित्वराभिषेकेणाचार्यपदेऽभिषिक्तः स ३. संघ के पांच आधार इहाभिषेकः अथवा गणावच्छेदक इहाभिषेकः। तत्थ न कप्पति वासो, गुणागरा जत्थ नत्थि पंच इमे। (बृभा १०७० की वृ) आयरिय-उवज्झाए, पवत्ति-थेरे य गीतत्थे ।। ___ अभिषेक के दो अर्थ और हैं-१.इत्वरिक अभिषेक से (व्यभा ९५३) आचार्यपद पर अभिषिक्त । २. गणावच्छेदक। संघ के पांच आधारस्तंभ हैं-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, सत्तत्थतदभयविऊ. उज्जत्ता नाण-दंसण-चरित्ते। स्थविर और गीतार्थ (गणावच्छेदी)। ये गुणों के निधान होते हैं। निप्फादग सिस्साणं, एरिसया होंतुवज्झाया॥ जिस संघ में ये पांचों न हों, वहां मुमुक्षु न रहे। सुत्तत्थेसु थिरत्तं, रिणमोक्खो आयतीयऽपडिबंधो। ० आचार्य : अर्हत् की अनुकृति, अर्थवाचक पाडिच्छा मोहजओ, तम्हा वाए उवज्झाओ॥ सुत्तत्थतदुभएहिं, उवउत्ता नाण-दसण-चरित्ते। (व्यभा ९५६, ९५७) गणतत्तिविप्पमुक्का, एरिसया होंति आयरिया॥ जो सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ के ज्ञाता हैं, ज्ञान-दर्शन-चारित्र में एगग्गया य झाणे, वुड्डी तित्थगरअणुकिती गुरुया। उद्यत हैं, शिष्यों के निष्पादक हैं, ऐसे होते हैं उपाध्याय। वे सूत्र आणाथेज्जमिति गुरू, कयरिणमोक्खो न वाएति॥ की वाचना देते हुए स्वयं अर्थ का भी अनुचिन्तन करते हैं, इससे __ (व्यभा ९५४, ९५५) उनकी सूत्र और अर्थ में स्थिरता बढ़ जाती है। ___ जो सूत्र-अर्थ-तभय के ज्ञाता हैं, ज्ञान-दर्शन-चारित्र में ० वे गण के सूत्रात्मक ऋण से मुक्त हो जाते हैं। सतत उपयुक्त हैं, गणचिन्ता से मुक्त हैं, ऐसे होते हैं आचार्य। ० अनागत काल में आचार्य पद से अप्रतिबंधित होने से सूत्र का केवल व्याख्या के लिए ही उनकी अर्थचिन्तनात्मक ध्यान ही अनुवर्तन कर उसमें अत्यन्त अभ्यस्त हो जाते हैं। में एकाग्रता होती है। एकाग्रता के कारण सक्ष्म अर्थों का उन्मेष ० प्रतीच्छक (अन्य गण से समागत-उपसम्पन्न) साधु उनकी होता है, इससे उनके सूत्रार्थ की वृद्धि होती है। सूत्र- वाचना से अनुगृहीत होते हैं। ___ अर्थवाचना देते हुए गणचिन्ता से मुक्त आचार्य तीर्थंकरों की ० उपाध्याय मोहजयी होते हैं-सूत्रवाचना में संलग्न रहने से अनुकृति होते हैं। अर्थवाचक आचार्य की लोक में महती गुरुता। उनके विस्रोतसिका का अभाव होता है। इन गुणों से सम्पन्न होने प्रकट होती है, इससे संघ की प्रभावना और आज्ञा में स्थैर्य- के कारण वे सूत्रवाचना के लिए अधिकृत हैं। अर्हत्-आज्ञा की अनुपालना होती है। सामान्य साधु अवस्था में वे उपाध्यायो वृषभानुग इति कृत्वा वृषभ उच्यते। साधुओं को सूत्र पढ़ा चुके होते हैं, इससे वे सूत्रात्मक ऋण से मुक्त (बृभा १०७० की वृ) हो जाते हैं, अत: आचार्य सूत्रवाचना नहीं देते। उपाध्याय वृषभानुग (वृषभ के समान शक्तिसंपन्न) होने ० उपाध्याय (अभिषेक ): सूत्रवाचक, वृषभ के कारण वृषभ कहलाते हैं। (द्र स्थविरकल्प) 'अभिषेकः' उपाध्यायः। (बृभा ६११० की वृ) . प्रवर्तक : गणचिन्तक ."अभिषेकस्तु नियमाद् निष्पन्नो भवति, अन्यथा तत्त्वत तव-नियम-विणयगुणनिहि, पवत्तगा नाण-दसण-चरित्ते।। आचार्यपदस्थापनायोग्यत्वानुपपत्तेः। (बृभा ४३३८ की वृ) संगहुवग्गहकुसला, पवत्ति एतारिसा होंति॥ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ संजम-तव-नियमेसुं, जो जोग्गो तत्थ तं पवत्तेंति । असहू य नियत्तेंती, गणतत्तिल्ला पवत्तीओ ॥ (व्यभा ९५८, ९५९ ) जो तप, नियम (अभिग्रह) और विनय रूप गुणनिधियों के प्रवर्तक, ज्ञान-दर्शन- चारित्र में सतत उपयोगवान् तथा शिष्यों के संग्रहण-उपग्रहण में कुशल होते हैं, वे प्रवर्तक हैं। वे, जो शिष्य तप, संयम, नियम आदि योगों में से जिस योग के योग्य है, उसका उसमें प्रवर्तन तथा असमर्थ का निवर्तन करते हैं। इस प्रकार प्रवर्तक गणचिन्ता में प्रवृत्त होते हैं । ० स्थविर संविग्गो मद्दवितो, पियधम्मो नाण-दंसण-चरित्ते । जे अट्ठे परिहायति, ते सारेंतो हवइ थेरो ॥ थिरकरणा पुण थेरो, पवत्ति वावारितेसु अत्थेसु । जो जत्थ सीदति जती, संतबलो तं पचोदेति ॥ (व्यभा ९६०, ९६१ ) स्थविर मुमुक्षु, मृदु और प्रियधर्मा होता है। जो साधु ज्ञान-दर्शन- चारित्र संबंधी किसी अनुष्ठान को छोड़ देता है या प्रवर्तक जिस कार्य में उसे नियुक्त करता है, शक्ति होते हुए भी वह उसे करता हुआ अवसन्न होता है तो उस साधु को स्थविर स्मारणा-प्रेरणा- प्रशिक्षण द्वारा संयमयोगों में स्थिर करता है, इसलिए वह स्थविर कहलाता है। ० गीतार्थ ( गणावच्छेदक ) उद्भावणा पधावण, खेत्तोवधिमग्गणासु अविसादी । सुत्तत्थतदुभयविऊ, गीयत्था एरिसा होंति ॥ एवंविधा गीतार्था गणावच्छेदिनः । (व्यभा ९६२ वृ) जो उद्धावन - प्रधावन - तत्पर है- कोई संघीय कार्य उत्पन्न होने पर 'यह कार्य मैं करूंगा' - इस प्रकार आचार्य को निवेदन कर आत्मानुग्रहबुद्धि से जो उस कार्य को शीघ्रता से सम्पादित करता है, क्षेत्रप्रत्युपेक्षा, उपधि-उत्पादन आदि कार्यों में जो विषण्ण नहीं होता तथा सूत्र - अर्थ-तदुभय का ज्ञाता होता है, ऐसा गीतार्थ मुनि गणावच्छेदक होता है । ५८२ ४. आचार्य आदि सात पद ..... आयरिए वा उवज्झाए वा पवत्ती वा थेरे वा गणी वा गणहरे वा गणावच्छेइए वा । ...... आगम विषय कोश - २ आचार्य अनुयोगधरः । उपाध्यायः अध्यापकः । प्रवर्त्ती यथायोगं वैयावृत्त्यादौ साधूनां प्रवर्त्तकः । संयमादौ सीदतां साधूनां स्थिरीकरणात्स्थविरः । गच्छाधिपो गणी । यस्त्वाचार्यदेशीयो गुर्वादेशात् साधुगणं गृहीत्वा पृथग् विहरति स गणधरः । गणावच्छेदकस्तु गच्छकार्यचिन्तकः । (आचूला १/१३० वृ) (क ३/१३ की वृ) गणधरः संयतीपरिवर्तकः । ज्ञानादीनामविराधनां कुर्वन् यो गच्छं परिवर्धयति स (व्यभा १३७५ की वृ) गणधरः । संघ में सात पद होते हैं १. आचार्य - अनुयोगधर - अर्थ की वाचना देने वाला। २. उपाध्याय - अध्यापक-सूत्रपाठ की वाचना देने वाला । ३. प्रवर्त्ती - वैयावृत्त्य आदि में साधुओं का प्रवर्तक । ४. स्थविर - संयम में अस्थिर होने वालों को स्थिर करने वाला। ५. गणी - गच्छाधिपति । ६. गणधर - जो आचार्य के समान है, आचार्य के आदेश से साधुसंघ को लेकर पृथक् विहरण करता है, साध्वियों की देखभाल करता है तथा ज्ञान आदि की विराधना न करते हुए गण का परिवर्धन करता है, वह गणधर कहलाता है । ७. गणावच्छेदक- गच्छ के कार्य का चिन्तन ( उपधि आदि की व्यवस्था) करने वाला। ० प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी य मिधोकहा झड्डर - विड्डरेहिं, कंदप्पकिड्डा बकुसत्तणेहिं । पुव्वावरत्तेसु य निच्चकालं, संगिण्हते णं गणिणी सधीणा ॥ गुरु-गणि-गणिणी अज्जं पि ॥ झड्ढरविड्डर नाम तेषु गृहस्थप्रयोजनेषु कुण्टलविण्टलादिषु वा प्रवर्तनं बकुशत्वं शरीरोपकरणविभूषाकरणं एताभ्यां च तत्प्रवर्तिनीसंग्रहोऽपि साध्व्याः Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ श्रेयान् आर्यिकामपि गुरुराचार्यो गणी उपाध्यायः गणिनी प्रवर्तिनी रक्षन्ति । (व्यभा १५८९, १५९० वृ) प्रवर्तिनी स्वच्छंदचारिणी साध्वी पर सदा अनुशासन करती । स्वच्छन्दता के मुख्य बिंदु पांच हैं १. स्त्रीकथा आदि करना । २. गृहस्थ को जादू-टोना, मंत्र-तंत्र का प्रयोग बताना । ३. कामोत्तेजक चेष्टा करना । ४. शरीर और उपकरणों की विभूषा करना । ५. पूर्वरात्र - अपररात्र में स्वाध्याय न करना । साध्वी के लिए प्रवर्तिनी के आदेश निर्देश में रहना श्रेयस्कर है। आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तिनी - ये तीनों साध्वी की सुरक्षा करते हैं। साध्वी त्रिसंगृहीत होती है। (द्र आचार्य) * प्रवर्तिनी : श्रमणीगणसंचालिका द्र स्थविरकल्प निग्गंथी कप्पड़ से पवत्तिणीनीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए । (क ३/१३) साध्वी प्रवर्तिनी की निश्रा में वस्त्र ग्रहण करे । ...... एसा पवत्तिणी भे, जोग्गा गच्छे बहुमता य ।। सा एय गुणोवेता, सुत्तत्थेहिं पकप्पमज्झयणं ।'' (व्यभा २३१०, २३१४ वृ) निशीथ के सूत्र और अर्थ को पढ़ चुकी है तथा गच्छ में बहुमान्य है, वह गुणयुक्त साध्वी प्रवर्तिनीपद के योग्य है। कप्पड़ पवत्तिणीए अप्पतइयाए ॥ गणावच्छेइणीए अप्पचउत्थाए हेमंतगिम्हासु चारए ॥ कप्पड़ पवत्तिणीए अप्पचउत्थाए'''''''''गणावच्छेइणीए अप्पपंचमाए वासावासं वत्थए । (व्य ५ / २, ४, ६, ८) हेमंत और ग्रीष्मऋतु में प्रवर्तिनी दो साध्वियों के साथ तथा गणावच्छेदिनी तीन के साथ विहरण कर सकती है। वर्षावास में प्रवर्तिनी तीन साध्वियों के साथ तथा गणावच्छेदिनी चार साध्वियों के साथ रह सकती है। ( गणावच्छेदिनी गणावच्छेदक की भांति साध्वीवर्ग की व्यवस्था का दायित्व-निर्वहन करती है ।) ५८३ प्रवर्तिन्या गणावच्छेदिन्या वा उत्तगेन संहननेन...... उत्तमया च धृत्या सूत्रमर्थश्च भूयान् गृहीतः । (व्यभा २३०६ की वृ) के कारण विपुल श्रुत ग्रहण कर लेती हैं। संघ प्रवर्तिनी और गणावच्छेदिनी उत्तम संहनन और उत्तम धृति ० आचार्य आदि के अभाव में उत्पन्न दोष ....... आयरियादीण जत्थ गच्छम्म | पंचण्हं होतऽसती, एगो च तहिं न वसितव्वं ॥ एवं असुभ - गिलाणे, परिण्णकुलकज्जमादि वग्गे उ । अण्णऽसति ससल्लस्सा, जीवितघाते चरणघातो ॥ (व्यभा ९२०, ९२१ ) जिस गच्छ में आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक, प्रवर्तक और स्थविर - ये पांचों नहीं होते या इन पांचों में से कोई एक नहीं होता, उस गच्छ में नहीं रहना चाहिए। इनके न होने से मुख्यतः पांच दोष उत्पन्न होते हैं ० ० अशुभ- मृतक की परिष्ठापनविधि आदि में कठिनाई । • ग्लान की सेवा - व्यवस्था का अभाव । परिज्ञा - अनशनधारी की समाधि में बाधा । ० कुल - संघ - कार्य आदि में बाधा । आलोचना के अभाव में सशल्य मरण से चरणनाश। ५. गणिविहीन गण नहीं नच्चणहीणा व नडा, नायगहीणा व रूविणी वावि । चक्कं च तुंबहीणं, न भवति एवं गणो गणिणा ॥ (व्यभा २५९५ ) O जैसे नर्तनहीन नट, नायकविहीन रूपवती स्त्री और तुम्बहीन चक्र नहीं होता, वैसे ही गणी के बिना गण नहीं होता । ६. निरहंकारी : गण में मान्य व्यवहारी गारवरहितेण तहिं, ववहरियव्वं तु संघमज्झम्मि।...... परिवार - इड्डि-धम्मकहि-वादि-खमगो तहेव नेमित्ती । विज्जा राइणियाए, गारवोत्ति ......जदि अट्ठा होति ॥ अगीतो..... ॥ गारवेण जंपेज्ज, Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ नहु गारवेण सक्का, ववहरिडं संघमज्झयारम्मि ।..... (व्यभा १७१८-१७२०, १७२३) व्यवहारी को संघ में गौरव (अहंकार) रहित होकर व्यवहार करना चाहिये। गौरव के आठ प्रकार हैं१. परिवार का गौरव ५. तपस्वी होने का गौरव २. ऋद्धि का गौरव ६. नैमित्तिक होने का गौरव ३. धर्मकथी होने का गौरव ७. विद्यातिशय का गौरव ४. वादी होने का गौरव ८. रत्नाधिक होने का गौरव जो व्यवहारछेदी इन गौरवों के वशीभूत होकर कहता है, 'तुम मुझे ही प्रमाण मानो' वह अगीतार्थ है। संघ में गौरव से व्यवहार करना शक्य नहीं है। ७. सारणा - वारणाशून्य गच्छ गच्छ नहीं 4 जहिं नत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छम्मि । सो उ अगच्छो गच्छो, संजमकामीण मोत्तव्वो ॥ विस्मृते क्वचित् कर्त्तव्ये ' भवतेदं न कृतम्' इत्येवंरूपा स्मारणा सारणा, अकर्त्तव्यनिषेधो वारणा, अनाभोगादिना अन्यथा कुर्वतः सम्यक्प्रवर्तना प्रेरणा, निवारितस्यापि पुनः पुनः प्रवर्त्तमानस्य खरपरुषोक्तिभिः शिक्षणं प्रतिनोदना । (बृभा ४४६४ वृ) जिसमें सारणा, वारणा, प्रेरणा और प्रतिनोदना नहीं है, वह गच्छ गच्छ नहीं है। संयमाभिलाषी के लिए वह त्याज्य है । • सारणा - कर्त्तव्य की विस्मृति होने पर 'आपने यह नहीं किया'इस रूप में स्मारणा करना । ० वारणा - अकरणीय का निषेध करना । प्रेरणा - कर्त्तव्यबोध के अभाव में अन्यथा करते हुए को सम्यक् प्रवृत्त करना । • प्रतिनोदना - निवारणा करने पर भी पुनः पुनः उसी कार्य में प्रवर्तमान को खर- परुष वचनों से प्रशिक्षण देना । ८. गच्छ का परिमाण पणगो व सत्तगोवा, कालदुवे खलु जहण्णतो गच्छो । बत्तीसती सहस्सो, उक्कोसो सेसओ मज्झो ॥ ऋषभस्वामिनो ज्येष्ठस्य गणधरस्य पुण्डरीकनाम्नो द्वात्रिंशत्सहस्रो गच्छोऽभूत् । (व्यभा १७३१ वृ) O आगम विषय कोश - २ ऋतुबद्धकाल में जघन्यतः पांच और वर्षाकाल में सात साधुओं का गच्छ होता है । उत्कृष्टतः बत्तीस हजार साधुओं का गच्छ होता है, शेष मध्यम है। ५८४ अर्हत् ऋषभप्रभु के ज्येष्ठ गणधर पुण्डरीकस्वामी (ऋषभसेन) के बत्तीस हजार साधुओं का गच्छ था। ९. कौन महर्द्धिक - गच्छ या जिनकल्प ? गच्छे जिणकप्पम्मि य, दोण्ह वि कयरो भवे महिड्डीओ । निप्फायग-निप्फन्ना, दोन्नि वि होंती महिड्डीया ॥ दंसण - नाण-चरित्ते, जम्हा गच्छम्मि होइ परिवुड्डी । एएण कारणेणं, गच्छो उ भवे महिड्डीओ ॥ पुरतो व मग्गतो वा, जम्हा कत्तो वि नत्थि पडिबंधो । एएण कारणेणं, जिणकप्पीओ महिड्डीओ ॥ दीवा अन्नो दीवो, पइप्पई सो य दिप्पइ तहेव । सीसो च्चिय सिक्खंतो, आयरिओ होइ नऽन्नत्तो ॥ रयणाय उ गच्छो, निप्फादओं नाण-दंसण- चरित्ते । एएण कारणेणं, गच्छो उ भवे महिड्डीओ ॥ (बृभा २१०९ - २११२, २१२२) गच्छ और जिनकल्प-दोनों में महर्द्धिक कौन है ? निष्पादक और निष्पन्न - दोनों ही महर्द्धिक हैं। सूत्र और अर्थ से निकल्प का निष्पादक होने से गच्छ महर्द्धिक है। ज्ञान-दर्शन- चारित्रनिष्पन्न होने से जिनकल्पी महर्द्धिक है। गच्छ में ज्ञान-दर्शन- चारित्र की वृद्धि होने के कारण गच्छ महर्द्धिक है। जिनकल्पी पूर्व विहृत और अग्रिम विहरिष्यमाण क्षेत्रों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्रतिबद्ध नहीं होते हैं, इसलिए जिनकल्पी महर्द्धिक हैं । एक दीप से दूसरा दीप प्रज्वलित होता है और वह मूल दीप उसी रूप में दीप्त रहता । जिनकल्पिकरूपी दीप भी गच्छदीप से ही प्रादुर्भूत होता है और वह गच्छदीप भी ज्ञानदर्शन - चारित्र से उसी रूप में प्रदीप्त रहता है। शिष्य ही शिक्षित होता हुआ क्रमशः आचार्य बनता है। स्थविरकल्पिक ही तप आदि भावनाओं से अपने को भावित करता हुआ क्रमशः जिनकल्पी होता है, अन्य प्रकार से नहीं होता । गच्छ रत्नाकर की भांति जिनकल्पिक आदि रत्नों का उत्पत्तिस्थल है, ज्ञान- दर्शन - चारित्र का निष्पादक है, इसलिए गच्छ महर्द्धिक है। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५८५ संघ ० गुफासिंह और महिलाद्वय दृष्टांत णाणस्स होइ भागी, थिरयरतो दंसणे चरित्ते य। सीहं पालेइ गुहा, अविहाडं तेण सा महिड्डीया। धण्णा आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचंति॥ तस्स पुण जोव्वणम्मि, पओअणं किं गिरिगुहाए। (निभा ५४५४-५४५७) आणा-इस्सरियसुहं, एगा अणुभवइ जइ वि बहुतत्ती। भीतावास, धर्मानुराग, अनायतनवर्जन और कषायनिग्रहदेहस्स य संठप्पं, भोगसुहं चेव कालम्मि॥ यह अर्हत् का शासन (अनुशिष्टि) है। गुरुकुलवास में रहने से परवावारविमुक्का, सरीरसक्कारतप्परा निच्चं। मुनि के मुख्यतः चार गुण निष्पन्न होते हैंमंडणए वक्खित्ता, भत्तं पि न चेयई अपया॥ ० भीतावास-वह आचार्य आदि के भय अथवा प्रायश्चित्त के वेयावच्चे चोयण-वारण-वावारणासु य बहूसु। भय से अकरणीय कार्य नहीं करता है। एमादीवक्खेवा, सययं झाणं न गच्छम्मि॥ ० धर्मरति-वैयावृत्त्य, स्वाध्याय आदि धर्मों में अनुरक्त तथा सूत्र(बृभा २११४, २११६-२११८) अर्थ के अध्ययन में सतत उपयुक्त रहता है। गुफासिंह-दृष्टांत-गुफा सिंहशिशु की व्याघ्र आदि वन्य-पशुओं ० अनायतनवर्जन-कुशीलसंसर्ग का वर्जन करता है। से सुरक्षा करती है इसलिए गुफा महर्द्धिक है। सिंह यौवन प्राप्त ० कषायनिग्रह-कषाय की उदीरणा होने पर आचार्य या अन्य होने पर स्वयं अपनी रक्षा करने में समर्थ हो जाता है, तब उसे गुफा साधुओं के प्रशिक्षण द्वारा उसका शमन किया जाता है। से क्या प्रयोजन? गुरुकुलवास में रहने वाला ज्ञान का भागी होता है। दर्शन महिलाद्वय-दृष्टांत-सप्रसवा महिला यद्यपि अपने पुत्र के स्नान और चारित्र में वह और अधिक स्थिर बनता है। वे धन्य हैं, जो आदि अनेक कार्यों में व्याप्त रहती है, फिर भी आज्ञा और ऐश्वर्य आजीवन गुरुकुलवास को नहीं छोड़ते। के सुख का अनुभव करती है तथा समय पर देह को सज्जित कर __ जइमं साहुसंसग्गि, न विमोक्खसि मोक्खसि । भोगसुख को भी प्राप्त करती है। अप्रसवा स्त्री अपत्य आदि की उज्जतो व तवे निच्चं, न होहिसि न होहिसि॥ चिंता से मुक्त होती है इसलिए वह सदा शरीर संस्कार में तत्पर सच्छंदवत्तिया जेहिं, सग्गुणेहिं जढा जढा। रहती है. शरीर को विभषित करने में इतनी व्यस्त रहती है कि अप्पणो ते परेसिं च, निच्चं सुविहिया हिया॥ उसे भोजन की भी स्मृति नहीं रहती। जेसिं चाऽयं गणे वासो, सज्जणाणुमओ मओ। स्थविरकल्पिक मुनि सप्रसवा स्त्री की तरह वैयावृत्त्य, दुहाऽवाऽऽराहियं तेहिं, निव्विकप्पसुहं सुहं ॥ प्रेरणा, वारणा, वस्त्र-पात्र-उत्पादन आदि अनेक कार्यों में व्याप्त नवधम्मस्स हि पाएण, धम्मे न रमती मती। रहता है इसलिए निरन्तर आत्मध्यान में लीन नहीं रह सकता। वहए सो वि संजुत्तो, गोरिवाविधुरं धुरं ॥ जिनकल्पिक मुनि अप्रसवा स्त्री की तरह वैयावृत्त्य आदि व्याक्षेपों एगागिस्स हि चित्ताई, विचित्ताई खणे खणे। से मुक्त होता है, इसलिए आत्ममण्डन रूप शुभ ध्यान में निरन्तर उप्पजंति वियंते य, वसेवं सज्जणे जणे॥ लगा रहता है। (बृभा ५७१५-५७१९) १०. गुरुकुलवास में गुणवृद्धि भीतावासो रती धम्मे अणायतणवज्जणं। गुरु कहते हैं- 'यदि तुम साधुसंसर्ग का परित्याग नहीं णिग्गहो य कसायाणं, एयं धीराण सासणं॥ करोगे तो मोक्ष-सुख को प्राप्त करोगे। तप आदि में सतत उद्यमशील आयरियादीण भया, पच्छित्तभया ण सेवति अकजं। नहीं बनोगे तो अव्याबाध सुख को प्राप्त नहीं करोगे।' वेयावच्चऽज्झयणेसु सज्जते तवयोगेणं॥ जो ज्ञान आदि सद्गुणों से रहित स्वच्छन्दता का परिहार ......"कोहादी व उदिण्णे, परिणिव्वावेति से अण्णे॥ करते हैं, वे सुविहित मुनि स्व-पर का हित साधते हैं। Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ ५८६ आगम विषय कोश-२ जिनकी अर्हत् द्वारा अनुमत गुरुकुलवास में रुचि/प्रीति संघ, बहुश्रुत, तपस्वी, श्रावक और परतीर्थिक को अपना मुंह कैसे होती है, उनके द्वारा निरुपम निर्वाणसुख और श्रमणसुख-ये दोनों दिखाऊंगा? इस लज्जा से वह पाप नहीं करता। ही प्रकार सुखपूर्वक आराधित होते हैं। २. भय-अवर्णवाद के भय से वह दुष्कृत्य करता हुआ अत्यधिक नवदीक्षित मुनि का मन प्रायः धर्म में रमण नहीं करता है शंकित होता है। यद्यपि वह अपयश के भय से अशुभ आचरण किन्तु वह भी गच्छ में साधुओं के साथ संयुक्त होकर संयमधुरा को नहीं करता, फिर भी वह अच्छा है, क्योंकि उसने यश की कामना वहन कर लेता है। जैसे एक बैल दूसरे बैल के साथ जुड़कर की है। यश, वर्ण और संयम एकार्थक हैं। तत्त्वत: गुरु को मेरा अविषम धुरा को वहन कर लेता है। दुष्कृत ज्ञात हो जाएगा तो वे मुझे उग्र दण्ड देंगे-इस प्रकार __ अकेले व्यक्ति के चित्त में क्षण-क्षण में शभ-अशभ गरुदण्ड के भय से वह पाप नहीं करता। अध्यवसाय-विचार उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं इसलिए ३. गौरव-मेरे गुरु लौकिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में सम्मान्यसुसाधुओं के समुदाय में रहना चाहिए। बहुमान्य हैं, मेरे अपराध के कारण उनकी लघुता न हो। ११. संघ में संयमसुरक्षा के स्थान मैं सर्वमान्य हूं। मैं ऐसा काम न करूं जिससे अपूज्य बन जइ वि य निग्गयभावो, तह विय रक्खिज्जते स अण्णेहिं। जाऊं। यदि मैं पापाचरण करूंगा तो तृण से भी तुच्छ हो जाऊंगावंसकडिल्ले छिण्णो, वि वेलओ पावए न महि॥ यह सोचकर वह पाप का वर्जन करता है। ४. धर्मश्रद्धा-जो आत्मसाक्षी से ही पाप का परिवर्जन करता है, (व्यभा २६९५) उसके दुष्ट संकल्प होता ही नहीं (और कभी हो भी जाता है तो वह बांसों के गहन प्रदेश में छिन्न बांस भी अन्य बांसों के उसे विफल कर देता है। यह आत्मरक्षा धर्मश्रद्धा का परिणाम है। कारण पृथ्वी पर नहीं गिरता। इसी प्रकार संयम से निर्गत भावधारा तीव्र धर्मश्रद्धावान स्वभावतः उत्सर्गकारी होता है-विधिवाला साधु अपने अन्य सहयोगी साधुओं द्वारा सुरक्षित रहता है। विधानों की यथावत् अनुपालना करता है। वह सर्वत्र ममत्व के लज्जणिज्जो उ होहामि, लज्जए वा समायरं। बंधन से मुक्त होता है, अकेला हो या परिषद् में, सदा पापकर्म से कलागमतवस्सी वा, सपक्खपरपक्खतो॥ असिलोगस्स वा वाया, जोऽतिसंकति कम्मसं। १२. संघप्रभावक राजा सम्प्रति तहावि साधु तं जम्हा, जसो वण्णो य संजमो॥ अज्जसुहत्थाऽऽगमणं, दटुं सरणं च पुच्छणा कहणा। दाहिति गुरुदंडं तो जइ नाहिंति तत्ततो।... पावयणम्मि य भत्ती, तो जाता संपतीरण्णो॥ लोए लोउत्तरे चेव, गुरवो मज्झ सम्मता। ....... तसजीवपडिक्कमओ पभावओ समणसंघस्स। मा हु मज्झावराहेण, होज्ज तेसिं लहुत्तया॥ माणणिज्जो उ सव्वस्स, न मे कोई न पूयए। जीवन्तस्वामिप्रतिमावन्दनार्थमुज्जयिन्यामार्यसुहस्तिन तणाण लहुतरो होहं, इति वजेति पावगं॥ आगमनम्"आर्यसुहस्तिगुरून् दृष्ट्वा नृपतेर्जातिस्मरणम्।.. आयसक्खियमेवेह, पावगं जो वि वज्जते। पृच्छा कृता-भगवन्! अव्यक्तस्य सामायिकस्य किं फलम? अप्पेव दुट्टसंकप्पं, रक्खा सा खल धम्मतो सूरिराह-राज्यादिकम्।"ततः सूरय उपयुज्य कथयन्तिनिसग्गुस्सग्गकारी य, सव्वतो छिन्नबंधणो। ""त्वं पूर्वभवे मदीयः शिष्य आसीत्। एगो वा परिसाए वा, अप्पाणं सोऽभिरक्खति॥ (बृभा ३२७७, ३२७८ वृ) (व्यभा २७४९, २७५०, २७५२, २७५४-२७५७) उज्जयिनी में जीवंतस्वामी की प्रतिमावन्दना के लिए संघ में पापवर्जन के चार कारण हैं आर्यसुहस्ती का आगमन। उन्हें देख सम्प्रति को अपने पूर्वजन्म १. लज्जा-मैं पापाचरण करूंगा तो लज्जित होऊंगा, कल - गण- की स्मृति हो गई, तब उसने पूछा--अव्यक्त सामायिक का क्या Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५८७ संघ फल है? आचार्य ने कहा-राज्य आदि की प्राप्ति। फिर उपयोग-- जैसे चिकित्सा के क्षेत्र में आरोग्य का प्रसंग प्रथम है, वैसे उपयुक्त होकर कहा-तुम पूर्वभव में मेरे शिष्य थे। तब से राजा ही मुमुक्षु के लिए कर्मक्षयकारी अनुष्ठान प्रथम है। संघकार्य को सम्प्रति की जिनप्रवचन में श्रद्धा उत्पन्न हो गई। वह श्रावक बन पहले करना चाहिए अन्यथा संघअवात्सल्य, अपभ्राजना और गया और श्रमणसंघ की प्रभावना करने लगा। (द्र आर्यक्षेत्र) तीर्थहानिजन्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। कार्य की शानता . विलंब कापायचिन्न संघकार्य की घोषणा को सुनकर प्राघूर्णक मुनि धूलिजंघ चोएति कहं तुब्भे, परिहारतवं गतं पवण्णं तु। अवस्था में भी (पैरों की धूलि झाड़े बिना ही) त्वरता से निक्खिविउं पेसेहा, चोदग! सुण कारणमिणं तु॥ (कार्यस्थल पर पहुंच जाए। शक्ति होने पर भी जो कुलतिक्खेस तिक्खकज्ज, सहमाणेस य कमेण कायव्वं। गण-संघ-समवाय में उपस्थित नहीं होता है, वह चतुर्गुरु प्रायश्चित्त न य नाम न कायव्वं, कायव्वं वा उवादाए॥ का भागी होता है। वणकिरियाए जा होति, वावडा जर-धणुग्गहादीया। १४. गण-अपक्रमण के आठ कारण काउमुवद्दवकिरियं, समेंति तो तं वणं वेज्जा॥ ___....."अट्ठहा पुण, णियमा हि इमं अवक्कमणं । जह आरोग्गे पगतं, एमेव इमं पि कम्मखवणेणं। अब्भुज्जत ओहाणे, एक्केक्क-दुभेद होज्जऽवक्कमणं। इहरा उ अवच्छल्लं, ओभावण तित्थहाणी य॥ __णाणादिकारणं वा, वुग्गहो वा...॥ घुट्ठम्मि संघकज्जे, धूलीजंघो वि जो न एज्जाही। अब्भुज्जयं दुविधं-अब्भुज्जतमरणेण अब्भुज्जयकुल-गण-संघसमाए, लग्गति गुरुगे चउम्मासे ॥ विहारेण वा । ओहाणं दुविधं-विहारोधावणेण लिंगोधावणेण (व्यभा ६९८-७०१, १६५५) वा, ""दंसणचरित्तट्ठा य"। (निभा ५५९४, ५५९५ चू) शिष्य ने प्रश्न किया-आर्यप्रवर ! दुष्कर परिहारतप वहन आठ कारणों से गण से अपक्रमण किया जाता हैकरने वाले को बीच में ही तप स्थगित कर अन्यत्र भेजते हैं। ऐसा १. अभ्युद्यतमरण ५. ज्ञान क्यों ? गुरु ने कहा-शिष्य ! तुम इसका कारण सुनो। २. अभ्युद्यतविहार ६. दर्शन तीक्ष्ण (बड़े और शीघ्र करने योग्य) और तीक्ष्णतर कार्यों ३. विहार अवधावन ७. चारित्र के उत्पन्न होने पर जो तीक्ष्णतर (गुरुतर अतिपाति) कार्य है, उसे ४. लिंग अवधावन ८. कलह पहले करना चाहिये। कहा भी है (इनमें तीसरा, चौथा और आठवां-ये अप्रशस्त कारण हैं, 'यगपत्समपेताना, कार्याणां यदतिपाति तत्कार्यम। अतिपातिष्वपि फलं, फलदेष्वपि धर्मसंयुक्तम्॥' शेष प्रशस्त कारण हैं । स्थानांग (७/१) के अनुसार सात कारणों से सहमान कार्यों को क्रमश: करना चाहिये। तीक्ष्णतर कार्य गण से अपक्रमण (दूसरे गण की उपसंपदा को स्वीकार) किया के पश्चात् सहमान (अनतिपाति) कार्य नहीं करना चाहिए जा सकता हैऐसा नहीं है। यदि दो अतिपाति कार्य एक साथ समुत्पन्न हों तो गुरु ० सब धर्मों (श्रत-चारित्र के प्रकारों) की प्राप्ति हेत। लघु का विमर्श कर जो कार्य प्रवचन या संघ का उपकारी है. उसे ० कुछेक धर्मों की विशिष्ट प्राप्ति हेत। सर्वप्रथम करना चाहिए। ० सर्वधर्मों के प्रति जो संशय है, उसे दूर करने के लिए। व्रण की चिकित्सा प्रारंभ की हुई है, बीच में ही ज्वर या ० देशविचिकित्सा दूर करने के लिए। धनुग्रहवात जैसी घातक व्याधि उत्पन्न हो जाये तो कुशल वैद्य ० सब धमों को दूसरों को देने के लिए। पहले उस भयंकर व्याधि की चिकित्सा करते हैं, तत्पश्चात् उस ० कुछेक धर्मों को दूसरों को देने के लिए। व्रण का शमन करते हैं। ० एकलविहारप्रतिमा प्रतिपत्ति के लिए।) Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञी ५८८ आगम विषय कोश-२ संज्ञी-अविरतसम्यग्दृष्टि। श्रावक। ते वि य पुरिसा दुविहा, सन्नी अस्सन्निणो य बोधव्वा। मज्झत्थाऽऽभरणपिया, कंदप्पा काहिया चेव॥ 'श्रावकः' प्रतिपन्नाणुव्रतः, 'संज्ञी' अविरतसम्यग्दृष्टिः, आभरणपिए जाणसु, अलंकरिते उ केसमादीणि। 'असंज्ञी' मिथ्यादृष्टिः। (बृभा १९११ की वृ) सइरहसिय-प्पललिया, सरीरकुइणो य कंदप्पा॥ __ अणुव्रती को श्रावक, अविरतसम्यग्दृष्टि को संज्ञी और अक्खाइयाउ अक्खाणगाइँ गीयाइँ छलियकव्वाइं। मिथ्यादृष्टि को असंज्ञी कहा गया है। कहयंता य कहाओ, तिसमुत्था काहिया होंति ॥ * सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि द्र सम्यक्त्व एएसिं तिण्हं पी, जे उ विगाराण बाहिरा पुरिसा। * सम्यग्दृष्टि और संज्ञीश्रुत द्र श्रीआको १ श्रुतज्ञान वेरग्गरुई निहुया, निसग्गहिरिमं तु मज्झत्था॥ सो भविय सुलभबोही, परित्तसंसारिओ पयणुकम्मो।" ...देवगुरुधर्मतत्त्वानां यथावत् परिज्ञानं वा विद्यते येषां सुलभा-सुप्रापा बोधिः-अर्हद्धर्मप्राप्तिर्यस्याऽसौ ते संज्ञिनः, श्रावकाः। (बृभा २५६२-२५६५ वृ) सुलभबोधिकः असावपि दीर्घसंसारी स्यादित्याह-परीत्त: पुरुष दो प्रकार के हैं-संज्ञी और असंज्ञी। संज्ञा का अर्थ परिमितः संसारो यस्य"। (बृभा ७१४ वृ) है-देव, गुरु और धर्मतत्त्व-इस त्रिपदी का यथार्थ परिज्ञान। यह भव्य प्राणी भी कदाचित् दुर्लभ-बोधि हो सकता है, संज्ञा जिसके होती है, वह संज्ञी-श्रावक और जिसके नहीं होती, इसलिए सुलभबोधि विशेषण का प्रयोग किया जाता है। जिसे वह असंज्ञी है। प्रत्येक के चार-चार भेद हैंअर्हत् धर्म की प्राप्ति सुलभ है, वह सुलभबोधि है। वह भी १. आभरणप्रिय-केश आदि को अलंकृत करने वाले। दीर्घसंसारी हो सकता है, अतः परीतसंसारी-परिमित भवभ्रमण २. कांदर्पिक-स्वेच्छा से अट्टहासपूर्वक हंसने वाले, धतक्रीडा करने वाला, इस विशेषण का प्रयोग हुआ है। परीतसंसारी भारी आदि करने वाले तथा शारीरिक कामचेष्टाएं करने वाले। कर्मों वाला भी हो सकता है। जो प्रतनुकर्मा है, वह शीघ्र मुक्त हो ३. काथिक-आख्यायिका (तरंगवती, मलयवती आदि), आख्यान जाता है। (धूर्ताख्यान आदि), गीत, शृंगारकाव्य, कथा (वसुदेवचरित आदि) ......"सन्नी, दंसणऽहाभद्द दाणसड्डे या..... तथा त्रिसमुत्था (धर्म, काम और अर्थ-इस पुरुषार्थत्रयी की वक्तव्यता _ 'संज्ञी' गृहीताणुव्रतः दर्शनसम्पन्नोऽविरत-सम्यग्दृष्टिः, वाली) संकीर्ण कथा-इन कथाओं को कहकर अपनी आजीविका 'यथाभद्रकः' सम्यक्त्वरहितः परं सर्वज्ञशासने साधुषु च । चलाने वाले पुरुष। बहुमानवान्, 'दानश्राद्धः' दानरुचिः। (बृभा १९२६ वृ) ४. मध्यस्थ-जो आभरण, कंदर्प और कथा-इनसे उत्पन्न विकारों श्रावक की चार कक्षाएं हैं से रहित हैं, वैराग्यरुचि और इन्द्रियप्रतिसंलीन हैं तथा स्वभाव से १. संज्ञी-जिसने अणुव्रतों को स्वीकार किया है। ही जो लज्जावान् हैं, वे मध्यस्थ पुरुष हैं। २. दर्शनसम्पन्न-जो व्रती नहीं है, किन्तु सम्यग्दृष्टि है। (श्रद्धा और वृत्ति की तरतमता के आधार पर श्रमणोपासक ३. यथाभद्रक-जो सम्यक्त्व से रहित है, किन्तु जिनशासन और को चार वर्गों में विभक्त किया गया हैसाधुओं के प्रति बहुमान रखने वाला है। १. माता-पिता के समान-जिनमें श्रमणों के प्रति प्रगाढ़ वत्सलता ४. दानश्राद्ध-जो प्रीतिपूर्वक साधु को दान देने वाला है। होती है....। माता-पिता के समान श्रमणोपासक तत्त्वचर्चा व (श्रावक की चार भूमिकाएं हैं-१. सुलभबोधि, २. सम्यग्- जीवननिर्वाह-दोनों प्रसंगों में वत्सलता का परिचय देते हैं। दृष्टि, ३. व्रती, ४. प्रतिमाधारी। २. भाई के समान-जिनमें श्रमणों के प्रति वत्सलता और उग्रता संज्ञी को व्रती, दर्शनसम्पन्न को सम्यग्दृष्टि और यथाभद्र दोनों होती है। इस कोटि के श्रमणोपासक तत्त्वचर्चा में निष्ठुर को सुलभबोधि कहा जा सकता है।) वचनों का प्रयोग कर देते हैं, किन्तु जीवननिर्वाह के प्रसंग में * प्रतिमाधारी श्रावक उनका हृदय वत्सलता से परिपूर्ण होता है। Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५८९ समवसरण ३. मित्र के समान-जिन श्रमणोपासकों में सापेक्ष प्रीति होती है णाम इति छट्ठी मूल-कम्मपगडी। तस्स बायालीऔर कारणवश प्रीति का नाश होने पर वे आपत्काल में भी उपेक्षा सुत्तरभेदेसु अट्ठमो संघयणभेओ णाम। तस्स पुक्खलुदया करते हैं, उनकी तुलना मित्र से की गई है। इस कोटि के श्रमणोपासक पुक्खल-सरीरसंघयणं भवति। (निभा ८५ की चू) अनुकूलता में वत्सलता रखते हैं और कुछ प्रतिकूलता होने पर __ आठ मूल कर्मप्रकृतियों में छठी प्रकृति है नाम कर्म, जिसके श्रमणों की उपेक्षा करने लग जाते हैं। बयालीस उत्तर भेदों में आठवां भेद है-संहनन नाम कर्म। इस ४. सौत के समान-कुछ श्रमणोपासक ईर्ष्यावश श्रमणों में दोष ही प्रकृति का शुभ रूप में उदय होने पर श्रेष्ठ शरीर संहनन होता है। देखते हैं, किसी भी रूप में उपकारी नहीं होते, उनकी तुलना सपत्नी (सौत) से की गई है। * छह संहनन : परिणाम और कर्मबंध द्र कर्म आन्तरिक योग्यता और अयोग्यता के आधार पर श्रमणो * छह संहननों का स्वरूप द्र श्रीआको १ संहनन पासक के चार वर्ग किए गए हैं (० संहनन का अर्थ है-अस्थि-संरचना। किन्तु यह विमर्शनीय १. आदर्श के समान-दर्पण सामने उपस्थित वस्तु का यथार्थ है। एकेन्द्रिय जीवों के अस्थिरचना नहीं होती, फिर भी श्वेताम्बर प्रतिबिम्ब ग्रहण कर लेता है। इसी प्रकार कुछ श्रमणोपासक श्रमण परम्परा में उनके 'शेवात' तथा दिगम्बर परम्परा में 'असम्प्राप्त के तत्त्व-निरूपण को यथार्थ रूप में ग्रहण कर लेते हैं। सृपाटिका' संहनन माना गया है। इस आधार पर संहनन की २. पताका के समान-ध्वजा अनवस्थित होती है। वह जिधर की व्याख्या अस्थिरचना से हटकर करने की अपेक्षा है। एकेन्द्रिय के हवा होती है. उधर ही मड जाती है। इसी प्रकार कछ श्रमणोपासकों सन्दर्भ को ध्यान में रखकर इसकी व्याख्या यह की जा सकती का तत्त्वबोध अनवस्थित होता है। है-औदारिक शरीवर्गणा के पुद्गलों से होने वाली शरीर-संरचना ३. स्थाण के समान-स्थाण शष्क होने के कारण प्राणहीन हो का नाम है संहनन । वैक्रिय शरीर में अस्थि, शिरा और स्नाय नहीं जाता है। उसका लचीलापन चला जाता है। फिर वह झक नहीं होते, इसलिए उसे संहनन शून्य कहा गया है। नैरयिकों के छह पाता। इसी प्रकार कुछ श्रमणोपासकों में अनाग्रह का रस सूख जाता। संहननों में से कोई संहनन नहीं होता।-भ१/२२४ भाष्य है। ....फिर वे किसी नये सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते। ० नारक और देव असंहननी होते हैं। पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, ४. तीखे कांटों के समान-कपडे में कांटा लग गया। कोई सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच और सम्मूछिम मनुष्य-इनके सेवात आदमी उसे निकालता है। कांटे की पकड इतनी मजबत है कि संहनन होता है । गर्भज तिर्यंच और गर्भज मनुष्यों के छहों संहनन वह न केवल उस वस्त्र को ही फाड डालता है. अपित निकालने होते हैं।-समप्र १८६-१९५ वाले के हाथ को भी बींध डालता है। कुछ श्रमणोपासक * प्रथम संहनन विच्छेद द्र अनशन कदाग्रह से ग्रस्त होते हैं। उनका कदाग्रह छडाने के लिए श्रमण * जिनकल्प और पारांचित में संहनन द्र सम्बद्ध नाम उन्हें तत्त्वबोध देते हैं। वे न केवल उस तत्त्वबोध को अस्वीकार देते हैं। वे न केवल उस तत्त्वबोध को अस्वीकार * जिन-स्थविरकल्प : धृति-संहनन द्र स्थविरकल्प करते हैं, किन्तु तत्त्वबोध देने वाले श्रमण को दुर्वचनों से बींध सचित्त-सजीव। द्र जीवनिकाय डालते हैं।-स्था ४/४३०, ४३१ टि) समवसरण-तीर्थंकरों का प्रवचनस्थल। * श्रावक के बारह व्रत...... द्र श्रीआको १ श्रावक १. समवसरण-रचना : कब? कैसे? संलेखना-अनशन से पूर्व क्रमिक तप के द्वारा शरीर और ० समवसरण : देवकृत । कषाय का कृशीकरण। द्र अनशन २. समवसरण : लोकत्रयी का आगमन ३. समवसरण : तीर्थंकर का प्रवेश संहनन-अस्थि-संरचना। औदारिकशरीर वर्गणा के पुद्गलों ४. समवसरण की मर्यादा-व्यवस्था से होने वाली शरीर-संरचना। __ * प्रथम-द्वितीय समवसरण द्र पर्युषणाकल्प Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरण १. समवसरण - रचना : कब ? कैसे ? जत्थ अपुव्वोसरणं, जत्थ व देवो महिड्डिओ एइ । वाउदय पुप्फ वद्दल, पागारतियं च अभिओगा ॥ साहारण ओसरणे, एवं जत्थिड्डिमं तु ओसरई । एक्को च्चिय तं सव्वं, करेइ भयणा उ इयरेसिं ॥ (बृभा ११७७, ११८१) जिस क्षेत्र में समवसरण की रचना पहले कभी नहीं हुई अथवा पहले हो चुकी है, फिर भी यदि महर्द्धिक देव वन्दना के लिए आते हैं तो वहां नियमतः समवसरण की रचना होती है । शक्रेन्द्र आदि के आभियोगिक देव अपने स्वामी का आदेश पाकर वहां योजन परिमण्डल भूमि में संवर्त्तक वायु की विकुर्वणा करते हैं। उससे रेणु, तृण आदि सारा कचवर बाहर फेंक दिया जाता है। फिर भावी रेणु और संताप की उपशांति के लिए वे उदकबादल की विकुर्वणा कर सुगंधित जल की तथा पुष्पबादल की विकुर्वणा र जानुपर्यंत अधोन्यस्त वृत्त वाले अचित्त पुष्पों की वृष्टि करते हैं, फिर वे तीन प्राकारों की रचना करते हैं। अनेक देवेन्द्र वन्दना करने आते हैं, उस समय तो समवसरण की रचना होती ही है। यदि कोई इन्द्र, सामानिक आदि ऋद्धिमान् देव आता है, तब वह अकेला ही समवसरण की रचना करवाता है । यदि इन्द्र, सामनिक आदि महर्द्धिक देव नहीं आते हैं, भवनवासी आदि देव आते हैं, तब समवसरण की रचना वैकल्पिक है। • समवसरण : देवकृत अभितर- मज्झ - बहिं, विमाण- जोड़-भवणाहिवकयाओ। पायारा तिन्नि भवे, रयणे कणगे य रयए य ॥ ........जं चऽन्नं करणिज्जं करिंति तं वाणमंतरिया ॥ (बृभा ११७८, ११८० ) वैमानिक देव भीतरी रत्नमय परकोटे की रचना करते हैं । ज्योतिष्क देव मध्य में स्वर्णमय और भवनपति देव बाहरी रजतमय परकोटे की रचना करते हैं। शेष करणीय व्यन्तर देव करते हैं । * प्राकार - रचना, द्वादशविध परिषद् द्र श्रीआको १ समवसरण २. समवसरण : लोकत्रयी का आगमन यो लोकाः समाहृताः, समवसरणे त्रयाणामपि सम्भ आगम विषय कोश - २ वात् । तथाहि - समागच्छन्ति भगवतां तीर्थकृतां समवसरणेष्वधोलोकवासिनो भवनपतयः, तिर्यग्लोकवासिनो वानमन्तरतिर्यक्पञ्चेन्द्रिय- ( मनुष्य - ) ज्योतिष्काः, ऊर्ध्वलोकवासिनः कल्पोपपन्नका देवाः । (बृभा १ की वृ) ५९० भगवान् तीर्थंकर के समवसरण में अधोलोकवासी भवनपति देव, तिर्यग्लोकवासी व्यन्तरदेव, तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय प्राणी, मनुष्य और ज्योतिष्क देव तथा ऊर्ध्वलोकवासी कल्पोपपन्न देव उपस्थित होते हैं। इस प्रकार समवसरण में तीनों लोक समाहृत होते हैं। ३. समवसरण : तीर्थंकर का प्रवेश सूरुदय पच्छिमाए, ओगाहिंतीऍ पुव्वओ एति । दोहिँ पउमेहिँ पाया, मग्गेण य होंति सत्तऽन्ने ॥ (बृभा ११८२) तीर्थंकर समवसरण में प्रथम पौरुषी में अथवा पश्चिम पौरुषी में पूर्व दिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं। वे प्रवेश करते समय देवविकुर्वित सहस्रपत्र पद्मयुग्म पर पादन्यास करते हैं । उनके पीछे सात अन्य कमल होते हैं । जो-जो पश्चाद्वर्ती कमल होता है, वह वह चरणन्यास करते हुए भगवान के आगे आ जाता है। ४. समवसरण की मर्यादा - व्यवस्था इंतं महिड्डियं पणिवयंति ठियमवि वयंति पणमंता । न वि जंतणा न विकहा, न परोप्परमच्छरो न भयं ॥ (बृभा ११८९) अर्हत्-समवसरण पहले से ही यदि अल्प ऋद्धि वाले व्यक्ति स्थित हैं तो वे आने वाले महान् ऋद्धि वालों को नमस्कार करते हैं। यदि महर्द्धिक पहले से स्थित हैं तो बाद में प्रवेश करने वाले अल्पर्द्धिक उन्हें प्रणाम करते हुए यथास्थान जाते हैं। समवसरण में न यंत्रणा ( रोक-टोक ) होती है, न विकथावार्ता, न परस्पर प्रद्वेष होता है और न भय। (तत्रस्थ व्यक्तियों के मानस तीर्थंकर के साम्यसुधासिंधु प्रवाह से प्लवित हो जाते हैं, उनके वैर-विरोध की विषैली ऊर्मियां विलीन हो जाती हैं ।) Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५९१ समिति समिति-चारित्र के अनुकूल प्रवृत्ति। १. पांच समितियां २. ईर्यासमिति : प्राणियुक्तपथगमनविधि * ईर्यासमिति का विघ्न द्र परिमंथ ३. भाषा-समिति : जानते हुए भी मौन * भाषा के प्रकार द्र भाषा ० सावध भाषा वर्जन ० सत्य महाव्रत : भाषासमिति की सूक्ष्मता • आगाढ-परुषवचन-निषेध ० आगाढ वचन : असूचा-सूचा ० वस्तुसापेक्ष मृदु-अमृदु वचन, षड्विध अवचन • निषिद्ध भाषा : नभोदेव आदि ० अवधारिणी भाषा प्रयोगविधि : षोडश वचन ० आमंत्रणी भाषा-विवेक ० इह-परलोक-हितभाषी * एषणा समिति द्र पिण्डैषणा * एषणा समिति का विघ्न द्र परिमंथ ४. विचारकल्पिक ० विचारभूमि : उत्सर्गभूमि ५. उत्सर्ग-समिति : प्रासुक स्थण्डिल * जिनकल्पी की स्थण्डिलभूमि द्र जिनकल्प ० उच्चार-प्रस्रवणभूमि प्रतिलेखन ० समाधिपात्र ० उत्सर्ग विधि : दिशा आदि * शवपरिष्ठापन विधि द्र महास्थण्डिल ६. चंचल : गतिचंचलता आदि समिति नहीं १. पांच समितियां इरिएसणभासाणं कामं तु सव्वकालं, पंचसु समितीसु होति जतियव्वं ।" (दशानि ८९, ९०) मुनि को सदा ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उत्सर्ग समिति-इन पांच समितियों से समित रहना चाहिये। ___ (समिति के आठ प्रकार हैं। समिति और गुप्ति का संयुक्त नाम है प्रवचनमाता। द्र श्रीआको १ समिति) * जघन्य श्रुत : प्रवचनमाता का ज्ञान द्र स्थविरकल्प * तीन गुप्तियां द्र गुप्ति २. ईर्यासमिति : प्राणीयुक्तपथगमनविधि ____..पुरओ जुगमायं पेहमाणे, दह्रण तसे पाणे उद्धट्ट पायं रीएज्जा, साहट्ट"""उक्खिप्प""तिरिच्छं वा कट्ट पायं रीएज्जा। सति परक्कमे संजतामेव परक्कमेज्जा, णो उज्जुयं गच्छेज्जा। (आचूला ३/६) ___ मुनि आगे युगप्रमाण भूमि को देखता हुआ चले, मार्ग में त्रस प्राणियों को देखे तो पैर को ऊपर उठाकर चले, पैर को संकुचित कर, पैर के अग्रभाग को उत्क्षिप्त कर (एड़ी से) चले, पैर को तिरछा कर चले। दूसरा मार्ग हो तो यतनापूर्वक उससे जाये, सीधे मार्ग से न जाये। ३. भाषा-समिति : जानते हुए भी मौन से भिक्खू"गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेज्जा।ते"एवं वदेज्जा-आउसंतो! समणा! अवियाई एत्तो पडिपहे पासह, तंजहा-मणुस्सं वा, गोणं वा, महिसं वा, पसुंवा, पक्खि वा"""से आइक्खह, दंसेह " ...' केवइए एत्तो गामस्स वा..."मग्गे?से आइक्खह, दंसेह।तं णो आइक्खेज्जा, णो दंसेज्जा, णो तेसिंतं परिणं परिजाणेज्जा, तुसिणीओ उवेहेज्जा, जाणं वाणो जाणंति वएज्जा"। (आचूला ३/५४,५८) भिक्षु को ग्रामानुग्राम परिव्रजन करते हुए बीच में प्रातिपथिक मिलें । वे इस प्रकार कहें-आयुष्मन्! श्रमण! क्या इस प्रतिपथ में मनुष्य, बैल, महिष, पशु या पक्षी को देखा है? (देखा हो तो) बताओ, दिखाओ। यहां से ग्राम या नगर का कौन-सा मार्ग है? उसे बताओ, दिखाओ। वह उनको न बताए, न दिखाए, न उनकी उस परिज्ञा को स्वीकार करे, मौन रहता हुआ उपेक्षा करे, जानता हुआ भी 'जानता हूं' ऐसा न कहे। ० सावध भाषा वर्जन से भिक्खू वा भिक्खुणी वा इमाई वइ-आयाराई सोच्चा णिसम्म इमाइं अणायाराई अणायरियपुव्वाइं जाणेज्जा-जे कोहा वा.."माणा वा..."मायाए वा.."लोभा वा वायं Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिति ५९२ आगम विषय कोश-२ विउंजंति, जाणओ वा अजाणओ वा फरुसं वयंति, सव्वमेयं सावजं वज्जेज्जा विवेगमायाए॥ .."जा य भासा सच्चा, जा य भासा मोसा, जा य भासा सच्चामोसा, जा य भासा असच्चामोसा, तहप्पगारं भासं . सावजं सकिरियं कक्कसं कडुयं निट्ठरं फरुसं अण्हयकरिं छेयणकरिं भेयणकरिं परितावणकरिं उद्दवणकरिं भूतोव- घाइयं अभिकंख णो भासेज्जा॥ (आचूला ४/१, १०) वह भिक्षु अथवा भिक्षुणी इन वचन-आचारों को सुनकर, अवधारण कर इन पूर्व मुनियों द्वारा अनाचीर्ण अनाचरणीय वचनों ने-जो क्राध, मान, माया आर लाभ स वचन का दुष्प्रयाग करते हैं, जानबूझकर या अनजान में परुष बोलते हैं, इस सर्व सावध भाषा का विवेकपर्वक वर्जन करे। जो सत्यभाषा. मषाभाषा. मिश्रभाषा और असत्यामषा (व्यवहार) भाषा. इस प्रकार की भाषा यदि सावध, कर्मबंधकारिणी.. कर्कश, कटुक, निष्ठुर, परुष, आस्नवकारिणी, छेदनकारिणी, भेदनकारिणी, परितापकारिणी, प्राण-वियोजनकारिणी और प्राणियों का उपघात करने वाली हो तो मुनि विचारविमर्शपूर्वक सत्य और व्यवहार भाषा भी न बोले। ० सत्य महाव्रत : भाषासमिति की सूक्ष्मता अस्संजतमतरते, वट्टइ ते पुच्छ होज्ज भासाए। वट्टति असंजमो से, मा अणुमति केरिसं तम्हा॥ ""एवं वत्तव्वं-केरिसं? इह वयणे अत्थावत्तिपओगेण वि सुहुमो वि अणुमतिदोसो ण लब्भति। (निभा १०१ चू) कोई साधु किसी ग्लान गृहस्थ को पूछे-तुम ठीक हो?- जो भिक्षु भदंत (आचार्य आदि) को आगाढ-परुषवचन कहता है, कहते हुए दूसरे का अनुमोदन करता है, वह चातुर्मासिक गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। गाढुत्तं गृहणकरं, गाहेतुम्हं व तेण आगाढं। णेहरहितं तु फरुसं....॥ (निभा २६०८) कठोर वचन के दो प्रकार हैं१. आगाढ वचन-दूसरों को न कहने योग्य गुप्त बात कहना अथवा शरीर में उष्मा पैदा करने वाला वचन बोलना। २. परुष वचन-स्नेहहीन वचन बोलना। . आगाढवचन : असूचा-सूचा आगाढं पि य दुविहं, होइ असूयाइ तह य सूयाए।" जाति-कुल-रूव-भासा, धण बल परियाग जस तवे लाभे। सत्त-वय-बुद्धि-धारण, उग्गह सीले समायारी॥ अम्हे मो जातिहीणा, जातीमंतेहि को विरोहो णे। एस असूया सूया, तु णवरि परवत्थु-णिद्देसो॥ ....."आतगता तु असूया, सूया पुण पागडं भणति॥ (निभा २६०७, २६०९, २६१०, २६१६) आगाढ वचन के दो प्रकार हैं- १. असूचा-अपने दोष बताने के बहाने दूसरों के दोष प्रकट करना। यथा-हम तो जातिहीन हैं, जातिमान् लोगों से हमारा क्या विरोध? २. सूचा-स्पष्ट रूप से दूसरों के दोषों को सूचित करना। जाति, कुल, रूप, भाषा, धन, बल, पर्याय, यश, तप, लाभ, सत्त्व, वय, बुद्धि, धारणा (दृढ़स्मृति), अवग्रह (बहबहुविध आदि), शील और सामाचारी-इन सतरह स्थानों से सूचा-असूचा वचनों की अभिव्यक्ति होती है। ० वस्तुसापेक्ष मृदु-अमृदु वचन, षड्विध अवचन वत्थु वियाणिऊणं, एवं खिंसे उवालभेज्जा वा। खिंसा तु णिप्पिवासा, सपिवासो हो उवालंभो॥ खिंसा खलु ओमम्मी, खरसझे वा विसीयमाणम्मि। रायणिय-उवालंभो, पुव्वगुरु महिड्डि माणी य॥ (निभा २६३७, २६३८) वस्तु (व्यक्ति) को जानकर खिंसा और उपालम्भ देना अनुमोदन का दोष लगता है। इससे बचने के लिए इस प्रकार पूछना चाहिए-कैसे है ? (क्या स्थिति है ?)-इसमें अर्थापत्तिप्रयोग होने पर भी सूक्ष्म अनुमति दोष भी नहीं है। • आगाढ-परुष-वचन-निषेध जे भिक्खू भदंतं आगाढं फरुसं वदति, वदंतं वा सातिजति॥.."तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घातियं॥ (नि १०/३, ४१) Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५९३ समिति चाहिए। निष्ठुर-स्नेहहीन वचनों से भर्त्सना करना खिंसा और वएज्जा"उवणीयवयणं"अवणीयवयणं"उवणीयअवणीयमृदु-स्निग्ध वचनों से निन्दा करना उपालम्भ है। वयणं..."अवणीयउवणीयवयणं वएज्जा, तीयवयणं.... जो छोटे और खरसाध्य (कठोरता से मानने वाले) हैं, पडुप्पन्नवयणं "अणागयवयणं वदिस्सामीति अणागयवयणं स्खलना करने पर उनकी खिंसा करनी चाहिए। ."पच्चक्खवयणं वदिस्सामीति पच्चक्खवयणं"परोक्खजो रात्निक-ज्येष्ठ हैं, पूर्वगुरु हैं, राजा आदि ऋद्धिमान वयणं वदिस्सामीति परोक्खवयणं वएज्जा॥ व्यक्ति हैं अथवा मानी (ऋद्धिमान न होने पर भी स्वाभिमानी) हैं, (आचूला ४/३, ४) उन्हें त्रुटि होने पर उपालम्भ देना चाहिए। विचारपूर्वक निष्ठाभाषी (निश्चित जानकारी के पश्चात नो कप्पड़ निग्गंथाण"छ अवयणाई वइत्तए... निश्चित बोलने वाला) संयमी सम्यक् भाषा बोले । (कहना हो तो अलियवयणे हीलियवयणे खिंसियवयणे फरुसवयणे वह) १. एकवचन बोलूंगा-ऐसा निश्चय कर एकवचन बोले, गारत्थियवयणे विओसवियं वा पुणो उदीरित्तए॥(क ६/१) २. द्विवचन बोलूंगा-ऐसा निश्चय कर द्विवचन बोले, ३. बहुवचन ___ निग्रंथ को छह प्रकार के अप्रशस्त वचन नहीं बोलने बोलूंगा-ऐसा निश्चय कर बहुवचन बोले, ४. स्त्रीवचन बोलूंगाचाहिए-असत्य वचन, अवज्ञापूर्ण वचन, मर्मवेधी वचन, परुष, ऐसा जानकर स्त्रीवचन बोले, ५. पुरुषवचन बोलूंगा-ऐसा सोच वचन, गृहस्थ वचन (मेरी माता, मेरा पुत्र आदि), उपशांत कलह पुरुषवचन बोले, ६. नपुंसकवचन बोलूंगा-ऐसा निश्चय कर की उदीरणा करने वाले वचन। नपुंसकवचन बोले, ७. अध्यात्मवचन बोलूंगा-ऐसा निश्चय कर • निषिद्ध भाषा : नभोदेव आदि अध्यात्मवचन बोले, ८. उपनीत (प्रशंसात्मक) वचन बोलूंगासे भिक्खू वा भिक्खुणी वा णो एवं वएज्जा ऐसा निश्चय कर उपनीत वचन बोले, ९. अपनीत (निन्दात्मक) णभोदेवे ति वा, गज्जदेवे ति वा, विजुदेवे ति वा, पवद्वदेवे वचन बोलूंगा-ऐसा निश्चय कर अपनीत वचन बोले, १०. उपनीततिवा, निवदेवे तिवा, पडउवा वासंमा वा पडउ.णिप्फज्जउ अपनीत वचन बोलूंगा-ऐसा निश्चय कर उपनीत-अपनीत वचन वा सस्सं मा वाणिएफजउ, विभाउ वा रयणीमा वा विभाउ, बोले, ११. अपनीत-उपनीत वचन बोलूंगा-ऐसा निश्चय कर उदेउ वा सरिए मा वा उदेउ, सो वा राया जयउ मा वा अपनीत-उपनीत वचन बोले, १२. अतीत वचन बोलूंगा-ऐसा जय . (आचला ४/98) निश्चय कर अतीत संबंधी वचन बोले, १३. वर्तमान संबंधी वह भिक्षु अथवा भिक्षणी इस प्रकार न बोले-(आकाश वचन बोलूंगा-ऐसा निश्चय कर वर्तमान वचन बोले. १४. अनागत को) नभोदेव, (मेघ के गर्जन को) गर्जने वाला देव और (बिजली सबधी वचन बोलूंगा-ऐसा निश्चय कर अनागत वचन बोले. को) विद्युत देव न कहे। प्रवृष्टदेव (देव बरसा है), निवष्ट देव १५. प्रत्यक्षवचन बोलूंगा-ऐसा निश्चय कर प्रत्यक्ष वचन बोले, (देव नहीं बरसा है)-ऐसा न कहे। वर्षा हो अथवा न हो, धान्य १६. परोक्षवचन बोलूंगा-ऐसा निश्चय कर परोक्ष वचन बोले। निष्पन्न हो अथवा न हो, रात्रि हो अथवा न हो, सूर्य उदित हो . आमंत्रणी भाषा-विवेक अथवा न हो, वह राजा विजयी हो अथवा न हो-ऐसा न कहे। सेभिक्खू"पुमं आमंतेमाणे आमंतिते वा अपडिसुणेमाणे ० अवधारिणी भाषा-प्रयोगविधि : षोडश वचन णो एवं वएज्जा-होले ति वा, गोले ति वा, वसुले ति वा, अणुवीइ णिट्ठाभासी, समियाए संजए भासं भासेज्जा" कुपक्खे ति वा, घडदासे ति वा, साणे ति वा, तेणे ति वा, से एगवयणं वदिस्सामीति एगवयणं ""दुवयणं वदिस्सामीति चारिए ति वा, माईति वा, मुसावाई ति वा इच्चेयाइं तुम एयाइं दुवयणं... बहुवयणं वदिस्सामीति बहुवयणं वएज्जा, ते जणगा वा-एतप्पगारं भासं सावजं सकिरियं जाव इत्थीवयणं वदिस्सामीति इत्थीवयणं"पुरिसवयणं... भूतोवघाइयं अभिकंख नो भासेज्जा"एवं वएज्जा-अमुगे णपुंसगवयणं"अज्झत्थवयणं वदिस्सामीति अज्झत्थवयणं तिवा, आउसो ति वा "सावगे ति वा, उपासगे ति वा, धम्मिए Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिति ५९४ आगम विषय कोश-२ ति वा, धम्मपिये ति वा-एयप्पगारं भासं असावजं जाव जिसने आचारचूला के 'उच्चार-प्रस्रवण सप्तैकक' नामक अभूतोवघाइयं अभिकंख भासेज्जा ॥ (आचूला ४/१२, १३) अध्ययन अथवा ओघनियुक्ति को पढ़ा है, सुना है, उसके अर्थ को तर भिल अथवा मिश्रण को आरित करना अधिगत किया है और सूत्रोक्त विधि से स्थण्डिल संबंधी आचरण अथवा आमंत्रित कर चुकने पर (संबंधित व्यक्ति के) न सुनने पर करता है, वह विचार-कल्पिक है। इस प्रकार न बोले-हे होल! हे गोल! हे वृषल! हे कुपक्ष उल्लिखित अध्ययन पढ़ाये बिना विचारभूमि में अकेले (कुत्सित कुलोत्पन्न) ! हे घटदास (पानी लाने वाले) ! हे श्वान! शिष्य को भेजने वाला गुरु चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। हे चोर! हे गुप्तचर ! हे मायाविन्! हे मृषावादिन् ! तुम ऐसे हो, सचित्त, आपातसंलोक आदि दोषों से युक्त अचित्त और तुम्हारे माता-पिता ऐसे हैं-इस प्रकार की सावध सक्रिय (हिंसा मिश्र-इस त्रिविध स्थण्डिल का जो परिहारविषयक नौ भेदों से युक्त) यावत् भूतोपघातकारिणी भाषा को पर्यालोचन-पूर्वक न परिहार करता है-वहां मनसा, वाचा, कर्मणा न स्वयं जाता है, न बोले । भिक्षु इस प्रकार बोले-हे अमुक ! हे आयुष्मन् ! हे श्रावक! दूसरे को भेजता है और जाने वाले दूसरे का अनुमोदन भी नहीं दूर हे उपासक! हे धार्मिक! हे धर्मप्रिय!-इस प्रकार की निरवद्य करता है, वह विचारकल्पिक है। यावत् भूतोपघात न करने वाली भाषा सोच-विचार कर बोले। . विचारभूमि : उत्सर्गभूमि ० इह-परलोक-हितभाषी सण्णावोसिरणं वियारभूमी। (नि २/४० की चू) वाहिविरुद्धं भुंजति, देहविरुद्धं च आउरो कणति। विचारभूमी द्विविधा-कायिकीभूमिः उच्चारभूमिश्च।। आयासऽकालचरियादिवारणं एहियहियं तु॥ (बृभा ३२०८ की वृ) सामायारी सीदंत चोयणा उज्जमंत संसा य। संज्ञाव्युत्सर्गभूमि को विचारभूमि कहा जाता है। उसके दारुणसभावयं चिय, वारेति परत्थहितवादी॥ दो प्रकार हैं-कायिकीभूमि और उच्चारभूमि । (व्यभा ६९, ७०) ५. उत्सर्ग समिति : प्रासुक स्थण्डिल कोई मुनि व्याधिविरुद्ध (व्याधिवर्धक) आहार करता है से भिक्ख वा भिक्खणी वा... अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीअं अथवा देहविरुद्ध आचरण करता है। एक मुनि शक्ति-सीमा का अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टियअतिक्रमण कर कोई कार्य करता है, अकालचर्या करता है-जो मक्कडासंताणयं, तहप्पगारंसि थंडिलंसि उच्चार-पासवणं मुनि दन कार्यों का निषेध करता है, वह इहलोक हितभाषी है। वोसिरेज्जा। (आचूला १०/३) जो सामाचारी के आचरण में विषण्ण मुनि को सही आचरण के लिए प्रेरित करता है, उद्यमशील की प्रशंसा करता है, दारुण __ वह भिक्षु अथवा भिक्षुणी, जहां कीट-अण्ड, जीव-जन्तु, बीज, हरित, ओस, उदक, चींटियों के बिल, फफूंदी, दलदल और स्वभाव का निवारण करता है, वह परलोक हितभाषी है। मकड़ी के जाले न हों, वैसे स्थण्डिल में उच्चार-प्रस्रवण (मल४. विचारकल्पिक मूत्र) का विसर्जन करे। पढिते य कहिय अहिगय, परिहरति वियारकप्पितो सो उ। * स्थण्डिल के चार प्रकार द्र श्रीआको १ समिति तिविहं तीहि विसुद्ध, परिहर नवगेण भेदेणं॥ सूत्रे सप्तसप्तकलक्षणे ओघनिर्यक्तिलक्षणे वा अप्राप्ते ० उच्चार-प्रस्रवणभूमि प्रतिलेखन यदि विचारभूमावेकाकिनं प्रस्थापयति तदा तस्य प्रायश्चित्तं जे भिक्खू साणुप्पए उच्चार-पासवणभूमिं ण चत्वारो गरुका:... त्रिविधं' सचित्तमचित्तं मिश्रंच स्थण्डिलं पडिलेहेति"""आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं ।। परिहारविषयेण नवकभेदेन 'त्रिभिः' मनोवाक्कायैर्विशुद्धं साणुप्पओ णाम चउभागावसेसचरिमाए। परिहरति स भवति विचारकल्पिकः। (बृभा ४१६ वृ) (नि ४/१०८, ११८ चू, Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५९५ समिति जो भिक्षु चौथी पौरुषी के चौथे भाग में उच्चार-प्रस्रवण उत्तर पुव्वा पुज्जा, जम्माएँ निसीयरा अभिवडंति। भूमि का प्रतिलेखन नहीं करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त घाणारसा य पवणे, सूरिय गामे अवन्नो उ॥ आता है। संसत्तग्गहणी पुण, छायाए निग्गयाएँ वोसिरइ। पासवणुच्चारादीण भूमीओ जो तओ उ पडिलेहे। छायाऽसति उण्हम्मि वि, वोसिरिय मुहुत्तगं चिढ़े। अंतो वा बाहिं वा, अहियासिं वा अणहियासिं॥ (बृभा ४४१, ४५६-४५८) अंतो णिवेसणस्स काइयभूमीओ अणहियासियाओ .."तिण्हं णावापूराणं आयमति ॥ (नि ४/११७) तिन्नि-आसन्न मज्झ दूरे। अहियासियाओ वि तिन्नि- मुनि उत्सर्ग के लिए गुरु को पूछकर प्रथम स्थण्डिल आसन्न मज्झ दूरे।"बहिं णिवेसणस्स एवं चेव छ काइयभूमीओ (अनापात-असंलोक) में जाए, समश्रेणी में युगल रूप में न चले, एवं पासवणे बारस, सण्णाभूमीओ वि बारस, एवं च ताओ त्वरित गति से न चले, चलते समय कथा-विकथा न करे। दिशा सव्वाओ चउव्वीसं।"" कयाति एक्कस्स वाघातो भवति तो आदि का अवलोकन करेबितियादिसु परिट्ठविज्जति। (निभा १८६० चू) दिशा-पूर्व और उत्तरदिशा लोक में पूज्य मानी जाती है। अत: मनि उच्चार-प्रस्रवण-परिष्ठापन के लिए तीन भूमियों की दिन या रात में उस दिशा में पीठ करके न बैठे। निशाचरों के प्रतिलेखना करता है। कायिकी भूमि के दो प्रकार हैं-अध्यासिका आवागमन के कारण रात्रि में दक्षिण में पीठ न करे। कहा भी हैऔर अनध्यासिका। इन दोनों के तीन-तीन प्रकार हैं-निकट, मध्य उभे मूत्र-पुरीषे तु, दिवा कुर्यादुदङ्मुखः । और दूर। प्राचीनकाल में उपाश्रय के भीतर छह और बाहर भी रात्रौ दक्षिणतश्चैव, तथा चाऽऽयुर्न हीयते ॥ छह-इस प्रकार बारह कायिकी भूमियों की प्रतिलेखना की जाती ० पवन-सूर्य-ग्राम-वायु के वेग की ओर पीठ करके बैठने से थी। इसी प्रकार बारह संज्ञाभूमियां होती थीं। कुल चौबीस भूमियों अशुभ गंधद्रव्य नासिका में प्रविष्ट हो सकते हैं । सूर्य और ग्राम की की प्रतिलेखना की जाती थी। इतनी भूमियों का निरीक्षण इसलिए ओर पीठ करने से लोक में अवज्ञा होती है। किया जाता था कि एक में बाधा उपस्थित होने पर दूसरी, तीसरी ० छाया-जिस मुनि की कुक्षि में कृमि आदि द्वीन्द्रिय जीव हों, आदि निर्बाध भूमि का उपयोग किया जा सके। वह वृक्ष आदि की छाया में मलोत्सर्ग करे। मध्याह्न में यदि ० समाधिपात्र मलोत्सर्ग करना हो और छाया न हो तो धूप में भी शरीर की छाया में मलोत्सर्ग करे और कुछ क्षणों तक वहीं बैठा रहे। से भिक्खू"सपाययं वा परपाययं वा गहाय से तमा ० प्रमार्जन-भूमि का तीन बार प्रतिलेखन-प्रमार्जन करे। याए एगंतमवक्कमेज्जा अणावायंसि असंलोयंसि“उच्चारपासवणं परिठ्ठवेज्जा॥ ० अनुज्ञा- 'जिसका स्थान है, वह अनुमति दे'-इस प्रकार पात्रकं समाधिस्थानं गृहीत्वा स्थण्डिलं... गत्वा स्थानाधिपति की अनुज्ञा लेकर व्युत्सर्ग करे। प्रस्रवणं परिष्ठापयेत्। o आचमन-तीन चुलुक से शुद्धि करे। (आचूला १०/२८ वृ) ६. चंचल : गतिचंचलता आदि समिति नही भिक्षु अपने अथवा दूसरे के पात्र-समाधिपात्र को लेकर गइ-ठाण-भास-भावे एकांत में जाए, अनापात-असंलोक स्थण्डिल में मल-मूत्र का दावद्दविओ गइचंचलो उ ठाणचवलो इमो तिविहो। परिष्ठापन करे। कुड्डादऽसई फुसइ व, भमइ व पाए व विच्छु भइ॥ ० उत्सर्ग-विधि : दिशा आदि भासाचपलो चउहा, अस त्ति अलियं असोहणं वा वि। अजुयलिया अतुरिया, विगहारहिया वयंति पढमं तु।... असभाजोग्गमसब्भं, अणूहिउं तं तु असमिक्खं ॥ दिसि-पवण-गाम-सूरिय-छायाएँ पमज्जिऊण तिक्खुत्तो।। कजविवत्तिं दर्दू, भणाइ पुट्वि मए उ विण्णायं। जस्सुग्गहो त्ति काऊण वोसिरे आयमे वा वि॥ एवमिदं तु भविस्सइ, अदेसकालप्पलावी उ॥ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व ५९६ आगम विषय कोश-२ जं जं सुयमत्थो वा, उद्दिटुं तस्स पारमप्पत्तो। ० सम्यक्त्व-मिथ्यात्व पदगलों का संक्रमण अन्नन्नसुयदुमाणं, पल्लवगाही उ भावचलो॥ | ५. सम्यक्त्वप्राप्ति का एक हेतु : जातिस्मृति (बृभा ७५१-७५५) । ६. सम्यक्त्वप्राप्ति और ज्ञान चंचल के चार प्रकार हैं ० सम्यक्त्व का हेतु : अपाय * आशातना से सम्यक्त्व का नाश द्र आशातना १. गति चंचल-जो अत्यन्त द्रतगामी होता है। ७. मिथ्यात्वप्राप्ति का हेतु और दृष्टांत २. स्थान चंचल के तीन प्रकार हैं ८. मिथ्यादर्शन के प्रकार ० जो हाथ आदि से दीवार आदि का बार-बार स्पर्श करता है। ० आभिग्रहिक-अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व • जो बैठा-बैठा इधर-उधर घूमता है। ९. सम्यक्त्वदीक्षा और वाचना के अयोग्य ० जो पैरों का बार-बार संकोच-विकोच करता है। १०. अक्रियावादी-कृष्णपक्षी ३. भाषाचंचल के चार प्रकार हैं |११. क्रियावादी-शुक्लपक्षी ० असत्प्रलापी-असत्य अथवा अशोभन बोलने वाला। १. सम्यग्दर्शन-मिथ्यादर्शन की परिभाषा ० असभ्यप्रलापी-असभ्य वचन बोलने वाला। सोच्चा व अभिसमेच्च व, तत्तरुई चेव होइ सम्मत्तं। ० असमीक्षितप्रलापी-बिना सोचे-विचारे बोलने वाला। ० अदेशकालप्रलापी-बिना अवसर बोलने वाला। कार्य को विनष्ट तत्थेव य जा विरुई, इतरत्थ रुई य मिच्छत्तं॥ होते देख ऐसा कहने वाला-मैंने तो पहले ही जान लिया था कि (बृभा १३४) यह इस प्रकार होगा। केवलज्ञानी आदि के उपदेश को सुनकर अथवा जातिस्मरण ४. भावचंचल-जो मुनि आवश्यक, दशवैकालिक आदि आगमों आदि के द्वारा स्वयं जानकर जो तत्त्वों में रुचि (श्रद्धा) होती है, के सूत्र और अर्थ का अध्ययन प्रारंभ कर उस अध्ययन को पूर्ण वह सम्यक्त्व है। किये बिना ही अन्यान्य शास्त्र रूपी वृक्षों के पल्लवों-आलापक, तत्त्व में अरुचि और अतत्त्व में रुचि होना मिथ्यात्व है। श्लोक, गाथा आदि को थोड़ा-थोड़ा अपनी रुचि के अनुसार ग्रहण ० दर्शन और ज्ञान में भेद करता है, वह पल्लवग्राही भावचंचल कहलाता है। 'यदेवेदं भगवद्भिरुपदिष्टं तदेव तत्त्वं युक्तियुक्तत्वाद् * समिति के प्रकार, उदाहरण आदि द्र श्रीआको १ समिति नेतरत' इति सम्यग्दर्शनम् । ज्ञानमप्येवंरूपमेवेति कः सम्यग्दर्शनसम्यक्त्व- सम्यग् दृष्टि। अनंतानुबंधीचतुष्क (क्रोध, मान, ज्ञानयोः प्रतिविशेषः? उच्यतेमाया, लोभ) और दर्शनत्रिक (मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्व- दंसणमोग्गह ईहा, नाणमवातो उ धारणा जह उ। मोह)-इस सप्तक के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम से तह तत्तरुई सम्मं, रोइज्जइ जेण तं नाणं॥ होने वाली आत्मविशुद्धि। ___ यस्तत्त्वानामवगमः स ज्ञानम्, या त्ववगतेषु तत्त्वेषु रुचिः-परमा श्रद्धा आत्मनः परिणामविशेषरूपा सा १. सम्यग्दर्शन-मिथ्यादर्शन की परिभाषा ० दर्शन और ज्ञान में भेद सम्यग्दर्शनम् ""। (बृभा १३३ वृ) २. सम्यक्त्व के प्रकार 'अर्हतों द्वारा जो भी उपदिष्ट है, युक्तियुक्त होने से वही ० औपशमिक सम्यक्त्व : मिथ्यात्वमोह का अनुदय तत्त्व है, अन्य नहीं'-यह सम्यगदर्शन है और ज्ञान का भी यही ० शेष कर्मों का मंद अनुभाव : नैरयिक दृष्टांत रूप है, फिर सम्यग्दर्शन और ज्ञान में क्या भेद है? ३. भव्य-अभव्य और ग्रन्थिभेद जैसे सामान्य अवबोध के कारण अवग्रह और ईहा दर्शन ४. सम्यक्त्व प्राप्ति : त्रिपुंजी."अपुंजी है, विशेष अवबोधात्मक होने से अपाय और धारणा ज्ञान है, वैसे Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ५९७ सम्यक्त्व ही जो तत्त्वों का अवबोध है, वह ज्ञान है और अवगत तत्त्वों में जो उववाएण व सायं, नेइओ देवकम्मुणा वा वि। परम श्रद्धा-आत्मा का परिणामविशेष है, वह सम्यग् दर्शन है, अज्झवसाणनिमित्तं, अहवा कम्माणुभावेणं ।। जिसके द्वारा उस ज्ञान को रुच्यात्मक किया जाता है। नैरयिकः उपपातकाले सातमनुभवति तदानीं हि न तस्य क्षेत्रजा वेदना न परस्परोदीरिता नापि परमाधार्मिको२. सम्यक्त्व के प्रकार दीरितेति। देवो हि कश्चिन्महर्द्धिकः पूर्वभवस्नेहतस्तत्र गत्वा उवसमियं सासायण, खओवसमियं च वेदगं खइयं।.... कस्यापि कञ्चित्कालं वेदनामुपशमयति, ततः सातं वेदयते... (बृभा ९०) तथाविध शुभाध्यवसायप्रवृत्तिनिमित्तं सातमासादयति, सम्यक्त्व के पांच प्रकार हैं- औपशमिक, सास्वादन, यथा""सम्यग्दर्शनलाभे हि जात्यन्धस्य चक्षुर्लाभ इव जायते क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक सम्यक्त्व। महान् प्रमोदः। "कर्मणां सातवेदनीयप्रभृतीनां शुभानाम् * पंचविध सम्यक्त्व का स्वरूप द्र श्रीआको १ सम्यक्त्व अनुभावः..."उदयेन वेदनं तेन सातमनुभवति। तथाहि भगवतां तीर्थकृतां जन्मनि दीक्षायां ज्ञाने च तत्प्रभावतो ० औपशमिक सम्यक्त्व : मिथ्यात्वमोह का अनुदय उवसामगसेढिगयस्स होति उवसामियं तु सम्मत्तं। नरकेऽप्यालोको जायते, नैरयिकाणामपि च शुभकर्मोदयजो वा अकयतिपुंजो, अखवियमिच्छो लहइ सम्मं ॥ प्रसरतः सातमिति। (बृभा १२३, १२४ ) वाही असव्वछिन्नो, कालाविक्खंकुरु व्व दड्ढदुमो। सम्यक्त्वप्राप्ति काल में वेदनीय आदि शेष कर्मों का भी उवसामगाण दोण्ह वि, एते खलु होति दिटुंता॥ उदय मंद हो जाता है। सूत्र (ग्रंथांतर) में कथन है कि नैरयिक ऊसरदे पं च विज्झाइ वणदवो पप्प। जीव उपपात आदि के समय सातकर्म का अनुभव करते हैं। चार इय मिच्छस्स अणुदए, उवसमसम्मं मुणेयव्वं ॥ स्थानों से नैरयिक सात का अनुभव करता है १. उपपात-जन्म के समय उसके क्षेत्रजा वेदना, परस्पर उदीरित (बृभा ११८, ११९, १२२) । वेदना और परमाधार्मिक द्वारा उदीरित वेदना नहीं होती। औपशमिक सम्यक्त्वप्राप्ति के दो स्थान हैं-१. उपशमश्रेणि २. देवकर्म-कोई महर्द्धिक देव पूर्वभव के स्नेह के कारण नरक में में आरूढ व्यक्ति औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है। जाकर कुछ समय के लिए किसी की वेदना को उपशांत कर देता २. अक्षीण मिथ्यात्व वाला व्यक्ति, जो अपूर्वकरण में मिथ्यात्व है, तब वह सात का वेदन करता है। पुद्गलों के तीन पुंज (शुद्ध, मिश्र, अशुद्ध) नहीं करता, वह ३. अध्यवसान-नैरयिक शुभ अध्यवसाय के निमित्त से सुख प्राप्त औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है। करता है। यथा-सम्यक्त्वप्राप्ति के समय उसे महान् हर्ष होता है, द्विविध उपशमी अंतर्मुहूर्त तक उपशम सम्यक्त्व का अनुभव मानो जन्मान्ध व्यक्ति को आंख मिल गई हो। कर तत्पश्चात् अवश्य गिरते हैं। जैसे पूर्ण रूप से अक्षीण व्याधि १. कर्म-अनुभाव-सातवेदनीय आदि शुभ कर्मों के उदय से वह समय पाकर पुनः उद्भूत हो जाती है, दग्ध वृक्ष समय पाकर पुनः सुख का अनुभव करता है। जैसे-तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, अकुारत हा जाता ह, वस हा उपशामत मिथ्यात्व अतमुहूत्त पश्चात् कैवल्यप्राप्ति और निर्वाण के अवसर पर उनके प्रभाव से नरक में पुनः उदित हो जाता है। भी आलोक होता है, तब नैरयिकों को भी शुभ कर्मोदय के योग से औपशमिकसम्यक्त्व में मिथ्यात्वपुद्गलों का अभाव होने सुख होता है। से मिथ्यात्व का वेदन नहीं होता। जैसे दावानल तृण आदि से (चार कारणों से मनुष्यलोक और देवलोक में उद्योत होता रहित प्रदेश अथवा दग्ध भूमि को प्राप्त कर बुझ जाता है। है-अर्हन्तों के जन्म, दीक्षा, कैवल्यप्राप्ति और परिनिर्वाणमहोत्सव ० शेष कर्मों का मंद अनुभाव : नैरयिक दृष्टांत पर।-स्था ४/४३६, ४३८) जिम्हीभवंति उदया, कम्माणं अस्थि सुत्त उवदेसो। ३. भव्य-अभव्य और ग्रंथिभेद उववायादी सायं, जह नेरइया अणुभवंति॥ अहभावेण पसरिया, अपुव्वकरणेण खाणुमारूढा।.... Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व ५९८ आगम विषय कोश-२ पच्चोरुहणट्ठा खाणुआतो चिट्ठति तत्थ एवावि। वर्तमान जीव वर्धमान परिणामधारा के कारण एक साथ मिथ्यात्व पक्खविहूणातों पिवीलियातो उडुंति उ सपक्खा॥ पुद्गलों के तीन पुञ्ज करता है-मिथ्यात्व पुद्गल, सम्यग्..."भवसिद्धिसलद्धीण य, पंखालपिवीलिया उवमा॥ मिथ्यात्व (मिश्र) पुद्गल और सम्यक्त्व पुद्गल। कोऽपि मन्दाध्यवसायतया तीव्रविशोधिरहितोऽपूर्व- जब तक मिथ्यात्व क्षीण नहीं होता, तब तक सम्यक्त्वी करणेन ग्रन्थिभिदामाधातुमुद्यतः समुच्छलितघनरागद्वेष- नियमतः त्रिपुंजी होता है। मिथ्यात्वपुंज क्षीण होने पर द्विपुंजी, परिणामस्तत्रैव तिष्ठति, स्थित्वा च पुनः पश्चात्ततः मिश्रपुंज के क्षीण होने पर एक पुंजी और सम्यक्त्वपुंज के क्षीण होने प्रतिनिवर्त्तते।"भवसिद्धिका:-कतिपयभवमोक्षगामिनः। पर अपुंजी अर्थात् क्षपक हो जाता है। ......"सलब्धिः-उत्तरोत्तरविशुद्धाध्यवसायप्राप्तिर्येषां ते ० सम्यक्त्व-मिथ्यात्व पुद्गलों का संक्रमण सलब्धिकाः। (बृभा १००, १०१, १०४ वृ) मिच्छत्ता संकंती, अविरुद्धा होति सम्म-मीसेसु। (अभव्य प्राणी ग्रन्थिदेश के पास आकर कैसे रुक जाते हैं? मीसातो वा दुण्णि वि, ण उ सम्मा परिणमे मीसं॥ वहां से कैसे नीचे गिरते हैं? तथा भव्य प्राणी ग्रंथि को भेदकर हायंते परिणामे, न कुणति मीसे उ पोग्गले सम्मे। आगे कैसे चले जाते हैं ?) न य सोहिया से विजंति केइ जे दाणि वेएज्जा॥ कछ पिपीलिकाएं सहजभाव से बिल से निकलकर इधर सम्मत्तपोग्गलाणं, वेदेउं सो य अंतिमं गासं। उधर जाने लगीं। कुछ पिपीलिकाएं अपर्व प्रयत्न के द्वारा एक पच्छाकडसम्मत्तो, मिच्छत्तं चैव संकमति॥ स्थाणु पर चढ़ गईं। उनमें से भी पंखविहीन चींटियां स्थाण पर ही (बृभा ११४-११६) ठहर जाती हैं, फिर उससे नीचे आ जाती हैं। पंखयुक्त चींटियां मिथ्यात्व पुद्गलों का सम्यक्त्व और मिश्र (सम्यग्आकाश में उड़ जाती हैं। मिथ्यात्व) के पदगलों में संक्रमण हो सकता है। मिश्र पदगलों इसी प्रकार तीव्र विशोधिरहित कोई प्राणी मन्द अध्यवसाय का सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के पुद्गलों में संक्रमण हो सकता से अपूर्वकरण के द्वारा ग्रन्थिभेद के लिए उद्यत होता है, किन्तु है। सम्यक्त्व के पुद्गलों का मिश्र में संक्रमण नहीं होता। सघन राग-द्वेष के परिणामों के कारण ग्रन्थि के पार्श्व देश में ही सम्यक्त्वप्राप्ति काल में जिसकी परिणामधारा हीयमान स्थित हो जाता है, फिर वहां से लौट आता है। होती है, वह मिश्र तथा मिथ्यात्व के पुद्गलों को सम्यक्त्व में जो प्राणी भवसिद्धिक-कुछेक भवों के बाद मोक्ष जाने वाले संक्रांत नहीं करता और न उसके कोई पूर्वशोधित अन्य पदगल तथा सलब्धिक-उत्तरोत्तर विशुद्ध अध्यवसाय वाले होते हैं, उनको होते हैं, जिनका सम्यक्त्व-निष्ठाकाल में वेदन कर सके। पंखों वाली पिपीलिकाओं की उपमा दी गई है। पश्चात्कृतसम्यक्त्वी सम्यक्त्व पुदगलों के अंतिम अंश का वेदन * अपूर्वकरण..."ग्रंथिभेद द्र श्रीआको १ करण कर मिथ्यात्व में संक्रमण करता है। ४. सम्यक्त्व प्राप्ति : त्रिपुंजी. अपुंजी ५. सम्यक्त्वप्राप्ति का एक हेतु : जातिस्मृति सोऊण अहिसमेच्च व, करेइ सो वड्डमाणपरिणामो। ये स्वयम्भूरमणसमुद्रे मत्स्यास्ते प्रतिमासंस्थितान् मिच्छे सम्मामिच्छ, सम्मे वि य पोग्गले समयं ॥ मत्स्यान् उत्पलानि वा दृष्ट्वेहाऽपोहादि कुर्वन्तो जातिमिच्छत्तम्मि अखीणे, तेपुंजी सम्मदिट्टिणो नियमा। स्मरणतः सम्यक्त्वमासादयन्ति। (बृभा १२५ की वृ) खीणम्मि उ मिच्छत्ते, दु-एकपुंजी व खवगो वा॥ जो स्वयंभूरमण समुद्र में मत्स्य हैं, वे प्रतिमासंस्थित मत्स्यों (बृभा १११, ११७) अथवा उत्पलों को देखकर ईहा, अपोह और मार्गणा करते हुए केवली आदि की वाणी को सुनकर अथवा जातिस्मरण जातिस्मृति (पूर्वजन्मों का ज्ञान) प्राप्त कर उससे सम्यक्त्व को आदि के द्वारा सम्यक्त्व के स्वरूप को जानकर अपूर्वकरण में प्राप्त करते हैं। Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ ६. सम्यक्त्वप्राप्ति और ज्ञान विभंगी उ परिणमं, सम्मत्तं लहति मतिसुतोहीणि । तइभावम्मि मति-सुते, ॥ (बृभा १२५ ) विभंगज्ञानी सम्यक्त्व में परिणत होता हुआ तत्काल तीन ज्ञान प्राप्त करता है - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान । विभंगज्ञान से रहित मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्व में परिणत होता हुआ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्राप्त करता है। • सम्यक्त्व का हेतु : अपाय आभिणिबोहमवायं, वयंति तप्पच्चयाउ सम्मत्तं । जा मणपज्जवनाणी, सम्मद्दिट्ठी उ केवलिणो ॥ ....... आभिनिबोधिक भेदो योऽपायो यद्वशाद् यथावस्थितार्थविनिश्चयस्तं सम्यक्त्वस्य प्रत्ययं वदन्ति पूर्वसूरयः, सम्यग्ज्ञाने सम्यक् श्रद्धानभावात् । अपायप्रत्ययाच्च सम्यक्त्वं तावदवसेयं यावन्मनः पर्यायज्ञानिनः ततः परमपायस्याभावात् । केवलिनः केवलज्ञानप्रत्ययादेव सम्यग्दृष्टयः । (बृभा ८९ वृ) आभिनिबोधिक ज्ञान का जो अपाय भेद है जिससे यथावस्थित अर्थ का विनिश्चय होता है- पूर्व आचार्य अपाय को सम्यक्त्व का प्रत्यय - हेतु बताते हैं, क्योंकि सम्यग्ज्ञान सम्यक् श्रद्धान होता है। सम्यक्त्व का यह हेतु मति - श्रुत- अवधि - मनः पर्यवज्ञान पर्यंत होता है। उससे आगे अपाय का अभाव है । केवलज्ञानी केवलज्ञान के प्रत्यय से ही सम्यग्दृष्टि होते हैं । (दो शब्द हैं - सम्यग्दर्शन और सम्यग्दृष्टि । अपायसद्द्रव्य की अपेक्षा (पाय आभिनिबोधप्रत्ययिक) सम्यग्दर्शन सादिसांत है । सम्यग्दृष्टि सादि अनंत है । केवली और सिद्ध सादिअनंत सम्यग्दृष्टि हैं । - तसू १ / ७, ८ भा) ७. मिथ्यात्वप्राप्ति के हेतु और दृष्टांत मतिभेदेण जमाली, पुव्वग्गहितेण होति गोविंदो । संसग्गि साव भिक्खू, गोट्ठामाहिलऽभिनिवेसेणं ॥ (व्यभा २७१४) चार कारणों से जमाली आदि मिथ्यादृष्टि बनेकारण व्यक्ति कारण १. मतिभेद जमाली ३. संसर्ग २. पूर्वाग्रह गोविन्द ४. अभिनिवेश व्यक्ति श्रावक गोष्ठामाहिल ५९९ सम्यक्त्व गोविंदो णाम भिक्खू । सो एगेणायरिएण वादे जितो अट्ठारस वारा । ततो तेण चिंतियं सिद्धंतरूवं जाव एतेसिं ण लब्धति ताहे ते जेतुं न सक्केंतो ताहे सो णाणावरणहर तस्सेवायरियस्स अंते णिक्खंतो। तस्स य सामाइयादि पढेंतस्स सुद्धं सम्मत्तं तेण सब्भावो कहितो। ताहे गुरुणा दत्ताणि से वयाणि । (निभा ३६५६ की चू) o गोविन्द - गोविंद नामक एक बौद्ध भिक्षु थे। वे एक जैन आचार्य द्वारा वाद-विवाद में अठारह बार पराजित हुए। पराजय से दुःखी होकर उन्होंने सोचा कि जब तक मैं इस सिद्धान्त को नहीं जानूंगा, तब तक इन्हें जीत नहीं सकता। इसलिए अपने ज्ञानावरण को दूर करने के लिए उसी आचार्य के पास दीक्षित हुए, सामायिक आदि ग्रंथों का अध्ययन करते हुए उनका सम्यक्त्व शुद्ध हो गया। गोविंद मुनि ने सरलतापूर्वक अपने दीक्षित होने का मूल प्रयोजन गुरु को बतला दिया, तब गुरु ने उन्हें व्रतदीक्षा दी। ..... वायपराइओ वा से, संखडिकरणं च वित्थिपणं ॥ कइतवधम्मक धाए, आउट्टो बेति भिक्खूगाणट्ठा । परमण्णमुवक्खडियं, मा जातु असंजयमुहाई ॥ तं कुणहऽणुग्गहं मे, साहूजोग्गेण एसणिज्जेण । पडिलाभणा विसेणं, पडिता पडिती य सव्वेसि ॥ भिक्षूपासकः कोऽपि वादे पराजितः कथय मे भगवन्नार्हतं धर्मम् । (व्यभा २३८२-२३८४ वृ) ० भिक्षु-उपासक - एक बार कोई भिक्षु-उपासक वाद में पराजित हो गया। वह छलपूर्वक आचार्य के पास जाकर बोला- भंते! मुझे अर्हत् धर्म का उपदेश दें। आचार्य ने उपदेश दिया। उसने कपटपूर्वक कहा- मैंने आर्हत धर्म स्वीकार कर लिया है। फिर उसने प्रार्थना की - मैंने भिक्षुओं के निमित्त एक बड़ा जीमनवार किया है, जिसमें पकाया गया परमान्न असंयती के मुंह में न चला जाए, इसलिए आप मुझ पर अनुग्रह कर मुनियों को भेजें, मैं साधु योग्य एषणीय आहार दूंगा। मुनि गोचरी गए। उसने विषमिश्रित परमान्न का भोजन दिया। मुनि उसको खाकर मृत्यु को प्राप्त हुए। ( ० जमालि - एक बार मुनि जमालि रुग्ण हो गया। उसने श्रमणों से कहा- मेरा बिछौना करो। वे करने लगे। अधीरता से पूछा- क्या बिछौना कर दिया ? श्रमणों ने कहा— किया नहीं है, Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व ६०० आगम विषय कोश-२ किया जा रहा है। जमालि के मन में विचिकित्सा उत्पन्न हुई- मोक्ष का उपाय नहीं है। (आत्मा है, वह नित्य है, कर्ता है, भगवान महावीर क्रियमाण को कृत कहते हैं--यह मिथ्या है। यह भोक्ता है, मोक्ष है, मोक्ष का उपाय है-ये छह सम्यगदष्टि के प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है कि बिछौना क्रियमाण है, पर कृत नहीं है। स्थान हैं।-सन्मति ३/५५) इस प्रकार वेदनाविह्वल जमालि मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से निह्नव असंज्ञी और अज्ञानी अनाभिग्रहिक मिथ्यात्वी होते हैं। कुछ बन गया।-श्रीआको १ निह्नव संज्ञी भी अनाभिग्रहिक मिथ्यात्वी होते हैं। ० गोष्ठामाहिल-'मिथ्यात्व आदि के द्वारा गृहीत कर्म जीव के ९. सम्यक्त्वदीक्षा और वाचना के अयोग्य साथ एकीभूत हो जाते हैं'-गुरु के द्वारा इसकी व्याख्या सुनकर तओ दुसण्णप्पा"दुढे मूढे वुग्गाहिए। वह विप्रतिपत्ति को प्राप्त हुआ। उसने कहा-कर्म का जीव के दुःखेन-कृच्छ्रेण संज्ञाप्यन्ते -प्रतिबोध्यन्त इति साथ तादात्म्य संबंध होने पर जीव की प्रदेशराशि की तरह कर्मराशि को जीव से अलग नहीं किया जा सकता। इसलिए दुःसंज्ञाप्याः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-'दुष्टः' तत्त्वं प्रज्ञापकं वा प्रति यह कथन उचित है कि कर्म जीव का स्पर्श करते हैं. उससे बद्ध द्वेषवान् , स चाप्रज्ञापनीयः, द्वेषेणोपदेशाप्रतिपत्तेः।एवं मूढः' गुण-दोषानभिज्ञः । व्युद्ग्राहितो नाम' कुप्रज्ञापक-दृढीकृतनहीं होते। 'साधु के यावज्जीवन तीन करण तीन योग से सावधयोग विपरीतावबोधः। (क ४/८७) के प्रत्याख्यान होते हैं'- नौवें प्रत्याख्यान पूर्व की इस व्याख्या को सम्मत्ते वि अजोग्गा, किमु दिक्खण-वायणासु दुवादी। सुनकर गोष्ठामाहिल विप्रतिपत्ति को प्राप्त हुआ। उसने कहा- ....... मोह परिस्समो होज्जा॥ जिस प्रत्याख्यान में अवधि होती है, वह प्रत्याख्यान आशंसा दोष (बृभा ५२११) से दूषित होता है। श्रीआको १ निह्नव दुःसंज्ञाप्य-कठिनाई से प्रतिबोध्य के तीन प्रकार हैं० मिथ्यात्व के तीन हेतु हैं-अभिनिवेश आदि। इनके उदाहरण १. दुष्ट-तत्त्व या तत्त्वप्रज्ञापक के प्रति द्वेष रखने वाला। वह द्वेष हैं-गोष्ठामाहिल आदि।-श्रीआको १ गुणस्थान) के कारण उपदेश को स्वीकार नहीं करता है,अतः अप्रज्ञापनीय है। ८. मिथ्यादर्शन के प्रकार । २. मूढ-गुणों और दोषों से अनभिज्ञ । मिच्छादसणं समासतो दुविहं-अभिग्गहितं अण- ३. व्युद्ग्राहित–दुराग्रही, कुप्रज्ञापक द्वारा जिसका विपरीत बोध भिग्गहितं च। सदढ हो जाता है। ये त्रिविध व्यक्ति सम्यक्त्व-ग्रहण के भी योग्य संक्षेप में सिध्यान दोपकार का आभिडिक नहीं होते तो दीक्षा और वाचना के योग्य कैसे होंगे? इनको प्रज्ञप्ति अभिनिवेशात्मक मिथ्यात्व-सही तत्त्व को समझ लेने के बाद भी देने वाले प्रज्ञापक का श्रम निष्फल होता है। पूर्वाग्रह से ग्रस्त होना। २. अनाभिग्रहिक-अज्ञान आदि के १०. अक्रियावादी-कृष्णपक्षी कारण गलत तत्त्व को पकड कर रखना। अकिरियावादी भवितो अभविओ वा नियमा ० आभिग्रहिक-अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व किण्हपक्खिओ। (दशा ६/३ की चू) अभिग्गहितं-णत्थि अप्या, ण णिच्चो, ण कुव्वति, अक्रियावादी नियमतः कृष्णपक्षी (अपरीत संसारी) होता कतं न वेदेति. ण णिव्वाणं, णस्थि य मोक्खो -वातो। छ है चाहे वह भव्य हो या अभव्य। मिच्छत्तस्स ठाणाई। अणभिग्गहितं असन्नीणं सन्नीणंपि ....."अकिरियावादी यावि भवति–नाहियवादी केसिंचि। 'अण्णाणीओ वा। (दशा ६/३ की चू) नाहियपण्णे नाहियदिट्ठी, नो सम्मावादी, नो नितियावादी, आभिग्रहिक मिथ्यात्व के छह स्थान हैं-आत्मा नहीं है, नसंति-परलोगवादी, णत्थि इहलोए णत्थि परलोए णत्थि माता वह नित्य नहीं है, कर्ता नहीं है, भोक्ता नहीं है, मोक्ष नहीं है, णत्थि पिता णत्थि अरहंता णत्थि चक्कवट्टी णत्थि बलदेवा (दशाह Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ ६०१ त् वासुदेवा णत्थि सुकडदुक्कडाणं फलवित्तिविसेसे, णो सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति, णो दुचिण्णा कम्मा दुचिणफला भवंति, अफले कल्लाणपावए,' णो पच्चायंति जीव, णत्थि णिरयादिह्न णत्थि सिद्धी । से एवंवादी एवंपणे एवं दिट्ठी एवंछंदरागमभिनिविट्टे यावि भवति । से य भवति महिच्छे महारंभे महापरिग्गहे अहम्मिए .... | .... दाहिणगामिए नेरइए किण्हपक्खिते आगमेस्साणं दुल्लभबोधिते यावि भवति । (दशा ६/३, ६) जो नास्तिकवादी, नास्तिकप्रज्ञ और नास्तिकदृष्टि है। जो सम्यग्वादी, नित्यंवादी और परलोकवादी नहीं है। न इहलोक है, न परलोक है, न माता है, न पिता है, न अरिहंत है, न चक्रवर्ती है, न बलदेव है, न वासुदेव है, सुकृत और दुष्कृत कर्मों का विशिष्ट फल नहीं होता, न सुचीर्ण कर्म सुचीर्ण फल देते हैं, न दुश्चीर्ण कर्म दुश्चीर्ण फल देते हैं, कल्याण और पाप अफल हैं, जीव का पुनर्जन्म नहीं होता, न नरक आदि चारों गतियां हैं और न सिद्धि है, जो इस प्रकार कहता है, जो ऐसी प्रज्ञा और ऐसी दृष्टि वाला है, जो इस प्रकार के छंद और राग (इच्छालोभ और तीव्र अभिनिवेश) से अभिनिविष्ट होता है, वह अक्रियावादी है । वह वैभव आदि की प्रबल इच्छा वाला, महाहिंसाकर्मी, महापरिग्रही और अधार्मिक होता है। वह दक्षिण दिशा में जाने वाला, नरक में उत्पन्न होने वाला, कृष्ण पाक्षिक और भविष्यकाल में दुर्लभबोधिक होता है। ११. क्रियावादी - शुक्लपक्षी किरियावादी णियमा भविओ नियमा सुक्कपक्खिओ | अंतोपुग्गलपरियट्टस्स नियमा सिज्झिहिति, सम्मट्ठी वा मिच्छदिट्ठी वा होज्ज । (दशा ६/३ की चू) क्रियावादी नियमतः भव्य और शुक्लपक्षी होता है । वह पुद्गलपरावर्त्त के भीतर-भीतर नियमतः सिद्ध हो जाता है, चाहे सम्यग्दृष्टि हो या मिथ्यादृष्टि । किरियावादी यावि भवति, तं जहा- आहियवादी आहियपणे आहियदिट्ठी सम्मावादी नीयावादी संतिपरलोगवादी अत्थि इहलोगे अत्थि परलोगे अत्थि माता अस्थि पिता अस्थि अरहंता अत्थि चक्कवट्टी अत्थि बलदेवा अत्थि वासुदेवा अत्थि सुकडदुक्कडाणं फलवित्तिविसेसे, सुचिण्णा सम्यक्त्व कम्मा सुचिण्णफला भवंति दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति, सफले कल्लाणपावए, पच्चायंति जीवा, अतिथ निरयादिह्व अत्थि सिद्धी । से एवंवादी एवंपण्णे एवंदिट्ठीच्छंदरागमभिनिविट्टे आवि भवति । से य भवति महिच्छे जाव उत्तरगामिए नेरइए सुक्कपक्खिते आगमेस्साणं सुलभबोधिते यावि भवति । (दशा ६/७ ) क्रियावादी होता है, जैसे- आस्तिकवादी, आस्तिकप्रज्ञ, आस्तिकदृष्टि, सम्यग्वादी, नित्यवादी, अस्तिपरलोकवादी, इहलोक है, परलोक है, माता है, पिता है, अर्हत् है, चक्रवर्ती है, बलदेव है, सुकृत- दुष्कृत कर्मों का विशिष्ट फल है, सुचीर्ण कर्म सुचीर्ण फल वाले होते हैं, दुश्चीर्ण कर्म दुश्चीर्ण फल वाले होते हैं । कल्याणकर्म और पापककर्म सफल होते हैं, जीवों का पुनर्जन्म होता है, नरक आदि चार गतियां हैं, सिद्धि है - जो इस प्रकार कहता है, इस प्रकार की प्रज्ञा से संपन्न है, इस प्रकार की दृष्टि, छंद और राग से अभिनिविष्ट है, वैभव आदि की प्रबल इच्छा वाला, महारंभी और महापरिग्रही है, वह उत्तर दिशा में जाने वाला, नरक में उत्पन्न होने वाला, शुक्लपाक्षिक और भविष्यकाल सुलभबोधिक होता है । ( जब तक जिस जीव की मोक्ष की अवधि निश्चित नहीं होती, तब तक वह कृष्ण पक्ष की कोटि में होता है और मोक्ष की अवधि की निश्चितता होने पर जीव शुक्ल पक्ष की कोटि में आ जाता है। जो जीव अपार्धपुद्गलपरावर्त्त तक संसार में रहकर मुक्त होता है, वह शुक्लपाक्षिक और इससे अधिक अवधि तक संसार में रहने वाला कृष्णपाक्षिक कहलाता है । —स्था १ / १८७ वृ जो व्यक्ति क्रूरकर्मा होता है, जो साधुओं की निन्दा में रस लेता है, ,.... वह दाक्षिणात्य नरक में, तिर्यञ्च योनियों में, मनुष्यों में या देवों में उत्पन्न होता है। —सू २/२/३१ वृ जीव तीन प्रकार के बतलाये गये हैं १. परीत २. अपरीत ३. नोपरीत-नोअपरीत । परीत दो प्रकार का होता है- कायपरीत और संसारपरीत । कायपरीत कायपरीत के रूप में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः असंख्यकाल तक रहता है । संसारपरीत संसारपरीत के रूप में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः अनन्तकाल - कुछ कम अपार्धपुद्गल परिवर्त तक रहता है। Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधर्मिक जो जीव कृष्णपक्ष से शुक्लपक्ष में आ जाता है, जो जीव एक बार सम्यक्त्व का स्पर्श कर लेता है, जो जीव संसार को परीत कर लेता है - इन तीनों का उत्कृष्ट संसारावस्थान-काल एक समान होता है । - जीवा ९/७५ भवसिद्धिक जीव सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकार का हो सकता है। सम्यग्दृष्टि जीव परीतसंसारी और अनन्तसंसारी दोनों प्रकार का हो सकता है। परीतसंसारी जीव सुलभबोधि और दुर्लभबोधि दोनों प्रकार का हो सकता है। सुलभबोधि जीव आराधक और विराधक दोनों प्रकार का हो सकता है। -भ ३ /७२ भाष्य कृष्णपाक्षिक अक्रियावादी होते हैं, अज्ञानवादी और विनयवादी भी होते हैं। शुक्लपाक्षिक क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी होते हैं । सम्यग्दृष्टि क्रियावादी होते हैं, सम्यग् - मिथ्यादृष्टि अज्ञानवादी और विनयवादी होते हैं तथा मिथ्यादृष्टि अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी होते हैं। क्रियावादी मनुष्यायु और वैमानिकदेवायु का बंध करते हैं। अक्रियावादी किसी भी आयु का बंध कर सकते हैं। अक्रियावादी भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक- दोनों प्रकार के हो सकते हैं। क्रियावादी, शुक्लपक्षी और सम्यग् मिथ्यादृष्टि भवसिद्धिक होते हैं । - भ ३० / ५, ६, १०-१२, ३१, ४२) साधर्मिक - वेश और मान्यता में समानधर्मा । साधर्मिक के प्रकार साधं मिया य तिविधा, 11 ......साहम्मिया स्वप्रवचनं प्रतिपन्नेत्यर्थः ते तिविहा लिंगसाहम्मि पवयणसाहम्मि चउभंगो चउत्थो भंगो असाहम्मिओ..... अहवा तिविहा साहम्मी - साहू, पासत्थादि, सावगा य | अहवा समणा समणी सावगा य । (निभा ३३६ चू) समानधर्म वाले स्वप्रवचनप्रतिपन्न (जिनशासन - सेवी) साधर्मिक कहलाते हैं । साधर्मिक के तीन प्रकार हैं १. लिंग साधर्मिक, २. प्रवचन साधर्मिक ३. लिंग-प्रवचन आगम विषय कोश - २ साधर्मिक। अथवा साधर्मिक के तीन प्रकार हैं - साधु, पार्श्वस्थ आदि और श्रावक । अथवा श्रमण, श्रमणी और श्रावक । साधर्मिक के नाना विकल्प लिंगेण उ साहम्मी, नोपवयणतो य निण्हगा सव्वे । पवयणसाधम्मी पुण, न लिंग दस होंति ससिहागा ॥ पत्तेयबुद्धनिण्हव, उवासए केवली य आसज्ज । खइयादिए य भावे, पडुच्च भंगे तु जोएज्जा ॥ ( व्यभा ९९१, ९९४) ६०२ o लिंग से साधर्मिक, प्रवचन से नहीं। जैसे- निह्नव । • प्रवचन से साधर्मिक, लिंग से नहीं। यथा- दशम उपासक प्रतिमाधारी सशिखाक ( अमुण्डितशिरस्क) श्रावक । • प्रवचन और लिंग से साधर्मिक । यथा - साधु । • दर्शन से साधर्मिक, प्रवचन से नहीं । यथा - तीर्थंकर और प्रत्येकबुद्ध । ० दर्शन से और प्रवचन से साधर्मिक-समानदर्शनी संघवर्ती साधु । • ज्ञान से साधर्मिक, प्रवचन से नहीं - तीर्थंकर या प्रत्येकबुद्ध । • प्रवचन से साधर्मिक, चारित्र से नहीं - श्रावक । ० चारित्र से साधर्मिक, प्रवचन से नहीं - तीर्थंकर या प्रत्येकबुद्ध । ० प्रवचन से और चारित्र से साधर्मिक - साधु । • अभिग्रह से साधर्मिक, प्रवचन से नहीं - निह्नव, तीर्थंकर, प्रत्येकबुद्ध । • भावना से साधर्मिक, प्रवचन से नहीं - समान भावनायुत तीर्थंकर, प्रत्येकबुद्ध, निह्नव। o लिंग से साधर्मिक, दर्शन से नहीं - निह्नव । o दर्शन से साधर्मिक, लिंग से नहीं - प्रत्येकबुद्ध, तीर्थंकर । • लिंग से साधर्मिक, ज्ञान से नहीं - निह्नव, विभिन्नज्ञानी साधु । ० चारित्र से साधर्मिक, ज्ञान से नहीं यथा - समानचारित्री केवली, समानचारित्री छद्मस्थ। उपर्युक्त तथा अन्य भंग भी प्रत्येकबुद्ध, निह्नव, श्रावक, केवली और क्षायिक आदि भावों की अपेक्षा से यथास्थान वक्तव्य हैं। * साधर्मिक के बारह प्रकार -समनुज्ञ 'साधर्मिक * सांभोजिक द्र श्रीआको १ साधर्मिक द्र साम्भोजिक Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ तीर्थंकर साधर्मिक नहीं जातित्थगराण कता, वंदणया वरिसणादि पाहुडिया । भत्तीहि सुरवरेहिं समणाण तधिं कहं भणियं ॥ जइ समणाण न कप्पति, एवं एगाणिया जिणवरिंदा । गणरमादी समणा, अकप्पिए नेव चिट्ठेति ॥ तम्हा कप्पति ठाउं, जह सिद्धायणम्मि होति अविरुद्धं । जम्हा उ न साहम्मी, सत्था अम्हं ततो कप्पे ॥ साहम्मियाण अट्ठे, चउव्विधो लिंगतो जह कुडुंबी । मंगलसासयभत्तीय, जं कतं तत्थ आदेसो ॥ (व्यभा ३७६८-३७७१ ) देव अर्हतों को भक्तिपूर्वक वन्दन, पुष्पवृष्टि, प्राकारत्रिकरचना आदि प्राभृतिका करते हैं। साधु वहां कैसे रह सकते हैं ? गणधर आदि श्रमण अकल्प्य स्थान में नहीं रहते। यदि श्रमण वहां न रहें तो तीर्थंकर अकेले रह जायेंगे । T सिद्धायतन की भांति समवसरण में साधुओं का अवस्थान भी अविरुद्ध है। क्योंकि तीर्थंकर श्रमणों के साधर्मिक नहीं हैं । साधर्मिकों के लिए कृत स्थान कल्पनीय नहीं है । साधर्मिक के लिंग आदि चार प्रकार । तीर्थंकर लिंग से असाधर्मिक हैं, जैसे कुटुंब | मंगलनिमित्त और शाश्वत (मोक्ष) - निमित्त समवसरण आदि की भक्तिपूर्वक रचना की जाती है, वहां रहने की अनुज्ञा है। सामाचारी - मुनिसंघ का व्यवहारात्मक आचार । १. दशविध सामाचारी * जिनकल्प और सामाचारी * वसति प्रवेश की सामाचारी * साधु-साध्वी : पारस्परिक व्यवहार २. असामाचारी निष्पन्न प्रायश्चित्त ३. समाचरण में स्खलना असमाधिस्थान ० समाधि के प्रकार ४. बीस असमाधिस्थान ० द्रुतगति से चलना असमाधि स्थान ५. असमाधिस्थान बीस ही क्यों ? ६०३ द्र जिनकल्प द्र शय्या द्र स्थविरकल्प १. दशविध सामाचारी इच्छा मिच्छा तहक्कारे, आवस्सि निसीहिया य आपुच्छा । पडिपुच्छ छंदण निमंतणा य उवसंपया चेव ॥ सामाचारी ओहेण दसविहं पि य, सामायारिं न ते परिहवंति।" (बृभा १६२३, १६२७) सामाचारी के दस प्रकार हैं- १. इच्छाकार २. मिथ्याकार ३. तथाकार ४. आवश्यकी ५. नैषेधिकी ६. आपृच्छा ७. प्रतिपृच्छा ८. छन्दना ९ निमन्त्रणा १० उपसम्पदा । स्थविरकल्पी सामन्यतः इस दसविध सामाचारी की परिहानि नहीं करते । * सामाचारी का विवरण द्र श्रीआको १ सामाचारी २. असामाचारीनिष्पन्न प्रायश्चित्त अचित्ते पुढविक्काते पुत्तलगादि करेति, एत्थ वि असामायारिणिप्फण्णं मासलहुं । (निभा १६१ की चू) कोई मुनि चित्त मिट्टी से पुरुष का पुतला आदि बनाता है तो हिंसा न होने पर भी उसे मासलघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता हैयह असामाचारीनिष्पन्न प्रायश्चित्त है । आवस्सिया णिसीहिय, पमज्जासज्ज अकरणो इमं तु । पणगं पणगं लहु ******* II ( निभा २११ ) उपाश्रय से निष्क्रमण करते समय 'आवस्सई' और उसमें प्रवेश करते समय 'निस्सही' का उच्चारण नहीं करने पर पांच-पांच अहोरात्र तथा जाते-आते समय प्रमार्जन नहीं करने पर मासलघु प्रायश्चित्त आता है। ३. समाचरण में स्खलना : असमाधिस्थान जेणाssसेवितेण आतपरोभयस्स वा इह परत्र उभयत्र वा असमाधी होति तं असमाधिद्वाणं । (दशानि ८ की चू) जिस आचरण से स्वयं के या दूसरे के इहलोक में, परलोक में या उभयलोक में असमाधि होती है, उसे असमाधिस्थान अथवा असमाधिपद कहा जाता है। ० समाधि के प्रकार दव्वं जेण व दव्वेण, समाधी आहितं च जं दव्वं । जीवस्स भावो सुसमाहितया, पसत्थजोगेहिं ॥ (दशानि ९ ) Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी ६०४ आगम विषय कोश-२ समाधि के दो प्रकार हैं १२. अनुत्पन्न नए कलहों को उत्पन्न करने वाला। १. द्रव्य समाधि-जिस द्रव्य से समाधि होती है, वह द्रव्य अथवा १३. क्षामित और उपशान्त पुराने कलहों की उदीरणा करने वाला। एक या अनेक द्रव्यों का परस्पर अविरोध अथवा तुलारोपित द्रव्य १४. अकाल में स्वाध्याय करने वाला। के साथ जो द्रव्य आरोपित होकर तुला के दोनों पलडों को सम १५. सचित्त रज से लिप्त हाथ से भिक्षा लेने वाला और सचित्त रज रखता है, वह द्रव्य द्रव्यसमाधि है। से लिप्त पैरों से अचित्त भूमि में संक्रमण करने वाला। २. भावसमाधि-जीव के प्रशस्त योगों से होने वाली सुसमाहित १६. शब्दकर-बकवास करने वाला। अवस्था भावसमाधि है। १७. झञ्झाकर-गण में भेद डालने वाला या गण के मन को ४. बीस असमाधिस्थान पीड़ित करने वाली भाषा बोलने वाला। "वीसं असमाहिट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा-१. दव १८. कलह करने वाला। दवचारी यावि भवति। २. अप्पमज्जियचारी"। ३. दुप्प १९. सूर्योदय से सूर्यास्त तक बार-बार भोजन करने वाला। मज्जियचारी" । ४. अतिरित्तसेज्जासणिए। ५. रातिणिय- २०. एषणा समिति का पालन नहीं करने वाला। परिभासी।