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________________ शय्या ५५० आगम विषय कोश-२ .... 'पडुच्च'.... त्रिशालं गृहं कर्तुकामः साधून् प्रतीत्य ७. वृषभक्षेत्र चतुःशालं करोति, आत्मीय वा गृह साधूना दत्त्वा आत्माथमपर जहियं व तिन्नि गच्छा, पण्णरसुभया जणा परिवसंति। कारयतीत्यादि। अवष्वष्कणं नाम विवक्षितविध्वंसनादि एयं वसभक्खेत्तं, कालस्य ह्रासकरणम्, अर्वाक्करणमित्यर्थः ।अभिष्वष्कणंतस्यैव विवक्षितकालस्य संवर्द्धनम्, 'सुहुमे' त्ति सूक्ष्माणि ____ उत्कृष्टं वृषभक्षेत्रं यत्र द्वात्रिंशत्साधुसहस्राणि संस्तरन्ति। यथा ऋषभस्वामिकाले ऋषभशासनस्य (ऋषभसेनस्य) समयभाषया पुष्पाण्युच्यन्ते।"पुष्पाणां प्रकररचनेत्यर्थः। गणधरस्य।... आचार्य आत्मतृतीयो गणावच्छेदीत्वात्म___ (बृभा १६७४, १६७५, १६८१ वृ) चतुर्थः सर्वसंख्यया सप्त, एवं प्रमाणा यत्र च ये गच्छाः संस्तरन्ति प्राभृतिका के दो प्रकार हैं-बादर और सूक्ष्म । इन दोनों के एतत् जघन्यं वर्षाकालप्रायोग्यं वृषभक्षेत्रम्। (व्यभा ३९५२ वृ) पांच-पांच प्रकार हैं जहां ऋतुबद्धकाल में आचार्य और गणावच्छेदक के तीन बादर प्राभृतिका के पांच प्रकार हैं गच्छ (पन्द्रह मुनि) सुविधा से रह सकते हों तथा वर्षाकाल में १. विध्वंसन-वसति को तोड़कर नया रूप देना। आचार्य आदि तीन तथा गणावच्छेदक आदि चार-इस प्रकार कुल २. छादन-दर्भ आदि से आच्छादित करना। सात साधुओं के लिए जो पर्याप्त हो, वह जघन्य वृषभक्षेत्र है। ३. लेपन-भित्ति आदि को गोबर आदि से लीपना। जो बत्तीस हजार साधुओं के लिए पर्याप्त हो, वह उत्कृष्ट ४. भूमिकर्म-सम-विषम भूमि का परिकर्म करना। वषभक्षेत्र है। ऋषभ भगवान के गणधर ऋषभसेन के बत्तीस हजार ५. प्रतीत्यकरण-साधु के निमित्त त्रिशाल से चतुःशाल बनाना, अपना घर साधु को देकर अपने लिए दूसरा घर बनवाना। इन पांचों साधु थे। के भी दो-दो प्रकार हैं-१. अवष्वष्कण-विवक्षित काल से क्षेत्र अपर्याप्त : कौन रहे? कौन न रहे? पहले वसति का विध्वंस आदि करना। २. अभिष्वष्कण-निर्माण ते पण दोण्णी वग्गा, गणि-आयरियाण होज्ज दोण्हं त। या ध्वंस के विवक्षित काल को बढ़ा देना। इन दोनों के भी देशतः गणिणं व होज्ज दोण्हं, आयरियाणं व दोण्हं त॥ और सर्वतः भेद से दो-दो प्रकार हैं। अच्छंति संथरे । सव्वे, गणी णीति असंथरे। सूक्ष्म प्राभृतिका के पांच प्रकार हैं जत्थ तल्ला भवे दो वी, तत्थिमा होति मग्गणा॥ १. सम्मार्जन-प्रमार्जनी आदि से प्रमार्जन करना। निप्फण्ण तरुण सेहे,......। २. आवर्षण-पानी आदि के छींटे देना। एमेव संजतीणं, नवरं वुड्डीसु नाणत्तं ॥ ३. उपलेपन-गोबर या मत्तिका से भूमि का लेपन करना। (व्यभा ३९१६-३९१८) ४. सूक्ष्म-पुष्यों की प्रकररचना। अनेक गच्छों के अनेक मुनि एक ही क्षेत्र में आ गए हों और ५. दीपक-दीपक प्रज्वलित करना। क्षेत्र पर्याप्त न हो तो वहां कौन रहे, इसका क्रम इस प्रकार हैइन्हें साधु के निमित्त पहले या पीछे करना तथा आंशिक दो वर्ग हैं-एक वृषभ का, एक आचार्य का। यदि वह क्षेत्र या पूर्ण रूप में करना सूक्ष्म प्राभृतिका है। पर्याप्त हो तो दोनों वर्ग वहां रहें। यदि क्षेत्र अपर्याप्त हो तो वृषभ ६. उपाश्रय के प्रकार का वर्ग वहां से विहार करे, आचार्य का वर्ग रहे। पष्फावकिण्ण मंडलियावलिय उवस्सया भवे तिविधा. दोनों वर्ग तुल्य हों-दोनों गणी या दोनों आचार्य हों तो (व्यभा १८०६) जिसका शिष्यपरिवार निष्पन्न हो वह विहार करे, अनिष्पन्न उपाश्रय तीन प्रकार के होते हैं-१. पुष्पावकीर्णक, २. मण्ड- वाला वहां रहे। दोनों का परिवार निष्पन्न हो, तो तरुण शिष्य लिकाबद्ध और ३. आवलिकास्थित। परिवार वाला विहार करे, वृद्ध वाला वहां रहे। तरुण और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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