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आगम विषय कोश- २
लोक में जम्बूद्वीप, धातकीखंड, पुष्कर आदि असंख्य द्वीप हैं। लवण, कालोदधि आदि असंख्य समुद्र हैं।
(जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र पुष्कर द्वीप, वरुण समुद्र घृत, इक्षु .....कुण्डलवर, रुचकवर आभरण, वस्त्र आदि असंख्य द्वीप समुद्र हैं, जिनमें अंतिम है स्वयंभूरमण समुद्र । - अनु १८५ जम्बूद्वीप सब द्वीपसमुद्रों के मध्य में है। वह सबसे छोटा है । वह तेल के पूडे, रथ के चक्के, कमल की कर्णिका तथा प्रतिपूर्ण चन्द्र के संस्थान जैसा वृत्त है। वह एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है। उसकी परिधि तीन लाख, सोलह हजार, दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष, साढ़े तेरह अंगुल कुछ विशेषाधिक है । वह परिधि (जगती) आठ योजन
ऊंची, नीचे बारह योजन, मध्य में आठ योजन और ऊपर चार योजन चौड़ी तथा गोपुच्छसंस्थानसंस्थित है । - जम्बू १ / ७, ८
जम्बूद्वीप में दस क्षेत्र हैं, जैसे- भरत, ऐरवत, हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, देवकुरु, उत्तरकुरु, पूर्वविदेह और अपरविदेह । - अनु ५५६)
४. कर्मभूमियां : भरत - ऐरवत - विदेह
कर्मभूमीषु भरतपञ्चकैरावतपञ्चकविदेहपञ्चकलक्षणासु'''''। (बृभा १४१५ की वृ)
पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह - ये पन्द्रह कर्मभूमियां हैं।
* कर्मभूमि- अकर्मभूमि- अन्तद्वप
द्र श्रीआको १ मनुष्य
o भरत क्षेत्र : छह खंड
चक्रवर्त्तिप्रभृतिको षट्खण्डभरतादेः क्षेत्रस्य प्रभुत्वमनुभवति । (बृभा ६६९ की वृ)
भरतक्षेत्र के छह खंड (पांच म्लेच्छ खंड और एक आर्यखंड) हैं, जिन पर चक्रवर्ती आदि का आधिपत्य होता है।
(चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, दक्षिण लवणसमुद्र के उत्तर में, जम्बूद्वीप द्वीप में भरतक्षेत्र है, जो उत्तर में पर्यंकसंस्थानसंस्थित, दक्षिण में धनुपृष्ठसंस्थित, तीन ओर से लवण समुद्र से स्पृष्ट तथा गंगा-सिंधु महानदियों और वैताढ्य पर्वत से छह भागों में विभक्त है । - जम्बू १ / १८
जम्बूद्वीप में मंदर पर्वत के उत्तर-दक्षिण में दो क्षेत्र हैं
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लोक
भरत दक्षिण में, ऐरवत उत्तर में वे दोनों क्षेत्र प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं। नगर, नदी आदि की दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है। कालचक्र के परिवर्तन की दृष्टि से उनमें नानात्व नहीं है। वे लम्बाई, चौड़ाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते । -स्था २ / २६८ )
महाविदेह आदि में अवस्थित काल
नोअवसर्पिण्युत्सर्पिणीरूपे अवस्थितकाले चत्वारः प्रतिभागाः "सुषमसुषमाप्रतिभागः सुषमाप्रतिभागः सुषमदुःषमाप्रतिभागः दुःषमसुषमाप्रतिभागश्चेति । तत्राद्यो देवकुरूत्तरकुरुषु, द्वितीय हरिवर्षरम्यकवर्षयोः, तृतीयो हैमवतैरण्यवतयोः, चतुर्थस्तु महाविदेहेषु । (बृभा १४१७ की वृ) जहां अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी रूप कालविभाग नहीं है, अवस्थित काल है, वैसे चार प्रतिभाग हैं और चार क्षेत्र हैं१. सुषमसुषमा प्रतिभाग – देवकुरु और उत्तरकुरु में । २. सुषमा प्रतिभाग - हरिवर्ष और रम्यकवर्ष में । ३. सुषमदुःषमा प्रतिभाग - हैमवत और ऐरण्यवत में । ४. दुःषमसुषमा प्रतिभाग - महाविदेह में ।
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( भरत क्षेत्र में कालखण्ड दो भागों में विभक्त हैअवसर्पिणीकाल और उत्सर्पिणीकाल । प्रत्येक के छह अर (विभाग) हैं। वर्तमान में अवसर्पिणीकाल का दुःषमा नाम का पांचवां अर चल रहा है, जिसका कालमान इक्कीस हजार वर्ष है। इस अर के पश्चिम भाग में गणधर्म, पाषण्डधर्म, राजधर्म और अग्नि- ये चारों विच्छिन्न हो जाएंगे। फिर छठा अर प्रारंभ होगा, जो इक्कीस हजार वर्ष तक चलेगा।
दुःषमदुःषमा काल नामक छठे अर में होने वाली पर्यावरणीय परिस्थिति का जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में रोमांचक विस्तृत विवेचन है, जिसका सारांश इस प्रकार है
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• प्रलयंकार वायु चलेगी।
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दिशाएं धूमिल हो जाएंगी। • चन्द्रमा से अधिक ठंड निकलेगी । ० सूर्य अधिक तपेगा । ० वर्षा वैसी होगी, जिसका पानी व्याधि पैदा करने वाला होगा एवं पीने योग्य नहीं होगा।
• वर्षा तूफानी हवा के साथ इतनी तेज बरसेगी, जिससे ग्रामनगर, पशु-पक्षी तथा वनस्पति-जगत का विध्वंस हो जाएगा।
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