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वैयावृत्त्य
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आगम विषय कोश-२
आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, कुल, १०. सेवानियुक्ति की प्रार्थना गण, संघ और साधर्मिक-इन दसों के वैयावृत्त्य की क्रियान्विति सोऊण वा गिलाणं, तूरंतो आगतो दवदवस्स। के तेरह स्थान हैं-१. भोजन लाकर देना। २. पानी लाकर देना। संदिसह किं करेमी, कम्मि व अटे निउंजामि॥ ३. शय्या-संस्तारक देना। ४. आसन प्रदान करना। ५. क्षेत्र और पडियरिहामि गिलाणं, गेलण्णे वावडाण वा काहं। उपधि का प्रतिलेखन करना । ६. पादप्रमार्जन करना अथवा औषध तित्थाणुसज्जणा खलु, भत्ती य कया भवति एवं॥ पिलाना। ७. अक्षिरोग उत्पन्न होने पर भेषज देना। ८. मार्ग में
(निभा २९७५, २९७६) विहार करते समय उनका भार वहन करना तथा मर्दन आदि
सेवाभावी मुनि रुग्ण की वार्ता सुनकर तत्काल तीव्र गति करना। ९. राजा के क्रुद्ध होने पर उत्पन्न क्लेश से निस्तार करना।
से रोगी के पास उपस्थित हो वहां स्थित परिचारक या आचार्य से १०. शरीर को हानि पहुंचाने वालों तथा उपधि चुराने वालों से
निवेदन करता है-आज्ञा दें, मैं क्या करूं? किस सेवाकार्य में संरक्षण करना। ११. बाहर से आने पर दण्ड ग्रहण कर रखना।
स्वयं को नियोजित करूं? मैं ग्लान की परिचर्या करूं या परिचारकों १२. ग्लान होने पर उसके योग्य कार्य सम्पादन करना। १३. उच्चार
की भिक्षाटन आदि द्वारा सेवा करूं, जिससे तीर्थ की अव्युच्छित्ति पात्र, प्रश्रवणपात्र और श्लेष्मपात्र की व्यवस्था करना।
और तीर्थंकर की भक्ति सहज हो जाए। इस प्रकार वैयावृत्त्य के प्रत्येक प्रकार के तेरह स्थान होने
(इस निवेदन को सुन पूर्व स्थित मुनि कहते हैं- 'आर्य' से दशविध वैयावृत्त्य के एक सौ तीस स्थान होते हैं।
तुम जाओ। हम परिचर्या में समर्थ हैं। यदि वे असमर्थ हों और केवल स्वाध्याययोग से ही एकांत निर्जरा नहीं होती,
आगंतुक कुशल हो, तो वे उसे विसर्जित नहीं करते।) वैयावृत्त्य करने से भी एकांत निर्जरा होती है-यह तथ्य व्यवहार
० आगंतुक परिचारक : वाचना की व्यवस्था सूत्र के दसवें उद्देशक में प्रतिपादित है। दशविध वैयावृत्त्ययोग से
संजोगदिट्ठपाढी, तेणुवलद्धा व दव्वसंजोगा। युक्त सुविहित मुनि निर्वाण (परम शांति) प्राप्त करता है।
सत्थं व तेणऽधीयं, वेज्जो वा सो पुरा आसि॥ ९. अग्लान भाव से सेवा : गिला-अगिला
अत्थि य से योगवाही, गेलन्नतिगिच्छणाएँ सो कुसलो। निववेटुिं च कुणंतो, जो कुणती एरिसा गिला होति।
सीसे वावारेत्ता, तेगिच्छं तेण कायव्यं ॥ पडिलेहुट्ठवणादी, वेयावडियं तु पुव्वुत्तं ॥
दाऊणं वा गच्छइ, सीसेण व वायएहि वा वाए। ___ यो नाम नृपवेष्टिं राजवेष्टिमिव कुर्वन् वैयावृत्त्यं
तत्थऽन्नत्थ व काले, सोहिएँ सव्वुद्दिसइ हटे॥ करोति एतादृशी भवति गिला ग्लानिः । गिलायाः प्रतिषेधोऽ
(बृभा १८७९-१८८१) गिला तया करणीयं वैयावृत्त्यम्। (व्यभा १०५३ वृ)
यदि आगन्तुक मुनि ने औषध द्रव्य को मिलाने की प्रयोगजो राजविष्टि (राजा की बेगार) की भांति वैयावृत्त्य
विधि से संबंधित चिकित्साशास्त्र का अध्ययन किया है, अथवा करता है, यह गिला-ग्लानि है।
जिसको अतिशयज्ञान के द्वारा द्रव्यसंयोग की विधियां उपलब्ध हैं, रोगी के उपकरणों की प्रतिलेखना करना, उसे उठाना आदि
अथवा जिसने चरक, सुश्रुत आदि शास्त्रों का अध्ययन किया है, सब कार्य सोत्साह अग्लान भाव से करने चाहिए।
अथवा जो पहले वैद्य रह चुका है, ऐसे विज्ञ मुनि को ग्लान की "इच्छां तेषामगिलया निर्जराबुद्ध्या पूरयति न चिकित्सा के लिए रखना चाहिए। परोपरोधाच्चित्तनिरोधेन। (व्यभा २१०७ की वृ)
आगन्तुक मुनि के गच्छ में योगवाही मुनि हों और वह सेवाभावी सेवा-सहयोग लेने वालों की इच्छा को अगिला- स्वयं ग्लानचिकित्सा में कुशल हो तो वह शिष्यों को सूत्र और अर्थ निर्जराबुद्धि से पूर्ण करते हैं । वे किसी पर अनुग्रह करने के लिए या पौरुषी देकर अथवा शिष्यों को वाचना, वस्त्र-पात्र उत्पादन आदि किसी से बाध्य होकर अनिच्छा से सेवा नहीं करते।
कार्यों में यथायोग्य व्यापत कर ग्लान की सेवा में पहंच जाए। यदि
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