६. थेरोवघातिए। ७. भूतोवघातिए।८. संजलणे। . द्रुतगति से चलना असमाधि स्थान ९. कोहणे।१०. पिट्ठिमंसिए यावि भवइ। ११. अभिक्खणं- दवदवचारी निरवेक्खो वच्चंतो अत्ताणं परं च इह अभिक्खणं ओधारित्ता। १२. णवाइं अधिकरणाई अणुप्पण्णाई परत्र च असमाधीए जोएति।अत्ताणं ताव इह भवे आतविराहणं उप्पाइत्ता भवइ। १३. पोराणाई अधिकरणाई खामित पावति आवडण-पडणादिसु। परलोगे सत्तवहए पावं कम्म विओसविताई उदीरित्ता भवइ। १४. अकाले सज्झाय बंधइ। परं संघट्टण-परितावण-उद्दवण-करेंतो असमाहीए कारए"।१५. ससरक्खपाणिपादे।१६. सद्दकरे। १७. झंझकरे। १८. कलहकरे। १९. सूरप्पमाणभोई। २०. एसणाए असमिते जोएति। (दशा १/३ की चू) यावि भवइ।" (दशा १/३) द्रुतचारी मुनि निरपेक्ष होकर चलता है। वह स्वयं को और (प्रस्तुत संदर्भ में मुनि के जीवनव्यवहार में संभावित दूसरे मुनि को इहलोक-परलोक संबंधी असमाधि से संयुक्त कारणों के आधार पर असमाधिस्थानों की सूची है। कारण में करता है। शीघ्रगामिता के कारण वह गिर जाता है तो उससे आत्म कर्ता का उपचार कर असमाधि करने वाले को असमाधिस्थान (शरीर) विराधना होती है। यह इहलोक संबंधी असमाधि है। कहा गया है।) असमाधि के बीस स्थान (कारण) हैं गिरने से अन्य प्राणियों का भी वध होता है। इससे कर्म बंधते हैं। १. शीघ्रगति से चलने वाला। यह परलोक संबंधी असमाधि है। दूसरों का संघट्टन-परितापन२. प्रमार्जन किए बिना चलने वाला। अपद्रावण करता हुआ वह उन्हें असमाधि से योजित करता है। ३. अविधि से प्रमार्जन कर चलने वाला। ५. असमाधिस्थान बीस ही क्यों? ४. प्रमाण से अतिरिक्त शय्या, आसन आदि रखने वाला। वीसं तु णवरि णेम्मं, अइरेगाइं तु तेहिं सरिसाइं। ५. रत्नाधिक साधुओं का पराभव करने वाला। नायव्वा एएसु य, अन्नेसु य एवमादीसु॥ ६. स्थविरों का उपघात करने वाला। ___."म्मं आधारमानं"न केवलं दवदवचारिस्स ७. प्राणियों का उपघात करने वाला। असमाही दवदवभासिस्सावि, दवदवपडिले हिस्सावि, ८. प्रतिक्षण क्रोध करने वाला। दवदवभोइस्सावि""जत्तिया असंजमट्ठाणा, तत्तिया असमाधि९. अत्यन्त क्रुद्ध होने वाला। ट्ठाणावि।तेय असंखेज्जा।अहवा मिच्छत्त-अविरति-अन्नाणा १०. परोक्ष में अवर्णवाद बोलने वाला। असमाहिट्ठाणा। (दशानि ११ चू) ११. बार-बार निश्चयकारी भाषा बोलने वाला। असमाधि के ये बीस स्थान केवल निदर्शनमात्र हैं। इनके Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६०५ साम्भोजिक आधार पर इनके सदृश अन्य अनेक स्थान हो सकते हैं। जैसे १. संभोज का अर्थ द्रुतगति से चलना असमाधिस्थान है, वैसे ही जल्दी-जल्दी एकत्रभोजनं संभोगः। अहवा-समं भोगो संभोगो बोलना, त्वरता से प्रतिलेखन करना, जल्दबाजी में खाना आदि भी यथोक्तविधानेनेत्यर्थः। (नि ५/६४ की चू) असमाधिस्थान हैं। जितने असंयम के स्थान हैं, उतने ही असमाधि के स्थान हैं। वे असंख्य हैं। अथवा मिथ्यात्व, अविरति और सम्भोगः-एकमण्डल्यां समुद्देशनादिरूपः। अज्ञान-ये असमाधि के स्थान हैं। ___ (क ४/१९ की वृ) संभोज का अर्थ है-एक मण्डली में भोजन करना। अथवा साम्भोजिक-वह मुनि, जिसका अन्य मुनियों के साथ समान कल्प वाले साधुओं के साथ शास्त्रविहित विधिविधान के मंडली-व्यवस्था का संबंध हो। समसामाचारी वाला मुनि। अनुसार आहार, उपधि आदि उत्तरगुणों से संबंधित जो पारस्परिक १. सम्भोज का अर्थ व्यवहार की व्यवस्था है, वह संभोज है। २. सदृशकल्पी ही सांभोजिक (सांभोजिक-एक मंडली में भोजन करने वाला। यह ३. संभोज के छह प्रकार : ओघ आदि इसका प्रतीकात्मक अर्थ है। स्वाध्याय, भोजन आदि सभी मंडलियों ४. ओघ संभोज के बारह प्रकार से जिसका संबंध होता है, वह सांभोजिक कहलाता है। ० उपधि संभोज के स्थान, विसंभोजविधि प्राचीन काल में साधुओं के लिए सात मंडलियां होती ० श्रुत संभोज थीं-१. सूत्रमंडली, २. अर्थमंडली, ३. भोजनमंडली, ४. काल० भक्तपान-दान-निकाचना संभोज प्रतिलेखनमंडली, ५. आवश्यकमंडली, ६. स्वाध्याय-मंडली, ० अंजलिप्रग्रह संभोज । ७. संस्तारकमंडली।-प्रसा ११९६ ० अभ्युत्थान-कृतिकर्मकरण संभोज विसांभोजिक-जिसका सभी मंडलियों से संबंध विच्छिन्न कर ० वैयावृत्त्यकरण-समवसरण संभोज दिया जाता है, वह विसांभोजिक है।) ० सन्निषद्या-कथाप्रबंध संभोज ५. अभिग्रह-दान-अनुपालना-संभोज २. सदृशकल्पी ही साम्भोजिक ० उपपात-संवास संभोज ठितकप्पम्मि दसविहे, ठवणाकप्पे य दुविहमण्णतरे। ६.सांभोजिक-समनज्ञ-साधर्मिक उत्तरगुणकप्पम्मि य, जो सरिसकप्पो स सरिसो उ॥ * तीर्थंकर साधर्मिक नहीं द्र साधर्मिक आहार उवहि सेज्जा, अकप्पिएणं तु जो ण गिण्हावे। ० सम्भोज प्रत्ययिक क्रिया ण य दिक्खेति अणट्ठा, अडयालीसं पि पडिकुटे॥ ७. विसंभोजविधि-प्रवर्तन : महागिरि-सुहस्ती उग्गमविसुद्धिमादिसु, सीलंगेसुं तु समणधम्मेसु । ८. संभोज-असंभोजविधि-परीक्षा : कूप दृष्टांत उत्तरगुणसरिसकप्यो, विसरिसधम्मो विसरिसो उ॥ ९. विसंभोज : उत्तरगुणों में ___* परिहारतप : परस्पर संभोज वर्जन द्र परिहारतप अण्णो वि आएसो, संविग्गो अहव एस संभोगी।... १०. साधु-साध्वी की विसांभोजिककरण-विधि (निभा ५९३२, ५९३४-५९३६) ११. एक ही दोष चौथी बार सेवन से विसांभोजिक जो दशविध स्थितकल्प, द्विविध स्थापनाकल्प और १२. कुशील संसर्ग से विसांभोजिक उत्तरगुणकल्प में समान होता है, वह सदृशकल्पी सांभोजिक है। १३. साम्भोजिक साधु-साध्वी : आलोचना-निषेध ० स्थितकल्प-आचेलक्य आदि (द्र कल्पस्थिति) | * संभोज हेतु उपसम्पदा द्र उपसम्पदा ० स्थापनाकल्प के दो प्रकार हैं-१. अकल्प स्थापना कल्प|१४. संभोज उपसम्पदा विधि अकल्पनीय आहार, उपधि और शय्या को ग्रहण न करना। २. शैक्षस्थापना कल्प-अठारह प्रकार के परुष, बीस प्रकार की Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्भोजिक स्त्रियां तथा दस प्रकार के नपुंसक - इन अड़तालीस प्रकार के निषिद्ध व्यक्तियों को निष्कारण दीक्षित न करना । • उत्तरगुणकल्प - उद्गम आदि दोषों से रहित भिक्षाग्रहण, समिति, गुप्ति आदि शीलांग (अथवा अठारह हजार शीलांग), क्षमा आदि श्रमणधर्म - इन उत्तरगुणों का समान रूप से पालन करने वाला सदृशकल्पी और पालन न करने वाला विसदृशता के कारण विसदृशकल्पी है। सदृशकल्पी का एक अन्य आदेश भी है - जो संविग्न है अथवा सांभोजिक है, वह सदृशकल्पी है । ३. संभोज के छह प्रकार : ओघ आदि ओह अभिग्गह दाणग्गहणे अणुपालणाय उववाते । संवासम्मि य छट्ठो, संभोगविधी मुणेयव्वो ॥ ...... समणाणं समणीओ, भण्णति अणुपालणाए उ ॥ (व्यभा २३५०, २३६०) संभोज के छह प्रकार हैं - १. ओघ २. अभिग्रह ३. दानग्रहण ४. अनुपालना ५. उपपात ६. संवास । साध्वियां इनमें से केवल अनुपालना संभोज से साधुओं की सांभोजिक हैं। ४. ओघ संभोज के बारह प्रकार ओघो पुण उहि सुत- भत्तपाणे, दावणाय निकाए य, कीकम्मस्स य करणे, समोसरण सन्निसेज्जा, ******** ****** बारसहा य। अंजलिपग्गहे त्ति अब्भुट्ठाणे त्ति यावरे ॥ वेयावच्चकरणे ति य । कधाए य पबंधणा ॥ ( व्यभा २३५१ - २३५३) ओघ संभोज के बारह प्रकार हैं१. उपधि ५. दान २. श्रुत ६. निकाचना ३. भक्तपान ४. अंजलिप्रग्रह ९. वैयावृत्त्यकरण १०. समवसरण ११. सन्निषद्या ७. अभ्युत्थान ८. कृतिकर्मकरण १२. कथाप्रबन्ध । ० उपधि संभोज के स्थान, विसंभोजविधि उवहिस्स य छब्भेदा, उग्गम-उप्पायणेसणासुद्धो । परिकम्मण-परिहरणा, संजोगो छट्टओ होति ॥ यत्साम्भोगिकस्य साम्भोगिकेन सममाधाकर्मादिभिः षोडशभिरुद्गमदोषैः शुद्धमुपधिमुत्पादयति एष उद्गम आगम विषय कोश - २ शुद्ध उपधिसंभोगः, अशुद्धग्राही सांभोगिकः शिक्षमाणः सती मे प्रतिचोदनेति मन्यमानो मिथ्या - दुष्कृतपुरस्सरं न पुनरेवं करिष्यामीति ब्रुवाणः प्रत्यावर्तते, तदा यत्प्रायश्चित्तमापन्नस्तद्दत्वा संभोग्यते । एवं द्वितीयवारं तृतीयवारमपि, चतुर्थवेलायां त्वावर्त्तस्यापि न संभोगः । अथ निष्कारणे अन्यसां भोगिकेन समं शुद्धमशुद्धं वोपधिमुत्पादयति तर्हि सोऽपि यदि शिक्षमाणः व्यावर्त्तते ततः संभोगविषयीक्रियते, अन्यथा प्रथमवेलायामपि तस्य विसंभोगः । परिकर्मणा नाम यदुपधिमुचितप्रमाणकरणतः संयतप्रायोग्यं करोति..... सांभोगिकानां संयतीनामुपधिं विधिना संयतीप्रायोग्यं गणधरः परिकर्मयन् ददानश्च परिशुद्धः, परिहरणा नाम परिभोग : कारणे विधिना'''''सांभोगिकैः सममुपकरणं परिभुञ्जानः शुद्धः संयोगो द्वयादिपदानां मीलनं, तत्र भङ्गाः षड्विंशतिस्तद्यथा..सांभोगिकः सांभोगिकेन सममुद्गमेनोत्पादनया च शुद्धमुपधिमुत्पादयतीति प्रथमः ।" (व्यभा २३५४ वृ) ६०६ ***** सांभोजक साधुओं के साथ मर्यादा के अनुसार उपधि का ग्रहण करना उपधि संभोज है। इसके छह प्रकार हैं १. उद्गमशुद्ध २. उत्पादनशुद्ध ३. एषणाशुद्ध ४. परिकर्मणा ५. परिहरणा और ६. संयोग । १. उद्गमशुद्ध संभोज - सांभोजिक सांभोजिक के साथ आधाकर्म आदि सोलह उद्गमदोषों से शुद्ध उपधि को प्राप्त करता है। जिस दोष से अशुद्ध उपधि का उत्पादन करता है, उस दोष (आधाकर्म आदि) का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इस संदर्भ में भी यह व्यवस्था है - अशुद्धग्राही सांभोजिक को अनुशिष्टि दी जाती है, जिससे प्रेरित होकर वह मिथ्यादुष्कृत - पूर्वक (अपनी भूल स्वीकार कर), पुनः ऐसा नहीं करूंगा- ऐसा कहता हुआ उस दोष से निवृत्त हो जाता है तो उसे तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त देकर सांभोजिक के रूप में मान्य कर लिया जाता है। एक बार, दो बार, तीन बार तक अशुद्ध ग्रहण कर निवृत्त होने पर वह सांभोजिक है, चौथी बार ऐसी भूल करके निवृत्त होने पर भी उसे क्षम्य नहीं किया जाता, विसांभोजिक घोषित कर दिया जाता है। जो निष्कारण अन्य सांभोजिक के साथ शुद्ध या अशुद्ध उपधि का उत्पादन करता है, वह भी अनुशासित करने पर दोष से निवृत्त हो जाता है तो साभोजिक है, अन्यथा प्रथम बार में ही उसको विसांभोजिक कर दिया जाता है । Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६०७ साम्भोजिक २, ३. उत्पादनशुद्ध-एषणाशुद्ध संभोज का भी यही क्रम है। १. शय्या, २. उपधि, ३. आहार, ४. शिष्यगण, ५. स्वाध्याय, ४. परिकर्मणा संभोज-कारण होने पर विधिपूर्वक परिकर्म करना ६. संयोगविधिविभक्त। शुद्ध है। परिकर्मणा का अर्थ है-उपधि को उचित प्रमाण में निकाचना संभोज-इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले व्यवस्थित कर साधु के प्रायोग्य बना देना। गणधर सांभोजिक साधुओं को आहार आदि के लिए निमंत्रित किया जाता है। इसके साध्वियों के लिए उपधि का विधिपूर्वक परिकर्म कर साध्वीप्रायोग्य भी छह स्थान हैं-शय्या. उपधि आदि। बनाता है और साध्वियों को देता है-यह परिकर्मणा संभोज है। सोर ५. परिहरणा संभोज-सांभोजिक के साथ उपकरणों का विधिपूर्वक वंदिय पणमिय अंजलि, गुरुगालावे अभिग्गह णिसिज्जा। परिभोग करना परिहरणा संभोज है। संजोग-विधि-विभत्ता, अंजलिपगहे वि छट्ठाणा॥ ६.संयोग संभोज-उल्लिखित पांचों में से दो, तीन आदि का एक पणवीसजुतं पुण, होइ वंदण पणमितं तु मुद्धेणं। साथ प्रयोग करना । दो यावत् पांच पदों के संयोग से छब्बीस भंग हत्थुस्सेह णमो त्ति य, णिसज्जकरणं च तिण्हट्ठा। होते हैं। जैसे-सांभोजिक सांभोजिक के साथ उद्गम और उत्पादन एगेण वा दोहिं वा मउलिएहिं हत्थेहिं णिडालसंसे शुद्ध उपधि का उत्पादन करता है-यह प्रथम भंग है। ठितेहिं अंजली भण्णति। भत्ति-बहुमाण-णेह-भरितो ० श्रुत संभोज सरभसं "णमो क्खमासमणाणं" ति गुरुआलावो भण्णति। वायण पडिपुच्छण, पुच्छणा य परियट्टणा य कधणा य। तिण्हट्ठा सुत्तपोरिसीए अत्थपोरिसीए ततिया आलोयणासंजोग-विधि-विभत्ता, छट्ठाणा होंति उ सुतम्मि॥ णिमित्तं एयाणि सव्वाणि संभोइयाणं अण्णसंभोइयाण य (निभा २०९४) संविग्गाणं करेंतो सुद्धो। (निभा २१०३, २१०४ चू) श्रतसंभोज व्यवस्था के अनुसार समानकल्प वाले साधओं अंजलिप्रग्रह संभोज व्यवस्था के अनुसार साधु संयमको श्रुत की वाचना दी जाती है। इसके छह प्रकार हैं पर्याय में ज्येष्ठ सांभोजिक को हाथ जोड़कर वन्दन करता है। १. वाचना ३. पृच्छा ५. अनुयोगकथा इसके छह स्थान हैं-१. वन्दना-कृतिकर्म के पच्चीस प्रकारों का २. प्रतिपृच्छा ४. परिवर्तना ६. संयोगविधि। प्रयोग करना। (द्र श्रीआको १ वन्दना) ० भक्तपान-दान-निकाचना-संभोज २. प्रणाम-सिर झुकाकर नमन करना। उग्गम उप्यायण एसणा य संभुंजणा णिसिरणा य। ३. अंजलि-एक अथवा दोनों हाथों को मुकुलित कर ललाट पर संजोग-विधि-विभत्ता, भत्ते पाणे वि छट्ठाणा॥ संस्थित कर प्रणाम करना। सेज्जोवहि आहारे, सीसगणाणुप्पदाण सज्झाए। ४. गुरुआलाप-भक्ति-बहुमान और स्नेह से संभृत होकर संजोग-विहि-विभत्ता, दवावणाए वि छट्ठाणा॥ उत्साहपूर्वक क्षमाश्रमण को नमन' ऐसा कहना। .."संजोग-विधि-विभत्ता, णिकायणाए वि छट्ठाणा॥ ५. निषद्याकरण-सूत्रपौरुषी, अर्थपौरुषी और आलोचना-इन तीन (निभा २०९७, २१०७, २११०) निमित्तों से गुरु के लिए अवश्य निषद्या करना। ० भक्तपानसंभोज-इस व्यवस्थानुसार समानकल्पी साधओं के ६. सयोग-उपर्युक्त विकल्पों के संयोग से निष्पन्न विकल्प। साथ एक मंडली में भोजन किया जाता है। इसके छह स्थान हैं सांभोजिक और अन्यसांभोजिक संविग्न साधुओं के प्रति १. उद्गमशुद्ध ३. एषणाशुद्ध ५. निसृजन इन सब पदों का प्रयोग करने वाला साधु शुद्ध है। २. उत्पादनशुद्ध ४. संभुंजन ६. संयोगविधि। अविरुद्धा सव्वपदा, उवस्सए होंति संजतीणं तु ।...... ० दानसंभोज-इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधु-उवस्सए पक्खियातिसु आगताण संजतीण साधुओं को शय्या आदि दी जाती है। इसके छह स्थान हैं- वंदणातिया पदा सव्वे अविरुद्धा"बाहिं भिक्खादिगताओ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्भोजिक ६०८ आगम विषय कोश-२ वंदणादि करेंति तो चउगुरुगा। सपक्खे पुण बहिणिग्गता वंदणाति करेंति....। (निभा २१०६ चू) पाक्षिक क्षमायाचना आदि के लिए साधओं के उपाश्रय में समागत साध्वियां वंदना आदि सब पदों का प्रयोग करती हैं-यह विहित है। जब वे भिक्षा आदि के लिए बाहर जाती हैं, तब मार्ग निशा अनिल बाबाजानी में साधुओं को वंदना करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की भागी होती हैं। मार्ग में स्वपक्ष में वंदना विहित है-साधु साधुओं को और साध्वी साध्वियों को वंदना करती है। ० अभ्युत्थान-कृतिकर्मकरण-संभोज अब्भुट्ठाणे आसण, किंकर अब्भासकरण अविभत्ती। संजोग-विधि-विभत्ता, अब्भुटाणे वि छट्ठाणा॥ भुंजण-वज्जा अण्णे, अविभत्ती........। संजति थेर-विभत्ती, माता.........॥ सुत्तायामसिरोणत, मुद्धाणं सुत्तवज्जियं चेव। संजोग-विधि-विभत्ता, छद्राणा होंति कितिकम्मे॥ ....."मुहरोगी आयामे, मुद्ध समत्ते ऽधव गिलाणे॥ (निभा २१११, २११३, २११४, २११६) ० अभ्युत्थान संभोज-इस व्यवस्था के अनुसार अभ्युत्थान का सम्मान दिया जाता है। इसके छह स्थान हैं१. अभ्युत्थान-ज्येष्ठ साधु के आने पर खड़े होना। २. आसन-आसन ग्रहण करो-यह कहते हुए आसन देना। ३. किंकर-प्राघूर्णक, आचार्य आदि को कहना-आज्ञा दें, मैं आपकी क्या सेवा करूं? ४. अभ्यासकरण-सदा आचार्य आदि के समीप रहना। ५. अविभक्ति-अन्यसांभोजिकों के साथ एकत्रमण्डली में भोजन नहीं किया जाता, उनकी अविभक्ति की जा सकती है। संविग्न स्थविरा साध्वी की इस रूप में अविभक्ति की जा सकती है-तम मेरी माता जैसी हो। ६. संयोग-उल्लिखित भंगों के संयोग से निष्पन्न भंग। ० कृतिकर्मकरणसंभोज-इसके छह स्थान हैं१. सूत्र-वंदना सूत्र का अस्खलित उच्चारण करना। २. आयाम-खड़े होना, सूत्रोच्चारण-युक्त आवर्त देना। ३. शिरोनत-सूत्रोच्चारणपूर्वक शिरोनमन करना। ४. मूर्धा-वन्दनासूत्र की समाप्ति पर केवल सिर झुकाना। केवल शिरोनमन आचार्य और ग्लान के लिए विहित है। ५. सूत्रवजित-यदि मुखरोग हो तो, मानसिक सूत्रोच्चारण करना तथा आवर्त आदि शेष सारी क्रियाएं करना। ६. संयोग-उल्लिखित स्थानों के संयोग से निष्पन्न भंग। ० वैयावृत्त्यकरण-समवसरण-संभोज आहार उवहि मत्तग, अधिकरण-विओसणा य सुसहाए।" वास उडु अहालंदे, साहारोग्गह पुहत्त इत्तरिए। वुड्डवास समोसरणे छदाणा होति पविभत्ता॥ पडिबद्धलंदि उग्गह, जं णिस्साए तु तस्स तो होति। रुक्खादी पुव्वठिते, इत्तरि वुड्ढे स हाणदी॥ साधारण-पत्तेगो, चरिमं उज्झित्त उग्गहो होति।... समणुण्णमणुण्णे वा, अदितऽणाभव्वगेण्हमाणे वा। संभोग वीसु करणं, इतरे य अलंभे य पेल्लति॥ (निभा २११८, २१२०-२१२४) वैयावत्यकरण संभोज-इस व्यवस्था के अनुसार आहार, उपधि, मात्रक, कलह-शमन और सहयोग के द्वारा सांभोजिक का उपष्टम्भ किया जाता है। ० समवसरण संभोज-इसके अनुसार समानकल्पी साधुओं के एक साथ मिलने पर अवग्रह (अधिकृतस्थान) की व्यवस्था होती है। इसके छह प्रकार हैं१. वर्षा-अवग्रह ४. इत्वरिक-अवग्रह २. ऋतुबद्ध-अवग्रह ५. वृद्धवास-अवग्रह ३. यथालन्द-अवग्रह ६. समवसरण-अवग्रह । गच्छ-प्रतिबद्ध यथालन्दिक जिसकी निश्रा में विहरण करते हैं, उसका अवग्रह होता है। आज्ञा लेकर वृक्ष आदि के नीचे बैठना इत्वरिक अवग्रह है। जो पहले आज्ञा लेकर जहां बैठता है. वह अवग्रह उसका होता है। जिनका जंघाबल क्षीण है, उनका वृद्धावास अवग्रह होता है। पर्व के दिनों में साधु इकट्ठे होते हैं, वह समवसरण है। इनमें प्रथम पांच अवग्रहों के दो-दो प्रकार हैं-साधारण और प्रत्येक। समवसरण अवग्रह साधारण होता है, प्रत्येक नहीं। सांभोजिक साधुओं के अवग्रह में कोई साधु जाकर शिष्य, वस्त्र आदि का जान-बूझकर ग्रहण करता है तथा अनजान में Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६०९ साम्भोजिक गृहीत शिष्य, वस्त्र आदि अवग्रहस्थ साधुओं को नहीं सौंपता है, एत्थ चउक्को भंगो-दाणं गहणं, एत्थ संभोतिता। तो उसे विसांभोजिक कर दिया जाता है। दाणं नो गहणं, एत्थ संजतितो। नो दाणं गहणं, एत्थ पार्श्वस्थ आदि का अवग्रह शुद्ध साधुओं को मान्य नहीं । गिहत्था। नो दाणं नो गहणं, एत्थ पासत्थाती। पढम-बितिया होता, फिर भी उनका क्षेत्र छोटा हो और शुद्ध साधुओं का अन्यत्र सवक्खे, ततितो परपक्खे। चउत्थोसुण्णो।। निर्वाह होता हो तो साधु उस क्षेत्र को छोड़ देते हैं। यदि उनका क्षेत्र खेत्तोवहिसेज्जाइएसुं खेत्तसंकमणेसु य संजतीओ विस्तीर्ण हो और शुद्ध साधुओं का अन्यत्र निर्वाह कठिन हो तो उस विधीए अणुपालेयव्वातो। (निभा २१३८, २१३९ चू) क्षेत्र में साधु जा सकते हैं और शिष्य, वस्त्र आदि ग्रहण कर सकते हैं। ० अभिग्रह संभोज-यथाशक्ति द्वादशविध तप संबंधी अभिग्रह • सन्निषद्या-कथाप्रबंध संभोज ग्रहण करना। परियट्टणाणुओगो, वागरण पडिच्छणा य आलोए।... ० दानग्रहण संभोज--स्वपक्ष और परपक्ष के भेद से यह दो प्रकार जो उ णिसज्जोवगतो, पडिपुच्छे वा वि अहव आलोवे। का है, जिसके चार विकल्प हैंलहुया य विसंभोगो, ...........॥ १. दान-ग्रहण (देना-लेना)-सांभोजिक साधु से संबंधित। वादो जप्प वितंडा, पइण्णग-कहा य णिच्छय-कहा या" २. दान-अग्रहण-साध्वी से संबंधित । वादं जप्प वितंडं, सव्वेहि विकणति समणिवज्जेहिं। । ३. नो दान-ग्रहण-गृहस्थ से संबंधित। नो टान गदा समणीण वि पडिकुट्ठा, होति सपक्खे वि तिण्णिह कहा॥ ४. नो दान-नो ग्रहण---पार्श्वस्थ आदि से संबंधित। प्रथमउस्सग्गो पइन्नकहा य अववातो होति णिच्छयकधा। द्वितीय भंग स्वपक्ष, तीसरा भंग परपक्ष और चौथा भंग संभोज के (निभा २१२५, २१२८-२१३१) प्रति शून्य है। ० सन्निषद्या संभोज-इस व्यवस्था के अनुसार दो सांभोजिक आचार्य ० अनपालना संभोज-यह साध्वीवर्ग से संबंधित है। (इस व्यवस्था अपनी-अपनी निषद्या पर बैठकर संघाटक के रूप में श्रत परिवर्तना करते हैं। शिष्य द्वारा अनुयोग और व्याकरण के समय निषद्या की विधियुत व्यवस्था करते हैं, क्षेत्रसंक्रमण के समय उनका सहयोग जाती है अन्यथा प्रायश्चित्त आता है। जो निषद्या पर बैठकर सूत्र- करते हैं, सुरक्षा का दायित्व निभाते हैं।) अर्थ की प्रतिपृच्छा अथवा आलोचना करता है, उसे मासलघु ० उपपात-संवास संभोज प्रायश्चित्त आता है और निषद्या-संबंधी मर्यादा का अतिक्रमण .....उखवाते संभोगो. पंचविधवसंपदाए त॥ करने पर विसांभोजिक कर दिया जाता है। सुत सुह-दुक्खे खेत्ते, मग्गे विणए य होइ बोधव्वो।.... ० कथाप्रबंध संभोज-कथासंबंधी व्यवस्था। कथा के पांच प्रकार संवासे संभोगो, सपक्ख-परपक्खतो य णायव्वो। हैं- १. वाद २. जल्प ३. वितण्डा ४. प्रकीर्णकथा (उत्सर्ग) और सरिकप्पेसु सपक्खे, परपक्खम्मी गिहत्थेसु॥ ५. निश्चयकथा (अपवादकथा)। प्रथम त्रिविध कथाएं साध्वियों ___."सुहदुक्खोवसंपया धाउविसंवादादिएहिं अहिडक्काके साथ नहीं की जाती, अन्यतीर्थिकों आदि के साथ की जा सकती तीहिं वा आगंतुगेहिं बहं पच्चवायं माणुस्सं जाणिऊण हैं। प्रथम तीन कथाएं साध्वियां साध्वियों के साथ भी नहीं कर अण्णतरेण मे रोगातंकेण वाहियस्स ममेते वेयावच्चं काहिंति, सकतीं। अहं पि एतेसिं करिस्सामि अतो असहायो गच्छे उवसंपयं ५. अभिग्रह-दान-अनुपालना संभोज पवजति। एक्कस्स आयरियस्स बहुगुणं खेत्तं तमण्णो अभिग्गहसंभोगो पण, णायव्वो तवे दुवालसविधम्मि। आयरिओ जाणिऊण अणुजाणावेऊण तस्स खेत्ते ठायति एस दाणग्गहणे दुविधो, सपक्खपरपक्खतो भइतो॥ खेत्तोवसंपया। अणुपालणसंभोगो, णायव्वो होति संजतीवग्गे।... दुवे आयरिया गंतुकामा ताण एक्को देसितो एक्को Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्भोजिक ६१० आगम विषय कोश-२ अदेसितो। अदेसिओ विसण्णो, देसियं भणाति-अहं तुहप्पभावेण तुमे समाणं गच्छे। देसितो तस्सोवसंपण्णस्स मग्गाणुरूवं उवएसं पयच्छति, एस मग्गोवसंपदा। ""दुवे आयरिया, एगो तत्थ वत्थव्यो, सो आगंतुगस्स सुगम-दुग्गमे मग्गे सुहविहारे य खेत्ते सव्वं कहेति, सचित्ताइयं उप्पण्णं सव्वं तेण वत्थव्वस्स णिवेदियव्वं, एस विणओवसंपदा। (निभा २१३९-२१४१ चू) ० उपपात संभोज-इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधु अपेक्षा होने पर पांच प्रकार की उपसम्पदा ग्रहण करते हैं१. श्रुतोपसम्पदा-सूत्र और अर्थ के निमित्त उपसम्पदा। २. सुखदुःखोपसम्पदा-धातुवैषम्य आदि तथा आगंतुक सर्पदंश आदि अनेक विघ्नों से परिपूर्ण मनुष्य जन्म को जानकर कोई असहाय मुनि गच्छ की शरण स्वीकार करता है। वह सोचता हैकिसी रोगातंक से व्यथित होने पर गच्छ मेरी सेवा करेगा, मैं भी गच्छ की सेवा करूंगा। ३. क्षेत्रोपसम्पदा-एक आचार्य के साताकारी क्षेत्र को जानकर दूसरे आचार्य अधिकृत आचार्य की अनुज्ञा लेकर उस क्षेत्र में रहते हैं-यह क्षेत्रउपसम्पदा है। ४. मार्गोपसम्पदा-देशांतरगमन के इच्छक दो आचार्यों में एक मार्गज्ञ है, एक अमार्गज्ञ है। विषण्ण अमार्गज्ञ आचार्य मार्गज्ञ से कहता है-तुम्हारे प्रभाव-अनुभाव से मैं तुम्हारे साथ ही चलता हूं, तब मार्गज्ञ उसे मार्ग के अनुरूप उपदेश देता है। ५. विनयोपसम्पदा-दो आचार्य हैं-एक वास्तव्य और एक आगंतुक। वास्तव्य आगंतुक को सुगम-दुर्गम मार्ग, सुखविहार क्षेत्र आदि के बारे में सब कुछ बता देता है। आगंतुक आचार्य को जो शिष्य आदि की उपलब्धि होती है, वह सारी वास्तव्य आचार्य को निवेदित करता है-यह विनय उपसम्पदा है। ० संवास संभोज-इस व्यवस्था के अनुसार सांभोजिक साधु एक साथ रहते हैं। इसके दो भेद हैं१. स्वपक्ष-समान कल्प वालों में संवास। २. परपक्ष-गृहस्थों में संवास। ६. साम्भोजिक-समनुज्ञ-साधर्मिक से भिक्खूबहुपरियावण्णं भोयणजायं पडिगाहेत्ता साहम्मिया तत्थ वसंति संभोइया समणण्णा अपरिहारिया अदूरगया। तेसिं अणालोइया अणामंतिया परिट्ठवेइ। माइट्ठाणं संफासे, णो एवं करेज्जा" (आचूला १/१२७) .."समणुण्णो उज्जयविहारी। (नि २/४४ की चू) भिक्षु बहुपर्यापन्न-अतिरिक्त भोजनजात ग्रहण कर ले (और उतना खाया न जाए), वहां अपरिहारिक सांभोजिक, समुनज्ञ-उद्यत-विहारी साधर्मिक पास में रह रहे हों, उन्हें बिना पूछे, बिना आमंत्रित किए उस आहार को परिष्ठापित करता है, वह मायास्थान का संस्पर्श करता है, वह ऐसा न करे। "जे तत्थ साहम्मिया संभोइया समणुण्णा उवागच्छेज्जा, जे तेण सयमेसियाए असणं वा पाणं वातेण ते साहम्मिया संभोइया समणुण्णा उवणिमंतेज्जा, णो चेव णं पर-पडियाए उगिज्झिय-उगिज्झिय उवणिमंतेज्जा"जे तत्थ साहम्मिया अण्णसंभोइया समणुण्णा उवागच्छेज्जा, जे तेण सयमेसियाए पीढे वा, फलए वा, सेज्जासंथारए वा, तेण ते "उवणिमंतेज्जा ॥ (आचूला ७/५, ७) . उपाश्रय में यदि सांभोजिक और समनुज्ञ साधर्मिक (अतिथि रूप में) आएं, तो अपने लिए अपने द्वारा एषणापूर्वक लाए हुए अशन, पान आदि देने के लिए उन्हें उपनिमंत्रित करे. दसरे के निमित्त या दूसरे के द्वारा लाया हुआ ले-लेकर उपनिमंत्रित न करे। यदि अन्यसांभोजिक समनुज्ञ सार्मिक आए, तो स्वयं के लिए स्वयं एषणा कर लाये हुए पीठ, फलक और शय्यासंस्तारक देने के लिए उन्हें उपनिमंत्रित करे। (भिक्षु समनुज्ञ और असमनुज्ञ मुनि को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन न दे. न उन्हें देने के लिए निमंत्रित करे, न उनके कार्यों में व्याप्त हो; यह सब अत्यंत आदर प्रदर्शित करता हुआ करे। समनुज्ञ का अर्थ है-वह मुनि, जो दार्शनिक दृष्टि और वेश से साधर्मिक-समान है, सहभोजन से साधर्मिक नहीं है। असमनुज्ञ का अर्थ है-अन्यतीर्थिक।-आ ८/१ भाष्य लिंग करी सरीषो हुवै पिण सरधा करि जूवो जाण। एहवा भेषधारी जमाली जिसा. ते तो लिंग समनोज पिछाण॥ दिष्टकरी सरीषो हुवै पिण लिंग सरीषो न होय। ते अमड संन्यासी सारसा ते दिष्ट समनोज्ञ जोय॥ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६११ साम्भोजिक इम दिष्ट-लिंग सरीषा भणी रे, न देणो असणादिक आहार। विहरंति। एगो रंको तं साहुं दटुं ओभासति। साहूहिं बले आदर सनमान देणो नहीं एतो अकल्पनीक अवधार॥ भणियं-अम्हं आयरिया जाणगा, ण च सक्केमो दाउं। सो गोतमादिक केसी भणी रे दीयो आदर सनमान। रंको साधुपिट्ठतो गंतुं अज्जसुहत्यि ओभासति भत्तं। पवालादिक ब्यावच करी एतो कल्पनीक पहिछान॥ ..."अज्जसुहत्थी उवउत्तो पासति-पवयणाधारो विप्रीत दिष्ट-लिंग ना धणी रे, तिण नै न देणो आदर निसदीह। भविस्सति । भणितो-जति णिक्खमाहि। अब्भुवगतं। अकल्पनीक इण कारणे रे एम कह्यो धर्मसीह ॥ णिक्खंतो सामातियं कारवेत्ता जावतियं समुदाणं दिण्णं, -आचारांग की जोड़, ढाल ६६/४-८) तद्दिणरातीए चेव अजीरतो कालगओ।सो अवत्तसामातिओ ० संभोजप्रत्ययिक क्रिया अंधकुमारपुत्तो जातो। जे भिक्खू 'णत्थि संभोगवत्तिया किरिय'त्ति वदति, चंदगुत्तस्स पुत्तो बिंदुसारो। तस्स पुत्तो असोगो। तस्स वदंतं वा सातिज्जति॥..."आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं __पुत्तो कुणालो। तस्स बालत्तणे चेव उज्जेणी कुमारभुत्ती उग्धातियं॥ (नि ५/६४, ७८) दिण्णाकुणालकुमारस्स घरे सो रंको उप्पण्णो। णिवत्ते बारसाहे 'संपती' से णामं कतं। _ 'भिक्षु के संभोजप्रत्ययिक क्रिया (कर्मबंध) नहीं है' जो ____ "संपतिरण्णा ओलोयणगतेण 'अज्जसुहत्थी' दिट्ठो। भिक्षु ऐसा कहता है अथवा कहने वाले दूसरे का अनुमोदन करता जातीसरणं जातं।"धम्म पडिवण्णो। अतीव परोप्परं हो है, वह लघुमासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। जाओ। तत्थ य महागिरी सिरिघराययणे आवासितो। (श्रमणसंघ में सामान्य परम्परा मण्डली भोजन की रही अज्जसुहत्थी सिवघरे आवासितो। ततो राया."अप्पणो है। किन्तु साधना का अग्रिम लक्ष्य है स्वावलम्बन। स्वलाभ में विसए जणं पिंडेतृणं भणाति-तुब्भे साधूणं आहारातिपासंतोष-यह दूसरी सुखशय्या है। -स्था ४/४५१ योग्गं देह। अहं भे मोल्लं देहामि। ___'संभोज-प्रत्याख्यान करने वाला मुनि परावलम्बन को अज्जसुहत्थी सीसाणुरागेण साहू गेण्हमाणे सातिजति, छोड़ता है। वह भिक्षा में स्वयं को जो कुछ मिलता है, उसी में संतुष्ट हो जाता है। दूसरे मुनियों को मिली हुई भिक्षा की णो पडिसेहेति। तं अज्जमहागिरी जाणित्ता अज्जसुहत्थिं अभिलाषा नहीं करता हुआ वह दूसरी सुखशय्या को प्राप्त कर भणति-अज्जो ! कीस रायपिंडं पडिसेवह? तओ अज्जविहार करता है।'-उ २९/३४) सुहत्थिणा भणियं-जहा राया तहा पया, ण एस रायपिंडो।" ७. विसंभोजविधि-प्रवर्तन : महागिरि-सुहस्ती ततो अज्जमहागिरी अज्जसुहत्थिं भणति-अज्जप्पभितिं तुम संपति-रण्णुप्पत्ती सिरिघर उज्जाणि हेट्ठ बोधव्वा। मम असंभोतिओततो अज्जसुहत्थी पच्चाउट्टो मिच्छाअजमहागिरि हत्थिप्पभिती जाणह विसंभोगो॥ दुक्कडं करेति, ण पुणो गेण्हामो। एवं भणिए संभुत्तो।" __ ततो अज्जमहागिरी उवउत्तो, पाएण "मायाबहुला ___ वद्धमाणसामिस्स सीसो सोहम्मो।तस्स जंबुणामा।तस्स वि पभवो। तस्स सेज्जंभवो। तस्स वि सीसो जसभद्दो। मणुय"त्ति काउं विसंभोगं ठवेति। (निभा २१५४ चू) जसभइसीसो संभूतो। संभूयस्स थूलभद्दो। थूलभदं जाव भगवान वर्धमानस्वामी के शिष्य सुधर्मा । सुधर्मा के शिष्य सव्वेसिं एक्कसंभोगो आसी। थूलभद्दस्स जुगप्पहाणा दो जम्बू। उनके शिष्य प्रभव। इस प्रकार उत्तरोत्तर शय्यंभव, यशोभद्र, सीसा-अज्जमहागिरी अज्जसहत्थी य। अज्जमहागिरी सम्भूत और स्थूलभद्र तक सबका एक ही संभोज था। स्थूलभद्र के जेट्ठो.. दो युगप्रधान शिष्य-ज्येष्ठ आर्य महागिरि, कनिष्ठ आर्य सुहस्ती। थूलभद्दसामिणा अज्जसुहत्थिस्स नियओ गणो दिण्णो। स्थूलभद्रस्वामी ने आर्य सुहस्ती को अपना गण सौंपा किन्तु प्रीतिवश तहा वि अज्जमहागिरी अज्जसुहत्थी य पीतिवसेण एक्कओ महागिरि और सुहस्ती दोनों एक साथ विहरण करते थे। Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्भोजिक एक बार एक रंक ने सुहस्ती के साधुओं को देखा और उनसे आहार मांगा। साधुओं ने कहा- हम अपने आचार्य सुहस्ती को पूछे बिना नहीं दे सकते। वह वहां पहुंच गया। आर्य सुहस्ती ने ज्ञानबल से देखा-यह प्रवचन प्रभावक होगा । उससे कहा- तुम दीक्षा लो तो भोजन दे सकते हैं। वह तैयार हो गया। सामायिक चारित्र स्वीकार किया, पर्याप्त भोजन किया, अजीर्ण हो गया, उसी रात्रि को मृत्यु हो गई । वह मरकर अव्यक्त सामायिक के कारण अंधकुमार (कुणाल) का पुत्र हुआ । चन्द्रगुप्त का पुत्र बिंदुसार । बिंदुसार का पुत्र अशोक । अशोक का पुत्र कुणाल । कुणाल को बचपन से ही उज्जैनी का आधिपत्य दे दिया गया। कुणाल के घर में वह रंक पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। जन्म के बारह दिन बीतने पर उसका नाम सम्प्रति रखा गया। कालान्तर में विहरण करते हुए आर्य सुहस्ती और आर्यमहागिरि उज्जैनी पधारे। राजा सम्प्रति ने गवाक्ष से आर्य सुहस्ती को देखा, जातिस्मृतिज्ञान उत्पन्न हुआ । धर्म स्वीकार किया । परस्पर स्नेहानुराग हो गया। आर्यमहागिरि श्रीगृहआयतन में तथा आर्य सुहस्ती शिवगृह में ठहरे। सम्प्रति नृप ने नागरिकों से कहा- तुम साधुओं को पर्याप्त आहार आदि दो, मैं तुम्हें उसका मूल्य दूंगा। आर्य सुहस्ती के शिष्य राजपिण्ड ग्रहण करने लगे । शिष्यानुराग के कारण आचार्य ने निषेध नहीं किया। आर्यमहागिरि ने कहा- आर्य! राजपिण्ड ग्रहण क्यों कर रहे हो ? आर्य सुहस्ती ने कहा- जैसे राजा, वैसे प्रजा, यह राजपिण्ड नहीं है । आर्यमहागिरि ने कहा- 'आज से तुम मेरे लिए असांभोजिक हो । ' तत्पश्चात् आर्य सुहस्ती ने 'मिच्छामि दुक्कडं' कहते हुए पुन: राजपिण्ड ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा की। ऐसा करने पर वे पुनः सांभोजिक हो गए। आर्यमहागिरि ने जाना-मनुष्य प्रायः मायाबहुल होते हैंऐसा सोचकर उन्होंने विसंभोज की व्यवस्था प्रस्थापित की। ओदरियमओ दारेसु, चउसुं पि महाणसे स कारेति । णिताऽऽणिते भोयण, पुच्छा सेसे अभुत्ते य॥ साहूण देह एवं अहं भे दाहामि तत्तियं मोल्लं । णेच्छंति घरे घेत्तुं समणा मम रायपिंडो त्ति ॥ एमेव तेल्लि - गोलिय- पूविय - मोरंड - दुस्सिए चेव । जं देह तस्स मोल्लं, दलामि पुच्छा य महागिरिणो ॥ ६१२ अज्जसुहत्थि ममत्ते, संभोग वीसुकरणं, आगम विषय कोश - २ अणुरायाधम्मतो जणो देती । तक्खण आउट्टणे नियत्ती ॥ (बृभा ३२७९ - ३२८२) 'मैं पूर्वभव में भिखारी था। वहां से मरकर मैं यहां उत्पन्न हुआ हूं - जातिस्मृति द्वारा इस वृत्तान्त को जानकर सम्प्रति ने नगर के चारों द्वारों पर सत्राकार महानसों का निर्माण करवाया, जहां आते-जाते दीन- अनाथ लोग भोजन करते थे । राजा ने रसोइयों से पूछा- दीन-अनाथों को देने के बाद जो भोजन शेष बचता है, उसका क्या करते हो ? वे बोले-अपने घर में उपभोग करते हैं। राजा ने कहा- आप शेष बचा भोजन साधुओं को दें, मैं उसका मूल्य चुका दूंगा। क्योंकि साधु मेरे घर से राजपिण्ड भिक्षा ग्रहण नहीं करते। इसी प्रकार राजा ने तैल, छाछ, अपूप, तिल आदि के मोदक और वस्त्र बेचने वालों से कहा- साधुओं को जिसकी अपेक्षा हो, आप दें, मैं उसका मूल्य चुका दूंगा। आचार्य महागिरि ने पृच्छा की—आर्य सुहस्ति ! आजकल यथेष्ट आहार, वस्त्र आदि प्राप्त हो रहे हैं, इसलिए जानकारी करो कि कहीं ये लोग राजा द्वारा प्रवर्तित तो नहीं हैं ? आर्य सुहस्ती यह जानते थे कि वे अनेषणीय आहार का भोग करते हैं किन्तु मोहवश उन्होंने कहा- सारे लोग राजधर्म से अनुवर्तित होने के कारण यथेप्सित आहार देते हैं। आचार्य महागिरि ने कहा- तुम बहुश्रुत होकर भी ऐसा कहते हो तो आज से तुम्हारा और मेरा संभोज - एकत्र भोजन आदि का व्यवहार नहीं होगा । सुहस्ती को अपनी भूल की अनुभूति हुई । वे तत्काल उससे निवृत्त होकर पुनः सांभोजिक हो गए। ८. संभोज - असंभोजविधि परीक्षा : कूप दृष्टांत एष च संभोगविधिः पूर्वस्मिन्नर्धभरते सर्वसंविग्नानामेकरूप आसीत् । पश्चात्कालदोषत इमे सांभो - गिका इमे त्वसांभोगका इति प्रवृत्तम् । "अविणट्ठे संभोगे सव्वे संभोइया आसी ॥ आगंतु तदुत्थेण व, दोसेण विणट्ट कूवे तो पुच्छा । कउ आणीयं उदगं, अविणट्ठे नासि सा पुच्छा ॥ (व्यभा २३५६, २३५७ वृ) Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६१३ साम्भोजिक प्राचीनकाल में अर्धभरतक्षेत्र में सब संविग्न साधुओं की ० दर्शन संभोज-दर्शन/श्रद्धा मोक्षमार्ग का मूल है। सूत्रग्रन्थों में संभोजविधि एकरूप थी। तत्पश्चात् कालदोष से ये सांभोजिक हैं उत्सर्ग-अपवादरूप और निश्चय-व्यवहार रूप जो भाव प्रज्ञप्त हैं, और ये असांभोजिक हैं-इस प्रकार का विभाग प्रवृत्त हुआ। उन पर श्रद्धा करने वाला दर्शन-सांभोजिक है। कूप दृष्टांत-एक गांव की एक दिशा में मधुर जल के अनेक कूप ० ज्ञान संभोज–'किं मे कडं किं च मे किच्चसेसं'..... इस प्रकार थे। उनमें से कुछ कूप आगंतुक दोषों के कारण तथा कुछ कूप उसी की श्रुतज्ञान की अनुशिष्टि में उपयुक्त होने वाला ज्ञानसांभोजिक है। भूमि से उत्थित क्षार-लवणमय विषम जलस्रोतों के कारण अपेय . चारित्र संभोज-जो चारित्र में उद्यमशील है, विषण्ण नहीं होता बन गए। वहां के लोगों को सदोष-निर्दोष जल की जानकारी थी। है, वह चारित्र सांभोजिक है। इसलिए वे पूछते-यह जल किस कूप से लाए हो? निर्दोष होता . तप संभोज-जो इहलोक और परलोक की आशंसा से तप नहीं तो उपयोग करते अन्यथा वर्जन करते। कोई जानबूझकर सदोष जल करता, निर्जरा के लिए तप करता है, वह तप सांभोजिक है। जो लाता तो उसकी भर्त्सना करते। अनजान में लाने वाले को सावधान तपोयोग में वीर्य का गोपन करता है, उसे विसांभोजिक कर दिया कर पुनः वैसा जल लाने का निषेध करते। जब तक कूप शुद्ध थे, जाता है-यह सोचकर वह तप में उद्यम करता है। तब तक यह पृच्छा नहीं होती थी कि पानी कहां से लाए? ० उत्तरगुणसंभोज-विसंभोज उत्तरगुणों में होता है या मूलगुणों अविणट्रे संभोगे, अणातणाते य नासि पारिच्छा।.... में? आचार्य कहते हैं-विसंभोज उत्तरगुणों में होता है। आर्यसुहस्तिशिष्यद्रमकप्रव्रज्याप्रतिपत्तिप्रभृतित आराद् जो सांभोजिक होता है, उत्तरगुणों में विषण्ण या शिथिल विनष्टः संभोगः। होने पर उसकी सारणा-वारणा की जाती है। इस प्रकार (व्यभा २९०८ वृ) उत्तरगुणसंरक्षण से मूलगुण संरक्षित होते हैं। आर्य महागिरि से पूर्व अथवा उन तक संभोज व्यवस्था विद्यमान थी। तब तक ज्ञात-अज्ञात की परीक्षा नहीं होती थी। १० साधु-साध्वी की विसांभोजिककरण-विधि आर्य सहस्ती के शिष्य द्रमक की प्रव्रज्या के पश्चात संभोज विनष्ट जे निग्गंथा य निग्गंधीओ य संभोडया सिया, नो ण्हं हुआ। तब से ज्ञात-अज्ञात की परीक्षा कर, आलोचनीय की आलोचना पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करेत्तए, कप्पइ ण्हं कर एक मण्डली में आहार किया जाने लगा। पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोडयं विसंभोडयं करेत्तए। जत्थेत ९. विसंभोज उत्तरगुणों में : दर्शन संभोज आदि अण्णमण्णं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-अह णं अज्जो! ......"दंसण-णाण चरित्ते, तवहेउं उत्तरगणेस॥ तुमए सद्धिं इमम्मि कारणम्मि पच्चक्खं संभोगं विसंभोगं सहहणा खल मुलं, सहहमाणस्स होति संभोगो। करेमि। से य पडितप्पेज्जा एवं से नो कप्पइ"विसंभोइयं णाणम्मि तवओगो, तहेव अविसीयणं चरणे॥ करेत्तए॥ जाओ निग्गंथीओ'नो ण्हं कप्पइ पच्चक्खं पाडिदसण-णाण-चरित्ताण, वुद्भिहेउं तु एस संभोओ। एक्कं संभोइणिं विसंभोइणिं करेत्तए॥ (व्य ७/४, ५) तवहेउ उत्तरगुणेसु चेव सुहसारणा भवति॥ जो निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां सांभोजिक हैं, उनमे निर्ग्रन्थो विसंभोओ किं उत्तरगुणे मूलगुणे? आयरिओ भणति- को परोक्ष में सांभोजिक से विसांभोजिक (संबंध-विच्छेद) नही उत्तरगुणे। अधवा-उत्तरगुणे सीयंतो संभोतिओ त्ति काउं किया जा सकता, प्रत्यक्ष में किया जा सकता है। जहां भी वे चोतिजति। एवं चोयणाए उत्तरगुणसंरक्खणे मूलगुणा परस्पर मिलें, वहीं आचार्य इस प्रकार कहे-आर्य! मैं अमुक संरक्खिया भवंति। (निभा २०६९, २१५५, २१५६ चू) कारण से तुम्हें प्रत्यक्ष में सांभोजिक से विसांभोजिक करता हूं ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की वृद्धि के लिए संभोज यदि वह पश्चात्ताप करे तो उसका संबंध विच्छेद नहीं किया ज व्यवस्था अभिलषणीय है। सकता। साध्वियों को प्रत्यक्ष में विसांभोजिक नहीं करना चाहिए Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्भोजिक ६१४ आगम विषय कोश-२ ११. एक ही दोष चौथी बार सेवन से विसांभोजिक और चारित्र-जो इन नौ स्थानों का प्रत्यनीक होता है, उसे एगं व दो व तिण्णि व, आउटुं तस्स होति पच्छित्तं। विसांभोजिक कर दिया जाता है।-स्था ९/१ आउटुंते वि ततो, परेण तिण्हं विसंभोगो॥ . समवाय (१२/२) में बारह प्रकार के संभोग का उल्लेख है। स किमवि कातूणऽधवा, सुहम वा बादरं व अवराह। ० सांभोजिक का भक्ति-बहुमान और वर्णसंज्वलन करना णाउट्ट विसंभोगो, असद्दहते असंभोगो॥ अनाशातना-दर्शन-विनय है।-भ २५/५८६) (निभा २०७५, २०८३) १२. कुशीलसंसर्ग से विसांभोजिक एक सांभोजिक मुनि एक बार, दो बार अथवा तीन बार __पडिसेधे पडिसेधो, असंविग्गे दाणमादि तिक्खुत्तो।" अशुद्ध आहार आदि ग्रहण करता है, तो उसे सचेत करने पर वह पासत्थादिकुसीले, पडिसिद्धे जा तु तेसि संसग्गी। 'मिच्छा मि दुक्कडं' कहता हआ उस अपराध से निवत्त हो जाता पडिसिज्झति एसो खल, पडिसेधे होड पडिसेधो॥ है, पुनः न करने का संकल्प करता है, तब उसे उस कृतदोष का सूयगडंगे एवं धम्मज्झयणे निकाचितं भणियं । प्रायश्चित्त दिया जाता है। अकुसीले सदा भिक्खू नो य संसग्गियं भए। तीन बार से अधिक, चौथी बार यदि वही अतिचार सेवन (व्यभा २८९७-२८९९) करता है तो उसे विसांभोजिक कर दिया जाता है। जो असंविग्न-पार्श्वस्थ आदि कुशील हैं, उनका संसर्ग जो मुनि छोटा या बड़ा कोई भी अपराध कर उससे निवृत्त प्रतिषिद्ध है। दान-ग्रहण (आहार आदि के आदान-प्रदान) द्वारा नहीं होता है या साधु-सामाचारीनिरूपण में श्रद्धा नहीं करता है, उनका संसर्ग होता है। जो साधु प्रतिषेध करने पर भी तीन बार से उसे भी असांभोजिक कर दिया जाता है। अधिक यह संसर्ग करता है, उसे विसांभोजिक कर दिया जाता है। (तीन कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ अपने साधर्मिक सांभोगिक पार्श्वस्थ आदि कुशील होना भी निषिद्ध है और कुशील का संसर्ग को विसांभोगिक करता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता- भी निषिद्ध है-यह प्रतिषेध का प्रतिषेध है। सूत्रकृतांग के 'धर्म' १. स्वयं किसी को सामाचारी के प्रतिकूल आचरण करते हुए अध्ययन (स १/९/२८) में यह निश्चयपूर्वक प्रतिपादित हैदेखकर, २. श्राद्ध (विश्वासपात्र) से सुनकर, ३. तीन बार अनाचार 'भिक्षु सदा अकुशील रहे, कुशीलों के साथ संसर्ग न करे।' का प्रायश्चित्त देने के बाद चौथी बार प्रायश्चित्त विहित नहीं होने १३. सांभोजिक साधु-साध्वी : आलोचना निषेध के कारण।-स्था ३/३५० जे निग्गंथा य निग्गंथीओ य संभोइया सिया, नो ण्हं ___पांच स्थानों से श्रमण-निर्ग्रन्थ अपने साधर्मिक सांभोगिक कप्पइ अण्णमण्णस्स अंतिए आलोएत्तए।अस्थियाइं त्थ केइ को विसांभोगिक-मंडली-बाह्य करता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण आलोयणारिहे, कप्पइ ण्हं तस्स अंतिए आलोएत्तए, नत्थियाई नहीं करता-१. जो अशुभ कर्म का बंधन करने वाले कार्य का स्थ केइ आलोयणारिहे, एवं ण्हं कप्पइ अण्णमण्णस्स अंतिए प्रतिसेवन करता है। २. प्रतिसेवन कर जो आलोचना नहीं करता। आलोएत्तए॥ (व्य ५/१९) ३. आलोचना कर जो प्रस्थापन (प्रायश्चित्त रूप में प्राप्त तप का प्रांरभ) नहीं करता। ४. प्रस्थापन कर जो निर्वेश (प्रायश्चित्त का सांभोजिक निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी परस्पर एक-दूसरे के समीप आलोचना नहीं कर सकते। स्वपक्ष में आलोचना हो तो उसी के पूर्ण निर्वाह) नहीं करता। ५. जो स्थविरों के स्थितिकल्प होते हैं, उनमें से एक के बाद दूसरे का अतिक्रमण करता है, दूसरों के । पास तथा आलोचना न होने पर साधु-साध्वी को.परस्पर आलोचना समझाने पर यह कहता है-'लो, मैं दोष का प्रतिसेवन करता हूं, करना चाहिए। स्थविर मेरा क्या करेंगे?' –स्था ५/४६ १४. सम्भोज उपसम्पदा विधि आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, संघ, ज्ञान, दर्शन भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ सार्थवाह पा संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नो से कप्पइ मुनियों से द्वेष रखने वाले हो सकते हैं अथवा सार्थ स्वल्प संबल अणापुच्छित्ता आयरियंकप्पइ से आपुच्छित्ता"ते य से नो (पाथेय)वाला हो सकता है। वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ। जत्थुत्तरियं धम्मविणयं सार्थ के पांच प्रकार हैंलभेज्जा, एवं से कप्पइ"॥ (क ४/१९) १. भण्डी-बैलगाडियों से यात्रा करने वाला सार्थ । भिक्षु गण से अवक्रमण कर अन्य गण में संभोज के निमित्त २. बहिलक-करभी, खच्चर आदि से यात्रा करने वाला सार्थ। उपसम्पदा ग्रहण कर विहरण करना चाहे तो वह आचार्य को पछे ३. भारवह-पोट्टलिका-वाहकों का सार्थ। बिना नहीं जा सकता, पूछकर जा सकता है, वे आज्ञा न दें तो नहीं ४. औदरिक-मुद्रा देकर भोजन कर पुनः अग्रगामी सार्थ। जा सकता। जिस गण में स्मारणा-वारणा आदि रूप उत्तम ५. कार्पटिक-भिक्षाचरों का सार्थ। आचारविनय का प्रशिक्षण प्राप्त हो, उस गण में वह संभोजप्रत्ययिक यात्रापथ में उपयोगी सार्थ उपसम्पदा स्वीकार कर सकता है। उप्परिवाडी गुरुगा, तिसु कंजियमादिसंभवो होज्जा। परिवहणं दोसु भवे, बालादी सल्ल गेलन्ने॥ सार्थवाह-व्यापारीयात्रियों के संघ का नायक। (बृभा ३०६८) १.सार्थवाह मनि को यथोक्त क्रम का उल्लंघन कर अर्थात भंडी सार्थ २. सार्थ के प्रकार के होने पर बहिलक के साथ जाने पर चतर्गरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता ० यात्रापथ में उपयोगी सार्थ है। वह भंडी के अभाव में बहिलक के साथ, बहिलक के अभाव में * मुनि और शुद्ध सार्थ द्र विहार भारवह के साथ जा सकता है। प्रथम तीन सार्थों के साथ जाने से ३. सार्थ की प्रत्युपेक्षा : यान-वाहन स्वीकृति ४. सार्थवाह और सार्थरक्षक के प्रकार कांजी आदि पानक की प्राप्ति हो सकती है। प्रथम दो सार्थ बाल, ५. सार्थ का प्रस्थान और शकुन वृद्ध, दुर्बल, शल्यविद्ध और ग्लान को वहन कर सकते हैं। १. सार्थवाह ३. सार्थ की प्रत्युपेक्षा : यान-वाहन स्वीकृति जो वाणिओ रातीहिं अब्भणुण्णातो सत्थं वाहेति, सो अणुरंगाई जाणे, गुंठाई वाहणे अणुण्णवणा। धम्मु त्ति वा", बालादि अणिच्छे पडिकुट्ठा॥ सत्थवाहो। (निभा १७३५ की चू) दंतिक्क-गोर-तिल्ल-गुल-सप्पिएमादिभंडभरिएसु। जो वणिक्-व्यापारी राजा के द्वारा अभ्यनुज्ञात है, राजा की ___ अंतरवाघातम्मि व, तं दितिहरा उ किं देंति॥ स्वीकृति प्राप्त कर देशांतर-गमन करने वाले व्यापारी वर्ग का । खेत्ते जं बालादी, अपरिस्संता वयंति अद्धाणं। नेतृत्व करता है, वह सार्थवाह कहलाता है। काले जो पुव्वण्हे, भावे सपक्खादणोमाणं॥ २. सार्थ के प्रकार _ (बृभा ३०७१, ३०७२, ३०७५) .."ओमाण पंत सत्थिय, अतियत्तिय अप्पपत्थयणो॥ ___ मुनि जिस सार्थ के साथ जाना चाहे, उसकी द्रव्य, क्षेत्र, रागहोसविमुक्को, सत्थं पडिलेहें सो उ पंचविहो। काल और भाव से प्रत्युपेक्षा करे। भंडी बहिलग भरवह, ओदरिया कप्पडिय सत्थो॥ . द्रव्यतः प्रत्युपेक्षा-मुनि चलने में असमर्थ, बाल-वृद्ध आदि (बुभा ३०६५,३०६६) के लिए सार्थवाह से अनरंगा. शकट आदि यान और अश्व, जिस मुनि का गन्तव्य में न राग हो, न द्वेष हो, उसे सार्थ महिष आदि वाहन की स्वीकृति ले। यदि वह अपना धर्म की प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए, क्योंकि सार्थ कदाचित् अपमान से मानकर स्वीकृति दे, तब तो सुन्दर, निषेध करे, तब उसके साथ अत्यधिक उद्वेजित हो सकता है, अथवा सार्थिक या सार्थचिन्तक न जाए। Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थवाह जिस सार्थ में दंतखाद्य ( मोदक आदि), गोधूम, तेल, गुड़, घृत आदि खाद्यपदार्थों के भाण्डों से शकट भरे हुए हैं, वह द्रव्यतः शुद्ध सार्थ है क्योंकि यात्रा में वर्षा, बाढ़ आदि किसी प्रकार का व्याघात होने पर सार्थवाह स्वयं उन खाद्यों को खा सकता है, मुनि को भी दे सकता है। उनके अभाव में वह क्या देगा ? • क्षेत्रतः प्रत्युपेक्षा - जितने मार्ग तक बाल, वृद्ध आदि बिना जा सकते हैं, उतने मार्ग तक यदि सार्थ जाता है तो वह क्षेत्रतः शुद्ध सार्थ है T • कालतः प्रत्युपेक्षा ---जो सार्थ सूर्योदय वेला में प्रस्थान करता है और पूर्वाह्न में ठहर जाता है, वह कालतः शुद्ध सार्थ है। ० भावतः प्रत्युपेक्षा - जिसके पास श्रमणों आदि को भिक्षा देने के लिए पर्याप्त सामग्री है, वह भावतः शुद्ध सार्थ है । ४. सार्थवाह और सार्थरक्षक के प्रकार ....... सत्थाहा अट्ठ आइयत्तीया ।....... पुराण सावग सम्मद्दिट्ठि अहाभद्द दाणसड्डे य । अणभिग्गहिए मिच्छे, अभिग्गहे अण्णतित्थी य ॥ (बृभा ३०७०, ३०८० ) सार्थवाह (सार्थाधिपति) के आठ प्रकार हैं १. पुराण (पश्चात्कृत ) – जो पहले साधु रह चुका है। २. श्रावक - अणुव्रती श्रावक । ३. सम्यग्दृष्टि अविरत सम्यग्दर्शनी । साधु-दर्शन का पक्षधर । ४. यथाभद्रक ५. दानश्राद्ध स्वभावत: दान देने की रुचि वाला । ६. अनभिगृहीत मिथ्यादृष्टि-तटस्थ भाव से गलत तत्त्व को पकड़कर रखने वाला। - - ७. अभिगृहीत- आग्रहशील मिथ्यादृष्टि । ८. अन्यतीर्थिक- दूसरे सम्प्रदाय का उपासक । आतियात्रिक-सार्थरक्षक के भी ये ही आठ प्रकार 1 ५. सार्थ का प्रस्थान और शकुन ...पुव्वपडिलेहिएण सत्थेण गंतव्वं ॥ ....अणुकूले निग्गमओ, पत्ता सत्थस्स सउणेणं ॥ (बृभा २८७९, २८९४) ६१६ आगम विषय कोश- २ पूर्व प्रत्युपेक्षित सार्थ के साथ मुनि अनुकूल चन्द्रबलताराबल होने पर प्रस्थान करे। उपाश्रय से प्रस्थान स्वयं के शकुन से करे तथा सार्थ प्राप्त होने पर सार्थ के शकुन से चले। सिद्धान्त - राद्धांत, दर्शन, मत । जेण उ सिद्धं अत्थं, अंतं णयतीति तेण सिद्धंतो।..... (बृभा १७९ ) जो सिद्ध/निर्णीत अर्थ को प्रमाण की कोटि में पहुंचाता है, वह सिद्धांत है । .......सो सव्व-पडीतंतो, अहिगरणे अब्भुवगमे य ॥ संति पमाणातिँ पमेयसाहगाई तु सव्वतंतो उ। थेज्जवई य वसुमई, आपो य दवा चलो वाऊ ॥ जो खलु सतंतसिद्धो, न य परतंतेसु सो उ पडितं तो । निच्चमणिच्चं सव्वं, निच्चानिच्चं च इच्चाई ॥ सो अहिगरणो जहियं सिद्धे सेसं अणुत्तमवि सिज्झे । जह निच्चत्ते सिद्धे, अन्नत्ता-मुत्तसंसिद्धी ॥ जं अब्भुविच्च कीरइ, सिच्छाऍ कहा स अब्भुवगमो उ । सीतो वन्ही गयजूह तणग्गे मग्गु - खरसिंगा ॥ (बृभा १७९-१८३) सिद्धान्त चार प्रकार का है १. सर्वतंत्रसिद्धान्त - प्रमेय के साधक प्रत्यक्ष आदि प्रमाण सब तंत्रों (सिद्धांतों) में अर्थ के साधक होते हैं। पृथ्वी स्थिर है, जल तरल है, वायु चंचल है - यह सर्वतंत्र सिद्धान्त है। २. प्रतितंत्र सिद्धान्त - जो अर्थ स्व-तंत्र में मान्य है, पर-तंत्र में मान्य नहीं है, जैसे- सांख्य मत में सब नित्य हैं। बौद्ध मत में सब अनित्य हैं । जैन मत में सब पदार्थ नित्य- अनित्य दोनों हैं । ३. अधिकरण सिद्धान्त - वस्तु के एक धर्म के सिद्ध होने पर उसके शेष अनुक्त धर्म सिद्ध हो जाते हैं। जैसे - आत्मा का नित्यत्व धर्म सिद्ध हो जाने पर उसके अन्यत्व धर्म तथा अमूर्त्तत्व धर्म की भी स्वतः संसिद्धि हो जाती है । ४. अभ्युपगम सिद्धान्त - अग्नि शीतल है, तृण के अग्रभाग पर गजयूथ है, जलकाक और गधे के सींग होते हैं- ऐसे स्वेच्छिक तथ्यों को स्वीकार कर वादकथा करना । Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६१७ सूत्र सूत्र-जो अर्थ का सूचक है, जिसमें अनेक अर्थों का संघात है। अर्हत्-वाणी, आगम। १. सूत्र के निर्वचन एवं नाम २. सूत्र का लक्षण, स्वरूप, भाषा * सूत्र देवता-अधिष्ठित क्यों? द्र आगम * सूत्र-अर्थमण्डली व्यवस्था द्र वाचना * सूत्र (आगम) वाचना : संयमपर्याय द्र श्रुतज्ञान * सूत्र के क्रमश: अध्ययन के गुण द्र उत्सारकल्प * छेदसूत्रनि!हण का प्रयोजन द्र छेदसूत्र ३. सूत्र और अर्थ में बलवान् कौन? ४. सूत्र-अर्थपद : प्रासाद का रूपक ५. सूत्र : अर्थ का अनुगामी ___ * बारह-बारह वर्ष सूत्र-अर्थ-ग्रहण द्र श्रुतज्ञान ६. आचार्य ही अर्थउत्प्रेक्षक * अर्थधर मुनि प्रमाण... द्र आगम * उपाध्याय द्वारा सूत्रवाचना * सूत्रस्वाध्याय का काल द्र स्वाध्याय ७. कल्पिक के बारह प्रकार : सूत्रकल्पिक""" ८. सूत्र के तीन प्रकार ९. सूत्र के चार प्रकार १०. सूत्र के अनेक भेद ११. सूत्र के छह प्रकार : उत्सर्ग सूत्र आदि १२. उत्सर्ग-अपवाद का विषयविभाग १३. विधान और निषेध की संगति १४. उत्सर्ग-अपवाद : निर्जरा के हेतु १५. उत्सर्ग और अपवाद तुल्य ० उत्सर्ग और अपवाद : बलवान् कौन? १६. अपवादसेवन का नियामक तत्त्व द्र संघ सूरमणी जलकंतो, व अत्थमेवं तु पसवई सुत्तं। वणियसुयंध कयवरे, तदणुसरंतो रयं एवं॥ .सुष्ठूक्तं सूक्तम्। (बृभा ३११-३१४ वृ) सूत्र शब्द के चार निर्वचन हैं-१. जो सूचित करता है, २. जो स्यूत (संयुक्त) करता है, ३. जो अर्थ का प्रसव करता है, ४. जो अर्थ का अनुसरण करता है, वह सूत्र है। सूत्र के अनेक नाम हैं० सुप्त-सूत्र प्रसुप्त मनुष्य के समान है। जैसे प्रसुप्त मनुष्य अपनी ज्ञात कलाओं को भी प्रबोधित हुए बिना नहीं जानता, वैसे ही सूत्र में जब तक अर्थ का प्रबोध संक्रान्त नहीं हो जाता, तब तक उससे विशेष कुछ नहीं जाना जा सकता। ० श्लेष--सूत्र श्लेष (तंतु) के सदृश होता है। एक तंतु से अनेक वस्तुएं एकत्र संहत होती हैं, बांधी जाती हैं, वैसे ही एक सूत्र से अनेक अर्थ संघातित होते हैं। ० सूचन-सूत्र में पिरोई हुई सूई खो जाती है तो वह पुनः प्राप्त हो जाती है, वैसे ही सूत्र से अर्थ सूचित/ज्ञात होता है। ० सीवन-धागा कंचुक आदि के वस्त्रखंडों को जोड़ता है, वैसे ही सूत्र अर्थपदों को जोड़ता है। ० स्रवण-सूर्यकान्तमणि अग्नि में, जलकान्तमणि जल में दीप्ति का स्रवण करती है, वैसे ही सूत्र अर्थ का प्रस्रवण करता है। ० अनुसरण-इसके दो प्रकार हैं -द्रव्यतः और भावतः । द्रव्यतः अनुसरण में अंधपुत्र-कचवर का दृष्टांत एक वणिक् का पुत्र अंधा था। वणिक् ने सोचा-मेरा यह पुत्र बिना कुछ काम किए भोजन करेगा तो इसको बहुत तिरस्कृत होना पड़ेगा, इसलिए मुझे कुछ उपाय करना चाहिए। उसने जमीन में दो खंभे गाड़कर एक रज्जु बांध दी। अब वह पुत्र घर का सारा कचरा उस रज्जु का अनुसरण करता हुआ बाहर जाकर फेंक आता। उसी प्रकार मुनि भी रज्जुस्थानीय सूत्र के सहारे कचवरस्थानीय कर्म का अपनयन करते हैं। ० सूक्त-जो श्रेष्ठ कथन (सुभाषित) है, वह सूक्त्/सूत्र है। २. सूत्र का लक्षण, स्वरूप, भाषा अप्पग्गंथ महत्थं, बत्तीसादोसविरहियं जं च। लक्खणजुत्तं सुत्तं, अट्ठहि य गुणेहिं उववेयं ॥ (बृभा २७७) १. सूत्र के निर्वचन एवं नाम नियाद तम्म उ सयद गिलट नदेव मवट नो अणुसरति त्ति य भेया, तस्स उ नामा इमा हति॥ पासुत्तसमं सुत्तं, अत्थेणाबोहियं न तं जाणे। लेससरिसेण तेणं, अत्था संघाइया बहवे॥ सूइज्जइ सुत्तेणं, सूई नट्ठा वि तह सुएणऽत्थो। सिव्वइ अत्थपयाणि व, जह सुत्तं कंचुगाईणि॥ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६१८ आगम विषय कोश-२ जो अल्प अक्षरों में निबद्ध हो, महान् अर्थ का सूचक हो, ० सूत्र-आवश्यक (सामायिक आदि) से दशवैकालिक, बत्तीस दोषों से रहित तथा आठ गुणों से युक्त हो, वही लक्षणयुक्त दशवैकालिक से उत्तराध्ययन, इसी प्रकार आगे के सूत्र उत्तरोत्तर सूत्र होता है। (द्र श्रीआको १ दृष्टिवाद) बलवान् हैं। दृष्टिवाद के अट्ठासी सूत्र सर्वाधिक बलवान् हैं। पुव्वावरसंजुत्तं, वेरग्गकरं सतंत-अविरुद्ध। ० अर्थ-इसी प्रकार अर्थ की बलवत्ता ज्ञातव्य है। केवल छेदसूत्रार्थ पोराणमद्धमागहभासा णिययं हवति सुत्तं॥ इसका अपवाद है तित्थयरभासितो जस्सऽत्थो गंथो य गणधरणिबढ़ोतं . मिश्र-तदुभय (सूत्रार्थ) में भी यही वक्तव्यता है। पोराणं।अहवा पाययबद्धं पोराणं, मगहद्धविसयभासाणि सूत्र से अर्थ बलवान् होता है। अंग आदि पूर्ववर्ती सब सूत्रों बद्धं अद्धमागहं । अधवा अट्ठारसदेसीभासाणियतं अद्धमागधं और अर्थों से पूर्वगत सूत्रार्थ बलवान् है। क्यों? दृष्टिवाद के पांच प्रस्थान हैं-परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग भवति सुत्तं। (निभा ३६१८ चू) और चूलिका। सिद्धश्रेणिक आदि परिकर्मों और अट्ठासी सूत्रों द्वारा ० सूत्र पूर्वापरसंयुक्त-पूर्व सूत्र अपर सूत्र से अबाधित होता है। सूचित अर्थों का तथा अन्य सभी सूत्र-अर्थों का पूर्वगत में विविध ० सूत्र विषयों के प्रति वैराग्य का भाव पैदा करता है। प्रकार से विवेचन/विश्लेषण है, अतः पूर्वगत बलवान है। ० सूत्र अपने सिद्धान्त के अनुकूल प्रतिपादन करता है। अर्थ अर्हत-प्रज्ञप्त होने से अर्हत-स्थानीय है तथा सत्र ० सत्र पोराण-तीर्थंकरभाषित अर्थ वाला है और गणधर द्वारा गणधरों द्वारा संदब्ध होने से गणधर-स्थानीय है। सत्र अर्थ से निबद्ध है। अथवा वह प्राकृत में निबद्ध है। अथवा वह अर्धमागधी प्रकाशित होता है, इसलिए सूत्र से अर्थ बलवान् है। छेदसूत्र तथा भाषा-अठारह देशी भाषाओं में निबद्ध है। उसके अर्थों से चारित्र के अतिचारों की विशोधि होती है. इसलिए ३. सूत्र और अर्थ में बलवान् कौन ? पूर्वगत के अतिरिक्त शेष सब अर्थों से छेदसूत्रार्थ बलवान् है। अत्थेण गंथतो वा, संबंधो सव्वधा अपडिसिद्धो। ४. सूत्र-अर्थपद : प्रासाद का रूपक सुत्तं अत्थमुवेक्खति, अत्थो वि न सुत्तमतियाति ॥ अभिनवनगरनिवेसे, समभूमिविरेयणऽक्खरविहन्नू। (व्यभा २८६७) पाडेइ उंडियाओ, जा जस्स सठाणसोहणया॥ अर्थ और सूत्र का संबंध सर्वथा अप्रतिषिद्ध है। सूत्र अर्थसापेक्ष खणणं कोट्टण ठवणं, पेढं पासाय रयण सुहवासो। होता है। अर्थ भी सूत्र का अतिक्रमण नहीं करता। इय संजम नगरुंडिय, लिंगं मिच्छत्तसोहणयं॥ .......... सामाइयादि जा अट्ठसीतिं तु॥ वय इट्टगठवणनिभा, पेढं पुण होइ जाव सूयगडं। सुत्ते जहुत्तरं खलु, बलिया जा होति दिट्ठिवाओ त्ति। पासाओ जहिं पगयं, रयणनिभा हुँति अत्थपया॥ अत्थे वि होति एवं, छेदसुतत्थं नवरि मोत्तुं॥ (बृभा ३३१-३३३) एमेव मीसगम्मि वि, सुत्ताओ बलवगो पगासो उ। अभिनव नगर में निवास के लिए पहले भूमि की परीक्षा पुव्वगतं खलु बलियं, हेट्ठिल्लत्था किमु सुयातो॥ की जाती है। परीक्षित भूमि को सम किया जाता है। तदनन्तर जो परिकम्मेहि य अत्था, सुत्तेहि य जे य सूइया तेसिं। भूमि जिसके योग्य हो, उसे देने के लिए अक्षरविधिज्ञ अक्षरांकित होति विभासा उवरिं, पुव्वगतं तेण बलियं तु॥ मुद्राएं डालता है। तत्पश्चात् अपनी-अपनी भूमि का शोधन और तित्थगरत्थाणं खलु, अत्थो सुत्तं तु गणहरत्थाणं। खनन किया जाता है। उसमें ईंटों के टुकड़े डालकर मुद्गर से अत्थेण य वंजिज्जति, सुत्तं तम्हा उ सो बलवं॥ उनका कुट्टन किया जाता है। उस पर ईंटें स्थापित कर पीठिका जम्हा उ होति सोधी, छेदसुयत्थेण खलितचरणस्स। तैयार की जाती है। पीठिका के ऊपर प्रासाद का निर्माण कर उसे तम्हा छेदसुयत्थो, बलवं मोत्तूण पुव्वगतं॥ रत्नों से भरा जाता है। फिर उसमें सुखपूर्वक वास किया जाता है। (व्यभा १८२४-१८२९) भूमिग्रहण के समान है पुरुष। शुद्ध पुरुष की परीक्षा कर Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ उसे प्रव्रज्या दी जाती है। नगरस्थानीय है संयम और उंडिकास्थानीय है रजोहरण आदि लिंग । कचवर के समान मिथ्यात्व अज्ञान का शोधन-खनन और सम्यक्त्व मुद्गर से कुट्टन किया जाता है। ईंटों स्थापन के सदृश है व्रत। पीठिका के समान है आवश्यक यावत् सूत्रकृतांग सूत्र । प्रस्तुत प्रकरण में प्रासाद के समान है कल्प और व्यवहार सूत्र | रत्नों के सदृश हैं सूत्र के अर्थपद । ५. सूत्र : अर्थ का अनुगामी सुत्तं पमाणं जति इच्छितं ते, ण सुत्तमत्थं अतिरिच्च जाती । अत्थो जहा पस्सति भूतमत्थं, तं सुत्तकारीहिं तहा निबद्धं ॥ छाया जहा छायवतो निबद्धा, संपत्थिए जाति ठिते य ठाति । अत्थो तहा गच्छति पज्जवेसू, सुत्तं पि अत्थाणुचरं तहेव ॥ (बृभा ३६२७, ३६२८) यदि तुम्हें सूत्र की प्रमाणता अभीष्ट है तो यह भी जानो कि सूत्र अर्थ का अतिक्रमण कर प्रवृत्त नहीं होता । अर्थ जिस रूप में सद्भूत अर्थ (अभिधेय) को देखता है, सूत्रकारों ने सूत्र को उसी अभिप्राय से निबद्ध किया है। ६१९ जैसे छाया छायावान् पुरुष का अनुगमन करती है-उसके संप्रस्थित होने पर प्रस्थित हो जाती है और उसके ठहरने पर ठहर जाती है, वैसे ही अर्थ जिन पर्यवों/विकल्पों में प्रवृत्त होता है, सूत्र उसी अर्थ का अनुचारी होकर उन्हीं पर्यवों में प्रवृत्त होता है। ६. आचार्य ही अर्थउत्प्रेक्षक ....... अव्वोकडो उ भणितो, आयरिओ उवेहती अत्थं ॥ यथा किलैकस्माद् मृत्पिण्डात् कुलालोऽनेकानि घटशरावादिरूपाणि निष्पादयति, एवमाचार्योऽप्येकस्मात् सूत्रपदादभ्यूह्यानेकेषामर्थविकल्पानामुपदर्शनं करोति । यथा वा सान्धकारे गृहादौ विद्यमाना अपि घटादयः पदार्थाः प्रदीपं विना न विलोक्यन्ते, तथा सूत्रे ऽप्यर्थविशेषा आचार्येणाप्रकाशिताः सन्तोऽपि नोपलभ्यन्ते । (बृभा ३३१४ वृ) अग्गयस्स न कप्पड़, तिविहं जयणं तु सो न जाणाइ । अणुन्नवणाए जयणं, सपक्ख परपक्खजयणं च ॥ निउणो खलु सुत्तत्थो, ण हु सक्को अपडिबोधितो गाउं ।" "सर्वेषामप्यागमानामर्थपरिज्ञानमाचार्यसहायका देवोपजायते, न यथा कथञ्चित् । उक्तञ्च - सूत्र सत्स्वपि फलेषु यद्वन्न ददाति फलान्यकम्पितो वृक्षः । तद्वत् सूत्रमपि बुधैरकम्पितं नार्थवद् भवति ॥ (बृभा ३३३२, ३३३३ वृ) सूत्र में सामान्यरूप से अर्थ कहा जाता है। आचार्य विषय विभागपूर्वक सूत्र के अर्थ की उत्प्रेक्षा करते हैं। जैसे कुंभकार एक मृत्पिण्ड से घट, शराव आदि अनेक रूपों को निष्पादित करता है, वैसे ही आचार्य एक सूत्रपद से अनेक अर्थ-विकल्पों को उपदर्शित करते हैं। जैसे अंधकारयुक्त घर आदि में विद्यमान घट आदि पदार्थ दीपक के बिना दृष्टिगत नहीं होते, वैसे ही सूत्र में विद्यमान अर्थविशेष भी आचार्य के द्वारा अप्रज्ञापित होने पर ज्ञात नहीं होते। जो अगीतार्थ है, उसके लिए धान्यशाला आदि में रहना अनुज्ञात नहीं है, क्योंकि वह अनुज्ञापना यतना, स्वपक्षयतना और परपक्षयतना - इस त्रिविध यतना को नहीं जानता । (शिष्य ने पूछा -अगीतार्थ ने भी सूत्र पढ़ा है, फिर वह यतना क्यों नहीं जानता ? आचार्य ने कहा-) सब आगमों का अर्थपरिज्ञान जैसे-तैसे नहीं होता, वह आचार्य के अनुग्रहपूर्ण सहयोग से ही प्राप्त होता है। कहा भी है जैसे फलों से लदा हुआ होने पर भी वृक्ष तब तक फल नहीं देता, जब तक उसे प्रकम्पित नहीं किया जाता, वैसे ही आचार्य के द्वारा अप्रतिबोधित सूत्र भी अर्थवान् नहीं होता । सूत्र का अर्थ सूक्ष्म होता है, अतः आचार्य के प्रतिबोध के बिना उसका सम्यक् परिज्ञान संभव नहीं है। ७. कल्पिक के बारह प्रकार : सूत्रकल्पिक ....... सुत्ते अत्थे तदुभय, उव्वट्ट विचार लेव पिंडे य सिज्जा वत्थे पाए, उग्गहण विहारकप्पे य॥ एवं दुवालसविहं, जिणोवइट्टं जहोवएसेणं । जो जाणिऊण कप्पं, सद्दहणाऽऽयरणयं कुणइ ॥ सो भविय सुलभबोही, परित्तसंसारिओ पयणुकम्मो । अचिरेण उ कालेणं, गच्छइ सिद्धिं धुयकिलेसो ॥ (बृभा ४०५, ७१३, ७१४) कल्पिक (सूत्रार्थग्रहण - योग्य) के बारह प्रकार हैं१- ३. सूत्र - अर्थ - तदुभयकल्पिक ४. उपस्थापनाकल्पिक विचारकल्पिक ५. द्र श्रुतज्ञान द्र दीक्षा द्र समिति Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० आगम विषय कोश-२ पात्रलेपकल्पिक द्र उपधि इस प्रकार सागारिक, आमगंध आदि सामयिकी संज्ञाओं पिण्डकल्पिक द्र पिण्डैषणा का प्रयोग करने से दो लाभ होते हैं८. शय्याकल्पिक द्र शय्या ० जुगुप्सित अर्थ में प्रयुक्त संज्ञावचन उपचार वचन कहलाता है। ९, १०.वस्त्रकल्पिक, पात्रकल्पिक द्र उपधि उपचार वचन के प्रयोग से जुगुप्सित अर्थ के प्रति निष्ठुरता का ११. अवग्रहकल्पिक द्र अवग्रह भाव पैदा नहीं होता। १२. विहारकल्पिक द्र विहार प्रयोजन होने पर साध्वियां साधु के पास पढे तो संज्ञासूत्र से उन्हें यह बारह प्रकार का कल्प अर्हत् द्वारा प्रतिपादित है। जो सुखपूर्वक आलापक दिया जा सकता है। स्पष्ट शब्द प्रयोग से यथोपदिष्ट कल्प को जानकर उस पर श्रद्धा करता है, उसका साध्वी में निर्लज्जता का भाव पैदा हो सकता है। आचरण करता है, वह भव्य, सुलभबोधिक, परिमित संसार वाला २. कारकसूत्र-आगमसम्मत सिद्धांत की अपायदर्शनपूर्वक सिद्धि तथा प्रतनुकर्मा होता है और वह क्लेशों को नष्ट कर शीघ्र ही करने वाले सूत्र। सर्वज्ञभाषित होने के कारण यद्यपि सारा श्रुत सिद्धि को प्राप्त करता है। एकांततः प्रमाण है किन्तु विस्तार से अपायदर्शन (दोषों के ज्ञान ८. सूत्र के तीन प्रकार अथवा निश्चयात्मक बोध) के लिए कारक-सूत्रों की रचना हुई। सन्ना य कारगे पकरणे य सत्तं तु तं भवे तिविहं।. (जैसे-से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-आहाकम्मं णं भुंजमाणे उवयार अनिट्ठरया, कज्जित्थीदाणमाहु नित्थक्का। आउयवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ सिढिलबंधण्बद्धाओ धणियजे छऍ आमगंधादि, आरं सन्ना सुयं तेणं॥ बंधणबद्धाओ पकरेइ.....? (भ १/४३७) भंते! यह किस अपेक्षा सव्वन्नुपमाणाओ, जड़ वि य उस्सग्गओ सुयपसिद्धी। से कहा जा रहा है-आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण निग्रंथ वित्थरओऽपायाण य, दरिसणमिइ कारगं तम्हा॥ आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिलबंधनबद्ध पगरणओ पुण सुत्तं, जत्थ उ अक्खेव-निन्नयपसिद्धी। प्रकृतियों को गाढ बंधनबद्ध करता है ?) नमि-गोयमकेसिज्जा, अहग-नालंदइज्जा य॥ ३. प्रकरण सूत्र-जिनमें आक्षेप-प्रत्यवस्थान (प्रश्नोत्तर) अथवा "सागारिकं' मैथुन"आमम्-अविशोधिकोटिः संवादशैली का प्रयोग हो। जैसेगन्धं-विशोधिकोटि:....."आमगन्धं परिज्ञाय...."निरामगन्धः ....नि . ० नमिप्रव्रज्या (उ ९)। ० आर्द्रकीय (सू २/६)। सन्"अप्रतिबद्धो विहरेदित्यर्थः। आरः-संसारः"""पारं ० केशिगौतमीय (उ २३)। ० नालंदीय (सू. २/७)। (बृभा ३१५-३१८ वृ) ९. सूत्र के चार प्रकार सत्र के तीन प्रकार हैं-संज्ञासूत्र, कारक सूत्र, प्रकरण सूत्र। कत्थइ देसग्गहणं, कत्थति भण्णंति णिरवसेसाई। १. संज्ञासूत्र-जिनमें सामयिक-आगम के सांकेतिक शब्दों का उक्कम-कमजुत्ताइं, कारणवसतो णिजुत्ताई।। प्रयोग है। जैसे देसग्गहणे बीएहि सूयिया मूलमादिणो हुंति। ० जे छेए से सागारियं ण सेवए। (आ ५/१०) जो इन्द्रियजयी है, कोहादि अणिग्गहिया, सिंचंति भवं निरवसेसं॥ वह सागारिक-मैथुन का सेवन नहीं करता। सत्थपरिण्णादुक्कमे, गोयर पिंडेसणा कमेणं तु। ० सव्वामगंधं परिण्णाय णिरामगंधो परिव्वए। (आ २/१०८) जं पि य उक्कमकरणं, तमभिणवधम्ममादऽट्ठा॥ मुनि सब प्रकार के आमगंध-आहारसंबंधी अविशोधि- .."मोत्तूणं अहिगारं, अणुयोगधरा पभासंति॥ कोटि-विशोधिकोटि के दोषों का परित्याग कर निरामगंध-आहार (बृभा ३३२१-३३२३, ३३२५) की आसक्ति से मुक्त रहता हुआ परिव्रजन करे। सूत्रों में अभिधेय पदों का कहीं देशग्रहण और कहीं ० आरं दगणेणं पारं एगगणेणं । द्विगण-राग-द्वेष से आर-संसार सर्वग्रहण किया गया है तथा प्रयोजनवश कई सूत्र उत्क्रमयुक्त बढ़ता है। एकगुण-वीतरागता से पार-निर्वाण प्राप्त होता है। और कई सूत्र क्रमयुक्त विरचित हैं । चार प्रकार के सूत्र हैं मोक्षः....। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६२१ सूत्र १. देशसूत्र-जिसमें देशग्रहण करने पर तज्जातीय सभी का ग्रहण ० स्वसमयसूत्र-करेमि भंते! सामाइयं .... (आव १) हो जाता है। जैसे-... वणस्सइकाइया सबीया....(द ४/सू ८ ० परसमयसूत्र-पंच खंधे वयंतेगे........(सू १/१/१७) जिचू)-इस सूत्र में सबीज शब्द से वनस्पति के मूल, कंद आदि ० उत्सर्गसूत्र-जिसमें आचारविषयक सामान्य विधि का प्रतिपादन दस भेदों को सूचित किया गया है। हो। यथा-..."अभिक्खणं निव्विगई गया य।... (द चूला २/७) २.सर्वसूत्र-जिसमें निरवशेष अभिधेय पदों का ग्रहण किया गया ० अपवादसूत्र-जिसमें विशेष विधि का प्रतिपादन हो। यथाहो। जैसे-दशवैकालिक (८/३९) में एक साथ चारों कषायों का तिण्हमन्नयरागस्स, निसेज्जा जस्स कप्पई। ग्रहण किया गया है जराए अभिभूयस्स, वाहियस्स तवस्सिणो॥ कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभो य पवड्डमाणा। (द ६/५९) चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाइं पुणब्भवस्स॥ ० हीन-अधिक सूत्र-हीनाक्षर सूत्र, जिसका अर्थ उन अक्षरों के अनिगृहीत क्रोध और मान, प्रवर्द्धमान माया और लोभ-ये बिना पूर्ण न हो। इसी प्रकार अधिक अक्षर वाला सूत्र। मुनि सूत्र चारों संक्लिष्ट कषाय पनर्जन्मरूपी वक्ष की जडों का सिंचन का सही अर्थ ज्ञात हो जाने पर हीन सूत्र को पूर्ण करता है और करते हैं। अधिक अक्षरों का परित्याग करता है। ३. उत्क्रम सूत्र-जिनमें वर्णन क्रमशः न हो, जैसे-आचारांग के ० जिनकल्पिकसूत्र-तेगिच्छं नाभिनंदेज्जा॥ (उ २/३३) शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में तेजस्काय के पश्चात् क्रमप्राप्त वायुकाय ० स्थविरकल्पिकसूत्र-भिक्खू इच्छेज्जा अन्नयरिं तेइच्छं आउट्टित्तए का वर्णन न करके वनस्पतिकाय और त्रसकाय के पश्चात् उसका (दशा ८ परि सू २७४) वर्णन किया गया है। ० जिनकल्प-स्थविरकल्प-सामान्य सूत्र४. क्रमसत्र-जिनमें क्रमश: वर्णन हो। जैसे-पेटा, अर्धपेटा आदि .."संसट्ठकप्पेण चरेज्ज भिक्खू," || (द चूला २/६) आठ गोचरभमियां. (उ ३०/१९) । असंसष्टा, संसष्टा आदि सात ० आर्यासूत्र-यथा-कप्पइ निग्गंथीणं अंतोलित्तं घडिमत्तयं पिण्डैषणाएं (आचला १/१४१-१४७)।। धारित्तए। (क १/१६) सत्रों में उत्क्रम से प्रतिपादन का प्रयोजन है-शैक्ष आदि ० कालसूत्र-यथा-अनागत काल विषयक सूत्रमुनि प्रतिपाद्य विषय को सहजता से समझ सकें। न या लभेज्जा निउणं सहायं, ___कहीं-कहीं अनुयोगधर सूत्र के प्रस्तुत अर्थ को छोड़कर गणाहियं वा गणओ समं वा। (द चूला २/१०) प्रसंगोपात्त अर्थ का पहले प्रतिपादन करते हैं। ० वचनसूत्र-से एगवयणं वदिस्सामीति एगवयणं वएज्जा ॥ (आचूला ४/४) १०. सूत्र के अनेक भेद सन्नाइसुत्त ससमय, परसमय उस्सग्गमेव अववाए। ११. सूत्र के छह प्रकार : उत्सर्ग सूत्र आदि हीणा-ऽहिय-जिण-थेरे, अज्जा काले य वयणाई॥ उस्सग्गसुतं किंची, किंची अववातियं भवे सुत्तं। इह मौनीन्द्रप्रवचनेऽनेकधा सूत्राणि भवन्ति"देशी तदुभयसुत्तं किंची, सुत्तस्स गमा मुणेयव्वा॥ भाषानियतं सूत्रं दिगिंछा' इति बुभुक्षा।... णेगेसु एगगहणं, सलोम णिल्लोम अकसिणे अइणे। विहिभिन्नस्स य गहणं, अववाउस्सग्गियं सुत्तं ॥ __ (बृभा १२२१ वृ) उस्सग्गठिई सुद्धं, जम्हा दव्वं विवजयं लभति। जिनप्रवचन में अनेक प्रकार के सूत्र होते हैं। जैसे ण य तं होइ विरुद्धं, एमेव इमं पि पासामो॥ ० संज्ञासूत्र-आगम के सांकेतिक शब्द प्रयोग वाले सूत्र। उस्सग्ग गोयरम्मी, निसेज्ज कप्पाऽववादतो तिण्हं। ० देशीभाषानियतसूत्र-देशीशब्दप्रयोग वाले सूत्र । जैसे मंसं दल मा अट्ठी, अववादुस्सग्गियं सुत्तं ॥ 'दिगिंछापरीसहे....।' (उ २/३) दिगिंछा का अर्थ है क्षुधा। एते सत्रस्य 'गमाः' प्रकारा:.....। अथवा 'गमा नाम' Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र द्विरुच्चारणीयानि पदानि । तद्यथा - उत्सर्गौत्सर्गिकम् अपवादा(बृभा ३३१६-३३१९ वृ) पवादिकम् । कुछ सूत्र औत्सर्गिक होते हैं, कुछ सूत्र आपवादिक होते हैं और र कुछ सूत्र तदुभय होते हैं- ये सूत्र के गम - प्रकार हैं । अथवा गम का अर्थ है- दो बार उच्चारणीय पद । जैसे उत्सर्ग - उत्सर्ग । इस प्रकार सूत्र के छह प्रकार हैं१. उत्सर्ग सूत्र ४. अपवाद - उत्सर्ग सूत्र ५. उत्सर्ग - उत्सर्ग सूत्र २. अपवाद सूत्र ३. उत्सर्ग- अपवाद सूत्र ६. अपवाद - अपवाद सूत्र ० कुछ सूत्र ऐसे होते हैं, जिनमें एक का ग्रहण साक्षात् रूप से होता है पर अर्थतः वह तत्सदृश अन्य अर्थों का भी ग्राहक होता है। (जैसे - जहां क्रोधनिग्रह का उल्लेख होता है, अर्थतः उसमें माननिग्रह आदि का भी ग्रहण हो जाता है ।) • कुछ सूत्र साधु-साध्वी के प्रत्येकविषयक होते हैं, जैसे- सलोम चर्म का ग्रहण निर्ग्रन्थों के लिए विहित है पर निर्ग्रन्थियों के लिए वही निषिद्ध है। निर्लोम चर्म निर्ग्रन्थों के लिए निषिद्ध एवं निर्ग्रन्थियों के लिए विहित है । (क ३/३, ४) • अकृत्स्न चर्म विषयक सूत्र साधारण है। (क ३/६) • विधिभिन्न तालप्रलम्ब के ग्रहण का विधान अपवादौत्सर्गिक सूत्र का उदाहरण है। (क १/५) • उत्सर्ग मार्ग में उद्गम आदि दोषों से रहित विशुद्ध भक्तपान का ग्रहण ही विहित है। अपवाद पद में विपरीत द्रव्य का ग्रहण भी विरुद्ध नहीं है क्योंकि वह ज्ञान आदि गुणों का उपकारक है। इसी प्रकार अपवाद रूप से अनुज्ञात तालप्रलम्ब के ग्रहण के सूत्र के साथ अविधिभिन्न तालप्रलम्ब का साध्वियों के लिए निषेध करने वाले सूत्र का कोई विरोध दृष्टिगत नहीं होता है। (अपवाद मार्ग अनुज्ञात कार्य का भी पुनः प्रतिषेध किया जा सकता है और वही अपवादौत्सर्गिक सूत्र कहलाता है ।) में • उत्सर्ग सूत्र - गोचरचर्या करते हुए निर्ग्रथ अन्तर्गृह में नहीं बैठ सकते। (क ३/२१ ) • अपवाद सूत्र - वृद्ध, रोगी और तपस्वी यदि मूर्च्छित हो रहे हों .....तो वे अन्तर्गृह में बैठ सकते हैं। (क ३/२२) • अपवादौत्सर्गिक सूत्र -- फल का गूदा ग्राह्य है, गुठली नहीं । (आचूला १/१३५) आगम विषय कोश-: • उत्सर्गापवादिक सूत्र - रात्रि अथवा विकाल वेला में अशनपान, वस्त्र- पात्र आदि ग्राह्य नहीं हैं। केवल पूर्वप्रतिलेखित एक शय्या - संस्तारक लिया जा सकता है। ( क १/४२, ४३) ० उत्सर्गौत्सर्गिक सूत्र - प्रथम प्रहर में गृहीत अशन आदि को पश्चिम प्रहर में नहीं रखा जा सकता। यदि कदाचित् रह जाए तो जो उसका भोग करता है, वह प्रायश्चित्तार्ह है। (क४/१२) • अपवाद - आपवादिक सूत्र - जिन सूत्रों में अपवाद का कथन हो, साथ ही अर्थ की दृष्टि से अनुज्ञा प्रवृत्त हो। यथा भक्षु राजा के अंत:पुर में प्रवेश करता है, वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। (नि ९/३,२९) (इसका आपवादिक सूत्र है - पांच कारणों से राजा के अंतःपुर में प्रवेश करता हुआ श्रमण निर्ग्रथ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता । - द्र स्था ५/१०२) ६२२ १२. उत्सर्ग- अपवाद का विषय विभाग उस्सग्गेण भणियाणि जाणि अववादतो तु जाणि भवे । कारणजातेण मुणी!, सव्वाणि वि जाणितव्वाणि ॥ उस्सग्गेण निसिद्धाइँ, जाइँ दव्वाइँ संथरे मुणिणो । कारणजाते जाते, सव्वाणि वि ताणि कप्पंति ॥ (बृभा ३३२६, ३३२७) यह ज्ञातव्य है कि उत्सर्ग और अपवाद रूप से जितने सूत्र प्रतिपादित हैं, वे कारण होने पर ही आचरणीय हैं। उत्सर्गसूत्रों में साक्षात् उत्सर्ग विषय निबद्ध है, अर्थ की अपेक्षा कारण उत्पन्न होने पर उनमें भी प्रतिषिद्ध के आचरण की अनुज्ञा है । अपवादसूत्रों में साक्षात् रूप से तो सकारण अपवादविषय निबद्ध है, अर्थ की दृष्टि से उनमें भी उत्सर्गविषय निबद्ध है। वास्तव में सब सूत्रों में उत्सर्ग और अपवाद दोनों ही निबद्ध हैं। १३. विधान और निषेध की संगति ण वि किंचि अणुण्णायं, पडिसिद्धं वा वि जिणरवरिंदेहिं । एसा तेसिं आणा, कज्जे सच्चेण होतव्वं ॥ तीर्थकृतां निश्चय - व्यवहारनयद्वयाश्रिता सम्यगाज्ञा मन्तव्या - यदुत 'कार्ये 'ज्ञानादावालम्बने 'सत्येन' सद्भावसारेण साधुना भवितव्यम्, न मातृस्थानतो यत्किञ्चिदालम्बनीयमित्यर्थः । अथवा सत्यं नाम संयमः तेन कार्ये Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६२३ सूत्र समुत्पन्ने भवितव्यम्, यथा यथा संयम उत्सर्पति तथा तथा उत्पद्येत हि साऽवस्था, देश-काला-ऽऽमयान् प्रति । कर्त्तव्यमिति भावः। आह च बृहद्भाष्यकार: यस्यामकार्यं कार्यं स्यात्, कर्म कार्यं च वर्जयेत्॥ कजं नाणादीयं, सच्चं पण होड संजमो नियमा। (बृभा ३३३१ वृ) जह जह सो होइ थिरो, तह तह कायव्वयं होई॥ जिससे राग-द्वेष निरुद्ध होते हैं, जिससे पूर्व कर्म क्षीण (बृभा ३३३० वृ) होते हैं, वह अनुष्ठान मोक्ष का उपाय है। ज्वर आदि रोगों में (शिष्य ने कहा-किसी सूत्र में जिसका विधान है, अन्य उचित औषधिसेवन और अपथ्यपरिहार करने से रोग क्षीण होते हैं। सूत्र में उसी का निषेध है-यह विसंगति क्यों? आचार्य ने उत्सर्गमार्ग में उत्सर्गविधि और अपवादमार्ग में अपवादकहा-) तीर्थंकर द्वारा कुछ भी अकल्पनीय अनज्ञात नहीं है और विधि का समाचरण करने से दोषों का निरोध और कर्मों की निर्जरा कारण उत्पन्न होने पर निषिद्ध नहीं है। तीर्थंकरों की निश्चय और होती है। अथवा किसी रोगी के लिए जिस पथ्य या औषधि का व्यवहार-दोनों नयों के आश्रित आज्ञा है--साधु को कार्यसत्य । निषेध किया जाता है, वही दूसरे रोगी के लिए अनुज्ञात हो जाती होना चाहिए, ज्ञान आदि पष्ट आलम्बन के अभाव में माया से कोई है। इसी प्रकार समर्थ मुनि के लिए अकल्प्य का प्रतिषेध और भी आचरण नहीं करना चाहिए। असमर्थ मुनि के लिए उसका विधान किया जाता है। आयुर्वेद अथवा सत्य का अर्थ है संयम। प्रयोजन होने पर संयमपर्वक शास्त्र में कहा गया हैप्रवृत्त होना चाहिए-जिस-जिस प्रकार से संयमवद्धि हो, संयम में देश, काल और रोगों में वह अवस्था उत्पन्न हो सकती है, स्थिरीकरण हो उस-उस प्रकार का आचरण करना चाहिए-ऐसा जिसमें अकार्य कार्य और कार्य अकार्य हो जाता है। बृहद्भाष्य में कहा गया है। १५. उत्सर्ग और अपवाद तुल्य । जं जह सुत्ते भणितं, तहेव तं जइ वियालणा नत्थि। उज्जयसग्गुस्सग्गो, अववाओ तस्स चेव पडिवक्खो। किं कालियाणुओगो, दिट्ठो दिट्ठिप्पहाणेहिं ॥ उस्सग्गा विनिवतियं, धरेइ सालंबमववाओ॥ (बृभा ३३१५) धावंतो उव्वाओ, मग्गन्नू किं न गच्छइ कमेणं। किं वा मउई किरिया, न कीरये असहुओ तिक्खं॥ सत्र में विधि अथवा निषेध रूप में जो जहां कहा गया है. उन्नयमविक्ख निन्नस्स, पसिद्धी उन्नयस्स निन्नाओ। यदि उसको वैसा ग्रहण करना होता तथा विषय-विभाग इय अन्नन्नपसिद्धा, उस्सग्गऽववायमो तल्ला॥ व्यवस्थापन अथवा युक्त-अयुक्त के विमर्श की आवश्यकता नहीं होती तो विशिष्ट ज्ञानी एवं नयविशारद आचार्य नियुक्ति जावइया उस्सग्गा, तावइया चेव हुंति अववाया। आदि के माध्यम से कालिकत के अनयोग का प्रतिपादन ही जावइया अववाया, उस्सग्गा तत्तिया चेव॥ क्यों करते? (बृभा ३१९-३२२) १४. उत्सर्ग-अपवाद : निर्जरा के हेतु उद्यत सर्ग (विहार) उत्सर्ग है। उसका प्रतिपक्ष है अपवाद। दोसा जेण निरुब्भंति, जेण खिजंति पुव्वकम्माइं। मुनि उत्सर्ग मार्ग से च्युत होने पर पुष्ट कारणों का आलम्बन लेकर सो सो मोक्खोवाओ, रोगावत्थासु समणं वा॥ अपवाद मार्ग को अपनाता है। .."उत्सर्गे उत्सर्गमपवादेऽपवादं समाचरतो रागादयो गन्तव्य की ओर दौड़ता हुआ व्यक्ति जब थक जाता है, तब क्या वह अपने ज्ञात मार्ग पर स्वाभाविक गति से नहीं चलता? दोषा निरुध्यन्ते । अथवा यथा कस्यापि रोगिणः पथ्यौष क्या तीक्ष्ण क्रिया को सहने में असमर्थ रोगी की मद क्रिया नहीं धादिकं प्रतिषिध्यते कस्यापि पुनस्तदेवानुज्ञायते, एवमत्रापि की जाती है? यः समर्थस्तस्याकल्प्यं प्रतिषिध्यतेऽसमर्थस्य तु तदेवानुज्ञायते। उक्तञ्च भिषग्वरशास्त्रे उन्नत की अपेक्षा से निम्न की और निम्न से उन्नत की Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६२४ आगम विषय कोश-२ प्रसिद्धि होती है। इसी प्रकार उत्सर्ग से अपवाद की और अपवाद अपवादपदों का सेवन कर, प्राणियों को संतप्त कर जो से उत्सर्ग की प्रसिद्धि होती है, इसलिए ये दोनों तुल्य हैं । जितने पश्चात्ताप नहीं करता, वह अननुतापी है। दर्पप्रतिसेवी पश्चात्ताप उत्सर्ग मार्ग हैं, उतने ही अपवाद मार्ग हैं। जितने अपवाद मार्ग नहीं करता है तो वह तो अननुतापी ही है।(द्र प्रतिसेवना) हैं, उतने ही उत्सर्ग मार्ग हैं। (विधि-निषेध/उत्सर्ग-अपवाद के मर्मज्ञ आचार्यों ने (अपवादमार्ग विहित है, फिर भी जो अपगदसेवन नहीं अपवादमार्ग को नियंत्रित रखने के लिए अपवादसेवन की सीमाकरता है, उसे दृढधर्मी कहा गया है। द्र प्रतिसेवना रेखाएं निर्धारित की। ज्ञान-दर्शन-चारित्र के योगक्षेम का कोई अन्य जिनकल्पी अपवादसेवन नहीं करते। द्र जिनकल्प) विकल्प दृष्टिगत न हो, उस स्थिति में अपवादपथ का सहारा ० उत्सर्ग और अपवाद : बलवान् कौन? लिया जाए। दोषसेवन के पश्चात् भी मन में अनुताप का भाव सट्ठाणे सट्ठाणे, सेया बलिणो य हुंति खलु एए। जागे-हा! विवश होकर मुझे अविहित आचरण करना पड़ा। सट्ठाण-परट्ठाणा, य हुंति वत्थूतों निष्फन्ना॥ जैन आचारशास्त्र में जो भी विधि-निषेध हैं, वे परम लक्ष्य संथरओ सट्ठाणं, उस्सग्गो असहुणो परट्ठाणं। की प्राप्ति के लिए हैं, जो विधान अहिंसा के लिए है तो उसका इय सट्ठाण परं वा, न होइ वत्थू विणा किंचि॥ निषेध भी अहिंसा के लिए है। विधि-निषेध वहीं तक सम्मत हैं, जहां तक संयमसाधना निर्बाध चले। यही कारण है कि आगमग्रंथों (बृभा ३२३, ३२४) में हिंसा, झूठ आदि अपवाद की स्थिति में भी अनुज्ञात नहीं हैं। उत्सर्ग और अपवाद अपने-अपने स्थान में श्रेयस्कर और भाष्य-चूर्णि-टीका साहित्य में अपवादों की प्रलम्ब श्रृंखला बलवान् हैं। स्वस्थान और परस्थान वस्तु (पुरुष) से निष्पन्न होते है, जिसमें षट्कायवध तक को करणीय मान लिया गया है। हैं। समर्थ व्यक्ति के लिए उत्सर्ग मार्ग स्वस्थान और अपवाद मार्ग प जीवन और संघ की सुरक्षा तथा प्रवचनप्रभावना के लिए जो कुछ र परस्थान है। असमर्थ व्यक्ति के लिए अपवाद मार्ग स्वस्थान और भी करना पड़े, वह सब विहित है। कितने ही अपवादों की सृष्टि उत्सर्ग मार्ग परस्थान है। पुरुष के बिना ये स्वस्थान और परस्थान श्रतज्ञान की प्राप्ति और सरक्षा के लिए हुई है। वहां इस तथ्य को किंचित् भी निष्पन्न नहीं होते। विस्मृत कर दिया गया है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र की समन्वित १६. अपवादसेवन का नियामक तत्त्व आराधना ही मोक्षमार्ग है। णाणादी परिवुड्डी, ण भविस्सति मे असेवते बितियं। उत्तरवर्ती आचार्यों ने समय-समय पर मध्ययुगीन अपवादों तेसिं पसंधणट्ठा, सालंबणिसेवणा एसा॥ के प्रति अपनी असहमति प्रकट की। आचार्य भिक्षु और णिक्कारणपडिसेवा, अपसत्थालंबणा य जा सेवा।... श्रीमज्जयाचार्य ने तो अपवादबहुल भाष्य, चूर्णि और टीका साहित्य बितियपदे जो तु परं, तावेत्ता णाणुतप्यते पच्छा। के स्वतंत्र प्रामाण्य को भी स्वीकृति नहीं दी।-द्र प्रस्तुति) सो होति अणणुतावी, किं पुण दप्पेण सेवेत्ता॥ स्थविर-वय, श्रुत या पर्याय से वृद्ध श्रमण-श्रमणी। (निभा ४६६, ४६७, ४७२) अपवादसेवन उसी स्थिति में सम्मत है, जब साधक को | १. तीन स्थविरभूमियां यह निश्चय हो जाए कि अपवादसेवन के बिना मेरे ज्ञान, दर्शन ० स्थविर (वृद्ध) कौन? * दीक्षायोग्य वृद्ध द्र दीक्षा और चारित्र की अभिवृद्धि या सुरक्षा नहीं होगी। मुनि ज्ञान आदि * स्थविर द्वारा स्थिरीकरण द्र संघ के संधान-ग्रहण-गुणन के लिए अपवादपद का सेवन करता है। २. विहरण योग्य वृद्ध और उसका वैयावृत्त्य यह सालंबन प्रतिसेवना है। ० स्थविरों का विनय-वैयावृत्त्य कोई साधु निष्कारण अथवा अप्रशस्त आलंबन लेकर प्रति * वृद्धसेवा : विनयप्रतिपत्ति का भेद द्र अंतेवासी सेवना करता है-यह निरालंबन प्रतिसेवना है। Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ वृद्धशीलता : आचारसम्पदा का अंग * गणधारण से पूर्व स्थविर - पृच्छा * स्थविर : निशीथविस्मृति और गणधारण * स्थविर के प्रति वाचक का दायित्व * 'ज्ञान हेतु स्थविर द्वारा कृतिकर्म ३. नित्यवास का निषेध और अपवाद • वृद्धवास नित्यवास नहीं ४. वृद्धवास का अर्थ, कालावधि * वृद्धवास का कालावग्रह ५. वृद्धावास के हेतु * श्रुतग्रहण हेतु वृद्धावास की अनुज्ञा * वृद्धावास योग्य संस्तारक * स्थविर की उपाधि * स्थविरा साध्वी : निश्रा संबंधी विकल्प १. द्र गणिसम्पदा द्र आचार्य छेदसूत्र द्र वाचना द्र अवग्रह तीन स्थविरभूमियां तओ थेरभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- जातिथेरे सुयथेरे परियायथेरे। सट्ठिवासजाए समणे निग्गंथे जातिथेरे, ठाणसमवायधरे समणे निग्गंथे सुयथेरे, वीसवासपरियाए समणे निग्गंथे परियायथेरे ॥ (व्य १०/१९) ....भूमि त्ति य ठाणं ति य, एगट्ठा होंति कालो य ॥ (व्यभा ४५९७) द्र श्रुतज्ञान द्र शय्या द्र उपधि द्र आचार्य तीन स्थविरभूमियां प्रज्ञप्त हैं, जैसे १. जातिस्थविर - साठ वर्षों की वय वाला श्रमण-निर्ग्रथ । २. श्रुतस्थविर - स्थान और समवाय का धारक श्रमण-निर्ग्रथ । ३. पर्यायस्थविर - बीस वर्ष के दीक्षापर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रथ । स्थविरभूमि, स्थविरस्थान और स्थविरकाल ( स्थविर - अवस्था) – ये एकार्थक हैं। ( स्थविर दस प्रकार के होते हैं - १. ग्रामस्थविर, २. नगरस्थविर, ३. राष्ट्रस्थविर, ४. प्रशास्तास्थविर, ५. कुलस्थविर, ६. गणस्थविर ७. संघस्थविर, ८. जातिस्थविर, ९. श्रुतस्थविर, १०. पर्यायस्थविर । स्थविर का अर्थ है ज्येष्ठ । वह जन्म, श्रुत, अधिकार, गुण आदि अनेक संदर्भों में होता है। ग्राम, नगर और राष्ट्र की व्यवस्था करने वाले बुद्धिमान्, लोकमान्य और सशक्त व्यक्तियों को क्रमशः ६२५ ग्रामस्थविर, नगरस्थविर और राष्ट्रस्थविर कहा जाता है। धर्मोपदेशक प्रशास्तास्थविर कहलाता है। कुल, गण और संघ- ये तीनों शासन की इकाइयां रही हैं। सर्वप्रथम कुल की व्यवस्था थी। उसके पश्चात् गणराज्य और संघराज्य की व्यवस्था भी प्रचलित हुई । इसमें जिस व्यक्ति पर कुल आदि की व्यवस्था तथा उसके विघटनकारी का निग्रह करने का दायत्वि होता है, वह स्थविर कहलाता है । यह लौकिक व्यवस्था पक्ष है। लोकोत्तर व्यवस्था के अनुसार एक आचार्य के शिष्यों को कुल, तीन आचार्य के शिष्यों को गण और अनेक आचार्यों के शिष्यों को संघ कहा जाता था। इनमें जिस व्यक्ति पर शिष्यों में अनुत्पन्न श्रद्धा उत्पन्न करने और उनकी श्रद्धा विचलित होने पर उन्हें पुनः धर्म में स्थिर करने का दायित्व होता है, वह स्थविर कहलाता है । -स्था १० / १३६ टि) स्थविर ० स्थविर कौन ? तेवरिसो होति नवो, आसोलसगं तु डहरगं बेंति । तरुणो चत्ता सत्तरूण मज्झिमो थेरओ सेसो ॥ प्रव्रज्यापर्यायेण त्रिवर्षो भवति नवः । जन्मपर्यायेण चत्वारि वर्षाणि आरभ्य यावत् परिपूर्णानि पञ्चदशवर्षाणि षोडशाद् वर्षादर्वाक् वा तड्डहरकं यावत्सप्ततिरेकेन वर्षेणोनां तावन्मध्यमः । ततः परं सप्ततेरारभ्य स्थविरः शेषः । (व्यभा १५७७ वृ) o नवदीक्षित - तीन वर्ष के प्रव्रज्यापर्याय वाला। • बालक - जन्म की अपेक्षा चार वर्ष से परिपूर्ण पन्द्रह वर्ष की अवस्था अथवा सोलह वर्ष के पूर्व की अवस्था वाला । ० तरुण - सोलह से चालीस वर्ष पर्यन्त । ० मध्यम (प्रौढ़) इकचालीस से उनहत्तर वर्ष पर्यन्त । ० स्थविर - सत्तर और उससे अधिक वर्षों की वय वाला । * जघन्य - उत्कृष्ट वृद्ध २. विहरण योग्य वृद्ध और उसका वैयावृत्त्य जो गाउयं समत्थो, सूरादारब्भ भिक्खवेला उ । विहरउ एसो सपरक्कमो न विहरे उ तेण परं ।। वीसामण उवगरणे, भत्ते पाणेऽवलंबणे चेव । गाउय दिवढदोसुं, अणुकंपे सा तिसुं होति ॥ द्र दीक्षा Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविर ६२६ आगम विषय कोश-२ अधवा आहारुवधी, सेज्जा अणुकंप एस तिविधा उ। त्रिविध स्थविरों के प्रति यथोचित व्यवहार करेपढमालिदाणविस्सामणादि, उवधी य वोढव्वे॥ १. जातिस्थविर के प्रति अनुकम्पा-उनके आहार, उपधि, शय्या खेत्तेण अद्धगाउय, कालेण य जाव भिक्खवेला उ। और संस्तारक की समुचित व्यवस्था करना। यात्रापथ में उनकी खेत्तेण य कालेण य, जाणसु अपरक्कम थेरं॥ उपधि वहन करना, यथास्थान पानी पिलाना आदि। अण्णो जस्स न जायति, दोसो देहस्स जाव मज्झण्हो। २. श्रुतस्थविर की पूजा-उनका कृतिकर्म करना, उनके अभिप्राय सो विहरति सेसो पुण, अच्छति मा दोण्ह वि किलेसो॥ का अनुवर्तन करना, आने पर खड़ा होना, उन्हें आसन देना, भमो वा पित्तमुच्छा वा, उद्धसासो व खुब्भति। पादप्रमार्जन करना, तत्प्रायोग्य आहार लाकर देना, परोक्ष में भी (व्यभा २२६६-२२७१) उनकी प्रशंसा और गुणोत्कीर्तन करना, उनके सामने नीची शय्या जो स्थविर सूर्योदय से प्रारम्भ कर जब तक भिक्षावेला (आसन) पर बैठना और उनके निर्देश की अनुपालना करना। होती है, तब तक एक कोस चलने में समर्थ है, वह पराक्रमी है, ३. पर्यायस्थविर की वन्दना-गुरु न होने पर भी जो दीक्षापर्याय में वह विहार करे। इससे कम चलने वाला विहार न करे। ज्येष्ठ हैं, उनके आने पर खड़े होना, वन्दना करना, उनके हाथ से वृद्धअनुकम्पा-सहयोगी मुनि मार्ग में स्थविर को जब जहां विश्राम दण्ड ग्रहण करना आदि। की अपेक्षा हो, वहां विश्राम कराए, उसके उपकरणों को वहन करे, ३. नित्यवास का निषेध और अपवाद तत्प्रायोग्य आहार-पानी लाकर दे, अपेक्षा होने पर हस्तावलम्बन दे। यह त्रिविध-एक, डेढ़ और दो गव्यूत संबंधी अनुकंपा है। जे भिक्खू नितियं वासं वसति॥ (नि २/३६) अथवा वृद्ध अनुकंपा के तीन प्रकार ये हैं जो भिक्षु नित्यवास करता है, वह प्रायश्चित्तार्ह है। ० आहार-प्रथमालिका (प्रातराश) देना। (ऋतुबद्धकाल और वर्षाकाल की नियत अवधि के अतिरिक्त ० शय्या-स्थान पर पहुंचकर पगचंपी करना। एक क्षेत्र में रहना नित्यवास कहलाता है।) ० उपधि-मार्ग में उपधि वहन करना। असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व आगाढे। जो स्थविर सूर्योदय से भिक्षावेला पर्यंत आधा कोस ही गेलण्ण उत्तमढे, चरित्तसज्झाइए असती॥ चल पाता है, वह अपराक्रमी है, वह विहार न करे। एगक्खेत्तणिवासी, कालातिक्कंतचारिणो जति वि। प्रातः से मध्याह्न तक मार्ग में चलते हुए जिस स्थविर के तह वि य विसुद्धचरणा, विसुद्धमालंबणं जेणं॥ चक्कर, पित्तमूर्छा, श्वास-प्रकोप आदि अन्य दोष उत्पन्न न हों आणाए ऽमुक्कधुरा, गुणवुड्डी जेण णिज्जरा तेणं। तो वह विहार करे, अन्यथा न करे, जिससे स्वयं और सहयोगी मुक्कधुरस्स मुणिणो, ण सोधी संविज्जति चरित्ते॥ दोनों को क्लेश न हो। गुणपरिवुड्डिणिमित्तं, कालातीते ण होंति दोसा तु। ० स्थविरों का विनय-वैयावृत्त्य जत्थ तु बहिता हाणी, हविज्ज तहियं न विहरेज्जा। तिविधम्मि व थेरम्मी, परूवणा जा जधिं सए ठाणे। (निभा १०२१-१०२४) अनुकंप सुते पूया, परियाए वंदणादीणि निम्न कारणों से नित्यवास किया जा सकता हैआहारोवहि-सेज्जा य, संथारे खेत्तसंकमे। . प्रवासस्थान के बाहरी क्षेत्र में महामारी, दुर्भिक्ष, राजा, दुष्ट चोर कितिछंदाणुवत्तीहिं, अणुवत्तंति थेरगं॥ आदि का अति भय हो। रोग आदि हो। अनशनधारी और उसके उट्ठाणासणदाणादि, जोग्गाहारपसंसणं। परिचारक हों। बाहर चारित्र में दोषों की संभावना हो। स्वाध्याय नीयसेज्जाय निद्देसवत्तितं पूजए सुत्तं ॥ की अनुकूलता न हो। मासकल्प प्रायोग्य क्षेत्र न हो। इन कारणों से उट्ठाणं वंदणं चेव, गहणं दंडगस्स य। भिक्षु एक क्षेत्र में अतिरिक्त अवधि तक रहता हुआ यद्यपि परियायथेरगस्सा, करेंति अगुरोरवि॥ कालातिक्रांतचारी होता है, फिर भी ज्ञान आदि विशुद्ध आलम्बनों (व्यभा ४५९८-४६०१) के कारण उसका चारित्र विशद्ध होता है। Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६२७ स्थविर सकारण एक स्थान पर रहता हुआ मुनि तीर्थंकर की आज्ञा है। कोई नौ वर्ष की अवस्था में ही श्रमण बन गया और श्रामण्यग्रहण का पालन और संयम की धुरा का वहन करता है। मुक्तधुरा वाले के तत्काल बाद प्रतिकूल कर्मोदय वश जंघाबल की क्षीणता या संयमी के चारित्र की शोधि नहीं होती। संयमधुरावाही के नियमतः । रोग के कारण विहरण करने में असमर्थ हो गया, उसका एक स्थान ज्ञान आदि गुणों की वृद्धि होती है, उस कारण से उसके विपुल पर रहने का काल पूर्वकोटि हो सकता है। यह उत्कृष्ट कालपरिमाण निर्जरा होती है। गणवृद्धि के निमित्त नित्यवास करने वाले के अर्हत् ऋषभ के तीर्थ की अपेक्षा से है। जिस तीर्थंकर के शासनकाल कालातिक्रांत दोष नहीं लगता। जहां गुणों की हानि हो, वहां में जितनी उत्कृष्ट आयु होती है, नौ वर्ष प्रमाण गृहिपर्याय को विहार नहीं करना चाहिए। छोड़कर उतना उत्कृष्ट वृद्धवास काल हो सकता है। • वृद्धावास नित्यवास नहीं ५. वृद्धवास के हेतु चाउम्मासातीतं, वासाणुदुबद्ध मासतीतं वा। सुत्तागम बारसमा, चरियं देसाण दरिसणं तु कतं। वुड्डावासातीतं, वसमाणे कालतोऽणितिते॥ उवकरण-देह-इंदिय, तिविधं पुण लाघवं होति॥ वुड्डकार्यपरिसमाप्तौ उपरिष्टाद् वसन् नितिओ भवति। चउत्थछट्ठादि तवो कतो उ, अव्वोच्छित्ताय होति सिद्धिपहो। (निभा १०१६ चू) सुत्तविहीए संजम, वुड्डो अह दीहमाउं च॥ वर्षाकाल के चार मास और ऋतुबद्धकाल का एक मास अब्भुज्जतमचएंतो, अगीतसिस्सो व गच्छपडिबद्धो। अच्छति जुण्णमहल्लो, कारणतो वा अजुण्णो वी॥ बीत जाने पर जो मुनि उसी क्षेत्र में रहता है, वह कालनित्य के जंघाबले च खीणे, गेलण्णऽसहायता व दुब्बल्ले। दोष से दूषित होता है। जो वृद्ध के निमित्त एक स्थान पर बहुत अहवावि उत्तमढे, निप्फत्ती चेव तरुणाणं॥ समय तक रहता है, वह नित्यवासी नहीं है । वृद्ध का कार्य सम्पन्न खेत्ताणं च अलंभे, कतसंलेहे च तरुणपडिकम्मे। होने के पश्चात् जो वहीं रहता है, वह नित्यवासी है। एतेहिं कारणेहिं, वुड्डावासं वियाणाहि॥ ४. वृद्धवास का अर्थ, कालावधि (व्यभा २२५९-२२६३) वुड्डस्स उ जो वासो, वुढेि व गतो तु कारणेणं तु। जो बारह वर्ष सूत्रग्रहण, बारह वर्ष अर्थग्रहण तथा बारह एसो उ वुड्डवासो, तस्स उ कालो इमो होति॥ वर्ष देशाटन कर चुका है, जो उपकरण, शरीर और इन्द्रिय-इस अंतोमुहुत्तकालं, जहन्नमुक्कोसपुव्वकोडीओ। त्रिविध लाघव से सम्पन्न है, जिसने उपवास, बेला आदि नाना मोत्तुं गिहिपरियागं, जं जस्स उ आउगं तित्थे॥ प्रकार का तप किया है तथा जिसने देशदर्शन के पश्चात् बारह वर्ष वृद्धवासबुद्ध्या स्थितस्यान्तर्मुहूर्तानन्तरं मरण शिष्य परम्परा की अविच्छिन्नता के लिए मोक्षमार्ग का उपदेश भावाद् गृहिपर्याय नववर्षलक्षणं मुक्त्वा नववर्षोना पूर्व दिया है और आगमविधि से संयम का पालन किया है, इतना सब कोटीकोऽपि नववर्षप्रमाण एव श्रमणो जातः। स च कुछ करने के पश्चात् जो वृद्ध हो गया है, दीर्घायु है, अभ्युद्यतविहार श्रामण्यपरिग्रहात् तदनन्तरमेव प्रतिकूलकर्मोदयवशतः क्षीण कूलकमादयवशतः क्षाण- में असमर्थ है, जिसके शिष्य अभी अगीतार्थ हैं, जो गणप्रतिबद्ध जंघाबलतया रोगेण वा विहर्तुमसमर्थो जातस्तत एकत्र और महान् जराजीर्ण है, वह वृद्धवास में रहता है। वासो यथोक्तकालमानो भवति। (व्यभा २२५६, २२५७ वृ) तरुण भी जंघाबल की क्षीणता, रुग्णता, असहायता, दुर्बलता क्षीण जंघाबल वाले वृद्ध श्रमण-श्रमणी का प्रवास वृद्धवास आदि कारणों से वृद्धवास में रहता है। है। अथवा रोग आदि कारणों से वृद्धिंगत वास वृद्धवास है। जो अनशन या संलेखनाप्रतिपन्न है अथवा जो तरुणों को वृद्धवास की जघन्य कालावधि अंतर्मुहूर्त है, क्योंकि वृद्धवास की सूत्रार्थ में निष्पन्न करता है या विहरण क्षेत्रों का अभाव है या जो भावना से स्थित मुनि का अंतर्मुहूर्त पश्चात् मरण हो सकता है। तरुण रोगमुक्त होने पर भी बलवृद्धि करना चाहता है-इन सब इसकी उत्कृष्ट कालावधि गृहिपर्याय के नौ वर्ष कम पूर्वकोटि कारणों से वृद्धवास अपेक्षित और उपयोगी है। Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरकल्प स्थविरकल्प - संघबद्ध साधना करने वाले श्रमण- श्रमणी - वर्ग की आचार - मर्यादा । १. स्थविरकल्पी का स्वरूप २. स्थविरकल्पी गच्छवासी : आचार्य आदि * गच्छ के आधार : आचार्य आदि • श्रमणीवर्ग: प्रवर्तिनी, अभिषेका..... • गणधर : श्रमणीवर्गव्यवस्थापक ३. वृषभ : मंडलीनियोजक, कार्यचिन्तक * श्रमणी -रक्षक वृषभ की अर्हता * वृषभ- चिकित्सा की कालावधि * स्थविरकल्प : कल्पस्थिति का भेद * स्थविरकल्पी : स्थितकल्पी * सदृशकल्पी सांभाजिक ४. स्थविरकल्पी की प्रव्रज्या आदि • प्रव्रज्या के बाद शिक्षा * साधु द्विसंगृहीत, साध्वी त्रिसंगृहीत O * दशविध सामाचारी ५. सामाचारी के सत्ताईस बिंदु: श्रुत आदि ० स्थविरकल्पी की श्रुत- अर्हता संहनन, आतंक, उपसर्ग, वेदना o वसति, कतिजन ? स्थण्डिल, कब तक ? ० उच्चार, प्रश्रवण, अवकाश कितने ? o भिक्षाचर्या, लेपालेप, अलेप, आचाम्ल, प्रतिमा ६. जिनकल्प - स्थविरकल्प : आहार-विहार- काल • प्रातराश और सूत्रपौरुषी * भिक्षाचर्या से पूर्व कायोत्सर्ग ७. भिक्षा के लिए संघाटक-असंघाटक क्यों ? * रात्रि में अशन आदि का अग्रहण ८. दूर भिक्षा के लाभ • भिक्षाचर्या और स्वाध्याय में उद्यम ९. साध्वियों की आहारविधि : गणप्रभावना * श्रमण की आहारविधि १०. प्राघूर्णक का प्रवेशकाल और आतिथ्य ११. साधु की साध्वी - वसति में प्रवेशविधि ० सहभिक्षाविधि १२. साधु साध्वी के स्थान पर क्यों ? द्र संघ द्र विहार द्रवैयावृत्त्य द्र कल्पस्थिति द्र कल्पस्थिति द्र साम्भोजिक द्र आचार्य द्र सामाचारी द्र स्वाध्याय द्र महाव्रत द्र आहार ६२८ १३. वर्षा आदि में जाना निषिद्ध • ज्ञातिजनों में गमन का हेतु और विधि १४. रात्रि में एकाकी गमन का निषेध १५. शयनविधि, रत्नाधिक की प्राथमिकता १६. पृथक् वसति : आलोचना आदि की विधि १७. उपधि- प्रतिलेखन का काल १८. स्थविर - अवस्थिति : क्षेत्र आदि उन्नीस द्वार ० क्षेत्र, काल, चारित्र वेद ० लिंग, लेश्या, ध्यान, गणना * अभिग्रह के प्रकार ० प्रव्राजना- मुंडापना ० प्रायश्चित्त, कारण, परिकर्म आगम विषय कोश-: १९. सापेक्ष-निरपेक्ष के प्रायश्चित्त में अंतर २०. जिन स्थविर - कल्प: कृतयोगिता, धृति - संहनन २१. सापेक्ष-निरपेक्ष : वैयावृत्त्य और चिकित्सा * साधु-साध्वी चिकित्सा : विद्याप्रयोगविधि द्र मंत्रविद्या * साध्वी वैयावृत्त्य : साधु की अर्हता द्र वैयावृत्त्य द्र क्षेत्रप्रतिलेखना * गच्छवासी द्वारा क्षेत्रप्रतिलेखना * अवग्रह के प्रकार तथा उसके अधिकारी * पर्युषणाकल्प * मासकल्प * नौकाविहार-विधि द्र भिक्षाचर्या द्र अवग्रह पर्युषणाकल्प द्र कल्पस्थिति द्र नौका १. स्थविरकल्पी का स्वरूप संजमकरणुज्जोवा, णिप्फातग णाण- दंसण- चरित्ते । दीहाउ वुड्ढवासो, वसहीदोसेहि य विमुक्का ॥ मोत्तुं जिणकप्पठिइं, जा मेरा एस वण्णिया हेट्ठा । एसा तु दुपदजुत्ता, होति ठिती थेरकप्पस्स ॥ संयमः सप्तदशविधः, तं कुर्वन्ति - यथावत् पालयन्तीति संयमकरणाः उद्योतकाः - तपसा प्रवचनस्योज्ज्वालकाः यद्वा सूत्रार्थपौरुषीकरणेन संयमकरणमुद्योतयन्ति ।" या शेषा सामाचारी वर्णिता सा 'द्विपदयुक्ता' उत्सर्गाउपवादपदद्वययुक्ता । (बृभा ६४८५, ६४८६ वृ) जो संयमी पृथ्वीकायसंयम आदि सतरह प्रकार के संयम का यथावत् पालन करते हैं, तपस्या के द्वारा प्रवचन की प्रभावनाअर्हत् वाणी को संज्वलित करते हैं, सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ द्वारा संयम को उद्योतित करते हैं, शिष्यों को ज्ञान, दर्शन और चारित्र में निष्पन्न करते हैं, इस निष्पादकता के द्वारा ज्ञान आदि की परम्परा को अविच्छिन्न रखते हैं, इस प्रकार के स्थविरकल्पिक होते हैं। जब उनका जंघाबल क्षीण हो जाता है और आयु दीर्घ होती है तो वे वृद्धावास में रहते हैं। वे एक क्षेत्र में रहते हुए भी कलातिक्रांत शय्या, औद्देशिक आहार आदि दोषों से मुक्त रहते हैं। कल्प आदि सूत्रों में जिनकल्पिक आदि गच्छनिर्गत मुनियों की जो सामाचारी वर्णित है, उसे छोड़कर शेष सामाचारी उत्सर्ग और अपवाद-इन दोनों पदों से युक्त है - गच्छगत मुनि उत्सर्ग विधि और अपवाद विधि-दोनों का प्रयोग करते हैं, यह स्थविरकल्पी की स्थिति - सामाचारी है। २. स्थविरकल्पी गच्छवासी : आचार्य आदि ..... आयरिय उवज्झाया, भिक्खू थेरा य खुड्डा य ॥ स्थविरा: गच्छवासिनः ' ''गच्छ्वासिनस्तावत् पञ्चविधाः । (बृभा १४४७ वृ) स्थविरकल्पी गच्छवासी होते हैं। उनके पांच प्रकार हैं१. आचार्य २. उपाध्याय ३. भिक्षु ४. स्थविर ५. क्षुल्लक । आयरिय वसभ भिक्खू थेरो खुड्डो य । (निभा २६२४ की चू) गच्छ में पांच प्रकार के श्रमण हैं- आचार्य, वृषभ (उपाध्याय / अभिषेक), भिक्षु, स्थविर और क्षुल्लक | ० श्रमणीवर्ग : प्रवर्तिनी, अभिषेका..... पवत्तिणि अभिसेगपत्ता, थेरी तह भिक्खुणी य खुड्डी य 'प्रवर्त्तिनी' सकलसाध्वीनां नायिका 'अभिषेकप्राप्ता' प्रवर्त्तिनीपदयोग्या | (बृभा ४३३९ वृ) पंच संजतीओ इमा - खुड्डी, थेरी, भिक्खुणी, अभिसेगी, पवत्तिणी । (निभा ५३३२ की चू) निर्ग्रन्थीवर्गेऽपि पञ्च पदानि तद्यथा- प्रवर्तिनी, अभिषेका, भिक्षुणी, स्थविरा, क्षुल्लिका च । तत्र गणिनी प्रवर्तिनी । (बृभा ६१११ की वृ) गच्छ में साध्वियों के पांच पद हैंप्रवर्तिनी - श्रमणीवर्ग का नेतृत्व करने वाली । ० ६२९ अभिषेका- प्रवर्तिनीपद के योग्य । ० स्थविरा - वृद्धा | भिक्षुणी-तरुणी या प्रौढा साध्वी । क्षुल्लिका - बाल या शैक्ष साध्वी । ० ० o स्थविरकल्प ० गणधर : श्रमणीवर्ग-व्यवस्थापक पियधम्मे दढधम्मे, संविग्गेऽवज्ज ओय-तेयस्सी । संगहुवग्गहकुसले, सुत्तत्थविऊ गणाहिवई ॥ ....धर्मः - श्रुत - चारित्ररूपो यस्य दृढो द्रव्यक्षेत्राद्यापदुदयेऽपि निश्चलः संविग्नो संसारभयोद्विग्नः'' अवद्यभीरुः । .....संग्रहः - द्रव्यतो वस्त्रादिभिर्भावतः सूत्रार्थाभ्याम्, उपग्रहः - द्रव्यत औषधा-दिभिर्भावतो ज्ञानादिभिः कुशलः 'सूत्रार्थविद' गीतार्थः । एवंविधः 'गणाधिपतिः' आर्यिकाणां गणधरः स्थापनीयः । (बृभा २०५० वृ) • गणधर की अर्हता - श्रुतधर्म और चारित्रधर्म उसे अभीष्ट होते हैं । द्रव्य, क्षेत्र आदि संबंधी आपदाओं के उदयकाल में भी वह धर्म में सदृढ़ तथा जन्ममरण के भय से उद्विग्न और पापभीरु है। वह ओजस्वी (प्रमाणोपेत शरीर वाला), तेजस्वी - दीप्तिमान तथा संग्रह-उपग्रह में कुशल होता है- वस्त्र आदि उपकरणों, औषध आदि द्रव्यों तथा सूत्र - अर्थ - श्रुतज्ञान प्रदान द्वारा साध्वियों का सहयोग करने में दक्ष होता है । वह स्वयं सूत्र और अर्थ का वेत्ता - गीतार्थ होता है - इस प्रकार के मुनि को साध्वियों का गणधर स्थापित करना चाहिए। खित्तस्स उ पडिलेहा, कायव्वा होइ आणुपुव्वीए । किं वच्चई गणहरो, जो चरई सो तणं वहइ ॥ निप्पच्चवाय संबंधि भाविए गणहरऽप्पबिइ-तइओ । नेइ भए पुण सत्थेण सद्धि कयकरणसहितो वा ॥ ....एवं यो निर्ग्रन्थीगणस्याधिपत्यमनुभवति, स एव सर्वमपि तच्चिन्ताभारमुद्वहति । ( बृभा २०५२, २०७० वृ) ० गणधर का दायित्व - वह साध्वियों के प्रवासयोग्य क्षेत्र की सूत्रोक्त परिपाटी से प्रतिलेखना करता है। क्षेत्रप्रतिलेखना के लिए गणधर स्वयं क्यों जाता है ? गुरु कहते हैं- जो बैल आदि चारि चरता है, वही तृणभार को वहन करता है। इसी प्रकार जो साधु श्रमणीवर्ग के आधिपत्य का अनुभव करता है, वही उसके सभी प्रकार के चिन्ताभार को वहन करता है। Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरकल्प विहार के समय यात्रापथ में गणधर साध्वी वर्ग के आगे चलता है। यदि मार्ग निरुपद्रव हो तो गणधर के साथ एक या दो साधु रहते हैं । वे साधु साध्वी के संबंधी अथवा जिनवचनों से भावित होने चाहिये । यदि मार्ग उपद्रवयुक्त होता है, तो गणधर किसी सार्थ के साथ अथवा शक्तिसम्पन्न साधु के साथ साध्वियों को विवक्षित क्षेत्र में पहुंचाता है। T * गणधरनिश्रा में साध्वी प्रायोग्य वस्त्रग्रहण ३. वृषभ : मंडलीनियोजक, कार्यचिन्तक .....भोयणसुत्ते मंडलिय पढते वा मुनिवृषभा नियोजयन्ति । नियोयंति ॥ (व्यभा २७८ वृ) वृषभ मुनियों को भोजनमंडली, सूत्रमंडली और अर्थमंडली में नियोजित करते हैं। 1 द्र उपधि समस्तगच्छभारोद्वहनसमर्थस्य वृषभस्य' । (व्यभा २०३० की वृ) वृषभ समस्त गच्छ का भारवहन करने में समर्थ होता है। (द्र परिषद्) 'वृषभाः ' गच्छस्य शुभाशुभकार्यचिन्तानियुक्ताः । (बृभा २०८५ की वृ) गच्छ के लिए कौन सा कार्य शुभ है और कौन सा अशुभइस विमर्श के लिए वृषभ नियुक्त होते हैं । ४. स्थविरकल्पी की प्रव्रज्या आदि पव्वज्जा सिक्खापय, अत्थग्गहणं च अनियओ वासो । निष्पत्ती य विहारो, सामायारी ठिई चेव ॥ (बृभा १४४६ ) स्थविरकल्पी की विहारचर्या के आठ पद हैं - १. प्रव्रज्या २. शिक्षापद ३. अर्थग्रहण ४. अनियतवास ५. निष्पत्ति ६. विहार ७. सामाचारी और ८. स्थिति । (द्र जिनकल्प) • प्रव्रज्या के पश्चात् शिक्षा प्रव्रजितस्य च सतोऽस्य शिक्षा दातव्या । सा च द्विधा - ......ग्रहणशिक्षा सूत्राध्ययनरूपा, आसेवनशिक्षा प्रत्युपेक्षणादिका । (बृभा ११४३ की वृ) प्रव्रजित होने के पश्चात् शिष्य को शिक्षा दी जाती है । आगम विषय कोश-: उसके दो रूप हैं - १. ग्रहण शिक्षा – सूत्रार्थ - अध्ययन | २. आसेवन शिक्षा - प्रत्युपेक्षणा आदि सामाचारी का प्रशिक्षण | ५. सामाचारी के सत्ताईस बिंदु: श्रुत आदि सुय संघयणुवसग्गे, आतंके वेयणा कति जणा य । थंडिल्ल वसहि किच्चिर, उच्चारे चेव पासवणे ॥ ओवासे तणफलए, सारक्खणया य संठवणया य । पाहुड अग्गी दीवे, ओहाण वसे कइ जणा य ॥ भिक्खायरिया पाणग, लेवालेवे तहा अलेवे य । आयंबिल पडिमाओ, गच्छम्मि उ मासकप्पो उ ॥ (बृभा १६२४-१६२६) स्थविरकल्पी की सामाचारी के सत्ताईस द्वार हैं - १. श्रुत २. संहनन ३. उपसर्ग ४. आतंक ५. वेदना ६. कतिजन ७. स्थण्डिल ८. वसति ९ कियच्चिर १०. उच्चार ११. प्रस्रवण १२. अवकाश १३. तृणफलक १४. संरक्षणता १५. संस्थापनता १६. प्राभृतिका १७. अग्नि १८. दीप १९. अवधान २०. यहां कितने रहेंगे ? २१. भिक्षाचर्या २२. पानक २३. लेपालेप २४. अलेप २५. आचाम्ल २६. प्रतिमा २७ मासकल्प । ० स्थविरकल्पी की श्रुत - अर्हता .......पवयणमाय जहन्ने, सव्वसुयं चेव उक्कोसे ॥ (बृभा १६२७) स्थविरकल्पी जघन्यतः आठ प्रवचनमाता और उत्कृष्टतः सर्वश्रुत (चौदह पूर्वों) का ज्ञाता होता है । (पुलाक निर्ग्रथ का जघन्यतः श्रुतज्ञान नौवें पूर्व की तृतीय आचारवस्तु है। उत्कृष्टतः वह नौपूर्वी हो सकता है। बकुश, प्रतिसेवनाकुशील, कषायकुशील और निर्ग्रथ-ये चतुर्विध निर्ग्रथ जघन्यतः आठ प्रवचनमाता के ज्ञाता होते हैं । बकुश और प्रतिसेवनाकुशील उत्कृष्टतः दस पूर्वी तथा कषायकुशील और निर्ग्रथ चौदह पूर्वी हो सकते हैं। स्नातक निर्ग्रथ श्रुतव्यतिरिक्त होते हैं। - भ २५ / ३१५- ३१८ ) ६३० ० संहनन, आतंक, उपसर्ग, वेदना सव्वेसु वि संघ होंति धिइदुब्बला व बलिया वा । आतंका उवसग्गा, भइया विसहंति व न वत्ति ।। Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६३१ स्थविरकल्प दुविहं पि वेयणं ते, निक्कारणओ सहति भइया वा।" यदि तिष्ठतामुच्चार-प्रश्रवणयोः परिष्ठापनमकाले (बृभा १६२८, १६२९) फलिहकाभ्यन्तरतो वा नानुजानन्ति ततस्तत्र न तिष्ठन्ति। ० संहनन-स्थविरकल्पी में छहों संहनन हो सकते हैं। वे धृति से अथाशिवादिभिः कारणैस्तिष्ठन्ति तत उच्चारं प्रश्रवणं वा दुर्बल और धृतिसंपन्न भी होते हैं। मात्रकेषु व्युत्सृज्य बहिः परिष्ठापयन्ति... अवकाशे यत्र ० आतंक-उपसर्ग-इनके होने पर इन्हें सहन करने में भजना है। प्रदेशे उपवेशन-भाजनधावनादि नानुज्ञातं तत्र नोपविशन्ति, पुष्ट आलम्बन होने पर वे चिकित्सा भी करा सकते हैं। अन्यथा कमढकादिषु च भाजनानि धावन्ति। तृण-फलकान्यपि यानि उसे सहन भी करते हैं। नानुज्ञातानि तानि न परिभुञ्जते। ० वेदना-किसी प्रकार का कारण नहीं होने पर वे आभ्युपगमिकी संरक्षणता नाम यत्र तिष्ठतामगारिणो भणन्ति "गृहं और औपक्रमिकी-दोनों प्रकार की वेदना सहन करते हैं। असहिष्णुता, संरक्षत""। संस्थापनता नाम वसतेः संस्कारकरणं..... तीर्थव्यवच्छेद आदि कारण होने पर सहन नहीं भी करते हैं। सप्राभृतिकायामपि वसतौ कारणतः स्थिता देशतः सर्वतो वा ० वसति, कतिजन ? स्थण्डिल, कब तक? क्रियमाणायां प्राभृतिकायां स्वकीयमुपकरणं प्रयत्नेन ...."अममत्त अपरिकम्मा, वसही वि पमज्जणं मोत्तुं॥ संरक्षन्ति, यावत् प्राभृतिका क्रियते तावदेकस्मिन् पार्वे तिगमाईया गच्छा, सहस्स बत्तीसई उसभसेणे। तिष्ठन्ति। सदीपायां साग्निकायां वा वसतौ कारणे स्थिता थंडिल्लं पि य पढम, वयंति सेसे वि आगाढे॥ आवश्यकं बहिः कुर्वन्ति। अवधानं नाम यदि गृहस्था:... किच्चिर कालं वसिहिह, न ठंति निक्कारणम्मि इइ पुट्ठा। भणन्ति-अस्माकमपि गृहेषूपयोगो दातव्यः ।“कतिजना अन्नं वा मग्गंती, ठविंति साहारणमलंभे॥ ""पृष्टे सति कारण-तस्तिष्ठद्भिः परिमाणनियमः कृतः". (बृभा १६२९-१६३१) प्राघूर्णकाः समागच्छन्ति "भूयोप्यनुज्ञापनीयः।(बृभा १६३२ वृ) ० वसति-स्थविरकल्पी साधुओं की वसति 'यह मेरी है'-इस वसति, कब तक? आदि उल्लिखित द्वारों की भांति उच्चार ममत्व से रहित तथा उपलेपन आदि परिकर्म से मुक्त होती है। वे यावत् कितने रहेंगे?-ये (१० से लेकर २० तक के )द्वार भी उसका परिमार्जन रूप परिकर्म कर सकते हैं। ज्ञातव्य हैं। स्थंडिल आदि की जहां गृहस्थ द्वारा विधिपूर्वक अनुज्ञा ० कतिजन-एक गच्छ (साधुसमुदाय)में जघन्य तीन, चार आदि न मिले, तो निष्कारण वैसे स्थानों में न रहे, कारण होने पर और उत्कृष्ट बत्तीस हजार साधु हो सकते हैं। अर्हत् ऋषभ के यतनापूर्वक वहां रहा जा सकता है। प्रथम गणधर ऋषभसेन के गच्छ में बत्तीस हजार साधु थे। ० उच्चार, प्रश्रवण-जहां इनके परिष्ठापन की अथवा अकाल में ० स्थण्डिल-वे प्रथम (अनापात-असंलोक) स्थण्डिल में जाते फलिहक में परठने की अनुमति नहीं मिलती, वहां नहीं रहते। हैं। कारण होने पर अन्य स्थण्डिल में भी जा सकते हैं। यदि कारणवश वहां रहते हैं तो उच्चार-प्रश्रवण का मात्रक में ० कब तक?-आप कब तक यहां रहेंगे? गृहस्थ के ऐसा पूछने व्युत्सर्ग कर बाहर परिष्ठापित करते हैं। पर निष्कारण उस वसति में नहीं रहते, क्षेत्रान्तर में चले जाते हैं। ० अवकाश-जहां बैठने, पात्र धोने आदि की अनुज्ञा प्राप्त नहीं है, कारणवश वहीं रहना पड़े तो अन्य वसति की मार्गणा करते हैं। न । वहां नहीं बैठते और कमढक आदि में पात्र धोते हैं। मिले तो सामान्य रूप से कुछ कहकर वहीं रह जाते हैं। (यथा ० तृणफलक-अननुज्ञात तृणफलकों का उपयोग नहीं करते। कोई कारण नहीं होगा तो एक मास पर्यंत रहेंगे अन्यथा न्यूनाधिक ० संरक्षण-संस्थापन-गृहस्थ वसति के संरक्षण और संस्कारकरण भी रह सकते हैं।) में नियुक्त करे, तो वे वहां नहीं रहते। ० उच्चार, प्रश्रवण, अवकाश"कितने? ० प्राभृतिका-घर में पुनर्निर्माण का कार्य चल रहा हो, वहां नहीं एमेव सेसएसु वि, केवइया वसिहिह त्ति जा नेयं। रहते। प्रयोजनवश रहना पड़े तो एक पार्श्व में रहते हैं। निक्कारण पडिसेहो, कारण जयणं तु कुव्वंति॥ ० दीप, अग्नि-ज्योति वाले स्थान में नहीं रहते। कारणवश रहते Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरकल्प ६३२ आगम विषय कोश-२ हैं तो आवश्यक (प्रतिक्रमण आदि) बाहर करते हैं। और असंलोक स्थान में आहार करते हैं। आवश्यक कार्य से निवृत्त ० अवधान-गृहस्थ बाहर जाते समय कहे कि मेरे घर का ध्यान होकर तीसरे प्रहर में ही उपाश्रय में लौट आते हैं। क्षेत्रसंक्रमण-- रखना, उस घर में नहीं रहते। विहार भी तीसरी प्रहर में करते हैं। निष्कारण अवस्था में स्थविरकितने रहेंगे?-गृहस्थ द्वारा यह पूछे जाने पर किसी प्रयोजनवश कल्पिक की भी यही विधि है। वहां रहना पड़े तो साधुओं की संख्या का परिमाण बता देना ___० प्रातराश और सूत्रपौरुषी चाहिये। यदि प्राघूर्णक आ जाएं तो पुनः अनुज्ञा लेनी चाहिए। यः क्षपको"पर्युषितेन प्रथमालिकां कर्तुकामः स ० भिक्षाचर्या, लेपालेप, अलेप, आचाम्ल, प्रतिमा सूत्रपौरुषीं कृत्वा "अथ तावती वेलां न प्रतिपालयितुं क्षमः नियताऽनियता भिक्खायरिया पाणऽन्न लेवऽलेवाडं। ततोऽर्द्धपौरुष्यां निर्गच्छति। (बृभाव पृ५००) अंबिलमणंबिलं वा, पडिमा सव्वा वि अविरुद्धा॥ तपस्वी, बाल या वृद्ध बासी अन्न का प्रातराश करना ...."गच्छे पण सव्वाहिं, सावेक्खो जेण गच्छो उ॥ चाहते हैं तो सूत्रपौरुषी करके भिक्षा के लिए निर्गमन करते हैं। यदि वे इतने समय की भी प्रतीक्षा नहीं कर सकते. तब अर्धसत्रपौरुषी ० भिक्षाचर्या-स्थविरकल्पिक मनि की भिक्षाचर्या नियत करके भिक्षाटन करते हैं। (असंसृष्टा, संसृष्टा आदि अभिग्रह संयुक्त) और अनियत दोनों ७. भिक्षा के लिए संघाटक-असंघाटक क्यों? प्रकार की होती है। (भिक्षाचर्या विधि द्र पिण्डैषणा) एगाणियस्स दोसा, साणे इत्थी तहेव पडिणीए। गच्छवासी संसष्टा आदि सातों एषणाओं से आहार ग्रहण भिक्खविसोहि महव्वय, तम्हा सबिइज्जए गमणं॥ कर सकते हैं। क्योंकि गच्छ बाल, वृद्ध, शैक्ष आदि से युक्त होने गारविए काहीए, माइल्ले अलस लुद्ध निद्धम्मे। के कारण सापेक्ष होता है।। दुल्लह अत्ताहिट्ठिय, अमणुन्ने या असंघाडो॥ ० लेप-अलेप-उनका अन्न-पान लेपकृत और अलेपकृत दोनों (बृभा १७०२, १७०३) प्रकार का होता है। भिक्षा के लिए मुनि अकेला जाता है, वहां अनेक दोषों की ० आचाम्ल-वे आचाम्ल और अनाचाम्ल दोनों करते हैं। संभावना रहती है-श्वान पीछे से आकर अकेले मुनि को काट ० प्रतिमा-वे इच्छानुसार प्रतिमाएं स्वीकार कर सकते हैं। सकता है। स्त्री उसके साथ व्यभिचार कर सकती है। प्रत्यनीक ६. जिनकल्प-स्थविरकल्प : आहार-विहार-काल उसे कष्ट दे सकता है। एषणा की शोधि नहीं कर पाता। महाव्रतों निरवेक्खो तइयाए, गच्छे निक्कारणम्मि तह चे की विराधना कर सकता है। इन संभावित दोषों से बचने के लिए बहु वक्खेवदसविहे, साविक्खे निग्गमो भइओ॥ संघाटक (मनिद्वय) को भिक्षा के लिए जाना चाहिए। गहिए भिक्खे भोत्तुं, सोहिय आवास आलयमुवेइ। एकाकी भिक्षाटन के नौ कारण हैंजहिं निग्गओ तहिं चिय, एमेव य खेत्तसंकमणे॥ १. गौरविक-मैं लब्धिसम्पन्न हूं-ऐसा जिसे गर्व है, वह अकेला (बृभा १६७०, १६७१) जाना चाहता है। जिनकल्पी आदि निरपेक्ष मनि तीसरी प्रहर में उपाश्रय के २. काथिक-जो गृहस्थ के घर कथा करता है, वह अकेला जाना बाहर निकलते हैं। स्थविरकल्पी भी कारण नहीं होने पर तीसरी चाहता है। प्रहर में ही निकलते हैं। किन्तु गच्छ में आचार्य, उपाध्याय आदि ३. मायावी-जो सरस आहार स्वयं खाकर शेष आहार लेकर दशविध वैयावृत्त्य संबंधी कारण होने पर प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ आता है, वह एकाकी जाना चाहता है। प्रहर में भी निष्क्रमण कर सकते हैं। ४. आलसी-जो लम्बे समय तक घम नहीं सकता। जिनकल्पिक आदि तीसरी प्रहर में भिक्षा प्राप्त कर अनापात ५. लुब्धक-जो दुग्ध, दधि आदि मांगकर लेता है। व Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश- २ ६. निर्धर्मी - जो अनेषणीय पदार्थ ग्रहण करना चाहता है। ७. दुर्लभ भैक्ष- जब भिक्षा दुर्लभ होती है। - इस ८. आत्मार्थिक - मैं अपनी लब्धि से प्राप्त आहार ही लूंगासंकल्प वाला अकेला जाता है। ९. अमनोज्ञ - जो कलहकारी होने के कारण सबके लिए अप्रिय हो, वह अकेला जाता है। ८. दूर भिक्षाटन के लाभ एवं उग्गमदोसा, विजढा पइरिक्कया अणोमाणं । मोहतिगिच्छा य कता, विरियायारो य अणुचिण्णो ॥ (बृभा ५३०१ ) सुदूर भिक्षाटन के पांच लाभ हैं - १. उद्गम आदि दोषों का परिहार । २. प्रचुर भक्त - पान का लाभ । ३. स्वपक्ष वालों के मन में असत्कार का अभाव । ४. (परिश्रम, आतप, वैयावृत्त्य आदि द्वारा सहजतया ) मोह - चिकित्सा । ५. वीर्याचार की परिपालना । o भिक्षाचर्या और स्वाध्याय में उद्यम चरणकरणस्स सारो, भिक्खायरिया तथेव सज्झाओ । एत्थ परितम्ममाणं तं जाणसु मंदसंविग्गं ॥ ..... एत्थ उ उज्जममाणं तं जाणसु तिव्वसंविग्गं ॥ (व्यभा २४८४, २४८५) चरण (व्रत, श्रमणधर्म आदि) और करण (पिण्ड - विशोधि, समिति आदि) का सार है- भिक्षाचर्या तथा स्वाध्याय । जो इन दोनों में कष्टानुभूति करता है, उसे मंद संविग्न जानो । जो इनमें उद्यम करता है, उसे तीव्र मुमुक्षु जानो । ९. साध्वियों की आहार-विधि : गणप्रभावना मंडलिठाणस्सऽसती, 1 पत्तेय कमढभुंजण, मंडलिथेरी उ परिवेसे ॥ ओगाहिमाइविगई, समभाग करेइ जत्तिया समणी । तासिं पच्चयहेउं, अहिक्खट्टा अकलहो अ॥ निव्वीइय एवइया, व विगइओ लंबणा व एवइया । अण्णगिलायंबिलिया, अज्ज अहं देह अन्नासिं ॥ दण निहुयवासं, सोयपयत्तं अलुद्धयत्तं च । इंदियदमं च तासिं, विणयं च जणो इमं भणइ ॥ स्थविरकल्प सच्चं तवो य सीलं, अणहिक्खाओ अ एगमेगस्स । जइ बंभं जड़ सोयं, एयासु परं न अन्नासु ॥ बाहिरमलपरिछुद्धा, सीलसुगंधा तवोगुणविसुद्धा । धन्नाण कुलुप्पन्ना, एआ अवि होज्ज अम्हं पि ॥ यद्यसागारिकं ततो मण्डल्यां समुद्दिशन्ति । अथ मण्डलीभूमिः सागारिकबहुला तत्रौर्णिकं कल्पमधः प्रस्तीर्य तस्योपरि सौत्रिकं तत्राप्यलाबुपात्रकाणि स्थापयित्वा । प्रवर्त्तिनी च पूर्वाभिमुखा धुरि निविशते । तत एका मण्डलीस्थविरा सर्वासामपि परिवेषयेत्, आत्मनोऽपि योग्यमात्मीये कमढके प्रक्षिपेत् । ताश्च समुद्देष्टुमुपविशन्त्य इत्थं ब्रुव..... अद्य ममैतावन्तः 'लम्बना: ' कवला :..... 'अन्नग्लाना' ग्लानंपर्युषितमन्नं मया भोक्तव्यमित्येवं प्रतिपन्नाभिग्रहा ।..... प्रवर्त्तिन्या कमढकं क्षुल्लिका निर्लेपयति, शेषास्तु स्वं स्वं कमढकम् । ततः सर्वास्वपि समुद्दिष्टासु मण्डलीस्थविरा समुद्दिशति । (बृभा २०७६ - २०८१ वृ) साध्वियां जहां गृहस्थ न हों, वहां मण्डली में भोजन करें, मण्डलीभूमि गृहस्थबहुल हो तो वहां नीचे ऊनी कल्प, उसके ऊपर सूती कल्प बिछाकर उस पर अलाबुपात्र स्थापित कर प्रत्येक साध्वी कमढक में भोजन करे। प्रवर्तिनी पूर्व की ओर मुंह कर बैठे, तत्पश्चात् मण्डलीस्थविरा सभी को भोजन परोसे और अपने योग्य द्रव्य अपने पात्र में रख ले। ६३३ मण्डलीस्थविरा पक्वान्न, घृत आदि चीजों को, जितनी साध्वियां हैं, उनके अनुपात से समभागों में विभक्त कर परोसती है। इससे तीन प्रयोजन सिद्ध होते हैं ० साध्वियों में स्थविरा के प्रति विश्वास उत्पन्न होता है। • सभी को अपना संविभाग प्राप्त होता है । • कलह उत्पन्न नहीं होता। जब साध्वियां आहार के लिए बैठती हैं, तो एक कहती है - आज मुझे विकृति का भोजन नहीं करना है। दूसरी कहती है- मुझे इतनी विकृति से अधिक खाने का त्याग है । कोई कहती है - आज मैं इतने कवल से अधिक नहीं खाऊंगी। कोई कहती है - आज मैंने बासी भोजन करने का अभिग्रह किया है। एक कहती है- आज मुझे आयंबिल तप करना है, अतः यह विकृति आदि किसी अन्य को दें। Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरकल्प ६३४ आगम विषय कोश-२ आहार करने के बाद वे स्वच्छ पानक से आचमन करती आगंतक साधु के नैषेधिकी शब्द को सुनकर वास्तव्य साधु हैं। प्रवर्तिनी के पात्र को छोटी साध्वी निर्लेप करती है, शेष सब मुख में प्रक्षिप्त ग्रास को तो निगलें किंतु हाथ में लिए ग्रास को अपने-अपने पात्र को चाटकर साफ करती हैं। सबके आहार करने पुनः पात्र में निक्षिप्त कर तत्काल खडे हो जाएं। उन्हें आहार के बाद मंडलीस्थविरा आहार करती है। करवाकर आवश्यकतानुसार पुन: भिक्षाटन करें। इस आहारविधि को देखकर लोग सोचते हैं यदि प्राघूर्णक तपप्रायश्चित्तापन्न है तो वह ओघ आलोचना . ० श्रमणियों का निभृतवास है-शांतसहवास है। कर मण्डली में आहार करे, तत्पश्चात् विभाग आलोचना कर ० शौचप्रयत्न-ये स्वच्छता का ध्यान रखती हैं। प्रायश्चित्त स्वीकार करे। ० अलुब्धता-ये नाना प्रकार के अभिग्रह करती हैं। वास्तव्य मुनि आगंतुकों का तीन दिन आतिथ्य करें। सबका ० इन्द्रियदम-ये इन्द्रियों का निग्रह करती हैं। संभव न हो तो बाल-वृद्ध का तो अवश्य करें। • विनय-अभ्युत्थान आदि द्वारा बड़ों का सम्मान करती हैं। ११. साधु की साध्वी-वसति में प्रवेश विधि इस दृश्य को देखकर लोग कहते हैं-सत्य (वचन और अद्धाणनिग्गयाई, अग्गुज्जाणे भवे पवेसो य।.... कर्म की अविसंवादिता), तप, शील, परस्पर संविभागपूर्वक आहार, उव्वाया वेला वा दूरुट्ठियमाइणो व परगामे। ब्रह्मचर्य और शुचिसमाचरण-ये गुण जैसे इन साध्वियों में हैं, वैसे इय थेरऽज्जासिज्जं, विसंतऽणाबाहपुच्छा य॥ अन्यत्र दिखाई नहीं देते। यः स्थविरो गीतार्थः स आत्मद्वितीयः संयतीप्रतिश्रये यद्यपि ये बाहर से मलिन हैं, तथापि शील से सुगंधित हैं, प्रेष्यते। स च तत्र गत्वा बहिरेकपाश्र्वे स्थित्वा नैषेधिकीं तप, उपशम आदि गुणों से विशुद्ध हैं। जिनके कुल में ये उत्पन्न करोति। यदि ताभिः श्रुतं ततः सुन्दरम्, अथ न श्रुतं ततः हुई हैं, वे कुल धन्य हैं। कितना अच्छा हो यदि हमारी बहन शय्यातरीणां निवेद्यते, ताभिरार्यिकाणां निवेदिते यदि सर्वा बेटियां भी ऐसी-अपना कुल उजालने वाली हों। अप्यार्यिका वृन्देन निर्गच्छन्ति ततश्चत्वारो गुरवः । ततः १०. प्राघूर्णक. का प्रवेशकाल और आतिथ्य प्रवर्तिनी..."वयपरिणताभ्यामार्यिकाभ्यां सहिता निर्गत्य भत्तट्ठिय आवासग, सोधेत्तुमति त्ति पच्छ अवरण्हे। 'अनुजानीत' इति भणति।। ततश्च ताभि: कृतिकर्मणि अब्भुट्ठाणं दंडादियाण, गहणेगवयणेणं॥ विहिते स गीतार्थसाधुरधोमुखमवलोकमान आचार्यवचनेन खुड्डग विगिट्ठ गामे, उण्हं अवरण्ह तेण तु पगे वि। पक्खित्तं मोत्तूणं, निक्खिव उक्खित्त मोहेणं॥ तासामनाबाध-पृच्छां करोति॥ (बृभा २२०७, २२०८ वृ) तिण्णि दिणे पाहुण्णं सव्वेसिं असति बालवुड्डाणं।" __दूसरे क्षेत्र में जाते हुए संयत के मार्ग में संयती का क्षेत्र आ (व्यभा २९१४, २९१५, २९१९) जाए, तब वह ग्राम के बाहर उद्यान में ठहर जाए। गीतार्थ मुनि यात्रा सम्पन्न कर गुरुकुल में (या सांभोजिकों के पास) पहले समीपवर्ती ग्राम में भिक्षा के लिए जाए। यदि वह परिश्रान्त लौटने वाले प्राघूर्णक साधु गांव के बाहर भिक्षाटन कर आहार है या ग्राम दूर है, वहां पहुंचने तक भिक्षा का समय अतिक्रांत हो करें, तत्पश्चात् आवश्यक (उच्चार आदि) शोधि कर अपराह्न सकता है या वह ग्राम उजड़ गया है तब स्थविर गीतार्थ मुनि के कालवेला में प्रवेश करें। वास्तव्य साधु उनके नैषेधिकी (निस्सही) साथ संयती के उपाश्रय में जाए। वहां एक पार्श्व में स्थित होकर शब्द को सुनकर तत्काल अभ्यत्थान करें और उन्हें कहें-आपका 'नषेधिकी' शब्द का उच्चारण करें। यदि साध्वी उसे सन ले तो दण्ड, आपके पात्र मुझे दें-इस प्रकार एक बार कहने पर वे दें तो ठीक अन्यथा शय्यातरी को सूचित करे, शय्यातरी आर्यिका को ग्रहण करें (आग्रह करने से पात्र आदि टूट सकते हैं)। निवेदन करे, तब सब साध्वियां समूहरूप से बाहर आयें तो चतुर्गुरु गांव छोटा हो, भिक्षा सुलभ न हो, दूरी अधिक हो अथवा प्रायश्चित्त आता है। प्रवर्तिनी वयप्राप्त साध्वी के साथ बाहर मध्याह्न में धूप तेज हो, तो प्रातः काल ही प्रवेश करें। आकर 'आज्ञा दें' ऐसा कहे। तत्पश्चात् दोनों साधु साध्वी के Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६३५ स्थविरकल्प उपाश्रय में प्रवेश करें। साध्वियों के कृतिकर्म व्यवहार के पश्चात् १२. साधु साध्वी के स्थान पर क्यों जाए? गीतार्थ मुनि नीची दृष्टि किए आचार्य की ओर से सुखपृच्छा करता उवस्साए य संथारे उवही संघपाहुणे। है-आपके संयमयोग निराबाधरूप से सध रहे हैं? सेहट्ठवणुद्देसे, अणुना भंडणे गणे॥ ० सहभिक्षाविधि अणप्पज्झ अगणि आऊ वीआर पुत्त संगमे। कडमकड ति य मेरा, कडमेरा मित्ति बिंति जइ पुट्ठा। संलेहण वोसिरणे, वोसटे निट्ठिए तिहं ।। ताहे भणंति थेरा, साहह कह गिण्हिमो भिक्खं । काश्चिद् वा संयत्यः परीषहपराजिता अवधावनाता बेंति अम्ह पुण्णो, मासो वच्चामु अहव खमणं णे। भिमुख्यो वर्तन्ते तासां स्थिरीकरणार्थं संघप्राघुणो गच्छेत्। संपत्थियाउ अम्हे, पविसह वा जा। वयं नीमो॥ इह कुलस्थविरो'"संघस्थविरो वा संघस्य गौरवाईतया... तुब्भे गिण्हह भिक्खं, इमम्मि पउरन्न-पाण गामद्धे। प्राघुण उच्यते। (बृभा ३७२२, ३७२३ वृ) वाडग साहीए वा, अम्हे सेसेसु घेच्छामो॥ सामान्यतः साधु साध्वी के स्थान पर न जाए। परन्तु ओली निवेसणे वा, वज्जेत्तु अडंति जत्थ व पविद्वा। आपवादिक स्थिति में इन कारणों से जा सकता है ० उपाश्रय, संस्तारक तथा उपधि देने के लिए। न य वंदणं न नमणं, न य संभासो न वि य दिट्ठी॥ ० परीषहों से पराजित होकर उत्प्रवजित होने वाली साध्वी के (बृभा २२११, २२१२, २२१५, २२१६) स्थिरीकरण के लिए संघप्राघुर्णक मुनि जा सकता है। स्थविर आर्या से पूछते हैं-आप सामाचारी में शिक्षित हैं संघ के गौरवाह होने के कारण कुलस्थविर, गणस्थविर और या नहीं? 'हम सामाचारी-भिक्षाविधि जानती हैं ' ऐसा कहने पर संघस्थविर प्राघुण-प्राघूर्णक कहलाते हैं। स्थविर पुनः पूछते हैं-हम गोचरी कैसे-कहां करें? ० शैक्ष मुनि की उपस्थापना के लिए। ___ आर्यिका कहती है-हमारा मासकल्प पूर्ण हो गया है, ० स्थापनाकुलों की स्थापना के लिए। हम सूत्रपौरुषी करके यहां से विहार कर देंगी। उसके बाद आप ० श्रुत के उद्देश अथवा अनुज्ञा हेत्। यथेच्छ विहरण करें। अथवा मासकल्प तो पूर्ण नहीं हुआ, किन्तु ० पारस्परिक कलह का उपशमन करने के लिए। आज हम सबके उपवास है अतः आप इच्छानुसार भिक्षा के लिए प्रवर्तिनी के कालगत हो जाने पर गणचिन्ता के निमित्त । जा सकते हैं। दोनों को ही भिक्षा करनी हो तो आर्यिका निवेदन ० परवश साध्वी को मंत्र आदि से स्वस्थ करने के लिए। करती है-पहले हम भिक्षा के लिए जाएं, बाद में आप अथवा ० साध्वियों की वसति अग्नि से जल जाने पर अथवा पानी में बह पहले आप.भिक्षा करके आ जाएं, फिर हम चली जायेंगी। प्रचुर जाने पर नई वसति-ग्रहण हेत। अन्न-पान वाले इस ग्राम के अर्ध भाग में आप और अर्धभाग में विचारभमि में उपसर्ग उपस्थित होने पर। हम अथवा इस पाटक और इस गली में आप और शेष में हम साध्वियों के स्वजन की मत्य हो जाने पर। गोचरी कर लेंगी। . साध्वियों के स्वजन को उनसे मिलाने के लिए। साधु-साध्वियों की भिक्षाटन वाली गृहपंक्ति और निवेशन संलेखना या अनशन के लिए तत्पर अथवा अनशन में स्थित को छोडकर अन्य पंक्ति और निवेशन (एक निष्क्रमण-प्रवेश वाले साध्वी को दर्शन देने के लिए। घरों) में पर्यटन करते हैं। जहां ग्राम छोटा हो, घरों की पंक्ति का साध्वी के कालगत हो जाने पर अन्य साध्वियों के शोकापनयन विभाग न हो सके वहां घर में प्रवेश करते हुए अथवा गली में के लिए निरन्तर तीन दिन वहां जाए। संयत-संयती का मिलन हो सकता है, वहां वे परस्पर न वंदना १३ वर्षा आदि में जाना निषिद करें, न नमन करें और न ही संभाषण और अवलोकन करें। ....."तिव्वदेसियं वासं वासमाणं पेहाए, तिव्वदेसियं वा Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरकल्प ६३६ आगम विषय कोश-२ महियं सण्णिवयमाणिं पेहाए, महावाएण वा रयं समुद्धयं सकता। गच्छ में जो बहुश्रुत-बहुआगमज्ञ है, उसके साथ ज्ञातवीथि पेहाए, तिरिच्छं संपाइमा वा तसा-पाणा संथडा सन्निवय- में जा सकता है। माणा पेहाए, से एवं णच्चा णो सपडिग्गहमायाए गाहावइ- माता-पिता आदि का जो संबंध है या जो पूर्वसंस्तुत और कुलं पिंडवाय-पडियाए"बहिया वियारभूमि वा विहार पश्चात् संस्तुत है, वह ज्ञातविधि है। इसके अनेक भेद हैं। यहां भूमिं वा णिक्खमेज्ज वा पविसेज्ज वा, गामाणुगामं वा विधि शब्द भेदवाची है। दूइज्जेज्जा॥ (आचूला ६/५३) १४. रात्रि में एकाकी-गमन का निषेध (यदि भिक्षु) तेज या मंद वर्षा बरसती देखे, तीव्र या मंद नो कप्पइ निग्गंथस्स एगाणियस्स राओ वा वियाले कुहरा गिरता देखे, महावात से रजें उड़ती देखे, तिर्यक् वा बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा। संपातिम (भौंरा, पतंग आदि) त्रस प्राणी मार्ग में छाये हुए या कप्पड़ से अप्पबिइयस्स वा अप्पतइयस्स वा ... ॥ नो गिरते हुए देखे, वह ऐसा (जीवविराधना का प्रसंग) जानकर पात्र कप्पड निग्गंथीए एगाणियाए' लेकर गृहपति के घर में भिक्षा की प्रतिज्ञा से न जाए और न प्रवेश वा... अप्पचउत्थीए वा........ (क १/४५.४६) करे, न बाहर स्थण्डिलभूमि और स्वाध्यायभूमि में गमन और निर्ग्रन्थ रात्रि में या विकाल में उपाश्रय के बाहर विचारभूमि प्रवेश करे, न ग्रामानुग्राम परिव्रजन करे। या विहारभमि में अकेला नहीं जा सकता। वह एक या दो निर्ग्रन्थों ० ज्ञातिजनों में गमन का हेतु और विधि के साथ वहां जा-आ सकता है। उवदेसं काहामि य, धम्मं गाहिस्स पव्वयावेस्सं। यही विधि साध्वी के लिए निर्दिष्ट है। विशेष इतना है सड्ढाणि व वुग्गाहे, भिक्खुगमादी ततो गच्छे॥ कि वह एक या दो या तीन साध्वियों के साथ जा सकती है। (व्यभा २५१८) १५. शयन-विधि, रत्नाधिक की प्राथमिकता मैं ज्ञातिजनों को धर्मोपदेश दूंगा, उन्हें श्रावकधर्म या श्रमणधर्म ..सेज्जासंथारभूमिं ...", णण्णत्थ आयरिएण वा, में दीक्षित करूंगा। वे कुल दानश्रद्धालु हैं। अन्यतीर्थिकों ने उन्हें उवज्झाएण वा, पवत्तीए वा, थेरेण वा, गणिणा वा, गणहरेण बहका दिया है। उनको यथार्थ मार्ग पर लाऊंगा-इन कारणों से वा. गणवच्छेडण वा. बालेण वा. बडेण वा. सेहेण वा. साधु ज्ञातिजनों के बीच जा सकता है। गिलाणेण वा, आएसेण वा, अंतेण वा, मझेण वा, समेण भिक्खू य इच्छेज्जा नायविहिं एत्तए"कप्पड़ से थेरे वा, विसमेण वा, पवाएण वा, णिवाएण वा तओ संजयामेव आपुच्छित्ता । थेरा य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ नायविहिं पडिलेहिय-पडिलेहिय, पमज्जिय-पमज्जिय बहु-फासुयं एत्तएनो से कप्पइ अप्पसुयस्स अप्पागमस्स एगाणियस्स"। सेज्जा-संथारगं संथरेज्जा।।..सेज्जा-संथारए दुरुहमाणे, से कप्पइ से जे तत्थ बहुस्सुए बब्भागमे तेण सद्धिं नायविहिं पुव्वामेव ससीसोवरियं कायं पाए य पमज्जिय-पमज्जिय तओ एत्तए। (व्य ६/१) संजयामेव"दुरुहेत्ता तओ संजयामेव"सएज्जा"सयमाणे, अम्मा-पितिसंबंधो, पुव्वं पच्छा व संथुता जे तु। णो अण्णमण्णस्स हत्थेण हत्थं, पाएण पायं, काएण कार्य एसो खलु णायविधी, णेगा भेदा य एक्केक्के॥ आसाएज्जा।... (आचूला २/७२-७४) आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक. स्थविर, गणी, गणधर, भिक्ष ज्ञातविधि/ज्ञातवीथि में जाना चाहे तो वह स्थविर गणावच्छेदक, बाल, वृद्ध, शैक्ष, ग्लान और अतिथि की शय्या(आचार्य) को पूछकर जा सकता है, वे अनुमति दें तो जा सकता संस्तारक-भूमि को छोड़कर उपाश्रय के अंतिम कोने या मध्य में. है। अल्पश्रुत और अल्पागम भिक्षु अकेला ज्ञातिजनों में नहीं जा सम या विषम, हवादार या निर्वात स्थान में संयमपूर्वक प्रतिलेखन Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ कर, प्रमार्जन कर पूर्ण प्रासुक शय्या-संस्तारक बिछाए । शय्यासंस्तारक पर आरूढ़ होने से पहले ही सिर सहित शरीर के ऊपरी भाग का तथा पैरों का पुनः पुनः प्रमार्जन कर तत्पश्चात् संयमपूर्वक उस पर बैठकर, संयमपूर्वक सोए। सोता हुआ एक-दूसरे के हाथ से हाथ, पैर से पैर और शरीर से शरीर को न सटाए | rous fariथाण वा निग्गंथीण वा अहाराइणियाए चेलाई पडिग्गाहित्तए । सेज्जासंथारए पडिग्गाहित्तए ॥ ''अहाराइणियाए किइकम्मं करेत्तए ॥ (क ३/१८-२० ) निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी यथारालिक (संयमपर्यायज्येष्ठ के) क्रम से वस्त्र और शय्या-संस्तारक ग्रहण करें। वे यथारालिक क्रम कृतिकर्म करें। १६. पृथक् वसति : आलोचना आदि की विधि वसुं पि वसंताणं, दोणि वि आवासगा सह गुरूहिं । दूरे पोरिसिभंगे, घ विगडेंति ॥ गीतसहाया उगता, आलोयण तस्स अंतियं गुरुणं । अगडा पुण पत्तेयं, आलोएंती गुरुसगासे ॥ एंताण य जंताण य, पोरिसिभंगो ततो गुरु वयंती थेरे अजंगमम्मि उ, मज्झहे वावि आलोए ॥ (व्यभा २७३०-२७३२) } संकीर्ण वसति के कारण पृथक् वसति में रहने वाले अगीतार्थ साधु प्रतिदिन प्राभातिक और वैकालिक आवश्यक प्रतिक्रमण गुरु के साथ करते हैं । वे भिक्षाचर्या से लौटकर आचार्य के पास आलोचना करते हैं। यदि अलग वसति सौ हाथ दूर हो तो चतुर्थ पौरुषी में गुरु के पास आलोचना कर वैकालिक आवश्यक अपनी वसति में करते हैं और प्रातः कालीन आवश्यक भी वहीं कर फिर गुरु के पास आकर प्रत्याख्यान ग्रहण करते हैं। यदि वसति सुदूर हो, गुरु के पास आने में सूत्र - अर्थ पौरुषी वेला अतिक्रांत होती हो तो उद्घाटा (तृतीय) पौरुषी में गुरु के पास आकर आलोचना और प्रत्याख्यान करते हैं। सुदूर वसति में यदि कोई गीतार्थ सहायक हो तो सब उसके पास आलोचना करते हैं। वह गीतार्थ उद्घाटा पौरुषी में गुरु के पास आकर सारी बात निवेदन करता है। यदि कोई गीतार्थ सहायक स्थविरकल्प न हो तो उद्घाटा पौरुषी में सब गुरु के पास आकर आलोचना करते हैं। यदि वसति इतनी अधिक दूर हो कि उद्घाटा पौरुषी काल में, आने-जाने में पौरुषी भग्न होती हो तो गुरु स्वयं इन अगीतार्थ शिष्यों के पास जाते हैं। यदि गुरु स्थविर या चलने में असमर्थ हैं तो अगीतार्थ मध्याह्न में गुरु के पास आकर आलोचना करते हैं । ६३७ १७. उपधि- प्रतिलेखन का काल सूरुग्गए जिणाणं पडिलेहणियाऍ आढवणकालो । थेराणऽणुग्गयम्मी, ओवहिणा सो तुलेयव्वो ॥ यथाऽऽवश्यके कृते एकद्वित्रिश्लोकस्तुतित्रये गृहीते एकादशभिः प्रतिलेखितैरादित्य उत्तिष्ठते स प्रारम्भकालः प्रतिलेखनिकायाः । कतरे पुनरेकादश ? पंच अहाजातानि, तिन्नि कप्पा, तेसिं एगो उन्निओ दो सुत्तिया, संथारपट्टओ, उत्तरपट्टओ, दंडओ। (बृभा १६६१ चू) जिनकल्पी के सूर्य उदय होने के बाद प्रतिलेखना का प्रारंभ काल है। स्थविरकल्पी के सूर्य उदय से पहले ही प्रतिलेखना काल प्रारम्भ हो जाता है। प्रतिलेखनीय उपधि के आधार पर प्रतिलेखना के काल का माप होता है। आवश्यक करने के बाद एक-दो-तीन श्लोक प्रमाण तीन स्तुति सम्पन्न की जाती है, उसके बाद ग्यारह उपधि की प्रतिलेखना के पश्चात् सूर्य उदय हो जाए, वह काल प्रतिलेखना का प्रारम्भ काल है। पांच यथाजात ( मुखवस्त्र, रजोहरण, दो निषद्याएं, चोलपट्ट), तीन उत्तरीय - एक ऊनी और दो सूती, संस्तारकपट्ट, उत्तरपट्ट और दंड - यह ग्यारह प्रकार की उपधि है । (दसविध उपधि का उल्लेख भी है। द्र श्रीआको १ कालविज्ञान) १८. स्थविर - अवस्थिति : क्षेत्र आदि उन्नीस द्वार खित्ते काल चरित्ते, तित्थे परियाय आगमे वेए । कप्पे लिंगे लेसा, झाणे गणणा अभिगहा य ॥ पव्वावण मुंडावण, मणसाऽऽवन्ने उ नत्थि पच्छित्तं । कारण पडिकम्मम्मि उ, भत्तं पंथो य भयणाए । (बृभा १६३४, १६३५ ) स्थविरकल्प की स्थिति आदि के उन्नीस द्वार हैं - १. क्षेत्र २. काल ३. चारित्र ४. तीर्थ ५. पर्याय ६. आगम ७. वेद Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरकल्प ६३८ आगम विषय कोश-२ ८. कल्प ९. लिंग १०. लेश्या ११. ध्यान १२. गणना (इन द्वारों में ० कल्प-ये स्थितकल्प और अस्थितकल्प दोनों में होते हैं। अवस्थिति वक्तव्य है) १३. अभिग्रह १४. प्रव्राजना १५. मुण्डापना . वेद-प्रतिपत्तिकाल की अपेक्षा स्त्री, पुरुष और कुत नपुंसक१६. मानसिक अपराध में तप प्रायश्चित्त नहीं। १७. कारण (अपवाद) तीनों वेद हो सकते हैं, पूर्वप्रतिपन्न अवेदी भी हो सकते हैं। १८. प्रतिकर्म (धावन, संबाधन आदि) १९. आहार और विहार .लिंग, लेश्या, ध्यान, गणना तृतीय पौरुषी में वैकल्पिक। भइया उ दव्वलिंगे, पडिवत्ती सुद्धलेस-धम्मेहिं । ०क्षेत्र, काल, चारित्र"वेद पुव्वपडिवन्नगा पुण, लेसा झाणे अ अन्नयरे ॥ पन्नरसकम्मभूमिसु, खेत्तद्धोसप्पिणीइ तिसु होज्जा। पडिवज्जमाण भइया, एगो व सहस्ससो व उक्कोसा। तिसु दोसु य उस्सप्पे, चउरो पलिभाग साहरणे॥ कोडिसहस्सपुहत्तं जहन्न-उक्कोसपडिवन्ना॥ पढम-बिइएसु पडिवजमाण इयरे उ सव्वचरणेसु। (बृभा १६३९, १६४७) नियमा तित्थे जम्मऽट्ट जहन्ने कोडि उक्कोसे॥ • लिंग-प्रतिपद्यमान और पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा द्रव्य लिंग की पव्वज्जाएँ मुहुत्तो, जहन्नमुक्कोसिया उ देसूणा। भजना है, भावलिंग सदा होता है। आगमकरणे भइया, ठियकप्पे अट्ठिए वा वि॥ ० लेश्या-प्रतिपद्यमान की अपेक्षा उनमें तीन शभ लेश्याएं होती वेदः स्त्री-पुं-नपुंसकभेदात् त्रिविधोऽप्यमीषां प्रति हैं। