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प्रस्तुति
उतने ही चतुर्लघु प्राप्त होते हैं (बृभा ३८३१) और आज्ञा-भंग आदि दोष लगते हैं। आचार्य भिक्षु ने इस विचारधारा का निरसन करते हुए लिखा है
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साधु लेखनी, मषि, मषिपात्र, पट्टी, कम्बिका आदि लेख सामग्री के उपकरणों को रख सकता है। पूर्व आचार्यों द्वारा लिखित पांना (पत्र) हमारी प्रतीति के स्थान हैं। पांचवें आरे में जिनशासन चलेगा, शुद्ध श्रद्धा और आचार रहेगा- इसमें शंका हो तो उन लिखित पत्रों को देखकर ही शंका निवारण किया जा सकता है। पुस्तक के बिना शुद्ध श्रद्धा और आचार का परिज्ञान और उसका अनुपालन कैसे संभव हो सकता है ? उन्होंने नंदी, दशा आदि आगमों की साक्षियां भी दी हैं । (द्र भिक्षुग्रंथ रत्नाकर खण्ड १, रत्न : ११ जिनाज्ञा री चौपाई ५ / ३४-४८)
जैन साहित्य के अनुसार लिपि का प्रारंभ प्रागैतिहासिक है। समवाओ ७२/७में वर्णित बहत्तर कलाओं में लेखकला का प्रथम स्थान है। समवाओ (१८/५) और प्रज्ञापना (१/९८) में ब्राह्मी लिपि के अठारह प्रकार के लेखविधान प्रज्ञप्त हैं । ऋषभ ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपिविधान और सुन्दरी को संख्यागणित सिखाई थी (द्र श्रीआको १ तीर्थंकर)। श्रुतज्ञानी आचार्य अपने शिष्यों को सरलता से समझाने के लिए मेरुपर्वत, द्वीप - समुद्र, देवकुरु - उत्तरकुरु, देवलोक आदि के चित्रों का आलेखन करते हैं (द्र आवचू १ पृ. ३५, ३६; नंदीचू पृ. ८२ ) । पत्र, वल्क, काष्ठ, दंत, लोह, ताम्र, रजत आदि-ये लिपि के आधार हैं। (समवृ प. ७८)
• तित्थोगाली में आगमविच्छेद का उल्लेख प्राप्त है । (द्र श्रुतज्ञान) उसके अनुसार आचारांग का विच्छेद वीरनिर्वाण १३०० (ई. ७७३) में हुआ। इतना सुनिश्चित है कि शीलांकसूरि (वि. ८ वीं शती) को आचारांग का जो अंश प्राप्त था, उसका विच्छेद नहीं हुआ है । अतः तित्थोगाली का विवरण प्रामाणिक नहीं लगता। (देखें आचारांग भाष्य की भूमिका, पृ. १८)
कृतज्ञता
के स्वर
अर्हत्-वाणी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए परमपूज्य आचार्य श्री तुलसी ने सन् १९६५ में लिखा था— 'मेरी यह धारणा रही है कि जिनवाणी की आराधना जिनशासन की सबसे बड़ी प्रभावना है। हमारा यह प्रयास शताब्दियों तक चार तीर्थ के लिए उपयोगी बना रहेगा । हमें इस क्षेत्र में कार्य करने का जो अवसर मिला है, इसके लिए हम सदा जिनवाणी के कृतज्ञ रहेंगे। .... आगम- सम्पादन के कार्य में मानसिक समाधि बहुत रहती है । एक अनूठी आत्मानुभूति और आनन्दानुभूति होती है। उस समय एकाग्रता भी अनिर्वचनीय होती है ।'
हमें जिनोपम-जिनवाणीरसज्ञ आगममर्मज्ञ वाचनाप्रमुख श्रीतुलसी- महाप्रज्ञ की सिद्ध सन्निधि में बैठकर अगम आगमसिन्धु की अनेक अमृतबूंदों का रसास्वादन करने के अनेक दुर्लभ अवसर सुलभ हुए हैं- यह हमारा अहोभाग्य है । आगमकार्य में सहभागिता से हमारे सौभाग्य में चार चांद लग गये।
परानुकम्पी पूज्यप्रवर पुरुषयुग ने हमें आगमविषयकोश के महत्त्वपूर्ण कार्य में नियोजित कर प्रसन्नता के पावन प्रयाग में प्रतिष्ठित कर दिया है। आत्ममंदिर की परिक्रमा करने वाली उनकी अध्यात्ममयी श्रुतसन्निधि में श्रवण, बोधि और अभिगम के द्वारा अनेक श्रुतरत्न समुपलब्ध हुए हैं - अनेक अदृष्ट, अश्रुत और अविज्ञात आर्यपद दृष्ट, श्रुत और सुविज्ञात हुए हैं। जिनकी निष्कारण करुणा ने, अवितथ अनुग्रह - आशीर्वाद ने हमें अर्थसम्पदा से सम्पन्न बनाया है, जिन्होंने विद्या और आचार की अनुशिष्टि दी है, दे रहे हैं। अनुत्तर योगक्षेमपद की प्राप्ति कराई है, करा रहे हैं, कराते रहेंगे- ऐसे परम प्रणम्य परमाराध्ययुग के श्रीचरणों में पुनः पुनः श्रद्धाभिषिक्त प्रणाम ।
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