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________________ स्थविरकल्प ६३४ आगम विषय कोश-२ आहार करने के बाद वे स्वच्छ पानक से आचमन करती आगंतक साधु के नैषेधिकी शब्द को सुनकर वास्तव्य साधु हैं। प्रवर्तिनी के पात्र को छोटी साध्वी निर्लेप करती है, शेष सब मुख में प्रक्षिप्त ग्रास को तो निगलें किंतु हाथ में लिए ग्रास को अपने-अपने पात्र को चाटकर साफ करती हैं। सबके आहार करने पुनः पात्र में निक्षिप्त कर तत्काल खडे हो जाएं। उन्हें आहार के बाद मंडलीस्थविरा आहार करती है। करवाकर आवश्यकतानुसार पुन: भिक्षाटन करें। इस आहारविधि को देखकर लोग सोचते हैं यदि प्राघूर्णक तपप्रायश्चित्तापन्न है तो वह ओघ आलोचना . ० श्रमणियों का निभृतवास है-शांतसहवास है। कर मण्डली में आहार करे, तत्पश्चात् विभाग आलोचना कर ० शौचप्रयत्न-ये स्वच्छता का ध्यान रखती हैं। प्रायश्चित्त स्वीकार करे। ० अलुब्धता-ये नाना प्रकार के अभिग्रह करती हैं। वास्तव्य मुनि आगंतुकों का तीन दिन आतिथ्य करें। सबका ० इन्द्रियदम-ये इन्द्रियों का निग्रह करती हैं। संभव न हो तो बाल-वृद्ध का तो अवश्य करें। • विनय-अभ्युत्थान आदि द्वारा बड़ों का सम्मान करती हैं। ११. साधु की साध्वी-वसति में प्रवेश विधि इस दृश्य को देखकर लोग कहते हैं-सत्य (वचन और अद्धाणनिग्गयाई, अग्गुज्जाणे भवे पवेसो य।.... कर्म की अविसंवादिता), तप, शील, परस्पर संविभागपूर्वक आहार, उव्वाया वेला वा दूरुट्ठियमाइणो व परगामे। ब्रह्मचर्य और शुचिसमाचरण-ये गुण जैसे इन साध्वियों में हैं, वैसे इय थेरऽज्जासिज्जं, विसंतऽणाबाहपुच्छा य॥ अन्यत्र दिखाई नहीं देते। यः स्थविरो गीतार्थः स आत्मद्वितीयः संयतीप्रतिश्रये यद्यपि ये बाहर से मलिन हैं, तथापि शील से सुगंधित हैं, प्रेष्यते। स च तत्र गत्वा बहिरेकपाश्र्वे स्थित्वा नैषेधिकीं तप, उपशम आदि गुणों से विशुद्ध हैं। जिनके कुल में ये उत्पन्न करोति। यदि ताभिः श्रुतं ततः सुन्दरम्, अथ न श्रुतं ततः हुई हैं, वे कुल धन्य हैं। कितना अच्छा हो यदि हमारी बहन शय्यातरीणां निवेद्यते, ताभिरार्यिकाणां निवेदिते यदि सर्वा बेटियां भी ऐसी-अपना कुल उजालने वाली हों। अप्यार्यिका वृन्देन निर्गच्छन्ति ततश्चत्वारो गुरवः । ततः १०. प्राघूर्णक. का प्रवेशकाल और आतिथ्य प्रवर्तिनी..."वयपरिणताभ्यामार्यिकाभ्यां सहिता निर्गत्य भत्तट्ठिय आवासग, सोधेत्तुमति त्ति पच्छ अवरण्हे। 'अनुजानीत' इति भणति।। ततश्च ताभि: कृतिकर्मणि अब्भुट्ठाणं दंडादियाण, गहणेगवयणेणं॥ विहिते स गीतार्थसाधुरधोमुखमवलोकमान आचार्यवचनेन खुड्डग विगिट्ठ गामे, उण्हं अवरण्ह तेण तु पगे वि। पक्खित्तं मोत्तूणं, निक्खिव उक्खित्त मोहेणं॥ तासामनाबाध-पृच्छां करोति॥ (बृभा २२०७, २२०८ वृ) तिण्णि दिणे पाहुण्णं सव्वेसिं असति बालवुड्डाणं।" __दूसरे क्षेत्र में जाते हुए संयत के मार्ग में संयती का क्षेत्र आ (व्यभा २९१४, २९१५, २९१९) जाए, तब वह ग्राम के बाहर उद्यान में ठहर जाए। गीतार्थ मुनि यात्रा सम्पन्न कर गुरुकुल में (या सांभोजिकों के पास) पहले समीपवर्ती ग्राम में भिक्षा के लिए जाए। यदि वह परिश्रान्त लौटने वाले प्राघूर्णक साधु गांव के बाहर भिक्षाटन कर आहार है या ग्राम दूर है, वहां पहुंचने तक भिक्षा का समय अतिक्रांत हो करें, तत्पश्चात् आवश्यक (उच्चार आदि) शोधि कर अपराह्न सकता है या वह ग्राम उजड़ गया है तब स्थविर गीतार्थ मुनि के कालवेला में प्रवेश करें। वास्तव्य साधु उनके नैषेधिकी (निस्सही) साथ संयती के उपाश्रय में जाए। वहां एक पार्श्व में स्थित होकर शब्द को सुनकर तत्काल अभ्यत्थान करें और उन्हें कहें-आपका 'नषेधिकी' शब्द का उच्चारण करें। यदि साध्वी उसे सन ले तो दण्ड, आपके पात्र मुझे दें-इस प्रकार एक बार कहने पर वे दें तो ठीक अन्यथा शय्यातरी को सूचित करे, शय्यातरी आर्यिका को ग्रहण करें (आग्रह करने से पात्र आदि टूट सकते हैं)। निवेदन करे, तब सब साध्वियां समूहरूप से बाहर आयें तो चतुर्गुरु गांव छोटा हो, भिक्षा सुलभ न हो, दूरी अधिक हो अथवा प्रायश्चित्त आता है। प्रवर्तिनी वयप्राप्त साध्वी के साथ बाहर मध्याह्न में धूप तेज हो, तो प्रातः काल ही प्रवेश करें। आकर 'आज्ञा दें' ऐसा कहे। तत्पश्चात् दोनों साधु साध्वी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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