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छेदसूत्र
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आगम विषय कोश-२
ओर प्रवृत्त करता है। यदि इस हेतु को गौण कर दिया जाए तो व्यवहार और दशा) चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत हैं।
का अर्थ प्रायश्चित्त सत्र होने में कोई बाधक प्रमाण महाकल्पश्रत उत्कालिक और शेष छेदसत्र कालिक प्राप्त नहीं है।
विभाग के अन्तर्गत हैं। (द्र श्रीआको १ अंगबाह्य) समयसुन्दरगणी ने छेदसूत्रों की संख्या छह बतलाई ५. छेदसूत्र के योग्य है-१. दशाश्रुतस्कंध २. व्यवहार ३. बृहत्कल्प ४. निशीथ आधारिय सुत्तत्थो, सविसेसो दिज्जए परिणयस्स। ५. महानिशीथ ६. जीतकल्प। इनमें से प्रथम पांच छेदसूत्रों सुपरिच्छित्ता य सुनिच्छियस्स इच्छागए पच्छा। का नन्दी में उल्लेख मिलता है।......
(बृभा ८०५) छेदसूत्र जैनसंघ की न्यायसंहिता है। छेदसूत्रों के
कृतनिश्चयी परिणामक शिष्य की परीक्षा कर उसे वह मौलिक निषेध अहिंसा एवं अपरिग्रह की सूक्ष्म विचारणा से
सारा सूत्रार्थ दिया जाता है, जो सूत्रार्थ अपने गुरु के पास समुत्पन्न हैं। कुछ निषेध अन्यान्य भिक्षुसंघ में प्रचलित प्रवृत्तियों
अपवादसहित ग्रहण किया है। अपरिणामक या अतिपरिणामक के परिणामों से संबंधित हैं।
शिष्य की केवल उत्सर्ग या केवल अपवाद लक्षण वाली इच्छा आचार्य तुलसी-मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ)
जब समाप्त हो जाती है, तब उसे छेदसूत्र दिया जा सकता है। निसीहज्झयणं की भूमिका, पृ १३-१६, २७)
० छेदसूत्र की अर्थवाचना के अयोग्य २. छेदश्रुतार्थ बलवान् क्यों?
तिंतिणिए चलचित्ते, गाणंगणिए अ दुब्बलचरित्ते। जम्हा उ होति सोधी, छेदसुयत्थेण खलितचरणस्स।
आयरियपारिभासी, वामावट्टे य पिसुणे य॥ तम्हा छेदसुयत्थो, बलवं मोत्तूण पुव्वगतं ।।
आदीअदिट्ठभावे, अकडसमायारि तरुणधम्मे य।
(व्यभा १८२९) गव्विय पइण्ण निण्हइ, छेअसुए वज्जए अत्थं ।। छेदश्रुत के सूत्र और अर्थ के आधार पर चारित्र के
(बृभा ७६२, ७६३) अतिचारों की विशोधि होती है, इसलिए पूर्वगत श्रुत के तेरह प्रकार के शिष्यों को छेदसूत्रों के अर्थ की वाचना अतिरिक्त शेष समग्र श्रुतार्थ से छेदसूत्र का अर्थ बलवत्तर नहीं देनी चाहिए
(द्र सूत्र) तितिणिक-अनुकूल आहार, उपधि और शय्या की प्राप्ति ३. छेदश्रुतज्ञाता अरहस्यधारक
न होने पर प्रलाप बड़बड़ाने वाला, करने वाला। नास्त्यपरं रहस्यान्तरं यस्मात् तद् अरहस्यम् ,अतीव
० चलचित्त-अनेक आगमों का पल्लवग्राही ज्ञान करने वाला। रहस्यच्छेदशास्त्रार्थतत्त्वमित्यर्थः, तद् यो धारयति-अपात्रे
० गाणंगणिक-छह मास पूर्ण किए बिना ही एक गण से
दूसरे गण में संक्रमण करने वाला। भ्यो न प्रयच्छति सोऽरहस्यधारकः । (बृभा ६४९० की वृ)
० दुर्बलचारित्र-ज्ञान-दर्शन-चारित्र के पुष्ट आलम्बन के बिना जिसके अतिरिक्त दूसरा रहस्यपूर्ण ग्रंथ नहीं है, वह दोषों का सेवन करने वाला पति और बल से परिडीन अरहस्य अर्थात छेदश्रत का अर्थतत्त्व है। जो छेदशास्त्रों के
अपवादों में ही रुचि रखने वाला, मंदधर्मा। अत्यंत रहस्यपूर्ण अर्थ को धारण करता है-अपात्र के समक्ष
० परिभाषी-आचार्य की निंदा और परिभव करने वालो वाला। उसका प्रज्ञापन नहीं करता, वह अरहस्यधारक है।
० वामावर्त्त-गुरु-निर्देश के प्रतिकूल आचरण करने वाला। ४. छेदसूत्र किस अनुयोग में?
० पिशुन-दूसरों के दोषों का उद्भावन कर प्रीति को समाप्त जं च महाकप्पसुयं, जाणि य सेसाइं छेदसुत्ताई। करने वाला। चरणकरणाणुयोगी, त्ति कालियछेओवगयाणि य॥ ० आदिम-अदृष्टभाव-आवश्यक से सूत्रकृतांगपर्यंत आगमग्रंथों
(निभा ६१९०) के अभिधेय को आदिमभाव कहा जाता है, उसको नहीं महाकल्पश्रुत और शेष सारे छेदसूत्र (निशीथ, जानने वाला।
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