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आगम विषय कोश- २
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वाला व्यक्ति भी फिसल जाता है-यह उसकी विवशता है। वैसे ही सर्वप्रयत्न से यतनाशील सुविहित श्रमण भी कर्मोदयप्रत्ययिक विराधना कर लेता है। इसलिए वह भी प्रायश्चित्त का भागी होता है। असिवे ओमोदरिए, रायदुट्ठे भये य अद्धाणरोधए वा, कप्पिया तीसु
गेलणे ।
वी
जतणा ॥
(निभा ४५८)
अशिव (देवकृत उपद्रव या महामारी प्रकोप), दुर्भिक्ष, प्रशासन की प्रतिकूलता, चोर आदि का भय, रुग्णता, बीहड़ मार्ग, नगररोध (नगरबंद) - इन स्थितियों में निर्दोष आहार न मिलने पर यतापूर्वक सदोष को भी ग्रहण कर लिया जाता है । १३. प्रतिसेवना और कर्म
विहु डिसेवा, सा तु न कम्मोदएण जा जयतो । सा कम्मक्खयकरणी, दप्पाऽजत कम्मजणणी उ ॥ पडिसेवणा उ कम्मोदएण कम्ममवि तं निमित्तागं । अण्णोण्णहेउसिद्धी, तेसिं बीयंकुराणं व ॥ (व्यभा २२५, २२६ )
· एक अन्य प्रतिसेवना भी है, जो कर्मोदयहेतुक नहीं होती । कारण उपस्थित होने पर यतनापूर्वक की जाने वाली प्रतिसेवना कर्मक्षय करने वाली होती है। दर्पिका प्रतिसेवना और अयतना से की जाने वाली कल्पिका प्रतिसेवना भी कर्मबंध का हेतु है ।
कर्मोदय से प्रतिसेवना होती है और प्रतिसेवना से कर्मबंध होता है अतः प्रतिसेवना और कर्म में बीज और अंकुर की तरह परस्पर हेतुहेतुमद्भाव स्वतः सिद्ध है । १४. कल्पिका प्रतिसेवना भी सावद्य
मूलगुणउत्तरगुणेसु पुव्वं पडिसेहो भणितो ततो पच्छा कारणे पडिसेहस्सेव अणुण्णा भणिता। तो जा सा अणुण्णा किमेतेण सेवणिज्जा उत णेति ? आयरियाहकारणपडिसेवा विय, सावज्जा णिच्छए अकरणिज्जा । बहुसो विचारइत्ता अधारणिज्जेसु अत्थेसु ॥ ...... अकर्त्तव्या येऽर्थाः ते अवहारणीया जइ अण्णो णत्थि णाणातिसंधणोवाओ तो वियारेऊण अप्पबहुत्तं अधारणिजे अत्थेसु प्रवर्त्तितव्यमित्यर्थः । (निभा ४५९ चू) मूलगुण- उत्तरगुण संबंधी जिन दोषों का पहले प्रतिषेध
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किया गया है, तत्पश्चात् प्रयोजन होने पर उसी प्रतिषेध की अनुज्ञा दी गई है, तो जो वह अनुज्ञा है, क्या वह एकांत रूप से सेवनीय है अथवा नहीं है ?
आचार्य ने कहा- प्रयोजनवश जिस प्रतिसेवना की अनुज्ञा दी गई है, वह सावद्य - बंधन का कारण है, अतः परमार्थ दृष्टि से वह अकरणीय ही है। अकरणीय कृत्य परिहरणीय हैं । कारण उत्पन्न होने पर यदि यह निश्चय हो जाए कि ज्ञान आदि के संधान का दूसरा कोई उपाय नहीं है, तब पुनः पुनः विचारणा कर, दोषसेवन और हानि-लाभ के अल्पबहुत्व का गहराई से विमर्श कर अकरणीय कृत्यों में प्रवृत्त होना चाहिए।
प्रतिसेवना
०
अप्रतिसेवी दृढ़धर्मी
जति विय समणुण्णाता, तह वि य दोसो ण वज्जणे दिट्ठो । दधम्मता हु एवं णाभिक्खणिसेव- णिद्दयता ॥ ( निभा ४६० )
यद्यपि कल्पिका प्रतिसेवना अपवादरूप में अनुज्ञात है, फिर भी उसका वर्जन करने में आज्ञाभंग आदि कोई भी दोष दृष्ट नहीं है, प्रत्युत् इससे अप्रतिसेवी की दृढधर्मिता परिलक्षित होती है। वह बार-बार होने वाले प्रतिसेवना के दोषों से बच जाता है और जीवों के प्रति उसका निर्दयतापूर्ण व्यवहार नहीं होता । अतः कल्पका प्रतिसेवना का प्रयोग भी सहसा नहीं करना चाहिए।
१५. बकुश प्रतिसेवना और सचारित्र तीर्थ
मूलगुण उत्तरगुणा, जम्हा भंसंति चरणसेढीतो । तम्हा जिणेहि दोण्णि वि, पडिसिद्धा सव्वसाहूणं ॥ अग्गघातो हणे मूलं, मूलघातो य अग्गयं । तम्हा खलु मूलगुणा, न संति न य उत्तरगुणा उ ॥ चोदग छक्कायाणं, तु संजमो जाऽणुधावते ताव । मूलगुण उत्तरगुणा, दोण्णि वि अणुधावते ताव ॥ इत्तरिसामाइय छेद संजम तह दुवे नियंठा य । बउस - पडिसेवगाओ, अणुसज्जंते य जा तित्थं ॥ (व्यभा ४६५ - ४६८) जहा तालदुमस्स अग्गसूतीए हताए मूलो हतो चेव, मूले वि हते अग्गसूती हता । (निभा ६५३१ चू) मूलगुण और उत्तरगुण पृथक्-पृथक् या युगपद् अतिचरित
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