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प्रवचन
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आगम विषय कोश-२
होने पर वे साधुओं को संयमश्रेणि से भ्रष्ट करते हैं, इसलिए अर्हतों से गृहीत पट्ट, फलक, पुस्तक आदि), जो प्रयोजन पूर्ण होने पर ने दोनों के अतिचारों का निषेध किया है।
मुनि द्वारा प्रतिहरणीय/प्रत्यर्पणीय है, प्रातिहारिक कहलाता है। मूलगुणों के नष्ट होने पर मूलगुण और उत्तरगुण तथा * संस्तारक-प्रत्यर्पणविधि
द्र शय्या उत्तरगुणों के विनष्ट होने पर मूलगुण भी विनष्ट होते हैं। जैसे
अपाडिहारियं थावरं। (निभा ६९३ की चू) तालद्रुम के अग्र पर किया गया आघात मूल का और मूल पर किया
स्थायी रूप से गृहीत वस्तु अप्रातिहारिक है। गया आघात अग्र का विनाश कर देता है।। ___भंते ! किसी एक गुण की प्रतिसेवना से मूल और उत्तर- प्रायश्चित्त-दोष-विशुद्धि के लिए किया जाने वाला प्रयत्न। दोनों गुणों का अभाव होने से संयम का ही अभाव हो जाएगा और
| १. प्रायश्चित्त के निर्वचन, एकार्थक. तब क्या तीर्थ चारित्रविहीन नहीं हो जाएगा? गुरु ने कहा- २. परिहारस्थान ही प्रायश्चित्तस्थान शिष्य ! जब तक छहजीवनिकाय के प्रति संयम का अनुवर्तन होता |३. प्रायश्चित्त राशि की उत्पत्ति : असंख्य असंयमस्थान है, तब तक मूल और उत्तर दोनों गुण प्रवर्तित होते हैं।
| ४. प्रतिसेवना ही प्रायश्चित्त ___ मूलगुण-उत्तरगुण होने पर इत्वरिक सामायिक चारित्र और ५. प्रायश्चित्त के दस प्रकार छेदोपस्थापनीय चारित्र-दोनों होते हैं और जब तक तीर्थ है, तब * आलोचना प्रायश्चित्त के स्थान
द्र आलोचना तक बकुश (उत्तरगुणप्रतिसेवी)और प्रतिसेवक (मूलगुणप्रतिसेवी)
६. प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त के स्थान निर्ग्रन्थ होते हैं, इससे तीर्थ अचारित्र नहीं होता।
० तदुभय प्रायश्चित्त के स्थान
७. विवेकाह प्रायश्चित्त प्रवचन-जिनशासन, द्वादशांग
८. व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त के स्थान "दुवालसंग पवयणं तु॥ (व्यभा २६२९) ९. तपयोग्य प्रायश्चित्त पवयणं चाउवण्णो समणसंघो।“साहु-साहुणि-सावग
० प्रतिक्रमण और तप प्रायश्चित्त कब?
० तप और छेद के योग्य प्रायश्चित्तस्थान साविगा।
(निभा ४३४१ की चू)
० तप और छेद के स्थान तुल्य साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका-यह चतुर्विध श्रमणसंघ ___ * बिना आज्ञा भिक्षाटन से प्रायश्चित्त द्र आज्ञा प्रवचन कहलाता है। (द्र श्रीआको १ प्रवचन/तीर्थ) १०. देशछेद-सर्वछेद : प्रायश्चित्त के सात प्रकार * प्रवचन-स्थिरीकरण सूत्र
द्र जिनशासन | * परिहार और छेद
द्र परिहारतप
|११. मूल प्रायश्चित्त (नई दीक्षा) के स्थान प्रातिहारिक-लौटाने योग्य वस्तु, मुनि द्वारा गृहीत वह वस्तु
० छेद व मूल में अंतर : प्रायश्चित्त के आठ प्रकार जिसका गृहस्थ को प्रत्यर्पण किया जा सके। * अनवस्थाप्य और पारांचित : मूल से विलक्षण द्र पारांचित जम्मि कुले गहितो संथारयो तस्स पच्चप्पिणंतस्स त्ति
|१२. साध्वी को अनवस्थाप्य-पारांचित नहीं जं धारणं सो पाडिहारितो। (निभा १३०० की चू)
१३. त्रिविध प्रायश्चित्त : दान आदि
० दान प्रायश्चित्त : तीन आदेश जिस घर से संस्तारक ग्रहण किया है, मासकल्प आदि ० काल और तप प्रायश्चित्त : गुरु भी लघु कालावधि पूर्ण होने पर उसी घर में उसे लौटाना है-इस अवधारणा
|१४. उद्घातिक अनुद्घातिक (लघु-गुरु ) प्रायश्चित्त के साथ जो वस्तु ली जाती है, वह प्रातिहारिक कहलाती है। ० अनुद्घात के स्थान गिहिसंतियं उवकरणं पडिहरणीयं पाडिहारितं।
० उद्घात-अनुद्घात के स्तर (निभा ३३४ की चू)
० गुरु-लघु प्रायश्चित्त के दो हेतु
* निशीथ में चतुर्विध प्रायश्चित्त गृहस्थ का वह उपकरण (प्रयोजनविशेष या अस्थायी रूप
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