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________________ प्रतिसेवना वायामवग्गणादी, णिक्कारणधावणं तु दप्पो तु । कायापरिणयगहणं, अकप्पो जं वा अगीतेणं ॥ णिक्कारणपडिसेवा, अपसत्थालंबणा य जा सेवा । ''''' जं सेवितं तु बितियं, गेलण्णाइसु असंथरंतेणं । हट्ठो वि पुणो तं, चिय चियत्तकिच्चो णिसेवंतो ॥ ......जो अविसुद्धं, णिसेवते वण्णमादट्ठा ॥ .....परपक्खे सपक्खे वा वीसत्था सेवगमलज्जे ॥ अपरिक्खिमायवए, णिसेवमाणो तु होति अपरिच्छं । तिगुणं जोगमकातुं बितियासेवी अकडजोगी ॥ ( निभा ४६४, ४६७-४७१) ........पवयणे, विहुस्स विउव्वणा चेव ॥ जहा विण्हुअणगारो, तेण रुसिएण लक्खजोयणप्पमाणं विगव्वियं रूवं (निभा ४८७ चू) ***** I ० दर्प प्रतिसेवना – इसके दस प्रकार हैं १. दर्प- निष्कारण व्यायाम, वल्गन, धावन आदि करना । २. अकल्प - सचित्त पृथ्वी आदि का ग्रहण, अगीतार्थ द्वारा आनीत उपधि, आहार आदि का उपभोग । ३. निरालंब- निष्कारण और अप्रशस्त आलंबन से प्रतिसेवना करना । ४. त्यक्तकृत्य-ग्लान आदि अवस्था में अपेक्षा होने पर जिसका सेवन किया, स्वस्थ होने के बाद भी उसका सेवन करना । ५. अप्रशस्त - बल, वर्ण आदि के निमित्त प्रतिसेवना करना । ६. विश्वस्त - अकृत्य कर स्वपक्ष-परपक्ष से लज्जित नहीं होना । ७. अपरीक्ष्य - लाभ-हानि की परीक्षा किए बिना प्रतिसेवना करना । ८. अकृतयोगी - तीन बार गवेषणा किए बिना, प्रथम बार या दूसरी बार में ही अनेषणीय का ग्रहण करना । ९. अननुतापी - दोषाचरण करके भी पश्चात्ताप न करना । १०. निःशंक - निर्भय होकर प्रतिसेवना करना । ० कल्पप्रतिसेवना- इसके चौबीस प्रकार हैं १. दर्शन - दर्शनप्रभावक ग्रंथों का अध्ययन करते समय अपेक्षा होने पर प्रतिसेवना करना। २. ज्ञान - सूत्र - अर्थ का अध्ययन करते समय प्रतिसेवना करना । ३. चारित्र - अनेषणा आदि दोषों से चारित्र की रक्षा के लिए अन्यत्र गमन-काल में की जाने वाली प्रतिसेवना । ३९० Jain Education International ४. तप - विकृष्टतप हेतु घृतपान आदि करना । ५. प्रवचन-- शासन रक्षा हित प्रतिसेवना करना । जैसे विष्णु अनगार ने एक लाख योजन की विक्रिया की । ६. समिति - ईर्यासमिति आदि की रक्षा के लिए आंख की सावद्य चिकित्सा करवाना आदि । ७. गुप्ति - मनोगुप्ति आदि की रक्षा हेतु अकल्प्य सेवन । ८-१६. साधर्मिक वात्सल्य, कुलकार्य, गणकार्य, संघकार्य तथा आचार्य, असहिष्णु, ग्लान, बालदीक्षित एवं वृद्धदीक्षित की समाधि - इन निमित्तों से वशीकरण, मंत्र, निमित्त आदि का प्रयोग आगम विषय कोश- २ करना । १७- २४, जल, अग्नि, चोर, श्वापद म्लेच्छभय, अटवीमार्ग, विपदा (द्रव्य आदि का अभाव ), व्यसन - इन कारणों से बचने के लिए यतना से प्रतिसेवना करना । ज्ञान-दर्शन- चारित्र के आलम्बन से, आगाढ कारण उत्पन्न होने पर अकल्प की प्रतिसेवना करने वाला कदाचित् प्रशस्त प्रयोजन सम्पादित करने में समर्थ हो जाता है, इस कारण से यह कल्पका प्रतिसेवना है ७. परिग्रह दर्पिका -कल्पिका प्रतिसेवना सुहुमो य बादरो य, दुविहो लोउत्तरो समासेणं । कागादि साण गोणे, कप्पट्ठग रक्खण ममत्ते ॥ सेहादी पडिकुट्ठो, सच्चित्ते अणेसणादि अच्चित्ते । ओरालिए हिरण्णे, छक्काय परिग्गहे जं च ॥ "वत्थादिगतं ण गणेंति ॥ ओगासे संथारो, उवस्सय-कुल- गाम-नगर-देस- रज्जे य।'' कालादीते काले, कालविवच्चास कालतो अकाले । ...... भावमि रागदोसा, उवधीमादी ममत्त णिक्खित्ते ।..... ( निभा ३८०, ३८१, ३८५ - ३८८ ) परिग्रह दर्पिका प्रतिसेवना के दो प्रकार हैं १. सूक्ष्म परिग्रह - ईषद् ममत्वभाव । २. बादर परिग्रह - तीव्र ममत्वभाव । For Private & Personal Use Only उ अथवा परिग्रहप्रतिसेवना के चार प्रकार हैंद्रव्य परिग्रह - आहार आदि के पास आने पर या स्वयं को काटने पर कौओं, कुत्तों, शृगाल, बैल आदि को हटाना। बच्चों की रखवाली करना, स्वजन आदि पर ममत्व करना । www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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