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________________ चारित्र २१० आगम विषय कोश-२ शंका, कांक्षा आदि दर्शन के शबल हैं। काल. विनय कुछ असंविग्न साधु अपनी अल्पबुद्धि के कारण आदि ज्ञानाचारों का अतिक्रमण ज्ञान के शबल हैं। विहरमाण संविग्नजनों की अवहेलना करते हैं। वे मानते हैं १५. छेदाह प्रायश्चित्त तक शबल कि वर्तमान में केवली, मनः पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी, अवराधम्मि पतणुए, जेण उ मूलं न वच्चए साहू। चौदहपूर्वी, दसपूर्वी और नवपूर्वी नहीं हैं। इन धीरपुरुषों के सबलेइ तं चरित्तं, तम्हा सबलत्तणं बेति॥ अभाव में कौन किसके भावों को जानता है ? कौन चारित्र की शुद्धि या अशुद्धि को जानता है ? (दशानि १३) जो बाह्यकरण से युक्त हैं, वे आभ्यंतरकरण से भी जिससे मूल प्रायश्चित्त प्राप्त नहीं होता, वैसा छोटा युक्त हैं-यह एकांतत: नहीं कहा जा सकता। इनमें विपर्यास अपराध चारित्र को चितकबरा बना देता है, अतः उसको भी देखा जाता है। जैसे उदायिमारक और प्रसन्नचन्द्र। शबल की संज्ञा दी गई है। बाह्यकरण से अविशुद्ध भरत चक्रवर्ती आभ्यंतरकरण १६. चारित्र बिना निर्वाण नहीं से विशुद्ध ही थे। अचरित्ताय तित्थस्स, निव्वाणम्मि न गच्छति।... सब भवसिद्धिक जीवों के लिए एकमात्र चारित्र ही (व्यभा ४२१६) शरण है। वह सैंकड़ों दुःखों से मुक्ति दिलाने वाला है। 'तुम राग-द्वेष के वशवर्ती होकर सदोष चारित्र वालों चारित्रविहीन तीर्थ में साधु का निर्वाण नहीं होता। को ऐसा मत कहो कि चारित्र नहीं है। जहां रहते हो. उसी १७. चारित्र की विशुद्धि आज भी है आश्रय को मत जलाओ।' धीरपुरिसपरिहाणी, नाऊणं मंदधम्मिया केई। सम्प्रति चारित्र नहीं है-ऐसा कहने वाले साधु हीलंति विहरमाणं, संविग्गजणं अबुद्धीतो॥ विद्यमान चरणगुणों का नाश करते हैं। वे प्रवचन का परिभव केवल-मणाहि-चाद्दस-दस-णवपुव्वााहावराहए एण्हा करते हैं, असत्य बोलते हैं। इससे चारित्रधर्म का अबहुमान सुद्धमसुद्धं चरणं, को जाणति कस्स भावं च॥ होता है। साधुओं से प्रद्वेष होता है, इससे संसार (जन्मबाहिरकरणेण समं, अभितरयं करेंति अमुणेता। मरण) की वृद्धि होती है। णेगंता तं च भवे, विवज्जओ दिस्सते जेणं॥ तीर्थंकर के समय में भी त्रिविध-क्षायिक, औपसव्वेसि एगचरणं, सरणं मोयावगं दुहसयाणं। शमिक और क्षायोपशमिक चारित्र होता था। क्षायोपशमिक मा रागदोसवसगा, अप्पणो सरणं पलीवेह ॥ चारित्र से ही औपशमिक या क्षायिक चारित्र प्राप्त होता, अन्य संतगुणणासणा खलु, परपरिवाओ य होति अलियं च। से नहीं। धम्मे य अबहुमाणो, साहुपदोसे य संसारो॥ क्षायोपशमिक भाव में चारित्र के विविध स्तर होते खय उवसममीसंपिय, जिणकालेवितिविहंभवेचरणं। हैं मिश्र चारित्र वालों के दोष भी लगते हैं। जैसे क्षार आदि मिस्सातो च्चिय पावति, खयउवसमं च णण्णत्तो॥ से वस्त्रों की शद्धि होती है, विरेचन और औषधप्रयोग से अइयारो वि हु चरणे, ठितस्स मिस्से ण दोसु इतरेसु। रोगी स्वस्थ होता है, वैसे ही प्रायश्चित्त से चारित्रविशोधि वत्थातुरदिटुंता, पच्छित्तेणं स तु विसुज्झो॥ होती है। औपशमिकचारित्री और क्षायिकचारित्री अतिचारसेवन सुद्धमसुद्धं चरणं, जहा उ जाणंति ओहिणाणादी। नहीं करते। आगारेहि मणं पि व, जाणंति तहेतरा भावं॥ जैसे अवधिज्ञानी आदि प्रत्यक्षज्ञानी दूसरों के शुद्ध या ण य एगंतेण बाहिरकरणजुत्तो अभ्यंतर-करण- अशुद्ध चारित्र को यथार्थ रूप में जानते हैं, जैसे बाह्य आकारों युक्तो भवति।"जहा उदायिमारयस्स पसण्णचंदस्स य। से मनोगत भाव जाने जाते हैं, वैसे ही परोक्षज्ञानी मुनि बाहिर अविसुद्धो विभरहो विसुद्धो चेवा आलोचना को सुनकर, आचरणों को देखकर दूसरों के चारित्र (निभा ५४२३-५४२५, ५४२८-५४३१, ५४३३ चू) की शुद्धाशुद्धि को जान लेते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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