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पिण्डैषणा
मोसिला, अंजणे, लोणे, गेरुय, वण्णिय, सेडिय, सोरट्ठिय, पिट्ठ, कुकुस, उक्कुडे चेव । एते अट्ठारस कायणिप्फण्णा पिंडेसणाए भणिया हत्था ससिणिद्धं । दुहा कम्त पुरेकम्मं, पच्छाकम्मं । उदउल्लं "एते आउक्कायहत्था । रोट्टो उक्कुट्टो कुकुसाएते वणस्सतिकायहत्था । सेसा सव्वे उ पत्थित्वा पुढविकायहत्थ त्ति ससरक्खादिजाव सोरट्ठिय ति एक्कारस हत्था । (निभा १४७ की चू)
संसृष्ट के अठारह प्रकार हैं- १. पुराकर्म, २. पश्चात् कर्म, ३. उदकार्द्र, ४. सस्निग्ध, ५. सचित्त रज- कण, ६. मृत्तिका - क्षार, ७. हरिताल, ८. हिंगुल, ९. मैनशिल, १०. अंजन, ११. नमक, १२. गैरिक, १३. वर्णिका, १४. श्वेतिका, १५. सौराष्ट्रका, १६. पिष्ट, १७. कुक्कुस और १८. उत्कृष्ट ।
इनमें पुराकर्म, पश्चात्कर्म, उदकार्द्र और सस्निग्ध-ये अप्काय से संबंधित हैं। पिष्ट, कुक्कुस और उत्कृष्ट - ये वनस्पतिकाय से संबंधित है। शेष ग्यारह प्रकार पृथ्वीकाय से संबंधित हैं । ( आचूला १/६३ - ८० में पश्चात् कर्म के अतिरिक्त शेष सबका उल्लेख है। वहां मृत्तिका और क्षार - ये दो पृथक् पद हैं।) १२. नित्यपिंड और अभिहृतपिंड का वर्जन
जे भिक्खू नितियं पिंडं भुंजति. ॥....तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारद्वाणं उग्घातियं ॥
जे भिक्खू गाहावइकुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे परं ति घरंतराओ असणं साइमं वा अभिहडं आह दिज्जमाणं पडिग्गाहेति ॥ (नि २/३२, ५६; ३/१५)
भिक्षु नित्यपिंड आहार करता है और जो भिक्षु गृहपति के घर में भिक्षा की प्रतिज्ञा से प्रवेश कर तीन घरों से आगे से लाकर दिए जाने वाले अभिहृत दोष से दूषित अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ग्रहण करता है, वह मासलघु प्रायश्चित्त का भागी होता है। • अभिहृत और नियतपिंड आइण्णमणाइण्णं, निसीधऽभिहडं च णोनिसीहं च । साभावियं च नियतं, निकायण निमंतणा लहुगो ॥
''''तत्राचीर्णमुपयोगसम्भवे गृहत्रयमध्ये, ततः परमनाचीर्णमुपयोगासम्भवात् । अनाचीर्णमपि द्विविधं निशीथाभ्याहृतं नोनिशीथाभ्याहृतं च । तत्र यत् साधोर
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आगम विषय कोश - २
विदितमभ्याहृतं तन्निशीथाभ्याहृतमितरत् साधोर्विदितमानीतं नोनिशीथाभ्याहृतं नियतं त्रिविधम्, तद्यथा स्वाभाविकं, निकाचितं, निमन्त्रितं च । तत्र यन्न संयतार्थमेव किन्तु य एव श्रमणोऽन्यो वा प्रथममागच्छति तस्मै यदग्रपिण्डादि दीयते, तत्स्वाभाविकम्। यत्पुनर्भूतिकर्मादिकरणतश्चतुर्मासादिकं कालं यावत् प्रतिदिवसं निकाचितं निबद्धीकृतं गृह्यते तन्निकाचितम् । यत्तु दायकेन निमन्त्रणापुरस्सरं प्रतिदिवसं नियतं दीयते तन्निमन्त्रितम् । (व्यभा ८५७ वृ)
अभिहत और नियत - ये भिक्षासंबंधी दोष हैं। अभिहत - इसके दो प्रकार हैं
१. आचीर्ण - गृहस्थ तीन घरों के मध्य से सम्मुख जाकर भिक्षा दे- इसमें उपयोग सम्भव I
२. अनाचीर्ण- तीन घरों से आगे से लाने में उपयोग संभव नहीं है। अनाचीर्ण के भी दो प्रकार हैं
१. निशीथ - वह अभिहृत भिक्षा, जो साधु को ज्ञात न हो।
२. नोनिशीथ - जिस आनीत आहार की साधु को जानकारी हो । • नियत के तीन प्रकार हैं
१. स्वाभाविक - जो केवल साधु के लिए ही नहीं है, साधु या अन्य, जो भी सर्वप्रथम आता है, उसे अग्रपिंड आदि जो दिया जाता है, वह स्वाभाविक नियत पिण्ड है ।
२. निकाचित - चतुर्मास आदि काल में भूतिकर्म आदि के कारण जो प्रतिदिन निकाचित रूप से - निबद्धीकृत लिया जाता है। ३. निमंत्रित – जो दायक के द्वारा निमन्त्रणापूर्वक नियत रूप से प्रतिदिन दिया जाता है, वह निमंत्रित नियत पिण्ड है ।
जो इन्हें ग्रहण करता है, वह मासलघु प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। ० नित्य अग्रपिण्ड वर्जित
जे भिक्खू नितियं अग्गपिंडं भुंजति, भुजंतं वा सातिज्जति ॥ 'णितियं' धुवं सासयमित्यर्थः 'अग्रं' वरं प्रधानं । अहवा जं पढमं दिज्जति । (नि २/३१ चू) णितिए उ अग्गपिंडे, णिमंतणोवीलणा य परिमाणे । साभाविए य एत्तो, तिणिण ण कप्पंति तु कमेणं ॥ साभावि णितिय कप्पति, अणिमंतणोवील अपरिमाणे य । जं वा वि सामुदाणी, तं भिक्खं दिज्ज साधूणं ॥ निष्फण्णो वि सअट्ठा, उग्गमदोसा उठवितगादिया । उप्पज्जंते जम्हा, तम्हा सो वज्जणिज्जो उ ॥
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