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अनशन
आगम विषय कोश-२
एक्कं व दो व तिन्नि व, उक्कोसं बारसेव वासाणि। शाला, लोहकारशाला, कुम्भकारशाला, रंजक (छींपा) शाला, गीतत्थपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो।। रजकशाला, चर्मकारशाला, लंखशाला, पटहवादकशाला, आहाकम्मिय
पाणग"। राजपथ, गुप्तिगृह, पाठशाला, सुराविक्रय-शाला, काष्ठक्रकचसेज्जा संथारो वि य, उवधी वि य होति अविसुद्धो॥ शाला, फूल-फल-उदक-स्थान, आराम, खुला स्थान, नागगृह, "संविग
यक्षगृह आदि-इन स्थानों में अथवा इनके समीप रहने से (व्यभा ४२५२, ४२५३, ४२६१, ४२६२, ४२६७, ४२६९) शब्दश्रवण, रूपदर्शन आदि के कारण राग-द्वेष का प्रसंग अगीतार्थ या असंविग्न के पास अनशन नहीं करना
आता है, ध्यान में विघ्न होता है अतः ये अप्रशस्त हैं।
कल्पाध्ययन के दूसरे-तीसरे उद्देशक में तथा विधिसूत्र चाहिए। क्योंकि अपीतार्थ की सन्निधि सर्वलोक में सारभूत
आचारचूला के शय्याध्ययन में साधु के रहने आदि के लिए जो चतुरंग-मनुष्यत्व, धर्मश्रवण, श्रद्धा और तप-संयम में वीर्य
उपाश्रय निषिद्ध हैं, उन सबका वर्जन करना चाहिए। उनके इन चारों अंगों को नष्ट कर देती है।
अतिरिक्त स्थानों की गवेषणा करनी चाहिए। ___असंविग्न के पास अनशन करने से वह आधाकर्म दोष
जहां समाधिभंग हो वैसे उद्यान, वृक्षमूल, अनुनज्ञात से दूषित पानक लाकर देता है, अशुद्ध शय्या-संस्तारक और
शून्यगृह, हरिताकुल मार्ग वाले स्थान आदि में भक्तप्रत्याख्याता उपधि प्रस्तुत करता है। अत: अनशन की सफल आराधना के
न रहे। लिए अश्रांतभाव से क्षेत्रत: और कालतः गीतार्थ-संविग्न की
० प्रशस्त स्थान-जहां इन्द्रियचंचलता और मानसिक उद्वेग मार्गणा करनी चाहिए।
उत्पन्न न हो (इन्द्रिय प्रतिसंचार न हो-इष्ट-अनिष्ट शब्द, क्षेत्रतः-पांच सौ, छह सौ, सात सौ या इससे भी अधिक
रूप, गंध आदि का अभाव हो, मन को संक्षुब्ध करने वाले योजन तक मार्गणा।
विषय न हों), ऐसी चतुःशाल, त्रिशाल, द्विशाल आदि में कालतः-एक, दो या तीन वर्ष यावत् उत्कृष्टत: बारह वर्षों
अनुज्ञापूर्वक दो वसतियां ग्रहण कर उनमें रहे। तक मार्गणा।
० दो वसति क्यों? वृषभ संस्थान २०. अनशन के लिए अप्रशस्त-प्रशस्त स्थान
सव्वसाहूण एक्का वसही न कप्पइ "तेसु समुद्दिसंतेसु गंधव्व-नट्टजड्डऽस्स, चक्कजंतऽग्गिकम्म पुरुसे य। अन्नपाणगंधेणं झाणवाघाओ हवेज्जा, तम्हा दो वसहीओ णंतिक्क-रयग-देवड, डोंबे पाडहिग रायपधे॥ घेत्तव्वाओr"सन्निवेसस्स कम्मि दिसाभागे वसही पसत्था? चारगकोट्टाकलाल, करकयपष्फ-फल-दगसमीवम्मि। सन्निवेसवसभस्स मुहसिरककुहपोट्टा पसत्था, सेसेसु आरामे अहवियडे नागघरे पुव्वभणिए य॥ अप्पसत्था।
(निभा ३८१५ की चू) पढमबितिएसु कप्पे, उद्देसेसुं उवस्सया जे तु। विहिसुत्ते य निसिद्धा, तव्विवरीते गवेसेज्जा॥
सब साधु एक वसति (या कक्ष) में न रहें. क्योंकि उज्जाणरुक्खमूले, सुण्णघरऽणिसट्ठहरियमग्गे य।
वहां उनके आहार करने पर अन्न-पान की गंध से अनशनस्थ एवंविधे न ठायति, होज्ज समाधीय वाघातो॥
साधु के ध्यान में व्याघात हो सकता है, अत: दो वसति का
ग्रहण अपेक्षित है। इंदियपडिसंचारो, मणसंखोभकरणं जहिं नत्थि।
सन्निवेश के किस दिशाभाग में वसति प्रशस्त होती चाउस्सालादि दुवे, अणुण्णवेऊण ठायंति॥
___ है? वृषभ संस्थान से संस्थित सन्निवेश के मुख, शिर, ककुद ___ (व्यभा ४३१२-४३१६)
(बैल के कंधे का उभरा हुआ भाग) और उदर-स्थानीय अप्रशस्त स्थान-गन्धर्वशाला, नाट्यशाला, हस्ति- भाग में वसति का होना प्रशस्त है। शाला, अश्वशाला, चक्रशाला (तिलपीडनशाला), इक्षुयंत्र- * वृषभ संस्थान
द्र श्रीआको १संस्थान
सराहा
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