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उपधि
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आगम विषय कोश-२
२५. वस्त्र विक्रिया निषेध १६. साध्वी प्रायोग्य वस्त्र का ग्रहण-परीक्षण
० गणधरनिश्रा में वस्त्र ग्रहण १७. वस्त्र ग्रहण किससे? १८. वस्त्र-उपयोगविधि १९. वस्त्र सीवन की अविधि-विधि २०. सूई का स्वरूप और उपयोग २१. सूई आदि सौंपने की विधि २२. चिलिमिलिका के प्रकार और प्रमाण
० चिलिमिलिका का प्रयोजन २३. वस्त्र-अपहरणकाल में उपेक्षा भाव
० अचेल सचेल की अवमानना न करे २४. वस्त्र-पात्र एषणा हेतु क्षेत्रगमन-सीमा २५. तीन से अधिक थिग्गल-निषेध २६. अतिरिक्त पात्र-वस्त्र धारण की अवधि २७. पात्र के प्रकार
० पात्र-परिधि का मापन २८. पात्रैषणा की चार प्रतिमाएं २९. धारणीय पात्र ग्राह्य ३०. सलक्षण-अलक्षण पात्र
० पात्र का संस्थान और लाभ-हानि ३१. अविधिबंध पात्र का निषेध ३२. घटीमात्रक का स्वरूप और उपयोग ३३. आर्यरक्षित द्वारा मात्रक अनुज्ञा ०जिनकल्पी के एक पात्र, स्थविर के मात्रक भी
० वर्षाकाल में तीन मात्रक ३४. मूल्यवान् पात्रग्रहण का निषेध
० गृहिपात्र के प्रकार
० गृहिपात्र में खाने का निषेध ३५. पात्र प्राप्ति के स्थान |३६. लेप के प्रकार : तज्जात-युक्ति-द्विचक्र ___० लेप के प्रकार : उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्य ३७. पात्रलेप क्यों? सती का दृष्टांत ३८. बिना आज्ञा पात्रग्रहण से प्रायश्चित्त ३९. वस्त्र-पात्र-लेप-कल्पिक ४०. प्रतिपूर्ण क्रमणिका के प्रकार ४१. क्रमणिका का निषेध क्यों?
४२. क्रमणिका पहनने के हेतु : चक्षुदौर्बल्य आदि ४३. रजोहरण के प्रकार __० औणिक रजोहरण उपयोगी ४४. रजोहरण और पादलेखनिका का प्रयोजन १ उपधि के प्रकार ओहे उवग्गहम्मि य, दुविधो उवधी समासतो होति।..
(निभा १३८७) उपधि के दो प्रकार हैं१. ओघ उपधि-प्रतिदिन काम में आने वाले उपकरण। २. उपग्रह उपधि-प्रयोजन विशेष से उपयोग में आने वाले
उपकरण। २. परिहारविशुद्धिक आदि के औधिक उपधि
जिणाणं परिहारविसुद्धियाणं अहालंदियाणं पडिमापडिवण्णगाणं, एतेसिं ओहितो चेव उवही।"परिहारविसुद्धिगादी णियमा पडिग्गहधारी पाउरणं।धितिसंघयणअभिग्गहविसेसओ भयणिज्जं। (निभा ५९०० की चू)
जिनकल्पिक, परिहारविशुद्धिक, यथालंदिक और प्रतिमाप्रतिपन्नक के औधिक उपधि ही होती है। वे नियमतः पात्रधारी और सप्रावरण होते हैं। धृति, संहनन, अभिग्रह आदि के भेद से उनमें नानात्व होता है।
(स्थविरकल्पी साधुओं के चौदह प्रकार की और साध्वियों के पचीस प्रकार की औधिक उपधि होती है। औपग्रहिक उपधि अनेक प्रकार की होती है।
द्र श्रीआको १ उपधि) ३. गणचिंतक के पास सर्व उपधि । भिण्णं गणणाजुत्तं, पमाण इंगाल-धूमपरिसुद्धं । उवहिं धारए भिक्खू, जो गणचिंतं न चिंतेइ॥ गणचिंतगस्स एत्तो, उक्कोसो मज्झिमो जहण्णो य। सव्वो वि होइ उवही, उवग्गहकरो महाणस्स॥
(निभा ५८१०, ५८११) जो गणचिन्ता नहीं करता है, सामान्य भिक्षु है, वह गणनाप्रमाण और प्रमाणप्रमाण से युक्त भिन्न (खंडित या छिन्न) उपधि धारण करे तथा राग-द्वेष से मक्त होकर उसका परिभोग करे।
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