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दीक्षा
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आगम विषय कोश-२
सत्थाए पुव्वपिता, चोहसपुव्वीण जंबुनाम पिता। वरिसोवरिं नवमदसमेसुं दिक्खा, आदेसेण वा गब्भट्ठतं मझेणं जणओ, दिक्खिओ रक्खियऽज्जेहिं॥ मस्स दिक्खा जम्मणओ अट्ठमवरिसे। ओहिमणा उवउज्जिय, परोक्खणाणी णिमित्त घेत्तूणं।
___ (निभा ३५४२-३५४६ चू) जति पारगा तो दिक्खा, जुगप्पहाणा व होहिंति॥ जिस काल में जितनी उत्कृष्ट आयु होती है, उसको
__ (निभा ३५३५, ३५३६, ३५५६, ३५६०) दस भागों में विभक्त करने पर दस आयु विपाकदशाएं होती
तीर्थंकर, चौदहपूर्वी और अतिशयधारी आचार्य बाल हैं। जो प्रतिसमय उदय में आती है, वह आयु है। उसका तथा वृद्ध को भी प्रव्रजित करते हैं। यथा
विपाक होता है। प्रतिक्षण आयुष्य की हानि होती है। अनुभागतीर्थंकर श्रमण महावीर ने अतिमुक्तक को तथा युक्त विभाग को दशा कहा जाता है। प्रत्येक दशा दस वर्ष चतुर्दशपूर्वी आचार्य शय्यंभव ने मनक को दीक्षित किया। प्रमाण होने से उनका कुल परिमाण सौ वर्ष है। अतिशयज्ञानी सिंहगिरि ने छहमासिक वज्र को दीक्षित दशाएं दस हैं-बाला, मंदा, क्रीड़ा, प्रबला, प्रज्ञा, हायनी, किया (योग्य जानकर भिक्षापात्र में ग्रहण किया)।
प्रपंचा, प्रारभारा, मुन्मुखी, शायनी। (-द्र श्रीआको १ मनुष्य) भगवान् महावीर ने अपने पूर्व पिता ऋषभदत्त ब्राह्मण
दशा और दीक्षार्हता-प्रथम बाला दशा में आठ वर्ष से अधिकको, चतुर्दशपूर्वी सुधर्मा ने जम्बू के पिता ऋषभदत्त को तथा
नौ-दस वर्षीय बाल दीक्षित किया जा सकता है। नवपूर्वी आर्यरक्षित ने अपने पिता सोमदेव को प्रव्रजित किया।
एक आदेश यह भी है-गर्भसहित आठवां वर्ष यानी अवधिज्ञानी आदि अपने प्रत्यक्षज्ञान से तथा परोक्षज्ञानी
जन्म से आठवें वर्ष में दीक्षा हो सकती है। निमित्तज्ञान अथवा अतिशय श्रुतज्ञान से जान लेते है कि अमुक
___ (तेरापंथ धर्मसंघ के चतुर्थ आचार्य प्रज्ञापुरुष श्रीमज्ज
याचार्य ने वि. सं. १९०८ फाल्गन कृष्णा षष्ठी को साधिक बाल या वृद्ध कालिकश्रुत और पूर्वगतश्रुत के पारगामी होंगे अथवा युग-प्रधान होंगे अथवा श्रमणसंघ के आधारभूत होंगे
अष्टवर्षीया बालिका गुलाब को बीदासर में दीक्षित किया, यह जानकर वे बाल और वृद्ध को भी दीक्षित कर सकते है।
जिनका जन्म वि. सं. १९०१ कार्तिक के शुक्ल पक्ष में हुआ था।
वे आचार्य श्री मघवा की लघु भगिनी थीं। उन्होंने साध्वीप्रमुखा ११. दस दशाएं, दीक्षा-योग्य बाल-वृद्ध
पद को अलंकृत किया।-शासन समुद्र भाग ९ पृ. २१) तिविहो य होइ वुड्डो, उक्कोसो मज्झिमो जहण्णोया"
मंदा यावत् प्रपंचा-ये छह दशाएं दीक्षाह हैं। सामान्यतः प्राग्भारा, दस आउविवागदसा, अट्टमवरिसाइ दिक्खपढमाए।
मृन्मुखी और शायनी दशा में दीक्षा अनुज्ञात नहीं है क्योंकि सेसासु छसु वि दिक्खा, पब्भाराईसु सा ण भवे॥
सत्तर वर्ष से अधिक उम्र वृद्ध अवस्था है। अट्ठमि दस उक्कोसो, मझोणवमीइ जहण्ण दसमीए।
चेष्टा, बुद्धि आदि की बहुलता की अपेक्षा से आठवीं जं तुवरिं तं हेट्ठा, भयणा व बलं समासज्ज ॥
ज॥ दशा उत्कृष्ट है, नवमी मध्यम और दसवीं जघन्य है। बाला मंदा किड्डा, पबला पण्णा य हायणी।।
अथवा अल्प वृद्धभाव के कारण आठवीं दशा जघन्य, पवंचा पब्भारा या, मुम्मुही सायणी तहा॥ नौवीं मध्यम और दसवीं उत्कृष्ट है। दसवीं से पुनः बचपन केसिं चि एवं वाती, वुड्डो उक्कोसगो उ जा सयरी। प्रारम्भ हो जाता है। अट्ठमदसा वि मझो, नवमीदसमीसु तु जहन्नो॥
बल की अपेक्षा से वृद्धत्व की उत्कृष्टता आदि जंजम्मि काले आउयं उक्कोसं दसधा विभत्तं दस वैकल्पिक है। आठवीं-नौवीं-दशवी दशा में जो भिक्षाटन आउविवागदसा भवंति। प्रतिसमयभोगत्वेन आयातीत्यायुः आदि में अशक्त है, वह जघन्य वृद्ध है, मध्यम बल वाला विपचनं विपाकः, आयुषो परिहाणीत्यर्थः ।अनुभागेन युक्तो मध्यम और उत्कृष्ट बल वाला उत्कृष्ट वृद्ध है। विभागो दशा उच्यते, ततो य दस दसाओ दसवरिस- साठ वर्ष के पश्चात् इन्द्रियबल आदि की प्रबल पमाणातो वरिससयाउसो भवंति... पढमदसाए अटु- हानि होती है, इसलिए कुछ आचार्यों का अभिमत है कि
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