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________________ परिहारतप ३३६ आगम विषय कोश-२ आचार्य पारिहारिक के माहात्म्य को जानते हुए कहते हैं- १६. पारिहारिक : मार्ग में रुकने के कारण इसके अतिरिक्त अन्य कोई साधु इतना समर्थ नहीं है, जो वादी उभतो गेलण्णे वा, वास नदी सुत्त अत्थ पुच्छा वा। का निग्रह कर सके या अन्य प्रयोजन सिद्ध कर सके। अथवा विज्जानिमित्तगहणं, करेति आगाढपण्णे वा॥ वह पारिहारिक स्वयं कह देता है-उस वादी को मैंने शास्त्रार्थ (व्यभा ७०६) में अनेक बार पराजित किया है। यदि गरुवर्य अनज्ञा दें तो मैं पारिहारिक प्रयोजनस्थान (गन्तव्य) तक पहुंचने से पूर्व जाऊं। छह कारणों से कहीं भी रुक सकता हैयह परिहारतप वहन कर रहा है-इस बात का स्मरण कर १. वह मार्ग में स्वयं ग्लान हो जाये या अन्य किसी ग्लान साधु को गुरु कहते हैं-आर्य! वहां से प्रत्यागमन न हो, तब तक के लिए। देखे या उसके बारे में सने तो परिचर्या के लिए। तुम अपनी परिहारतपोभूमि को छोड़ दो। यदि वह कहे-गुरुदेव! २. वर्षा या नदी का पूर आ जाये। मैं प्रायश्चित्त वहन करता हुआ भी उस प्रयोजन को साध सकता ३. कोई सूत्रार्थ की प्रतिपृच्छा करे तो प्रतिपृच्छा दान के लिए। हं, तो प्रत्युत्तर में गुरु कहते हैं-तुम जहां जा रहे हो, वहां जो । ४. किसी के पास परवादिमुखबंधकरणी या मायूरी, नाकुली आदि आचार्य हैं, वे जैसा कहें, वैसा करना। विद्याएं हों या कोई विशिष्ट निमित्तज्ञ मिल जाये, उससे निमित्त १५. परिहारतप का निक्षेप-झोष आदि सीखने के लिए। निक्खिव न निक्खिवामी, पंथे च्चिय देसमेव वोज्झामि। ५. कई साधु आगाढयोगप्रविष्ट हों और उनको वाचना देने वाले असहू पुण निक्खिवते, झोसंति मुएज्ज तवसेसं॥ आचार्य कालगत हो गए हों, तो उन्हें वाचना देने के लिए। एमेव य सव्वं पि ह. दरद्धाणम्मि तं भवे नियमा। ६. अपान्तराल में कोई ऐसा ग्रंथ उपलब्ध हो जाये, जिसका एमेव सव्वदेसे, वाहणझोसा पडिनियत्ते॥ अध्येता गाढ प्रज्ञावान् बन जाता है, तो 'मैं प्रज्ञ (महाप्रज्ञ) हो (व्यभा ७६५, ७६६) जाऊं' इस बुभूषा से वहां ठहर जाता है। गमनप्रयोजन उपस्थित होने पर गुरु कहते हैं-अधिकृत १७. वादी पारिहारिक को अल्प प्रायश्चित्त तप को अभी छोड़ दो। वह कहता है-मैं समर्थ हूं, मार्ग में ही ."बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, से य आहच्च उस अवशिष्ट देशभाग को वहन कर लूंगा। असमर्थ पारिहारिक अइक्कमेज्जा, तं च थेरा जाणेज्जा अप्पणो आगमेणं अण्णेसिं उसे छोड़ देता है। अथवा आचार्य उसे शेष तप से मुक्त कर वा अंतिए सोच्चा, तओ पच्छा तस्स अहालहुसए नाम ववहारे देते हैं। पट्टवियव्वे सिया। (क ५/४०) इसी प्रकार जिसने अभी मात्र प्रारंभ किया है, सारा ही तप परिहारिओ य गच्छे, आसण्णे गच्छ वाइणा कज्जं। शेष है, वह समर्थ पारिहारिक कहता है-मार्ग लंबा है, अतः मैं आगमणं तहिं गमणं, कारण पडिसेवणा वाए। मार्ग में ही सारा वहन कर लूंगा। (सर्वजघन्य परिहारतप मासिक पाया व दंता व सिया उ धोया, वा बुद्धिहेतुं व पणीयभत्तं। होता है। आनंदपुर से मथुरा तक जिसका गन्तव्य है, वह मार्ग में तं वातिगं वा मइ-सत्तहेउं, सभाजयट्ठा सिचयं व सुक्कं॥ ही उसे पूरा कर लेता है।) अथवा प्रसादबुद्धि से गुरु उसे सम्पूर्ण नव-दस-चउदस-ओही-मणनाणी केवली य आगमिउं' तप से ही मुक्त कर देते हैं। उब्भावियं पवयणं, थोवं ते तेण मा पुणो कासि। गुरु यदि मुक्त न करें तो प्रयोजन सम्पन्न कर वह पुनः मतिर्नाम-""""ऊहात्मको ज्ञानविशेषः, सत्त्वं""आन्तर निजी क्षेत्र में आकर, देशभाग का निक्षेप किया था तो देशभाग का और सर्वभाग का निक्षेप किया था तो सर्वभाग का वहन करता है। उत्साहविशेषः। (बृभा ६०३४, ६०३५, ६०३७, ६०४६ वृ) अथवा अहो! इसने दुष्कर कार्य किया है-इस रूप में परितुष्ट परिहारकल्पस्थित मुनि आचार्य के वैयावृत्त्य के लिए बाहर आचार्य उसे देश या सर्व तप से मुक्त कर देते हैं। जाता है। वह उस कार्यावधि में कदाचित नियमों का अतिक्रमण www.jainelibrary.org | Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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