SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अधिकरण १६ दो एमेव गणायरिए, गच्छम्मि तवो तु तिण्णि पक्खाइ । आयरिए'''''' ॥ ( निभा २८०७-२८०९) पक्खा आचार्य अनुपशांत शिष्य को शांत होने की संभावना एक वर्ष तक प्रयत्नपूर्वक अपने पास रखे। जो वर्ष भर में भी शांत नहीं होता, उसका रोष पत्थर की रेखा के समान होता है। एक वर्ष बीतने पर उसे अन्य दो आचार्यों के संरक्षण में एक-एक वर्ष तक रखा जाता है। जो आचार्य उसे उपशांत करता है, वह उसी का शिष्य हो जाता है। उपशांत न होने पर तृतीय वर्ष के पश्चात् उसे गृहस्थ बना दिया जाता है। प्रव्रजित राजा आदि इसके अपवाद हैं। संघ उनके लिंग का अपहार नहीं करता । इसी प्रकार उपाध्याय और आचार्य अनुपशांत होकर गच्छ में रहते हैं तो उपाध्याय को तीन पक्ष और आचार्य को दो पक्ष तक तप तथा उसके बाद छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १३. अधिकरण ( कषाय ) से उत्पन्न दोष तावो भेदो अयसो, हाणी दंसण-चरित्त नाणाणं । साहुपदो संसारवड साहिकरणस्स ॥ अइभणिय अभणिए वा, तावो भेदो उ जीव चरणे वा । रूवसरिसं न सीलं, जिम्हं व मणे अयस एवं ॥ अक्कुट्टतालिए वा, पक्खापक्खि कलहम्मि गणभेदो ।" वत्तकलहो वि न पढइ, अवच्छलत्ते य दंसणे हाणी । जह कोहाइविवड्डी, तह हाणी होइ चरणे वि ।। अकसायं खु चरित्तं, कसायसहितो न संजओ होइ । साहूण पदोसेण य, संसारं सो विवड्ढेइ ॥ (बृभा २७०८ - २७१२) कलह या कषाय के कारण छह दोष उत्पन्न होते हैं१. ताप (पश्चात्ताप), २. भेद, ३. अपयश, ४. ज्ञान-दर्शन-चारित्र की हानि, ५. साधुप्रद्वेष, ६. संसारवृद्धि । १. ताप - इसके दो प्रकार हैं- प्रशस्त और अप्रशस्त । अधिक बोलने वाला कलहकारी सोचता है- धिक्कार है मुझे। मैंने उस साधु पर अनेक असत्य आरोप लगाए, उस पर आक्रोश किया - यह प्रशस्त ताप है। मौन रहने वाला सोचता है - कलह Jain Education International आगम विषय कोश - २ के समय मैं कुछ नहीं कह पाया। मैं मंदभाग्य हूं, विस्मरणशील हूं। उस समय मैं उसके जाति आदि के मर्म को प्रगट नहीं कर सका। यह अप्रशस्त ताप है। २. भेद- कलह होने के बाद पश्चात्ताप से तप्त चित्त से वह जीवन और चारित्र का भेद कर सकता है। आक्रोश-ताड़नाजन्य पक्षापक्षी (पक्षपात) के कारण गण में भेद हो सकता है। ३. अयश - लोग कहने लगते हैं- इसका बाह्यरूप प्रशांत प्रतीत होता है, परन्तु इसका मनः प्रणिधान उसके अनुरूप नहीं है। कोई कहता है- क्या यह मानूं कि इसने कोई लज्जनीय कार्य किया है, जिससे इसका मुख म्लान हो रहा है । ४. ज्ञान - दर्शन - चारित्र की हानि - कलह करने के बाद वह कषायकलुषित चित्त वाला मुनि पढ नहीं सकता। उसके ज्ञान की हानि होती है। साधर्मिक वात्सल्य विराधित होने के कारण दर्शन की परिहानि तथा कषायों की वृद्धि के कारण चारित्र की हानि होती है। ५. साधुप्रद्वेष - कलहकारी के मन में साधुओं के प्रति प्रद्वेष होता है। वह किसी के साथ मैत्रीभाव नहीं रख सकता । ६. संसारवर्द्धन - चारित्र कषायरहित ही होता है। जो कषायसहित है, वह संयत ही नहीं है - यह निश्चयनय का अभिप्राय है । कलहकारी दीर्घसंसारी होता है। वह निरंतर कर्मबंध करता रहता है। १४. वैर के प्रकार, कलह-जन्य वैर की भव-परंपरा नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य भाववेरे य । तं महिस-वसभ-वग्घा -सीहा नरएस सिज्झणया ॥ (बृभा २७६२) कलह के कारण ही वैर उत्पन्न होता है और जब वह वैर बद्धमूल हो जाता है तब उसकी परम्परा जन्म-जन्मान्तरों तक चलती है। वैर के छह निक्षेप हैं- नाम वैर, स्थापना वैर, द्रव्य वैर, क्षेत्र वैर, काल वैर और भाव वैर । ० द्रव्य वैर - धन आदि के निमित्त से उत्पन्न वैर । ० क्षेत्र वैर - अमुक क्षेत्र में या अमुक क्षेत्र के कारण उत्पन्न वैर । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy