________________
आगम विषय कोश-२
२७
अनशन
कायोत्सर्गलीन था। उसके शरीर पर लगे शोणित की गंध के है। (किसी भी कर्म की स्थिति अनंत काल नहीं है, कारण चींटियों ने उसके शरीर को चलनी बना डाला, फिर अतः असंख्येय का कथन है।) भी वह धीर पुरुष ध्यान से किंचित् भी विचलित नहीं हुआ। ० अनशनत्रयी : उत्तरोत्तर महानिर्जरा ० कालासवैश्य आदि-कालासवैश्यपुत्र मोद्गलपर्वत के शिखर
एवं पादोवगम, निप्पडिकम्मं तु वणितं सुत्ते। पर ध्यानलीन था। एक प्रत्यनीक देव शृगाल का रूप बनाकर तित्थगर-गणहरेहि य, साहहि य सेवियमुदारं ॥ उसे खाने लगा। वह समभाव से सहन करता रहा।
यः पादपोपगमनस्येङ्गिनीमरणस्य च करणे असमर्थः कुछ प्रत्यनीक व्यक्तियों ने प्रायोपगमन अनशन में स भक्तप्रत्याख्यानं करोति। ततोऽपि यः समर्थतरः स्थित अतिशय व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह मुनि को उठाकर बांसों पादपोपगमनं च कर्तुमसमर्थः स इंगिनीमरणं ततोऽपि के झुरमुट पर बिठा दिया। बांस फूटने लगे। उन बढ़ते हुए समर्थतरः पादपोपगम, एतानि च मरणानि कुर्वन्तो यथा बांसों ने मुनि को बींध डाला और ऊपर आकाश में उछाल यथोपरितनमरणकारिणस्तथा तथा महानिर्जरा। दिया। उसने सब कुछ समभाव से सहन किया।
__(व्यभा ४४२९ वृ) ० अवन्ति सुकुमाल-वह शरीरक्रिया और शरीरपरिकर्म का
भत्तपरिण्णा इंगिणि पाउवगमणं च-एते कमेणपूर्णतः परित्याग कर प्रायोपगमन अनशन में स्थित था। वहां
जहण्णमज्झिमुक्कोसा। (निभा ३८११ की चू) एक शृगाली अपनी संतान के साथ आकर तीन रात तक उसके शरीर का भक्षण करती रही। धीर मुनि ने उस कष्ट
___ व्यवहार सूत्र में प्रायोपगमन अनशन की निष्प्रतिकर्मता को समभाव से सहन किया।
निरूपित है। तीर्थंकरों, गणधरों और अनेक साधुओं ने इस उदार
अनशन की आराधना की। १७. द्विविध आराधना : अंतक्रिया या देवोपपत्ति
___ अनशन का स्वीकार अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार एगंतनिज्जरा से, दुविधा आराधणा धुवा तस्स।
किया जाता है । जो मुनि प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करने अंतकिरियं व साधू, करेन्ज देवोववत्तिं वा॥
में असमर्थ होता है, वह इंगिनीमरण स्वीकार करता है और (व्यभा ४४०५)
जो इंगिनीमरण स्वीकार करने में असमर्थ होता है, वह प्रायोपगमन अनशन में अविचल स्थित मुनि के एकांत भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार करता है। निर्जरा होती है। वह निश्चित रूप से सिद्धिगमनयोग्य या जो भक्तप्रत्याख्यानकरण से भी अधिक समर्थ है और कल्पोपपत्ति-योग्य आराधना करता है, जिससे वह या तो ___ प्रायोपगमन में असमर्थ है, वह इंगिनीमरण अनशन स्वीकार अंतक्रिया-भवपरंपरा का अंत कर सिद्ध होता है या देवलोक में करता है, उससे भी अधिक समर्थ मुनि प्रायोपगमन अनशन उत्पन्न होता है।
स्वीकार करता है। १८. अनशन और कर्मक्षय
भक्तप्रत्याख्यान जघन्य, इंगिनीमरण मध्यम और कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। प्रायोपगमन उत्कृष्ट अनशन है। इनमें उत्तरोत्तर महान् निर्जरा अन्नतरगम्मि जोगे, विसेसतो उत्तिमट्ठम्मि॥ होती है।
(व्यभा ४३४१) १९. अनशन के लिए गीतार्थ संविग्न की खोज किसी भी संयमयोग में उपयुक्त मुनि प्रतिक्षण नासेति अगीयत्थो, चउरंगं सव्वलोगसारंग।" असंख्येय भवों में उपार्जित कर्मों को क्षीण करता है । जो "माणुस्सं धम्मसुती, सद्धा तव संजमे विरियं॥ अनशन में उपयुक्त है, वह विशेष रूप से कर्मक्षय करता पंच व छस्सत्तसते, अधवा एत्तो वि सातिरेगतरे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org