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व्यवहार
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आगम विषय कोश-२
पूर्वार्ध
पूर्वार्ध
अपराध
तप प्रायश्चित्त
जो जीत सावध है, उस जीत से व्यवहार नहीं होता। जो एकेन्द्रिय (अनन्तकाय वर्जित)
जीत निरवद्य है, उस जीत के द्वारा व्यवहार प्रवृत्त होता है। ० जीवों का संघट्टन
निर्विकृति
१. सावध जीत-जिनशासन और लोक में अपराध की विशुद्धि ० अनागाढ परिताप
की अवगति कराने के लिए अपराधी के शरीर पर राख लगाना, ० आगाढ परिताप
एकाशन
उसे कारागृह में बंदी बनाना, अस्थिमाला पहनाना, गधे पर बिठाकर ० प्राणव्यपरोपण
आचाम्ल
नगर में घुमाना आदि व्यवहार करना। विकलेन्द्रिय तथा अनंत वनस्पति
२. निरवद्य जीत-दशविध (आलोचना आदि) प्रायश्चित्त देना। ० जीवों का संघट्टन
यहां व्यवहार का संबंध निरवद्य जीत से है, सावध जीत ० अनागाढ परिताप
एकाशन
से नहीं। अपवाद रूप से कभी-कभी अनवस्था प्रसंग (दोषों की ० आगाढ परिताप
आचाम्ल
पुनरावृत्ति) के निवारण के लिए उस व्यक्ति पर सावध जीत का ० अपद्रावण
उपवास
प्रयोग भी किया जाता था, जो प्रायः बहत दोषों का सेवन करता या पञ्चेन्द्रिय
सर्वथा निर्दयी और प्रवचन के विषय में निरपेक्ष होता था। ० संघट्टन
एकाशन
संविग्न, प्रियधर्मा, अप्रमत्त और पापभीरु मुनि द्वारा स्खलना ० अनागाढ परिताप
आचाम्ल
होने पर उसके प्रति निरवद्य जीत से व्यवहार करना चाहिए। ० आगाढ परिताप
उपवास
शोधिकर जीत से व्यवहार करना चाहिए, अशोधिकर जीत ० प्राणव्यपरोपण
पांच कल्याणक से नहीं। जो व्यवहार पार्श्वस्थ प्रमत्तसंयत मुनि द्वारा आचीर्ण है, १५. सावद्य-निरवद्य जीतव्यवहार
वह अशोधिकर जीत है। उससे व्यवहार नहीं करना चाहिए, फिर जं जीतं सावज्जं, न तेण जीतेण होति ववहारो। चाहे वह अनेक पुरुषों द्वारा भी आचीर्ण क्यों न हो। जं जीतमसावज्जं, तेण उ जीतेण ववहारो॥ जो व्यवहार संवेगपरायण और दान्त मुनि द्वारा आचीर्ण है, छार हडि हड्डुमाला, पोट्टेण य रंगणं तु सावज। वह शोधिकर जीत है। उसी से व्यवहार करना चाहिए, फिर चाहे दसविहपायच्छित्तं, होति असावज्जजीतं तु॥ वह एक ही व्यक्ति द्वारा आचीर्ण क्यों न हो। उस्सण्णबहू दोसे, निद्धंधस पवयणे य निरवेक्खो। एयारिसम्मि पुरिसे, दिज्जति सावज्जजीयं पि॥ १६. जीत व्यवहार-प्रवर्तन : बारह वस्तुओं का विच्छेद संविग्गे पियधम्मे, य अप्पमत्ते अवज्जभीरुम्मि।
......"सिद्धिपहे ततियगम्मि पुरिसजुगे। कम्हिइ पमायखलिए, देयमसावज्जजीतं तु॥
वोच्छिन्ने तिविहे संजमम्मि जीतेण ववहारो॥ ....."जं जीतं सोहिकरं, तेण उ जीएण ववहारो॥
संघयणं संठाणं. च पढमगं जो य पव्वउवओगो। जं जीतमसोहिकरं, पासत्थ-पमत्त-संजयाचिण्णं। ववहारे चउक्कं पि, चोद्दसपुव्विम्मि वोच्छिन्नं । जइ वि महाणाइण्णं, न तेण जीतेण ववहारो॥ आहायरिओ एवं, ववहारचउक्क जे उ वोच्छिन्नं। जं जीतं सोहिकरं, संवेगपरायणेण दंतेणं। चउदसपुव्वधरम्मी, घोसंती तेसऽणुग्घाता॥ एगेण वि आइण्णं, तेण उ जीएण ववहारो॥ मणपरमोहिपुलाए, आहारग-खवग-उवसमे कप्पे।
यत् प्रवचने लोके चापराधविशुद्धये समाचरितं संजमतिय केवलिसिझणा य जंबुम्मि वोच्छिन्ना॥ क्षारावगुण्डनं, हडौ गुप्तिगृहप्रवेशनं"खरारूढं कृत्वा ग्रामे संघयणं संठाणं, च पढमगं जो य पुव्वउवओगो। सर्वतः पर्यटनमित्येवमादि सावधं जीतं, अपवादतः कदाचित् एते तिन्नि वि अत्था, चोद्दसपुस्विम्मि वोच्छिन्ना॥ सावद्यमपि जीतं दद्यात्। (व्यभा ४५४३-४५४९ वृ)
(व्यभा ४५२३-४५२५, ४५२७, ४५२८)
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