________________
आगम विषय कोश-२
५२५
वैयावृत्त्य
ग्लान का उपाश्रय दूर हो तो सूत्रपौरुषी देकर तथा अधिक दूर नहीं जाऊंगा। यदि राजा को अपने पूर्वजों का अनुग्रह प्राप्त करना हो तो सूत्र और अर्थ पौरुषी के लिए अपने शिष्य को नियुक्त हो तो राजा स्वयं यहां आकर मुझे साथ ले जाए। पत्नी पुनः कर ग्लान की सेवा करे । वाचना देने वाले शिष्य के अभाव में बोली-पतिवर! राजा के पास तुम्हारे जैसे अनुग्रह करने वाले ग्लान मुनि के आचार्य उन्हें वाचना दें। यदि वे असमर्थ हैं तो अनेक ब्राह्मण हैं। यदि तुम्हें धन पाना हो तो वहां जाओ। वह राजा अनागाढ योगवाही शिष्यों के योग को स्थगित कर वहां अथवा से दान लेने नहीं गया, धन से वंचित रह गया। इसी प्रकार तुम अन्यत्र स्थित आगाढ़ योगवाही शिष्यों को कहे-आर्यो ! आप चाहते हो कि वे मुनि तुम्हें सेवा के लिए अभ्यर्थना करें, तो तुम भी काल का शोधन करें । जब वे उचित काल ग्रहण कर चुके हों, निर्जरा के लाभ से वंचित रह जाओगे। जितने दिनों का काल-शोधन किया और रुग्ण मनि स्वस्थ हो संघस्थविर के पूछने पर यदि कोई मुनि यह कहता है कि मैं गया हो. उतने दिनों के उद्देशन कालों की उन्हें एक साथ तो वराक-सर्वथा अशक्त के सदृश हूं, वहां जाकर क्या करूंगा? वाचना दे।
वहां अपमान को ही प्राप्त करूंगा। ऐसा कहने वाला मुनि चतुर्गुरु ११. अप्रार्थित वैयावृत्त्य : महद्धिक दृष्टांत
प्रायश्चित्त को प्राप्त करता है। अभणितों कोइ न इच्छड, पत्ते थेरेहिँ होउवालंभो। स्थविर उसे अनुशासित करते हैं-आर्य! ग्लान को करवट दिटुंता महिडीए, सवित्थरारोवणं कज्जा बदलवाना, श्लेष्मपात्र-परिष्ठापन करना, संस्तारक बिछाना, रात्रिबहुसो पुच्छिज्जंता, इच्छाकारं न ते मम करिंति। जागरण करना, औषधि का चूर्ण करना, आहार-पानी के पात्र पडिमुंडणा य दुक्खं, दुक्खं च सलाहिउं अप्पा यथास्थान रखना, सेवा करने वालों की उपधि की प्रतिलेखना किं काहामि वराओ. अहं ख ओमाणकारको दो करना-क्या तुम इन कार्यों को करने में भी असमर्थ हो? एवं तत्थ भणंते, चाउम्मासा भवे गुरुगा॥ ११
१२. सेवा की अनिवार्यता : संघ की प्रभावना उव्वत्त-खेल-संथार-जग्गणे पीस-भाणधरणे य।
असिवे ओमोयरिए, राय(टे भये व गेलन्ने।.... तस्स पडिजग्गयाण व, पडिलेहेङ पि सि असत्तो॥
एएहिँ कारणेहि, तह वि वहंती न चेव छड्डुिति।....
अहवा वि सो भणेज्जा, छड्डेउ ममं तु गच्छहा तुब्भे। (बृभा १८८३-१८८६)
होउ त्ति भणिय गुरुगा, इणमन्ना आवई बिइया॥ एक मुनि वैयावृत्त्य में कुशल था किन्तु दूसरे साधुओं ने पच्चंतमिलक्खेसुं, बोहियतेणेसु वा वि पडिएसु। उसको सेवा के लिए बुलाया नहीं, वह ग्लान के पास गया नहीं। जणवय-देसविणासे, नगरविणासे य घोरम्मि। तब संघ-स्थविर ने उसको महान् प्रायश्चित्त देते हुए उपालम्भ तह वि गिलाण सुविहिया, वच्चंति वहंतगा साहू॥ दिया-तुम सेवा करने क्यों नहीं गए?
तारेह ताव भंते! अप्पाणं किं मएल्लयं वहह। उसने कहा- मैंने अनेक बार सेवा के लिए पूछा किन्तु एगालंबणदोसेण मा हु सव्वे विणस्सिहिह। उन्होंने मेरी सेवा की इच्छा नहीं की। फिर भी मैं वहां गया। तब एवं च भणियमेत्ते, आयरिया नाण-चरणसंपन्ना। उन्होंने कहा-तुम्हारी सेवा रहने दो। इस निषेध से मुझे कष्ट अचवलमणलिय हितयं, संताणकरिं वइमुदासी॥ हुआ। ग्लान की जैसी सेवा मैं करता है, वैसी दूसरा कोई नहीं सव्वजगज्जीवहियं, साहुं न जहामों एस धम्मो णे। जानता है'-ऐसी आत्मश्लाघा करना भी मेरे लिए दुष्कर है। जति य जहामो साहुं, जीवियमित्तेण किं अम्हं॥ तब स्थविर मुनि ने महर्द्धिक का दृष्टांत सुनाया
तं वयणं हिय मधुरं, आसासंकुरसमुब्भवं सयणो। __ एक राजा कार्तिक पूर्णिमा के दिन ब्राह्मणों को दान देता समणवरगंधहत्थी, बेड़ गिलाणं परिवहंतो॥ था। एक ब्राह्मण को उसकी पत्नी ने कहा-तुम राजा के पास जइ संजमो जइ तवो, दढमित्तित्तं जहुत्तकारित्तं । जाओ। ब्राह्मण ने कहा-मैं राजा के निमंत्रण के बिना दान लेने जइ बंभं जइ सोयं, एएसु परं न अन्नेसुं॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org