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जीवनिकाय
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आगम विषय कोश-२
० कृष्णराजि-तमस्काय
कल्प में रिष्ट विमान प्रस्तट के समानान्तर आखाटक के खेत्तनिसीहं"कण्हरातीओ। ता अणेण भगवई- आकार वाली समचतुरस्र संस्थान से संस्थित आठ कृष्णराजियां सुत्ताणुसारेण णेयातमुक्काओ। सो य दव्वओ आउ- हैं-दो पूर्व में, दो पश्चिम में, दो दक्षिण में और दो उत्तर में। क्काओ"भगवतीसत्ताणसारेणणेओr"कण्ह-तम-णिरता उनकी लम्बाई असंख्येय हजार योजन, चौड़ाई संख्येय हजार अप्पगासित्ता खेत्त-णिसीहं भवति। (निभा ६८ की चू) योजन और परिधि असंख्येय हजार योजन है। कृष्णराजि, तमस्काय और सीमंतक आदि नरक-ये ।
० वहां घर, दुकानें और गांव नहीं हैं। अप्रकाशधर्मा होने से क्षेत्रनिशीथ हैं। कृष्णराजि और तमस्काय
० वहां वर्षण, गर्जन और विद्युत् केवल कोई देव करता है,
असुर और नाग नहीं करते। भगवती सूत्र में विवेचित हैं। तमस्काय द्रव्यतः अप्काय है। (तमस्काय जल का परिणमन है। जम्बूद्वीप से बाहर
० बादर अप्काय-अग्निकाय-वनस्पतिकाय नहीं हैं। तिरछी दिशा में असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने पर
• चन्द्र-सूर्य की आभा नहीं है। अरुणवर द्वीप के बहिर्वर्ती वेदिका के छोर से आगे जो ० कृष्णराजि के आठ नाम हैं-मेघराजि, मघा, माघवती आदि। अरुणोदय समुद्र है, उसमें बयालीस हजार योजन अवगाहन
० कृष्णराजियां पृथ्वी के परिणमन हैं, जीव और पुद्गल के करने पर जल के ऊपर के सिरे से एक प्रदेश वाली श्रेणी परिणमन भी हैं।-भ६/७०-१०५ निकली है। यहां से तमस्काय उठता है। वह सतरह सौ .
तमस्काय-कृष्णराजि की कृष्ण विवर (Black hole) इक्कीस योजन ऊपर जाता है। उसके पश्चात तिरछा फैलता के साथ तुलना आदि के लिए द्र भ६/७०-११८ का भाष्य) हुआ सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र-इन चारों स्वर्गलोकों • जल में वनस्पति की नियमा को घेरकर ऊपर ब्रह्मलोक कल्प के रिष्ट विमान के प्रस्तट आउक्काए णियमा वणस्सती अत्थि। तक पहुंच जाता है। यहां तमस्काय समाप्त होता है।
(निभा ४२४० की चू) तमस्काय का नीचे से शराव के तल का तथा ऊपर
जल में वनस्पति नियमतः होती है। मुर्गे के पिंजरे का संस्थान है। तमस्काय दो प्रकार का है
५. अग्नि के लक्षण संख्यात योजन विस्तृत और असंख्यात योजन विस्तृत। ० तमस्काय में घर, दुकानें, गांव और सन्निवेश नहीं हैं।
....."डहणादीणेगलक्खणो अग्गी। ० वहां बड़े मेघ बरसते हैं। वह वर्षण देव भी करता है,
नामोदयपच्चइयं, दिप्पइ देहं समासज्ज ॥ असुर भी करता है और नाग भी करता है।
(बृभा २१४६) ० वहां स्थूल गर्जन का शब्द है, बादर विद्युत् है।
अग्नि उष्णस्पर्श आदि नामकर्म के उदय से इन्धन ० वहां बादर पृथ्वीकाय और बादर अग्निकाय नहीं है। प्राप्त कर दीप्त होती है। दहन, पचन और प्रकाशन-ये ० वहां चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारारूप नहीं हैं। इसके लक्षण हैं। उसके परिपार्श्व में चन्द्रमा आदि पांचों हैं । चन्द्र और सूर्य की ६. अग्नि में वायु की नियमा प्रभा तमस्काय में आकर धुंधली बन जाती है।
अग्नौ नियमाद्वायुः सम्भवति। ० तमस्काय के तेरह नाम हैं--तम, अंधकार, महान्धकार, लोकांधकार, देवान्धकार, अरुणोदक समुद्र आदि।
(बृभा ९१२ की वृ) ० तमस्काय पृथ्वी का परिणमन नहीं है, जल का परिणमन भी
यत्राग्निस्तत्र वायुरवश्यं भवति। है, जीव का परिणमन भी है, पुद्गल का परिणमन भी है।
(बृभा २७३७ की वृ) कृष्णराजि-सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प से ऊपर ब्रह्मलोक जहां अग्नि है, वहां वायु अवश्य होती है।
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