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आगम विषय कोश-२
अनशन
मुद्रा या स्थान से स्थित होता है, जीवनपर्यंत उसी मुद्रा में मुनि तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल-इन पांच अवस्थित रहता है।
तलाओं से अपने आपको तोलकर प्रायोपगमन स्वीकार (प्रायः का अर्थ है-मृत्यु । समाधिमरण के लिए करता है। (पांच तुलाएं द्र जिनकल्प) उपगमन करना अथवा उपवेशन करना प्रायोपगमन कहलाता जैसे कोश (म्यान) में निक्षिप्त तलवार भिन्न है, कोश है। व्याख्या साहित्य में इसके संस्कृत रूप पादोपगमन भिन्न है, वैसे ही मेरा 'शरीर भिन्न है, आत्मा भिन्न है'और पादपोपगमन भी मिलते हैं। -भ २/४९ का भाष्य) वह इस अन्यत्व भावना (भेदज्ञान) से भावित होता है, ११. प्रायोपगमन : निर्दारि-अनिर्हारि
इसलिए कष्टों से प्रभावित नहीं होता। ......"पादोवगम, नीहारी वा अनीहारी॥ १४. उपसर्गों में अविचलन : देवता द्वारा संहरण
निर्झरिमं नाम यद ग्रामादीनामन्तः प्रतिपद्यते, ततो पुव्वभवियवेरेणं, देवो साहरति कोवि पाताले। हि मृतस्य ततस्तस्य शरीरं निष्काशनीयं भवति।अनिर्हारिमं
मा सो चरमसरीरो, न वेदणं किंचि पाविहिति॥ नाम यद् ग्रामादीनां बहिः प्रतिपद्यते।
उप्पन्ने उवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य। (व्यभा ४३९४ वृ) सव्वे पराइणित्ता, पाओवगता पविहरंति॥ प्रायोपगमन अनशन के दो प्रकार हैं
दिव्वमणुया उदुग तिग, अस्से पक्खेवगं सिया कुज्जा। १. निर्दारिम-ग्राम के उपाश्रय में किया जाने वाला अनशन, वोसट्ठचत्तदेहो, अधाउयं कोइ पालेग्जा॥ जहां से मृतक के शरीर का निर्हरण-निष्काशन किया जाता अणुलोमा पडिलोमा, दुगं तु उभयसहिता तिगं होति।
अधवा चित्तमचित्तं, दुगं गिं मीसगसमग्गं॥ २. अनिर्हारिम-उपाश्रय या गांव से बाहर गिरिकन्दरा आदि पुढवि-दग-अगणि-मारुय-वणस्सति-तसेसुकोविसाहरति। एकांत निर्जन स्थान में किया जाने वाला अनशन ।
वोसट्ठचत्तदेहो, अधाउयं कोवि पालेज्जा।। १२. प्रायोपगमन : संहनन और विच्छेद
मज्जणगंधं पुप्फोवयारपरिचारणं सिया कुज्जा। पढमम्मि य संघयणे, वटुंता सेलकुड्डसामाणा।
वोसट्ठचत्तदेहो, अधाउयं कोवि पालेज्जा॥ तेसिं पि य वुच्छेदो चोद्दसपुव्वीण वोच्छेदे।
पुव्वभवियपेम्मेणं, देवो देवकुरु-उत्तरकुरासु। __ (व्यभा ४४०१)
कोई तु साहरेज्जा, सव्वसुहा जत्थ अणुभावा।।
पुव्वभवियपेम्मेणं, देवो साहरति नागभवणम्मि। इस अनशन को स्वीकार करने वाला मुनि वज्रऋषभ
जहियं इट्ठा कंता, सव्वसुहा होति अणुभावा ।। नाराच संहनन वाला होता है। उसकी धृति शैलकुड्य (वज्र
(व्यभा ४३९७, ४३९८, ४४०२-४४०४, ४४०६-४४०८) भित्ति) के समान होती है। चौदह पूर्वो के विच्छेद के साथ ही प्रथम संहनन और प्रायोपगमन अनशन का विच्छेद हो गया।
अनशनी को देखकर कोई देव पूर्वभव-जन्य वैर के
कारण यह सोचता है कि यह चरमशरीरी है-यहां इसे कोई १३. प्रायोपगमन : पांच तुला, अन्यत्व भावना।
कष्ट नहीं होगा। वह अपने वैर के पोषण के लिए उसे कष्ट "पंच तुलेऊण य सो, पाओवगमं परिणतो य॥
देने पाताल में ले जाता है। मनि उस उपसर्ग को सहन करता
(निभा ३९४०) है। जह नाम असी कोसे, अण्णो कोसे असी विखलु अण्णे। वह देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी उत्पन्न सब इय मे अन्नो देहो, अन्ने जीवो त्ति मण्णंति॥ उपसर्गों को पराजित कर प्रायोपगमन अनशन की आराधना
(व्यभा ४३९९) करता है।
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