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________________ कृतिकर्म १८८ आगम विषय कोश-२ जो दीर्घकालिक तपअनुष्ठान से भी क्लांत नहीं होता, वह कृतयोगी है। छट्टट्ठमादिएहिं, कयकरणा.........। (व्यभा १६२) जो षष्ठभक्त, अष्ट मभक्त आदि तप द्वारा अपने आपको भावित कर लेता है, वह कृतकरण है। गीतार्थ आदि कृतकरण होते हैं। द्र प्रायश्चित्त "कतकरण जीय बहुसो, वेयावच्चा कया कुसला॥ (व्यभा २३८८) जो साध्वी अनेक बार वैयावृत्त्य कर चुकी, वह कृत- करणा है । ऐसी कुशल साध्वी श्रमणसेवा में नियुक्त की जा सकती है। द्र वैयावृत्त्य कृतिकर्म-वंदनाकाल में की जाने वाली क्रियाविधि। | १. कृतिकर्म के प्रकार २. अभ्युत्थान से निष्पन्न गुण __ * सूत्र-अर्थ मण्डली में अभ्युत्थान विधि द्रवाचना ३. परस्पर कृतिकर्म का क्रम ४. रत्नाधिक वन्दनाह : व्यवहारनयसम्मत ___ * ज्येष्ठकृतिकर्म अवस्थित कल्प द्रकल्पस्थिति ५. केवली द्वारा छद्मस्थ की वन्दना : केवली की पहचान ___ * ज्ञानहेतु स्थविर भी कृतिकर्म करे द्रवाचना ६. स्थविरकृत वन्दना से प्रेरणा ७. वंदन कार्य और संघकार्य की इयत्ता ८. श्रेणिस्थित की वंदना के विकल्प * लिंगधारक भी श्रेणिबाह्य द्र श्रमण ९. निरंतर प्रतिसेवी और कृतिकर्म : दृष्टांत १०. कृतिकर्म के अनर्ह | ११. वन्दना के अवश्यकरणीय काल १. कृतिकर्म के प्रकार किइकम्मं पि य दुविहं, अब्भुट्ठाणं तहेव वंदणगं... (बृभा ४४१५) कृतिकर्म के दो प्रकार हैं-अभ्युत्थान और वन्दन। २. अभ्युत्थान से निष्पन्न गुण परपक्खे य सपक्खे, होइ अगम्मत्तणं च उट्ठाणे। सुयपूयणा थिरत्तं, पभावणा निज्जरा चेव॥ (बृभा ४४३९) अभ्युत्थान से पांच गुण निष्पन्न होते हैं१. स्वपक्ष और परपक्ष में अपराजेयता स्थापित होती है। २. गरु की पूजा से श्रत की पजा स्वयं हो जाती है। ३. शिष्यों की विनय-प्रतिपत्ति में स्थिरता आती है। ४. शासन की प्रभावना होती है। ५. निर्जरा होती है। ३. परस्पर कृतिकर्म का क्रम कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा अहाराइणियाए किइकम्मं करेत्तए। (क ३/२०) आयरिय-उवज्झाए, काऊणं सेसगाण कायव्वं ।" (बृभा ४४९६) निग्रंथ-निग्रंथी यथारानिक-बड़े-छोटे के क्रम से कृतिकर्म-वंदना करें। वे प्रतिक्रमण के पश्चात् पहले आचार्यउपाध्याय को फिर शेष साधुओं को वन्दना करें। ४. रत्नाधिक वन्दनार्ह : व्यवहारनयसम्मत पुव्वं चरित्तसेढीठियस्स, पच्छाठिएण कायव्वं । सो पुण तुल्लचरित्तो, हविज्ज ऊणो व अहिओ वा॥ निच्छयओ दुन्नेयं, को भावे कम्मि वट्टई समणो। ववहारओ य कीरइ, जो पुव्वठिओ चरित्तम्मि। (बभा ४५०५, ४५०६) जो पहले सामायिक या छेदोपस्थापनीय चारित्र को स्वीकार कर चारित्रवेणि में स्थित होते हैं, उनके बाद स्थित होने वाले उनका कृतिकर्म करते हैं। पूर्वस्थित साधु पश्चात् स्थित साधु से निश्चय नय की अपेक्षा से चारित्र में न्यून अथवा अधिक भी हो सकता है। निश्चयनय की दृष्टि से कौन श्रमण किस भाव में स्थित है, किसमें चारित्राध्यवसाय मन्द, मध्य या तीव्र हैयह दर्जेय है। व्यवहारनय की अपेक्षा जिसने चारित्र पहले ग्रहण किया, उसका कृतिकर्म करना चाहिए। ५. केवली द्वारा छद्मस्थकी वन्दना : केवली की पहचान ववहारो वि हु बलवं, जं छउमत्थं पि वंदई अरिहा। जा होड अणाभिन्नो, जाणंतो धम्मयं एयं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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