________________
समर्पण
विलोडियं
आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीयमच्छं। सज्झायसज्झाणरयस्स निच्चं, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं॥
जिसने आगम-दोहन कर कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत। श्रुत-सद्ध्यानलीन चिर चिन्तन, आर्य भिक्षु को विमल भाव से।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org