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चिकित्सा
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आगम विषय कोश-२
(कुष्ठ के अठारह प्रकार हैं-१. कपाल, २. उदुम्बर, ७. व्रण के प्रकार ३. मण्डल, ४. ऋष्यजिह्व, ५. पुण्डरीक, ६. सिध्म, ७. काकणक दुविधो कायम्मि वणो, तदुब्भवागंतुगो तु णातव्वो। (ये सात महाकुष्ठ हैं) , ८. एककुष्ठ, ९. चर्माख्य, १०. तद्दोसो व तदुब्भवो, सत्थादागंतुओ भणिओ॥ किटिभ, ११. विपादिका, १२. अलसक, १३. दद्रु, १४.
(निभा १५०१) चर्मदल, १५. पामा, १६. विस्फोटक, १७. शतारु, १८. कायव्रण के दो प्रकार हैंविचर्चिका (ये ग्यारह क्षुद्रकुष्ठ हैं)
० तददभव-शरीर के दोष से शरीर पर होने वाला व्रण। मण्डलकुष्ठ-सफेद एवं लालवर्ण का, स्थिर, स्त्यान, स्निग्ध यथा-कुष्ठ, किटिभ, दाद, खुजली, फोड़ा आदि।
और जो कुष्ठ का मण्डल (घेरा) बना हो वह कुछ उन्नत हो ० आगंतुक-शस्त्र, कंटक आदि से होने वाला व्रण, सर्प आदि तथा परस्पर एक से दूसरा मण्डल सटा हुआ हो तो उसे के काटने से होने वाला व्रण, शिरावेध आदि। . मण्डलकुष्ठ कहा जाता है।
८. व्रणलेप के प्रकार सिध्मकुष्ठ-जो कुछ श्वेत वर्ण का या ताम्र वर्ण का हो,
सो पुण लेवो चउहा, समणो पायी विरेग संरोही। पतला और रगड़ने से जिससे धूलि के समान चूर्ण निकलता
वडछल्लितुवरमादी हो और जो लौकी के फूल के समान हो, उसे सिध्मकुष्ठ
(निभा ४२०१) कहते हैं। यह कुष्ठ प्रायः वक्षस्थल में होता है।
व्रण पर किए जाने वाले लेप के चार प्रकार हैं-च चिकित्सास्थान ७/१३-१९
१. शमन-जो वेदना का उपशमन करता है। श्यामत्व का अर्थ है कोढ और शबलत्व का अर्थ है
२. पाकी-जो व्रण को पकाता है। सफेद कोढ–श्वित्रलक्षण।-आ २/५४ की चू, वृ)
३. विरेचन-जो रक्त आदि के विकार को नष्ट करता है। ५. कृमिकुष्ठ में रत्नकंबल उपयोगी
४. संरोहण-जो व्रण को भरता है। ..."गेलण्ण कोट्ट कंबल, अहिमाइ पडेण ओमज्जे॥
बड़ की छाल, तुवर आदि व्रण-वेदना-शामक होते हैं। (निभा ५०००)
९. व्रणचिकित्सा के विविध साधन कृमिकुष्ठ आदि रोगों में रत्नकंबल का उपयोग तथा
व्रणरोहकानि तैलानि व्रणतैलानि, तथातिजीर्ण सर्प आदि के काटने पर अखंड वस्त्र से अपमार्जन किया
घृतं द्रव्यौषधानि च यैरौषधैः संयोजितैस्तैलं घृतं वातिजाता है।
पच्यते।
(व्यभा २४०५ की वृ) ६. चर्मरोग में गृहधूम का उपयोग
व्रणरोहण के लिए अनेक प्रकार के तैल, बहुत पुराना घरधूमोसहकज्जे, दहु किडिभेदकच्छुअगतादी। घी और द्रव्यौषधियां काम में ली जाती हैं। औषधियों को
(निभा ७९८) संयोजित कर तैल या घी पकाया जाता है। गृहधूम (रसोईघर की दीवार पर या छत के नीचे चूल्हे ... वणभेसज्जे स सप्पि-महु पट्टे ।....... के जमे धुएं) से दाद, किटिभ (क्षुद्र कोढ), खुजली आदि चर्म
(बृभा ३०९५) रोगों की चिकित्सा की जाती है।
व्रण पर घी या मध से मिश्रित भैषज्य लगाकर उसे अंगुलिमंतरा य कुहिया कोद्दवपलालधूमेण रज्जति। पट्ट से बांधा जाता है।
(निभा १४९९ की चू) १०. पुराने घृत आदि से व्रणसंरोहण कुथित (सड़ी हुई) अंगुलि को कोद्रव-पलाल-धूम उवट्ठितम्मि संगामे, रणो बलसमागमो। से रंजित किया जाता है।
एगो वेज्जोत्थ वारेती, न तुब्भे जुद्धकोविया॥
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