________________
आगम विषय कोश-२
२६५
जीवनिकाय
७. अग्निप्रज्वालक बहुकर्मी
का शस्त्र है। इसी प्रकार छींक आदि के समय अथवा शंखधमन उज्जालझंपगाणं, उज्जालो वण्णिओ हु बहु कम्मो। और मशकपूरण के समय उत्पन्न देहवायु बाहरी वायु का कम्मार इव पउत्तो, बहुदोसयरो ण भंतो॥ शस्त्र है। वीजन-तालवृन्त आदि से अपने-अपने प्रकार से
(निभा २१९) उत्पन्न वायु एक-दूसरे का शस्त्र है। भगवती सूत्र में अग्नि बुझाने वाले की अपेक्षा अग्नि ९. वायुकायिक हिंसा के स्थान जलाने वाले पुरुष को बहुकर्मा-बहुतर दोष वाला कहा गया णिग्गच्छति वाहरती"फूमे य।... है। जैसे शस्त्रनिर्माण करने वाला लोहकार बहुतर दोष वाला है, सुप्पे य तालवेंटे, हत्थे मत्ते य चेलकण्णे य। शस्त्र को तोड़ने वाला पुरुष अल्पतर दोष वाला है।
अच्छिफूमे पव्वए, णालिया चेव पत्ते य॥ (जो पुरुष अग्निकाय को प्रज्वलित करता है, वह संखे सिंगे करतल, वत्थी दतिए...... पुरुष महत्तर आश्रव और महत्तर वेदना वाला होता है, घम्महितो अण्णतरमंगं फूमति, भत्तपाणमुण्डं वा। क्योंकि वह बहुतर पृथ्वीकाय-अप्काय का समारंभ करता छीतं "कासियं ऊससिअंनीससिअं, एते छीयादी अविहीए है, अल्पतर तेजस्काय का समारंभ करता है, बहुतर वायुकाय
करेति त्ति।
(निभा २३५-२३७ चू) वनस्पतिकाय-त्रसकाय का समारंभ करता है।
जो गर्मी से अभिभूत हो निलय से बाहर निकलता है, ____ जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है, वह अल्पतर
हवा के संकल्प से दूसरों को भीतर से बुलाता है-आओआश्रव और अल्पतर वेदना वाला होता है, क्योंकि वह
आओ, बाहर ठंडी हवा चल रही है, तप्त होकर शरीर के पुरुष अल्पतर पृथ्वीकाय-अप्काय-वायुकाय-वनस्पति
किसी अवयव पर अथवा उष्ण भोजन-पानी पर फंक देता काय-त्रसकाय का समारंभ करता है, बहुतर तेजस्काय का
है। छींक, खांसी, उच्छ्वास-नि:श्वास अविधि से करता है, समारंभ करता है।-भ७/२२८)
शूर्प, तालवृन्त, हाथ, पात्र अथवा वस्त्र के कोण से हवा करता ८. वायुकाय का शस्त्र
है, दूसरे की आंख में फूंक देता है, बांस और मुरली बजाता वास-सिसिरेसु वातो, बहिया सीतो गिहेसु य स उम्हो। है, पद्मिनीपत्र आदि से हवा करता है, शंख या सींग बजाता विवरीओ पुण गिम्हे, दिय-राती सत्थमण्णोण्णं॥ है, करतल से वाद्य की ध्वनि करता है, चर्ममय वस्ति और एमेव देहवातो, बाहिरवातस्स होति सत्थं तु। मशक में हवा भरता है, वह वायुकाय की हिंसा करता है। वियणादिसमुत्थो वि य, सउपत्ती सत्थमण्णस्स॥ १०. वनस्पति आदि की सजीवता
(निभा २४१, २४२) पत्तंति पुष्पंतिफलंददंती, कालं वियाणंतितधिंदियत्थे। वर्षाकाल और शीतकाल में घर के बाहर की वायु ठंडी जाती यवुड्डी यजरायजेसिं, कहनजीवा उभवंति तेउ॥ और घर के भीतर की वायु गर्म होती है। ग्रीष्मकाल में इसके
“पुढविकाईया पवाल-लोणा, उवलगिरीणंच परिवड्ी॥ विपरीत-घर के भीतर की वायु ठंडी और बाहर की वायु गर्म
कललंडरसादीया, जह जीवा तधेव आउजीवा वि। होती है। तीनों ऋतुओं में दिन में भी और रात्रि में भी वायु का जोतिंगण जरिए वा, जहुण्ह तह तेउजीवा वि॥ यही लक्षण घटित होता है। अथवा दिन में वायु गर्म और
......"वाऊ जीवा सि ताहें सीसंति।.... रात्रि में वायु ठंडी होती है।
(व्यभा ४६२५-२६२८) घर के भीतर की वायु बाहरी वायु का और बाहर की वनस्पतिकाय-जो पत्रित, पुष्पित और फलित होते हैं, वायु भीतरी वायु का परस्पर शस्त्र है-एक-दूसरे के विनाश पत्र-पुष्प-फल-निमित्तक काल को जानते हैं, शब्द आदि का कारण है। दिवसवायु रात्रिवायु का और रात्रिवायु दिवसवायु इन्द्रियविषयों को जानते हैं, (बकुल आदि वनस्पतियां मृदु
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org