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________________ आगम विषय कोश - २ ६. राजा सम्प्रति : अनार्यक्षेत्र आर्यक्षेत्र में परिवर्तित सोरायाऽवंतिवती, समणाणं सावतो सुविहिताणं । पच्चंतियरायाणो, सव्वे सद्दाविया तेणं ॥ कहिओ य तेसि धम्मो, वित्थरतो गाहिता य सम्मत्तं । अप्पाहिता य बहुसो, समणाणं भहगा होह ॥ जाह सामिं, समणाणं पणमहा सुविहियाणं । दव्वेण मे न कज्जं, एवं खु पियं कुणह मज्झं ॥ वीसज्जियाय तेणं, गमणं घोसावणं सरज्जेसु । साहूण सुहविहारा, जाता पच्चंतिया देसा ॥ समणभडभाविएसुं, तेसू रज्जेसु एसणादीसु । साहू सुहं विहरिया, तेणं चिय भद्दगा ते उ ॥ (बृभा ३२८३, ३२८४, ३२८६-३२८८ ) अवन्ति का राजा सम्प्रति सुविहित साधुओं का उपासक था। उसने प्रत्यन्त (अनार्य) देश के राजाओं को बुलाया । उन्हें धर्म का स्वरूप बताया, सम्यक्त्व ग्रहण करवाई और बार-बार निर्देश दिया- 'आप अपने देश में भी साधुओं के साथ भद्र व्यवहार करें, उनकी भक्ति करें। यदि आप मुझे स्वामी मानते हैं तो सुविहित साधुओं को वन्दना करें - यह मुझे प्रिय है । करस्वरूप दिए जाने वाले द्रव्य से मुझे प्रयोजन नहीं है । ' राजा सम्प्रति ने राजाओं को शिक्षा देकर विदा किया। उन्होंने अपने-अपने राज्यों में जाकर अमारि की घोषणा की। अनार्य देश साधुओं के लिए सुखद विहारक्षेत्र बन गए। सम्प्रति नृप ने अपने भटों को साधु-सामाचारी का प्रशिक्षण देकर उन्हें साधु वेश में अनार्य देशों में भेजा। उन श्रमण वेशधारी भटों ने एषणा के दोषों का परिहार करते हुए शुद्ध आहार को ग्रहण किया, जिससे अनार्यक्षेत्र श्रमणविधियों से भावित हो गए और वे देश साधुओं के लिए सुखद विहारक्षेत्र बन गए। आलोचना - गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन । १. आलोचना के स्थान * आलोचना : प्रायश्चित्त का एक भेद द्र प्रायश्चित्त २. आलोचनीय क्या ? ३. आलोचना की इयत्ता ९५ Jain Education International ४. आलोचना के तीन प्रकार ५. विहार आलोचना के प्रकार ० उत्कृष्टकाल ० महाव्रत - गुप्ति समिति-अतिचार-आलोचना ६. उपसंपदा और अपराध आलोचना * उपसम्पन्न द्वारा आलोचना द्र उपसम्पदा ७. आलोचनाकाल में प्रशस्त अप्रशस्त द्रव्य... ० चरंती दिशा ८. आलोचनाई की अर्हताएं • अपरिस्रावी : दृढ़मित्र दृष्टांत ९. आलोचनाई का व्यवहार : व्याध और गौ दृष्टांत * व्यवहारी (आलोचनार्ह) की अर्हता द्र व्यवहार १०. आलोचनार्ह : आगम-व्यवहारी एवं स्मारणा विधि ० आगमव्यवहारी : आलोचना श्रवण के पश्चात् प्रायश्चित्त श्रुतव्यवहारी : तीन बार आलोचना श्रवण ११. आलोचना : गीतार्थ या अगीतार्थ के पास ? १२. आलोचनाई का क्रम ० आलोचना १३. पार्श्वस्थ आदि के पास आलोचना १४. सम्यक्त्वी देव के पास आलोचना १५. साधु-साध्वी की आलोचना विधि : चतुष्कर्णा आदि परिषद् १६. आलोचना काल में सहवर्ती मुनि की अर्हता १७. साध्वी की प्राचीन आलोचनाविधि १८. निषद्या, दिशा आदि • निषद्या की अनिवार्यता : राजा - नापित दृष्टांत १९. निषद्या विवेक : सिंहानुग आदि आलोचनार्ह २०. आलोचना विधि के दोष २१. आलोचक की अर्हता • भद्र बालक की तरह आलोचना २२. आचार्य के लिए भी आलोचना अनिवार्य २३. अनशनकाल में आलोचना विधि २४. शल्योद्धरण आवश्यक : अश्ववत् प्रस्थान ० व्याध दृष्टांत २५. सशल्यमरण से अनंत संसार २६. आलोचना न हो, तब तक कर्मबंध For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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