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________________ आगम विषय कोश-२ ५४९ शय्या संपधूमिए वा। तहप्पगारे उवस्सए"॥पुरिसंतरकडे "णिसीहियं भिक्षु उपाश्रय को यदि ऐसा जाने कि वह बहुत से श्रमण, वा चेतेज्जा ।।"खुड्डियाओ दुवारियाओ महल्लियाओ कुज्जा, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और याचकों के उद्देश्य से प्राण, भूत, जीव महल्लियाओ दुवारियाओ खुड्डियाओ कुज्जा, समाओ सिज्जाओ और सत्त्वों का समारंभ कर, उन्हें पीड़ित कर बनाया गया है, विसमाओ कुज्जा, विसमाओ सिज्जाओ समाओ कुज्जा, उनके उद्देश्य सै क्रीत, प्रामित्य (उच्छिन्नक), आछिन्न, अनिसृष्ट पवायाओ सिज्जाओ णिवायाओ कुज्जा, णिवायाओ सिज्जाओ और अभिहत प्राप्त किया है, वैसा उपाश्रय अपुरुषांतरकृत हो, तो पवायाओ कुज्जा, अंतो वा बहिं वा उवस्सयस्स हरियाणि वहां स्थान, शय्या और निषद्या न करे। वह पुरुषांतरकृत छिंदिय-छिंदिय, दालिय-दालिय संथारगं संथारेज्जा, बहिया (अन्यार्थकृत), आत्मीकृत (स्वीकृत), परिभुक्त और आसेवित वा णिण्णक्खु तहप्पगारे उवस्सए ॥ पुरिसंतरकडे, है, तो संयमपूर्वक उसमें कायोत्सर्ग आदि करे। अत्तहिए"तओ संजयामेव ठाणं वा“चेतेज्जा॥ ....... सव्वाणुवाइ केई, केइ तक्कालुवट्ठाणा ॥ अत्र उत्तरगुणा अभिहिताः, एतद्दोषदुष्टापि पुरुषान्तर- हेमंतकडा गिम्हे, गिम्हकडा सिसिर-वासे कप्पंति। स्वीकृतादिका कल्पते, मूलगुणदुष्टा तु पुरुषान्तरस्वीकृता- अत्तट्ठित-परिभुत्ता, तद्दिवसं केइ ण तु केई॥ ऽपि न कल्पते। . (आचूला २/१०-१३ वृ) (निभा २०५८, २०५९) गृहस्थ ने भिक्षु के उद्देश्य से उपाश्रय की भित्तियों को काष्ठ शीतकाल के योग्य निर्मित घर ग्रीष्मकाल के अयोग्य होता आदि से संस्कृत किया हो, कम्बा से बांधा हो, आच्छादित और है, अतः मुनि उस घर में ग्रीष्मऋतु में रह सकता है तथा लिप्त किया हो, घृष्ट-मृष्ट-सम्मृष्ट और संप्रधूमति किया हो, ग्रीष्मऋत योग्य निर्मित घर में शीत या वर्षाऋतु में रह सकता है। वैसा उपाश्रय यदि पुरुषांतरकृत हो तो साधु उसमें रहे। जो घर उत्तरगुणों से दूषित है किन्तु गृहस्थ द्वारा परिभुक्त गृहस्थ साधु की प्रतिज्ञा से उपाश्रय के छोटे द्वार को बड़ा है, उसमें तत्काल भी रहा जा सकता है। और बड़े द्वार को छोटा करे, सम शय्या को विषम और विषम को एक मत यह है कि वह घर कभी कल्पनीय नहीं हो सम करे, प्रवात (हवादार) शय्या को निर्वात और निर्यात को सकता-यह कथन मूलगुणों से दूषित गृहनिर्माण के संदर्भ में है। प्रवात करे, उपाश्रय के भीतर या बाहर की हरितकाय को छिन्न ५. बादर-सूक्ष्म सप्राभृतिक शय्या का निषेध विच्छिन्न कर, दीर्ण-विदीर्ण कर संस्तारक बिछाए, हरित आदि जे भिक्खू सपाहुडियं सेज्जं अणुपविसति...॥ वस्तुओं को बाहर निकाले, वैसा उपाश्रय पुरुषांतरकृत, अधिकृत, ____ जम्मि वसहीए ठियाण कम्मपाहुडं भवति सा सपाहुपरिभुक्त और आसेवित हो, तो उसका प्रतिलेखन-प्रमार्जन कर उसमें संयमपूर्वक स्थान, शय्या और निषद्या करे। डिया छावणलेवणादिकरणमित्यर्थः। (नि ५/६२ चू) उल्लिखित दोष बस्ती के उत्तरकरण परिकर्म से संबंधित जो भिक्षु प्राभृतिकायुक्त शय्या में प्रवेश करता है, वह हैं, अतः इनसे दूषित बस्ती पुरुषांतरकृत होने पर ग्राह्य है। प्रायश्चित्त का भागी है। जिस वसति में रहने पर कर्मप्राभृत होता मूलकरण से दूषित बस्ती पुरुषांतरकृत होने पर भी ग्राह्य नहीं है। है, वह सप्राभृतिका शय्या है। प्राभृतिका का अर्थ है-शय्या का से भिक्खू""उवस्सयं जाणेज्जा-बहवे समण-माहण- छादन, लेपन आदि रूप परिकर्म करना। अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स पाणाई... समारब्भ पाहुडिया वि य दुविहा, बायर सुहुमा य होइ नायव्वा। समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसटुं अभिहडं आहट्ट एक्केक्का वि य एत्तो, पंचविहा होइ नायव्वा॥ चेएइ। तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे"णो ठाणं वा॥ विद्धंसण छायण लेवणे य, भूमीकम्मे पडुच्च पाहुडिया। .''पुरिसंतरकडे, अत्तट्ठिए, परिभुत्ते, आसेविए"तओ संजया- ओसक्कण अहिसक्कण, देसे सव्वे य नायव्वा ॥ मेव ठाणं वा"चेतेज्जा॥ (आचूला २/८, ९) संमज्जण आवरिसण, उवलेवण सुहुम दीवए चेव।.... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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