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा छहों लेश्याएं हो सकती हैं। पत्तिकाले भवेत्, पूर्वप्रतिपन्नकानां त्ववेदकत्वमपि . ध्यान-प्रतिपद्यमान की अपेक्षा धर्म्यध्यान होता है। पूर्वप्रतिपन्न भवति। (बृभा १६३६-१६३८ वृ) की अपेक्षा चारों ध्यान हो सकते हैं। ० क्षेत्र- स्थविरकल्पिक पांच भरत, पांच ऐरावत और पांच ० गणना-कल्प के स्वीकरण में भजना है-विवक्षित काल में विदेह-इन पन्द्रह कर्मभूमियों में होते हैं। संहरण की अपेक्षा स्वीकार करते भी हैं और नहीं भी करते। यदि स्वीकार करते हैं तो तीस अकर्मभूमियों में भी हो सकते हैं। एक साथ एक, दो, तीन यावत् सहस्र पृथक्त्व (दो हजार से नौ ० काल-अवसर्पिणी काल में जन्म और सद्भाव की अपेक्षा हजार) व्यक्ति स्वीकार कर सकते हैं। पर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा तीसरे-चौथे-पांचवें अर में होते हैं। उत्सर्पिणीकाल में जन्म की । यक्त्व तक हो सकते हैं। अपेक्षा दूसरे-तीसरे-चौथे अर तथा सद्भाव की अपेक्षा तीसरे व ० प्रव्राजना-मुंडापना चौथे अर में होते हैं। नोअवसर्पिणीउत्सर्पिणी काल में जन्म और सच्चित्तदवियकप्पं, छव्विहमवि आयरंति थेरा उ। सद्भाव की अपेक्षा दुःषमसुषमा प्रतिभाग में होते हैं । संहरण की कारणओ असहू वा, उवएस दिति अन्नत्थ ॥ अपेक्षा चारों प्रतिभागों में हो सकते हैं। (प्रतिभाग द्र जिनकल्प) प्रव्राजना मुण्डापना शिक्षापना उपस्थापना सम्भुञ्जना ० चारित्र-प्रतिपद्यमान की अपेक्षा स्थविरकल्पिक सामायिक और संवासना चेति। स्थविराः' गच्छवासिनः। स्वयं वस्त्रछेदोपस्थापनीय चारित्र में होते हैं। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा इनमें पात्रादिभिर्जानादिभिश्च शिष्याणां संग्रहोपग्रहो कर्तुमसमर्था पांचों चारित्र हो सकते हैं। ० तीर्थ-ये नियमतः तीर्थ में ही होते हैं, अतीर्थ में नहीं। उपदेशम् गच्छान्तरे प्रयच्छन्ति, अमुकत्र गच्छे संविग्न गीतार्था आचार्याः सन्ति तेषां समीपे भवता दीक्षा प्रति० पर्याय-इसके दो प्रकार हैं-१. गहिपर्याय-जघन्यतः साधिक आठ वर्ष, उत्कृष्टतः पूर्वकोटि। पत्तव्येति। (बृभा १६५४ वृ) २. दीक्षा पर्याय-जघन्य अन्तर्मुहूर्त (इसके पश्चात् मरण या पतन _स्थविरकल्पी छह प्रकारों से सचित्त द्रव्य कल्प का आचरण हो सकता है), उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि। करते हैं (शिष्य बनाते हैं)-१. प्रव्राजना २. मुण्डापना ३. शिक्षापना ० आगम-अपूर्वश्रुत का अध्ययन करते हैं, नहीं भी करते। ४. उपस्थापना ५. संभुंजना ६. संवासना। Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६३९ स्थविरकल्प किसी कारणवश स्थविरकल्पी स्वयं वस्त्र, पात्र, ज्ञान-दान २०. जिन-स्थविर-कल्प : कृतयोगिता, धृति-संहनन आदि के द्वारा शिष्यों का संग्रह-उपग्रह करने में असमर्थ होने पर पुरिसा उक्कोस-मज्झिम, जहण्णया ते चउव्विधा होति। दीक्षार्थी को उपदेश देते हैं कि अमुक गच्छ में संविग्न गीतार्थ कप्पट्ठिता परिणता, कडयोगी चेव तरमाणा।। आचार्य हैं, तुम्हें उनके पास दीक्षा स्वीकार करनी चाहिए। संघयणे संपण्णा, धितिसंपण्णा य होंति तरमाणा। * दीक्षा के छह प्रस्थान : प्रव्रज्या आदि द्र दीक्षा सेसेसु होति भयणा, संघयण-धितीए इतरे य॥ ० प्रायश्चित्त, कारण, परिकर्म पुरिसा तिविहा संघयण, धितिजुत्ता तत्थ होंति उक्कोसा। जीवो पमायबहुलो, पडिवक्खे दुक्करं ठवेउं जे। एगतरजुत्ता मज्झा, दोहिं विजुत्ता जहण्णा उ॥ केत्तियमित्तं वोज्झिति, पच्छित्तं दुग्गयरिणी वा॥ उक्कोसगा तु दुविहा, कप्प-पकप्पट्ठिता व होज्जाहि। ....."मनसाऽऽपन्नेऽप्यपराधे नास्ति तपःप्रायश्चित्तं कप्पट्ठिता तु णियमा, परिणत-कडयोगि-तरमाणा॥ स्थविरकल्पिकानाम्, आलोचनाप्रतिक्रमणप्रायश्चित्ते तु जे पुण ठिता पकप्पे, परिणत-कडयोगिताइ ते भइता। तत्रापि भवतः"। कारणम"उत्पन्ने द्वितीयपदमप्यासेवन्ते। तरमाणा पुण णियमा, जेण उ उभएण ते बलिया। तथा निष्कारणे निष्प्रतिकर्मशरीराः। कारणे तु ग्लानमाचार्य मज्झा य बितिय-ततिया, नियम पकप्पट्टिता तु णायव्वा। वादिनं धर्मकथिकं च प्रतीत्य पादधावनमुखमार्जनशरीर बितिया परिणत-कडयोगिताए भइता तरे किंचि॥ संघयणेण तु जुत्तो, अदढधिति ण खलु सव्वसो अतरओ। सम्बाधनादिकरणात् सप्रतिकर्माण इति। (बृभा १६५५ वृ) देहस्सेव तु स गुणो, ण भज्जति जेंण अप्पेण॥ • प्रायश्चित्त-जीव प्रमादबहुल है। उसे अप्रमाद में स्थापित ततिओ धितिसंपण्णो, परिणय-कडयोगिता विसो भइतो। करना दुष्कर है। चैतसिक चंचलता के कारण वह पग-पग पर एगे पुण तरमाणं, तमाहु मूलं धिती जम्हा॥ अपराध कर लेता है तो दरिद्र कर्जदार की भांति वह कितने णामुदया संघयणं, धिती तु मोहस्स उवसमे होति। प्रायश्चित्त रूपी ऋण का वहन करेगा? अतः स्थविरकल्पिकों को तहवि सती संघयणे, जा होति धिती ण साहीणे॥ मानसिक स्तर पर अपराध होने पर तपप्रायश्चित्त नहीं दिया जाता, चरिमो परिणत-कडयोगित्ताए भइओ ण सव्वसो अतरो। किन्तु आलोचना एवं प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त के द्वारा मानसिक दोषों रातीभत्त-विवज्जण, पोरिसिमादीहिं जं तरति ।। का शोधन किया जाता है। (निभा ७७-८६) . कारण-वे महामारी, दुर्भिक्ष आदि कारण उत्पन्न होने पर अपवाद मार्ग का आसेवन भी करते हैं। पुरुषों के तीन प्रकार हैं-उत्कृष्ट , मध्यम, जघन्य। ० परिकर्म-वे निष्कारण परिकर्म नहीं करते। कारण से ग्लान, इनके चार-चार प्रकार हैं-कल्पस्थित, परिणत, कृतयोगी आचार्य, वादी और धर्मकथिक पादप्रक्षालन, मुखमार्जन, और तरमाण (समर्थ/अपने लक्ष्य में निश्चित सफल होने वाला)। शरीरसंबाधन आदि परिकर्म करते हैं, अतः वे सप्रतिकर्म हैं। शरीररचना और मनोबल की क्षमता के आधार पर इनके चार विकल्प बनते हैं-१. संहननसंपन्न-धुतिसंपन्न २. संहनन१९. सापेक्ष-निरपेक्ष के प्रायश्चित्त में अंतर संपन्न किन्तु धृतिसंपन्न नहीं ३. धृतिसंपन्न किन्तु संहननसंपन्न .....निरवेक्खाण मणेण वि, पच्छित्तितरेसि उभएणं॥ नहीं ४. न संहननसंपन्न न धृतिसंपन्न। (व्यभा ४०२३) प्रथम भंगवर्ती पुरुष तरमाण होते हैं, शेष भंगों में सामर्थ्य निरपेक्ष (प्रतिमाप्रतिपन्न, जिनकल्पी आदि) मुनियों को की भजना है। प्रथम भंगवर्ती पुरुष उत्कृष्ट, द्वितीय-तृतीय भंगवर्ती मन से भी अतिचार सेवन करने पर प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। मध्यम और चतुर्थ भंगवर्ती जघन्य होते हैं। सापेक्ष (गच्छस्थित) मुनि वाचिक और कायिक दोषसेवन उत्कृष्ट के दो प्रकार हैं-कल्पस्थित (जिनकल्पिक) और करने पर प्रायश्चित्त प्राप्त करते हैं। प्रकल्पस्थित (स्थविरकल्पिक)। Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरकल्प आगम विषय कोश-२ कल्पस्थित नियमतः श्रुत और वय से परिणत होते हैं, जिणकप्पिए न कप्पति, दप्पेणं अजतणाय थेराणं। कृतयोगी (तपोयोग से भावित) और तरमाण होते हैं। कप्पति य कारणम्मि, जयणाय गच्छे स सावेक्खो॥ प्रकल्पस्थित परिणत और कृतयोगी होते भी हैं, नहीं भी चिट्ठति परियाओ से, तेण च्छेदादिया न पावेंति। होते, किन्तु जो संहनन और धृति से सम्पन्न होते हैं, वे नियमतः परिहारं च न पावति, परिहार तवो त्ति एगटुं॥ तरमाण होते हैं-प्रारब्ध अनुष्ठान को पूर्णता तक पहुंचाते हैं। __ (व्यभा २४४५, २४४६) द्वितीय-तृतीय भंगवर्ती मध्यम पुरुष स्थविरकल्पी ही होते जिनकल्पी स्वपक्ष (साधु) और परपक्ष (साध्वी)-दोनों हैं, जिनकल्पी नहीं। उनमें परिणतता और कृतयोगिता वैकल्पिक से वैयावृत्त्य नहीं करवा सकता। है। संहननसंपन्न पुरुष धृतिविहीन होने पर भी सर्वथा असमर्थ स्थविरकल्पी दर्प से या अयतना से वैयावृत्त्य (या चिकित्सा) नहीं होता। संहनन शरीर का उपकारक गुण है। वह अल्प धृति या नहीं करवा सकता। कारण उपस्थित होने पर यतनापूर्वक करवा अधृति से भग्न नहीं होता। सकता है, क्योंकि वह गच्छ में सापेक्ष है-शरीर-निरपेक्ष होकर कछ आचार्यों का अभिमत है-धृति तप-संयम का मूल साधना नहीं करता। है, अतः धृतिसंपन्न पुरुष तरमाण/समर्थ होता है। वैयावृत्त्य या चिकित्सा करवाने से उसका स्थविरकल्प रहता संहनन नामकर्म के उदय से प्राप्त होता है। धृति मोहकर्म है (नष्ट नहीं होता) तथा प्रायश्चित्तस्वरूप छेद या परिहार भी (अरति नोकषाय चारित्रमोहनीय) के क्षयोपशम से प्राप्त होती है। प्राप्त नहीं होता। परिहार और तप एकार्थक हैं। .. यद्यपि संहनन और धृति की उत्पत्ति भिन्न है, फिर भी दृढ़ स्थविरावलि-आचार्य-परम्परा। संहननी में जैसी धृति होती है, वैसी धृति हीन-संहनन वाले में नहीं होती। इसलिए तीसरा भंग अतरमाण है। कुछ इसे तरमाण समणस्स भगवओ महावीरस्स कासवगोत्तस्स अग्जभी मानते हैं। सुहम्मे थेरे अंतेवासी अग्गिवेसायणसगोत्ते। थेरस्स णं चतुर्थ भंग में परिणतता और कृतयोगिता वैकल्पिक है। अज्जसुहम्मस्स"अज्जजंबुनामे थेरे अंतेवासी कासवगोत्ते।" धृति-संहननविरहित भी सर्वथा अतरमाण नहीं होता। वह भी अज्जप्पभवे थेरे अंतेवासी कच्चायण सगोत्ते। अज्जसेज्जंभवे रात्रिभोजनविरमण, पौरुषी आदि प्रत्याख्यानों का निर्वहन करता है। थेरे अंतेवासी मणगपिया वच्छसगोत्ते। अज्जजसभद्दे". २१. सापेक्ष-निरपेक्ष : वैयावृत्त्य और चिकित्सा तुंगियायणसगोत्ते। निग्गंथं च णं राओ वा वियाले वा दीहपट्ठो लूसेज्जा, संखित्तवायणाए अज्जजसभद्दाओ अग्गओ एवं थेरावली भणिया तं जहा-थेरस्स णं अज्जजसभहस्स"अंतेवासी इत्थी वा पुरिसं""पुरिसो वा इत्थिं ओमज्जेज्जा। एवं से कप्पइ, दवे थेरा-थेरेअज्जसंभयविजए माढरसगोत्ते. थेरे अज्जभहबाह एवं से चिट्ठइ, परिहारं च णो पाउणइ-एस कप्पे थेर पाईणसगोत्ते।"अंतेवासी थेरे अज्जथूलभद्दे गोयमसगोत्ते।थेरस्स कप्पियाणं। एवं से नो कप्पड़, एवं से नो चिद्रइ, परिहारं च। णं अज्जथूलभहस्स" अंतेवासी दुवे थेरा-थेरे अज्जमहागिरी पाउणइ-एस कप्पे जिणकप्पियाणं॥ (व्य ५/२१) एलावच्छसगोत्ते, थेरे अज्जसुहत्थी वासिट्ठसगोत्ते।... थेरस्स निर्ग्रन्थ को रात्रि या विकालवेला में सांप काट खाये, उस णं अज्जसुहत्थिस्स""अंतेवासी दुवे थेरा-सुट्ठियसुप्पडिबुद्धा स्थिति में स्त्री पुरुष का और पुरुष स्त्री का अपमार्जन करे-यह कोडियकाकंदगा वग्घावच्चसगोत्ता। थेराणं सुट्ठियसुप्पडिकल्पनीय है। इस स्थिति में उसे प्रायश्चित्त प्राप्त नहीं होता-यह बद्धाणं"अंतेवासी थेरे अज्जइंददिन्ने कोसियगोत्तेr"अंतेवासी स्थविरकल्पिकों का कल्प है। थेरे अज्जदिन्ने गोयमसगोत्ते।"अंतेवासी थेरे अज्जसीहगिरी जिनकल्पिक को सांप काट खाये, उस स्थिति में वह जाइस्सरे कोसियगोत्तेr"अंतेवासी थेरे अज्जवडरे गोयमसगोत्ते। अपमार्जन न कराए। यदि कराए तो उसे प्रायश्चित्त प्राप्त होता ___..."अंतेवासी थेरे अज्जवडरसेणे कोसियगोत्ते। है-यह जिनकल्पिकों का कल्प है। (दशा ८ परि सू १८६, १८७) Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६४१ स्थविरावलि काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान महावीर के अंतेवासी हुए स्थविरावलि यंत्र अग्निवैश्यायनगोत्रीय स्थविर आर्य सुधर्मा । आर्य सुधर्मा के अंतेवासी १. आर्य सुधर्मा १८. , शिवभूति काश्यपगोत्रीय आर्य जंबू। आर्य जंबू के अंतेवासी कात्यायनगोत्रीय २. , जंबू १९. , भद्र आर्य प्रभव। आर्य प्रभव के अंतेवासी वत्सगोत्रीय मुनि मनक के ३. , प्रभव २०. " नक्षत्र पिता स्थविर आर्य शय्यंभव। आर्य शय्यंभव के अंतेवासी-तुंगियायण ४. , शय्यंभव २१. , रक्ष गोत्रीय स्थविर आर्य यशोभद्र। ५. , यशोभद्र २२. ,, नाग संक्षिप्त वाचना के अनुसार आर्य यशोभद्र से आगे स्थविरा ६. , संभूतविजय-भद्रबाहु २३. " जेहिल वलि इस प्रकार है ७. , स्थूलभद्र २४. , विष्णु ___आर्य यशोभद्र के दो अंतेवासी हुए-माठरगोत्रीय आर्यसंभूत- ८. , महागिरि-सुहस्ती २५. ,, कालक विजय और प्राचीन गोत्रीय आर्य भद्रबाह । आर्यसंभत-विजय के ९. , सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध २६. , संपलित भद्र शिष्य-गौतमगोत्रीय आर्य स्थूलभद्र । आर्य स्थूलभद्र के दो अंतेवासी १०. " इन्द्रदत्त २७. " वृद्ध शिष्य हुए–एलापत्यगोत्रीय स्थविर आर्य महागिरि और ११. , दत्त २८. " संघपालित वाशिष्ठगोत्रीय आर्य सहस्ति। आर्य सहस्ति के दो अंतेवासी १२. , सिंहगिरि २९. " हस्ती व्याघ्रापत्यगोत्रीय सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध। ये दोनों कोडिय काकंदक १३., वज्र ३०. , धर्म कहलाते थे। इन दोनों के शिष्य-कौशिकगोत्रीय आर्य इन्द्रदत्त। १४ , वजन ३१. , सिंह आर्य इन्द्रदत्त के अंतेवासी गौतमगोत्रीय स्थविर आर्य दत्त। आर्य १५. , पुष्यगिरि ३२. , धर्म दत्त के अंतेवासी कौशिकगोत्रीय स्थविर आर्य सिंहगिरि, जिन्हें १ , फलामित्र ३३. , देवर्द्धिगणी जातिस्मृति ज्ञान उपलब्ध था। आर्य सिंहगिरि के अंतेवासी १७. , धनगिरि गौतमगोत्रीय आर्य वज्र। आर्यवज्र के अंतेवासी कौशिकगोत्रीय -दशा ८ परि सू १८६, १८७, २१७-२२२ आर्यवज्रसेन। . १. आर्य सुधर्मा १४. आर्य शांडिल्य ० सात अंतेवासिनी शिष्याएं २. " जंबू १५. " समुद्र __.."थेरस्स णं अज्जसंभूयविजयस्स"सत्त अंतेवासिणीओ ३. " प्रभव १६. , मंगु अहावच्चाओ अभिण्णाताओ होत्था. तं जहा ४. , शय्यंभव १७. , नन्दिल जक्खा य जक्खदिन्ना, भूया तह होइ भूयदिन्ना य। ५. " यशोभद्र १८. , नागहस्ति सेणा वेणा रेणा, भगिणीओ थलभहस्स॥ ६. " सभूतविजय १९. , रेवतीनक्षत्र (दशा ८ परि सू १९१/३) ७. " भद्रबाहु २०. वाचक सिंह ८. " स्थूलभद्र २१. आचार्य स्कन्दिल स्थविर आर्यसंभूतविजय के सात अंतेवासिनी शिष्याएं ९. , महागिरि २२. आर्य हिमवन्त थीं-यक्षा, यक्षदत्ता, भूता, भूतदत्ता, सेना, वेणा, रेणा-ये स्थूलभद्र १०. , सुहस्ती २३. वाचक नागार्जुन की बहनें थीं। ११. " बहुल २४. आर्य भूतदिन्न (दशाश्रुतस्कंध (पर्युषणाकल्प), नन्दी आदि के अनुसार १२. , स्वाति २५. आर्य लोहित्य छह स्थविरावलि/पट्टावलि यंत्र यहां दिए जा रहे हैं, जो भिन्न १३. "श्याम २६. आर्य दूष्यगणि भिन्न गुरुपरम्पराओं के सूचक हैं। -नन्दी, गाथा २३-४२ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरावलि ६४२ आगम विषय कोश ७८ ॥ ___ नंदी की भूमिका तथा गाथा २३-४२ के टिप्पणों में इस २१. , वज्रसेन आवलि पर गहन विमर्श किया गया है। यथा-पर्युषणाकल्प की २२. , नागहस्ती स्थविरावली में स्वाति, श्यामार्य और शाण्डिल्य का उल्लेख नहीं २३. , रेवतीमित्र ५९ ॥ है। यदि पर्युषणाकल्प की स्थविरावलि देवर्द्धिगणी से प्राचीन है ___, सिंह तो नंदी की स्थविरावलि और पर्युषणाकल्प की स्थविरावलि में २५. , नागार्जुन यह अंतर क्यों? आगम के संकलन काल में देवर्द्धिगणी ने २६. , भूतदिन्न पर्युषणाकल्प की स्थविरावलि को नंदी की स्थविरावलि से भिन्न २७. , कालक ११ " क्यों रखा? यदि पर्युषणाकल्प की स्थविरावलि देवर्द्धिगणी के दुस्सम-काल-समण-संघत्थव 'युग-प्रधान पट्टावली' उत्तरकाल की है तो यह अंतर हो सकता है। भिन्न-भिन्न नाम समय (वीर निर्वाण से) स्थविरावलियों के अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं १. आचार्य सुधर्मा १-२० कि अनेक शाखाएं और अनेक गुरुपरंपराएं रही हैं। जो लेखक २. " जम्बू २०-६४ जिस शाखा व गुरुपरंपरा का था, उसने अपनी गुरुपरंपरा के ३. , प्रभव ६४-७५ आधार पर स्थविरावलियां कर दी। अत: सब स्थविरावलियों में ४. ,, शय्यंभव ७५-९८ समानता खोजना प्रासंगिक नहीं है।-नंदी, गा २६ का टि ५. ,, यशोभद्र ९८-१४८ वल्लभी युगप्रधान पट्टावली समय ६. , संभूतविजय १४८-१५६ १. आचार्य सुधर्मा २० वर्ष ७. " भद्रबाहु १५६-१७० २. "जम्बू ८. " स्थूलभद्र १७०-२१५ ३. प्रभव ९. , महागिरि २१५-२४५ ४. , शय्यंभव १०. , सुहस्ती २४५-२९१ ५. , यशोभद्र ११. " गुणसुन्दर २९१-३३५ ६. , सम्भूतविजय १२. " श्याम ३३५-३७६ ७. , भद्रबाहु १३. " स्कन्दिल ३७६-४१४ ८. " स्थूलभद्र १४. , रेवतिमित्र ४१४-४५० ९. " महागिरि १५. , धर्मसूरि ४५०-४९५ १०. " सुहस्ती १६. " भद्रगुप्त ४९५-५३३ ११. " गुणसुन्दर १७. " श्रीगुप्त ५३३-५४८ १२. , कालक १८. , वज्र ५४८-५८४ १३. , स्कन्दिल १९. , आर्यरक्षित ५८४-५९७ १४. , रेवतीमित्र २०. , दुर्बलिकापुष्यमित्र ५९७-६१७ १५. " मंगु २१. , वज्रसेन ६१७-६२० १६. ॥ धर्म २२. , नागहस्ती ६२०-६८९ " भद्रगुप्त २३. ,, रेवतीमित्र ६८९-७४८ १८ वज्र २४. , सिंह ७४८-८२६ १९. " रक्षित २५. ' नागार्जुन ८२६-९०४ २०. , पुष्यमित्र २६. , भूतदिन ९०४-९८३ → 9 ० Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६४३ स्थापनाकुल २७. , कालक (चतुर्थ) ९८३-९९४ २८. " सत्यमित्र ९९४-१००० २९. , हारिल्ल १०००-१०५५ ३०. , जिनभद्रगणि १०५५-१११५ ३१. , उमास्वाति १११५-११९७ ३२. , पुष्यमित्र ११९७-१२५० ३३. , संभूति १२५०-१३०० ३४. , माठर संभूति १३००-१३६० ३५. , धर्मऋषि १३६०-१४०० ३६. , ज्येष्ठांगगणी १४००-१४७१ ____३७. ,, फल्गुमित्र १४७१-१५२० ३८. , धर्मघोष १५२०-१५९८ -जैन धर्म के प्रभावक आचार्य खण्ड १ पृ. ३६-३८ माथुरी युगप्रधान-पट्टावलि १. आचार्य सुधर्मा १७. आचार्य धर्म २. , जम्बू १८. ) भद्रगुप्त ३. "प्रभव १९. ॥ वज्र ४. ॥ शय्यंभव २०. " रक्षित ५. , यशोभद्र २१. , आनन्दिल ६. " सम्भूतविजय २. , नागहस्ती ७. , भद्रबाहु २३. ,, रेवतीनक्षत्र स्थूलभद्र २४. , सिंह ९. , महागिरि ___स्कन्दिल १०. " सुहस्ती , हिमवंत ११. " बलिस्सह २७. , नागार्जुन १२. , स्वाति २८. , गोविन्द १३. , श्याम २९. " भूतदिन्न १४. , शाण्डिल्य ३०. , लौहित्य १५. , समुद्र ३१. , दूष्यगणि १६. " मंगु ३२. , देवर्द्धिगणि -जैनदर्शन : मनन और मीमांसा, पृ. ६६१, ६६२ तीन प्रधान परम्पराएं१. गणधर-वंश। २. वाचक-वंश ३. युग-प्रधान। आचार्य सुहस्ती तक के आचार्य गणनायक और वाचनाचार्य दोनों होते थे। वे गण की सार-सम्भाल और गण की शैक्षणिक व्यवस्था-इन दोनों उत्तरदायित्वों को निभाते थे। आचार्य सहस्ती के बाद ये कार्य विभक्त हो गए। चारित्र की रक्षा करने वाले 'गणाचार्य' और श्रुतज्ञान की रक्षा करने वाले वाचनाचार्य' कहलाए। गणाचार्यों की परम्परा (गणधरवंश) अपने-अपने गण के गुरुशिष्य क्रम से चलती है। वाचनाचार्यों और युगप्रधानों की परम्परा एक ही गण से सम्बन्धित नहीं है। जिस किसी भी गण या शाखा में एक के बाद दूसरे समर्थ वाचनाचार्य तथा युगप्रधान हुए हैं, उनका क्रम जोड़ा गया है। आचार्य सुहस्ती के बाद भी कुछ आचार्य गणाचार्य और वाचनाचार्य-दोनों हुए हैं। जो आचार्य विशेष लक्षण-सम्पन्न और अपने युग में सर्वोपरि प्रभावशाली हुए, उन्हें युगप्रधान माना गया। वे गणाचार्य और वाचनाचार्य दोनों में से हए हैं। हिमवंत की स्थविरावलि के अनुसार वाचक-वंश (विद्याधरवंश) की परम्परा इस प्रकार है१. आचार्य सुहस्ती ११. आचार्य सिंह २. , बहुल-बलिस्सह १२. , स्कन्दिल ३. , उमास्वाति १३. , हिमवन्त " श्याम १४. , नागार्जुन ,, शांडिल्य १५. , भूतदिन्न " समुद्र १६. , लोहित्य ७. " मंगु १७. , दूष्यगणी ८. , नन्दिल १८. , देववाचक (देवर्द्धिगणी) ९. , नागहस्ती १९. , कालक (चतुर्थ) १०. , रेवतीनक्षत्र २०. " सत्यमित्र। -जैन दर्शन : मनन और मीमांसा, पृष्ठ ९३, ९४) स्थापनाकुल-स्थाप्य (निषिद्ध) कुल। विशिष्ट कुल। 3 १. स्थापनाकुल : पारिहारिक कुल २. स्थापनाकुल के प्रकार ३. स्थापनाकुल में प्रवेश का निषेध ० भिक्षानयन के अनर्ह ४. कुलों को स्थापित करने की विधि ५. स्थापनाकुलों में गीतार्थ ही क्यों ? ६. आहार-ग्रहण की सामाचारी | ७. अनेक गच्छों के साथ सामाचारी Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापनाकुल ६४४ आगम विषय कोश-: १. स्थापनाकुल : पारिहारिक कुल जो एक क्षेत्र में जुगुप्सित माने जाते हैं, वे ही अन्य क्षेत्र में ठप्पा कुला ठवणाकुला अभोज्जा इत्यर्थः, साधु- अजुगुप्सित भी हो सकते हैं। यथा-सिंधु में धोबी कुल। ठवणाए वा ठविजंति त्ति ठवणाकुला।(नि ४/२१ की चू) लोकोत्तर स्थापनाकुल के दो प्रकार हैंजो स्थाप्य-अभोज्य कुल है, वह स्थापनाकुल है। अथवा १. वसति से सम्बद्ध-उपाश्रय के पास वाले सात घर संबद्ध कहलाते हैं। वहां से आहार-पानी नहीं लेना चाहिए। गीतार्थ द्वारा स्थापित विशिष्ट कुल स्थापनाकुल है। २. असम्बद्ध-दानश्रद्धी (यथाभद्र दानरुचि), अणुव्रती सम्यगदृष्टि गुरु-ग्लान-बालादीनां यत्र प्रायोग्यं लभ्यते तानि और अविरतसम्यग्दृष्टि के कुल गीतार्थसंघाटक के प्रवेश के सिवाय कुलानि परिहारिकाण्युच्यन्ते, एकं गीतार्थसङ्घाटकं मुक्त्वा । शेष सब साधुओं के लिए स्थाप्य-निषिद्ध हैं क्योंकि इनमें एषणादोषों शेषसङ्घाटकानां परिहारमर्हन्तीति व्युत्पत्तेः। यद्वा परिहारि- की संभावना रहती है। मिथ्यादृष्टिभावित, मामाक (मेरे घर में काणि नाम कुत्सितानि जात्यादिजुगुप्सितानीति भावः। श्रमण न आएं-इस भावना से भावित) और अप्रीतिकर (जहां (बृभा २६९६ की वृ) प्रविष्ट होने पर अप्रीति उत्पन्न हो) कुल सर्वथा स्थाप्यकुल हैं। जहां गुरु, ग्लान, शैक्ष आदि के प्रायोग्य द्रव्य उपलब्ध हो, जो कुल लोक में जुगुप्सित/निंदित हैं, उनका परिहार करने वे कुल पारिहारिक कहलाते हैं। उन कुलों में एक गीतार्थसंघाटक से तीर्थ की वृद्धि होती है, यश बढ़ता है। के अतिरिक्त शेष संघाटकों के प्रवेश का परिहार-निषेध होता है। ३. स्थापनाकुल में प्रवेश का निषेध अथवा जाति आदि से जुगुप्सित कुल पारिहारिक कुल हैं। जेभिक्खूठवणकुलाइं अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय २. स्थापना कुल के प्रकार पुव्वामेव पिंडवाय-पडियाए अणुप्पविसति॥आवज्जइ ठवणाकुला तु दुविधा, लोइयलोउत्तरा समासेणं। मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं॥ (नि ४/२१, ११८) इत्तरिय आवकहिया, दुविधा पुण लोइया हुंति॥ जो भिक्षु स्थापनाकुलों की जानकारी, पृच्छा और गवेषणा सूयग-मतग-कुलाइं, इत्तरिया जे य होंति णिज्जूढा। किए बिना पिंडपात की प्रतिज्ञा से उनमें प्रवेश करता है, वह जे जत्थ जुंगिता खलु, ते होंति आवकहिया तु॥ लघुमासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। दुविहा लोउत्तरिया, वसधी संबद्ध एतरा चेव। अयसो पवयणहाणी, विप्परिणामो तहेव य दुगुंछा। सत्तघरंतर जाव त, वसधीतो वसधिसंबद्धा॥ लोइय-ठवणकलेसं, गहणे आहारमादीणं॥ दाणे अभिगमसड्ढे, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते। मामाए अचियत्ते य एतरा होंति णायव्वा॥ आयरिय-बालवुड्डा, खमग-गिलाणा महोदरा सेहा। सव्वे वि परिच्चत्ता, जो ठवण-कुलाइं णिव्विसती॥ .."लोगजढे परिहरता, तित्थ-विवड्डी य वण्णो य॥ गच्छो महाणभागो, सबाल-वडोऽणकंपिओ तेणं। (निभा १६१७-१६२०, १६२२) उग्गमदोसा य जढा, जो ठवण-कुलाइं परिहरइ॥ स्थापनाकुल के दो प्रकार हैं-लौकिक और लोकोत्तर। लौकिक स्थापनाकुल के दो प्रकार हैं (निभा १६२३, १६२४, १६२६) १. इत्वरिक स्थापनाकुल-सूतक और मृतक वाले कुल निर्मूढ लौकिक स्थापना (परिहार्य/अभोज्य) कुलों में आहार आदि होते हैं-सीमित कालावधि के लिए स्थगित (भोजन आदि के ग्रहण करने से संघ का अपयश होता है, प्रवचन की हानि होती है लिए निषिद्ध) किये जाते हैं (स्थाप्य होते हैं)। (कोई प्रव्रजित नहीं होता), जो संघ के सम्मुख हैं, वे विमुख हो २. यावत्कथिक स्थापनाकुल-जिस क्षेत्र में जो कल कर्म, शिल्प जाते हैं और भिक्षाग्राही को जुगुप्सित (अस्पृश्य) मानने लगते हैं। और जाति की दृष्टि से जुगप्सित या अभोज्य होते हैं। लोकोत्तर स्थापनाकुलों में प्रवेश करने वाले मुनि द्वारा Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ स्थापनाकुल आचार्य, बाल, वृद्ध, तपस्वी, ग्लान, महोदर (बहुभोजी) और ० यदि क्षपक स्थापनाकुलों के लिए नियुक्त है और वह गुरु के शैक्ष-ये सब परित्यक्त (उपेक्षित) होते हैं। लिए प्रायोग्य आहार ग्रहण करता है, स्वयं के लिए नहीं, तो स्वयं गच्छ महानुभाग है-बाल, वृद्ध, ग्लान आदि सबका परितप्त होता है। अपने लिए ग्रहण करता है, गुरु के लिए नहीं, उपकारक है। जो स्थापनाकुलों में प्रवेश नहीं करता, वह गच्छ पर तो गुरु को हानि होती है। अनुकम्पा करता है तथा उद्गमदोषों से बच जाता है। ० क्रोधी व्यक्ति नहीं देने पर क्रोध में आकर कहता है-ऐसा तुम ० भिक्षानयन के अनह क्या देते हो, जिससे तुम्हें गर्व है कि मैं ही देता हूं। इस प्रकार के दुर्वचन से गृहस्थ को विपरिणत कर देता है। अलसं घसिरं सुविरं, खमगं कोह-माण-माय-लोहिल्लं। ० अभिमानी साधु को अल्प आहार दिया जाता है अथवा गृहस्थ कोऊहल पडिबद्धं, वेयावच्चं न कारिज्जा॥ उसको देखकर खड़ा नहीं होता है या सर्वथा नहीं देता है, तो ता अच्छइ जा फिडिओ, सइकालो अलस-सोविरे दोसा" अभिमानी पुन: उस घर में प्रवेश ही नहीं करता है। अप्पत्ते वि अलंभो, हाणी ओसक्कणा य अइभद्दे। ० यदि वह मायावी है तो प्रायोग्य आहार उपाश्रय के बाहर खाकर अणहिंडंतो य चिरं, न लहइ जं किंचि वाऽऽणेई॥ प्रान्त आहार गुरु के पास ले जाता है। अथवा प्रान्त आहार से गिण्हामि अप्पणो ता, पज्जत्तं तो गुरूण घिच्छामि।... स्निग्ध-मधुर आहार को आच्छादित कर देता है। परिताविज्जइ खमओ, अह गिण्हइ अप्पणो इयरहाणी। ० यदि लोभी व्यक्ति स्थापना कुल के लिए नियुक्त है तो वह दूध अविदिन्ने कोहिल्लो, रूसइ किं वा तुमं देसि॥ आदि मांग कर ले लेता है। अथवा गृहस्थ द्वारा अत्यन्त भावना से ऊणाणमदिन्ने. थद्धो न य गच्छए पुणो जं च। लेने पर वह उसे रोकता नहीं है। माई भद्दगभोई, पंतेण व अप्पणो छाए॥ ० कुतूहली मार्ग में नाटक आदि को देखता हुआ आहार के समय ओभासइ खीराई, दिज्जंते वा न वारई लुद्धो।..... भासइ खाराइ, दिजत वा सवार लुद्धा को अतिक्रान्त कर देता है। नडमाई पिच्छंतो, ता अच्छइ जाव फिट्टई वेला। जो सत्र और अर्थ में प्रतिबद्ध है, वह गुरु की वाचना के लोभ के सुत्तत्थे पडिबद्धो, ओसक्क-ऽहिसक्कमाईया॥ कारण कालवेला से पहले या पीछे भिक्षा के लिए जाता है तो (बृभा १५९२, १५९४-१६००) अवष्वष्क और अभिष्वष्क दोष उत्पन्न होते हैं। आलसी, बहुभक्षी, स्वपनशील, क्षपक, क्रोधी, मानी, ४. कुलों को स्थापित करने की विधि मायावी, लोभी, कुतूहली और सूत्र-अर्थ में प्रतिबद्ध-इन दशविध दाणे अभिगम सड्डे, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते। शिष्यों को आचार्य वैयावृत्त्य में नियुक्त न करे-दोषों की संभावना मामाए अचियत्ते, कुलाइं ठाविंति गीयत्था॥ से स्थापनाकुलों में न भेजे। वे दोष ये हैं कयउस्सग्गाऽऽमंतण, अपुच्छणे अकहिएगयर दोसा। ० आलसी और निद्राशील भिक्षु तब तक बैठा रहता है, जब तक ठवणकुलाण य ठवणं, पविसइ गीयत्थसंघाडो॥ भिक्षा का समय अतिक्रान्त हो जाता है। वह अकाल में भिक्षा के । गच्छम्मि एस कप्पो, वासावासे तहेव उडुबद्धे। लिए घूमता है, जिससे भिक्षा की उपलब्धि नहीं होती है। प्रायोग्य गाम-नगर-निगमेसुं, अइसेसी ठावए सड्डी॥ भिक्षा के अभाव में आचार्य के स्वास्थ्य की हानि होती है। अत्यन्त (बृभा १५८०, १५८२, १५८३) श्रद्धावान् व्यक्ति वैयावृत्त्य करने वाले को देखकर भिक्षाकाल से गीतार्थ (क्षेत्रप्रत्युपेक्षक) दानश्रद्धावान्, श्रावक, सम्यक्त्वी, पहले ही भिक्षा निष्पादित अथवा स्थापित कर देता है। मिथ्यात्वी, मामाक (मेरे घर मत आओ) और अप्रीतिकर कुलों को ० स्थापनाकुलों (वैयावृत्त्य) के लिए यदि बहुभक्षी नियुक्त है, तो स्थापित करते हैं-ये कुल गीतार्थसंघाटक के प्रवेशयोग्य हैं, ये कुल वह पहले अपने प्रायोग्य पर्याप्त भिक्षा को ग्रहण करके फिर गुरु सर्वथा प्रवेशयोग्य नहीं हैं-इस रूप में व्यवस्थापित करते हैं। के लिए ग्रहण करता है। कायोत्सर्ग (आवश्यक) सम्पन्न करने के पश्चात् गीतार्थ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापनाकुल ६४६ आगम विषय कोश-; साधु सब साधुओं को आमन्त्रित करता है-आर्यो! आओ, अब आचार्य स्थापनाकलों का प्रवर्तन करेंगे। सब साधु गरु के पास आते हैं, तब आचार्य क्षेत्र-प्रत्युपेक्षकों से पूछते हैं-बोलो, हमें किन कुलों में प्रवेश करना है और किन कुलों में नहीं? यदि आचार्य इन कुलों के बारे में नहीं पूछते हैं अथवा पूछने पर प्रत्युपेक्षक उत्तर नहीं देते हैं तो दोनों ही दोषी हैं। आचार्य क्षेत्र-प्रत्युपेक्षक द्वारा बताए गए अभिगृहीतमिथ्यात्वी, मामाक और अप्रीतिकर कुलों में जाने का सर्वथा निषेध करते हैं। दानश्राद्ध आदि कुलों की स्थापना करते हैं-उन कुलों में गीतार्थ संघाटक ही प्रवेश कर सकता है। ___ वर्षावास और ऋतुबद्ध काल में ग्राम-नगर-निगम में स्थित साधुओं के गच्छ में अतिशायी दानश्रद्धावान् कुलों की स्थापना की जाती है-यह संघीय आचार व्यवस्था है। ५. स्थापनाकुलों में गीतार्थ ही क्यों? किं कारण चमढणा, दव्वखओ उग्गमो वि य न सुज्झे। गच्छम्मि नियय कजं, आयरिय-गिलाण-पाहुणए॥ साहति य पियधम्मा, एसणदोसे अभिग्गहविसेसे। एवं तु विहिग्गहणे, दव्वं वर्ल्डति गीयत्था॥ (बृभा १५८४, १६०२) शिष्य ने पूछा-गुरुदेव ! स्थापनाकुलों में एक गीतार्थ संघाटक ही क्यों जा सकता है? आचार्य ने कहा० अन्य संघाटकों के प्रवेश से वे कुल उद्विग्न हो सकते हैं। ० स्निग्ध और मधुर पदार्थों की कमी हो सकती है। ० उद्गम आदि दोषों की शुद्धि नहीं रह सकती। ० संघ में आचार्य, ग्लान और अतिथि के प्रायोग्य द्रव्य की निश्चित अपेक्षा होती है, वह पूर्ण नहीं हो सकती। प्रियधर्मा गीतार्थ साधु गृहस्थ को म्रक्षित, निक्षिप्त आदि एषणा के दोषों का बोध देता है तथा जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक के अभिग्रहों का अवबोध कराता है। इस विधि से आहार ग्रहण करने से गृहस्थ की श्रद्धा बढ़ती है और गीतार्थ के द्रव्य की वृद्धि होती है। ६. आहार-ग्रहण की सामाचारी संचइयमसंचइयं, नाऊण असंचयं तु गिण्हंति। संचइयं पण कज्जे, निब्बंधे चेव संतरियं॥ दव्वप्पमाण गणणा, खारिय फोडिय तहेव अद्धा य। संविग्ग एगठाणे. अणेगसाहस पन्नरस॥ (बृभा १६०९, १६११) ___ आहार-प्रायोग्य द्रव्य के दो प्रकार हैंसंचयिक-घृत, गुड़ आदि और असंचयिक-दुग्ध, दधि, आदि। गीतार्थ मुनि स्थापनाकुलों में असञ्चयिक द्रव्य पर्याप्त जानकर ग्रहण करते हैं। किन्तु सञ्चयिक द्रव्य ग्लान आदि प्रयोजनों से ग्रहण करते हैं। गृहस्थ का अत्यन्त आग्रह होने पर अग्लान के लिए सान्तरित ग्रहण करते हैं। अमुक स्थापनाकुल की रसवती में शालि, मूंग आदि कितने प्रमाण में पकाये जाते हैं? गिनने योग्य घृतपल आदि का, लवणसंस्कृत व्यंजन और मिर्च, जीरक आदि युक्त स्फोटित द्रव्यों का प्रमाण कितना है? आहार का समय कौन-सा है?-इन सबको जानकर एकं संविग्न संघाटक उस कुल में प्रवेश करता है। अनेक संघाटक प्रविष्ट होने से आधाकर्म आदि पन्द्रह उदगमदोषों की संभावन रहती है (अध्यवपरक का मिश्रजात में अन्तर्भाव होने से उदगम दोष पन्द्रह हैं)। ७. अनेक गच्छों के साथ सामाचारी एगो व होज्ज गच्छो, दोन्नि व तिन्नि वठवणा असंविग्गे" संविग्गमणुन्नाए, अइंति अहवा कुले विरिंचंति। अन्नाउंछ व सहू, एमेव य संजईवग्गे॥ एवं तु अन्नसंभोइआण संभोइआण ते चेव। जाणित्ता निब्बंधं, वत्थव्वेणं स उ पमाणं ॥ __ (बृभा १६१५-१६१७) विवक्षित क्षेत्र में एक, दो या तीन गच्छ हो सकते हैं। जहां अनेक गच्छ हों, वहां श्राद्धकलों में यदि असंविग्न जाते हैं तो उन कुलों की स्थापना कर मुनि उनमें प्रवेश न करें। उस क्षेत्र में पूर्वस्थित साधु असाम्भोजिक संविग्न हों तो आगंतुक संविग्न साधु उनकी अनुज्ञा प्राप्त होने पर स्थापनाकुलों में प्रवेश करें। वास्तव्य मुनि अज्ञात उंछ की गवेषणा करें। यदि वे असमर्थ हों, तो उन कुलों का विभाग करें। यदि आगंतक मनि सहिष्णु-समर्थ शरीर वाले हों तो अज्ञात उंछ की गवेषणा करें। यही विधि साध्वीवर्ग के लिए है। Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ यदि वास्तव्य साधु साम्भोजिक हैं, तब वे स्वयं ही आगंतुकों के लिए स्थापनाकुलों से आहार- पानी लाकर दें । गृहस्थ का प्राघूर्ण साधु के लिए आग्रह हो, तब वास्तव्य साधु आगंतुक संघाटक को साथ लेकर जाए। आगंतुक साधु वहां यह न कहे कि अहो! कितना प्रचुर द्रव्य दिया जाता है? कितना द्रव्य ग्राह्य या कल्पनीय है - इसमें वास्तव्य साधु ही प्रमाण है । स्वप्न- -अर्द्ध सुप्तावस्था में जागृत मन की प्रवृत्ति विशेष । पूर्व दृष्ट, श्रुत अथवा अनुभूत वस्तु या विचार की सुप्तजागृत अवस्था में दृश्यरूप में अभिव्यक्ति । १. स्वप्न उत्पाद के प्रकार २. स्वप्न : मन का विषय * स्वप्नदर्शन : चित्तसमाधि- हेतु द्र चित्तसमाधिस्थान * प्रश्नप्रश्न (स्वप्न में विद्या का अवतरण ) द्र मंत्रविद्या ३. स्वप्नभावना अध्ययन का प्रतिपाद्य ४. किसकी माता ? कितने स्वप्न ? १. स्वप्न उत्पाद के प्रकार आहातच्च पदाणे, चिंता विवरीय तह य अव्वत्तो । पंचविहो खलु सुमिणो, परूवणा तस्सिमा होइ ॥ पाएण अहातच्चं, सुमिणं पासंति संवुडा समणा । इयरे गिही त भतिता, जं दिट्टं तं तहातच्चं ॥ पयतो पुण संकलिता, चिंता तण्हाइ तस्स दगपाणं । मेज्झस्स दंसणं खलु, अमेज्झ मेज्झं य विवरीतं ॥ सरति पडिबुद्धो, जं ण वि भावेति पस्समाणो वि। एसो खलु अव्वत्तो, पंचसु विसएसु णायव्वो ॥ (निभा ४३००-४३०३) स्वप्न उत्पाद के पांच प्रकार हैं १. यथातत्त्व - जो स्वप्न जिस रूप में देखा गया है, उसी रूप में घटित होता है, वह यथातत्त्व स्वप्न है। ऐसा स्वप्न प्रायः संवृत अनगार ही देखते हैं। पार्श्वस्थ और गृहस्थ यथातत्त्व स्वप्न देख भी सकते हैं, नहीं भी देखते । २. प्रतान – इसमें शृंखलावत् स्वप्न-परम्परा चलती है। ३. चिंता - जागृत अवस्था में जो चिंतन किया, उसे स्वप्न में ६४७ स्वप्न देखना । यथा - प्यास में पानी पीने का चिंतन किया, स्वप्न में पानी पीते हुए देखा। ४. विपरीत - इसमें दृष्ट स्वप्न का विपरीत फल मिलता है। शुचि-दर्शन का फलित अशुचि पदार्थ की प्राप्ति और अशुचिदर्शन का फलित होता है- शुचि पदार्थ की प्राप्ति । ५. अव्यक्त - जागने के पश्चात् जो स्वप्न याद नहीं रहता है। अथवा याद रहते हुए भी जिसका अर्थ ज्ञात नहीं होता है, वह अव्यक्त स्वप्न है। यह पांचों इन्द्रियविषयों में संभव है । अथवा इन्द्रियविषय प्रायः सब स्वप्नों के विषय बनते हैं। (स्वप्न दर्शन का अर्थ है - स्वप्नस्य - स्वापक्रियानुगतार्थविकल्पस्य दर्शनं - अनुभवनम् - शयनक्रियाअनुगत अर्थविकल्प का अनुभव करना। इसके पांच प्रकार हैं १. यथातत्त्व - इसके दो भेद हैं- १. दृष्टार्थअविसंवादी - किसी ने स्वप्न में देखा कि किसी ने मुझे हाथ में फल दिया है। जागृत अवस्था में उसी रूप में हाथ में फल देखता हैं । २. फलअविसंवादी - कोई स्वप्न में अपने को वृषभ, हाथी आदि पर आरूढ़ देखता है। वह जागने पर कालांतर में सम्पदा प्राप्त करता विशिष्ट संवृतत्वयुक्त सर्वव्रती अनगार चैतसिक निर्मलता के कारण यथार्थ स्वप्न देखता है और देवता के अनुग्रह के कारण भी सत्य स्वप्नदर्शन होता है । संवृतासंवृत और असंवृत व्यक्ति का स्वप्नदर्शन यथार्थ भी हो सकता है, अन्यथा भी हो सकता है। २. प्रतान - विस्तृत रूप में होने वाला स्वप्नदर्शन। यह यथार्थ और अयथार्थ - दोनों प्रकार का होता है। ३. चिन्तास्वप्न - जागृत अवस्था में किये गए अर्थचिन्तन का संदर्शनात्मक स्वप्न । ४. तद्विपरीत- इसमें जैसी वस्तु देखी जाती है, जागने पर उसके विपरीत अर्थ की प्राप्ति होती है। जैसे कोई व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को अशुचि से लिप्त देखता है, जागने पर शुचि पदार्थ प्राप्त करता है। अन्य अभिमत के अनुसार तद्विपरीत स्वप्न वह है, जिसमें स्वरूप से मृत्तिकास्थल आरूढ व्यक्ति स्वप्न में अपने आपको अश्वारूढ देखता है। ५. अव्यक्तदर्शन - जिसमें स्वप्नार्थ का अस्पष्ट अनुभव हो । सुप्त व्यक्ति और जागृत व्यक्ति स्वप्न नहीं देखता, सुप्तजागृत (अर्धजागृत) व्यक्ति स्वप्न देखता है। यह सुप्तता Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्न ६४८ आगम विषय कोश-२ तिहा द्रव्यनिद्रा है, दर्शनावरण कर्म का उदय है। स्वप्नदर्शन भावनिद्रा बावत्तरिं सव्वसुमिणा । अरहंतमायरो वा चक्कवट्टिमायरो है, मोहकर्म का उदय है।-भ १६/७६, ७७, ८१ वृ) वा अरहंतंसि वा चक्कहरंसि वा गब्भंवक्कममाणंसि चोद्दस २. स्वप्न : मन का विषय महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुज्झंति, तं जहा-गय वसह।" नोइंदियस्स विसओ, सुमिणं जं सुत्तजागरो पासे। वासुदेवमायरी"सत्तमहासुमिणे""बलदेवमायरो""चत्तारि सुहदुक्खपुव्वरूवं, अरिट्ठमिव सो णरगणाणं॥ महासुमिणे "मंडलियमायरोएगं महासुमिणं पासित्ताणं अक्खी बाहू फुरणादि काइओ वाइओ तु सहसुत्तं। पडिबुझति॥ (दशा ८ परि सू ४७) अह सुमिणदंसणं पुण, माणसिओ होइ दुप्पाओ॥ __ स्वप्नशास्त्र में बहत्तर स्वप्न बताये गए हैं, जिनमें बयालीस (निभा ४२९८, ४२९९) स्वप्न और तीस महास्वप्न हैं। अर्हत् और चक्रवर्ती जब गर्भ में स्वप्न मन/मतिज्ञान का विषय है। वह प्रायः सुप्तजागृत आते हैं, तब उनकी माताएं तीस महास्वप्नों में से चौदह महास्वप्न अवस्था में देखा जाता है और आगामी सुख-दुःख का निमित्त देखकर जागृत होती हैं, जैसे गज, वृषभ आदि । वासुदेव की माता होता है। जैसे मृत्यु के समय मनुष्य के पहले से ही अनिष्टसूचक सात, बलदेव की माता चार और मांडलिक की माता एक महास्वप्न उत्पात उत्पन्न होता है, जो कायिक, वाचिक और मानसिक रूप से देखकर जागृत होता है। सुख-दुःख का निमित्त बनता है। * चौदह महास्वप्न द्र तीर्थंकर ० कायिक-अक्षिस्फुरण, बाहुस्फुरण आदि। * महावीर के दस महास्वप्न द्र श्रीआको १ तीर्थंकर ० वाचिक-अविमृश्यकारी वचन। (० चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्न-चन्द्रगुप्त राजा ने रात्रि के तीसरे ० मानसिक-दुःस्वप्न दर्शन। (स्वप्नदर्शन का अचक्षदर्शन में प्रहर में सुप्तजागृत अवस्था में सोलह स्वप्न देखे और उनका अर्थ अन्तर्भाव होता है।-स्था ८/३८ की वृ) श्रुतकेवली भद्रबाहु से पूछा, जो इस प्रकार है३. स्वप्नभावना अध्ययन का प्रतिपाद्य १. राजा ने प्रथम स्वप्न में कल्पवृक्ष की भग्न शाखा को देखा...."चोद्दसवासुदिसती, इस स्वप्न का अर्थ बताते हुए आचार्य ने कहा-अब कोई राजा महासुमिणभावणज्झयणं॥ एत्थं तिंसइ सुमिणा, बायाला चेव होंति महसुमिणा। दीक्षित नहीं होगा। बावत्तरि सव्वसुमिणा, वणिज्जंते फलं तेसिं॥ २. अकाल में सूर्य अस्त होते हुए देखा। अर्थ-अब भरतक्षेत्र में किसी को केवलज्ञान प्राप्त नहीं होगा। (व्यभा ४६६५, ४६६६) ३. सच्छिद्र चन्द्रमा को देखा। अर्थ-एक धर्म अनेक मार्गों में महास्वप्नभावना अध्ययन में तीस सामान्य स्वप्न और विधान होगा। नाना पकार की सामानारी विभक्त होगा। नाना प्रकार की सामाचारी प्रवर्तित होगी। बयालीस महास्वप्न-कल बहत्तर स्वप्न तथा उनका फल प्रतिपादित ४. अट्टहास-कतहल करते हए. नाचते हए भत-प्रेतों को देखा। है। चौदह वर्ष के संयमपर्याय वाला मुनि इस आगम ग्रंथ का अर्थ-लोग साधु-गुणों से विहीन साधुओं को गुरु मानेंगे। अध्ययन कर सकता है। ५. बारह फण वाला काला सर्प देखा। ___(विशिष्ट फलसूचन की अपेक्षा से बयालीस स्वप्न हैं, अर्थ-बारह वर्ष तक दुर्भिक्ष होगा। अनेक कठिनाइयों के कारण अन्यथा स्वप्न संख्यातीत हैं। तीस महास्वप्न महत्तम फल के श्रुतपरावर्तन के अभाव में बहुत से श्रुतग्रंथ विच्छिन्न हो जाएंगे। संसूचक हैं। तीर्थंकर की माता चौदह महास्वप्न यावत् मांडलिकमाता द्रव्यलोलुप साधु हिंसाधर्म का प्ररूपण और प्रतिमाओं की स्थापना एक महास्वप्न देखती है।-भ १६/८३-९०) करवाएंगे। जो इसका निषेध और विधिमार्ग का प्ररूपण करेगा, * स्वप्ननिमित्त, स्वप्नफल द्र श्रीआको १ अष्टांगनिमित्त । उसकी अवहेलना होगी। ४. किसकी माता? कितने स्वप्न? ६. आते हुए देवविमान को लौटते हुए देखा। अर्थ-जंघाचारण .."सुमिणसत्थे बायालीसं सुमिणा, तीसं महासुमिणा- आदि लब्धिधारी साधु भरत-ऐरवत क्षेत्र में नहीं आएंगे। Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६४९ स्वप्न ७. अकुरड़ी पर कमल उगा हुआ देखा। अर्थ-ब्राह्मण आदि चारों ० स्वप्नदर्शन और मोक्ष-भगवती में चौदह ऐसे स्वप्नों का उल्लेख वर्गों में जो धर्म फैला हुआ है, वह सिमट कर प्राय: वैश्यों के हाथ है, जिन्हें देखने वाला उसी भव में अथवा दूसरे भव में सिद्धमें चला जाएगा। बहुत थोड़े लोग श्रमणसंघ की सुरक्षा करने वाले बुद्ध-मुक्त होता है। यथातथा बहुत लोग इसके प्रत्यनीक, अवर्णवादी और अपयशकारक १. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न में एक महान् अश्वपंक्ति, गजपंक्ति, होंगे, व्रत-आचार की परम्परा से बाह्य होंगे। नरपंक्ति, किन्नरपंक्ति, किंपुरुषपंक्ति, महोरगपंक्ति, गंधर्वपंक्ति ८. राजा ने जुगनू को प्रकाश करते हुए देखा। अथवा वृषभपंक्ति को देखता हुआ देखता है, उस पर आरोहण अर्थ-श्रमणगण आर्यमार्ग को छोड, केवल क्रिया का फटाटोप करता हुआ आरोहण करता है, अपने आपको आरूढ मानता/ दिखा वैश्यवर्ग में उद्योत करेगा, निर्ग्रन्थों का सत्कार कम हो जानता है, तत्क्षण ही जाग जाता है, वह उसी जन्म में सिद्ध होता जाएगा और बहुत लोग मिथ्यात्वरागी हो जाएंगे। है यावत् सब दुःखों का अंत करता है। ९. शुष्क सरोवर को देखा, केवल दक्षिण दिशा में थोड़ा जल भरा २. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न में पूर्व से पश्चिम तक आयत, समुद्र के है और वह भी स्वच्छ नहीं है। दोनों छोरों को छूती हुई एक बड़ी रस्सी को देखता हुआ देखता है, अर्थ-जिस-जिस भूमि में तीर्थंकरों के पांच कल्याण (च्यवन, उसे समेटता हुआ समेटता है, मैंने समेट ली है-ऐसा मानता है, जन्म, दीक्षा, कैवल्य और निर्वाण) हुए थे, वहां-वहां धर्म की तत्क्षण ही जाग जाता है, वह उसी भव में मुक्त होता है। हानि होगी। दक्षिण-पश्चिम में थोड़ा धर्म रहेगा और वह भी ३. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न में पूर्व से पश्चिम तक प्रसृत, दोनों ओर अनेक मतवादों और पारस्परिक संघर्षों से पूर्ण होगा। से लोकांत से स्पृष्ट एक दीर्घ रज्जु को देखता है, उसे छिन्न करता १०. कुत्ते को स्वर्णथाल में खीर खाते हुए देखा। . है, अपने द्वारा छिन्न जानता है, तत्काल ही जागता है, वह उसी अर्थ-उत्तम कुलों की लक्ष्मी नीच कुलों में चली जाएगी। उत्तम भव में मुक्त हो जाता है। व्यक्ति अपने कुलक्रममार्ग को छोड़ देंगे। ४. स्त्री या पुरुष स्वप्न में कृष्ण, नील, रक्त, पीत अथवा श्वेत वर्ण ११. बन्दर को हाथी पर आरूढ़ देखा। वाले सूत्र को देखता है, विमुग्ध होता है, तत्क्षण जाग जाता है, अर्थ-आचारहीम व्यक्तियों को उच्च पद मिलेंगे। वह उसी भव में मुक्त हो जाता है। १२. सागर को मर्यादा तोड़ते हुए देखा। ५. स्वप्न में लोहे, तांबे, रांगे या शीशे की महान् राशि पर स्वयं को अर्थ-उत्तम लोग मर्यादाहीन होकर कार्य करेंगे। आरूढ देखने वाला दूसरे भव में मुक्त हो जाता है। १३. एक विशाल रथ में बछड़े जुते हुए देखे। ६. स्वप्न में रजत, स्वर्ण, रत्न और वज्र की राशि पर अपने को अर्थ-बालक वैराग्यपरायण होंगे। वृद्ध चारित्र-ग्रहण नहीं करेंगे। आरूढ देखने वाला उसी भव में मुक्त हो जाता है। जो बाल दीक्षित होंगे, वे लज्जावान् और गुरुकुलवास को नहीं ७. जो स्वप्न में एक महान् तृणराशि, काष्ठ, पत्र, छाल, तुष, भूसे, छोड़ने वाले होंगे। गोबर अथवा कचवर के विपुल ढेर को बिखेर देता है, वह उसी १४. महामूल्यवान् रत्न को तेजहीन देखा। अर्थ-भरत-ऐरवत भव में मुक्त हो जाता है। क्षेत्र के श्रमण चारित्र-तेज से विहीन होंगे। वे कलहकारी और ८. स्वप्न में एक महान् शरस्तंभ, वीरणस्तंभ, वंशीमूलस्तंभ या अविनीत होंगे, शुद्धमार्गप्ररूपकों से मात्सर्य रखेंगे। वल्लीमूलस्तंभ को देखकर उसे उन्मूलित कर देने वाला उसी भव १५. राजकुमार को वृषभारूढ़ देखा। में मुक्त हो जाता है। अर्थ-क्षत्रिय राज्यभ्रष्ट होंगे, म्लेच्छ राज्य करेंगे। ९. स्वप्न में क्षीर, दधि, घृत या मधु के महान् कुंभ को देखकर १६. दो काले हाथियों को युद्ध करते देखा। उसे ऊपर उठाने वाला उसी भव में मुक्त होता है। अर्थ–पुत्र पिता की और शिष्य गुरुजनों की सेवा नहीं करेंगे। १०. सुरा, सौवीर, तैल या वसा के बड़े घड़े को देखकर उसका समय पर वर्षा नहीं होगी।-व्यवहारचूलिका भेदन करने वाला दूसरे भव में मुक्त हो जाता है। Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय ६५० आगम विषय कोश-२ ११. स्वप्न में एक कुसुमित महापद्मसरोवर को देखकर उसमें अवगाहन करने वाला उसी भव में मुक्त हो जाता है।। १२. