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अनशन
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निर्यामकरहित नौका विनष्ट हो जाती है, वैसे ही कुशल निर्यापक के बिना अनशनधारी भक्तपरिज्ञा में संमूढ हो जाता है और उसकी समाधि खंडित हो जाती है। • वृषभ - वृषभ जब प्रतिवृषभ के साथ युद्ध में पराजित होकर पलायन करता है तो उसका मालिक नामगोत्र से संबोधित कर उसे अपने पास बुलाता है, स्नेहपूर्वक हाथ से आस्फालन करता है, तब वह डरता हुआ भी प्रोत्साहित हो पुनः युद्ध के लिए तैयार हो जाता
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योद्धा - अपने स्वामी द्वारा प्रशंसित-प्रोत्साहित - आस्फालित योद्धा रणभूमि में शत्रुसेना को परास्त कर देता है। इसी प्रकार गीतार्थ निर्यापक को पाकर भक्तपरिज्ञावान् मुनि परीषह सेना पर विजय प्राप्त कर लेता है।
• पोतनिर्यामक - निपुण निर्यामक के अभाव में जैसे पोत विनष्ट हो जाता है। कुशल कर्णधार नौका को अभीप्सित भूमि तक ले जाता है, इसी प्रकार गीतार्थ के सहयोग से अनशनधारी सिद्धि को प्राप्त करता है। २५. निर्यापक : अर्हता, कार्य, संख्या
चारित्रस्य पर्यन्तसमये निर्यापका एव यथावस्थितशोधिप्रदानत उत्तरोत्तरचारित्रनिर्वाहकाः ..... |
(व्यभा ४१६४ की वृ)
चारित्रमयजीवन के पर्यंतसमय - अनशनकाल में निर्यापक ही यथावस्थित शोधि प्रदान करते हैं, इससे वे उत्तरोत्तर चारित्र के निर्वाहक होते हैं । पासत्थोसन्नकुसीलठाणपरिवज्जिया तु निज्जवगा । पियधम्मऽवज्ज भीरू, गुणसंपन्ना अपरितंता ॥ उव्वत्त दार संथार, कहग वादी य अग्गदारम्मि । भत्ते पाण वियारे, कधग दिसा जे समत्था य ॥ जो जारिसिओ कालो, भरहेरवएसु होति वासेसु । ते तारिसया ततिया, अडयालीसं तु निज्जवगा ॥ एवं खलु उक्कोसा, परिहार्यता हवंति तिण्णेव । दो गीयत्था ततिए, असुन्नकरणं जहन्नेणं ॥ (व्यभा ४३२० - ४३२३ ) अनशनकर्त्ता की समाधि में जो योगभूत होते हैं, वे
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आगम विषय कोश - २
निर्यापक कहलाते हैं। वे पार्श्वस्थ अवसन्न- कुशील स्थानों का वर्जन करने वाले, प्रियधर्मा, पापभीरु, गुणसम्पन्न तथा अपरिश्रांत होते हैं। उनके कार्य इस प्रकार हैं
१. अनशनधारी की करवट बदलना ।
२. द्वारमूल में स्थित रहना ।
३. संस्तारक (उसके लिए बिछौना) करना । ४. अनशनी को धर्मकथा सुनाना ।
५. वाद करना - उल्लंठ व्यक्तियों के वचनों का प्रतिकार करना । ६. अग्र द्वार पर स्थित रहना ।
७. निर्यापकों के
८. प्रत्याख्याता के
९. उच्चर - परिष्ठापन करना ।
१०. प्रस्रवण - परिष्ठापन करना ।
११. बाहर लोगों को धर्मकथा सुनाना । १२. चारों दिशाओं में चार साहस्रक मल्ल ।
इन बारह प्रकार के कार्यों में से प्रत्येक कार्य के लिए चार-चार निर्यापक नियुक्त होते हैं। इस प्रकार कुल अड़तालीस निर्यापक होते हैं ।
भरतक्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र में जब जैसा काल होता है, निर्यापक उस काल के अनुरूप होते हैं। निर्यापकों की उत्कृष्ट संख्या अड़तालीस है । जघन्य दो गीतार्थ मुनि अनशनी के पास होते हैं। एक भक्तपान की मार्गणा करता है, दूसरा भक्तप्रत्याख्याता के पास रहता है। (अनशनकर्त्ता को अकेला नही छोड़ा जा सकता ।)
...निज्जवगेण समाही, कायव्वा उत्तमट्ठम्मि ॥ एक्कम्मि उनिज्जवगे, विराहणा होति कज्जहाणी य।... एगो संथारगतो, बितिओ संलेह ततिय पडिसेधो । अपहुव्वंत समाही, तस्स व तेसिं च असतीए ॥ (व्यभा ४२७२, ४२७३, ४२८० )
योग्य आहार लाना । योग्य पानी लाना ।
निर्यापक अनशनधारी को समाधिस्थ रखता है। निर्यापक अनेक होने चाहिए। एक निर्यापक होने से अतिश्रम के कारण आत्मविराधना तथा संयमविराधना और कार्यहानि का प्रसंग आता है।
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एक मुनि अनशन में स्थित है, दूसरा संलेखना कर रहा
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