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न (के अवसान) में हजारों ऊर्मियों से तरंगित एक महासागर को देखता है, उसे तैरता है, मैं तर गया हूं-ऐसा अपने को मानता है, तत्काल ही जाग जाता है, वह उसी भव में मोक्ष को प्राप्त होता है। १३. स्त्री या पुरुष स्वप्न में सर्वरत्नमय एक महाभवन को देखता है, उसमें अनुप्रविष्ट होता है, मैं भवन में प्रविष्ट हो गया हूं-ऐसा अपने को जानता है, तत्क्षण ही जाग जाता है, वह उसी भवग्रहण से सिद्ध होता है। १४. स्वप्न में सर्वरत्नमय एक महाविमान को देखता है, उसमें आरोहण करता है, मैं विमान में आरूढ हूं-ऐसा अपने को जानता है और उसी क्षण प्रतिबुद्ध हो जाता है, वह उसी भव में सिद्ध हो जाता है।-भ १६/९२-१०५ वृ) स्वाध्याय-श्रुतग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन। १. स्वाध्याय के प्रकार २. अस्वाध्यायिक के प्रकार ३. अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय वर्जन ४. अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय से हानि ५. अस्वाध्यायिक-परिज्ञान हेतु कालप्रेक्षा ६. अस्वाध्यायिक में स्वाध्यायकरण के अपवाद ७. कालिक-उत्कालिक श्रुतस्वाध्याय-काल ८. व्यतिकृष्ट काल (उद्घाटा पौरुषी): स्वाध्याय-विकल्प ९. अकाल में श्रुतस्वाध्याय : पृच्छा परिमाण ___ * उत्सारकल्प में अकाल वर्जन नहीं द्र उत्सारकल्प १०. संध्याकाल में स्वाध्याय-निषेध ११.संध्याओं में स्वाध्याय-निषेध क्यों? १२. अकाल में आवश्यक का निषेध क्यों नहीं? १३. अकाल स्वाध्याय से ज्ञानाचार की विराधना १४. पर्वदिनों में स्वाध्याय का निषेध क्यों? १५. स्वाध्यायभूमि : नैषेधिकी, निषद्या, अभिशय्या १६. नैषेधिकी और अभिशय्या में जाने का हेतु १७. अभिशय्या का नायक कौन? १८. अभिशय्या में गमनागमन-विधि १९. स्वाध्यायभूमि : विहारभूमि ० विहारभूमि में एकाकी गमननिषेध, अपवाद ० साध्वी की विहारभूमि संबंधी सामाचारी २०. स्वाध्यायभूमि : आगाढ-अनागाढ ० आगाढयोग-अनागाढयोग * उपधान : आगाढ-अनागाढश्रुत द्र आचार |२१. योगवाही : भिक्षाचर्या से पूर्व कायोत्सर्ग |२२. विकृति के लिए योगनिक्षेप नहीं २३. योगवहन में विकृति-वर्जन के विकल्प |२४. उत्थानश्रुत आदि ग्रन्थों का अतिशय | २५. विशिष्ट ग्रंथ-परावर्तन : देवता की उपस्थिति |२६. स्वाध्याय आदि से अतिशय निर्जरा २७. प्रकीर्णग्रन्थों के स्वाध्याय से विपुल निर्जरा * श्रुतस्वाध्याय की निष्पत्ति द्र श्रुतज्ञान * वाचना या स्वाध्याय से लाभ . द्रवाचना १. स्वाध्याय के प्रकार ..."वायण-पुच्छण-परियट्टणाणुपेह-धम्माणुओगचिंताए।.... (आचूला १/४२) स्वाध्याय के पांच प्रकार हैं-वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मानुयोगचिन्ता। (द्र श्रीआको १ स्वाध्याय) २. अस्वाध्यायिक के प्रकार असज्झायं तु दुविधं, आतसमुत्थं च परसमुत्थं च। जं तत्थ परसमुत्थं, तं पंचविहं तु नायव्वं ॥ संजमघाउप्पाते, सादिव्वे वुग्गहे य सरीरे।... (व्यभा ३१०१, ३१०२) अस्वाध्यायिक के दो प्रकार हैं-आत्मसमुत्थ (शरीर सम्बन्धी) और परसमुत्थ। परसमुत्थ अस्वाध्यायिक के पांच प्रकार हैं-संयमोपघाती, औत्पातिक, देवसंबंधी, व्युद्ग्रहसंबंधी तथा औदारिक शरीर संबंधी। * अस्वाध्यायिक के भेदों का विवरण द्र श्रीआको १ अस्वाध्याय ३. अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय वर्जन नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा असज्झाइए सज्झायं करेत्तए॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गथीण वा Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ अप्पणी असझाइए सज्झायं करेत्तए । कप्पइ हं अण्णमण्णस्स वायणं दलइत्तए ॥ (व्य ७/१७, १९) साधु अथवा साध्वी अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय नहीं कर सकते। वे अपने शरीरसंबंधी अस्वाध्यायिक होने पर स्वाध्याय नहीं कर सकते, परस्पर वाचना दे सकते हैं । ४. अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय से हानि उम्मायं च लभेज्जा, रोगायकं च पाउणे दीहं । तित्थकर भासियाओ, खिप्पं धम्माओ भंसेज्जा ॥ इह लोए फलमेयं, परलोए फलं न देंति विज्जाओ । आसायणा सुयस्स य, कुव्वति दीहं तु संसारं ॥ (निभा ६१७७, ६१७८) अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करने वाला उन्मत्त हो सकता है, दीर्घकालिक रोग और आतंक से ग्रस्त हो सकता है, अर्हत्भाषित धर्म से शीघ्र भ्रष्ट हो सकता है - यह इहलौकिक दुष्परिणाम है। ज्ञानाचार की विराधना करने वाला ज्ञानावरणीय कर्म का बंध करता है, जिसके उदय से परलोक में विद्याएं साधने पर भी सिद्ध नहीं होती हैं । श्रुत की आशातना संसार को बढ़ाती है । (अस्वाध्याय में स्वाध्याय से श्रुतज्ञान की अभक्ति, लोकविरुद्ध व्यवहार आदि दोष उत्पन्न होते हैं । — श्रीआको १ अस्वाध्याय) ५. अस्वाध्यायिक - परिज्ञान हेतु कालप्रेक्षा एसो उ असज्झाओ, तव्वज्जिय झाओ तत्थिमा जतणा । सज्झाइए वि कालं, कुणति अपेहित्तु चउलहुगा ॥ पंचविधमसज्झायस्स, जाणणट्ठाय पेहए कालं ..... (व्यभा ३१५३, ३१५५) अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय वर्जित है । स्वाध्यायिक में भी यतना— कालप्रतिलेखना किए बिना स्वाध्याय करने वाला चतुर्लघु प्रायश्चित्त का भागी होता है। पंचविध अस्वाध्यायिक के परिज्ञान के लिए कालप्रेक्षा अनिवार्य है । * कालप्रतिलेखना विधि द्र श्रीआको १ कालविज्ञान ६. अस्वाध्यायिक में स्वाध्यायकरण के अपवाद बितियागाढे सागारियादि कालगत असति वुच्छेदे । एतेहिं कारणेहिं, जतणाए कप्पती काउं ॥ ६५१ स्वाध्याय यथा स्कन्दके चमरे च प्रत्यासन्ने अनुद्दिष्टमपि स्कन्दकोद्देशं च रात्रौ रात्रौ त्रीन् वारान् दिवसानस्वाध्यायिके ऽपि तदनुग्रहाय कर्षयन्ति । तथा कारणवशेन प्रतिबद्धायां शय्यायां स्थितस्तत्र सागारिकस्य शय्यातरस्य प्रतिचारणाशब्दं श्रुत्वा मा शृणुयात् एनमनिष्टं शब्दमिति कृत्वा यत् कालिकमुत्कालिकं वा परिजितं केवलं स तदस्वाध्यायिकेऽपि पठति । आदिग्रहणेन कदाचित् यथाच्छन्दस्योपाश्रये कारणेन स्थितास्ततो यथामतिविकल्पितां तस्य सामाचारीं मा शृण्वामेति तत्प्रतिघातार्थमस्वाध्यायिके ऽपि स्वाध्यायं कुर्वन्ति इति परिग्रहः । तथा कालगते जागरणनिमित्तं मेघनादादिकमध्ययनमस्वाध्यायिके ऽपि परावर्त्यते । अधुना गृहीतं किमप्यध्ययनं यच्च यस्य समीपे गृहीतं स मरणमुपागतः अन्यत्र च तन्न विद्यते ततो माभूत्तद्व्यवच्छेद इत्यस्वाध्यायिकेऽपि तत्परावर्त्यते । (व्यभा ३२२१ वृ) - आगाढयोग-वहनकाल में अस्वाध्यायिक में भी यतनापूर्वक स्वाध्याय किया जा सकता है। यथा • स्कन्दक और चमर के प्रत्यासन्न होने पर उनके अनुग्रह के लिए अनुद्दिष्ट स्कन्दक- उद्देशक का स्वाध्याय रात्रि में तीन बार तथा दिन में अस्वाध्यायिक में भी किया जा सकता है। • शय्यातर से प्रतिबद्ध वसति में उसके प्रतिचारणा संबंधी शब्द श्रवण से बचने के लिए परिचित कालिक या उत्कालिक श्रुत का अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय किया जा सकता है। • कारणवश यथाच्छन्द श्रमण के उपाश्रय में स्थित मुनि उसकी स्वच्छंद विकल्पित सामाचारी के श्रवण के प्रतिघात के लिए अस्वाध्याय में स्वाध्याय कर सकता है। O कोई मुनि कालधर्म को प्राप्त हो जाए तो रात्रिजागरण के निमित्त मेघनाद आदि अध्ययनों का अस्वाध्यायिक में परावर्तन किया जा सकता है। • तत्काल-गृहीत अध्ययन का प्रदाता यदि कालगत हो जाए और वह अध्ययन दुर्लभ हो तो उसकी अव्यवच्छित्ति के लिए अस्वाध्यायिक में भी उसका परावर्तन किया जा सकता है 1 ७. कालिक - उत्कालिक श्रुतस्वाध्याय-काल जे भिक्खूचाउकालपोरिसिं सज्झायं उवातिणावेति, उवातिणावेंतं वा सातिज्जति ॥ (नि १९/१३) Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय ६५२ आगम विषय कोश-२ पुव्वगहितं च नासति, अपुव्वगहणं कओ सि विकहाहिं। (जिन आगमों का स्वाध्याय जिस काल में निषिद्ध है, वह दिवस-निसि-आदि-चरिमासु चतुसु सेसासु भइयव्वं॥ काल उन आगमों के लिए व्यतिकृष्ट काल है। दिन और रात की दिवसस्स पढमचरिमासु णिसीए य पढमचरिमासु य- दूसरी तथा तीसरी पौरुषी में कालिकश्रुत का स्वाध्याय निषिद्ध है। एयासु चउसु वि कालियसुयस्स गहणं गुणणं च करेग्ज। निर्ग्रन्थ की निश्रा का आपवादिक विधान इसलिए है कि सेसासुत्ति दिवसस्स बितियाए उक्कालियसुयस्स गहणं करेति साधु-साध्वियों की परस्पर वाचना या स्वाध्याय के लिए दिन का अत्थं वा सुणेति। ततियाए वा भिक्खं हिंडइ, अह ण दूसरा-तीसरा प्रहर उचित है।) हिंडति तो उक्कालियं पढति, पुव्वगहियमुक्कालियं वा ९. अकाल में श्रुतस्वाध्याय : पृच्छा परिमाण गुणेति, अत्थं वा सुणेइ। णिसिस्स बिइयाए एसा चेव जे भिक्खू कालियसुयस्स परं तिण्हं पुच्छाणं भयणा सुवइ वा। णिसिस्स ततियाए णिहाविमोक्खं करेइ, पुच्छति.."दिट्ठिवायस्स परं सत्तण्डं पुच्छाणं उक्कालियं गेण्हति गुणेति वा। (निभा ६०७१ चू) पुच्छति ॥ (नि १९/९, १०) जो भिक्षु चार काल की स्वाध्यायपौरुषी नहीं करता, वह पुच्छाणं परिमाणं, जावतियं पुच्छति अपुणरुत्तं । चतुर्लघु प्रायश्चित्त का भागी होता है। पुच्छेज्जाही भिक्खू, पुच्छ णिसजाए चउभंगो॥ जो विकथाओं में प्रमत्त रहता है, वह गुणन-स्मरण के अहवा तिण्णि सिलोगा, ते तिसुणव कालिएतरे तिगा सत्त। अभाव में पूर्व गृहीत श्रुत को नष्ट कर देता है तथा अपूर्वश्रुत का .. जत्थ य पगयसमत्ती, जावतियं वाचिओ गिण्हे ॥ ग्रहण नहीं कर पाता है। नयवातसुहुमयाए, गणिते भंगसुहुमे णिमित्ते य। कालिकश्रुत के ग्रहण-गुणन के चार काल हैं- दिन का गंथस्स य बाहल्ला, सत्त कया दिद्रिवातम्मि॥ प्रथम व अंतिम प्रहर तथा रात्रि का प्रथम व अंतिम प्रहर। (निभा ६०६०, ६०६१, ६०६३) मुनि दिन के दूसरे प्रहर में उत्कालिक श्रुत का ग्रहण अथवा अर्थश्रवण करता है। तीसरे प्रहर में भिक्षाटन करता है, संध्याकाल और अस्वाध्याय काल में कालिकश्रुत की तीन अन्यथा उत्कालिकश्रुत पढ़ता है या पूर्वगृहीत उत्कालिकत का से अधिक तथा दृष्टिवाद की सात से अधिक पृच्छा (प्रश्न) करने गुणन/स्मरण/परावर्तन करता है या अर्थ सुनता है। वाला भिक्षु प्रायश्चित्तभागी होता है। दिन के दूसरे प्रहर की तरह रात्रि के दूसरे प्रहर में भी अपुनरुक्त रूप से जितना पूछा जाता है, वह एक पृच्छा उत्कालिक श्रुत का ग्रहण-श्रवण करता है अथवा शयन करता है। इसके चार विकल्प हैंहै । रात्रि के तीसरे प्रहर में निद्राविमोक्ष-शयन करता है अथवा १. एक निषद्या, एक पृच्छा। ३. अनेक निषद्या, एक पृच्छा। उत्कालिकश्रुत का ग्रहण-गुणन करता है। २. एक निषद्या, अनेक पुच्छा। ४. अनेक निषद्या, अनेक पृच्छा। अथवा एक पृच्छा का परिमाण है तीन श्लोक। इस प्रकार अनुप्रेक्षा सर्वत्र अविरुद्ध है-सर्वकाल में करणीय है। कालिकश्रुत की तीन पृच्छाओं में नौ तथा दृष्टिवाद की सात ८. व्यतिकृष्टकाल (उद्घाटा पौरुषी): स्वाध्याय के विकल्प पृच्छाओं में इक्कीस श्लोक होते हैं। अथवा जहां छोटा या बड़ा नो कप्पइ निग्गंथाण वा..."विइगिटे काले सज्झायं एक प्रकरण सम्पन्न होता है, वह एक पृच्छा है। अथवा आचार्य करेत्तए॥ कप्पइ निग्गीण निग्गंथनिस्साए विइगिट्टे काले की वाचना के जितने अंश का उच्चारण या ग्रहण किया जा सकता सज्झायं करेत्तए॥ (व्य ७/१४, १६) है, वह एक पृच्छा है। साधु अथवा साध्वी व्यतिकृष्ट काल (उद्घाटा पौरुषी) में दृष्टिवाद की सात पृच्छा क्यों? नैगम आदि सात नय हैं। प्रत्येक स्वाध्याय नहीं कर सकते। साध्वियां निर्ग्रन्थ की निश्रा में व्यतिकृष्ट नय के सौ-सौ प्रकार हैं। दृष्टिवाद में नयवाद की सूक्ष्मता है। वहां काल में स्वाध्याय कर सकती हैं। भेद-प्रभेद सहित नयों तथा द्रव्यों की प्ररूपणा है। परिकर्म सूत्रों में Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६५३ स्वाध्याय गणित की सक्ष्मता है तथा एक गण काला आदि वर्ण-गंध-रस- कालादिउवयारेणं विज्जा न सिज्झए विणा देति। स्पर्शयुक्त परमाणु आदि के पर्यवविकल्पों की सूक्ष्मता है। वहां रंधे व अवद्धंसं, सा वा अण्णा वा से तहिं । अष्टांगनिमित्त का भी निरूपण है। ग्रन्थ की विशालता के कारण __ (व्यभा ३०१७, ३०१८) दृष्टिवाद की सात पृच्छाएं निर्दिष्ट हैं। काल, विनय आदि के भेद से ज्ञानाचार आठ प्रकार का है। १०. संध्याकाल में स्वाध्याय-निषेध अकाल में स्वाध्याय करने वाला ज्ञानाचार के प्रथम प्रकार की जे भिक्ख चउहिं संझाहिं सज्झायं करेति, करेंतं वा विराधना करता है। काल आदि के उपचार के बिना विद्या सिद्ध सातिज्जति, तं जहा-पुव्वाए संझाए, पच्छिमाए संझाए, नहीं होती। प्रान्त/अभद्र देवता कोई न कोई छिद्र खोजकर अकालअवरण्हे, अड्डरत्ते॥ (नि १९/८) पाठी का अवध्वंस कर सकते हैं। * ज्ञानाचार के भेद द्र श्रीआको १ आचार जो भिक्षु पूर्व सन्ध्या, पश्चिम सन्ध्या, अपराह्न और अर्धरात्रि-इन चार संध्याओं में स्वाध्याय करता है, वह प्रायश्चित्त १४. पर्वदिनों में स्वाध्याय का निषेध क्यों? का भागी होता है। जे भिक्खू चउसु महामहेसुसज्झायं करेति"-इंदमहे खंदमहे जक्खमहे भूतमहे॥"चउसु महापाडिवएसुसज्झायं ११. संध्याओं में स्वाध्याय का निषेध क्यों? करेति..-सुगिम्हयपाडिवए आसाढीपाडिवए आसोयलोए वि होति गरहा, संझासु तु गुज्झगा पवियरंति। पाडिवए कत्तियपाडिवए॥ (नि १९/११, १२) आवासग उवओगो, आसासो चेव खिन्नाणं॥ अन्नतापमादजतं. छलेज्ज अप्पिडिओ ण पण जत्तं । (निभा ६०५५) __ अद्धोदहिट्टिती पुण, छलेज जयणोवउत्तं पि॥ संध्याकाल में सूत्रपाठ करने से लोक में गर्दा होती है। (निभा ६०६६) संध्याओं में गुह्यक देव गमनागमन करते हैं। वे प्रमत्त स्वाध्यायी स्कन्दमह, इन्द्रमह, भूतमह और यक्षमह-ये चार महामह को छल सकते हैं। स्वाध्याय-विनिविष्ट चित्त वाला संध्या के हैं। इन पर्वो की क्रमश: मुख्य तिथियां हैं-चैत्र पूर्णिमा, आषाढ समय आवश्यक में उपयुक्त होता है, स्वाध्याय से श्रांत हुए चित्त पूर्णिमा (लाटदेश में श्रावणपूर्णिमा को इन्द्रमह होता है), आश्विन के लिए उस समय वह आश्वास होता है। पूर्णिमा और कार्तिक पूर्णिमा। इन पूर्णिमाओं और इनके अनन्तर समागत कृष्ण पक्ष की प्रतिपदाओं में स्वाध्याय वर्जित है। १२. अकाल में आवश्यक का निषेध क्यों नहीं? स्वाध्याय निषेध क्यों? साधु सरागता के कारण किसी भी प्रमाद जाव होमादिकज्जेसु , उभओ संझओ सुरा। से, विशेषतः महामह में प्रमत्त होता है, तब अल्पर्द्धिक प्रत्यनीक लोगेण भासिया, तेण संझावासगदेसणा॥ देव उसे छल सकते हैं। अप्रमत्त साध को अल्पर्द्धिक (अर्धसागरोपम (व्यभा ३०२६) से न्यून स्थिति वाला) देव छल नहीं सकता। अर्ध सागरोपम की दोनों संध्याओं में लोगों के आवाहन करने पर देव यज्ञ स्थिति वाले देव में इतना सामर्थ्य होता है कि वह पूर्व बद्ध वैर आदि अनुष्ठानों में ठहर जाते हैं, तब तक आवश्यक भी सम्पन्न का स्मरण कर किसी अप्रमत्त साधु को भी छल सकता है। हो जाता है। आवश्यक (प्रतिक्रमण आदि) दोनों संन्ध्याओं में (आयुर्वेद में भी अस्वाध्यायिक का उल्लेख हैअवश्य करणीय है। कृष्णेऽष्टमी तन्निधनेऽहनी द्वे, शुक्ले तथाऽप्येवमहर्द्विसन्ध्यम्। १३. अकालस्वाध्याय से ज्ञानाचार की विराधना अकालविद्युत्स्तनयित्नुघोषे, स्वतंत्रराष्ट्रक्षितिपव्यथासु॥ अट्ठहा नाणमायारो, तत्थ काले य आदिमो। श्मशानयानायतनाहवेसु, महोत्सवौत्पातिकदर्शनेषु। अकालझाइणा सो तु, नाणायारो विराधितो॥ नाध्येयमन्येषु च येषु विप्रा, नाधीयते नाशुचिना च नित्यम्॥ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय ६५४ आगम विषय कोश-२ कृष्णपक्ष की अष्टमी और कृष्णपक्ष की समाप्ति के दो दिन (चतुर्दशी और अमावस्या), इसी प्रकार शुक्लपक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णिमा, द्विसंध्या (प्रातः एवं सायंकाल), अकाल में (वर्षा ऋतु के बिना) बिजली चमकना तथा मेघगर्जन होना, अपने शरीर, अपने संबंधीजन तथा राष्ट्र और राजा के व्यथाकाल में, श्मशान में, यात्राकाल में, वधस्थान में तथा युद्ध के समय, महोत्सव तथा उत्पात (भूकम्प आदि) के दिन तथा जिन दिनों में ब्राह्मण अनध्याय रखते हों, उन दिनों में एवं अपवित्र अवस्था में अध्ययन नहीं करना चाहिए।-सुश्रुत संहिता २/९, १०) १५. स्वाध्यायभूमि : नैषेधिकी, निषद्या, अभिशय्या । ठाणं निसीहियं ति य, एगटुं जत्थ ठाणमेवेगं। चेतेंति निसि दिया वा, सुत्तत्थनिसीहिया सा तु॥ सज्झायं काऊणं, निसीहियातो निसिं चिय उवेंति। अभिवसिउं जत्थ निसिं, उति पातो तई सेज्जा॥ (व्यभा ६३०, ६३१) स्थान और नैषेधिकी एकार्थक हैं। ० स्थान-जहां स्वाध्याय-व्यापृत मुनि ठहरते हैं। ० नैषेधिकी-जहां स्वाध्याय व्यतिरिक्त शेष सब प्रवृत्तियों का निषेध होता है। दिन हो या रात, वह स्थान एकमात्र सूत्र-अर्थ के स्वाध्याय के लिए नियत होता है। साधु रात्रि में भी वहां स्वाध्याय कर वसति में आ जाते हैं। निषद्या-जहां पर स्वाध्याय के निमित्त आकर बैठते हैं। ० अभिशय्या-जिस स्थान में स्वाध्याय कर रात्रि में वहीं रहकरसोकर प्रत्यूषकाल में वसति में आते हैं। १६. नैषेधिकी और अभिशय्या में जाने का हेतु असज्झाइय पाहुणए, संसत्ते वुट्ठिकाय सुयरहसे। पढमचरमे दुगं तू , सेसेसु य होति अभिसेज्जा॥ छेदसुत-विज्जमंता, पाहुड-अविगीत-महिसदिटुंतो। इति दोसा चरमपदे, पढमपदे पोरिसीभंगो॥ (व्यभा ६४५, ६४७) अभिशय्या या नैषेधिकी में जाने के मख्यतः पांच कारण हैं-१. वसति में अस्वाध्यायिक हो। २. बहुत प्राघूर्णक आने से वसति संकीर्ण हो गई हो। ३. वसति प्राणियों से संसक्त हो गई हो। ४. वर्षा के कारण वसति के कई भाग गलित हो रहे हों। ५. श्रुतरहस्य-छेदश्रुत आदि की व्याख्या करनी हो। वसति में निशीथ, व्यवहार आदि छेदश्रुत, विद्यामंत्र और योनिप्राभृत जैसे श्रुतरहस्यों को सुनकर अपरिणामक, अतिपरिणामक आदि शिष्य अनर्थ कर सकते हैं। ० महिष दृष्टांत-एक बार एक आचार्य योनिप्राभृत नामक ग्रन्थ का एक प्रसंग पढ़ा रहे थे-अमुक-अमुक द्रव्यों के संयोग से महिष उत्पन्न हो जाता है। एक उत्प्रव्रजित अगीतार्थ साधु ने छिपकर इस वाचना को सुना, अपने स्थान पर गया, निर्दिष्ट द्रव्यों का संयोजन कर अनेक भैंसे बनाये और गृहस्थ द्वारा उन्हें बिकवा दिया। इस प्रकार श्रुतरहस्यकथन से ये दोष उत्पन्न होते हैं। वसति में अस्वाध्याय होने से सूत्र-अर्थपौरुषी की हानि होती है। अत: अस्वाध्यायिक और श्रुतरहस्य-इन दो कारणों से नैषेधिकी या अभिशय्या में तथा प्राघूर्णक आदि कारणों से अभिशय्या में जाना चाहिए। १७. अभिशय्या में नायक कौन? गंतव्व गणावच्छो, पवत्ति थेरे य गीतभिक्खू य। एतेसिं असतीए, अग्गीते मेरकहणं तु॥ मज्झत्थोऽकंदप्पी, जो दोसे लिहति लेहओ चेव।" .."भयगोरवं च जस्स उ, करेंति सयमुज्जओ जो य॥ पडिलेहणऽसज्झाए, आवस्सग दंड विणय राइत्थी। तेरिच्छ वाणमंतर, पेहा नहवीणि कंदप्पे॥ एतेसु वट्टमाणे, अट्ठिय पडिसेहिए इमा मेरा। हियए करेति दोसे, गुरुय कहिते स ददे सोधिं ॥ (व्यभा ६५०-६५३, ६५७) अभिशय्या में गणावच्छेदक को नायक के रूप में नियुक्त करना चाहिए। गणावच्छेदक के अभाव में प्रवर्तक को, उसके अभाव में स्थविर को, उसके अभाव में गीतार्थ भिक्ष को और वह भी न हो तो अगीतार्थ को भी नियुक्त किया जा सकता है। किन्तु उसे सामाचारी अवश्य बता देनी चाहिए। यथा--आवश्यक, आलोचना आदि में प्रायश्चित्त देना है, पौरुषी आदि प्रत्याख्यान यथोचित रूप से देना है। Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६५५ स्वाध्याय अगीतार्थ नायक मध्यस्थ हो, उद्दीपक भाषाभाषी (हंसी- आवश्यक बिना किए ही गुरु को वन्दना करे, ज्येष्ठ मुनि आलोचना मजाक करने वाला) न हो तथा जिससे साधु डरते हों, जिसका ले और अभिशय्या में जाकर आवश्यक करे। यथोचित सम्मान करते हों, जो स्वयं अप्रमत्त हो, सामाचारी की प्रात: व्याघात न हो, तो आवश्यक किए बिना ही अभिशय्या अनुपालना कराने में कुशल हो, उसी को नायक बनाकर प्रेषित । से वसति में आकर गुरु के साथ आवश्यक करे। व्याघात हो, तो करना चाहिए। जो असामाचारी के दोषों का प्रतिषेध कर सके, देश या सर्व आवश्यक कर वसति में आये। वैसा सक्षम नायक हो। यथा १९. स्वाध्यायभूमि : विहारभूमि ___ कोई स्वाध्याय, आवश्यक, कायोत्सर्ग आदि न करे, हीन ___ असज्झाए सज्झायभूमी जा सा विहारभूमी। या अधिक करे। शय्या-संस्तारक, उपधि, दण्ड, उच्चार ___ (नि २/४० की चू) प्रस्रवणभूमि-इनकी प्रतिलेखना न करे, हीनाधिक करे, काल का उपाश्रय में अस्वाध्यायिक के समय जो स्वाध्यायभूमि होती अतिक्रमण कर करे, गुरु और रत्नाधिक का विनय न करे, उनको यथाविधि वन्दना न करे, शीतभय से लेटे-लेटे या बैठे-बैठे __ है, उसे विहारभूमि कहा जाता है। कायोत्सर्ग करे। राजा, स्त्री, अश्व, हस्ति, वानमंतर प्रतिमायुक्त विहारभूमि में एकाकी गमन-निषेध, अपवाद रथ आदि को उत्सुकता से देखे, कालप्रतिलेखना न करे, नखों से नो कप्पइ निग्गंथस्स एगाणियस्स राओ वा वियाले वा वीणावादन या घर्षण करे, कामोद्दीपक शब्द बोले, हास्य-कुतूहल बहियाविहारभूमिं वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा। करे इत्यादि । नायक के द्वारा इन दोषाचरणों का निषेध किये जाने कप्पड़ से अप्पबिइयस्स वा अप्पतइयस्स वा.॥ (क १/४५) पर भी अभिशय्यावासी उनसे निवृत्त न हों तो नायक अविस्मरण हेतु उन दोषों को लेखक की भांति अपने हृदय में लिख ले अकेला निर्ग्रन्थ रात्रि या विकाल में उपाश्रय से बाहर (मन में सम्यक् अवधारण करे) और फिर गुरु को निवेदन करे। विहारभूमि में गमन-प्रवेश नहीं कर सकता। वह एक या दो गुरु उन्हें प्रायश्चित्त दें। साधुओं के साथ वहां जा सकता है। १८. अभिशय्या में गमनागमन-विधि ..."अह विक्कतो उ, नवं च सुत्तं सपगासमस्स। धरमाणच्चिय सूरे, संथारुच्चार-कालभूमीओ। सज्झातियं णत्थि रहं च सुत्तं, णयावि पेहाकुसलो स साहू॥ पडिलेहितऽणुण्णविते, वसभेहि वयंतिमं वेलं॥ आसन्नगेहे दियदिट्ठभोमे, घेत्तूण कालं तहि जाइ दोसं। आवस्सगं त काउं. निव्वाघाण होति गंतव्वं । वस्सिदिओ दोसविवज्जितो य, णिहा-विकारालसवज्जितप्पा॥ वाघातेण तु भयणा, देसं सव्वं वऽकाऊणं॥ तब्भावियं तं तु कुलं अदूरे, किच्चाण झायं णिसिमेव एति। आवस्सगं अकाउं निव्वाघाएण होंति आगमणं। वाघाततो वा अहवा वि दूरे, सोऊण तत्थेव उवेइ पादो॥ वाघायम्मि उ भयणा, देसं सव्वं च काऊणं॥ __ (बृभा ३२१९-३२२१) (व्यभा ६८१, ६८२,६८६) जिसने अर्थसहित कोई नया सूत्र सद्यस्क सीखा है और वृषभ मुनि अभिशय्या के शय्यातर की अनुज्ञा लेते हैं- उसका परावर्तन करना है, किन्तु उपाश्रय में स्वाध्यायभूमि नहीं है। 'हम स्वाध्याय के लिए यहां रहेंगे।' फिर सूर्यास्त से पहले ही अथवा निशीथ जैसे रहस्यमय सूत्र का परावर्तन करना है, ताकि अभिशय्या में संस्तारक, उच्चार और काल-भूमि की प्रतिलेखना उसे दूसरा सुन न सके अथवा वह अनुप्रेक्षाकुशल नहीं है-इन कर वसति में आते हैं। कारणों से मुनि रात्रि में विहारभूमि में अकेला भी जा सकता है। यदि अभिशय्या का पथ निर्व्याघात हो तो गुरु के साथ मुनि कालग्रहण कर प्रादोषिक स्वाध्याय हेतु उस निकटवर्ती आवश्यक-प्रतिक्रमण कर तथा व्याघात हो तो देश या सर्व घर में जाये, जहां उच्चारप्रस्रवणभूमि दिन में प्रतिलेखित हो। जो Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय मुनि जितेन्द्रिय, कषायजयी, निद्राजयी तथा हास्य आदि विकार और आलस्य का वर्जन करने वाला हो, वह वहां अकेला जा सकता है। मुनि स्वाध्याय के लिए जिस कुल (घर) में जाए, वह कुल साधुभावित हो, निकटवर्ती हो, जिससे रात्रि में स्वाध्याय करके मुनि पुनः अपने स्थान पर आ सके । यदि मार्ग में चोर आदि का भय हो अथवा स्वाध्यायभूमि दूर हो तो मुनि रात्रि में वहीं सोकर प्रातः अपने उपाश्रय में लौट आए। ०. साध्वी की विहारभूमि संबंधी सामाचारी गुत्ते गुत्तदुवारे, दुज्जणवज्जे णिवेसणस्संतो । संबंधि णिए सण्णी, बितियं आगाढ संविग्गे ॥ पडिवत्तिकुसल अज्जा, सज्झायज्झाणकारणुज्जुत्ता । मोत्तूण अब्भरहितं, अज्जाण ण कप्पती गंतुं ॥ सज्झाइयं नत्थि उवस्सएऽम्हं, आगाढजोगं च इमा पवण्णा । तरेण सोहद्दमिदं च तुब्धं संभावणिज्जातो ण अण्णहा ते ॥ खुद्दो जणो णत्थि ण याविदूरे, पच्छण्णभूमी य इहं पकामा । तुम्भेहि लोएणय चित्तमेतं, सज्झाय-सीलेसु जहोज्जमो णे ॥ (बृभा ३२३६-३२३९) जिस साध्वी ने व्याख्याप्रज्ञप्ति आदि श्रुत संबंधी आगाढ योग स्वीकार किया है, जो संविग्न (हास्य आदि विकारों से रहित) है, वह साध्वी बाड़ आदि से परिक्षिप्त और कपाटयुक्त द्वार वाले घर में स्वाध्याय के लिए जा सकती है। वह घर दुःशील व्यक्तियों से रहित तथा निवेशन के भीतर होना चाहिए। निवेशन में न हो तो अन्य पाटक में साध्वी के निकट संबंधी, शय्यातर के मित्र या विश्वस्त श्रावक के घर पर भी स्वाध्याय हेतु जा सकती है। स्वाध्यायभूमि में जाने वाली साध्वी के साथ उत्तर देने में कुशल साध्वी अवश्य | आगाढयोग प्रतिपन्न साध्वी एकाग्रता से स्वाध्याय करने में संलग्न हो । साध्वी के आगमन से गौरव का अनुभव करें, उन यथाभद्र कुलों को छोड़कर अन्यत्र स्वाध्याय के लिए न जाए। स्वाध्याय करते समय यदि गृहपति प्रश्न करे- आप यहां क्यों आई हैं? तब प्रतिपत्तिकुशल साध्वी कहे - हे श्रावक ! हमारे उपाश्रय में स्वाध्यायिक नहीं है । इस साध्वी को श्रुतसंबंधी आगाढयोग वहन आगम विषय कोश करना है । शय्यार के साथ आपके सौहार्दपूर्ण संबंध को सब लोग जानते हैं, इसलिए हम यहां आई हैं। अतः आप हमारे प्रति अन्यथा संभावना न करें। ६५६ वह पुन: कहे - यहां क्षुद्रजन नहीं हैं। हमारे उपाश्रय से आपका घर दूर नहीं है । आपके घर में विस्तृत एकान्त भूमि है, जिसमें स्वाध्याय निर्विघ्न सम्पन्न हो सकता है। आपको और लोगों को यह ज्ञात है कि हम साध्वियों का स्वाध्याय और शील में प्रबल प्रयत्न होता है। २०. स्वाध्यायभूमि : आगाढ- अनागाढ सज्झायभूमि वोलंते, जोए छम्मास पाहुडे । सज्झायभूमि दुविधा, आगाढा चेवऽणागाढा ॥ जहणेण तिण्णि दिवसा, णागाढुक्कोस होति बारस तु । एसा दिट्ठीवाए, महकप्पसुतम्मि बारसगं ॥ आगाढो वि जहन्नो, कप्पिगकप्पादि तिण्णऽहोरत्ता । उक्कोसो छम्मासो, विवाहपण्णत्तमागाढे ॥ द्वादशवर्षप्रमाणा दुर्मेधसः प्रतिपत्तव्या, प्राज्ञस्य तु (व्यभा २११७, २११८, २१२१ वृ) स्वाध्यायभूमि का निक्षेप (कायोत्सर्गपूर्वक सम्पन्न) किये बिना जो उसका व्यतिक्रम करता है, वह आभवद्व्यवहार योग्य । (उस काल के अन्तराल में प्राप्त होने वाले शिष्य आदि उसके नहीं होते, उद्देशनाचार्य के होते हैं ।) वर्षम् । प्राभृत (इष्ट श्रुतस्कन्ध) संबंधी जो योगवहन किया जाता है, वह स्वाध्यायभूमि है। उसके दो प्रकार हैं १. अनागाढ - नन्दी आदि अध्ययनों की अनागाढ स्वाध्यायभूमि जघन्य तीन दिन, उत्कृष्ट एक वर्ष होती है । २. आगाढ — इसमें सामान्यतः स्वाध्यायभूमि छह मास तथा उत्कृष्टः बारह वर्ष है। यह दृष्टिवाद तथा महाकल्पश्रुत की अपेक्षा से अल्पमेधावी के लिए है। प्राज्ञ के लिए तो एक वर्ष की स्वाध्यायभूमि है। कल्पिका, कल्प आदि आगमों का आगाढ योग जघन्य तीन अहोरात्र तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) आदि का आगाढयोग उत्कृष्ट छह मास है। 1 ० आगाढयोग- अनागाढयोग आगाढमणागाढे, दुविधे जोगे य समासतो होति । ..... Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६५७ स्वाध्याय आगाढतरा जम्मि जोगे जंतणा"यथा भगवतीत्यादि। २२. विकृति के लिए योगनिक्षेप नहीं इतरो"उत्तराध्ययनादि। (निभा १५९४ चू) निक्कारणे न कप्पंति, विगतीओ जोगवाहिणो। कप्पंति कारणे भोत्तं, अणुण्णाया गुरूहि उ॥ योग के दो प्रकार हैं विगतीकए ण जोगं, निक्खिवए अदढे बले। १. आगाढयोग-जिस योगवहन में आहार आदि से संबंधित से भावतो अनिक्खित्ते निक्खित्ते वि य तम्मि उ॥ अत्यन्त गाढ/प्रबल नियंत्रण (संयमन) होता है। यथा-भगवती विगतीकते ण जोगं, निक्खिवे दढ-दुब्बले। आदि आगमग्रंथों के अध्ययनकाल में नौ प्रकार की विकृतियों का से भावतो अनिक्खित्ते उववातेण गुरूण उ॥ वर्जन किया जाता है। (व्यभा २१४२-२१४४) २. अनागाढयोग-उत्तराध्ययन आदि सूत्रों के अध्ययनकाल में योगवाही निष्कारण विकृतिसेवन नहीं कर सकता। कारण विकृति आदि से संबंधित कड़ा नियंत्रण नहीं होता है। होने पर गुरु की आज्ञा से विकृति सेवन कर सकता है। बलवान् आगाढजोगिस्स उद्देससमुद्देसादओ अवस्सं कायव्वा। होने पर भी जो संहनन से दृढ़ नहीं है अथवा दुर्बल होने पर भी जो (निभा १०९५ की चू) संहनन से दृढ़ है, वह विकृति के लिए योग का निक्षेप नहीं करता है। कारण होने पर यदि गुरु की आज्ञा से योगनिक्षेप करता है तो आगाढयोगी के लिए उद्देश, समुद्देश आदि अवश्य करणीय वह भावतः अनिक्षेप ही है। होते हैं। २३. योगवहन में विकृति वर्जन के विकल्प २१. योगवाही : भिक्षाचर्या से पूर्व कायोत्सर्ग "आगाढे णवग-वज्जण, भयणा पुण होतऽणागाढे॥ कश्चिद् योगप्रतिपन्नस्तस्य तद्दिवसमाचाम्लम्, स . विगतिमणट्ठा भुंजति, ण कुणति आयंबिलं ण सद्दहती। चोपयोगकायोत्सर्गमकृत्वा गतो दनः करम्बं गृहीत्वा एसो तु सव्वभंगो, देसे भंगो इमो तत्थ ।। समायातः पश्चादपरैः साधुभिस्तस्याचाम्लं स्मारितम्, ततः काउस्सग्गमकातुं, भुंजति भोत्तूण कुणति वा पच्छा। स यदि तं समुद्दिशति तदा योगविराधना, अथ परिष्ठापयति सयं काऊण वा भुंजति, तत्थ लहू तिण्णि उ विसिट्ठा॥ ततः संयमविराधना, ततः कायोत्सर्गं कृत्वा.....चिन्तयेत्, ण करेति भुंजितूणं, करेति काऊण भुंजति सयं तु। यथा-अद्य किं मे आचाम्लम् ? उत निर्विकृतिकम् ? उताहो वीसजेह ममं ति य, तवकालविसेसिओ मासो॥ अभक्तार्थम्?"इत्थमुपयोगं दत्त्वा प्रत्याख्यानानुगुणमेवाहारं (निभा १५९४-१५९७) गृह्णाति॥ __ (बृभा १७०४ की वृ) आगाढयोग में अवगाहिम (पक्वान्न) के अतिरिक्त शेष नौ विकृतियों का वर्जन किया जाता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति-अध्ययनकाल किसी योगप्रतिपन्न मुनि के आचाम्ल था, उस दिन वह में सर्व प्रकार की अवगाहिम विकृति तथा महाकल्पश्रुतउपयोग-कायोत्सर्ग किए बिना भिक्षा के लिए गया और दधिकरंब अध्ययनकाल में एक मोदकविकृति ग्राह्य है, शेष आगाढयोग में लेकर आ गया। तत्पश्चात् दूसरे साधुओं ने उसे आचाम्ल की सब विकृतियां वर्जनीय हैं। स्मृति दिलाई, तब यदि वह उसे खाता है तो योगविराधना और अनागाढयोग में विकृतिवर्जन की भजना है-गुरु-आज्ञा परिष्ठापित करता है तो संयमविराधना होती है। अत: कायोत्सर्ग हो तो दसों विकृतियां ग्राह्य हैं, अन्यथा एक भी ग्राह्य नहीं है। करके जाए। वह कायोत्सर्ग में चिन्तन करे-आज मेरे क्या है ___* दस विकृतियां द्र श्रीआको १ रसपरित्याग आचाम्ल अथवा निर्विकृतिक? उपवास अथवा एकाशन? इस अविधि से अनुज्ञात होने पर योगभंग होता है। उसके दो प्रकार कायोत्सर्ग में प्रत्याख्यान की स्मृति कर भिक्षा में उसके प्रकार हैं-सर्वभंग और देशभंग। अनुरूप ही आहार ग्रहण करे। ० सर्वभंग-निष्कारण विकृति खाना। आयंबिल के क्रम में आयंबिल Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय ६५८ आगम विषय कोश-; न करना। निर्विकृति तप में श्रद्धा न करना-यह सर्वभंग है। बारह वर्ष के दीक्षापर्याय वाले मनि को अरुणोपपात, आगाढ और अनागाढ योग के सर्वभंग होने पर क्रमशः चतुर्गुरु वरुणोपपात, गरुडोपपात, वेलंधरोपपात और वैश्रमणोपपात-इन और चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है। पांचों अध्ययनों का अध्ययन कराया जा सकता है। ० देशभंग-कायोत्सर्ग किए बिना विकृति खाना या विकृतिसेवन ___ अरुण, वरुण, गरुड़, वेलंधर और वैश्रमण-इन देवों का के पश्चात् कायोत्सर्ग करना या स्वयं कायोत्सर्ग कर विकृति खाना प्रणिधान कर यदि मुनि अरुणोपपात आदि ग्रंथों का परावर्तन करते अथवा गुरु से कहना कि मुझे विकृति की छूट दें-यह देशभंग हैं तो वे देव दशों दिशाओं को उद्योतित करते हुए परावर्तक मुनि के है। अनागाढ योग के इन सब भंगों में तप और काल से विशिष्ट समक्ष बद्धांजलि हो उपस्थित होते हैं। उपस्थित होकर पूछते हैंमासलघु तथा आगाढयोग में मासगुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। मुनिवर! हमें क्या कार्य करना है? आप आदेश दें। वरुण देव २४. उत्थानश्रुत आदि ग्रंथों का अतिशय गन्धोदक आदि की वर्षा करते हैं। अरुण और गरुड़ देव सुवर्ण परियट्टिज्जति जहियं, उट्ठाणसुतं तु तत्थ उट्ठति। उपहत करते हैं। कुल-गाम-देसमादी, समुट्ठाणसुतें निविस्संति॥ २६. स्वाध्याय आदि से अतिशय निर्जरा देविंदा नागा वि य, परियाणीएसु एंति ते दो वी" कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। ....."चारणलद्धी तहियं, उप्पज्जती तु अधीतम्मि॥ अन्नतरगम्मि जोगे, सज्झायम्मी विसेसेण॥ तेयस्स निसरणं खलु, आसिविसत्तं तहेव दिट्ठिविसं। .....अन्नतरगम्मि जोगे, काउस्सग्गे विसेसेण॥ लद्धीओं समुप्पज्जे, समधीतेसुं तु एतेसुं॥ ...."अन्नतरगम्मि जोगे, वेयावच्चे विसेसेण॥ (व्यभा ४६६४, ४६६५, ४६६७, ४६६९) ....."अन्नतरगम्मि जोगे, विसेसतो उत्तिमट्ठम्मि॥ मुनि एकाग्रचित्त होकर कार्यविशेष से जहां उत्थानश्रुत का (व्यभा ४३३८-४३४१) परावर्तन करता है, वहां स्थित कुल, ग्राम, देश आदि उजड़ जाते प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि संयमयोगों में से किसी भी हैं। कार्य निष्पन्न होने पर समुत्थानश्रुत के परावर्तन से वे कुल, योग में उपयुक्त/तन्मय होने से प्रतिक्षण असंख्य भवों में अर्जित ग्राम आदि पुन: बस जाते हैं। कर्म क्षीण होते हैं। विशेष रूप से स्वाध्याययोग, कायोत्सर्ग, वैयावृत्त्य देवेन्द्रपरिज्ञापनिका ग्रन्थ के परावर्तन से देवेन्द्र और और अनशन में उपयुक्त होने से अनुक्षण असंख्य भवोपार्जित कर्मों नागपरिज्ञापनिका के परावर्तन से नागदेव उपस्थित हो जाते हैं। की विशेष निर्जरा होती है। (कोई भी कर्म निरन्तर अनंतकाल तक चारणभावना अध्ययन को पढने से चारणलब्धि उत्पन्न अवस्थित नहीं रहता, इसलिए असंख्य का कथन है।) होती है। तेजोनिसर्ग, आशीविषभावना और दृष्टिविषभावना २७. प्रकीर्णग्रन्थों के स्वाध्याय से विपुल निर्जरा इन ग्रन्थों को पढ़ने पर क्रमश: तेजोलब्धि, आशीविषलब्धि और दृष्टिविषलब्धि समुत्पन्न होती है। चउद्दससहस्साई, पइण्णगाणं तु वद्धमाणस्स। जिस तपोयोगविधि के प्रयोग से ये लब्धियां उत्पन्न होती सेसाण जत्तिया खलु, सीसा पत्तेयबुद्धा उ॥ हैं, वे विधियां इन अध्ययनों में प्रतिपादित हैं। पत्तस्स पत्तकाले, एतेणं जो उ उद्दिसे तस्स। निज्जरलाभो २५. विशिष्ट ग्रंथपरावर्तन : देवता की उपस्थिति विपुलो, .........। बारसवासे अरुणोववाय वरुणो गरुलवेलंधरो। (व्यभा ४६७१, ४६७२) वेसमणुववाएँ य तधा, एते कप्पंति उद्दिसिउं॥ भगवान महावीर के तीर्थ में चौदह हजार प्रकीर्णककार तेसिं सरिनामा खलु, परियटुंती य एंति देवा उ। मुनि थे। उन्होंने चौदह हजार प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना की थी। अंजलिमउलियहत्था, उज्जोवेंता दसदिसा उ॥ शेष तीर्थंकरों के शासन में जितने शिष्य थे, उतने ही प्रकीर्णककार नामा वरुणा वासं, अरुणा गरुला सुवण्णगं देंति। और उतने ही प्रत्येकबुद्ध थे। जो आचार्य अपने योग्य (परिणामक) आगंतूण य बेंती, संदिसह उ किं करेमो ति॥ शिष्यों को यथाविहित काल में इन प्रकीर्णकों की वाचना देते हैं, (व्यभा ४६६०-४६६२) उनके विपुल निर्जरालाभ होता है। Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट परिशिष्ट १. कथा-दृष्टांत संकेत २. विशेष शब्द विमर्श ३. युगल शब्द विमर्श Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६१ परिशिष्ट १ कथा-दृष्टांत-संकेत · प्रस्तुत परिशिष्ट में पांच आगमों-आचारचूला और चार छेदसूत्र तथा उनके व्याख्याग्रंथों (नियुक्ति-भाष्यचूर्णि-वृत्ति) में प्रयुक्त कथाओं, दृष्टांतों और उपमाओं का विषयगत विभाजन और कथा-दृष्टांत के संकेत ससंदर्भ संगृहीत हैं। प्रत्येक ग्रंथ के स्वतंत्र संग्रहण के कारण इसमें अनेक विषयों और कथासंकेतों की पुनरावृत्ति हुई है। आचूला (आचारचूला-नियुक्ति-चूर्णि-वृत्ति) विषय कथा-संकेत संदर्भ देवों से शोभित गगनतल पद्मसरोवर, चम्पकवन १५/२८/१४, १५ आदि की उपमा दुर्वचनों से विद्ध मुनि बाणों से विद्ध हाथी १६/२ अविचल मुनि पर्वत-दृष्टांत १६/३ विमुक्त परिज्ञाचारी रूप्य-दृष्टांत १६/८ दुःखशय्यात्याग भुजंगत्वग्-दृष्टांत १६/९ अंतकृत मुनि महासमुद्र-दृष्टांत १६/१० शय्या वल्गुमती और निमित्तज्ञ आनि ३२३ वृप ३५९ भावना लोह-शिलाजत दृष्टांत आचू पृ. ३७७ निभा (निशीथ भाष्य-चूर्णि) भाग-१ ज्ञानाचार : काल स्वाध्याय तक्रकुट। शृंगधमक। शंखधमक। दो वृद्धाएं ८, १२ चू श्रेणिक नृप और हरिकेश चांडाल १३ चू भक्ति और बहुमान ब्राह्मण और पुलिंद उपधान-तप अशकटपिता १५ चू अनिलवन नापित और परिव्राजक १६ चू दर्शनाचार : निःशंकित, पेया और दो बालक। राजा और अमात्य। २३, २४ चू निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सा विद्यासाधक और चोर जुगुप्सा एक श्रावक की कन्या २५ चू अमूढदृष्टि सुलसा श्राविका और अम्मड परिव्राजक ३२ चू उपबृंहण श्रेणिक राजा ३२ चू स्थिरीकरण आचार्य आषाढभूति वात्सल्य वज्रस्वामी। नन्दीषण ३२ चू विनय Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ ६६२ आगम विषय कोश-२ विषय निशीथ स्त्यानर्द्धि निद्रा ६८ हिंसा असत्यवादिता ५६५ यतनाशील भी स्खलित प्रणीत आहार से मोहोदय काम शमन का उपाय बहुमूल्य वस्त्र ग्रहण के दोष रसगृद्धि-रसपरित्याग वेश का महत्त्व अति लोभ से हानि योनिप्राभृत ग्रंथ कथा-संकेत सन्दर्भ कतक-फल पुद्गल । मोदक। कुम्भकार । गजदन्तोत्पाटक। १३५-१४० वटशाखाभंजक कोंकणक भिक्षु और सिंह २८९ धूर्त-शशक, एलाषाढ, मूलदेव, खंडपाणा २९४-२९६ चू निभा भाग-२ वटपादप दृष्टांत ब्रह्मदत्त का कल्याणक आहार ५७२ कुलवधू ५७४ चू रत्न कम्बल और चोर ९७१ आर्य मंगु और आर्य समुद्र १११६ चू महाराष्ट्र का रसापण ११५८ गाय का अदोहन । मालाकार और फूल १६३९ आचार्य सिद्धसेन द्वारा अश्व निर्माण, १८०४ महिष-दृष्टिविष सर्प निर्माण श्रेष्ठी। तापसमरण १८२५ मृत मनुष्य का हास्य १८२६ कूप, कुलपुत्र आदि दृष्टांत २१५१-२१५३ आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती २१५४ कुणाल और संप्रति २१५४ चू जरकुमार और भल्ली २३४३ सुकुमारिका आर्या २३५१-२३५६ निभा भाग-३ गज और सरट। २७८५, २७८६ द्रमक और कनकरस २७९२ राजा द्वारा पुत्रों को विभिन्न दण्ड २८१४ पति और चार भार्याएं २८३३ हंसते हुए खाने से मुखस्तब्धता सुखसुविधा-त्यागी पृच्छा का प्रवर्तन क्यों? पृथक् संभोज की परम्परा इतिवृत्त निष्ठुर कथा ग्लानावस्था में वेदोदय कलह-उपेक्षा से विनाश सम अपराध-विषम दण्ड दण्ड की अल्पाधिकता में राग-द्वेष नहीं साध्वी सरस्वती की विमुक्ति कालकाचार्य और गर्दभिल्ल २८६० Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६६३ परिशिष्ट १ सन्दर्भ २८७७ २९३५-२९३७ २९५१ २९६१-२९६४ २९८२ ३०४७,३०६६ ३१५३ की चू विषय कथा-संकेत परिहारतप से भीत को आश्वासन नदी आदि में निमज्जन अतिप्रमाण में भोजन दरिद्र बटुक और अमात्य अल्पाहार से लाभ अवम और पूर्ण भृत पात्र प्राण रक्षा और तुच्छ भोजन रत्नवणिक् के द्वारा रत्न रक्षण का उपाय अहंकार से हानि राजा और अभिमानी मरुक धर्म का आपण वैद्य की याचना पर्युषणा (संवत्सरी) तिथि कालकाचार्य और सातवाहन में परिवर्तन कलह का उपशमन कुम्भकार क्षमापना का रहस्य उदायन और चण्डप्रद्योत शरणागत की रक्षा दरिद्र कृषक और चोर सेनापति क्रोध गोघातक मरुक मान अच्चंकारिय भट्टा माया पंडरज्जा साध्वी लोभारसलोलुपता आर्य मंगु भाव वैर ग्राममहत्तर और चोर सेनापति पैतृक सम्पत्ति का समानाधिकार चार कृषक पुत्र वेदोपघातपण्डक राजकुमार हेम उपकरणोपघात पंडक कपिल क्षुल्लक वातिक क्लीब तच्चन्निय भिक्षु स्त्री-पुरुष संवास वत्स और मां। आम्र और राजा ज्ञानस्तेन गोविन्दार्य चरणस्तेन उदायिमारक। मधुरकोण्डइल सकारण प्रव्रज्या प्रभव। मेतार्यऋषिघात दुष्ट शिष्य, स्वपक्ष-परपक्ष सर्षपनाल। मुखानंतक। उलूकाक्ष । शिखरिणी। उदायिमारक। जउणनृप मूढ : द्रव्यमूढ, काल मूढ, गणना मूढ, दुःशीला और घटिकावोद्र। महिषीपालक सादृश्य मूढ, वेदमूढ, व्युद्ग्राहणामूढ पिंडार। उष्ट्रपाल । ग्राममहत्तर और सेनापति। मातृगामी राजकुमार । वणिक् पुत्र । अनंगसेन। अन्धपुरुष। स्वर्णकार पिता से पूर्व पुत्र की बड़ी दिक्षा दंडिक (राजा)-दृष्टांत ३१८०, ३१८१ ३१८२-३१८५ ३१८६, ३१८७ ३१९३ ३१९४-३१९६ ३१९८ ३२०० ३३५९ ३४९९ ३५७५ ३५७६ ३५८९ ३६०४ च ३६५६ चू ३६५६ ३६६२ की चू ३६८३-३६८९ ३६९४-३७०१ चू ३७६५ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ ६६४ आगम विषय कोश-२ सन्दर्भ ३८१४,३८४६ ३८१४ चू, ३८५५, ३८५८ ३८१४ चू, ३८५६ ३९६४-३९७५ ४००५ ४०२३ चू ४०९७ ४१७४ ४१७९ ४२१५-४२१८ चू विषय कथा-संकेत प्रत्याख्यानकालीन उपयोग कंचनपुर में क्षपक का पारण द्रव्यसंलेखना शिष्य द्वारा अंगुलि-त्रोटन भाव संलेखना अमात्य और कोंकणक दृष्टांत पादोपगमन अनशन में स्कन्दक के शिष्य। चाणक्य। चिलातीपुत्र। धृति-सहिष्णुता कालास अनगार। बांसों का स्फुटन। अवन्ति सुकुमाल । जलप्रवाह का उपसर्ग। म्लेच्छ द्वारा उपसर्ग पुस्तक-अयतना और हिंसा चतुरंगिणी सेना आवेष्टित मृग उपयोग में धर्म जैनश्रमण और बौद्धभिक्षु पुरःकर्मकृत कर्मबंध उडंक ऋषि द्वारा इन्द्र को शाप कुशलता से द्रव्य रक्षा अगारी दृष्टांत श्रम से स्व-परहित श्रमी बालक और बदरीफल नौका संतरण संबंधी दोष मुरुंड राजा और साधु। सुदाढ और . नौकारूढ भगवान महावीर पृथ्वीकाय में वेदना, स्नेहगुण, ज्ञान स्थविर और तरुण। रूक्ष भोजन निधान दर्शन सदोष मयूरांक राजा और दीनार उपेक्षा से हानि वृक्ष दृष्टांत। ऋण दृष्टांत। व्यवहारनिर्णय दो महिला, एक पुत्र भिक्षा का दोष : धातृपिण्ड अतिशयधारी संगम स्थविर, शिष्य दत्त निमित्त पिण्ड गर्भवती घोड़ी की हत्या चिकित्सा पिण्ड दुर्बल व्याघ्र कोपपिण्ड मासक्षपक धर्मरुचि मानपिण्ड क्षुल्लक और श्वेतांगुलि आदि पुरुष विद्यापिण्ड भिक्षु उपासक मन्त्रपिण्ड पादलिप्त आचार्य और मुरुंड राजा अन्तर्धान पिण्ड चन्द्रगुप्त, चाणक्य और क्षुल्लकद्वय योगपिण्ड समिताचार्य और तापस क्रीतकृत शय्यातर मंख प्रामित्य बहन का दासीत्व परिवर्तन कोद्रव के बदले शालिकूर आच्छेद्य प्रभु और गोप। स्वामी । स्तेन। ४२६३-४२६५ ४३१६ ४३३८ ४३५७ ४३९३, ४३९४ चू ४४०५-४४०८ ४४३७ ४४४६-४४५३ ४४५७-४४५९ ४४६० ४४६३-४४६५ ४४७०-४४७२ ४४७७-४४७९ ४४८७-४४८९ ४४९४-४४९६ ४५००-४५१५ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ विषय अनिसृष्ट आज्ञा भंग निर्दयता अनवस्थानिवारण वर्जना का महत्त्व पलिमंथ (स्वाद का दुष्परिणाम ) प्रवचन में अनुधर्मता : अर्हत् द्वारा अनाचीर्ण, मुनि के लिए अनाचीर्ण विधि-अविधि परिणामक, अपरिणामक, अतिपरिणामक प्रतिसेवना संसर्ग का महत्त्व दत्त वस्तु का पुनः ग्रहण वस्त्रविभूषा से हानि स्त्रीयुक्त वसति से चारित्रहानि आज्ञाभंग : गुरुतर दंड कामातुर देवियां, स्त्रियां आदि व्युद्ग्रह से अपक्रमण अनार्य देशों में विहरण श्रमण संघ के प्रभावक मात्रक के अग्रहण से तिरस्कार अस्वाध्याय में स्वाध्याय से हानि पंचविध अस्वाध्याय आचार्यादियुक्त गच्छपंजर परिकुंचित आलोचना विषम प्रतिसेवना, तुल्यशोधि ६६५ कथा - संकेत बत्तीस मोदक वाला भिक्षु राजा द्वारा सत्कृत पुरुष म्लेच्छ द्वय इक्षुकरण दृष्टांत कन्याओं का अन्तःपुर । देवद्रोणी मूंग की कच्चीफली खाने से स्त्री की मृत्यु अचित्त तिलकट- जलहद और भगवान महावीर विष - शस्त्र - वेताल - औषध दृष्टांत चार मरुक और श्व- मांस पटरानी दो शुकबन्धु विक्रीत वृक्ष का पुनर्ग्रहण रत्न कंबल और तस्करउपद्रव निभा भाग-४ अग्नितप्त जतु दृष्टांत चंद्रगुप्त मौर्य व्यंतर देवियां और धूर्त्त । रयणादेवी । अर्हन्नक-मर्कटी। सिंही- पुरुष । श्वान मानुषी जमालि आदि निह्नव आचार्य स्कन्दक राजा संप्रति और आर्यमहागिरि - सुहस्ती वारत्तग-प्रव्रज्या म्लेच्छाक्रमण पांच राजपुरुष शकुनि-पंजर दृष्टांत अश्व । तापस | योद्धा । मालाकार । मेघ । पांच वणिक् और पन्द्रह गधे सन्दर्भ ४५१६-४५२० ४७८३-४७८६ ४८४३ ४८४८ ४८५१-४८५३ ४८५८ ४८५७-४८५९ ४८६९-४८७१ ४८७४ ४९१४ ४९७६ ५०५८ ५०९३ ५११० ५१३७-५१४० ५१५५-५१५८, ५१९०-५१९३ ५५९३-५६२४ ५७४१-५७४३ ५७४४-५७५८ ५८९० ६०७६ ६०८०, ६०८१ ६३५० ६३९६-६३९९ चू परिशिष्ट १ ६४०४, ६४०५ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ विषय कथा - संकेत राजा और तीन रक्षक अनवस्था प्रसंग का निवारण जानबूझकर बहु-प्रतिसेवना गंजा और सिपाही अनेक अपराधों का एक साथ कथन रथकार की भार्या अनेक अपराधों का एक दण्ड चोर दृष्टांत दोषों का एकत्व कब ? प्रायश्चित्तदानविधि आलोचना और विनयोपचार मूलोत्तरगुणप्रतिसेवना से अन्योन्यविनाश मूलगुण- उत्तरगुण प्रतिसेवना प्रायश्चित्त वहन और वैयावृत्त्य दुर्बल-सबल प्रायश्चित्तवाहक प्रायश्चित्तवृद्धि - हानि का हेतु आलोचनाई की गंभीरता परिहारतपस्वी को आश्वासन दोषशुद्धि न करने से चारित्र नाश आलोचक के प्रति व्यवहार निषद्याकरण का महत्त्व मोहक्षय असत् आत्मख्यापन से महामोहबंध प्रशास्तामारक शबल दोष गणी-गण पर्युषण पर्व ईर्यासमिति ६६६ वध्य मूलदेव राजा बना वणिक् । ब्राह्मण । निधि- प्राप्ति निधि-उत्खनन ताल वृक्ष दृति और शकट । एरंड - मंडप पुरस्कृत राजसेवक अग्नि दृष्टांत । चेट दृष्टांत वस्त्र और जलकुट दंतपुरवासी दृढ़मित्र 1 कूप, नदी और राजा का दृष्टांत नाली में तृण । मंडप और सर्षप । गाड़ी और पाषाण । वस्त्र पर कज्जल बिन्दु । लघु शकटिका व्याध । गाय । भिक्षुणी । निःश्मश्रु राजा और नापित दशा (दशाश्रुतस्कंध - निर्युक्ति - चूर्णि ) तल - सूची । सेनापति । निरिन्धन अग्नि । शुष्कमूल वृक्ष । दग्ध बीज गायों में गर्दभ का स्वर नागिन - अंडपुट खंडित सच्छिद्र घट । कम्मासपट गज-दंत आचार्य कालक ईर्यासमित मुनि । अरहन्नक । आगम विषय कोश - २ सन्दर्भ ६४०८-६४१० ६४१२, ६४१३ ६५१३, ६५१४ ६५१५ ६५१७ चू ६५१८-६५२२ ६५२६ ६५३१ ६५३३ चू ६५४१ ६५५३ चू ६५६२-६५६७ ६५७५ चू ६५९२, ६५९९ ६६०१, ६६०२ ६६२४, ६६२५ ६६२८ चू ५/७/११-१५ ९/२/१३ ९/२/१८ नि १४ नि ३०, ३१ नि ६८ की चू प ५५ नि ९१ की चू प ५९ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६६७ परिशिष्ट १ विषय कथा-संकेत सन्दर्भ एषणा समिति नंदीषेण । पांच साधु। आदान निक्षेप समिति श्रेष्ठीसुत मुनि उत्सर्ग समिति धर्मरुचि अनगार मन-वचन-कायगुप्ति श्रेष्ठीसुत । साधु और चोर। साधु । नि ९२ की चू प ६० अधिकरण और क्षमा दुरूतक-कुंभकार। नि ९२-९४ च प६० क्षमादान उद्रायण और प्रद्योत नि ९२-९८ शरणागत-रक्षा द्रमक और चोर सेनापति नि ९२, ९९, १०० चू प ६१ क्रोध पर्वत-भूमि-रेणु-जलराजि नि १०१-१०३ चू प६१ मान शैल--अस्थि-काष्ठ-लतास्तंभ माया वंशमूल-मेषविषाण-गोमूत्रिका-अवलेखनिका लोभ कृमिराग-कर्दम-कुसुम्भ-हरिद्राराग क्रोध का परिणाम मरुक नि १०४-११२ चूप६२, ६३ मान का परिणाम अत्वंकारी भट्टा माया का परिणाम पांडुरा आर्या लोभ का परिणाम आचार्य मंगु आचारवान आशीविष सर्प दृष्टांत ९/२/३७ चू प७६ बृभा (बृहत्कल्पभाष्य) भाग-१ मंगल नृप। निधि। विद्या-मंत्र २० सम्यक्त्व सरित्प्रस्तर। पथ । ज्वर। वस्त्र ९६-११० जल। पिपीलिका। पुरुष। कोद्रव अनुयोग १७१, १७२ द्रव्यानुयोग वृ पृ५२-५८ क्षेत्रानुयोग शातवाहन और कुब्जा कालानुयोग तक्रविक्रय वचनानुयोग बधिर-उल्लाप। ग्रामेयक भावानुयोग श्रावक भार्या । साप्तपदिक। कोंकणकदारक। नकुल। कमलामेला। शम्ब । श्रेणिक और चेलना। मुद्रायुक्त पत्रक १९५ वृ पृ६३ भाषा-विभाषा-वार्तिक प्रतिश्रुत । अभ्रपटल। मंख १९६-२०० ऋषभ-महावीर की तुल्य प्ररूपणा वर्तनी दृष्टांत २०५-२०७ वत्स-गौ सूत्र-अर्थ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ ६६८ आगम विषय कोश-२ सन्दर्भ विषय निष्पक्ष वाचना २१५-२२३ योग्य-अयोग्य शिष्य अध्ययन की प्रेरणा, गर्वत्याग अप्रशस्त-प्रशस्त भावउपक्रम द्रव्यहीन ज्ञान के अतिचारः हीनाक्षरअधिकाक्षर आदि शिक्षार्थी की परीक्षा शिक्षा के अनर्ह-अर्ह २२४-२३२ २३९ वृ पृ७३,७४ २६२-२६४ २८९ व २९१-२९६ वृ ३३०-३३३ ३३४-३६१ ३७२ ३७६ ज्ञान का गर्व अनुभवहीनता त्रुटित आलापक ज्ञान से हानि सूत्रार्थ का व्यवच्छेद पुण्य का उपहनन। रहस्योद्घाटन। महिला रहस्य गुरु का अपलाप शिक्षित शिष्य की परीक्षा कथा-संकेत दारु। धातु । व्याधि। बीज । कांकटुक। लक्षण। स्वप्न दृष्टांत अग्नि, बाल-ग्लान, सिंह आदि दृष्टांत कालकाचार्यकथा, धूलि दृष्टांत गणिका । ब्राह्मणी। अमात्य माता-पुत्र विद्याधर और अभय। अशोक-कुणाल वञ्जुल और बंदर। पायस। आवली उंडिका (मुद्रा) पातन मुद्गशैल-कृष्णभूमि। कुट। चालनीतापस भाजन। परिपूणक-हंस। महिषमेष। मशक-जलौक। बिडाली-जाहक। गौ। भेरी। आभीरी दुर्विदग्ध वैयाकरण वैद्य और राजा उत्सारकल्पिक आचार्य घंटाशृगाल रक्तपट भिक्षु अमात्यो बटुकी और मूलदेव परिव्राजक आम्र और वृक्षबीज दृष्टांत बृभा भाग-२ म्लेच्छ द्वय इक्षुकरण दृष्टांत कन्यान्तःपुर। शकट। स्थली अमांसभक्षी और मद्यप। मुद्गफली चार ब्राह्मण पटरानी प्रज्ञाचक्षु सोमिल ब्राह्मण यवराजर्षि ७१७ ७२१-७२३ वृ ७४२ ७६० व ७८६ ७९८-८०२ निर्दयता असुरक्षा से हानि वर्जना का महत्त्व स्वाद का दुष्परिणाम परिणामक-अपरिणामक प्रतिसेवना श्रुत की आंख पठित श्लोकत्रयी से जीवनरक्षा ९८३ वृ ९८८ वृ ९९१-९९३ वृ ९९४ १०१२-१०१६ १०५१ ११५३ ११५४-११६१ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६६९ परिशिष्ट १ विषय अर्हत्-वाणी-श्रवण का लाभ सूत्र के अर्थग्रहण की उपयोगिता । प्रतीच्छक शिष्य की परीक्षा स्मारणा आपात कटु एकत्व भावना पात्र का गुण पोषण का उद्देश्य पुरःकर्मकृत कर्मबंध अभ्यर्थना की आकांक्षा से हानि अपहरण हेतु प्रलोभन कथा-संकेत वणिक् की वृद्ध दासी बैल। शालिकरण दृष्टांत वधू दृष्टांत राजा की नेत्रचिकित्सा पुष्पचूल और पुष्पचूला साधु और ब्राह्मण उरभ्र और अतिथि उडंकऋषि और ब्रह्महत्या राजा और अभिमानी मरुक भृगुकच्छ में कपटश्राद्ध सन्दर्भ १२०५ १२१९ १२५८-१२६१ १२७७वृ १३४७-१३५२ वृ १७१४ वृ १८१२ वृ १८५६ वृ १८८३, १८८४ वृ २०५४ २१६६ वृ २२९१-२२९३ २४८७, २४८९ वृ २५०५-२५०८, २५४५-२५४७ बृभा भाग-३ दोषायतन वर्जन आवश्यक आम्रप्रिय राजपुत्र निमित्त का परिहार मुरुंड राजा का दूत आज्ञा का महत्त्व चन्द्रगुप्त राजा कामातुर देवियां, स्त्रियां आदि व्यंतर देवियां और धूर्त । रयणा देवी। अर्हन्नक-मर्कटी। सिंही-पुरुष । श्वान-मानुषी योनिप्राभृत : विद्या से अश्व निर्माण सिद्धसेनाचार्य कलह की उपेक्षा से विनाश गज और सरट कषाय से चारित्रनाश द्रमक और कनकरस अभियोग का प्रयोग संन्यासी और पणिहारी रात्री में भिक्षाटन सदोष कालोदाई भिक्षु कृतकरण का साहस तीन सिंह और साधु मिथ्या अहंकार सर्पशीर्ष और पूंछ बोली से यथार्थ बोध खसद्रुम आख्यानक अयोग्य को उपदेश वानर और शकुनि चिकित्सा का अपप्रयोग अनधीत वैद्यपुत्र अनार्य क्षेत्र में विहरण के दोष आचार्य स्कंदक श्रमण-संघ के प्रभावक राजा सम्प्रति और आर्यमहागिरि २६८१ की वृ २७०६, २७०७ वृ २७१३-२७१५ वृ २८१९ वृ २८४१, २८४२ वृ २९६४ वृ ३२४६-३२५६वृ ३२५१ वृ ३२५२ वृ ३२५९, ३२६० ३२७१-३२७४ वृ ३२७५-३२८९ वृ सुहस्ती Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ ६७० आगम विषय कोश-२ विषय जागना अच्छा या सोना साधु और बहुमूल्य वस्त्र सुलक्षण वस्तु की विशेषता मात्रक के अग्रहण से तिरस्कार सुप्रावृता साध्वी की गरिमा सन्दर्भ ३३८३ ३९०२, ३९०४ .३९५८-३९६०वृ ४०६६ वृ ४१२०-४१२८ वृ विनय का मूल्य आचार्य का सम्मान अपराधों के एकीकरण से हानि ४४३०-४४३४ वृ ४४५८ वृ ४५२१-४५२३ पुरःकर्म का प्रतिषेध अव्यापृत आदि गृह और शय्यातर ४५७६ वृ. ४७६९-४७७६ बृभा भाग-४ कथा-संकेत श्रमण महावीर और जयन्ती स्तेन दृष्टांत द्रमक। वर्धकिसुत वारत्तग योध। मुरुण्ड-हस्ती। नर्तकी-लंखिका। कदली स्तम्भ दास दृष्टांत भद्र भोजिक तृण-सारणि । सर्षप-शकट-मंडप। वस्त्र। मरुक दृष्टांत उदक दृष्टांत कुटुम्बी। वणिक्। पिशाचगृह बृभा भाग-५ पादलिप्त आचार्य और राजकन्या। श्रीगृह सर्षपनाल। मुखानन्तक। उलूकाक्ष । शिखरिणी। पुद्गल । मोदक । कुंभकार। हाथीदान्त को उखाड़ना। वटशाला भंजन। नैमित्तिक आचार्य और वणिक् मित्र हेमकुमार। कपिल क्षुल्लक घटिकावोद्र वणिक् पिंडारक उष्ट्रारूढ महत्तर और सेनापति का संग्राम राजदृष्टांत द्वीपजात । पंचशैल। अंधदृष्टांत । सुवर्णकार सुकुमारिका आर्या वसति का दोष कषाय दुष्ट ४९१५, ४९२५ वृ ४९८७-४९९२ स्त्यानर्द्धि निद्रा ५०१७-५०२२ अर्थदान वेदोपहत-उपकरणोपहत पंडक द्रव्यमूढ कालमूढ गणनामूढ सादृश्यमूढ वेदमूढ व्युद्ग्राहित मूढ ५११५-५११७ ५१५२-५१५४ ५२१५ वृ ५२१६ वृ ५२१७ वृ ५२१७ वृ ५२१८ व ५२२३-५२२७वृ ग्लानावस्था में वेदोदय ५२५४-५२५९ वृ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६७१ परिशिष्ट १ विषय कुशलता से द्रव्य रक्षा श्रम से स्व-परहित ऋजुजड़-ऋजुप्राज्ञ पारिहारिक-अनुपारिहारिक नौका-संतरण संबंधी दोष सन्दर्भ ५२९२, ५२९३ वृ ५२९७-५२९९ ५३५२ ५६०७ ५६२५-५६२८ प्रायश्चित्त के नानात्व के कारण सदृश अपराध, विसदृश दण्ड । अतिरिक्त भोजन से हानि महाव्रतों की रक्षा लज्जा से संरक्षण दूसरे के मोकपान से हानि ५७६१ वृ ५७७५, ५७८० ५८३१ वृ ५८५७,५८५८ ५९४१, ५९४२ ५९८७, ५९८८ खिंसनाकारी अग्राह्य परुष वचन परुषवचन और उपशांति दोष का अपलाप, प्रायश्चित्त की वृद्धि अदत्तादान संयमी की स्खलना भय और राग से क्षिप्तचित्तता अतिहर्ष से पागलपन यक्षावेश के हेतु : वैर और राग भाषा कौकुचिक शरीर कौकुचिक मुखरता प्रतिक्रमण का महत्त्व कथा-संकेत अगारी दृष्टांत बदरीफल दृष्टांत नटप्रेक्षणक दृष्टांत गौ दृष्टांत मुरुड राजा और साधु । सुदाढ देव और भगवान महावीर साहुकार की चार पत्नियां तीन राजकुमार अमात्य और बटुक रत्नसहित वणिक् स्नुषा दृष्टांत देवी दृष्टांत बृभा भाग-६ यथाघोषश्रुतग्राहक मुनि व्याध की दो पुत्रियां चंडरुद्राचार्य और इभ्यसुत शैक्ष दर्दुर घातक मोदकग्रहण परिव्राजिका रोहा और अजापालक सोमिल बटक। राजक्षल्लिका राजा सातवाहन सपत्नी। भृतक। दो भाई श्रेष्ठी दृष्टांत मृत-सुप्त दृष्टांत राजा और शीघ्रगामी पुरुष तीन प्रकार के वैद्य और राजपुत्र व्यभा (व्यवहार भाष्य-वृत्ति) ब्राह्मण कुंभकार का मिच्छा मि दुक्कडं दो गीतार्थ मुनि ६०९१-६०९८ ६१००, ६१०१ ६१०२-६१०४ ६१३५-६१४१ ६१४६-६१४८ ६१६९,६१७० ६१९६-६२०० ६२४३-६२४९ ६२५८-६२६१ ६३२५ ६३२६ ६३२८ ६४२७-६४३० श्रे व्यवहर्त्तव्य और प्रायश्चित्त अव्यवहार्य प्रायश्चित्त निर्णायक की न्यायनिष्ठा १८वृ २५ वृ २९, ३० Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ विषय ज्ञानाचार : काल, विनय आदि दर्शनाचार : अमूढदृष्टि आदि मायायुक्त आलोचना विषम प्रतिसेवना, तुल्य शोधि अनवस्था प्रसंग निवारण जानबूझकर बहुदोष सेवन अनेक अपराधों का एक दंड दोषों का एकत्व कब ? प्रायश्चित्त दानविधि प्रायश्चित्त वहन और वैयावृत्त्य आलोचना की गंभीरता छोटी त्रुटि की उपेक्षा से हानि शुद्धत - परिहारतप अनुशिष्टि-उपालंभ-उपग्रह निषद्याकरण का महत्त्व योनिप्राभृतग्रंथ : जीवोत्पादन शल्योद्धरण से भवसंतरण अंगुलिनिर्देश (रोकटोक ) का मूल्य शास्त्रार्थ (वाद) किसके साथ ? बल भावना चिकित्सा : अक्षिप्रत्यारोपण त्रिया (स्त्री) हठ अल्पश्रुत: प्रतिमा के अनर्ह बड़ा अपराध : भय नर नारी के वशवर्ती गीतार्थनिश्रित विहार क्यों ? मोक्ष का व्याघात : शल्य प्रायश्चित्त- वहन प्रतिशोध प्रोत्साहन - प्रशंसा ६७२ कथा - संकेत तक्रकुट । अभय, राजा और हरिकेश । ब्राह्मण और भील । अशकटपिता। नापित सुलसा । श्रेणिक अश्व । कुंचिक तापस | योद्धा । मालाकार । मेघ पांच वणिक् और पन्द्रह खर राजा और तीन रक्षक गंजा पनवाड़ी और सैनिक पुत्र रथकारभार्या। चोर मूलदेव ब्राह्मण। वणिक् । निधि राजसेवक दंतपुरवासी दृढ़मित्र तृणक । सर्षप। शकट । वस्त्र लघु-वृहत्-मंत्री सुभद्रा । मृगावती । आचार्य निः श्मश्रु राजा और नापित महिष दृष्टांत दो व्याध कन्यान्तः पुर चाणक्य और नलदाम खंडकर्ण और सहस्रयोधी शैक्ष और देव पटरानी : रणभूमि में बहुपुत्र - विकुर्वणा संग्रामद्विक राजा और पुरोहित तीन गोरक्षक सर्पदंश हरिण की बुद्धिमत्ता राजा का कटु व्यवहार पराजित योद्धा विजयी सन्दर्भ ६३ वृ आगम विषय कोश - २ ६४ वृ ३२१, ३२४ वृ ३२९, ३३० ३३२-३३४ ३३७, ३३८ ४४८-४५० ४५२ वृ ४५४-४५८ ४८१, ४८२ ५१७, ५१९ वृ ५५५ वृ ५५६ वृ ५६०, ५६१ वृ ५८६ वृ ६४६ वृ ६६२-६६४ ६६७-६६९ ७१६ वृ ७८४ वृ ७९५, ७९६ ८१२ ८२० ८२७-८३० ९३२-९३५ ९९९, १००० १०२१ १०३८-१०४० १०४२ १०४३ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ विषय युक्ति से लाभ राग से विक्षिप्तता अतिहर्ष से पागलपन यक्षावेश के हेतु मानुषिक उपसर्ग साधु सुरक्षा के उपाय दासत्व से मुक्ति के उपाय आचार्य : परगण में उपस्थापना प्रतिसेवना अगृहीभूत उपस्थापना झूठे आरोप का अनावरण परस्परता का लाभ आचार्य प्राज्ञ हो शक्तिसम्पन्न की पारगामिता वाणी से यथार्थ बोध बुद्धिसम्पन्न विजयी कल्पना के कोर से उदर नहीं भरता यथास्थान नियुक्ति : गणवृद्धि विरक्ति का हेतु : रूपदर्शन प्रमाद से चारित्र - चन्दन दग्ध कामशमन का उपाय : व्यस्तता पद के योग्य : दायित्वशील संघकार्य की प्रधानता कपटयुक्त व्यवहार अनुशासन पिता का दायित्व गृहव्यवस्था हेतु परीक्षण पदयोग्य शिष्य की परीक्षा पिता नाराज क्यों ? प्रमाद से हानि देववन्द्य तपस्वी सांभोजिक-पृच्छा- प्रवर्तन ६७३ कथा-संकेत कृषक और वृषभ जितशत्रु राजा और कनिष्ठ भ्राता शातवाहन राजा श्रेष्ठी । दो भाई । कौटुम्बिक चोरों द्वारा अपहरण राजसेवक और गणिका वणिक् पुत्र मिथ्या दोषारोपण आचार्य को प्रायश्चित्त दो गण : दो आचार्य दो मुनि दो सगे भाई शक्तिहीन राजकुमार सिंह और सियार | चन्द्रमा का उद्धार नीलवर्णी सियार ( खसद्रुम) शशक और सिंह भिखारी का सपना । ग्वाला और आभूषण वज्रभूति आचार्य और पद्मावती अंगारदाहक और चंदनखोडी पुत्रवधू अजापालक । श्रीघर का रक्षक विवाद - निर्णय, धूलिजंघ मुनि पैर ने मारा । लाट देशवासी मूलदेव राजा कन्यान्तःपुर में वणिक् कन्या धन श्रेष्ठी और चार पुत्रवधुएं राजा और राजकुमार पुत्र का राज्याभिषेक अजापालक । वैद्य । योद्धा । माली स्तूप विवाद, संघ विजयी कूप दृष्टांत । दो भाई । तिल- तंदुल । शैव । गोवर्ग सन्दर्भ १०४५ वृ १०८१, १०८२ ११२५-११३१ ११४३ - ११४५ ११६१ ११७५-११७९ ११८० - ११९० १२३०, १२३१ वृ १२३२, १२३३ १२३४ - १२३६ १२३९-१२४७ १३३१, १३३२ १३७८ १३८०, १३८२ १३८३ वृ १३८५, १३८६ १३८८ - १३९१ १४०९-१४११ १४१४, १४१५ १४४४-१४४६ १६०१ वृ १६११-१६१४ १६५०-१६६१ १६९८ - १७०१ १८९५- १८९७ १९०१ - १९०८ १९१० १९९४ २०४६ २३२२-२३२६ २३३०, २३३१ २३५६ - २३५८ वृ परिशिष्ट १ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ ६७४ आगम विषय कोश-२ सन्दर्भ २३८२-२३८५ २४०३-२४०६ २४५३, २४५४ २५४९ २५५२-२५५७ २५६०-२५६४ २६१०-२६१३ २६३७,२६३८ २६४१, २६४२ २६४५-२६५७ २६५३-२६५९ वृ विषय कथा-संकेत साधु-साध्वी : परस्पर वैयावृत्त्य कपट भिक्षुउपासक चिकित्सा युद्ध और वैद्य कपटपूर्ण व्यवहार सूपकार और बकरी आचार्य : संज्ञाभूमि में गमनविधि इन्द्रदत्त राजा का पुत्र लौकिक-लोकोत्तर विनय गंगा का प्रवाह किस ओर? आचार्य तोसलिक राजा और दो प्रतिमाएं सहयोग से लाभ एक कौटुम्बिक और बहु कृषक भावों के अनुसार निर्जरा जिन-गौतम-सिंह दृष्टांत मुद्रांकन का मूल्य राजा और तीन पुरुष आस्थानिका का महत्त्व राजा शातवाहन और पट्टरानी पृथिवी दृष्टि-विक्षेप (चंचलता) से हानि, किसान, दासी और कर्मकर। मुडिंबक एकाग्रता से ज्ञानोपलब्धि मुनि। अर्जुनस्तेन प्रमाद का फल राजा और ग्रामीण आचार्य प्रायोग्य आहार आर्य समुद्र और मंगु प्रवर्तिनी की जागरूकता अनिवार्य परिव्राजिका अमंगल का निवारण जम्बूवृक्षगृहवासी और वटवृक्षगृहवासी आज्ञा उल्लंघन से नाश आचार्य और श्राविका। म्लेच्छ-भय उपकार राजा और पांच सेवक न्याय और करुणा राजा और वणिक्-स्त्री युक्ति और साहस क्षुल्लक और आर्यिकाएं लोभ से हानि अमात्य अहंकार से हानि अट्टण मल्ल, मात्सिक मल्ल संस्कारदात्री मां चोर बालक की मां दंडित संघ रक्षा दूध रक्त बन गया संलेखना शिष्य द्वारा अंगुलि त्रोटन आज्ञाभंग : मृत्यु का वरण अमात्य और कोंकणदेशवासी अनशन में धृति-सहिष्णुता पांच सौ स्कन्दक-शिष्य। चाणक्य। चिलातीपुत्र। कालासवैश्यपुत्र । बांसों से विद्ध मुनि। अवंतिसुकुमाल। जल-उपद्रुत। म्लेच्छ-उपद्रुत बत्तीस मित्र मुनि विनय से वैभवप्राप्ति राजा शक और सेवक २६६६, २६६७ २६८५-२६९२ २८४८, २८६२, २८६३ २८८०, २८८१ २९५६, २९५७, ३१०३ ३१०६-३१०८ ३२५१ ३२५२ ३६९२-३६९४ ३८४० ४२०८ ४२७८ ४२९०,४२९१ ४२९२,४२९३ ४४१७-४४२९ ४५५५-४५६२ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ विशेष शब्द विमर्श अकोप्य-अकोपनीय, अदूषणीय। उद्यान-जहां लोग उद्यानिका (क्रीड़ा/मनोरंजन) के अकोप्पो अदूसणिज्जो। (निचू ३ पृ ५१२) लिए जाते हैं। जो नगर के समीप होता है। अपरिहारी-अन्यतीर्थिक और गृहस्थ। जत्थ लोगो उज्जाणियाए वच्चति, जंवा ईसि णगरस्स उवकंठं अपरिहारी ते य अण्णतित्थियगिहत्था। (निचू २ पृ ११८) ठियं तं उज्जाणं। (निचू २ पृ ४३३) अभिचारक-वशीकरण। उच्चाटन। उपतल-हस्ततल के सब पार्यों में उन्नत भाग। अभिचारकं णाम वसीकरणं उच्चाटणं। (निचू १ पृ १६३) हत्थतलाओ समंता पासेसु उण्णया उवतलं भण्णति। अभिषेक-उपाध्याय। (द्र संघ) (निचू २ पृ २६) अव्यक्त-सोलह वर्ष से कम उम्र वाला। अगीतार्थ, ऊर्ध्वदर ( उद्दद्दर)-सुभिक्ष। जिसने निशीथ नहीं पढ़ा हो। जिसकी कांख आदि में उड़ जाव भरिया तं उद्दद्दरं, पर्यायवचनेन सुभिक्षमित्यर्थः । बाल न आए हों। (निचू ३ पृ८०) सोलसवरिसारेण वयसा अव्वत्तो।... अणधीयणिसीहो अगीयत्थो ऋजुप्राज्ञ-ऋजुता-प्राज्ञता-सम्पन्न। मुनिआचार का सुत्तेण अव्वत्तो। (निचू ३ १ ३०) जाव कक्खादिसु रोमसंभवो यथावत् ग्रहण और पालन करने वाले। (द्र कल्पस्थिति) न भवति, ताव अव्वत्तो, तस्संभवे वत्तो। (निचू ४ ५ २६२) ओज-राग-द्वेषरहित, मध्यस्थ, तुला-सम। अशिव-व्यन्तरकृत उपद्रव। महामारि। रागदोसविरहितो दोण्ह वि मज्झे वट्टमाणो तुलासमो ओयो 'अशिवं' व्यन्तरकृत उपद्रवः । (बृभा १४५५ की वृ) अशिवं' भण्णति। (निचू ३ पृ५११)यो न रागे न द्वेषे किन्तु तुलादण्डवद् मारिः। (व्यभा १७३८ की वृ) द्वयोरपि मध्ये प्रवर्तते स ओजा भण्यते । (बृभा ९५८ की वृ) आगन्त्रगार-धर्मशाला। कल्पस्थित-आचार्यपद का अनुपालक। तत्र आगत्य आगत्यागारा तिष्ठति तं आगंतागारं । आयरियाणं पदाणुपालगो कप्पट्ठितो भण्णति ।(निचू३ पृ६५) (आचूलाचू पृ ३४०) कल्याणक-प्रायश्चित्त स्वरूप दिया जाने वाला आदेशन-लोहकार आदि की शाला। तपविशेष। (द्र कल्याणक) 'आदेशनानि' लोहकारादिशालाः । (आचूलावृ प ३६६) कामजल-स्नानपीठ। आलयगुण-प्रतिलेखना आदि बाह्य क्रियाएं। उपशमगुण। 'कामजलं' स्नानपीठम्। (आचूलावृ प ३९७) आलयगुणेहिं-बहिश्चेष्टाभिः प्रतिलेखनादिभिरुपशमगुणेन च। कृतयोगी-गीतार्थ। (बृभा ३९८ वृ) 'कडजोगि' त्ति गीयत्थो। (निचू ३ पृ ५१२) उत्तिंग-छिद्र । तृणाग्र पर स्थित जलबिन्दु। खुलक्षेत्र-मंद भिक्षा वाला अथवा घृत आदि उत्तिंगं णाम छिदं । (निचू ४ पृ २०९) उत्तिंगस्तृणाग्रउदक- उपग्रहकारी द्रव्यों की अप्राप्ति वाला क्षेत्र। बिन्दुः। (आचूलावृ प ३२२) खलखेत्तं णाम मंदभिक्खं जत्थ वा घयादि उवग्गहदव्वं न उभ्रामकभिक्षाचर्या-गांव केबाहरी भाग में भिक्षाटन करना। लब्भति। (निचू ४ पृ ३००) बहिर्गामेषु भिक्षार्थं यत् पर्यटनं सा उद्भ्रामकभिक्षाचर्या। गणी-आचार्य-उपाध्याय। (बुभा १२५६ की वृ) गणी विविध आचार्य उपाध्यायश्च। (व्यभा ३६३४ की व) Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ६७६ आगम विषय कोश-२ चन्द्रकवेध-राधावेध, चक्राष्टक के उपरिवर्ती पुतली निषीधिका-स्वाध्यायभूमि। के बायें अक्षिगोलक का वेधन करना। 'निषीधिका' स्वाध्यायभूमिः। (आचूलावृ प ३६१) चन्द्रको नाम चक्राष्टकोपरिवर्त्तिन्याः पुत्तलिकाया वामा- पंजर-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणाक्षिगोलकः तस्य वेधनः-ताडनम्। (बभा २८७६ की व) वच्छेदक-इन पांचों से परिगृहीत गच्छ। (द्र उपसम्पदा) चरंती दिशा-वह दिशा, जिसमें तीर्थंकर, केवली, परिज्ञावान्-अनशनकर्ता। श्रुतकेवली, युगप्रधान आचार्य आदि विहरण करते 'परिज्ञावान्' अनशनी। (बृभा ४४४२ की वृ) हैं। (द्र आलोचना) पल्ली-जहां अनेक प्राणी उपमर्दित होते हैं। चिरप्रवजित-तीन वर्ष का दीक्षित मुनि। पांच वर्ष का बहुप्राण्युपमर्दो यत्र सा पल्ली। (निचू १पृ १२२) दीक्षित मुनि। बीस वर्ष का दीक्षित मुनि। (द्र दीक्षा) पश्चात्कृत-वह गृहस्थ, जो पहले साधु था। छत्रच्छाया-आचार्य के शय्यातर का घर । (द्र शय्यातर) पुराणो पच्छाकडो। (निचू ३ १ १०१) जूह-कांजी। चावलोदक अथवा मूंग का पानी। पारिहारिक-एक मासिक यावत् छहमासिक प्रायश्चित्त जूहं च कांजिकमित्यर्थः । तंडुलोदगं मुद्गरसो वा जूहं भण्णति। प्राप्त मुनि। भिक्षा आदि के दोषों का परिहार करने वाला (निचू३ पृ१०३) उद्यतविहारी साधु। डहरिका-जन्म से लेकर अठारह वर्ष तक की लड़की। पायच्छित्त... आवण्णो मासाति जाव छम्मासियं सो परिहारियो। जन्मपर्यायेण यावदष्टादशिका अष्टादशवर्षप्रमाणा तावद् भवति (निचू २ पृ ३०३) परिहारिक:-पिण्डदोषपरिहरणादुद्युक्तडहरिका। (व्यभा २३१२ की वृ) विहारी साधुः । (आचूलावृ प ३२४) तीर्थ-चातुर्वर्ण श्रमणसंघ । द्वादशांग गणिपिटक। पारिहारिककुल-स्थापित कुल। (द्र स्थापनाकुल) तित्थं चाउवण्णो समणसंघो दुवालसंगं वा गणिपिडगं। पूतिकर्म-अविशोधिकोटि के दोष (आधाकर्म आदि) (निचू १ पृ१२२) से युक्त सम्मिश्रित आहार आदि। (द्र पिण्डैषणा) दंडपरिहार-बड़ी जीर्णकम्बल। पृष्ठमासिक-चुगलखोर, जो परोक्ष में दूसरों का महती जीर्णकम्बलिका दण्डपरिहार उच्यते। अवर्णवाद करता है। (बृभा २९७७ की वृ) पिट्ठिमंसितो परमुहस्स अवण्णं बोल्लेइ । (दशाचू प ७) दृष्टिप्रधान-युगप्रधान। प्रकाशभोजी-दिन में भोजन करने वाला। दिट्ठिप्पहाणेहिं.. युगप्रधानैरित्यर्थः । (व्यभा ३७११ की वृ) प्रकाशभोई दिवसतो भुंजति न रात्रौ। (दशाचू प ४१) देवचिन्तक-निमित्तज्ञ, शुभ-अशुभ बताने वाले। प्रतीच्छक-सूत्रार्थग्राहक साधु, जो अन्य गण से आकर देवचिन्तका नाम ये शुभाशुभं राज्ञः कथयन्ति। श्रुत आदि के लिए उपसम्पदा स्वीकार करता है। (व्यभा ४५६७ की वृ) पाडिच्छे त्ति येऽन्यतो गच्छान्तरादागत्य साधवस्तत्रोपसम्पदं नालिका-घटिका, जिससे जल गिरने के आधार पर गृह्णन्ति ते प्रतीच्छकाः। (व्यभा ९५७ की वृ) प्रतीच्छकः कालबोध होता है। परगणवर्ती सूत्रार्थतदुभयग्राहकः । (व्यभा १६८२ की वृ) नालीत त्ति घडितो उदगगलणोवलक्खितो कालो। प्रत्याजाति-एक भव से च्युत होकर पुनः उसी भव में (निचू ४ पृ ३४१) जन्म लेना। प्रत्याजाति मनष्य और तिर्यंचों की ही होती है। निरुद्धपर्याय-जिसे दीक्षित हुए तीन वर्ष पूर्ण हो चुके हों। जत्तो चओ भवाओ, तत्थेव पुणो विजह हवति जम्म। णिरुद्धपरियागो णाम जस्स तिण्णि वरिसाणि परियायस्स सा खल पच्चाजाती. मणस्स-तेरिच्छिए होइ॥ संपुण्णाणि। (निचू ४ पृ २६८) (दशानि १३२) Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश - २ प्रथमसमवसरण - - वर्षाकाल । पढमसमोसरणं वरिसाकालो भण्णति । (निचू १ पृ ११७) प्राभृतिका - देवों द्वारा कृत समवसरण - रचना, महाप्रातिहार्य आदि से पूजा । 'प्राभृतिकां' सुरविरचितसमवसरणमहाप्रातिहार्यादिपूजालक्षणाम्'''''। (बृभा ४९७६ की वृ) बकुशत्व - शरीर और उपकरणों की विभूषा करना । कुत्वं शरीरोपकरणविभूषाकरणम्। (व्यभा १५८९ की वृ) बिलधर्म - एक ही वसति - साधारण सभा आदि में साधु और गृहस्थ का एकत्र अवस्थान । 'बिलधर्मो नाम' एकस्यामेव वसतौ गृहस्थैः समं संवत्कत्रावस्थानम् ।···· साधारणे सभादौ पिण्डीभूय साधवो गृहस्थाश्च यदेकत्रावतिष्ठन्ते स बिलधर्मः । (बृभा ३१५८-३१६१ की वृ) भूतार्थ- संयम को सिद्ध करने वाली विचार-विहारसंस्तार - भिक्षा आदि क्रियाएं । भूत्थो णाम विआर-विहार- संथार- भिक्खादिसंजमसाहिका किरिया । (निचू १ पृ ४४) भृगु — नदीतट आदि । नदितडमादी उ भिगू ...॥ ( निभा ३८०२) मातृग्राम - स्त्री । स्त्रीवर्ग । इत्थी माउग्गामो भण्णति । (निचू २ पृ ३७१) मातृग्रामो नाम समयपरिभाषया स्त्रीवर्गः । (बृभा २०९६ की वृ) मैथुनिका - मामा की पुत्री । मैथुनिका - मातुलदुहिता । (बृभा ४९३८की वृ) मोहोपासक - कुप्रवचन व कुधर्म का उपासक । कुप्पवयणं कुधम्मं, उवासए मोहुवासको सो उ ॥ ६७७ (दशानि ३६ ) म्लेच्छ-उ - अव्यक्त और अस्फुट बोलने वाला । मिलक्खू जे अव्वत्तं भासंति । (निचू ४ पृ १२४) यथाच्छन्द - उत्सूत्र का प्रज्ञापक, स्वच्छंदचारी । (द्र श्रमण ) यथालन्द - अप्रमाद की साधना का प्रयोग । (द्र यथालन्दकल्प) परिशिष्ट २ यावन्तिका 'जितने भिक्षाचर आयेंगे, उतनों को भिक्षा दी जाएगी' – इस अभिप्राय से बना भोजन । यावन्तो भिक्षाचरा आगमिष्यन्ति तावतां दातव्यम् इत्यभिप्रायेण यस्यां दीयते सा यावन्तिका । (बृभा ३१८४ की वृ) रचितभोजी - कांस्यपात्र, पट आदि में देयबुद्धि से पृथक् रूप से स्थापित भोजन को करने वाला। (द्र पिण्डैषणा) लन्द — काल । तरुण स्त्री का गीला हाथ जितने समय में सूखता है, वह जघन्य लंद है। पूर्वकोटि उत्कृष्ट लंद है। दमिति कालस्तस्य व्याख्या - तरुणित्थीए उदउल्लो करो जावतिएण काण सुक्कति जहण्णो लंदकालो । उक्कोसेण पुव्वकोडी । (निचू ४ पृ ५१ ) लवसत्तम - वे देव, जिनकी आयु सात लव अधिक होती तो वे उसी भव में मुक्त हो जाते। (द्र देव ) लाढ - साधु । 'लाढे' त्ति साहुणो अक्खा। (निचू ४ पृ १२५) वयवान् - तीसवर्षीय युवा । तीसतिवरिसो वयवं । (निचू ३ पृ २९) वस्तु — अर्थाधिकार विशेष । वस्तूनि नाम अर्थाधिकारविषेशाः । (व्यभा ४३५ वाताहत - आगंतुक शैक्ष वायाहडो 'वाताहृतो नाम' आगन्तुक शैक्ष: । (बृभा ४६५८ वृ) विचार — प्रस्रवण । 'विचार: ' प्रश्रवणम्। (बृभा २०२५ की वृ) विचारभूमि - उत्सर्गभूमि । ( द्र समिति) विह — मार्ग | - की वृ) विहं णाम अद्धाणं । (निचू ४ पृ १०५ ) वृषभ - अविकारी गीतार्थ । गच्छ की अनुकूल-प्रतिकूल स्थिति में भारवहन में समर्थ । गीतार्था अविकारिणो वृषभा उच्यन्ते । (बृभा ५१८७ की वृ) गच्छस्स सुभासुभकारणेसु भारुव्वहणसमत्था वसभा भण्णंति । (निचू ३ पृ १०७) वृषभग्राम – जहां ऋतुबद्ध (शेष) काल में पन्द्रह और - Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ६७८ आगम विषय कोश-२ वर्षाकाल में इक्कीस मुनि प्रवास करते हों, वह वृषभ बहूण समवातो समोसरणं । ते य दो समोसरणा-एगं वासासु, क्षेत्र है। (उत्कृष्ट वृषभक्षेत्र-द्र शय्या) बितियं उदुबद्धे। (निचू ३ पृ १२६) समोसरणं णाम मेलओ। 'वसभग्गामो णाम' जत्थ उडुबद्ध आयरिओ अप्पबितिओ सो य सुत्तत्थाणं। अहवा जीवादिणवपदत्थभावाणं अहवा गणावच्छेओ अप्पततिओ एस पंच, एतेणं पमाणेणं जत्थ तिण्णि दव्वखेत्तकालभावा, एए जत्थ समोसढा सव्वे अत्थि त्ति वुत्तं गच्छा परिवसंति एयं वसभखेत्तं । वासासु आयरिओ भवति तं समोसरणं भण्णति। (निचू ४ पृ २५२) अप्पततितो गणावच्छेतितो अप्पचउत्थो एते सत्त, एतेणं सांवत्सरिक-चातुर्मासिक, वर्षारात्रिक। पमाणेणं तिण्णि गच्छा परिवसंति एते इक्कवीसं एयं संवच्छरिउ त्ति वा वासारत्तिउ त्ति वा । (दशाचू प ६९) वसभखेत्तं । (निचू ४ पृ १८९) साकार-प्रातिहारिक, लौटाने योग्य। वैशाख-योद्धा की मुद्रा विशेष, दोनों एड़ियों को भीतर 'साकारं' प्रातिहारिकम्। (बृभा २९७६ की वृ) की ओर समश्रेणि में रखकर अग्रिम तल को बाहर की सागारिका-जिस वसति में रहने से मैथुनोद्भव ओर रखना। (कामोत्पत्ति) होता है। जहां स्त्री-पुरुष रहते हैं। 'वइसाहं' पण्हिओ अभितराहुत्तीओ समसेढीए करेति । जत्थ वसहीए ठियाणं मेहुणुब्भवो भवति सा सागारिगा। जत्थ अग्गिमतलो बाहिराहुत्तो। (दशाचू प ४) इत्थिपुरिसा वसंति सा सागारिका। (निचू ४ पृ १) शुक्लमास-लघुमासिक प्रायश्चित्त। साणुप्पय-चतुर्थ पौरुषी का चतुर्थ भाग। 'शुक्लमासं' लघुमासमित्यर्थः । (बृभा ४४२६ की वृ) साणुप्पओ णाम चउभागावसेसचरिमाए... । (निचू २ पृ.२९७) शूरहक-कलहकारी आदि को सीख देने में समर्थ। सूक्ष्म-पुष्प। 'शूरहकः' कलहादिकुर्वतां शिक्षां कर्तुं समर्थः। 'सूक्ष्माणि' समयपरिभाषया पुष्पाण्युच्यन्ते । (बृभा १६८१) (बुभा ४४१० की वृ) (पृष्फाणिय कसमाणि य, फुल्लाणि तहेव होंति पसवाणि। शैक्ष-अगीतार्थ। नवदीक्षित। सुमणाणि य सुहुमाणि य, पुप्फाणं होंति एगट्ठा ॥ 'सेहो' अगीयत्थो अभिणवदिक्खिओ वा। (निचू १ पृ १३८) __-दशवैकालिकनियुक्ति, गाथा ३३) संज्ञी-अणुव्रती श्रावक। (द्र संज्ञी) सेडुग-कपास। संलेहा-तीन कवल। 'सेडुगो' नाम कर्पासः । (बृभा २९९६ की वृ) 'संलेहा' तिण्णि लंबणा। (निचू ३ पृ ७३) 'स्कन्ध-एक स्तम्भ पर प्रतिष्ठित कक्ष। संस्तृत-पर्याप्त आहार-पानी प्राप्त करने वाला। प्रतिदिन स्कन्धः-एकस्य स्तम्भस्योपर्याश्रयः । (आचूलावृ प ३६२) पर्याप्त अथवा अपर्याप्त खाने वाला। स्नान-सुगंधित द्रव्यसमूह। भत्तपाणं पज्जतं लभंतो संथडो भण्णति ।..."दिणे-दिणे पज्जत्तं स्नानं-सुगन्धिद्रव्यसमुदयः । (आचूलावृ प ३६३) अपज्जत्तं वा भुंजगे संथडीओ भण्णति । (निचू ३ पृ७४) हर्म्यतल-भूमिगृह।। समवसरण-एकत्र मिलन, बहुतों का समवाय। दो हर्म्यतलं- भूमिगृहम्। (आचूलावृ प ३६२) समवसरण-वर्षाकाल और ऋतुबद्ध काल । आगमग्रन्थ हायनी-शतायु जीवन की एक अवस्था, छठा दशक, -सूत्र और अर्थ का समवाय। जिनमें जीव, अजीव जिसमें बाहुबल और नेत्रज्योति क्षीण हो जाती है। आदि नौ-पदार्थों के अस्तित्व की सिद्धि हो, वे आगम। हायत्यस्यां बाहुबलं चक्षुर्वा हायणी। (दशाचू प ३) Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ युगल शब्द विमर्श अनुशिष्टि-धर्मकथा जारजातो त्ति वयणेण अक्कुट्रो। हस्तदंडादिना प्रहारदानं • अनुशिष्टि-उपदेशप्रदान। स्तुतिकरण। इहलौकिक ताडनं। (निचू ३ पृ ४२) अपायदर्शक वचन। आगाढवचन-परुषवचन - धर्मकथा-इहलौकिक और पारलौकिक कर्मविपाक का .आगाढवचन-वह वचन, जिसके बोलने से शरीर में उष्मा विस्तार से प्ररूपण करने वाले वचन। पैदा होती है। उपदेशपदाणमणुसट्ठी, थुतिकरणं वा अणुसट्ठी। (निचू ४ पृ - परुषवचन-स्नेहहीन वचन । ३७५) यद इहलोकापायदर्शनं क्रियते साऽनुशिष्टिरुच्यते। यत् सरीरस्योष्मा येनोक्तेन जायते तमागाढं। णेहरहियं निप्पिवासं पुनरिह परत्र च सप्रपञ्चं कर्मविपाकोपदर्शनं सा धर्मकथा। फरुसं भण्णति । (निच ३ प १) (बृभा २८९८ की वृ) आमार्जन-प्रमार्जन अनूप-जंगल - आमार्जन-हाथ से साफ करना। • अनूप-नदी आदि के प्रचुर पानी वाला प्रदेश। • प्रमार्जन-रजोहरण से साफ करना। -जंगल-निर्जल प्रदेश। हत्थेण आमज्जणं, रयहरणेण पमज्जणं। (निचू २ पृ.२१०) नद्यादिपानीयबहुलोऽनूपः, तद्विपरीतो जङ्गलः निर्जल इत्यर्थः। आहेण-पहेण (बृभा १०६१ की वृ) .आहेण-अन्य गह से आने वाला उपहार (मिठाई आदि)। अप्रासुक-अनेषणीय वधू के घर से वर के घर में आने वाला उपहार । वर-वधू के • अप्रासुक–सचित्त। घर का परस्पर का लेन-देन । - अनेषणीय-आधाकर्म आदि दोषों से दूषित।। - पहेण-अन्य गृह में नीयमान उपहार । वरगृह से वधूगृह 'अप्रासुकं' सचित्तम् 'अनेषणीयम्' आधाकर्मादिदोषदुष्टम्।। में ले जाया जाने वाला उपहार। (आचूला प ३२१) जमन्नगिहातो आणिज्जति तं आहेणं. जमन्नगिहं णिज्जति तं अबहुश्रुत-अगीतार्थ पहेणगं। जं वहगिहातो वरगिहं णिज्जति तं आहेणं, जं वरगिहातो - अबहुश्रुत-वह मुनि, जिसने निशीथ सूत्र का अध्ययन वहूघरं णिज्जति तं पहेणगं। वरवहूर्ण जं आभव्वं परोप्परं णिज्जति नहीं किया। तं सव्वं आहेणकं । (निचू ३ पृ २२२, २२३) - अगीतार्थ-वह मुनि, जिसने आवश्यक आदि सूत्रों का उत्क्षिप्त-विक्षिप्त अर्थश्रवण नहीं किया। • उत्क्षिप्त-धान्यों के पृथक्-पृथक् ढेर। जेण आयारपगप्पो ण झातितो एस अबहुस्सुतो। जेण - विक्षिप्त-एक ओर से संबद्ध भिन्न-भिन्न धान्यराशियां। आवस्सगादियाणं अत्थो ण सुतो सो अगीयत्थो। उक्खित्त भिन्नरासी, विक्खित्ते तेसि होति संबंधो। (बृभा ३३०२) (निचू ४ पृ ७३) उत्सर्ग-अपवाद कथा आक्रोश-ताडन • उत्सर्गकथा--प्रकीर्णकथा।व्यवहारनय प्रधान प्रतिपादन। - आक्रोश-गाली-गलौज। - अपवादकथा-निश्चयकथा। शुद्ध (ऋजुसूत्र आदि) नय - ताडन-हाथ, दंड आदि से प्रहार। प्रधान प्रतिपादन। Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ६८० आगम विषय कोश-२ उस्सग्गो पइन्नकहा य, अववातो होति णिच्छयकधा तु। खरपरुष-निष्ठुर वचन ... ववहारणया, पइण्णसुद्धा य णिच्छइगा॥ (निभा २१३१) .खरपरुष-उच्च स्वर से रोषपूर्वक जो कहा जाता है। हिंसक उद्यानी-अवयानी और मर्मवेधी वचन । आक्रोशयुक्त और उपचार रहित वचन। - उद्यानी-प्रतिस्रोतगामिनी नौका। • निष्ठुरवचन-असभ्य वचन। - अवयानी-अनुस्रोतगामिनी नौका। उच्चं सरोसभणियं, हिंसगमम्मवयणं खरं तं तू। नौः या नद्याः प्रतिस्रोतोगामिनी सा उद्यानी, अनुस्रोतोगामिनी । अक्कोस णिरुवचारिं, तमसब्भं णिठुरं होती ॥ (बृभा ५७५१) अवयानी। (व्यभा ११० की वृ) खिंसा-उपालंभ औदारिक-हिरण्य -खिंसा-निष्ठुर-स्नेहहीन वचन। - औदारिक-घटित रूप, स्वर्णाभरण आदि। - उपालंभ-मृदु-स्निग्ध वचन। - हिरण्य-स्वर्ण आदि का अघटित रूप। खिंसा तु णिप्पिवासा, सपिवासो हो उवालंभो ॥(निभा २६३७) घडियरूवं द्रविणं ओरालियं भण्णति, अघडियरूवं पुण हिरण्णं गंजशाला-उपस्करणशाला भण्णति। (निचू १ पृ १३१) - गंजशाला-जहां धान्य का मर्दन किया जाता है। औषध-भैषज - उपस्करणशाला-रसोईघर। • औषध-हरीतकी आदि। जत्थ धण्णं दमिज्जति सा गंजसाला, उवक्खडणसाला -भैषज-पेया आदि अथवा त्रिफला आदि। महाणसो। (निचू २ पृ ४५५) औषधानि हरीतक्यादीनि। भैषजानि पेयादीनि त्रिफलादीनि गणित-विभाजित वा। (बृभा १४८६ की वृ) • गणित-गिने हुए, पांच व्यक्ति, छह व्यक्ति आदि। कर्म-शिल्प • विभाजित–'अमुक-अमुक' नामोल्लेखपूर्वक निर्धारित। -कर्म-आचार्य के उपदेश के बिना प्राप्त कला। पंच इति गणिया। अमुगनामेहिं विभातिया। (निचू ३ पृ १५) - शिल्प-आचार्य के उपदेश से प्राप्त कला। गिरि-मरु विणा आयरिओवदेसेण जं कज्जति तणहारगादि तं कम्मं इतरं - गिरि-नीचे का वह प्रपात स्थान, जो पर्वत पर आरूढ पुण जं आयरिओवदेसेण कज्जति तं सिप्पं । (निचू ३ १ ४१२) व्यक्ति को दिखाई देता है। कृतयोगी-गीतार्थ - मरु-जहां से प्रपात दिखाई नहीं देता। - कृतयोगी-श्रुतार्थ के प्रत्युच्चारण में असमर्थ। जत्थ पवातो दीसति, सो तु गिरी मरु अदिस्समाणो तु। - गीतार्थ-श्रृतार्थ के प्रत्युच्चारण में समर्थ। (द्र गीतार्थ) (निभा ३८०२) कोष्ठागार-भाण्डागार ग्लान-बहुरोगी • कोष्ठागार-अन्नभण्डार। - ग्लान-तत्काल उत्पन्न रोग वाला। - भाण्डागार-हिरण्य-सुवर्ण-भंडार। - बहुरोगी-पुराना रोगी अथवा अनेक रोगों से अभिभूत। धण्णभायणं कोट्रागारो, भांडागारो हिरण्ण-सुवण्णभायणं। ग्लानः अधुनोत्पन्नरोगः । बहुरोगी नाम चिरकालं बहुभिर्वा (निचू २ पृ ४५५) रोगैरभिभूतः । (बृभा ५३९९ की वृ) क्षण-उत्सव घृष्ट-मृष्ट - क्षण-एकदिवसीय पर्व। • घृष्ट-दूध आदि के झाग से जंघाओं को मसलना। • उत्सव-बहुदिवसीय पर्व। - मृष्ट-केशों को अथवा शरीर को तेल से चुपड़ना। क्षण:-एकदैवसिकः, उत्सवः-बहुदैवसिकः। घट्ठा फेणादिणा जंघाओ, तेल्लेण केसे सरीरं वा मटेति । (बृभा ३३५५ की वृ) (निचू ४ पृ७७) Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६८१ परिशिष्ट३ जल्ल-मल निरालम्ब-अप्रतिष्ठित • जल्ल-स्वेदजनित मैल।। - निरालंब-इह-पारलौकिक आशंसा से मुक्त। - मल-मैल, जो हाथ आदि के घर्षण से दूर हो जाए। - अप्रतिष्ठित-इह-पारलौकिक प्रतिबद्धता से मुक्त। अशरीरी। जल्लो तु होति कमढं, मलो तु हत्थादि घट्टितो सडति।। 'निरालम्बनः' ऐहिकामुष्मिकाशंसारहितः 'अप्रतिष्ठितः' न (निभा १५२२) क्वचित प्रतिबद्धोऽशरीरी वा। (आचूला प ४३१) जाति-कुल नृत्य-नाट्य • जाति-मातृपक्षीय वंश। - नृत्य-गीतविरहित नर्तन। • कुल-पैतृक वंश । इक्ष्वाकु आदि कुल।। - नाट्य-गीतयुक्त अभिनय। मातिपक्खविसुद्धा इब्भजाई । पियपक्खविसुद्धं इक्खागुमादियं । नर्से होइ अगीयं, गीयजुयं नाडयं तु नायव्वं। (बृभा २४५३) कुलं। (निचू ३ पृ २९) पणि-विपणि डाग-शाक • पणि-बृहत्तर दुकान। • डाग-डाल (शाखा) प्रधान शाक। • विपणि-सीमित वस्तुओं वाली दुकान। - शाक-पत्रप्रधान शाक। ये बृहत्तरा आपणास्ते पणय इत्युच्यन्ते, ये तु दरिद्रापणास्ते 'डाग' त्ति डालप्रधानं शाकं पत्रप्रधानं तु शाकमेव। विपणयः। (बृभा ३२७८ की वृ) (आचूलावृ प ४११) पथ-मार्ग दंड-विदंड • पथ-जिसमें ग्राम, नगर, पल्ली आदि न हों, वह रास्ता। -दंड-तीन हाथ लम्बा। - मार्ग-जिसमें एक ग्राम के बाद दूसरे ग्राम आदि की -विदंड-दो हाथ लम्बा। श्रृंखला हो, वह रास्ता। तिण्णि उ हत्थे डंडो, दोण्णि उ हत्थे विदंडओ होति। पंथम्मि नत्थि किंची, मग्गो सग्गामो....॥ (बृभा ३०४१) (निभा ७००) पुञ्ज-राशि दमक-मेंठ - पुञ्ज-धान्य का वृत्ताकार ढेर। • दमक-अश्व आदि को सर्वप्रथम प्रशिक्षित करने वाला। - राशि-वह ढेर, जो किंचित् लम्बा हो। - मेंठ-अश्व या हाथी को योग्य आसनों में व्याप्त करने पुंजो य होति वट्टो, सो चेव ईसिंआयतो रासी। (बृभा ३३११) वाला। पुष्य-कषाय आसाण य हत्थीण य, दमगाजे पढमताए विणियंति। • पुष्प-स्वच्छ और मनोज्ञ वर्ण-गंध-रस-स्पर्श युक्त जल। परियट्टमेंठ पच्छा, ............... || (निभा २६०१) - कषाय-दुर्गंधित, अरस और कलुषित जल। दर्पिका-कल्पिका जं गंधरसोवेतं अच्छं व दवं तु तं भवे पुष्फं। • दर्पिका-राग-द्वेष के वशीभूत होकर की जाने वाली प्रतिसेवना। जं दुब्भिगंधमरसं, कलुसं वा तं भवे कसायं॥ • कल्पिका-शुद्ध नीति से आवश्यकतावश की जाने वाली (निभा ११०४) प्रतिसेवना। (द्र प्रतिसेवना) पूत-रुधिर दिशा-अनुदिशा • पूत-पक्व शोणित। • दिशा-आचार्य-उपाध्याय-प्रवर्तिनी। •रुधिर-स्वभावस्थ शोणित। • अनुदिशा-आचार्य-उपाध्यायपद से द्वितीय स्थानवर्ती। पयं वा पक्कं सोणियं रुहिरं सभावत्थं सोणियं भण्णति। (द्र दिग्बंध) (निचू २ पृ २१५) Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ६८२ आगम विषय कोश-२ पूर्वसंखडि-पश्चात्संखडि यष्टि-वियष्टि - पूर्वसंखडि-पूर्वाह्नकालीन भोज। जन्म-नामकरण, विवाह - यष्टि-शरीर प्रमाण लाठी। आदि के अवसर पर दिया जाने वाला भोज। - वियष्टि-शरीरप्रमाण से चार अंगुल न्यून यष्टि। - पश्चात्संखडि-अपराह्नकालीन भोज । मृतकभोज। लट्ठी आतपमाणा, विलट्ठि चतुरंगुले णूणा ॥ (निभा ७००) पुव्वादिच्चे पुरेसंखडी। मज्झण्हपच्छतो पच्छासंखडी। (निचू यानगृह-यानशाला ३ पृ ७०)जातनामकरणविवाहादिका पुरःसंखडिः तथा .यानगृह-जहां रथ आदि यान रखे जाते हैं। मृतकसंखडि: पश्चात्संखडिः । (आचूलावृ प ३३०) .यानशाला-जहां रथ आदि यानों का निर्माण होता है। प्रतिलेखन-प्रमार्जन 'यानगहाणि' रथादीनि यत्र यानानि तिष्ठन्ति 'यानशाला:' - प्रतिलेखन-वस्त्र, पात्र आदि का निरीक्षण। यत्र यानानि निष्पाद्यन्ते। (आचूलावृ प ३६६) -प्रमार्जन-स्थान आदि को रजोहरण आदि से साफ करना। यान-वाहन गा पडिलेहणा। मुहपोत्तिय-रयहरण-गोच्छगेहिं पमज्जणा। - यान-हाथी, घोड़ा आदि। अथवा अनुरंगा, रथ आदि। (निचू २ पृ१९३) अथवा शिविका आदि। भक्ति-बहुमान - वाहन-हस्ति, तुरंग, महिष आदि। - भक्ति-अभ्युत्थान, दंडग्रहण, पादपोंछन, आसनप्रदान- हत्थितरंगादिगमेव जाणं। अहवा रहादिगं सव्वं जाणं भण्णति । ग्रहण द्वारा की जाने वाली सेवा। अहवा सिविगादिगं जाणं भण्णति। (निचू ३ १९९) अणुरंगाई - बहुमान-ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों से अनुरंजित जाणे, गुंठाई वाहणे.... । (बृभा ३०७१) व्यक्ति के प्रति रसमय प्रीतिप्रतिबंध। (द्र आचार) रोग-आतंक भित्ति-कुड्य - रोग-कुष्ठ, राजयक्ष्मा आदि। दीर्घकालस्थायी व्याधि। - भित्ति-ईंटों से निर्मित दीवार । -आतंक-कास, श्वास आदि।सद्योघाती व्याधि। (द्रचिकित्सा) - कुड्य-मिट्टी आदि से निर्मित भीत। लांछित-मुद्रित इष्टकादिरचिता भित्तिः, मृत्पिण्डादिनिर्मितं कुड्यम्।। - लांछित-भस्म आदि से चिह्नित। • मुद्रित-गोबर-पानी से मुद्रित। (बृभा ३३११ की वृ) मणि-रत्न छारेण लंछिताई, मुद्दा पुण छाणपाणियं दिण्णं । (बृभा ३३१२) वणिक्-विवणिक् - मणि-चन्द्रकांत आदि। स्थल में उत्पन्न मणि। -वणिक्-दुकान में बैठकर व्यापार करने वाले। - रत्न-इन्द्रनील आदि। जल में उत्पन्न रत्न। -विवणिक्-बिना दुकान घूम-फिरकर व्यापार करने वाले। चन्द्रकान्तादयो मणयः, इन्द्रनीलादीनि रत्नानि। अथवा स्थल ये आपणस्थिता व्यवहरन्ति ते वणिजः। ये पुनरापणेन समुद्भवा मणयः, जलसमुद्भवानि रत्नानि। विनाप्यूर्ध्वस्थिता वाणिज्यं कुर्वन्ति ते विवणिजः । (बृभा ११७९ की वृ) (बृभा ३२७८ की ) यश-कीर्त्ति वर्म-कवच - यश-सब दिशाओं में व्याप्त प्रसिद्धि । -वर्म-लघु तनुत्राण विशेष। -कीर्ति-एक दिशाागमिनी प्रसिद्धि।। - कवच-बृहत् तन्त्राण विशेष। यश:-सर्वदिग्गामिनी प्रसिद्धिः, सैवैकदिग्गामिनी कीर्तिः । | वर्म-लघुस्तनुत्राणविशेषः... कवचं-महाँस्तनुत्राणविशेषः । (बृभा ४६५५ की वृ) (बृभा २२८३ की वृ) Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश-२ ६८३ परिशिष्ट ३ विचारभूमि-विहारभूमि - विचारभूमि-उत्सर्गभूमि। - विहारभूमि-स्वाध्यायभूमि। वियारे त्ति सण्णाभूमीओ। विहारे त्ति सज्झायभूमीए। (निचू २ पृ २११) विद्या-मन्त्र - विद्या-जो स्त्रीदेवता अधिष्ठित है अथवा पूर्व सेवा आदि की प्रक्रिया से साध्य है। (द्र मंत्र-विद्या) -मन्त्र-जो पुरुषदेवता अधिष्ठित है अथवा पठितसिद्ध है। विरस-अरस -विरस-पुराना धान्य। - अरस-हींग आदि से असंस्कृत। विरसः-पुराणौदनादिः । अरसस्य हिंग्वाद्यसंस्कृतस्य। (बृभा १२५६ की वृ) विवेचन-विशोधन - विवेचन-मुंह में, हाथ में या पात्र में जो अकल्पनीय भक्तपान है, उसका परिष्ठापन करना । एक बार परिष्ठापन या शुद्धि करना। - विशोधन-हाथ से पोंछना, जल से धोना-कल्प करना। बार-बार परिष्ठापन-शोधन करना। सव्वस्स छड्डण विगिंचणा उ मुह-हत्थ-पादछूढस्स। फुसण धुवणा विसोहण, सकिं व बहसो व णाणत्तं ॥ (बृभा ५८१३) व्यतिकीर्ण-विप्रकीर्ण - व्यतिकीर्ण-एक ओर से सम्मिलित सभी धान्य। •विप्रकीर्ण-सर्वतः संस्तुत धान्य। .वितिकिण्णे सम्मेलो, विपइण्णे संथडं जाणे॥ (बभा ३३०२) शय्या-संस्तारक - शय्या-शरीर के प्रमाणवाली। यथासंस्तृत पाट-बाजोट आदि। - संस्तारक-ढाई हाथ विस्तृत बिछौना। (द्र शय्या) शिल्प-नैपुण्य - शिल्प-बढ़ई आदि का कर्म। - नैपुण्य-लिपि, गणित आदि कलाओं का कौशल। शिल्पानि-रथकारकर्मप्रभृतीनि, नैपुण्यानि लिपिगणितादि- कलाकौशलानि । (बृभा ५१०९ की वृ) समान-वसमान • समान-वृद्धवासी, स्थिरवासी। • वसमान-मासकल्पविहारी। (द्र विहार) सहोढ-सविहोढ - सहोढ-सदृश। - सविहोढ-लज्जनीय। सहोढ त्ति सरिच्छो सविहोढ त्ति लज्जावणिज्जो। (निचू ३ पृ५०२) साधारण • साधारण सूत्र-जिसमें दो, तीन आदि बहुत पद हों। यथा-विकटसूत्र, उदकसूत्र, पिंडसूत्र (क २/४, ५, ८)। - प्रत्येकसूत्र-जिस सूत्र में एक पद हो। यथा-ज्योतिसूत्र प्रदीपसूत्र (क २/६, ७)। साधारणसूत्राणि नाम यत्रैकसूत्रे द्वयादिप्रभृतीनि बहूनि पदानि भवन्ति । प्रत्येकसूत्राणि तु चाकसूत्रे एकमेव पदम्। (बृभा ३४०२ की वृ) सारूपिक-सिद्धपुत्र - सारूपिक-जिसका शिर मुंडा हुआ होता है, जो श्वेत वस्त्र धारण करता है, जो कच्छा नहीं बांधता, जिसके पत्नी नहीं होती, जो भिक्षाजीवी होता है। - सिद्धपुत्र-जो मुंडित है अथवा चोटी रखता है, जो पत्नी सहित होता है। मुण्डितशिराः शुक्लवास:परिधायी कच्छामबध्नानोऽभार्यको भिक्षां हिण्डमानः सारूपिक उच्यते । यस्तु मुण्डः सशिखाको वा सभार्यकः स सिद्धपुत्रकः। (बृभा ५४४९ की वृ) सुरा-सौवीर - सुरा-ब्रीहि आदि के आटे से निष्पन्न मद्य। - सौवीर-द्राक्षा, खजूर आदि द्रव्यों से निष्पन्न मद्य। ब्रीह्यादिसम्बन्धिना पिष्टेन यद् विकटं भवति सा सुरा। यत्तु पिष्टवर्जितं द्राक्षाखर्जूरादिभिर्द्रव्यैर्निष्पाद्यते तद् मद्यं सौवीरकविकटम्। (बृभा ३४०६ की वृ) सूचा-असूचा वचन • सूचा वचन-स्पष्ट रूप से पर-दोषसूचक वचन। - असूचा वचन-अपने दोष बताने के बहाने दूसरों के दोष प्रकट करने वाले वचन। (द्र समिति) Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागरह नरा णिच्चं, जागरमाणस्स वड्डते बुद्धी। जो सुवति ण सो धण्णो, जो जग्गति सो सया धण्णो।। (बृहत्कल्पभाष्य 3382) जागो नर! तुम नित्य, जागृत की मतिसम्पद् बढ़ती। जो सोता वह धन्य नहीं है, धन्य वही जो सदा जागता।।।